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शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

और फूलों की बरसात हुई-(प्रवचन-11)

और फूलों की बरसात हुई-ग्याहरवां 

न मन, न बुद्ध और न विषय वस्तुएं


जागे हुए लोगों की शिक्षाएँ, किसी भी प्रकार से शिक्षाएँ नहीं हैं क्योंकि वे सिखाई नहीं जा सकती- इसलिए कैसे उन्हें शिक्षाएँ अथवा सिखावनें कहकर पुकारा जाए? एक सिखावन वह होती है जो सिखाई जा सकती है। लेकिन कोई भी व्यक्ति तुम्हें सत्य नहीं सिखा सकता। यह असंभव है। तुम उसका ज्ञान प्राप्त कर सकते हो, लेकिन वह सिखाया नहीं जा सकता। उसे सीखना होता है। तुम उसे अवशोषित कर सकते हो, तुम उसे मन में धारण कर सकते हो, तुम एक सद्गुरू के साथ उसे जी सकते हो और उसे घटित होने को स्वीकार कर सकते हो, लेकिन वह सिखलाया नहीं जा सकता। वह एक बहुत अप्रत्यक्ष प्रक्रिया है।

सिखाना प्रत्यक्ष रूप से है : कोई बात कही जाती है। सिखाना अप्रत्यक्ष रूप से होता है। किसी बात को कहा नहीं जाता, उस ओर इंगित किया जाता है-वस्तुतः कुछ चीज दिखाई जाती हैं। एक उँगुली सूरज की ओर उठाई गई, लेकिन उँगुली लक्ष्य नहीं हैं, तुम्हें उँगुली को छोड़ना होगा और सूरज की ओर अथवा चन्द्रमा की ओर देखना होगा। एक सद्गुरू सिखाता है लेकिन सिखावन ठीक एक उँगुली से संकेत करने के समान होती हैं, तुम्हें उसे छोड़ देना होता है और उसे देखना होता है जहाँ वह जिस आयाम, जिस दिशा का अथवा उस पार का संकेत करता है।


एक शिक्षक सिखाता है और एक सद्गुरू जीवन जीता है-तुम उसके जीवन से सीख सकते हो, जिस तरह से वह चलता है, जिस तरह से तुम्हारी ओर देखता है, जिस तरह से तुम्हें स्पर्श करता है, वह मार्ग ही होता है। तुम उसे मन में धारण कर सकते हो, तुम उसके घटित होने को स्वीकार कर सकते हो, तुम उपलब्ध बने रह सकते हो, तुम खुले हुए और सहन करने योग्य बन सकते हो। इस बारे में प्रत्यक्ष रूप से कहने का उसे कोई भी उपाय नहीं है, इसी कारण वे लोग जो बहुत विद्वान और बुद्धिमान हैं, वे उससे चूक जाते हैं- क्योंकि वे लोग सीखने का केवल एक ही रास्ता जानते हैं और वह है प्रत्यक्ष रूप से सीखना। वे पूँछते हैं-सत्य क्या है? और वे लोग एक उत्तर पाने की आशा रखते हैं।
ऐसा ही तब घटित हुआ जब पोंटियस पाइलेट ने जीसस से पूँछा-‘सत्य क्या है?’- और जीसस मौन बने रहे-वे हिले-डुले भी नहीं, जैसे मानो प्रश्न पूंछा ही न गया हो, जैसे मानो पोंटियस पाइलेट वहाँ नहीं था और न वह उनके सामने वहाँ खड़ा हुआ उनसे कुछ पूँछ ही रहा था। जीसस वैसे ही समान बने रहे, जैसे कि वह प्रश्न उठाने से पूर्व थे, कुछ भी नहीं बदला। पोंटियस पाइलेट ने निश्चित रूप से यह सोचा होगा कि यह व्यक्ति थोड़ा-सा पागल है क्योंकि उसने प्रत्यक्ष प्रश्न करते हुए पूँछा था- ‘सत्य क्या है?’ और यह व्यक्ति खामोश बना रहा, जैसे मानो उसने सुना ही न हो।
पोंटियस पाइलेट एक वाइसरॉय था, भली-भाँति शिक्षित, सुसंस्कृत और एक विकसित बुद्धि का व्यक्ति था और जीसस एक अशिक्षित, अविकसित एक बढ़ई के पुत्र थे। यह ऐसे था, जैसे मानो दो विपरीत ध्रुव मिल रहे थे। पोंटियस पाइलेट सारा तत्वज्ञान जानता था, उसने सीखा था और वह सभी धर्मशास्त्रों को जानता था। यह व्यक्ति जीसस पूर्ण रूप से अशिक्षित था और वास्तव में वह कुछ भी नहीं जानता था- अथवा वह केवल ‘कुछ नहीं’ जानता था। पोंटियस पाइलेट के सामने पूर्ण रूप से खामोश खड़े हुए, उसने उत्तर दिया लेकिन वह उत्तर अप्रत्यक्ष था, उसने एक उँगुली ऊपर उठाई। सत्य की ओर उठी हुई वह उँगुली ही पूर्ण मौन था। लेकिन पोंटियस पाइलेट चूक गया। उसने सोचा, यह व्यक्ति पागल है। या तो यह बहरा है और सुन नहीं सकता, अथवा वह एक अज्ञानी है जो नहीं जानता है-और इसी कारण वह खामोश है। लेकिन मौन सत्य की ओर उठी हुई एक उँगुली हो सकती हैं, वह बात बुद्धिवादी पोंटियस पाइलेट के लिए अगम्य थी।
वह चूक गया। वह एक महानतम अवसर था। हो सकता है कि वह तब भी ‘सत्य क्या है’ उसकी खोज में कहीं और भटक रहा हो। उस दिन सत्य उसके सामने खड़ा था। एक क्षण के लिए भी वह मौन हो सका होता? न पूँछते हुए यदि वह जीसस की उपस्थिति में ही बना रहा होता, केवल उन्हें देखते हुए, निरीक्षण करते हुए यदि वह प्रतीक्षा कर सका होता? वह थोड़ा-सा जीसस को अपने हृदय में धारण कर सका होता? यदि वह जीसस को अपने ऊपर कार्य करने की अनुमति दे सका होता? वहाँ पूरा अवसर था-और जीसस ने उस ओर संकेत भी किया था। लेकिन पोंटियस पाइलेट चूक गया।
जागे हुए लोगों की सिखावन से बुद्धि हमेशा चूक जाएगी, क्योंकि बुद्धि प्रत्यक्ष मार्ग में विश्वास करती है और तुम इस तरह प्रत्यक्ष रास्ते से सत्य पर चोट नहीं कर सकते। यह बहुत सूक्ष्म और नाजुक चीज़ हैं, जितना संभव हो सकता है यह उससे भी अधिक नाजुक है, तुम्हें बहुत सावधानी से गतिशील होना होगा और तुम्हें बहुत अप्रत्यक्ष तरीके से गतिशील होना होगा। तुम्हें उसका अनुभव करना होगा- वह कभी भी बुद्धि के द्वारा न आकर, हृदय के द्वारा आती है। शिक्षा, बुद्धि के द्वारा आती है और सिखावन हृदय के द्वारा घटित होती है।
मेरी इस बात पर बल देने का स्मरण रखना। वह सद्गुरू नहीं है, जो सिखाता है, वह शिष्य ही है जो सीखता है। यह तुम्हारे ऊपर है- सीखो अथवा न सीखो, सिखाना अथवा न सिखाना, यह मेरे ऊपर नहीं है। एक सद्गुरू स्वयं सहायता नहीं कर सकता क्योंकि वह जिस तरह का है, वह सिखाये चले जाता है। उसका प्रत्येक क्षण, उसकी प्रत्येक श्वास एक सिखावन है, उसका पूरा अस्तित्व एक सिखावन और एक संदेश है। संदेश, सद्गुरू से भिन्न नहीं है। यदि वह भिन्न है, तब सद्गुरू सामान्य रूप से शिक्षक है, वह एक सद्गुरू नहीं है, तब वह दूसरों के शब्दों को दोहरा रहा है। तब तक स्वयं जागा हुआ नहीं है, तब उसके पास उधार का ज्ञान है और अपने अंदर वह उतना ही अज्ञानी है, जैसा कि एक छात्र। इस बारे में उनके अस्तित्व में कोई भी अंतर नहीं है केवल उनके ज्ञान में।
एक शिक्षक और छात्र, जहाँ तक उनके अस्तित्व का संबंध है समान तल पर होते हैं, लेकिन जहाँ तक उनके ज्ञान का संबंध है, वे भिन्न होते हैं। शिक्षक कहीं अधिक जानता है और छात्र कम जानता है। किसी दिन छात्र अधिक जानेगा और वह स्वयं एक शिक्षक बन जायेगा। वह अपने शिक्षक से भी अधिक जान सकता है- क्योंकि ज्ञान को संग्रहित करना एक समतल रेखावत होता है। यदि तुम अधिक सूचनाएँ और अधिक ज्ञान इकटठा कर लेते हो तो तुम एक शिक्षक बन सकते हो, लेकिन एक सद्गुरू नहीं।
एक सद्गुरू सत्य ही होता है। वह सत्य के बारे में नहीं जानता है, वह स्वयं सत्य हो गया है, इसलिए वह स्वयं अपनी ही सहायता नहीं कर सकता। यह एक चुनाव नहीं है और यह प्रश्न सिखाने अथवा न सिखाने का नहीं है। यदि वह गहरी नींद में सोया भी है, वह सिखाता चला जाता है। बुद्ध गहन निद्रा में है, तुम पूरी तरह से उनके निकट बस बैठ जाओ, तुम बहुत अधिक सीख सकते हो, तुम बुद्धत्व को उपलब्ध भी हो सकते हो, क्योंकि वह जिस ढंग से सोते हैं वह पूर्ण रूप से भिन्न है। गुण भिन्न है क्योंकि आत्मा भिन्न है। बुद्ध भोजन कर रहे हैं-तुम केवल सावधानी से उनका निरीक्षण करो, और वह एक संदेश दे रहे हैं। वह संदेश पृथक नहीं है, इसी कारण मैं कहता हूँ कि वह स्वयं अपनी ही सहायता नहीं कर सकते। वह भी संदेश है।
तुम यह प्रश्न नहीं पूँछ सकते कि सत्य क्या है? किसी भी तरह से, वह प्रत्यक्ष रूप से इसका उत्तर नहीं देगें। वह हँस सकते हैं अथवा वह तुम्हें एक प्याला चाय भेंट कर सकते हैं, अथवा वह तुम्हारा हाथ थामकर शांत बैठे रह सकते हैं, अथवा वह तुम्हें सुबह जंगल में अपने साथ टहलने के लिए ले जा सकते हैं, अथवा वह कह सकते हैं, ‘देखो, यह पर्वत कितना सुंदर है?’ लेकिन वह जो कुछ भी कर रहे हैं, वह संकेत करने का अप्रत्यक्ष ढंग है- अपने अस्तित्व की ओर संकेत करना।
वह सभी कुछ जो सुंदर है, सत्य है और शुभ है, वह प्रसन्नता के समान है। मैं कहता हूँ-‘प्रसन्नता के समान’, क्योंकि तुम उसे समझने में समर्थ हो सकते हो। तुमने प्रसन्नता की कोई चीज़ जानी है। यह हो सकता है कि तुम बहुत दुःख में जीते रहे हो, जैसे कि लोग जीते हैं, लेकिन कभी-कभी तुम्हारे स्वयं की ईर्ष्या में भी वह कुछ क्षण ऐसे घटित होते हैं जब प्रसन्नता तुम्हारे अंदर प्रवेश करती है-तुम एक अनजानी शांति और एक अज्ञात आनंद के साथ भर जाते हो, और वे क्षण अचानक ही आते हैं। तुम एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं खोज सकते, जिसके जीवन में उसके पास प्रसन्नता के थोड़े से भी क्षण न हों।
लेकिन क्या तुमने एक चीज़ का निरीक्षण किया है?- जब कभी वे क्षण आते हैं, वे अप्रत्यक्ष रूप से आते हैं। वे अचानक घटित होते हैं, वे बिना किसी आशा के घटित होते हैं। तुम उनकी प्रतीक्षा नहीं कर रहे थे, तुम कुछ अन्य कार्य कर रहे थे, और अचानक तुम सचेत हो जाते हो। यदि तुम उनके लिए प्रतीक्षा कर रहे हो, उनकी आशा कर रहे हो, तो वे कभी नहीं आते हैं, और यदि तुम प्रत्यक्ष रूप से उनकी खोज में हो, तो तुम चूक जाओगे।
कोई व्यक्ति कहता है-‘जब मैं नदी में तैरने के लिए जाता हूँ तो मैं बहुत अधिक प्रसन्नता का अनुभव करता हूँ।’ चूँकि तुम भी उसकी खोज में हो, तुम कहते हो, ‘तब मैं भी चलूंगा, और तुम उसका अनुसरण करते हो। तुम प्रसन्नता की खोज कर रहे हो- तुम्हारा प्रत्यक्ष रूप से तैरने के साथ कोई भी रूचि नहीं हैं, प्रत्यक्ष रूप से तुम्हारी दिलचस्पी प्रसन्नता के साथ है। तैरना तो केवल एक साधन है। तुम घंटों तैरते हो, तुम थक जाते हो। कुछ भी घटित नहीं हो रहा है, आनंद वहाँ नहीं है, और तुम अपने मित्र से कहते हो : ‘तुमने मुझे धोखा दिया, मैं घंटों तक तैरता रहा, पूरी तरह से थक गया और एक क्षण के लिए भी प्रसन्नता घटित नहीं हुई।’
नहीं, वह घटित नहीं हो सकती। जब तुम तैरने में पूर्ण रूप से इतने अधिक खो जाते हो कि वहाँ कोई भी व्यक्ति नहीं है,- नाव खाली है, वहाँ घर में कोई भी व्यक्ति नहीं है और मेज़बान खामोश है... । तैरना इतना अधिक गहन हो कि उसमें तैरने वाला खो जाए, और तुम सामान्य रूप में तैरो, तुम नदी के साथ खेलो, सुबह की शीतल बयार और सूरज की कुनकुनी किरणें और तुम पूरी तरह से उनमें खो जाते हो...  और वहाँ प्रसन्नता होती है। किनारे-किनारे तैरना, नदी में चारों ओर तैरना, सारे अस्तित्व में फैल जाना, उछलकर प्रकाश की एक किरण से दूसरी पर जाना और प्रत्येक हवा का झोंका तुम्हें प्रसन्नता में ले जाता है। लेकिन यदि तुम आशा और अपेक्षा करते हो तो तुम चूक जाते हो, क्योंकि आशा तुम्हें भविष्य में ले जाती है और प्रसन्नता वर्तमान में है। वह किसी सक्रियता का परिणाम नहीं है, वह एक महिमा है, वह एक बाई प्रोडक्ट अर्थात गौण है। तुम उसमें इतनी अधिक गहनता से सम्बद्ध हो जाते हो कि वह घटित होती है।
स्मरण रहे, वह एक परिणाम नहीं है, वह एक महिमा है, एक परिणाम की आशा की जा सकती है। यदि तुम दो रखकर उसमें दो जोड़ दो, तो चार के परिणाम की आशा की जा सकती है, वह दो धन दो में वहाँ जो पहले से ही है, वह बाहर आयेगा। यदि विषय और वस्तुएँ यांत्रिक और गणतीय हैं, तो परिणाम की आशा हो सकती है। लेकिन एक महिमा एक यांत्रिक चीज़ नहीं है, वह एक मार्मिक घटना है। वह केवल तभी घटित है, जब तुम आशा नहीं कर रहे हो। मेहमान तुम्हारे द्वार पर आता है और उसे खटखटाता है, जब तुम मेहमान के बारे में ज़रा भी नहीं सोच रहे थे। और वह हमेशा एक अजनबी के समान आता है, और वह हमेशा तुम्हें आश्चर्यचकित कर देता है। तुम अचानक अनुभव करते हो कि कुछ चीज़ घटित हो गई है, और यदि तुम उस बारे में सोचना शुरू कर देते हो कि यह क्या घटित हो रहा है, तो तुम उससे तुरंत चूक जाओगे। यदि तुम कहते हो : कितना अद्भुत और कितना अधिक सुंदर है, तो वह पहले ही चला जाता है और मन वापस आ जाता है। फिर से तुम उसी दुःख में वापस फेंक दिए जाते हो।
प्रत्येक व्यक्ति को गहनता से सीखना है कि वह सभी कुछ जो सुंदर है वह अप्रत्यक्ष है। तुम उस पर आक्रमण नहीं कर सकते हो, तुम उसके साथ आक्रामक नहीं हो सकते हो, और तुम उसे अस्तित्व से नहीं छीन सकते हो। यदि तुम हिसंक और आक्रामक हो तो तुम उसे नहीं पाओगे।
एक शराबी के समान उसकी ओर बिना यह जाने हुए कि वह कहाँ है और क्यों हैं, आगे बढ़ो। एक ऐसे शराबी की भाँति जो पूरी तरह नशे में अपने को खो चुका है, उसकी ओर आगे बढ़ो।
सारे ध्यान प्रयोग, सूक्ष्म रूप से तुम्हें उस अज्ञात और अलौकिक परमात्मा के शराबी बनाने के सूक्ष्म उपाय हैं, तब तुम वहाँ अपने कार्य करने वाले चेतन मन के साथ और अधिक नहीं रह जाते हो, तब तुम वहाँ आशा नहीं कर रहे होते हो, तब तुम वहाँ भविष्य की योजनाएँ बनाने को नहीं होते हो। तुम नहीं होते हो, और जब तुम नहीं होते हो, तो अचानक तुम पर आनंद के फूल बरसना प्रारम्भ हो जाते हैं। ठीक सुभूति के समान शून्य होकर ़ ़ ़ ़ ़ ़तुम आश्चर्य से भर जाते हो। तुम कभी भी आशा नहीं कर रहे थे, तुम कभी जानते तक नहीं थे। तुमने कभी भी यह अनुभव नहीं किया था कि तुम किसी भी समय उस योग्य हो- एक अनुग्रह के समान इसी तरह उसका अनुभव होता है, क्योंकि यह कुछ ऐसी चीज नहीं है जिसे तुम लाए हो, यह कुछ ऐसी चीज है, जो घटित हुई है।
इसलिए पहली बातः सत्य सीखा नहीं जा सकता, तुम्हें आनंद दिया नहीं जा सकता और बाजार से परमानंद को खरीदा नहीं जा सकता। लेकिन तुम्हारा मन निरंतर उसे पाने, खरीदने, संग्रहीत करने और खोजने की सीमा में सोचता है। तुम्हारा मन कभी भी घटना घटित होने की सीमा में नहीं सोचता, क्योंकि तुम प्रत्येक अन्य चीज को तो नियंत्रित कर सकते हो पर घटना को नियंत्रित नहीं कर सकते।
मैनें सुना है : एक बार एक व्यक्ति अचानक धनी हो गया। निश्चित रूप से जब ऐसा हुआ तो उसने वे सभी चीज इकटठी कर लीं, जिनकी हमेशा से वह कामना करता रहा था- एक बड़ा घर, एक बड़ी कार, एक तरणताल, और यह तथा वह। और तब उसने अपनी बेटी को कॉलेज भेजा। वह हमेशा से ही बच्चों को शिक्षित बनाना चाहता था लेकिन वह वैसा नहीं कर सका था, और अब वह अपनी सभी कामनाओं को पूरा करना चाहता था, और जो कुछ वह नहीं कर सका था, अब वह चाहता था कि उसके बच्चे वह करें। लेकिन कुछ दिनों बाद ही कॉलेज के डीन ने उसे पत्र लिखा और उसने पत्र में लिखा : ‘ सच तो यह है कि हम आपकी पुत्री को कॉलेज में भर्ती नहीं कर सकते क्योंकि उसके पास सीखने की क्षमता ही नहीं है।’
पिता ने कहा : ‘‘ केवल क्षमता? फिक्र मत कीजिए। उसके लिए बाजार में जो श्रेष्ठतम क्षमता उपलब्ध होगी, मैं उसे खरीदूगाँ।’’
तुम क्षमता या योग्यता को कैसे खरीद सकते हो? लेकिन एक व्यक्ति जो अचानक धनी हो गया है वह केवल खरीदने की सीमा में सोचता है। तुम शक्ति की सीमा में सोचते हो- क्रय करने की शक्ति, किसी भी चीज़ को पाने की शक्ति। स्मरण रहे, सत्य शक्ति के द्वारा नहीं पाया जा सकता, जब तुम विनम्र होते हो, वह तभी आता है। तुम्हें उसके लिए कुछ भी नहीं खरीदना होता, वह खरीदा ही नहीं जा सकता। और यह अच्छा है कि वह खरीदा नहीं जा सकता अन्यथा कोई भी व्यक्ति उसका मूल्य देने में समर्थ न होता। वह सभी कुछ जो तुम्हारे पास है, वह कूड़ा- करकट है। क्योंकि वह खरीदा नहीं जा सकता, इसी कारण जब कभी वह घटित हो सकता है। वह एक उपहार है। वह तुम्हारे साथ परमात्मा की एक सहभागिता है-लेकिन परमात्मा केवल तभी तुम्हें सहभागी बना सकता है जब तुम उसे ऐसा करने की अनुमति दो और उसे स्वीकार करो। इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुम उसे सीख सकते हो, लेकिन वह सिखाया नहीं जा सकता।
वास्तव में आध्यात्मिक संसार में वहाँ सद्गुरू नहीं केवल शिष्य होते हैं। वहाँ सद्गुरू होते हैं, लेकिन वे निष्क्रिय, सहनशील और प्रतिरोधी शक्तियों वाले होते हैं। वे कोई भी कार्य नहीं कर सकते, वे केवल वहाँ एक पुष्प के समान होते हैं। यदि कोई भी व्यक्ति नहीं आता है तो भी पुष्प अपनी सुवास शून्यता में फैलाते चले जायेगें। वह स्वयं अपनी सहायता नहीं कर सकता। पूरी बात शिष्य के द्वारा तै की जाती है; कि कैसे सीखता है? एक फूल से कैसे सीखना है? और एक फूल कुछ चीज प्रदर्शित तो करता है लेकिन उसे कहता नहीं है। वह कहा भी नहीं जा सकता। फूल कैसे कह सकता है कि सौन्दर्य क्या होता है- फूल तो बस सुंदर होता है। तुम्हें उससे प्राप्त करना है, लाभ लेना है, उसे आँखों से देखना है, नाक से उसकी गंध लेना है और कानों से उसे सुनना है, क्योंकि जब हवा उससे होकर गुजरती है तो फूल से एक सूक्ष्म ध्वनि आती है, और फूल की धड़कन का अनुभव करने के लिए तुम्हारे पास एक हृदय के होने की आवश्यकता है, क्योंकि वह भी धड़कता है- प्रत्येक जीवित चीज धड़कती है और पूरा अस्तित्व धड़कता है।
तुमने हो सकता है इसका निरीक्षण न किया हो, क्योंकि गहन ध्यान में जाने से पूर्व वह असंभव है। तुम इस वास्तविकता का निरीक्षण नहीं कर सकते कि पूरा विश्व सांस लेता है। और जैसे तुम फैलते और सिकुड़ते हो, पूरा अस्तित्व भी सिकुड़ता और फैलता है। ठीक जैसे तुम श्वास अंदर लेते हो और वह सीने में भर जाती है और जब तुम श्वास बाहर फेंकते हो और वायु बाहर जाती है तो सीना सिकुड़ जाता है, अस्तित्व भी समान लय और ताल से विद्यमान है। पूरा अस्तित्व श्वास लेता है, फैलता है, वह श्वास अंदर लेता है, वह श्वास बाहर फेंकता है- और यदि तुम अस्तित्व की लय को खोज सकते हो और उसकी ताल के साथ एक हो सकते हो तो तुम उपलब्ध हो गए।
परमानंद, ध्यान और समाधि की पूरी कला ही यह है कि कैसे विश्व की लय के साथ एक हुआ जाए। जब वह श्वास बाहर पेंफकता है तुम भी श्वास बाहर फेंको। जब वह श्वास अंदर लेता है, तुम भी श्वास अंदर लो। तुम उसमें रहते और जीते हो, उससे पृथक नहीं हो और उसके साथ एक हो। यह कठिन है क्योंकि विश्व बहुत विराट है।
एक सद्गुरू लघुरूप में सम्पूर्ण विश्व ही होता है। यदि तुम यह सीख सकते हो कि कैसे सद्गुरू के साथ श्वास अंदर ली जाए, और कैसे सद्गुरू के साथ ही श्वास बाहर फेंकी जाए, यदि तुम पूरी तरह से यह सीख सकते हो, तो तुम सभी कुछ सीख जाओगें।
उस क्षण जब पोंटियस पाइलेट ने पूँछा था- ‘सत्य क्या है?’ यदि उसने शिष्यत्व का ‘अ’, ‘ब’, ‘स’ अर्थात उसकी कुछ प्रारम्भिक बातों में से कोई भी बात जानी होती और अगला कार्य आँखें बंदकर केवल जीसस के साथ श्वास अंदर लेने और उनके ही साथ श्वास बाहर फेंकने का किया होता ... केवल जीसस के साथ श्वास लेने और बाहर छोड़ने का। जिस ढ़ंग से वह श्वास अंदर लेते हैं, तुम भी वैसे ही श्वास अंदर लो, और उसी लय में जिस ढंग से वह श्वास बाहर फेंकते हो, तुम भी श्वास बाहर फेंको और उसी लय में- और अचानक वहाँ अद्वैत अथवा एक्य हो जाता है, शिष्य विलुप्त हो गया और सद्गुरू भी विलुप्त हो गया। उस एक होने अर्थात एक्य में तुम जानते हो कि सत्य क्या है, क्योंकि उस एक्य में तुम सद्गुरू का स्वाद लेते हो।
और अब तुम्हारे पास कुंजी है- और स्मरण रहे कि यह किसी को दी नहीं गई है, इसे तुम्हारे द्वारा सीखा गया है। यह तुम्हें दी नहीं गई है, यह तुम्हें दी भी नहीं जा सकती, क्योंकि यह बहुत सूक्ष्म है। और अब इस कुंजी के साथ प्रत्येक ताला खोला जा सकता है। यह कोई साधारण कुंजी न होकर मास्टर कुंजी है- यह केवल एक ही ताला नहीं खोलती, यह सभी ताले खोलती है। अब तुम्हारे पास वह कुंजी है और एक बार यह कुंजी तुम्हारे पास होती है तो पूरे विश्व के साथ तुम इसका उपयोग कर सकते हो।
कबीर ने कहा : ‘अब मैं कहीं अधिक कठिनाई में हूँ। परमात्मा और मेरे सद्गुरू, पूरा अस्तित्व और मेरे सद्गुरू मेरे सामने खड़े हुए हैं, अब मैं पहले किसके सामने झुकूँ? अब पहले मैं किसके चरणों में गिरूँ? मैं गहरी कठिनाई में हूँ।’ और तब वह कहते हैं; परमात्मा! तू मुझे क्षमा कर, मुझे पहले सद्गुरू के चरणों पर ही जाकर गिरना होगा, क्योंकि मुझे उसने ही तुम्हें दिखलाया है। मैं उसके द्वारा ही तुम तक आया हूँ। इसलिए यदि तुम मेरे सामने खड़े हुए हो, तो मुझे क्षमा करना, पहले मुझे सद्गुरू के ही चरणों का स्पर्श करना होगा।
बहुत सुंदर है यह, इसे ऐसा होना ही है, क्योंकि सद्गुरू उस अज्ञात के लिए द्वार बन जाता है, वह पूरे अस्तित्व की कुंजी बन जाता है। वह ही सत्य है।
यह सीखो कि कैसे सद्गुरू की उपस्थिति में बने रहना है, कैसे उसके साथ श्वास लेना है, कैसे मौन बने रहकर उसे अपने अंदर गतिशील होने देना है, कैसे शांति से मौन बने हुए उसके अंदर विलीन हो जाना है, क्योंकि सद्गुरू और कुछ भी नहीं, बल्कि वह परमात्मा ही है, जिसने तुम्हारे द्वार पर खटखटाया। वह सघन हुआ पूरा अस्तित्व ही है। प्रश्न मत पूँछो, उसके साथ जीओ।
अब इस कथा में प्रवेश करने का प्रयास करो-यह बहुत छोटी है, लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है।
एक भिक्षु ने नानसेन से पूँछा : ‘क्या वहाँ ऐसी कोई सिखावन है, जिस पर इससे पूर्व किसी भी सद्गुरू ने कभी भी कोई धर्मोपदेश न दिया हो?’
जो कुछ भी धर्मापदेश दिया गया है, वह सिखावन अथवा शिक्षा नहीं है, सच्ची सिखावन कभी भी धर्मोपदेश में दी ही नहीं गई। उसे कहा नहीं जा सकता।
बुद्ध ने महाकाश्यप से कहा : ‘सभी दूसरे लोगों से मैनें वही कहा है, जो कहा जा सकता था, और तुम्हें मैं वह देता हूँ जो कहा नहीं जा सकता, जो बताया नहीं जा सकता। अब दो हजार वर्षों से बुद्ध के अनुसरणकर्त्ता, बार-बार और हर बार यह पूँछते रहे हैं कि महाकाश्यप को क्या दिया गया? महाकाश्यप को ऐसा क्या दिया गया, वह कौन-सी सिखावन थी जिसे बुद्ध ने कभी भी किसी व्यक्ति को नहीं बताई थी, जिसके बारे में बुद्ध ने भी कहा कि वह बताई अथवा कहीं नहीं जा सकती, शब्द उसे वहन करने में समर्थ न होगें।
शब्द इतने अधिक संकीर्ण हैं कि उनमें सत्य की विराटता को बने रहने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता- और वे इतने अधिक छिछले है कि वे गहराई को कैसे वहन कर सकते हैं? यह ठीक इस तरह है कि सागर की एक लहर सागर की गहराई को कैसे वहन कर सकती है? वह कर ही नहीं सकती। चीजों के वास्तविक स्वभाव के द्वारा वह असंभव है, क्योंकि यदि एक लहर अस्तित्व में है तो उसे परिधि पर ही बने रहना है। लहर गहराई तक नहीं जा सकती क्योंकि यदि वह गहराई तक जाती है तो फिर वह और अधिक एक लहर नहीं रह जाती। लहरें केवल हवाओं के साथ स्पर्श में ही अस्तित्व में मौजूद रहती हैं, उन्हें सतह पर ही होना होता है और वे गहराई में नहीं जा सकती और गहराई लहर तक नहीं आ सकती, क्योंकि जिस क्षण वह सतह तक आती है, वह और अधिक गहराई न रहकर स्वयं एक लहर ही बन जाती है।
यही समस्या है। सत्य ही केन्द्र है और शब्द सतह अथवा परिधि पर रहते हैं, जहाँ हवा और सागर मिलते हैं, जहाँ लोग मिलते हैं, जहाँ प्रश्न और उत्तर मिलते हैं, जहाँ सद्गुरू और शिष्य मिलते हैं, शब्द केवल वहाँ परिधि पर मौजूद रहते हैं।
इसलिए क्या किया जाए? वह सभी कुछ जो कहा जा सकता है वह केवल कामचलाऊ होगा, वह सत्य नहीं होगा, वह असत्य भी न होगा और वह ठीक मध्य में होगा- और वह बहुत खतरनाक है, क्योंकि यदि शिष्य सद्गुरू के साथ एकतान में होकर नहीं रहा हैं, तो वह उसे गलत समझेगा। यदि वह सद्गुरू के साथ एकतान होकर रहा है, केवल तभी वह उसे समझेगा, क्योंकि तब वहाँ एक संबंध और सम्पर्क मौजूद होता है।
समझ एक तीक्ष्ण बुद्धि का प्रश्न नहीं है, समझ एक प्रश्न है एक गहन सम्पर्क और संवाद का। समझ एक विचार-शक्ति का, बुद्धि और तर्क का प्रश्न नहीं है। समझ एक प्रश्न है गहन सहानुभूति का अथवा दूसरे व्यक्ति की योग्यता और अनुभवों को जानकर उन स्थितियों से होकर गुजरने का, इसलिए मुख्य महत्व है आस्था और श्रद्धा का। समझ आस्था के द्वारा ही घटित होती है। समझ घटित होती है आस्था के द्वारा, क्योंकि आस्था में ही तुम भरोसा करने लगते हो, भरोसा करने में तुम सहानुभूतिपूर्ण हो जाते हो, भरोसे में ही सम्पर्क करना संभव होता है, क्योंकि तब तुम सुरक्षात्मक नहीं होते हो, इसलिए तुम द्वार खुले छोड़ देते हो।
इस भिक्षु ने नानसेन से पूँछा :‘ क्या वहाँ ऐसी कोई सिखावन है जिस पर इससे पूर्व किसी भी सद्गुरू ने कभी भी कोई भी धर्मोपदेश न दिया हो?’
हाँ, वहाँ एक सिखावन है; वास्तव में वहाँ प्रत्येक सिखावन है जिस पर इससे पूर्व किसी भी सद्गुरू ने कभी कोई धर्मोपदेश नहीं दिया है। तब सद्गुरू क्यों धर्मोपदेश दिए चले जाते हैं? ऐसा क्यों है कि बुद्ध चालीस वर्षों तक बोलते ही रहे? मैं क्यों बोले चला जाता हूँ, चाहे तुम उसे ध्यान से सुनो अथवा नहीं? फिर वे क्यों बोलते हैं? यदि वह जिसे सीखना ही नहीं कहा जा सकता है। तब वे क्यों बोलते चले जाते हैं? बातें करना केवल एक जाल फैलाने जैसा है। बातचीत करने के द्वारा तुम जाल में फँस जाते हो, तुम अन्य कोई बात नहीं समझ सकते हो। बातचीत करना बच्चों को मिठाई देने जैसा है। तब वे तुम्हारे पास आना शुरू करते हैं, वे आनंदित होते हुए बेखबर होते हैं और प्रयोजन बातचीत का नहीं होता है। आनंदित रूप से बेखबर होते हुए वे मिठाइयों के लिए आते हैं, वे खिलौनों के साथ खुश हैं। लेकिन सद्गुरू जानता है कि एक बार वे आना शुरू करते हैं, तो धीमे-धीमे खिलौने पृथक किए जा सकते हैं और धीमे-धीमे वे बिना खिलौनों के ही सद्गुरू से प्रेम करना शुरू कर देंगे- और एक बार ऐसा हो जाता है तो शब्द छोड़े जा सकते हैं।
जब कभी भी एक शिष्य तैयार होता है, तो शब्दों को छोड़ा जा सकता है। वे केवल तुम्हें निकट लाने का एक उपाय हैं, क्योंकि सिवाय शब्दों के तुम कोई भी चीज नहीं समझ सकते हो। यदि कोई व्यक्ति बोलता है, तो तुम समझते हो, यदि कोई व्यक्ति मौन रहता है तो तुम नहीं समझ सकते। तुम क्या समझोगे? मौन तुम्हारे लिए केवल एक दीवार है, तुम उसमें अपना मार्ग नहीं खोज सकते हो। और मौन अपने साथ एक गहन भय भी लिए चलता है क्योंकि वह मृत्यु के समान होता है। शब्द जीवन के समान होते हैं और मौन मृत्यु के समान होता है। यदि कोई व्यक्ति मौन है तो तुम भयभीत होना शुरू हो जाते हो और यदि कोई व्यक्ति मौन में बने रहे चला जाता है तो तुम वहाँ से भाग जाने का प्रयास करोगे, क्योंकि वह बहुत अधिक और तुम्हारे लिए बहुत बड़ा बोझ बन जाता है। क्यों?-क्योंकि तुम मौन नहीं बने रह सकते और यदि तुम मौन बने नहीं रह सकते हो, तो तुम मौन को नहीं समझ सकते। तुम्हारे अंदर एक बंदर बैठा हुआ है, वह निरंतर खों- खों करते हुए शोर कर रहा है। किसी व्यक्ति ने मनुष्य को परिभाषित किया है कि वह और कुछ भी नहीं है बल्कि अहंकारपूर्ण सैद्धांन्तिक दर्शन के साथ एक बंदर ही है। और वह दर्शन और सिद्धांत और कुछ भी न होकर, बल्कि अधिक व्यवस्थित और अधिक तर्कपूर्ण ढंग से बकवास किए जाने का एक अच्छा उपाय है।
एक सद्गुरू को तुम्हें निकट लाने के लिए बातचीत करनी ही होती है। तुम जितने अधिक निकट आते हो, वह उतना अधिक शब्दों को छोड़ देगा। एक बार तुम उसके मौन की पकड़ में आ जाते हो, तो फिर वहाँ बातचीत करने की कोई भी जरूरत नहीं है। एक बार तुम जान जाते हो कि मौन क्या होता है, एक बार तुम मौन हो जाते हो, एक नया सम्पर्क अस्तित्व में आता है। अब बातें बिना कहे ही कही जा सकती हैं, बिना भेजे हुए भी संदेश दिए जा सकते हैं। बिना उसको उन्हें दिए तुम उनको प्राप्त कर सकते हो। अब शिष्यत्व की दृश्यसत्ता घटित होती है।
संसार की सबसे अधिक सुंदर घटनाओं में से शिष्य बनना एक है, क्योंकि अब तुम जानते हो कि सम्बंध और सम्पर्क क्या होता है। अब तुम सद्गुरू के ही साथ श्वास लेते हो वायु को अंदर खींचते हो और उसे बाहर फेंकते हो, अब तुम सीमाओं को खो देते हो और उसके साथ एक हो जाते हो। अब उसके हृदय की कुछ चीज तुम्हारी ओर प्रवाहित होनी शुरू हो जाती है, और अब उसकी कुछ चीज तुम्हारे अंदर आ जाती है।
      एक भिक्षु ने नानसेन से पूँछा :- क्या वहाँ ऐसी कोई सिखावन है, जिस पर इससे पूर्व, किसी भी सद्गुरू ने कभी भी कोई भी धर्मोपदेश न दिया हो?
नानसेन, ज़ेन के सबसे अधिक प्रसिद्ध सद्गुरूओं में से एक है। उसके बारे में अनेक कहानियाँ कही जाती है। उनमें से एक, मैं तुम्हें कई बार बता चुका हूँ। मैं उसे फिर दोहराऊँगा, क्योंकि इस तरह की कहानियों को बार-बार दोहराना पड़ता है जिससे तुम उन्हें अपने हृदय में धारण कर सको। वे एक तरह का पौष्टिक आहार है। तुम्हें प्रतिदिन पौष्टिक आहार लेना होता है, और तुम यह नहीं कहते-‘कल सुबह मैंने नाश्ता लिया था और अब इस बारे में उसकी कोई भी जरूरत नहीं है। प्रत्येक दिन तुम्हें भोजन करना होता है; तुम यह नहीं कहते- ‘कल मैंने भोजन लिया था, अब उसकी क्या जरूरत है?’
ये कहानियाँ एक पौष्टिक आहार है। इसके बारे में भारत में एक विशिष्ट शब्द मौजूद है, उसका अंग्रेजी में अनुवाद नहीं किया जा सकता। अंग्रेजी में ‘पढ़ना’ शब्द विद्यमान है, भारत में इसके लिए हमारे पास दो शब्द हैं; एक का अर्थ है पढ़ना अथवा अध्ययन करना और दूसरे का अर्थ है एक ही चीज का बार-बार पाठ करना। तुम एक ही समान चीज का बार-बार पाठ करते हो, वह एक भाग के समान है। प्रत्येक दिन सुबह तुम गीता का पाठ करते हो, तब यह उसका पढ़ना नहीं है, क्योंकि तुम्हें उसका अनेक बार पाठ करना होता है। अब यह एक तरह का पौष्टिक भोजन है। तुम उसे पढ़ते नहीं, तुम प्रतिदिन उसका भोजन करते हो।
यह भी एक महान प्रयोग है, क्योंकि प्रतिदिन तुम उनमें नये अर्थों के उतार-चढ़ाव पाओगे और प्रतिदिन अर्थों में बहुत सूक्ष्म अंतर और अनुभूतियाँ पाओगे। एक ही पुस्तक के समान शब्द है लेकिन प्रत्येक दिन तुम अनुभव करोगे कि तुम्हारे सामने कुछ नई गहराइयाँ खुल गई हैं। प्रतिदिन तुम महसूस करोगे जैसे तुम कुछ नई चीज पढ़ रहे हो, क्योंकि गीता अथवा इसी तरह की धर्मग्रंथों के पास एक गहराई है। यदि तुम्हें एक बार ही पढ़ते हो, तो तुम केवल परिधि पर घूमोगे, यदि तुम उसे दूसरी बार पढ़ते हो तो थोड़ी अधिक गहराई पाओगे और तीसरी बार पढ़ने पर, तुम गहराई में उतरते चले जाते हो। एक हजार बार पढ़ोगे, और तब तुम समझोगे कि तुम इन ग्रंथों से कभी थक नहीं सकते, यह असंभव है। तुम जितने अधिक सजग और सचेत होते हो, तुम्हारी चेतना उतनी ही अधिक गहराई तक विकसित होती है- यही इसका अर्थ है।
नानसेन की इस कथा को मैं फिर दोहराऊँगा। एक दर्शनशास्त्र का प्रोफेसर उसके पास आया---- दर्शनशास्त्र अथवा तत्वज्ञान एक बीमारी है, और वह एक कैंसर के समान है, अभी तक उसकी कोई भी दवा मौजूद नहीं है, तुम्हें आपरेशन से होकर गुजरना होता है, और एक बड़े आपरेशन की जरूरत होती है। कैंसर के बढ़ने और फैलने के समान पि़्ाफलासफी भी विकसित होकर बढ़ती है और फैलती है। यह एक बार तुम्हारे अंदर हो जाती है तो यह स्वयं विकसित होती है और यह तुम्हारी सभी ऊर्जाओं को सोख लेती है। यह एक परजीवी अर्थात एक पैरासाइट है। तुम दुर्बल और अधिक दुर्बल होते चले जाते हो और वह शक्तिशाली से भी शक्तिशाली हो जाती है। प्रत्येक शब्द, दूसरे शब्द का सृजन करता है और वह अनंत तक जा सकती है।
तो एक पि़्ाफलासफर नानसेन के पास आया। नानसेन एक छोटी- सी पहाड़ी पर रहता था, और जब वह दार्शनिक पहाड़ी के ऊपर आया तो वह थककर पसीने से नहा रहा था। जिस क्षण उसने नानसेन की झोपड़ी में प्रवेश किया, उसने पूँछा-‘सत्य क्या है?’
नानसेन ने कहा : ‘‘सत्य थोड़ी-सी प्रतीक्षा कर सकता है। इस बारे में शीघ्रता करने की कोई जरूरत नहीं है। ठीक अभी आपको एक प्याले चाय की आवश्यकता है, क्योंकि आप इतने अधिक थक गए हैं।’’ नानसेन अंदर गया और उसने एक कप चाय तैयार की।
यह केवल एक जेन सद्गुरू के ही साथ ही हो सकता है। भारत में तुम यह सोच भी नहीं सकते कि शंकराचार्य तुम्हारे लिए चाय तैयार कर रहे हैं। तुम्हारे लिए- और शंकराचार्य चाय बनायें? असंभव है। अथवा जरा सोचो, महावीर तुम्हारे लिए चाय बना रहे हैं...  यह मूर्खतापूर्ण और असंगत बात है।
लेकिन एक जेन सद्गुरू के साथ यह हो सकता है। उनका पूर्णरूप से भिन्न दृष्टिकोण है। वे जीवन से प्रेम करते हैं। वे जीवन विरोधी नहीं है। वे जीवन को स्वीकार करते हैं और वे उसके विरूद्ध नहीं हैं। और वे सामान्य लोग हैं, और वे कहते हैं कि सामान्य बने रहना ही सबसे बड़ी असामान्य बात है। वे लोग वास्तव में एक सरल सामान्य जीवन जीते हैं। जब मैं कहता हूँ- वास्तव में एक सरल और सामान्य जीवन, तो मेरा अर्थ आरोपित सरलता और सामान्यता से नहीं है। भारत में तुम चारों ओर ऐसे ढ़ोंगी खोज सकते हो जो प्रभावित करने के लिए सरलता ओढ़े हुए हैं। वे नग्न और पूर्ण रूप से नग्न भी हो सकते हैं लेकिन वे सरल सामान्य नहीं है और उनकी नग्नता बहुत जटिल है। उनकी नग्नता एक बच्चे की नग्नता नहीं हैं, उन्होनें उसे उत्पन्न कर विकसित करने का प्रयास किया है और प्रयास से विकसित की गई चीज कैसे सरल और सामान्य हो सकती है? उन्होनें इसके लिए स्वयं को अनुशासित किया है, और एक अनुशासित चीज कैसे सरल हो सकती है? वह बहुत अधिक जटिल है।
तुम्हारे वस्त्र उतने अधिक जटिल और पेचीदा नहीं हैं जितनी कि एक दिगम्बर जैन मुनि की नग्नता है। उसने अनेक वर्षों तक उसके लिए संघर्ष किया है। उन लोगों के पास पाँच कदम हैं, तुम्हें प्रत्येक कदम को धीमे-धीमे पूरा करना होता है, और तब तुम नग्नता को उपलब्ध होते हो। यह एक कार्यसिद्धि है और एक कार्यसिद्धि सरल और सामान्य कैसे हो सकती है? यदि तुम उसके लिए कई वर्षों तक कार्य करते हो, यदि तुम उसे पाने का प्रत्येक प्रयास करते हो, तो वह सरल और सामान्य कैसे हो सकती है? एक सरल और सामान्य चीज तो अभी और यहीं तुरंत ही प्राप्त की जा सकती है और उसके लिए वहाँ कार्य करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है।
नग्नता जब सहज और सामान्य होती है तो वह एक प्रभावशाली और गौरवमय घटना होती है; तुम सामान्य रूप से वस्त्र छोड़ देते हो। ऐसा महावीर के साथ घटित हुआ-वह बहुत सहज और सामान्य था। जब उन्होनें घर छोड़ा तो वह एक शाल ओढ़े हुए थे; तब एक गुलाब की झाड़ी से गुजरते हुए उनका शाल काँटों में उलझ गया इसलिए उन्होंने सोचा कि यह शाम का समय है और गुलाब का झाड़ सोने जा रहा है और उसे हटाने से वह अव्यवस्थित हो जाएगा। इसलिए शॉल का आधा भाग जो काँटों में उलझा था, उसे फाड़कर उन्होनें उसे वहीं छोड़ दिया। वह शाम का समय था और उनकी चेष्टा सुंदर थी। वह उन्होनें नग्न होने के लिए नहीं किया था, वह गुलाब की झाड़ी के लिए किया था और अगली सुबह उनके पास आधा शाल बचा था और वह आधे नंगे थे, एक भिखारी ने उनसे कुछ चीज माँगी- और उनके पास देने को अन्य कुछ भी न था। ‘न’ कैसे कहा जाए, जब तुम्हारे पास देने को फिर भी कुछ चीज अर्थात आधा शाल बचा हो इसलिए उन्होनें उसे भिखारी को दे दिया। इस नग्नता में श्रेष्ठता जैसी कुछ चीज है, जो सहज और सामान्य है। उसका अभ्यास वहीं किया गया था। वह घटित हुई थी। लेकिन एक जेन मुनि उसका अभ्यास करता है।
ज़ेन भिक्षु बहुत सहज और सामान्य लोग है। वे एक सामान्य जीवन जीते हैं, जैसे कि अन्य प्रत्येक व्यक्ति जीता है।
वे कोई भी अंतर नहीं बनाते, क्योंकि सभी अंतर मूलरूप से अहंकारपूर्ण हैं। और इस खेल को तुम कई तरह से खेल सकते हो, लेकिन खेल तुम्हारी अपेक्षा अधिक ऊँचा पर समान बना रहता है। खेल वही बना रहता है; मेरे पास अधिक धन है, मैं तुम्हारी अपेक्षा अधिक उच्च हूँ, मैं अधिक शिक्षित हूँ, मैं तुम्हारी अपेक्षा अधिक ऊँचा हूँ, मैं अधिक पवित्र हूँ, और मैं तुम्हारी अपेक्षा उच्च हूँ, मैं अधिक धार्मिक हूँ, मैं तुम्हारी अपेक्षा उच्च हूँ, और मैंने कहीं अधिक त्याग किया है और मैं तुम्हारी अपेक्षा उच्च हूँ।
नानसेन अंदर गया, चाय तैयार की, बाहर आया और प्रोफेसर के हाथ में प्याला दिया और अपनी केतली से उसमें चाय उड़ेली। प्याला पूरा भर गया। उस क्षण तक प्रोफेसर ने प्रतीक्षा की, क्योंकि उस क्षण तक प्रत्येक चीज उचित थीः एक थका हुआ व्यक्ति आता है, तुम उसके लिए करूणा का अनुभव करते हो और तुम चाय तैयार करते हो। वास्तव में वह वैसा ही था जैसा होना चाहिए था। तब तुम प्याले को भरते हो, वह भी ठीक है। लेकिन तभी कुछ असंगत चीज घटित हुई।
नानसेन चाय उड़ेलता चला गया, प्याले में से चाय छलक रही थी। तब प्रोफेसर को थोड़ा-सा आश्चर्य हुआ। यह व्यक्ति क्या कर रहा है? लेकिन तब भी उसने प्रतीक्षा की। वह भली-भाँति एक अनुशासित व्यक्ति था, वह इस तरह की छोटी चीजों को सहन कर सकता था। हो सकता है वह थोड़ा- सा सनकी हो ़ ़ ़ ़ ़ ़ लेकिन तब प्याले के नीचे रखी तश्तरी भी चाय से पूरी भर गई थी और नानसेन चाय उड़ेलता जा रहा था।
अब यह बहुत अधिक हो चुका था। अब कुछ चीज की जानी थी, क्योंकि अब चाय छलक कर फर्श पर गिर रही थी। उसने चीखते हुए कहा : ‘‘रूकिए। यह आप क्या कर रहे हैं? अब इस प्याले में और अधिक चाय नहीं आ सकती। क्या आप यह साधारण-सी चीज भी नहीं देख सकते? क्या आप पागल हो गए हैं?’’
नानसेन ने हँसना शुरू कर दिया और कहा :‘‘ यही है वह बात जो मैं सोच रहा था। क्या आप पागल हैं- क्योंकि आप यह तो देख सकते हैं कि प्याला पूरा भरा हुआ है और उसमें अब एक और बूंद भी नहीं आ सकती, लेकिन आप यह नहीं देख सकते कि आपका मन और बुद्धि भी पूरे भरे हुए हैं और उसमें सत्य की एक और बूंद भी नहीं समा सकती। आपकी बुद्धि का प्याला पूरा भरा हुआ है और आपकी प्लेट भी भरी हुई है और प्रत्येक चीज फर्श पर बह रही है। ज़रा देखिए, आपका तत्वज्ञान मेरी झोपड़ी में चारों ओर बिखरा पड़ा है और आप उसे नहीं देख सकते। लेकिन आप एक बुद्धिमान व्यक्ति हैं, जो कम-से-कम चाय को तो देख सके। अब दूसरी चीज को भी देखिए।’’
इस नानसेन ने अनेक लोगों की भिन्न-भिन्न उपायों से जागने में सहायता की और उसने लोगों को जगाने के लिए अनेक तरह की स्थितियाँ सृजित की।
एक भिक्षु ने नानसेन से पूँछा : क्या वहाँ ऐसी कोई सिखावन है, जिस पर इससे पूर्व किसी भी सद्गुरू ने कभी भी कोई धर्मोपदेश न दिया हो?
नानसेन ने उत्तर दिया :‘हाँ, वह है।’ भिक्षु ने पूछा : ‘वह क्या है?’ नानसेन ने उत्तर दिया : ‘‘वह मन नहीं है, वह बुद्ध नहीं है, वह विषय और वस्तु नहीं है।’’
अब यदि किसी भी सद्गुरू ने उसे कभी भी न कहा हो, तो नानसेन उसे कैसे कह सकता है? प्रश्नकर्त्ता मूर्ख है, जो एक मूर्खतापूर्ण प्रश्न पूँछ रहा है। यदि किसी भी व्यक्ति ने उसे नहीं कहा है, तो नानसेन उसे कैसे कह सकता है? यदि सभी बुद्ध भी उसके बारे में मौन रहे हैं, यदि बुद्धों ने एक शब्द का भी उच्चारण नहीं किया है और उसे नहीं कहा जा सका, तब नानसेन उसे कैसे कह सकता है? लेकिन नानसेन ने इस मूर्ख व्यक्ति की भी सहायता करनी चाही।
और इस स्थान में चारों ओर मूर्ख व्यक्ति ही हैं, क्योंकि यदि तुम बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो जाते, तो तुम मूर्ख ही बने रहते हो। इसलिए मूर्खता एक तिरस्कार नहीं है, वह केवल एक स्थिति और वास्तविकता है। एक व्यक्ति जो बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं है, मूर्ख ही बना रहेगा- इस बारे में कोई अन्य उपाय नहीं है। और यदि वह स्वयं को बुद्धिमान होने का अनुभव करता है, तब वह और अधिक मूर्ख है। यदि वह अनुभव करता है कि वह मूर्ख है, तब प्रज्ञा का प्रारम्भ हो गया है और तब उसका जागना प्रारम्भ हो गया है। यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम अज्ञानी हो, तब तुम मूर्ख नहीं हो। यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम जानते हो तो तुम पूर्ण रूप से मूर्ख हो-न केवल मूर्ख हो बल्कि तुम भूमि के अंदर इतने अधिक धँसे हुए हो कि उससे बाहर आने की वहाँ कोई भी संभावना प्रतीत नहीं होती है।
नानसेन इस मूर्ख व्यक्ति की सहायता करना चाहता है क्योंकि इस बारे में अन्य दूसरे लोग नहीं हैं, इसी कारण वह बोलता है और वह उत्तर देता है। लेकिन उसे सभी नकारात्मक अथवा निषेधी शब्दों का प्रयोग करना होता है, वह कुछ भी स्पष्ट और सुनिश्चित नहीं कहता है। वह तीन नकारात्मक शब्दों का प्रयोग करता है। वह कहता है।
वह मन नहीं है, वह बुद्ध नहीं है
वह विषय और वस्तु भी नहीं है।
तुम सत्य को तो नहीं कह सकते लेकिन जो नहीं हैं, तुम वह कह सकते हो। तुम नहीं कह सकते कि वह क्या है लेकिन तुम नकारात्मक रूप से उसका संकेत दे सकते हो। नकार के द्वारा वह कहा जा रहा है, जो वह नहीं है। सभी सद्गुरूओं ने यही सब कुछ किया है। यदि तुम आग्रह करते हो कि वे कुछ बात कहें, तो वे कुछ नकारात्मक बात कहेगें। यदि तुम उनके मौन को समझ सकते हो, तो तुम स्पष्ट और सुनिश्चित सत्य को समझ सकते हो। यदि तुम उनके मौन को नहीं समझ सकते हो, और शब्दों के लिए आग्रह करते हो, तो वे कुछ नकारात्मक बात कहेगें।
इसे समझो : शब्द नकारात्मक कार्य कर सकते हैं और मौन सुनिश्चित कार्य कर सकता है। मौन सबसे अधिक सुनिश्चित और स्पष्ट चीज़ है और भाषा सबसे अधिक नकारात्मक है। जब तुम बोल रहे हो तो तुम स्पष्टता में गतिशील हो रहे हो और जब तुम मौन बने रहते हो तो तुम स्पष्टता में गतिशील हो रहे हो। सत्य क्या है? उपनिषदों से पूँछो : कुरान, बाईबिल और गीता से पूछो : वे सभी कहते है- वह क्या नहीं है परमात्मा क्या है? वे सभी कहते हैं-वह क्या नहीं है?
वह तीन चीजों से इन्कार करते हैं- वह विषय-वस्तुएँ नहीं है अर्थात वह संसार नहीं है, यह वह नहीं है जिसे तुम देखते हो, यह वह नहीं है जो तुम्हारे चारों ओर है। यह वह नहीं है जिसे तुम मन के द्वारा देख सकते हो, वह विषय और वस्तुएँ नहीं है। और दूसरा- वह मन नहीं है, वह कार्य करने वाली चेतना नहीं है, न तो तुम्हारे चारों ओर का यह संसार और न यह मन जो तुम्हारे अंदर है। नहीं, ये दो चीजें सिखावनें नहीं हैं, और न वे सत्य हैं।
लेकिन तीसरी चीज, केवल बुद्धों ने उससे इन्कार किया है, केवल पूर्ण सद्गुरूओं ने ही इन्कार किया है, और तीसरी चीज है : वह बुद्ध नहीं है।
और बुद्ध क्या है?
तुम्हारे चारों ओर पहली सीमा है- वस्तुओं का संसार। वस्तुएँ पहली सीमा हैं, विचार दूसरी सीमा हैं- निश्चित रूप से वह निकट है, तुम्हारे निकटतम है। तुम एक ही केन्द्र से तीन वृत खींच सकते है : पहला बड़ा वृत्त है- वस्तुओं का संसार, दूसरा बीच वाला घेरा है- विचारों का संसार, और तब रह जाता है तीसरा वृत और बुद्ध ने उससे भी इन्कार किया है- स्वयं का व्यक्तित्व, साक्षी, आत्मा, चेतना, बुद्ध। केवल गौतम बुद्ध उससे भी इन्कार करते हैं।
उसे सभी दूसरों ने भी जाना है : उसे जीसस जानते हैं, उसे कृष्ण जानते हैं, लेकिन वे उससे इन्कार नहीं करते, क्योंकि वह तुम्हारे समझने के लिए बहुत अधिक हो जाएगा। इसलिए वे दो चीजों से इन्कार करते हैं : वे कहते हैं कि यह संसार एक माया है, एक भ्रांति है और वह मन जो इस संसार को देखता है, वह भी एक भ्रांति है। मन और संसार एक ही चीजें हैं, वे समान सिक्के के दो पहलू हैं। मन स्वप्न सृजित करता है, सपना एक भ्रांति है और उसका स्त्रोत मन भी एक भ्रांति है। लेकिन वे कहते हैं कि वह तीसरा है- साक्षी होना। अपनी गहन चेतना में जहाँ केवल तुम एक साक्षी होते हो, एक विचारक नहीं होते, जहाँ विचारों का कोई भी अस्तित्व नहीं होता, न कोई वस्तु होती है केवल तुम होते हो- वे लोग इससे इन्कार नहीं करते। बुद्ध ने इससे भी इन्कार किया है।
वह कहते हैं : ‘न संसार, न मन और न आत्मा’। यह सर्वोच्च सिखावन है- क्योंकि यदि वस्तुएँ नहीं हैं, तो विचार कैसे हो सकते हैं? यदि विचार नहीं हैं तो तुम उनके साक्षी कैसे हो सकते हो? यदि संसार एक माया है, तब मन जो इस संसार की ओर देखता है, सत्य नहीं हो सकता है। मन एक भ्रांति है। तब साक्षी, जो मन की ओर देखता है, वह भी सत्य कैसे हो सकता है? बुद्ध अस्तित्व के गहनतम केन्द्र तक जाते हैं। वह कहते है : वह सभी कुछ जो तुम हो, वह असत्य है- तुम्हारी वस्तुएं तुम्हारे विचार और तुम सभी असत्य हो।
लेकिन ये तीन नकार हैं। बुद्ध का मार्ग, नकारात्मक मार्ग है, उनके वक्तव्य नकारात्मक हैं। इसी कारण हिंदू उन्हें नास्तिक कहते हैं, वे उन्हें परमात्मा में विश्वास न करने वाला पूर्ण रूप से एक शून्यवादी कहते हैं। लेकिन वह ऐसे हैं नहीं। जब इन तीनों चीजों से इन्कार कर दिया गया, तो जो रह जाता हैं वह सत्य है। जब वस्तुएँ विलुप्त हो जाती हैं, विचार मिट जाते हैं और साक्षी होना भी मिट जाता है- जब वे तीनों चीजें जिन्हें तुम जानते हो विलुप्त हो जाती हैं, तो जो बच रहता है, वही सत्य है। और वह जो रह जाता है, वही मुक्त करता है, वह जो रह जाता है, वही निर्वाण अथवा बुद्धत्व है।
बुद्ध बहुत-बहुत गहन हैं। उसके कहने में उनकी अपेक्षा कोई भी व्यक्ति इतनी अधिक गहराई में नहीं गया है। बहुत से लोग सारभूत सत्य तक तो पहुँच गए हैं, लेकिन बुद्ध ने उसे कहने में भी पूर्ण-कुशल होने का प्रयास किया। वह कभी भी एक भी सुनिश्चित बात नहीं कहते हैं। यदि तुम किसी स्पष्टता के बारे में पूँछते हो तो वह पूर्ण रूप से मौन बने रहते हैं। वह कभी नहीं कहते कि परमात्मा है, वह कभी नहीं कहते कि आत्मा है, वास्तव में वह कभी भी ‘है’ शब्द का प्रयोग ही नहीं करते। तुम पूँछो और वह ‘नहीं’ शब्द का प्रयोग करेंगे। प्रत्येक चीज के लिए उनका उत्तर ‘न’ है। और यदि तुम समझ सकते हो, यदि तुम उनके सम्पर्क का अनुभव कर सकते हो, तो तुम देखोगे कि वह ठीक हैं।
जब तुम प्रत्येक चीज से इन्कार करते हो, तो उसका यह अर्थ नहीं है कि तुमने प्रत्येक चीज को मिटा दिया है। इसका केवल यह अर्थ है कि वह संसार जो तुमने सृजित किया था, वह तुमने मिटा दिया है। जो सत्य है वह बना रहता है क्योंकि सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। लेकिन तुम उसे कह नहीं सकते हो। तुम उसे जानते हो, लेकिन तुम उसे बता नहीं सकते हो। जब तुम इन सभी तीनों से इन्कार करते हो, जब तुम इन तीनों के पार चले जाते हो, तुम एक बुद्ध हो जाते हो। तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए हो।
बुद्ध कहते हैं कि जब ये तीनों मूर्च्छाएँ अर्थात निद्राएँ टूटती हैं, केवल तुम तभी जागते हो। एक निद्रा वस्तुओं के साथ अचेत हो जाने की है, अनेक लोग वहाँ सोये हुए हैं। यह सबसे अधिक स्थूल नींद है। लाखों करोड़ों लोग, अठानवें प्रतिशत लोग इस बारे में सोये हुए हैं-यह पहली और स्थूलतम नींद हैं। यह नींद वस्तुओं के साथ है। एक व्यक्ति अपनी बैंक में जमा धनराशि के बारे में सोचता चला जाता है, कोई अन्य व्यक्ति अपने घर के बारे, अपने कपड़ों के बारे में अथवा इसके और उसके बारे में सोचता चला जाता है और वह उन्हीं में जीता है। वहाँ ऐसे भी लोग हैं जो केवल वस्तुओं के सूचीपत्रों को ही पढ़ते रहते हैं ़ ़ ़ ़ ़ ़
मैंने एक कहानी सुनी है : एक धार्मिक व्यक्ति रात भर के लिए एक परिवार में ठहरा हुआ था। सुबह होते ही, जैसी कि उसकी आदत थी, उसने बाइबिल के थोड़े- से भाग को पढ़ने के साथ एक छोटी-सी प्रार्थना करनी चाही। उस घर का छोटा बच्चा उस कमरे से होकर गुजर रहा था, इसलिए उसने बच्चे से पूँछा और उस पुस्तक को लाने को कहा-क्योंकि उसने सोचा कि हो सकता है कि बच्चा यह न समझ सके कि कौन-सी पुस्तक लाना है, इसलिए उसने उससे कहा- ‘वह पुस्तक ले आओ जिसे तुम्हारी मम्मी रोज पढ़ा करती हैं।’ बच्चे ने पूरी पृथ्वी भर की सभी वस्तुओं की सूची की पुस्तक लाकर दी, क्योंकि उसकी मम्मी प्रतिदिन, यही वह पुस्तक थी जिसे पढ़ती रहती थीं।
उनमें से अट्ठानवे प्रतिशत लोग वस्तुओं के बारे में सोए हुए हैं। खोजने का प्रयास करो कि तुम कहाँ सोए हुए हो, क्योंकि कार्य वहीं से प्रारम्भ करना है। यदि तुम वस्तुओं के साथ सोये हुए हो, तो तुम्हें वहीं से प्रारम्भ करना होगा। वस्तुओं के साथ की उस नींद को छोड़ दो।
लोग वस्तुओं के बारे में क्यों सोचते चले जाते हैं? मैं कलकत्ते में जिस घर में ठहरा करता था, वहाँ रहने वाली स्त्री के पास अनिवार्य रूप से कम से-कम एक हजार साड़ियाँ तो होना ही चाहिए थीं, और प्रत्येक दिन उसके लिए यह एक समस्या होती है...  जब मैं उसके पति के साथ वहाँ कार में बैठा होता, तो उसका पति पत्नी को बुलाने के लिए कार का भोपूं बजाये चले जाता और वह कहती- ‘बस, मैं आ रही हूँ’- और उसके लिए यह निर्णय करना कठिन था कि कौन-सी साड़ी पहिनी जाए। इसलिए मैनें उससे पूँछा : ‘प्रतिदिन, यह आपके लिए एक समस्या क्यों होती हैं?’
इसीलिए वह मुझे अपने कमरे में ले गई और वहाँ टंगी अपनी साड़ियों को मुझे दिखाते हुए कहा-‘ आप भी उलझन में पड़ गए होगें। मेरे पास एक हजार साड़ियाँ हैं और यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि किसे चुना जाए, कौन-सी इस अवसर के लिए उचित और ठीक होगी?’
क्या तुमने लोगों को देखा है? सुबह शुरू होते ही वे अपनी कार की सफाई करना शुरू कर देते हैं, जैसे मानो वह उनकी बाइबिल हो और उनका परमात्मा हो। ‘वस्तुएं,’ सबसे अधिक स्थूल हैं, यह पहली नींद है। यदि तुम वस्तुओं के साथ बहुत अधिक आसक्त हो और निरंतर वस्तुओं के बारे में ही सोच रहे हो, तो तुम वहाँ सोये हुए हो। तुम्हें उससे बाहर आना होगा। तुम्हें यह देखना होगा कि तुम्हारे पास किस तरह की आसक्ति है, तुम कहाँ चिपके हुए हो और आखिर किसके लिए? तुम वहाँ से क्या प्राप्त करने जा रहे हो?
तुम अपनी वस्तुओं में वृद्धि कर सकते हो, तुम एक विशाल साम्राज्य इकट्ठा कर सकते हो, लेकिन जब तुम मरते हो, तो तुम वस्तुओं के बिना ही जाओगे। मृत्यु तुम्हें तुम्हारी नींद से बाहर लाएगी? मृत्यु जो भी करती है, उससे पूर्व अच्छा यही है कि तुम स्वयं को उससे बाहर लाओं? तब मृत्यु में वहाँ कोई भी पीड़ा नहीं होगी। मृत्यु इतनी अधिक पीड़ादायक होती है, इस कारण इस पहली नींद को तोड़ना है, क्योंकि तुम्हें वस्तुओं से अपने को खींचकर अलग कर लेना हैं।
तब वहाँ दूसरी नींद है, मन की नींद। इस बारे में ऐसे लोग भी हैं जिनकी वस्तुओं के साथ कोई भी दिलचस्पी नहीं होती है- केवल एक प्रतिशत लोग ऐसे होते हैं जिनकी वस्तुओं में कोई भी अभिरूचि नहीं होती है और जिनका संबंध मन के साथ होता है। वे लोग यह फिक्र नहीं करते कि वे किस तरह के वस्त्रों का प्रयोग करते हैं। सामान्य रूप से ये लोग कलाकार, उपन्यासकार, कवि अथवा चित्रकार होते हैं, जो वस्तुओं के बारे में फिक्र नहीं करते हैं और वे मन में जीते हैं। वे लोग भूखे और नंगे रह सकते हैं, वे एक झोपड़ी में रह सकते हैं, लेकिन वे मन में कार्य किए चले जाते हैं। जो उपन्सास वे लिख रहे हैं ़ ़ ़ ़ ़ ़और वे सोचते चले जाते हैं कि मैं तो अमर नहीं हो सकता हूं, लेकिन मेरा उपन्यास जो मैं लिखने जा रहा हूं वह अमर होने जा रहा है, वह चित्र जो मैं बना रहा हूँ, वह अमर होने जा रहा है। लेकिन जब तुम अमर नहीं हो सकते, तो तुम्हारा चित्र कैसे अमर बन सकता हैं? जब तुम्हें विनष्ट होना है, जब तुम्हें मरना है, तो प्रत्येक चीज जो तुम सृजित करते हो वह भी मरेगी, क्योंकि यह कैसे संभव है कि मृत्यु से किसी शाश्वत चीज का जन्म हो सकता है?
तब इस स्थान में ऐसे लोग भी हैं, जो दर्शनशास्त्र के विचारों के बारे में सोचे चले जाते हैं और वे वस्तुओं को भुलाकर उनके बारे में अधिक चिंतित नहीं हैं।
एक बार ऐसा हुआ : इमेनुअल अपनी क्लास लेने के लिए कॉलेज आ रहा था। वह समय का पूर्ण पाबन्द था, वह कभी भी एक भी बार नियत समय पर अनुपस्थित नहीं होता था और न कभी भी देरी से आता था। वह बिल्कुल ठीक समय पर क्लास में प्रवेश करता। उसने कभी भी अपने वस्त्रों के बारे में, अपने घर अथवा भोजन अथवा किसी भी चीज के बारे में कभी भी कोई फिक्र नहीं की। उसने कभी भी विवाह नहीं किया, क्योंकि वह कोई बड़ी समस्या नहीं थी, केवल एक सेवक से ही उसका काम चल जाता। वह भोजन बना सकता था और घर की देखभाल भी कर सकता था। उसने कभी भी एक पत्नी की अथवा किसी अन्य व्यक्ति की जो घनिष्ट हो अथवा एक मित्र हो, जरूरत महसूस नहीं की। जहाँ तक सांसारिक वस्तुओं का संबंध था उसके लिए एक सेवक ही ठीक था। वह सेवक वास्तव में स्वामी था, क्योंकि वह ही प्रत्येक वस्तु खरीदता, वही उसके धन की, घर की और प्रत्येक बात की देखभाल करता।
इमेनुअल कांट उस घर में एक अजनबी के समान रहता था। यह कहा जाता है कि उसने घर की ओर कभी नहीं देखा। वह यह भी नहीं जानता था कि घर में कितने कमरे थे। और किस तरह का उसमें फर्नीचर था। यदि तुमने उससे उसके कमरे में रखी हुई किसी चीज के बारे में पूँछा, जो तीस वर्षों से रखी हुई थी तो वह उसे पहिचानने में समर्थ नहीं होता था। लेकिन उसकी अधिक अभिरूचि विचारों के साथ थी- वह विचारों के ही संसार में रहता था- और उसके बारे में अनेक कहानियाँ बताई जाती हैं। वे कहानियाँ आकर्षक हैं, क्योंकि एक व्यक्ति जो विचारों के संसार में रहता है, हमेशा उसकी प्रवृत्ति चारों ओर की संसार की सभी वस्तुओं के बारे में भूल जाने की होती है, क्योंकि तुम दो संसारों में नहीं रह सकते हो।
तो वह अपने क्लास की ओर जा रहा था, सड़क पर बहुत कीचड़ थी और उसका एक जूता कीचड़ में फँस गया, इसलिए उसने उसे वहीं छोड़ दिया और एक जूता पहिने हुए ही क्लासरूम में गया किसी व्यक्ति ने उससे पूँछा-‘ आपका दूसरा जूता कहाँ है?
उसने कहा : ‘ वर्षा हो रही थी और सड़क पर कीचड़ थी, सड़क की कीचड़ में जूता फँस गया।
लेकिन जिस व्यक्ति ने पूंछा था उसने कहा- ‘ तब आप उसे वापस पा सकते थे।
इमैनुअल कांट ने उत्तर दिया : ‘वहाँ उस समय मेरे मन में विचारों की एक श्रृंखला थी और मैं उसके साथ हस्तक्षेप नहीं करना चाहता था। यदि मैंने जूते को पाने में दिलचस्पी ली होती तो मेरे विचारों की लीक खो गई होती और वहाँ इतने अधिक सुंदर विचार चल रहे थे कि कौन इस बात की फिक्र करता है कि तुम क्लास में एक जूते अथवा दोनों जूतों के साथ आते हो।’ पूरा कॉलेज यह सुनकर हँस पड़ा, लेकिन उसका उससे कोई भी संबंध न था।
एक बार ऐसा हुआ कि शाम के वक्त वह टहलने के बाद घर वापस लौटा ़ ़़ ़ ़ ़ ़ ़ ़ ़ वह अपने पास टहलने की एक छड़ी रखता था, और वह उस समय विचारों में इतना अधिक तल्लीन हो गया था, कि घर आकर उसने वह प्रत्येक कार्य किया जो वह प्रतिदिन किया करता था, लेकिन वह कुछ बात भूल गया। वह संसार की और अपने चारो ओर की वस्तुओं के बारे में इतना अधिक भूल गया कि उसने टहलने वाली छड़ी को तो बिस्तरे पर रख दिया, जहाँ वह स्वयं अपने को रखा करता था और स्वयं कमरे के कोने में जाकर खड़ा हो गया जहाँ वह छड़ी को रखा करता था ़ ़ ़ ़ ़ ़ ़ ़ ़ वह थोड़ा- सा सोच विचार के कारण भ्रमित हो गया था।
दो घंटों के बाद सेवक सचेत हुआ कि कमरे में रोशनी क्यों हो रही है, और आखिर मामला क्या था? उसने खिड़की में झाँककर देखा कि इमैनुअल कांट आँखें बंद किए कमरे के कोने में खड़ा हुआ था और टहलने की छड़ी तकिया लगाये गहरी नींद में सो रही थी।
एक व्यक्ति जो मन में बहुत अधिक सोया हुआ हो, उसकी संसार में अपने चारो ओर की सभी वस्तुओं के बारे में भूलने की प्रवृत्ति होगी। दार्शनिक, कवि, साहित्यिक लोग, चित्रकार और संगीतकार, वे सभी लोग इस जगह गहन नींद में सोये हुए हैं।
और तब वहाँ एक तीसरी नींद भिक्षुओं और साधुओं की है, जिन्होनें संसार का परित्याग कर दिया है, और न केवल संसार का बल्कि मन को भी छोड़ दिया है, जो अनेक वर्षों से ध्यान करते रहे हैं और उन्होनें विचार प्रक्रिया को रोक लिया है। अब उनके अंर्ताकाश में कोई भी विचार नहीं चलते, अब वहाँ कोई भी वस्तुएँ नहीं हैं। उन लोगों की दिलचस्पी न तो वस्तुओं के साथ है और न विचारों के साथ। लेकिन एक सूक्ष्म अहंकार ‘मैं’ मौजूद है- अब मैं इसे ‘आत्मन्’ आत्मा, आत्म अथवा ैमसि कहते हैं- उनकी यही नींद है और वे वहाँ सोये हुए हैं।
बुद्ध कहते हैं कि इन तीनों तलों पर नींद को तोड़ना है और जब सभी नींदे टूट जाती हैं कोई भी व्यक्ति जागा हुआ नहीं होता, केवल वहाँ जागरण होता है। कोई भी व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं होता है, केवल वहाँ बुद्धत्व होता है- बिना किसी केन्द्र के केवल सचेतनता की एक घटना घटित होती हैं ़ ़ ़ ़ ़ ़
एक बुद्ध को उपलब्ध व्यक्ति ‘मैं’ नहीं कह सकता, यदि उसको उसका प्रयोग करना ही होता है, वह उसे कभी नहीं कहता, और यदि उसे उसका प्रयोग करना भी पड़े, तो उसका कहने का वह अर्थ नहीं होता। वह केवल एक शाब्दिक चीज है और समाज और भाषा के खेल के कारण उसका अनुसरण करना होता है। वह केवल भाषा का एक नियम है अन्यथा उसके पास ‘मैं’ की कोई भी अनुभूति नहीं है।
जब वस्तुओं का संसार विलुप्त हो जाता है- तब क्या घटित होता है? जब वस्तुओं का संसार विलुप्त हो जाता है, तुम्हारी वस्तुओं के प्रति आसक्ति गिर जाती है, तुम्हारा वस्तुओं के साथ का सम्मोहन टूट जाता है। वस्तुएँ विलुप्त नहीं होती हैं, इसके विपरित वस्तुएँ जैसी वे हैं, पहली बार वे वैसी ही प्रतीत होती हैं। तब तुम उनके साथ लिपटते या बँधते नहीं हो, उन पर सम्मोहित नहीं होते, तब तुम अपनी कामनाओं में, अपनी आशाओं और निराशाओं में उनको कोई आकृति नहीं देते हो- नहीं। तब तुम्हारी कामनाओं को प्रक्षेपित करने के लिए संसार एक स्क्रिन नहीं होता। जब तुम्हारी कामनाएँ छूट जाती हैं, तो संसार तो वहाँ होता है, लेकिन वह पूर्ण रूप से एक भिन्न संसार होता है। वह बहुत ताजगी से भरा हुआ बहुत रंगीन और सुंदर होता है। लेकिन एक मन जो वस्तुओं के प्रति आसक्त है, उसे नहीं देख सकता, क्योंकि आँखें आसक्ति के साथ बंद हो जाती हैं। एक पूर्ण रूप से भिन्न संसार का उदय होता है।
जब मन विसर्जित हो जाता है, तो विचार विलुप्त हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि तुम बुद्धिहीन बन जाते हो, इसके विपरित तुम होशपूर्ण बन जाते हो। बुद्ध लाखों बार इस ‘सम्यक सचेतनता’ का प्रयोग करते हैं। जब मन विसर्जित हो जाता है और विचार विलुप्त हो जाते हैं तो तुम होशपूर्ण हो जाते हो। तुम सभी कार्य करते हो, तुम चलते हो, तुम काम करते हो, तुम भोजन करते हो, तुम सोते हो, लेकिन तुम हमेशा सचेत होते हो। मन वहाँ नहीं होता, लेकिन वहाँ सचेतनता होती है। यह होशपूर्ण होना क्या है? यह सचेतनता है। यह पूर्ण सजगता और सचेतनता है।
और जब आत्मभाव अथवा वैयक्तिकता, अंहकार, और आत्मन् विलुप्त होता है तो क्या होता है? ऐसा नहीं होता कि तुम खो जाते हो या तुम और अधिक नहीं होते हो- नहीं, इसके विपरित तुम पहली बार ही होते हो। लेकिन अब तुम अस्तित्व से पृथक नहीं हो। अब तुम एक द्वीप नहीं रह गए हो, तुम पूरा महाद्वीप बन गए हो, तुम अस्तित्व के साथ एक हो गए हो।
लेकिन वे सुनिश्चित और विधायक चीजें हैं- उन्हें कहा नहीं जा सकता। इसीलिए नानसेन ने कहा : ‘हाँ, वहाँ ऐसी सिखावन या शिक्षा है, जिस पर किसी भी सद्गुरू ने कभी भी उपदेश नहीं दिया, क्योंकि उसको उपदेश में नहीं कहा जा सकता और वह सिखावन है :
वह मन नहीं है, वह बुद्ध नहीं है,
वह विषय और वस्तु भी नहीं है।
वह सिखावन है शून्यता, वह शिक्षा परिपूर्ण अस्तित्वहीनता अर्थात शून्यता ही है। और जब तुम नहीं हो, तो अचानक पूरा अस्तित्व तुम पर फूलों की वर्षा करना प्रारम्भ कर देता है। जब तुम नहीं होते हो तो अस्तित्व का सम्पूर्ण परमानंद तुमसे मिलकर एक जैसा हो जाता हैं।
जब तुम नहीं हो, तो पूरा अस्तित्व उत्सव, आनंद और समारोह मनाने जैसा अनुभव करता है और तुम पर पुष्प बरसते हैं। वे अभी तक नहीं बरसे हैं, क्योंकि तुम मौजूद हो और वे तब तक नहीं बरसेंगे, जब तक तुम मिट नहीं जाते। जब तुम और नहीं रह गए हो, तुम एक शून्यता हो गए हो, एक अस्तित्वहीनता बन गए हो कि अचानक वे बरसना प्रारम्भ हो जाते हैं। वे बुद्ध पर बरसे हैं, सुभूति पर और नानसेन पर बरसे हैं और वे तुम पर भी बरस सकते हैं, वे प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे द्वार खटखटा रहे हैं। वे बरसने को तैयार हैं। ठीक जिस क्षण तुम शून्य होते हो, वे तुम पर बरसना प्रारम्भ हो जायेंगें।
इसलिए इसका स्मरण रहे : अंतिम मुक्ति तुम्हारी मुक्ति नहीं है, अंतिम मुक्ति तुमसे अलग है। बुद्धत्व तुम्हारा नहीं हैं, हो भी नहीं सकता है। जब तुम नहीं हो, तो वह वहाँ है। अपनी समग्रता में तुम स्वयं को छोड़ दो, वस्तुओं के संसार विचारों के संसार और आत्म के संसार की इन तीनों पर्तों को छोड़ दो। इस त्रिमूर्ति को छोड़ दो, इस त्रिमूर्ति के इन तीनों चेहरों को गिरा दो, क्योंकि यदि तुम वहाँ हो तब केवल एक नहीं हो सकता। यदि तुम वहाँ हो तो केवल एक कैसे हो सकता है?
सभी तीन को विलुप्त हो जाने दो- परमात्मा, पवित्र-आत्मा, और परमात्मा के पुत्र को ब्रह्मा, विष्णु और महेश, सभी तीन को। इन सभी को छोड़ दो। उन्हें विलुप्त हो जाने दो। कोई नहीं रहता है और तब वहाँ प्रत्येक चीज होती हैं।
जब कुछ नहीं होता है तो सभी कुछ होता है।
तब शून्य होते हो तो तुम पर सभी पुष्प बरसाना प्रारम्भ कर देते हैं।

ऊँ शांतिः शांतिः शांतिः

समाप्त 

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