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सोमवार, 26 नवंबर 2018

सहज समाधि भली-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

सहज स्वभाव--लोभ और भय से मुक्त

दिनांक २३ जुलाई, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

मरियम के बेटे ईसा एक गांव से गुजर रहे थे। उन्होंने देखा कि कुछ लोग राह के किनारे एक दीवाल पर बहुत संतापग्रस्त होकर मुंह लटकाए हुए बैठे हैं।
ईसा ने उनसे पूछाः ‘यह हालत कैसे हुई तुम्हारी?’
उन्होंने कहाः ‘नरक के भय से हम ऐसे हो रहे हैं।’
थोड़ा आगे बढ़ने पर ईसा ने कुछ और लोगों को देखा, जो राह के किनारे तरह-तरह के आसनों और मुद्राओं में बैठे हैं। और वे भी बहुत-बहुत उदास हैं।
ईसा ने उनसे भी पूछाः ‘तुम्हारी तकलीफ क्या है?’
उन्होंने कहाः ‘स्वर्ग की आकांक्षा ने हमें ऐसा बना दिया है।’
उसी गांव में ईसा और आगे बढ़े; फिर कुछ लोग उन्हें मिले। उन्हें देख कर लगा कि जीवन में उन्होंने बहुत-कुछ झेला है; लेकिन वे आनंद-मग्न हैं।
पूछने पर उन्होंने बतायाः ‘हमने हकीकत देख ली; इसलिए और मंजिलें भूल गईं।’
ओशो, इस सूफी कहानी का अभिप्राय क्या है?
जीवन जीने का ढंग तीन प्रकार का हो सकता है। या तो तुम भय के कारण जीओ, तब जीवन एक
दुख होगा--एक पीड़ा, एक संताप। वैसे जीवन में आनंद के फूल खिलने का कोई उपाय नहीं, वैसे जीवन में शांति भी संभव नहीं; भयभीत--कंपता ही रहेगा। संतुलन बनाना भी कठिन होगा। और भयभीत चाहेगा कि पैदा ही न हुआ होता, तो अच्छा था।

दूसरा ढंग है--लोभ--कि तुम महत्वाकांक्षा से जीओ। कुछ पाने की दौड़--वासना, कुछ उपलब्ध कर लेने का स्वप्न तुम्हें चलाए। तब भयभीत आदमी से तो तुम्हारी हालत थोड़ी बेहतर होगी, लेकिन बहुत बेहतर नहीं; क्योंकि तुम्हारे जीवन में थोड़ी सी आशा की किरण होगी। तुम कभी-कभी मुस्कुरा सकोगे। लेकिन तुम्हारी मुस्कुराहट के पीछे भी दुख ही छिपा होगा। तुम्हारी मुस्कुराहट भी झूठी ही होगी; वह भी सच नहीं हो सकती। तुम्हारी हर हंसी आंसुओं को छिपाने का ढंग होगी। क्योंकि लोभ भय का ही उलटा रूप है।
भय अतीत से बंधा है, लोभ भविष्य से। भय तुम उसका करते हो, जो हो गया। लोभ तुम उसका करते हो, जो होना चाहिए। लेकिन भय या लोभ दोनों ही स्थिति में तुम यहां नहीं होते, वर्तमान में नहीं होते। लोभी व्यक्ति भी उत्तेजित रहता है, क्योंकि उसके भी सारे स्वर्ग ‘कल’ घटने वाले हैं, अभी घटे नहीं। उसके जीवन में भी शांति, विश्राम, विराम नहीं होता। क्योंकि दौड़ धक्के दिये जाती है। लोभी एक ज्वर में जीता है--एक बुखार में।
एक तीसरा ढंग भी है जीने का, बहुत थोड़े से लोगों को उपलब्ध होता है; उन लोगों को जो न तो भय से पीड़ित हैं और न लोभ से आकर्षित हैं, जिन्होंने जीवन का सत्य देख लिया। और जीवन में सत्य यहीं और अभी है। न तो अतीत में है और न भविष्य में।
न तो कुछ डरने को है यहां, क्योंकि कुछ खोने को नहीं है। भय किस बात का? तुम खो क्या सकते हो? कभी तुम सोचते ही नहीं कि खोने को कुछ भी नहीं है, फिर भी तुम इतने भयभीत हो रहे हो! तुम्हारी हालत उस भिखारी जैसी है, जो रात भर जागता है कि कहीं कोई चोरी न कर ले। और है उसके पास कुछ भी नहीं, जिसकी चोरी हो सके। या तुम्हारी हालत उस नंगे आदमी जैसी है, जो स्नान नहीं करता, क्योंकि वह कहता था कि स्नान कर लूं, तो कपड़े कहां सुखाऊंगा? और कपड़े उसके पास थे ही नहीं!
तुम भयभीत किस बात से हो? तुम्हारे पास कुछ होता, तो डर भी हो सकता था--खो जाने का। तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। लेकिन जिनके पास कुछ भी नहीं है, वे भी सोचते हैं कि ‘कुछ है’ और भय है। कम से कम भय के कारण ऐसा भरोसा बना रहता है कि कुछ हमारे पास है।
जिसने सत्य को देख लिया, वह अपनी शून्यता को भी देख लेगा कि मेरे पास कुछ भी नहीं है। न चोरी हो सकती है, न छीन-झपट हो सकती है, न मैं लूटा जा सकता हूं। मेरे पास कुछ नहीं है। मेरा दिवाला निकलने का उपाय नहीं है। मैं व्यर्थ ही भयभीत हूं।
और जिस दिन तुम जान लेते हो कि तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, उसी दिन तुम यह भी जान लेते हो कि इस जगत में कुछ पाने का रास्ता भी नहीं है। अन्यथा अभी तक तुमने पा ही लिया होता।
कितने ही जन्मों से तुम दौड़ रहे हो--लोभ की आकांक्षा में। भयभीत हो कि कुछ खो न जाए जो तुम्हारे पास नहीं है! और आकांक्षा कर रहे हो, कुछ पाने की, जो कि तुम्हारे पास कभी भी नहीं होगा, क्योंकि ‘तुम्हारे’ अतिरिक्त तुम्हारे पास कुछ भी नहीं हो सकता। तुम ही तुम्हारी संपदा हो सकते हो। वह तुम हो--इसी वक्त। उसे पाने के लिए कल तक रुकने की कोई जरूरत नहीं है।
भय और लोभ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भय मानता है कि कुछ है, जो खो न जाए; लोभ मानता है कि कुछ है नहीं, मिल जाए। लेकिन न तुम्हारे पास कुछ खोने को है, और न तुम कुछ पा सकोगे। यह हकीकत है। तुम शून्य हो और शून्य ही रहोगे। शून्यता तुम्हारा स्वभाव है।
जिसने हकीकत जान ली, जिसने सत्य को देख लिया, वह भय और लोभ दोनों से मुक्त हो जाता है। और शून्य गगन में, कबीर ने कहा हैः अमृत की वर्षा होती है।
जिस दिन तुम जान लेते हो कि न कुछ खोने को है, न कुछ पाने को, उस दिन भय भी गया, लोभ भी गया। उस दिन तुम्हारे जीवन में जो थिरक आती है, वह जो शून्य का नृत्य पैदा होता है, वही समाधिस्थ संत, प्रबुद्ध, की दशा है।
उस दिन तुम नाचते हो, इसलिए नहीं कि तुमने कुछ पा लिया है; उस दिन तुम नाचते हो--कि न कुछ खोने का उपाय है, न कुछ पाने का। इसलिए मैं व्यर्थ ही चिंतित था, चिंता मेरी भ्रांति थी। उस दिन ‘तुम नाचते हो’, ऐसा कहना भी ठीक नहीं, उस दिन शून्य ही नाचता है।
बुद्ध जिस शांति में बैठे हैं--बोधिवृक्ष के नीचे, वह शांति क्या है? लोभ और भय का विसर्जन। इसलिए बुद्ध ने तो यह भी कहा कि तुम मुझसे मत पूछो कि यदि तुम अच्छा करोगे, तो क्या मिलेगा। कुछ भी नहीं मिलेगा। तुम मुझसे यह भी मत पूछो कि अगर हम बुरा करेंगे, तो क्या खो जाएगा? कुछ भी नहीं खो जाएगा।
न तुम्हारे पुण्य से कुछ मिलनेवाला है, न तुम्हारे पाप से कुछ खोने वाला है। तुम जैसे हो, तुम वैसे ही रहोगे। इस बात को थोड़ा ठीक से समझ लें, तो इस कहानी की पृष्ठभूमि बन जाए।
यह कहानी बड़ी कीमत की है। ईसाइयों ने तो इस कहानी का उल्लेख ही नहीं किया--ईसा के जीवन में। यह बड़े मजे की बात है। ईसा को मानने वालों ने इस कहानी का उल्लेख ही नहीं किया--ईसा के जीवन में। यह तो मुसलमानों ने, सूफियों ने इस कहानी का उल्लेख किया है। क्यों ईसा के माननेवालों ने यह कहानी छोड़ दी होगी?
यह कहानी बड़ी खतरनाक है; क्योंकि इसका मतलब है कि न स्वर्ग का लोभ अर्थपूर्ण है, न नरक का भय। अगर यह सच है, तो सारी ईसाइयत के आधार गिर जाएंगे। क्योंकि ईसाइयत नरक के भय और स्वर्ग के लोभ पर ही खड़ी है। डराया जा रहा है कि अगर तुमने बुरा किया, तो नरक में सड़ोगे।
और ईसाइयत का नरक बड़ा खतरनाक है। ऐसा नरक किसी का भी नहीं। हिंदुओं का, मुसलमानों का--सबका नरक है; लेकिन ईसाइयों के नरक से बचना। कहीं भी चले जाएं, इतना खतरा नहीं है। क्योंकि ईसाइयों का नरक इटरनल है, शाश्वत है।
हिंदुओं का नरक तो गणित का हिसाब है। तुमने जितना पाप किया है, उतना दुख। लेकिन ईसाइयत का नरक तुम्हारे पाप के अनुपात में नहीं है। तुमने कितना पाप किया है, यह सवाल नहीं है; तुमने पाप किया, कि तुम अनंत काल तक नरक में सड़ोगे।
ईसाइयों का जो ईश्वर है, वह कोई न्यायाधीश नहीं मालूम होता। वह तुमसे प्रतिकार लेगा। तुमने पाप किया, तुम उसके शत्रु हो गए। अब यह सवाल न्याय का नहीं है कि तुम्हें कितना दंड दिया जाए। अब तुम सड़ाए जाओगे नरक में।
एक बड़ी अनूठी यहूदी कथा है। एक यहूदी फकीर से किसी ने पूछा कि क्या एक ही नरक से काम न चल सकता था! क्योंकि यहूदियों ने सात नरक सोचे हैं। जैनों के भी सात नरक हैं! यहूदी फकीर ने कहा, ‘नहीं, एक से काम नहीं चल सकता।’ उस आदमी ने कहा, ‘कष्ट ही देना है, तो एक में ही इंतजाम हो सकता है। सात-सात की क्या जरूरत है?’ उस फकीर ने कहा, ‘ऐसा है कि अगर एक ही नरक हो, तो कुछ दिन कष्ट पाने के बाद तुम उसके आदी हो जाओगे। फिर उसमें कष्ट न मालूम पड़ेगा; आदत बन जाएगी। जैसे ही आदत बन जाएगी दूसरे नरक में तुम्हें भेजा जाएगा। वहां नए तरह के दुख होंगे; पुरानी आदत टूटेगी; फिर तुम कष्ट पाओगे।
इसलिए सात नरक हैं, ताकि अदल-बदल की जा सके और तुम कहीं भी आदी होकर दुख को झेलने में समर्थ न हो जाओ। जैसे ही आदत बनी वैसे ही नरक बदला!
परमात्मा प्रतिकार लेता मालूम पड़ता है--यहूदी, ईसाइयों का। तुमने क्या और कितना पाप किया है, इस हिसाब से कष्ट नहीं दिया जा रहा है। तुमने इनकार किया, तुम विरोधी थे, तुम परमात्मा के पीछे न चले या परमात्मा के पैगंबर को न माना--इससे शत्रुता बनती जा रही है।
ईसाइयों ने यह कहानी छोड़ ही दी। जीसस के जीवन में जो भी कहानियां हैं, उनमें यह सबसे ज्यादा प्यारी है। लेकिन इसका उन्होंने उल्लेख नहीं किया है। क्योंकि अगर इसका उल्लेख हो, तो ईसाइयत का आधार गिर जाता।
कहानी खतरनाक और क्रांतिकारी है। यह कह रही है कि तुम अगर स्वर्ग के लोभ से भी पीड़ित हो, तो तुम संसारी हो। अगर तुम इसलिए दान कर रहे हो कि स्वर्ग में इसका प्रतिफल मिलेगा, तो तुम दुकानदार हो। तुम सौदा कर रहे हो। अगर तुम इसलिए वेश्या के द्वार से आंख बंद करके निकल जाते हो कि नरक जाना पड़ेगा, तो तुम वेश्या के घर जा ही चुके। अगर तुम इसलिए हत्या नहीं करते हो कि तुम सड़ाए जाओगे नरक के कढ़ाओं में, तो तुमने हत्या कर ही दी। हत्या से तुम्हें विरोध नहीं, परिणाम से तुम भयभीत हो! तुम धार्मिक आदमी नहीं हो; तुम व्यवसायी हो। तुम्हारे सोचने का ढंग चालाकी का है--सरलता का नहीं।
अगर तुम्हें पक्का पता चल जाए कि कोई नरक नहीं है, तो अचानक तुम पाओगे कि तुम्हारे पैर वेश्या के घर की तरफ बढ़ने लगे। अगर तुम्हें कहीं यह पता चल जाए कि वेश्यागामियों को स्वर्ग मिल रहा है--विधान में परिवर्तन हो गया है, कानून बदल गया है, विरोधी दल सत्ता में आ गया है--तो तुम्हें अपने बनाए हुए मंदिरों को वेश्यालयों में बदलने में कितनी देर लगेगी! क्षण भी तो नहीं लगेगा।
अगर तुम भय के कारण धार्मिक हो, तो तुम्हारी धार्मिकता वास्तविक नहीं है। अगर तुम लोभ के कारण धार्मिक हो, तो भी तुम्हारी धार्मिकता वास्तविक नहीं है।
धार्मिक आदमी तो वह है कि अगर उसकी सरलता के कारण उसे यदि नरक भी मिलता हो, तो वह नरक स्वीकार करेगा, लेकिन सरलता को नहीं छोड़ सकता। धार्मिक आदमी वह है कि अगर उसके भलेपन के कारण उसे अनंत काल तक कष्ट भोगना पड़ेगा, तो कष्ट भोगने को राजी होगा, लेकिन भलेपन को नहीं छोड़ेगा। तब भलेपन का गुण, तब भलेपन की इंट्रेंजिक वैल्यू, उसका भीतरी मूल्य प्रकट होता है।
किसी ने एडमंड बर्क को पूछा कि ‘तुम न कभी चर्च जाते हो, न तुम्हें कभी प्रार्थना करते किसी ने देखा। तुम भयभीत नहीं हो? भविष्य के लिए चिंतित नहीं हो?’ बर्क ने कहा, ‘जो भी भला है, वह मैं कर रहा हूं। अगर भले का परिणाम भला होगा, तो ठीक है। अगर भले का परिणाम बुरा होगा, तो भी ठीक है। क्योंकि परिणाम की चिंता मैं नहीं कर रहा हूं। मुझे भला करने में इतना आनंद आ रहा है कि अब और किसी परिणाम की कोई जरूरत ही नहीं है। यह काफी है।’
धार्मिक व्यक्ति के लिए साधन ही साध्य हो जाता है, यात्रा ही मंजिल हो जाती है। चलना ही इतना सुखद है कि पहुंचने की चिंता कौन करता है? यह रास्ता ही इतना प्यारा है कि मंजिल के सपने कौन देखता है? और तब ऐसे व्यक्ति के लिए यही जगह मंजिल हो गई। क्योंकि मंजिल का मतलब क्या है? --जहां विश्राम हो सके। मंजिल का मतलब क्या है? जहां तुम आराम कर सको। ऐसा यात्री यहीं आराम कर रहा है। इसके कदम-कदम पर मंजिल है, इसको कहीं पहुंचना नहीं है, यह पहुंचा ही हुआ है।
लेकिन अधार्मिक चित्त हमेशा लोभ और भय की भाषा में सोचता है। चर्च, मंदिर, मस्जिद तुम्हारे भय का शोषण करते हैं तुम्हारे लोभ का शोषण करते हैं इसलिए इनका कोई संबंध धर्म से नहीं है। धर्म का एक भी मंदिर पृथ्वी पर नहीं है। कोई चर्च धर्म का नहीं है, क्योंकि तुम दुकानदार हो। सब चर्च तुम्हारे हैं, सब मंदिर तुम्हारे हैं। तुमने उन्हें बनाया है; पुजारियों ने उन्हें बनाया है और उन सब की आधारशिला लोभ या भय है।
अंग्रेजी में एक शब्द हैः गॉड-फियरिंग, हिंदी में भी शब्द हैः ईश्वर-भीरु। यह बेहूदा शब्द है। अगर ईश्वर से भी डरना पड़े, तो फिर तुम निर्भय कहां हो सकोगे! अगर ईश्वर का भी भय रखना पड़े, तो फिर निर्भय होने का उपाय न रहा? तो ‘इस’ संसार में भी तुम भयभीत रहोगे, ‘उस’ संसार में भी, क्योंकि ईश्वर सब जगह है। फिर तुम निर्भय कब हो सकोगे? और जब तक तुम निर्भय न हो जाओ, तब तक जीवन का रस, जीवन का झरना कैसे फूटेगा? जब तक तुम अभय न हो जाओ, तब तक तुम्हारी आत्मा का पूरा खिलाव, तुम्हारी आत्मा के फूल कैसे खिलेंगे?
नहीं, धार्मिक आदमी ईश्वर से डरता नहीं। डरने का कोई सवाल ही नहीं है। और ध्यान रहेः जिससे तुम डरते हो, उससे तुम प्रेम कैसे करोगे? जिससे तुम डरते हो, उससे तुम घृणा कर सकते हो, प्रेम नहीं। तुम्हारी प्रार्थना अगर भय के कारण है, तो तुम्हारे हृदय की गहराई में ईश्वर के प्रति नफरत होगी। क्योंकि जो भी तुम्हें डराता है, वह दुश्मन है, वह मित्र नहीं है।
जिससे हम प्रेम करते हैं, उससे हम बिल्कुल नहीं डरते हैं। यही तो प्रेम का लक्षण है। जिससे हम प्रेम करते हैं, उसका भय खो जाता है; उससे रत्ती भर भय नहीं होता। उसके सामने हम नग्न हो सकते हैं, उसके सामने हम अपने हृदय को पूरा खोल सकते हैं, उसके सामने कोई चीज गुप्त रखने की जरूरत नहीं है। वह हमारा इतना अपना है कि अब छिपाने का कोई सवाल नहीं है। लेकिन धार्मिक, पुरोहित, मंदिर, पुजारी--वे समझाते हैं कि ईश्वर का भय रखो!
ऐसा धार्मिक आदमी खोजना कठिन है, और ऐसा धार्मिक आदमी अगर हो, तो वह मंदिर की तलाश में नहीं आएगा। वह जहां है, वहीं मंदिर है।
जो मंदिर की तलाश में आते हैं, वे तो दुकानदार हैं; वे तो हिसाब लगा रहे हैं। और पुजारी उनसे कहता है कि ‘डरो। ईश्वर से भय खाओ।’ पुजारी उनको समझाता है कि ध्यान रखो, तुम कितने ही अकेले हो, लेकिन ईश्वर तुम्हें देख रहा है। एकांत में भी पाप मत करना, क्योंकि उसकी नजरें तुम्हारे पीछे लगी हैं। ईश्वर जैसे एक कॉ.जमिक जासूस है, जो सब तरफ से तुम्हारे पीछे पड़ा है! तुम कुछ भी करो, वह जान रहा है; उसकी किताब में तुम्हारे पाप-पुण्य लिखे जा रहे हैं। और आखिर में तुम्हें हिसाब चुकाना पड़ेगा।
यह जीवन को देखने की दुकानदार की नजर है। और दुकानदार की नजर से ज्यादा गलत नजर दूसरी नहीं होती। दुकानदार की भी कोई नजर होती है? उसकी भी कोई दृष्टि होती है? वह सदा इकट्ठा करना धन, पूंजी खो न जाए, उसकी व्यवस्था करना--उसी में लगा रहता है। वह जीवन को खो देता है--सिक्कों में। फिर इन्हीं सिक्कों का विस्तार कर लेता है। पुण्य एक सिक्का है, जो स्वर्ग में भी चलता है; वह प्रामिसरी नोट है। ऊपर जो बैंक है--स्वर्ग में, वह भी उसे स्वीकार करती है। वह इकट्ठे करता है--पुण्य के सिक्के। वह पाप से डरता है।
इसलिए नरकों की ऐसी तस्वीरें खींची गई हैं, जिनसे तुम घबड़ाओ। स्वर्ग के बड़े मनमोहक चित्र छापे गए हैं, जिनसे तुम्हारी वासना जगे। यह बड़ी हैरानी की बात है।
सब धर्म कहते हैं कि वासना से मुक्त होना है; लेकिन उनसे पूछो, ‘तुम्हारे स्वर्ग में मिलेगा क्या?’ तो उनकी सारी दीन दशा प्रकट हो जाती है। स्वर्ग में वे उन्हीं बातों को तुम्हें देने का वायदा करते हैं, जिनको वे तुमसे कहते हैं कि यहां छोड़ो। यह बड़ी अजीब बात है।
यहां कहते हैंः स्त्री को मत देखो और स्वर्ग में कहते हैंः अप्सराएं हैं। यहां वे कहते हैंः स्त्री से बचो। मिलेगा क्या? फल क्या है? फल यही है कि तुम्हें अप्सराएं मिलेंगी। स्त्रियां तो कुछ भी नहीं हैं--अप्सराओं के मुकाबले। अप्सराओं की उम्र सोलह साल पर रुक जाती है, उससे आगे नहीं बढ़ती। स्त्रियां भी कोशिश तो करती हैं--सोलह साल पर रुकने की, परंतु कोशिश सफल नहीं होती।
मैंने सुना है, एक ट्रेन में तीन स्त्रियां एक बैंच पर बैठ कर बातें कर रही थीं। एक स्त्री जो करीब साठ साल की होगी, वह अपनी उम्र चालीस साल बता रही थी। उसकी हिम्मत देख कर दूसरी, जो करीब चालीस साल की होगी, उसने अपनी उम्र तीस साल बताई। तीसरी ने जिसकी उम्र तीस ही साल थी, उन दोनों की हिम्मत देख कर अपनी उम्र सोलह बताई। मुल्ला नसरुद्दीन ऊपर बैठा सुन रहा था। आखिर उसकी सीमा के, बरदाश्त के बाहर हो गया। वह एकदम छलांग लगा कर नीचे कूद पड़ा। उन स्त्रियों ने कहा, ‘अरे! तुम कहां से आ पड़े?’ उसने कहा, ‘मैं अभी पैदा हुआ हूं। तुम्हारी बातें सुन कर मेरी हिम्मत भी बढ़ गयी।’
कुछ स्त्रियां कोशिश तो करती हैं--सदा शोडशी बने रहने की, सफल नहीं हो पाती हैं। अप्सराएं सफल हो गई हैं, वे हमेशा सोलह साल की हैं; उनकी उम्र यहां-वहां नहीं होती। उनके पास स्वर्णकायाएं हैं, जिनसे पसीना नहीं बहता। जो-जो तुम स्त्री में यहां चाहते हो और मिलता नहीं--वह सब ऊपर स्वर्ग में आयोजित है।
इस्लाम ने तो व्यवस्था की है, शराब के चश्मों की। यहां शराब छोड़ने को इस्लाम कहती है। शराब यहां गुनाह है। फल क्या होगा? फल यह है कि स्वर्ग में चश्मे बह रहे हैं--शराब के। पीओ भी मत-नहाओ, तैरो!
जिन दिनों इस्लाम पैदा हुआ, जिन दिनों इस्लाम की मिथ निर्मित हो रही थी, उन दिनों अरब, ईरान--उन मुल्कों में होमोसेक्सुआलिटी (समलैंगिक यौन संबंध) बहुत जोरों से थी, अतिशय थी। जवान लड़कों को खरीदा और बेचा जाता था--संभोग के लिए। बड़ी हैरानी की बात है--इस्लाम की बहिश्त में उसका भी इंतजाम है। हूरें तो वहां होंगी ही, गिलमें भी होंगे--खूबसूरत लड़के, जवान लड़के भी होंगे।
किस तरह की धार्मिक दृष्टि है? शराब के चश्मे होंगे? यहां तुम संत हो--अगर शराब छोड़ोगे। पर मिलेगा क्या? एक बोतल छूटेगी और झरना मिलेगा! साधारण स्त्री छूटेगी--जिसके बदन से पसीना भी आता है, जो कभी बूढ़ी भी होती है, कभी बीमार भी पड़ती है, अंततः कुरूप हो जाती है, जिसका सौंदर्य क्षण भर का है और धोखा है। पास जाओ, तो नष्ट हो जाता है। उसे छोड़ कर बदले में अप्सराएं मिलेंगी!
तो स्वर्ग में सारी व्यवस्था हमने की है--मनुष्य के लोभ की सभी इच्छाएं पूरी करने की।
हिंदू और भी ज्यादा कुशल हैं। होना भी चाहिए, क्योंकि वह सब से पुरानी दुकान है। वह सनातन है। उन्होंने फुट कर बातें नहीं की हैं। उन्होंने स्वर्ग में कल्पवृक्ष का इंतजाम कर दिया है। उन्होंने सोचा कि एक-एक वासना का कहां हिसाब रखेंगे? अनंत लोभ हैं, अनंत वासनाएं हैं। तो स्वर्ग में कल्पवृक्ष हैं। उनके नीचे बैठो, तुम्हारे मन में यहां वासना उठी नहीं कि वहां पूरी हो जाती है, समय का व्यवधान नहीं है। एक क्षण भी नहीं खोता बीच में।
संसार की सबसे बड़ी पीड़ा समय है। इसलिए हिंदुओं ने उसको काट दिया--मोक्ष में। सबसे बड़ी पीड़ा समय है।
एक खूबसूरत स्त्री रास्ते पर दिखाई पड़ती है--वासना उठती है। काश! तुम इसी वक्त उसे पूरी कर लेते! लेकिन यह नहीं हो सकता। समय लगेगा। खोज करनी पड़ेगी, रास्ता बनाना पड़ेगा, व्यवधान हटाने पड़ेंगे। वह किसी की पत्नी होगी; किसी की बेटी होगी। लंबी यात्रा होगी।
एक महल तुम देखते हो, तुम उसमें रहना चाहते हो, लेकिन अभी रह नहीं सकते। द्वार पर द्वारपाल खड़ा है। बड़ी कशमकश करनी पड़ेगी--धन कमाना पड़ेगा, चोरी-बेईमानी लूट-खसोट करनी पड़ेगी, तब तुम आशा कर सकते हो, वह भी पक्का नहीं है। बहुत समय बीतेगा, तब तुम कहीं महल में पहुंच पाओगे। करीब-करीब ऐसा होता है कि जब तक तुम महल में पहुंचते हो, तब तक तुम इतने थक गए होते हो--महल में पहुंचने की यात्रा में ही--कि महल तुम्हारी कब्र ही बनता है। तुम कुछ भोग नहीं पाते। समय चूस लेता है। किसी दिन इस स्त्री को तुम पा भी लोगे तो तब, जब तक तुम हड्डी-हड्डी हो गए होगे, स्त्री भी हड्डी-हड्डी हो गयी होगी।
तो हिंदुओं ने समय को काट ही दिया है--स्वर्ग में, क्योंकि समय संसार की सबसे बड़ी पीड़ा है।
इसी वक्त चाहता है मन, लेकिन देर लगती है। देर में सब बासा हो जाता है। कल्पवृक्ष के नीचे समय नहीं लगता। कल्पवृक्ष के नीचे इधर उठी वासना, उधर पूरी हुई। तुमने चाहा--कि फलां। उसमें रत्ती भर का भी अंतराल नहीं है, इंटरवल नहीं है।
मैंने सुना है, एक बार एक आदमी भूल से कल्पवृक्ष के नीचे पहुंच गया। उसे कुछ पता नहीं था कि वह कहां है। बड़ी भूख लगी थी, थका-मांदा था, विश्राम करने के लिए रुक गया था--कल्पवृक्ष के नीचे। उसे लगा कि इस समय अगर कहीं से भोजन मिल जाता ऐसा मन में ख्याल उठा; एकदम हैरान हुआ--थाल चारों तरफ उतर गए। भूख इतनी ज्यादा थी कि सोचने की सुविधा भी न थी। जल्दी उसने भोजन किया। भोजन करके उसे लगा--लेकिन अब पानी कौन देगा? इतना ख्याल भर उठा कि चारों तरफ पानी की सुराहियां आ गईं।
अब पेट भी भर गया था, पानी भी पी लिया, तो विचार उठने शुरू हुए। वह थोड़ा डरा कि मामला क्या है? कोई भूत-प्रेत तो नहीं हैं? चारों तरफ भूत-प्रेत खड़े हो गए। उसने कहा, ‘अब गए, मारे गए!’ कि वह मारा गया। क्षण भर का व्यवधान नहीं है।
हिंदुओं ने विस्तार की बातें नहीं कीं। वह पुरानी अनुभवी दुकान है। उन्होंने कहाः एक एक वासना का कहां हिसाब रखोगे! अनंत वासनाएं हैं, किस-किस की तय करोगे? शराब का चश्मा भी बहा दोगे, उससे भी फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि किसी को व्हिस्की चाहिए, किसी को ब्रांडी चाहिए और किसी को कुछ और चाहिए! हजार तरह की शराबें हैं। किस-किस का तय करोगे?
हिंदुओं ने व्यवस्था वैज्ञानिक की। उन्होंने कल्पवृक्ष निर्मित किया है। उसके नीचे तुम बैठे कि सब इच्छाएं पूरी हो जाएंगी और इच्छा तुम कर नहीं पाते कि तत्क्षण पूरी हो जाएगी। समय का कोई अवरोध न होगा।
इस लोभ से न मालूम कितने लोग धार्मिक होते हैं।
पर बहुत लोग हैं, जिनको लोभ से प्रभावित नहीं किया जा सकता। जो बहुत चालाक हैं; वे कहेंगे कि ‘देखेंगे। भविष्य अभी कहां है। अभी तो हाथ की आधी रोटी ही ठीक है, उसे भविष्य की पूरी रोटी के लिए कौन छोड़े! अभी जो हाथ में शराब की बोतल है, इसको तो पी लें। झरना जब होगा, तब झरने का पी लेंगे। जब झरना होगा, तब देखेंगे। अभी बहुत दूर है, पता नहीं, हो भी या न हो।’
और फिर उमर खय्याम ने कहा है कि अगर वहां झरना है, तो यहां बोतल से दोस्ती रखना; नहीं तो आदत ही टूट गयी, तो झरने का क्या करोगे? थोड़ा स्वाद बनाए रखना; नहीं तो झरना भी होगा सामने, तो क्या करोगे? ऋषि-मुनि की तरह वहां बैठ जाओगे! होगा क्या? थोड़ा स्वाद बनाए रखना। स्त्री में रस कायम रखना, नहीं तो जब तक अप्सराएं आएंगी, तब तक तुम्हारा रस सूख चुका होगा। हरे रहना, तुममें पत्ते निकलते रहें, नहीं तो जब वर्षा के दिन आएंगे, तब तक अगर जड़ें ही सूख गईं, तो फिर हरे कैसे हो पाओगे? इसलिए जड़ों को फैलाए रखना। तो उमर खय्याम ने कहा है कि यहां हम उसी का अभ्यास कर रहे हैं--थोड़ी मात्रा में--जो परमात्मा वहां देगा। अभ्यास जारी रखना।
वह जो चालाक है, वह इस बात में नहीं पड़ेगा। और चालाक तो कहेगाः ‘अभी जो हाथ में है, उसे निपटा लें। कल का कल देखेंगे।’ उसको डराने के लिए भय चाहिए। उसको लुभाने के लिए लोभ काफी नहीं है।
चालाक डरता है--भय से। उसे तो खूब डर पैदा कर दिया जाए, जो कि नरकों के द्वारा पैदा किया गया है। आग जल रही है, कढ़ाइयां चढ़ी हैं, तेल उबल रहा है। तुम फेंके जा रहे हो, निकाले जा रहे हो। और मजा यह है कि तुम फेंके जाओगे, पर मरोगे नहीं। क्योंकि अगर मर गए तो शांति मिल जाएगी। इसलिए नरक में मौत नहीं होती--ध्यान रखना।
यहां मौत होती है, नरक में मौत नहीं होती। क्योंकि मौत बड़ी शांति है, नरक में जाकर तुमको पता चलेगा। वहां जिंदगी इतनी कठिन है कि मौत का सहारा तुम खोजना चाहोगे। लेकिन नरक में कोई आत्महत्या नहीं कर सकता। वह होती ही नहीं हैं। पहाड़ से गिरो, हड्डी-पसली टूट जाएगी, मरोगे नहीं। आग में जलाए जाओगे; जल जाओगे, झुलस जाओगे, सड़ जाओगे, पर मरोगे नहीं। छेद किए जाएंगे--शरीर में कीड़े-मकोड़े छेदों से निकलेंगे, गुजरेंगे, लेकिन मरोगे नहीं। बड़े वीभत्स चित्र नरक के खींचे गए हैं।
जो चालाक आदमी है, वह अगर स्वर्ग से लोभित न हो, तो उसके लिए डर है कि वह कंप जाए और थोड़ा सोचने लगे कि पैर सम्हाल के रखो, कहीं चूक गए तो!
हाथ में जो शराब की बोतल है, उसे छुड़ाने के दो उपाय हैं। एक, अगर चूके, ज्यादा पी गए और डगमगा गए, तो नीचे नरक है--वह भय तुम्हें रोकेगा। और आगे स्वर्ग है, अगर छोड़ दिया अपनी मौज से, तो वहां स्वर्ग में शराब के चश्मे बह रहे हैं।
स्वर्ग और नरक-लोभ और भय के बीच में आदमी को कसा गया है। इसलिए तुम मंदिर में सिर झुकाते हो--गौर से देखना--कभी लोभ के कारण, कभी भय के कारण! साधु को नमस्कार करते हो--कभी भय के कारण, कभी लोभ के कारण।
एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन एक वृक्ष पर चढ़ रहा था। बेर पक गए थे। बड़ा लंबा वृक्ष था। चढ़ने के पहले उसने कहा, ‘परमात्मा, जरा ध्यान रखना। अगर ठीक से बेरों तक पहुंच गया तो आज चार आने मस्जिद में चढ़ाऊंगा।’ वह आधे वृक्ष पर पहुंच गया, तो उसने कहा, ‘इतने से बेरों के लिए चार आने ज्यादा हैं, यह तो तुम भी मानोगे। चार आने इतने से बेरों के लिए! और मैंने श्रम किया; चार आने तुम्हें चढ़ेंगे? और कोई भिखमंगे मजा लेंगे--उन चार आनों का। दो आने ठीक रहेंगे।’ लेकिन जब वह करीब-करीब बेरों के पास पहुंच गया, तो उसने कहा, ‘साफ कह देना ही ठीक है। ये बेर एक आने से ज्यादा के नहीं हैं।’ जब वह बेर तोड़ ही रहा था, तो उसने सोचा कि मैं भी क्यों फिजूल की बातों में पड़ा हूं। जब कोई पूछ ही नहीं रहा है, कोई मांग ही नहीं रहा है, तो मैं अपने हाथ से ही क्यों फंसा जा रहा हूं! तत्क्षण डाल टूटी और वह नीचे गिरा। हड्डी-पसली टूट गई। नीचे उसने उतर कर कहा, ‘हद्द हो गई! जरा तो धैर्य रखते। तुम्हें कुछ चढ़ा ही देता। इतनी जल्दी भी क्या थी?’
तुम कभी भय से, कभी लोभ से झुक रहे हो, और जब तक तुम भय और लोभ से झुक रहे हो, तब तक तुम मंदिर के द्वार पर नहीं पहुंचे।
ईसाइयों ने यह कहानी उल्लेख नहीं की, क्योंकि इस कहानी को उल्लेख करने के बाद रोम का साम्राज्य खड़ा नहीं हो सकता; पोप का साम्राज्य गिर जाएगा। पुरोहित जीता ही भय और लोभ पर है। और ईसाइयों के पास सबसे ज्यादा बड़ा पुरोहितों का वर्ग है। तुम जान कर हैरान होओगे--दस लाख ईसाई पुरोहित हैं--कैथेलिक सिर्फ। फिर, प्रोटेस्टेंट अलग। और फिर अनेक छोटे-मोटे संप्रदाय हैं, वे अलग। दस लाख दीक्षित पुरोहित कैथेलिक्स हैं। और जो रोज बढ़ते जाते हैं। हजारों कालेज हैं पृथ्वी पर, जो सिर्फ पुरोहितों को तैयार करते हैं। लाखों चर्च हैं। जितना बड़ा साम्राज्य पोप का है, वस्तुतः किसी का भी नहीं है। और यह सारा साम्राज्य भय और लोभ पर खड़ा है।
अब इस कहानी को समझने की कोशिश करें।
इस कहानी का ईसा से संबंध है--ईसाइयत से नहीं। और यह ध्यान में रहे कि किसी धर्म का संबंध ‘धर्म’ से नहीं रह जाता। धर्म का जो मूल उदगम होता है, उसका तो संबंध होता है--कृष्ण का संबंध है, महावीर का संबंध है, बुद्ध का संबंध है, क्राइस्ट का संबंध है--जैन, हिंदू, बौद्ध, ईसाई--इनका कोई संबंध नहीं है। ए दुकानें हैं। ए तुम्हारे बाजार के ही हिस्से हैं। ए तुम्हीं ने अपनी तृप्ति के लिए पैदा किए हैं। ए उसी अर्थशास्त्र के नियम का अनुसरण करते हैं, जिसमें कहा गया है कि अगर बाजार में मांग हो तो कोई न कोई पूर्ति करने वाला पैदा हो जाएगा। इफ देयर इ.ज डिमांड, देअर विल बी सप्लाई। तुम भयभीत हो, तुम लोभ से भरे हो--कोई न कोई सप्लाई करने को तैयार हो जाता है। कोई तुम्हें स्वर्ग पकड़ा देता है, कोई तुम्हें नरक पकड़ा देता है। लेकिन जीसस, कृष्ण, बुद्ध, राम, महावीर, तुमसे नरक और स्वर्ग दोनों छीन लेना चाहते हैं। वे तुम्हें निर्भय, वे तुम्हें निर्लोभ करना चाहते हैं। क्योंकि जिस दिन न भय होगा, न लोभ, उसी दिन तुम्हारे जीवन में परम प्रकाश होगा।
‘मरियम के बेटे ईसा एक गांव से गुजर रहे थे। उन्होंने देखा कि कुछ लोग राह के किनारे दीवार पर बहुत संतापग्रस्त होकर मुंह लटकाए बैठे हैं। ईसा ने उनसे पूछा, ‘यह हालत कैसे हुई है तुम्हारी? इतने मुंह क्यों लटके हुए हैं? ऐसी उदासी क्या? ऐसा क्या दुख तुम्हारे ऊपर बरस गया है?’
जाकर देखो तुम मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजाघरों में--मुंह लटकाए लोग तुम्हें बैठे मिल जाएंगे। हंसता हुआ आदमी तो तुम पाओगे ही नहीं वहां। और कोई हंस देगा चर्च में, तो लोग कहेंगे कि कोई नासमझ आ गयाः ‘निकलो, बाहर हो जाओ; यह चर्च है। यहां हंसना गुनाह है।’ अगर मंदिर में तुम हंसोगे, तो लोग समझेंगे कि तुमने अपमान किया है। वहां रोना नियम है। वहां उदासी सबूत है कि तुम धार्मिक हो। तुम जितने मरे-मराए वहां बैठो, लोग मानेंगे कि हां, तुम उतने ही पहुंच गए हो।
मगर ईसा ने पूछा, ‘तुम मुंह लटकाए बैठे हो--संतापग्रस्त; यह हालत तुम्हारी हुई कैसे? किसने तुम्हें इस दुख में डाल दिया?’ उन्होंने कहा, ‘नरक के भय से हम ऐसे हो गए हैं।’ हम डरे हुए हैं। नरक करीब है।
ध्यान रहे, भारत में तो अनेक जन्मों की सुविधा है। यहां जन्म, और जन्म, और जन्म--लंबी यात्रा है। ईसाई, यहूदी और मुसलमान एक ही जन्म को मानते हैं। इसलिए भय भी बड़ा भयंकर हो जाता है। इसलिए हर मौत आखिरी मौत है। फिर उसके बाद कुछ करने का उपाय नहीं है। जो कुछ कर सको, अभी कर लो और वही फिर निर्णायक सिद्ध होगा। तो जितना मुसलमान डर सकता है, उतना हिंदू नहीं डरेगा; क्योंकि हिंदू कहेगा, जल्दी कुछ है नहीं। अगर अभी पाप करते हैं, अगले जन्म में फिर पुण्य कर लेंगे। हिसाब-किताब बराबर हो जाएगा। और फिर कभी भी गंगा जाकर स्नान कर सकते हैं। ऐसा कोई डर नहीं है। और फिर जन्मों-जन्मों का लंबा मामला है। कोई हिसाब एक दिन में तो चुकता हो नहीं रहा है।
और फिर हिंदुओं के पास कोई जजमेंट, कोई कयामत, कोई आखिरी निर्णय का दिन नहीं है। वे कहते हैं कि यह जीवन एक अंतहीन यात्रा है। इसमें कभी आखिरी दिन नहीं है, जिसमें तुम्हारा निर्णय किया जाएगा। लेकिन मुसलमान और ईसाई आखिरी दिन में मानते हैं। वे मानते हैं कि कब्र से उठाए जाओगे। और एक ही जीवन है। इसलिए जो तुमने किया, वह आखिरी हो गया। फिर उसको बदलने का उपाय नहीं है। फिर लौट कर तुम यह नहीं कह सकते कि ‘माफ करो। भूल हो गई। अब कभी ऐसा न करेंगे।’ जो किया, वह पत्थर की लकीर हो गई। उसे मिटाने का फिर कोई मार्ग नहीं है। इसलिए भय जैसा मुसलमान और ईसाई में पैदा हो सकता है, वैसा हिंदू में पैदा नहीं हो सकता है।
‘नरक के भय से हम ऐसे हो गए हैं,’ कहा उन्होंने। ईसा ने सुना और आगे बढ़ गए। आगे बढ़ने पर उन्होंने फिर कुछ लोगों को देखा, जो एक राह के किनारे तरह-तरह के आसनों और मुद्राओं में बैठे हैं। प्रकार-प्रकार की विधियां कर रहे हैं और बहुत-बहुत उदास थे। ईसा ने पूछा, ‘तुम्हारी तकलीफ क्या है?’ उन्होंने कहा, ‘स्वर्ग की आकांक्षा ने हमें ऐसे बना दिया है।’
जैन हैं, उनके मंदिरों, स्थानकों में जाकर देखो, तो पहली तरह के लोग मिलेंगे, जो भयभीत हैं। इसलिए जैन मुनि का चेहरा देख कर भय की प्रतिमा याद आ सकती है। कंपा हुआ है; हर चीज पाप है। हर चीज से भयभीत है। पानी पीए तो डर; सांस ले तो भय; रात प्यास लग जाए तो नरक; यह न खाए, वह न खाए; यह न पहने, ऐसा न उठे, वैसा न बैठे--एकदम भयभीत है। चारों तरफ नरक है और बीच में अपने को किसी तरह सम्हाल कर खड़ा है। पांव कंपते हैं; कभी नींद आती है, कभी झपकी लगती है, तो डर लगता है। कभी भी गिरा, तो नरक है।
पहली तरह के लोग तुम्हें जैन मंदिरों में मिल जाएंगे--भय से भयभीत। दूसरी तरह के लोग तुम्हें हिंदुओं के आश्रमों में मिलेंगे। कोई शीर्षासन कर रहा है, कोई उलटी-सीधी मुद्राएं बना रहा है, कोई नाक बंद किए है, कोई कान रुंधे है, किसी ने भोजन छोड़ दिया है, कोई खड़ा ही हुआ है।
एक आदमी को मैं मिला, वह दस साल से खड़ा ही हुआ है। उनका नाम ‘खड़े श्री बाबा’ हो गया है। वे बैठते ही नहीं। वे तब तक न बैठेंगे, जब तक स्वर्ग उन्हें उपलब्ध न हो जाए। उन्होंने कसम खा ली है। उनसे पूछो, ‘खड़े श्री बाबा! यह गति तुम्हारी किसने की? किसने तुम्हें कहा कि खड़े रहो? भगवान ने पैर झुकने के लिए, बैठने के लिए बनाए हैं, लेकिन यह निर्णय तुमने कैसे लिया?’ तो वे कहेंगे, ‘यह तकलीफ? स्वर्ग की आकांक्षा ने हमें ऐसा बना दिया है। स्वर्ग कोई मुफ्त में तो मिलेगा नहीं। दाम चुकाना पड़ेगा। अर्जित करना होगा स्वर्ग।’ वे अर्जित करने में परेशान हैं।
ईसा उसी गांव में और आगे बढ़े। और ध्यान रखना, वह तुम्हारा ही गांव है। किसी और गांव की बात नहीं है। हर गांव वही गांव है। पूरी पृथ्वी वही गांव है और वहां तीन तरह के लोग हैं। और फिर कुछ लोग उन्हें मिले। उन्हें देख कर लगा कि जीवन में उन्होंने बहुत कुछ झेला है, अनुभव किया है। जीवन में उनके एक प्रौढ़ता आई है--एक निखार। जैसे सोना आग से निकलता है और शुद्ध हो जाता है--ऐसी चमक है, सोने पर खबर है कि आग से गुजरा है। संताप उन्होंने भी झेले हैं, दुख उन्होंने भी पाए हैं। लेकिन दुख और संताप उन्हें मुरझा नहीं गए। दुख और संताप उन्हें अनुभवी बना गए हैं। उन्होंने बाल अपने धूप में नहीं पकाए, जीवन की प्रक्रिया से वे पके हैं। बहुत कुछ झेला है उन्होंने, लेकिन वे आनंदमग्न हैं। दुख आए हैं, तूफान उठे हैं, आंधियां आई हैं। वासनाएं उन्होंने झेली हैं; सुख-दुख के परिणाम उन्होंने भी भोगे हैं। रास्ते के कष्ट देखे हैं--पैर पर चिह्न हैं, कांटे उन्हें भी गड़े हैं। फूल की सुगंध उन्होंने भी ली है, लेकिन वे आनंदमग्न हैं। जीवन उन्हें परिपक्व कर गया है। जीवन उन्हें इंटिग्रेट कर गया है। वे भीतर जैसे एक हो गए हैं। जीवन ने उन्हें केंद्रित किया है। वे जीवन से हार नहीं गए हैं, जैसे जीत गए हैं। वे आनंदमग्न हैं।
पूछने पर उन्होंने बताया, ‘हमने हकीकत देख ली, हमने सत्य देख लिया। इससे और मंजिलें भूल गईं।’ जिसने हकीकत देख ली, उसे सभी कुछ भूल जाता है।
क्या हकीकत है? क्या सत्य है? सत्य है कि न तो भय करने को कुछ है, न तो लोभ करने को कुछ है। सत्य है कि जो भी मैं हो सकता हूं, मैं हूं।
तुम जैसे हो, परिपूर्ण हो। तुम जैसे हो, पूरे हो। रत्ती भर भी तुम्हारे सुधार की कोई जरूरत नहीं। और तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, जो छीना जा सके। या तुम्हारे पास जो कुछ भी है, उसे छीनने का भी मार्ग नहीं है। वह तुम्हारा है, तुम्हारा स्वभाव है। जैसे आग से कोई गर्मी नहीं छीन सकता है--वैसे तुमसे कोई तुम्हारा स्वभाव नहीं छीन सकता। जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है--कोई उससे नीचे की तरफ बहना नहीं छीन सकता--वैसे ही तुम जो भी हो, वह तुमसे छीना नहीं जा सकता है। और न तुममें कुछ जोड़ा जा सकता है। यह हकीकत है। यह हकीकत बड़ी कठिन है।
इसका मतलब हुआ कि तुम जैसे हो, बस, ऐसा होना ही तुम्हारी नियति है। यही तुम्हारी डेस्टिनी है। ‘हमने हकीकत देख ली’, उन्होंने कहा, ‘और सब मंजिलें भूल गईं।’ ‘अब न हम स्वर्ग जाना चाहते हैं, न हम नरक से बचना चाहते हैं। न तो अब हमें कहीं पहुंचना है और न हमें अब कुछ छोड़ना है। इस अनुभव से हम आनंदित हैं।’
तुम भी तब तक आनंदित न हो पाओगे, जब तक तुम्हें कुछ छोड़ना है। जब तक तुम्हें किसी जगह से बचना है, तब तक भय रहेगा और भय सिकोड़ेगा। जब तक तुम्हें कुछ पाना है, तब तक वासना रहेगी और लोभ तुम्हें दौड़ाएगा।
जिस दिन तुम्हें न कुछ पाना है, न कुछ खोना है--न कोई स्वर्ग है, न कोई नरक है; न तुम परमात्मा से कह रहे हो कि बचाओ, न तुम परमात्मा से मांग रहे हो कुछ--सब मंजिलें खो गईं, बस, उस दिन--उस दिन ही तुम्हारे जीवन में पहली दफा आनंद की वर्षा होगी।
जब कोई मंजिल न होगी, तो बस, शून्य जैसे हो जाओगे। तब तुम क्या हो? तुम तब एक कोरे आकाश की भांति हो। आकाश न तो कहीं जाता और न आता। हवाएं कहीं आती हैं, कहीं जाती हैं, वृक्ष उगते हैं, गिरते हैं, मनुष्य पैदा होता है, मरता है, वासनाएं पकती हैं, लगती हैं, झरती हैं--आकाश वहीं का वहीं है; न कहीं आता है, न कहीं जाता है। क्योंकि आकाश शून्य है।
ज्ञानियों ने आत्मा को ‘अंतर-आकाश’ कहा है--भीतर का आकाश। जैसे आकाश बाहर है, ऐसा ही आकाश भीतर है। वही आकाश तुम हो। जिसने उसे देख लिया, उसने हकीकत देख ली। और जिसने उसे देख लिया, वह नाच उठा। फिर उसकी बांसुरी के स्वर कभी बंद नहीं होते। फिर उसके पैरों की पायल बजती ही रहती है। फिर एक अहर्निश नाद है। फिर सनातन संगीत है। फिर ओंकार की धुन गूंजती ही रहती है। फिर क्षण भर भी इस सत्य से कोई विलगाव नहीं है।
तुम टूट गए हो इससे; क्योंकि तुम देख रहे हो--या तो उसे, जिससे तुम डरे हो--शत्रु। या कि तुम्हारी आंखें खोज रही हैं--उसे, जिससे तुम लोभित हो--मित्र। जो शत्रु को देख रहा है, वह स्वयं को न देख सकेगा। जो मित्र को देख रहा है, वह भी स्वयं को न देख सकेगा। और जिसे स्वयं को देखना हो, उसे शत्रु-मित्र सभी को भूल जाना जरूरी है, ताकि वह निश्चिंत भाव से अपने को देख सके।
जिसने ‘अपने को’ देखा, उसने हकीकत देखी।
जीसस तुम्हारे गांव से गुजरे हैं। तुममें से ही कुछ को उन्होंने बैठे देखा है--दीवार पर, जो संतापग्रस्त हैं, क्योंकि नरक से डरे हुए हैं। तुम्हारे गांव में उन्होंने कुछ लोगों को बैठे देखा है, दूसरे मकान के आंगन में, जो उलटे-सीधे उपाय कर रहे हैं।
कभी सोचा तुमने तो बहुत बातें हंसी-मजाक की लगेंगी कि कोई एक नाक से सांस लेकर सोच रहा है कि ब्रह्मज्ञान हो जाएगा। ब्रह्मज्ञान इतना सस्ता? तुम्हारी एक नाक से सांस लेने पर निर्भर है? तुम बच्चों से भी गई-बीती बातें कर रहे हो। बच्चे भी हंसेंगे कि एक नाक से सांस लेने पर कहीं ब्रह्मज्ञान होता है! तो दो नाक से लेने पर तो दोहरा होगा। कि तुम सिर के बल खड़े हो, इससे क्या समाधि लग जाएगी! काश, इतना आसान होता, तो सारी पृथ्वी कभी के सिर के बल खड़ी हो गई होती। और जब पैर के बल खड़े होने से समाधि न लगी, तो सिर के बल खड़े होने से समाधि कैसे लग जाएगी? नहीं लेकिन क्लिष्ट--कठिन को करने में ही रस आता है। क्योंकि कठिन, जो दूसरे नहीं कर रहे हैं, उसे करके तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है।
तुम कहते होः ‘देखो, मेरी तरफ, मैं सिर के बल खड़ा हूं। तुम नहीं खड़े हो सकते हो।’ घंटों लोग सिर के बल खड़े हैं; उससे कोई मोक्ष नहीं मिलता, केवल सिर के भीतर के सूक्ष्म तंतु टूट जाते हैं। इसलिए तुम लंबे शीर्षासन करने वालों में बुद्धिमान लोग न पा सकोगे। तुम्हारे लंबे शीर्षासन करने वालों में से एक को भी नोबल प्राइज मिलती नहीं; मिल सकती नहीं। उनमें से एक भी कोई बड़ा वैज्ञानिक नहीं होता; न कोई पिकासो पैदा होता है, न कोई आइंस्टीन पैदा होता है। कितने दिन से तुम शीर्षासन कर रहे हो? पर शीर्षासन करने वालों में तुम्हें मंद-बुद्धि वाले लोग मिलेंगे। यह स्वाभाविक भी है। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर खून बहुत ज्यादा जाएगा--मस्तिष्क में, तो जो उसके सूक्ष्म तंतु हैं, वे टूट जाएंगे; उतनी बड़ी ऊर्जा के बाढ़ को वे झेल नहीं सकते। और जितने सूक्ष्म तंतु होते हैं, उतनी प्रज्ञा विकसित होती है। जानवर इसलिए तो बुद्धि में पिछड़ गए हैं; क्योंकि उनके सिर में तुमसे ज्यादा खून जा रहा है--इसलिए सूक्ष्म तंतु विकसित नहीं हो पाते।
तुमने अगर कभी पागलखाने में जाकर देखा हो, तो जो इडिएट्स हैं, जो बिल्कुल मंदबुद्धि हैं, वे सदा सिर को झुकाए मिलेंगे। दोनों पैरों के बीच में सिर को झुका कर बैठे मिलेंगे। सिर को सीधा किए नहीं मिलेंगे। इडिएट के बैठने का ढंग वही है। वह एक खास आसन है उसका। उस आसन में तुम भी बैठो, तो शायद तुम्हें ऐसी भ्रांति पैदा हो कि मन शांत हो रहा है। मन शांत नहीं हो रहा है, केवल बुद्धि खो रही है, मंद हो रही है।
उलटे-सीधे साधन करने से परमात्मा नहीं मिलता है। सच पूछो तो परमात्मा को मिलने के लिए कोई भी उपाय करना जरूरी नहीं है। क्योंकि वह तो मिला ही हुआ है। तुम्हारे हृदय की धड़कन है वह। तुम्हारे सांस की सांस है। तुम्हारे भीतर से वही देखता है, वही सुनता है। तुम्हारे भीतर वही चलता है, वही सोता है। पर यह तो तुम्हें तभी दिखाई पड़ेगा, जब न भय हो और न लोभ।
कहा उन्होंने, ‘हमने हकीकत देख ली। इससे और मंजिलें भूल गईं।’ तुम भी हकीकत देख लोगे तो मंजिलें भूल जाएंगी--एक। या मंजिलों को भूल जाओगे, तो तुम हकीकत देख लोगे। ए दोनों एक ही चीज के दो पहलू हैं। कहां से शुरू करोगे? दोनों तरफ से शुरू हो सकती है--बात।
हकीकत देख लोः क्या है तुम्हारे पास खोने को? क्यों डरते हो? नरक में भी तुम्हें कौन सा कष्ट दिया जा सकता है, जो तुम नहीं पा रहे हो? क्या भय है नरक का? और एक बोतल से जब सुख न मिला, तो चश्मे से कैसे सुख मिल जाएगा? और क्षण भर जो सुंदर थी स्त्री, जब वह आनंद न दे सकी और उसने काफी दुख दिया, तो अप्सराओं से सावधान रहना। क्षणभर के लिए जो सुंदर थी, वह इतना कष्ट दे गई, तो गणित साफ है। कि जो सदा सोलह साल की रहेगी, वह फांसी बन जाएगी। इससे तो बचने का भी उपाय था, उससे तो बचने का भी उपाय न होगा। इससे तुम भाग भी सकते थे, उससे तुम भागोगे भी कहां?
जब इस जगत में सुख सुख सिद्ध न हुए, तो स्वर्ग के महासुख भी सुख सिद्ध न होंगे। अगर सुख में दुख पाया, तो महासुख में महादुख पाओगे।
ठीक से देखोगे तो हकीकत साफ है। सत्य पर परदा नहीं है, सिर्फ तुम्हारी आंखों पर परदा है। सत्य तो उघड़ा हुआ है, सिर्फ तुम आंखें बंद किए बैठे हो। खोलो आंखें और या फिर अगर तुम्हें यह हकीकत देखनी कठिन मालूम पड़ती हो, कष्टपूर्ण मालूम पड़ती हो, तो फिर तुम्हारे लिए दो ही रास्ते रह जाते हैं। या तो पहली दीवार पर बैठे लोग--उनमें तुम सम्मिलित हो जाओ। बहुत से लोग सम्मिलित हो गए हैं। या फिर दूसरे आंगन में बैठे हुए लोग--उसमें सम्मिलित हो जाओ; उसमें भी बहुत से लोग सम्मिलित हो गए हैं। वह आसान है। लेकिन आसान से ही कोई सत्य तक पहुंच जाता है, ऐसा मत समझ लेना।
नरक से डरना आसान है। स्वर्ग से लोभित होना आसान है। हकीकत को जानना कठिन है। पर जो हकीकत को जानता है, वही मुक्त होता है।

आज इतना ही।  

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