दूसरा प्रवचन-घर--मंदिर
योग के संबंध में चार सूत्रों की बात मैंने कल की। आज पांचवें सूत्र पर आपसे बात करना चाहूंगा।योग का पांचवां सूत्र हैः जो अणु में है, वह विराट में भी है। जो क्षुद्र में है, वह विराट में भी है। जो सूक्ष्म से सूक्ष्म में है, वह बड़े से बड़े में भी है। जो बूंद में है, वही सागर में है।
इस सूत्र को सदा से योग ने घोषणा की थी, लेकिन विज्ञान ने अभी-अभी इसको भी समर्थन दिया है। सोचा भी नहीं था कि अणु के भीतर इतनी ऊर्जा, इतनी शक्ति मिल सकेगी, अत्यल्प के भीतर इतना छिपा होगा, ना-कुछ के भीतर सब कुछ का विस्फोट हो सकेगा। अणु के विभाजन ने योग की इस अंतर्दृष्टि को वैज्ञानिक सिद्ध कर दिया है। परमाणु तो दिखाई भी नहीं पड़ता आंख से। लेकिन न दिखाई पड़ने वाले परमाणु में, अदृश्य में विराट शक्ति का संग्रह है। वह विस्फोट हो सकता है। व्यक्ति के भीतर आत्मा का अणु तो दिखाई नहीं पड़ता है, लेकिन उसमें विराट ऊर्जा छिपी है और परमात्मा का विस्फोट हो सकता है। योग की घोषणा कि क्षुद्रतम में विराटतम मौजूद है, कण-कण में परमात्मा मौजूद है, यही अर्थ रखती है।
योग ने क्यों जोर दिया होगा इस सूत्र पर?
एक तो इसलिए कि वह सत्य है। और दूसरा इसलिए कि एक बार यह स्मरण आ जाए कि अणु में परम छिपा है, तो व्यक्ति को अपनी आत्म-शक्ति का स्मरण करने का मार्ग बन जाता है। व्यक्ति को क्षुद्र अनुभव करने का कोई भी कारण नहीं है। क्षुद्रतम को भी क्षुद्र अनुभव करने का कोई कारण नहीं है।
इससे उलटी बात भी ख्याल में ले लेनी जरूरी है कि विराटतम को भी अहंकार से भर जाने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि जो उसके पास है वह क्षुद्रतम के पास भी है। सागर भी अगर अहंकार से भर जाए तो पागल है, क्योंकि जो सागर के पास है, एक छोटी सी बूंद के पास भी है। क्षुद्रतम को हीन होने का कोई कारण नहीं है, विराटतम को अहंकार से भर जाने का कोई कारण नहीं है। न हीनता का कोई अर्थ है, न श्रेष्ठता का कोई अर्थ है। ये दोनों ही व्यर्थ हैं, इस सूत्र से ऐसा निष्पन्न होता है।
आदमी दो ही बातों के चक्कर में जीवन को नष्ट करता है। या तो वह हीनता के बोध से पीड़ित होता है, इनफिरिआरिटी के बोध से पीड़ित होता है। अभी तो एडलर ने इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स को सभी की जबानों पर पहुंचा दिया--हीनग्रंथि। या तो व्यक्ति हीनग्रंथि से पीड़ित होता है और निरंतर अनुभव करता है कि मैं कुछ भी नहीं हूं, ना-कुछ। जैसा कि उमर खय्याम की प्रसिद्ध पंक्ति को आपने सुना होगा--डस्ट अनटू डस्ट! मिट्टी मिट्टी में लौट जाती है, और कुछ भी नहीं है।
हीनता अगर व्यक्ति को पकड़ ले, तो बहुत गहरे और बहुत भीतर रुग्णता और डिजीज पकड़ लेती है। कोई अगर ऐसा जीने लगे कि जैसे कुछ भी नहीं है, तो जीना ही मुश्किल हो जाता है, वह जीते जी मर जाता है। बहुत कम ही लोग हैं जो मरने तक जिंदा रहते हों, अधिक लोग पहले ही मर जाते हैं। अक्सर तो ऐसा होता है कि सत्तर साल में दफनाए जाते हैं, मरना तो बहुत पहले हो गया होता है। मरने और दफनाने के समय में तीस-तीस, चालीस-चालीस, पचास-पचास साल का फासला होता है।
जिस दिन लगता है, हीनता पकड़ लेती है भीतर... और अगर इस चारों तरफ फैले हुए विराट को देखेंगे तो हीनता पकड़ ही लेगी। क्या है स्थिति मनुष्य की? कुछ भी नहीं। सागर की लहरों पर एक तिनका मालूम होता है। न कोई दिशा है, न कोई शक्ति है। अगर ऐसी हीनता मन को पकड़ ले, तो जीते जी जीवन उदास और मृत हो जाता है, राख हो जाता है। अंगारा बुझा-बुझा हो जाता है। और अगर भीतर अपना ही जीवन बुझ जाए, बुझा-बुझा हो जाए, अपने ही दीये की ज्योति बुझ जाए, तो फिर सूर्यों के प्रकाश का भी क्या करिएगा? होगा! लेकिन उससे कोई अर्थ नहीं रह जाता।
व्यक्ति के भीतर विराट है, इसका स्मरण जरूरी है। व्यक्ति के भीतर अनंत है, इसका स्मरण जरूरी है। व्यक्ति के भीतर परमात्मा है, इसका स्मरण जरूरी है। ताकि व्यक्ति हीन न हो जाए।
और मजे की बात है कि हीनता को मिटाने के लिए व्यक्ति श्रेष्ठता की कल्पनाओं में पड़ जाता है--सुपीरिआरिटी कांप्लेक्स! वह जो हीनता की भावना है, उसे दबाने के उपाय में लग जाते हैं। लगती है भीतर हीनता तो आदमी धन कमाने लगता है, कि धन कमा कर दुनिया को बता दे और खुद भी समझ ले कि नहीं, कुछ भी नहीं, बहुत कुछ हूं। हीनता की ग्रंथि दौड़ाती है और आदमी सिंहासनों पर चढ़ने लगता है, ताकि सिंहासनों पर खड़े होकर घोषणा कर दे कि कौन कहता है कि मैं कुछ भी नहीं हूं? मैं कुछ हूं! हीनता ही श्रेष्ठता की दौड़ बन जाती है। इसलिए जितने लोग श्रेष्ठ होने की पागल दौड़ में होते हैं, भीतर हीनता की ग्रंथि से पीड़ित होते हैं।
एडलर ने तो बहुत अदभुत बातें कही हैं। और उसकी बातें अर्थपूर्ण हैं। उसने कहा है कि अक्सर जो लोग दौड़ में प्रथम आते हैं, वे वे ही होते हैं जो बचपन में लंगड़ाते हैं। और जो लोग संगीत में बहुत कुशल हो जाते हैं, वे वे ही होते हैं जो बचपन में जरा कम सुनते हैं। और जो लोग राष्ट्रपति बन जाते हैं और प्रधानमंत्री हो जाते हैं, अक्सर वे ही लोग हैं, जिनको स्कूल की बेंचों पर पीछे बैठना पड़ता है। वह जो चोट लगती है हीनता की, वे सिद्ध करने निकल पड़ते हैं लोग दुनिया में कि हम कुछ हैं--दिखा देंगे कि हम कुछ हैं!
इसलिए राजनीतिज्ञ अगर हीनता से पीड़ित होता है तो आश्चर्य नहीं। भीतर एक कीड़ा लगा हुआ है कि मैं कुछ भी नहीं हूं। और यह मन को दुखाता है, तकलीफ में डाल देता है, दौड़ाता है।
लेनिन अगर कुर्सी पर बैठता था तो उसके पैर जमीन तक नहीं पहुंचते थे। उसके ऊपर का शरीर का हिस्सा बड़ा था और पैर छोटे थे। तो कुर्सी पर बैठे साधारण तो पैर जमीन नहीं छू पाते थे। हिटलर अत्यंत साधारण बुद्धि का व्यक्ति था और सेना में साधारण हैसियत का सिपाही था। और वहां से भी अनफिट होकर, अयोग्य होकर निकाला गया था। स्टैलिन एक चमार का लड़का था और लिंकन भी एक चमार का लड़का था।
अगर हम दुनिया के राजनीतिज्ञों के पीछे झांकें तो बहुत हैरानी होगी। इन्हें कहीं न कहीं बचपन में लगी हीनता की चोट इनकी दौड़ बन गई, ये विक्षिप्त होकर दौड़ पड़े। और जब तक ये किसी पहाड़ पर न चढ़ गए तब तक इन्होंने तृप्ति न पाई। पहाड़ पर चढ़ कर इन्होंने दुनिया को तो दिखा दिया कि हम कुछ हैं, लेकिन इससे स्वयं को कुछ भी नहीं दिखता। इसलिए सभी पद, सभी धन, सभी यश, पाने वाले को अंततः व्यर्थ मालूम पड़ते हैं। जब सिंहासनों पर खड़ा हो जाता है, तब वह पाता है कि खड़ा तो मैं ही हूं! सिंहासन भला मिल गया, लेकिन मैं तो मैं ही हूं! और वह हीनता का घुन खाए जाता है। इसलिए बड़े से बड़ा पद कोई तृप्ति नहीं लाता। बड़े से बड़े पद के आगे की दौड़ बनी रहती है।
और जब किसी ने सिकंदर को कहा था कि मैंने सुना है कि तुम सारी दुनिया जीत लोगे, लेकिन कभी यह भी सोचा है कि दुनिया जीत कर फिर क्या करोगे? क्योंकि एक ही दुनिया है! तो सुना है मैंने, सिकंदर बहुत उदास हो गया था और उसने कहा था, यह तो मैंने सोचा ही नहीं। ठीक कहते हैं, अगर पूरी दुनिया जीत लूंगा तो फिर क्या करूंगा? दूसरी दुनिया कहां है? क्योंकि पूरी दुनिया जीतने के बाद भी, वह सिकंदर के मन में जो हीनता पकड़ी होगी, उससे तो छुटकारा नहीं है। दूसरी दुनिया जीत कर भी छुटकारा नहीं है।
हीनता की ग्रंथि ही परवर्टेड होकर या इनवर्टेड होकर, शीर्षासन करके श्रेष्ठता की ग्रंथि बन जाती है।
इसलिए जो आदमी सड़क पर अकड़ा हुआ दिखाई पड़े, उस पर दया करना, वह हीनता से पीड़ित है। किसी को जरा धक्का लग जाए तो वह कहता है, जानते नहीं मैं कौन हूं? वह बेचारा हीनता से पीड़ित है। जो आदमी जरा-जरा सी बातों में क्रुद्ध हो रहा है, जो जरा-जरा सी बातों में अहंकार को चोट मान लेता है, रास्ते पर कोई हंसता हो तो जो समझता है कि उसे ही देख कर लोग हंस रहे हैं, जानना कि वह हीनता की ग्रंथि से पीड़ित है। यह पीड़ा उसे श्रेष्ठ होने की पागल दौड़ में डाल देती है। हीनता रोग है। श्रेष्ठता रोग को दबाने के लिए महारोग है। और कई बार दवाएं बीमारियों से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध होती हैं। दबाई गई बीमारियां और भी खतरनाक सिद्ध हो जाती हैं।
तो योग दूसरी बात भी स्मरण दिलाना चाहता है। वह यह कहता है कि परमात्मा भी अगर कहीं है तो वह भी इस अहंकार में न भर जाए कि मैं कुछ हूं, क्योंकि जो उसके पास है, वह एक मिट्टी के कण के पास भी है। इसलिए एक दिशा से मिट्टी के कण को भी हीनता न पकड़े और दूसरी दिशा से परमात्मा को भी श्रेष्ठता न पकड़ जाए। और जब कोई हीनता और श्रेष्ठता दोनों से मुक्त होता है, तभी समत्व को उपलब्ध होता है। योग की यह घोषणा मनुष्य के गहरे मानस रोग को मुक्त करने की चेष्टा है। लेकिन यह सिर्फ मानस रोग को ही दूर करने की चेष्टा नहीं है, सत्य भी यही है। सत्य भी यही है। न तो क्षुद्र को रोने का कारण है, न विराट को अकड़ जाने का कोई कारण है। यहां जो बहुत बड़ा दिखाई पड़ता है और जो बहुत छोटा दिखाई पड़ता है, इन सब के पास एक सी ही संपदा है।
जीसस एक छोटी सी कहानी कहे हैं।
एक दिन एक बहुत बड़े अमीर ने अपने बगीचे में सुबह कुछ मजदूर लगाए। फिर दोपहर कुछ मजदूर और अमीर के पास गए और उन्होंने कहा, हमें भी काम दो। उसने उन्हें भी बगीचे में लगा दिया। फिर दोपहर ढलने लगी तब कुछ मजदूर गए और उन्होंने कहा, हमें भी काम दो। उस अमीर ने उन्हें भी काम पर लगा दिया। फिर सांझ जब सूरज ढलता था और दिन अस्त होता था तब भी कुछ मजदूर गए और उस अमीर ने उन्हें भी काम पर लगा दिया।
फिर सूरज ढल गया और सबको दिन भर का मेहनताना बांटा गया, तो उसने सबको बराबर मेहनताना दे दिया। जो सुबह से आए थे, वे नाराजगी में खड़े हो गए। उन्होंने कहा, यह अन्याय है! हम सुबह से मजदूरी कर रहे हैं। कुछ लोग दोपहर आए, कुछ लोग दोपहर के बाद आए और कुछ तो अभी आए ही हैं जब हम काम ही खत्म कर चुके थे। इन सबको बराबर मजदूरी--अन्याय है! तो उस अमीर ने कहा कि तुम्हें जो दिया, वह तुम्हारे काम से कम तो नहीं? उन्होंने कहा कि नहीं, हमारे काम के लिए तो बहुत है। लेकिन इन्हें जो बहुत पीछे आए... । तो उस अमीर ने कहा, परमात्मा के राज्य में न कोई आगे है और न कोई पीछे है, सब बराबर हैं।
योग यही कह रहा है। वह यह कह रहा है कि मिट्टी के कण को दुखी होने का कोई कारण नहीं है और खुद परमात्मा को भी अहंकार से भरने का कोई कारण नहीं है। इस जीवन के खेल में न कोई आगे है, न कोई पीछे; न कोई बड़ा है, न कोई छोटा। योग क्षुद्र में विराट को दिखाता है और विराट में क्षुद्र को दिखाता है। बूंद में सागर को दिखाता है, सागर में बूंद को दिखाता है।
सत्य भी यही है, मैंने कहा। चूंकि विज्ञान अब बहुत अदभुत बातें कह रहा है।
रदरफोर्ड ने जब सबसे पहले अणु के परिवार को तोड़ा तो एक बहुत अदभुत अनुभव प्रकाश में आया। और वह यह था कि सबसे कम मात्रा वाला परमाणु भी ठीक ऐसे ही है जैसे महासूर्यों का सौर्य-जगत। एक परमाणु में--सबसे छोटे परमाणु में--एक तो केंद्र होता है और उस केंद्र के आस-पास चक्कर लगाने वाला इलेक्ट्रान होता है। वह इलेक्ट्रान उस केंद्र का चक्कर लगाता है। इस चक्कर की गति ठीक वैसे ही है जैसे सूरज के आस-पास पृथ्वी और मंगल और बृहस्पति और ग्रह चक्कर लगाते हैं। इस छोटे से परमाणु की गति वही है। और उस केंद्र पर जो ऊर्जा छिपी है, वह वैसी ही ऊर्जा है, जैसी सूर्य की ऊर्जा है। जैसे एक बहुत छोटे रूप में सौर परिवार इस परमाणु के भीतर बैठा है। फर्क सिर्फ मात्रा का है, गुण का कोई भी फर्क नहीं है।
तो विज्ञान ने कहना शुरू किया, जो योग का पुराना सूत्र है, हम सबको याद होगा कि अंड में ब्रह्मांड है। तो वैज्ञानिक रदरफोर्ड या उसके साथी कहते हैं, दि मैक्रोकाज्म इन दि माइक्रोकाज्म। वह जो विराट जगत है, वह बिल्कुल क्षुद्र माइक्रोकाज्म में मौजूद है। वह जो कॉस्मास है, वह जो ब्रह्मांड है, वह छोटे से अंड में--इतने छोटे कि उसे देखना भी संभव नहीं, सिर्फ अनुमान ही किया जाता है कि वह है, सिर्फ अनुमान से ही जाना जाता है कि वह घूम रहा है--इतने छोटे में, वह जो इतना विराट दिखाई पड़ रहा है, वह सब बहुत छोटी तस्वीर की तरह वहां मौजूद है, छोटा प्रिंट है।
यह ऐसा ही समझें, इसमें फर्क जो है वह मात्रा का है। यह ऐसा ही है कि जैसे हम कहें, दो और दो के बीच जो फर्क है, बीस और चालीस के बीच भी वही फर्क है। दो सौ और चार सौ के बीच भी वही फर्क है। दो करोड़ और चार करोड़ के बीच भी वही फर्क है। दो और चार के बीच जो फर्क है, जो अनुपात है, वही दो करोड़ और चार करोड़ के बीच भी वही अनुपात है--दि सेम प्रपोर्शन। सिर्फ विस्तृत हो गई है संख्या, लेकिन दोनों के बीच अनुपात एक ही है। ठीक ऐसे ही क्षुद्रतम का अनुपात वही है जो विराटतम का अनुपात है।
इस सत्य को समझ कर दो बातें स्मरण कर लेनी चाहिएः हीनता पागलपन है; श्रेष्ठता महा पागलपन है। इसे समझ कर ठीक से समझ लेना चाहिएः अपने को ना-कुछ समझना भी पागलपन है; अपने को बहुत कुछ समझना भी पागलपन है।
योग कहता है, तुम जो हो, वहां हीन और श्रेष्ठ होने का, दोनों का ही कोई उपाय नहीं है। तुम बस हो इतना ही जानो, उतना काफी है।
इसका दूसरा अर्थ यह है कि अपने को तौलो ही मत, डोंट कंपेअर। उसका कुछ अर्थ ही नहीं है। तुलना ही मत करो। तुलना का कोई अर्थ ही नहीं है। दो और चार, अगर बीस और चालीस से तुलना करें या दो करोड़ और चार करोड़ से तुलना करें, तो कोई फर्क नहीं पड़ता है। तुलना में कोई अंतर नहीं है, दोनों बराबर हैं। अनुपात बराबर है, प्रपोर्शन बराबर है, इसलिए तुलना व्यर्थ है।
इसलिए योग कहता है, बूंद की भी सागर से तुलना मत करो, क्योंकि बूंद छोटा सागर ही है। और सागर को भी अकड़ने का मौका मत दो, क्योंकि सागर फैली हुई बूंद ही है। सिर्फ फैलाव के फर्क हैं।
अभी वैज्ञानिकों का ख्याल है कि जल्दी ही, शायद इस सदी के पूरे होते-होते, हम चीजों के फैलाव को कम-ज्यादा कर सकेंगे।
मैंने सुना है, इक्कीसवीं सदी की एक कहानी मैंने सुनी है कि एक आदमी एक स्टेशन पर उतरा है। उसके पास कोई सामान दिखाई नहीं पड़ता, सिर्फ एक माचिस की डिब्बी भर उसके बेंच के पास रखी है। और नीचे उतर कर वह जोर से चिल्लाने लगा कि दस-बीस कुली हों तो आ जाएं! तो पास-पड़ोस के यात्रियों ने कहा, सामान तो आपके पास कोई दिखाई नहीं पड़ता, दस-बीस कुलियों का क्या करिएगा? तो उस आदमी ने कहा कि सामान मेरा उस माचिस की डिब्बी में रखा है। उन्होंने कहा, लेकिन माचिस की डिब्बी बीस-पच्चीस कुली उठाएंगे? आप ही उठा लें! लेकिन उस आदमी ने डिब्बी खोल कर बताई, तो उसमें एक कार उस डिब्बी के भीतर रखी है। पर उन्होंने कहा, यह बच्चों के खेलने की कार होगी, उठा लें। उस आदमी ने कहा, यह बच्चों के खेलने की कार नहीं है, सिर्फ कार को कनडेंस किया गया है, ताकि छोटी जगह में यात्रा करवाई जा सके। इसको जाकर हम फिर फुला लेंगे।
जैसे कि गुब्बारे को हम खोल कर रख लेते हैं तो सिकुड़ जाता है, भीतर हवा भर देते हैं तो फैल जाता है। अब वैज्ञानिक कहते हैं कि लोहे को भी और सिकोड़ा जा सकता है। जैसे कि रूई को सिकोड़ते हैं, ऐसे लोहे को भी सिकोड़ा जा सकता है, फिर फैलाया जा सकता है। क्योंकि प्रत्येक चीज परमाणुओं का जोड़ है और परमाणुओं के बीच में बहुत स्पेस है, उस स्पेस को छोटा-बड़ा किया जा सकता है। तो यह हो सकता है कि एक पूरी रेलगाड़ी एक छोटी सी माचिस की डिब्बी में लाई जा सके और फिर उसे वापस फैला कर बड़ा किया जा सके।
जिस दिन यह हो जाएगा--प्रयोग तो हो गया है, बड़े पैमाने पर उपयोग में आएगा वक्त पर--जिस दिन यह हो जाएगा, उस दिन बूंद को सागर से तुलना करने में क्या अर्थ रहेगा? सागर को सिकोड़ कर बूंद बनाया जा सकता है, बूंद को फैला कर सागर बनाया जा सकता है। व्यक्ति को फैला कर परमात्मा बनाया जा सकता है, परमात्मा को सिकोड़ कर व्यक्ति बनाया जा सकता है। ऐसा हो ही गया है। योग इसे बहुत दिन से कह ही रहा है कि चीजों में सिर्फ फैलाव का अंतर है, और कोई अंतर नहीं है। बड़ा और छोटा सिर्फ फैलाव है। छोटा और बड़ा सिर्फ फैलाव है।
यह पांचवां सूत्र है और महत्वपूर्ण है, क्योंकि एक बार यह दृष्टि में साफ आ जाए तो आपकी हीनता कहां टिकेगी? आपकी श्रेष्ठता कहां टिकेगी? कहां रखिएगा? किसलिए बोझ ढोइएगा? उसे आप छिटक कर फेंक देंगे और अपने रास्ते पर चल पड़ेंगे। और उस दिन अगर कोई अकड़ेगा तो भी हंसेंगे और कोई अगर हीन होकर पूंछ हिलाएगा तो भी हंसेंगे। पूंछ हिलाने वाले से कहेंगे कि बेकार मेहनत मत करो। अकड़ने वाले से कहेंगे, नाहक शरीर को दुखाए जा रहे हो, कोई जरूरत नहीं है।
सब चीजें अपने होने में हैं। सब चीजें अपने स्वभाव में हैं। और सब स्वभाव अतुलनीय हैं, तुलना का कोई अर्थ ही नहीं, कोई प्रयोजन ही नहीं।
योग का छठवां सूत्रः योग का छठवां सूत्र है कि ऐसा नहीं है कि जो क्षुद्र दिखाई पड़ता है वह और जो विराट दिखाई पड़ता है वह, इनमें विराट दाता हो और क्षुद्र सिर्फ ग्राहक हो, भिखारी हो, ऐसा नहीं है।
छठवां सूत्र है योग काः दान और ग्रहण, भिखारी होना और सम्राट होना, सबके साथ इकट्ठा है। यहां बूंद भी सागर को दान देती है और सागर से दान लेती है। यहां क्षुद्र भी विराट को देता है और यहां विराट भी क्षुद्र में अपने को उंडेलता है। यहां यह देना और लेना बिल्कुल बराबर चल रहा है।
अभी एक फ्रेंच वैज्ञानिक एस्ट्रन ने एक छोटा सा यंत्र बनाया है। और यह यंत्र योग की दिशा में बड़ा क्रांतिकारी सिद्ध होगा। एस्ट्रन का यह यंत्र व्यक्ति में प्रतिपल अनंत से जो ऊर्जा समाहित हो रही है, उसको रिपोर्ट करता है कि वह कितनी मात्रा में प्रवेश कर रही है। आप खड़े हो जाएं उस यंत्र के पास तो वह यंत्र बताता है कि आपके भीतर चारों ओर ब्रह्मांड से जो शक्ति आ रही है वह किस मात्रा में आ रही है। पूरे वक्त जैसे अनंत-अनंत मार्गों से शक्ति आपके ऊपर गिर रही है और आपके रोएं-रोएं से प्रवेश कर रही है।
बड़े मजे की बात है, जब आप आनंदित होते हैं तो यह शक्ति ज्यादा प्रवेश करती है और जब आप दुखी होते हैं तो कम प्रवेश करती है। यह एस्ट्रन का यंत्र बड़ा कीमती है। अगर आप दुखी हैं तो आपके द्वार-दरवाजे बंद होते हैं, सिकुड़े होते हैं, आपके भीतर शक्ति कम प्रवेश करती है। आपने भी अनुभव किया होगा कि दुख सिकोड़ता है। इसलिए दुखी आदमी कहता है, मुझसे बोलो मत, मुझे छेड़ो मत, मुझे एक कोने में बैठ जाने दो, मुझे सो जाने दो, मुझे मर जाने दो। दरवाजा बंद कर लेता है, अंधेरा कर लेता है। दुखी आदमी सिकुड़ता है, आनंदित आदमी बंटना चाहता है। आनंदित आदमी अकेला हो तो बेचैन होता है, भागता है किसी के पास कि आनंद की खबर दे।
हम सबको पता है कि बुद्ध जब दुखी थे तो जंगल गए और जब आनंदित हुए तो वापस गांव में लौट आए। महावीर जब दुखी थे तो जंगल गए और जब आनंदित हुए तो वापस गांव में लौट आए। कोई पूछे कि दुखी आदमी जंगल क्यों जाता है?
सिकुड़ जाता है, मिलने से भी भय खाता है। आनंदित आदमी नदी की धार की तरह दौड़ता है, सबको बांटना चाहता है। आनंद बंटना चाहता है, आनंद एक शेयरिंग है। बिना बंटे आनंद प्रसन्न नहीं होता। दुख सिकुड़ना चाहता है। इसलिए दुखी आदमी अकेला रह जाता है। आनंदित आदमी को बहुत मित्र मिल जाते हैं। दुखी आदमी आईलैंड बन जाता है। उसके साथ भी कोई खड़ा नहीं होना चाहता। वह भी किसी को खड़ा नहीं करना चाहता। आनंदित आदमी महाद्वीप हो जाता है। दुखी आदमी छोटा सा द्वीप हो जाता है--अपने में बंद और अकेला, आइसोलेटेड।
एस्ट्रन का यंत्र यह बताता है कि जब दुखी आदमी सामने खड़ा होता है तो उसमें विराट की ऊर्जा कम बरसती है। और जब आनंदित आदमी खड़ा होता है तो विराट सब तरफ से उसमें प्रवेश करने लगता है, जैसे बांध टूट गए हों और सब तरफ से ऊर्जा उसमें आने लगी हो।
योग इसे बहुत दिन से कहता है। योग कहता है कि आदमी के भी द्वार-दरवाजे हैं और तुम्हारे हाथ में है कि तुम परमात्मा के लिए अपने दरवाजे खुले रखो कि बंद रखो।
लीबनित्ज हुआ एक बड़ा गणितज्ञ। वह कहता था, आदमी एक मोनोड है। मोनोड उसका शब्द है। और मोनोड का अर्थ है विंडोलेस। ऐसा घर है, जिसमें कोई खिड़की-दरवाजा नहीं है। बंद घर है। और लीबनित्ज कहता था, इस बंद घर में से हाथ भी फैलाओ तो दूसरे तक नहीं पहुंचते, अपने ही मकान की दीवालों को छूते हैं। दूसरे तक कोई पहुंचता ही नहीं। सब आदमी अपने-अपने में बंद हैं।
साधारणतः दुखी आदमी मोनोड होता है। और ऐसा लगता है कि लीबनित्ज दुखी आदमी रहा होगा या जिन लोगों को उसने जाना और सोचा होगा, वे दुखी रहे होंगे। उसने किसी योगी को शायद कभी नहीं देखा। क्योंकि योगी बिल्कुल उलटा आदमी होता है। अगर हम मोनोड के खिलाफ कोई शब्द बनाएं--कोई है तो नहीं शब्द। मोनोड का मतलब हैः विंडोलेस, खिड़की रहित, द्वार रहित। अगर हम योगी के लिए कोई शब्द बनाएं तो कहना पड़ेगाः दीवाल रहित। खिड़की-द्वार तो सवाल ही नहीं है, पूरे मकान को द्वार बना लेता है। इसलिए दीवालें भी अलग कर देता है, खुले आकाश के नीचे हो जाता है। सब तोड़ देता है, ताकि विराट उसमें सीधा बरसता है। बरसता नहीं, जुड़ ही जाता है। इसलिए योग शांति पर, आनंद पर, मौन पर, स्वास्थ्य पर जोर देता है।
अभी एस्ट्रन का यंत्र बताता है कि जब मौन में आदमी खड़ा होता है, तो ऊर्जा की मात्रा बढ़ जाती है; और जब बोलता है, बात करता है, विचार करता है, तब ऊर्जा की मात्रा कम हो जाती है। जब शांत खड़ा होता है, तो ऊर्जा ज्यादा बरसने लगती है; जब अशांत खड़ा होता है, टेंस होता है, चिंतित होता है, तब ऊर्जा कम आनी शुरू हो जाती है।
मौन या शांति या आनंद, परमात्मा तक पहुंचने के इसीलिए मार्ग समझे योग ने, क्योंकि उनसे आप ज्यादा खुले हो जाते हैं, मोर ओपन। खिड़कियां-दरवाजे सब खुल जाते हैं, धीरे-धीरे गिर जाते हैं, फिर दीवालें भी गिर जाती हैं, फिर आप खुले आकाश के नीचे आ जाते हैं।
एस्ट्रन का यंत्र न केवल इतना ही रिकार्ड करता है कि बाहर से ऊर्जा आ रही है, वह यह भी रिकार्ड करता है कि व्यक्ति से भी प्रतिपल रिस्पांस हो रहा है, व्यक्ति भी प्रतिपल ऊर्जा की तरंगें छोड़ रहा है। हम परमात्मा से ले ही नहीं रहे हैं, हम दे भी रहे हैं। और ऐसा मत समझना कि अगर परमात्मा न होगा तो आप न हो सकेंगे। इससे उलटा भी सच है, अगर आप न होंगे तो परमात्मा भी नहीं हो सकेगा। ऐसा मत सोचना कि सागर सिर्फ बादलों को पानी देता है। ध्यान रखना, बादल नदियों से सब पानी सागर को वापस लौटा देते हैं। सागर देता ही नहीं, लेता भी है। सागर लेता ही नहीं, देता भी है। और नदियां सिर्फ लेती ही नहीं, देती भी हैं। और बादल सिर्फ लेते ही नहीं, देते भी हैं। जहां भी लेना है वहां देना भी है; और समतुल है, लेन-देन बराबर है। अगर यह हिसाब ठीक न हुआ तो भूल होती है और जिंदगी उलझ जाती है।
इसलिए योग के इस छठवें सूत्र को ठीक से समझ लेना जरूरी है।
उस आदमी को मैं योगी कहूंगा, जो जितना लेता है, उतना दे देता है और हिसाब सदा चुकता है। कबीर जब कह सके मरते वक्त कि ज्यों की त्यों रख दीन्हीं चदरिया, तो उसका मतलब है। उसका मतलब हैः लेन-देन सब बराबर है। खाते में न कुछ देना बचा, न कुछ लेना बचा। हिसाब-किताब पूरा हो गया, हम जाते हैं। कोई उधारी नहीं है। ऐसा नहीं कि लिया ही हो और दिया न हो।
हम सारे लोग लेते तो हैं, लेकिन दे नहीं पाते, बांट नहीं पाते। और लेने तक में कंजूसी कर जाते हैं तो देने में तो कंजूसी करेंगे ही। लेते तक खुले मन से नहीं हैं, वहां भी दरवाजे बंद रखते हैं, पता ही नहीं। और देने में तो बहुत कठिनाई है।
जैसा मैंने कहा, आनंद में ज्यादा मिलता है, वैसे ही आनंद में ज्यादा दिया जाता है। मौन में ज्यादा मिलता है, मौन में ज्यादा दिया जाता है।
असल में, जब कोई बिल्कुल शांत, मौन में होता है, तो ऐसे हो जाता है जैसे पहाड़ों पर ईको प्वाइंट होते हैं। आपने आवाज दी और पहाड़ ने लौटा दी। खाली मंदिर में आप बोले, गूंजी आवाज, लौट कर आप पर बरस गई। खाली, मौन, ध्यान को उपलब्ध आदमी में जो भी आता है, तत्काल रिस्पांस, तत्काल प्रतिध्वनित होकर लौट जाता है। वह प्रतिपल ले रहा है और दे रहा है। लेने और देने में फासला भी नहीं है। जैसे लहर सागर के तट पर आई और वापस लौट गई। और सागर का तट सदा ही ऋणमुक्त खड़ा है; जितना लेता है, उतना लौटा देता है; जो भी लेता है, लौटा देता है।
यह जो मैंने कहा, एस्ट्रन के यंत्र में यह भी पकड़ा जाता है कि आपके बाहर कितनी ऊर्जा गिर रही है। आपके बाहर कितनी एनर्जी वेव्स आपके बाहर जा रही हैं।
दुखी आदमी से बहुत कम बाहर जाती हैं, दुखी आदमी अपने को पकड़ कर खड़ा हो जाता है। चिंतित आदमी से बहुत कम बाहर जाती हैं, चिंतित आदमी की शक्ति उसी के भीतर वर्तुल बन जाती है और घूमने लगती है। जैसे पानी में भंवर बन जाते हैं, ऐसा चिंतित आदमी की ऊर्जा भीतर ही भंवर बन कर घूमने लगती है। और वह उन्हीं-उन्हीं बातों को घूम-घूम कर सोचने लगता है जिन्हें हजार बार सोच चुका है। वह जुगाली करने लगता है, जैसे भैंस करती है। खाना खा लिया है, फिर उसे निकाल कर चबाने लगती है, फिर चबाने लगती है, फिर चबाने लगती है। भैंस के चबाने का तो उपयोग भी है, क्योंकि भैंस इकट्ठा खा लेती है, फिर फुरसत से चबाती रहती है। आदमी, चिंतित आदमी जो चबाता है, उसका चबाना बिल्कुल बेमानी है। उसका कोई अर्थ ही नहीं है। वह एक ही बात को लाख दफे सोचने लगता है। उसका मतलब? उसका मतलब हुआ, उसके भीतर रुग्ण भंवर बन गया। अब उसके बस के बाहर है, वह आब्सेस्ड हो गया। अब वह उसी बात को हजार बार सोच रहा है। और यह भी सोचता है कि मैं क्या बेकार बात सोच रहा हूं! लेकिन सोचे जा रहा है। ऊर्जा ने बाहर जाना बंद कर दिया, वह भीतर ही घूमने लगी। ऐसा आदमी रुग्ण हो जाएगा, आध्यात्मिक अर्थों में रुग्ण हो जाएगा।
ऊर्जा आनी भी चाहिए, जानी भी चाहिए। और भीतर सदा ही समतुल, लेन-देन बराबर होना चाहिए। तो व्यक्ति और परमात्मा के बीच जो संबंध बनते हैं, उनका हिसाब लगाना मुश्किल है। तब सीधे संबंध होते हैं। और तब ऐसा नहीं होता कि व्यक्ति चरणों में होता है, परमात्मा सिर पर होता है। तब ऐसा नहीं होता। तब व्यक्ति परमात्मा हो जाता है, परमात्मा व्यक्ति हो जाता है। तब भगवान भक्त हो जाता है, भक्त भगवान हो जाता है। फर्क-फासले नहीं रह जाते, क्योंकि कोई लेन-देन ही नहीं होता। भगवान भी जोर से नहीं कह सकता, क्योंकि जो लिया था वह दे दिया गया है। कहीं कोई बाकी नहीं रह गई है बात।
दुख में, बेचैनी में, परेशानी में हम देते भी नहीं, लेते भी नहीं, सिकुड़ कर बंद हो जाते हैं और जीवन-स्रोत सूख जाते हैं। ऐसे ही, जैसे कोई कुआं हो और कुआं कह दे कि सागर से अब मैं पानी नहीं लूंगा, झरने बंद करता हूं अपने; और लोगों से कह दे कि अब अपनी गगरियां डालना बंद कर दो, अब मैं दूंगा भी नहीं। स्वभावतः, जो लेना बंद करेगा, वह देना भी बंद करेगा, नहीं तो सूखता जाएगा। और जो देना बंद करेगा, उसे लेना भी बंद करना पड़ेगा, अन्यथा फूट जाएगा, जी नहीं सकता। ये दोनों बातें एक साथ करनी पड़ेंगी।
लेकिन ध्यान रहे, जो कुआं सागर से कह देगा कि नहीं लेता तुझसे और गांव के लोगों से कह देगा कि नहीं देते तुझे, वह सिर्फ सड़ेगा, गंदा होगा, बदबू फेंकेगा। उसकी ताजगी नष्ट हो जाएगी, उसका जीवन खो जाएगा।
हम सब ऐसे ही कुएं हो गए हैं। योग की दृष्टि से हम सड़ते हुए कुएं हैं; जीवित कुएं नहीं हैं, जो सागर से लेते हैं और सागर को बांट देते हैं वापस। क्योंकि वे जो लोग गगरियां लेकर आ गए हैं, वे सागर के साधन हैं, वे वापस सागर तक पहुंचा देंगे। और कुआं ताजे से ताजा बनता जाएगा।
आश्चर्य की बात है योग का यह कहना कि जो जितना लेगा और जितना देगा, उतना जीवंत, उतना लिविंग होगा। जो जितनी बड़ी मात्रा में लेगा और उतनी ही बड़ी मात्रा में लौटा देगा, वह उतना जीवन-ऊर्जा का केंद्र हो जाएगा। उतनी पुलक, उतनी थिरक, उतना जीवन सघन होकर उसमें प्रकट होगा।
कृष्ण हों, कि बुद्ध हों, कि महावीर हों, कि क्राइस्ट हों, ये सारे लोग जो इतने विराट जीवन-ऊर्जा से भरे हुए मालूम पड़ते हैं, उसका कारण? उसका एक ही कारण है, लेने की भी कंजूसी नहीं है, देने की भी कंजूसी नहीं है। लेते भी बड़े पैमाने पर हैं, देते भी उतने ही बड़े पैमाने पर हैं।
जीसस का एक वचन आपसे कहूं। और जीसस पृथ्वी पर हुए थोड़े से उन बड़े योगियों में से एक हैं, जिन्होंने कुछ कीमती सूत्र छोड़े।
जीसस का एक वचन हैः जो बचाएगा, उससे छीन लिया जाएगा। जिसके पास थोड़ा है, उससे छीन लिया जाएगा; और जिसके पास बहुत है, उसे बहुत दे दिया जाएगा।
बड़ी उलटी बात कहते हैं न! हम कहेंगे, कैसी ज्यादती कर रहे हो! जिसके पास कुछ नहीं है उसे दो। और जिसके पास बहुत कुछ है उसे क्यों देते हो? उसे न दो तो भी चलेगा। लेकिन जीसस किसी और गहरी बात की बात कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि जिसके पास जितनी ज्यादा ऊर्जा है उसे उतनी ही ज्यादा दी जाएगी, जिसके पास जितनी कम ऊर्जा है उसे उतनी कम मिलेगी। कम मिलने का कारण यही है कि जिस आदमी के पास कम है, वह आदमी अपने द्वार-दरवाजे बंद किए बैठा है, इसीलिए कम है। उसने देने में कंजूसी की है, इसीलिए लेने में हार गया, थक गया, ले नहीं सकता।
सुनी है मैंने एक कहानी कि गांव में एक आदमी ने किसी किताब में पढ़ा कि रुपया रुपये को खींच लेता है। उसके पास एक रुपया था, गरीब आदमी था। उसने सोचा, अगर रुपया रुपये को खींच लेता है तो ऐसी जगह चलना चाहिए जहां रुपये हों, ताकि अपने रुपये को वहां रखे और वह रुपया रुपये को खींच ले।
वह शहर गया। साहूकार की दुकान पर पहुंचा। सांझ रुपये गिने जा रहे थे, तो वह बाहर सीढ़ी पर बैठ कर अपने रुपये को बजाने लगा। बड़ी देर तक रुपये को उसने बजाया, लेकिन कोई रुपया खिंच कर आया नहीं। तब उसने सोचा कि दिखता है, दूरी ज्यादा है। तो उसने अपने रुपये को साहूकार की गड्डियों पर फेंका। फिर थोड़ी देर राह देखी कि रुपया रुपये को लेकर आएगा। लेकिन वह नहीं आया। तो उसने साहूकार से कहा कि गलत थी वह किताब, मेरा रुपया वापस कर दो।
साहूकार ने कहा, कौन सी किताब?
उसने कहा, मैंने एक किताब में पढ़ा है कि रुपया रुपये को खींच लेता है।
साहूकार ने कहा, सही थी वह किताब, रुपयों ने रुपये को खींच लिया है, तुम अपने घर जाओ। पागल, एक रुपया इतने रुपयों को खींच सकेगा! सही थी वह किताब, रुपयों ने रुपये को खींच लिया। अब तुम अपने घर जाओ, और कभी भूल कर मत कहना कि किताब गलत थी।
और उस किसान ने फिर कभी किसी से नहीं कहा कि किताब गलत थी, क्योंकि किताब सही ही साबित हुई थी।
जीसस जिस अदभुत नियम की बात कर रहे हैं, वे यह कह रहे हैं कि अगर चाहते हो कि विराट से भर जाऊं तो विराट के दाता बनो। बांटो, तो मिलेगा; रोका, तो छिन जाएगा। बचाया, तो खो दोगे; खोया, तो पा लोगे। उलटे लगते हैं सूत्र, लेकिन योग उन सूत्रों को कहने का कारण समझता है। कारण है। जितना ही हम अपने को खाली करते हैं, उतना ही हम विराट के लिए स्थान रिक्त करते हैं। जितना ही विराट हम में उतरता है, उतना ही हम खाली करने के आनंद से, लुटाने के आनंद से भरते हैं और उलीचते हैं।
यह छठवां सूत्र यह कहता है कि यहां कोई भी न दाता है अकेला, न ग्राहक है अकेला। यहां न तो कोई अकेला भिखारी है और न कोई अकेला सम्राट है। और जो आदमी अकेला सम्राट होना चाहे, वह मुश्किल में पड़ेगा। और जो आदमी अकेला भिखारी होना चाहे, वह भी मुश्किल में पड़ेगा। यहां तो भिखारी और सम्राट एक के ही भीतर हैं। एक हाथ से देना है और एक हाथ से लेना है। और हाथ उतना ही ले पाएगा, जितना दूसरे हाथ ने दिया है। और दूसरा हाथ उतना ही दे पाएगा, जितना एक हाथ से लिया गया है।
काश! यह हमारी समझ में आ सके तो हमारी जिंदगी की सारी रूप-रेखा बदल जाए; तब हम चीजों को पकड़ने वाले सिद्ध न हों। क्योंकि जो चीजों को पकड़ लेता है, वह दरिद्र रह जाता है। जो जितने जोर से पकड़ लेता है, उतना दीन रह जाता है। छोड़ने की कला आनी चाहिए, दे देने की कला आनी चाहिए, क्योंकि दे देने की कला ही पा लेने का मार्ग है। जितने हम खाली होंगे, उतने पाने में समर्थ और पात्र हो जाते हैं। जो खाली हैं, वे भर जाएंगे। जो पहले से ही भरे हुए, अपने को पकड़े रोके हुए हैं, वे खाली रह जाएंगे। झीलें भर जाती हैं, पहाड़ खाली रह जाते हैं। पहाड़ों पर भी वर्षा होती है, लेकिन पानी उन पर टिकता नहीं, वे पहले से ही भरे खड़े हैं। झीलें खाली होती हैं, उन पर वर्षा न भी हो तो कोई चिंता नहीं, पहाड़ों का पानी बह कर झीलों में आ जाता है और भर जाता है। झीलें खाली हैं, यह उनका राज है।
खाली होते रहना है सब दृष्टियों से, तो भरते रहेंगे। और सब दृष्टियों से भरते रहना है, तो खाली होते रहेंगे। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और परमात्मा से अगर कोई मांगता ही चला जाए, तो ध्यान रखें, परमात्मा से उसका कोई संबंध नहीं हो सकेगा। हमारे संबंध नहीं हैं, क्योंकि मंदिर हमारे प्रार्थनागृह हैं, वहां सिर्फ हम मांगते हैं, वहां हम याचक होते हैं। हमारी प्रार्थनाएं झूठी हो जाती हैं, क्योंकि हमारी प्रार्थनाएं भिखमंगों की प्रार्थनाएं हैं, जो सिर्फ मांगने के लिए ही जाते हैं।
ध्यान रहे, जब भी हम सिर्फ मांगने को जाते हैं, तब हम परमात्मा को कोई मूल्य नहीं दे रहे हैं, जो हमें चाहिए उसी को मूल्य दे रहे हैं।
एक आदमी मेरे पास आया और उसने कहा कि मैं तो पहले परमात्मा में विश्वास नहीं करता था, अब करने लगा हूं। मैंने उससे पूछा, क्या तुम्हारी कोई मांग पूरी हो गई? उसने कहा, आप कैसे पहचाने? तो मैंने कहा, और तो मुझे नहीं दिखाई पड़ता तुम्हारी शक्ल से कि तुमने कोई परमात्मा की थोड़ी सी भी यात्रा की हो। जरूर कोई मांग पूरी हो गई है। उसने कहा कि बिल्कुल, मेरे लड़के की नौकरी नहीं लगती थी। मैंने प्रार्थना की और ठीक अल्टीमेटम दे दिया भगवान को कि एक महीने के भीतर अगर नौकरी नहीं लगी तो ध्यान रखना, फिर कभी विश्वास न करेंगे। और नौकरी लग गई, अब तो मैं बिल्कुल पक्का विश्वास करता हूं।
इस आदमी को लड़के की नौकरी परमात्मा से ज्यादा कीमती है। अगर इसके लड़के की नौकरी छूट जाए तो परमात्मा भी अनएंप्लायड हो जाएगा, इसकी तरफ। वह भी बेकार हो जाएगा। उसका भी कोई मतलब नहीं रह जाएगा। यह जाकर एक ठोकर मार देगा कि हटो सिंहासन से, बहुत हो गया!
हम परमात्मा के पास सिर्फ प्रार्थनाएं लेकर जाते हैं, मांग।
ध्यान रहे, परमात्मा के पास जो दान लेकर जाता है, उसकी ही प्रार्थनाओं का अर्थ है। जो परमात्मा के पास देने जाता है, वही जुड़ता है। ऐसा नहीं है कि जो देने जाता है उसे नहीं मिलता। बहुत मिलता है! लेकिन देने वाले को मिलता है। मांगने वाले से तो और पास में हो तो छीन लिया जाता है।
इसलिए जीसस कहते हैं, जिसके पास थोड़ा है, उससे छीन लेंगे।
जैसे ही कोई देने को तैयार हो जाता है, वह पाने का हकदार हो जाता है, क्योंकि देने के लिए हृदय के द्वार खोलने पड़ते हैं। उन्हीं द्वारों से मिलता है। और जो देने में डरता है, उसे दरवाजे बंद रखना पड़ते हैं कि चोर न आ जाएं, भिखारी न आ जाएं, कोई दरवाजे पर मांग न ले, उसे खिड़की-दरवाजे सब बंद रखना पड़ते हैं। घर के भीतर से ही वह मांग करता है कि यह दे, वह दे। दरवाजे बंद हैं, देने अगर परमात्मा दरवाजे पर आए भी, तो वह इस डर से दरवाजे न खोलेगा कि पता नहीं कोई भिखारी आ गया हो, कोई मांगने वाला न आ गया हो।
और मैंने सुना है कि परमात्मा यह मजाक बहुत बार करता है कि भिखारी की शक्ल में द्वार पर आ जाता है। तब पहचान हो जाती है पक्की कि आदमी पाने का पात्र है? क्योंकि जो अभी देने में ही समर्थ नहीं हुआ, वह पाने का पात्र नहीं हो सकता।
स्वभावतः, भगवान आपसे धन नहीं मांग सकता है। स्वभावतः, परमात्मा आपसे मकान नहीं मांग सकता है। क्योंकि मकान आपका नहीं है। आप कल नहीं होंगे और मकान होगा। और धन आप नहीं हैं, आपके हाथ में है आज, कल किसी और के हाथ में होगा। परमात्मा तो एक ही चीज मांग सकता है, आपको मांग सकता है। आप ही एकमात्र मांगने जैसी चीज हो सकते हैं।
इसलिए योग कहता है, जो अपने को देने को तैयार है, वह सब पाने का हकदार हो जाता है। हम अपने को दे पाएं, हम अपने को छोड़ पाएं, हम कह पाएं कि राजी हूं, मुझे ले ले... ।
विवेकानंद के जीवन में एक छोटा सा स्मरण है। विवेकानंद के पिता चल बसे, तो घर में बहुत गरीबी थी और घर में भोजन भी इतना नहीं था कि मां और बेटा दोनों भोजन कर पाएं। तो विवेकानंद अपनी मां को यह कह कर कि आज किसी मित्र के घर निमंत्रण है, मैं वहां जाता हूं--कोई निमंत्रण नहीं होता था, कोई मित्र भी नहीं थे--सड़कों पर चक्कर लगा कर घर वापस लौट आते थे। अन्यथा भोजन इतना कम है कि मां उनको खिला देगी और खुद भूखी रहेगी। तो भूखे घर लौट आते। हंसते हुए आते कि आज तो बहुत गजब का खाना मिला, क्या चीजें बनी थीं! बस उन्हीं चीजों की चर्चा करते आते, जो कहीं बनी भी नहीं थीं, जो कहीं खाई भी नहीं थीं। भूखे चक्कर लगा कर लौट आए थे, ताकि मां खाना खा ले।
रामकृष्ण को पता चला तो उन्होंने कहा कि तू कैसा पागल है, भगवान से क्यों नहीं कह देता! सब पूरा हो जाएगा। तो विवेकानंद ने कहा कि खाने-पीने की बात भगवान से चलाऊं तो जरा बहुत साधारण बात हो जाएगी। फिर भी रामकृष्ण ने कहा, तू एक दफा कह कर देख! तो विवेकानंद को भीतर भेजा। घंटा बीता, डेढ़ घंटा बीता, वे मंदिर से बाहर आए, बड़े आनंदित थे, नाचते हुए बाहर निकले थे। रामकृष्ण ने कहा, मिल गया न? मांग लिया न? विवेकानंद ने कहा, क्या? रामकृष्ण ने कहा, तुझे मैंने कहा था कि मांग अपनी रख देना। तू इतना आनंदित क्यों आ रहा है? विवेकानंद ने कहा, वह तो मैं भूल ही गया।
ऐसा कई बार हुआ। रामकृष्ण भेजते और विवेकानंद वहां से बाहर आते और वे पूछते तो वे कहते, क्या? तो रामकृष्ण ने कहा, तू पागल तो नहीं है! क्योंकि भीतर जब जाता है तो पक्का वचन देकर जाता है। विवेकानंद कहते कि जब भीतर जाता हूं, तो परमात्मा से भी मांगूं, यह तो ख्याल ही नहीं रह जाता। देने का मन हो जाता है कि अपने को दे दूं। और जब अपने को देता हूं तो इतना आनंद, इतना आनंद कि फिर कैसी भूख, कैसी प्यास, कौन मांगने वाला, कौन याचक!
नहीं मांग सके। वह संभव नहीं हो सका।
आज तक किसी धार्मिक आदमी ने परमात्मा से कुछ भी नहीं मांगा है। और जिन्होंने मांगा हो, उन्हें ठीक से समझ लेना चाहिए, धर्म से उनका कोई नाता नहीं है। धार्मिक आदमी ने दिया है।
जीसस को सूली लगी। सूली लगने के रात पहले गेथ्सेमनी के बगीचे में उनके मित्रों ने कहा, अपने पिता से, अपने परमात्मा से कह दो! मांग लो जो मांगना है!
जीसस हंसते रहे। फिर सुबह उनको सूली लगने का वक्त भी आ गया। और साथी उनके उनसे बार-बार कहते रहे कि तुम अपने परमात्मा से कह क्यों नहीं देते कि यह मत करवाओ! लेकिन जीसस हंसते रहे। फिर सूली पर वे लटका भी दिए गए। हाथ में खीलियां ठोंक दी गईं। और तब एक क्षण को उनके मुंह से एक आवाज निकली... और वे सूली पर लटक गए। फिर यह सूली नहीं थी, यह परमात्मा की कोट हो गई है। अब वे अपने को दे सके। वे सूली पर लटक गए। सूली पर लटकना प्रतीक बन गया। है भी अदभुत प्रतीक कि जिन्हें परमात्मा तक जाना है, उन्हें अपने को, मैं को बिल्कुल सूली पर लटका कर देने का साहस चाहिए।
लेकिन आदमी बेईमान है, उसकी बेईमानी का कोई अंत नहीं। ईसाई पादरी गले में सोने की सूली लटकाए हुए सारी पृथ्वी पर घूम रहे हैं! कोई पूछे, सूलियां भी सोने की होती हैं? और कोई पूछे कि गला सूलियों पर लटकाया जाता है कि गले में सूलियां लटकाई जाती हैं? लेकिन आदमी धोखेबाज है। जीसस सूली पर लटकाए गए; उनका मानने वाला गले में एक छोटी सी सूली लटका कर घूम रहा है! सूली भी आभूषण बना सकता है, आदमी इतना बेईमान है! देने की बात ही भूल जाता है, मिटने की बात ही भूल जाता है। पाने की, पाने की बात ही भर याद रखता है!
योग कहता है, जिस अनुपात में दिया जाएगा, उसी अनुपात में मिलता है। और जो दिया जाएगा, वही मिलता है। अगर जीवन दे देंगे तो जीवन मिलेगा, अगर स्वयं को दे देंगे तो स्वयं का होना परिपूर्ण रूप से मिलेगा। अगर अहंकार दे देंगे तो आत्मा मिलेगी। अगर यह ना-कुछ व्यक्तित्व दे देंगे तो परम व्यक्तित्व मिलेगा। अगर यह मरणधर्मा शरीर दे देंगे तो अमृत देह मिलेगी। जो भी दिया जाएगा वह मिलेगा।
और हमारे पास क्या हो सकता है देने योग्य? हमारे पास मरणधर्मा देह है, एक झूठा अहंकार है, ख्याल है कि मैं कुछ हूं। बस यही चीजें हैं। ये हम दे देंगे। इनको देते से ही, आथेंटिक, सच में जो मेरा होना है, वापस आ जाता है; सच में जो मेरी देह है, अमृतधर्मा, वह मुझे मिले जाती है।
इसलिए योग के छठवें सूत्र को ठीक से ध्यान में रखनाः देना ही पाना है, मिटना ही होना है। क्योंकि यहां बूंद भी सागर को देती है।
लेकिन जब कोई बूंद सागर को देती है, तो कभी देखा? जब बूंद अपने को सागर को देती है तो सागर बूंद को मिल जाता है, तत्काल बूंद सागर हो जाती है।
कबीर ने कहा है--एक बहुत अदभुत वचन कहा है कबीर ने--कहा है कि खोजते-खोजते मैं खो गया और फिर ऐसा हुआ कि ‘बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाई।’ और फिर बूंद सागर में गिर गई, अब मैं बूंद को कैसे वापस निकालूं?
लेकिन कुछ दिन बाद उन्होंने एक दूसरा वचन भी लिखा। और अपने मित्रों को कहा कि पहले वचन को छोड़ देना, उसमें कुछ गलती हो गई। पहला वचन थाः
‘हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई,
बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाई।’
फिर दूसरा वचन उन्होंने लिखा कि पहले को काट देना, उसमें गलती हो गई। दूसरे वचन में बात उन्होंने उलट दी, उन्होंने लिखा कि--
‘हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई,
समुंद समाना बुंद में, सो कत हेरी जाई।’
कहा कि काट दो वह पहली बात, उसमें कुछ गलती हो गई कि बूंद सागर में गिर गई। अब मैं तुमसे ज्यादा असली बात कहता हूं कि सागर बूंद में गिर गया है। और बूंद सागर में गिरी होती तो निकाल भी लेते, अब सागर बूंद में गिर गया, अब कहां निकालेंगे? अब कैसे निकालेंगे?
जब बूंद सागर में गिरती है तो यह बूंद की तरफ से हमें लगता है कि बूंद सागर में गिर रही है, लेकिन जब गिर जाती है तब बूंद को पता चलता है कि यह तो सागर ही मुझ में गिर गया। जब व्यक्ति अपने को खोता है, तब तक उसे लगता है--मैं अपने को खो रहा। जैसे ही खोता है, वैसे ही उसे पता चलता है--यह तो परमात्मा का मिलना हो गया। यह तो मैंने खोया नहीं, पाया। दान उपलब्धि बन जाती है, देना मिलना बन जाता है, खोना पाना हो जाता है, मृत्यु जीवन का द्वार हो जाती है।
और यह लेना-देना प्रतिपल चल रहा है। काश, यह समतुल हो सके, जितना हमें मिले उसे हम दे पाएं, तो जीवन परमात्ममय हो जाता है। इसलिए छठवें सूत्र को मैंने जोर देकर आपसे कहा। और धार्मिक व्यक्ति मैं उसको ही कहता हूं जिसकी जिंदगी में यह देना-लेना पूरे वक्त बराबर है।
कितना लिया है सूर्य से, धन्यवाद भी दिया है कभी? आकाश से कितना पाया है, लेकिन कभी आंखें उठा कर अनुग्रह माना? फूलों से कितना उपलब्ध किया है, लेकिन कभी फूलों के पास ठहर कर दो क्षण आभार प्रकट किया है?
नहीं, जहां-जहां से नहीं मिलता वहां-वहां शिकायत करने हम जरूर पहुंच जाते हैं, लेकिन जहां-जहां से मिल रहा है अनंत, वहां धन्यवाद भी नहीं है, देने की तो बात बहुत दूर है।
एक छोटी सी कहानी, और इस बात को मैं पूरा करूंगा। फिर हम अगले सूत्र पर कल बात करेंगे।
बुद्ध का एक युवा भिक्षु ज्ञान को उपलब्ध हो गया। तो बुद्ध ने उससे कहा कि अब तूने पा लिया, अब तू जा और लोगों को खबर दे उस मार्ग की, उस राह की, उस द्वार की, जहां से तूने प्रवेश किया। जा और लोगों को बता वह मंदिर जहां आनंद के निनाद हो रहे हैं।
उस भिक्षु ने कहा, बस मैं आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा करता था। आज ही चल पड़ता हूं। जो मिला है, उसे बांट दूंगा।
बुद्ध ने पूछा, तू जाएगा कहां? किस ओर?
तो उस भिक्षु ने कहा--उस भिक्षु का नाम था पूर्ण--उसने कहा कि मैं बिहार का एक हिस्सा था सूखा, वहां जाऊंगा। वहां अब तक कोई आपकी खबर नहीं ले गया।
तो बुद्ध ने कहा, वहां मत जा। मैं तुझे सलाह नहीं दूंगा। क्योंकि वहां के लोग अच्छे नहीं हैं। इसीलिए तो वहां कोई अब तक गया नहीं।
तो उस पूर्ण ने कहा कि जहां लोग अच्छे हैं, वहां मेरे जाने की जरूरत ही क्या है! मुझे वहीं जाने की आज्ञा दें।
तो बुद्ध ने कहा, मैं तुझसे तीन सवाल पूछ लूं, फिर तू जा सकेगा। पहला सवाल यह पूछता हूं कि वहां के लोग दुष्ट हैं, कठोर हैं, गंवार हैं। वे तुझे गालियां देंगे तो तेरे मन को क्या होगा?
तो पूर्ण ने कहा, आप भलीभांति जानते हैं कि मेरे मन को क्या होगा। वही, जो आपके मन को होगा। मेरे मन को यही होगा कि कितने भले लोग हैं, सिर्फ गालियां देते हैं, मारते नहीं हैं। मार भी सकते थे!
तो बुद्ध ने कहा, पूर्ण, समझ कि वे तुझे मारें भी, क्योंकि वे लोग बहुत बुरे हैं, मारेंगे भी। तो वे जब तुझे मारेंगे तब तेरे मन को क्या होगा?
तो पूर्ण ने कहा, वही, जो आपके मन को होगा। धन्यवाद दूंगा कि कृपा है प्रभु की कि अच्छे लोगों में आ गया, सिर्फ मारते ही हैं, मार ही नहीं डालते हैं। मार भी डाल सकते थे!
तो बुद्ध ने कहा, बस आखिरी सवाल और पूर्ण, कि अगर वे मार ही डालें, तो मरते क्षण में आखिरी ख्याल क्या होगा?
तो पूर्ण ने कहा, आप व्यर्थ ही पूछते हैं। जानते हैं भलीभांति; वही, जो आपको होगा। मरते क्षण में हाथ जोड़ कर धन्यवाद देकर जा सकूंगा, अच्छे लोग हैं, उस जीवन से छुटकारा दिला दिया जिसमें कोई भूल-चूक हो सकती थी।
उस पूर्ण ने कहा कि अगर जिंदा रहता तो कोई भूल-चूक हो सकती थी, अच्छे लोग हैं, जीवन से छुटकारा दिला दिया। तो धन्यवाद देता हुआ जा सकूंगा।
तो बुद्ध ने कहा, तू धार्मिक आदमी हो गया, अब तू कहीं भी जा सकता है। अब तेरे लिए सारी पृथ्वी स्वर्ग है, और सब घर मंदिर हैं, और हर आंख परमात्मा की आंख है।
योग ऐसी दृष्टि के आधार रखता है।
और सूत्रों पर कल आपसे बात करूंगा।
कुछ सवाल आए हैं, कुछ सवाल और कल आ जाएंगे, तो अंत में सारे सवालों को इकट्ठा ही ले लेंगे।
मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। सुबह के लिए दो सूचनाएं आपको दे दूं। जो मित्र ध्यान करने आना चाहते हों--ध्यान रखें, करने आना चाहते हों--वे ही सुबह आएं। देखने न आएं। देखने से कुछ पता नहीं चलेगा, करने से ही पता चल सकता है। और देखने से करने वालों को बाधा पड़ती है। जो आते हैं वे स्नान करके आएं और चुपचाप आकर यहां बैठ जाएं, जरा भी शब्द का उपयोग न करें, ताकि यहां का वातावरण ध्यान में जाने के लिए सहयोगी और मित्र बन सके।
मेरी बातें इतने प्रेम से सुनीं, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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