चौथा प्रवचन-(जीवन का सृजन)
मेरे प्रिय आत्मन्!एक छोटी सी कहानी से मैं इस ज्ञान सत्र की पहली चर्चा को शुरू करना चाहता हूं। एक सम्राट अपने जीवन के अंतिम क्षणों में था। उसे निर्णय लेना था कि वह अपने किस पुत्र को राज्य का अधिकार दे। उसके तीन पुत्र थे। वह बहुत चिंतित था। उनमें से तीन में से कौन सर्वाधिक पात्र और योग्य व्यक्ति है? और कोई भी निर्णय करना उसे आसान नहीं मालूम होता था। और अब तो जीवन की अंतिम घड़ी करीब आ रही थी, निर्णय लेना जरूरी था। उसने नगर के एक वृद्ध संन्यासी को बुलाया और उस संन्यासी को कहा कि कोई रास्ता बताएं! इन तीन में से कौन योग्य है, जो राज्य को सएहाल सकेगा?
उस संन्यासी ने उस मरते हुए सम्राट के कान में कुछ कहा। और दूसरे दिन सुबह तीनों पुत्रों को बुला कर उसने सौ-सौ रुपये दिए, और उन पुत्रों से कहा, अपने-अपने महल में सौ रुपये से तुम जो भी लाकर भर सकते हो, सौ रुपये के भीतर तुम जो भी चीज लाकर भर सकते हो, महल को भर लो। यह तुएहारी परीक्षा होगी। और फिर जो परीक्षा में सफल होगा वह राज्य का अधिकारी हो जाएगा।
सौ रुपये, और महल बहुत बड़े थे राजपुत्रों के। सौ रुपये में महल में क्या भरा जा सकता है? हीरे-जवाहरात, स्वर्णराशियां--असंभव! सौ रुपये में उन बड़े महलों में क्या भरा जा सकता था? पहले राजकुमार ने बहुत सोचा, उसे कुछ भी न सूझा। वह दरवाजे पर ताला लगा कर सो गया। सौ रुपये में कुछ हो भी नहीं सकता था। उसने आशा छोड़ दी कि कुछ किया जा सकता है।
दूसरे राजकुमार ने सोचा कि सौ रुपये में पूरा महल भरना है! अधिकतम महल भर जाएगा तो ही सम्राट मुझे पात्र समझेंगे। लेकिन सौ रुपये में क्या खरीदा जा सकता है? एक ही रास्ता है, वह गांव के बाहर कचरा फेंकने वाले लोगों के पास गया, उसने कहा, सौ रुपये दूंगा, महल जितना कचरा लाकर तुम भर सको। इतना कचरे से ही महल भरा जा सकता था। गांव भर का कचरा कूड़ा-कर्कट उस महल में लाकर उसने डलवा दिया। रंध्र-रंध्र, द्वार-द्वार, कोने-कोने महल के उसने कचरे से भर दिए। वह बहुत प्रसन्न हुआ। इससे सस्ता कुछ मिल भी नहीं सकता था। और इतना अधिक महल को भरने का और किसी चीज से उपाय नहीं था। उसने सोचा कि मैं जीत जाऊंगा, मेरी पात्रता सिद्ध हो ही जाने वाली है।
लेकिन उसके महल से इतनी गंध फैलने लगी कि सामने से राजपथ पर से लोगों का चलना भी मुश्किल हो गया।
तीसरे पुत्र ने भी सोचा, तीसरे पुत्र ने भी कुछ किया।
वह घड़ी आ गई परीक्षा की। सम्राट पहले राजपुत्र के महल पर गया। द्वार बंद था, ताला पड़ा था। राजकुमार सोते से उठ आया। उसने कहा कि मैं असफल हो गया हूं। मैं सोच नहीं सका। ये रहे सौ रुपये आपके! सौ रुपये में क्या मिल सकता है? आप भी पागलपन की बातें करते हैं, यह कोई परीक्षा हुई? बड़ा है महल।
राजा दूसरे राजकुमार के पास गया। उसके महल के पास तो पहुंचना ही मुश्किल हो गया। लेकिन उसने महल भर लिया था--कूड़े-कर्कट से, गंदगी से। सम्राट जल्दी से वहां से निकल भागने को आतुर था। राजकुमार ने कहा, देख तो लें! मैंने एक कोना भी खाली नहीं छोड़ा है। महल पूरा भर गया है। फिर आप ही सोचें, हीरे-जवाहरातों से तो महल नहीं भर सकता था। सौ रुपये ही केवल मेरे पास थे। सीमित शक्ति थी, सीमित सामर्थ्य थी, बड़ा महल था। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं था।
सम्राट तीसरे राजकुमार के महल पर पहुंचा। तीसरे राजकुमार ने सारे महल में प्रकाश के दीये जला दिए थे और सारे महल को प्रकाश से भर दिया था।
सम्राट जाकर पूछने लगा कि महल तो खाली है, तुमने भरा नहीं? वह राजकुमार हंसने लगा, उसने कहा, भरा है मैंने, लेकिन जिस चीज से भरा है, उसे देखने के लिए आंखें चाहिए। सम्राट ने कहा, मैं आंखों से देख रहा हूं, महल खाली है! उस युवक ने कहा, महल मैंने प्रकाश से भरा है। दीये उसने सौ रुपये के महल में जला दिए थे। देख लेना अच्छी तरह से। और उसने कहा, प्रकाश ही पूरे महल को भरता है। फिर भी किसी भी चीज से महल को भरता तो कुछ न कुछ खाली रह ही जाता। प्रकाश ने पूरा ही भर दिया है। एक इंच जगह नहीं खोजी जा सकती, जहां प्रकाश न हो।
तीसरा राजकुमार परीक्षा में सफल हो गया।
आप इन तीन में से दो तरह के लोग ही ज्यादा पाएंगे। मनुष्य भी जीवन एक परीक्षा की तरह उपलब्ध करता है, एक अवसर की तरह। और शायद कोई बहुत बड़ा राज्य, कोई किंग्डम ऑफ गॉड, कोई बहुत बड़ी आध्यात्मिक समृद्धि उसे उपलब्ध हो सकती है। लेकिन जीवन को किससे भरते हैं हम?
कुछ लोग पहले राजकुमार का काम करते हैं। वे कहते हैं, जीवन छोटा है, शक्ति सीमित है, कुछ भी नहीं किया जा सकता है। वे जीवन के द्वार पर ताला डाल कर सो जाते हैं। मनुष्य-जाति में अधिक संख्या इस भांति के लोगों की है, वे जीवन को खाली ही छोड़ देते हैं--निराश और हताशा से भरे हुए। अंतिम क्षणों में प्रभु के सामने शायद यह कहने को उनके पास कुछ न बचता होगा कि हम क्या कर सकते थे! जीवन था बहुत छोटा, शक्ति थी सीमित, क्या किया जा सकता था! कुछ भी नहीं किया जा सकता था।
दूसरे वे लोग हैं, जो जीवन को कूड़ा-कर्कट और कचरे से भरते हैं। लेकिन स्वयं भी उस दुर्गंध से पीड़ित होते हैं और दूसरों को भी उस दुर्गंध से पीड़ित करते हैं। वे इस ख्याल में होते हैं कि हमने जीवन को भर लिया, फुलफिलमेंट पा लिया। जीवन के जगत में हीरे-जवाहरात, रुपये-पैसे कूड़े-कर्कट से ज्यादा नहीं हैं। उनसे भर लेते हैं जीवन को, फिर भी खाली रह जाते हैं। उससे तो बेहतर था कि खाली ही रह जाते, क्योंकि दुर्गंध से भर जाना कोई भर जाना नहीं है। इस भांति के लोग बहुत कम हैं जो अपने जीवन को प्रकाश से भरते हैं। फिर जो अपने जीवन को प्रकाश से भरते हैं, उन्हें जगत के सारे आनंद की, सत्य की, सौंदर्य की सारी संपदा उपलब्ध होती है। आने वाले तीन दिनों में, ऐसे प्रकाश से भर सकें, इस संबंध में ही मुझे कुछ आपसे कहना है।
आपको कहूं कि जीवन को हम प्रकाश से कैसे भर सकें। मुझे उन बादशाह के दो पुत्रों की बात करनी जरूरी होगी। उस पहले आदमी के संबंध में भी, जो महल को खाली छोड़ देता है। हममें से बहुत से लोग जीवन को खाली छोड़ देते हैं। किन कारणों से आदमी अपने जीवन को खाली एक एंप्टीनेस की भांति छोड़ देता है, रिक्त, और व्यर्थ हो जाता है। उन कारणों की तुमसे मुझे बात करनी जरूरी होगी। फिर उस संबंध में भी बात करूंगा, उन लोगों के संबंध में, जो जीवन की दौड़ में कुछ कूड़े-कर्कट से भी अपने जीवन को भर लेते हैं। ऐसे भरने का ख्याल पूरा हो जाता है और फिर भी वे खाली रह जाते हैं। और खाली रह जाने से भी बड़ा दुर्भाग्य घटित होता है कि वे दुर्गंध से भर जाते हैं।
और स्वयं के लिए ही दुर्गंध से भर जाए, यह भी ठीक है; लेकिन जब कोई आदमी दुर्गंध से भरता है, तो लोगों का राह चलना भी मुश्किल हो जाता है। जो हमारे भीतर घटता है, वह आस-पास बंटने लगता है। अगर मेरे भीतर सुगंध पैदा होगी, तो हवाएं उसे भी दूर तक ले जाएंगी। और दुर्गंध पैदा होगी, तो हवाएं उसे भी दूर तक ले जाएंगी। एक-एक व्यक्ति के भीतर जो घटता है, वह लोक-लोक में दूर-दूर तक प्रतिध्वनित हो जाता है। उसकी प्रतिछाया और प्रतिध्वनियां दूर-दूर तक गूंजने लगती हैं।
इन तीन दिनों में इन तीन सूत्रों पर मुझे बात करनी है। आज पहले सूत्र पर ही आपसे बात करूंगा। वे कौन से कारण हैं, जिसके कारण मनुष्य एक रिक्त और एक शून्य, एक ना-कुछ, एक खाली इंसान की तरह रह जाता है। एक ऐसे बीज की तरह रह जाता है, जो कि अंकुरित हो सकता था, जिसमें फूल लग सकते थे, जिससे सुगंध फैल सकती थी।
यह नहीं हुआ, बीज बीज ही रह गया, सड़ गया। उपलब्धि नहीं हुई, वह कहीं पहुंचा नहीं। कौन से कारण हैं जिनसे आदमी एक व्यर्थ बीज हो जाता है? कौन से कारण हैं कि आदमी उस वीणा की भांति पड़ा रह जाता है, जिसको किसी ने नहीं छेड़ा है, जिससे कभी कोई गीत पैदा नहीं हुआ? जिससे गीत पैदा हो सकता था, जो इसीलिए बनी थी कि गीत पैदा हो। लेकिन उस वीणा को कभी किसी ने छेड़ा ही नहीं, कभी किसी के प्राणों ने छुआ ही नहीं। किन कारणों से आदमी एक सोई हुई वीणा की तरह रह जाता है, उस संबंध में ही कुछ बात कहना चाहता हूं।
जो लोग जन्म को ही जीवन समझने लगते हैं वे चूक जाते हैं। जन्म जीवन नहीं है। जन्म केवल प्राण है, जीवन नहीं है। जन्म से कोई भी पैदा नहीं होता। पैदा होने के लिए फिर एक और जन्म भी लेना पड़ता है। मनुष्य के साथ ही यह अनूठी घटना घटती है। पशु-पक्षी जन्म के साथ ही जीवन ले लेते हैं। किसी कुत्ते को हम यह नहीं कह सकते कि तुम थोड़े कम कुत्ते हो। आदमी को कह सकते हैं कि तुम थोड़े कम आदमी हो। कुत्ते को हम नहीं कह सकते कि जीवन को उपलब्ध करो, सच्चे कुत्ते बनो! कुत्ता सच्चा होता ही है। वह पैदाइश के साथ ही पूरा पैदा होता है। वह पूरा पैदा होता है, वह रेडीमेड पैदा होता है, उसको कोई स्वतंत्रता नहीं है। वह जीवन में कुछ नहीं करता, जीवन उसे दान में मिलता है। सिर्फ मनुष्य की यह गरिमा है, लेकिन उसे ही हम अधिक लोग दुर्भाग्य बना लेते हैं। मनुष्य जन्म के साथ पूरा नहीं जन्मता, सिर्फ संभावना है, सिर्फ एक अवसर पैदा होता है। अगर हम चाहें तो इस अवसर का उपयोग करें और हम चाहें तो वह अवसर खो सकता है।
जन्म के बाद जीवन को अर्जित करना होता है। मनुष्यता अर्जित है--श्रम से, संकल्प से, साधना से उपलब्ध है। इसीलिए मनुष्यों में इतने प्रकार के मनुष्य हो सकते हैं। उसमें गोडसे हो सकते हैं, उसमें गांधी हो सकते हैं। उसमें रावण हो सकता है, उसमें राम हो सकते हैं। उसमें जुदास हो सकता है, उसमें जीसस क्राइस्ट हो सकते हैं। उसमें ठीक नरक को छूने वाली प्रतिभाएं हो सकती हैं, उसमें स्वर्ग की सुगंध देने वाले व्यक्ति हो सकते हैं। उसमें निएनतम गहराइयों में उतर गए, अंधकार में डूब गए लोग हो सकते हैं; उसमें सूर्य की तरफ उड़ान लेते हुए, प्रकाश से भरी हुई आत्माएं हो सकती हैं।
मनुष्य एक अनंत संभावना है। वह दोनों छोर छू सकता है। वह पाताल छू सकता है, वह आकाश छू सकता है। और जन्म के साथ वह केवल संभावना लेकर पैदा हो सकता है छूने की। छूने की संभावना मात्र लेकर पैदा होता है--उड़ने की संभावना, चलने की संभावना--लेकिन मंजिल उसके हाथ में नहीं होती। वह पूरब भी जा सकता है और पश्चिम भी जा सकता है।
मुझे एक घटना स्मरण आती है।
एक बहुत बड़ा रोम में चित्रकार हुआ। मरते समय उससे किसी ने पूछा कि तुमने अपने जीवन के सबसे महान चित्र कौन से बनाए, कितने बनाए? उसने कहा, मैंने अपने जीवन के दो महान चित्र बनाए--एक जब मैं जवान था और एक अभी जब मैं बूढ़ा हो गया हूं। पूछने वाले ने पूछा कि वे दो कौन से चित्र हैं? उस चित्रकार ने कहा, और तुएहें हैरानी होगी उन चित्रों की कहानी सुन कर। मैं तुएहें उनकी कहानी सुनाना चाहता हूं। तभी तुम समझ सकोगे कि उन चित्रों को मैं महान क्यों कहता हूं।
जब मैं जवान था, तब मैं एक ऐसे आदमी की खोज में निकला कि जिसके चेहरे में ईश्वर की झलक मिलती हो, जिसकी आंखों में अलौकिक के दर्शन होते हों, जो साकार प्रेम और प्रकाश हो। मैं उसकी खोज में निकला, ताकि मैं परमात्मा की छवि अंकित कर सकूं। और वर्षों खोजने के बाद, एक छोटे से गांव में एक पहाड़ी झरने के पास मैंने एक चरवाहे में वह झलक देखी। वह बांसुरी बजाता था और उसकी भेड़-बकरियां चरती थीं। उसमें मैंने झलक देखी उस आनंद की, उस अमृत की। और मैंने उसका एक चित्र बनाया। उस चित्र को मैंने ‘ईश्वर की छवि’ नाम दिया। उस चित्र की इतनी प्रशंसा हुई, उसकी हजारों प्रतियां बनीं और देश के कोने-कोने में पहुंच गईं।
बीस वर्ष बाद, उस चित्रकार ने कहा, जब मैं बूढ़ा हो गया, तो मेरे मन में एक ख्याल और आया--ईश्वर की छवि तो मैंने बनाई, लेकिन शैतान की छवि मैं नहीं बना पाया। जाने के पहले मैं एक आदमी को खोजूं, जिसकी आंखों में, जिसके चेहरे में शैतान की छाया हो। मैं एक चित्र और बनाऊं, जिसे मैं ‘शैतान की छवि’ कह सकूं। मरने के पहले ये दोनों चित्र आदमी की पूरी तस्वीर बन जाएंगे।
मैं फिर बुढ़ापे में गांव-गांव गया। बहुत जगह खोजा--पागलखानों में, शराबघरों में, जुआघरों में--उस आदमी को खोजा जिसकी आंख में अंधकार के सारे लक्षण हों, जिसके चेहरे पर हिंसा और क्रूरता मूर्ति बन गई हो। और एक कारागृह में मुझे वह आदमी मिल गया। उस आदमी ने सात हत्याएं की थीं। और वह मृत्यु की सजा उसे मिली थी, अब वह प्रतीक्षा कर रहा था फांसी की। उसके जैसा चेहरा असंभव था खोज लेना। उतनी हिंसा, उतना खून, उतनी घृणा, उतनी ईर्ष्या शायद ही किसी मनुष्य के चेहरे पर हो।
उस चित्रकार ने कहा, मैंने उसकी छवि बनाई। जिस दिन वह चित्र पूरा बन गया, तो मैं बीस वर्ष पहले बनाए हुए अपने उस चित्र को भी लेकर कारागृह में पहुंचा, दोनों चित्रों को साथ रख कर देखने के लिए कि कौन सा चित्र श्रेष्ठ है? कला की दृष्टि से कौन ज्यादा मूल्यवान है? और जब मैं उन चित्रों को देखता था, तो मुझे सुनाई पड़ा कि जैसे कोई रो रहा है। आंख उठा कर देखा तो वह कैदी जिसका चित्र बनाया था, वह आंख झपे हुए रो रहा है और उसकी आंखों से आंसू टपक रहे हैं।
तो मैं बहुत हैरान हुआ। मैंने उससे पूछा कि तुम क्यों रोते हो? तुएहें क्या तकलीफ हुई? क्या मेरे चित्र पसंद नहीं आए?
उस आदमी ने आंखें उठाईं और उसने कहा, चित्र मुझे बहुत पसंद आए, लेकिन शायद तुम पहचान नहीं पाए, पहला चित्र भी तुमने मेरा ही बनाया था, मैं वही आदमी हूं। बीस साल पहले नदी के किनारे बांसुरी बजाते हुए तुएहें जो मिला था वह मैं ही हूं।
ऐसी संभावना है एक ही मनुष्य की! ऐसी संभावना है दोनों यात्राओं की! एक-एक मनुष्य एक अपरिचित यात्रा का पथ है, वह नीचे भी जा सकता और ऊपर भी। जन्म के साथ केवल द्वार खुलता है यात्रा का, फिर हम यात्रा पर निकलते हैं।
लेकिन जो लोग जन्म को ही अंत समझ लेते हैं, उनका जीवन व्यर्थ हो जाता है। और हममें से अधिक लोगों ने जन्म को ही अंत समझ लिया है। हम पैदा हो गए जैसे बात पूरी हो गई। जैसे पर्याप्त हो गया, यह काफी हो गया कि हम पैदा हो गए, जीवन हमें मिल गया। जीवन हमें पैदा होते से नहीं मिल जाता, बल्कि सच्चाई उलटी है, जन्म से जो हमें मिलती है, वह मृत्यु है, जीवन नहीं। जन्म के साथ जो हमें उपलब्ध होता है वह मरण की प्रक्रिया है, क्योंकि जन्म के साथ ही हमारी मृत्यु का आगमन शुरू हो जाता है। हम जन्मे नहीं और मौत आनी शुरू हो जाती है। जन्म का दिन और मौत का दिन एक ही साथ घटित हो जाते हैं।
आप शायद सोचते होंगे कि मौत किसी दिन आती है आकस्मिक, तो आप गलती में हैं। मौत कहीं बाहर से नहीं आती है, जन्म के साथ आपके भीतर विकसित होती रहती है। आप रोज मरते रहते हैं, हम सब रोज मरते रहते हैं, प्रतिपल हम मरते चले जाते हैं, मरते चले जाते हैं। एक दिन यह मरने की प्रक्रिया पूरी हो जाती है और हम समाप्त हो जाते हैं।
जिसे हम जन्म समझते हैं, जो जानते हैं वे उसे मरण का प्रारंभ कहते हैं। वह मृत्यु की शुरुआत है। सत्तर वर्ष लगेंगे मृत्यु को पूरा हो जाने में। जो बीज आप अभी अपने बगीचे में बो आए हैं, हो सकता है सत्तर वर्ष लगें उसमें, पूरा वृक्ष बन जाने में। लेकिन वह बीज में वृक्ष छिपा हुआ है, जन्म में मौत छिपी हुई है। और हम जन्म को ही जीवन समझ लेते हैं, और फिर उसको ही जीवन मान कर जीते चले जाते हैं, तो हम व्यर्थ हो जाते हैं। जन्म जीवन नहीं है, जीवन अर्जित करना होता है, उपलब्ध करना होता है। जन्म केवल मौका है। जीवन अर्जित भी किया जा सकता है और खोया भी जा सकता है।
मैं धार्मिक मनुष्य उसको कहता हूं, जो जीवन की अर्जन की प्रक्रिया में संलग्न है; उसको नहीं, जो मंदिर जा रहा है; उसको नहीं, जो सुबह गीता और कुरान पढ़ रहा है; उसको नहीं, जिसने जनेऊ पहन रखा है, चोटी बढ़ा रखी है; उसको नहीं, जो मस्जिद में जा रहा है और गिरजे में जा रहा है; उससे कोई धार्मिक होने का अनिवार्य संबंध नहीं है।
धार्मिक होने का अनिवार्य संबंध इस बात से है कि जो जीवन के सृजन में संलग्न है; जिसने जीवन को स्वीकार नहीं कर लिया, जो जीवन को निर्मित करने में लगा है। जो प्रतिपल मृत्यु से जूझ रहा है और अमृत की खोज कर रहा है। जो चुपचाप नहीं बैठा है कि मौत आ जाए और बहा कर ले जाए। जो सिर्फ मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं कर रहा है। जो जूझ रहा है, जो एक संघर्ष कर रहा है कि मृत्यु के इस घिराव के बीच में अमृत को कैसे उपलब्ध हो सकता हूं? मैं उसे कैसे पा सकता हूं जिसकी कोई मृत्यु नहीं? क्योंकि वही जीवन हो सकता है। वही जीवन है।
लेकिन हम जो करते हैं--हम सब जूझते हैं, संघर्ष करते हैं--अमृत को पाने के लिए नहीं। हम सब युद्ध में, संघर्ष में रत हैं, हम चौबीस घंटे द्वंद्व में, संघर्ष में, युद्ध में खड़े हैं। लेकिन उसके लिए नहीं जो अमृत है, उसके लिए नहीं जो जीवन है। शायद हम एक उलटे ही काम में लगे हैं, हम सिर्फ मौत से बचने के काम में लगे हैं। मौत से बचने की प्रक्रिया से कोई भी मौत से बच नहीं सकता। जीवन को जो उपलब्ध कर लेता है वह मौत से बच जाता है। लेकिन मौत से बचने के लिए जो भागता रहता है, वह मौत के मुंह में ही पहुंच जाता है।
एक मुझे स्मरण आती है घटना। एक सम्राट ने एक रात सपना देखा। उसने स्वप्न देखा कि अंधेरे में कोई, रात के अंधेरे में, सपने में, नींद में कोई काली छाया उसके कंधे पर हाथ रखे खड़ी है। तो उसने चौंक कर उससे पूछा कि तुम कौन हो? उस छाया ने कहा, मैं तुएहारी मृत्यु हूं, और कल संध्या सूरज के डूबने के साथ मैं आ रही हूं। तुएहें खबर देने आई हूं, ठीक जगह पर, ठीक समय पर मिल जाना। उस सम्राट ने कहा, मृत्यु! और वह पूछना चाहता था कि कौन सी ठीक जगह है? इसलिए नहीं कि वहां पहुंच जाता, बल्कि इसलिए कि वहां न पहुंचता, वहां से बच जाता। लेकिन तब तक सपना टूट गया। वह पूछ नहीं पाया कि वह कौन सी ठीक जगह है जहां मुझे पहुंचना है।
अब वह बहुत परेशान हुआ, सपना टूट गया, छाया विलीन हो गई, अब किससे पूछे? और कल सांझ सूरज के डूबने के साथ मौत आने को है। निश्चिंत रहा भी नहीं जा सकता। रात ही नगर के जो प्रसिद्ध ज्योतिषी थे, स्वप्नविद थे, विद्वान थे, उन सबको खबर भेज दी कि आप इसी समय आ जाएं, मैं बहुत संकट में हूं।
नगर के पंडित अपनी-अपनी किताबें लेकर हाजिर हो गए। पंडितों के पास सिवाय किताबों के और कुछ होता भी नहीं। वे बेचारे अपनी किताबें ले आए। और आकर अर्थ निकालने लगे, खोजने लगे। राजा ने कहा, ऐसा स्वप्न देखा, इसका क्या अर्थ है? क्या मौत आने वाली है? और अगर आने वाली है, तो मैं बचने के लिए क्या करूं?
आप भी होते तो आप भी यही पूछते कि अगर मौत आने वाली है तो मैं बचने के लिए क्या करूं? यह बुनियादी रूप से गलत प्रश्न है। मौत से बचने का सवाल नहीं है, मौत में आप खड़े हैं। मौत से बचने का सवाल नहीं है, मौत में तो आप उसी दिन से सिएमलित हो गए जिस दिन जन्म हुआ। अगर जन्म से बचते तो मौत से बच सकते थे, अब मौत से बचने का कोई उपाय नहीं, वह तो जन्म के साथ घटित हो गई। इसलिए जो जन्म गया, वह मरेगा, उससे मौत से बचने की दौड़ फिजूल है। लेकिन आप भी यही पूछते कि मौत से बचने के लिए मैं क्या करूं?
जो आदमी यह नहीं पूछता और यह पूछता है कि जीवन पाने के लिए क्या करूं, उस आदमी को मैं धार्मिक कहता हूं। जो आदमी पूछता है, मौत से बचने के लिए मैं क्या करूं, उस आदमी को मैं अधार्मिक कहता हूं। क्योंकि मौत से बचने की कोशिश में वह जो भी उपाय करता है, वे सब अधर्म में ले जाते हैं। वह बड़ा महल बनाता है, बड़ी मजबूत दीवालें खड़ी करता है, वह धन इकट्ठा करता है, वह तलवारों के पहरे लगाता है। वह सुरक्षा और सिक्योरिटी के सारे इंतजाम करता है कि कहीं मैं मर न जाऊं! और इस सारे इंतजाम में उसे अधार्मिक होना पड़ता है।
उस राजा ने पूछा कि मैं मौत से बचने के लिए क्या करूं?
उन पंडितों ने कहा, ठहरें! पहले हम स्वप्न का अर्थ निकाल लें, उसकी व्याख्या कर लें--कि स्वप्न का अर्थ क्या है? क्योंकि हम आपस में सहमत नहीं हैं। हमारा शास्त्र कुछ और कहता है, इसका शास्त्र कुछ और कहता है, उसका शास्त्र कुछ और कहता है। सभी शास्त्र अलग-अलग भाषा में बोलते हैं।
वे पंडित अपने शास्त्रों के विवाद में लग गए। सुबह हो गई, सूरज निकल आया, राजा घबड़ाया! उनके विवाद से मामला और भी उलझता हुआ मालूम पड़ता था, सुलझता हुआ नहीं। जैसा कि पंडितों के विवाद से सभी मामले उलझते हुए मालूम पड़ते हैं। स्वप्न जब देखा था, तब कुछ स्पष्ट भी था, अब इनकी बातचीत सुन कर और अस्पष्ट हो गया। और वे ऐसी गुरु-गंभीर चर्चाओं में तल्लीन हो गए थे, ऐसे सिद्धांतों की बातें कर रहे थे, जिससे स्वप्न का कोई सीधा संबंध नहीं मालूम पड़ता था।
उस राजा ने बार-बार कहा कि देखो, सूरज निकल आया! और जब सूरज निकल आया तो डूबने में देर कितनी लगेगी! सांझ करीब आती चली जाती है, और मुझे बचना है मौत से, और अभी तुम स्वप्न का अर्थ भी नहीं निकाल पाए? फिर उसके बाद यह भी तो खोजना है कि मैं मौत से कैसे बचूं?
उन लोगों ने कहा, पहले स्वप्न का अर्थ निर्णीत हो जाए, इसके बाद बचने का उपाय हो सकता है।
राजा का एक वृद्ध नौकर था, वह भी बैठा हुआ यह सब सुनता था। तो उसने राजा के कान में कहा कि आपको शायद पता नहीं, आज तक पंडित किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाए हैं, पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में पंडित अब तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाए हैं। इनसे कोई आशा नहीं कि ये शाम तक निष्कर्ष पर पहुंच जाएं। और शाम आ जाएगी, वह इनके निष्कर्ष के लिए रुकेगी नहीं, और मौत भी इनके निष्कर्ष के लिए नहीं रुकेगी। इसलिए मेरी तो सलाह यह है--इनको निष्कर्ष निकालने दें, आपके पास तेज घोड़ा हो कोई तो उसे लेकर आप भागना शुरू कर दें। कम से कम इस महल से दूर निकल जाएं, इस काले महल से हट जाएं, जहां कि मौत ने आपके ऊपर छाया डाली है। जहां मौत ने आपके कंधे पर हाथ रखा वहां से भागें, इतना तो तय है कि यहां से भाग जाएं। इतनी बड़ी दुनिया है, कहीं भी भाग जाएं, लेकिन यहां से भाग जाएं।
यह बात युक्तिपूर्ण मालूम हुई। यह बात ठीक मालूम हुई। आप भी क्या करते! कोई भी क्या करता! मौत सामने हो तो भागने के सिवाय कुछ सूझता ही नहीं। जब भी मौत सामने होती है, आदमी भागता है। भागने के उपाय अलग-अलग होते हैं, लेकिन आदमी भागता है। उस राजा ने भी सोचा कि बात ठीक है, भाग जाना ही उचित है। उसने तेज घोड़ा बुलाया--उसके पास तेज से तेज घोड़े थे--और उसने भागना शुरू किया।
घोड़े पर बैठते समय, भागते समय, उस पत्नी की उसे याद भी न आई जिससे उसने कहा था कि तेरे बिना मैं एक क्षण भी नहीं जी सकता हूं। याद भी नहीं आई। विदा के समय किसे किसकी याद आती है! वे जीवन में कही गई बातें थीं खिलवाड़ में। मौत सारे खिलवाड़ को बिगाड़ देती है। सारी बातचीत, सब नष्ट हो जाती है। उन मित्रों का कोई स्मरण न आया जिनके बिना एक पल अच्छा नहीं लगता था। आज घोड़ा था और वह था। और घोड़े से भी इतना ही नाता था कि वह तेज दौड़ता था, और कोई नाता नहीं था। भागते हुए आदमी का किसी से कोई नाता नहीं होता, सिवाय इसके कि वह उसकी सवारी होती है, साधन होता है, उसके शोषण का अवसर होता है।
वह घोड़े को लेकर भाग चला है, भाग चला है, भाग चला है... सैकड़ों मील पार हो गए हैं, न उसे आज भूख है, न आज उसे प्यास है। क्योंकि एक क्षण को भी पानी पीने के लिए कहीं रुकना, एक क्षण गंवाना है; उतनी देर में न मालूम कितने दूर निकल जाए! थोड़ी देर को रुक कर विश्राम करना खतरनाक है, क्योंकि मौत पीछे पड़ी हो तो विश्राम का समय कहां?
क्या आपको सारी दुनिया में हर आदमी इसी तरह भागता हुआ मालूम नहीं पड़ता कि उसे विश्राम का कोई मौका नहीं है, समय नहीं है, अवसर नहीं है, फुर्सत कहां! किसी से कहो कि कभी प्रार्थना करते हैं? कभी ध्यान करते हैं? कभी प्रभु का स्मरण करते हैं? वे कहते हैं, फुर्सत कहां!
जब मौत पीछे पड़ी हो तो किसी को भी फुर्सत नहीं होती। अगर जीवन मिल जाए तो फुर्सत ही फुर्सत है, लेकिन मौत पीछे पड़ी हो तो फुर्सत कहां!
वह राजा भागता चला गया। फिर सांझ होने लगी और सूरज ढलने लगा, उसने राहत की सांस ली, वह सैकड़ों मील दूर निकल आया था। उसने घोड़े को धन्यवाद दिया और कहा कि प्यारे, तुझसे मुझे जो आशा थी तूने पूरी की। जिस दिन के लिए तुझे मैंने खरीदा था, कि किसी दिन जरूरत पड़े तेरी तेज चाल की, तो आज तू काम आ गया। मैं तेरा कितना धन्यवाद करूं!
उसे पता भी नहीं कि वह क्या कह रहा है। और फिर जाकर उसने एक वृक्ष से घोड़े को बांधा। सूरज ढलने लगा है, वह बिल्कुल डूबने के करीब आ गया। वह घोड़े को बांध ही रहा है और उसे लगा कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा है। उसने लौट कर देखा, वही काली छाया! वह तो घबड़ाया, उसने कहा कि तुम! तुम कौन हो? उसके प्राण कंप गए, कि क्या दिन भर की दौड़ व्यर्थ हो गई?
उस मृत्यु ने कहा, पहचाने नहीं? रात ही तो मैं आई थी और मैंने खबर दी थी। तुएहारे घोड़े का जितना धन्यवाद करूं उतना थोड़ा है। ठीक जगह पर, ठीक समय पर ले आया। मैं बहुत चिंतित थी कि तुम यहां तक पहुंच पाओगे कि नहीं? इस झाड़ के नीचे मरना बदा था। और मैं चिंतित थी, बहुत परेशान थी कि फासला ज्यादा है, तुम आ पाओगे कि नहीं आ पाओगे? लेकिन घोड़े को धन्यवाद, तुएहारे घोड़े ने ठीक समय पर पहुंचा दिया है।
उस राजा के मन पर क्या बीती होगी! दो क्षण पहले उसने भी घोड़े को धन्यवाद दिया था। जिनको दो क्षण पहले आदमी मित्र समझता है, दो क्षण बाद पता चलता है कि शत्रु हो गए। जिनको दो क्षण पहले समझा था कि पैर के आधार हैं, दो क्षण बाद पता चलता है कि वे ही गड्ढे में गिरा गए। जिनको समझा था कि जीवन की सुरक्षा हैं, वे ही असुरक्षा बन जाते हैं। और जिसको जीवन समझा था वही मौत हो जाती है। लेकिन दो क्षण पहले कोई पता नहीं होता है। और उस राजा ने सोचा था कि बचने के लिए भाग रहा हूं। उसे पता भी नहीं था कि जिससे बचने को भाग रहा था, प्रतिपल वह उसी में पहुंचा चला जा रहा था।
जीवन भर आदमी करता क्या है? मौत से भागता है। जीवन भर मौत से भागता है। और आखिर में पहुंचता कहां है? बस मौत में पहुंच जाता है। आज तक किसी आदमी को कहीं और पहुंचते देखा है? हर आदमी मौत में पहुंच जाता है। और हर आदमी मौत से ही बचने को भागता रहता है। मौत की तरफ आंख बंद कर लेते हैं हम, मौत की तरफ पीठ फेर लेते हैं। सड़क पर कोई अरथी निकलती हो तो मां अपने बेटे को भीतर बुलाती है, भीतर आ जा, दरवाजे बंद कर दे, कोई मर गया है, देखना ठीक नहीं है।
मौत से हम आंख चुराते हैं। मरघट को गांव के बीच में नहीं बनाते, गांव के बाहर दूर बनाते हैं, किसी को दिखाई न पड़े। और मरघट बीच में ही बना है, चाहे दिखाई पड़े और चाहे दिखाई न पड़े। चाहे आंख चुराओ और चाहे बचाओ, मौत से अतिरिक्त और कुछ भी निश्चित नहीं है; मौत एकमात्र सुनिश्चित तथ्य है। बाकी सब अनिश्चित हो सकता है, लेकिन मौत सुनिश्चित है। मौत क्यों सुनिश्चित है? मौत इसीलिए सुनिश्चित है कि वह जन्म के साथ ही घट गई! आप सोच रहे हैं वह आगे घटने वाली है। जो आगे घटने वाला है वह बदला जा सकता है; लेकिन जो पीछे ही घट गया उसे बदलने का कोई भी उपाय नहीं। जो आगे होने वाला है उसे बदला जा सकता है, वह अभी नहीं हुआ; लेकिन जो पीछे ही हो चुका है, उसे बदलने का कोई रास्ता नहीं।
मौत घट चुकी है जन्म के साथ, लेकिन उसका कोई स्मरण नहीं है। और उस मौत की ही लंबी प्रक्रिया को जिसे हम जीवन कहते हैं, यह जो ग्रेजुअल डेथ है, यह जो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे आने वाली मौत है, इस मौत को ही हम अगर जीवन समझ लें, तो जीवन खाली रह जाता है, रिक्त रह जाता है। और जिस दिन प्रभु के सामने खड़े होंगे उस दिन मकान खाली होगा और अंधेरे से भरा होगा। जो जीवन आनंद से भर सकता था, वह किसी भी चीज से भर नहीं पाता। भर भी नहीं सकता है। जीवन के अनुभव के बिना और जीवन की उपलब्धि के बिना, उस तत्व के अनुभव के बिना जिसकी कोई मृत्यु नहीं और उस दिशा को उपलब्ध किए बिना जिसका कोई अंत नहीं, कोई जीवन आनंद से नहीं भर सकता।
आनंद का अनुभव अमृत के अनुभव की छाया है। केवल वे ही लोग आनंद को उपलब्ध होते हैं जो अमृत के अनुभव को उपलब्ध हो जाते हैं। लेकिन उस अनुभव को निर्मित करना होता है और विकसित करना होता है। और वे लोग जो जन्म को ही सब कुछ मान लेते हैं, वहीं समाप्त हो जाते हैं, उनके विकास की सारी संभावना समाप्त हो जाती है।
क्या आपने जन्म लेने को ही अपने होने की इति मान ली है? क्या आपने समझ लिया कि हो गई बात? अगर ऐसा मान लिया है, तो आप मरने के ही बहुत पहले मर चुके हैं। आपकी मृत्यु हो ही चुकी है। आप एक प्रेत की तरह जीवित हैं। और पृथ्वी पर अधिक लोग प्रेत की भांति जीवित हैं। उनके जीवन का कोई भविष्य नहीं; क्योंकि कोई सृजन नहीं, कोई क्रिएटिव एफर्ट नहीं कि वे अपने जीवन को निर्मित करें और विकसित करें।
एक सूफी फकीर था। वह बहुत भूखा था। वह दिन भर भूखा रहा, लेकिन उसने आज यह तय कर रखा था कि आज मैं परमात्मा से ही जब मुझे रोटी मिलेगी तभी मैं स्वीकार करूंगा। एक दिन बीत गया, दो दिन बीत गए, सप्ताह बीत गया और महीना बीतने को आने लगा, वह भूखा ही था। भूख बढ़ती चली गई, और उसके प्राणों की पुकार भी बढ़ती चली गई। तीसवें दिन की रात उसे सपने में भगवान दिखाई पड़े। तो उन्होंने पूछा कि तू चाहता क्या है? कहा कि मैं भोजन चाहता हूं, लेकिन आपसे चाहता हूं। उन्होंने कहा, तू जा और फलां-फलां जगह--वहां पानी भी है, वहां नमक भी है, वहां गेहूं भी है, वहां सब चीजें मौजूद हैं--वहां तुझे भोजन मिल जाएगा, मैं तुझे वहां भेजता हूं।
वह आदमी नींद से उठा और उस जगह पहुंचा जहां की बात कही गई थी। एक कुएं के पास वह पहुंचा, वहां गेहूं का खेत लगा था, पास ही नमक की खदान थी, कुआं था। वह तीनों के बीच बैठ गया और सोचने लगा, इससे क्या होगा? मुझे भोजन चाहिए। एक दिन फिर बीत गया और दूसरी रात आ गई, और उसने फिर सपने में भगवान को देखा। उन्होंने कहा, तू भोजन बनाता क्यों नहीं? उसने कहा, मुझे भोजन चाहिए। तो भगवान ने कहा कि तू गेहूं को पीस, आटा बना, नमक निकाल, पानी कुएं से खींच, फिर तीनों को मिला और भोजन बना ले।
दूसरे दिन उसने इतना किया, गेहूं को पीस कर आटा बनाया, नमक निकाला, पानी निकाल कर तीनों को मिला कर बैठ गया। लेकिन भोजन अभी भी तैयार नहीं हुआ था, वह फिर भूखा था। और फिर रात उसे सपने में भगवान दिखाई पड़े कि तू भोजन बनाता क्यों नहीं? उसने कहा, मैंने तीनों मिला लिए, लेकिन अभी भोजन नहीं बना। भगवान ने कहा कि आग भी उपलब्ध है और तू सेंक, रोटी बनेगी। और उसने तीसरे दिन रोटी भी बनाई, लेकिन रोटी रख कर वह बैठा रहा। और रात फिर सपने में उसे भगवान दिखाई पड़े कि पागल, तू खाता क्यों नहीं? तो उसने कहा कि मुझे आज्ञा नहीं थी आपकी। मैं समझा कि अभी कुछ और बाकी रह गया, तो मैं फिर चुप हूं, मैंने रोटी बना कर रख ली है। और भगवान ने उसको कहा कि तू उन मनुष्यों की तरह है जिन्हें मैं सब दे देता हूं, लेकिन जो प्रतीक्षा ही करते रहते हैं कि कोई बना दे, कोई कुछ कर दे, कोई कुछ हो जाए, कोई आदेश आ जाए। जिनके पास सब कुछ है--पानी है, नमक है, गेहूं है, लेकिन जो रोटी नहीं बना पाते हैं। और बना भी लेते हैं तो उससे अपनी भूख नहीं मिटा पाते हैं।
जीवन एक अवसर है, जहां सब उपलब्ध है। वह सब उपलब्ध है जो हमें आनंद से भर सके। वह सब उपलब्ध है जो हमारी तृप्ति बन जाए। वह सब उपलब्ध है जिससे हम आप्तकाम हो जाएं, जिससे हम वह पा लें जिसे पा लेने के बाद कुछ भी पाने को शेष नहीं रह जाता। लेकिन शायद हम कुछ भी करने को राजी नहीं हैं; इसलिए हम व्यर्थ हो जाते हैं।
तो पहला सूत्रः जन्म को ही सब कुछ मत मान लेना। जन्म के बाद चाहिए तीव्र असंतोष, डिसकंटेंट। जन्म के साथ चाहिए एक तीव्र पीड़ा कि मैं जीवन को कैसे निर्मित करूं? लेकिन हम जन्म के बाद पूछना शुरू कर देते हैं--जीवन में रस नहीं आ रहा, जीवन में आनंद नहीं आ रहा, जीवन का उद्देश्य क्या है? मैं गांव-गांव जाता हूं, युवक मुझे पूछते हैं, बच्चे मुझे पूछते हैं, बूढ़े मुझे पूछते हैं--जीवन में आनंद नहीं?
जीवन में आनंद आता नहीं, लाना पड़ता है। जीवन में आनंद मिलता नहीं, अर्जित करना पड़ता है। जीवन में आनंद कहीं से बरस नहीं जाता, भीतर से फोड़ना पड़ता है। आनंद प्रयत्न है, आनंद संकल्प है, आनंद श्रम है, आनंद एक साधना है। और हम ऐसे पूछते हैं कि जीवन में आनंद नहीं; जैसे हमने जन्म ले लिया तो हमने सारी शर्तें पूरी कर दीं, अब हमको आनंद उपलब्ध हो जाना चाहिए। ऐसे आनंद न कभी उपलब्ध हुआ है, न कभी उपलब्ध हो सकता है।
पहला सूत्रः जन्म को सब कुछ नहीं मान लेना है।
दूसरा सूत्रः जीवन को मनुष्य इस भांति स्वीकार करता है कि उस स्वीकृति के कारण ही जीवन से आनंद के पैदा होने की सारी गुंजाइशें टूट जाती हैं, सारे द्वार बंद हो जाते हैं।
एक मंदिर की घटना मुझे स्मरण आती है। एक मंदिर बन रहा था। सैकड़ों मजदूर पत्थर तोड़ते थे, मूर्तियां बना रहे थे, सीढ़ियां गढ़ रहे थे, ईंटें बना रहे थे। मैं उस मंदिर के पास घूमता हुआ निकल गया, और एक मजदूर को मैंने पूछा कि क्या कर रहे हो दोस्त? उस मजदूर ने क्रोध से भरी हुई आंखें मेरी तरफ उठाईं और कहा, अंधे हैं आप? दिखाई नहीं पड़ता है कि क्या कर रहा हूं? पत्थर तोड़ रहा हूं!
मैं तो भयभीत हो गया, ऐसी आशा न थी कि सीधे से, सहज से प्रश्न का ऐसा उत्तर मिलेगा। फिर मुझे ख्याल आया, पत्थर तोड़ने वाला आदमी क्रोधित ही तो हो सकता है और क्या हो सकता है। पत्थर तोड़ना कोई आनंद कैसे होगा? फिर मुझे उस आदमी पर दया ही आई, ठीक ही है, जो पत्थर तोड़ रहा है वह क्रोध से भरा हुआ ही हो सकता है। हालांकि उलटा भी सच है, जो क्रोध से भरा हुआ है वह कुछ भी करे, उसका जीवन पत्थर तोड़ने जैसा जीवन ही होता है।
मैं आगे बढ़ गया और मैंने दूसरे आदमी को पूछा। वह भी पत्थर तोड़ता था, लेकिन वह कुछ भिन्न मालूम पड़ता था। उसकी आंखें उदास थीं, उसका चेहरा लटका हुआ था, वह ऐसा था जैसे जीवन एक भार हो। मैंने उससे पूछा कि दोस्त, क्या करते हो? उसने बामुश्किल, जैसे बड़ी कठिनाई से उत्तर दिया, जैसे बड़ी मजबूरी में, जैसे वह उत्तर न देना चाहता हो, ऐसा उसने धीरे से आंखें उठाईं, मुझे देखा भी नहीं और कहा, पत्थर तोड़ता हूं, बच्चों की रोटी-रोजी कमा रहा हूं।
वह इतना उदास था, इतना बोझिल। फिर मुझे लगा, ठीक ही है, जो बच्चों की रोटी-रोजी कमा रहा है, वह बहुत आनंदित कैसे हो सकता है? रोटी-रोजी कमाना कोई बहुत बड़ा आनंद नहीं हो सकता, एक बोझ का काम ही हो सकता है।
फिर मैंने तीसरे एक आदमी को पूछा। वह भी पत्थर तोड़ता था। और पत्थर तोड़ने के साथ गीत भी गुनगुना रहा था; किसी मौज में, किसी मस्ती में डूबा हुआ था। मैंने उससे पूछा कि दोस्त, क्या करते हो? उसने खुशी से, आनंद से भरी हुई आंखें ऊपर उठाईं, जैसे उनसे फूल झड़ते हों, और मुझसे कहा, क्या कर रहा हूं! देखते नहीं हैं, भगवान का मंदिर बना रहा हूं। वह फिर वापस पत्थर तोड़ने लगा। फिर मुझे ख्याल आया कि ठीक ही है, जो भगवान का मंदिर बनाता है, वह आनंद से नहीं भरेगा तो और क्या होगा।
लेकिन वे तीनों ही पत्थर तोड़ रहे थे; वे तीनों एक ही काम कर रहे थे; लेकिन उन तीनों के दृष्टिकोण अलग-अलग थे। एक जीवन के प्रति क्रोध से भरा हुआ था। एक जीवन के प्रति उदासी से भरा हुआ था। एक जीवन के प्रति अहोभाव से भरा हुआ था, एक कृतज्ञता के भाव से, एक ग्रेटीट्यूड के भाव से कि मैं भगवान का मंदिर बना रहा हूं। और जब कोई आदमी अहोभाव से भर जाता है तो उसके जीवन में आनंद के द्वार खुलने की संभावना पैदा होती है। हमारे भीतर वही आता है, जिसे हम बुलाते हैं। हम जिसे आमंत्रित करते हैं वही हमारा अतिथि बनता है। हम जिसे पुकारते हैं और जिसके लिए प्यासे हो जाते हैं, वही धारा हमारी तरफ बहती हुई चली आती है।
इसलिए स्मरण रखना, अगर जीवन दुख मालूम पड़ रहा हो तो जान लेना--जैसे दो और दो चार होते हैं, ऐसा ही दुख को आप आमंत्रित करते रहे होंगे। आपका जीवन का दृष्टिकोण दुखवादी का दृष्टिकोण रहा होगा। आपने बुलाया होगा दुख को इसलिए दुख आ गया है। अगर आप पीड़ित हों तो जान लेना, यह उतना ही वैज्ञानिक नियम है जितना कोई और नियम विज्ञान का होगा, कि आप जो हैं वह आपके दृष्टिकोण का अंतिम फल है।
जीवन उदास है, पीड़ित है, दुखी है, चिंतित और संतापग्रस्त है, अंधेरे से भरा है, तो जान लेना कि आपने जाने-अनजाने, जागते-सोते अंधकार को निमंत्रण दिया है, आपने दुख को बुलावा दिया है। आपके देखने का ढंग, आपके मन के द्वार सूरज के लिए नहीं खुले, बल्कि सूरज जब आया तब आप अपने द्वार बंद करके बैठ गए।
ऐसे लोग हैं कि अगर फूल के पास उन्हें खड़ा किया जाए तो उन्हें फूल नहीं दिखाई पड़ेंगे, उन्हें कांटे दिखाई पड़ेंगे, और वे कांटों की गिनती करेंगे। और फिर कहेंगे कि बेकार है सब! इतनी बड़ी झाड़ी में एक गुलाब का फूल लगा है और लाख कांटे लगे हुए हैं। सब बेकार है, असार है जीवन, कुछ सार नहीं इसमें, कहीं मुश्किल से एक फूल खिलता है और लाख कांटे लग जाते हैं, फूल को तोड़ने जाओ तो कांटे ही कांटे मिलते हैं। और फिर फूल को तोड़ भी लो तो फायदा क्या है? थोड़ी देर में कुएहला जाता है। और कांटे कभी नहीं कुएहलाते, कांटे हमेशा ही तैयार रहते हैं। वे कहेंगे कि फूल में कोई सार्थकता नहीं। वैसे लोग हैं। और आप हंसना मत कि वैसा आदमी आपका पड़ोसी आदमी है। सौ में निन्यानबे मौके ये हैं कि आप ही वैसे आदमी हों। क्योंकि सौ में निन्यानबे से भी ज्यादा आदमी दुखी, उदास और पीड़ित हैं। उनके जीवन को देखने की सारी दृष्टि गलत और भ्रांत है।
एक कवि को किसी अपराध में एक कारागृह में बंद कर दिया गया था। उसका एक मित्र भी उसी अपराध में बंद किया गया था। वे दोनों जिस दिन कारागृह में बंद किए गए--पूर्णिमा की रात--वे दोनों सींकचों पर आकर खड़े हो गए। आकाश चांद से भरा, चांदनी बरसती हुई, ऐसी सुंदर रात, इतना सन्नाटा उस कारागृह का। लेकिन उसका साथी क्रोध से बोला कि कहां के रद्दी कारागृह में हमें बंद किया है! देखते हो तुम सामने, पानी भरा हुआ है, डबरा है, मच्छर पल गए हैं, गंदगी है।
उस दूसरे व्यक्ति ने कहा, दोस्त, तुमने याद दिलाया तो मुझे दिखाई पड़ा; मैं तो चांद को देखने में तल्लीन हो गया था, मुझे तो ख्याल भी नहीं था कि यहां कोई डबरा है। लेकिन चांद के होते हुए तुमने डबरा देख कैसे लिया? तुएहें डबरा दिखाई कैसे पड़ा? इतने बड़े चांद के होते हुए, इतने बड़े आकाश के होते हुए, इतनी चांदनी बरसती हो अनंत तक, तब तुएहें एक छोटा सा डबरा कैसे दिखाई पड़ा?
और उस दूसरे आदमी ने कहा कि तुमने कहा तो मैं डबरे को देख रहा हूं, लेकिन मुझे डबरे में भी चांद का प्रतिबिंब दिखाई पड़ रहा है। और मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि आकाश का चांद होगा सुंदर, लेकिन डबरे का चांद भी अपने तरह का अनूठा है। और डबरे का चांद डबरे के कारण गंदा नहीं हो गया है; कोई चांद डबरे में जाने से गंदा नहीं हो जाता। यह तो सच है कि चांद जब डबरे में प्रतिफलित होता है तो डबरा पवित्र हो जाता है; लेकिन चांद गंदा नहीं हो जाता।
पर वह आदमी पूछने लगा कि मैं हैरान हूं, तुएहें चांद नहीं दिखाई पड़ा, आकाश नहीं दिखाई पड़ा; यह छोटा सा डबरा दिखाई पड़ा! कोई अनुपात भी नहीं है दोनों में। इतना बड़ा आकाश, इतनी चांदनी, इतना सा डबरा वह तुएहें दिखाई पड़ा!
लेकिन उस आदमी ने कहा, छोड़ो तुएहारा चांद और छोड़ो तुएहारी चांदनी! इस डबरे की वजह से आज रात भर मेरा सोना मुश्किल है।
ऐसे लोग हैं, सौ में निन्यानबे लोग ऐसे हैं। हम सब की जीवन को देखने की दृष्टि अंधेरी है, निगेटिव है, नकारात्मक है। वहां से देखते हैं जहां व्यर्थता है, वहां से देखते हैं जहां कांटे हैं, वहां से देखते हैं जहां बुरा है।
वर्धा में एक आदमी गांधी जी के आश्रम नया-नया आना शुरू हुआ था। आश्रम में रहने वाले भले सज्जन लोग थे। और सज्जनों को उसका आना अच्छा नहीं लगा। और सज्जनों ने गांधी को जाकर कहा कि यह आदमी अच्छा नहीं है; कोई कहता है मांस खाता है, कोई कहता है जुआ खेलता है, कोई कहता है शराब पीता है; यह आदमी संदिग्ध है। इसका यहां आना उचित नहीं है। गांधी ने कहा, यह आश्रम किसके लिए है? जो अच्छे हैं उनकी तो यहां आने की कोई जरूरत भी नहीं। एक डाक्टर अस्पताल खोले और कहे कि मरीज यहां नहीं आने देंगे, क्योंकि मरीज बीमारियां लाते हैं; यहां तो सिर्फ स्वस्थ आदमी आ सकते हैं। तो गांधी ने कहा, यह है किसके लिए? अगर तुम अच्छे हो तो तुम जाओ! लेकिन कोई बुरा है इस कारण उसको यहां से नहीं हटाया जा सकता।
उस दिन तो वे चुप हो गए। लेकिन मन ही मन में उन्हें बहुत बुरा लगा, इस तलाश में रहे कि उस आदमी के बाबत कोई ठोस सबूत मिले तो फिर गांधी को कहा जाए। फिर एक दिन ठोस सबूत भी मिल गया। वह आदमी शराबघर में बैठा हुआ शराब पी रहा था। गांधी टोपी लगाए हुए है खादी की, खादी के कपड़े पहने हुए है, शराब पी रहा है।
वे लोग भागे हुए आए और गांधी को आकर कहा कि अब आप... अब क्षमा कर दीजिए, अब बहुत हो चुका, वह आदमी शराबघर में शराब पी रहा है! और देख कर हमें इतना क्रोध आया कि खादी के कपड़े पहन कर शराबघर में बैठा हुआ है--खादी बदनाम हो रही है और आश्रम बदनाम हो रहा है और आप बदनाम हो रहे हैं!
गांधी कुछ सोचने लगे, और उनकी आंखें बंद हो गईं, और फिर उन्होंने आंखें खोलीं और कहा, अगर मुझे वह शराबघर में खादी पहने हुए शराब पीता दिखाई पड़ता तो मेरा हृदय खुशी से भर जाता और मैं भगवान को कहता कि मालूम होता है इस देश के अच्छे दिन आने वाले हैं, क्योंकि अब शराब पीने वाले लोगों ने भी खादी पहननी शुरू कर दी।
लेकिन वे लोग तो यह कहते थे कि एक खादी पहनने वाला शराब पी रहा है और गांधी कहने लगे कि एक शराब पीने वाला खादी पहन रहा है। और ये दोनों बातें एक ही आदमी कर रहा था। लेकिन देखने वाले दो तरफ से देख रहे थे--एक निगेटिव था देखना, एक पाजिटिव था; एक विधायक था, एक नकारात्मक था।
हम कहां से जिंदगी को देखते हैं?
और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि दुनिया के बहुत से अच्छे लोगों ने जिंदगी को गलत तरह से देखना सिखाया है। जिन लोगों ने भी कहा जिंदगी असार है, जिन लोगों ने कहा जीवन दुख है, जिन लोगों ने कहा जीवन छोड़ देने जैसा है, जिन लोगों ने कहा जीवन पाप है और जिन लोगों ने कहा कि जीवन कुछ भी नहीं, सब माया है, सब व्यर्थ है, सब असार है, उन सारे लोगों ने आपके मन में एक निगेटिव, एक नकारात्मक दृष्टि को जगह बना दी है, उन सारे लोगों ने मनुष्य को धार्मिक होने से रोका है। जिन लोगों ने भी जीवन का विरोध सिखाया है, जिन लोगों ने भी लाइफ निगेटिव आदतें डालीं हमारी और जिन्होंने जीवन के सब रस को, सब आनंद को निषेध किया, इनकार किया, उन सारे लोगों ने मनुष्य को परमात्मा से जोड़ने वाली कड़ी से वंचित किया है। क्योंकि मनुष्य तो केवल पाजिटिविटी में--जब वह परिपूर्ण विधायक रूप से जीवन के रस को देखता है, जब वह घने से घने अंधकार में एक प्रकाश की ज्योति को देखता है, जब वह कांटों से भरी झाड़ी में एक गुलाब के फूल को देखता है और यह कह पाता है भगवान को कि धन्यवाद, तू अदभुत है, यह जीवन चमत्कार है, इतने कांटों के बीच भी फूल पैदा हो जाता है, यह मिरेकल है! जब वह यह कह पाता है भगवान से तब वैसा आदमी जीवन के वे द्वार खोलता है जहां से अमृत का प्रवेश होगा।
अंधकार से मृत्यु का प्रवेश होता है, उदासी से मृत्यु का प्रवेश होता है, निषेध से मृत्यु का प्रवेश होता है। क्योंकि अगर हम ठीक से समझें तो मृत्यु जो है वह निगेटिविटी है, मृत्यु जो है वह परिपूर्ण नकार है, वह न हो जाना है। लेकिन जो जीवन के प्रति नकार का दृष्टिकोण लिए है, वह मृत्यु को ही उपलब्ध होगा, अमृत को नहीं। अमृत को पाना हो तो विधायक! विधायक दृष्टि चाहिए--प्रकाश को देखने वाली, आलोक को देखने वाली, आनंद को देखने वाली।
मैं अगर आपके पास आऊं और कहूं कि भावनगर में मेरे एक मित्र हैं, वे बहुत अच्छी बांसुरी बजाते हैं। तो हजार में से हजार ही मौके इस बात के हैं कि आप कहेंगे, अरे वह आदमी, वह क्या बांसुरी बजाएगा! वह शराब पीता है साहब, झूठ बोलता है, चोर है। वह क्या बांसुरी बजा सकता है! और अगर मैं आकर यहां कहूं कि फलां आदमी शराब पीता है, चोर है, झूठ बोलता है, तो इसकी बहुत कम संभावना है कि आपके नगर में एकाध आदमी मुझसे कहे कि मैं नहीं मान सकता कि वह शराब पीता होगा, चोरी करता होगा। वह इतनी अच्छी बांसुरी बजाता है कि मैं कैसे मानूं कि वह शराब पीता होगा और चोरी करता होगा! हम नहीं मान सकते, वह बांसुरी इतनी अच्छी बजाता है। शायद ही एक आदमी भावनगर में यह कहने को तैयार हो।
लेकिन अगर हो तो उस आदमी को मैं धार्मिक कहता हूं। उस आदमी ने जीवन को वहां से देखना शुरू किया, जहां से धीरे-धीरे पत्थर में परमात्मा प्रकट होगा। उसने वहां से जीवन को देखना शुरू किया, जहां से शुभ की छोटी सी किरण दिखाई पड़ती है, फिर धीरे-धीरे-धीरे उसे शुभ का पूरा सूरज दिखाई पड़ेगा।
लेकिन हम अंधकार से शुरू करते हैं, नकार से शुरू करते हैं, असार से शुरू करते हैं। और फिर हम चाहते हैं कि जीवन मिल जाए, आनंद मिल जाए, अमृत मिल जाए। असंभव है, बिल्कुल असंभव है, यह हो नहीं सकता!
इसलिए दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूंः अगर दृष्टि आपकी नकारात्मक है तो आप कभी भी धार्मिक नहीं हो सकते। हालांकि यह आश्चर्य की बात है कि जिनको हम धार्मिक कहते हैं उनकी दृष्टि अक्सर नकारात्मक होती है। उनका चित्त अक्सर जीवन के प्रति विरोध से भरा होता है। वे अक्सर जीवन को व्यर्थ सिद्ध करने की चेष्टा में संलग्न होते हैं। वे हर मौके की इस तलाश में होते हैं कि वे कह सकें कि लाइफ इ.ज कंडेएड, वे इस कोशिश में होते हैं कि मिल जाए कोई मौका और कह दें कि देखो यह बेकार, जीवन असार, यह सब माया है, इसमें कुछ सार नहीं है।
लेकिन अगर जीवन में सार नहीं है, तो परमात्मा में भी कभी सार नहीं खोजा जा सकता। क्योंकि परमात्मा तक जाने के जो भी रास्ते हैं वे जीवन से होकर जाते हैं, वे जीवन से ही जाते हैं, वे जीवन के ही रास्ते हैं। इसलिए जीवन की तरफ पीठ करने वाला आदमी परमात्मा की तरफ भी पीठ कर लेता है। हालांकि वह सोचता यह है कि जीवन की तरफ पीठ करके मैं परमात्मा की खोज में जा रहा हूं। जीवन में डुबकी चाहिए परिपूर्ण, जीवन में डुबकी चाहिए, तो आदमी परमात्मा तक पहुंचता है। जीवन की गहराइयों में ही उस प्रभु का राज भी छिपा हुआ है।
तो दूसरा सूत्र आपसे यह कहना चाहता हूंः जीवन के प्रति विरोध का, शिकायत का, निंदा का, कंडेमनेशन का भाव छोड़ दें, वह हममें कूट-कूट कर भरा हुआ है, वह हममें इतनी गहराई तक भरा हुआ है जिसका कोई हिसाब नहीं है। हम आदमी को देखते हैं तो उस नजर से, जीवन को देखते हैं तो उस नजर से, फूल को देखते हैं तो उस नजर से, आकाश को देखते हैं तो उस नजर से। हमें सब तरफ कांटे ही कांटे दिखाई पड़ जाते हैं। और जरा से दृष्टि के भेद से सब कुछ बदल जाता है। जरा सा फर्क, और जीवन दूसरा दिखाई पड़ने लगता है।
मुझे दो यहूदी फकीरों की घटना याद आती है। एक बहुत बड़ा यहूदी फकीर, जोसुआ लिएबमेन, अपने गुरु के आश्रम में साधना के लिए गया। युवा था, उसे धूम्रपान की आदत थी, सिगरेट पीने की आदत थी। उसका एक मित्र भी उसी के साथ मोनेस्ट्री में भरती हुआ था, आश्रम में, गुरुकुल में, उसको भी आदत थी। लेकिन आश्रम में मनाही थी सिगरेट पीने की। तो वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए, क्या करें? सिर्फ एक घंटे के लिए आश्रम के बाहर जाने की आज्ञा मिलती थी, सांझ को, नदी के तट पर घूमने के लिए। वह भी आज्ञा घूमने के लिए नहीं मिलती थी, ईश्वर-चिंतन का मौका मिलता था कि घंटे भर नदी के किनारे ईश्वर-चिंतन करो। तो उन्होंने सोचा कि अगर कोई भी रास्ता बन सकता है तो वह एक घंटे जब नदी के किनारे हों तभी हम सिगरेट पी सकते हैं। लेकिन झूठ बोलना, चोरी करना ठीक नहीं; एक दफे गुरु से आज्ञा ले लें। अगर वे खुद ही आज्ञा दे दें तो बड़ी कृपा होगी, नहीं तो फिर सोचेंगे।
वे दोनों अपने गुरु के पास गए। जोसुआ लिएबमेन जब गुरु के पास से लौटा तो बहुत क्रोधित लौटा; गुरु ने साफ इनकार कर दिया--कि नहीं, बिल्कुल नहीं पी सकते हो। उसने सुना भी नहीं, एक क्षण भी रुका नहीं और कहा कि नहीं, बिल्कुल नहीं, सिगरेट बिल्कुल नहीं पी जा सकती है। वह दुखी, क्रोध से भरा हुआ नदी के किनारे लौटा। लेकिन देख कर उसका क्रोध और बढ़ गया। उसका मित्र उसके पहले लौट आया है और सिगरेट बैठ कर पी रहा है! उसे हैरानी हुई कि क्या गुरु ने उसे आज्ञा दे दी या उसने आज्ञा की फिकर नहीं की! वह आकर बोला कि क्या हुआ, तुएहें आज्ञा दी? उसने कहा, हां, मैंने पूछा; उन्होंने कहा कि हां, बिल्कुल पी सकते हो। तो लिएबमेन ने कहा, यह तो हद अन्याय हो गया, इसकी आशा न थी। मुझे बिल्कुल इनकार किया गया है।
उसके मित्र ने हंसते हुए कहा, मैं तुमसे पूछना चाहता हूं, तुमने गुरु से पूछा क्या था? क्योंकि मुझे तो उन्होंने हां भरा है। उसने कहा, पूछने की बात क्या थी, मैंने यह पूछा कि क्या मैं ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पी सकता हूं? उन्होंने कहा, नहीं, बिल्कुल नहीं। तुमने क्या पूछा था? वह आदमी हंसने लगा, उसने कहा, बस ठीक है, समझ में आ गया। मैंने पूछा था, क्या मैं सिगरेट पीते समय ईश्वर-चिंतन कर सकता हूं? उन्होंने कहा, हां, कर सकते हो।
ये दोनों बातें तो बिल्कुल एक हैं। लेकिन कौन आदमी होगा जो कहेगा कि ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पी सकते हो! और कौन आदमी है जो इनकार करेगा कि अगर मैं सिगरेट पीते समय ईश्वर-चिंतन करना चाहूं तो कौन कहेगा कि मत करो! कम से कम ईश्वर-चिंतन तो कर रहे हो, ठीक है, करो। इतना सा फर्क, और उत्तर विपरीत हो गए! एक के उत्तर में नहीं, एक के उत्तर में हां।
जीवन के पास हम कौन सा दृष्टिकोण लेकर जाते हैं, उससे जीवन का उत्तर बदल जाता है। अगर हम उदास और निराश दृष्टिकोण लेकर गए तो जीवन भी कहता है, नहीं-नहीं! और अगर हम प्रफुल्लता से, अहोभाव से, कृतज्ञता से, ग्रेटीट्यूड से, आशा से, प्रेम और प्रार्थना से भरा हुआ दृष्टिकोण लेकर गए, तो जीवन कहता है, हां! तो जीवन की बांहें हमारे चारों तरफ फैल जाती हैं और अपने आलिंगन में ले लेती हैं। और जब हम गलत कोण से जीवन के पास पहुंचते हैं तो द्वार बंद हो जाते हैं।
जीवन के अगर द्वार बंद हैं तो हमारे अतिरिक्त और कोई जिएमेवार नहीं, हम जिएमेवार हैं। और जिनके जीवन के द्वार खुले, और जिन्होंने अमृत के दर्शन किए, और जो प्रभु के चरणों को उपलब्ध हुए, उनके लिए भी कोई और जिएमेवार नहीं, वे स्वयं ही जिएमेवार थे। और यह इतना ही छोटा फासला है, यह फासला बड़ा नहीं, यह शायद इंच भर की दूरी का फासला है।
यह फासला उतना ही है कि एक आदमी आंख बंद किए खड़ा है और कह रहा है, मैं अंधकार में हूं, और बाहर सूरज की रोशनी बरस रही है। और उसके चारों तरफ सूरज की किरणें नाच रही हैं, और वह आंख बंद किए कह रहा है कि मैं अंधकार में हूं। और हम कहेंगे कि सूरज में और तेरे अंधकार में जरा सा फासला है--तेरी पलक बंद है या खुली, इतना सा फासला है, ज्यादा फासला नहीं--तू पलक खोल! और अंधकार नहीं है, सूरज है। इतना सा ही फासला है--निराश, दुखी चित्त में और अहोभाव से, कृतज्ञता से भरे चित्त में। लेकिन हम सबके चित्त जीवन के प्रति नकार और निंदा से भरे हुए हैं।
तो दूसरा सूत्र आपसे मैं यह कहना चाहता हूं कि जीवन के प्रति अत्यंत विधायक होने की जरूरत है। जीवन में बहुत संपदा छिपी है, लेकिन वह उन्हीं की हो सकती है जो विधायक भाव की झोलियां लेकर जीवन के पास पहुंचें। जो पहले से ही यह कहते हुए पहुंचते हैं कि नहीं कुछ रखा है जीवन में, वे झोलियां घर ही रख जाते हैं।
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