सोलहवां प्रवचन
ब्राह्मणत्व का निखार--प्रामाणिकता की आग में
दिनांक ५ अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूनाकथा:
एक किशोर, ऋषि हरिद्रुमत गौतम के आश्रम में पहुंचा था। वह सत्य को जानना चाहता था। ब्रह्म के लिए उसकी जिज्ञासा थी। उसने ऋषि के चरणों में सिर रख कर कहा थाः ‘आचार्य, मैं सत्य को खोजने आया हूं। मुझ पर अनुकंपा करें और ब्रह्म-विद्या दें। मैं अंधा हूं और आंखें चाहता हूं।’उस किशोर का नाम था--सत्यकाम।
ऋषि ने उससे पूछाः ‘वत्स, तेरा गोत्र क्या है? तेरे पिता कौन हैं? उनका नाम क्या है?’
उस किशोर को अपने पिता का कोई ज्ञान न था, न ही गोत्र का पता था। वह अपनी मां के पास गया और उससे पूछ कर लौटा। और उसकी मां ने उससे जो कहा, उसने जाकर ऋषि को कहा।
वह बोलाः ‘भगवन, मुझे अपने गोत्र का ज्ञान नहीं है। न ही मैं अपने पिता को जानता हूं। मेरी मां को भी मेरे पिता का ज्ञान नहीं है। उससे मैंने पूछा तो उसने कहा कि युवावस्था में वह अनेक भद्र पुरुषों के साथ रमती और उन्हें प्रसन्न करती रही। उसे पता नहीं है कि मैं किससे जन्मा हूं। मेरी मां का नाम जाबाली है। इसलिए मैं सत्यकाम जाबाल हूं। ऐसा ही आपसे बताने को भी उसने कहा है।’
हरिद्रुमत इस सरल सत्य से अभिभूत हो उठे। उन्होंने उस किशोर को हृदय से लगा लिया और बोलेः
‘मेरे प्रिय, तू निश्चय ही ब्राह्मण है। सत्य के लिए ऐसी आस्था ही ब्राह्मण का लक्षण है। तू ब्रह्म को जरूर ही पा सकेगा; क्योंकि जिसमें स्वयं के प्रति सच्चा होने का साहस है, सत्य स्वयं ही उसे खोजता हुआ उसके द्वार आ जाता है।’
ओशो, ‘मिट्टी के दीये’ में लिखित उपनिषद की इस कथा को हमें समझाने की कृपा करें।
सत्य जिसे जानना हो, उसकी पहली शर्त, उसकी पहली भूमिका क्या है? सत्य की यात्रा पर पहला कदम--अपने प्रति सत्य होना है।
तुम जिसे जानने निकले हो, उसे तुम ‘उस जैसा’ होकर ही जान सकोगे। और अगर तुम अपने प्रति ही असत्य हो--तुम अपने होने के प्रति ही झूठे हो--तुम्हारे भीतर ही अप्रामाणिकता है--तो सत्य से तुम्हारा संबंध कैसे तय होगा? कैसे निर्धारित होगा?
सत्य को खोजने बहुत लोग जाते हैं, लेकिन प्रामाणिक होने की चेष्टा बहुत कम लोग करते हैं। जो सत्य को खोजने जाते हैं, वे कभी न पा सकेंगे, लेकिन जो ‘सत्य होने’ की चेष्टा करते हैं, वे सदा पा लेते हैं।
सत्य को खोजने कहीं जाना नहीं है; स्वयं को असत्य होने से बचाना ही उसकी खोज है।
कोई सत्य कहीं छिपा नहीं है--पहाड़ों में, कंदराओं मेंः तुम असत्य हो, इसलिए तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है। असत्य की आंखें सत्य को देख भी कैसे सकती हैं! तुम सत्य होते ही उसे जान लोगे। रोएं-रोएं को वही स्पर्श कर रहा है। श्वास-श्वास में उसी की धुन है। सब ओर उसी ने तुम्हें घेरा है। लेकिन तुम असत्य की एक रेखा बनाकर उसके भीतर खड़े हो। तुमने असत्य से अपने को ढांक लिया है। सत्य तो अनढंका है; तुम ढंके हुए हो। सत्य को खोलने की भी कोई जरूरत नहीं है; तुम बंद हो। इस फासले को, फर्क को--ठीक से समझ लो।
सत्य के साथ कुछ भी नहीं करना है। जो कुछ भी करना है, वह तुम्हें अपने साथ ही करना है। और सबसे पहली जरूरत है कि तुम अपने संबंध में जो भी सत्य है, उसे स्वीकार करने में समर्थ हो जाओ।
तुम बेईमान हो और ईमानदारी की खोज करोगे! कैसे यह होगा? बेईमान आदमी कैसे ईमानदारी की खोज करेगा? उसकी खोज में भी बेईमानी होगी; वह खोज में भी धोखा देगा।
मैंने सुना हैः एक आदमी ने आठ महीने तक किराया नहीं चुकाया--किसी मकान का, जिसमें वह रह रहा था। आखिर मकान मालिक परेशान हो गया। और एक दिन सुबह आकर उसने कहा, ‘अब बहुत हो गया। अगर किराया नहीं चुका सकते हो, तो अब तुम मकान छोड़ दो।’ उस आदमी ने कहा, ‘क्या आठ महीने का किराया बिना दिए चला जाऊं! यह नहीं होगा। चाहे आठ साल चुकाने में क्यों न लग जाएं, लेकिन किराया चुकाकर ही जाऊंगा। तुमने मुझे समझा क्या है?’
ऊपर से तो दिखता है, यह आदमी बड़ी प्रामाणिकता की बात कर रहा है, लेकिन भीतर गहरे में यह आठ साल मुफ्त रहने का इंतजाम कर रहा है। यह आठ साल बाद कहेगा कि ‘अस्सी साल भले लग जाएं, लेकिन बिना किराया चुकाए क्या मैं जा सकता हूं! तुमने मुझे समझा क्या है?’
यह भी भलीभांति जानता है। लेकिन यह जो प्रामाणिक होने की चेष्टा कर रहा है, उस चेष्टा में भी इसकी अप्रामाणिकता तो छिपी ही रहेगी।
अप्रामाणिक आदमी कुछ भी करे, उसमें अप्रमाण होगा। वह सच भी तभी बोलेगा, जब सच का उपयोग झूठ की तरह हो सकता हो। वह सच भी तभी बोलेगा, जब सच से भी वह तुम्हें नुकसान पहुंचा सकता हो। और तुम्हें याद हैः तुम बहुत बार सच बोलते हो, लेकिन वह तुम तभी बोलते हो, जब सच से भी तुम दूसरों की हानि कर सको।
हिंसक आदमी सत्य का उपयोग भी हथियार की तरह करता है। यह स्वाभाविक है। क्योंकि अगर तुम्हारा व्यक्तित्व हिंसक है, तो तुम अहिंसा भी साधोगे, तो उसमें हिंसा प्रवेश कर जाएगी। साधेगा कौन? क्रोधी आदमी अगर अक्रोध साधेगा, तो उसकी अक्रोध की साधना में भी क्रोध का ही बल होगा।
पहली बात ठीक से समझ लेनी जरूरी है कि बेईमान को ईमानदार बनने की सीधी कोई सुविधा नहीं है। पहले तो बेईमान को अपनी बेईमानी स्वीकार करनी होगी। उस स्वीकार में ही आधी बेईमानी तिरोहित हो जाती है, उसका बल खो जाता है।
बेईमान सदा इनकार करता है कि ‘मैं और बेईमान! क्या समझा है तुमने मुझे?’ इस इनकार में ही बेईमानी की ताकत छिपी है। यह इनकार ही बेईमान का गढ़ है। और वह तुमसे इनकार नहीं करता, वह अपने से भी इनकार करता है कि ‘मैं और बेईमान? कभी-कभी जरूरत पड़ जाती है, बात और है। ऐसे मैं आदमी ईमानदार हूं।’ बेईमान का भी मन राजी नहीं होता--यह स्वीकार करने को कि ‘मैं बेईमान हूं।’ मानता तो वह भी अपने को ईमानदार है। ऐसे कभी-कभी परिस्थिति या संयोग के कारण बेईमान हो जाता है!
क्रोधी आदमी भी यही नहीं समझता है कि मैं क्रोधी हूं। वह भी समझता है कि कभी-कभी अवसर ऐसे आ जाते हैं कि क्रोध करना पड़ता है। क्रोधी मैं हूं नहीं। और जो आदमी समझता हैः ‘मैं क्रोधी नहीं हूं’, वह क्रोध को बदलेगा कैसे? बदलेगा कौन?
पहली बात जरूरी है कि तुम जो हो--बुरे-भले--बिना निर्णय के उसे स्वीकार कर लेना। निर्णय लिया कि अस्वीकार शुरू हो जाता है। तुम निर्णय भी मत करना। तुम सिर्फ खोज-बीन करना कि तथ्य क्या है? मैं बेईमान हूं? चोर हूं? झूठा हूं?
अगर तुमने इतना भी कहा कि ‘झूठा होना बुरा है’, तो तुम पूरा स्वीकार न कर पाओगे। क्योंकि बुरा कैसे स्वीकार करोगे? अगर तुमने निंदा की कि बेईमानी पाप है, तो तुम फिर बेईमानी को भी स्वीकार न कर पाओगे। क्योंकि पाप को कैसे कोई स्वीकार कर सकता है! तुम निर्णय मत लेना, निंदा मत करना। पहले सिर्फ तथ्यों की खोज करनाः ‘क्या है?’ और जो हो, उसे स्वीकार कर लेना। बदलने की जल्दी मत करना; क्योंकि बदलना बचने की तरकीब है।
बेईमान जिंदगी भर ईमानदार होने की कोशिश करता रहता है और बेईमान ही मरता है। हिंसक अहिंसक होने की जन्मों से कोशिश कर रहे हैं और अभी तक अहिंसक नहीं हो पाए हैं! वे कभी हो भी नहीं पाएंगे। क्योंकि वे पहला कदम ही चूक गए। और जो पहला कदम चूक गया, उसकी मंजिल कैसे आएगी? उसकी यात्रा ही शुरू नहीं हुई।
पहला कदम हैः प्रामाणिक स्वीकृति। प्रामाणिक स्वीकृति का पहला हिस्सा हैः तुम निंदा मत करना; तुम बुरे-भले का विचार मत करना। तुम पहले तो खोज लेना ‘क्या है।’ तुम अपनी तस्वीर को नग्न देख लेना। तुम जल्दी से यह मत कहना कि ‘यह बुरा है।’ क्योंकि जिसको भी तुम बुरा कह देते हो, उसको तुम अपने से ही छिपाने लगते हो; दूसरों से ही नहीं--अपने से भी छिपाने लगते हो। और जब तुम अपने से ही छिपाने लगते हो, तो अप्रामाणिक हो जाते हो। वहीं तुम्हारी आथेंटिसिटी खो जाती है। और जब तुम प्रामाणिक नहीं, तो सत्य से संबंध कैसे होगा? सत्य के द्वार तुम्हारे लिए बंद ही रहेंगे; क्योंकि तुम ही सत्य के लिए बंद हो।
दूसरी बात समझ लेनी जरूरी है कि जो तुम अपने तई स्वीकार करो, उसे तुम दूसरों के प्रति भी प्रकट कर देना। प्रकट करना एक बड़ी कला है। खुद स्वीकार करते, आधी ताकत समाप्त हो जाती है। अगर तुम बेईमान हो और तुमने खुद स्वीकार कर लिया कि ‘मैं बेईमान हूं’ तो तुम पाओगे--आधी ताकत बेईमानी की खो गई। अब उतना आसान न रहा--बेईमान होना। पर आधी ताकत अभी भी बची है, क्योंकि दूसरों को पता नहीं है। तुम दूसरों के सामने भी प्रकट कर देना कि तुम बेईमान हो।
तुम झूठा सम्मान मत मांगना। झूठे सम्मान का मूल्य भी क्या है? वह कचरा है। तुम कह देना वह--तुम जो हो। अपमान मिले, निंदा मिले; स्वीकार करना। वह तुम्हारा भाग्य है। वह बेईमानी की नियति है। अगर तुम चुपचाप स्वीकार कर लो--सबके सामने--‘तुम जैसे हो’ तो बची आधी ताकत भी खो जाएगी। यह स्वीकार बड़ा क्रांतिकारी है। अचानक तुम पाओगे कि तुम सबल हो गए। अब बेईमान होने की कोई जरूरत न रही। अचानक तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर एक नया बीज टूटा, एक नया अंकुर आया है--जो अब तक छिपा था भूमि में; इस स्वीकृति की वर्षा के नीचे अंकुरित हो उठा था। तुम पाओगेः ईमानदारी के पौधे की बढ़ती शुरू हो गई है। बेईमानी गई।
जिसे तुम छिपाते हो, वह बचता है। और तुम पाप को छिपाते हो, इसलिए पाप बचता है। जीसस ने इसी प्रक्रिया को कनफेशन कहा है--स्वीकार। तुम जैसे हो, वैसे ही तुम स्वीकार कर लेना। लेकिन हम तर्क खोजते हैं, हम तरकीबें खोजते हैं, हम बचने के मार्ग खोजते हैं, हम रेशनेलाइज करते हैं। हम कहते हैं कि आदमी तो मैं अच्छा हूं, लेकिन स्थिति ऐसी आ गई कि मुझे बुरा व्यवहार करना पड़ा। और अगर मैं बुरा व्यवहार न करता, तो दूसरों का बुरा होता।
तुम आदमी क्रोधी हो, अपने बच्चे को पीटते हो, लेकिन तुम समझाते हो अपने को कि ‘मैं पिता हूं और प्रेमी हूं। पीटता हूं बच्चे को--इसलिए--उसी के हित में। नहीं पीटूंगा, बिगड़ जाएगा।’ पूरा इतिहास कहता है कि पीट-पीट कर एक भी बाप बच्चे को बचा नहीं पाया। लेकिन तुम अंधे हो--इतिहास की तरफ। तुम वही दलील दिए जा रहे हो, जो सब बापों ने दिए! और सब बाप अपने बेटों को बिगाड़ गए।
क्रोध से कभी कोई बदला है? दुष्टता से कभी कोई क्रांति घटित हुई है? क्रोध तो बच्चे के अहंकार को भी जगाता है। और बच्चा भी भीतर निर्णय लेता है कि ‘ठीक है, पीट लो, मार लो। लेकिन तुम देखोगे कि तुम मुझे बदल नहीं पाओगे।’ और तुम जो चाहते हो, उससे विपरीत वह करता है। करना ही पड़ेगा। अगर वह उससे विपरीत न करे, तो वह खड़ा ही न हो सकेगा--अपने पैरों पर। वह बगावत न करे, तो उसकी अपनी अस्मिता कहां खड़ी होगी? उसका अपना अहंकार कहां बचेगा? लेकिन बाप समझाता है कि ‘मैं बच्चे के ही हित में कर रहा हूं।’ ये तरकीबें हैं--अपने भीतर झूठ, बेईमानी, क्रोध को बचाने की। इन तरकीबों को तोड़ना, तब तुम प्रामाणिक हो पाओगे। और प्रामाणिकता से बड़ा कोई गुण नहीं है।
ध्यान रहेः प्रामाणिकता का संबंध तुम्हारे ईमानदार होने से नहीं है। प्रामाणिकता का संबंध तुम्हारे अचोर होने से नहीं है; अहिंसक होने से नहीं है। प्रामाणिकता का संबंध इस बात के स्वीकार से है कि तुम जो भी हो--अच्छे-बुरे, चोर-अचोर, साधु-असाधु--तुम उसे स्वीकार करते हो, तुम उसे छिपाते नहीं। तुम वस्त्रों में अपने को ढांकते नहीं। तुम नग्न खड़े हो। तुम जैसे हो, वैसे ही तुमने अपने को खोल दिया है।
यह प्रामाणिक आदमी है। और ऐसे प्रामाणिक आदमी को सत्य को खोजने कहीं जाना नहीं पड़ेगा; सत्य उसे खोजता हुआ आ जाएगा। ऐसे प्रामाणिक आदमी के जीवन में ऐसी आग जलती है कि सब कचरा जल जाता है। प्रामाणिकता अग्नि है। सब बेईमानी, सब चोरी, सब झूठ जल जाता है। उठता है--एक सरल, सौम्य, विनम्र जीवन--वह--जिसे हम ‘धार्मिक आदमी’ कहते हैं।
अब इस कहानी को समझने की कोशिश करें। यह मधुरतम कथाओं में से एक है।
उपनिषदों का जब पहली बार पश्चिम में अनुवाद हुआ, तो पश्चिम के विचारकों को लगा कि उपनिषद नीति की शिक्षा नहीं देते! टेन कमांडमेंटस, दस आज्ञाओं जैसी कोई बात उपनिषद में नहीं है। चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, झूठ मत बोलो, पर स्त्री को आकांक्षा से मत देखो--ऐसी कोई आज्ञाएं उपनिषद में नहीं हैं। और पश्चिम तो सिर्फ बाइबिल से परिचित था। बाइबिल ही धर्म-शास्त्र है। उसी एक किताब को वे जानते थे। और अगर बाइबिल ही धर्म-शास्त्र का नमूना है, आदर्श है, तो उपनिषद को धर्म-शास्त्र नहीं कहा जा सकता। क्योंकि कहां हैं--आज्ञाएं! हालांकि उन आज्ञाओं को कोई मानता नहीं है। लेकिन उनके आधार पर लगता है कि बाइबिल धार्मिक है। तो फिर उपनिषद को क्या कहें? --जहां कुछ भी नहीं कहा है कि क्या करो। ब्रह्म की चर्चा है, लेकिन बेईमानी छोड़ने की चर्चा नहीं है। क्योंकि उपनिषद मानते हैंः ‘सवाल बेईमानी का नहीं है, प्रामाणिक होने का है।’
ईमानदार भी अप्रामाणिक हो सकता है। ईमानदारी भी सौदा हो सकती है। तुम इसलिए ईमानदार हो सकते हो कि स्वर्ग की आकांक्षा है; तब तुम गहरे में तो बेईमान हो। तुम स्वर्ग को खरीदने चले हो। तुम इसलिए सच्चे हो सकते हो--सत्य बोल सकते हो कि इससे परमात्मा मिलेगा। तो सत्य का उपयोग तुम सिक्कों की तरह कर रहे हो; परमात्मा को खरीदने का इरादा है। धार्मिक आदमी परमात्मा को खरीदने नहीं चला है; न ही वह परमात्मा के दरवाजे पर सिक्के फेंकेगा कि ‘ये रहे सिक्के। अब मुझे स्वर्ग का राज्य चाहिए।’ यह तो संसार का ही ढंग है।
तुम्हारी नीति भी सांसारिक सिक्के बन जा सकती है, बन गई है। इसलिए पश्चिम को भरोसा ही नहीं आता कि बुद्ध जैसा व्यक्ति या महावीर जैसा व्यक्ति कैसे धार्मिक हो सका! क्योंकि न तो कोई मोक्ष है--बुद्ध के लिए; न कोई परमात्मा है, न कोई परलोक है, न कोई स्वर्ग है--जो मिलना है। और फिर भी बुद्ध ईमानदार हैं, अहिंसक हैं, करुणा से भरे हैं। पश्चिम समझ ही न पाया। ये सिक्के तो आदमी इसीलिए इकट्ठे करता है, ताकि स्वर्ग खरीद सके! और स्वर्ग है ही नहीं, तो सिक्के किसलिए इकट्ठे कर रहे हो? पश्चिम समझ न पाया बुद्ध की आंतरिक कीमत को।
बुद्ध कहते हैंः ‘सत्य का आनंद अपने में ही है; सत्य का स्वर्ग सत्य में ही है; उसके पार कोई स्वर्ग नहीं है।’ सत्य कोई साधन नहीं है कि तुमने सत्य बोला कि तुम स्वर्ग में प्रवेश कर गए। यह कोई सिक्का नहीं है। ईमानदार जानता है--उस आनंद को, जो स्वर्ग का है। ईमानदारी कोई हिसाब-किताब नहीं है कि तुमने पहले ईमानदारी की, फिर पीछे तुम हाजिर हुए--स्वर्ग के दरवाजे पर और तुमने कहा कि ‘यह रही मेरी ईमानदारी।’
मैंने सुना है, एक आदमी मरा; वह एक बड़ा धनपति था--पर बड़ा कृपण। जैसा कि अक्सर हो जाता है। असल में कृपण हुए बिना धनपति होना बहुत मुश्किल है। इकट्ठा ही कैसे करोगे, अगर कंजूस न होओगे? जिंदगी में कभी उसने कोई दान नहीं किया। सिर्फ एक बार एक पैसा उसने एक बूढ़ी औरत को दिया था।
स्वर्ग के दरवाजे पर--ईसाइयों की स्वर्ग की धारणा के अनुसार--सेंट पीटर ने उसे रोका और कहा, ‘रुको। हम निर्णय करें। तुम्हारा हिसाब-किताब देखना पड़ेगा कि तुम्हें कहां भेजना है। तुमने कभी कोई पुण्य कार्य किया?’ उसने कहा, ‘हां, एक बार एक मैंने बूढ़ी औरत को एक पैसा दिया था।’ सेंट पीटर भी थोड़ा हैरान हुआ। इस आदमी के पास अरबों-खरबों रुपये थे और पुण्य कार्य इसने एक पैसा एक बूढ़ी औरत को देकर किया है! पूछा, ‘और भी कुछ किया है?’ उसने कहा, ‘और तो मुझे कुछ याद नहीं आता।’ तो सेंट पीटर ने अपने सहयोगी से पूछा, ‘क्या करें?’ तो उसने कहा, ‘यह अच्छा होगा, एक पैसा इसे लौटा दें और नरक भेजें। एक पैसा ही उसने पुण्य किया है, उससे यह स्वर्ग खरीदने चला है! तो एक पैसा इसे वापस दे दें। और ब्याज मांगता हो, तो ब्याज भी दे दें और नरक इसे पहुंचा दें।’
लेकिन धारणा ही ‘सिक्कों’ की है! फिर सवाल यह है कि एक पैसा तो छोटा लगता है--स्वर्ग खरीदने को; एक करोड़ रुपया काफी है? अगर इस आदमी ने कहा होता कि मैंने एक करोड़ दान किया है; अस्पताल बनवाया है, धर्मशाला बनवाई है, तब क्या यह स्वर्ग जाने के योग्य था? अगर एक पैसा छोटा है, तो करोड़ रुपया भी बड़ा तो नहीं हो सकता। वह भी एक ही पैसे का विस्तार है, एक ही पैसे कीशृंखला है। और अगर एक पैसे से स्वर्ग नहीं खरीदा जा सकता, तो करोड़ रुपये से कैसे खरीदा जा सकता है!
मूल्य की बात ही मूर्खतापूर्ण है। मूल्य से कुछ भी नहीं खरीदा जा सकता। मूल्य से जो भी खरीदा जा सकता है, वह इस जगत का है। उस जगत में सिक्के नहीं चलते। उस जगत में तुम प्रवेश करते हो, अपनी प्रामाणिकता से; अपने सिक्कों से नहीं। और प्रामाणिकता पोस्टपोन नहीं करती, स्थगित नहीं करती। कल स्वर्ग नहीं है, स्वर्ग अभी है।
उपनिषद बहुत इम्मॉरल पश्चिम में लगे--परा-नैतिक। उनमें कोई नीति नहीं मालूम पड़ती है। और यह कहानी तो बड़ी हैरान करने वाली है। उपनिषद के ऋषि ही ऐसी हिम्मत कर सकते थे; बड़े हिम्मत के लोग थे। इसको समझने की कोशिश करें।
एक किशोर ऋषि हरिद्रुमत गौतम के आश्रम में पहुंचा। वह किशोर सत्य को जानना चाहता था। ब्रह्म के लिए उसकी जिज्ञासा थी। उसने ऋषि के चरणों में सिर रख कर कहाः ‘आचार्य, मैं सत्य को खोजने आया हूं। मुझ पर अनुकंपा करें और ब्रह्मविद्या दें। मैं अंधा हूं और आंखें चाहता हूं।’
उन दिनों--और आज भी, और सदा ही रहेगा--नियम था कि केवल ब्राह्मण को ही ब्रह्मविद्या दी जा सकती है। भारतीय विश्लेषण कहता है कि जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं। फिर कृत्य से, जीवन के निखार से आदमी ऊपर उठने शुरू होते हैं। जो ऊपर नहीं उठते, वे शूद्र ही रह जाते हैं।
ब्राह्मण के घर में भी ब्राह्मण पैदा नहीं होता। पैदा तो सभी शूद्र होते हैं। शूद्रता लेकर हम सब पैदा होते हैं। फिर ब्राह्मणत्व तो पाना होता है। वह उपलब्धि है; वह अर्जित करना होता है।
तो जन्म से कोई विभाजन नहीं है। विभाजन तो जीवन से होता है। पर नियम था--और नियम ठीक है कि ब्राह्मण ही ब्रह्मविद्या का अधिकारी है। ब्राह्मण का अर्थ हैः जिसकी ब्रह्म की जिज्ञासा है। कुतूहल काम न करेगा। कुतूहल तो कोई भी कर लेता है।
लोग मेरे पास आते हैं। वे पूछते हैंः ‘ईश्वर क्या है? और उनके पूछने में कहीं कोई प्राण नहीं होते, कोई जिज्ञासा नहीं होती। वे ऐसा पूछते हैं, जैसे पूछना भी नहीं चाहते। मेरे पास आ गए हैं, कुछ पूछ लेना जरूरी है। प्रश्न कहीं गहरे में नहीं है; ऊपर--खोपड़ी पर तैर रहा है।
ऐसा हुआ। एक बड़ी अदभुत कथा मैं पढ़ रहा था। एक वैज्ञानिक खोज में लगा था--पत्थरों को हीरे में बदलने की। आखिर उसने सभी सूत्र खोज लिए, सिर्फ एक छोटी सी बात रह गई। अगर वह पता चल जाए, तो चट्टानों की चट्टानें हीरे हो जाएं। सब पता चल गया, कुछ काम बाकी रहा नहीं। बस, जरा सा एक सूत्र खो रहा था और उस सूत्र की वजह से जारी जानकारी बेकाम थी। वह सूत्र मिल जाए तो सब चीजें उपयोग हो जाएं। वह थक गया, परेशान हो गया। आखिर किसी ने उसे कहा, ‘तुम ऐसा करोः सुना है कि तिब्बत में एक स्त्री परम ज्ञानी है, वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गई है। तुम तिब्बत चले जाओ, तुम उससे पूछ लेना। वह छोटी सी बात उसके ध्यान में फलित हो जाएगी; वह कह देगी। उसने बड़े-बड़े कठिन प्रश्नों के जवाब दे दिए हैं।’
वह वैज्ञानिक बोरिया-बिस्तर बांध कर बड़ी कठिनाई से तिब्बत पहुंचा। उन दिनों तिब्बत पहुंचना बहुत मुश्किल था। पैदल यात्रा थी; खतरनाक जंगल थे, पहाड़-पर्वत थे। और तिब्बत विदेशियों को पसंद नहीं करता था। तो बड़ी कठिन यात्रा थी। बामुश्किल, कोई आठ वर्ष के श्रम के बाद वह तिब्बत पहुंच पाया। वह उस स्त्री के द्वार पर पहुंच गया। उसने जाकर द्वार पर दस्तक दी। जब वह भीतर गया तो चकित हो गया। ऐसी सुंदर स्त्री अपने जीवन में उसने कभी देखी नहीं थी। उसने अपनी जिज्ञासा की कि मैं आठ वर्ष से परेशान हूं। किसी तरह मरता-जीता पहुंच गया हूं। उस स्त्री ने कहाः ‘ध्यान रहेः मेरा एक नियम है। मैं एक ही प्रश्न का उत्तर देती हूं। तो तुम सोच कर प्रश्न कर लेना। क्योंकि दूसरे का उत्तर में नहीं देती। एक ही प्रश्न का उत्तर देती हूं; और मेरे पति आज बाहर गए हैं; मैं खाली हूं; कोई काम भी नहीं है। कितना ही बड़ा और कितना ही गहरा प्रश्न हो; बस, पर एक।’ और तुम हैरान होओगे, उस वैज्ञानिक ने क्या पूछा! उसने कहा, ‘तुम्हारे पति वापस कब आएंगे?’
वह सुंदर स्त्री को देख कर भूल गया--जीवन भर की जिज्ञासा, खोज, बहुत गहरी नहीं थी। और ब्रह्म को उपलब्ध स्त्री के सामने भी उसने पूछा क्या! ‘तुम्हारे पति वापस कब आएंगे?’ कामवासना गहरे में रही होगी। बाकी सब जिज्ञासा उथली-उथली थी।
ईश्वर को तुम पूछते हो, लेकिन उसमें प्राण नहीं है। ब्राह्मण हम उसको कहते हैं, जिसकी ईश्वर की जिज्ञासा इतनी गहरी हो कि वह जीवन खोने को राजी हो, लेकिन ब्रह्म पाने को तैयार। जीवन को दांव पर लगाने को जो तैयार है--सत्य की खोज में--उसको हम ब्राह्मण कहते हैं।
तो नियम ठीक था कि केवल ब्राह्मण ही खोज सकेगा। इसलिए ब्राह्मण को ही ब्रह्मविद्या दी जाएगी।
खोज के सूत्र उसी को दिए जा सकते हैं, जो जीवन को दांव पर लगाने को तैयार है। वह जुआ बड़ा है। यहां अपने को चुकाए बिना मिलने वाला कुछ भी नहीं है। सिक्कों से काम न चलेगा; जब तक तुम ही सिक्के न बन जाओ। यहां सौदा ऊपर-ऊपर होने वाला नहीं है; तुम्हारी जेब से होने वाला नहीं है; तुम्हारे प्राण से होने वाला है। यहां तुम्हें अपने को ही दांव पर रख देना होगा। इससे कम में नहीं होने वाला है।
ब्राह्मण वह है, जो ब्रह्म के लिए मिटने को तैयार है। उसको ही चाबियां दी जा सकती हैं।
उस किशोर का नाम सत्यकाम था। ऋषि ने उससे पूछाः ‘वत्स, तेरा गोत्र क्या है? तेरे पिता कौन हैं? उनका नाम क्या है?’ यह भी समझ लेना जैसा है।
पूछाः ‘तेरा गोत्र क्या है? तेरी जाति क्या है? तू ब्राह्मण है? शूद्र है? वैश्य है? --कौन है?’ क्योंकि वैश्य की खोज धन की है। शूद्र की खोज आराम की है। शूद्र का लक्षण आलस्य है। कुछ न किए बिना सब कुछ हो जाए, ऐसी शूद्र की आकांक्षा है। इसलिए क्षुद्रतम काम कर लेता है। पेट भर जाए, बस, काफी है। इसलिए कोई बड़ी विराट महत्वाकांक्षा नहीं है उसकी। मरा-मरा जीना उसका लक्षण है। वह कहीं पहुंचना नहीं चाहता, कुछ खोजना नहीं चाहता। इसलिए वह क्षुद्रतम काम से राजी है। और जीवन उसका कीड़े-मकोड़ों जैसा है।
वैश्य धन के लिए दौड़ना चाहता है। अगर धन का ढेर लगा हो और सामने ब्रह्म मौजूद हो, तो वह धन को चुनेगा। वह कहेगाः ‘ब्रह्म को फिर पीछे देखेंगे। और धन पास है, तो कभी भी खरीद लेंगे।’ उसकी पकड़ हमेशा साधन की है। साधन पास होना चाहिए, तो साध्य को भी भी ले लेंगे। लेकिन कुछ साध्य ऐसे हैं कि साधनों से मिलते ही नहीं। कुछ जीवन के मूल्य ऐसे हैं कि धन से खरीदे ही नहीं जा सकते।
जो भी बहुमूल्य है, वह धन से खरीदा ही नहीं जा सकता। इसलिए वैश्य बहुमूल्य से वंचित रह जाता है; आत्मा, परमात्मा, प्रेम, प्रार्थना--सबसे वंचित रह जाता है। क्योंकि जो धन से खरीदा जा सकता है, वह इनमें से कोई भी नहीं है। इसलिए वैश्य प्रेम नहीं कर पाता है। प्रेम असंभव है; क्योंकि धन से तुम प्रेम कैसे खरीदोगे? वह कोशिश करता है--धन से प्रेम खरीदने की। स्त्रियां खरीद लेता है; प्रेम नहीं खरीद पाता है। स्त्रियों की कतार लगा लेता है। लेकिन धन से खरीदी गई स्त्री--क्या तुम्हें प्रेम करेगी?
वह मंदिर खड़े कर लेता है। उसके पास धन है। पुजारी खरीद लेता है; लेकिन प्रार्थना नहीं खरीद पाता। प्रार्थना को तुम कैसे खरीदोगे? पुजारी मिल जाएंगे और जो मिलेंगे, वे दो कौड़ी के होंगे। क्योंकि तुम उसी पुजारी को कैसे खरीदोगे--जो प्रार्थना को उपलब्ध हो गया हो? असंभव है।
वह धन से सब खरीद लेगा, लेकिन जो भी खरीदने जैसा था, उसे चूक जाएगा। इसलिए वैश्य का जितना दुख है, उतना दुख किसी का नहीं है। आज अमेरिका में जो दुख है, वह वैश्य का दुख है।
अमेरिका वैश्य की सभ्यता है। वहां ‘दुकानदार’ प्रमुख हो गया है; सब चीजों पर छा गया है। वह हर चीज को धन से खरीदना चाहता है। धन है, तो वह सोचता है, सब है। यही उसकी पीड़ा है। धन तो हो गया है अब, और वह कुछ भी नहीं खरीद पा रहा है, जिसका कि कोई मूल्य हो। एक गहरा विषाद अमेरिका में है; वह वैश्य का विषाद है--सफल वैश्य का विषाद है।
फिर क्षत्रिय है। क्षत्रिय हमेशा हिंसा से पा लेने की आकांक्षा रखता है। वह आक्रामक है। वह तलवार लेकर स्वर्ग के राज्य में भी प्रवेश करना चाहता है। छीन-झपट पर उसका भरोसा है।
शूद्र श्रम पर भरोसा करेगा। विश्राम उसका लक्ष्य है। थोड़ा श्रम करके विश्राम उपलब्ध हो जाता है। वैश्य बेईमानी पर ताको करेगा, शोषण पर भरोसा करेगा। क्योंकि अगर वह बेईमानी न करे और शोषण न करे, दूसरे को चूसे न, तो धन इकट्ठा नहीं होता। क्षत्रिय हिंसा पर भरोसा करता है; तलवार पर भरोसा करता है; ताकत पर भरोसा करता है। इस दुनिया में भी वह तलवार से राज्य निर्मित करता है, उस दुनिया में भी वह तलवार लेकर जाना चाहता है! वह परमात्मा के दरवाजे पर भी तलवार लेकर ही खड़ा रहता है, कि ‘खोलो अन्यथा दरवाजा तोड़ देंगे।’ हिंसक है--उसकी वृत्ति।
ये तीनों ही ब्रह्म के अधिकारी नहीं हैं। ब्राह्मण ब्रह्म का अधिकारी है। न तो वह आलसी है। न श्रम करके थोड़ा-बहुत जीवन को गुजार देना उसकी आकांक्षा है। क्योंकि ऐसे जीवन को वह कहेगा--मृत, मरा हुआ।
इसलिए शूद्र को अछूत कहा जाता है। अछूत का मतलब यह नहीं है कि वह जो शूद्र है--जाति से, जन्म से--वह अछूत है, छूने योग्य नहीं है। शूद्र अछूत है, क्योंकि उसके जीवन में कोई भी खोज नहीं है। इसलिए वह छूने योग्य भी नहीं है। वह हुआ, न हुआ, बराबर है। उसका जीवन एक डबरे की भांति है--जो सड़ता है। नदी की भांति नहीं, जो सागर की तरफ जाती है। शूद्र सूखता है, सड़ता है, गंदा होता है। बस, उसका जीवन मरने का एक नाम है। वह एक लंबी बीमारी है, जो एक दिन समाप्त हो जाएगी। इसलिए शूद्र को कहा गया--अछूत।
और जब तक तुम्हारा जीवन डबरे की भांति है, समझना कि तुम शूद्र हो। जब तक तुम एक सरिता नहीं बन जाते--सागर की खोज में, तब तक तुम शूद्र हो।
वैश्य को शूद्र के जरा ही ऊपर रखा है कि कम से कम उसके जीवन में एक महत्वाकांक्षा है। गलत है महत्वाकांक्षा, लेकिन है। धन की है, धर्म की नहीं है। लेकिन कम से कम महत्वाकांक्षा है, तो महत्वाकांक्षा का रुख बदला जा सकता है। वैश्य कभी धार्मिक बन सकता है। शूद्र की धार्मिक बनने की संभावना न के बराबर है।
जिस दिन वैश्य धन से थक जाएगा, उस दिन धार्मिक होने लगेगा। इसलिए अमेरिका में आज धर्म की इतनी ऊहापोह है। हजारों पूरब से संन्यासी, ऋषि--अमेरिका के ऊपर छा गए हैं--टिड्डी-दल की भांति। क्योंकि वैश्य जिसको धन मिल गया है, धन के विषाद से भर गया है; उसकी महत्वाकांक्षा अब धर्म की तरफ जाने की है। लेकिन ढंग वैश्य का, वैश्य का ही होगा। वह वहां भी खरीद लेना चाहता है। ‘खरीदने’ की वृत्ति मिटनी चाहिए, तो वह भी ब्राह्मण हो जाए।
क्षत्रिय को हमने वैश्य के ऊपर रखा है। खरीदने की बात नहीं करता वह। खरीदने को अपने से नीचे समझता है। अपने को दांव पर लगाने की उसकी तैयारी है। क्योंकि जब तुम हिंसक हो और तलवार लेकर चलते हो, तो तुम मारने की ही तैयारी नहीं रखते, मरने की भी तैयारी रखते हो। वह अपने को दांव पर लगा सकता है; लगाता है; लेकिन उसकी ढंग सांसारिक है। दांव तो अपने को लगाना है। लेकिन तलवार हाथ में लेकर अपने को दांव पर लगाना--क्या लगाना है? अपने को दांव पर लगा देना है--बिल्कुल असुरक्षित; कोई सुरक्षा का उपाय नहीं करना है। तब वह ब्राह्मण हो जाएगा।
शूद्र से ब्राह्मण की यात्रा काफी लंबी है; वैश्य से थोड़ी कम है; क्षत्रिय के बहुत करीब है। इसलिए क्षत्रिय कभी भी ब्राह्मण हो सकता है। धन की उसकी पकड़ नहीं है। दांव पर लगाने को उसका साहस है। वह कभी भी ब्राह्मण हो सकता है।
ब्राह्मण कौन है? ब्राह्मण वह है, जिसको इस संसार की कोई आकांक्षा नहीं है, जो इस संसार में दीन-हीन जीता है, जो इस संसार में एक भिखारी है; लेकिन उसकी आंखें कहीं दूर के तारे पर टिकी हैं। वह ब्रह्मज्ञान चाहता है। वह चाहता है, उसको जान लेना, जिसको जान लेने के बाद फिर कुछ जानने को शेष न रहे। वह उस जगह पहुंच जाना चाहता है, जहां से फिर कोई यात्रा नहीं होती; जहां परम विश्राम है। बस, उस अंतिम मुकाम को पा लेना चाहता है।
तो पूछना जरूरी है--सत्य के खोजी से--कि ‘तेरा गोत्र क्या है? तेरी जाति क्या है?’ और यह भी पूछना जरूरी है कि ‘तेरे पिता कौन हैं?’ क्योंकि भारतीय गणित इस संबंध में बहुत गहरा है। क्योंकि तुम किसी मां-बाप के पास आकस्मिक पैदा नहीं होते। मां-बाप से तुम जन्म लेते हो, मां-बाप से तुम्हारा संबंध सांयोगिक, एक्सिडेंटल नहीं है। तुम जिस तरह के मां-बाप चुनते हो, वे तुम्हारी आत्मा के संबंध में खबर देते हैं। क्योंकि आत्मा चुनाव करती है। आत्मा उसी गर्भ में जाती है, जहां उसकी आकांक्षाओं को पूरा होने का उपाय हो।
इसलिए हमने यह भी धीरे-धीरे पाया कि ब्राह्मण की आत्मा ब्राह्मण के घर जन्म लेगी--सामान्यतया। शूद्र की आत्मा शूद्र गर्भ को खोज लेगी--सामान्यतया। अपवाद होंगे, क्योंकि कभी-कभी कोई शूद्र अपने जीवन के प्रयास से ब्राह्मण हो जाएगा। तब किसी की आत्मा भी उसके घर में गर्भ खोज सकती है। लेकिन सामान्य नियम साफ है। और सामान्य नियम यह है कि आत्मा अपने ही योग्य गर्भ को खोजती है, जहां उसकी जीवन आकांक्षा तृप्त हो सके।
तुम जिस घर में पैदा हुए हो, वह आकस्मिक नहीं है। वह अंधापन नहीं है। तुम ऐसे ही पैदा नहीं हो गए हो; वह तुमने चुना है। तो ‘तुम्हारे पिता कौन हैं’ इससे खबर मिलती है, तुम्हारे संबंध में सूचनाएं मिलती हैं।
तो गुरु ने यह पूछा, यह पूछताछ किसी दफ्तर में भरे जाने वाले फार्म की नहीं थी। दफ्तर में भी पूछते हैं कि ‘तुम्हारे पिता का क्या नाम है।’ उसका कोई मूल्य नहीं है। गुरु ने यह पूछा--कुछ सोच कर। हिसाब है कुछ कि तुम किस पिता के घर जन्मे हो? किसको तुमने पिता की तरह चुना है? अगर तुमने गलत पिता चुना है, तो तुम ठीक गुरु न चुन सकोगे। संभावना कम हो गई है। तुम्हारे साथ ज्यादा मेहनत उठानी पड़ेगी। और अगर तुमने ठीक पिता चुना है, तो ठीक गुरु आसानी से चुन सकोगे। क्योंकि गुरु एक नया जन्म देगा; वह नया पिता है। तो पूछा कि ‘तेरे पिता कौन हैं? उसका नाम क्या है?’
उस किशोर को अपने पिता का कोई ज्ञान नहीं था। न ही गोत्र का कोई पता था। वह अपनी मां के पास गया और उससे पूछ कर लौटा। और उसकी मां ने जो उससे कहा, उसने जाकर ऋषि को कहा।
वह बोलाः ‘भगवन, मुझे अपने गोत्र का ज्ञान नहीं है। न ही मैं अपने पिता को ही जानता हूं। मेरी मां को भी मेरे पिता का ज्ञान नहीं है। उससे मैंने पूछा, तो उसने कहा कि युवावस्था में वह अनेक भद्र पुरुषों में रमती और उन्हें प्रसन्न करती रही। उसे पता नहीं है कि मैं किससे जन्मा हूं। मेरी मां का नाम जाबाली है। इसलिए मैं सत्यकाम जाबाल हूं। ऐसा ही आपने भी बताने को उसने कहा है।’
मैं जिस नगर में बीस वर्षों तक रहा--जबलपुर, वह जाबाली के नाम पर है। वह सत्यकाम जाबाल की स्मृति में बना हुआ नगर है। पहले उसका नाम जाबालीपुर था। फिर बिगड़ कर वह जबलपुर हुआ।
यह सत्यकाम जाबाल ऐतिहासिक व्यक्ति है, सिर्फ कहानी नहीं है। पर बड़ा हिम्मत का युवक है। और युवक से भी ज्यादा हिम्मत की उसकी मां है। उसकी मां ने यह कहा कि ‘जब मैं युवा थी, तब मैं बहुत भद्र पुरुषों में रमती रही, उन्हें प्रसन्न करती रही। मैं एक वेश्या हूं।
वेश्या भी अपने को छिपाना चाहती है। वेश्या तो अपने को छिपाना ही चाहेगी। वह कुछ भी कहानी गढ़ ले सकती थी; कोई भी नाम बता सकती थी। कोई ऋषि खोज-बीन करने नहीं जा रहा था। कोई पुलिस इंक्वायरी नहीं बिठाई जाने वाली थी। कोई भी नाम ले सकती थी कि ‘यह’ तेरे पिता का नाम है। यह कह सकती थी, पिता तेरे मर गए हैं, ‘यह’ उनका नाम है, ‘यह’ उनकी जाति है।
लेकिन उसकी मां ने कहा कि ‘जब मैं युवा थी, तो मैं बहुत से भद्र पुरुषों में रमती और उन्हें प्रसन्न करती रही हूं। मैं एक वेश्या हूं। मुझे पता नहीं कि तू किससे जन्मा। कौन तेरा पिता है। कोई हिसाब नहीं। मेरे पास कोई रूप-रेखा नहीं कि जिससे अंदाज लगाऊं कि कौन तेरा पिता है। न मालूम कितने लोगों से मैंने संभोग किया। तू किसके संभोग से आया है, अनजान रह गई है यह बात। तो तू जा और अपने गुरु कहना कि पिता का तो नाम मुझे याद नहीं है। मेरी मां का नाम जाबाली है।’ तो मेरे नाम के पीछे पिता का नाम या गोत्र तो जोड़ने का कोई उपाय नहीं है। आप मुझे सत्यकाम जाबाल कह सकते हैं; जाबाली का बेटा--सत्यकाम। मेरी मां से ही बस, मेरी जानकारी है। और मेरी मां युवा थी तो वेश्या थी। ऐसा मेरी मां ने मुझसे कहा है। और उसने यह भी कहा है कि यही सब जाकर मैं आपको बता दूं।
स्त्री के लिए कठिन से कठिन बात वेश्या होना है। --कठिन से कठिन बात। स्त्री के व्यक्तित्व में उससे बड़े अपराध की और कोई संभावना नहीं है। इसे समझ लें।
पुरुष का वेश्या जैसा होना कठिन नहीं है। पुरुष का चित्त वस्तुतः वेश्या का चित्त है। पुरुष बदलना चाहता है; स्त्रियों को बदलना उसका सहज भाव है। क्योंकि पुरुष के लिए प्रेम एक खिलवाड़ है--‘फन’; उससे ज्यादा नहीं है। क्योंकि सारी प्रकृति में पिता जैसी कोई घटना नहीं है। पिता आदमी की ईजाद है। पशुओं में, पक्षियों में, पौधों में पिता कोई भी नहीं है। पिता का कोई पता नहीं है; मां का भर पता है। पूरी प्रकृति मां को जानती है। आदमी ने पिता की ईजाद की है। वह ईजाद की हुई बात है--‘इंवेंटेड’ है। इसलिए पुरुष की प्रकृति में नहीं है वह बात।
पुरुष स्वभाव से स्त्रियां बदलना चाहता है। एक स्त्री से ऊब जाता है--दूसरी चाहता है, तीसरी चाहता है। उसके लिए प्रेम एक क्षणिक खेल है। स्त्री के लिए प्रेम उसका पूरा जीवन है; वह क्षणिक खेल नहीं है। स्त्री का प्रेम--उसका पूरा अस्तित्व है। वह एक के साथ रमना चाहती है। वह सदा-सदा एक को प्रेम करना चाहती है। वह बदलना नहीं चाहती। बदलाहट में उसका रस नहीं है। वह ऊबती ही नहीं एक से। उसका प्रेम इतना गहरा है कि उसे एक से ऊब पैदा नहीं होती। वह जन्मों-जन्मों प्रार्थना करती है कि जो मुझे इस जन्म में प्रेमी मिला, वही अगले जन्म में मिले।
पुरुष चाहता है कि इस जन्म में भी अनेक स्त्रियां मिल जाएं तो बड़ी कृपा हो। कोई पुरुष प्रार्थना नहीं करता कि ‘जो पत्नी इस जन्म में मिली, अगले जन्म में भी यही मिले।’ अगर प्रार्थना भी करेगा तो इतनी करेगा कि ‘कोई भी मिल जाए, यह भर न मिले।’
मुल्ला नसरुद्दीन से उसका एक मित्र कह रहा था कि ‘मेरी पत्नी तो देवी है--देवी।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने कहाः ‘तुम भाग्यशाली हो। मेरी तो अभी तक जीवित है!’
मुल्ला नसरुद्दीन मानता है कि जिंदा पत्नी तो देवी हो ही नहीं सकती है। कोई सवाल ही नहीं है। मर जाए, तभी देवी होती है, उसके पहले तो हो ही नहीं सकती है।
पुरुष की सहज वृत्ति भागती हुई है--चंचल है; थिर नहीं है। प्रेम उसके लिए ध्यान नहीं बन पाता। अनेक कामों में एक काम है--प्रेम भी; सौ काम हैं उसके लिए। और प्रेम काफी नहीं है। उन सौ कामों में एक प्रेम भी है। और अगर चुनाव ही करना हो--अगर वैज्ञानिक के सामने चुनाव हो कि मैं अपने विज्ञान की प्रयोगशाला चुनूं या प्रेम, तो वह प्रयोगशाला चुनेगा। प्रेम गौण है। प्रेम के बिना जीया जा सकता है। इसलिए हजारों पुरुष, किसी दूसरे काम में लगे रहने की वजह से, अविवाहित रह जाते हैं।
लेकिन स्त्री के लिए प्रेम कोई काम नहीं है--दूसरे कामों में एक काम नहीं है। प्रेम अलग ही विभाजन है। उसका काम से कोई लेना-देना नहीं है। वह उसका हृदय है, वह उसका जीवन है। और गौण तो कतई नहीं है। वह सब छोड़ सकती है, प्रेम को नहीं छोड़ सकती।
पुरुष प्रेम को किसी भी चीज के लिए छोड़ सकता है--दुकान कि लिए, राजनीति के लिए, पद के लिए, धन के लिए, किसी भी चीज के लिए प्रेम को छोड़ सकता है, हटा सकता है कि ‘कल देखेंगे। इतनी जल्दी कुछ है नहीं।’
शायद प्रेम एक विश्राम है--पुरुष के लिए। जब वह थका होता है, तब उसे प्रेम की याद आती है। तब वह चाहता है--‘एक स्त्री का उसके निकट, ताकि वह विश्राम कर सके।’ लेकिन उसकी असली जिंदगी काम में है।
स्त्री के लिए प्रेम विश्राम नहीं है। प्रेम के बाहर कोई भी घटना महत्वपूर्ण नहीं है। उसका सब कुछ प्रेम के आस-पास घिरा हुआ है। इसलिए स्त्री को वेश्या होना बड़ा सुखद है, बड़ी आत्मग्लानि का है। उससे बड़ा कोई भीतरी पाप उसे अनुभव में नहीं आता।
लेकिन उस भीतरी पाप को भी इस स्त्री ने छिपाया नहीं। अपने बेटे को कहा कि, तू जाकर कह देना कि जब मैं युवा थी, तो मैं एक वेश्या थी। बहुत पुरुषों में रमती रही, उनको प्रसन्न करती रही। तू पैदा हुआ; तेरे पिता का कोई पता नहीं है। तू किससे जन्मा, मुझे कुछ पता नहीं है। तो क्या तेरा गोत्र! क्या तेरी जाति! कौन तेरा पिता! मेरा नाम जाबाली है, तेरा नाम सत्यकाम है। तो तू जा और गुरु को सारी बात बता दे। और कहना कि मुझे आप सत्यकाम जाबाल कह सकते हैं। यही मेरा पता-ठिकाना है; यही मेरा परिचय है।’
इस बेटे ने जाकर ठीक जैसा मां ने कहा था, वैसा ही दुहरा दिया। यह और भी कठिन है।
पहले तो स्त्री का यह स्वीकार करना कि वह वेश्या है--वेश्या भी--अति कठिन है। फिर बेटे का यह स्वीकार करना कि मेरी मां वेश्या है, उससे भी ज्यादा कठिन है। क्योंकि मां पवित्रतम है--बेटे के लिए। और जहां मां का स्रोत गंदा हो जाए, वहां बेटे की ग्लानि का कोई अंत नहीं है, कोई सीमा नहीं है।
बेटा सब स्वीकार कर ले सकता है--‘मरी हुई मां’ स्वीकार कर सकता है, लेकिन ‘वेश्या-मां’ स्वीकार नहीं कर सकता है। यह सोचना ही उसे असंभव है कि मेरी मां और अपवित्र हो सकती है; कि मेरी मां और बहुत पुरुषों को रमा सकती है और बहुत पुरुषों के साथ लीन हो सकती है; कि मेरी मां एक गंदा स्रोत है, जहां बहुत लोग स्नान करते हैं! मेरी मां सार्वजनिक है; उसकी कोई निजता नहीं है-यह बात ही सोचना बेटे के लिए बहुत कठिन है।
मां स्वीकार करे वेश्या होना, यह बड़ा कठिन था; उससे भी महा कठिन यह था कि बेटा स्वीकार करे। और सबसे कठिन बात यह थी कि वह जाकर यह बात प्रकट करे। खुद भी स्वीकार कर ले, उससे भी कठिन है कि जाकर प्रकट करे। लेकिन सत्यकाम ने जाकर सारी बात अपने गुरु कह दी!
गुरु निश्चित ही ज्ञानी रहा होगा। अगर सिर्फ गुरु होता, तो उसने सत्यकाम को निकाल बाहर किया होता कि ‘तू वेश्या--पुत्र, बाहर हो। तूने आश्रम गंदा कर दिया।’ सफाई करवाई होती। लेकिन हरिद्रुमत गौतम निश्चित ज्ञानी पुरुष रहा होगा--बुद्ध पुरुष रहा होगा।
हरिद्रुमत इस सरल सत्य से अभिभूत हो उठे। उन्होंने उस किशोर को हृदय से लगा लिया और कहाः ‘मेरे प्रिय, तू निश्चित ही ब्राह्मण है।’
बड़ी मीठी कथा है। कहा कि ‘तू निश्चित ही ब्राह्मण है। तुझे पता न हो कि तेरे पिता कौन हैं, मैं कहता हूं कि तेरे पिता ब्राह्मण रहे होंगे। तू ब्राह्मण है; क्योंकि सत्य की स्वीकृति ब्राह्मण का लक्षण है। और तू सत्य को इतनी सरलता से स्वीकार कर रहा है कि मैं मान नहीं सकता कि जिस स्रोत से तू आया आया है, वह ब्राह्मण न रहा होगा। यह असंभव है। तेरी मां न जानती हो, तू न जानता हो, मैं जानता हूं कि तेरे पिता ब्राह्मण हैं। तू ब्राह्मण है।
‘सत्य के लिए ऐसी आस्था ही ब्राह्मण का लक्षण है। तू ब्रह्म को जरूर ही पा सकेगा। क्योंकि जिसमें स्वयं के प्रति सच्चा होने का साहस है, सत्य स्वयं ही उसे खोजता हुआ, उसके द्वार आ जाता है।’
सिर्फ ज्ञानी पुरुष--पंडित नहीं। पंडित तो सदा ही नीति-नियम से बंधा होता है। पंडित और ज्ञानी में यही फर्क है। पंडित लकीर का फकीर होता है। उसकी एक बंधी रेखा है। उस बंधी रेखा से जो भिन्न होता है, वह अंगीकार नहीं हो सकता।
लेकिन ज्ञानी की कोई बंधी रेखा नहीं है। उसके पास तो प्रकाश से भरी आंखें हैं। वह देख सकता है। वह किसी नियम को नहीं मानता। वह अपवाद को भी पहचान सकता है। और जब तुम अपवाद को पहचान सको, तो तुम्हारे पास ज्ञान है। और जब तुम नियम को ही पहचान सको, तो तुम अज्ञानी हो।
गौतम देख सका, इस व्यक्ति को; किसी नियम से इसने तौला नहीं। किसी बंधे हुए शास्त्र से परख न की। सीधा इस युवक को देख सका--इस सरल किशोर को। जो खुद कह रहा हैः‘मैं वेश्या का पुत्र हूं।’ ऋषि कह सका कि ‘तू ब्राह्मण है।’
वेश्या के पुत्र होने से कोई ब्राह्मणत्व में बाधा नहीं पड़ती। और तुम वेश्या के पुत्र नहीं हो, इससे मत सोच लेना कि तुम ब्राह्मण हो! तुम्हारे बाप ब्राह्मण, तुम्हारी मां ब्राह्मण। दोनों नियम से विवाह में बंधे। कभी नियम से यहां-वहां नहीं हटे। तो भी पक्का नहीं है कि तुम ब्राह्मण हो। क्योंकि हो सकता है कि सिर्फ नियम को मान कर ही यह संबंध चलता हो और इसमें कोई प्रेम न हो। यह सारा तुम्हारे माता-पिता का संबंध सामाजिक हो, औपचारिक हो, इसमें कोई अंतस की बात न हो, इसमें अंतस जुड़े ही न हों; एक व्यवस्था चल रही हो। घर तुम्हारा एक संस्था हो, जो नियम से विपरीत नहीं जाता। लेकिन इससे ही तुम ब्राह्मण न हो जाओगे।
वेश्या का पुत्र भी ब्राह्मण हो सकता है। क्योंकि ब्राह्मणत्व एक भीतरी घटना है; वह एक प्रामाणिकता का सबूत है। सिर्फ ब्राह्मण ही इतनी हिम्मत कर सकता है--सत्य होने की, सीधा कह देने की। अगर यह युवक ब्रह्म की खोज में न होता, तो छिपता।
तुम छिपाओगे, तो ब्रह्म की खोज न हो सकेगी।
मेरे पास लोग आते हैं। मैं देखता हूं--सामने, साफ--कि वे छिपा रहे हैं। मेरे सामने बहाने, तरकीबें! उनको इतना भी ख्याल नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं!
मैं उनसे पूछता हूं, और कुछ बुराई छिपाते हैं, ऐसा भी नहीं है। बुराई तो छिपाते ही हैं। उन्हें पता ही नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं!
मैं उनसे पूछता हूं कि ‘ध्यान कैसा चल रहा है?’ तो वे कहते हैंः ‘बिल्कुल ठीक।’ और मैं देख रहा हूं कि ‘बिल्कुल ठीक’ नहीं चल रहा है। मगर इतनी सी भी बात छिपाते हैं; क्योंकि उन्हें लगता है, शायद प्रतिष्ठा दांव पर है! अगर ठीक नहीं चल रहा है, तो प्रतिष्ठा गई। शायद मेरी आंखों में उनकी इज्जत कम हो जाए!
जो भी कहते हैं, उसे गोलमोल कहते हैं। उसे स्पष्ट नहीं करते, उसे खोलते नहीं। और तुम मेरे सामने खुल न सकोगे, तो फिर तुम कहां खुलोगे?
और तुम्हारी हालत ऐसी है कि तुम चिकित्सक के पास गए हो और बीमारी छिपा रहे हो। तो निदान कैसे हो? इलाज कैसे हो? फिर तुम परेशान होते हो कि इलाज नहीं हो रहा है; तुम परेशान होते हो कि कोई क्रांति नहीं हो रही है। और तुम्हीं कारण हो।
चूक जाता यह युवक--सत्यकाम, अगर इसने छिपाया होता। तो भला यह कहता कि मैं बड़े प्रसिद्ध ब्राह्मण का बेटा हूं; बड़े परिवार से आता हूं; कुलीन घर का हूं; परंपरा से सैकड़ों मेरे परिवार में ज्ञानी हुए--यह कितना ही सब कुछ कहता, चूक जाता। क्योंकि बुद्ध पुरुष के सामने छिपाने का उपाय नहीं है। तुम भला छिपाओ, तुम उसके सामने नग्न ही हो। वह तुम्हें देख रहा है कि तुम्हारा छिपाना सिर्फ नासमझी है। उस छिपाने में तुम खो रहे हो, वंचित हो रहे हो।
इस युवक ने सरलता से खोल दिया। गौतम ने देखा--गुरु ने देखा कि जैसा वह देख रहा है--इस युवक को--वैसा ही इसने खोल दिया; रत्ती भर फर्क नहीं है। यह ब्राह्मण की कसौटी है। सदगुरु के सामने--जैसा दिखाई पड़ता था--वैसा ही उसने प्रकट भी किया; उसने उसमें रत्ती भर हेर-फेर नहीं किया।
कठिन न था--हरिद्रुमत को--जान लेना कि यह वेश्या का पुत्र है। बहुत सरल सी बात है। इसके छिपाने से छिपती न।
कुछ छिपाने से नहीं छिपता। छिपाने से चीजें उघड़ती हैं। जिस चीज को तुम छिपाते हो, उससे पता चलता है कि वह है। इसलिए तुम छिपाते हो। तुम जो-जो ढांकते हो, उसके प्रति तुम लोगों को आकर्षित करते हो। क्योंकि लगता हैः वहां तुम कुछ छिपा रहे हो।
और गुरु के सामने तुम छिपा कर चल भी नहीं सकते, उठ भी नहीं सकते। क्योंकि तुम्हारे उठने में फर्क होगा, तुम्हारे चलने में फर्क होगा। तुम चोर की तरह आओगे, तुम चोर की तरह जाओगे। तुम कुछ छिपाओगे। तुम्हारा पूरा आचरण, व्यवहार, उठना-बैठना--सब जाहिर करेगा कि तुम छिपा रहे हो।
शरीर की भाषा है, उससे पता चलता है। तुमने कभी ख्याल किया है कि अगर तुम चोरी करके चलते हो, तो तुम और ढंग से चलते हो। तुम वैसे तो चल ही नहीं सकते, जैसे तुम अचोर होने पर चलते। जब तुम झूठ बोलते हो, तब तुम्हारी आंखें वैसी ही नहीं हो सकतीं, जैसी तुमने जब सच बोला था। जब तुम सच बोलते हो, तब तुम्हारी आंखें पारदर्शी होती हैं। उनमें कोई धुआं नहीं होता। वे कोरी होती हैं, जैसा पशु की, पक्षी की, गाय की, छोटे बच्चे की। क्योंकि उस क्षण में तुम बच्चे की तरह निर्दोष होते हो।
जब तुम झूठ बोलते हो, तब सब सिकुड़ जाता है, तन जाता है--चेहरा, आंख, भाव--सब सिकुड़ जाता है। तुम्हारा अपराध जाहिर है।
तो जिनको साधारण मुखाकृति को पढ़ना आता है, जो साधारणतया ‘बॉडी लैंग्वेज’ को, शरीर की भाषा को समझते हैं, वे भी बता देंगे। लेकिन सदगुरु तो तुम्हारी आत्मा की भाषा को समझता है। हो सकता है, तुम अभ्यास करके शरीर से भी धोखा दो। लेकिन उससे भी कोई फर्क न पड़ेगा। सदगुरु को धोखा नहीं दिया जा सकता। और अगर पहले चरण पर ही तुमने धोखा दिया, तो सदगुरु से संबंध ही कभी निर्मित नहीं होता। तुम फिर चूकते ही चले जाते हो।
सत्यकाम चूका नहीं। उसने खोल दिया अपने को--जैसा था--बुरा था, भला था। कुछ भी ढांका नहीं। जैसा था तथ्य, उसने उघाड़ कर रख दिया।
इस तथ्य को उघाड़ने से सत्यकाम का ही पता न चला, ऋषि गौतम का भी पता चला। अगर यह पंडित के सामने किया गया होता, तो सत्यकाम निकाल बाहर किया गया होता। यह गुरु-सदगुरु था। वह गुरु ज्ञान को उपलब्ध था। इसने अपवाद में भी झांक कर देख लिया। इसने सीधा व्यक्ति को देखा--समाज के नियम और सूत्र को नहीं देखा। क्योंकि किसी शास्त्र में नहीं लिखा है कि जब तक बाप का पता न हो, तब तक कोई व्यक्ति कैसे ब्राह्मण हो सकता है।
हिंदुओं ने चार वर्ण बनाए हैं--शास्त्रों में और एक पांचवां वर्ण बनाया है--अंत्यज। वह पांचवां वर्ण, उनके लिए है, जिनके चारों वर्णों को कोई पता न हो।
यह अंत्यज था--नियम से। यह शूद्र से भी गया-बीता था। शूद्र तो गांव की परिधि पर रहता है; अंत्यज गांव के बाहर रहता है। अंत्यज का मतलब होता है--सबसे अंत में, आखिर में।
ब्राह्मण शिखर पर हैं, शूद्र भूमि पर हैं, अंत्यज जैसे जमीन के भीतर है--भूगर्भ में है। उसे बाहर आने का भी हक नहीं। अंत्यज को गांव में आने का हक नहीं। वह पांचवां वर्ण है--जिसका कुछ ठिकाना न हो, पिता का; मां का सूत्र कुछ मिलता न हो, गोत्र का पक्का न हो।
तो हिसाब से तो यह सत्यकाम अंत्यज था। इसको गुरु ने आश्रम में तो जगह मिलने का सवाल ही न था। यह गांव में भी नहीं रुक सकता था। यह शूद्रों से गया-बीता था। अंत्यज का काम है कि वह शूद्रों की सेवा करेगा। वह गांव के बाहर रहता है, जैसे मनुष्य नहीं है। यह तो शास्त्र के अनुकूल थी बात।
अगर हरिद्रुमत पंडित होता, सिर्फ शास्त्र का ज्ञाता होता, तो सत्यकाम अंत्यज सिद्ध होता। लेकिन वह ज्ञानी था। शास्त्र का ज्ञाता नहीं, सत्य का ज्ञाता था। और सत्यकाम को उसने ब्राह्मण कहा।
बड़े हिम्मत के लोग रहे होंगे--उपनिषद ऋषि। और जब उपनिषद जिंदा था, तब हिंदू जिंदा थे। जिस दिन उपनिषद के ऋषि और हिम्मत खो गई, उसी दिन हिंदू मर गए। हिंदू अब एक सड़ी हुई लाश हैं। वे सिर्फ नियम से चलते हैं। अब उनके पास शस्त्र हैं--सत्य नहीं।
लेकिन जिस दिन गौतम ने यह वक्तत्व दिया कि तू ‘ब्राह्मण है’ और हृदय से लगा लिया--सत्यकाम को। और कहाः ‘सत्य के लिए ऐसी आस्था ही ब्राह्मण का लक्षण है। तू कहां पैदा हुआ, किससे पैदा हुआ--यह बात व्यर्थ है। तू ब्राह्मण है। यह बात पक्की है। क्योंकि मैं तुझे देखता हूं।’
एक तो रास्ता है कि तुम जहां से पैदा हुए, वहां से पता लगाया जाए कि तू कौन है। और एक रास्ता है कि तू कौन है, उससे पता लग जाए कि तू किस स्रोत से आया होगा। पहला रास्ता शास्त्र का है--दूसरा रास्ता ज्ञानी का है।
‘तू कौन है, यह मैं तुझे सीधा देखता हूं। तेरा स्रोत भी तेरे कारण सम्मानित हो गया। तू जहां से भी आ रहा है--ब्राह्मण से ही आ रहा है, श्रेष्ठतम स्रोत से आ रहा है।’
नहीं, जरा भी निंदा न उठी ऋषि के मन में कि तेरी मां वेश्या है, पापिनी है। जिन साधु-संन्यासियों के मन में निंदा उठे, जानना कि वे ज्ञानी नहीं हैं। जिनके सामने जाकर तुम भयभीत हो जाओ और जिनके सामने तुम अपने पाप को प्रकट करने में डरो--कि वे निंदा करेंगे, कि उनकी आंखों में तुम्हारे प्रति घृणा का भाव पैदा होगा, तुम नीचे मालूम पड़ोगे, पतित मालूम पड़ोगे, अपराधी सिद्ध हो जाओगे--तो समझना कि वे ज्ञानी नहीं हैं।
ज्ञानी के समक्ष तुम्हारी प्रामाणिकता का मूल्य है। तुमने क्या किया, क्या नहीं किया--इसका कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारी स्वीकृति--सत्य की स्वीकृति का मूल्य है।
सत्यकाम ने न केवल अपने को सिद्ध किया, बल्कि अपने कारण गुरु को भी प्रकट किया। सच्चा शिष्य जब उपलब्ध होता है, तो सच्चे गुरु को भी उघाड़ देता है। सच्चे शिष्य के बिना सदगुरु का पता भी तो नहीं चलता है। कैसे पता चलेगा? शिष्य की झलक ही खबर देती है--गुरु की भी।
‘जिसमें स्वयं के प्रति सच्चा होने का साहस है, सत्य स्वयं उसे ही खोजता हुआ उसके द्वार आ जाता है।’ ब्राह्मण को कहीं भी खोजने जाने की जरूरत नहीं। बस, वह ब्राह्मण है, यह काफी है। इससे ज्यादा और क्या चाहिए। वह ब्रह्म के लिए प्यासा है, जिज्ञासा से भरा है, मुमुक्षा से भरा है--यह पर्याप्त है। इससे ज्यादा और क्या चाहिए! ऐसे व्यक्ति के पास सत्य खुद खोजता हुआ चला आता है। सत्य तुम्हारी तलाश में है।
यहूदियों में एक कीमती सिद्धांत है, जो दुनिया के किसी धर्म में नहीं है। पर बड़ा बहुमूल्य है और सभी धर्मों में होना चाहिए। यहूदी कहते हैंः मनुष्य परमात्मा को कैसे खोजेगा? न हमें उसका पता मालूम है--न ठिकाना, न नाम, न द्वार, न रास्ता। वह कहां है, इसका भी हमें पता नहीं है। हम उसे खोजेंगे कैसे? खोज तो उसकी हो सकती है, जो कहीं हो--एक जगह हो, जिसका कोई घर हो, जिसका कोई नाम हो। पूछोगे कैसे? किससे पूछोगे कि वह कहां है? कौन है?
यहूदी कहते हैंः ‘उसका नाम नहीं है, रूप नहीं है, तो हम उसे खोज न सकेंगे। आदमी परमात्मा को कैसे खोजेगा।’ वे कहते हैंः ‘नहीं, आदमी परमात्मा को नहीं खोज सकता। आदमी तो सिर्फ तैयार हो सकता है! परमात्मा आदमी को खोजता है।’ और बात बड़ी ठीक है।
परमात्मा ही आदमी को खोज सकता है। उसे हमारा पता-ठिकाना मालूम है। हम कहां हैं--उसे पता है। हम कैसे हैं--उसे पता है। जिस दिन हम तैयार होंगे, वह खुद ही आएगा। हम उसे खोजने कहां जाएंगे!
ऐसे ही, जैसे, एक छोटा बच्चा एक बाजार में खो जाए, तो वे कैसे खोजेगा कि उसकी मां कहां है! और वह जितना खोजेगा उतना ही भटकेगा। अगर छोटा बच्चा होशियार है, तो वहीं खड़ा हुआ रोता रहेगा; हटेगा नहीं--यहां-वहां। जहां से मां का हाथ छूट गया है, वहीं खड़ा होकर रोएगा, चिल्लाएगा। हटेगा नहीं उस जगह से; क्योंकि हटने में खतरा है। अगर मां खोजने भी आएगी तो इसी जगह खोजने आएगी--जहां वह है। और बच्चा अगर मां को खोजने निकल जाए, तो फिर मिलना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं। तुम जहां हो, वहीं रहो। तुम जहां हो, वहीं पुकारो। तुम जहां हो, वहीं जन्म दो--तुम्हारी प्रार्थना को, तुम्हारे ध्यान को। न तुम घर छोड़ो, न तुम द्वार छोड़ो, न तुम हिमालय जाओ। तुम कहीं मत जाओ। तुम जहां हो, ठीक वहीं परमात्मा तुम्हें खोजता आ जाएगा। जिस दिन तुम तैयार हो, उसी दिन तुम पाओगे--उसने द्वार पर दस्तक दी। तुम्हारी तैयारी होते ही वह मौजूद हो जाता है।
ठीक कहा ऋषि गौतम ने कि तू ‘ब्राह्मण है, यह बात पक्की हो गई। तू अपने प्रति सच्चा और प्रामाणिक है, यह बात पक्की हो गई। अब ज्यादा कठिनाई है। तुझे मैं कुंजियां दूंगा। तू योग्य है, तू पात्र है।’
तुम कुंजियों की तलाश करते हो, लेकिन कभी नहीं सोचते कि तुम पात्र हो या नहीं!
मेरे पास लोग आते हैं, वे प्रश्न पूछते हैं--बिना समझे, बिना सोचे कि वे पात्र हैं या नहीं। अगर उनको जवाब न दिया जाए, तो नाराज होते हैं। और जवाब दिया जाए, तो वह व्यर्थ है, क्योंकि वे पात्र नहीं हैं।
तुम पूछते होः ‘ईश्वर है?’ तुम क्या पूछ रहे हो, तुम्हें पता है! यह कोई इतिहास का प्रश्न है, कि भूगोल का, कि गणित का? यह प्रश्न तो जीवन के गहनतम सत्य का प्रश्न है--आत्यंतिक प्रश्न है। तुम तैयार हो? यह प्रश्न भी पूछो, इसकी तुम्हारी तैयारी है? ये शब्द भी तुम ओंठ पर लाओ, इसकी तुम्हारी योग्यता है, प्रामाणिकता है? लेकिन उत्तर तुम चाहते हो! उत्तर दे भी दिया जाए, तो तुम्हें मिलेगा नहीं। क्योंकि जो अभी प्रश्न के लिए ही तैयार नहीं है, वह उत्तर के लिए कैसे तैयार हो सकता है!
और ध्यान रखनाः अगर तुम प्रश्न के लिए तैयार हो, तो उत्तर तुम्हारे भीतर से ही आ जाएगा; कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं। जो प्रश्न पूछने में समर्थ है, उसे उत्तर मिल जाएगा।
तुम्हारी तैयारी असली बात है। तैयारी का पहला कदम हैः आथेंटिसिटी--प्रामाणिकता। और प्रामाणिकता का अर्थ समझ लेना। प्रामाणिकता का अर्थ यह नहीं कि तुम ईमानदार बनो। प्रामाणिकता का अर्थ यह नहीं कि पहले तुम अचोर बनो। प्रामाणिकता का अर्थ यह नहीं कि पहले तुम अहिंसक बनो। प्रामाणिकता का अर्थ हैः तुम जो हो--जैसे हो, काने-लूले-लंगड़े--जैसे हो, इसको ऐसा ही स्वीकार कर लो। इसको तुम अपने प्रति भी मत छिपाओ, दूसरे के प्रति भी मत छिपाओ। छोड़ो भय-निंदा का। करेंगे लोग निंदा, ठीक है; जो जानते हैं, वे तुम्हें ब्राह्मण कहेंगे। जो नहीं जानते, उनकी प्रशंसा लेकर भी क्या करोगे! जो नहीं जानते हैं उनकी प्रशंसा का मूल्य क्या है? जो जानते हैं, उनकी ‘नजर’ का मूल्य है। और उनकी नजर हो जाए, तो सब हो जाए।
तुम खोल दो अपने को। कहने दो, लोग क्या कहते हैं। सोचने दो, लोग क्या सोचते हैं। गाली देते हैं, अपराधी मानते हैं, तुम्हें पापी मानते हैं--डरो मत, स्वीकार कर लो। ब्राह्मणत्व का जन्म हो जाएगा--उसी क्षण। और वहीं से तुम्हारी यात्रा शुरू होती है।
और तुम जब ब्राह्मण हो, तो ध्यान रखना, ब्रह्म तुम्हें खोजेगा। और ज्यादा दूर नहीं है ब्रह्म--कहीं आस-पास ही है तुम्हारे घर के। जैसे-जैसे तुम्हारी तैयारी होती जाएगी, वह करीब आता जाएगा। जिस दिन तुम तैयार हो, अचानक तुम पाओगे कि वह तुम्हारे भीतर उदभासित हुआ है, तुम्हारे भीतर उसका आविर्भाव हुआ है। वह तुम्हारे ही प्राणों का जलता हुआ दीया है।
प्रामाणिक व्यक्ति के लिए समाधि बड़ी सहज है। वह जो कबीर कह रहे हैंः ‘साधो सहज समाधि भली’, उसकी सहजता तुममें तभी पैदा होगी, जब तुम पहले झूठ--अपने बाबत--त्याग दो। लेकिन आदमी इतना बेईमान है कि वह उलटी दिशा में तक बेईमानी कर देता है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि टाल्सटाय, रूसो, अगस्तीन, गांधी--इस तरह के कुछ बड़े महत्वपूर्ण लोगों ने अपने पापों की स्वीकृति की है--अपनी आत्मकथाओं में। लेकिन मनोवैज्ञानिक को शक है कि उन्होंने उन पापों को भी स्वीकार कर लिया है, जो उन्होंने कभी किए ही नहीं! यह दूसरी अति है। और यह फिर गड़बड़ हो गया।
तुम्हारी मां अगर वेश्या न हो, तो अकारण जाकर किसी को मत कहना। तुम्हें अगर पिता का पता हो, तो जाकर गुरु को मत बताना कि ‘कोई पिता का पता नहीं, क्योंकि युवावस्था में मां भद्रजनों में रमती रही!’ तब यह भी झूठ है और यह भी अप्रामाणिक है। और ध्यान रखनाः इस कारण गुरु तुम्हें गले से नहीं लगा लेगा।
शक है टाल्सटाय पर कि उसने ऐसे पाप कभी किए नहीं--जिनके वह उल्लेख करता है! लेकिन वह उल्लेख करता है, क्योंकि ख्याल है कि जब तुम अपने को पूरा पापी स्वीकार कर लोगे, तो परमात्मा तुम्हारे पास आएगा। लेकिन ‘पूरे पापी’ का मतलब यह नहीं कि ज्यादा पाप स्वीकार कर लेना--जो तुमने किए ही नहीं!
आदमी अतिशय में बढ़ जाता है। या तो तुम घोषणा करते हो कि ‘मुझ जैसा पुण्यात्मा कोई नहीं।’ तब भी अकड़ है। और या तुम घोषणा कर सकते हो कि ‘मुझ जैसा पापी कौन है?’ कोई भी नहीं। तब भी अकड़ है। अकड़ को मिटाने से प्रामाणिकता आती है। अकड़ को बचाए रखोगे; तो अप्रामाणिकता नहीं होगी।
तुम वही हो जाना, जो तुम हो। और उतना ही स्वीकार कर लेना, जितना तुम हो--न रत्ती भर इधर, न रत्ती भर उधर। क्योंकि जरा भी तुम यहां से वहां हुए कि तुम चूक जाओगे। तुम ठीक बीच में हो, बीच के मध्य बिंदु में हो, जहां अतिशय नहीं, अतिरेक नहीं, अतिशयोक्ति नहीं।
अतिशयोक्ति दोनों तरह की हो सकती है। तुम जाओ कभी कारागृह में, तुम वहां पाओगे कि कैदी वहां बढ़-चढ़ कर बातें करते हैं। जिसने दो-चार रुपये की चोरी की है, वह कहता है कि ‘लाखों का डाका डाला।’ क्योंकि वहां वही अकड़ है। जो किसी को डंडा मारने में पकड़ा गया, वह कहता हैः ‘खून कर दिया--खून-खराबा कर दिया।’ और वहां जो थोड़ी सी सजा लेकर आता है, उसका सम्मान नहीं होता। वहां बड़े-बड़े कैदी हैं। कोई बीस साल, कोई तीस साल, कोई चालीस साल, कोई आजन्म कारावास के लिए आया हुआ है। और तुम केवल पंद्रह दिन के लिए! सिर्फ दो सप्ताह! किया भी तो कुछ कर न पाए!
मैंने सुना हैः एक कारागृह में ऐसा हुआ कि एक नया कैदी आया। एक ही खोली में दो कैदी रहने को थे। तो पुराने कैदी ने--पुराने अंतेवासी ने पूछा, ‘कितने दिन की सजा हुई है?’--अपने बिस्तर पर लेटे हुए। तो उसने कहा, ‘ज्यादा नहीं, बस पंद्रह साल।’ तो उसने कहा, ‘फिर ठीक है; तुम दरवाजे पर ही रहो, क्योंकि मुझे तीस साल रुकना है। तुम पहले निकलोगे।’ कोठरी को बांटना है--तो हिस्सों में। तुम दरवाजे के हिस्से पर रुको। मैं तीस साल... । तुम पहले जाओगे, वहीं ठहरो। अंदर ज्यादा आने की जरूरत नहीं।’ तीस साल जिसको सजा हुई है, वह महापुरुष है! कारागृह के महापुरुष अलग हैं।
मंदिरों में जाओ; जिसने तीस दिन का उपवास किया है, वह महापुरुष है; जिसने पंद्रह दिन का किया है, वह ‘दरवाजे’ पर ही रुकेगा। गणना वही है; हिसाब-किताब वही है। गणित में जरा फर्क नहीं। अकड़ वही है।
तुम अपने पापों की घोषणा करके भी अकड़ सकते हो, तब समझ लेना कि गलती हो गई। क्योंकि पाप को स्वीकार करने से विनम्रता आनी चाहिए--अकड़ नहीं। पुण्य करने से विनम्रता आनी चाहिए--अकड़ नहीं; नहीं तो, पाप और पुण्य का कोई भेद नहीं है। दोनों से तुम अकड़ को--अहंकार को भर ले सकते हो।
अहंकार मिटे, तो आदमी प्रामाणिक होता है। यह जो हरिद्रुमत गौतम ने कहा कि ‘तू ब्राह्मण है’--इसलिए कहा कि तू निर-अहंकारी है। तूने कुछ भी छिपाया न, तूने बचाया न, तूने अपने को उघाड़ दिया--बिना चिंता किए कि मैं क्या कहूंगा, मेरा क्या निर्णय होगा! तू जानता है--भलीभांति कि सिर्फ ब्राह्मण को ही प्रवेश मिल सकता है--आश्रम में। तू जानता है कि ब्राह्मण की ही चाबियां दी जा सकती हैं--ब्रह्मविद्या की। फिर भी तूने घोषणा की कि तू वेश्या-पुत्र है। तू जानता है कि सब तरफ निंदा है वेश्या की, वेश्या-पुत्रों की; फिर भी तूने सरलता से कह दिया। तू निर-अहंकारी है।
निर-अहंकारिता ब्राह्मण का गुण-धर्म है। और जो निर-अहंकारी है, उससे ब्रह्म कितने दिन बचेगा; खोजने जाने की कोई भी जरूरत नहीं; तुम अपने घर में बैठे रहो; उसे आना ही पड़ेगा। वह सदा आता है।
आज इतना ही।
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