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सोमवार, 19 नवंबर 2018

बहुतेरे हैं घाट-(प्रवचन-02) 

दूसरा प्रवचन

प्रेम : ध्यान की ज्योति

पहला प्रश्न :

अथ यदि वे कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात्,
ये तत्र ब्राह्मणाः संदर्शिनो युक्ता आयुक्ता अलूसा धर्मकामाः स्युः,
यथा ते तक्र वर्तेरन तथा तत्र वर्तेथाः।।
‘यदि कभी आपको अपने कर्म या आचरण के संबंध में
संदेह उपस्थित हो तो जो विचारशील, तपस्वी,
कर्तव्यपरायण, शांत स्वभाव, धर्मात्मा विद्वान हों, उनकी
सेवा में उपस्थित होकर अपना समाधान करिए और
उनके आचरण और उपदेश का अनुसरण कीजिए।’
तैत्तरीय उपनिषद की इस सूक्ति पर प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।


सत्यानंद, पहली बातः मूल में एक शब्द है जिसे तुम अनुवाद में या तो चूक गए या बचा कर निकल गए या तुमने अनुवाद में जो अर्थ उसका किया उसमें अनर्थ हो गया। उस शब्द पर ही सब निर्भर है। शब्द है ब्राह्मण।
ये तत्र ब्राह्मणाः संदर्शिनो युक्ता।
ब्राह्मण के अर्थ पर सब कुछ निर्भर करेगा।


लेकिन सत्यानंद, तुम्हारी तकलीफ भी मैं समझता हूं। ब्राह्मण का अगर अर्थ मेरे अर्थों में करो तो फिर पूरा सूत्र डगमगा जाएगा। ब्राह्मण का अर्थ है जो ब्रह्म को जाने; सीधा-सादा, साफ-सुथरा, दो और दो चार जैसा स्पष्ट। जो ब्रह्म को जाने उसके पास बैठ कर समाधान हो सकेगा। पूछने की भी जरूरत न होगी। और न ही उसके अनुसार आचरण करने की जरूरत होगी। न ही उसके उपदेश के अनुसार वर्तन करने की जरूरत होगी। उसके पास बैठ कर समाधि लग जाएगी। उसके पास बैठने की कला ही सत्संग है, समाधि है। उसके भीतर की ज्योति तुम्हारे भीतर जल उठे तो तुम्हारे भीतर भी उपनिषद का फूल खिले। फिर तैत्तरीय उपनिषद के सूत्रों की तुम्हें चिंता न करनी पड़े।
लेकिन ब्राह्मण का जो अर्थ इस सूत्र में है वह मेरा अर्थ नहीं है, नहीं हो सकता। क्योंकि जिसने ब्रह्म को जाना है वह इतना तो जानेगा ही कि आचरण किसी और के अनुसार करना पाखंड है। ब्रह्मवेत्ता यह न जाने, यह कैसे संभव? ब्राह्मणाः संदर्शिनो युक्ता। जो ब्रह्मभाव को, जो उस सम्यक दर्शन को उपलब्ध हो गया हो, जिसकी आंख खुल गई हो, जिसकी दृष्टि में जीवन का सत्य प्रकट हो गया हो, जिसके भीतर सूरज उगा हो, वह इतना न देख पाए यह असंभव है। यह हो ही नहीं सकता कि वह उपदेश के अनुसार किसी को चलाए, क्योंकि यह तो उसे साफ ही हो जाएगा कि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी निजता है और दूसरे का उपदेश उसकी निजता को भ्रष्ट करेगा। वह तो केवल इंगित कर सकता है--इंगित, जो कि बहुत तरल होंगे, ठोस नहीं। वह तो पानी पर लकीरें खींच सकता है, जो कि बनेंगी और तत्क्षण मिट जाएंगी। पढ़ लिया तो पढ़ लिया, चूक गए तो चूक गए। उसके उपदेश पत्थर पर खींची गई लकीरें नहीं हैं। उसके उपदेशों से परंपराएं नहीं बनतीं। उसके उपदेशों से किसी तरह के नकल करने वाले मिथ्या पाखंडियों का जन्म नहीं होता।
पाखंड पैदा ही इसलिए होता है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के अनुसार चलने लगता है--लकीर का फकीर होकर। यूं जैसे कि जुही गुलाब होना चाहे। यूं जैसे कि गुलाब कमल होना चाहे। फिर उपद्रव खड़ा हुआ। फिर पाखंड होगा, फिर पागलपन होगा। जुही गुलाब नहीं हो सकती। जरूरत भी नहीं है। जुही को अगर प्रकृति ने जुही बनाया है तो जुही की जरूरत है इसलिए बनाया है। जुही के बिना यह अस्तित्व अधूरा होगा। यह सारा अस्तित्व गुलाबों से भर जाए तो गुलाबों की कीमत भी खो जाएगी। जुही भी चाहिए और चंपा भी चाहिए और कमल भी चाहिए और गुलाब भी चाहिए। यह जो विविधता है, यह ब्रह्म की अनेक आयामी अभिव्यक्ति है।
ब्रह्म कोई एक आयाम नहीं है, ब्रह्म कोई एक लकीर नहीं है--ऐसा सूर्य है जिससे अनंत किरणें फूटती हैं। और हर किरण अनूठी, अद्वितीय है! हर किरण का अपना रंग। हर किरण का अपना ढंग। हर किरण का अपना व्यक्तित्व, अपनी निजता, अपनी गंध। कोई किरण किसी दूसरी किरण का क्यों अनुसरण करे? ब्रह्मवेत्ता यह नहीं कहेगा। ब्रह्मवेत्ता यह कहे तो ब्रह्मवेत्ता नहीं है। ब्रह्मवेत्ता इंगित करेगा; उपदेश भी नहीं, सिर्फ इशारा। और स्मरण रखना, इशारा भी लोहे की जंजीरों जैसा नहीं, फूलों के हार जैसा--कोमल, तरल। यूं नहीं कि उसके ढांचे में तुम्हें बंधना पड़े, बल्कि यूं कि वह तुम्हारे अनुकूल ढल जाए।
इस भेद को साफ समझो। कपड़े तुम्हारे लिए हैं, तुम कपड़ों के लिए नहीं। यूं नहीं है कि कपड़े पहले से तैयार हैं और अब तुम्हें कपड़ों के साथ संयोजित होना है। अगर तुम थोड़े लंबे हो तो तुम्हारे हाथ-पैर छांटने होंगे। अगर तुम थोड़े छोटे हो तो तुम्हारे हाथ-पैर खींच कर बड़े करने होंगे। यूं ही तो आदमी मर रहा है; कपड़ों के लिए जी रहा है। और कपड़े न मालूम किन लोगों ने किनके लिए सिले थे, किनके लिए बने थे। उनकी लंबाई और थी, उनकी ऊंचाई और थी, उनके जीवन का सिलसिला और था, शैली और थी। जमाना बीत गया। गंगा का कितना पानी बह गया! मगर मूढ़ों की दुनिया अभी भी ठहरी है। किसी की दस हजार साल पहले, किसी की पांच हजार साल पहले, किसी की तीन हजार साल पहले। और मैं तुमसे कहता हूंः एक दिन पहले भी अगर तुम्हारी दुनिया ठहरी है तो तुम्हारे जीवन में संकट होगा। जीवन है अभी, जीवन है यहां, जीवन है इसी क्षण!
ब्रह्मवेत्ता कभी भी तुमसे नहीं कहेगा कि ये रहे सिद्धांत, इनका अनुसरण करो, इनसे चूके तो पाप होगा। ब्रह्मवेत्ता कहेगाः सिद्धांत तुम्हारे लिए हैं, तुम सिद्धांतों के लिए नहीं। ब्रह्मवेत्ता मनुष्य की महत्ता की घोषणा करेगा, उसकी स्वतंत्रता की घोषणा करेगा। उसकी निजता के ऊपर ब्रह्मवेत्ता किसी को भी नहीं रखता।
चंडीदास का प्रसिद्ध सूत्र हैः मानुष सत्य, मनुष्य का सत्य सबसे ऊपर है, उसके ऊपर कोई सत्य नहीं। मानुष सत्य साबार ऊपर, ताहार ऊपर नाहीं। यह ब्रह्मवेत्ता की उदघोषणा है। मनुष्य का सत्य सबसे ऊपर है, उसके ऊपर कोई सत्य नहीं।
तुम्हारी बलि बकरों की तरह दी गई है। पत्थरों के सामने तुम मारे गए हो, तुम बुरी तरह काटे गए हो, तुम्हारे अंग भंग किए गए हैं। तुम्हारे हाथ काट डाले गए हैं, तुम्हारी चेतना पंगु कर दी गई है, तुम्हारे पैर तोड़ दिए गए हैं और पैरों की जगह तुम्हें बैसाखियां दे दी गई हैं। और बैसाखियां देने वाले कहते हैं कि देखो हमारी करुणा, हमारी दया! पहले तुम्हें लंगड़ा बनाते हैं, फिर तुम्हें बैसाखी देते हैं। पहले तुम्हें अंधा बनाते हैं, फिर तुम्हें चश्मे पकड़ाते हैं। पहले तुम्हारे कान फोड़ देते हैं, फिर सुनने के यंत्र तुम्हें प्रदान करते हैं, बड़ा दान करते हैं।
आदमी न किसी शास्त्र के लिए है, न किसी सिद्धांत के लिए। सब शास्त्र आदमी के लिए हैं और सब सिद्धांत आदमी के लिए हैं। और जब जरूरत हो, सिद्धांतों को काट डालना, शास्त्रों को छांट डालना, लेकिन अपनी बलि किसी भी वेदी पर मत देना।
अगर ब्राह्मण का यह अर्थ हो, तब तो मैं राजी हो जाऊं। सत्यानंद ने इसीलिए ब्राह्मण शब्द को शायद छोड़ दिया। सत्यानंद भलीभांति जानते हैं कि मेरे हाथ में ब्राह्मण का क्या अर्थ होगा। और उनको तकलीफ यह हुई होगी कि मेरे ब्राह्मण के अर्थ के साथ फिर पूरे सूत्र का अर्थ नहीं बैठेगा। मैं ब्राह्मण को चुन लूंगा, पूरे सूत्र को आग लगा दूंगा। मुझे पूरे सूत्र से क्या लेना-देना? लेकिन तैत्तरीय उपनिषद की भी यह इच्छा नहीं, जो मेरी इच्छा है।
तैत्तरीय उपनिषद कहता हैः ब्राह्मणाः संदर्शिनो युक्ता आयुक्ता अलूसा धर्मकामाः स्युः, यथा ते तक्र वर्तेरन तथा तत्र वर्तेथाः। ब्राह्मण के पास जाओ, कब? ‘यदि कभी आपको अपने कर्म या आचरण के संबंध में संदेह उपस्थित हो।’
कर्म और आचरण के संबंध में संदेह कब उपस्थित होता है? जब कर्म और आचरण उधार होता है तभी संदेह उपस्थित होता है। अगर कर्म और आचरण तुम्हारी अपनी अनुभूति, अपनी प्रज्ञा, अपने बोध से जन्मा हो तो कैसा संदेह? असल में अगर तुम्हारे ध्यान से ही बहा हो तो संदेह असंभव है। क्योंकि संदेह को छोड़ कर ही तो ध्यान उत्पन्न होता है। फिर संदेह कहां? संदेह कैसा? जब स्वयं के प्रकाश में कोई चलता है तो कोई संदेह नहीं होता। मैंने तो इधर पच्चीस-तीस वर्षों में कोई संदेह नहीं जाना। खोजता हूं बहुत, एकाध मिल जाए, नहीं पाता हूं। सब तरफ से देख डाला, सब तरफ से छान डाला, कोई संदेह दिखाई नहीं पड़ता।
यूं समझो कि जैसे तुम दीया जला कर अंधेरे को खोजने निकलो तो कैसे मिलेगा? दीया जला कर अंधेरे को खोजने निकलोगे तो दीया हाथ में होगा तो अंधेरा रहेगा कैसे? जिसके भीतर का दीया जला है, उसके भीतर के सब अंधेरे मिट जाते हैं। संदेह तो अंधेरा है।
सूत्र कहता हैः ‘यदि कभी आपको अपने कर्म या आचरण के संबंध में संदेह उपस्थित हो... ।’
इससे जाहिर है कि कर्म और आचरण उधार होगा, बासा होगा। किसी और को देख कर तुम चलने लगे होओगे। किसी और की चाल चलोगे तो मुसीबत खड़ी होगी। किसी और का जीवन अगर तुमने आदर्श बना लिया तो तुम जगह-जगह संदेह से भरोगे। क्योंकि तुम्हारी निजता विद्रोह करेगी, बगावत करेगी कि यह तुम क्या कर रहे हो? क्यों तुम आत्महत्या कर रहे हो?
किसी और के पीछे चलना आत्महत्या है। किसी पहाड़ से गिर कर मर जाना केवल शरीर-हत्या है, आत्महत्या नहीं। उसके लिए आत्महत्या शब्द का उपयोग करना उचित नहीं। जहर खाकर मर जाना शरीर-हत्या है। गर्दन काट कर मर जाना शरीर-हत्या है, आत्महत्या नहीं। और शरीर के मरने से कोई मरता है? न हन्यते हन्यमाने शरीरे! कृष्ण कहते हैंः नहीं कोई मरता। शरीर मर जाए, इससे मृत्यु नहीं होती। लेकिन दूसरे का आचरण आधार बना लो तो यह आत्महत्या है। यूं तुम जीओगे, मगर उधार जीओगे। पैर तुम्हारे अपने न होंगे, किसी और के पैर से चलोगे। आंखें तुम्हारी अपनी न होंगी, किसी और की आंखों से देखोगे। कर्म तुम करोगे, लेकिन भीतर भरोसा नहीं हो सकता कि मैं ठीक कर रहा हूं या गलत; क्योंकि भीतर से वह कर्म आया नहीं, तुम्हारी श्रद्धा से उपजा नहीं, तुम्हारे बोध से जन्मा नहीं।
संदेह तो पैदा होगा तभी, जब तुमने ऊपर से ओढ़ लिया हो। राम-नाम की चदरिया तुमने ऊपर से ओढ़ ली हो, इससे क्या फर्क पड़ेगा? लाख बारीक अक्षरों में तुम राम-नाम लिख डालो अपनी पूरी चदरिया पर, इससे कुछ भी होने वाला नहीं है। इससे इतना ही होगाः ‘सत्य बोलो गत्य है, राम-नाम सत्य है।’ राम-नाम की चदरिया ओढ़ ली, कफन ओढ़ लिया। राम-नाम भीतर जगना चाहिए। तुम्हारा अपना स्वर, अपना गीत होना चाहिए। फिर कोई संदेह नहीं।
सूत्र की शुरुआत ही गलत हैः ‘कर्म या आचरण के संबंध में संदेह उपस्थित हो... ।’
और संदेह जिस कारण उपस्थित हो रहा है वही समाधान बताया जा रहा है। जहां से बीमारी लाए हो वहीं भेजा जा रहा है वापस कि जाओ फिर किसी ब्राह्मण के पास बैठो। ब्राह्मण से मतलब ब्रह्मज्ञानी नहीं; ब्राह्मण से मतलब, जन्म से जो ब्राह्मण है, तोता। जो जन्म से ही शास्त्रों को घोल-घोल कर पी रहा है। शास्त्र उसकी स्मृति हैं, उसकी श्रुति हैं, लेकिन उसका बोध नहीं, उसका बुद्धत्व नहीं। सुना है उसने, कंठस्थ कर लिया है।
और पुरानी भाषाओं में यह खूबी थी, उन्हें कंठस्थ किया जा सकता था। क्योंकि पुरानी भाषाएं बड़ी संगीतपूर्ण थीं, बड़ी लयबद्ध थीं। संस्कृत, अरबी--इनको याद करना बहुत आसान, क्योंकि इनमें एक तुक है, इनमें एक लय है, एक छंद है। और ये सारी भाषाएं सूत्रबद्ध थीं। इसीलिए छोटे-छोटे सूत्र लिखे गए, ताकि कोई भी व्यक्ति इनको याद कर ले। और याददाश्त को बुद्धिमत्ता समझा जाता था। इसलिए सारा जोर इस बात पर था कि कंठस्थ करने की कला आ जाए तो तुम विद्वान हो जाओगे।
जब सिकंदर भारत से वापस लौट रहा था तो उसे खबर मिली कि एक ब्राह्मण के पास ऋग्वेद की मूल प्रति है। सिकंदर खुद तो बहुत उत्सुक नहीं था ऋग्वेद में, लेकिन उसका गुरु था अरस्तू, और जब सिकंदर चला था एथेंस से तो अरस्तू ने कहा थाः कुछ चीजें मेरे लिए भी लेते आना। हो सके तो ऋग्वेद की एक प्रति ले आना; सुना है सबसे पुराना शास्त्र है हिंदुओं का। और बन सके, संभव हो सके, कोई संन्यासी राजी हो जाए तो किसी संन्यासी को ले आना।
दोनों चेष्टाएं उसने कीं और दोनों में असफल हुआ। और बहुत कुछ ले गया। सोना, चांदी, हीरे-जवाहरात, बड़ी लूट, हजारों हाथी और ऊंटों पर लाद कर यह सब ले जाया गया। लेकिन ये दो चीजें जो अरस्तू ने बुलाई थीं, नहीं ले जा सका। एक संन्यासी से कहा तो उसने तो हंस दिया। उसने कहा, ‘मैं अपना मालिक हूं। मुझे कौन है तू आज्ञा देने वाला? मैं अपनी आज्ञा से जीता हूं। परमात्मा भी मुझे आज्ञा दे तो मैं सुनने वाला नहीं हूं। मैं अपने ढंग, अपनी मौज का आदमी हूं। यह बेहूदी बात वापस ले ले!’
सिकंदर तो आगबबूला हो गया। इस तरह की भाषा कोई उससे बोला नहीं था। उसने तलवार खींच ली। उसने कहा, ‘अपने शब्द वापस लो, अन्यथा अभी गर्दन काट कर गिरा दूंगा।’
वह संन्यासी हंसने लगा। सिकंदर के इतिहास लिखने वाले लोगों ने उसका नाम दंदामिस लिखा है; वह यूनानी रूप मालूम होता है। दंदामिस भारतीय नाम नहीं मालूम होता। हो सकता है दंडी साधु रहा हो, जो डंडा रखते हैं। और यह आदमी चाहे डंडा न भी रखता हो, मगर डंडा रखता था। रहा होगा कबीर जैसा आदमी। सिकंदर से ऐसी भाषा बोले, कबीर जैसा रहा होगा। जैसा कबीर कहते हैंः लिए लुकाठी! कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ। लट्ठ लिए हाथ खड़ा है कबीर और बाजार में खड़ा है कबीर। घर जो बारै आपना चले हमारे साथ! है किसी की हिम्मत, है कोई माई का लाल कि जला दे अपना घर, राख कर दे अपना घर और हमारे साथ हो ले!
तो डंडा चाहे हाथ में न भी रहा होगा, मगर था डंडे वाला आदमी। सिकंदर से उसने कहा, ‘चूक मत! मैं तो अपने शब्द वापस लूंगा नहीं। अरे जो दे दिया, क्या वापस लेना! दिया दान कहीं वापस लिया जाता है, यह क्या बात हुई? रही गर्दन काटने की बात, सो काट ले, अभी काट ले! जहां तक मेरा सवाल है, जमाने हुए तब की काट चुका हूं। जिस दिन जाना उसी दिन गर्दन कट गई। जिस दिन अपने को पहचाना उसी दिन जान लिया कि शरीर मुर्दा है। अब मुर्दे को और क्या मारेगा? मार ले, तुझे मारने का मजा मिल जाएगा और हमें भी देखने का मजा आ जाएगा। तू देखेगा गर्दन कटती हुई, जमीन पर गिरती हुई; हम भी देखेंगे। तू बाहर से देखेगा, हम भीतर से देखेंगे। देखने वाला जब मौजूद है तो गर्दन के कटने से कुछ भी बनता-बिगड़ता नहीं।’
सिकंदरझेंपा, शर्माया, तलवार वापस म्यान में रखने लगा।
उस फकीर ने कहा, ‘अब क्या तलवार वापस रखता है? अरे निकली तलवार वापस रखी जाती है? मैं बोले शब्द वापस नहीं लेता, तू निकली तलवार वापस रखता है? शर्म खा! संकोच कर!’
मगर ऐसे आदमी को कैसे मारना! ऐसे आदमी को मारा नहीं जा सका। सिकंदर ने कहा, ‘मुझे क्षमा करें। मुझे संन्यासियों से बात करने का कोई सलीका नहीं आता। आप पहले संन्यासी हैं। मैं सैनिक की भाषा बोलता हूं, सैनिकों से मिलता-जुलता हूं, मैं तो तलवार की भाषा समझता हूं। सम्राटों से मिला हूं, गर्दनें काटी हैं, अपनी कटवाने को तैयार रहा हूं। मैं वही जानता हूं। मुझे क्षमा कर दें। मगर तुम जैसा मैंने आदमी नहीं देखा। ठीक ही कहा था अरस्तू ने कि हो सके... क्योंकि यह बात असंभव है कि कोई संन्यासी आने को राजी हो। जो आने को राजी हो वह संन्यासी नहीं होगा। उसने ठीक कहा था। मुझे बिना संन्यासी ही जाना पड़ेगा।’
तब उसने ऋग्वेद की तलाश शुरू की। एक ब्राह्मण के घर, खबर मिल गई, उसने घर घेर लिया कि ब्राह्मण कहीं भाग न जाए। ब्राह्मण से कहा। अब तुम फर्क देखो एक संन्यासी का और ब्राह्मण का! ब्राह्मण ने कहा, ‘दे दूंगा, जरूर दे दूंगा।’ घबड़ा गया। ये नंगी तलवारें घर को घेरे हुए। यूं जैसे लपटें लपलपाती हुई। ब्राह्मण तो घुटनों पर गिर पड़ा। उसने कहा कि जरूर दे दूंगा, लेकिन नियम है, व्यवस्था है कि रात भर देने के पहले मुझे पूजा करनी होगी; विदाई कर रहा हूं। और सुबह सूरज के ऊगने के साथ आपको किताब भेंट कर दूंगा।
सिकंदर को बात समझ में आई कि कोई रिवाज है, पूजा है, पाठ है, कर लेने दो। अभी नहीं तो सुबह; भाग कर जाएगा कहां, सब चारों तरफ तलवारें लगी हुई हैं!
रात उसने अपने बेटे को पास बिठाया, आग जलाई और एक-एक पन्ना ऋग्वेद का पढ़ता गया और बेटे से कहा, ‘तू सुन ले, ठीक से सुन ले, याद रख ले।’ और जैसे ही पूरा पन्ना पढ़ लेता, उसको आग में डाल देता। सुबह होते-होते जब सिकंदर घर में प्रविष्ट हुआ, आखिरी पन्ना आग में डाला जा चुका था। सिकंदर हक्का-बक्का रह गया। उस ब्राह्मण से कहा, यह तुमने क्या किया? उसने कहा कि तुम्हें जो मैंने वायदा किया था, उससे मुकरूंगा नहीं। यह मेरे बेटे को तुम ले जाओ, इसको पूरा ऋग्वेद कंठस्थ है।
सिकंदर को भरोसा न आया कि रात भर में ऋग्वेद जैसी बड़ी किताब एक ही बार सुने जाने पर कैसे कंठस्थ हो सकती है! उसने और ब्राह्मणों को बुलवाया, जांच करवाई और पाया कि उस लड़के को सब कंठस्थ है।
संस्कृत, अरबी, लैटिन, ग्रीक, ये सारी पुरानी भाषाएं कंठस्थ करने की कला पर बड़ा जोर देती थीं। इनका आग्रह यही था--बोध नहीं, स्मृति। जो जान ले, उसका मतलब यह नहीं था कि उसने पहचान लिया; उसका मतलब यह था कि उसे शास्त्र याद हैं और वह यंत्रवत उन्हें दोहरा देगा। और आज तो वैज्ञानिक कहते हैं कि एक-एक मस्तिष्क की स्मरण करने की क्षमता असीम है। एक मस्तिष्क सारी दुनिया के जितने पुस्तकालय हैं उन सबको कंठस्थ कर सकता है, इतनी एक मस्तिष्क के भीतर संभावना छिपी है। अभी बड़े-बड़े कंप्यूटर ईजाद किए गए हैं, लेकिन कोई भी कंप्यूटर मनुष्य के मस्तिष्क का मुकाबला नहीं कर सकता। करेगा भी कैसे, क्योंकि आखिर कंप्यूटर मनुष्य के मस्तिष्क की ईजाद है। कितना ही बड़ा कंप्यूटर बना लिया जाए, वह बनाएगा तो मनुष्य का मस्तिष्क। और बनाई गई चीज बनाए जाने वाले से कभी बड़ी नहीं हो सकती है।
ये तोते थे। अब इन्हीं तोतों के कारण तो कर्म और आचरण संदेह से भरा हुआ है। किन्हीं और तोतों ने, मगर इन्हीं जैसे तोतों ने, किन्हीं और पींजड़ों में बंद, मगर इन्हीं जैसे पींजड़ों में बंद, तोतों ने आचरण दिया होगा, सत्यानंद, तभी तो संदेह पैदा हो रहा है। और अब फिर जिन्होंने रोग दिया है उन्हीं के पास जाने की सलाह तैत्तरीय उपनिषद दे रहा है। वह कहता है कि जाओ, फिर किसी विचारशील ब्राह्मण के पास।
अब ब्राह्मण तो वह है जो विचारमुक्त हुआ हो। ब्राह्मण विचारशील नहीं होता। मेरी भाषा का ब्राह्मण तो विचारमुक्त होकर ही ब्रह्म को जानता है; निर्विचार होकर ही ब्रह्म को जानता है। पतंजलि मुझसे राजी होंगे, महावीर मुझसे राजी होंगे, बुद्ध मुझसे राजी होंगे। जिन्होंने भी जाना है वे मुझसे राजी होंगे कि विचार के पार जाकर ही--विचार तो उपद्रव है, विक्षिप्तता है--निर्विचार में ही, उस शून्य में ही तो पूर्ण का अवतरण होता है। जब तक तुम शून्य नहीं हो तब तक पूर्ण को झेलने की क्षमता भी तुम्हारी नहीं। शून्य ही झेल सकता है पूर्ण को, क्योंकि पूर्ण है असीम और शून्य भी है असीम। असीम ही असीम को अपने भीतर आवास दे सकता है। असीम ही अतिथि को आतिथ्य दे सकता है। असीम ही मेजबान बन सकता है उस परम मेहमान का। शून्य हमारी क्षमता है और पूर्ण हमारी उपलब्धि।
लेकिन यह सूत्र कहता हैः ‘किसी विचारशील ब्राह्मण... ।’
अब विचार के कचरे से जो भरा है वह किन्हीं और तोतों को दोहरा रहा है। हो सकता है तुमसे ज्यादा कुशल तोता हो, तुमसे ज्यादा ज्ञानी तोता हो, तुमसे ज्यादा शास्त्र घोंट-घोंट कर पी गया हो, तो जरूर तुम्हें कुछ समाधान पकड़ाएगा। मगर वे समाधान ही तुम्हारी सारी समस्याओं के कारण हैं। फिर नये संदेह उठेंगे। संदेह उठते ही रहेंगे, जब तक तुम अपने भीतर निर्विचार के आकाश का द्वार नहीं खोल लेते हो। निर्विचार के आकाश का द्वार खुला कि श्रद्धा का कमल खिला। और श्रद्धा का कमल जब तक न खिले तब तक संदेह पैदा होंगे ही होंगे। ये कांटे होंगे ही होंगे। वही ऊर्जा जो फूल बननी है, दूसरों के पीछे चल-चल कर कांटे बन जाती है। और जब अपने भीतर मुड़ती है तो वही जो जहर थी, अमृत बन जाती है। इस कीमिया को जो दे दे वही सदगुरु है। जो कांटों को फूलों में बदलने की कला सिखा दे, जो मन को अ-मन में बदलने का विज्ञान दे दे, जो इशारे कर दे कि विचार से कैसे निर्विचार हुआ जा सकता है, जो ध्यान की तरफ तुम्हारे जीवन की दिशा को मोड़ दे--वही सदगुरु है, वही ब्राह्मण है।
यह तो ब्राह्मण की परिभाषा न हुई--विचारशील, तपस्वी।
तपस्या का क्या अर्थ होता है? इसका अर्थ होता हैः अपने को सताना, अपने को दबाना, अपने को मारना। यह आत्महिंसा है। ब्रह्मज्ञानी क्यों आत्महिंसा करेगा? जब ब्रह्मज्ञानी परहिंसा नहीं करता तो आत्महिंसा कैसे करेगा? जो दूसरे को भी नहीं मारता वह अपने को कैसे मारेगा? वह क्यों अपने को सताएगा?
और एक बात ख्याल रखना, जो आदमी अपने को सताने में कुशल हो जाता है। वह दूसरों को सताने में भी अनिवार्यरूपेण कुशल हो जाता है। जो अपने को सता रहा है, वह उनकी निंदा करेगा जो अपने को नहीं सता रहे हैं। वह उनको अपराध-भाव से भरेगा कि सताओ अपने को, बिना सताए कोई कभी पहुंचा है? मुझे देखो कितना सता रहा हूं! फिर भी अभी कितने दूर हूं! तुम तो बहुत दूर हो, तुमने तो अभी अपने को सताना सीखा ही नहीं।
उसको वे तपश्चर्या कहते हैं। नंगे खड़े रहो सर्दी में।
अगर परमात्मा को तुम्हें नंगा खड़े रहने के लिए बनाना था तो उसने तुम्हारे सारे शरीर पर बाल दिए होते, जैसे और जानवरों को दिए हैं। यह तो सीधा सा गणित है। तुमने देखा कि जब सर्दी आती है तो भेड़ों के बाल बढ़ जाते हैं। स्वभावतः, क्योंकि सर्दी को सहने का कोई और तो उपाय नहीं भेड़ के पास। आदमी के शरीर पर पूरे शरीर पर बाल नहीं हैं, कुछ हिस्सों पर बाल हैं। और वे वे ही हिस्से हैं जो बहुत संवेदनशील हैं। उनको प्रकृति ने बाल से ढंक दिया है। जैसे जिन अंगों को बचपन से ही बालों से ढंकना जरूरी है, क्योंकि उनकी संवेदनशीलता इतनी है कि अगर वे ढंके न हों तो खतरा है कि उन पर चोट पहुंच जाए, उनको नुकसान हो जाए। संवेदनशील अंग केवल बालों से ढंके हैं, बाकी सारा शरीर तो बालों से मुक्त है; क्योंकि यह भरोसा है कि आदमी कपड़े खोज लेगा, आदमी अपने को ढांकने का ढंग खोज लेगा। जानवर नहीं खोज सकेंगे, उनको नंगा ही रहना है। मगर कुछ पागल हैं जो सिखा रहे हैं कि नग्न खड़े हो जाओ सर्दी में, तो ज्ञान को उपलब्ध हो जाओगे।
पशु हो जाओगे, परमात्मा नहीं। और तुम सर्दी में खड़े होकर देखो, थोड़ी-बहुत बुद्धि होगी वह भी खो जाएगी, वह भी सिकुड़ जाएगी। खून ही जमने लगेगा तो बुद्धि भी जम जाएगी, बर्फ हो जाएगी। और तुम कठोर हो जाओगे और तुम्हारी संवेदनशीलता मर जाएगी। और जिसकी संवेदनशीलता मर गई उसके भीतर की मनुष्यता मर गई। मनुष्य की खूबी ही उसकी संवेदनशीलता है, उसकी ग्रहणशीलता है। मनुष्य के पास सबसे ज्यादा संवेदनशील शरीर है, सबसे ज्यादा संवेदनशील इंद्रियां हैं। उन्हीं इंद्रियों के कारण तो उसकी महिमा है।
मगर यह सारी तपश्चर्या इंद्रियों का दमन है, इंद्रियों को मारना है, खाल को मोटी करना है। और तुम जानते ही हो कि जिसकी खाल मोटी होती है, उसका मतलब क्या होता है। कोई उल्लू का पट्ठा, जिनकी चमड़ी इतनी मोटी है कि तुम लाख उपाय करो, कुछ उनके भीतर जा नहीं सकता। सुनते हैं, मगर सुनते नहीं। देखते हैं, मगर देखते नहीं। उनकी खोपड़ी में कुछ भी डालो, कुछ का कुछ पहुंचता है, चमड़ी इतनी मोटी है। जाते-जाते ही बातें बिगड़ जाती हैं, कुछ अटक जाता है, कुछ इधर ठहरा, कुछ उधर ठहरा। बात हजार टुकड़े हो जाती है। उन तक एकाध टुकड़ा पहुंचता है, उस टुकड़े का फिर वे मतलब निकालते हैं। मोटी चमड़ी, वे मतलब भी क्या निकालेंगे! मतलब की बात भी होगी, अर्थ की बात भी होगी तो अनर्थ कर लेंगे।
लेकिन इन मोटी चमड़ियों का तुम समादर कर रहे हो। इनको तुम तपस्वी कहते हो। मैं तुम्हारे तपस्वियों को भलीभांति जानता हूं, हर तरह से उन्हें देखा और परखा है। एक बात जरूर पाई कि उनमें बुद्धि बिल्कुल नहीं। बुद्धि हो ही नहीं सकती। बुद्धि होती तो ऐसा बुद्धूपन का काम नहीं करते। कुछ हैं जो धूप में खड़े हैं। और धूप से ही उनका मन नहीं मानता तो अंगीठी जलाए हुए हैं चारों तरफ, धूनी रमाए हुए हैं, जैसे सूरज की धूप काफी नहीं! धुआं भी चाहिए, धूनी भी चाहिए, चारों तरफ लकड़ियां जलती रहें, तब उनको चैन मिलेगा।
स्वभावतः जो इस तरह अपने साथ दुर्व्यवहार करेगा, उसकी संवेदनशीलता तो समाप्त सुनिश्चित हो जाने वाली है। वह तो रह जाएगा रूखा-सूखा, रसहीन। और परमात्मा हैः रसो वै सः। वह है रसरूप। और ये रसहीन लोग, ये अरसिक लोग, जो रस को सुखा डाले हैं, जिनके भीतर कुछ भी हरा-भरा नहीं, फूल तो दूर पत्ते भी नहीं ऊगते, जो ठूंठ की तरह खड़े रह गए हैं, मरे हुए वृक्ष--इनको तुम तपस्वी कहते हो।
कोई ब्रह्मज्ञानी तपस्वी नहीं होता। मेरे देखे में तो ब्रह्मज्ञानी ही सिर्फ भोगी होता है। वह परमभोग में जीता है। वह परमात्मा को भोग रहा है, इससे बड़ा और क्या भोग हो सकता है?
और ब्राह्मण की परिभाषा को आगे खींचा गयाः ‘विचारशील, तपस्वी, कर्तव्यपरायण।’
कर्तव्य शब्द ही गंदा है। प्रेम से जीना समझ में आता है, कर्तव्य से जीना समझ में नहीं आता। यह तुम्हारी पत्नी है, इसलिए तुम्हारा कर्तव्य है कि इसको प्रेम करो। अब जब कोई कर्तव्य से प्रेम करेगा तो तुम सोच ही सकते हो कि प्रेम क्या खाक होगा! दिखावा होगा, वंचना होगी, धोखा होगा। ऊपर-ऊपर प्रेम होगा, भीतर-भीतर घृणा होगी। और घृणा फूट-फूट कर निकलेगी। कितना दबाओगे? एक सीमा है दबाने की। कहां तक रोकोगे? एक तरफ से रोकोगे, दूसरी तरफ से बहेगी। वह घृणा तुम्हारे भीतर जो तुम इकट्ठी कर रहे हो--कर्तव्य के नाम पर। और कर्तव्य सिखाया जा रहा है, हरेक को कर्तव्य सिखाया जा रहा है। प्रेम की तो बात ही मत करना। इस सूत्र में कहीं प्रेम नहीं आता।
ब्रह्मज्ञानी प्रेम से भरा होगा, लबालब होगा। यूं लबालब होगा कि प्रेम उसके ऊपर से बहता होगा। कर्तव्य नहीं होता ब्रह्मज्ञानी के जीवन में, प्रेम होता है। वह जो करता है प्रेम से करता है। जो उसके प्रेम में नहीं आता, नहीं करता। उसके लिए प्रेम ही एकमात्र कसौटी है। जो प्रेम पर खरा उतरता है वही सोना है और जो प्रेम पर खरा नहीं उतरता वह खोटा है।
कर्तव्य सामाजिक व्यवस्था है। तुम्हें सिखाया जाता हैः कर्तव्य का पालन करो। और जो कर्तव्य का पालन करेगा उसको आदर दिया जाता है, सम्मान दिया जाता है, पुरस्कार दिए जाते हैं। यह प्रलोभन है। यह समाज की रिश्वत है कि तुम पद्म-विभूषण होओगे, कि भारत-रत्न बनोगे, नोबल पुरस्कार मिलेगा, कर्तव्य पूरा करो। सब कुछ स्वाहा कर दो कर्तव्य पर। अपनी बलि दे डालो कर्तव्य पर। देश के लिए बलि दो, परिवार के लिए बलि दो, धर्म के लिए बलि दो, जाति के लिए बलि दो। बस तुमसे अपेक्षा यही है कि बलि के बकरे हो जाओ! इस ईद में मरो कि उस ईद में मरो, कोई फिकर नहीं, मरो, मगर ईद में मरो! किसी न किसी ईद में कटो। किसी न किसी जिहाद में, धर्मयुद्ध में बस गर्दन तुम्हारी गिरे। और अगर धर्मयुद्ध में तुम्हारी गर्दन गिरे तो तुम्हारा बैकुंठ निश्चित है, बहिश्त निश्चित है। मुसलमान कहते हैंः जो जिहाद में मरेगा, जो धर्मयुद्ध में मरेगा, वह सीधा स्वर्ग जाता है। और वही दूसरे धर्म भी कहते हैं कि धर्म के लिए मरना स्वर्ग जाने का सुगमतम उपाय है। इधर मरे नहीं कि उधर बैकुंठ के द्वार पर शहनाई बजी नहीं। और मर रहे हो तुम मार कर। मर रहे हो मारने में। उस हिंसा का कोई हिसाब नहीं। जो मुसलमान मर रहा है जिहाद में, वह मर किसलिए रहा है? क्योंकि मारने चला है। अनेकों को मारेगा तब मरेगा। वह अनेकों को मारा, उसका कोई हिसाब नहीं। वह जो अनेक मकान जला दिए, लोग जिंदा जला दिए, उसका कोई हिसाब नहीं।
ईसाइयों ने जिंदा आदमी जलाए--मगर इस आशा में कि यह धर्म का कार्य हो रहा है। और यही हिंदुओं ने किया है। और यही सारे धर्म छोटे-मोटे भेदों से करते रहे हैं। जो जिनकी संख्या छोटी है, नहीं कर सके हैं, तो वे दिल में छिपाए बैठे हैं आग। संख्या छोटी है, बस इसलिए मरने-मारने की भाषा नहीं बोल सकते, तो सहिष्णुता की बातें बोलते हैं, उदारता की बातें बोलते हैं। मगर भीतर उनके अनुदारता भरी हुई है। वह उनकी अनुदारता तलवार में नहीं निकल सकती, तो तर्कों में निकलती है, तर्क की तलवार में निकलती है।
जैसे जैनों ने किसी को मारा नहीं, मार सकते नहीं थे। संभवतः सबसे पुराना धर्म है और संख्या कुल पैंतीस लाख! दस हजार साल में कुल संख्या पैंतीस लाख। दस हजार साल पहले अगर एक दंपति भी, एक जोड़ा भी जैन हुआ होता तो काफी था। दस हजार साल में बच्चों के बच्चे, उल्लू के पट्ठे, पट्ठों के पट्ठे पैंतीस लाख हो जाते। पैंतीस लाख कोई संख्या है? और जिस ढंग से भारत में आदमी बढ़ते हैं--कीड़े-मकोड़ों की तरह! उन्नीस सौ सैंतालीस में भारत आजाद हुआ तो आबादी थी पैंतीस करोड़। सिर्फ तीस-तैंतीस साल में आबादी दुगनी हो गई, आज आबादी है सत्तर करोड़। क्या उत्पादन है! क्या सृजनशीलता है! सृष्टि करना कोई अगर जानता है तो बस भारतीय ही जानते हैं।
दस हजार साल में पैंतीस लाख जैन! अब बेचारे उदारता की बात न करें तो क्या करें? जैन सारे देश में सर्व-धर्म-समन्वय-सम्मेलन बुलाते हैं। बुलाना पड़ता है। घबड़ाए हुए हैं, डरे हुए हैं। मगर भीतर आग जलती है। वह आग निकलती है उनकी किताबों में। उनकी किताबों में जितना जहर है उतना किसी की किताबों में नहीं। उनकी किताबों में सिर्फ तर्क है। तलवार से बचे हैं तो तर्क की तलवार उठा ली है। तो काटा-पीट में लगे हुए हैंः सब गलत है! हालांकि उनकी किताबें कोई पढ़ता नहीं सिवाय उनके, नहीं तो उनकी किताबों में जहर भरा हुआ है। कहीं न कहीं से दबी हुई मवाद निकलेगी।
कर्तव्यपरायण होने से कुछ भी नहीं हो सकता।
और सूत्र कहता हैः ‘शांत स्वभाव... ।’
विचारशील व्यक्ति शांत कैसे हो सकता है? जन्मना ब्राह्मण कैसे वस्तुतः शांत हो सकता है? हां, शांत होने का प्रदर्शन कर सकता है, अभिनय कर सकता है। और अभिनय ही तुम्हें दिखाई पड़ेगा। जरा कुरेदो उसे भीतर और तुम अशांति पाओगे, गहन अशांति पाओगे। जरा सा कुरेद दो और क्रोध भभक उठेगा। बिना कुरेदे तुम्हें पता नहीं चलेगा। ऊपर-ऊपर से देखा तो चंदन-वंदन लगाए, चुटैया बांधे, जनेऊ पहने--मुख में राम बगल में छुरी--मुंह को ही देखा तो छुरी तुम्हें दिखाई न पड़ेगी।
यही ब्राह्मण इस देश में, इस देश की बड़ी से बड़ी संख्या, शूद्रों को सता रहे हैं सदियों से। ये कैसे शांत लोग हैं? और अभी भी इनका दिल नहीं भरा। आज भी वही उपद्रव जारी है। अभी सारे देश में आग फैलती जाती है। और गुजरात से क्यों शुरू होती है यह आग? पहले भी गुजरात से शुरू हुई थी। तब ये जनता के बुद्धू सिर पर आ गए थे। अब फिर गुजरात से शुरू हुई है। गुजरात से शुरू होने का कारण साफ है। यह महात्मा गांधी के शिक्षण का परिणाम है, यह उनकी शिक्षा का परिणाम है। वे दमन सिखा गए हैं। और सबसे ज्यादा गुजरात ने उनको माना है। क्योंकि गुजरात के अहंकार को बड़ी तृप्ति मिली कि गुजरात का बेटा और पूरे भारत का बाप हो गया! अब और क्या चाहिए? गुजराती का दिल बहुत खुश हुआ। उसने जल्दी से खादी पहन ली। मगर खादी के भीतर तो वही आदमी है जो पहले था।
महात्मा गांधी के भीतर खुद वही आदमी था जो पहले था। उसमें भी कोई फर्क नहीं था। महात्मा गांधी बहुत खिलाफ थे इस बात के कि शूद्र हिंदू धर्म को छोड़ें। उन्होंने इसके लिए उपवास किया था--आजन्म, आजीवन। मर जाने की धमकी दी थी--आमरण अनशन--कि शूद्र को अलग मताधिकार नहीं होना चाहिए।
क्यों? पांच हजार सालों में इतना सताया है उसको। कम से कम उसे अब कुछ तो सत्ता दो, कुछ तो सम्मान दो। उसके अलग मताधिकार से घबड़ाहट क्या थी? घबड़ाहट यह थी कि शूद्रों की संख्या बड़ी है। और शूद्र ब्राह्मणों को पछाड़ देंगे, अगर उन्हें मत का अधिकार पृथक मिल जाए। तो मत का अधिकार रुकवाया गांधी ने।
आमरण अनशन की धमकी हिंसा है, अहिंसा नहीं। और एक आदमी के मरने से या न मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता। यूं ही मरना है। लेकिन दबाव डाला गया शूद्रों पर सब तरह का कि तुम पर यह लांछन लगेगा कि महात्मा गांधी को मरवा डाला। यूं ही तुम लांछित हो, ऐसे ही तुम अछूत हो; ऐसे ही तुम्हारी छाया भी छू जाए किसी को तो पाप हो जाता है; तुम्हें और लांछन अपने सिर लेने की झंझट नहीं लेनी चाहिए। बहुत दबाव डाला गया। दबाव डाल कर गांधी का अनशन तुड़वाया गया और शूद्रों का मताधिकार खो गया।
अब गुजरात में उपद्रव शुरू हुआ है कि शूद्रों को जो भी आरक्षित स्थान मिलते हैं विश्वविद्यालयों में, मेडिकल कालेजों में, इंजीनियरिंग कालेजों में, वे नहीं मिलने चाहिए। क्यों?
‘क्योंकि स्वतंत्रता में और लोकतंत्र में सबको समान अधिकार होना चाहिए।’
मगर शूद्रों को तुमने पांच हजार साल में इतना दबाया है कि उनके बेचारों के समान अधिकार का सवाल ही कहां उठता है?
‘सबको गुण के अनुसार स्थान मिलना चाहिए।’
लेकिन पांच हजार साल से जिनको किताबें भी नहीं छूने दी गईं, जिनको किसी तरह की शिक्षा नहीं मिली, वे ब्राह्मणों से, क्षत्रियों से, वैश्यों से कैसे टक्कर ले सकेंगे? उनके बच्चे तो पिट जाएंगे। उनके बच्चे तो कहीं भी नहीं टिक सकते। उनके बच्चों को तो विशेष आरक्षण मिलना ही चाहिए। और यह कोई दस-बीस वर्ष तक में मामला हल होने वाला नहीं है। पांच हजार, दस हजार साल जिनको सताया गया है, तो कम से कम सौ, दो सौ साल तो निश्चित ही उनको विशेष आरक्षण मिलना चाहिए, ताकि इस योग्य हो जाएं कि वे खुद सीधा मुकाबला कर सकें। जिस दिन इस योग्य हो जाएंगे, उस दिन आरक्षण अपने आप बंद हो जाएगा।
लेकिन आरक्षण उनको नहीं मिलना चाहिए, इसके पीछे चालबाजी है, शड्यंत्र है। शड्यंत्र वही है, क्योंकि सबको जाहिर है। जिनके पैर दस हजार साल तक तुमने बांध रखे और अब दस हजार साल के बाद तुमने उनकी पैर की जंजीर तो अलग कर ली, तुम कहते हो, सबको समान अधिकार है, इसलिए तुम भी दौड़ो दौड़ में। लेकिन जो लोग दस हजार साल से दौड़ते रहे हैं, धावक हैं, उनके साथ जिनके पैर दस हजार साल तक बंधे रहे हैं इनको दौड़ाओगे, तो सिर्फ फजीहत होगी इनकी। ये दो-चार कदम भी न चल पाएंगे और गिर जाएंगे। ये कैसे जीत पाएंगे? ये प्रतिस्पर्धा में कैसे खड़े हो पाएंगे? थोड़ी शर्म भी नहीं है इन लोगों को जो आरक्षण-विरोधी आंदोलन चला रहे हैं।
और यह आग फैलती जा रही है; अब राजस्थान में पहुंच गई; अब मध्यप्रदेश में पहुंचेगी। और एक दफे बिहार में पहुंच गई तो बिहार तो बुद्धुओं का अड्डा है। बस गुजरात के उल्लू और बिहार के बुद्धू अगर मिल जाएं, तो पर्याप्त। इस देश की बरबादी के लिए फिर कोई और चीज की जरूरत नहीं है। और ज्यादा देर नहीं लगेगी। जो बिहार के बुद्धू हैं वे तो हर मौके का उपयोग करना जानते हैं। जरा बुद्धू हैं इसलिए देर लगती है उनको। गुजरात से उन तक खबर पहुंचने में थोड़ा समय लगता है, मगर पहुंच जाएगी। और एक दफा उनके हाथ में मशाल आ गई तो फिर बहुत मुश्किल है। फिर उपद्रव भारी हो जाने वाला है। और यह आग फैलने वाली है, यह बचने वाली नहीं है। और इस सब आग के पीछे ब्राह्मण है। उसको डर पैदा हो गया है। ब्राह्मण ने बड़ी ऊंची तरकीब की थी।
मनुस्मृति हिंदू धर्म का मूल आधार-ग्रंथ है, जिससे हिंदू की नीति निर्धारित होती है। वह हिंदुओं का संविधान है। मनुस्मृति कहती हैः ‘स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं अध्ययन-मनन का।’ पचास प्रतिशत संख्या को काट दिया। ‘शूद्रों को कोई अधिकार नहीं अध्ययन-मनन का।’ और जो बचे थे, उनमें से पचास प्रतिशत काट दिए। अब अधिकार रह गया सिर्फ ब्राह्मण का, क्षत्रिय का, वैश्य का। वैश्य का अधिकार इतना ही है कि वह व्यवसाय के योग्य शिक्षा प्राप्त करे। क्षत्रिय का अधिकार इतना ही है कि वह युद्ध के लड़ने योग्य शिक्षा प्राप्त करे।
यही कृष्ण समझा रहे थे अर्जुन को कि तू क्षत्रिय है, तेरा धर्म लड़ना है। संन्यास तेरा धर्म नहीं है। यह ध्यान और समाधि लगाना तेरा धर्म नहीं है। तू अपना कर्तव्य निभा। ब्राह्मणों जैसी बातें न कर। क्षत्रिय है, तू लड़! नहीं तेरी अवमानना होगी, अपमान होगा।
क्षत्रिय को भड़काने के लिए ‘अपमान’ शब्द एकदम जरूरी है। बस अपमान शब्द ले आओ कि क्षत्रिय भड़का।
मैं मनाली जा रहा था। तो बड़ी कार, और बीच में वर्षा हो गई। तो जो सरदार मेरी कार को चला रहा था, उसने बीच रास्ते में गाड़ी रोक दी। क्योंकि थोड़ी फिसलन थी, रास्ता चंडीगढ़ और मनाली के बीच बहुत संकरा है और खतरनाक है। और गाड़ी बड़ी थी। और बहुत सम्हल कर चलना जरूरी था। और जगह-जगह कीचड़ थी। और गाड़ी फिसलती थी, चढ़ाई भी थी। उसने कहा, ‘मैं आगे नहीं जा सकता।’ वह तो नीचे उतर कर बैठ गया।
मैंने उससे कहा, ‘यूं कर, तू पीछे बैठ जा, गाड़ी मैं चलाता हूं।’
उसने कहा कि मैं जिंदगी भर पहाड़ियों में गाड़ी चलाता रहा और मुझे खतरा है कि गाड़ी गिर जाएगी और आपने शायद जिंदगी में कभी ऐसे खतरनाक रास्ते पर गाड़ी न चलाई होगी। मैं इस गाड़ी में नहीं बैठ सकता। आपको चलाना हो तो आप चलाएं।
मैंने कहा, ‘मुझे रास्ता मालूम नहीं, तू सिर्फ रास्ता बता।’
मगर वह इसके लिए भी राजी नहीं। वह कहे कि मैं अपनी जान क्यों खतरे में डालूं? मैं तो यहीं से वापस लौटूंगा।
बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। तभी पंजाब के आई.जी. थे, वे भी मनाली शिविर में भाग लेने आ रहे थे, सरदार थे, उनकी जीप आकर रुकी। मैंने उनसे कहा कि अब आप ही कुछ करो। तरबूज खरबूज की भाषा समझते हैं! यह मेरी भाषा समझता नहीं। अब दोनों सरदार निपट लो।
और तत्क्षण बात बन गई। आई.जी. सरदार ने कहा, ‘अरे शर्म नहीं आती खालसा का आदमी होकर? वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरु जी की फतह! उठ!’
और वह सरदार एकदम उठ आया, एकदम गाड़ी चलाने लगा। फिर उसने रास्ते भर, खतरनाक और आगे रास्ता खतरनाक था, फिर उसने कुछ नहीं कहा। जहां जरा मैं उसको ढीला-ढाला देखूं, कहूंः वाहे गुरु जी का खालसा! और वह एकदम फिर सम्हल जाए और गाड़ी चलाने लगे।
वही कृष्ण कर रहे हैं अर्जुन के साथः ‘अरे तू क्षत्रिय है! क्या अपमान करवाएगा? बेइज्जती करवाएगा? लड़ना, मरना और मारना तेरा धर्म है। तू ब्राह्मण की भाषा बोल रहा है? कि संन्यास ले लूंगा, जंगल में रहूंगा, मुझे नहीं चाहिए राजपाट! यह धन का मैं क्या करूंगा? अरे मैं तो शांति से बैठूंगा!’
तो क्षत्रिय को लड़ना, बस उतनी कला सीखनी है। तब रह गया ज्ञान, ध्यान, जीवन का जो चरम अर्थ है, जीवन की जो चरम सुगंध है--उसका अधिकारी रह गया केवल ब्राह्मण।
दस हजार सालों से ब्राह्मण भारत की छाती पर बैठा है, अब भी यह उतरना नहीं चाहता। यही इसके पीछे है--इन सारे उपद्रवों के पीछे है।
शांत स्वभाव और ब्राह्मण? तो ये दुर्वासा जैसे ऋषि किसने पैदा किए? जो जरा सी बात में अभिशाप दे डालें। और ऐसे अभिशाप कि इस जन्म में नहीं, अगले जन्मों तक बिगाड़ दें। जन्मों-जन्मों तक तुम्हारा पीछा करें। और ये ब्राह्मण हैं! ब्राह्मण ही नहीं हैं, ऋषि हैं, मुनि हैं। और इनको अभी भी ऋषि-मुनि कहने में किसी को शर्म नहीं, किसी को संकोच नहीं।
तुम जरा अपने ऋषि-मुनियों की कथाएं तो पढ़ो। अपने ब्राह्मणों का पिछला हिसाब-किताब तो देखो। इनमें तुम्हें शांत स्वभाव लोग मिलेंगे? न तो बुद्ध ब्राह्मण हैं, न महावीर ब्राह्मण हैं। इस देश में जिन्होंने शांति को उपलब्ध किया है, उनमें ब्राह्मणों का कहीं नाम नहीं आता, कहीं उल्लेख नहीं आता। ब्राह्मण महाभिमानी रहा है। स्वभावतः, वह शिखर पर था। वह सबके सिर पर बैठा था। अभिमान बिल्कुल स्वाभाविक था। हां, विनम्रता का ढोंग करता है। क्यों? क्योंकि विनम्रता को ही सम्मान मिलता है।
इस गणित को समझो। विनम्रता को सम्मान मिलता है इसलिए विनम्र हो जाता है। लेकिन सम्मान पाने की आकांक्षा में यह विनम्रता है।
एक सज्जन ने, चंद्रकांत त्रिवेदी ने प्रश्न पूछा है कि आप में विनम्रता नहीं दिखाई पड़ती। जब आप कहते हैं--‘मेरे संन्यासी’, तो यह तो अहंकार हो गया।
इस बात में सचाई है। मुझमें विनम्रता बिल्कुल नहीं, क्योंकि विनम्रता तो केवल अहंकार का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। अहंकार ही नहीं तो विनम्रता मुझमें कैसे होगी? मैं विनम्र बिल्कुल नहीं हूं। मैं तो जैसा हूं वैसा हूं। न अहंकारी हूं, न विनम्र हूं। रह गए ‘मेरे संन्यासी’ तो क्या मैं यह कहूं कि चंद्रकांत त्रिवेदी, ‘तुम्हारे संन्यासी’? सिर्फ विनम्र होने के लिए! भाड़ में जाए ऐसी विनम्रता। मुझे न कोई सम्मान चाहिए, इसलिए क्यों विनम्र होने का धोखा-धंधा करूं? सच्ची बात कहूंगा। मेरे संन्यासी हैं, अब मैं करूं क्या? मैं नहीं हूं, मगर संन्यासी तो मेरे हैं। मैं नहीं हूं, इसीलिए तो ये मेरे संन्यासी हैं। यह ‘मेरे’ तो केवल भाषा की बात है। अब क्या सिर्फ इससे बचने के लिए यह कहूं कि ‘आपके संन्यासी’?
नहीं, ऐसी विनम्रता, ऐसी कर्तव्यपरायणता, ऐसी शांति में मेरा कोई भरोसा नहीं।
मैंने सुना है कि लखनऊ में एक स्त्री गर्भवती हुई और गर्भवती बनी ही रही। नौ महीने आए, गुजर गए; नौ सालें आईं और गुजर गईं। और स्त्री की मुसीबत समझो। मगर लखनवी ढंग ही और, हिसाब ही और। यह तो बाद में राज खुला--नब्बे साल के बाद। क्या गुजरी होगी उस स्त्री पर! नब्बे साल बाद, मजबूरी में उसका पेट फाड़ा गया। तो दो बुजुर्ग निकले; बुजुर्ग तो हो ही चुके थे। थे छोटे-छोटे, मगर थे बुजुर्ग। बाल सफेद, दाढ़ी सफेद, बस एक पैर कब्र में ही था। और जो दृश्य था वह देखने योग्य था। पेट तो फाड़ दिया गया, तब सब राज खुला। वे दोनों एक-दूसरे से कहेंः ‘पहले आप!’
तब राज खुला कि क्यों नौ महीने में नहीं निकले। वह ‘पहले आप! कि नहीं हुजूर पहले आप!’ वह विनम्रता मार गई। पेट फटा पड़ा है, मगर वह लखनवी विनम्रता, वे कहें कि ‘नहीं, पहले आप।’ अरे, डाक्टर ने कहा, निकलो भी! जबरदस्ती निकालना पड़े, तब निकले वे। बामुश्किल निकले, बड़े बेमन से निकले, क्योंकि लखनवी रिवाज टूटा जा रहा है।
मैं कोई विनम्र नहीं, इस बात में मैं राजी हूं। मैं कोई अहंकारी भी नहीं। क्योंकि विनम्रता और अहंकार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मैं शांत नहीं, मैं अशांत नहीं। क्योंकि वे दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। और जब सिक्का गिरता है तो पूरा गिरता है। अगर तुमने आधा बचाया तो दूसरा आधा हिस्सा ज्यादा से ज्यादा छिपेगा, जा नहीं सकता। इसलिए विनम्रता के पीछे अहंकार छिपा रहता है। शांति के पीछे अशांति छिपी रहती है।
ब्राह्मण तो वह है, ब्रह्मज्ञानी तो वह है, जो अब अशांत ही न रहा, तो शांति का क्या करेगा? जो अब अहंकार से ही भरा न रहा, अब विनम्रता का क्या करेगा?
विनम्रता तो अहंकार पर लीपापोती है। विनम्रता तो अहंकार को सजावट देना है। अहंकार की बदबू को छिपाने के लिए थोड़ी सुगंध छिड़कना है; उसके आसपास धूप-दीप जलाना है। वह अहंकार की बचावट है। और शांति भी। और तुम्हारे तथाकथित सारे सदगुण सिर्फ धोखे हैं, प्रवंचनाएं हैं। ऐसे प्रवंचकों के पास जाकर क्या होगा?
सूत्र कहता हैः ‘धर्मात्मा, विद्वान... ।’
जो विद्वान है वह धर्मात्मा नहीं हो सकता। धर्म का पंडित हो सकता है। विद्वता उसकी है, इसलिए गीता-ज्ञान-मर्मज्ञ हो सकता है। जैसे मोरारजी देसाई गीता-ज्ञान-मर्मज्ञ हो गए हैं जब से वे भूत-प्रेत हुए हैं। अब और तो कुछ बचा नहीं। अब करें भी क्या? आखिर में यही रह जाता है। तो अब गीता-ज्ञान-मर्मज्ञ हो गए!
पंडितों के पास धर्म नहीं होता, सिर्फ धर्म की बकवास होती है। हां, बकवास व्यवस्थित होगी, तर्कबद्ध होगी। और धर्म का तर्क से कोई संबंध नहीं है, व्यवस्था से भी कोई संबंध नहीं है। धर्म तो क्रांति है, बगावत है, विद्रोह है।
सूत्र कहता हैः ‘ऐसे व्यक्तियों की सेवा में उपस्थित होकर अपना समाधान करिए।’
अभी जिनका समाधान खुद नहीं हुआ वे खाक तुम्हारा समाधान करेंगे! भूल कर ऐसे आदमियों के पास मत जाना। बचना, कहीं समाधान कर ही न दें! कहीं चलते-चलते कुछ पकड़ा न दें! पहले जो पकड़ा गए हैं उनसे ही तो जान मुसीबत में पड़ी है। अब ये और न पकड़ा दें कुछ। विद्वान से बचना। पंडित से बचना। उसकी छाया से बचना। यही असली शूद्र है। देखते ही एकदम भाग खड़े होना। ‘उससे समाधान प्राप्त करिए’ जिसको समाधान खुद नहीं हुआ है!
‘और उसके आचरण और उपदेश का अनुसरण कीजिए।’
यही तुम्हारी बीमारी है। यह तो बहुत मजेदार तैत्तरीय उपनिषद का सूत्र हुआ। यह तो छोटी बीमारी को मिटाने के लिए और बड़ी बीमारी दे दी। अक्सर ऐसा हो जाता है कि छोटी बीमारी को भुलाने के लिए बड़ी बीमारी पकड़ा देना उपयोगी होता है।
मैंने सुना है, एक डाक्टर के दफ्तर में--हो सकता है अजित सरस्वती हों; अब छिपाना क्या, अब बता ही देना ठीक है--एक महिला भीतर गई। कुंआरी युवती है और अजित सरस्वती ने उससे कह दिया कि तू कुंआरी नहीं है, तुझे गर्भ हुआ। वह एकदम भड़क गई कि क्या बातें करते हो! भनभना गई, लाल हो गई, कि मैं बिल्कुल कुंआरी हूं। मुझे कैसे गर्भाधारण हो सकता है? अरे किसी पुरुष का स्पर्श भी नहीं किया, तो गर्भाधारण कैसे हो सकता है? वह भनभना कर दरवाजा जोर से भड़का कर बाहर निकल आई--चिल्लाती हुई, चीखती हुई, नाराज होती हुई। अजित सरस्वती के असिस्टेंट ने पूछा कि आपने यह कैसी बात कही! अजित सरस्वती ने कहा, तुमने देखा नहीं, मैंने उसका इलाज कर दिया!
उसको हिचकी आने की बीमारी थी। जैसे ही अजित सरस्वती ने कहा कि तुझे गर्भ रह गया, हिचकी बंद हो गईं। अरे हिचकी ऐसे समय में चल सकती है! कुंआरी कन्या को तुम कह दो गर्भ रह गया, इलाज हो गया। हिचकी उसी क्षण बंद हो गई।
मेरे गांव में एक जूते की दुकान थी। एक मुसलमान--थोड़े झक्की किस्म के--उनकी प्रसिद्धि थीः हिचकी की बीमारी ठीक करना। उनकी दुकान वगैरह तो कम ही चलती थी मगर सत्संग वहां बहुत होता था। अब दुकान न चले तो और हो भी क्या? तो मेरा भी वहां अड्डा कभी-कभी होता था। वे मुझसे डरते बहुत थे। वे मेरी हाथ जोड़ कर प्रार्थना करते थे कि देखो भाई, मुझे भड़काओ मत। ऐसी बातें मत कहो कि मुझे फिर रात-रात भर नींद नहीं आती, कि मैं दूसरों की हिचकियां बंद कर देता हूं, तुम मेरी चला देते हो।
तो कभी जब मैं उनके सत्संग में बैठा होता, मजबूरी में उन्हें मेरा सत्संग करना पड़ता था। वे तो हाथ जोड़-जोड़ कर कहते थे कि अब जाओ, ग्राहक आते होंगे। अब वे फलाने पंडित जी आ रहे हैं, अब तुम जाओ, नहीं तो झगड़ा खड़ा हो जाएगा। एक-दो बार ऐसा मौका आया, जब मैं उनके पास बैठा था, कोई हिचकी का मरीज आया। हिचकी के मरीज दूर-दूर से आते थे। और वे करते क्या थे? उसको सामने बिठा लेते, और उनकी जूतों की दुकान थी सो मक्खियां वहां भनभनाती रहतीं। जूते-चप्पलों का ढेर, मक्खियां भनभनातीं, जूतों की बास। वे एक गिलास भर पानी लेते और एक मक्खी पकड़ कर दोनों पंख तोड़ कर उस गिलास में डालते--उसी आदमी के सामने--और कहतेः ‘पी जा!’ पीने के पहले ही हिचकी बंद हो जाती। वह गिलास में जो कार्यक्रम करते थे, दवाई डालते थे!
मैंने उनसे पूछा, ‘इसका राज?’
उन्होंने कहा, ‘इसका राज साफ है। अरे कौन हिचकी लेगा ऐसी हालत देख कर, जब इसको पीना पड़े! वह यह कार्यक्रम देख कर ही भूल जाता है हिचकी लेना। ऐसा मौका तो कभी-कभी आ जाता है, कुछ जिद्दी आ जाते हैं कि फिर भी हिचकी लिए जाते हैं, तो फिर उनको पीना पड़ता है। तो पीकर बंद हो जाती है। और मैं उनसे कह देता हूं कि अगर बंद न हो तो कल फिर आ जाना, क्योंकि और भी बड़ी दवाई हैं मेरे पास। जब मक्खी से बंद नहीं हो तो तिलचट्टा। जब उससे भी बंद न हो तो चूहा। तुम घबड़ाओ मत, बंद करके रहूंगा! ऐसे-ऐसे रस निचोडूंगा कि हिचकी बंद ही हो जाएगी।’
स्वभावतः, जब बड़ी बीमारी मिल जाए तो छोटी बीमारी भूल जाती है।
यह समाधान होगा, सत्यानंद? यह समाधान नहीं होगा, सिर्फ बड़ी बीमारी लेकर लौटोगे; उससे छोटी बीमारी निश्चित चली जाएगी। मगर छोटी जेल से बड़ी जेल में पहुंच गए, छोटी जंजीरों से बड़ी जंजीरों में उलझ गए।
हां, ब्रह्मज्ञानी हो कोई तो जरूर उसके पास जाना। मगर ब्रह्मज्ञानी के पास यह कुछ भी नहीं होगा। न वह विचारशील होता, वह विचारमुक्त होता है; न वह तपस्वी होता, वह जीवन में सहज होता है; न कर्तव्यपरायण होता, प्रेम उसकी एकमात्र सुगंध होती है; न शांत स्वभाव होता, वह तो शून्य होता है। वहां कहां शांति और कहां अशांति? न ही धर्मात्मा विद्वान होता। क्योंकि धर्मात्मा किसको कहोगे? हिंदू एक को, मुसलमान दूसरे को, ईसाई तीसरे को, जैन चौथे को। किसको धर्मात्मा कहोगे? वह तो स्वयं धर्म स्वरूप होता है, धर्मात्मा नहीं होता। और जो धर्म स्वरूप होगा, वह सभी धर्मों का अतिक्रमण करके होता है। वह हिंदू नहीं होगा, मुसलमान नहीं होगा, ईसाई नहीं होगा, जैन नहीं होगा। सिर्फ होना काफी है, सिर्फ होना पर्याप्त है। इस पर उसके कोई विशेषण नहीं होंगे। और विद्वान तो ऐसा व्यक्ति कभी नहीं होता। विद्वता बहुत पीछे छूट गई। विद्वता का रोग बहुत दूर छोड़ आया। जब उसे छोड़ आया तभी तो समाधि मिली। समाधि मिली तो समाधान मिला। और जिसको समाधि मिली है, उसके पास बैठ कर समाधान हो जाता है। न उपदेश का अनुसरण करना पड़ता, न आचरण का।
कल का प्रवचन सुन कर मुल्ला नसरुद्दीन ने तय कर लिया कि मुझे भी उस पार जाना है, नदी पार करनी है चाहे कुछ भी हो जाए। उसने अपने गुरु गोबरपुरी के परमहंस बाबा मुक्तानंद से पूछा, ‘मैं किस घाट से यात्रा शुरू करूं? बाबा पलटू कहते हैं--बहुतेरे हैं घाट। लेकिन मुझे तो तैरना ही नहीं आता। सिर्फ एक बार एक उस्ताद के कहने से नदी पर गया था। घाट पर काई जमी थी, मेरा पैर फिसल गया। और उसके बाद मैंने कसम खा ली थी कि जब तक तैरना न सीख जाऊं, कभी नदी-किनारे न फटकूंगा।’
अब मुश्किल खड़ी हो गई कि जब तक नदी के किनारे ही न फटकोगे, तैरना कैसे सीखोगे? और तैरना जब तक नहीं सीखोगे, ‘नदी के किनारे नहीं फटकूंगा!’
‘और पलटू कहते हैं कि बहुतेरे हैं घाट! और जाना है उस पार। अब पलटू ने मेरी आंखें खोल दीं, मगर मैं बड़ी मुश्किल में हूं। मैं अपनी कसम तोड़ कर आज ही पार जाने को तत्पर हूं। अरे कोई एक ही घाट थोड़े ही है, कई घाट हैं। तो कोई तो ऐसा घाट भी होगा जहां काई न लगी हो। अतः हे मेरे परम गुरुदेव, तुम तो अच्छे-खासे तैराक हो, नदी से भलीभांति परिचित हो, तुम तो उस घाट पहुंच ही चुके हो। तुम मुझे ऐसे घाट पर ले चलो जहां काई न जमी हो और पानी भी उथला हो।’
बाबा ने कहा, ‘बेटा, एक भी ऐसा घाट नहीं है जहां पानी गहरा न हो। किंतु एक घाट जरूर है जहां खतरा नहीं है, जरा भी जोखिम नहीं है।’
मुल्ला नसरुद्दीन मुक्तानंद की बातों में आकर उस घाट पर पहुंच गया, जहां एक तख्ती लगी थी--‘डूबते व्यक्ति को बचाने वाले को दो सौ रुपये सरकारी इनाम मिलेगा।’
मुक्तानंद ने कहा, ‘देखो, तुम पानी में उतरो। यदि तुम डूबने लगे तो मैं तुम्हें बचाने कूद पडूंगा। इस प्रकार मुझे ढाई सौ रुपये पुरस्कार में मिल जाएंगे। और यदि खुदा न खास्ता तुम तैर ही गए तो उस पार लग जाओगे। इस तरह दोनों हाथ लड्डू ही लड्डू हैं।’
बेचारा नसरुद्दीन अपने गुरु की इस दलील से प्रभावित होकर, यद्यपि डर तो रहा था, फिर भी पानी में उतर गया। चार कदम ही चल पाया था कि एक गड्ढे में डुबकी खा गया और जोर से चिल्लायाः ‘सहायता करो! सहायता करो!’ बाबा मन ही मन में मुस्कुराए, लेकिन किनारे पर ही मूर्तिवत खड़े रहे। फिर आवाज आईः ‘मदद करो बाबा, मैं डूब रहा हूं! मदद करो!’
मुक्तानंद ने कहा, ‘अरे नसरुद्दीन, इसमें मदद की क्या जरूरत है? डूब जाओ। अब डूबने में तुम्हारी क्या मदद करूं? व्यर्थ शोरगुल न करो। अल्लाह का नाम लेकर डूब जा भाई। ऋषि-मुनि पहले ही कह गए हैं--जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। अब पैठ जा, मौका आ गया तो चूक मत। मत चूक चौहान!’
नसरुद्दीन की नाक में पानी भर रहा था। घबड़ाहट में जोर से चीखाः ‘अरे बाबा, मुझे बचाओ! यह ज्ञान की बकवास अभी नहीं। यह कोई सत्संग का वक्त नहीं। मैं मर जाऊंगा। क्या तुम भूल गए कि मुझे बचाने के कारण तुम ढाई सौ रुपयों का सरकारी इनाम पाओगे?’
मुक्तानंद ने कहा, ‘बच्चू, मैं तुम्हें बचाने वाला नहीं। शांतिपूर्वक मर जाओ, इसी में फायदा है। अरे मरना सभी को है, एक न एक दिन मौत तो आती ही है। कल आई कि आज, देर-अबेर की बात है। अब मर ही जाओ, ऋषि-मुनि पहले ही कह गए हैंः जो डूबा सो ऊबरा।’
मुल्ला ने डूबते-डूबते आखिरी जिज्ञासा कीः ‘मगर तुम ऐसा क्यों कर रहे हो? क्या तुम्हें इनाम की परवाह नहीं? अरे मेरी छोड़ो, अपनी इनाम की तो सोचो।’
मुक्तानंद ने जवाब दिया, ‘परवाह क्यों नहीं! अरे इसी कारण तो तुम्हें बचा नहीं रहा। क्या तुमने इस तख्ती के पीछे लिखी दूसरी सूचना नहीं पढ़ी कि नदी में से लाश निकालने वाले को एक हजार रुपये का इनाम?’

दूसरा प्रश्नः
मेरे जैसे ज्ञानी, चरित्रवान व सज्जन व्यक्ति को आपने
अज्ञानी, दुश्चरित्र व दुर्जन बना दिया--मेरे परिवारजन
अपशब्दों के साथ आप पर ऐसा मिथ्या आरोप लगाते हैं।
मेरे आंसू मात्र ही उनका उत्तर बन पाते हैं।
आप ही उन्हें कुछ कहने की अनुकंपा करें।
कैसे बताऊं मयखाने में क्या पी गया हूं मैं,
कैसी पिला दी आपने गूंगा हुआ हूं मैं।

चंद्रपाल भारती, घरवाले गलत तो नहीं कहते, सच ही कहते हैं। उनकी समझ से सच ही कहते हैं। मुझसे मिलने के पहले तुम ज्ञानी रहे होओगे। और मेरा धंधा तो अज्ञानी बनाने का है, क्योंकि जब तक ज्ञान से छुटकारा न हो और जब तक अज्ञान की निर्दोषता तुम्हारे भीतर प्रकट न हो, तब तक बोध का दीया नहीं जलेगा, नहीं जलेगा! लाख करो उपाय, नहीं जलेगा। जो इस सत्य को स्वीकार करने में तत्पर है कि मैं नहीं जानता हूं, कुछ भी नहीं जानता हूं, उसने पहला कदम उठा लिया। और यह यात्रा सिर्फ दो कदमों की है। पहला कदम आधी यात्रा है। जिसने कहा कि मैं नहीं जानता हूं, जिसने गहरे में स्वीकार कर लिया कि जो मैं जानता था सब उधार था, कचरा था, मैं अज्ञानी हूं--वह फिर से निर्दोष बच्चे की भांति हो रहा। समाज ने जो उसके ऊपर थोपा था, उसने इनकार कर दिया। उसने सारे संस्कार उतार कर रख दिए। वह फिर निर्मल हुआ। उसका दुबारा जन्म हुआ। वह द्विज हुआ। यह ब्राह्मण होने का पहला कदम, ब्रह्मज्ञानी होने का पहला कदम। वह शून्य हुआ। इसी शून्य में तो पूर्ण उतरेगा।
यह ज्ञान के कचरे से ही तो तुम भरे हो। और क्या है तुम्हारे भीतर जो भरा है? इसी कचरे को तो राख कर देना है। तो तुम्हारे घर के लोग गलत नहीं कहते। तुम पहले ज्ञानी रहे होओगे और चरित्रवान भी रहे होओगे। ‘चरित्रवान’ उनकी भाषा में, जिसको वे चरित्र कहते हैं। जिसको मैं चरित्र कहता हूं, उनके लिए दुश्चरित्र ही मालूम होगा।
मैं तो चरित्र कहता हूंः अपनी भीतर की अनुभूति से जीना। मगर कोई भी समाज उसको चरित्र नहीं कह सकता। इसलिए तो मुझ पर आरोपण उनका स्वाभाविक है कि मैं लोगों को दुश्चरित्रता सिखा रहा हूं। मैं इनकार भी नहीं करता। अगर उनकी चरित्र की परिभाषा ठीक है तो मैं दुश्चरित्रता सिखा रहा हूं। मगर उनकी परिभाषा गलत है। वे जिसको चरित्र कहते हैं, वह धोखा है, पाखंड है। वे चरित्र के नाम पर लोगों को झूठी जिंदगी जीने पर मजबूर कर रहे हैं।
मैं झूठी जिंदगी से लोगों को मुक्त करना चाहता हूं। मैं उनसे कहना चाहता हूं कि तुम्हारा सबसे बड़ा दायित्व अपने प्रति है। और अगर तुम अपने प्रति झूठे हो तो तुम सारी दुनिया के प्रति भी सच्चे हो जाओ, तो भी परमात्मा के समक्ष झूठे ही रहोगे। वह तुमसे यह नहीं पूछेगा कि तुम कितने तगमे लाए हो--सोने के, चांदी के, कितने वीर-चक्र, कितने महावीर-चक्र! वह तुमसे नहीं पूछेगा कि कितने सर्टिफिकेट लाए हो। वह तुमसे पूछेगा, क्या तुम जीए अपने ढंग से, जैसा मैंने तुम्हें बनाया था? मैंने तुम्हें जुही की तरह बनाया था, तुम गुलाब की तरह जीने की कोशिश करके जुही भी न हो पाए और गुलाब भी न हो सके। तुम्हारी ऊर्जा लग गई गुलाब होने में। और गुलाब तुम हो न सकते थे, वह मैंने तुम्हें कभी बनाया न था। वह तुम्हारा बीज न था। और तुम्हारी ऊर्जा लग गई गुलाब होने में। इसलिए तुम जो हो सकते थे, जुही हो सकते थे और रात सुगंध से भर सकती थी, लेकिन वह तुम न हो पाए, क्योंकि ऊर्जा ने गलत दिशा पकड़ ली।
परमात्मा तुमसे पूछेगा कि तुम तुम हो या नहीं? और तुम कहोगे, मैं? मैं महावीर का अनुयायी हूं। मैं बुद्ध का अनुयायी हूं। मैं शंकराचार्य का अनुयायी हूं।
ये बातें वहां न चलेंगी। परमात्मा पूछेगा, शंकराचार्य और बुद्ध और महावीर, उन्हें जो होना था हुए। तुम्हें किसने कहा था? अगर मुझे शंकराचार्य बनाने होते तो मैं फोर्ड की तरह फैक्टरी खोल देता। यहीं से शंकराचार्य बना-बना कर भेजता। फिर मैंने तुम्हें किसलिए बनाया? मैंने गलती की तुम सोचते हो? तुम मेरी गलती में सुधार करने बैठे हो?
हसीद फकीर झुसिया मर रहा था। उसकी बूढ़ी चाची हमेशा उसके खिलाफ थी, क्योंकि वह कुछ ऐसी बातें कर रहा था जो यहूदी धर्म के विपरीत जाती। वह जीवन के ऐसे ढंग लोगों से कह रहा था जो कि परंपरा के अनुकूल नहीं थे। वह बुढ़िया उसे बहुत बार कह गई थी कि देख, तू सम्हल, अब तू भी बूढ़ा हो गया, अब मौत ज्यादा दूर नहीं है, अब तू मूसा का रास्ता पकड़, अब यह अपनी बकवास छोड़।
मगरझुसिया हंसता। अब उस बूढ़ी को क्या कहता! हंसता और टाल जाता। वह मर रहा था, तो उसकी चाची फिर गई, झकझोरा उसको और कहा, ‘अब मरते वक्त तो कम से कम मूसा से प्रेम लगा ले। मरते वक्त तो कम से कम मूसा से अपना संबंध जोड़ ले।’
झुसिया ने कहा, ‘देख, परमात्मा मुझसे यह नहीं पूछेगा कि तू मूसा क्यों नहीं हुआ। अरे मूसा बनाना होता उसे मुझे तो मूसा बनाता। वह मुझसे पूछेगा--झुसिया, तू झुसिया क्यों नहीं हुआ? मेरी फिकर वह है। मेरा मूसा से क्या लेना-देना? न मूसा झुसिया था, न झुसिया को मूसा होने की कोई जरूरत है। और मैं तैयार हूं परमात्मा के सामने नग्न खड़ा होने को, क्योंकि मैंने कुछ भी उधार नहीं होना चाहा। जो उसने मुझे बनाया था, जैसा उसने मुझे बनाया था, अगर गलत बनाया था तो गलत सही, मगर मैं वही रहा हूं जैसा उसने बनाया था। मैंने उसमें रत्ती भर हेर-फेर नहीं किया। हालांकि बहुत लोगों ने टांगें घसीटीं और तू जिंदगी भर से मेरी टांग घसीट रही है। लेकिन मैं पूरी तरह राजी हूं। मैं परमात्मा के सामने नग्न खड़ा हो सकता हूं, मुझे कोई भय नहीं है। क्योंकि मैं अपनी सहजता से जीया हूं। अपनी निजता के फूल को मैंने खिलाया है, यह मैं उसके चरणों में चढ़ा सकूंगा। मैं आनंद से मर रहा हूं, तू चिंता न कर।’
चंद्रपाल भारती, तुम्हारे परिवार के लोग कहते हैं मैंने तुम्हें अज्ञानी बना दिया, चरित्रहीन बना दिया। कहां तुम चरित्रवान थे, सज्जन थे, दुर्जन बना दिया। ठीक ही कहते हैं बेचारे। उनका भी कसूर क्या? उनके पास आंखें नहीं हैं। वे अंधेरे को रोशनी समझते हैं और मौत को जिंदगी समझते हैं।
और अब तुम्हारी भी मुश्किल मैं समझता हूं। तुम कहते--
कैसे बताऊं मयखाने में क्या पी गया हूं मैं, कैसी पिला दी आपने गूंगा हुआ हूं मैं।
तुम मस्त रहो। अब कुछ भय न लो। ये भी हमारी पुरानी आदतें हैं असल में, उन्हीं लोगों की सिखाई हुई कि जब वे दुश्चरित्र कहते हैं तो हमें धक्का लगता है। यह भी पुरानी आदत है। अब यह धक्का भी छोड़ो। जब वे दुश्चरित्र कहें तो गीत गाओ। जब वे कहें अज्ञानी तो नाचो। जब वे कहें दुर्जन तो बांसुरी फूंको, पैरों में घुंघरू बांध लो। ऐसे नाचो कि वे पागल भी कहने लगें। अभी पागल नहीं कहा है। और जब पागल हो गए तो अब पागल को क्या पता कि क्या ज्ञान, क्या अज्ञान! क्या सज्जनता, क्या दुर्जनता! और क्या चरित्र और क्या दुश्चरित्र!
फिर से सलीब हम भी उठाने कहां चले? अपनी ही लाश खुद ही उठाने कहां चले? जीने की आरजू में जहर पी रहे हैं रोज! फिर भी हवा में नाम लिखाने कहां चले? दिल की हरेक बात है दुनिया में दिल्लगी! पानी में आग हम भी लगाने कहां चले? शामिल नहीं है कोई भी सच की तलाश में! हम जुस्तजू में खून बहाने कहां चले? ओंठों पे बर्फ और निगाहों में आबशार! हम जिंदगी का साथ निभाने कहां चले?
मुश्किल तो होगी। लोग लाशें ढो रहे हैं, जहर पी रहे हैं। लोग जिंदा कहां हैं? लोग जिंदगी की भाषा भूल गए हैं। लोगों में कोई जुस्तजू ही नहीं, कोई तलाश नहीं सत्य की। वे तो अपने झूठों में राजी हैं। उन्होंने झूठों के महल बना रखे हैं। और निश्चित ही जब तुम इन महलों को कारागृह कहोगे और इन झूठों को झूठ कहोगे और इन झूठ के वस्त्रों को उतार दोगे और अपनी निर्मलता की घोषणा करोगे तो वे नाराज होंगे। और उनकी भीड़ है। भीड़ उनके साथ है।
मस्ती के लिए यह कीमत तो चुकानी पड़ती है। इस दुनिया में बेकीमत तो कुछ भी नहीं मिलता है। अब तुम चुन लो। यह मस्ती तुम्हें रास आती हो, यह मस्ती तुम्हारे भीतर आनंद के झरने फोड़ रही हो, तो क्या फिकर? ये मापदंड भी उन्होंने ही दिए थे। तुम खुद ही उनसे कह दो कि मैं अज्ञानी हो गया, दुश्चरित्र हो गया, दुर्जन हो गया। तुम खुद ही उनसे कह दो कि अब नाहक आप परेशान हो रहे हैं और मैं तो हो ही गया, मैं तो गया काम से, अब नाहक क्यों अपना समय आप खराब कर रहे हो? तुम स्वीकार ही कर लो। अस्वीकार करने की भी क्या जरूरत है?
एक हवा ताजी, है छू गई चुपके-चुपके, एक और पात झरा -- आहिस्ते-आहिस्ते। कब तक ले घूमेंगे, शिव सा संबंधों का शव, गल-गल गिर जाने दें, कुछ टूटे बोझिल रिश्ते। क्या अजब कुछ दिल टूटे, इस हयाते-फानी में, हम न थे आसमां के, कुछ वे न थे फरिश्ते। चुभे हैं खार, जब भी महके हैं यादों के गुलाब, जख्म नासूर हुए हैं, कुछ यूं रिसते-रिसते। कब तक ले घूमेंगे, शिव सा संबंधों का शव, गल-गल गिर जाने दें, कुछ टूटे बोझिल रिश्ते। क्यूं करें जख्मों का शिकवा और चोटों का गिला, कुछ संगे-दिल शालिग्राम हुए हैं घिसते-घिसते। एक हवा ताजी, है छू गई चुपके-चुपके, एक और पात झरा -- आहिस्ते-आहिस्ते।
झर जाने दो ये सारे पात--संबंधों के, रिश्तों के, मुर्दों के, मुर्दों की धारणाओं के। ये सारे पात झर जाएं तो नये पात उमगें। ये सब पुरानी सड़ी-गली पत्तियां कब तक चिपकाए फिरोगे? ये कब की गिर जानी चाहिए थीं। भूलो यह अहंकार की भाषा--सम्मान, ज्ञान, चरित्र, सज्जनता। यह बकवास छोड़ो। सरल सहज आदमी बनो। तकलीफें तो आएंगी, मगर वे सब तकलीफें सौभाग्य सिद्ध होती हैं। और मुझसे जुड़े हो तो उपद्रव तो मोल ले ही लिया।
फिर वही गलियां, वही अगला तवाफे-कूए-यार। इश्क को मुज्दा कि फिर सामाने-रुसवाई है आज।।
फिर वही गलियां, वही प्यारे की गलियां!
फिर वही गलियां, वही अगला तवाफे-कूए-यार।
यार की गली के चक्कर। यह परमात्मा का रास्ता सभी के लिए तो नहीं। इस पर तो कुछ दीवाने ही चल पाते हैं। कुछ परवाने ही शमा की तरफ झपटते हैं। यह सोच-विचार करने वालों का काम नहीं।
फिर वही गलियां, वही अगला तवाफे-कूए-यार।
अब तुम्हारी जिंदगी में तो यह प्रेम का एक नया आयाम खुला। यह प्यारे की गलियों में प्रवेश हुआ। यह उसके मंदिर की यात्रा शुरू हुई।
इश्क को मुज्दा...
प्रेम का तो स्वागत है। प्रेम तो मंगल सूचना है। मगर इसकी मुश्किलें भी हैं।
 ... कि फिर सामाने-रुसवाई है आज।
बदनामी बहुत होगी। प्रेम में और बदनामी न हो, ऐसा कभी हुआ है? और जितना बड़ा प्रेम उतनी बड़ी बदनामी। और मेरे जैसे व्यक्ति से प्रेम! फिर इससे कोई बड़ी बदनामी नहीं।
फिर वही गलियां, वही अगला तवाफे-कूए-यार। इश्क को मुज्दा कि फिर सामाने-रुसवाई है आज।। कौन है जिससे संभाला जाएगा मेरा जुनूं! खुद ही पाये-शौक को जंजीर पहनाई है आज।।
कौन है जिससे संभाला जाएगा मेरा जुनूं! मैं तो पागल हूं!
कौन है जिससे संभाला जाएगा मेरा जुनूं!
जो मेरे उन्माद को सम्हाल सके, मेरे पागलपन को झेल सके, उतनी छाती चाहिए।
कौन है जिससे संभाला जाएगा मेरा जुनूं! खुद ही पाये-शौक को जंजीर पहनाई है आज।।
तुम मुश्किल में तो पड़े, चंद्रपाल भारती। तुमने खुद ही अपने पैरों में यह प्रेम की जंजीर डाल ली। यह जंजीर मुक्ति की जंजीर है--और तुमने अपने ही हाथों डाल ली।
डर रहा हूं जानो-तन को फूंक डालेगी ये आग। मेरे सीने में जो जब्ते-गम ने भड़काई है आज।। कह दो सैयादों से गुलचीनों को कर दो होशियार। फस्ले-गुल ने दूर तक जंजीर फैलाई है आज।।
कह दो सैयादों से! शिकारियों को खबर कर दो।
कह दो सैयादों से गुलचीनों को कर दो होशियार।
और बागवानों को होशियार कर दो।
फस्ले-गुल ने दूर तक जंजीर फैलाई है आज।।
वसंत ऋतु आ गई और उसने दूर तक अपना जाल फैला दिया है। जो इससे बच जाए, अभागा है। जो इसमें फंस जाए, सौभाग्यशाली है।
एक साहिल है कि उभरा है भंवर की गोद से। एक किश्ती है कि तूफानों से टकराई है आज।। जल उठा नब्जों में खूं रोशन हुए दिल में चिराग। शायरे-आतिश-नवा ने आग बरसाई है आज।।
मेरी बातें तो अंगारे हैं। तुम्हारे भीतर जो भी कचरा है, उसे जला डालेंगे--चरित्र का, ज्ञान का, दंभ का, सज्जनता का, विनम्रता का, धार्मिकता का। तुम्हारे भीतर जो भी कचरा है, उसे जला डालेंगे।
जल उठा नब्जों में खूं रोशन हुए दिल में चिराग। शायरे-आतिश-नवा ने आग बरसाई है आज।।
मैं तो अग्नि का कवि हूं--शायरे-आतिश-नवा--अग्नि-भाषी शायर!
शायरे-आतिश-नवा ने आग बरसाई है आज। फिर वही गलियां, वही अगला तवाफे-कूए-यार। इश्क को मुज्दा कि फिर सामाने-रुसवाई है आज।। कौन है जिससे संभाला जाएगा मेरा जुनूं! खुद ही पाये-शौक को जंजीर पहनाई है आज।। डर रहा हूं जानो-तन को फूंक डालेगी ये आग। मेरे सीने में जो जब्ते-गम ने भड़काई है आज।। कह दो सैयादों से गुलचीनों को कर दो होशियार। फस्ले-गुल ने दूर तक जंजीर फैलाई है आज।। एक साहिल है कि उभरा है भंवर की गोद से। एक किश्ती है कि तूफानों से टकराई है आज।। जल उठा नब्जों में खूं रोशन हुए दिल में चिराग। शायरे-आतिश-नवा ने आग बरसाई है आज।।

आज इतना ही।  

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