सातवां प्रवचन-(धर्म जीवन की कला है)
मेरे प्रिय आत्मन्!एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी अंतिम चर्चा शुरू करना चाहता हूं। एक पूरे चांद की रात में, एक गांव में कुछ मित्रों ने आधी रात तक शराबघर में इकट्ठा होकर शराब पी ली। वे जब नशे में बिल्कुल डूब गए, तब उन्हें ख्याल आया कि पूर्णिमा की रात है, चलें नदी पर नौका-विहार करें।
वे नदी पर गए। मछुए अपनी नौकाएं बांध कर कभी के घर जा चुके थे। वे एक बड़ी नौका में सवार हो गए, उन्होंने पतवारें उठा लीं और नौका को खेना शुरू कर दिया। फिर वे तेजी से--नशे में--ताकत से नौका को खेते रहे, खेते रहे, खेते रहे। और फिर बाद में सुबह होने के करीब आ गई, उन्होंने आधी रात तक नौका चलाई, सुबह की ठंडी हवाओं ने उनके होश को थोड़ा वापस लौटाया और उन्हें ख्याल आया--हम न मालूम कितनी दूर निकल आए होंगे, अपने गांव से न मालूम कितनी दूरी पर आ गए होंगे, और न मालूम किस दिशा में आ गए हैं। अब उचित है कि हम वापस लौट चलें, सुबह होने के करीब है, और हमें वापस लौट जाना चाहिए।
उन्होंने सोचा कि एक आदमी उतर कर देख ले कि हम कहां पहुंच गए हैं--उत्तर में, दक्षिण में, कितने दूर हैं, किस गांव में हैं--किस तरह वापस लौटें?
एक मित्र नीचे उतरा, और नीचे उतर कर पागल की तरह हंसने लगा। दूसरे मित्रों ने पूछा, हंसते क्यों हो? यह बताओ हम कहां हैं? किस जगह हैं? कितने दूर हैं? लेकिन उसने कहा, तुम भी नीचे आ जाओ और तुम भी हंसोगे। उनमें से एक-एक उतरता गया और पागल होता गया और पागल की तरह हंसने लगा। आखिर वे सब नीचे उतर आए और सभी पागल की तरह हंसने लगे। अगर आप भी वहां होते तो आप भी पागल की तरह हंसने लगते। एक बड़ी अजीब बात घट गई थी, उन्होंने रात में कोई भी यात्रा नहीं की; वे वहीं खड़े थे, जहां रात नाव बंधी थी। वे असल में नाव को खोलना भूल गए थे, नाव की जंजीर तट से ही बंधी रह गई थी। रात भर पतवार चलाई व्यर्थ हो गई।
नौका तभी यात्रा करती है जब तट से उसकी जंजीर मुक्त हो। इस कहानी से इसलिए शुरू करना चाहता हूं कि आदमी भी जीवन के अंत में, आमतौर से यही पाता है कि जहां जन्म के समय था, वहीं मृत्यु के समय है, यात्रा नहीं हो पाई, वह कहीं भी नहीं पहुंच पाया है। जीवन भर श्रम किया, पतवार चलाई, दौड़ा, लेकिन कहीं भी पहुंच नहीं पाया है। मृत्यु के क्षण में पता चलता हैः हम अपने पुराने तट से ही बंधे रह गए हैं।
वे नाव की जंजीर खोलना क्यों भूल गए थे? बेहोश थे, इसलिए; होश में नहीं थे। कोई होश में भरा हुआ आदमी पतवार नहीं चलाएगा, पहले जंजीर खोलेगा, फिर पतवार चलाएगा। लेकिन बेहोश आदमी जंजीर खोलने का ख्याल ही भूल जाता है।
हम भी जीवन में कहीं नहीं पहुंच पाते हैं, इससे एक बात निश्चित होती है--हम भी शायद जीवन की जंजीर खोलना भूल गए हैं। और जंजीर खोलना हम तभी भूल सकते हैं जब हम होश में न हों, बेहोश हों, नींद में हों। और हम में से प्रत्येक आदमी करीब-करीब नींद में ही जीता है और नींद में ही समाप्त हो जाता है।
यदि हम जाग जाएं तो शायद मृत्यु से मुक्त हो जाएं। यदि हम जाग जाएं तो हम दुख से मुक्त हो जाएं। यदि हम जाग जाएं तो हम प्रभु को उपलब्ध हो जाएं।
लेकिन हम नींद में हैं और सपनों में हैं। हम चौबीस घंटे सपने देख रहे हैं। आप सोचते होंगे कि रात नींद में सपने देखते हैं, तो गलत है बात, दिन में जागते हुए भी हमारे भीतर सपने चलते रहते हैं। अभी हम यहां बैठे हैं, लेकिन बहुत थोड़े लोग यहां होंगे। कोई कहीं और होगा, कोई कहीं और होगा। मन न मालूम कहां-कहां होगा, मन का कोई ठिकाना नहीं कि वह वहीं हो जहां हम बैठे हैं। और अगर मन कहीं और है तो सपने में है।
एक आदमी मरणशय्या पर पड़ा हुआ है। उसकी मृत्यु करीब आ गई थी। चिकित्सकों ने कह दिया था कि अब बचने की कोई संभावना नहीं है। उसकी पत्नी उसके बिस्तर के पास बैठी थी। उसके बच्चे, उसके बेटे, उसके मित्र, उसके रिश्तेदार चारों तरफ से बैठे थे। सांझ हो गई थी, घर में अंधेरा था, और एक आदमी का जीवन दीया बुझने को था, तो घर में उस दिन कोई दीया भी नहीं जलाया गया था। सब उदास और दुखी थे। सांझ ढल गई, अंधेरा उतरने लगा, उस आदमी ने आंखें खोलीं और अपनी पत्नी से पूछा कि मेरा बड़ा बेटा कहां है?
उसकी पत्नी को अत्यंत खुशी हुई यह बात सुन कर कि उसका पति अपने बड़े बेटे को पूछ रहा है। उसने जीवन भर कभी किसी के लिए नहीं पूछा। वह पैसा जुटाने में इतना पागल था कि प्रेम के लिए पूछने की उसे फुर्सत भी नहीं मिली थी। जो लोग पैसे के लिए पागल होते हैं, उनका जीवन प्रेम से खाली रह जाता है। प्रेम और पैसे की यात्रा एक साथ नहीं हो सकती। पैसे के लिए चाहिए कठोर, क्रूर और हिंसक मन। प्रेम के लिए चाहिए विनम्र, कोमल, दया से भरा हुआ हृदय। तो जो पैसा इकट्ठा करने में लगते हैं, वे प्रेम को खोने की कीमत पर ही पैसा इकट्ठा कर पाते हैं। प्रेम की हत्या न हो तो पैसा इकट्ठा करना बहुत कठिन है, करीब-करीब असंभव है।
उस पति ने कभी पूछा ही नहीं था कि मेरा बेटा कहां है? वह जब भी पूछता था तो पूछता था, तिजोरी की चाबी कहां है? या इस तरह की और बातें पूछता था। आज मरते क्षण में उसने पूछा है कि मेरा बेटा कहां है? पत्नी बहुत खुश हो गई। उसने कहा, कोई हर्ज नहीं; मरते समय याद आई है प्रेम की तो भी ठीक है, प्रभु का धन्यवाद! उसने अपने पति को कहा, आप निश्चिंत रहें, आपका बड़ा बेटा पैरों के पास ही बैठा हुआ है। वह पति और उठ आया हाथ टेक कर, उसने पूछा, और उससे छोटा बेटा? वह भी वहीं मौजूद था। और उससे छोटा? वह भी वहीं मौजूद था। उसके पांच बेटे थे। और उसने पूछा कि सबसे छोटा बेटा? वह भी वहीं मौजूद था। पत्नी ने कहा, आप बिल्कुल बेफिक्र रहें! उसकी आंखों में खुशी के आंसू आ गए, जाते क्षणों में उसके पति का हृदय आज प्रेम से भर उठा है। लेकिन वह मरता हुआ आदमी उठ कर बैठ गया और उसने कहा, छोटा भी यहां है, इसका क्या मतलब है? फिर दुकान पर कौन बैठा हुआ है!
वह पत्नी भूल में थी, वह प्रेम की याद नहीं थी। मरते क्षण में भी वह सोच रहा था कि दुकान पर... दुकान चल रही है, बंद तो नहीं! कोई बैठा है कि नहीं बैठा है! यह आदमी मरणशय्या पर पड़ा हुआ भी दुकान का स्वप्न देख रहा था। वह वहां नहीं था जहां उसका शरीर था, उसका मन कहीं और था।
स्वप्न का अर्थ हैः हम जहां हैं वहां हमारा मन न हो, तो हम स्वप्न में जीते हैं, तो हम निद्रा में जीते हैं, तो हम बेहोश हैं। होश का अर्थ हैः मैं जहां हूं वहीं मेरी चेतना भी है। बेहोशी का मतलब हैः मैं जहां हूं वहां मेरी चेतना नहीं है।
हर एक आदमी को अपने से पूछना जरूरी है--मैं होश में जी रहा हूं? या बेहोशी में जी रहा हूं?
मेरे एक मित्र स्विटजरलैंड से यात्रा करके वापस लौटे हैं। वे एक बड़े कवि हैं। जब वे मेरे पास आकर मेहमान हुए तो मैंने उनसे कहा--बहुत खूबसूरत रात थी, पूरा चांद था--मैंने उनसे कहा, आप सारी दुनिया घूम कर लौटे हैं, स्विटजरलैंड घूम कर लौटे हैं। मैं भी एक अनूठी जगह दिखाने आपको ले चलता हूं। नर्मदा के तट पर संगमरमर की चट्टानों में गिरते हुए प्रपात के पास आपको ले चलता हूं। उन्होंने कहा, मैंने बहुत प्रपात देखे हैं, बहुत नदियां देखी हैं, बहुत झीलें देखी हैं, बहुत सुंदर रातें देखी हैं। मुझे कोई खास प्रयोजन नहीं।
फिर भी मैं नहीं माना और उन्हें ले गया। क्योंकि मैंने उनसे कहा कि हर रात का अपना व्यक्तित्व है, और हर चांद की अपनी कहानी है, और हर पहाड़ का अपना गीत है। आपने कुछ भी देखा हो, लेकिन जो दिखाने मैं ले चल रहा हूं वह आपने नहीं देखा है, वह अपनी ही तरह की अलग बात है।
उन्हें मैं ले गया। चांदनी की उस रात में, एकांत में, नाव पर बिठा कर मैं उन्हें पहाड़ियों में ले गया--चांद की बरसती हुई चांदनी में पहाड़ दूध धोए हुए खड़े थे। उन्हें देख कर लगता कि जैसे स्वर्ग में पहुंच गए हैं। लेकिन उन्होंने, दो घंटे तक उन पहाड़ियों के बीच में हम नौका पर थे, एक क्षण को भी उन पहाड़ियों की तरफ न देखा जो मौजूद थीं, न उस चांद की तरफ देखा जो आकाश में हंस रहा था, न उस सन्नाटे को सुना जो चारों तरफ गीत गा रहा था। वे अपने स्विटजरलैंड की कथाएं ही मुझे सुनाते रहे--कि स्विटजरलैंड में इस तरह की झीलें हैं, इस तरह के पहाड़ हैं; मैंने यह देखा, मैंने वह देखा।
फिर हम वापस लौटने लगे, गाड़ी में बैठते समय उन्होंने मुझसे कहा, आप जिस जगह ले आए थे, वह बड़ी सुंदर थी। मैंने कहा, क्षमा करें! हम आए तो दो थे, लेकिन मैं अकेला ही वहां पहुंचा, आप पहुंच नहीं सके। उन्होंने कहा, मैं आपके साथ था पूरे वक्त, आप कैसी बातें करते हैं? मैं आपके पास ही तो बैठा था दो घंटे तक नाव पर! मैंने कहा, आप बैठे जरूर थे, लेकिन आप मेरे पास नहीं थे। आप स्विटजरलैंड में होंगे, मेरे पास आपकी मृत देह, मरा हुआ शरीर था। एक क्षण को भी आप वहां नहीं थे जहां मैं आपको ले गया था। और मैंने उनसे कहा, मैं निवेदन करता हूं कि अब मुझे आपकी स्विटजरलैंड में देखी गई बातों का भी कोई विश्वास न रहा, क्योंकि मैं आपके मन को पहचान गया। जब आप यहां नर्मदा पर बैठ कर स्विटजरलैंड में रहे, तो मैं जानता हूं, स्विटजरलैंड की झीलों में बैठ कर आप काश्मीर में रहे होंगे, या कहीं और रहे होंगे, स्विटजरलैंड में नहीं हो सकते!
इस स्थिति को मैं बेहोशी कहता हूं, नींद कहता हूं, सपना कहता हूं। यह स्थिति हम सबको एक अंधकार की तरह घेरे हुए है। और इसी स्थिति के बीच हम परमात्मा को खोजने की कोशिश करते हैं, इसी स्थिति के बीच हम आनंद को खोजने की कोशिश करते हैं, इसी स्थिति के बीच हम सत्य के निर्णय की चेष्टा करते हैं। वह सब चेष्टा व्यर्थ हो जाती है--उसी तरह जैसे उस रात उस गांव के शराबियों की चेष्टा व्यर्थ हो गई थी।
नींद में कोई सत्य का निर्णय कैसे कर सकता है? सोया हुआ कोई कैसे प्रभु को जान सकता है? बेहोशी में कोई कैसे आनंद को उपलब्ध हो सकता है? सपने में कोई यात्रा कैसे हो सकती है? और सपने में कोई यात्रा कर भी ले तो यात्रा झूठी होगी--सुबह जाग कर पाएगा कि मैं वहीं हूं जहां था, रात मैं कहीं भी नहीं गया हूं। आज रात आप सो जाएं भावनगर में, सपने में हो सकता है कि आप दिल्ली में हों, कलकत्ते में हों। ज्यादा संभावना है कि दिल्ली में हों, क्योंकि दिल्ली में ही होने का सपना हर आदमी देखता रहता है। रात सो जाएं तो यह हो सकता है कि आप दिल्ली पहुंच जाएं। लेकिन सुबह जाग कर आप पाएंगे कि आप कहीं भी नहीं गए थे, आप भावनगर में ही मौजूद थे।
सपने कहीं भी नहीं ले जाते हैं। लेकिन सपने में ही हम सब कर रहे हैं। और इसलिए हमारा सब किया हुआ व्यर्थ हो जाता है। सपने में ही हम पूछ रहे हैं कि परमात्मा क्या है? सपने में पूछ रहे हैं! सपने में एक आदमी हिंदू बना हुआ है, एक आदमी मुसलमान बना हुआ है, एक आदमी ईसाई, एक आदमी जैन बना हुआ है। सपने में! सपने में हमने तय कर लिया है कौन सी किताब सच्ची है, सपने में तय कर लिया है कौन सा भगवान सच्चा है, सपने में तय कर लिया है कौन सा मंदिर सच्चा है, कौन सी मस्जिद सच्ची है। और एक बात हम भूल ही गए हैं कि सपने में तय की गई सारी बातें दो कौड़ी की हैं। सोए हुए आदमी के किसी निष्कर्ष का कोई भी मूल्य नहीं है। कोई भी मूल्य नहीं है--कि आप सोए में हिंदू हैं, कि मुसलमान हैं, कि जैन हैं; सब एक सी नासमझी की बातें हैं। और बड़ा मजा यह है कि जागा हुआ आदमी न हिंदू होता है, न मुसलमान होता है, न जैन होता है। जागा हुआ आदमी सिर्फ आदमी होता है। जागा हुआ आदमी सिर्फ मनुष्य होता है।
हम सब सोए हुए हैं। दुनिया में कोई तीन सौ धर्म बना लिए हैं सोए हुए लोगों ने। और नींद में ही हम लड़ते भी हैं, हत्या भी करते हैं, मस्जिद में आग लगाते हैं, मंदिर की मूर्ति तोड़ते हैं, किताबें जलाते हैं, न मालूम क्या-क्या करते हैं। और यह सारा उपद्रव चलता रहता है। और नींद में हम बड़े-बड़े मेटाफिजिकल प्रश्न उठाते हैं और उनका निर्णय लेना चाहते हैं--स्वर्ग कैसा है? नरक कैसा है? जो लोग भावनगर की भूगोल भी ठीक से नहीं जानते होंगे, वे स्वर्ग और नरक के नक्शे बना कर बता देंगे। उन्होंने मंदिरों में नक्शे टांग रखे हैं--कि स्वर्ग कहां है, नरक कहां है; कितने नरक हैं, कितने स्वर्ग हैं। आदमी नींद में न मालूम क्या-क्या कर रहा है। बड़े-बड़े प्रश्न पूछे जा रहे हैं! और एक छोटा सा प्रश्न कोई भी नहीं पूछ रहा है--कि मैं जागा हुआ आदमी हूं या सोया हुआ आदमी हूं?
मेरी दृष्टि में, मनुष्य के समक्ष धर्म का सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न एक ही है, सबसे महत्वपूर्ण जिज्ञासा यही है कि मैं जागा हुआ हूं या सोया हुआ हूं? और अगर सोया हुआ हूं, तो यह नींद कैसे टूट सकती है? यह तंद्रा कैसे मिट सकती है? ये सपनों के बाहर मैं कैसे उठ सकता हूं? ये बंद आंखें कैसे खुल सकती हैं? फिर एक ही महत्वपूर्ण प्रश्न रह जाता है। लेकिन शायद ही कोई पूछता है। क्योंकि हम यह मानने को राजी नहीं होना चाहते कि हम सोए हुए हैं। हमारे अहंकार को बड़ी चोट लगती है, कि कोई कहे कि आप सोए हुए आदमी हैं।
मैंने सुना है, एक फकीर एक गांव में गया। उस गांव के लोग उस फकीर को सुनने के लिए इकट्ठे हुए। गांव का जो सबसे बड़ा धनपति था वह भी सुनने को आया। फकीर ने बोलना शुरू किया। वह जो धनपति था, वह फकीर के सामने ही बैठा हुआ था, वह सो गया! मंदिरों में लोग अक्सर नींद पूरी करते हैं। कुछ डाक्टर तो यह भी कहते हैं कि जिन लोगों को नींद नहीं आती, उनको वे सलाह देते हैं कि तुम मंदिर में चले जाओ, धर्मकथा सुनो! सब दवाएं असफल हो जाएं, लेकिन धर्मकथा की दवा जरूर कारगर होती है और आदमी को नींद आ जाती है! वह बेचारा धनपति दिन भर कमा-कमा कर थका हुआ लौटा था, वह आंख बंद किए झपकी ले रहा था। दूसरे संन्यासी आते थे, तब भी वह इसी तरह सोता था। लेकिन किसी संन्यासी ने कभी नहीं कहा था कि महाशय, आप सोते हैं! उस धनपति का नाम था आसोजी। यह घटना राजस्थान के एक गांव की है। तो किसी संन्यासी ने कभी नहीं कहा था कि आप सोते हैं, बल्कि संन्यासी तो यह कहते थे कि सेठ जी, आप बहुत ध्यानमग्न होकर सुनते हैं।
संन्यासियों और धनपतियों में कोई आंतरिक शड्यंत्र, साजिश और समझौता है। संन्यासी धनपतियों की प्रशंसा करते हैं, धनपति संन्यासियों के पैर छूते हैं। हमेशा से वह शड्यंत्र जारी है। तो संन्यासी तो धनपति के विरोध में बोल नहीं सकता कभी, क्योंकि धनपति अगर विरोध में हो जाए तो मंदिर कौन बनाए, तीर्थ कौन खड़ा करे, धर्मशालाएं कौन बनाए, दान कौन दे! सारा धर्म धनपति चलाता है। इसलिए वे संन्यासी कहते थे कि आसोजी, और सारे लोग इतने ध्यान से नहीं सुनते, आप तो इतने तल्लीन होकर सुनते हैं! आसोजी जानते थे कि वे सोते हैं, लेकिन मुस्कुराते थे, और कहते थे कि मेरी आदत हमेशा ध्यान से ही सुनने की है।
आदमी को झूठी बातें बड़ी प्रीतिकर लगती हैं, बस वे झूठी बातें उसके अहंकार की तृप्ति करती हों, तब! आदमी को सच्ची बात भी बुरी लगती है, अगर वह उसके अहंकार के विरोध में जाती हो। और झूठी बात भी अच्छी लगती है, अगर अहंकार की तृप्ति होती हो।
लेकिन यह जो फकीर आया हुआ था, यह कोई अनूठा ही फकीर था। जब इसने देखा कि धनपति सो गया है, उसने बोलना बंद कर दिया और जोर से कहा, आसोजी, सोते हैं? आसोजी ने घबड़ा कर आंख खोल दीं, और कहा, नहीं-नहीं, सोता नहीं हूं; आपको शायद पता नहीं है, आप नये-नये आए हैं, मैं ध्यानमग्न होकर सुन रहा हूं!
फकीर ने फिर बोलना शुरू कर दिया। सोए हुए आदमी की बात का बहुत विश्वास नहीं किया जा सकता। दस-पांच मिनट में आसोजी को फिर नींद आ गई। वह फकीर फिर रुक गया और उसने कहा, आसोजी, सोते हैं?
अब आसोजी को क्रोध आ गया। सारा गांव सुन रहा है, लोग कहेंगे, आसोजी कथा में सोते हैं! और गांव सुन ले, भगवान सुन ले कि कथा में सो रहे थे, तो स्वर्ग जाने तक में असुविधा हो सकती है। और इतने जोर से बोलता है यह फकीर। तो आसोजी को क्रोध आ गया, उन्होंने कहा, आप समझे नहीं, मैंने कहा नहीं कि मैं जाग रहा हूं! ध्यान से सुन रहा हूं, मैं सो नहीं रहा हूं। आप अपनी बातें जारी रखिए।
उस फकीर ने फिर बोलना शुरू कर दिया। आसोजी फिर सो गए। सोए हुए आदमी का कोई भरोसा नहीं; जो नींद में है उसकी बात का कोई पक्का नहीं। लेकिन वह संन्यासी भी एक था, उसने फिर बीच में बोलना बंद कर दिया। और अब की बार जो उसने कहा वह ठीक से सुन लेना। हो सकता है कुछ लोग यहां भी सो गए हों तो वे ठीक से न सुन पाएं। उसने जो कहा वह ठीक से सुन लेना। हर बार उसने कहा था, आसोजी, सोते हैं? और आसोजी ने फौरन कहा था, नहीं-नहीं, कौन कहता है? मैं तो जागा हुआ हूं। अब की बार उसने कहा, आसोजी, जीते हैं? और नींद में आसोजी ने समझा कि वही पुराना प्रश्न है, वे बोले कि नहीं-नहीं, कौन कहता है?
उस फकीर ने पूछा था, आसोजी, जीते हैं? आसोजी नींद में समझे कि वही पुराना प्रश्न है, वे कहने लगे, नहीं-नहीं, कौन कहता है?
उस फकीर ने कहा, अब तो निश्चित हो गया कि आप सोते थे। लेकिन यह भी उस फकीर ने कहा कि आपका उत्तर भी सही है, क्योंकि जो सोता है वह जी नहीं सकता है, जीने के लिए जागना जरूरी है। तो आप ठीक ही कहते हैं कि नहीं-नहीं; आप जी नहीं रहे हैं। सोता हुआ आदमी जी भी कैसे सकता है? सोया हुआ आदमी करीब-करीब मरा हुआ आदमी है। जीता हुआ आदमी तो जागता हुआ आदमी होगा।
तो मैं इस अंतिम चर्चा में आपसे यह कहना चाहता हूं कि साधारणतः हम सोए हुए लोग हैं। और जागने की प्रक्रिया, जागने का विज्ञान, जागने की जो कला है, वही धर्म है।
मैंने पीछे आपसे कहा कि धर्म जीवन की कला है। और जीवन की कला जागने की कला से उपलब्ध होती है। अवेकनिंग, अवेयरनेस, होश मिल जाए, प्राण पूरे जाग कर जीवन को अनुभव करने लगें, तो प्रतिक्षण प्रभु के दर्शन शुरू हो जाते हैं, प्रतिपल उसका संगीत सुनाई पड़ने लगता है, और कण-कण में उसकी मूर्ति उपलब्ध होने लगती है, सारा जीवन एक अमृतमय तरंगों में परिवर्तित हो जाता है।
लेकिन उसके लिए जागना जरूरी है। जागना कैसे हो सकता है, यह मैं पीछे आपसे बात करूं, पहले यह स्पष्ट रूप से आपको समझ लेना चाहिए कि अगर जागना हो तो एक निर्णय अपने मन में ले लेना जरूरी है कि मैं सोया हुआ हूं। जो आदमी यह मानने को राजी नहीं कि मैं सोया हुआ हूं, वह जागने की दिशा में कोई भी कदम कभी नहीं रख सकता है। जागने की दिशा का पहला सूत्र है कि मैं अनुभव करूं कि मैं सोया हुआ आदमी हूं। और अनुभव करने के लिए पूरा जीवन सबूत है, पूरा जीवन प्रमाण है।
आज आपने क्रोध किया होगा, और क्रोध करके पछताए होंगे और निर्णय किया होगा कि अब कभी क्रोध नहीं करूंगा। और घंटे भर बाद देखा जाता है, आप फिर क्रोध कर रहे हैं। वह घंटे भर पहले लिया हुआ निर्णय कहां गया? वह सोए में लिया गया निर्णय होगा, इसलिए व्यर्थ हो गया। उसकी कोई याद नहीं रही।
एक आदमी तय करता है कि आज सुबह चार बजे उठूंगा। रोज सुबह चार बजे उठना है, बहुत हो चुका प्रमाद, अब मैं सुबह चार बजे उठूंगा। वह कसम खाकर सोता है कि आज कुछ भी हो जाए, चार बजे मुझे उठना है। और चार बजे जब अलार्म बजता है तब वह अपने मन में कहता है, आज! आज रहने भी दो, कल देखेंगे! सो जाता है फिर। सुबह उठ कर फिर पछताने लगता है कि बहुत बुरा हो गया। कैसे सो गया मैं? मैंने तो तय किया था कि उठना है, निश्चित ही उठना है, मैं सो कैसे गया?
जिसने तय किया था वह भी सोया हुआ आदमी था। इसलिए निर्णय जीवन नहीं बन पाया, व्यर्थ हो गया। हम सभी शुभ-संकल्प करते हैं, लेकिन जीवन में वे शुभ-संकल्प चरितार्थ नहीं हो पाते हैं। नींद में लिए गए संकल्प का कोई भी मूल्य नहीं है। चौबीस घंटे हमारा जीवन कह रहा है कि हम सोए हुए बेहोशी में चल रहे हैं।
एक आदमी दफ्तर में काम कर रहा है। उसका बॉस, उसका मालिक क्रोधित हो जाता है, अपमानित कर देता है। उस आदमी के मन में भी क्रोध उठता है कि मैं भी जवाब दूं और गर्दन पकड़ लूं। कौन नौकर है जो मालिक की गर्दन नहीं पकड़ लेना चाहता है? लेकिन सामने वह हाथ जोड़ कर कहता है कि हुजूर, आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, मैं बिल्कुल गलत हूं! भीतर क्रोध उबाल खाता है, लेकिन जिंदगी का सवाल है, ऐसे क्रोध प्रकट करना तो खतरनाक है। जैसे नदी नीचे की तरफ बहती है, ऐसे ही क्रोध भी नीचे की तरफ बहता है, कमजोर की तरफ। ताकतवर की तरफ क्रोध कभी नहीं बहता।
अब मालिक ऊपर है, उस पर क्रोध करना खतरनाक है, क्रोध उस तरफ बहा नहीं जा सकता। क्रोध को पी जाता है और हाथ जोड़ कर मुस्कुराता रहता है। लेकिन क्रोध भीतर चक्कर मारता है। घर लौट कर आता है और कोई बहाना खोजता है कि पत्नी पर क्रोध निकालने का मौका मिल जाए--रोटी जल गई, या सब्जी ठीक नहीं बनी, या कपड़े आज ठीक से नहीं धुले।
कल भी कपड़े ठीक नहीं धुले थे, और कल भी रोटी जली थी, और कल भी सब्जी ऐसी ही बनी थी, लेकिन कल उसके भीतर क्रोध उबलता हुआ नहीं था। आज क्रोध उबल रहा है, वह कोई भी बहाना ढूंढ कर पत्नी पर टूट पड़ता है। यह क्रोध निकलना था मालिक पर, निकल रहा है पत्नी पर। सोए हुए आदमी का सबूत है।
पत्नी क्या कर सकती है पति के साथ? पति ने उसे हजारों साल से समझाया है कि मैं परमात्मा हूं। यह बड़े मजे की बात है। पति खुद ही समझाता है कि मैं तुएहारा परमात्मा हूं। स्त्रियों ने तो अब तक एक भी शास्त्र नहीं लिखा, नहीं तो वे भी शायद यही समझातीं कि पत्नी परमात्मा है, पति चरणों में प्रणाम करो! लेकिन स्त्रियों ने किताबें नहीं लिखीं, उन्होंने कोई शास्त्र ही नहीं लिखा। सब शास्त्र पतियों ने लिखे हैं। तो उन्होंने लिख लिया है उनमें कि पति परमात्मा है। अब परमात्मा पर क्रोध नहीं किया जा सकता, लेकिन क्रोध तो पैदा होता है, पत्नी भी जल उठती है। और क्रोध इसलिए भी पैदा होता है कि उसे दिखाई पड़ता है कि मेरा कोई भी कसूर नहीं है और क्रोध किया जा रहा है! लेकिन पति के सामने वह किसी तरह क्रोध को पी जाएगी। स्कूल से लौटते हुए बेटे की प्रतीक्षा करेगी। थोड़ी-बहुत देर में लड़का स्कूल से लौट ही आएगा--किताब फाड़ कर ले आए हो, बस्ता खराब कर लाए हो, कपड़े खराब हो गए हैं। और बच्चे की पिटाई शुरू हो जाएगी। और बिना इस बात के ख्याल के कि बच्चे की शक्ल में पति को पीटा जा रहा है, बच्चे का कोई भी संबंध नहीं है। कल भी बच्चा इसी तरह किताब फाड़ कर लाया था, कल भी बस्ता इसी तरह टूट गया था, लेकिन कल कोई क्रोध नहीं था इसलिए बच्चा बच गया था।
इसीलिए तो बच्चे वाली औरतें ज्यादा प्रसन्न मालूम होती हैं, बिना बच्चे वाली औरतें के। बच्चे वाली औरतों के क्रोध को निकलने के सुगम उपाय मिल जाते हैं बच्चों की शक्ल में। हजार बहाने निकाल कर बच्चों को दबाया और सताया जाता है।
बच्चा कुछ भी नहीं कर सकता है बेचारा। अब मां का क्या कर सकता है? करेगा कभी, जब मां बूढ़ी हो जाएगी और बच्चा जवान हो जाएगा। लेकिन अभी उस दिन को बहुत देर है। वह बदला बहुत डिलेड होगा, बहुत देर है अभी। अभी उसका कोई, अभी एकदम से नहीं कर सकता है कुछ। लेकिन कुछ तो उसे करना ही होगा। वह एकांत में जाकर अपनी गुड़िया की टांग तोड़ देगा। और क्या कर सकता है? यह सब नींद में चलता हुआ समाज है। ये सब बेहोशी में दौड़े हुए लोग हैं। यह हमारी सारी चर्या बिल्कुल ऐसी है, जैसे कोई नशे में हो।
अपने जीवन में खोजें, मैं सोया हुआ आदमी हूं या जागा हुआ आदमी हूं?
स्मरण रखेंः जागा हुआ आदमी क्रोध कैसे कर सकता है? स्मरण रखेंः जागा हुआ आदमी दुश्मन कैसे हो सकता है? स्मरण रखेंः जागा हुआ आदमी द्वेष से, अपमान से, घृणा से कैसे भर सकता है? ये सोए हुए आदमी के लक्षण हैं।
बुद्ध एक गांव के पास से निकलते थे। कुछ लोगों ने उन्हें घेर लिया और रास्ते पर रोक लिया, और बहुत गालियां दीं, बहुत अपमानजनक शब्द कहे। बुद्ध ने उन्हें चुपचाप सुना। जब वे सारी गालियां दे चुके तो बुद्ध ने कहा, अगर तुएहारी बात पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं? मुझे दूसरे गांव, दोस्तो, जल्दी पहुंचना है। उन लोगों ने कहा, यह कोई बातचीत नहीं थी जो हमने कही, सीधी स्पष्ट गालियां थीं, आपकी समझ में नहीं आईं? बुद्ध ने कहा, गालियां समझ में आ गईं। लेकिन मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है, मैं जाऊं? तुएहारी गालियां पूरी हो गई हों तो मुझे आज्ञा दो। उन्होंने कहा, गालियां पूरी हो गईं, लेकिन प्रत्युत्तर चाहिए! गालियों का उत्तर तत्काल दिया जाता है। आप उत्तर नहीं देना चाहते?
बुद्ध ने कहा, अगर तुएहें गालियों का उत्तर चाहिए था तो दस साल पहले आना था, जब मैं सोया हुआ आदमी था। तब तुम गाली दे भी न पाते और मेरे भीतर दुगने वजन की गाली पैदा हो जाती। लेकिन जब से मैं जाग गया हूं तब से बड़ी मुसीबत हो गई है। आज तुएहें खाली हाथ वापस लौटना पड़ेगा, मेरे पास देने को कुछ भी नहीं है। पिछले गांव में कुछ लोग मिठाइयां लेकर आए थे और मुझसे कहने लगे कि मिठाइयां स्वीकार कर लो। मैंने कहा, मेरा पेट भरा है। वे मिठाइयां वापस ले गए। उन्होंने उन मिठाइयों का क्या किया होगा? उस भीड़ में से एक आदमी ने कहा, उन्होंने बच्चों को बांट दी होंगी, गांव में बांट दी होंगी।
बुद्ध ने कहा, तुम बड़ी मुसीबत में पड़ गए। तुम मिठाइयां लाते तो ठीक था, तुम गालियां लेकर आए! और मैं कहता हूं, मैं लेने से मजबूर हूं, मैं लेने से इनकार करता हूं। अब तुम क्या करोगे? बच्चों को बांटोगे, गांव में प्रसाद बांटोगे, क्या करोगे? गालियां, मित्रो, तुएहें वापस ले जानी पड़ेंगी, क्योंकि मैं लेने से इनकार करता हूं।
गालियां सिर्फ सोया हुआ आदमी लेने के लिए तैयार होता है। जागा हुआ आदमी गालियां क्यों लेगा? जागा हुआ आदमी गड्ढों में क्यों गिरेगा? ठीक रास्ते पर चलेगा! जागा हुआ आदमी कांटों के रास्ते क्यों पकड़ेगा, जब फूलों के रास्ते मौजूद हैं! सोया हुआ आदमी कांटों के रास्ते चुनता है। नींद में चलता हुआ आदमी गड्ढों में गिरता है। होश से भरे आदमी के लिए गड्ढे में गिरने की कोई भी जरूरत नहीं।
आप गड्ढे में गिरते हैं? आप कांटों में उलझते हैं? क्रोध, घृणा, वैमनस्य आपको पकड़ता है? तो जान लेना कि आप सोए हुए आदमी हैं, जागे हुए आदमी नहीं हैं। सोया हुआ आदमी अधार्मिक आदमी है। और जागने के लिए पहला सूत्र है इस बात को स्वीकार कर लेना कि मैं सोया हुआ हूं; तो हम जाग सकते हैं।
मैं समझता हूं, आप सोचेंगे, समझेंगे, खोजेंगे, तो असंभव है यह बात कि आप पाएं कि आप सोए हुए नहीं हैं। सोए हुए हैं, इसकी स्वीकृति अगर स्पष्ट हो जाए--तो कैसे हम जागें? कैसे जाग सकते हैं? उसकी प्रक्रिया समझी जा सकती है। कैसे जाग सकते हैं? क्या रास्ता हो सकता है कि मेरा चित्त जाग जाए, मेरी कांशसनेस होश से भर जाए? मेरे जीवन में भीतर बेहोशी न रह जाए; सब बेहोशी टूट जाए; मैं आर-पार जीवन के देखने में समर्थ हो जाऊं; कैसे यह हो सकता है?
मैंने आपको कहा कि मैं सोएपन का, स्लीपीनेस का एक ही लक्षण मानता हूंः जहां आप हैं वहां आपका मन न हो तो आप सोए हुए हैं। जागने का लक्षण होगाः जहां आप हैं वहीं आपका मन हो। अगर आप भोजन कर रहे हैं, तो सारा जगत मिट जाए और आपका चित्त सिर्फ भोजन करता हो; एक ही कांशसनेस रह जाए, एक ही चेतना रह जाए कि मैं भोजन कर रहा हूं; और चित्त और भोजन के बीच कोई विचार, कोई कल्पना, कोई दर्शन, कोई दृश्य न रह जाए; तो आप जाग कर भोजन कर रहे हैं। अगर आप रास्ते पर चल रहे हैं, तो आपकी चेतना के समक्ष चलने के अतिरिक्त और कोई क्रिया न रह जाए, सिर्फ चलना ही रह जाए; तो आप जाग कर चल रहे हैं। अगर आप यहां मुझे सुन रहे हैं, तो सुनते समय सिर्फ सुनना रह जाए, और आपके मन में कोई भाव, कोई विचार न हो; तो आप जाग कर सुन रहे हैं। जो मैं कर रहा हूं, बस उतना ही करना रह जाए; और चित्त यहां-यहां भागता हुआ न हो, तो चेतना जागनी शुरू हो जाती है।
लेकिन सामान्यतया हमारा चित्त या तो अतीत में होता है, जो बीत गया; या भविष्य में होता है, जो अभी नहीं आया; वर्तमान में हम कभी भी नहीं होते। वर्तमान में होना जागना है। लेकिन हम या तो अतीत में होते हैं; बीत गए दिन हमारे मन को पकड़े रहते हैं। बूढ़े अतीत में जीते हैं, बच्चे भविष्य में जीते हैं। वर्तमान में कोई भी नहीं जीता! या तो हम सोचते हैं आने वाले क्षण की--कि क्या होगा? या हम सोचते हैं बीते क्षण की--कि क्या हो चुका है!
जो हो चुका है वह हो चुका, जो अभी नहीं हुआ है वह नहीं हुआ! जो अभी हो रहा है, वह जो इस क्षण मौजूद है, वही सत्य है। उस सत्य के साथ चेतना एक हो जाए तो व्यक्ति जाग जाता है। और उस जागरण के माध्यम से ही सत्य, परमात्मा, आनंद और सौंदर्य की उपलब्धि होती है। जैसे ही कोई वर्तमान के क्षण में जागता है, वैसे ही मृत्यु मिट जाती है। क्योंकि उस क्षण में जागते ही पता चलता है कि मेरे भीतर तो वह मौजूद है जिसका कोई अंत कभी नहीं हो सकता! वर्तमान के क्षण में जागना स्वयं में जाग जाना है। अतीत में होना स्मृति में होना है। भविष्य में होना कल्पना में होना है। सत्य में जो होना चाहता है, उसे वर्तमान के क्षण में ही जागना होगा।
एक छोटी सी कहानी से समझाने की कोशिश करूं।
जापान में कोई दो सौ वर्ष पहले एक बहुत अदभुत संन्यासी हुआ। उस संन्यासी की एक ही शिक्षा थी कि जागो! नींद छोड़ दो! उस संन्यासी की खबर जापान के सम्राट को मिली। सम्राट जवान था, अभी नया-नया राजगद्दी पर बैठा था। उसने उस फकीर को बुलवाया। और उस फकीर से प्रार्थना की, मैं भी जागना चाहता हूं। क्या मुझे जागना सिखा सकते हैं?
उस फकीर ने कहा, सिखा सकता हूं, लेकिन राजमहल में नहीं, मेरे झोपड़े पर आ जाना पड़ेगा! और कितने दिन में सीख पाएंगे, इसका कोई निश्चय नहीं है। यह एक-एक आदमी की तीव्रता पर निर्भर करता है; एक-एक आदमी के असंतोष पर निर्भर करता है कि वह कितना प्यासा है कि सीख सके। तुएहारी प्यास कितनी है; तुएहारी अतृप्ति कितनी है; तुएहारा डिसकंटेंट कितना है; तो तुम सीख सकते हो। और उस मात्रा में निर्भर होगा कि तुम कितने जल्दी सीख सकते हो। वर्ष लग सकते हैं, दो वर्ष लग सकते हैं, दस वर्ष लग सकते हैं। और मेरी शर्त है कि बीच से कभी आने नहीं दूंगा; अगर सीखना हो तो पूरी तैयारी करके आना। और साथ में यह भी बता दूं कि मेरे रास्ते अपने ढंग के हैं। तुम यह मत कहना कि यह मुझसे क्या करवा रहे हो, यह क्या सिखा रहे हो! मेरे अपने ढंग हैं सिखाने के।
राजकुमार राजी हो गया और उस फकीर के आश्रम पहुंच गया। दूसरे दिन सुबह उठते ही उस फकीर ने कहा कि आज से तुएहारा पहला पाठ शुरू होता है। और पहला पाठ यह है कि मैं दिन में किसी भी समय तुएहारे ऊपर लकड़ी की नकली तलवार से हमला करूंगा। तुम किताब पढ़ रहे हो, मैं पीछे से आकर नकली तलवार से तुएहारे ऊपर हमला कर दूंगा। तुम बुहारी लगा रहे हो, मैं पीछे से आकर हमला कर दूंगा। तुम खाना खा रहे हो, मैं हमला कर दूंगा। दिन भर होश से रहना! किसी भी वक्त हमला हो सकता है। सावधान रहना! अलर्ट रहना! किसी भी वक्त मेरी तलवार--लकड़ी की तलवार--तुएहें चोट पहुंचा सकती है।
उस राजकुमार ने कहा कि मुझे तो जागरण की शिक्षा के लिए बुलाया गया था, और यह क्या करवाया जा रहा है? मैं कोई तलवारबाजी सीखने नहीं आया हूं।
लेकिन गुरु ने पहले ही कह दिया था कि इस मामले में तुम कुछ पूछताछ नहीं कर सकोगे। मजबूरी थी। शिक्षा शुरू हो गई, पाठ शुरू हो गया। आठ दिन में ही उस राजकुमार की हड्डी-पसली सब दर्द देने लगी, हाथ-पैर सब दुखने लगे। जगह-जगह से चोट! किताब पढ़ रहे हैं, हमला हो जाएगा। रास्ते पर घूमने निकला है, हमला हो जाएगा। दिन में दस-पच्चीस बार कहीं से भी हमला हो जाएगा।
लेकिन आठ दिन में ही उसे पता चला कि धीरे-धीरे एक नये प्रकार का होश, एक जागृति उसके भीतर पैदा हो रही है। वह पूरे वक्त अलर्ट रहने लगा, सावधान रहने लगा। कभी भी हमला हो सकता है! किताब पढ़ रहा है, तो भी उसके चित्त का एक कोना जागा हुआ है कि कहीं हमला न हो जाए! तीन महीने पूरे होते-होते, किसी भी तरह का हमला हो, वह रक्षा करने में समर्थ हो गया। उसकी ढाल ऊपर उठ जाती। पीछे से भी गुरु आए, तो भी ढाल पीछे उठ जाती और हमला सएहल जाता। तीन महीने बाद उसे चोट पहुंचाना मुश्किल हो गया। कितने ही अनअवेयर, कितना ही अनजान हमला हो, वह रक्षा करने लगा। चित्त राजी हो गया, चित्त सजग हो गया।
उसके गुरु ने कहा कि पहला पाठ पूरा हो गया; कल से दूसरा पाठ शुरू होगा। दूसरा पाठ यह है कि अब तक जागते में मैं हमला करता था, कल से नींद में भी हमला होगा; सएहल कर सोना!
उस राजकुमार ने कहा, गजब करते हैं आप! कमाल करते हैं! जागने तक गनीमत थी, मैं होश में था, किसी तरह बचा लेता था। लेकिन नींद में तो बेहोश रहूंगा!
उसके गुरु ने कहा, घबड़ाओ मत; मुसीबत नींद में भी होश को पैदा कर देती है। संकट, क्राइसिस नींद में भी सावधानी को जन्म दे देती है।
एक मां सोती है, बच्चा उसके पास सोया है, बीमार बच्चा है। कितनी ही गहरी नींद हो, आकाश में बादल गरजते रहें, बिजली चमकती रहें, रास्तों पर युद्ध के टैंक गुजरते रहें, वह मां की नींद नहीं खुलेगी। लेकिन बच्चा जरा सा कराहा और मां जाग जाएगी। वह कराह भी सुनाई पड़ सकती है।
यहां कितने लोग हैं, हम सब सो जाएं रात और फिर कोई एक आदमी दरवाजे पर आकर चिल्लाए--राम! राम कहां है? किसी को सुनाई नहीं पड़ेगा, लेकिन जिसका नाम राम है वह आंख खोल कर कहेगा, कौन है? कौन नींद गड़बड़ कर रहा है? कौन बुला रहा है? नींद में भी पता है आपको कि आप राम हैं। नींद में भी आवाज आपकी चेतना को स्पर्श करती और स्मरण दिलाती है।
उस बूढ़े ने कहा, फिकर मत करो। तुम उसकी फिकर छोड़ो। तुम तो नींद में भी होश रखने की कोशिश करना। और लकड़ी की तलवार से नींद में हमले शुरू हो गए। रात में आठ-दस दफा कभी भी चोट पड़ जाती है। एक दिन, दो दिन, आठ-दस दिन बीतते फिर हड्डी-पसली दर्द करने लगी।
लेकिन तीन महीने पूरे होते-होते राजकुमार ने पाया कि वह बूढ़ा ठीक कहता है। नींद में भी होश जगने लगा। सोया रहता, और भीतर कोई जागता भी रहता और स्मरण रखता कि हमला हो सकता है! हाथ रात में, नींद में भी ढाल को पकड़े रहता। तीन महीने पूरे होते-होते गुरु का आगमन, उसके कदम की धीमी सी आवाज भी उसे चौंका देती और वह ढाल से रक्षा कर लेता। तीन महीने पूरे होने पर नींद में भी हमला करना मुश्किल हो गया। अब वह बहुत प्रसन्न था। एक नये तरह की ताजगी उसे अनुभव हो रही थी। नींद में भी होश था। और कुछ नये अनुभव उसे हुए। पहले तीन महीने में, जब वह दिन में जागने की कोशिश करता था, तो जितना-जितना जागना बढ़ता गया, उतने-उतने विचार कम होते गए। विचार नींद का हिस्सा है। जितना सोया हुआ आदमी, उतने ज्यादा विचार उसके भीतर चक्कर काटते हैं। जितना जागा हुआ आदमी, उतना भीतर साइलेंस और मौन आना शुरू हो जाता है, विचार बंद हो जाते हैं।
पहले तीन महीने में उसे स्पष्ट दिखाई पड़ा था कि धीरे-धीरे विचार कम होते गए, कम होते गए, फिर धीरे-धीरे विचार समाप्त हो गए। सिर्फ सावधानी रह गई, होश रह गया, अवेयरनेस रह गई। ये दोनों चीजें एक साथ कभी नहीं रह सकतीं; या तो विचार रहता है, या होश रहता है। विचार आया कि होश गया। जैसे बादल घिर जाएं आकाश में तो सूरज ढंक जाता है, बादल हट जाएं तो सूरज प्रकट हो जाता है। विचार मनुष्य के मन को बादलों की तरह घेरे हुए हैं। विचार घेर लेते हैं, होश दब जाता है। विचार हट जाते हैं, होश प्रकट हो जाता है। जैसे बादलों को फोड़ कर सूरज दिखाई पड़ने लगता है।
पहले तीन महीने में उसे अनुभव हुआ था कि विचार क्षीण हो गए, कम हो गए। दूसरे तीन महीने में एक और नया अनुभव हुआः रात में जैसे-जैसे होश बढ़ता गया, वैसे-वैसे सपने, ड्रीएस कम होते गए। जब तीन महीने पूरे होते-होते जागरण रात में भी बना रहने लगा, तो सपने बिल्कुल विलीन हो गए, नींद स्वप्नशून्य हो गई। दिन विचारशून्य हो जाए, रात स्वप्नशून्य हो जाए, तो चेतना जागी।
तीन महीने पूरे होने पर उसके बूढ़े गुरु ने कहा, दूसरा पाठ पूरा हो गया, कल से तीसरा पाठ शुरू होगा। उस राजकुमार ने कहा, तीसरा पाठ क्या हो सकता है? जागने का पाठ भी पूरा हो गया, नींद का पाठ भी पूरा हो गया। उसके गुरु ने कहा, अब असली पाठ शुरू होगा। कल से मैं असली तलवार से हमला शुरू करूंगा। अब तक लकड़ी की तलवार थी। उस राजकुमार ने कहा, आप क्या कह रहे हैं? लकड़ी की तलवार तक गनीमत थी, चूक भी जाता था तो भी कोई खतरा नहीं था, असली तलवार!
गुरु ने कहा कि जितना चैलेंज, जितनी चुनौती चेतना के लिए खड़ी की जाए, चेतना उतनी ही जागती है। जितनी चुनौती हो चेतना के लिए, चेतना उतनी सजग होती है। तुम घबराओ मत। असली तलवार तुएहें और गहराइयों तक जगा देगी।
और दूसरे दिन सुबह से असली तलवार से हमला शुरू हो गया। सोच सकते हैं आप, असली तलवार का ख्याल ही उसकी सारी चेतना की निद्रा को तोड़ दिया होगा। भीतर तक, प्राणों के अंतस तक वह तलवार का स्मरण व्याप्त हो गया। तीन महीने गुरु एक भी चोट नहीं पहुंचा सका असली तलवार से। लकड़ी की तलवार से चोट पहुंचा भी सका था, क्योंकि लकड़ी की तलवार की उतनी चुनौती न थी। असली तलवार की चुनौती अंतिम थी। एक बार चूक जाए तो जीवन समाप्त हो जाए।
तीन महीने में एक चोट नहीं पहुंचाई जा सकी। और इन तीन महीनों में उसे इतनी शांति, इतने आनंद, इतने प्रकाश का अनुभव हुआ उस युवक राजकुमार को कि उसका जीवन एक नये नृत्य में, एक नये लोक में प्रवेश करने लगा। आखिरी दिन आ गया तीसरे पाठ का, और गुरु ने कहा कि कल तुएहारी विदा हो जाएगी। तुम उत्तीर्ण हो गए। क्या तुम नहीं जाग गए? उस युवक ने गुरु के चरणों में सिर रख दिया। उसने कहा, मैं जाग गया हूं। और अब मुझे पता चला कि मैं कितना सोया हुआ था!
जो आदमी जीवन भर बीमार रहा हो, वह धीरे-धीरे भूल ही जाता है कि मैं बीमार हूं। जब वह स्वस्थ होता है तभी पता चलता है कि मैं कितना बीमार था। जो आदमी जीवन भर सोया रहा है... और हम सब सोए रहे हैं; हमें पता भी नहीं चलता कि हम कितने सोए हुए हैं। जब हम जागेंगे तभी हमें पता चलेगा कि ओह! यह सारा जीवन एक नींद थी।
श्री अरविंद ने कहा है, जब मैं सोया हुआ था तो जिसे मैंने प्रेम समझा था, जाग कर मैंने पाया वह असत्य था, वह प्रेम नहीं था। जब मैं सोया हुआ था तो जिसे मैंने प्रकाश समझा था, जाग कर पाया कि वह अंधकार से भी बदतर अंधकार था, वह प्रकाश था ही नहीं। जब मैं सोया हुआ था तो जिसे मैंने जीवन समझा था, जाग कर मैंने पाया वह तो मृत्यु थी, जीवन तो यह है।
उस राजकुमार ने चरणों में सिर रख दिया और कहा कि अब मैं जान रहा हूं कि जीवन क्या है। कल क्या मेरी शिक्षा पूरी हो जाएगी?
गुरु ने कहा, कल सुबह मैं तुएहें विदा कर दूंगा।
सांझ की बात है, गुरु बैठ कर पढ़ रहा है एक वृक्ष के नीचे किताब। और कोई तीन सौ फीट दूर वह युवक बैठा हुआ है। कल सुबह वह विदा हो जाएगा। इस छोटी सी कुटी में, इस बूढ़े के पास, उसने जीवन की संपदा पा ली है। तभी उसे अचानक ख्याल आया कि यह बूढ़ा नौ महीने से मेरे पीछे पड़ा हुआ हैः जगाने-जगाने, जगाना-जगाना, सावधान-सावधान। यह बूढ़ा भी इतना सावधान है या नहीं? आज मैं भी इस पर उठ कर हमला करके क्यों न देखूं! कल तो मुझे विदा हो जाना है। मैं भी तलवार उठाऊं इस बूढ़े पर, हमला करके पीछे से देखूं, यह खुद भी सावधान है या नहीं?
उसने इतना सोचा ही था कि वह बूढ़ा वहां दूर से चिल्लाया कि नहीं-नहीं, ऐसा मत करना। मैं बूढ़ा आदमी हूं, भूल कर भी ऐसा मत करना। वह युवक तो अवाक रह गया! उसने सिर्फ सोचा था। उसने कहा, मैंने लेकिन अभी कुछ किया नहीं, सिर्फ सोचा है। उस बूढ़े ने कहा, तू थोड़े दिन और ठहर। जब मन बिल्कुल शांत हो जाता है, तो दूसरे के विचारों की पगध्वनि भी सुनाई पड़ने लगती है। जब मन बिल्कुल मौन हो जाता है, तो दूसरे के मन में चलते हुए विचारों का दर्शन भी शुरू हो जाता है। जब कोई बिल्कुल शांत हो जाता है, तब सारे जगत में, सारे जीवन में चलते हुए स्पंदन भी उसे अनुभव होने लगते हैं।
इतनी ही शांति में प्रभु की वाणी सुनाई पड़ती है। इतनी ही शांति में प्रभु-चेतना का अनुभव अवतरित होता है।
वह राजकुमार दूसरे दिन विदा हो गया होगा। एक अनूठा अनुभव लेकर वह उस आश्रम से वापस लौटा। जब वह राजधानी में प्रविष्ट हुआ, तो वह हैरान रह गया! जो भी आदमी उसको दिखाई पड़ता, वह उसे दिखाई पड़ता कि वह बिल्कुल सोया हुआ चला जा रहा है। हर आदमी सोया हुआ चला जा रहा है। दुकानदार दुकान पर बैठ कर सोया हुआ धंधा कर रहा है। रास्ते पर चलने वाले नींद में चले जा रहे हैं। वह इतना घबड़ाया, क्योंकि सारा जगत सोया हुआ था!
जागने की छोटी सी किरण दिखाई पड़े तो आपको चारों तरफ सोए हुए लोग दिखाई पड़ेंगे। और तब उन सोए हुए लोगों पर आपको क्रोध नहीं, दया का अनुभव होगा; ममता का अनुभव होगा; करुणा का अनुभव होगा। तब अगर एक सोया हुआ आदमी आपको धक्का मार देगा तो आप लड़ने को तैयार नहीं हो जाएंगे, आप समझेंगे वह बेचारा सोया हुआ है। एक आदमी गाली दे जाएगा, और आप समझेंगे वह बेचारा सोया हुआ है। एक आदमी हमला कर देगा, और आप समझेंगे कि वह बेचारा सोया हुआ है।
जागा हुआ आदमी जब सारे जगत को सोया हुआ देखता है, तो अति करुणा से भर जाता है। जागरण का लक्षण हैः सारे जीवन के प्रति प्रेम और करुणा से भर जाना। सोए हुए आदमी का लक्षण हैः सबके प्रति क्रोध, घृणा, हिंसा से भरे हुए होना। हिंसा नींद की छाया है, प्रेम जागृति की छाया है। इसलिए प्रेम से पहचाना जाता है कि कोई आदमी प्रभु के पास पहुंच गया या नहीं। इसलिए प्रेम से खबर मिलती है कि किसी को प्रभु का संदेश उपलब्ध हो गया या नहीं। इसलिए बहते हुए प्रेम से संदेश आता है, ध्वनि आती है कि कोई प्रभु के मंदिर के निकट पहुंचने लगा है।
लेकिन जिनको हम धार्मिक लोग कहते हैं, वे एक-दूसरे के प्रति इतनी घृणा से भरे हुए हैं कि उनका प्रभु से कोई भी संबंध नहीं हो सकता है। हिंदू मुसलमान के प्रति घृणा से भरा हुआ है। ईसाई हिंदू के प्रति घृणा से भरा हुआ है। जैन बौद्ध के प्रति घृणा से भरा हुआ है। वे सारे लोग एक-दूसरे के प्रति घृणा से भरे हुए हैं, द्वेष से भरे हुए हैं, प्रतिस्पर्धा से भरे हुए हैं। वे धार्मिक कैसे हो सकते हैं?
धार्मिक आदमी के लिए सिवाय प्रेम के और कुछ भी शेष नहीं रह जाता। लेकिन वह प्रेम तभी उपलब्ध होता है जब जागरण उपलब्ध होता है। नींद को जागरण में तोड़ना जरूरी है, नींद को जागरण में बदलना जरूरी है।
कैसे बदलेंगे आप? कौन आपके पीछे तलवार लेकर लगेगा?
कोई नहीं लगेगा आपके पीछे तलवार लेकर! लेकिन मौत आपके पीछे तलवार लेकर रोज ही लगी हुई है। अगर मौत का स्मरण आ जाए, तो आप भी जाग सकते हैं। प्रतिपल मौत आपके पीछे लगी हुई है, प्रतिक्षण कोई तलवार हर एक के ऊपर लटक रही है। अगर उसका स्मरण आ जाए, तो आप होश से भर सकते हैं। अगर स्मरण आ जाए...
मैंने सुना है, महाराष्ट्र में एक संत हुआ। एक युवक उसके पास कभी-कभी आता था। उस युवक ने एक दिन सुबह-सुबह आकर संत को पूछा कि मैं आपको देखता हूं तो मेरे मन में एक प्रश्न हमेशा उठता है, लेकिन दूसरे लोग मौजूद रहते हैं इसलिए मैं पूछता नहीं। मेरे मन में यह प्रश्न उठता है, आप इतने प्रेम से भरे हुए मालूम होते हैं, क्या आपके भीतर घृणा का ख्याल कभी नहीं उठता? आप इतने शांत मालूम होते हैं कि क्या आपके भीतर अशांति का कीड़ा कभी नहीं सरकता? आप इतने धुले-धुले साफ-स्वच्छ मालूम होते हैं कि क्या अपवित्रता के दाग आपके भीतर बिल्कुल मिट गए हैं? क्या जैसे आप बाहर हैं, वैसा ही भीतर भी है सब कुछ? मैं यही पूछना चाहता हूं।
उस संन्यासी ने कहा कि मेरे दोस्त, तुएहारे प्रश्न का उत्तर मैं दो क्षण बाद दूंगा। एक और जरूरी बात मुझे बता देनी है। दो दिन से सोचता हूं बताने को, लेकिन भूल जाता हूं। और अगर दो-चार दिन और भूल गया तो फिर बताने की जरूरत न रह जाएगी। पहले वह सुन लो। उस युवक ने कहा, वह कौन सी बात है? उस संन्यासी ने कहा कि दो दिन पहले तुएहारे हाथ पर अचानक मेरी नजर गई तो मैंने देखा, तुएहारी उम्र की रेखा समाप्त हो गई है। सात दिन और, और तुम समाप्त हो जाओगे। यह दो दिन पहले की बात है, अब पांच दिन ही बचे हैं। पांचवें दिन सूरज डूबा और तुम भी गए। तो यह बता दूं, नहीं तो भूल जाए तो फिर बताने की कोई जरूरत न रह जाए। अब तुम पूछो कि क्या पूछते थे?
वह आदमी उठ कर खड़ा हो गया। वह आया था तो जवान था। यह बात सुनते ही कि पांच दिन में मौत है, एकदम से बूढ़ा हो गया। उसके हाथ-पैर कंपने लगे। उस संन्यासी ने उसे कहा, बैठो! तुम कुछ अच्छी बात पूछते थे, पूछो! मैं उसका उत्तर दूं।
उस आदमी ने कहा, मुझे अब कुछ भी याद नहीं आता कि मैं आपसे क्या पूछता था! फिर कभी ख्याल आया तो मैं आकर पूछूंगा। अभी मैं जाता हूं, क्षमा करें!
वह आदमी दीवाल का सहारा लेकर सीढ़ियां उतरने लगा। अभी आया था तो जवान था। अभी आया था तो हाथों में मजबूती थी, अभी पैर शक्तिशाली थे। अब लौटता था तो सब विलीन हो गया। आंखों ने जैसे प्रकाश खो दिया हो। पैरों ने शक्ति खो दी, प्राणों ने ऊर्जा खो दी, मौत सामने खड़ी हो गई। वह अपने घर तक भी नहीं पहुंच पाया और सड़क पर गिर पड़ा, बेहोश हो गया। तो उसे बेहोशी में घर ले जाया गया। उसने जाकर बामुश्किल बता पाया कि बस पांच दिन और, मैं खतम हो जाऊंगा। थोड़ा स्वस्थ हुआ, तो उसने घर के लोगों को कहा, जाओ, पड़ोस में जिनसे मेरे झगड़े थे, उनसे मेरी ओर से क्षमा मांग आओ!
कल सुबह तक सोच रहा था कि मुकदमे चलाने हैं, कल सुबह तक सोचता था कि किसकी छाती में छुरा भुंकवा दूं। आज कहने लगा कि जाओ, उनसे क्षमा मांग आओ! सब झगड़े जिंदगी के झगड़े थे, जब मौत आ गई तो कैसा झगड़ा? कैसे झगड़े का सवाल?
पास-पड़ोस में क्षमा मांग ली। मित्र-प्रियजन इकट्ठे होने लगे। पांच दिन और हैं। पांचवें दिन वह आदमी करीब-करीब मृत्यु में डूबा-डूबा हो गया। सूरज डूबने के घड़ी भर पहले वह संन्यासी उसके घर पहुंचा। अंधकार है, लोग रो रहे हैं, पत्नी बिलख रही है, बच्चे चिल्ला रहे हैं। वह संन्यासी भीतर गया। उस आदमी को हिलाया--उसकी आंखें बंद हैं, गड्ढों में समा गई हैं आंखें--हिला कर उसने पूछा कि मेरे दोस्त, अभी सूरज डूबने में एक घड़ी देर है, मैं एक प्रश्न पूछने आया हूं, उत्तर दोगे? मैं पूछने आया हूं कि पांच दिनों में तुएहारे मन में कोई पाप उठा? पांच दिनों में तुएहारे मन में घृणा उठी? हिंसा उठी? द्वेष उठा? क्रोध उठा? एक ही प्रश्न मैं पूछने आया हूं।
वह आदमी हंसने लगा, उसने कहा, आप भी मरते हुए आदमी से मजाक करते हैं! मौत इतने करीब थी कि मेरे और मौत के बीच फासला कहां था कि क्रोध उठ आए, हिंसा उठ आए, घृणा उठ आए। फासला कहां था मौत और मेरे बीच! मैं था और मौत थी, और कुछ नहीं था पांच दिन। न घृणा उठी, न हिंसा, न क्रोध; न मालूम कहां गए सब! बस मौत थी और मैं था!
उस फकीर ने कहा, उठ जाओ! अभी मौत नहीं आई तुएहारी, रेखा तुएहारी बहुत लंबी है। मैंने तो केवल तुएहारे प्रश्न का उत्तर दिया है। अभी तुम मरने को नहीं हो।
पांच दिन बाद मौत दिखाई पड़े या पचास वर्ष बाद मौत दिखाई पड़े, इससे क्या फर्क पड़ता है! जिसको मौत दिखाई पड़ने लगती है, उसके जीवन में आमूल परिवर्तन शुरू हो जाता है। मौत सबसे बड़ा शिक्षक है। मृत्यु सबसे बड़ा गुरु है। और जिस व्यक्ति को धार्मिक जीवन में दीक्षा लेनी हो, उसे मृत्यु के अतिरिक्त और किसी गुरु को खोजने की कभी भी जरूरत नहीं। मृत्यु को स्मरण करें। वह चौबीस घंटे तलवार लिए आपके साथ है। और मृत्यु को स्मरण करके जीने की कोशिश करें। और आप पाएंगे कि आप जागना शुरू हो गए हैं, नींद टूटनी शुरू हो गई है। नींद समाप्त हो जाएगी।
एक छोटी सी घटना, और मैं अपनी बात को पूरा करूं।
एक पहाड़ पर, जहां चार-चार सौ फीट ऊंचे दरख्त थे, एक बूढ़ा आदमी लोगों को दरख्तों पर चढ़ने की कला सिखाता। सीधे दरख्त, आकाश को छूते वृक्ष, चार सौ फीट ऊंचे, उन पर लोगों को चढ़ने की कला सिखाता। एक युवक उससे वृक्षों पर चढ़ने की कला सीखने आया था। वह बूढ़ा नीचे बैठ गया था और युवक को कहा था कि तू चढ़, उसे चढ़ने का ढंग बता दिया था। वह युवक उस ऊंचे दरख्त पर चढ़ रहा था। धीरे-धीरे-धीरे वह चार सौ फीट ऊंची आखिरी शिखा पर पहुंच गया। जहां हवा का जरा सा झोंका मौत का ख्याल लाता था। जहां जरा सी चूक, और जिंदगी समाप्त थी। वह बूढ़ा नीचे चुपचाप बैठा रहा, चुपचाप बैठा रहा, चुपचाप बैठा रहा।
फिर वह जवान उतरना शुरू हो गया। जब वह जवान कोई बीस फीट ऊपर रह गया था, तब वह बूढ़ा एकदम उठ आया और कहने लगा, सावधान! होश से उतरना!
वह जवान हंसने लगा, उसने कहा, आप भी बड़े पागल मालूम होते हैं। जब मैं चार सौ फीट की ऊंचाई पर था और मौत करीब थी, तब चिल्लाना था कि सावधान! अब चिल्लाने का क्या फायदा है? अब तो मैं जमीन के करीब आ गया।
उस बूढ़े ने कहा, मेरे जीवन भर का अनुभव यह कहता है कि जहां मौत करीब होती है वहां आदमी खुद ही सावधान होता है, किसी को सावधान करने की जरूरत नहीं पड़ती। तुम जब चार सौ फीट की ऊंचाई पर थे, तब मेरी कोई भी जरूरत नहीं थी कि मैं तुएहें चिल्लाऊं--सावधान! तुम खुद ही सावधान थे। क्या तुम सावधान नहीं थे? क्या तुम जब चार सौ फीट की ऊंचाई पर थे, तब तुएहें कोई विचार आया?
उस युवक ने ख्याल किया, यह सच्चाई थी! जब वह चार सौ फीट की ऊंचाई पर था और हवा के कंपन मौत बन गए थे, तब न तो कोई विचार था, न कोई स्मृति थी, न कोई अतीत था, न कोई भविष्य था। वह वर्तमान का क्षण था, वे हवाओं के झोंके थे, वह वृक्ष था, वह सूरज की रोशनी थी, वह ऊंचाई थी, वह खुद था। लेकिन वहां न कोई अतीत था, न कोई भविष्य था, न कोई कल्पना थी, न कोई स्मृति थी, न कोई विचार था। वह बिल्कुल निर्विचार था। उसने कहा, आप शायद ठीक कहते हैं। मैं बहुत सावधान था वहां।
और उस बूढ़े ने कहा, मैं और अनुभव से यह कहता हूं कि जैसे ही आदमी जमीन के करीब आता है वृक्ष से और जैसे ही उसे लगता है कि खतरे के पार आ गया, वैसे ही नींद आनी शुरू हो जाती है, वैसे ही बेहोशी पकड़नी शुरू हो जाती है, वैसे ही सावधानी समाप्त हो जाती है। जब तू करीब आ रहा था तब मैंने देखा कि अब नींद आनी शुरू हो रही है, तब मैं चिल्लाया कि सावधान!
उस बूढ़े ने कहा, लोग किनारे के पास आकर कश्ती डूबा बैठते हैं, यह जान कर कि किनारा पास आ गया, और असावधान हो जाते हैं। मझधार में मुश्किल से कभी कोई डूबता है; लोग अक्सर किनारों पर ही डूबते हैं और नष्ट होते हैं। और उस बूढ़े ने कहा कि मैंने अब तक वृक्ष की आखिरी चोटी से किसी को गिरते नहीं देखा; जब भी गिरते देखा है तो जमीन के पास नीचे आकर गिरते देखा है।
मौत पीछे हो, चारों तरफ हो, तो एक ऐसी सावधानी की ज्योति भीतर पैदा होती है, एक ऐसा होश जगता है, एक ऐसा दीया जगता है प्रज्ञा का, ज्ञान का, कि वह दीया आपके सारे जीवन के अंधकार को तोड़ डालता है। उस प्रकाश में ही प्रभु के दर्शन होते हैं। उस प्रकाश में ही आनंद की वर्षा होती है। उस प्रकाश में ही अमृत के द्वार खुलते हैं। उस प्रकाश का ही नाम सत्य है। उस प्रकाश का ही नाम ब्रह्म है। उस प्रकाश का ही नाम मोक्ष है।
अगर यह यात्रा करनी हो, अगर यह प्रभु तक के मंदिर तक पहुंचने की आकांक्षा, अभीप्सा हो, अगर इसकी आकुल प्यास हो, तो नींद को तोड़ें और जागें। जिस दिन भी आप जाग जाएंगे, उसी दिन जीवन उपलब्ध हो जाता है।
मैंने जो यह कहा, यह कोई फिलासफी नहीं है, यह कोई दर्शन नहीं है। मैंने जो कहा, यह सुन लेना भर पर्याप्त नहीं है। मैंने जो यह कहा, अगर इसका थोड़ा सा प्रयोग करेंगे तो कोई परिणाम आ सकते हैं। परमात्मा करे, आपको जीवन के साथ प्रयोग करने का साहस और प्यास दे! परमात्मा करे, आप जन्म पर ही न रुक जाएं, जीवन को उपलब्ध हो सकें! अंत में यही कामना करता हूं कि सबको प्रभु उपलब्ध हो सके। सबका अधिकार है प्रभु को पा लेना, जन्मसिद्ध अधिकार है कि प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा को उपलब्ध हो जाए। परमात्मा करे कि प्रत्येक वही हो सके जिसे होने के लिए पैदा हुआ है।
मेरी बातों को तीन दिनों तक इतने प्रेम और शांति से सुना, इतनी प्यास से, इतनी आतुरता से, उसके लिए जितना भी मैं धन्यवाद करूं वह थोड़ा है। मैं बहुत-बहुत अनुगृहीत हुआ हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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