कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 15 नवंबर 2018

और फूलों की बरसात हुई-(प्रवचन-06)

और फूलों की बरसात हुई-छट्ठवां 

धर्नुविद्या की कला


लीह्त्सू ने अपनी धर्नुविद्या की कुशलता का
पो-हुन-वू-जे के सामने प्रदर्शन किया।
जब उसने धनुष को उसकी पूरी लम्बाई तक खींचा।
तो एक पानी से भरा प्याला उसकी कोहनी के पास
रख दिया गया, और उसने तीर चलाना शुरू कर दिया।
जैसे ही पहला तीर हवा में उड़ते हुए गया, दूसरा तीर
पहले ही से प्रत्यंचा पर था, और तब तीसरे तीर ने
उसका अनुसरण किया। इसके मध्य समय में
वह बिना हिले डुले एक प्रस्तर प्रतिमा की भाँति खड़ा रहा।
पो हुन वू जेन ने कहा : तीर चलाने और निशाना साधने का कला-कौशल सुंदर और अच्छा है।
लेकिन यह तीर न चलाने की कला कुशलता नहीं है।
हमको पहाड़ पर ऊपर चलना चाहिए और तब तुम आगे की ओर
उभरी चट्टान पर खड़े हो जाना, और तब तीर चलाने का प्रयास करना।
वे लोग एक पहाड़ पर चढ़े और एक आगे को निकली और उभरी हुई चट्टान पर
खड़े हो गए, जो एक दस हजार पफीट ऊँची ढालू कगार थी।
पो-हुन-वू-जेन पीछे की ओर खिसकता गया, जब तक कि उसके पैरों का

एक तिहाई भाग कगार के छोर पर झूलता न रह गया।

तब उसने लीह-त्सू को आगे बढ़कर आने का संकेत किया।
लीह- त्सू जैसे ही नीचे झुका उसकी एड़ियों के नीचे से
पसीना बहने लगा, और वह नीचे भूमि पर गिर पड़ा।
पो-हून-वू-जेन ने कहा : एक पूर्ण व्यक्ति नीले आकाश में
पंख खोलकर उड़ता है, अथवा वह बसंत में खिले पीले पुष्पों की घाटी में नीचे
छलांग लगाता है, अथवा वह विश्व की सभी आठों परीसीमाओं में
सभी स्थानों पर विचरण करता है, तो भी उसकी आत्मा में
परिवर्तन का एक चिन्ह तक नहीं दिखाई देता है
लेकिन तुमने घबड़ाहट के चिन्हों से यह प्रकट कर दिया।
और तुम्हारी आंखे स्तब्ध हैं और उनमें व्याकुलता छलक रही है
पिफर तुम कैसे लक्ष्य पर प्रहार करने की आशा कर सकते हो?

क्रिया को कुशलता की जरूरत होती है। लेकिन अक्रिया को भी कुशलता की जरूरत होती है। क्रिया की कुशलता केवल बाहर परिधि पर होती है पर अक्रिया की कुशलता तुम्हारे अस्तित्व के प्रामाणिक केन्द्र पर होती है। क्रिया की कुशलता बहुत सरलता से सीखी जा सकती है वह उधार ली जा सकती है तुम उसमें शिक्षित हो सकते हो। क्योंकि वह और कुछ भी नहीं बल्कि एक कला कुशलता है। वह तुम्हारी आत्मा नहीं है, वह केवल एक कला है।
लेकिन अक्रिया की कला कुशलता अथवा दक्षता बिल्कुल भी कला कुशलता है ही नहीं। तुम उसे किसी अन्य व्यक्ति से भी नहीं सीख सकते, वह सीखी नहीं जा सकती, वह तुम्हारे विकसित होने के साथ विकसित होती है। वह तुम्हारे अंतरस्थ के विकास के साथ विकसित होती है और वह एक खिलावट है। बाहर से उसके लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता। अंदर से ही कुछ चीज विकसित करनी है।
क्रिया की दक्षता बाहर से आती है और अंदर जाती है, पर अक्रिया की निपुणता अंदर से आती है और बाहर प्रवाहित नहीं होती है उनके आयाम पूर्ण रूप से भिन्न है, वे प्रत्यक्ष रूप से विरोधी है। इसलिए पहले इसे समझने का प्रयास करो, तभी हम इस कथा में प्रवेश करने में समर्थ होंगें।
उदाहरण के लिए केवल कला को सीखने से तुम एक चित्रकार बन सकते हो, कलाविद्यालयों में जो कुछ भी सिखाया जाता सकता है तुम वह सभी कुछ सीख सकते हो। तुम निपुण हो सकते हो और तुम सुंदर चित्र बना सकते हो और तुम संसार में एक प्रसिद्ध व्यक्ति भी बन सकते हो। कोई व्यक्ति भी यह जानने में समर्थ न होगा कि यह केवल कलाकुशलता है, जब तक कि तुम एक सद्गुरु के मध्य से होकर नहीं गुज़रते हो, लेकिन तुम हमेशा जानोगे कि यह केवल कलापटुता है।
तुम्हारे हाथ कुशल हो गए है, तुम्हारी बुद्धि जानती है कि कैसे जाना जाए, लेकिन तुम्हारा हृदय प्रवाहित नहीं हो रहा है तुम चित्र बनाते हो, लेकिन तुम एक चित्रकार नहीं हो। तुम कला का एक नमूना सृजित कर सकते हो, लेकिन तुम एक कलाकार नहीं हो। तुम उसे करते हो लेकिन तुम उसमें नहीं होते हो। जैसे तुम दूसरे अन्य कार्य करते हो तुम उसे भी करते हो। लेकिन तुम एक प्रेमी नहीं हो। तुम पूर्ण रूप से उससे चिपके हुए नहीं हो, तुम्हारी अंदर की आत्मा उससे अलग और उदासीन बनी रहती है और एक किनारे दूर खड़ी रहती है। तुम्हारी बुद्वि और तुम्हारे हाथ, वे कार्य किए चले जाते है, लेकिन तुम वहां नहीं हो। वह चित्र तुम्हारी उपस्थिति अपने साथ लेकर नही चलेगा। वह तुम्हें साथ लेकर नहीं चलेगा। वह तुम्हारे हस्ताक्षर साथ लिए हुए चल सकता है लेकिन तुम्हारी आत्मा को नहीं।
एक सद्गुरू तुरंत जान जायेगा, क्योंकि वह चित्र मृत होगा। तुम एक मुर्दे को सजाकर भी सुंदर बना सकते हो, तुम एक मुर्दे का भी चित्र बना सकते हो, तुम उसके होठों पर लिपिस्टिक भी लगा सकते हो और वे लाल दिखाई देंगें, लेकिन लिपिस्टिक कितनी भी लाल क्यों न हो, उसमें प्रवाहित होते हुए रक्त की ऊष्मा नहीं हो सकती है। वे होंठ- चित्रित तो होगें लेकिन उनमें कोई भी जीवन न होगा।
तुम एक सुंदर चित्र बना सकते हो, लेकिन वह जीवंत न होगा। वह केवल तभी जीवंत हो सकता है यदि तुम उसके अंदर प्रवाहित होते हो। जब एक सद्गुरू और एक साधारण चित्रकार चित्र बनाते हैं तो उनके मध्य वही अंतर होता है। एक साधारण चित्रकार वास्तव में हमेशा अनुकरण करता है क्योंकि वह चित्र स्वयं उसके अंदर से उत्पन्न नहीं हो रहा है यह कुछ ऐसी चीज नहीं है जिसके साथ वह परिपूर्ण है। वह दूसरों की नकल करेगा, उसे विचारों के लिए इधर-उधर देखना होगा, वह प्रकृति का अनुकरण कर सकता है- पर उससे कोई भी अंतर नहीं पड़ता है वह एक वृक्ष की ओर देखते हुए उसका चित्र बना सकता है, लेकिन वह वृक्ष उसके अंदर विकसित नहीं हुआ है।
वानगॉग के द्वारा चित्रित वृक्षों की ओर देखो। वे पूर्ण रूप से भिन्न हैं। तुम प्रकृति के संसार में उस तरह के वृक्ष नहीं खोज सकते। वे पूर्ण रूप से भिन्न हैं वे वानगॉग का सृजन हैं, वह उन वृक्ष के द्वारा जी रहा है। वे तुम्हारे चारों ओर के सामान्य वृक्ष नहीं है उसने प्रकृति से उनका अनुकरण करते हुए उनकी प्रतिलिपि नहीं बनाई है और न उसने किसी अन्य व्यक्ति का ही अनुसरण किया है। यदि वह एक परमात्मा हुआ होता तब उसने संसार में उन वृक्षों को सृजित किया होता। चित्रकला में वह परमात्मा है वह सृष्टा है। वह विश्व के सृष्टा की भी नकल नहीं कर रहा है। वह पूरी तरह से स्वयं ही अस्तित्व में है। उसके बनाये वृक्ष इतने अधिक ऊँचे हैं कि वे विकसित होते हुए चाँद ओैर तारों को छूते हैं।
किसी व्यक्ति ने वानगॉग से पूछा-‘ये किस तरह के वृक्ष है इनका विचार तुमने कहां से पाया?’
वानगॉग ने कहा : ‘मैं कहीं और से कल्पना भावना और विचार नहीं लिया करता हूँ, ये मेरे वृक्ष है यदि मैं सृष्टा था, तो मेरे वृक्ष सितारों को छूते क्योंकि मेरे वृक्षों के पास पृथ्वी की कामनाएं और सितारों को छुने के पृथ्वी के सपने है और चूंकि पृथ्वी सितारों तक पहुंचने और उसे छूने का प्रयास कर रही है, इसलिए ये वृक्ष पृथ्वी के हाथ है, और पृथ्वी के ही सपने और कामनाएं है।’
लेकिन ये वृक्ष अनुकरण नहीं है वे वान गॉग के वृक्ष है।
एक सृष्टा के पास संसार को देने के लिए कुछ चीज होती है कुछ चीज उसके साथ उसके गर्भ में होती है। निश्चित रूप से एक वानगॉग के लिए भी कला-कुशलता जरूरी है, क्योंकि उसके लिए हाथों की आवश्यकता होती है। वानगॉग भी बिना हाथों के चित्र नहीं बना सकता- यदि तुम उसके हाथों को काट देते हो, तो वह क्या करेगा। उसको कला- कुशलता की भी आवश्यकता होती है, लेकिन कला- निपुणता सूचना देने का केवल एक ढंग है। कला- पटुता केवल एक वाहन और एक माध्यम है। कला-कुशलता संदेश नहीं है और न माध्यम एक संदेश है। माध्यम सामान्य रूप से संदेश वहन करने का एक वाहन है उसके पास एक संदेश है प्रत्येक कलाकार एक पैगम्बर होता है- उसे होना ही होता है।
प्रत्येक कलाकार एक सृष्टा है- उसें होना ही है, क्योंकि उसके पास बांटने को कुछ चीज है। निश्चित रूप से कला- कुशलता जरूरी है। यदि मुझे कुछ बात तुमसे कहना है तो शब्दों की जरूरत होती है लेकिन यदि मैं केवल शब्द ही कह रहा हूँ, तब वहां कोई भी संदेश नहीं है, तब यह पूरा कार्य केवल एक व्यर्थ की बकवास है तब मैं दूसरों पर कूड़ा- कचरा पफेंक रहा हूँ। लेकिन यदि शब्द मेरे मौन को वहन कर रहे हैं, यदि शब्द मेरे शब्दहीन संदेश तुम तक साथ ले जा रहें है, केवल तभी कुछ बात कही गई है।
जब किसी बात को कहना है, तो उसे शब्दों में ही कहना होगा, लेकिन जो कुछ भी कहना है, वे शब्द नहीं है जब किसी चीज को चित्रित करना होता है, तो उसे रंग, बु्रश के द्वारा कैनवास पर ही चित्रित करना होता है, और उसमें पूरी कला-पटुता की जरूरत है- लेकिन कला- पटुता ही संदेश नहीं है। माध्यम के द्वारा ही संदेश दिया जाता है लेकिन माध्यम स्वयं में पर्याप्त नहीं है।
 एक कला- कुशल व्यक्ति के पास माध्यम होता है, वह एक पूर्ण कुशल माध्यम हो सकता है लेकिन उसके पास देने को कुछ भी नहीं है उसके पास कोई संदेश नहीं है उसका हृदय अतिरेक से नहीं उमड़ रहा है। वह कुछ कार्य हाथ के साथ और बुद्धि के साथ कह रहा है क्योंकि सीखना बुद्धि में होता है और उसे कैसे जाना जाये यह कुशलता हाथ में होती है। बुद्धि और हाथ सहयोग करते है लेकिन हृदय बिना किसी स्पर्श के अलग बना रहता है तब चित्र तो वहां होगा, लेकिन वह बिना एक हृदय के होगा। वहां उसमें कोई भी धड़कन नहीं होगी, वहां उसमें जीवन की किसी नाड़ी की कोई पफड़पफड़ाहट नहीं होगी और न उसमें कोई भी रक्त प्रवाह होगा- इसे देखना बहुत कठिन है- तुम केवल तभी देख सकते हो यदि तुम स्वयं अपने अंदर ही उस अंतर को जानते हो।
एक दूसरा उदाहरण लो, जो समझने में सरल होगा। तुम एक व्यक्ति से प्रेम करते हो, तुम उसे चूमते हो, तुम उसका हाथ अपने हाथ में लेते हो तुम उसे आलिगंन में लेते हो, और तुम उससे प्रेम करते हो। ये सभी चीजें एक ऐसे व्यक्ति के साथ भी की जा सकती है जिससें तुम प्रेम नहीं करते हो- ठीक उसी तरह का चुम्बन, ठीक उसी तरह का आलिंगन, ठीक उसी तरह से हाथों का थामना और प्रेम करते हुए वैसी ही मुद्राएं बनाना और वैसी ही गतिविधियाँ करना- लेकिन तुम उस व्यक्ति से प्रेम नहीं करते हो। इसमें अंतर क्या होगा? क्योंकि जहां तक क्रिया का संबध है, इस बारे में कोई भी अंतर नही है तुम चुम्बन लेते हो और उसी तरह से जितनी अधिक पूर्णता से संभव है चुम्बन लेते हो। माध्यम वहां है लेकिन वहां संदेश नहीं है। तुम कला कुशल हो, लेकिन तुम्हारा हृदय वहां नही है। वह चुम्बन मृत है। वह पक्षी के उड़ने के समान मुक्त नहीं है वह एक मृत पत्थर की भाँति है।
तुम प्रेम करते समय समान गतिविधियाँ उत्पन्न कर सकते हो, लेकिन वे गतिविधियाँ योग के व्यायाम के समान होगीं, वे उससे अधिक नहीं होगी। वे प्रेम नहीं बनेगी। तुम एक वेश्या के पास जाते हो, वह कला कुशलता जानती है- तुम्हारी प्रेमिका की अपेक्षा कहीं अधिक अच्छी तरह से जानती है उसे जानना ही होता है वह अपने धंधे में निपुण है लेकिन तुम वहां प्रेम नहीं पाओगे। यदि अगले दिन तुम उस वेश्या से सड़क पर मिलते हो, तो वह तुम्हें पहचानेगी भी नहीं। वह ‘हलो’ भी नही कहेगी, क्योंकि कोई संबध अस्तित्व में नहीं है। दूसरा व्यक्ति वहां नही था, और वह एक सम्पर्क न था। तुमसे प्रेम करते समय, वह हो सकता है अपने प्रेमी के बारे सोच रही हो। वह वहां नहीं थी, वह हो भी नहीं सकती थी। वेश्याओं को वहां कैसे अनुपस्थित होकर रहा जाए, यह कला- पटुता सीखनी होती है- क्योंकि वह पूरा कार्य इतना अधिक कुरूप होता है।
तुम शरीर को बेच सकते हो पर तुम प्रेम को नहीं बेच सकते तुम अपने कौशल को बेच सकते हो, पर तुम अपने हृदय को नहीं बेच सकते। एक वेश्या के लिए प्रेम करना एक कारोबारी चीज है वह उसे धन के लिए कर रही है और उसे यह भी सीखना है कि कैसे वहां न हुआ जाए, इसलिए वह अपने प्रेमी के बारे में सोचेगी, वह एक हजार एक चीजों के बारे में सोचेगी, लेकिन तुम्हारे बारे में और जो व्यक्ति वहां मौजूद है उसके बारे में नहीं सोचेगी। क्योंकि उस व्यक्ति के बारे में सोचना, जो वहां है, बाधा उत्पन्न करेगा। वह वहां नहीं होगी। वह अनुपस्थित होगी। वह गतिविधियाँ उत्पन्न करेगी। वह उसमें कुशल है लेकिन वह उसमें लिप्त नहीं है।
इस घटना का यही प्रयोजन है। तुम इतने अधिक कुशल बन सकते हो कि तुम पूरे संसार को धोखा दे सकते हो, लेकिन तुम स्वयं को धोखा कैसे दोगे? यदि तुम स्वंय को धोखा नहीं दे सकते हो तो तुम बुद्वत्व को उपलब्धएक सद्गुरू को भी धोखा नहीं दे सकते। वह तुम्हें सभी युक्तियों के द्वारा देखेगा, जो तुमने अपने चारो और सृजित की है। वह देखेगा कि तुम अपनी कला- कुशलता में वहां नही हो, यदि तुम एक धर्नुधारी हो तो तुम लक्ष्य पर कुशलता से प्रहार कर सकते हो लेकिन प्रयोजन वह नहीं है। एक वेश्या भी तुम्हें संभोग के सर्वोच्च शिखर पर ले जाती है वह जितनी अधिक निपुणता से संभव हो सकता है लक्ष्य पर चोट करती है और कभी- कभी तो तुम्हारी अपनी प्रेमिका की अपेक्षा भी कहीं अधिक कुशलता से लेकिन प्रयोजन यह नहीं है क्योंकि यद्यपि एक व्यक्ति अधूरा बना रहता है पर एक कला- पटुता उसे सरलता से पूरा बना सकती है।
एक व्यक्ति अधूरा बना रहता है यदि वह बुद्वत्व को उपलब्ध नहीं हो जाता है। बुद्वत्व घटित होने से पूर्व तुम एक व्यक्ति से पूर्ण कुशलता की आशा नहीं कर सकते हो। लेकिन तुम उससे एक कौशल की पराकाष्ठा पर पहुँचने की आशा कर सकते हो। तुम उसकी आत्मा में परिपूर्णता की आशा नहीं कर सकते हो, लेकिन उसकी क्रिया में यह आशा की जा सकती है उस बारे में वहां कोई भी समस्या नही है एक धर्नुधारी बिना लक्ष्य को चूके हुए निशाना लगा सकता है और उसमें नहीं हो सकता है उसने वह कला- कुशलता सीख ली है, वह एक यांत्रित्व एक रोबो बन गया है वह कार्य सामान्य रूप से बुद्वि और हाथों के द्वारा किया जा रहा है।
 अब हम इस कहानी में प्रवेश करने का प्रयास करने है। जापान और चीन में अनेक युक्तियों के द्वारा ध्यान सिखाया जाता है और उनमें धर्नुविद्या की कला भी एक है। भारतीय ध्यान तथा चीनी, जापानी और बौद्व ध्यानों के मध्य यही एक अंतर है भारत में ध्यान जीवन में सभी क्रियाओं से हटकर किया जाता रहा है। वह स्वयं अपने में एक पूर्ण विषय है। उसने कठिनाई उत्पन्न की- इसी कारण भारत में धर्म धीमे-धीमें मर गया। उसने एक कठिनाई उत्पन्न की और वह कठिनाई यह है : यदि तुम ध्यान को ही पूरा विषय बना लेते हो, तब तुम समाज पर एक बोझ बन जाते हो। तब तुम अपनी दुकान पर नहीं जा सकते, तुम अपने दफ्तर नहीं जा सकते और तुम कारखाने में कार्य नहीं कर सकते ध्यान तुम्हारा पूरा जीवन बन जाता है तुम पूरी तरह ध्यान ही करते हो। भारत में, लाखों लोग पूरी तरह ध्यान करते हुए ही जीवित रहे और वे लोग समाज पर एक बोझ बन गए, ओैर यह बोझ बहुत अधिक था। किसी न किसी तरह से समाज को उसे रोकना पड़ा।
अब भी, आज लगभग भारत में दस लाख संयासी विद्यमान है। अब उन लोगों का सम्मान नहीं किया जा सकता है। केवल थोड़े से ...  उन दस लाख में दस का भी सम्मान नहीं किया जाता है वे लोग बस भिखारी बन गए हैं। इस रवैय के कारण जब तुम ध्यान करते हो, जब धर्म ही तुम्हारा जीवन बन जाता है, तब वहां केवल धर्म ही रह जाता है तब तुम जीवन में सभी कुछ छोड़ देते हो। उसका परित्याग कर देते हो। भारतीय ध्यान एक तरह से जीवन-विरोधी है। तुम थोड़े से लोगों को बर्दाश्त कर सकते हो, लेकिन तुम लाखों लोगों को बर्दाश्त नहीं कर सकते हो, और यदि पूरा देश ही ध्यानी बन जाए, तो तुम क्या करोगे? और यदि ध्यान प्रत्येक व्यक्ति के लिए उपलब्ध नहीं हो सकता, तो इसका अर्थ है कि धर्म का भी अस्तित्व केवल थोड़े से लोगों के लिए ही है और धर्म में भी वर्ग विद्यमान है और परमात्मा भी सभी लोगों को उपलब्ध नहीं है। नहीं, यह नहीं हो सकता। परमात्मा सभी के लिए उपलब्ध है।
 भारत में बौद्व धर्म मिट गया। भारत में जिस बौद्व धर्म का स्त्रोत है। वहीं बौद्व धर्म मर गया, क्योंकि बौद्व भिक्षु एक भारी बोझ बन गए। लाखों बौद्व भिक्षुओं को देश बर्दाश्त न कर सका, उनको सहारा देना असंभव था और उनको मिटना ही पड़ा।
बौद्व धर्म पूरी तरह से विलुप्त हो गया, भारतीय चेतना की जिसमें असाधारण खिलावट हई और वह लुप्त हो गया, क्योंकि तुम एक परजीवी बनकर जीवित नहीं रह सकते। थोडे़ दिनों तक तो ठीक है थोड़े से वर्षो के लिए भी ठीक है भारत ने उसे बर्दाश्त किया- यह एक महान सहनशील देश है, वह प्रत्येक चीज सहन करता है लेकिन तब वहां एक सीमा होती है हजारों मठ लाखों भिक्षुओं से भर गए। इस निर्धन देश के लिए उनको सहारा देना असंभव हो गया। उन्हें विलुप्त होना ही पड़ा। चीन में, जापान में बौद्व धर्म जीवित रहा क्योंकि बौद्व धर्म ने एक परिवर्तन लिया। वह एक परिवर्तन से होकर गुजरा- उसने जीवन को परित्याग करने का विचार छोड़ दिया। वस्तुतः इसके विपरीत उसने ध्यान को ही जीवन की विषय- वस्तु बनाया।
इसलिए तुम चाहे कुछ भी करते हो, तुम उसे ध्यानपूर्ण होकर कर सकते हो। इस बारे में उस कार्य को छोड़ने की कोई भी आवश्यकता नहीं है।
यह एक नया विकास था और यही बौद्व धर्म के ज़ेन का आधार है जीवन को अस्वीकार नहीं करना है। एक जेन भिक्षु कार्य किये चले जाता है वह बगीचे में कार्य करेगा, वह खेतों में कार्य करेगा और वह अपने परिश्रम पर जीता है। वह परजीवी नहीं हैं वह एक प्यारा व्यक्ति है उसे समाज के बारे में फिक्र करने की जरूरत नहीं है और वह उस व्यक्ति की अपेक्षा जिसने समाज का परित्याग कर दिया है कहीं अधिक स्वंतंत्र है तुम समाज से कैसे मुक्त हो सकते हो, यदि तुमने उसका परित्याग कर दिया है? तब तुम स्वतंत्र नहीं हो, तुम एक परजीवी बन जाते हो- और एक परजीवी के पास स्वतंत्रता नहीं हो सकती।
यही मेरा संदेश भी है समाज में बने रहो और एक संयासी बनो। कभी भी एक परजीवी मत बनो। किसी भी व्यक्ति पर आश्रित मत बनो। क्योंकि प्रत्येक तरह की निर्भरता और आश्रय अंतिम रूप से तुम्हें एक गुलाम बना देगा। वह तुम्हें मुक्त नहींं बना सकता वह तुम्हें पूर्ण रूप से एक स्वंतत्र व्यक्ति नहीं बना सकता।
चीन और जापान में उन लोगों ने ध्यान को सहारा देने, एक सहायता और विषय वस्तु की भाँति अनेक और कौशलों का प्रयोग करना प्रारम्भ किया है धनुविधा उनमें से एक है और धनुर्विद्या सुंदर और आकर्षक हैं क्योंकि यह एक बहुत सूक्ष्म कौशल है और तुम्हें उसमें कुशल बनने के लिए बहुत अधिक सजगता की जरूरत होती है।
लीहत्सू ने अपनी धनुर्विद्या की कुशलता का
सद्गुरू पो-हुन- वू जेन के सामने प्रदर्शन किया।
पो-हुन- वू- जेन एक बुद्वतव का उपलब्ध सद्गुरू था। बाद में लीहत्सू स्वंय भी बुद्वत्व को उपलब्ध हुआ। इस कहानी का संबध उसकी खोज करने के दिनो का है। लीहत्सू स्वयं अपनी योग्यता से ही एक सद्गुरू बना। लेकिन यह कथा उसके बुद्वत्व को उपलब्ध होने के पूर्व की है।
लीहत्स ने प्रदर्शन किया------------------
प्रदर्शन करने की कामना एक अज्ञानी मन की कामना है। तुम प्रदर्शन क्यों करना चाहते हो? तुम क्यों चाहते हो कि लोग तुम्हें जाने? उसका क्या कारण है और तुम प्रदर्शन को अपने जीवन में क्यों इतना अधिक महत्वपूर्ण बनाते हो, कि लोग यह सोचें कि तुम बहुत महत्वपूर्ण प्रभावी और एक असाधारण व्यक्ति हो क्यों? क्योंकि तुम्हारे पास आत्मा नहीं है तुम्हारे पास केवल एक अहंकार है जो आत्मा का एक प्रतिरूप है।
अंहकार महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है आत्मा, लेकिन वह तुम्हें ज्ञात नहीं है और एक व्यक्ति बिना में की अनुमति के नहीं जी सकता। ‘मैं’ की अनुभूति के बिना जीना बहुत अधिक कठिन है तब तुम किस केन्द्र से कार्य करते हुए शक्ति और अधिकार पाओगे? तुम्हें एक ‘मैं’ की आवश्कता है यदि वह झूठा भी है तो भी सहायक होगा। बिना मैं के तुम पूरी तरह से देहलीज पर ही खण्ड-खण्ड हो जाओगे। कौन तुम्हारे खण्डों को जोड़कर पूर्ण बनायेगा। किस केन्द्र से तुम कार्य करोगे?
यदि तुम आत्मा को नही जानते हो। तुम्हें अहंकार के साथ ही जीना होगा। अहंकार का अर्थ है आत्मा का एक प्रतिरूप, नकली आत्मा, तुम आत्मा को नहीं जानते इसलिए तुम अपना आत्म स्वयं सृजित कर लेते हो। यह एक मानसिक सृजन है और किसी भी चीज के लिए जो नकली होती है तुम सहारे और समर्थन बनाते हो। प्रदर्शन तुम्हें एक अबलम्ब देता है।
यदि कोई व्यक्ति कहता है तुम एक सुदंर व्यक्ति हो, तो तुम अनुभव करना शुरू कर देते हो कि तुम सुंदर हो। यदि कोई भी व्यक्ति ऐसा नही कहता है तो तुम्हारे लिए यह अनुभव करना कठिन हो जाएगा। कि तुम सुंदर हो, तुम संदेह और संशय करना शुरू कर दोगे। यदि तुम कुरूप व्यक्ति से भी निंरतर कहते हो तुम सुंदर हो तो उसके मन से कुरूपता छूट जाएगी और वह यह अनुभव करना शुरू कर देगा कि वह सुंदर है क्योंकि दूसरों के मतों पर निर्भर करता है वह लोगों की राय इकट्ठी करता है और उन पर आश्रित होता है।
अंहकार इस पर आश्रित है कि लोग तुम्हारे बारे में क्या कहते है यदि लोग तुम्हारे बारे में अच्छा अनुभव करता है तो अंहकार को भी अच्छा लगता है यदि वे बुरा महसूस करते है तो अंहकार को बुरा लगता है यदि वे तुम्हारी ओर कोई भी ध्यान नहीं देते है तो समर्थन वापस ले लिया जाता है यदि अनेक लोग तुम्हारी ओर ध्यान देते है तो वे तुम्हारे अंहकार को भोजन देते है यही कारण है कि इतना अधिक ध्यान देते है तो वे तुम्हारे अंहकार को भोजन देते है- यही कारण है कि इतना अधिक ध्यान निंरतर मांगा जाता है
एक छोटा बच्चा भी ध्यान मांगता है। वह शांत पूर्वक खेले चला जा सकता है लेकिन जब एक मेहमान आता है ------------ और मां ने बच्चे से कहा है कि जब मेहमान आता है तो उसे शांत बने रहना है। वह कहती है कोई भी शोर मत करना और न कोई परेशानी पैदा करना’- लेकिन जब मेहमान आता है तो बच्चे को कोई कार्य तो करना ही है क्योंकि वह भी उसका ध्यान चाहता है अैर वह कुछ अधिक चाहता है क्योंकि केवल विकसित होने के लिए वह अंहकार एकत्रित कर रहा है। वह और अधिक अंहकार का भोजन चाहता है और उससे शांत बने रहने को कहा गया है जो असंभव है उसे कुछ कार्य करना ही होगा। यदि उसे स्वयं को चोट भी पहुंचानी पड़े, वह गिर जायेगा। चोट का दर्द सहा जा सकता है लेकिन उसे ध्यान मिलना ही चाहिए, प्रत्येक व्यक्ति को उसकी ओर ध्यान देना चाहिए और उसे ध्यान का केन्द्र बनना चाहिए।
एक बार मैं एक घर में ठहरा। वहां बच्चे से अनिवार्य रूप से यह कहा गया था कि जब मैं वहां रहूँ तो उसे कोई भी कठिनाई खड़ी नही करनी है और उसे तथा उसकी हर चीज को शांत बने रहना होगा। लेकिन बच्चा शांत बना नहीं रहा सका, वह मेरा भी ध्यान चाहता था इसलिए उसने शोर मचाना शुरू कर दिया, उसने इधर से उधर दोड़ते हुए चीजें फेंकना शुरू कर दी। मां बहुत नाराज हुई और उसे झिड़कते हुए उससे कहा सुनो यदि तुम यह सब किये चले जाते हो, तो मैं तुम्हें पीटने जा रही हूँ। लेकिन उसने जैसे उसे सुना ही नहीं। तब अंतिम रूप से उसने बच्चे से कहा ‘सुनो अब कुर्सी पर जाकर बैठ जाओ।’
 उसकी प्रमाणिक मुद्रा से बच्चा समझ गया- अब बहुत अधिक हो गया और वह मुझे पीटने जा रही है इसलिए वह कुर्सी तक गया और वहां कुर्सी पर जाकर बैठ गया और मां की ओर देखते हुए उसने बहुत अर्थपूर्ण ढंग से कहा ‘ठीक है मैं बैठ रहा हूँ पर बाहर जाकर लेकिन अंदर से मैं यहां खड़ा हुआ हूं।’
बचपन से लेकर अपनी मृत्यु के अंतिम दिन तक, तुम ध्यान मांगते चले जाते हो। जब एक व्यक्ति मर रहा है तो उसके मन में लगभग हमेशा केवल एक ही विचार आता है- जब मैं मर जाऊँगा तो लोग मेरे बारे में क्या कहेंगे? मुझे अंतिम विदाई देने कितने अधिक लोग आयेगें। समाचार पत्रों में क्या प्रकाशित होगा? क्या कोई समाचार पत्र सम्पादकीय लिखने जा रहा है ये ही विचार है जो प्रायः आते है बिल्कुल प्रारम्भ से अंत तक हम उसी की ओर देखते हैं जो दूसरे कहते है उसे एक गहन जरूरत होना चाहिए।
अहंकार के लिए ध्यान ही भोजन है केवल एक व्यक्ति जो आत्मोपलब्ध हो गया है, वह इस आवश्यकता को छोड़ देता है जब तुम्हारे पास अपना एक केन्द्र होता है तो तुम्हें दूसरों का ध्यान पाने की जरूरत नहीं होती। तब तुम अकेले भी रह सकते हो। भीड़ में भी अकेले ही होगें, संसार में भी तुम अकेले होगें, तुम भीड़ में जाओगे, लेकिन अकेले बने रहोगे।
ठीक अभी तुम अकेले नही बने रह सकते। ठीक अभी यदि तुम हिमालय जाओ और घने जंगल में जाकर एक वृक्ष के नीचे बैठ जाओ, तुम किसी व्यक्ति की उधर से गुजरने की प्रतीक्षा करोगे, कम-से-कम किसी ऐसे व्यक्ति की जो संसार को यह संदेश ले जा सकता हो की तुम एक महान संत बन गए हैं। तुम प्रतीक्षा करोगे, तुम कई बार यह देखने की अपनी आंखे खोलोगे कि कोई व्यक्ति अभी तक आया अथवा नहीं? -------------- क्योंकि तुमने यह कहानियाँ सुनी है कि जब कोई व्यक्ति संसार का परित्याग करता है तो पूरा संसार उसके चरण छूने आता है और अभी तक कोई भी व्यक्ति नहीं आया है न तो समाचार पत्र से कोई व्यक्ति न कोई रिपोर्टर न कोई कैमरामैन, कोई भी नहीं आया है तुम हिमालय पर नहीं जा सकते हो। जब किसी का ध्यान पाने की जरूरत छूट जाती है तुम जहां कभी भी हो, तुम हिमालय में ही होते हो।
लीहत्सू ने अपनी धर्नुविद्या की कुशलता का प्रदर्शन किया--------...
प्रदर्शन क्यों? उसकी अभी भी दिलचस्पी अंहकार के ही साथ थी वह अभी ध्यान पाने की ओर देख रहा था, और उसने अपने कौशल को पो-हुन-वो ज़ेन को दिखलाया जो बुद्वत्व को उपलब्ध एक सद्गुरू और एक बहुत वृद्व व्यक्ति था। कया कहती है कि वह बहुत-बहुत वृद्व था और जब लीहत्सू उसमें भेंट करने गया तो उसकी आयु लगभग नब्बे वर्ष की थी। वह पो-हुन- के पास क्यों गया? क्योंकि वह ख्याति प्राप्त सद्गुरू था, और यदि वह कहता है- हां लीहत्सू। तुम संसार में एक महान धर्नुधारी हो, तो वह एक ऐसा स्पूफर्तिमय भोजन होगा कि कोई एक उस पर हमेशा के लिए रह सकता है
जब उसने धनुष को उसकी पूरी लम्बाई तक खींचा
तो एक पानी से भरा प्याला उसकी कोहनी के पास रख दिया गया
और उसने तीर चलाना गुरू कर दिया।
और पानी से पूरे भरे प्याले में से जो उसकी कोहनी पर रखा हुआ था और जब वह तीर चला रहा था, एक बूंद पानी भी नीचे नहीं गिरा।
जैस ही पहला तीर हवा में उड़ते हुए गया, दूसरा तीर-
पहले ही से प्रत्यंचा पर था, और तब तीसरे तीर ने उसका अनुसरण किया।
इसके मध्य समय में : वह बिना हिले डुले
एक प्रस्तर प्रतिमा की भांति खड़ा रहा।
महान कौशल था- लेकिन पो-हुन प्रभावित नहीं हुआ, क्योंकि जिस क्षण तुमने प्रदर्शन करना चाहा, तुम तभी चूक गए। प्रदर्शन करने का वास्तविक प्रयास ही यह दिखलाता है कि तुम आत्मोपलब्ध नहीं हुए हो, और यदि तुम आत्मा को उपलब्ध नहीं हुए हो, तो तुम बाहर तो एक मूर्ति के समान खड़े हो सकते हो- पर अंतरस्थ में अनेकानेक सपनों, कामनाओं और प्रोत्साहनों का अनुसरण करते हुए दौड़ते रहोगे। बाहर तो तुम स्थिर बने रह सकते हो, पर तुम्हारे अंदर वहां सभी तरह की गतिविधियां एक साथ और एक ही समय में चल रही होंगी और तुम अनिवार्य रूप अनेक दिशाओं में दौड़ रहे होंगे। तुम बाहर तो एक मूर्ति के समान बन सकते हो-पर वह अभिप्रायः ही नहीं है।
बोकूजू के बारे में कहा जाता है कि वह अपने सद्गुरु के पास गया और उनके सामने दो वर्षों तक, ठीक एक मूर्ति की भांति, संगमरमर की बुद्ध की एक प्रतिमा के समान बैठा रहा। तीसरा वर्ष प्रारम्भ होते ही सद्गुरु आया और उसने अपने डंडे से उसे पीटते हुए कहा : ‘तू मूर्ख है’ हमारे पास यहां बुद्ध की एक हजार एक मूर्तियां हैं और हमें और अधिक की कोई भी आवश्यकता नहीं है- क्योंकि उसका सद्गुरु एक मंदिर में रहता था, जहां, बुद्ध की एक हज़ार एक मूर्तियां थीं। उसने कहा- ‘वे कहां पर्याप्त हैं। तुम यहां क्या कर रहे हो?’
मूर्तियों की जरूरत नहीं है, लेकिन एक भिन्न स्थिति का अस्तित्व चाहिए। बाहर वो शांत और स्थिर बैठ जाना बहुत आसान है- उसमें कठिनता क्या है? केवल थोड़े से प्रशिक्षण की जरूरत है। मैंने भारत में एक व्यक्ति को बहुत अधिक सम्मान पाते हुए देखा है, जो दस वर्षों तक खड़ा ही रहा। वह खड़े हुए ही सोता था। उसके पैर सूजकर इतने अधिक मोटे हो गए थे कि वह उन्हें झुका भी नहीं सकता था। लोग उसको बहुत अधिक सम्मान देते थे, लेकिन जब मैं उसे देखने गया तो उसने मुझसे अकेले में मिलना चाहा। और उसने मुझसे कहा : ‘मुझे बताइये कि ध्यान कैसे करूं? मेरा मन बहुत अधिक अव्यवस्थित रहता है।’
एक मूर्ति के समान दस वर्षों तक खड़े रहना-वह बैठे नहीं, वह सोये भी नहीं, लेकिन समस्या समान बनी रहती है : ध्यान कैसे किया जाये, अंदर से कैसे शांत हुआ जाए! बाहर गतिविधियां न होने पर अनेक गतिविधियां अंदर ही होती हैं। वहां तम्हारे साथ जितनी हैं उनकी अपेक्षा वहां और अधिक ही हो सकती हैं शरीर की गतिविधियों के लिए अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होती है। लेकिन एक व्यक्ति जो बिना गतिविधि के खड़ा रहता है- उसकी पूरी ऊर्जा मन के अंदर गतिशील होती है। वह अंदर से पागल हो जाता है। लेकिन लोग उसका सम्मान करते हैं और वह एक प्रदर्शिनी बन गया है। अहंकार की पूर्ति होती हे लेकिन आत्मा कहीं भी नहीं पाई जाती।
पो-हुन-वू-जेन ने कहा : तीर चलाने और निशाना साधने का
यह कला-कौशल सुंदर और अच्छा है।
लेकिन यह तीर न चलाने की विधि नहीं है।
यह थोड़ा बहुत कठिन हो सकता है, क्योंकि ज़ेन में वे कहते हैं कि तीर चलाने का कला-कौशल केवल प्रारम्भिक चीज़ है, कैसे निशाना लगाना जाना जाए, यह केवल प्रारम्भिक कदम है, लेकिन यह जानना कि कैसे स्वयं तीर न चलाया जाए, जिससे कि तीर स्वयं के द्वारा निशाने पर पहुंच जाये।
इसे समझने का प्रयास करो : जब तुम तीर चलाते हो, तो वहां कर्ता और अहंकार होता है। और तीर न चलाने की कला क्या है! धनुष उसमें भी तीर छोड़ता है, वह लक्ष्य तक पहुंचता भी है, लेकिन प्रयोजन लक्ष्य का नहीं है। वह लक्ष्य को चूक भी सकता है- वह भी अभिप्राय नहीं है। अभिप्राय यह है कि अंदर वहां कोइ्र भी कर्ता न हो। स्रोत ही अभिप्राय है। जब तुम तीर को धनुष पर रखते हो, तो तुम्हें वहां नहीं होना चाहिए। तुम्हें जैसे मानो अनुपस्थित होना चाहिए, पूर्णरूप से खाली अथवा शून्य होना चाहिए और तीर स्वयं अपने आप ही छूट जाता है। अंदर कर्ता न हो,- तब वहां अंहकार भी नहीं हो सकता है। तुम पूरी प्रक्रिया के साथ इतने अधिक एक हो जाते हो कि वहां कोई भी विभाजन नहीं होता। तुम उसमें खो जाते हो। कृत्य और कर्ता दो नहीं रह जाते, ‘मैं कर्ता हूं और यह मेरी क्रिया है’, में थोड़ा सा भी अंतर नहीं रह जाता है। उसे उपलब्ध होने में अनेक वर्ष लगते हैं। और यदि तुम यह नहीं समझते हो, तो इसका प्राप्त होना बहुत कठिन है; यदि तुम इस बात को समझ जाते हो, तो तुम संभावना सृजित करते हौ।
एक जर्मन खोजी हेरीगेल ने अपने सद्गुरु के साथ जापान में तीन वर्षों तक कार्य किया। वह एक धनुर्धारी था। जब वह जापान पहुंचा तो पहले ही से एक कुशल तीरन्दाज था, क्योंकि उसके तीरों द्वारा सौ प्रतिशत लक्ष्यों को बेध दिया जाता था और वहां उसका कोई जबाब न था। जब वह वहां पहुंचा तो वह ली्हत्स के ही समान पहले से ही एक कुशल धनुर्धारी था। लेकिन उसका प्रदर्शन देखकर सद्गुरु हंसा और उसने कहा : ‘हां, तुममें तीर चलाने का कौशल है लेकिन तीर न चलाने के बारे में क्या जानते हो?’
हेरीगेल ने कहा : ‘यह तीर न चलाना क्या होता है? कभी इसके बारे में सुना ही नहीं।’
सद्गुरु ने कहा- ‘तब मैं तुम्हें सिखाऊंगा।’
तीन वर्ष गुज़र गए। वह अधिक से अधिक कलाकुशलता में प्रवीण हो गया और लक्ष्य उसके निकट से निकटतम और-और निकट हो गया वह पूर्ण रूप से दक्ष हो गया और इस बारे में कहीं कोई भी कमी न थी। और वह फिर भी चिंतित और परेशान था...  पश्चिमी मन के लिए यही समस्या है कि पूरब उसे अतर्कपूर्ण और रहस्यमय दिखाई देता है और पूरब ऐसा है भी। वह सद्गुरु को न समझ सका, क्या यह एक पागल था? ---- क्योंकि अब वह परिपूर्ण रूप से कुशल हो गया था, सद्गुरु उसकी एक भी गल्ती न खोज सका, लेकिन वह उससे कहे चला जाता : ‘नहीं, जीवन के प्रति पूरबी और पश्चिमी मार्गों के मध्य एक खाड़ी जैसी खाई है। सदगुरु, ‘नहीं’ ही कहे चले जाता था और उसे अस्वीकार ही किये चले जाता था।
हेरीगेल निराश हाने लगा। उसने कहा : ‘लेकिन गल्ती कहां पर है? अब मुझे मेरी गल्ती दिखलाइये और मैं सीख सकता हूं कि कैसे उसके पार जाया जाये।’
सदगुरु ने कहा : ‘वहां गल्ती कोई भी नहीं है। तुम ही गलत हो। वहां त्रुटि कोई भी नहीं है और तुम तीर चलाने में कुशल हो, लेकिन मेरा अभिप्राय यह नहीं है। तुम ही गलत हो; जब तुम तीर चलाते हो तो तुम वहां होते हो, तुम वहां बहुत अधिक होते हो। तीर लक्ष्य तक पहुंचते हैं, यह ठीक है- लेकिन वह मेरा अभिप्राय ही नहीं है। तुम वहां बहुत अधिक क्यें होते हो? आखिर यह प्रदर्शन क्यों? यह तुम्हारा अहकार क्यों? तुम वहां बिना रहे हुए क्या सामान्य रूप से तीर नहीं चला सकते?’
निश्चित रूप से हेरी गेल निरंतर तर्क कर रहा है- ‘कोई वहां रहे बिना आखिर कैसे तीर चला सकता है?’
और सद्गुरु कहता : ‘केवल मेरी ओर देखो’ और हेरीगेल भी अनुभव करता कि सदगुरु के पास एक भिन्न गुण है, लेकिन यह गुण रहस्यमय है और तुम पकड़ नहीं सकते। उसने कई बार यह अनुभव किया कि जब सद्गुरु तीर छोड़ता है तो वह वास्तव में भिन्न होता है, जैसे मानो वह तीर और धनुष ही बन जाता है, जैसे मानो सद्गुरु फिर और अधिक होता ही नहीं, वह पूरी तरह से एक अविभाजित होता है।
तब वह पूछने लगा- ‘इसे कैसे किया जाये?’
सद्गुरु ने कहा : ‘यह कोई कला-पटुता नहीं है। तुम्हें इसे समझना होगा, और तुम्हें इस समझ में स्वयं अपने को अधिक से अधिक सोखना होगा और उसके अंदर डूबना होगा।’
तीन वर्ष नष्ट हो गए थे और तब हेरी गेल ने समझा कि यह संभव नहीं था। या तो यह व्यक्ति पागल है अथवा एक पश्चिमी के लिए इस तीर न चलाने की विद्या को प्राप्त करना असंभव है। मैंने तीन वर्ष व्यर्थ ही नष्ट कर दिए, अब यह मेरे वापस लौट जाने का समय है।
इसलिए उसने इस बारे में सद्गुरु को स्पष्ट रूप से बताया। सद्गुरु ने कहा : ‘हां! तुम जा सकते हो।’
हेरीगेल ने कहा : ‘क्या आप मुझे एक प्रमाण पत्र दे सकते हैं, जिसमें यह उल्लेख हो कि मैं तीन वर्षों तक आपके साथ सीखता रहा हूं।’
सद्गुरु ने कहा : ‘नहीं, क्योंकि तुमने कोई भी चीज़ नहीं सीखी है। तुम तीन वर्षों तक मेरे साथ रहे लेकिन तुमने कोई भी चीज़ नहीं सीखी है। वह सभी कुछ तुमने सीखा है, उसे तुम जर्मनी में भी सीख सकते थे। इस बारे में तुम्हारे यहां आने की कोई जरूरत ही नहीं थी।’
जिस दिन उसे उस स्थान को छोड़कर जाना था तो सद्गुरु को प्रणाम करने वह उनके पास गया। सद्गुरु उस समय दूसरे शिष्यों को सिखाते हुए उसे प्रदर्शित कर रहे थे। वह ठीक सुबह का समय था, सूर्य उदय हो रहा था और पक्षी गीत गा रहे थे। अब हेरीगेल चिंतित और व्यग्र न था क्योंकि उसने जाने का निर्णय ले लिया था और एक बार निर्णय ले लिया जाये तो तो चिंता तथा परेशानी मिट जाती है। वह जरा भी चिंतित न था। इन तीन वर्षों में उसके मन में एक तनाव रहता था कि कैसे उपलब्ध हुआ जाये? कैसे इस पागल व्यक्ति की शर्तों को पूरा किया जाए? लेकिन अब वहां कोई चिंता नहीं थी। उसने निर्णय ले लिया था कि वह इस स्थान को छोड़ रहा था, उसने टिकट भी ले लिया था और शाम को सभी दुःस्वप्नों को पीछे छोड़कर वह यहां से चला जायेगा। वह केवल सद्गुरु की प्रतीक्षा कर रहा था, जिससे जब वह अपने शिष्यों के साथ कार्य समाप्त कर दे, वह उन्हें धन्यवाद देते हुए गुडबाई कहकर वह स्थान छोड़ दे।
इसलिए वह एक बैंच पर बैठा हुआ था। पहली बार अचानक किसी बात का उसने अनुभव किया। उसने सद्गुरु की ओर देखा। सद्गुरु धनुष की डोरी खींच रहा था और जैसे मानो वह सद्गुरु की ओर टहलता हुआ नहीं जा रहा था। उसने अचानक स्वयं को बेंच से चलते हुए वहां खड़े होने का अनुभव किया। वह सद्गुरु तक पहुंचा, उसके हाथ से धुनष लिया...  तीर ने धनुष को छोड़ दिया और सद्गुरु ने कहा : ‘अच्छा, बहुत सुंदर। तुमने ‘उसे’ प्राप्त कर लिया। अब मैं तुम्हें प्रमाण पत्र दे सकता हूं।’
और हेरीगेल कहता है : ‘हां, उस दिन मैंने उसे प्राप्त किया। अब मैं उस अंतर को जानता हूं। उस दिन कुछ चीज स्वयं से घटित हुई- मैं तीर चलाने वाला नहीं था, मैं वहां बिल्कुल था ही नहीं। मैं केवल विश्रामपूर्वक बेंच पर बैठा हुआ था। वहां कोई भी तनाव और उसके बारे में कोई भी फिक्र अथवा सोच-विचार नहीं थी। मेरा उससे जैसे कोई भी संबंध ही न था।
इसका स्मरण रहे क्योंकि तुम भी एक पागल व्यक्ति के निकट हो। मेरी शर्तों को पूरा करना बहुत कठिन है- बल्कि वह असंभव है। और वह केवल तभी घटित होगा जब तुम जो कुछ भी कर सकते हो, उस प्रत्येक कार्य को कर चुके होंगे, और जब तुम उस स्थिति पर आते हो जहां से तुम मुझसे अलग होकर मुझे छोड़ देना चाहोगे। वह स्थिति तुम तक केवल तभी आएगी, जब तुम उस स्थिति तक आकर सोचते हो- इन सभी ध्यान प्रयोगों और यहां की प्रत्येक चीज को छोड़ दों यह पूरी चीज एक दुःस्वप्न है।’ तब वहां कोई भी फिक्र नहीं होती। लेकिन मेरे पास आना और आकर मुझे अलविदा कहना न भूल जाना, अन्यथा तुम भी बिना उपलब्ध हुए यह स्थान छोड़ सकते हो।
जब तुम प्रयासों के साथ थककर उन्हें करना समाप्त कर देते हो, जब प्रयास पूर्णता से किया जाता है, तभी चीजें घटित होना शुरू होती हैं। निश्चित रूप से हेरीगेल अपने प्रयास में पूर्ण था, इसी कारण पूरी चीज को वह तीन वर्षों में समाप्त कर सका। यदि तुम अंशत : और खण्डों में कार्य करते हो, तो तुम्हारा प्रयास समग्र नहीं होता, तब तीन जन्म भी पर्याप्त नहीं हो सकते हैं यदि तुम अपने प्रयास में कुनकुने हो, तो तुम उस स्थिति तक कभी नहीं आओगे, तब पूरा प्रयास व्यर्थ बन जाता है।
प्रयास में समग्र बनो। जितना भी संभव हो सके, ध्यान करने की कोई कला-कुशलता सीखो। वह प्रत्येक कार्य करो, जो तुम कर सकते हो। किसी भी चीज़ को रोको मत। किसी चीज से बचकर भागने का प्रयास मत करो और उसे पूरे हृदय से करो। तब वहां एक स्थिति और एक शिखर बिंदु आता है, जहां और अधिक नहीं किया जा सकता है। तब तुम एक ऐसी स्थिति तक आ जाते हो, जहां और अधिक नहीं किया जा सकता है ओर तुमने सभी कुछ कर लिया है और मैं यह कहने जा रहा हूं : ‘नहीं, यह पर्याप्त नहीं है :- तुम्हें समग्रता तक लाने के लिए, अंतिम स्थिति अथवा शिखर बिंदु तक लाने के लिए, जहां कुछ और अधिक करना संभव नहीं है, मेरा नहीं’ कहना जरूरी है।
और तुम नहीं जानते कि तुम कितना अधिक कर सकते हो। तुम्हारे पास विराट ऊर्जा है जिसका तुम प्रयोग नहीं कर रहे हो और उसके केवल एक खण्ड का प्रयोग कर रहे हो। और यदि तुम केवल एक खण्ड का उपयोग कर रहे हो, तो तुम उस बिंदु तक कभी नहीं पहुंचोगे जहां हेरीगेल पहुंचा था- मैं उसे ‘हेरीगेल बिंदु’ कहता हूं।
लेकिन उसने भली-भांति किया। उसने वह सभी कुछ किया, जो किया जा सकता था, अपनी ओर से वह कोई भी चीज़ बचा कर नहीं रख रहा था। तब पानी के खौलने का बिंदु आता है। इस पानी को खौलने के बिंदु पर ही द्वार है। पूरा प्रयास इतना अधिक व्यर्थ हो जाता है कि तुम उसके द्वारा कहीं भी नहीं पहुंच रहे हो, इसलिए तुम उसे छोड़ देते हो। तुम अचानक विश्राम में चले जाते हो- और द्वार खुल जाता है।
अब तुम बिना एक ध्यानी बने हुए ध्यान कर सकते हो। अब तुम ध्यान किए बिना ही ध्यान कर सकते हो। अब तुम वहां बिना अहंकार के होकर ध्यान कर सकते हो। अब तुम ध्यान में हो सकते हो- और वहां कोई भी ध्यान करने वाला नहीं है। कर्त्ता ही कार्य बन जाता है, ध्यानी, ध्यान बन जाता है, तीर चलाने वाला धनुष और बाण बनाता है और बाहर वहां एक वृक्ष पर झूलता हुआ कोई भी लक्ष्य नहीं होता है। लक्ष्य तुम होते हो और तुम्हारे अंदर ही स्रोत होता है।
यही है वह जो यो-हुन बू-जेन ने कहा :
‘तीर चलाने की कला कुशलता बहुत सुंदर है :’’
निश्चित रूप से लीह्त्सु एक अच्छा तीर चलाने वाला एक निपुण धनुर्धारी था।
लेकिन यह तीर न चलाने की कला-कुशलता नहीं है
हमको पहाड़ पर ऊपर चला चाहिए और तब तुम आगे की ओर-
उभरी चट्टान पर खड़े हो जाना और तब तीर चलाने का प्रयास करना।
वह लीह्त्सू से कहां ले जा रहा है। बाहर से तो वह पूर्ण कुशल है, लेकिन अंदर का स्रोत अर्थात उद्गम अभी भी कांप रहा है। क्रिया पूर्ण है, पर अस्तित्व अभी तक कांप रहा है। वहां भय है, वहां मृत्यु है, क्योंकि उसने अभी तक स्वयं को नहीं जाना है। उसने स्वयं जाना नहीं है, वह जो कुछ भी कर रहा है, केवल बुद्धि और हाथों से कर रहा है; तीसरा भ् अर्थात हृदय (भ्मंतज) अभी उसमें नहीं है। सदा स्मरण रहे कि तुम्हारे पास तीनों भ् अर्थातभ्ंदकए भ्मंतज ंदक भ्मंक (हाथ, हृदय और बुद्धि) तीनों एक साथ रहें। तुमने अभी तक तीन त्श्े सीखे हैं अब तीन भ्श्े सीखो और हमेशा स्मरण रहे कि सिर अथवा बुद्धि इतनी अधिक चालाक है कि वह तुम्हें धोखा दे सकती है और वह तुम्हें यह अनुभूति दे सकती है कि ठीक है, सभी तीनों भ्श्े वहां हैं, क्योंकि जैसे ही कौशल विकसित होता है, जैसे ही तुम अधिक से अधिक तकनीकी रूप से पूर्ण होते हो, बुद्धि कहती है : ‘अब और क्या ज़रूरी है?’
भ्मंक (बुद्धि) का अर्थ है- पश्चिम, भ्मंतज (हृदय) का अर्थ है पूरब बुद्धि कहती है- ‘प्रत्येक चीज़ ठीक है।’ हेरीगेल बुद्धि है, सद्गुरु हृदय है- और सद्गुरु पागल दिखाई देता है। बुद्धि हमेशा कहती है : ‘तुम खामोश रहो’, अंदर मत आओ, अन्यथा तुम झंझट उत्पन्न करोगे। पूरी चीज को मुझे ही संभालने और निपटाने दो; क्योंकि मैंने प्रत्येक चीज़ सीखी है, मैं गणित जानता हूं और जानता हूं कि कैसे इसके साथ व्यवहार किया जाए। तकनीकी रूप से बुद्धि हमेशा ठीक होती है। तकनीकी रूप से हृदय हमेशा गलत होता है क्योंकि हृदय कोई भी कला-कुशलता नहीं जानता है, वह केवल भाव और अनुभूति जानता है और वह केवल आत्मा का काव्य जानता है। वह कोई भी कला- कुशलता नहीं जानता वह कोई भी व्याकरण नहीं जानता और वह एक काव्यात्मक सत्ता है।
‘अब हमको पहाड़ पर ऊपर चलना चाहिए।’
नब्बे वर्ष आयु के अत्यंत वृद्ध सद्गुरु ने कहा-
और तब तुम आगे की ओर उभरी चट्टान पर खड़े हो जाना
और तब तीर चलाने का प्रयास करना
तब हम देखेंगे।
वे लोग एक पहाड़ पर चढ़े और एक आगे की ओर निकली-
चट्टान पर खड़े हो गए, जो एक दस हजार फीट ऊंची ढालू कगार थी--...
और स्मरण रहे, बुद्धि और हृदय के मध्य यही अंतर है : हृदय है दस हजार फीट ऊंचा, और उस उभरी चट्टान से दस हजार फीट गहरी घाटी में ऊपर से देखना----
जब कभी तुम हृदय के निकटतम जाते हो तो तुम व्याकुल होने का अनुभव करेगे। बुद्धि के साथ प्रत्येक चीज भूमितल पर है, वह क्रंक्रीट से बना एक राजमार्ग है। हृदय के साथ तुम जंगल में गतिशील होते हो- जहां कोई राजमार्ग नहीं होता, ऊंचा नीचा ऊबड़-खाबड़ रास्ता होता है, प्रत्येक चीज एक धुंध में छिपी हुई अनजानी और रहस्यमय होती है, कुछ भी स्पष्ट नहीं होता, वहां एक राजमार्ग न होकर एक भूलभुलैया जैसा एक रास्ता होता है और वह एक पहेली के समान अधिक होता है। दस हज़ार फीट ऊंचाई--...
कहीं से नीत्शे के बारे में यह सूचना मिलती है कि एक बार ऐसा हुआ कि उसने स्वयं को अचानक दस हजार फीट ऊंचाई पर, समय से दस हजार फीट की ऊंचाई पर अपने को पाया-जैसे मानो समय एक गहन घाटी थी और उसने स्वयं समय से अपने को दूर दस हजार फीट की ऊंचाई पर पाया। उसकी डायरी से यह सूचना मिलती है कि वह उसी दिन से पागल हो गया। जिस दिन उसने अपनी डायरी में इस बात का उल्लेख किया, उसी दिन उसका पागलपन शुरू हो गया।
यह बहुत व्याकुल और पागल कर देने वाली स्थिति होती है, कोई भी व्यक्ति पागल हो सकता है। जैसे ही तुम अपने हृदय के निकटतम जाते हो, तो तुम अनुभव करोगे कि तुम पागलपन के निकटतम जा रहे हो। ‘यह मैं क्या कर रहा हूं चीजें भ्रमित कर रही हैं। ज्ञात तुम्हें पीछे छोड़ देता है और अज्ञात प्रवेश करता है। सभी नक्शे व्यर्थ हो जाते है, क्योंकि हृदय के लिए कोई भी मानचित्र अस्तित्व में नहीं हैं। सभी मानचित्र चेतन मन के लिए मौजूद हैं। उसमें सभी चीजें स्पष्ट रूप से हैं और तुम सुरक्षित हो। यही कारण है कि प्रेम तुम्हें भय देता है, मृत्यु तुम्हें भय देती है और ध्यान भी तुम्हें भय देता है। जब कभी भी तुम केंद्र की ओर गतिशील होते हो, भय तुम्हें जकड़ लेता है।
वे लोग एक पहाड़ पर चढ़े, और एक आगे को निकली-
उभरी हुई चट्टान पर खड़े हो गए, जो एक दस हज़ार फीट ऊंची ढालू कगार थी
पो-हुन वू-ज़ेन पीछे की ओर खिसकता गया-
आगे की ओर नहीं, वह इस दस हज़ार फुट ऊंची उभरी चट्टान पर पीछे की ओर गतिशील हुआ।
यो-हुन वू-ज़ेन पीछे की ओर खिसकता गया
जब तक कि उसके पैरों का एक तिहाई भाग कगार के छोर पर-
झूलता हुआ न रह गया।
तब उसने लीह्त्सू को आगे बढ़कर आने का संकेत किया।
यह कहा जाता है कि इस नब्बे वर्ष के बूढ़े व्यक्ति की कमर लगभग झुक गई थी और वह सीधा खड़ा नहीं हो सकता था। वह बहुत बहुत वृद्ध था। यह झुकी कमर के बूढ़े व्यक्ति का आधा पैर कगार के छोर पर झूल रहा था और वह उस दिशा में देख भी नहीं रहा था, चट्टान का छोर उसके पीछे की ओर था।
और तब उसने लीह्त्सू को आगे बढ़कर आने का संकेत किया।
यह वही स्थान है, जहां मैं खड़ा हुआ हूं और तुम्हें आगे आने को बुला रहा हूं।
लीह्त्सू भूमि पर नीचे गिर पड़ा।
वह उसके निकट भी नहीं आया। वह उभरे हुए सीधेढालू कगार से दूर खड़ा हुआ था। लीह्त्सू नीचे भूमि पर गिर पड़ा।
उस बूढ़े पागल व्यक्ति के निकट आने का विचार ही, जोझूलती हुई केवल मृत्यु की कगार पर खड़ा हुआ है और वह किसी भी क्षण नीचे खाई में जा गिरेगा और कभी खोजे भी नहीं मिलेगा।
उसकी एड़ियों के नीचे से पसीना बहने लगा।
लीहत्सू, एड़ियों के नीचे से पसीना बहने के साथ ही नीचे भूमि पर गिर पड़ा। स्मरण रहे, पहले पसीना सिर अथवा माथे पर आता है। जब भय लगना प्रारम्भ होता है, पहले तुम्हारे सिर या माथे पर पसीना आता है, एड़ियां तक तो सबसे अंत में जाता है। जब भय तुम्हारे अंदर इतनी अधिक गहराई तक प्रवेश कर जाता है कि न केवल सिर पर पसीना आता है बल्कि एड़ियां भी पसीने से नहा जाती हैं, तब पूरा अस्तित्व भय से भरकर कांपने लगता है। लीह्त्सू खड़ा न रह सका, वह वृद्ध सद्गुरु के निकट जाने के विचार मात्र से ही खड़ा न रह सका।
पो-हुनबू-ज़ेन ने कहा : एक पूर्ण व्यक्ति नीले आकाश में
पंख खोल कर उड़ता है, अथवा वह बंसत में खिले पीले पुष्पों की घाटी में नीचे छलांग लगाता है, अथवा वह विश्व की आठों दिशाओं में,
सभी स्थानों पर विचरण करता है, तो भी उसकी आत्मा में
परिवर्तन का एक चिन्ह तक नहीं दिखाई देता है।
लीह्त्सू! तुमको इतना अधिक पसीना क्यों आ रहा है?- बिल्कुल एड़ियों तक से? और तुम वहां हक्के-बक्के होकर नीचे भूमि पर क्यों गिर पड़े? तुम्हारे में यह परिवर्तन क्यों हुआ? तुम इतना अधिक क्यों कांप रहे हो? तुम्हें भय क्या है?-क्योंकि एक पूर्ण-कुशल व्यक्ति के पास भय नहीं होता है।
पूर्ण होना ही निर्भयता है...  क्योंकि एक पूर्ण मनुष्य जानता है कि वहां कोई भी मृत्यु नही ंहोती है। यदि यह बूढ़ा पो-हुन वू-जेन नीचे भी गिर जाता है और उसका शरीर लाखों टुकड़ों में टूट कर बिखर जाता है और कोई भी व्यक्ति उन्हें फिर से खोज भी नही ंसकता, तो भी वह जानता है कि वह मर नही ंसकता। वह वैसा ही रहेगा, जैसा वह है। केवल बाहर परिधि की कुछ चीज़ विलुप्त हो जायेगी, पर केंद्र बना रहता है, जैसा वह है, हमेशा बना रहता है।
केन्द्र के लिए कोई भी मृत्यु नहीं होती है। चक्रवात केवल परिधि पर रहता है, चक्रवात कभी भी केंद्र तक नहीं पहुंचता है। कोई भी चीज़ केंद्र तक नहीं पहुंचती है। एक पूर्ण मनुष्य केन्द्रित होता है, वह आत्मा में अपनी जड़ें जमाये रहता है। वह निर्भय होता है। वह भयमुक्त नहीं है- नहीं! वह एक बहादुर व्यक्ति नहीं है- नहीं। वह सामान्य रूप से निर्भय है। एक बहादुर व्यक्ति वह होता है जिसके पास भय होता है, लेकिन वह अपने भय के विरुद्ध जाता है! और एक कायर वह व्यक्ति होता है जिसके पास भी भय होता है, लेकिन वह अपने भय के साथ जाता है। बहादुर और कायर, उनमें कोई भी अंतर नहीं है, वे दोनों आधारभूत रूप से भिन्न नहीं हैं, उन दोनों के पास भय होता है। एक बहादुर वह व्यक्ति है जो भय होने के बावजूद जाता है और कायर वह व्यक्ति होता है जो अपने भय का अनुसरण करता है। लेकिन एक पूर्ण मनुष्य इनमें से कोई भी नहीं होता, वह पूर्ण रूप से निर्भय होता है। वह न तो एक कायर है और न वह बहादुर है। वह पूरी तरह से जानता है कि मृत्यु एक कल्पित कथा है, मृत्यु एक झूठ है-वह सबसे बड़ा झूठ है, मृत्यु का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
स्मरण रहे, एक पूर्ण मनुष्य के लिए मृत्यु अस्तित्व में नहीं है- उसके लिए अस्तित्व में केवल जीवन है अथवा परमात्मा है। तुम्हारे लिए परमात्मा नहीं, केवल मृत्यु ही अस्तित्व में है। जिस क्षण तुम शाश्वतता का अनुभव करते हो, तो तुमने जीवन के प्रमाणित उद्गम का अनुभव कर लिया है।
पूर्ण मनुष्य नीले आकाश में पंख खोलकर उड़ता है,
अथवा वह बसंत में खिले पीले पुष्पों की घाटी में नीचे छलांग लगाता है,
अथवा वह विश्व की सभी आठों परिसीमाओं में सभी स्थानों पर विचरण करता है,
तो भी उसकी आत्मा में परिवर्तन का एक चिन्ह तक नहीं दिखाई देता है।
परिवर्तन बाहर परिधि पर घटित हो सकता है, लेकिन उसकी आत्मा में वहां कोई भी परिवर्तन नहीं होता है। अंतरस्थ में वह स्थिर बना रहता है। अंतरस्थ में वह वैसा ही शाश्वत बना रहता है।
लेकिन तुमने घबड़ाहट के चिन्हों से यह प्रकट कर दिया,
और तुम्हारी आंखें स्तब्ध हैं और उनमें व्याकुलता छलक रही है
फिर तुम कैसे लक्ष्य पर प्रहार करने की आशा कर सकते हो?
------ क्योंकि यदि तुम अपने अंदर कांप रहे हो, तुम चाहे जितना भी लक्ष्य पर ठीक निशाना लगाओ, वह ठीक हो ही नहीं सकता, क्योंकि तुम अंदर से कांप रहे हो और वह तुम्हारे हाथ में कंपन उत्पन्न कर देगा। वह अदृश्य हो सकता है, लेकिन वह वहां होगा। सभी बाहर के प्रयोजनों के लिए तुम लक्ष्य को बेध सकते हो लेकिन आत्मा के प्रयोजनों के लिए तुम विफल हो गए हो। तुम लक्ष्य को कैसे भेद सकते हो?
इसलिए मूल बात लक्ष्य पर प्रहार करना नहीं है, मौलिक बात है एक अकम्प अस्तित्व को उपलब्ध होना। तब चाहे तुम लक्ष्य को बेधते हो अथवा नहीं, यह गौण है। उसे तै करना बच्चों का काम है और वह बच्चों का खेल है।
यही अंतर है तीर चलाने की कला ओर तीर न चलाने की कला के मध्य। यह संभव है कि यह बूढ़ा सद्गुरु लक्ष्य से चूक सकता है, लेकिन तब भी वह तीर न चलाने की कला जानता है। लीह्त्स लक्ष्य को कभी नही ंचूकेगा, लेकिन तब भी वह असली लक्ष्य से चूक गया है, वह स्वयं से ही चूक चुका है।
इसलिए वहां दो स्थितियां हैं : वह उद्गम जहां से तीर चलता है और वह अंत, जहां वह तीर पहुंचता है। धर्म का संबंध हमेशा स्रोत अथवा उद्गम के साथ होता है जहां से सभी तीर गतिशील होते हैं। वे कहां पहुंचते हैं, प्रयोजन यह नहीं है, मूल बात है कि वे कहां से चलते हें- क्योंकि यदि वे एक अकम्प प्राणी द्वारा चलाये जाते हैं, वे लक्ष्य को उपलब्ध होंगे। वे पहिले ही उपलब्ध हो गए है, क्योंकि उद्गम में ही अंत है, प्रारम्भ में ही अंत है, बीज में ही वृक्ष है, ‘अल्फा’ (आदि) में ही ‘उमैगा’ (अंत) है।
इसलिए मूल बात परिणाम के बारे में चिंतित होना नहीं है। सारभूत बात है, स्रोत के बारे में सोचना और उस पर ध्यान करना। यदि मेरी मुद्रा पूर्ण प्रेम की मुद्रा है अथवा नहीं है, प्रयोजन यह नहीं है। यदि प्रेम प्रवाहित हो रहा है, प्रयोजन इससे भी नहीं है। यदि वहां प्रेम है तो वह उसकी अपनी कलाकुशलता खोज लेगा, यदि प्रेम वहां है तो वह उसकी अपनी निपुणता खोज लेगा। लेकिन यदि वहां प्रेम नहीं है और तुम कला-पटुता में निपुण हो तो कलाकुशलता उसका प्रेम नहीं खोज सकती- यह बात स्मरण रखने की है।
केंद्र हमेशा उसकी परिधि खोज लेगा, लेकिन परिधि केन्द्र को नहीं खोज सकती। आत्मा हमेशा उसकी नैतिकता और उसका चरित्र खोज लेगी, लेकिन चरित्र उसकी आत्मा नहीं खोज सकेगा। तुम बाहर से अंदर की ओर गतिशील नही ंहो सकते। इस बारे में केवल एक ही मार्ग है : ऊर्जा अंदर से बाहर की ओर प्रवाहित होती है। गति आगे नहीं बढ़ सकती यदि वहां स्रोत नहीं है, उसका कोई उद्गम स्थल नहीं है। तब पूरी चीज़ ही झूठी होगी। यदि तुम्हारे पास उद्गम है तो नदी प्रवाहित होगी और वह सागर को प्राप्त कर लेगी, फिर इस बारे में कोई समस्या ही नहीं है। वह जहां कहीं से भी जाती है, वह लक्ष्य तक पहुंचेगी। यदि स्रोत अतिरेक से प्रवाहित हो रहा है, तो तुम उपलब्ध हो जाओगे और यदि तुम पूरी तरह से खिलौनों जैसी कला-कुशलता के साथ खेल रहे हो, तो तुम चूक जाओगे।
पश्चिम में विशेष रूप से तकनीकी ज्ञान इतना अधिक महत्वपूर्ण बन गया है कि वह मनुष्य के संबंधों में भी प्रविष्ट हो चुका है। क्योंकि तुम कुशल विधियों के बारे में इतना अधिक जानते हो, तुम प्रत्येक चीज को टेक्नोलॉजी में बदलने का प्रयास कर रहे हो। यही कारण है कि प्रत्येक वर्ष प्रेम के बारे में हजारों पुस्तकें प्रकाशित होती हैं-उसमें कुशल विधियां दी गई हैं- कैसे प्रेम किया जाए और कैसे संभोग के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा जाए। प्रेम भी कला विवरण संबंधी समस्या बन गया है और संभोग के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचना भी कला विवरण संबंधी एक विषय बन गया है जिसे कलाकुशल व्यक्तियों के द्वारा हल किया जाना है। यदि प्रेम भी एक कला-विवरण संबंधी एक समस्या बन गया है तब फिर बचा क्या है? तब कुछ भी नहीं बचा, तब पूरा जीवन केवल एक टेक्नोलोजी है। तब तुम्हें जानना है- कैसे जानें- लेकिन तुम चूक जाते हो, तुम वास्तविक लक्ष्य से चूक जाते हो, जो स्रोत है।
जहां तक वह ले जाती है कोई भी कुशल विधि अच्छी है, लेकिन वह प्रमुख नहीं है। वह सारभूत नहीं है। सारभूत है-स्रोत और एक व्यक्ति को पहले स्रोत के लिए देखना चाहिए- और तब कलाकुशलता आ सकती है।
यह अच्छा है कि तुमने कला-पटुता सीख ली है। लोग मेरे पास आते हैं और मैं देखा हूं कि उनकी दिलचस्पी हमेशा विधि में होती है। वे पूंछते हैं- ध्यान कैसे करें। वे यह नहीं पूछते कि ध्यान क्या है? वे पूछते हैं- कैसे? कैसे शांति प्राप्त की जाए? वे कभी नहीं पूछते कि शांति क्या है? जैसे मानों वे उसे पहले ही से जानते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी पत्नी की हत्या कर दी और इस बारे में कचहरी में उस पर मुकदमा चला न्यायाधीश ने नसरुद्दीन से पूछा : ‘नसरुद्दीन! तुम बार-बार यह आग्रह किए चले जाते हो कि तुम एक शांतिप्रिय व्यक्ति हो। तुम किस तरह के शांतिप्रिय व्यक्ति हो कि तुमने अपनी पत्नी की हत्या कर दी?
नसरुद्दीन ने कहा : ‘हां, मैं फिर से दोहराता हूं कि मैं एक शांतिप्रिय व्यक्ति हूं। आप नहीं जानते कि जब अपनी पत्नी को मैंने मारा तो उसके चेहरे पर एक ऐसी शांति अवतरित हुई और पहली बार मेरे घर में भी चारों ओर एक शांति छा गई।’
कलाकुशलता मारती है। वह तुम्हें एक शांति दे सकती है, जो जीवन से नहीं मृत्यु से संबंधित है। विधि खतरनाक है क्योंकि तुम उद्गम को पूर्ण रूप से भूल सकते हो और तुम विधि के साथ पागल हो सकते हो। विधियां अच्छी हैं यदि तुम सजग बने रहते हो, तुम सचेत बने रहते हो कि वे साध्य नहीं हैं और वे केवल साधन हैं। उनके साथ बहुत अधिक आवेशित हो जाना बहुत हानिकारक है, क्योंकि तुम स्रोत को पूर्ण रूप से भूल सकते हो।
यही वह स्थिति है। इस बूढ़े सद्गुरु, वो-हुन वू-ज़ेन ने उनमें से एक रहस्य लीह्त्सू को दिखलाया। लीह्त्सू बाद में स्वयं बुद्धत्व को उपलब्ध एक व्यक्ति बना, वह स्वयं वैसा ही बना, जैसा कि उस क्षण वह बूढ़ा व्यक्ति था, दस हजार फीट ऊंची कगार पर पीछे की ओर खिसकता हुआ, जब तक कि उसके पैरों का एक तिहाई भाग कगार के छोर पर झूलता हुआ न रह गया- और एक बहुत बूढ़ नब्बे वर्ष आयु का वृद्ध शरीर, और तब भी उस बूढ़े व्यक्ति में कोई कंपकपाहट नहीं आई, ज़रा-सा भी परिवर्तन नहीं आया और न कोई भी थरथराहट आई। अपने अंतरस्थ में अनिवार्य रूप से उसे पूर्ण निर्भय होना चाहिए। अपने अंतरस्थ में निश्चित रूप से स्वयं की भूमि में वह गहरी जड़ें जमाये हुए था ओर केन्द्रित था। इस बात का सदा स्मरण बना रहे, क्योंकि इस बारे में हमेशा कलाकुशलता और विधियों का एक शिकार बनने की संभावना है।
तुम तक अंतिम और सर्वोच्च सत्य केवल तब आता है जब सभी कला कुशलता की विधियां छोड़ दी जाती हैं। वह सर्वोच्च तुम्हें केवल तब घटित होता है, जब वहां कोई भी विधि नहीं होती, क्योंकि केवल तभी तुम खुले हुए होते हो। वह अंतिम उपलब्धि केवल तभी तुम्हारा द्वार खटखटायेगी, जब तुम वहां नहीं होते हो। जब तुम अनुपस्थित होते हो, तुम तैयार होते हो, क्योंकि जब तुम अनुपस्थित हो केवल तभी उस सर्वोच्च सत्य के लिए तुम्हारे अंदर प्रवेश करने का एक अंतराल होता है।
तब तुम एक गर्भ बनते हो। यदि तुम वहां हो, तो तुम हमेशा बहुत अधिक होते हो, वहां उस सर्वोच्च उपलब्धि के लिए तुम्हारे अंदर प्रवेश करने के लिए थोड़ा- सा भी अंतराल अथवा स्थान नहीं मिलता है- और वह सर्वोच्च अथवा अंतिम इतना अधिक विराट है, कि तुम्हें इतनी अधिक विपुलता से शून्य होना होगा, इतना अधिक असीम शून्य होना होगा, केवलतभी वहां मिलन की एक संभावना है।
इसी कारण मैं कहे चला जाता हूं कि तुम कभी भी परमात्मा से मिलने में समर्थ न हो सकोगे, क्योंकि जब परमात्मा आता है, तो तुम्हें वहां नहीं होना होगा। और जब तक तुम हो, वह नहीं आ सकता। तुम ही वह अवरोध हो।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें