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रविवार, 25 नवंबर 2018

योग: नये आयाम-(प्रवचन-03) 

तीसरा प्रवचन--प्रेम का केंद्र

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक सूत्र मैंने आपसे कहाः जीवन ऊर्जा है और ऊर्जा के दो आयाम हैं--अस्तित्व और अनस्तित्व। और फिर दूसरे सूत्र में कहा कि अस्तित्व के भी दो आयाम हैं--अचेतन और चेतन। सातवें सूत्र में चेतन के भी दो आयाम हैं--स्व चेतन, सेल्फ कांशस और स्व अचेतन, सेल्फ अनकांशस। ऐसी चेतना जिसे पता है अपने होने का और ऐसी चेतना जिसे पता नहीं है अपने होने का।
जीवन को यदि हम एक विराट वृक्ष की तरह समझें, तो जीवन-ऊर्जा एक है--वृक्ष की पींड़। फिर दो शाखाएं टूट जाती हैं--अस्तित्व और अनस्तित्व की, एक्झिस्टेंस और नॉन-एक्झिस्टेंस की। अनस्तित्व को हमने छोड़ दिया, उसकी बात नहीं की, क्योंकि उसका योग से कोई संबंध नहीं है। फिर अस्तित्व की शाखा भी दो हिस्सों में टूट जाती है--चेतन और अचेतन। अचेतन की शाखा को हमने अभी चर्चा के बाहर छोड़ दिया, उससे भी योग का कोई संबंध नहीं है। फिर चेतन की शाखा भी दो हिस्सों में टूट जाती है--स्व चेतन और स्व अचेतन।
सातवें सूत्र में इस भेद को समझने की कोशिश सबसे ज्यादा उपयोगी है। अब तक जो मैंने कहा है, वह आज जो सातवां सूत्र आपसे कहूंगा, उसके समझने के लिए भूमिका थी। सातवें सूत्र से योग की साधना प्रक्रिया शुरू होती है। इसलिए इस सूत्र को ठीक से समझ लेना उपयोगी है।


पौधे हैं, पक्षी हैं, पशु हैं। वे सब चेतन हैं, लेकिन स्वयं की चेतना उन्हें नहीं है। चेतन हैं, फिर भी अचेतन हैं। हैं, जीवन है, चेतना है, लेकिन स्वयं के होने का बोध नहीं है। आदमी है, वह भी वैसे ही है, जैसे पशु हैं, पक्षी हैं, पौधे हैं, लेकिन उसे स्वयं के होने का बोध है। उसकी चेतना में एक नया आयाम और जुड़ जाता है--वह स्व चेतन भी है। उसे यह भी पता है कि मैं चेतन हूं। अकेला चेतन होना काफी नहीं है मनुष्य होने के लिए। मनुष्य होने की यह भी शर्त है कि मुझे यह भी पता है कि मैं चेतन हूं। इतना ही फर्क मनुष्य और पशु में है। पशु भी चेतन है, लेकिन स्वयं बोध नहीं उसे कि मैं चेतन हूं। मनुष्य को यह बोध है कि मैं स्वयं चेतन हूं।
लेकिन मनुष्य भी चौबीस घंटे इस बोध में नहीं होता है। मां के पेट में उसे कोई बोध नहीं होता कि मैं हूं। अगर आप स्मरण करेंगे अतीत का, तो आप ज्यादा से ज्यादा पांच वर्ष या चार वर्ष की उम्र तक की याद कर पाएंगे, उसके बाद अंधेरा छा जाएगा। चार वर्ष के जब आप थे, उसके पीछे फिर अंधेरा छा जाता है। चार वर्ष की उम्र तक आप थे तो जरूर, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि स्व चेतन नहीं थे। इसलिए छोटे बच्चे और पशुओं में एक सी सरलता दिखाई पड़ती है। तनाव भी नहीं है। छोटे बच्चे और पक्षियों और पौधों में एक सी सहजता दिखाई पड़ती है। चार वर्ष तक शायद हमें भी बोध नहीं था कि हम हैं।
फिर रोज रात आठ घंटे फिर बेहोशी में चले जाते हैं। अगर एक आदमी साठ साल जीए तो बीस साल सोता है। बीस साल जिंदगी के सिर्फ बेहोशी में ही होते हैं। वहां भी आप चेतन नहीं होते हैं। यह जान कर आपको हैरानी होगी कि कितनी बार सो चुके हैं आप, लेकिन आप बता सकते हैं कि नींद किस भांति आती है? कब आती है? क्या है?
नहीं बता सकते। जब तक जागते रहते हैं रात में तब तक तो नींद आई नहीं होती और जब नींद आ गई होती है तब आप बेहोश हो गए होते हैं। नींद सदा आपको बेहोश ही पाती है। सुबह जब नींद जाती है तब तक आप बेहोश होते हैं, जब चली जाती है तब होश आता है। इसलिए जो आप कहते हैं कि रात मैं आठ घंटे सोया, इसका यह मतलब नहीं होता कि आपको पता है कि आप आठ घंटे सोए। इसका कुल इतना मतलब होता है कि आपके रात जागने के आखिरी क्षण और सुबह जागने के आखिरी क्षण में आठ घंटे का फासला है, गैप है। उससे आप हिसाब रखते हैं। अन्यथा नींद में आप फिर पशुओं, पौधों के जगत में वापस चले गए।
शेष दिन में जब आपको लगता है कि आप होश से भरे हुए हैं, तब भी आप होश से भरे हुए कभी-कभी होते हैं। रास्ते पर किसी दिन खड़े हो जाएं और राह चलते लोगों को देखें। तो आपको ऐसा लगेगा, उसमें बहुत से लोग नींद में चले जा रहे हैं। कोई किसी से बातें कर रहा है--उससे जो कि साथ है ही नहीं! कोई हाथ हिला रहा है! कोई होंठ हिला रहा है! वे किससे बातें कर रहे हैं? वे किसी सपने में हैं? जागे हैं? साथ तो कोई दिखाई नहीं पड़ता। यह चर्चा किससे चल रही है?
अगर अपने प्रति भी ख्याल रखेंगे तो आप पाएंगे कि जब आप जागे होते हैं तब भी पूरे समय होश में नहीं होते, होश कभी-कभी ही आता है। जैसे कोई आपकी छाती पर एकदम से छुरा रख दे, तो उस क्षण में आप में सेल्फ अवेयरनेस होती है, उस क्षण में आप होश से भर जाते हैं, अन्यथा नहीं।
एक दो-तीन उदाहरण से समझने की कोशिश करें। ये दोनों मकानों की छतें हैं। इन दोनों मकानों की छतों पर एक फीट चौड़ी लकड़ी की पट्टी रख दी जाए और आपसे कहा जाए कि चल कर पार कर जाएं! तो आप में से शायद ही कोई चलने को राजी होगा। उसी पट्टी को हम जमीन पर रख दें और आपसे कहें कि इसको चल कर पार हो जाएं! आप में बूढ़े, बच्चे, स्त्रियां, सभी पार हो जाएंगे और शायद ही कोई गिरे। पट्टी वही है, आप भी वही हैं। दो छतों के ऊपर रख दी है, आप चलने से इनकार क्यों कर रहे हैं? और जब जमीन पर इतने लोग चले और एक भी नहीं गिरा, तो अभी भी गिरने की संभावना कहां है? लेकिन दिक्कत क्या आ रही है?
कठिनाई बहुत दूसरी है। कठिनाई यह है कि जमीन पर चलते वक्त होश में होने की कोई जरूरत नहीं है, आप बेहोश चल सकते हैं। लेकिन उतनी बड़ी छत पार करने में होश रखना पड़ेगा। और होश तो अपने पास नहीं है, इसलिए बेहोशी में अगर गिर गए तो जान गई। जमीन पर बेहोशी में गिरे भी तो कहीं जान जाने वाली नहीं है।
खतरे के क्षण में कभी-कभी होश होता है, बाकी तौर पर हम सोए होते हैं। जब मौत निकट होती है तो होश होता है। जब खतरा करीब होता है, डेंजर करीब होता है, तो होश होता है। ऐसे हम होश में नहीं होते। इसलिए हम अपनी आदतें नहीं बदलना चाहते, क्योंकि आदतें बदलें तो होश लाना पड़ता है। पुरानी आदतें बेहोशी से चल जाती हैं।
एक आदमी को देखें, वह किस भांति सिगरेट खीसे से निकालता है, मुंह से लगाता है, माचिस जलाता है। अगर गौर से देखें तो आप पाएंगे कि जैसे वह बिल्कुल बेहोश, नींद में ये सब काम कर रहा है--कब उसने सिगरेट निकाल ली है, कब उसने माचिस जला ली है, कब उसने धुआं निकालना शुरू कर दिया है।
अगर दुनिया बहुत होश से भरी हो तो इतने नासमझ आदमी खोजने बहुत मुश्किल होंगे, जो कि धुएं को भीतर करने और बाहर करने का काम घंटों करते हों। सिर्फ धुएं को बाहर और भीतर करने के काम को घंटों करने वाले आदमी खोजना बहुत मुश्किल हो जाएगा। और किसी से आप कहेंगे भी तो वह कहेगा, मैं कोई पागल तो नहीं हूं जो धुएं को बाहर और भीतर करूं!
न केवल धुएं को बाहर और भीतर किया जा रहा है, सारी दुनिया चिल्लाती है, समझाती है कि नुकसान है, उम्र कम होगी, बीमारी होगी। बेहोश कान कुछ सुनते ही नहीं।
अमेरिका ने पीछे तय किया कि हर सिगरेट के पैकेट पर लाल स्याही में बड़े अक्षरों में लिखा होना चाहिएः दिस इ.ज हार्मफुल टु हेल्थ, यह हानिकर है स्वास्थ्य के लिए। सिगरेट के दुकानदारों ने, मालिकों ने, फैक्ट्री के बनाने वालों ने बड़ा शोरगुल मचाया कि हमें करोड़ों का नुकसान हो जाएगा।
जब मैंने यह सब पढ़ा तो मैंने कहा कि उन सिगरेट बनाने वालों को पता नहीं है कि लोग इतने बेहोश हैं कि लाल स्याही से लिखा हुआ कितने दिन तक पढ़ेंगे?
और यही हुआ। छह महीने तक सिगरेट की बिक्री कम हुई, छह महीने के बाद फिर उतनी की उतनी हो गई। अब वह लाल स्याही से लिखा हुआ है पैकेट पर, मगर पढ़ने वाला भी तो मौजूद होना चाहिए। एक-दो दफे पढ़ लिया, फिर सो गए। अब वह सिगरेट का पैकेट आता है, उसमें सब लिखा है, कोई पढ़ता ही नहीं है उसको। सिगरेट की बिक्री फिर अपनी जगह आ गई।
क्या लाल स्याही से किसी चीज पर लिखा हो कि यह जहर है, पीना खतरनाक है, होशपूर्वक आदमी कोई पीएगा? मुश्किल है। सब चीजों पर साफ है कि जहर क्या है। सब चीजों पर साफ है कि बुरा क्या है। कितनी दफे आपने तय किया है कि अब क्रोध नहीं करेंगे! कितनी दफे तय किया है और कितनी दफे पूरा हुआ? एक भी बार पूरा नहीं हुआ। नहीं तो फिर दुबारा तय करने की जरूरत न पड़ती।
मैं एक घर में मेहमान था। उस घर के बूढ़े ने मुझे कहा कि मैंने ब्रह्मचर्य का तीन बार व्रत लिया है। मैं बहुत हैरान हुआ। ब्रह्मचर्य का और तीन बार व्रत लिया कैसे होगा? मैंने उनसे पूछा कि फिर चौथी बार क्यों नहीं लिया? उस बूढ़े आदमी ने कहा कि तीन बार लेकर मैंने अनुभव किया कि यह पूरा नहीं हो सकता है, इसलिए चौथी बार नहीं लिया। ऐसा नहीं कि तीसरी बार पूरा हो गया।
रोज आप क्रोध करते हैं, रोज कसम खाते हैं। फिर कल क्या होता है? जब क्रोध आता है तो कसम का भी पता नहीं होता, क्योंकि आपका ही पता नहीं होता कि आप कहां हैं! जिसने कसम खाई थी, वह सोया हुआ है।
सांझ को एक आदमी निर्णय करके सोता है कि सुबह चार बजे उठना है, चाहे कुछ भी हो जाए अब तो कल से उठना ही है। सुबह वही आदमी चार बजे बिस्तर में करवट लेकर--अलार्म बजता रहता है--और कहता है, छोड़ो भी, आज नहीं कल देखेंगे। सात बजे उठ कर वही आदमी फिर पछताता है और कहता है, यह कैसे हुआ? मैंने चार बजे उठने की पक्की कसम खाई थी।
लेकिन जिसने कसम खाई थी, वह सोया हुआ है। सुबह सात बजे फिर कसम खा लेंगे, कल चार बजे फिर धोखा होगा। जिंदगी भर ऐसे ही नींद में बीतती है। अगर हम अपने कृत्यों को देखें तो हम यह न कह सकेंगे कि ये हमने किए हैं। क्योंकि यदि हमने किए होते तो इनमें से बहुत से तो किए ही नहीं जा सकते थे।
दुनिया भर की अदालतों को पता है कि सैकड़ों अपराधियों ने अदालतों में यह कहा है कि हमने यह खून नहीं किया, हमने यह चोरी नहीं की है। लेकिन मजिस्ट्रेट झूठा मानता है, अदालत झूठा मानती है, क्योंकि गवाह हैं, प्रमाण हैं, चोरी हुई है। लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि वे अपराधी झूठ नहीं कह रहे हैं। जब उन्होंने चोरी की, तब वे होश में नहीं थे। जब उन्होंने हत्या की, तब वे होश में नहीं थे। होशपूर्वक हत्या करना बहुत मुश्किल है। होशपूर्वक चोरी करना बहुत मुश्किल है।
मेरी दृष्टि में और योग की दृष्टि में, पुण्य मैं उसे कहता हूं जिस काम को होशपूर्वक किया जा सके। पाप उसे कहता हूं जिसे करने की अनिवार्य शर्त बेहोशी है। पाप का मतलब है, ऐसा काम जिसे बिना बेहोश हुए नहीं किया जा सकता। बेहोश होंगे तो ही कर सकते हैं। अनिवार्य शर्त है बेहोशी होना।
इसलिए जब हम कभी कहते हैं किसी आदमी से कि उस आदमी का काम पशुओं जैसा है, तो इसका यह मतलब नहीं होता कि पशु ऐसे काम करते हैं। आदमियों जैसे काम कोई पशु नहीं करते। नहीं लेकिन पशुओं जैसे का मतलब बहुत दूसरा है। उसका मतलब यह है कि जिस भांति पशु सेल्फ अनकांशस हैं, जैसे उन्हें स्वयं का पता नहीं, ऐसे ही इस आदमी को भी स्वयं का पता नहीं है। यह काम पशुओं जैसा इस अर्थ में है। अन्यथा किसी कुत्ते ने हिटलर जैसा काम नहीं किया और न किसी सांप ने चंगीज खां का काम किया है। किस पशु ने ऐसी बुराइयां की हैं जैसी आदमी नाम के पशु ने की हैं? नहीं, किसी पशु ने नहीं की हैं। पशु जैसे का सिर्फ एक ही अर्थ है कि मानसिक तल पर यह आदमी स्व को भूल कर यह काम कर रहा है, बेहोश है, यह होश में नहीं है।
इसलिए छोटे बच्चों को, सात साल के नीचे तक के बच्चों को अदालत अपराधी दंड देने के लिए राजी नहीं होती, क्योंकि हम मानते हैं कि बच्चे को अभी होश नहीं आया। लेकिन सत्तर साल के बूढ़े को आ जाता है, इसके लिए अदालत पक्की गारंटी दे सकती है? सत्तर साल के बूढ़े को भी नहीं आ जाता, हम मान कर चलते हैं कि आ गया है। क्योंकि अगर हम सत्तर साल के बूढ़े आदमी के भी कृत्य देखें तो पता चलेगा, नींद में चल रहे हैं, बेहोशी में चल रहे हैं।
सत्तर साल की जिंदगी में अगर कोई आदमी सात मिनट के लिए भी होश से भर जाता हो तो यह काफी बड़ी मात्रा है। सात मिनट भी अगर किसी आदमी की सत्तर साल की जिंदगी में कांशसनेस के क्षण हों, तो ये पर्याप्त हैं उस आदमी को महावीर, बुद्ध और कृष्ण और क्राइस्ट बना देने के लिए।
लेकिन इतने क्षण भी नहीं होते। हम जीए चले जाते हैं बेहोश!
लेकिन मैंने कहा कि आदमी शुरू ही उस दिन होता है, जिस दिन सेल्फ कांशसनेस, स्व चेतना शुरू होती है। तो हम सिर्फ आदमी की संभावना हैं, आदमी नहीं। हम सिर्फ आदमी होने का अवसर हैं, आदमी नहीं। हम सिर्फ बीज रूप से संभव हैं कि हम स्व चेतन हो सकते हैं, लेकिन हो नहीं गए हैं।
इसीलिए हमारी कठिनाई रही सदा कि बुद्ध या महावीर जैसा आदमी हो, तो हम उनको आदमी कैसे कहें? तो हम उनको भगवान कहते हैं। भगवान कहने का कुल कारण इतना है कि हम अपने को आदमी कहते हैं, जो कि हम आदमी ठीक अर्थों में नहीं हैं। तो अब उनको हम कहां रखें? अगर आदमी ही कहें तो हमारे साथ रखना पड़े। हम एक नई कैटेगरी खोजते हैं भगवान की। अच्छा यह होता कि उनको हम आदमी कहें और अपने को सब-ह्यूमन, उप-आदमी कहें। अभी आदमी होने की तरफ हैं, अभी आदमी हो नहीं गए। यही उचित है। यही सही है।
लेकिन हमारी जिंदगी में भी कभी-कभी एकाध क्षण को हम चेतन हो जाते हैं। वे क्षण ही हमारी जिंदगी के आनंद के क्षण हैं। जिन क्षणों में हम स्व चेतन हो जाते हैं, वे क्षण ही हमारी जिंदगी के आनंद के क्षण हैं। क्योंकि वे क्षण ही हमें हमारे स्वरूप की एक झलक--एक बिजली कौंध जाती हो जैसे--ऐसी झलक दिखा जाते हैं।
योग चेतना को इन दो हिस्सों में बांटता है--स्व चेतन और स्व अचेतन। जो अचेतन हैं स्व की दृष्टि से, वे तो स्व अचेतन हैं ही। हम जिन्हें कि स्व चेतन होना चाहिए, हम भी बहुत हिस्सों में पशुओं के साथ हैं, बहुत हिस्सों में पौधों के साथ हैं, बहुत हिस्सों में पत्थरों के साथ हैं। थोड़ा सा हिस्सा हमारा आदमी हुआ है, बहुत थोड़ा सा हिस्सा। जैसे कि बर्फ के एक टुकड़े को हम पानी में डाल दें तो जरा सा हिस्सा बाहर निकला रहता है, दसवां हिस्सा। और नौ हिस्से नीचे डूबे रहते हैं। हम ऐसे ही हैं। हमारे नौ हिस्से तो नीचे डूबे हैं अभी अंधेरे में, एक हिस्सा थोड़ा सा सतह के ऊपर आकर आदमी हुआ है।
इसलिए आदमी की बेचैनी बहुत ज्यादा है, पशु बेचैन नहीं है। कोई पशु आत्मघात नहीं करता, स्युसाइड नहीं करता। जिस दिन कोई पशु स्युसाइड कर ले, उस दिन समझ लेना कि अब बहुत दिन तक वह पशु पशु नहीं रहेगा, उसने आदमी होना शुरू कर दिया। कोई पशु आत्महत्या नहीं करता। इतनी चिंता ही नहीं पैदा होती कि आत्महत्या की जा सके। कोई पशु हंसता नहीं, आदमी को छोड़ कर। अगर रास्ते पर भैंस हंसती हुई मिल जाए तो आप फिर दुबारा उस रास्ते से नहीं निकलेंगे। कोई पशु हंसता नहीं। बात क्या है?
कोई पशु इतना दुखी नहीं है कि हंस कर अपने दुख को भुलाए। हंसी दुख को भुलाने की व्यवस्था है।
इसलिए दुनिया में जितना दुख बढ़ता जाता है, उतना हमें मनोरंजन के साधन खोजने पड़ते हैं। सिनेमा है, टेलीविजन है, रेडियो है, नाच है, गीत है। और वे सब चुक जाते हैं और आदमी कहता है, और नया लाओ, क्योंकि अब बहुत ऊब गए इनसे।
इस समय सारी दुनिया की पचास प्रतिशत ताकत मनुष्य को मनोरंजन के साधन देने में लग रही है। और इस वक्त जो आदमी को मनोरंजन दे पाता है वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गया है, जैसे अभिनेता। उनके महत्वपूर्ण होने का और कोई कारण नहीं है। वे आपको थोड़ी देर तक मनोरंजन दे पाते हैं। इतने दुखी हैं आप कि कोई आपको थोड़ा सा भी मनोरंजन दे पाए तो महत्वपूर्ण हो जाता है।
कोई पशु हंसता नहीं, क्योंकि कोई पशु इतने दुख में नहीं है कि हंसी की जरूरत हो। हंसी जो है वह सेफ्टी वाल्व है। जैसे कि कोई भी भाप का यंत्र हो तो उसमें सेफ्टी वाल्व लगाना होता है, कि भाप ज्यादा हो जाए तो वाल्व टूट जाए और भाप बाहर निकल जाए, अन्यथा सबकी जान खतरे में हो जाएगी। तो हंसी जो है, आदमी का सेफ्टी वाल्व है। जब भीतर बहुत तकलीफ इकट्ठी हो जाए तो उसके रिलीफ के लिए, उससे मुक्त होने के लिए हंसी है। इसलिए कोई पशु हंसता नहीं है, क्योंकि इतना तनाव, इतनी एंग्जाइटी, इतनी चिंता नहीं है।
आदमी की चिंता क्या है?
आदमी की चिंता यह है कि उसका एक हिस्सा तो स्व चेतन हो गया है और बाकी बड़ा हिस्सा अचेतना में पड़ा हुआ है। आदमी की तकलीफ वही है जो नरसिंह अवतार की तकलीफ रही होगी, कि आधा हिस्सा जानवर का है और आधा हिस्सा आदमी का हो गया है। नरसिंह जिस मुसीबत में पड़े होंगे, उसी मुसीबत में हम सब हैं।
तो लोग मुझसे पूछते हैं कि नरसिंह अवतार हो कैसे सकता है?
मैं उनसे कहता हूं कि सभी आदमी नरसिंह के अवतार हैं। और आधा ही आधा बंटवारा होता तो भी एक बैलेंस, एक संतुलन हो जाता। जरा सी खोपड़ी का बहुत छोटा सा हिस्सा--पूरी खोपड़ी भी नहीं--आदमी हो गई है, बाकी सारा का सारा हिस्सा पशु का है। सारी जिंदगी पशु की है, अचेतन की है। जरा सा कोना बुद्धि का--पूरा मन भी नहीं--बुद्धि का जरा सा कोना! जैसा बड़ा घर अंधकार है, बस एक दीया एक कोने में जल रहा है, उसी कोने के दीये में हम जिंदगी बिता रहे हैं। वह भी पूरे वक्त नहीं जलता, वह भी नींद में बुझ जाता है। और अगर नहीं बुझता किन्हीं का, तो आदमी शराब पीकर बुझा लेता है, हजार तरह के नशे करके बुझा लेता है।
शराब पीने में इसीलिए राहत मिलती है कि आपका जो हिस्सा थोड़ा सा बेचैनी डालता था, आदमी हो गया था, वह भी नीचे गिर जाता है। बर्फ का पूरा टुकड़ा पानी में डूब जाता है। अब आप भी पशु की दुनिया में हो गए, अब कोई चिंता नहीं है।
इसलिए नींद राहत देती है, क्योंकि नींद में फिर आप शत प्रतिशत नीचे डूब गए। इसलिए सुबह आप ताजे उठते हैं। अब आप पशु की दुनिया से फिर वापस लौट रहे हैं, जहां कोई चिंता न थी, जहां कोई परेशानी न थी। फिर आदमी की दुनिया शुरू होती है। चौबीस घंटे यह हो रहा है।
तो जब मैं कहता हूं कि आदमी स्व अचेतन है, तो मेरा मतलब इतना है कि स्व अचेतन होने की संभावना है। आदमी के साथ थोड़ा सा हिस्सा स्व चेतन हुआ है। योग कहता है, अगर पूरा स्व चेतन हो जाए तो आदमी ध्यान को उपलब्ध हो जाता है। अगर उसके सब अंधेरे हिस्से प्रकाश से भर जाएं तो आदमी समाधि को उपलब्ध हो जाता है।
स्व ज्ञान, सेल्फ नालेज तभी होगी, जब मेरा पूरा का पूरा भवन मेरे जीवन का प्रकाश से भर जाए। यह एक छोटी सी दीये की बत्ती से काम नहीं चलेगा। यह पूरे घर में सूर्य का प्रकाश चाहिए। इसका कोना-कोना उजाले से भर जाए। अन्यथा मैं सदा ही टूटा रहूंगा दो हिस्सों में। वह जो हिस्सा है उजाले से भरा, वह निर्णय करेगा कि मैं घर में सांप न आने दूंगा। लेकिन उस अंधेरे के बाबत क्या निर्णय करेगा, वहां सांप निवास कर ही रहे हैं! और थोड़ी-बहुत देर में सांप सरक कर जब रोशनी में आ जाएंगे दीये की, तब हम चिल्ला कर कहेंगे कि मेरा व्रत टूट गया! मैंने तो कसम खाई थी कि घर में सांप न आने देंगे!
जब आप कसम खाते हैं कि मैं अब क्रोध न करूंगा, तो आप उस छोटे से हिस्से में कसम खा रहे हैं जो प्रकाशित है; और आप बाकी अंधेरे नौ हिस्सों के बाबत फिकर ही छोड़े बैठे हैं--जो अंधेरे में डूबे हैं, जहां क्रोध अभी तैयार हो रहा है, ढल रहा है। जब आप कसम खा रहे हैं तब आपके भीतर किसी कोने में क्रोध तैयार हो रहा है। और आपका पूरा भीतरी हिस्सा हैरान होता होगा कि आप क्या कसमें खा रहे हैं!
यह ऐसा ही है जैसे घर के बाहर बैठा हुआ चपरासी, जिसे पूरे घर का कोई भी पता नहीं है, भवन के संबंध में निर्णय लेता रहे। उसे कुछ भी पता नहीं कि भीतर क्या हो रहा है। अंधेरे हिस्सों में सब तैयारियां चल रही हैं।
आपने ब्रह्मचर्य की कसम खा ली है, लेकिन आपके सेक्स सेंटर सब अंधेरे में डूबे हुए हैं, वहां तक आपकी बुद्धि की कोई रोशनी नहीं गई है। तो आपने खोपड़ी के एक कोने में तय कर लिया कि ब्रह्मचर्य की कसम खाता हूं, लेकिन आपके सेक्स केंद्र को पता ही नहीं चलता इस कसम का कि आपने कोई कसम खाई है। वे अपना काम जारी किए चले जाते हैं। वहां से सेक्स उठेगा, वह आपकी बुद्धि-वुद्धि को, सबको दबा डालेगा; क्योंकि वह नौ गुना ताकतवर है और बुद्धि सिर्फ एक हिस्सा है। तब आप रोएंगे, चिल्लाएंगे, फिर कसम खाएंगे। लेकिन कभी न समझ पाएंगे कि कसमें बेकार हैं। असली सवाल यह नहीं है कि आप इस छोटे से हिस्से से कसमें खाएं, असली सवाल यह है कि इस छोटे हिस्से को बड़ा करें और पूरा व्यक्तित्व आपका चेतन हो जाए। फिर कसम खाने की जरूरत न होगी।
इसलिए मैं आपसे कहता हूं, योग किसी को कसम खाने के लिए नहीं कहता, व्रत के लिए नहीं कहता। सिर्फ अज्ञानियों के सिवाय दुनिया में व्रत किसी ने भी नहीं लिए हैं। व्रत का कोई अर्थ ही नहीं है। असली सवाल दूसरा है, असली सवाल यह है कि आपका पूरा का पूरा व्यक्तित्व रोशन हो जाए, फिर व्रत की जरूरत न पड़ेगी।
लेकिन हम व्रत लिए चले जाएंगे! किसके खिलाफ लेते हैं व्रत? अपने ही अंधेरे हिस्से के खिलाफ कसमें खाते हैं। और उस अंधेरे हिस्से में आपकी कोई भी गति नहीं है, आपकी कोई पहुंच नहीं है। आपके सारे निर्णय खोपड़ी के एक कोने में बैठे रहते हैं। पूरी खोपड़ी भी रोशन नहीं है।
अभी वैज्ञानिक इस बात से राजी होते हैं। योग की यह दृष्टि कि अभी मनुष्य का पूरा मस्तिष्क भी चेतन नहीं है, अब विज्ञान इसको सहमति देता है। इसलिए मैं बार-बार दोहरा रहा हूं कि योग विज्ञान है, क्योंकि प्रतिदिन विज्ञान जितनी खोजें करता है, उससे योग की अनुभूतियां और योग की अंतर्दृष्टियां प्रमाणित होती चली जाती हैं।
अब वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी की आधी से ज्यादा खोपड़ी बिल्कुल निष्क्रिय पड़ी है, उसमें कोई काम ही नहीं होता, वह बंद पड़ी है। यह भी सबकी नहीं, यह भी जो बुद्धि से बहुत काम लेते हैं उनकी बात है। जो बुद्धि से बहुत कम काम लेते हैं, उनका तो तीन चौथाई मस्तिष्क बंद पड़ा रहता है।
और जितना हिस्सा काम करता है, एक चौथाई या आधा--बड़े से बड़े प्रतिभाशाली आदमी का भी आधा मस्तिष्क काम करता है और आधा बंद पड़ा है; साधारण मनुष्य का तो आधा भी काम नहीं करता, आधे का भी कोई हिस्सा काम करता है--और यह जितना हिस्सा काम करता है, चौथाई या आधा, यह भी अपनी कैपेसिटी, अपनी क्षमता का पूरा काम नहीं करता। बड़े से बड़ा बुद्धिमान आदमी भी पंद्रह प्रतिशत अपनी क्षमता का उपयोग करता है। बाकी पचासी प्रतिशत क्षमता बेकार पड़ी रह जाती है। वह आधे को छोड़ दें, उसकी बात नहीं कर रहे हैं। जितना हिस्सा काम कर रहा है, उसकी सौ प्रतिशत क्षमता अगर मानें, तो हम पंद्रह प्रतिशत क्षमता का जिंदगी में उपयोग करते हैं।
अब इसके लिए तो वैज्ञानिक आंकड़े, प्रमाण, खोजबीन, सब सहयोगी हो गए हैं कि आदमी का इतना छोटा सा हिस्सा काम करता है। और यह हिस्सा भी आमतौर से अठारह साल के बाद शांत रहता है, फिर काम-वाम नहीं करता। इसलिए आपके पास करीब-करीब उतनी ही बुद्धि होती है, जितनी अठारह साल तक आपने विकसित की थी। इस भ्रम में आप मत रहना कि अस्सी साल के हो गए हैं तो बुद्धि आपके पास ज्यादा हो गई होगी। बहुत कम लोग हैं जो अठारह साल के बाद अपनी बुद्धि को विकसित करते हैं। अधिक लोग तो अठारह साल तक जो हो गया, उसी बुद्धि के द्वारा अनुभवों को इकट्ठा करते चले जाते हैं। उनके अनुभव बढ़ जाते हैं, बुद्धि नहीं बढ़ती। अनुभव का संग्रह बढ़ जाता है, बुद्धि नहीं बढ़ती। वे उतनी ही बुद्धि में अनुभव किए चले जाते हैं। अनुभव बढ़ जाते हैं। तो अस्सी साल के आदमी के पास अनुभव बहुत होते हैं, लेकिन बुद्धि उतनी ही होती है जितनी अठारह साल के आदमी के पास होती है।
पिछले महायुद्ध में बड़ी हैरानी का अनुभव अमेरिका में हुआ। अमेरिका, जो कि कहना चाहिए सर्वाधिक शिक्षित, विकसित, बुद्धि का सर्वाधिक उपयोग करने वाला मुल्क है आज पृथ्वी पर। पिछले महायुद्ध में सैनिकों को बुद्धि का नाप करके भर्ती करने का उन्होंने इंतजाम किया। तो बड़ी हैरानी हुई! लाखों सैनिकों की भर्ती ने जो नतीजे दिए वे यह हैं कि उन लाखों सैनिकों में तेरह साल से ऊपर की उम्र की बुद्धि नहीं थी। यह एवरेज--तेरह साल की बुद्धि! तेरह साल पर सब रुक गया जैसे।
योग बहुत पूर्व से इस बात को कहता रहा है कि मनुष्य का पूरा मन भी रोशन नहीं है। अगर मनुष्य का पूरा मन रोशन हो जाए तो अदभुत घटनाएं घटनी शुरू हो जाती हैं। जिनको आप सिद्धियां कहते हैं, योग उन्हें मन के उन हिस्सों के काम कहता है जो निष्क्रिय हैं, और कुछ भी नहीं।
इसके लिए भी अब वैज्ञानिक प्रमाण धीरे-धीरे उपलब्ध होने शुरू हो गए हैं। अमेरिका में अभी एक आदमी है टेड सीरिओ। इसके मस्तिष्क के उस हिस्से का कुछ हिस्सा सक्रिय है जो आमतौर से निष्क्रिय होता है।
अब इसकी जांच के उपाय हैं कि मस्तिष्क का कौन सा हिस्सा काम कर रहा है। और मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्से अलग-अलग काम करते हैं। जब आप पढ़ते हैं तो मस्तिष्क का दूसरा हिस्सा काम करता है। जब आप रोते हैं तो दूसरा हिस्सा काम करता है। जब आप हंसते हैं तो दूसरा हिस्सा काम करता है। जब आप गीत गाते हैं तो दूसरा हिस्सा काम करता है। और जब आप वीणा बजाते हैं तो दूसरा और जब पेंटिंग करते हैं तो दूसरा। यहां तक भी कि अगर आप हिंदी भाषा बोलते हैं तो दूसरा हिस्सा काम करता है और अगर आप मराठी भी बोलते हैं साथ में तो आपके मस्तिष्क का दूसरा हिस्सा काम करता है। अंग्रेजी भी जानते हैं तो तीसरा हिस्सा काम करता है। मस्तिष्क के लाखों केंद्र हैं, जो अलग-अलग काम करते हैं।
इस टेड सीरिओ के साथ कुछ ऐसे हिस्से काम कर रहे हैं, जो साधारणतः काम नहीं करते। यह आंख बंद कर ले अमेरिका में, और इसे कहा जाए कि यहां पूना में आज रात संघवी फैक्टरी में क्या हो रहा है? तो यह आंख बंद करके पंद्रह मिनट बैठा रहेगा, फिर आंख खोल देगा--बताएगा नहीं, आंख खोल देगा--और इसकी आंख को कैमरे के सामने रख कर फोटो ले ली जाएगी आंख की, और आपके इतने सिरों का चित्र, इस भीड़ का चित्र उसकी आंख से कैमरा पकड़ लेगा।
अब यह अगर दो हजार साल पहले की किसी किताब में वर्णन होता तो हम कहते गप्प होगी। यह आदमी अभी जिंदा है और सारे अमेरिका के सब विश्वविद्यालयों ने उसकी परीक्षा की है, जगह-जगह उसने प्रयोग करके दिखाए। थोड़ा सा फर्क होगा, अगर हमारा फोटोग्राफ यहां से हम भेजें और उसके फोटोग्राफ में इतना ही फर्क होगा जैसे फीकी कापी हो, बस। इससे ज्यादा फर्क नहीं होगा। थोड़ी धुंधली कापी, इससे ज्यादा फर्क नहीं होगा। उसकी आंख इतने दूर बैठे हम सबके चित्र को पकड़ पाती है।
तो अगर महाभारत कहता है कि संजय अंधे धृतराष्ट्र के पास बैठ कर और दूर, सैकड़ों मील दूर होते हुए कुरुक्षेत्र के युद्ध की खबर देता रहा, तो टेड सीरिओ कर सकता है तो संजय को क्या अड़चन है? आंख इतनी दूर देख सकती है। आंख कितनी ही दूर देख सकती है, लेकिन फिर मस्तिष्क के दूसरे हिस्से रोशन होने चाहिए।
रूस से एक उदाहरण आपको दूं। फयादेव एक वैज्ञानिक है रूस का। अमेरिका को छोड़ दें! रूस तो नास्तिक मुल्क है, और रूस तो आत्मा-परमात्मा को मानने को अब तक राजी नहीं है। लेकिन फयादेव ने एक हजार मील दूर तक टेलिपैथिक संदेश भेज कर--बिना किसी यंत्र के, सिर्फ विचार के संदेश भेज कर--बड़े प्रयोग किए हैं। मास्को में बैठ कर तिफलिस तक उसने संदेश भेजे हैं, सिर्फ आंख बंद करके। वह मास्को में बैठ कर संदेश सोचेगा और तिफलिस में पकड़े जाएंगे।
तिफलिस में एक दिन प्रयोग किया गया। और तिफलिस के बगीचे में दस नंबर की बेंच पर एक आदमी आकर बैठा। इस आदमी को कोई पता नहीं है। राहगीर है, थका-मांदा, दोपहर में विश्राम करने बैठा है, इसे कुछ भी पता नहीं है। झाड़ियों में छिपे हुए लोगों ने फयादेव को वायरलेस से खबर की कि दस नंबर की सीट पर एक आदमी बैठा है, तुम अगर उसे पांच मिनट में संदेश भेज कर सुला दो तो हम समझें।
अब मास्को में बैठे हुए फयादेव पांच मिनट तक अपने मन में सोचता रहा--उस दस नंबर की बेंच पर बैठे आदमी को सो जाना चाहिए। वह आदमी पांच मिनट में गहरी नींद में सोकर खर्राटे भरने लगा।
उन छिपे हुए मित्रों को लगा, स्वाभाविक, कि हो सकता है वह थका-मांदा हो और अपने आप सो गया हो। संयोग संभव है। तो उन्होंने वापस खबर भेजी कि वह आदमी सो तो गया है, लेकिन ठीक सात मिनट पर तुम उसे वापस उठा दो तब हम समझें।
ठीक सात मिनट पर वह आदमी चौंक कर उठ आया। और उसने चारों तरफ देखा, जैसे किसी ने आवाज दी हो। वे लोग झाड़ी से निकल आए, उन्होंने कहा कि तुम किसको देख रहे हो? उसने कहा कि कोई मुझसे निरंतर कह रहा है कि उठो, जागो, अब सोए मत रहो, ठीक सात मिनट पर उठ आना है।
कौन कह रहा है? वहां कोई भी नहीं है। वह आदमी तो सैकड़ों मील दूर मास्को में बैठा हुआ है।
मन भी पूरा जग जाए तो आदमी महाशक्ति का आविष्कारक हो जाता है। ऐसी और सैकड़ों संभावनाएं मनुष्य के मस्तिष्क में हैं। योग उनको सिद्धियां कहता था। हम उन्हें कोई भी नाम दें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। हमारा पूरा मस्तिष्क भी जागा हुआ नहीं है। जितने दीन-हीन हम दिखाई पड़ रहे हैं, यह दीन-हीनता हमारे सोए होने की दीन-हीनता है। और यह जो बेचैनी हमारी जिंदगी में बनी रहती है, वह यही बेचैनी है कि हम जो संपत्ति लेकर आए हैं, उसका पूरा उपयोग नहीं कर पा रहे हैं।
योग कहता है, मन के ये सारे के सारे केंद्र सजग किए जा सकते हैं।
और यह जो खोपड़ी के भीतर छिपा हुआ मस्तिष्क है, यह पूरा व्यक्तित्व नहीं है। ठीक इतना ही बड़ा व्यक्तित्व हृदय के पास भी छिपा हुआ है। उसकी तो हमें खबरें ही बंद हो गई हैं। कभी-कभी किसी की जिंदगी में थोड़ा प्रेम झलकता है तो उसे हृदय के पास के केंद्रों का ख्याल आता है, अन्यथा नहीं ख्याल आता।
और जिंदगी से प्रेम रोज-रोज कम होता चला गया है। प्रेम के नाम पर और हमने बहुत तरह के नकली सिक्के चलाए हुए हैं, वे जिंदगी में चलते रहते हैं। मस्तिष्क पूरा का पूरा भी विकसित हो जाए तो भी हृदय के पास भी अपना मस्तिष्क है, वह बिल्कुल अधूरा रह जाता है, वह तो छूता ही नहीं। क्योंकि हमारी सारी शिक्षा मस्तिष्क की है, तो थोड़ा-बहुत मस्तिष्क तो विकसित होता है; लेकिन हृदय की तो कोई शिक्षा नहीं है, वह बिल्कुल विकसित नहीं होता, वह अविकसित रह जाता है। और आदमी बहुत भीतरी तनाव में भर जाता है।
और हृदय और मस्तिष्क मिल कर भी पूरा मनुष्य नहीं है। मनुष्य के पास और केंद्र भी हैं। और योग मनुष्य को सात केंद्रों में बांटता है। और वह कहता है कि मनुष्य के पास सात तलों पर व्यक्तित्व के विकास की संभावना है। ये मोटे तल हैं, यह मोटा विभाजन है। विभाजन और ज्यादा भी किए जा सकते हैं। बुद्ध ने नौ विभाजन किए हैं। वे जगत में हुए महायोगियों में से एक हैं। पतंजलि ने सात विभाजन किए हैं। कोई और विभाजन भी कर सकता है। क्योंकि सैकड़ों केंद्र हैं मनुष्य के भीतर, जिनकी सबकी अपनी क्षमताएं हैं। और जिनकी सबकी क्षमताएं अगर पूरी विकसित हों और पूरा मनुष्य जाग जाए, तो मनुष्य अगर उस स्थिति में कह सके, अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं, तब उसके वक्तव्य में अतिशयोक्ति नहीं होती।
लेकिन घर में बैठे हुए ब्रह्मसूत्र से वचन निकाल कर, उपनिषद से महावाक्य खोज कर बैठे हैं किताब रखे हुए, मिट्टी के तेल के दीये जला कर बैठे हैं और कह रहे हैं, अहं ब्रह्मास्मि!
मिट्टी के तेल से काम नहीं चलेगा और बाहर के दीये में पढ़े गए शास्त्र काम के नहीं हो सकते। भीतर का दीया जले और भीतर की ज्योति पूरे सात केंद्रों तक जल जाए, तब उस समय जिस शास्त्र का उदघाटन होगा, जिस वेद का अनुभव होगा, वह वेद किसी किताब में लिखा हुआ वेद नहीं है। और उस क्षण जो उच्चार होगा, जो उदघोष होगा अहं ब्रह्मास्मि का, वह कहीं शास्त्र से आया नहीं, स्वयं की समग्र सत्ता से आया है।
तो योग आदमी को मानता है एक शास्त्र। और उसमें बहुत से अनपढ़े अध्याय पड़े हैं--अनजाने, अपरिचित--जिन पर हम कभी रोशनी लेकर नहीं गए, जिनका हमें कोई पता ही नहीं रहा है। ऐसे ही, जैसे कोई सम्राट अपने महल में सोया हो और भूल गया हो अपनी तिजोड़ियों को, अपने धन को, और सपना देख रहा हो कि मैं भिखारी हो गया और सड़क पर भीख मांग रहा हूं और कोई एक पैसा नहीं दे रहा है, और वह रो रहा है और परेशान हो रहा है और चिल्ला रहा है। करीब-करीब हम ऐसे सम्राट की हालत में हैं, जिन्हें अपनी पूरी संपत्ति का कोई पता ही नहीं है। पता ही नहीं है! अगर कोई हमसे कहे भी तो भरोसा नहीं पड़ेगा। कैसे भरोसा पड़े कि हमारे पास और इतनी संपत्ति? नहीं-नहीं। अगर उस सम्राट को उसके सपनों में कोई कहे भी कि तुम और भीख मांगते हो? तुम तो सम्राट हो! तो वह सम्राट कहेगा, कैसा मजाक करते हो? मजाक मत करो, एक पैसा दान करो तो समझ में आएगा।
ठीक हमारी स्थिति वैसी है।
योग कहता है, हमारे भीतर अनंत संपदाओं का विस्तार है। लेकिन वे सारी संपदाएं स्व चेतन होने से जगेंगी, उसके अतिरिक्त कोई जगने का उपाय नहीं है।
अब इसे थोड़ा समझें। हमारे व्यक्तित्व के सारे केंद्र कांशसनेस से जगते हैं और सक्रिय होते हैं। जितनी चेतना उन पर इकट्ठी होती है, उतने सक्रिय होते हैं। जिस हिस्से पर चेतना इकट्ठी होती है, वही सक्रिय हो जाता है।
छोटे बच्चों को सेक्स के केंद्र पर कोई सक्रियता नहीं होती, तो उनको पता भी नहीं होता। चौदह वर्ष के बाद प्रकृति उस केंद्र को सक्रिय करती है, तो होश आना शुरू होता है। होश आना शुरू होता है तो केंद्र सक्रिय हो जाता है। वह प्रकृति करती है। इसलिए अगर प्रकृति सेक्स के केंद्र को सक्रिय न करे तो आपको पता भी नहीं चलेगा कि आपके व्यक्तित्व में सेक्स जैसी कोई चीज है। पड़ा रहेगा, पता नहीं चलेगा। कैसे पता चलेगा?
लेकिन प्रकृति को उस केंद्र से काम लेना है जीवन को बनाए रखने का, इसलिए उस केंद्र को वह खुद सक्रिय करती है, वह आप पर नहीं छोड़ती। पशुओं में भी सक्रिय करती है, पौधों में भी सक्रिय करती है, समस्त जीवन में खुद सक्रिय कर देती है।
मस्तिष्क के केंद्र को समाज सक्रिय करवाता है--शिक्षा से, समझाने से। क्योंकि जिंदगी चलानी मुश्किल हो जाएगी। तो गणित सिखाता है, भूगोल सिखाता है। उतनी चीजें सिखाता है समाज, जितने से आदमी की जिंदगी चलनी आसान हो जाए। लेकिन मस्तिष्क के केंद्र को समाज सक्रिय करवा देता है थोड़ा, सेक्स के केंद्र को सक्रिय करवा देती है प्रकृति, बीच के सब केंद्र बंद पड़े रह जाते हैं, वे कभी सक्रिय नहीं होते। उनकी किसी को जरूरत नहीं है। समाज को उनकी कोई जरूरत नहीं है। बल्कि समाज नहीं चाहेगा कि कुछ केंद्र सक्रिय हों। जैसे व्यक्ति का प्रेम अगर बहुत सक्रिय हो जाए तो समाज पसंद नहीं करेगा। समाज चाहेगा कि प्रेम का केंद्र बहुत सक्रिय न हो। परिवार भी चाहेगा कि प्रेम का केंद्र बहुत सक्रिय न हो। पत्नी भी चाहेगी कि पति का प्रेम का केंद्र बहुत सक्रिय न हो। पति भी चाहेगा कि पत्नी का प्रेम का केंद्र बहुत सक्रिय न हो। मां भी चाहेगी, बाप भी चाहेगा।
उसके कारण हैं। क्योंकि जब प्रेम का केंद्र पूरी तरह से सक्रिय हो तो प्रेम फिर किसके साथ और किसके साथ नहीं, यह फासला टूटना बंद हो जाता है। फिर मां यह नहीं कह सकती कि मुझ ही को प्रेम करो! अगर प्रेम का केंद्र ठीक से सक्रिय हो जाए तो बच्चा सभी को प्रेम करने लगेगा। तो मां की ईर्ष्या उसे रोकेगी। पत्नी नहीं चाहेगी कि पति उसका किसी को भी प्रेम से देखने लगे। उसकी ईर्ष्या उसे रोकेगी। सारा समाज कोशिश करेगा कि प्रेम का केंद्र सक्रिय न हो पाए, क्योंकि प्रेम का केंद्र खतरनाक न हो जाए। इसलिए उसको दबाने की कोशिश करेगा, काट डालने की कोशिश करेगा।
और दूसरे केंद्र हैं, उनको तो समाज और भी बरदाश्त नहीं करेगा। अब जैसे यह टेड सीरिओ है, इस तरह के दुनिया में बहुत लोग हो जाएं तो समाज इनके खिलाफ कोई कानून बनाने की कोशिश करेगा।
अभी ऐसी एक घटना घटी। इंडोनेशिया में एक आदमी है, टोनी उसका नाम है। और इस सदी की महत्वपूर्णतम घटनाओं में से महत्वपूर्ण घटना टोनी की जिंदगी से इंडोनेशिया में घट रही है। लेकिन सारा समाज, अदालतें, कानून, सब उसके खिलाफ खड़े हो गए हैं। टोनी ने एक प्रयोग किया है जो योग के बहुत गहरे प्रयोगों में से है। और वह प्रयोग है स्प्रिचुअल सर्जरी का--आध्यात्मिक शल्य चिकित्सा, आध्यात्मिक सर्जरी। यह शब्द भी ख्याल में नहीं पड़ता।
टोनी, किसी भी तरह का, जैसे आपके पेट में अपेंडिक्स है, तो टोनी बिना किसी औजार के दोनों हाथ--नंगे हाथ--आपके पेट पर रख देगा, आंख बंद करेगा, परमात्मा से प्रार्थना करेगा और दोनों हाथ आपके पेट में प्रवेश कर जाएंगे। चमड़ी जगह दे देगी बिना किसी औजार के! खालिस हाथ आपके पेट के भीतर पहुंच जाएंगे।
और यह पच्चीसों मेडिकल वैज्ञानिकों, डाक्टरों, सर्जनों के सामने यह घटना हो चुकी है। उसकी सब फिल्में ली जा चुकी हैं, सारी दुनिया में उनका प्रदर्शन हो चुका है। उसके हाथ भीतर पहुंच जाएंगे, उसकी आंखें बंद ही रहेंगी। वह आपके भीतर--खुले पेट के भीतर--आपके अपेंडिक्स को पकड़ेगा, हाथ से ही वापस खींच कर बाहर निकाल लेगा, तोड़ कर बाहर रख देगा, दोनों हाथ आपके पेट पर वापस फेरेगा, आपकी कटी हुई चमड़ी वापस जुड़ जाएगी। और दो दिन के बाद कोई निशान भी देखने को नहीं मिलेंगे कि कभी पेट में कोई काटा गया था!
अब ऐसे आदमी की कीमत होनी चाहिए, लेकिन इंडोनेशिया की सरकार उसके खिलाफ मुकदमा चला रही है। और मेडिकल एसोसिएशन ने उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दायर किया है कि उस आदमी के पास सर्जरी का लाइसेंस नहीं है तो वह सर्जरी कैसे कर सकता है?
आदमी के पागलपन का कोई हिसाब है! क्योंकि उसके पास किसी मेडिकल कालेज का सर्टिफिकेट नहीं है, वह एमड़ी. नहीं है, तो वह सर्जरी कैसे कर सकता है? और अदालत तो उसके खिलाफ वक्तव्य देगी, क्योंकि कानून तो सदा से अंधा है। उस आदमी को सरकार ने हुक्म दे दिया है कि वह अब कहीं भी सर्जरी नहीं कर सकता।
इस आदमी के पास पच्चीस मित्रों का एक समूह है। वे सब प्रार्थना और ध्यान करने वाले लोग हैं। उनसे पूछा जाता है तो वे कुछ भी नहीं बता सकते। वे कहते हैं, हम कुछ भी नहीं जानते। हम परमात्मा के हाथ में अपने को छोड़ देते हैं। फिर वह जो हमसे काम करवाता है, वह हम कर देते हैं। हम कुछ भी नहीं करते।
लेकिन अगर यह आदमी बढ़ जाए तो मेडिकल प्रोफेशन का क्या होगा? सर्जन्स का क्या होगा? वे इसके खिलाफ उपद्रव करेंगे। वे इसको जालसाजियों में फंसाएंगे। यह गरीब आदमी है, सीधा-सादा आदमी है। उनके उपद्रव से परेशान होकर हाथ जोड़ लेगा कि ठीक है। मैं कुछ भी नहीं करता, माफी मांगे लेता हूं।
इस दुनिया में बहुत बार बहुत से चमत्कार घटित हुए हैं। हमने उन्हें बंद किया है। और हमने सदा ऐसी व्यवस्था की है कि इस तरह की बातें न हो पाएं, क्योंकि इन बातों के कारण हमारे जो इस्टैब्लिशमेंट होते हैं, हमारी जो व्यवस्थित संस्थाएं होती हैं, वे सब दिक्कत में पड़ जाती हैं। पड़ ही जाएंगी, क्योंकि उन सबका क्या होगा?
और फिर इन सब चीजों के आधार पर, जिसको हम बहुत वैज्ञानिकता कहते हैं, साइंटिफिक आउट लुक कहते हैं, वह भी दो कौड़ी का हो जाता है। क्योंकि ये बातें कुछ और दूर की खबर लाती हैं। टेड सीरिओ या टोनी जैसे लोगों के खिलाफ हम हो जाएंगे, क्योंकि हम कहेंगे कि ये बातें तो हमारी सारी व्यवस्था को तोड़ देंगी। अगर टेड सीरिओ दूसरे के घर के भीतर की चीजें देख सकता है, तो आज नहीं कल हम चिंतित हो जाएंगे कि हमारी तिजोड़ी भी देख सकता है! हम इनको रोकने की कोशिश करेंगे।
समाज योग की बहुत कीमती उपलब्धियों को दबाने की कोशिश करता रहा है। और स्वभावतः, जिन चीजों को हम बिल्कुल दबा दें, वे प्रकट होना बंद हो जाती हैं, क्योंकि उनके प्रकट होने के अवसर, परिस्थितियां हम रोक देते हैं।
मेरे सामने और मेरे पास एक घटना घटी। और तब मुझे लगा कि कितना आश्चर्य है! एक मित्र मेरे पास आते थे ध्यान करने। उनका बच्चा, जो तीसरी हिंदी पढ़ता है, वह भी उनके साथ आता था। उन्होंने मुझसे कहा कि यह बच्चा मेरे पास बैठा रहे तो कोई हर्ज तो नहीं है? मैंने कहा, कोई हर्ज नहीं है। अच्छा ही है कि आता है। वे मित्र ध्यान करते थे, वह बच्चा भी उनके पास बैठ कर ध्यान करने लगा।
पिता तो बहुत गहरी गति नहीं कर पाए, लेकिन वह छोटा बच्चा बहुत गति कर गया। चार दिन उनको आना था, चार दिन बाद तो वे नहीं आए, पंद्रह दिन बाद बहुत घबड़ाए हुए आए और उन्होंने कहा कि यह आपने बच्चे को क्या कर दिया? उसे भुलाइए, हम नहीं चाहते कि वह ध्यान में जाए।
मैंने पूछा, क्या हुआ?
उन्होंने कहा, अजीब-अजीब बातें होने लगी हैं। वे और उनकी पत्नी दरवाजा बंद करके, ताला लगा कर, बच्चे को भीतर करके--कि तुम घर में खेलना और हम किसी पड़ोसी के घर जा रहे हैं--गए। जब वे लौटे तो बच्चा खिड़की पर खड़ा था और उसने कहा कि झूठ बोले, आप सिनेमा देख कर आ रहे हैं। आप मेटिनी शो में गए थे!
गए तो वे मेटिनी शो में ही थे, बच्चे को धोखा देकर गए थे। पर वे हैरान हुए। उन्होंने कहा, तुम्हें पता कैसे चला?
उसने कहा, कुछ नहीं, जब कुछ घर में नहीं था तो मैं ध्यान करने बैठ गया और मुझे दिखाई पड़ा कि आप दोनों सिनेमा में बैठे हुए हैं।
तो उन्होंने कहा कि हम नहीं चाहते कि यह बच्चे में इस तरह की बात विकसित हो--देखें बेईमान बाप का मन--हम नहीं चाहते, इसको हम नहीं चाहते कि ध्यान वगैरह हो, इसमें तो उपद्रव हो जाएगा।
आश्चर्यजनक लगता है, लेकिन ऐसा ही है। अगर आपके घर भी बच्चा इस तरह की बातें देखने लगे तो आप भी कहेंगे कि बस बंद! क्योंकि आप लड़के को समझाते हैं कि सिगरेट मत पीना; आप खुद पीते हैं। वह लड़का कल कहेगा, कैसी बातें कर रहे हैं पिताजी? आप उसको रोकते हैं, सिनेमा नहीं जाना! और खुद जाते हैं। वह लड़का कल कहेगा कि कैसी बातें कर रहे हैं आप? जो-जो आपने रोका है, वह सब-सब आपने किया है। तो आप बच्चों में ये प्रतिभाएं विकसित न होने देंगे।
इसलिए पूरी मनुष्यता यौगिक विकास के खिलाफत में शड्यंत्र करती रही है, जिसका हमें पता नहीं है। हम इन सब बातों को दबाने की कोशिश करेंगे। और जब सारा समाज इनको दबाए और विकास का मौका न दे... ।
आप थोड़ा सोचें कि सारी यूनिवर्सिटीज बंद कर दी जाएं और सब कालेज और सब स्कूल बंद कर दिए जाएं, दुनिया में कितने लोग गणित जानेंगे? और अगर दो हजार साल तक सब शिक्षा का काम बंद कर दिया जाए, तो दो हजार साल बाद शक होने लगेगा कि इतनी बुद्धि भी हो सकती है आदमी में कि हवाई जहाज उड़ाए! इतनी बुद्धि हो सकती है कि चांद पर पहुंच जाए! लोग कहेंगे, कैसे हो सकता है? बैलगाड़ी बनाना मुश्किल हो जाएगा, हवाई जहाज बनाना तो बहुत दूर की बात है।
यह जो आज आदमी चांद पर पहुंच सका है, यह दस-बीस हजार साल के बुद्धि के शिक्षण का परिणाम है। अगर हम योग के द्वारा कहे गए केंद्रों पर भी दस-बीस हजार साल मेहनत करते तो आदमी जहां पहुंच जाता, उसकी आज कल्पना भी करनी संभव नहीं है। कभी कोई एकाध आदमी पहुंचता है तो हम उसे पूजा का केंद्र बना लेते हैं और भूल जाते हैं। लेकिन सब संभव है। मनुष्य के भीतर बहुत से तल हैं, लेकिन अचेतन में डूबे हैं, इसलिए हमें उनका कोई पता नहीं है।
सात तलों में योग मनुष्य को बांटता है; सात केंद्रों में, सप्त चक्रों में मनुष्य के व्यक्तित्व को बांटता है। इन सातों चक्रों पर अनंत ऊर्जा और शक्ति सोई हुई है। जैसे एक कली में फूल बंद होता है। कली देख कर पता भी नहीं चलता कि इसके भीतर ऐसा फूल होगा, ऐसा कमल खिलेगा, इतने दलों वाला कमल प्रकट होगा। कली तो बंद होती है। अगर किसी ने सिर्फ कमल की कलियां ही देखी हों और कभी फूल न देखा हो, तो वह कल्पना भी नहीं कर सकता कि यह कली और फूल बन सकती है? हमारे पास जितने चक्र हैं, वे कलियों की तरह बंद हैं। अगर वे खिल जाएं पूरे तो हमें पता भी नहीं कि उनके भीतर क्या-क्या छिपा हो सकता है--कितनी सुगंध! कितना सौंदर्य! कितनी शक्ति! एक-एक चक्र के पास अनंत सौंदर्य, अनंत शक्ति छिपी है। वह लेकिन कलियां खिलें तो प्रकट हो सकती है, न खिलें तो प्रकट नहीं हो सकती।
कभी आपने कमल की कलियों को खिलते देखा है? कब खिलती हैं? सूरज जब निकलता है सुबह और रोशनी छा जाती है, तब रात के अंधेरे में बंद कलियां सुबह खिल जाती हैं सूरज के साथ। ठीक ऐसे ही जिस दिन हमारी चेतना का सूर्य एक-एक केंद्र पर प्रकट होता है तो एक-एक केंद्र की कली खिलनी शुरू हो जाती है।
भीतर भी हमारी चेतना का सूर्य है। उसके पहुंचने से--उसे हम ध्यान कहें या और कोई नाम दें, इससे फर्क नहीं पड़ता--हमारे भीतर होश का एक सूर्य है, उसका प्रकाश जिस केंद्र पर पड़ता है, उसकी कली खिल जाती है चटक कर और फूल बन जाती है। और उसके फूल बनते ही हम पाते हैं कि अनंत शक्तियां हममें छिपी पड़ी थीं, वे प्रकट होनी शुरू हो गईं।
ये जो सात चक्र हैं, यह प्रत्येक चक्र खोला जा सकता है और प्रत्येक चक्र की अपनी क्षमताएं हैं। और जब सातों खुल जाते हैं तो व्यक्ति के द्वार-दरवाजे, जिनकी मैं कल बात कर रहा था, वे अनंत के लिए खुल जाते हैं। व्यक्ति तब अनंत के साथ एक हो जाता है।
चेतना, सिर्फ होश इन चक्रों को कैसे खोल देगा? इस संबंध में भी मैं कुछ वैज्ञानिक तथ्य आपको कहना चाहूंगा।
बीस-पच्चीस वर्ष के पूर्व तक वैज्ञानिकों को यह ख्याल नहीं था कि कांशसनेस से, चेतना से किसी चीज में कोई फर्क पड़ सकता है। हम देखते भी नहीं पड़ते हुए। फकीरों की कहानियां सुनी हैं, योगियों की, लेकिन वे कहानियां हो गई हैं अब। जिन चीजों को करने की कला हम भूल जाते हैं, वे कहानियां हो जाती हैं। स्वाभाविक!
अगर तीसरा महायुद्ध हो जाए और दुनिया से ज्यादा नहीं, कुछ बड़े-बड़े वैज्ञानिक मर जाएं, तो फिर एटम बम बनाना संभव नहीं होगा। अभी भी दस-पच्चीस लोग ही उस सूत्र को जानते हैं, ज्यादा नहीं। अगर इन पच्चीस आदमियों को पकड़ कर हत्या कर दी जाए तो एटम बम नहीं बन सकेगा। और अब तो पच्चीस जानते हैं, दस साल पहले पंद्रह ही जानते थे। हिरोशिमा पर जब एटम बम गिरा, उसके पहले मुश्किल से दुनिया में चार आदमी थे सिर्फ। उन चार आदमियों को अगर मार डाला जाए, तो फिर एटम बम सिर्फ कहानी हो जाएगी। क्योंकि जब भी कोई कहेगा कि नहीं, यह सच है; हम कहेंगे, बना कर बताओ! और तब मुश्किल हो जाएगी।
अगर तीसरा महायुद्ध हो जाए, जैसा कि कई दफे हो चुका। महाभारत हुआ और उस समय का सारा विज्ञान और सारी संस्कृति उस युद्ध के साथ नष्ट हो गई, कहानियां रह गईं। अब हम कहते हैं कि ये सब कहानियां हैं। कहानियां हैं ही अब। अगर तीसरा महायुद्ध हो जाए और सारी दुनिया नष्ट हो जाए, जैसा कि संभव है। और जब भी दुनिया नष्ट होती है युद्धों में, तो उस दुनिया में जो श्रेष्ठतम विकसित लोग होते हैं, वे सबसे पहले नष्ट होते हैं। अगर बम गिरेंगे तीसरे महायुद्ध में, तो पूना नहीं बचेगा, बंबई नहीं बचेगा, दिल्ली नहीं बचेगा, लंदन-न्यूयार्क नहीं बचेंगे। अगर बच भी सके तो बस्तर की पहाड़ियों में छिपे हुए कुछ आदिवासी बच जाएंगे, हिमाचल प्रदेश के पहाड़ों में रहने वाले कुछ लोग बच जाएंगे। इन पर जाकर कोई एटम बम गिराने की कोशिश नहीं करेगा। इनको खोज-खोज कर एटम बम गिराना बहुत मंहगा भी पड़ेगा। लेकिन दुनिया के सब विकसित सेंटर, यूनिवर्सिटीज, विज्ञान के भवन, ये सब गिर जाएंगे। ये पहले गिर जाएंगे। और फिर पीछे जो बचेंगे, अविकसित लोग, उन्होंने भी रेलगाड़ियां देखी थीं। वे अपने बच्चों को कहानियां कहते रहेंगे कि रेलगाड़ियां थीं। दो-तीन पीढ़ियों के बाद बच्चे कहेंगे कि नहीं हो सकतीं। ऐसा हो कैसे सकता है? क्या प्रमाण है? कोई प्रमाण नहीं रह जाएगा।
योग की कला के साथ भी वैसा हुआ है। बहुत बार कला विकसित होती है, फिर अनेक कारणों से खो जाती है। उनमें बड़ा कारण तो हम ही होते हैं कि हम उसे बरदाश्त नहीं कर पाते, क्योंकि उसके खतरे हैं।
यह मैं आपसे कह रहा था कि चेतना से चीजों में अंतर पड़ता है। ऐसा योग का तो बहुत सरल सा प्रयोग है सदा का कि चीजों में अंतर पड़ता है। चेतन होने से अंतर पड़ता है। लेकिन अब विज्ञान इसके लिए राजी हुआ। और राजी तब हुआ... हम अगर एक कंकड़ को देखें तो कोई अंतर तो नहीं पड़ता। कंकड़ को कितना ही देखते रहें, क्या अंतर पड़ता है? कंकड़ कंकड़ बना रहता है। कितनी ही चेतना एकाग्र करें, कंकड़ कंकड़ रहता है। लेकिन जब से इलेक्ट्रान की खोज हुई तब से वैज्ञानिकों को पता चलना शुरू हुआ कि जब हम बड़ी खुर्दबीनें लेकर इलेक्ट्रान को देखने की कोशिश करते हैं, तो इलेक्ट्रान की चाल डगमगा जाती है देखने से। ऐसे ही जैसे आप बाथरूम में नहा रहे हों, तो आप अपनी मौज में होते हैं, मुंह बिचकाते हैं, आईने में हंसते हैं, भूल जाते हैं कितनी उम्र है। फिर अचानक आपको पता लगे कि कोई आपके बाथरूम के की-होल में से झांक रहा है, आप एकदम सजग होकर खड़े हो जाते हैं। अगर फिल्मी गाना गा रहे थे तो एकदम से भजन गाने लगते हैं या कुछ और करने लगते हैं।
तो यह तो हम मान सकते हैं कि की-होल में से आपको देखा जाए तो आप बदलते हैं, लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि जब हम इलेक्ट्रान को बहुत खुर्दबीनों में से देखते हैं तो वह जैसा चल रहा था, उसको बदल कर चलने लगता है। तो बड़ी हैरानी की बात है! इसका मतलब यह हुआ कि आब्जर्वेशन जो है, निरीक्षण जो है, वह परिवर्तन ले आता है उसमें।
कल मैंने आपसे बात की थी एक ईसाई फकीर की, जिसने आक्सफोर्ड की एक प्रयोगशाला में बीजों को आशीर्वाद दिया है। उसी फकीर के एक बीज को आशीर्वाद देने के साथ एक और अदभुत घटना घटी। वह अपने गले में क्रास लटकाए हुए था और हाथ जोड़ कर उस बीज के ऊपर झुका और उसने प्रार्थना की। और जब उस बीज का फोटो लिया गया तो बड़ी हैरानी हुई। उस बीज के भीतर उसकी छाती पर लटके हुए क्रास का चित्र भी आ गया। यह तो बड़ी हैरानी की बात है! जब वह प्रार्थना करने को झुका तो उसका क्रास भी उस बीज के पास पहुंचा। लेकिन बीज के भीतर क्रास का चित्र! यह कैसे संभव हुआ? क्या उसकी प्रार्थना में उसका बीज पर गया हुआ ध्यान इस चित्र को भी उसके भीतर संवादित कर सका? क्या बीज ने भी रिस्पांस किया, क्या बीज ने भी उत्तर दिया इस प्रार्थना का? क्या बीज ने भी हृदयपूर्वक स्वीकार किया उस फकीर को?
योग का बहुत पुराना ख्याल है--ख्याल ही नहीं, अनुभव है--कि जिस केंद्र पर हम भीतर ध्यान करते हैं वह केंद्र तत्काल सक्रिय हो जाता है। उसकी सक्रियता, उसकी कलियों को जो बंद थीं, खोल देती है। जैसे सूरज सुबह पक्षियों को जगा देता है।
और ध्यान रहे--ख्याल आपने किया हो, न किया हो--सूरज आने के पहले ही, घड़ी भर पहले पक्षी गीत गाने लगते हैं। अभी सूरज का रुख ही हुआ है आने का, अभी आ भी नहीं गया, अभी बस आने को हुआ है, कि पक्षी गीत गाने लगते हैं और फूलों की कलियां खिलने लगती हैं। अभी सूरज आने को हुआ है, अभी आ ही नहीं गया, और फूल खिलने लगे और कलियां मुस्कुराने लगीं और पक्षी गीत गाने लगे।
आपका ध्यान ही जाना शुरू हो जाए भीतर की तरफ और आपके चक्र सक्रिय होने शुरू हो जाते हैं। सिर्फ जाना शुरू हो जाए और आपके भीतर अनूठे अनुभव होने लगते हैं। अभी तीन दिनों में न मालूम कितने मित्रों ने आकर न मालूम कितने अनुभव मुझे कहे। वे सदा से हुए अनुभव हैं। किसी को प्रकाश के तीव्र अनुभव भीतर होने शुरू हो जाते हैं; वह किसी केंद्र से फूटता हुआ प्रकाश है। किसी को सुगंध का अनुभव भीतर होना शुरू हो जाता है; वह किसी केंद्र से फूटती हुई सुगंध है। किसी को संगीत के अनूठे नाद सुनाई पड़ने लगते हैं; वे किसी केंद्र से फूटते हुए संगीत की ध्वनियां हैं, नाद हैं। और अलग-अलग अनुभव भीतर से प्रकट होने शुरू हो जाते हैं। जितना बड़ा जगत हमारे बाहर है, उससे छोटा जगत हमारे भीतर नहीं है। अभी हमने बाहर ही ध्यान दिया है, इसलिए बाहर की चीजें सक्रिय हो गई हैं। अभी हमने भीतर ध्यान नहीं दिया, अन्यथा भीतर भी सब सक्रिय हो जाए। एक-दो छोटे प्रयोग आपको कहूं, जिससे आपको स्मरण में आ सके कि यह हो सकता है।
रास्ते पर जा रहे हों, सामने आपके कोई चल रहा हो। एक दो मिनट के लिए ऐसा करें कि ठीक उसकी चेंथी पर दो मिनट तक उसके पीछे से आंख गड़ा कर देखते रहें, पलक न झपकें। पलक बिना झपके उसकी चेंथी पर देखते रहें एक दो मिनट तक।
दो मिनट से ज्यादा आप न देख पाएंगे कि उस आदमी को आपको लौट कर देखना पड़ेगा। उसके केंद्र पर सक्रियता हो गई, वह तत्काल बेचैन होकर पीछे लौट कर देखेगा कि क्या हुआ, पीछे क्या हो रहा है! आप ऐसा आदमी नहीं खोज सकते जिसको आप दो मिनट तक देखें और वह पीछे लौट कर न देख ले। और अगर ऐसा आदमी मिल जाए तो समझना कि बड़ा कीमती आदमी मिला है।
अपने ही शरीर में आप कोई भी केंद्र चुन लें और उस पर थोड़ी चेतना ले जाना शुरू करें। हम सबको अगर पूछा जाए कि अगर आपका हाथ कट जाए, तो हम कहेंगे कि हमारा कुछ बहुत नहीं कट जाएगा। थोड़ी तकलीफ होगी, लेकिन बहुत नहीं कट जाएगा। लेकिन कोई कहे कि सिर कट जाए, तो हम कहेंगे कि सब कट जाएगा। क्योंकि हमारी आइडेंटिटी हमारे सिर्फ मस्तिष्क में रह गई है, हमारा होना सिर्फ वहीं है। हम कहेंगे कि हमारा होना ही वहां है। जो कुछ भी हमारी संपत्ति है, विचार हैं, ज्ञान है, जो भी हमने जाना है अपने बाबत, वह मस्तिष्क के छोटे से केंद्र पर है, बाकी पूरे शरीर पर वह नहीं है।
अपने भीतर किसी भी केंद्र पर ध्यान करना शुरू करें। जैसे मैंने प्रयोग के लिए आपसे बाहर के लिए कहा, आप एक चार-छह दिन सिर्फ आंख बंद करके हृदय पर ध्यान ले जाएं; सिर्फ ध्यान ले जाएं, और कुछ न करें--एक पांच मिनट रोज। और आप पाएंगे आपके व्यक्तित्व में प्रेम बढ़ना शुरू हो गया। वह आपको दिखाई पड़ेगा, आपके पड़ोसियों को दिखाई पड़ेगा, आपके घर के लोगों को दिखाई पड़ेगा। कहने की जरूरत नहीं, चुपचाप आप ध्यान देते रहें। और आप पाएंगे कि लोग आपसे कहने लगे कि आप में बड़ा फर्क हो रहा है। आप इतने प्रेमपूर्ण कभी भी नहीं थे।
जिस केंद्र पर चेतना जाएगी, वह केंद्र सक्रिय हो जाता है। और हमारे सात केंद्र हैं। इन सातों पर चेतना ले जाई जा सकती है। अगर ले जाएंगे तो ही चेतना जाएगी। स्व चेतन होने का यह फायदा भी है और खतरा भी है। नहीं ले जाएंगे तो नहीं जाएगी। और नहीं ले जाएंगे, तो स्व अचेतन पशुओं में और आदमी में कोई फर्क नहीं है। अगर मैं इसे ऐसे कहूं कि योग पशु को मनुष्य बनाने का विज्ञान है, तो यह परिभाषा अतिशयोक्ति नहीं है।
योग में पशु का अर्थ भी बहुत अदभुत है। योग उसको पशु कहता है जो पाश में बंधा है। जैसे भैंस या गाय को हम रस्सी में बांध कर ले जाते हैं। वह जो रस्सी है उसका नाम पाश और उसमें बंधे हुए का नाम पशु।
योग कहता है, जो आदमी अचेतना की जंजीरों में बंधा है, वह पशु; और जो आदमी अचेतना की जंजीरों को तोड़ कर खड़ा हो गया, वह मनुष्य। मनुष्य का मतलब है, जो मन हो गया पूरा। और मन कांशसनेस, चेतना का नाम है। मन का अर्थ है चेतना, जो चेतन हो गया पूरा। अंग्रेजी का मैन भी संस्कृत के मन से ही बना है। जो मन हो गया पूरा अर्थात जो पूरा चेतन हो गया। और यह जो चेतन हो गया पूरा, यह मनुष्य है।
योग का यह सातवां सूत्र है। इस संबंध में दो-तीन बातें और, फिर बाकी सूत्र की बात कल आपसे करूंगा। दो-तीन और जरूरी बातें ख्याल में ले लेनी जरूरी हैं।
जैसे मैंने कहा कि आदमी कभी-कभी चेतन होता है, बाकी अचेतन होता है। इससे उलटी घटनाएं भी घटती हैं। जिनको हम निरंतर अचेतन मानते हैं, वे भी किसी-किसी क्षण में चेतन होते हैं। जैसे पौधा भी किसी क्षण में चेतन होता है, जैसे पत्थर भी किसी क्षण में चेतन होता है, जैसे पशु भी किसी क्षण में चेतन होता है। मनुष्य जैसे किसी क्षण में चेतन होता है, इसी तरह मनुष्य से पिछड़ी हुई जातियां जीवन की भी किन्हीं क्षणों में चेतन होती हैं। पर ये घटनाएं बहुत मुश्किल से घटती हैं और कभी घटती हैं। जैसे बुद्ध के वक्त में बोधिवृक्ष के साथ घटी।
बुद्ध के मरने के पांच सौ वर्ष तक बुद्ध की प्रतिमा नहीं बनाई गई। क्योंकि बुद्ध ने कहा था, प्रतिमा मत बनाना, यह बोधिवृक्ष ही काम दे देगा। और पांच सौ वर्ष तक बोधिवृक्ष की ही पूजा की जाती रही। पांच सौ वर्ष बाद बुद्ध की प्रतिमाएं बनीं, पांच सौ वर्ष तक नहीं। बहुत से कारणों में एक कारण यह था कि जिस क्षण बुद्ध को बुद्धत्व हुआ, उस क्षण जिस वृक्ष के नीचे वे बैठे थे वह भी प्रतिध्वनित हो गया बुद्धत्व से, वह भी जाग गया। वह साक्षी हो गया, वह अकेला ही साक्षी था, अकेला विटनेस था, बाकी कोई मौजूद नहीं था, वह वृक्ष ही मौजूद था।
आप कहेंगे कि वह वृक्ष कैसे सचेतन हो गया?
बुद्ध जैसा बड़ा सूर्य वहां प्रकट हुआ उस वृक्ष के नीचे, तो कितना ही गहरा सोया हो वृक्ष अपनी अचेतना में, उसका भी एक हिस्सा जाग गया। उसने भी जाग कर यह घटना देखी। इसलिए बुद्ध ने कहा, यह वृक्ष मेरा गवाह है, यह विटनेस है। इसकी ही पूजा कर देना तो चलेगा। यह अकेला गवाह है।
वह बोधिवृक्ष अब तक बचाने की कोशिश की गई है, उसका कुल कारण इतना ही है। हालांकि बौद्धों को भी पता नहीं कि वे क्यों उसे बचाए चले जा रहे हैं। हिंदुस्तान में सूख गया तो उसकी एक शाखा को अशोक ने अपने बेटे और अपनी बेटी के हाथ श्रीलंका भेजा था। उसकी एक शाखा श्रीलंका में लग गई थी। तो जब हिंदुस्तान का बोधिवृक्ष सूख गया तो फिर वापस उस वृक्ष की एक शाखा लाकर पुनः लगा दी गई है। लेकिन पच्चीस सौ साल से वह वृक्ष जीवित है, वह विटनेस है, वह गवाह है। बुद्ध की चेतना में जो घटना घटी, उस बड़ी घटना के साथ वह वृक्ष भी आंदोलित हो उठा और उसने भी जाग कर देखा अपनी गहरी निद्रा में कि क्या घट गया है?
इसे इस तरह समझना आसान होगा। अगर आप किसी बड़े संगीतज्ञ से पूछें तो वह शायद आपको आसानी से बता सकेगा। अगर एक सुनसान सूने कमरे में एक वीणा रखी जाए, कोई बजाए न, बस वीणा रखी हो, और दूसरे कोने में कोई संगीतज्ञ कुशल दूसरी वीणा बजाए, और कमरा सुनसान हो और चीजें न हों, तो जो खाली रखी वीणा है वह दूसरी वीणा की प्रतिध्वनि को पकड़ कर संगीत छोड़ना शुरू कर देगी। उस दूसरी वीणा के तार भी कंपित होकर नाचने लगते हैं।
ऐसा ही हुआ। वह इतनी बड़ी घटना घटी बुद्ध की कि उस कंपन में वृक्ष की वीणा के तार भी हिल गए। वह भी नाच उठा। वह गवाह बना।
तो कभी ऐसा भी हुआ है कि वृक्ष भी जाग गए, और अक्सर ऐसा होता रहता है कि मनुष्य भी सोए रहते हैं। कुछ चीजें हैं जिन्होंने जागने के बड़े सबूत दिए हैं, इसलिए वे कीमती हो गईं। जिनको हम प्रेशियस स्टोन कहते हैं, जिनको हम कीमती पत्थर कहते हैं, उनके कीमती होने का एकमात्र कारण इकोनामिक नहीं है। उनके कीमती होने का असली कारण योग से जुड़ा हुआ है। ऐसे पत्थर जो किसी क्षण में होश से भर सकते हैं, कीमती होते चले गए। और उन सब होश से भरे हुए पत्थरों से बहुत से काम लिए जा सके हैं। पर वह तो बहुत अलग लंबी उसकी यात्रा है। जो धातुएं बहुत कीमती हो गईं जैसे सोना और चांदी, उनका कारण सिर्फ इतना ही नहीं है कि वे धातुएं न्यून हैं। नहीं, उनका कारण बहुत दूसरा है। इन धातुओं ने जागने के ज्यादा सबूत दिए हैं।
हकीम लुकमान का नाम आपने सुना होगा। लुकमान के जीवन में एक बहुत अदभुत उल्लेख है और वह योग के गहरे रास्तों से जुड़ा हुआ है। लुकमान के संबंध में एक कहानी है--कहानी कहता हूं, ऐसे वह इतिहास है--कहानी है कि लुकमान ने वृक्षों से जाकर पूछा कि तुम किस काम में आ सकोगे? जड़ी-बूटियों से पूछा कि तुम्हारा क्या उपयोग है?
और अभी भी जो लोग मेडिकल रिसर्च करते हैं, वे तकलीफ में हैं यह बात जान कर कि लाखों जड़ी-बूटियों के बाबत--आयुर्वेद, यूनानी और पुराने चिकित्सा-शास्त्रों ने इतनी लाखों जड़ी-बूटियों के बाबत पता कैसे लगाया होगा कि यह फलां बीमारी में काम आ सकती हैं? क्योंकि इतनी बड़ी प्रयोगशालाओं का कोई प्रमाण नहीं मिलता। और आज भी हम पूरी जड़ी-बूटियों का पता नहीं लगा पाए हैं कि किस बीमारी में कौन काम आती है। अभी काम चलता है। तो हजारों साल तक मेहनत की हो तब पता चलेगा। लेकिन लुकमान अकेले आदमी ने पूरी साइंस पैदा कर दी! एक आदमी एक जिंदगी में कैसे पता लगा पाएगा?
लुकमान की कहानी कुछ और कहती है। वह यह कहती है कि लुकमान एक-एक पौधे पर जाता, उसके पास बैठ जाता ध्यान करके, उस पौधे से प्रार्थना करता कि तू बता कि तू किस काम में आ सकता है। और लुकमान के भीतर हृदय में उस पौधे से जो उत्तर मिलता वह उसी बीमारी में उस पौधे का उपयोग शुरू कर देता। और लुकमान ने जिन पौधों का उपयोग किया है, अभी प्रयोगशाला में भी वे वैसे ही सही सिद्ध हो रहे हैं।
पौधे भी जाग सकते हैं किसी लुकमान के पास, किसी बुद्ध के पास। पत्थर भी जाग सकते हैं किसी योगी के पास। लेकिन हम आदमी हैं, जो कि सोए रह जाते हैं। अब यह बड़ी दुखद घटना है कि बुद्ध के पास एक वृक्ष तो जाग गया, लेकिन बुद्ध के पास ऐसे हजारों लोग आए जो नहीं जागे और सोए ही वापस चले गए। शायद वृक्ष बहुत सरल है, इसलिए प्रतिध्वनित हो गया। आदमी बहुत जटिल है, चालाक है, होशियार है, जल्दी प्रतिध्वनित नहीं होता, हर चीज को जांच-परख लेता है। और जांच-परख में कभी-कभी दो पैसे की हंडी तो बजा-बजा कर ठीक ले आता है और करोड़ों रुपये की चैक बजा-बजा कर खो देता है। बहुत चालाक लोग कभी बड़े धोखे में पड़ जाते हैं। और अगर कोई आदमी एक-एक कदम बहुत सम्हाल कर रखेगा, तो एक बात पक्की है, परमात्मा की यात्रा पर नहीं जा सकता। क्योंकि वह यात्रा इतनी इनसिक्योरिटी की है, वह यात्रा इतनी अनजान और अज्ञात और अपरिचित है कि वहां बहुत होशियारों का काम नहीं है, वहां बहुत बार नासमझ भी प्रवेश कर जाते हैं और समझदार दरवाजे पर खड़े सोचते रह जाते हैं।
कल अगले सूत्र पर आपसे बात करूंगा। इस संबंध में जो भी प्रश्न हों, वे पूछ लेंगे। जो-जो प्रश्न थे, मैंने धीरे-धीरे उनकी बात कर ली है। कुछ बच जाएंगे तो उनकी कल बात कर लेंगे। जो मित्र सुबह ध्यान में आना चाहते हों, वे स्नान करके और ठीक समय पर आ जाएं और चुप आकर बैठें। कल आखिरी दिन है, देखने कोई भी न आए, सिर्फ जो करना चाहते हैं वे ही निमंत्रित हैं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।  

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