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बुधवार, 21 नवंबर 2018

समुंद समाना बूंद में-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन-(भारत का दुर्भाग्य)

मेरे प्रिय आत्मन्!
भारत के दुर्भाग्य की कथा बहुत लंबी है। और जैसा कि लोग साधारणतः समझते हैं कि हमें ज्ञात है कि भारत का दुर्भाग्य क्या है, वह बात बिल्कुल ही गलत है। हमें बिल्कुल भी ज्ञात नहीं है कि भारत का दुर्भाग्य क्या है। दुर्भाग्य के जो फल और परिणाम हुए हैं वे हमें ज्ञात हैं। लेकिन किन जड़ों के कारण, किन रूट्स के कारण भारत का सारा जीवन विषाक्त, असफल और उदास हो गया है? वे कौन से बुनियादी कारण हैं जिनके कारण भारत का जीवन-रस सूख गया है, भारत का बड़ा वृक्ष धीरे-धीरे कुएहला गया, उस पर फूल-फल आने बंद हो गए हैं, भारत की प्रतिभा पूरी की पूरी जड़, अवरुद्ध हो गई है? वे कौन से कारण हैं जिनसे यह हुआ है?

निश्चित ही, उन कारणों को हम समझ लें तो उन्हें बदला भी जा सकता है। सिर्फ वे ही कारण कभी नहीं बदले जा सकते जिनका हमें कोई पता ही न हो। बीमारी मिटानी उतनी कठिन नहीं है जितना कठिन निदान, डाइग्नोसिस है। एक बार ठीक से पता चल जाए कि बीमारी क्या है, तो बीमारी के मिटाने के उपाय निश्चित ही खोजे जा सकते हैं। लेकिन अगर यही पता न चले कि बीमारी क्या है और कहां है, तो इलाज से बीमारी ठीक तो नहीं होती, अंधे इलाज से बीमारी और बढ़ती चली जाती है। बीमारी से भी अनेक बार औषधि ज्यादा खतरनाक हो जाती है, अगर बीमारी का कोई पता न हो। बीमारियां कम लोगों को मारती हैं, वैद्य ज्यादा लोगों को मार डालते हैं, अगर इस बात का ठीक पता न हो कि बीमारी क्या है।


और मुझे दिखाई पड़ता है कि हमें कुछ भी पता नहीं कि हमारी बीमारी क्या है, हमारे दुर्भाग्य का मूल आधार क्या है। यह तो दिखाई पड़ता है कि दुर्भाग्य घटित हो गया है। यह तो दिखाई पड़ता है कि अंधकार जीवन पर छा गया है। एक उदासी, एक निराशा, एक हताशा, एक बोझिलपन है, और ऐसा कि जैसे हमने सब खो दिया है और आगे कुछ भी पाने की उएमीद भी खो दी है। वह दिखाई पड़ता है। लेकिन यह क्यों हो गया है?
बहुत से लोग हैं जो इसका निदान करते हैं। कोई कहेगा कि पश्चिम के प्रभाव ने भारत को नीचे गिराया है--चरित्र में, आशा में, आत्मा में।
गलत कहते हैं वे लोग। गलत इसलिए कहते हैं कि यह बात ध्यान रहे कि जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है वैसे ही प्रभाव भी ऊपर की तरफ नहीं बहता, हमेशा नीचे की तरफ बहता है। अगर एक बुरे और अच्छे आदमी का मिलना हो तो जिसकी ऊंचाई ज्यादा होगी, प्रभाव उसकी तरफ से दूसरे आदमी की तरफ बहेगा। अगर अच्छे आदमी की ऊंचाई ज्यादा होगी तो बुरा आदमी परिवर्तित हो जाएगा और अगर अच्छे आदमी की सिर्फ बातचीत होगी और जीवन में कोई गहराई न होगी तो बुरा आदमी प्रभावी हो जाएगा और प्रभाव बुरे आदमी से अच्छे आदमी की तरफ बहने शुरू हो जाएंगे।
पश्चिम से भारत प्रभावित हुआ है, इसका कारण यह नहीं है कि पश्चिम ने भारत को प्रभावित कर दिया है। इसका कारण यह है कि पश्चिम की, जिसको हम अनीति कहते हैं, वह अनीति भी हमारी नीति से ज्यादा बलवान और शक्तिशाली सिद्ध हुई है। पश्चिम की अनैतिकता की भी एक ऊंचाई है, हमारी नैतिकता की भी उतनी ऊंचाई नहीं है। पश्चिम के भौतिकवाद की भी एक सामर्थ्य है, हमारे अध्यात्मवाद में उतनी भी सामर्थ्य नहीं है, उससे भी ज्यादा निर्वीर्य और नपुंसक सिद्ध हुआ है। इसलिए प्रभाव उनकी तरफ से हमारी तरफ बहता है। इसमें दोष उनका नहीं है।
पहाड़ पर पानी गिरता है, लेकिन गिरा हुआ पानी भी पहाड़ से उतर जाता है नीचे, क्योंकि पहाड़ की ऊंचाइयां इतनी हैं। और यह हो सकता है कि एक झील में पानी भी न गिरे, एक गड्ढे में पानी भी न गिरे, लेकिन पहाड़ पर गिरा हुआ पानी बह कर थोड़ी देर में गड्ढे में भर जाएगा। और गड्ढा यह कह सकता है कि पानी मुझमें भर कर मुझे भ्रष्ट कर रहा है। लेकिन गड्ढे को जानना चाहिए कि वह गड्ढा है, इसलिए पानी भर रहा है। वहां खाली जगह है, वहां नीचाई है, इसलिए प्रभाव चारों तरफ से दौड़ते हैं और भर जाते हैं।
भारत की आत्मा रिक्त और खाली है, इसलिए सारी दुनिया उसे कभी भी प्रभावित कर सकती है। जिनकी आत्माएं भरी हैं, समृद्ध हैं, वे प्रभावित नहीं होते, बल्कि प्रभावित करते हैं। यह दोष देने से कुछ भी न होगा कि पश्चिम की शिक्षा और पश्चिम की संस्कृति हमें विकृत कर रही है। यह ऐसा ही है जैसे गड्ढा कहे कि पानी भर कर मुझे नष्ट कर रहा है। गड्ढे को जानना चाहिए कि मैं गड्ढा हूं, इसलिए पानी मेरी तरफ दौड़ता है। अगर मैं पहाड़ का शिखर होता तो पानी मेरी तरफ नहीं दौड़ सकता था।
लेकिन हम गाली देकर तृप्त हो जाते हैं और सोचते हैं हमने कोई कारण खोज लिया। हम सोचते हैं हमने पश्चिम को दोष देकर कोई कारण खोज लिया।
हम बिल्कुल नहीं देख पाए कि हम गड्ढे की तरह हैं, कारण वहां है।
कुछ लोग हैं जो कहेंगे कि हजार साल से भारत गुलाम था, इसलिए दीन-हीन और दरिद्र और दुखी और पीड़ित हो गया है।
वे भी गलत कहते हैं। उनकी आंखें भी बहुत गहरी नहीं हैं किसी देश की आत्मा को देखने के लिए। गुलामी से कोई मुल्क पतित नहीं होता, पतित होने से कोई मुल्क गुलाम हो सकता है। गुलामी से कोई कैसे पतित हो सकता है? और बिना पतित हुए कोई गुलाम कैसे हो सकता है? एक कौम को मरने की हमेशा स्वतंत्रता है। लेकिन जो लोग मरने के मुकाबले में गुलामी को चुन लेते हैं वे ही केवल गुलाम हो सकते हैं।
लेकिन हम मृत्यु से इतने भयभीत लोग हैं कि हम कैसा भी दीन-हीन, दलित, पैरों में पड़ा हुआ जीवन स्वीकार कर सकते हैं, लेकिन मृत्यु को वरण करने की हिएमत हमने बहुत पहले खो दी है। हम इसलिए नहीं नीचे गिर गए हैं कि हम हजार साल गुलाम रहे। हम नीचे गिरे, इसलिए हमें हजार साल गुलाम रहना पड़ा है।
और आज भी हमारी कोई ऊंचाई नहीं उठ गई है। कोई स्वतंत्र होने से ऊंचा नहीं उठ जाता है। मात्र स्वतंत्र होने से कोई ऊपर नहीं उठ जाता है। बल्कि हालतें उलटी दिखाई पड़ती हैं। गुलाम हम जैसे थे तो जैसे एक गुलामी से बंधे थे और हमारे चरित्र को चारों तरफ से दीवालें रोके हुए थीं। स्वतंत्र होकर हमारे चरित्र में और पतन आया है, ऊंचाई नहीं उठी है। जैसे स्वतंत्रता ने हमारे चरित्र में जो छिपे हुए रोग थे उन सबको मुक्त कर दिया है और स्वतंत्र कर दिया है। हम स्वतंत्र नहीं हुए, हमारी सारी बीमारियां स्वतंत्र हो गई हैं। हम स्वतंत्र नहीं हुए, हमारी सारी कमजोरियां स्वतंत्र हो गई हैं। हम स्वतंत्र नहीं हुए, हमारे भीतर जितने भी रोग के कीटाणु थे वे सब स्वतंत्र हो गए हैं। और देश गुलामी की हालत से भी बदतर हालतों में बीस वर्षों में नीचे उतर गया है।
कोई कहेगा कि हम दरिद्र हैं, दीन हैं, इसलिए सारे देश में, उदासी, थकावट, बेचैनी, घबराहट, अनैतिकता, यह सब है।
लेकिन नहीं, इस बात को भी मैं मानने को राजी नहीं हूं। सच्चाई फिर भी उलटी है। सच्चाई यह नहीं है कि हम गरीब हैं इसलिए हम चरित्रहीन हैं; हम चरित्रहीन हैं इसलिए हम गरीब हैं। चरित्र एक समृद्धि लाता है; चरित्र एक श्रम लाता है; चरित्र एक संकल्प पैदा करता है; चरित्र कुछ करने की हिएमत, बल देता है। वह बल हमारे भीतर नहीं है, इसलिए हम दरिद्र हैं, इसलिए हम दीन हैं।
ये जो ऊपर से दिखाई पड़ने वाले कारण हैं, ये कोई भी कारण नहीं हैं। और जो इन पर अटका रहेगा... और भारत के सारे नेता, सारे धर्मगुरु और वे सारे हकीम, जो नीम-हकीम ही हैं, उन सारे नीम-हकीमों का इन्हीं चीजों के ऊपर सारा आधार है। और इसलिए वे कोई भी फर्क नहीं ला सकते।
मैं एक छोटी सी घटना से अपनी बात शुरू करना चाहता हूं कि क्या है दुर्भाग्य का मूल आधार। स्वामी राम जापान गए हुए थे। वे जापान के सम्राट के महल का बगीचा भी देखने गए थे। उस बगीचे में उन्होंने एक बड़ी अदभुत बात देखी। वे बहुत हैरान हुए। चिनार के वृक्ष थे, जिन्हें आकाश में सौ फीट, डेढ़ सौ फीट ऊपर उठ जाना चाहिए था। वे एक-एक बीते के, एक-एक बालिश्त के थे। और उनकी उम्र डेढ़-डेढ़ सौ, दो-दो सौ वर्ष थी। रामतीर्थ बहुत हैरान हुए कि दो सौ वर्षों का चिनार का वृक्ष और एक बालिश्त, एक बीते की ऊंचाई! यह कैसे संभव हो सका है? लेकिन उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ सका। जो माली उन्हें दिखा रहा था वह हंसने लगा। उसने कहा, मालूम होता है आपको वृक्षों के संबंध में कुछ भी पता नहीं। रामतीर्थ ने कहा, मैं हैरान हूं कि यह वृक्ष डेढ़ सौ वर्ष का है, इसे तो आकाश छू लेना था! यह अभी एक बालिश्त का कैसे है? किस तरकीब से? उस माली ने कहा, आप वृक्ष को देखते हैं, माली जड़ों को देखता है।
उसने गमले को उठा कर बताया। उसने कहा कि हम इस वृक्ष की जड़ों को नीचे नहीं बढ़ने देते, उन्हें नीचे से काटते चले जाते हैं। जड़ें नीचे छोटी रह जाती हैं, वृक्ष ऊपर नहीं उठ सकता है। आकाश में उठने के लिए पाताल तक जड़ों का जाना जरूरी है। जड़ें जितनी गहरी जाती हैं, उतना ही वृक्ष ऊपर उठता है। वृक्ष के प्राण ऊपर उठते हुए वृक्ष में नहीं होते, वृक्ष के मूलप्राण होते हैं उन जड़ों में जो दिखाई भी नहीं पड़तीं। हम जड़ों को काटते रहते हैं, नीचे जड़ें छोटी रखते हैं, वृक्ष ऊपर नहीं बढ़ पाता। वृक्ष ऊपर कभी नहीं बढ़ सकेगा। वृक्ष के प्राण जड़ों में होते हैं।
किसी जाति के प्राण कहां होते हैं, कभी पूछा? किसी जाति के प्राण कहां होते हैं? और कोई जाति अगर बौनी रह जाए, कोई जाति अगर ठिगनी रह जाए आत्मा के जगत में, चरित्र के जगत में, तो उसके प्राण कहां हैं, उसकी जड़ें कहां हैं? यह पूछना जरूरी है कि जड़ें जरूर नीचे से कहीं काट दी गई हैं या काटी जा रही हैं और इसलिए व्यक्तित्व ऊपर नहीं प्रकट हो पा रहा है। हम ऊपर से पूरे वृक्ष को भी काट दें तो कुछ नुकसान नहीं होता; अगर जड़ें साबित हों तो नया वृक्ष फिर पैदा हो जाएगा। लेकिन जड़ें हम नीचे से काट दें, वृक्ष पूरा का पूरा साबित हो, तो भी मर गया। दिन, दो दिन की बात है, वृक्ष कुएहला जाएगा। और शाखाएं ढल जाएंगी और मृत्यु पास आने लगेगी। वृक्ष के प्राण होते हैं जड़ों में। जाति के प्राण कहां होते हैं? राष्ट्रों के प्राण कहां होते हैं? कभी सोचा है कि कहां होते हैं प्राण? क्योंकि जहां होते हैं प्राण, वहीं से बीमारियां उठती हैं और फैलती हैं। जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं, वृक्ष दिखाई पड़ता है। किसी जाति, किसी देश, किसी समाज की जड़ें भी दिखाई नहीं पड़तीं। मनुष्य के जीवन में ऐसी कौन सी बात है जो दिखाई नहीं पड़ती और है?
शायद आपने कभी उस तरफ खोजबीन न की हो। अगर हम मनुष्य के व्यक्तित्व को खोजें तो दो बात दिखाई पड़ेंगी। आचरण दिखाई पड़ता है, व्यक्तित्व दिखाई पड़ता है; विचार दिखाई नहीं पड़ते हैं, विचार अदृश्य हैं। आचरण की जड़ें विचार में होती हैं और अगर विचार की जड़ों को व्यवस्था से काट दिया गया हो तो आचरण अपने आप पंगु हो जाएगा, आगे नहीं बढ़ सकेगा।
भारत के विचार की जड़ें काटी गई हैं। और जिन्हें हम अच्छे और भले लोग कहते हैं और जिनके चरण पकड़ कर हम सोचते हैं कि जगत का उद्धार और इस जीवन की सुफलता हो जाएगी, उन्हीं लोगों ने काट दी हैं। विचार के तल पर भारत ने आत्मघात कर लिया है। और इसलिए आचरण के तल पर वृक्ष सूखता चला गया है और जीवन के तल पर हम उदास, थके हुए और हारे हुए होते चले गए हैं।
मैं ऐसी तीन जड़ों की बात आज करना चाहता हूं जो विचार के तल पर भारत के दुर्भाग्य का मूल आधार हैं और यह भी कह देना चाहता हूं कि जब तक उन तीन जड़ों को हम नहीं बदल लेते हैं तब तक भारत कभी भी दुर्भाग्य से मुक्त नहीं हो सकता। आज नहीं, हजारों साल तक भी मुक्त नहीं हो सकता। लाख उपाय कर लें हम ऊपर-ऊपर वृक्ष को सएहालने के, हमारे सब उपाय थोथी सजावट साबित होंगे। वृक्ष में प्राण नहीं आ सकेंगे, जीवन सजीव नहीं हो सकेगा, प्रतिभा जाग नहीं सकेगी। शायद मेरी बात अजीब लगेगी, क्योंकि वह जो नहीं दिखाई पड़ता उसके संबंध में बात करनी थोड़ी मुश्किल होती है।
पहली जड़--भारत के विचार के केंद्रों में जो आज तक भारत का कंसेप्ट ऑफ टाइम है, समय की जो धारणा है, वह गलत है। उस समय की गलत धारणा के कारण हमारे जीवन का इतना अहित हुआ है जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है।
हमारी समय की धारणा क्या है? हमारा टाइम कंसेप्ट क्या है?
भारत के समय की धारण ऐसी है जैसे सुबह सूरज निकलता है, सांझ डूब जाता है; फिर दूसरे दिन सुबह सूरज निकलता है, फिर सांझ डूब जाता है; एक वृत्तीय, एक सर्कुलर, एक चक्र में सूरज घूमता है। भारत को बहुत पहले यह अनुभव हुआ कि सूरज एक चक्र में घूमता है; फिर वापस वहीं लौट आता है, फिर वापस वहीं लौट आता है, एक रिपीटेड सर्किल है, एक वृत्ताकार परिभ्रमण है। ऋतुएं--वर्षा आती है, फिर दूसरी ऋतु आती है, फिर तीसरी ऋतु आती है, फिर वर्षा आ जाती है। ऋतुएं भी एक परिभ्रमण करती हैं, एक चक्र में घूमती हैं। आदमी पैदा होता है, बच्चा, जवान, बूढ़ा, फिर मौत, फिर बचपन, फिर जवानी, फिर मौत। जीवन भी एक चक्र में घूमता है।
जीवन के इस चक्रीय अनुभव के आधार पर भारत ने यह सोचा कि समय भी एक चक्र में घूमता है, सर्कुलर है। जो समय बीत गया वह फिर आ जाएगा। समय एक वृत्त में घूमता है बार-बार। जैसे हम एक चक्के को घुमाएं तो जो स्पोक अभी ऊपर है वह थोड़ी देर बाद नीचे चला आएगा, फिर ऊपर आएगा, फिर नीचे जाएगा, फिर ऊपर आएगा, फिर नीचे जाएगा। समय एक चक्र में घूमता है, ऐसी भारत ने धारणा बनाई। इस धारणा ने भारत के प्राण ले लिए।
यह धारणा बुनियादी रूप से गलत है। समय चक्र की तरह नहीं घूमता है, समय सर्कुलर नहीं है, समय लीनियर है। समय एक सीधी रेखा में जाता है और वापस कभी नहीं लौटता। जो हो गया, वह फिर कभी नहीं होगा। समय एक सीधी यात्रा है जिसमें लौटने का कोई भी उपाय नहीं है। समय परिभ्रमण नहीं कर रहा है।
आप कहेंगे, समय की धारणा से भारत के दुर्भाग्य का क्या संबंध हो सकता है?
गहरे संबंध हैं। सोचेंगे तो दिखाई पड़ेंगे। जो कौम ऐसा सोचती है कि समय एक चक्र में परिभ्रमण कर रहा है उस कौम का पुरुषार्थ नष्ट हो जाएगा। उस कौम को कुछ करने जैसा है, यह धारणा भी नष्ट हो जाएगी। चीजें अपने आप घूम कर अपनी जगह पर आ जाती हैं और घूमती रहती हैं, हमें कुछ भी नहीं करना है। नई चीजें होती ही नहीं, पुरानी चीजें बार-बार घूमती रहती हैं। कलियुग है, फिर आएगा सतयुग, फिर आएगा कलियुग और घूमता रहेगा फिर। चौबीस तीर्थंकर होंगे, फिर पहला तीर्थंकर होगा, फिर चौबीस तीर्थंकर होंगे, फिर पहला तीर्थंकर होगा, फिर चौबीस तीर्थंकर होंगे, कल्प घूमता रहेगा चके की तरह। जो हो चुका है वह हजारों बार हो चुका है और आगे भी हजारों बार होगा। आपके करने और न करने का सवाल नहीं है, समय के चक्र पर आप घूम रहे हैं और घूमते रहेंगे।
जब एक मुल्क के प्राणों में यह धारणा बैठ गई कि हमारे करने से कुछ होने वाला नहीं है; सूरज निकलता है, डूब जाता है; वर्षा आती है, निकल जाती है; गरमी आती है, फिर वर्षा आती है, फिर गरमी आती है; यह चक्र में घूमता रहता है समय, हमारे करने जैसा कुछ भी नहीं है। हम दर्शक की भांति हैं, घूमते हुए समय को देखने वाले लोग। समय की इस परिभ्रमण की धारणा ने भारत को दर्शक बना दिया, भोक्ता नहीं, कर्ता नहीं। और दर्शकों की क्या स्थिति हो सकती है जीवन के मार्ग पर? जिंदगी कोई तमाशबीनी नहीं है कि कोई तमाशे की तरह हम देख रहे हैं कहीं खड़े होकर। जिंदगी जीनी पड़ती है!
लेकिन जीने की धारणा तभी पैदा होती है जब हमें यह विश्वास हो कि कुछ नया पैदा किया जा सकता है जो कभी नहीं था। हम नये को निर्मित कर सकते हैं, हमारे हाथ में है भविष्य। भविष्य पहले से निर्धारित नहीं है, निर्धारित होना है, और हम निर्धारित करेंगे। हमें निर्धारित करना है भविष्य को, आने वाला कल हमारा निर्माण होगा, किसी अनिवार्य व्हील ऑफ हिस्टरी, इतिहास के चक्र का घूम जाना नहीं।
लेकिन भारत दस हजार वर्षों से इस बात को माने बैठा है कि इतिहास का चक्र घूम रहा है। इसीलिए भारत ने इतिहास की किताबें नहीं लिखीं। सारी दुनिया में इतिहास की किताबें हैं, भारत के पास इतिहास की कोई किताब नहीं है। क्यों? क्योंकि जो चीज बार-बार घूम कर होनी है उसका इतिहास भी क्या लिखना! भारत के पास कोई इतिहास नहीं है। पश्चिम ने इतिहास लिखा, क्योंकि उनकी दृष्टि यह है कि जो भी एक घटना एक बार घट गई है, अब कभी रिपीट नहीं होगी। उसे स्मरण रख लेना जरूरी है, उसका इतिहास होना जरूरी है। अब वह कभी भी वापस होने को नहीं। एक-एक ईवेंट हिस्टॉरिक है, एक-एक घटना ऐतिहासिक है, क्योंकि वह अकेली और अनूठी है। इसलिए पश्चिम ने इतिहास लिखा। उनके इतिहास में एक-एक मिनट और एक-एक घड़ी का उन्होंने हिसाब रखा। हमारा कोई इतिहास नहीं है। हम यह भी नहीं बता सकते कि राम कब हुए। हम यह भी निश्चित रूप से नहीं कह सकते कि राम हुए भी कि नहीं हुए। हमें रखने की कोई जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि राम हर कल्प में होते हैं, करोड़ों बार हो चुके हैं, अरबों बार हो चुके हैं, अरबों बार फिर भी होंगे। यह राम की कथा बहुत बार होती रहेगी। इसको क्या याद रखने की जरूरत है! इसका हिसाब रखने की क्या जरूरत है!
इतिहास हम नहीं निर्माण किए, यह आकस्मिक नहीं है। ऐसा नहीं था कि हमें लिखना नहीं आता था। दुनिया में सबसे पहले लिखने की ईजाद हमने कर ली थी। ऐसा भी नहीं है कि हमें सुनिश्चित धारणा नहीं थी चीजों को लिखने की। जो हमने लिखना चाहा वह हमने बहुत सुनिश्चित लिखा है। लेकिन हमें यह ख्याल ही पैदा नहीं हुआ, कि जो चीज बार-बार दोहरती है उसे स्मरण रखने की जरूरत क्या है? वह तो दोहरती रहेगी। इसलिए इतिहास हमने नहीं लिखा।
और जब हमें यह ख्याल हो गया कि हर चीज पुनरुक्ति है, तो जीवन से रस चला गया। जीवन में रस होता है, जब हर चीज नई हो। जब हर चीज पुनरुक्ति है, तो जीवन मोनोटोनस हो गया, जीवन एक उदास, एक ऊब हो गई, एक बोर्डम हो गई कि ठीक है, यह होता रहा है, यह होता रहेगा। यह चलता रहेगा, यह चलता रहा है, इसमें कुछ किया नहीं जा सकता, नये की कोई संभावना नहीं है। हम यह कहते रहे हैं कि आकाश के नीचे सब पुराना है, नया कुछ भी नहीं हो सकता। जब कि सच्चाई उलटी है। आकाश के नीचे सब नया है, पुराना कुछ भी नहीं है। कल जो सूरज उगा था वह सूरज भी आज वही नहीं है जो आज उगा है। कल जिस गंगा के किनारे आप गए थे वह गंगा आज वही नहीं है, बहुत पानी बह चुका है, नई गंगा वहां बह रही है, सिर्फ आंखों का भ्रम है कि लगता है कि वही गंगा है। आप जो कल थे वह आज नहीं हैं। जिंदगी रोज नई है। और अगर जिंदगी रोज नई है तो जिंदगी में रस हो सकता है। जिंदगी अगर वही है--पुरानी, पुरानी--तो जिंदगी में रस नहीं हो सकता।
भारत विरस हो गया, नीरस हो गया हमारा प्राण, समय की धारणा में। और अगर जिंदगी नई हो ही नहीं सकती तो हमारे पास करने को क्या बचता है? पुरुषार्थ क्या है? हम क्या करें? हमारे पास करने को कुछ भी नहीं बचता है। एक इनएविटेबल व्हील है जो घूम रहा है; एक अनिवार्य चक्र है जो घूम रहा है। हमें करने को क्या है? जब हमें करने को कुछ भी नहीं है तो धीरे-धीरे करने की जो सामर्थ्य थी, जो कि हम कुछ करते तो जागती और विकसित होती, वह सो गई और समाप्त हो गई।
अगर एक आदमी को यह पता चल जाए कि मुझे चलने की कोई जरूरत नहीं है, तो क्या आप समझते हैं कि दो-चार-पांच साल वह न चले तो उसकी चलने की क्षमता बचेगी? उसकी चलने की क्षमता खो जाएगी। उसके पैर चलने का काम ही भूल जाएंगे। एक आदमी दो-चार-पांच साल देखना बंद कर दे तो आंखें शून्य हो जाएंगी, देखने की क्षमता विलीन हो जाएगी। हम जिस अंग का उपयोग करते हैं वही अंग विकसित होता है। हमने पुरुषार्थ का उपयोग नहीं किया, इसलिए पुरुषार्थ विकसित नहीं हुआ। इसलिए दरिद्र हैं; इसलिए गुलाम थे; इसलिए दरिद्र रहेंगे और किसी भी दिन गुलाम हो सकते हैं, क्योंकि जिस मुल्क के भाव में पुरुषार्थ की भावना नहीं है कि हम कुछ कर सकते हैं, उस मुल्क का सौभाग्य उदय नहीं हो सकता है।
इस समय की इस धारणा ने हमें भाग्यवादी बनाया, फेटेलिस्ट बनाया। इसलिए अगर गुलामी आई तो हमने कहा यह भाग्य है। अगर दरिद्रता आई तो हमने कहा यह भाग्य है। अगर उम्र हमारी कम हो गई और हमारे बच्चे कम उम्र में मरे तो हमने कहा यह भाग्य है। हमने प्रत्येक चीज की एक व्याख्या खोज ली कि यह भाग्य है, इसमें कुछ किया नहीं जा सकता। भाग्य का मतलब क्या है? भाग्य का मतलब कि यह ऐसी घटना है जिसमें हम कुछ भी नहीं कर सकते। भाग्य का और कोई मतलब नहीं है। भाग्य का मतलब है कि हम करने से अपने को छुटकारा चाहते हैं, इसमें हम कुछ कर नहीं सकते हैं। ऐसा हुआ, ऐसा होना था, ऐसा होगा। फिर हम कहां खड़े रह जाते हैं?
इस समय की चक्रीय दृष्टि ने हमें भाग्यवादी बना दिया और भाग्यवादी कोई भी देश कभी समृद्ध नहीं हो सकता है। समृद्धि के लिए चाहिए श्रम, समृद्धि के लिए चाहिए संघर्ष। समृद्धि के लिए चाहिए नये आकाश, नये मार्ग, नये शिखर छूने की कामना, कल्पना, सपने। वे सब हम से छिन गए। जो हो रहा है उसे सह लेना है। कुछ करने को हमारे सामने नहीं रह गया।
इसलिए जब देश गुलाम हुआ तो हमने कहा कि होगा भाग्य। बिहार में अकाल पड़ा तो गांधी जैसे अच्छे आदमी ने भी यह कहा कि यह बिहार के लोगों के पापों का फल है। गांधी के भीतर से भारत की वही पुरानी मूढ़ता हजारों साल की बोल रही है। गांधी को ख्याल भी नहीं कि हम यह क्या कह रहे हैं! बिहार के लोग अकाल में भूखे मरते हैं तो यह उनके पापों का फल है। मतलब हमारी इस संबंध में कुछ करने की सामर्थ्य खतम हो गई। वे अपने पापों का फल भोग रहे हैं और पापों का फल भोगना पड़ेगा। हम इसमें क्या कर सकते हैं! अभी गुजरात में बाढ़ आई और लोग बह गए और मर गए। उनके पापों का फल है। हम क्या कर सकते हैं! अपने-अपने पाप का फल तो भोगना ही पड़ता है।
एक निराश चिंतन जीवन के बाबत हमारा खड़ा हो गया। हम जीवन को बदल नहीं सकते। हम जीवन को वैसा नहीं बना सकते जैसा हम चाहते हैं। जैसा हम चाहते हैं पृथ्वी हो, वैसी पृथ्वी हम बना नहीं सकते, यह हमारी सामर्थ्य के बाहर है। एक बार जब देश ने यह धारणा भीतर ग्रहण कर ली--देश की आत्मा सो गई, प्रतिभा खो गई, सामर्थ्य नष्ट हो गई। यह विचार पीछे काम कर रहा है हमारे जीवन को नष्ट करने में।
साथ ही इससे कुछ और फल हुए। जो कौम यह मानती है कि आगे भी वापस वही पुनरुक्त होगा जो पीछे हो चुका है, उसकी आंखें पीछे लग जाती हैं, आगे नहीं। उसकी दृष्टि अतीतोन्मुखी हो जाती है, वह पीछे की तरफ देखना शुरू कर देती है। क्योंकि जो पीछे हुआ है वही आगे भी होने वाला है, तो भविष्य को जानने का एक ही रास्ता है कि हम अतीत को जान लें, क्योंकि वही पुनरुक्त होगा, वही दोहरेगा।
तो पूरे भारत की आंख अतीत पर लग गई, जो अब है ही नहीं, जो जा चुका। और यह वैसा ही है जैसे हम कार के लाइट पीछे की तरफ लगा दें, कार आगे की तरफ चले और लाइट पीछे की तरफ हो। तो दुर्घटना सुनिश्चित है, दुर्घटना होने ही वाली है, क्योंकि कार चलेगी आगे की तरफ और प्रकाश उसकी आंखों का पड़ेगा पीछे की तरफ। जिस रास्ते से अब कोई संबंध नहीं है उस पर प्रकाश पड़ेगा और जिस रास्ते से आगे संबंध है वह अंधकारपूर्ण होगा।
भारत की आंखें, भारत के राष्ट्र की आंखें सामने की तरफ नहीं हैं, पीछे की तरफ हैं। हम विचार करते हैं राम का, हम विचार करते हैं महावीर, बुद्ध का। हम कभी विचार नहीं करते आने वाले भविष्य का, आने वाले बच्चों का।
न राम इतने महत्वपूर्ण हैं, न बुद्ध, न महावीर, जितना आने वाला कल पैदा होने वाला बच्चा है। एक-एक घर में पैदा होने वाला साधारण सा बच्चा भी पुराने सारे अतीत से ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह होने वाला है; और अतीत हो चुका, जा चुका, समाप्त हो चुका है। इसलिए बच्चे हमारे रोज नष्ट होते चले गए हैं, उन पर कोई ध्यान नहीं है। ध्यान बूढ़ों पर है, ध्यान मुर्दों पर है। जो जा चुके, व्यतीत हो चुके, उन पर हमारा ध्यान है; बच्चों पर हमारा कोई ध्यान नहीं है।
समय की ऐसी धारणा--परिभ्रमण करने वाली--सर्कुलर कंसेप्ट अतीतवादी बना देता है मनुष्य को। भविष्य! भविष्य जैसी कोई चीज नहीं रह जाती। और जो कौम पीछे की तरफ देखने लगती है, उस कौम की आत्मा बूढ़ी हो जाती है, यह समझ लेना जरूरी है। यह इसलिए समझ लेना जरूरी है... आपने ख्याल शायद न किया हो, बच्चे हमेशा भविष्य की तरफ देखते हैं। बच्चों का कोई अतीत नहीं होता, देखेंगे भी क्या? पीछे की तरफ देखने को कोई स्मृति नहीं होती, कोई मेमोरी नहीं होती। बच्चे हमेशा भविष्य की तरफ देखते हैं। बूढ़े! बूढ़े हमेशा अतीत की तरफ देखते हैं। भविष्य उनका कुछ होता नहीं। भविष्य में सिर्फ मौत होती है एक दीवाल की तरह। उसके आगे देखने को कुछ होता नहीं। भविष्य यानी शून्य। भरावट होती है अतीत की। तो बूढ़ा हमेशा बैठ कर स्मृति करता है--ऐसा था बचपन, ऐसी थी जवानी, ऐसे थे दिन, इस भाव घी बिकता था, इस भाव गेहूं बिकता था। वह यही सारी बातें सोचता रहता है। भविष्य कहीं नहीं है उसके पास। उसके पास है अतीत। वृद्ध मन का लक्षण है अतीत का चिंतन। बूढ़ा अतीत का चिंतन करने लगता है। बच्चा, बाल मन का लक्षण है भविष्य; और युवा मन का लक्षण है वर्तमान। युवक जीता है वर्तमान में--अभी और यहां। न उसे भविष्य की फिकर है, न उसे अतीत की। न वह बच्चा है, न वह बूढ़ा है। अभी जो आनंद मिल जाए, वह उसे जी लेना चाहता है। इस क्षण में जो मिल जाए, वह उसे भोग लेना चाहता है। जब बच्चा था तो भविष्य था, जब बूढ़ा हो जाएगा तो अतीत होगा, युवा है तब वर्तमान है।
कौमें भी तीन तरह की होती हैं। बचपन में जो कौमें होती हैं, जैसे रूस। रूस के पास कोई अतीत नहीं है। उन्होंने अतीत को छोड़ दिया, इनकार कर दिया, वह गया। उन्नीस सौ सत्रह के बाद उनका अब कोई अतीत नहीं है। वे उसकी बात भी नहीं उठाते। भविष्य है। और भविष्य का चिंतन और विचार करना है और उसे निर्मित करना है। अमेरिका, उसे जवान कौम कहा जा सकता है। उसके पास न कोई अतीत है, न कोई भविष्य है, अभी इसी क्षण जी लेना है। अभी इसी क्षण जी लेना है, जो है उसे भोग लेना है। भारत को बूढ़ी कौम कहा जा सकता है। मैं लक्षण बता रहा हूं। उसके पास न कोई भविष्य है, न कोई वर्तमान है, अतीत है। राम की कथा है, बुद्ध की कथा है, महावीर के स्मरण हैं। वह जो बीत गया है सुखद, स्वर्ण, उस सबकी हजारों स्मृतियां हैं। उन्हीं स्मृतियों में जीना है।
मैं आपसे कहना चाहता हूं, अतीत का इतना चिंतन रुग्ण है, वार्धक्य का लक्षण है। और यह अतीत का चिंतन समय की धारणा से पैदा हुआ है। विकासमान जाति के लिए भविष्य का चिंतन जरूरी है। विकासमान राष्ट्र के लिए भविष्य महत्वपूर्ण है। और भविष्य के बाबत विचार--क्या होगा? क्या हो सकता है? क्योंकि अतीत के संबंध में हम कुछ भी नहीं कर सकते। वह जो हो गया, हो गया। अब उसे अनडन नहीं किया जा सकता, अब उसमें कुछ भी हेर-फेर करने का उपाय नहीं है, अब उसमें एक रत्ती भर फर्क करने की कोई संभावना नहीं है।
तो अगर हम अतीत को ही सदा देखते रहें तो धीरे-धीरे हमारे चित्त में यह धारणा पैदा हो जाएगी कि कुछ भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि अतीत में कुछ भी नहीं किया जा सकता। और जिस चीज पर हम ध्यान देते हैं, हमारी चेतना उसी के साथ तल्लीन हो जाती है और एक हो जाती है। हम जो ध्यान करते हैं, जिसका मेडिटेशन करते हैं, उसी जैसे हो जाते हैं। अतीत को देखने वाले लोग धीरे-धीरे इस निष्कर्ष पर पहुंच जाएं तो आश्चर्य नहीं कि कुछ भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि अतीत में कुछ भी नहीं किया जा सकता है। भविष्य की तरफ देखने वाले लोग इस नतीजे पर पहुंच जाएं कि सब कुछ किया जा सकता है तो आश्चर्य नहीं है, क्योंकि भविष्य का मतलब ही यह है कि जो अभी नहीं हुआ है और हो सकता है। हो सकने का मतलब यह है कि पॉसिबिलिटी हैं हजार, हजार संभावनाएं हैं, उनमें से कोई भी संभावना चुनी जा सकती है। भविष्य की तरफ देखने वाली जाति जवान हो जाएगी, युवा हो जाएगी, ताजी हो जाएगी, जीने की सामर्थ्य खोज लेगी। अतीत की तरफ देखने वाली कौम जड़ हो जाएगी, बूढ़ी हो जाएगी, उसके स्नायु सूख जाएंगे।
समय की इस धारणा ने हमारे दुर्भाग्य का बहुत बड़ा काम पूरा किया है। समय का यह विचार बदलना होगा, ताकि हम देश की प्रतिभा को भविष्योन्मुखी बना सकें, ताकि हम देश की प्रतिभा को यह भाव और दृढ़ आधार दे सकें, कि तुम कुछ कर सकते हो! तुएहारे हाथ में है कुछ!
और दूसरी बात--दूसरा केंद्र, दूसरी जड़। दूसरी जड़ एक अदभुत रूप से हमें हैरान किए रही है और हमारे प्राणों में बहुत गहरा उसका विस्तार है। और वह जड़ है इस बात की कि हमने कर्मफल के सिद्धांत की एक ऐसी धारणा स्वीकार की है कि कर्म तो करेंगे आप अभी और फल मिलेगा अगले जन्म में। इतना विलंबित फल, इतना डिलेड रिजल्ट--अजीब बात है! अभी मैं आग में हाथ डालूंगा तो अगले जन्म में जलूंगा! अभी चोरी करूंगा और अगले जन्म में फल मिलेगा!
कॉज और इफेक्ट हमेशा जुड़े हुए होते हैं, उनके बीच में फासला नहीं होता। कार्य और कारण संबंधित होते हैं, उनके बीच में रत्ती भर का फासला नहीं होता। बीज और वृक्ष में फासला होता है? अगर बीज और वृक्ष में रत्ती भर का फासला पड़ जाए तो उस बीज से वृक्ष पैदा ही नहीं हो सकेगा। उतना सा फासला, फिर बीज से संबंध ही टूट गया। बीज और वृक्ष एक ही सातत्य के हिस्से हैं, एक ही कंटीन्युटी के।
मैं जो करता हूं और उसका फल उससे ही जुड़ा हुआ है, संयुक्त है, तत्क्षण संबंधित है। यह बड़ी झूठी बात है कि अभी मैं करूंगा काम और फल मिलेगा अगले जन्म में। लेकिन यह धारणा हमने विकसित क्यों की? और इस धारणा की वजह से हमने कितना दुख भोगा है, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है।
यह धारणा इसलिए विकसित करनी पड़ी कि समाज में यह दिखाई पड़ता था कि एक आदमी अच्छा है और दुख भोग रहा है और एक आदमी बुरा है, बेईमान है, और सुख भोग रहा है। और हमारे साधु-संतों और महात्माओं को बड़ी मुश्किल हुई इस बात को समझाने में कि इसका मतलब क्या है। इसके दो ही मतलब हो सकते थे।
एक मतलब तो यह हो सकता था कि बुरे काम का बुरे फल से कोई संबंध नहीं है, अच्छे काम का अच्छे फल से कोई संबंध नहीं है। एक आदमी चोरी करता है, बेईमानी करता है--और इज्जत, प्रतिष्ठा और समृद्धि में जीता है। और एक आदमी ईमानदारी से रहने की कोशिश करता है, सच बोलता है--दुख पाता है, कष्ट पाता है। इसका एक मतलब तो यह हो सकता था कि इससे कोई संबंध नहीं है। आप क्या करते हैं, आपको क्या मिलेगा, यह संबंधित नहीं है, एक्सीडेंटल है, सांयोगिक है।
अगर यह बात कोई मुल्क मान ले तो उस मुल्क में नीति और धर्म विलीन हो जाएंगे। तो संत-महात्माओं की इतनी हिएमत न थी कि इस बात को मानते। इसको बात को मानने का मतलब तो यह था कि फिर नैतिक आचरण के लिए कोई आधार न रहा।
दूसरा विकल्प यह था कि आदमी जैसा करता है वैसा ही फल पाता है। लेकिन आंखें तो यह बताती हैं कि बेईमान सुख पा रहे हैं, ईमानदार दुख पा रहे हैं। तो अब क्या! इसमें क्या हल निकाला जाए? तो हल यह निकाला गया कि वह बेईमान जो अभी सुख पा रहा है, पिछले जन्म की ईमानदारी का फल पा रहा है; और वह जो ईमानदार दुख पा रहा है वह पिछले जन्म की बेईमानी का दुख पा रहा है। फल तो हमेशा वैसा ही मिलेगा जैसा कर्म है, लेकिन पिछले जन्मों के कर्म सब इकट्ठे होकर फल लाते हैं। इस जन्म से हमने संबंध तोड़ कर पिछले जन्म से जोड़ा, ताकि व्याख्या में तकलीफ न हो।
लेकिन यह व्याख्या हमें और भी बड़े गड्ढे में ले गई। मेरी अपनी समझ यह है कि इस धारणा ने--कि पिछले जन्मों के विलंबित फल हमें मिलते हैं--दो कारण हमारे सामने खड़े कर दिए, दो स्थितियां बना दीं। एक तो यह कि बुरा काम करने के प्रति जो तीव्र विचार होना चाहिए था वह शिथिल हो गया, क्योंकि अगले जन्म में फल मिलने वाला है। पहले तो यही पक्का नहीं कि अगला जन्म होगा कि नहीं होगा। इसका कोई प्रमाणीभूत उपाय नहीं। कोई मुर्दे लौट कर कहते नहीं कि अगला जन्म हुआ। अगले जन्म की बात ने तथ्य को इतना कमजोर कर दिया कि आज जो मेरी जरूरत है उसको आज पूरा करूं या अगले जन्म में होने वाले फलों का विचार करूं! आज की जरूरत इतनी इंटेंस और अरजेंट है, आज की जरूरत इतनी जरूरी है कि अगले जन्म के विचार के लिए उसे स्थगित नहीं किया जा सकता। तो फिर जो ठीक लगे अभी करूं, अगले जन्म का अगले जन्म में देखा जाएगा। ऐसा एक पोस्टपोनमेंट हमारे माइंड में पैदा हुआ, एक स्थगन पैदा हो गया कि ठीक है, अभी जो करना है वह करो, अगले जन्म में देखा जाएगा।
इतने दूर की बात से मनुष्य प्रभावित नहीं हो सकता। इतने दूर के फल मनुष्य के जीवन और चरित्र को गतिमान नहीं कर सकते। इतनी आकाश की और हवा की बातें मनुष्य के प्राणों के जीवंत तथ्य नहीं बन सकतीं। इसलिए भारत का सारा चरित्र हीन हो गया। क्योंकि यह दिखाई पड़ा कि अभी तो बुरा करने से अच्छा फल मालूम होता है, अगले जन्म का अगले जन्म में देखा जाएगा। फिर कौन कहता है कि अगला जन्म है? फिर कौन कहता है कि इस जन्म में जब बुरा आदमी अच्छे फल भोग सकता है तो अगले जन्म में भी वह कोई तरकीब नहीं निकाल लेगा, कौन कह सकता है? जब इस जन्म में तरकीब निकालने वाले तरकीब निकाल लेते हैं तो अगले जन्म में भी निकाल ही लेंगे। कौन कह सकता है? फिर कौन जानता है कि आदमी समाप्त नहीं हो जाता शरीर के साथ! इन सारी बातों ने स्थिति को बिल्कुल डांवाडोल कर दिया और भारत के व्यक्तित्व को एकदम शिथिल कर दिया। उसके पास कोई जीवंत नियम न रहे जिनके आधार पर वह चरित्र को और आचरण को और जीवन को ऊंचा उठाने की चेष्टा करे।
दूसरा परिणाम यह हुआ, दूसरी धारणा यह विकसित हुई कि अगर मैं पाप भी करूं तो कुछ पुण्य करके उन पापों को रद्द किया जा सकता है। स्वाभाविक! अगर एक-एक कर्म का फल, इंडिविजुअल कर्म का फल मिलता होता, तो एक कर्म के फल को दूसरा कर्म का फल रद्द नहीं कर सकता था। लेकिन हमको फल मिलना था होलसेल में, इकट्ठा। एक जन्म भर के कर्मों का फल अगले जन्म में मिलना था। तो हम अपने पाप और पुण्यों का लेखा-जोखा रख सकते हैं, पाप भी कर सकते हैं और पुण्य करके उनको रद्द भी कर सकते हैं। अंतिम हिसाब में जोड़-बाकी में अगर पुण्य बच जाए तो मामला खत्म हो जाता है।
तो परिणाम यह हुआ कि पाप भी करते रहो एक तरफ, दूसरी तरफ पुण्य भी करते रहो। एक तरफ लाखों रुपया चूसो, शोषण करो, दूसरी तरफ दान करो, मंदिर बनाओ, तीर्थ जाओ। इधर से पाप करो, उधर से पुण्य भी करते रहो, तो लाभ और हानि बराबर होती रहें और आखिर में जोड़ पुण्य का हो जाए। तो जिंदगी भर पाप करो और बुढ़ापे में थोड़ा पुण्य करो और हिसाब ठीक कर लो अपना। इस तरह एक कनिंगनेस, एक कनिंग मैथमेटिक्स, एक चालाक गणित हमने आध्यात्मिक जीवन के संबंध में पैदा कर लिया। तो एक आदमी शोषण करे, इसको हमने बुरा न समझा; दान करे, इसकी हमने प्रशंसा की। और हमने कभी यह न पूछा कि दान करने योग्य पैसा इकट्ठा कैसे होता है? दान करने योग्य पैसा इकट्ठा कैसे हो सकता है? नहीं लेकिन, उसका हमने विचार नहीं किया। दान पुण्य है, तो शोषण के पाप को दान के पुण्य से काटा जा सकता है। दान की हमने खूब प्रशंसा की--मंदिर बनाने की, तीर्थ बनाने की, साधु-संन्यासियों को भोजन कराने की, ब्राह्मणों को भोजन कराने की, गाय-दान कर देने की--हजार तरह की हमने तरकीबें ईजाद कीं, जिनसे हम पाप करते रहें और उनको काटने के उपाय भी कर लें।
चरित्र नीचे गिरना निश्चित था। क्योंकि जो मुल्क ऐसा सोचता है कि एक पाप को पुण्य करके काटा जा सकता है, वह मुल्क कभी भी पाप से मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि जब तक हमें यह ख्याल न हो कि पाप अल्टीमेट है, जब तक हमें यह ख्याल न हो कि एक पाप को किसी पुण्य से कभी नहीं काटा जा सकता, एक कर्म को दूसरे कर्म से नहीं काटा जा सकता है, तब तक, तब तक उस पाप के प्रति हम बचने के उपाय खोजने की कोशिश करेंगे। इस धारणा ने हमारा जीवन ले लिया।
मैं इसके संबंध में दो बातें कहना चाहता हूं। एक तो बात यहः कर्म विलंबित फल नहीं लाता, कर्म इसी क्षण फल लाता है। एक आदमी अभी क्रोध करता है तो अभी क्रोध के नर्क से गुजर जाता है। एक आदमी अभी चोरी करता है तो चोरी के भय, अपराध, पीड़ा, डर, उन सबकी पीड़ाओं से अभी गुजर जाता है। एक आदमी अभी किसी की हत्या करता है तो हत्या करने के पहले और हत्या करने के बाद वह जिस मानसिक उत्पीड़न से, मानसिक भय से, मानसिक उत्ताप से गुजरता है, वह आदमी जो मर गया उसकी पीड़ा से बहुत ज्यादा है। एक आदमी को मैं मार डालूं, उस आदमी को मरने में जितनी पीड़ा होगी, उससे ज्यादा पीड़ा से, मारने के पहले और मारने के बाद मुझे गुजरना पड़ेगा। अगले जन्म की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी कि अगले जन्म में फिर मुझे कोई मारे। नहीं, कृत्य तो अपने साथ ही फल को लिए हुए है। इधर मैंने कृत्य शुरू किया और उधर फल मेरे ऊपर टूटना शुरू हो गया। एक अच्छा काम आप करें, एक प्रेम का कृत्य, और उसके साथ ही उसकी सुवास, आनंद और सुगंध है। प्रेम के एक कृत्य के साथ ही, उसके पीछे ही एक हवा है--शांति की, एक आनंद की, एक धन्यता की। पाप के साथ ही एक पश्चात्ताप है, एक पीड़ा है।
इस पुरानी धारणा की जगह नई धारणा चाहिए भारत के मन को कि प्रत्येक कर्म का फल तत्क्षण है, आगे-पीछे नहीं। इतना भी फासला नहीं है कि मैं कुछ कर सकूं। मैंने किया, और करने के साथ ही फल भी उपलब्ध होना शुरू हो जाता है। मैं एक छत पर से कूद पडूं, मैं छत पर से कूदा, और कूदने के साथ ही गिरना भी शुरू हो गया। कूदना और गिरना दो बातें नहीं हैं। कूदना उसी चीज का प्रारंभ है जिसको हम गिरना कहते हैं। मैंने क्रोध किया, और क्रोध के साथ ही जलना शुरू हो गया। हमें, कर्म ही फल है, इस उदघोषणा को मुल्क के प्राणों पर ठोंक देना होगा कि कर्म ही उसका फल है। इसलिए आगे सोच-विचार का सवाल नहीं है, सोचना है तो इसी क्षण--कि यह मुझे करना है या नहीं!
दूसरी बात, यह जो हमें दिखाई पड़ता है कि एक बेईमान आदमी सफल हो जाता है, एक ईमानदार आदमी असफल हो जाता है। हमने कभी बहुत विचार नहीं किया इस बात का, क्योंकि हमारी धारणा थी, उससे हमने निपटारा कर लिया; एक्सप्लेनेशन मिल गया, इसलिए विचार नहीं किया। जब एक बेईमान आदमी सफल होता है तब कभी आपने ख्याल किया कि बेईमान आदमी में और गुण भी होते हैं। और जब ईमानदार आदमी असफल होता है तो आपने कभी ख्याल किया कि ईमानदार आदमी में और अयोग्यताएं भी हो सकती हैं। एक बेईमान आदमी करेजियस हो सकता है, साहसी हो सकता है। और एक ईमानदार आदमी कमजोर हो सकता है, हिएमतहीन हो सकता है, कायर हो सकता है। और अगर बेईमान आदमी सफल होता है, तो मैं आपसे कहता हूं, सफल वह अपने साहस की वजह से होता है, बेईमानी की वजह से नहीं। और अगर ईमानदार आदमी असफल होता है, तो ईमानदारी की वजह से असफल नहीं होता, असफल होता है साहस की कमी की वजह से। एक आदमी की सफलता में मल्टी कॉजलिटी होती है, बहुत कारण होते हैं। हालांकि ईमानदार आदमी असफल होता है तो उसको भी मजा इसी में आता है बताने में कि मैं ईमानदारी की वजह से असफल हो गया।
ईमानदारी की वजह से दुनिया में कोई कभी असफल नहीं हुआ है और न हो सकता है। और बेईमानी की वजह से न कोई दुनिया में कभी सफल हुआ है, न हो सकता है। लेकिन मल्टी कॉजलिटी है। बेईमान आदमी के पास और गुण भी हैं। वह साहसी हो सकता है, वह बुद्धिमान हो सकता है। वह आदमी संगठन की क्षमता में कुशल हो सकता है। वह आदमी भविष्य को देखने की अंतर्दृष्टि वाला हो सकता है। और इन सारी चीजों से वह सफल हो जाएगा। और एक जिसको हम ईमानदार आदमी कह सकते हैं, वह सिर्फ ईमानदार है, और उसके पास कुछ भी नहीं है। न उसके पास साहस है, न अंतर्दृष्टि है, न जीवन को समझने की कोई कुशलता है और समझ है, न पहल लेने की हिएमत है कि इनीशिएट कर सके किसी बात को। वह असफल हो जाएगा। और वह ईमानदार आदमी अपने मन में यह सोच कर बहुत संतोष, सांत्वना और कंसोलेशन पाएगा कि मैं इसलिए असफल हो गया कि मैं ईमानदार हूं। इसलिए आप असफल नहीं हो गए हैं, आपकी असफलता के दूसरे कारण हैं। और यही ईमानदार आदमी उस सफल आदमी की निंदा करना चाहेगा--ईर्ष्यावश, जेलेसी है पीछे, कि वह सफल हो गया है--तो उसकी निंदा का एक ही उपाय है कि यह बेईमानी की वजह से सफल हो गया है।
मैं आपसे कहना चाहता हूं, जीवन के गणित में दुर्गुण कभी भी कोई समृद्धि, कोई सफलता न लाते हैं, न ला सकते हैं। जीवन का गणित बड़ा है।
एक आदमी चोरी करने जाता है। आप सिर्फ इतना ही देखते हैं कि वह चोर है। लेकिन चोर की हिएमत है आपके पास? अपने घर में भी डर कर चलते हैं, चोर दूसरे के घर में भी निडर चलता है। अपने घर के अंधेरे में भी प्राण छिपाते हैं, चोर दूसरे के घर के अंधेरे में ऐसा घूमता है जैसे दिन की रोशनी हो और अपना घर हो। यह क्वालिटी चोरी से बिल्कुल अलग बात है। यह गुण एक बिल्कुल अलग बात है।
जापान में एक चोर था। उसकी बड़ी प्रसिद्धि थी। उसको लोग मास्टर थीफ कहते थे। कहते थे वैसा चोर नहीं हुआ कभी। कलागुरु था वह चोरों का। और यहां तक उसकी प्रसिद्धि हो गई थी कि जिस घर में वह चोरी कर लेता था उस घर के लोग गौरव से लोगों से कहते थे कि हमारे यहां मास्टर थीफ ने चोरी की है! हम कोई साधारण समृद्ध लोग नहीं हैं, उस कलागुरु की नजर भी हमारे घर की तरफ गई है! लोग इसकी प्रशंसा करते थे। लोग प्रतीक्षा करते थे कि वह कलागुरु कभी उनके घर की तरफ भी नजर कर ले, क्योंकि जिसके घर की तरफ वह देखता वह आदमी खानदानी रईस हो जाता।
वह बूढ़ा हो गया चोर। उसके लड़के ने उससे कहा कि आप तो बूढ़े हो गए, अब मेरा क्या होगा? मुझे कुछ सिखा दें!
उस बूढ़े ने कहा कि यह बड़ा कठिन मामला है। चोरी जितनी सरल दिखाई पड़ती है उतनी सरल चीज नहीं है। बहुत कांप्लेक्स साइंस है, उस बूढ़े ने कहा, बड़ा जटिल विज्ञान है। इसमें बड़े गुण चाहिए। एक सैनिक से कम हिएमत की जरूरत नहीं, एक संत से कम शांति की जरूरत नहीं, एक ज्ञानी से कम अंतर्दृष्टि की जरूरत नहीं, तब आदमी चोर बन सकता है।
उसके लड़के ने कहा, क्या आप कहते हैं! संत, योद्धा, ज्ञानी, इनके गुण चाहिए?
उस बूढ़े ने कहा कि इनके गुण चाहिए, तब! चोरी सफलता नहीं लाती, ये गुण सफलता लाते हैं। चोरी क्या सफलता ला सकती है? चोरी तो अपने आप में असफल होने को आबद्ध है। इतने बल जोड़ दो तो सफल हो सकती है।
फिर भी उस लड़के ने कहा कि कुछ मुझे सिखाएं! तो उसने कहा, आज चल तू रात मेरे साथ। जवान लड़का, अंधेरी रात में जाकर नगर के सम्राट के महल में पहुंच गए। वह बूढ़ा है, उसकी उम्र कोई सत्तर साल पार कर चुकी है, वह जाकर दीवाल की ईंटें फोड़ने लगा, और लड़का खड़ा कंप रहा है। उस बूढ़े ने कहा, कंपन बंद कर! क्योंकि यहां कोई साहूकारी करने नहीं आए हैं कि कंपते हुए भी हो जाए। यहां चोरी करने आए हैं। हाथ कंपा कि गए। बुड्ढे आदमी का, सत्तर वर्ष का बूढ़ा हाथ है, और वह ईंटें ऐसे तोड़ रहा है जैसे कोई कारीगर मौज से अपने घर काम कर रहा हो। और वह लड़का कंप रहा है कि यह दूसरे का घर है, कहीं आवाज न हो जाए, कहीं कुछ न हो जाए। और वह बूढ़ा ऐसी शांति से खोद रहा है ईंटें, जैसे अपना घर हो।
उस लड़के ने कहा, बाबा, आपके हाथ नहीं कंपते? उस बूढ़े ने कहा, चोर तभी हुआ जा सकता है जब हम सबकी संपत्ति अपनी मानते हों। चोर होना बहुत मुश्किल है। चोर होना आसान नहीं है। उसने ईंटें तोड़ ली हैं, वह भीतर चला गया। लड़का भी कंपता हुआ उसके साथ पीछे गया है, लेकिन उसकी छाती इतने जोर से धड़क रही है कि उसे समझ में ही नहीं आ रहा है कि ऐसा तो कभी भी नहीं हुआ था, यह क्या हो रहा है? उस बूढ़े ने कहा, देखो, इतने घबराओगे तो गति बहुत मुश्किल है। बहुत शांत, बहुत ध्यानपूर्वक ही चोरी की जा सकती है, बहुत मेडिटेटिवली। क्योंकि दूसरे का घर है; लोग सोए हुए हैं। तेरा तो हृदय इतने जोर से धड़क रहा है कि उसकी धड़कन से लोग जग जाएं। ऐसे काम नहीं चलेगा। ऐसा धड़कते हुए तो चीज गिर जाएगी, धक्का लग जाएगा, सब गड़बड़ हो जाएगा। इस अंधेरे में इतनी कुशलता से जाना है कि जरा सी आवाज न हो।
लेकिन लड़के के तो पैर कंप रहे हैं और उसको चारों तरफ लोग दिखाई पड़ रहे हैं कि वह खड़ा है दीवाल के पास कोई! अब कोई जागा! किसी को खांसी आ गई है, कोई रात में बर्रा रहा है, आवाज कर रहा है, और वह घबरा रहा है। बूढ़ा उसको लेकिन भीतर ले गया। वह ताले खोलता हुआ चला गया। वह आखिरी अंदर के कक्ष में पहुंच गया। उसने लड़के को कहा, तू भीतर जा और जो भी चीजें तुझे पसंद हों वे लेकर बाहर आ जा। मैं बाहर खड़ा हूं। वह दरवाजे पर खड़ा है; लड़का भीतर गया। उसे तो कुछ दिखाई भी नहीं पड़ता, पसंद करने की तो बात बहुत दूर, उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या वहां है और क्या नहीं है। और तभी उसने देखा कि उसके बाप ने दरवाजा बंद कर दिया है, और जोर से दरवाजा पीटा है और चिल्लाया है कि चोर है! और बाप भाग गया।
वह लड़का कमरे के भीतर है। सारे घर के लोग जाग गए हैं और वे दीया लिए, लालटेन लिए खोज कर रहे हैं। उस लड़के के तो प्राण सूख गए बिल्कुल। उसने कहा, यह तो बाप ने मरवा डाला। यह कैसी चोरी सिखाई! यह क्या किया पागलपन!
अचानक जैसे ही इतने खतरे की, इतने डेंजर की स्थिति पैदा हो गई वैसे ही विचार खत्म हो गए। इतने खतरे में विचार नहीं चल सकते। विचार चलने के लिए सुविधा चाहिए, कंफर्ट चाहिए। इतना खतरा है कि जान जाने को है, तो उसके विचार शून्य हो गए।
अभी कोई आपकी छाती पर छुरा लेकर खड़ा हो जाए तो फिर मन चंचल नहीं रहेगा उस वक्त। मन के चंचल होने के लिए आराम से तकिया चाहिए, बिस्तर चाहिए, तब मन चंचल होता है। खतरे की नोक, जान जिंदगी खतरे में पड़ जाए तो कहां की चंचलता! मन एकदम थिर हो जाएगा।
उसका मन थिर हो गया है और एकदम उसे कुछ अंतर्दृष्टि हुई। उसने दरवाजे को नाखून से खुरचा, जैसे कि कोई बिल्ली या कोई चूहा आवाज कर रहा हो। और उसे कुछ समझ में न आया कि यह मैं क्यों कर रहा हूं। जैसे कोई अंतर्दृष्टि, जैसे कोई भीतर से कोई इंट्यूशन। एक नौकरानी बाहर से गुजरती थी; उसने दरवाजा खोला कि भीतर शायद कोई बिल्ली है या क्या है! चोर को वे खोज भी रहे थे। उसने ऐसा हाथ बढ़ा कर, जो दीया हाथ में लिया था, भीतर ऐसा झांक कर देखा। अचानक--ऐसा उसने सोचा नहीं था कि नौकरानी हाथ भीतर बढ़ाएगी और दीया जला हुआ आगे होगा; इसका उसे क्या पता हो सकता था, यह विचार नहीं था, कोई योजना न थी, कोई प्लानिंग नहीं थी--लेकिन दीया देख कर अचानक उसके मुंह से फूंक निकल गई। दीया बुझ गया और उसने धक्का दिया अंधेरे में और भागा। दस-पच्चीस लोग उसके पीछे भागे।
आज उसे जिंदगी में पहली दफा पता चला कि इतनी तेजी से भी भागा जा सकता है। वह जितनी तेजी से भाग रहा था, तीर की तरह जा रहा था। उसे आज पहली दफा पता चला कि मेरा शरीर और इतना गतिवान! जैसे तीर चल रहा हो। जब जान पर बाजी हो तो सारी शक्तियां जग जाती हैं। एक कुएं के पास से गुजरता था, दस-बीस कदम पीछे लोग रह गए हैं और ऐसा लगता है कि वे अब पकड़ते हैं, अब पकड़ते हैं, तभी उसे कुएं के घाट पर एक पत्थर दिखाई पड़ा। उसने उठाया और कुएं में पटक दिया। दौड़ कर जो पीछे लोग आ रहे थे वे कुएं को घेर कर खड़े हो गए। उन्होंने समझा कि वह चोर कुएं में कूद पड़ा है। वह एक वृक्ष के नीचे चोर खड़ा रहा और देखता रहा। उन्होंने कहा, अब तो वह अपने हाथ से मर गया। कुआं बहुत गहरा है, अब सुबह देखेंगे। जिंदा रहा तो ठीक, मर गया तो ठीक। वे वापस जाकर अपने महल में सो गए होंगे।
वह लड़का अपने घर पहुंचा, देखा पिता कंबल ओढ़ कर सोया हुआ है। उसने क्रोध से कंबल खींचा और कहा कि यह क्या मामला है? मेरी जान ले ली! उस बूढ़े ने कहा, अब रात गड़बड़ मत करो, तुम आ गए, अब सुबह बातचीत करेंगे। बस आ गए, ठीक है, अब सुबह बातचीत करेंगे। उसने कहा कि सुबह नहीं, मैं तो ऐसे अनुभव से गुजर गया! क्या किया आपने? उसने कहा, छोड़ो उस बात को, तुम आ गए, बात खत्म हो गई। कल से तुम खुद भी चोरी करने जा सकते हो।
चोर सफल होता है चोरी की वजह से नहीं। चोर सफल होता है दूसरे गुणों की वजह से। और जब अचोर आदमी में उतने गुण होते हैं तो उसकी सफलता का क्या कहना! वह महावीर बन जाता है, बुद्ध बन जाता है। बेईमान सफल होता है बेईमानी की वजह से नहीं, और दूसरे गुणों की वजह से। और जब कभी ईमानदार आदमी उन गुणों को पैदा कर लेता है तो उसकी सफलता का क्या कहना! वह सुकरात बन जाता है, वह जीसस बन जाता है। आप हैरान हो जाएंगे, दुनिया के बुरे से बुरे आदमियों की सफलता के पीछे वे ही गुण हैं जो दुनिया के अच्छे से अच्छे आदमी की सफलता के पीछे हैं। गुण वही हैं सफलता के। असफलता के गुण भी वही हैं।
लेकिन हमने एक झूठी व्याख्या पकड़ ली थी और उसके हिसाब से हमने समझा था कि हमने सब मामला हल कर लिया। उसके नुकसान भारी पड़े हैं। वह सारी धारणा बदल देने की जरूरत है, ताकि नीचे से जड़ बदल जाए और आदमी के व्यक्तित्व को हम नई बुनियाद दे सकें। इस संबंध में एक बात और, और फिर मैं तीसरा सूत्र कह कर अपनी बात पूरी करूं।
एक बात ध्यान रखनी जरूरी है कि हमारी पुरानी कर्म की धारणा जब यह कहती थी कि अभी मैं कर्म करूंगा और आगे कभी भविष्य में, कभी जन्मों के बाद फल मिलेगा, तो वह धारणा हमें गुलाम बना देती थी, क्योंकि कर्म तो अभी कर दिया गया और फल भोगने के लिए मैं बंध गया। फल भोगने के लिए मैं बंध गया। न मालूम कब तक बंधा रहूंगा उस फल से। अनंत जन्म हो चुके हैं। अनंत कर्म आदमी ने किए हैं। उन सबसे आदमी बंधा हुआ है, क्योंकि उनका फल अभी भोगना है, अभी फल भोगा नहीं गया।
तो भारत में बंधे हुए की धारणा, एक स्लेवरी की धारणा, एक परतंत्रता की धारणा विकसित हुई कि हर आदमी परतंत्र है, आगे के लिए बंधा हुआ है, पीछे के कामों ने बांध लिया है। तो भारत की प्रतिभा के भीतर स्वतंत्रता का बोध, कि मैं स्वतंत्र हूं, यह मर गया। यह मर ही जाएगा। जब मैं इतने कर्मों से बंधा हुआ हूं पीछे के, जिनके फल मुझे अभी भोगने ही पड़ेंगे, जिनको बदलने का कोई उपाय न रहा अब, तो स्वाभाविक मेरी चेतना बंधी हुई है, बद्ध है, बंधन में है, यह धारणा पैदा हो गई। और जहां इतने बंधन मेरे भीतर हैं वहां एकाध और कोई बंधन ऊपर से आ जाए, कोई दूसरा मुल्क हुकूमत जमा ले, तो क्या फर्क पड़ता है? मैं तो बंधा ही हुआ हूं, और थोड़ा सा बंधन बढ़ता है तो क्या फर्क पड़ता है? हम इतने बंधे हुए मालूम होने लगे भीतर, इतना बांडेज, कि और नई गुलामी आ जाए तो हमें कोई तकलीफ मालूम नहीं हुई। हमने भारत में एक गुलाम आदमी पैदा कर दिया इस धारणा की वजह से।
मैं आपसे कहना चाहता हूं, प्रत्येक कर्म का फल तत्क्षण मिल जाता है और आप फिर टोटल फ्री हो जाते हैं, आप फिर मुक्त हो जाते हैं। कर्म भी निपट गया, उसका फल भी उसके साथ निपट गया। आपकी चेतना फिर मुक्त है, आप फिर मुक्त हो गए हैं। हर घड़ी आप बाहर हो जाते हैं अपने बंधन के। बंधन जिंदगी भर साथ नहीं ढोने पड़ते। वह जो हमारी कांशसनेस है वह हमेशा मुक्त हो जाती है। हमने काम किया, फल भोगा और हम बाहर हो गए। और काम के साथ ही फल निपट जाता है, इसलिए आप हमेशा स्वतंत्र हैं। मनुष्य की आत्मा मौलिक रूप से स्वतंत्र है। वह कभी बंध कर नहीं रह जाती। वह कहीं भी बंधी हुई नहीं है। मौलिक स्वतंत्रता की गरिमा एक-एक आदमी को मिलनी चाहिए, कि मेरी आत्मा मौलिक रूप से स्वतंत्र है। तब हम स्वतंत्रता का आदर कर सकेंगे, स्वतंत्रता के लिए लड़ सकेंगे, स्वतंत्रता को बचाने के लिए जीवन खो सकेंगे। बंधे-बंधाए लोग, बंधन में पड़े हुए लोग, जिनका चित्त इस जड़ता को पकड़ लिया है कि हम तो बंधे ही हुए हैं, वे लोग स्वतंत्रता के साक्षी, वे स्वतंत्रता के विटनेस, वे स्वतंत्रता के मालिक, वे स्वतंत्रता की घोषणा करने वाली स्वतंत्र आत्माएं नहीं हो सकते हैं।
इसलिए भारत इतने दिन गुलाम रहा है। इस गुलामी में न मुसलमानों का हाथ है, न हूणों का, न तुर्कों का, न अंग्रेजों का। इस गुलामी में भारत के उन संत-महात्माओं का हाथ है जिन्होंने एक-एक आदमी की आंतरिक स्वतंत्रता को नष्ट करने की धारणा दे दी। गौरव चला गया, गरिमा चली गई, वह जो डिगनिटी एक-एक आदमी की होनी चाहिए, वह खत्म हो गई। बंधन में पड़े आदमी की कोई डिगनिटी होती है? कोई गौरव होता है? पैर में जंजीरें बंधी हैं, हाथ में जंजीरें बंधी हैं, गर्दन फांसी पर लटकी है, ऐसा आदमी उसकी कोई गरिमा होती है? कर्म के इस सिद्धांत ने आपके पैरों में हजारों जंजीरें डाल दी हैं, हाथों में जंजीरें डाल दी हैं, गर्दन फांसी पर लटका दी है। आप चौबीस घंटे फांसी पर लटके हैं, चौबीस घंटे बंधन में हैं। एक ही प्रार्थना कर रहे हैं, हरे राम, हरे राम कर रहे हैं कि किसी तरह मुक्ति मिल जाए, यह बंधन से छुटकारा हो जाए। इस तरह के आदमी की तस्वीर बहुत बेहूदी और कुरूप है। इस तरह के आदमी को आत्मिक सएमान का भाव भी नष्ट हो जाता है।
तीसरा अंतिम सूत्र! भारत ने एक तीसरी बीमारी हजारों साल में पोसी है, और वह बीमारी है ईगो-सेंटर्डनेस। यह बड़ी अजीब बात मालूम पड़ेगी। अहं-केंद्रीकरण हो गया हमारा। हम दुनिया में सबसे ज्यादा इस बात की बात करने वाले लोग हैं कि अहंकार छोड़ो! लेकिन हमारी पूरी फिलासफी, हमारा पूरा जीवन-दर्शन व्यक्ति को अहं-केंद्रित बनाने वाला है। यह बड़े आश्चर्य की घटना है और यह कैसे संभव हो सकी! भारत में इसीलिए समाज की कोई धारणा, राष्ट्र की कोई धारणा विकसित नहीं हो सकती कभी भी। भारत कभी भी राष्ट्र न था और न है और न अभी पुराने आधारों पर राष्ट्र होने की संभावना है। भारत में न कभी कोई समाज था, न है और न आगे कोई समाज की धारणा बन सकती है। भारत की धारणा अब तक यह रही है कि एक-एक व्यक्ति के अपने कर्म हैं, अपना फल है। एक-एक व्यक्ति को अपना मोक्ष खोजना है, अपना स्वर्ग खोजना है। दूसरे व्यक्ति से लेना-देना क्या है! एक-एक व्यक्ति की आत्मा को अपनी-अपनी यात्रा पूरी करनी है, दूसरे से संबंध क्या है! तो एक इंटररिलेटेडनेस, एक अंतर्संबंध हमारे भीतर विकसित नहीं हो सका।
सुनी होगी वाल्मीकि की कथा कि वाल्मीकि तो डाकू था, लुटेरा था। एक दफा उसने जाते हुए ऋषियों को भी रोक लिया रास्ते में लूटने के लिए। उस ऋषियों ने क्या कहा? उन ऋषियों ने कहा कि तू हमें लूटता है वह तो ठीक, लूट ले, लेकिन किसके लिए लूटता है? यह घटना थोड़ी समझ लेनी जरूरी है। किसके लिए लूटता है? उस बाल्या भील ने कहा कि अपनी पत्नी के लिए, अपने बच्चों के लिए, अपने बूढ़े बाप के लिए, अपनी मां के लिए! उनके लिए लूटता हूं! उन ऋषियों ने कहा, तू फिर एक काम कर, हमें तू बांध दे वृक्षों से और तू जाकर अपनी पत्नी, अपनी मां, अपने बेटे को पूछ आ कि लूटने से जो पाप का फल मिलेगा वे उसमें भी भागीदार होंगे कि नहीं। नर्क जाएगा तू, इतनी लुटाई, इतनी हत्याएं करने से, तो तेरी पत्नी, तेरे बेटे, तेरे मां-बाप नर्क जाने के लिए तेरे साथ होंगे कि नहीं, यह तू पूछ कर आ जा।
बाल्या ने उनको बांध दिया और वह अपनी मां से पूछने गया। मां ने कहा कि बेटे, हमें क्या मतलब! हमें तो तुम बेटे हो, हमारे बुढ़ापे में खाना दे देते हो, उससे मतलब है। हमें इससे कोई प्रयोजन नहीं कि तुम कहां जाओगे और कहां नहीं जाओगे, वह तुम समझो। अपने-अपने कर्म का फल, अपने-अपने आदमी को भोगना पड़ता है। बाल्या तो बहुत चौंका। उसने अपनी पत्नी को जाकर पूछा। पत्नी ने कहा कि तुएहारा कर्तव्य है, तुम मेरे पति हो, कि मेरा पालन-पोषण करो। मुझे पता नहीं कि तुम कहां से पैसे लाते हो और क्या करते हो। वह तुएहारा अपना जानना है। नर्क जाओगे तो तुम जाओगे, स्वर्ग जाओगे तो तुम जाओगे, मुझसे क्या लेना-देना है इस बात का! बाल्या तो घबरा गया। उसको पहली दफा पता चला कि कर्म मेरे हैं और फल मेरा है पूरा का पूरा। और इनसे कोई मेरा अंतर्संबंध नहीं है सिवाय इसके कि एक मेरी पत्नी है, वह एक बाहरी संबंध है; एक मेरी मां है, वह एक बाहरी संबंध है; अंतर्संबंध कोई भी नहीं, जहां मेरे व्यक्तित्व का पूरा भार लेने को ये तैयार हों। वह आया और ऋषियों के चरणों में गिर पड़ा और खुद भी ऋषि हो गया।
आमतौर से यह कथा कही जाती है, यह बताने के लिए कि ऋषियों ने बाल्या को ज्ञान दिया। और मैं आपसे कहना चाहता हूं, ऋषियों ने बाल्या को सेल्फ-सेंटर्ड बना दिया। ऋषियों ने बाल्या भील को ईगो-सेंटर्ड बना दिया। उनकी शिक्षा का जो फल हुआ वह कुल इतना कि बाल्या को यह दिखाई पड़ा कि मैं अकेला हूं और सब अकेले हैं। मुझे अपनी फिकर करनी है, उन्हें अपनी फिकर करनी है। हमारे बीच कोई सेतु नहीं, कोई संबंध नहीं, कोई ब्रिज नहीं। एक-एक आदमी एक बंद खिड़कियों वाला मकान है; दूसरे आदमी तक न कोई खिड़की खुलती है, न कोई द्वार खुलता है। दूसरे से संबंधित होने का उपाय नहीं है।
तो एक अजीब धारणा पैदा हुई कि एक-एक आदमी को अपनी फिकर करनी है। इस धारणा के अनुकूल जो समाज विकसित हुआ उसमें एक-एक आदमी अपनी फिकर कर रहा है। उसमें कोई आदमी किसी दूसरे की फिकर में नहीं है। और जिस देश में हर आदमी अपनी फिकर कर रहा हो, उस देश में सारे आदमी परेशानी में पड़ जाएं तो हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए। दूसरे की धारणा का कोई मूल्य नहीं है, मेरा मूल्य है! तू का कोई भी मूल्य नहीं है, क्योंकि तू से क्या संबंध है!
आप कहेंगे, लेकिन हमने तो अहिंसा की धारणा भी विकसित की, दान की धारणा भी विकसित की, सेवा की धारणा भी विकसित की।
तो मैं आपको कहना चाहता हूं कि आप बहुत हैरान होंगे इस बात को जान कर कि हिंदुस्तान ने अहिंसा की धारणा विकसित की, वह धारणा भी ईगो-सेंटर्ड है। इसीलिए हमने अहिंसा शब्द का प्रयोग किया, प्रेम शब्द का प्रयोग नहीं किया। अहिंसा का मतलब है--दूसरे की हिंसा नहीं करनी है। क्यों? इसलिए नहीं कि हिंसा से दूसरे को दुख पहुंचेगा, बल्कि इसलिए कि हिंसा से कर्म-बंध होगा और तुमको नर्क भोगना पड़ेगा। जो बेसिक एएफेसिस है वह इस बात पर नहीं है कि दूसरे को दुख पहुंचेगा, वह इस बात पर है कि दूसरे को दुख देने से बुरा कर्म-बंध होता है और आदमी को नर्क भोगना पड़ता है। तो अगर नर्क से बचना चाहते हो तो दूसरे को दुख मत देना। दूसरे को दुख न देने के पीछे भी धारणा यह है कि मैं कहीं आगे दुख में न पड़ जाऊं। अगर हमको यह पता चल जाए कि दूसरे को दुख देने से कोई नर्क नहीं होता तो हम दूसरे को दुख देने को राजी हो सकते हैं।
हम कहते हैं गरीब को दान दो, इसलिए नहीं कि गरीबी दुख है उसका, बल्कि इसलिए कि गरीब को दान देने से स्वर्ग मिलता है। एएफेसिस, हमारा जोर किस बात पर है? हमारा जोर इस बात पर है कि दान देने से स्वर्ग का रास्ता तय होता है। गरीब की गरीबी नहीं मिटानी है, बल्कि एक संन्यासी ने तो मुझे यहां तक कहा कि दुनिया में अगर गरीब मिट जाएंगे तो फिर दान कैसे हो सकेगा! और अगर दान नहीं हो सका तो मोक्ष का द्वार बंद! क्योंकि बिना दानी हुए कोई आदमी मोक्ष नहीं जा सकता। इसलिए मोक्ष जाने के लिए दुनिया में गरीबों को बनाए रखना बहुत जरूरी है। किसको दान देंगे आप? कौन दान लेगा आपसे? आपके स्वर्ग के रास्ते पर कुछ गरीब भिखारियों का खड़ा रहना हमेशा आवश्यक है कि आप दान दें और स्वर्ग जा सकें! नहीं, हमारे दान में दरिद्र पर दया नहीं है, हमारे दान में दरिद्र की दरिद्रता का भी शोषण है--दरिद्रता का भी! क्योंकि उसकी दरिद्रता भी साधन बनाई जा रही है कि मैं स्वर्ग जा सकूं।
यह एक सेल्फ-सेंटर्ड, यह बिल्कुल ही अहं-केंद्रित मनुष्य की हमने चेतना विकसित की है। इसलिए हमने प्रेम शब्द का उपयोग नहीं किया। प्रेम में दूसरा महत्वपूर्ण हो जाता है, अहिंसा में मैं ही महत्वपूर्ण हूं। अहिंसा नकारात्मक है, निगेटिव है। वह कहती है, हिंसा नहीं करना है। बस, इसके आगे नहीं बढ़ना है। प्रेम कहता है, हिंसा नहीं करनी है, यह तो ठीक है; लेकिन दूसरे को आनंदित करना है। प्रेम में दूसरा महत्वपूर्ण है, तू, दाऊ, महत्वपूर्ण है, और अहिंसा में मैं महत्वपूर्ण हूं। हमारा सारा धर्म सेल्फ-सेंटर्ड है। और जिस कौम का सारा मन अहंकार-केंद्रित हो... एक आदमी तप भी कर रहा है धूप में खड़ा होकर, तो आप यह मत समझना कि किसी और के लिए कर रहा है। अपने लिए ही! उसे स्वर्ग जाना है, उसे मोक्ष जीतना है। मुल्क भूखा मर रहा हो और एक आदमी अपने स्वर्ग जाने के उपाय कर रहा है। मुल्क दरिद्रता में सड़ रहा हो और एक आदमी अपने मोक्ष की आयोजना में लगा हुआ है। और हम सब इसको आदर दे रहे हैं। हम सब कह रहे हैं कि यह बहुत आदरणीय पुरुष है, क्योंकि यह मोक्ष जाने की कोशिश कर रहा है।
मैंने सुना है, जापान में पहली दफा बुद्ध के ग्रंथों का अनुवाद हुआ। तो जिस भिक्षु ने अनुवाद करवाने की कोशिश की वह गरीब भिक्षु था। एक हजार साल पहले की बात है। और बुद्ध के पूरे ग्रंथों का जापानी में अनुवाद करवाने में कम से कम दस हजार रुपये का खर्च था। तो उस भिक्षु ने गांव-गांव जाकर रुपये इकट्ठे किए। वह दस हजार रुपये इकट्ठे कर पाया था कि उस इलाके में, जहां वह रहता था, अकाल पड़ गया। तो उसने वे दस हजार रुपये उठा कर अकाल के काम में दे दिए। उसके साथियों ने कहा, यह तुम क्या कर रहे हो? पर वह कुछ भी नहीं बोला। उसने फिर रुपये मांगने शुरू कर दिए। फिर बेचारा दस साल में मुश्किल से दस हजार रुपये इकट्ठा कर पाया और बाढ़ आ गई। उसने वे दस हजार रुपये बाढ़ में दे दिए। अब वह सत्तर साल का हो गया था। उसके मित्रों ने कहा, तुम पागल हो गए हो! ग्रंथों का अनुवाद कब होगा? लेकिन वह हंसा और उसने फिर भीख मांगनी शुरू कर दी। जब वह नब्बे साल का था तब फिर दस हजार रुपये इकट्ठा कर पाया। संयोग की बात कि न कोई अकाल पड़ा, न कोई बाढ़ आई, तो वह ग्रंथ अनुवाद हुआ और छपा। ग्रंथ में उसने लिखाः थर्ड एडीशन। ग्रंथ में उसने लिखाः तीसरा संस्करण। दो संस्करण पहले निकल चुके, लेकिन वे अदृश्य हैं--उसमें उसने लिखा। एक उस समय निकला जब अकाल पड़ा था, एक उस समय निकला जब बाढ़ आई थी, अब यह तीसरा निकल रहा है। और वे दो बहुत अदभुत थे, उनके मुकाबले यह कुछ भी नहीं है।
यह धारणा भारत में विकसित नहीं हो सकी। और यह जब तक विकसित न हो तब तक कोई मुल्क नैतिक नहीं हो सकता, न धार्मिक हो सकता है। भारत का धर्म भी अहंकारग्रस्त है। एक नई दृष्टि इस देश को जरूरी है--जो दूसरा भी मूल्यवान है, मुझसे ज्यादा मूल्यवान। चारों तरफ जो जीवन है वह मुझसे बहुत ज्यादा मूल्यवान है और अगर उस जीवन के लिए मैं मिट भी जाऊं तो भी मैं काम आ गया हूं। वह जो चारों तरफ जीवन है, उस जीवन की सेवा से बड़ी कोई प्रार्थना नहीं है, उस जीवन को प्रेम देने से बड़ा कोई परमात्मा नहीं है। यह तीसरी धारणा विकसित करनी जरूरी है।
ये तीन सूत्र मैंने आपसे कहे। इनकी वजह से भारत दुर्भाग्य से भर गया है। और उन तीनों सूत्रों को कैसे मिटाया जा सकता है वह भी मैंने आपसे कहा।
अगर इन तीन सूत्रों पर हमारी जीवन-चिंतना की धारा को बदला जा सके तो कोई कारण नहीं है कि हम अपने देश की सोई हुई प्रतिभा को वापस जगा दें, सोई हुई आत्मा फिर से उठ जाए, हम उत्साह से भर जाएं, हम जीवन की उत्फुल्लता से भर जाएं, हम कुछ करने की तीव्र प्रेरणा से भर जाएं, भविष्य निर्माण करने के सपने हमारी आंखों में निवास करने लगें। और हम समाज, और सब, और वह जो विराट जीवन है उस विराट जीवन के एक अंग... । और इसकी फिकर छोड़ दें बहुत कि मेरा मोक्ष! क्योंकि मेरा कोई मोक्ष नहीं होता, जब मैं मिट जाता है तब आदमी मुक्त होता है। और जो आदमी जितने विराटतर जीवन के चरणों में अपने मैं को समर्पित कर देता है वह उतना ही मिट जाता है और मुक्त हो जाता है। काश! यह हो सके तो भारत का सौभाग्य उदय हो सकता है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।  

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