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मंगलवार, 20 नवंबर 2018

चेतना का सूर्य-(प्रवचन-05)

प्रवचन-पांचवां-(संन्यासी की दिशा)

आने वाले पचास वर्षों में दुनिया में बहुत-सी संन्यास परम्पराएं एकदम विदा हो जायेगी। चीन में एक बड़ी बौद्ध परम्परा थी संन्यास की, वह एकदम विदा हो गयी। तिब्बत से लामा विदा हो रहे हैं, वे बच नहीं सकते। रूस में भी बहुत पुराने ईसाई फकीरो की परम्परा थी, वह नष्ट हो गयी। ओर दुनिया में कहीं भी बचना मुश्किल है। इसलिए मेरी अपनी दृष्टि यह है कि संन्यास जैसा कीमती फूल नष्ट नहीं होना चाहिए। संन्यास की संस्था चाहे विदा हो जाये, लेकिन संन्यास विदा नहीं होना चाहिए।
 ... इसी अध्याय से
थोड़े से सवाल हैं, उनके सम्बन्ध में कुछ बातें समझ लेनी उपयोगी हैं। एक मित्र ने पूछा है कि कुछ साधक कुण्डलिनी साधना का पूर्व से ही प्रयोग कर रहे हें। उनको इस प्रयोग से बहुत गति मिल रही है। तो वे इसको आगे जारी रखें या न रखें। उन्हें कोई हानि तो नहीं होगी?
हानि का कोई सवाल नहीं है। यदि पहले से कुछ जारी रखा है और उससे गति मिल रही है तो तीव्र गति से जारी रखें। लाभ भी होगा। परमात्मा के मार्ग पर ऐसे भी हानि नहीं है।
दूसरे मित्र ने पूछा है और भी दो-तीन मित्रों ने वही बात पूछी है कि रोना, चिल्लाना, हंसना, नाचना कब तक जारी रहेगा?


यह तीन सप्ताह से तीन महीने तक जारी रह सकता हैं। जो ठीक से प्रयोग को कर लेगा, तीन सप्ताह में रोना, हंसना, चिल्लाना विलीन हो जायेगा और पहले चरण से चौथे चरण में प्रवेश हो जायेगा, बीच के दो चरण आपसे गिर जायेंगे। जो ठीक से नहीं करेंगे, धीमे-धीमे करेंगे उन्हें तीन सप्ताह से लेकर तीन महीने तक का समय लग सकता है।

लेकिन यह कोई सदा चलने वाली बात नहीं है, क्योंकि मन के विकार जब गिर जायेंगे तो मन अपने आप विलीन हो जायेगा। और कितनी तीव्रता से आप विकारों को गिराते हैं, उस पर समय की लम्बाई निर्भर करेगी। लेकिन तीन महीने ठीक से प्रयोग किया तो आमतौर से तीन महीने मे यह सब शान्त हो जायेगा। फिर आप एक-दो गहरी श्वास लेंगे। और तत्काल चौथे चरण में प्रवेश हो जायेगा। लेकिन यह तभी होगा, जब आप पूरी तरह से ये बीच के दो चरण कर डालें। इसमें जरा-सी कंजूसी की तो वर्षों लग सकते हैं। सवाल उलीच के फेंक देने का है, अपने भीतर से।
दूसरे दो मित्रों ने पूछा है कि रोना-चिल्लाना बड़ी कठिनाई देगा घर के लोगो को, पड़ोसियों को।
शुरू-शुरू में देगा, एक दिन देगा, दो दिन देगा। आप खुद ही आकर उनसे पहले प्रार्थना कर आयें कि घण्टेभर में ऐसा करूंगा, आप घण्टे भर के लिए क्षमा कर दें। पहले कह आयें, इसके पहले कि वह आपसे पूछें कि क्या कर रहे हैं? और चूकि यह प्रयोग एकदम नया है, इसलिए थोड़ा समय लगेगा। अभी कोई बगल में भजन करने लगता है जोर से किसी को तकलीफ नहीं होती। कोई जोर से राम-राम करने लगता है तो आप समझते हैं, ध्यान कर रहा हैं। एक-दो वर्ष के भीतर मुल्क में लाखों लोग इसे करेंगे और लोग समझ लेंगे कि ध्यान कर रहे हैं। अभी शुरू में जो लोग करेंगे, उन्हें थोड़ी अड़चन है।
शुरू में कुछ भी करने में थोड़ी अड़चन होती ही है। पर वह एक-दो दिन की बात है। अभी भी मुल्क में हजारों लोगों ने करना शुरू किया है। एक-दो दिन आसपास के लोग उत्सुक होते हें, फिर भूल जाते हैं। और आपके व्यक्तित्व में जो अन्तर पड़ने शुरू हो जायेंगे तीन सप्ताह के भीतर ही, वे भी उनको दिखाई पड़ेंगे। आपको रोना-चिल्लाना ही दिखाई नहीं पड़ेगा। और अगर आपने प्रयोग ईमानदारी से किया तो आपके पड़ोसी बहुत ज्यादा दिन तक प्रयोग से बच न सकेंगे। वह प्रयोग उन्हें भी पकड़ना शुरू हो जायेगा। इसलिए आपके रोने-चिल्लाने को आप बहुत परेशानी से न लें, बल्कि वह भी हितकार होगा। पास के लोग आकर पूछेंगे तो पूरा ध्यान उनको समझा दें। और उनको कहें कि आप भी कल साथ बैठ जायें।
एक और सवाल रोज पूछा जा रहा है, उस सम्बन्ध में थोड़ी बात आपसे कहूं। इधर अभी मनाली शिविर में बीस लोगों ने एक नये प्रकार के सन्यास में प्रयोग किया हे। उस सम्बन्ध में रोज पूछा जा रहा हे कि वह सन्यास क्या है,
दो-तीन बातें संक्षिप्त में। पहली बात तो यह कि संन्यास जैसा आज तक दुनिया में था, अब भविष्य में उसके बचने की कोई सम्भावना नहीं है। वह नहीं बच सकेगा। सोवियत रूस में आज सन्यासी होना सम्भव नहीं है। चीन में संन्यासी होना अब सम्भव नहीं हें और जहां-जहां समाजवादी प्रभावी होगा, वहां-वहां संन्यासी असम्भव हो जायेगा। जहाँ भी ख्याल पैदा हो जायेगा कि जो आदमी कुछ भी नहीं करता है उसे खोने का हक नहीं हैं, वहां संन्यास मुश्किल हो जायेगा।
आने वाले पचास वर्षों में दुनिया में बहुत-सी संन्यास परम्पराएं एकदम विदा हो जायेंगी। चीन में एक बड़ी बौद्ध परम्परा थी संन्यास की, वह एकदम विदा हो गयी। तिब्बत से लामा विदा हो रहे हें, वे बच नहीं सकते। रूस में भी बहुत पुराने फकीरों की परम्परा थी, वह नष्ट हो गयी। और दुनिया में कहीं भी बचना मुश्किल है। इसलिए मेरी अपनी दृष्टि यह है कि संन्यास जैसा कीमती फूल नष्ट नहीं होना चाहिए। संन्यास की संस्था चाहे विदा हो जाये, लेकिन संन्यास विदा नहीं होना चाहिए।
जो उसे बचाने क एक ही उपाय है और वह उपाय यह है कि संन्यासी जिन्दगी को छोड़कर न भागे, जिन्दगी के बीच संन्यासी हो जाये। दुकान पर बैठे, मजदूरी करो, दफ्तर में काम करे, भागे न, उसकी आजीविका समाज के ऊपर निर्भर न हो। वह जहा है, जैसा है, वहीं सन्यासी हो जाये। तो इन बीस संन्यासियों को इस दिशा में प्रवृत्त किया है कि वे अपने दफ्तर में काम करेंगे, अपने स्कूल में नौकरी करेंगे, अपनी दुकान पर बैठेंगे और सन्यासी का जीवन जियेंगे।
इसका परिणाम दोहरा होगा। एक तो इसका परिणाम यह होगा कि संन्यासी शोषक नहीं मालूम होगा, वह किसी के ऊपर निर्भर है, ऐसा नहीं मालूम होगा। संन्यासी को भी इससे लाभ होगा कि जो संन्यास की परम्परा समाज पर निर्भर हो जाती है वह गुलाम हो जात है, वह पता चले न चले। वह समाज की गुलामी में जीने लगती है।
और जिनको हम रोटी देते हैं, उनसे हम आत्मा भी खरीद लेते हैं। इसलिए संन्यासी आमतौर से विद्रोही होना चाहिए, लेकिन हो तो नहीं पाता, क्योंकि वह जिनसे भोजन पाता है, उनकी गुलामी में उसे समय बिताना पड़ता है वह वही बातें कहता रहता है जो आपका प्रीतिकर हैं, क्योंकि आप उसको रोटी देते हैं,
संन्यास एक क्रान्तिकारी घटना है। उसके लिए जरूरी है कि व्यक्ति भीतरी रूप से, आर्थिक रूप से अपने ही ऊपर निर्भर हो। तो एक तो संन्यास को घर-घर में पहुँचाने का मेरा ख्याल है।
इसका दूसरा गहरा परिणाम यह होगा कि जब संन्यासी घरों को छोड़कर भाग जाता है तो संन्यासी का तो फायदा संसार को होना चाहिए, वह नहीं हो पाता। अच्छे लोग जब संसार छोड़ देते हैं तो संसार बुरे लोगों के हाथ में पड़ जाता है। इससे नुकसान हुआ है मैं मानता हूँ कि किसी आदमी की जिन्दगी में अच्छाई का फूल खिले तो उसे ठेठ बाजार में बैठा होना चाहिए, ताकि उसकी सुगन्ध बाजार में फैलनी शुरू हो। अन्यथा वह तो भाग जायेगा, दुर्गन्ध फैलाने वाले जम के बैठे रहेंगे।
तो संन्यासी को घर-घर में वह वेश परिवर्तन कर ले, वह अपनी सारी वृत्तियों को परमात्मा की ओर लगा दे, लेकिन छोड़ के न भागे, क्योंकि अब, जिस घर का काम कल तक वह सोचता था, मैं कह रहा हूँ, अब परमात्मा का उपकरण बनकर, उस घर का काम किये चला जाये। न पत्नी को छोड़े, न घर को छोड़े, न बच्चों को छोड़े, अब यह सारे काम को परमात्मा का काम समझ कर चुपचाप करता चला जाये। इसका कर्ता न रह जाय। बस, इसका द्रष्टा भर रह जाय। ऐसे संन्यास की प्रक्रिया से मैं सोचता हूँ कि एक तो लाखों लोग उत्सुक हो सकेंगे। जो कभी घर छोड़ने का विचार नहीं कर पाते हैं, उनकी जिन्दगी में भी संन्यास का आनन्द आ सकेगा और यह जिन्दगी भी प्रफुल्लित होगी। अगर हमें सड़कों पर, बाजारों में, मकानों में, दफ्तरों में संन्यासी उपलब्ध होने लगें, उसके कपड़े, उसकी स्मृति उसकी हवा, उसका व्यवहार तो वह सारी जिन्दगी को प्रभावित करेगा।
इस दृष्टि से जो लोग भी बार-बार पूछ रहे हैं वे अगर उत्सुक हों तो आज तीन से चार तक वे मुझ से अलग से बात कर लें, जिन्हें संन्यास का ख्याल हो कि उनकी जिन्दगी में यह सम्भावना बने।
इस संन्यासी से मैंने दो-तीन बातें और सुंयक्त की हैं। एक तो, इस संन्यास को पीरियाडिकल रिनन्सिएशन कहा है, सवार्धिक संन्यास कहा है मेरा मानना है कि किसी आदमी को जिन्दगीभर के निर्णय नहीं लेने चाहिए। आज आप निर्णय लेते हैं, हो सकता है छह महीने बाद आपको लगे कि गलती हो गयी। ता आपके वापस लौटने का उपाय होना चाहिए। अन्यथा संन्यास भी बोझ हो सकता है। जब हम एक दफे एक आदमी को संन्यासी दे देते हैं तो आग्रह रखते हैं कि वह जिन्दगी भर संन्यासी रहे। हो सकता हैं, साल भर बाद उसे लगे कि गलती हो गयी तो उसे वापस लौटने का आधिकार होना चिहए, बिना निन्दा के। इसलिए यह जो मेरा, जिसे मैंने संन्यास कहा है, पीरियाडिकल है। आप जिस दिन भी चाहें वापस चुपचाप वापस लौट सकते हैं। कोई आपके ऊपर इसका बन्धन नहीं होगा।
थाईलण्ड और बर्मा में इस तरह के संन्यास का प्रयोग प्रचलित है और उससे थाईलैण्ड और बर्मा की जिन्दगी में फर्क पड़ा है। हर आदमी थोड़े-बहुत दिन के लिए, संन्यास तो एक दफे ले ही लेता है। किसी आदमी को वर्ष में दो महीने की फुरसत होती है तो दो महीने संन्यास ले लेगा और दो महीने संन्यासी की तरह जीकर वापिस अपने घर की दुनिया में लौट आता है। आदमी बदल जाता है। दो महीने संन्यासी रहने के बाद आदमी वही नहीं हो सकता था, जो था। उसके भीतर का सब बदल जाता हैं फिर वर्ष दो वर्ष के बाद उसे सुविधा होती है, दो महीने के लिए संन्यास ले लेता है।
इसलिए दूसरी भी दिशा मैंने इससे जोड़ी है कि जो लोग कुछ सीमित समय के लिए संन्यास लेना चाहें, वे सीमित समय के लिए संन्यास लेकर प्रयोग करें। अगर उनका आनन्द बढ़ता जाये तो समय को बढ़ा लें और अगर उन्हें ऐसा लगे कि नहीं, वह उनकी बात नहीं हैं तो वे चुपचाप वापस लौट जायें। इससे दोहरे फायेदे होंगे। संन्यास बन्धन नहीं बनेगा, संन्यास सवतन्त्रता है। इसलिए बन्धन बनना नहीं चहिए। अभी हमारा संन्यासी बिल्कुल बंधा हुआ कैदी हो जाता है।
और दूसरी बात संन्यास बन्धन नहीं बनेगा एक और दूसरी बात कि संन्यास, प्रत्येक के लिए, चाहे थोड़े समय के लिए ही उपलब्ध हो जाये और एक आदमी अगर सत्तर साल की जिन्दगी में पांच दफा दो-दो महीने के लिए भी संन्यासी हो गया हो तो मरते वक्त दूसरा आदमी होगा। वह वही आदमी नहीं हो सकता। अधिकतम लोगों को संन्यासी होने का मौका मिल जायेगा, अधिकतम लोग संन्यास का रस और आननद अनुभवी कर सकेंगे। और मेरा मानना है कि जो एक दफे संन्यास में जायेगा, वह वापस लौटेगा नहीं। यह न-लौटना नियम से नहीं होना चाहिए, यह न-लौटना संन्यास के आनन्द से होना चाहिए, लेकिन लौटने की स्वतन्त्रता कायम रहनी चाहिए। इस सम्बन्ध में अभी ज्यादा बात करनी उचित नहीं होगी। जिन मित्रों को संन्यास की दिशा में उत्सुकता हो, वे दोपहर तीन से चार तक मुझे मिल सकते हैं।
कुछ शायद दस-पांच नये मित्र होंगे तो मे। दो मिनट आपको फिर प्रक्रिया दोहरा दूं। फिर हम ध्यान के प्रयोग के लिए बैठें।
ध्यान का यह प्रयोग, संकल्प का, विल-पावर का प्रयोग है। आप कितने संकल्प ले सकते हैं, इसमें उतना ही परिणाम होगा। अगर इंच-भर भी आपने अपने को बचाया तो परिणाम नहीं होगा। इसमें पूरा ही कूदना पड़ेगा। इसमें बचाव से नहीं चल सकता है और प्रक्रिय ऐसी है कि आप पूरे कूद सकते हैं। कठिनाई नहीं है।
इसके तीन चरण हैं। पहले चरण में आपको तीव्र श्वास दस मिनट तक लेनी हैं इसे बढ़ाते जाना है, तेज करके जाना हैं इस भांति श्वास लेनी है कि आपको दूसरा कुछ स्मरण ही न रह जाय। बस श्वास ही रह जाय। सारा प्रयोग-दस मिनट आप भूल जायें सारी दुनिया को। जो जोर से श्वास लेगा, वह भूल जायेगा। बस, श्वास के क्रिया ही उसके बोध में रह जायेगी। भीतर-बाहर श्वास ही श्वास में लगा देनी है।
दूसरे दस मिनट कथार्सिस के हैं, रेचन के। दूसरे दस मिनट में नाचना, कूदना, चिल्लाना, रोना, हंसना, जो भी आपको आने लगे, उसे पूरी ताकत से करना है। दस-पांच मित्रों को, जिन्हें न आये अपने आप, उन्हें अपनी ओर से जो भी सूझे वह शुरू कर देना है। नाचना लगे नाचना, चिल्लाना लगे चिल्लाना।
और प्रयास मत करें, बस, शुरू कर दें। कल दो-तीन मित्र आये, उन्होंने कहा, हम प्रयास करते हैं, लेकिन हमें होता नहीं है। प्रयास की जरूरत नहीं है। उछलने के लिए कोई प्रयास करना पड़ेगा? शुरू कर दें। प्रयास की कोई फिक्र न करें। जैसे ही आप शुरू करेंगे, धारा टूट जायेगी और सहज हो जायेगा। और एक-दो दिन में आप पायेंगे कि वह अपने आप आने लगा। हमारे मन में बहुत-से दमन इकट्ठे हैं, बहुत-से वेग इकट्ठे हैं, वे गिर जाने चाहिए।
भीतर शक्ति का जन्म होगा, पूरा शरीर इलेक्ट्रिफाइड हो जायेगा, कम्पित होने लगेगा। यह शक्ति जगाने के लिए ही दस मिनट गहरी श्वास की चोट कर रहे हैं। उससे कुण्डलिनी जागेगी। फिर दूसरे दस मिनट में मन के विकारों को गिराने के लिए प्रयोग कर रहे हैं ताकि कुण्डलिनी के मार्ग में कोई बाधा न रह जाये, सब बाधांए अलग हो जायें। और कुण्डलिनी की यात्रा सीधी ऊपर जा सके, चित्त के सारे रोग अलग हो जायें, अन्यथा कुण्डलिनी से जगी हुई शक्ति को, चित्त के रोग एबजार्ब कर लेते हैं, वह चित्त के रोगों में प्रविष्ट हो जाती है। इसलिए रेचन जरूरी है, सब कचरा बाहर फेंक देना जरूरी है।
फिर तीसरे चरण में जो शुद्ध शक्ति बचेगी कुण्डलिनी की, उसको जिज्ञासा में रूपान्तरित करना है, उसकी इन्क्वायरी बनाना है। इसलिए तीसरे चरण में दस मिनट में कौन हूँ, पूछना है। आज तो आखिरी दिन है, इसलिए मन में मत पूछें। पूरे दस मिनट पूरी शक्ति लगाकर जोर जोर से चिल्लाकर पूछें। इतने जोर से पूछे कि आपको और दूसरी बात ख्याल में ही आने की सुविधा न रह जाये कि कुछ और विचार, कोई और जगत भी है। बस, मैं कौन हूँ में डूब जायें। किन्हीं को अगर हिन्दी की जगह मराठी में पूछना सुविधाजनक पड़ता हो तो मराठी में पूछ सकते हैं। यह सवाल नहीं है। अगर उनको मराठी सुविधाजनक पड़ती है, उसकी भाषा में पूछें। जिस भाषा में आपके हृदय की गहराई है, उसी भाषा में पूछें। दस मिनट पूरी शक्ति लगाकर पूछना है। इन मिनट में अपने को बिल्कुल थका डालना है। जरा भी बचाना नहीं है, रुकना नहीं है।
और आखिरी दस मिनट में मौन प्रतीक्ष करनी है। वह साइलेण्ट अवेटिंग के वक्त, वही दस मिनट असली है। यह तीस मिनट तैयारी है तो दस मिनट असली हैं। उन दस मिनटों में गहरी शक्ति, आनन्द गहरे प्रकाश और बहुत तरह के अनुभव होने शुरू होंगे।
इस प्रयोग को चाहें तो दस-दस, पांच-पांच मित्रों के ग्रुप बना लें और कहीं एक जगह इकट्ठे होकर करें तो एक-एक व्यक्ति को जो अड़चन होती है, वह नहीं होगी। जो भी दस पांच मित्र किसी एक घर में इकट्ठे हो जायें, वहाँ प्रयोग करें। इक्कीस दिन साथ कर लें। फिर बैठकर अकेले में घर में करने लगे। यह चिल्लाना, रोना धीरे-धीरे कम हो जायेगा और शन्ति बढ़ती जायेगी। और एक तीन महीने आपके भीतर सतत धारा बहने लगेगी शन्ति की, आनन्द की और चारों और परमात्मा प्रत्यक्ष होने लगेगा। ऐसा नहीं है कि वह खड़ा हुआ मिल जायेगा। नहीं, जो भी दिखाई देगा, वह परमात्मा का रूप ही मालूम देने लगेगा।
अब हम प्रयोग के लिए खड़े हो जायें। जिन मित्रों को बैैठकर करना हो, वे मेरे पीछे आ जायेंगे।

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