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सोमवार, 19 नवंबर 2018

बहुतेरे हैं घाट-(प्रवचन-04) 

चौथा प्रवचन

अंतिम स्वर्ण सोपान: परम मौन

पहला प्रश्नः

न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः
वृद्धाः न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
नासो धर्मो यत्र न सत्यमस्ति
न तत्सत्यं यच्छलेलानुविद्धम्।।
‘जिसमें वृद्ध नहीं हैं वह सभा नहीं है; जो धर्म को नहीं बतलाते वे वृद्ध नहीं हैं।
 जिसमें सत्य नहीं है वह धर्म नहीं है; जिसमें छल मिला हुआ है वह सत्य नहीं है।’
महाभारत के इस सुभाषित पर कुछ कहने की कृपा करें।

सहजानंद, वृद्ध होना तो बहुत आसान है। कुछ न करो तो भी वृद्ध हो ही जाओगे। अधार्मिक भी वृद्ध हो जाता है, धार्मिक भी वृद्ध हो जाता है; पापी भी, पुण्यात्मा भी; साधु भी, असाधु भी। वृद्ध होना कोई कला नहीं है। पशु-पक्षी भी वृद्ध होते हैं, वृक्ष भी वृद्ध होते हैं, पहाड़-पर्वत भी वृद्ध होते हैं।
जैसे विंध्याचल पर्वत पृथ्वी का सबसे बूूढा पर्वत है..इतना कि उसकी कमर झुक गई है। उसकी झुकी कमर के कारण ही यह कहानी बनी कि अगस्त्य ऋषि दक्षिण गए, तब विंध्याचल ने झुक कर उनको नमस्कार किया। और वे कह गए कि जब तक मैं लौट न आऊं, तब तक तू झुका रहना। फिर वे लौटे नहीं, वे समाप्त ही हो गए। तब से बेचारा विंध्याचल झुका ही है। असलियत यह है कि विंध्याचल पृथ्वी पर सबसे बूढ़ा पर्वत है और हिमालय सबसे युवा।


पर्वत भी बूढ़े होते हैं, वृक्ष भी बूढ़े होते हैं, पशु-पक्षी भी बूढ़े होते हैं, आदमी भी बूढ़ा होता है। बूढ़ा होना कोई अपने में गुण नहीं है। इसकी कोई महत्ता नहीं है।
इसलिए यह सूत्र कहता हैः ‘जिसमें वृद्ध नहीं हैं वह सभा नहीं है।’ इसका अगर मोटा-मोटा अर्थ लो, तब तो यह सूत्र बिल्कुल गलत है। लेकिन इसका गहरा अर्थ भी लिया जा सकता है। मैं आश्वासन नहीं दे सकता कि वही गहरा अर्थ महाभारत का भी रहा होगा, क्योंकि सूत्र का बाकी हिस्सा भी बहुत उथली बातों से भरा है। लेकिन इन उथली बातों का संकेत इस भांति उपयोग किया जा सकता है कि तुम्हारे लिए मार्गदर्शक हो सके।
इसलिए मुझे चिंता नहीं है कि महाभारत का क्या अर्थ है। मुझे इसकी चिंता है कौन सा अर्थ तुम्हारे लिए सार्थक होगा। मुझे तुम्हारी फिकर है, महाभारत से मुझे क्या लेना-देना?
इसलिए वृद्ध का मैं अर्थ करता हूं परिपक्व, बूढ़ा नहीं। जीवन के अनुभव ने जिसे प्रौढ़ता दी है, उम्र उसकी कुछ भी क्यों न हो। शंकराचार्य तैंतीस वर्ष की उम्र में मरे, वृद्ध तो नहीं थे; लेकिन फिर भी एक प्रौढ़ता है जो बूढ़ों में भी नहीं होगी। जीसस की मृत्यु भी तैंतीस वर्ष में हुई, मारे गए, तब तक बूढ़े तो न थे। इस अर्थ में तो जीसस, शंकराचार्य जैसे लोग सभा में बैठने योग्य भी नहीं थे। ‘सभा’ शब्द से ही ‘सभ्य’ बना है। सभ्य का अर्थ है, जो सभा में बैठने योग्य हो; जिसे सलीका आता हो; जिसे इतना अदब आता हो कि बैठ सके, सुन सके, समझ सके। और इसी सभा शब्द से सभ्यता शब्द बना है। जो सभा में बैठने योग्य है वह सभ्य। और सभ्य लोगों का जो समूह है, उसके जीवन की जो शैली, जो व्यवस्था, जो आचरण, जो अनुशासन है..वह सभ्यता।
निश्चित ही इसका संबंध उम्र से नहीं हो सकता, क्योंकि बूढ़े से बूढ़े शैतान पाए जाते हैं और कभी-कभी युवा से युवा संत भी। सच तो यह है जो युवा होते हुए संत न हो सका, क्या खाक बूढ़ा होकर संत हो सकेगा! जब ऊर्जा थी, जब जीवन को समझने की, जीवन की चुनौती को अंगीकार करने की सामथ्र्य थी, जब अज्ञात की यात्रा पर निकलने की क्षमता थी, छाती थी, तब जो न गया उस अभियान पर, तब जिसने जीवन के शिखर छूने के लिए अपने पंख न फैलाए, जब उड़ सकता था, जब प्राणों में सितारों को छूने के सपने थे, तब जो दुबका बैठा रहा अपने घोंसले में, वह तुम सोचते हो बूढ़ा होकर, जीर्ण-जर्जर होकर, खंडहर होकर, सब तरह टूट कर, फूट कर, अब अनंत की यात्रा पर निकलेगा? जीवन भर जिस घोंसले को पकड़ कर बैठा है, अब इस अंतिम क्षण में तुम सोचते हो, अपनी व्यवस्था, अपनी सुरक्षा, अपना सब कुछ छोड़ कर, त्याग कर, उस दूर के किनारे का जिसका कोई भरोसा नहीं, हो या न भी हो, उस दूर के किनारे की खोज उसकी अभीप्सा बनेगी? यह असंभव है।
इसलिए मेरा अर्थ समझने की कोशिश करो। वृद्ध से मेरा अर्थ उम्र से नहीं। वृद्ध से मेरा अर्थ हैः जीवन की अग्नि में जो तपा है, निखरा है, उम्र कोई भी हो। कभी-कभी छोटे-छोटे बच्चों ने भी सत्य को पा लिया है, आसानी से पा लिया है, क्योंकि उनके चित्त का कागज कोरा था, उनके चित्त के दर्पण पर अभी धूल न जमी थी।
इसलिए जीसस ने बार-बार कहा हैः धन्यभागी हैं वे जो छोटे बच्चों की भांति हैं, क्योंकि वे ही मेरे परमात्मा के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे।
अगर महाभारत और जीसस के वचन में मुझे चुनना हो तो मैं जीसस का वचन चुनना पसंद करूंगा। इसमें ज्यादा सचाई है, ज्यादा प्रखर अग्नि है, अंगार है। लेकिन अगर हम ‘वृद्ध’ शब्द को नयी परिभाषा दें, नया अर्थ दें, जो हमेशा देना चाहिए...। हीरों पर नये पहलू दिए जा सकते हैं तो क्यों न शब्दों के साथ भी हम वही करें? हीरों को निखारा जा सकता है, पुराने से पुराने हीरों को नयी रौनक, नयी ताजगी, नयी चमक दी जा सकती है। जहां तक मुझसे बन पड़ता है वहां तक मैं हर पुराने सत्य को नयी भाव-भंगिमा देता हूं। जहां यह असंभव ही होता है वहीं इनकार करता हूं। इनकार करने में मुझे कोई रस नहीं है, मजबूरी है।
‘वृद्ध’ का अर्थ उम्र से तो मैं नहीं ले सकूंगा। जहां तक महाभारत का संबंध है, ‘वृद्ध’ से अर्थ उम्र का ही रहा होगा। क्योंकि भारत की यह पुरानी धारणा रही है कि पच्चीस वर्ष तो विद्या-अध्ययन, बचपन; फिर पच्चीस वर्ष गृहस्थ आश्रम, वह दूसरी सीढ़ी, अनुभव; फिर पच्चीस वर्ष वानप्रस्थ आश्रम, जंगल जाने की तैयारी; और फिर चैथा चरण पचहत्तर वर्ष के बाद..संन्यास। वृद्ध को ही संन्यास लेने का अधिकार था, क्योंकि वृद्ध से ही आशा थी कि वह परंपरा को बचाएगा।
बूढ़े की हिम्मत ही नहीं होती क्रांति की, बगावत की। उसके भीतर की आग कभी की बुझ चुकी है। उसके भीतर अब खोजने से चिनगारी भी न मिलेगी, राख ही राख का ढेर है अब। इस बूढ़े पर भरोसा किया जा सकता है। न्यस्त स्वार्थ इस पर भरोसा कर सकते हैं। यह अब वही दोहराएगा जो परंपरा कहती है, जो शास्त्र कहते हैं। यह इंच भर यहां-वहां नहीं हटेगा; यह लकीर का फकीर होगा। अब इस बुढ़ापे में यह इतनी हिम्मत नहीं करेगा कि झंझट मोल ले, बंधे हुए स्थापित मूल्यों से टक्कर ले। अब इस आखिरी उम्र में, जब कि पत्ता पीला पड़ गया है, तूफानों से उलझने की हिम्मत पत्ते की नहीं हो सकती। तूफान तो दूर, हवा का छोटा सा झोंका भी इस पत्ते को ले गिरेगा। अब तो यह पत्ता जोर से पकड़ेगा उस वृक्ष को, जितनी देर पकड़े रह सके। अब तो इसकी पकड़ बहुत मजबूत हो जाएगी। अब तो मरने का डर ही पर्याप्त होगा इसे। नर्क-स्वर्ग, सारी धारणाओं को यह स्वीकार कर लेगा। ईश्वर पर अब संदेह न कर सकेगा। संदेह करने के लिए थोड़ा युवापन चाहिए। स्वर्ग और नर्क पर प्रश्न-चिह्न लगाने के लिए मौत से जरा फासला चाहिए। पीला पत्ता यूं कंप रहा है, अभी गिरा, अभी गिरा। यह क्या इनकार कर सकेगा? यह क्या संघर्ष ले सकेगा? संघर्ष का बल कहां से जुटाएगा? थोड़ा-मोड़ा जो भी इसके पास बल बचा है, वह एक ही काम में लगाएगा कि वृक्ष को जितनी देर पकड़ सके।
इसलिए सारे समाजों ने..और यह समाज पुराना समाज है, पुराने से पुराना..इस बात की कोशिश की है कि वृद्ध को ही शिक्षा देने का अधिकार हो, क्योंकि वृद्ध वही कहेगा जो सदियों ने कहा है। वह कभी परंपरा के विपरीत न जाएगा। उस पर आश्वासन रखा जा सकता है। वह दकियानूस होगा। वह मर ही चुका है। वह मरा-मरा है। वह सिर्फ वही दोहराएगा तोते ही तरह, जो उसने सुन रखा है।
न्यस्त स्वार्थ वृद्धों का सहारा लेते हैं। इसलिए सभी न्यस्त स्वार्थ ‘बूढ़े को समादर दो’ इसका आग्रह करते हैं। बच्चे का अपमान है, जवान की निंदा है, बूढ़े का समादर है। यूं अगर गौर से देखो तो तुमने जीवन का इनकार कर दिया और मृत्यु का समादर किया। बूढ़ा मृत्यु के करीब है, जीवन से रोज दूर हटता गया है। जीवन तो पीछे छूट गया, रास्ते की उड़ती हुई धूल है। आगे तो मौत का अंधेरा है।
वृद्ध को सम्मान देने वाले समाज मौत को सम्मान दे रहे हैं। सम्मान तो मिलना चाहिए बच्चे को। सम्मान उससे भी ज्यादा मिलना चाहिए जवान को, उससे भी ज्यादा सम्मान मिलना चाहिए प्रौढ़ को। और जो इस तरह जीवन को क्रांतिमय ढंग से जीए, तब अगर वृद्ध हो तो उसकी वृद्धता प्रौढ़ता होगी, परिपक्वता होगी।
बुद्ध भी वृद्ध हुए, बयासी वर्ष के हुए। लेकिन बयासी वर्ष की उम्र में भी वही आग है, वही प्रज्वलित अग्नि! मरते क्षण आखिरी संदेश भी यही हैः ‘अपने दीये स्वयं बनो।’ परंपरा का आग्रह नहीं, शास्त्र का आग्रह नहीं, सुनी-सुनाई बकवास का आग्रह नहीं।
सुकरात अस्सी साल की उम्र में जहर देकर मारा गया। लेकिन मरते समय भी चित्त उसका युवा है। बाहर जहर तैयार किया जा रहा है, उसके शिष्य रो रहे हैं और वह उनसे कह रहा हैः ‘रो लेना बाद में। इतनी क्या जल्दी है? छह बजने के करीब हैं, छह बजे जहर दे दिया जाएगा। रोने के लिए तुम्हें जिंदगी पड़ी है। थोड़ी देर मेरे साथ और हो लो, थोड़ी देर और मेरे साथ जी लो। फिर मैं यहां नहीं रहूंगा। रोना पीछे कर लेना, रोना-धोना कभी भी कर लेना, जब सुविधा हो तब कर लेना। अभी तो हंस लो, अभी तो बोल लो। अभी तो समारोह। अभी तो मैं जिंदा हूं! अभी तो मैं जवान हूं! अभी तो मरा नहीं! और अगले क्षण क्या होगा, इतनी जल्दी क्या है? फिर इतनी चिंता क्या है? मरने में दो ही संभावनाएं हैं...।’
यह देखते हो मरते हुए आदमी की...बाहर सिल पर जहर घोंटा जा रहा है, उसकी आवाज आ रही है..घर्र-घर्र। जहर तैयार होता जा रहा है, घड़ी का कांटा करीब पहुंच रहा है, इधर सूरज ढला कि इधर जहर का प्याला तैयार हो जाएगा। और सूरज ढलने के करीब है, लेकिन जरा भी मोह नहीं जीवन का, जरा भी पकड़ रखने की आसक्ति नहीं। और जो सुकरात ने कहा वह बड़ा विचारणीय है। मरते हुए आदमी का वक्तव्य है।
सुकरात ने कहा कि दो ही संभावनाएं हैं..इसमें रोने की बात क्या? या तो नास्तिक सही है कि तुम मरे कि सब मरा, फिर कुछ बचता नहीं। जब बचता ही नहीं तो डर क्या है? डर किसको है? जब मैं बचूंगा ही नहीं तो चिंता क्या है? पानी का बबूला था, फूट गया, फूट गया। एक कहानी थी, टूट गई, टूट गई। एक सपना था, बिखर गया, बिखर गया। यूं भी सपने में कुछ न था। यूं भी पानी के बबूले में क्या था?
तो अगर नास्तिक सही कहते हैं..यह सुकरात की चिंतना की प्रक्रिया थी, यह सुकरात के सोचने का ढंग था, यह उसकी कला थी..अगर नास्तिक सही कहते हैं तो रोना बंद करो। नास्तिक यही कह रहे हैं कि मैं हूं ही नहीं। इसलिए मिट जाऊंगा। जो है ही नहीं वह मिटेगा, मिटना ही चाहिए। और अगर आस्तिक सही कहते हैं कि आत्मा अमर है, देह गिरेगी, मगर आत्मा बचेगी, फिर तो रोने को कुछ भी नहीं। देह तो मैं नहीं हूं। अगर आस्तिक सही हैं तो मैं आत्मा हूं। आत्मा अमर है। तो भी रोने को कुछ नहीं। और ये दो ही विकल्प हैं, तीसरा कोई विकल्प नहीं। दोनों हालत में आनंद से विदा दो।
यह युवा चित्त, मगर प्रौढ़, चित्त दोनों है इस सुकरात का। अभी यूं जवान, जैसे ताजा-ताजा फूल। अभी यूं जवान, जैसे धुला-नहाया दर्पण। सद्यःस्नात! और यूं प्रौढ़ कि मौत भी द्वार पर दस्तक दे रही है और इसके भीतर कोई हलन-चलन नहीं, कोई कंपन नहीं।
अगर कोई आदमी इस भरोसे में निश्चिंत मर जाता है कि आत्मा अमर है, तो हो भी सकता है यह केवल भरोसा रहा हो, ज्ञान न रहा हो; यह बोध न रहा हो, यह केवल मान्यता रही हो। और मान्यता एक तरह का सम्मोहन पैदा कर देती है। और यह भी हो सकता है कि कोई नास्तिक इस भरोसे में मर जाता हो कि सब समाप्त ही हो रहा है, इसलिए चिंता क्या! मगर वह मान्यता भी मान्यता है।
सुकरात की प्रौढ़ता बहुत अदभुत हैः कोई मान्यता नहीं है। मान्यता होती ही बुद्धुओं की है। बुद्धिमान की कोई मान्यता नहीं होती। बुद्धिमान तो प्रतिक्षण जीवन को उसकी चुनौती के साथ स्वीकार करता है। यह चुनौती सामने खड़ी है, दो विकल्प हैं। मौत अभी जानी नहीं। इसलिए सुकरात कहता हैः ‘जिसको मैंने जाना नहीं, उसके संबंध में तुमसे क्या कहूं? बचूंगा या नहीं बचूंगा, यह तो मर कर ही जानूंगा, उसके पहले नहीं कह सकता हूं। हां, मरते-मरते जो भी बन सकेगा, कह जाऊंगा।’
और मरते-मरते भी सुकरात कहता गया। जहर घोंटने वाला देर कर रहा है; वह भी सुकरात का प्रेमी है। मजबूरी है। उसका काम है जहर घोंट कर पिलाना, जिनको सजा मिली हो मृत्यु की। यह एथेंस में जहर पिला कर ही मारने की व्यवस्था थी। मगर वह देर कर रहा है जहर को घोंटने में। सुकरात ने कहा कि देर हुई जाती है। सुकरात उठ कर बैठा, द्वार पर आया और उसने कहाः ‘बड़ी देर कर रहे हो! हमेशा काम में कुशल होना चाहिए। और जो भी काम करो, उसमें एक व्यवस्था, एक सलीका होना चाहिए।’
खुद के लिए जहर घोंटा जा रहा है। यह बूढ़ा आदमी इस तरह की बात नहीं कह सकता था। यह तो कहता..‘और थोड़ी देर करो, ऐसी भी जल्दी क्या है? जितनी देर रह जाऊं अटका इस वृक्ष से। पीला पत्ता हूं, कब गिरा क्या भरोसा। जितनी देर अटका रह जाऊं। जितनी देर और जी लूं, दो सांस और ले लूं! एक बार और भर नजर देख लूं इस सुंदर लोक को! धन्यवाद तुम्हारा!’
नहीं, लेकिन यह नाराज होता है। यह कहता है, ‘छह बज गए, सूरज ढल गया और तेरे काम में इतनी देर हो रही है; यह उचित नहीं, यह तर्कसंगत नहीं।’
उस आदमी की आंखों में आंसू हैं। वह बोला, ‘आप भी पागल हो। मैं इसलिए देर कर रहा हूं कि जितनी देर हो सके, सुकरात जैसा आदमी और जी ले।’
सुकरात ने कहा, ‘जीना तो देख चुका, अब मौत को देखना है। जीना तो खूब देख लिया। जीना तो भरपूर देख लिया। जीवन तो जी लिया, पी लिया, समझ लिया। जीवन जो दे सकता था, ले लिया। अब तू अटका मत। अब यह मौत का निमंत्रण द्वार पर खड़ा है। अब यह मौत की नाव आ लगी किनारे पर। अब मुझे सवार होने दे और जाने दे। अब मुझे देखने दे कि मौत क्या है।’
जहर पीया, सुकरात लेट गया। उसके शिष्य उसके डर के कारण रो भी नहीं सकते, शोरगुल भी नहीं मचा सकते। उनकी छाती फटी जा रही है। स्वभावतः, उनकी आंखें गीली हैं। और जैसे रात का अंधेरा उतरने लगा, उनके आंसू भी ढलने लगे, क्योंकि अब सुकरात देख न सकेगा। और सुकरात क्या कह रहा है?
सुकरात कह रहा हैः ‘सुनो, गौर से सुनो! मेरे पैर शून्य हुए जा रहे हैं, लेकिन मैं अपने भीतर स्वयं को उतना का उतना पाता हूं, जरा भी अंतर नहीं। यूं मेरे घुटने तक सन्नाटा आ गया है। अब मैं अपने घुटने को छूता हूं तो मुझे कोई स्पर्श का बोध नहीं होता, अर्थात घुटने तक सुकरात मर चुका है। लेकिन मेरे भीतर अभी मैं अखंड हूं, मेरी चेतना में कुछ भी नहीं मरा।’
और तब जंघाओं तक सुकरात खबर देता हैः ‘मैं मर चुका।’
और तब कहता हैः ‘मेरे हाथ भी ठंडे पड़े जा रहे हैं। अब मैं अपने हाथों को भी अनुभव नहीं कर रहा हूं। मगर याद रखना, मेरी चेतना अभी वैसी की वैसी अखंड है, अछूती है। वहां कुछ भी परिणाम नहीं हुआ। जहर वहां नहीं पहुंचा है। शायद जहर वहां नहीं पहुंचेगा।’
और तब वह कहता हैः ‘मेरे हृदय की धड़कनें भी अब ठंडी पड़ने लगीं। आहिस्ता-आहिस्ता मेरा हृदय डूबा जा रहा है। मगर मैं तुमसे कहता हूं कि मैं नहीं डूबा हूं, मैं वैसा ही सतेज हूं। सच पूछो तो मेरा तेज और प्रखर है। मैं मर नहीं रहा हूं; जैसे एक नया जीवन! जैसे सांप केंचुली बदल रहा है। एक कारागृह से मुक्त हो रहा हूं।’
और तब वह कहता हैः ‘अब मेरा मस्तिष्क भी शून्य होने लगा। शायद यह मेरा आखिरी वक्तव्य होगा, क्योंकि मेरी जीभ पर भी असर आ रहा है और जीभ लड़खड़ाने लगी है। अंतिम बात तुमसे कह जाऊं कि मस्तिष्क शून्य हुआ जा रहा है, जीभ लड़खड़ा रही है, लेकिन मैं थिर हूं। भीतर कुछ भी नहीं लड़खड़ाया है। भीतर सब मौन है, सब सन्नाटा है। ऐसा, जैसा कभी न था। मैं आनंदित हूं। मैं मर नहीं रहा हूं। मैं मर नहीं सकता हूं। सब मर गया है और इसलिए इस मरी हुई देह के बीच में मैं पहली बार इस पृष्ठभूमि में अपनी अमरता का अनुभव कर रहा हूं। मैं अमृत हूं।’
यह प्रौढ़ता। उम्र का कोई सवाल नहीं। जीसस तैंतीस साल की उम्र में वृद्ध हैं, प्रौढ़ हैं। सुकरात बयासी साल की उम्र में वृद्ध है; महावीर इसी उम्र में, बयासी के करीब; बुद्ध बयासी के करीब। उम्र से कुछ लेना-देना नहीं है। तब यह बात सही हो सकती है..
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः।
जिसमें वृद्ध नहीं, वह सभा नहीं। जहां प्रौढ़ लोग नहीं हैं; जहां परिपक्व लोग नहीं हैं; जिन्होंने जीवन की अग्नि में अपने को तपाया और निखारा नहीं है, जो भगोड़े हैं, पलायनवादी हैं; जो जीए नहीं हैं; जो जीवन की तरफ पीठ करके भाग गए हैं; जो रणछोड़दास जी हैं..इनसे सभा नहीं बनती, इनसे सत्संग निर्मित नहीं होता
मरने की दुआएं क्यों मांगूं?
जीने की तमन्ना कौन करे?
ये दुनिया हो या वो दुनियाअब ख्वाहिशे-दुनिया कौन करे?
मरने की दुआएं क्यों मांगूं?
जो आग लगाई थी तुमने उसको तो बुझाया अश्कों ने
जो अश्कों ने भड़काई है उस आग को ठंडा कौन करे?
मरने की दुआएं क्यों मांगूं?
जब कश्ती साबितो-सालिम थी साहिल की तमन्ना किसको थी?
अब ऐसी शिकस्ता कश्ती परसाहिल की तमन्ना कौन करे?
मरने की दुआएं क्यों मांगूं?
दुनिया ने हमें छोड़ा ऐ दिल हम छोड़ न दें क्यों दुनिया को?
दुनिया को समझ कर बैठे हैंअब दुनिया-दुनिया कौन करे?
मरने की दुआएं क्यों मांगूं? जीने की तमन्ना कौन करे?
ये दुनिया हो या वो दुनिया अब ख्वाहिशे-दुनिया कौन करे?
मरने की दुआएं क्यों मांगूं?
मरने की दुआएं क्यों मांगूं? जीने की तमन्ना कौन करे? ये दुनिया हो या वो दुनियाअब ख्वाहिशे-दुनिया कौन करे? मरने की दुआएं क्यों मांगूं? जो आग लगाई थी तुमने उसको तो बुझाया अश्कों ने जो अश्कों ने भड़काई है उस आग को ठंडा कौन करे? मरने की दुआएं क्यों मांगूं? जब कश्ती साबितो-सालिम थी साहिल की तमन्ना किसको थी? अब ऐसी शिकस्ता कश्ती परसाहिल की तमन्ना कौन करे? मरने की दुआएं क्यों मांगूं? दुनिया ने हमें छोड़ा ऐ दिल हम छोड़ न दें क्यों दुनिया को? दुनिया को समझ कर बैठे हैंअब दुनिया-दुनिया कौन करे? मरने की दुआएं क्यों मांगूं? जीने की तमन्ना कौन करे? ये दुनिया हो या वो दुनिया अब ख्वाहिशे-दुनिया कौन करे? मरने की दुआएं क्यों मांगूं?
वस्तुतः जो प्रौढ़ है, न तो उसके भीतर जीने की अभीप्सा रह जाती है और न मरने की आकांक्षा। यह कसौटी है।
एक ही धर्म है दुनिया में..जैन धर्म..जो अपने मुनियों को मरने की सुविधा देता है; जो इस बात की आज्ञा देता है कि जब मुनि ऐसा अनुभव करे कि अब जीने में कोई सार नहीं, वह अन्न-जल त्याग दे, आमरण अनशन पर बैठ जाए और यूं रोज अपने को गलाता-गलाता मर जाए।
यह आत्महत्या है और विचारणीय है। यह जैन धर्म की पूरी जीवन-दृष्टि की पराकाष्ठा है। जैन धर्म संभवतः सबसे ज्यादा जीवन-विरोधी धर्म है। तभी तो उसकी यह अंतिम निष्पत्ति है कि वह आत्महत्या को भी अंगीकार करता है। न केवल अंगीकार करता है, बल्कि उसको महान सम्मान देता है।
अभी-अभी कर्नाटक में बाहुबली की विशाल प्रतिमा पर लाखों रुपये खर्च करके दूध से प्रतिमा को स्नान कराया गया। संभवतः पृथ्वी पर सबसे बड़ी प्रतिमा है बाहुबली की। अपूर्व है कला की दृष्टि से। मगर यह जान कर तुम चकित होओगे कि यह प्रतिमा बाहुबली की बनी क्यों! यह बनी संलेखना के कारण। ‘संलेखना’ जैनियों का शब्द है आत्महत्या के लिए। बाहुबली ने ‘संलेखना’ करके, आमरण उपवास करके अपना शरीर त्याग कर दिया। इसलिए यह विशाल प्रतिमा खड़ी की गई सम्मान में। यह सम्मान इतना बड़ा दिया गया कि न तो महावीर की ऐसी कोई प्रतिमा है, न नेमिनाथ की कोई ऐसी प्रतिमा है, न ऋषभदेव की, जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर की कोई ऐसी प्रतिमा है।
और यह भी जान कर तुम हैरान होओगे कि जैन मानते हैं केवल चैबीस तीर्थंकर हुए, इसलिए उन चैबीस को छोड़ कर किसी और को भगवान नहीं कहते हैं। लेकिन वे सभी सहज मरे, संलेखना से नहीं मरे। मौत जब आई तब आई। बाहुबली अपने हाथ से मरे। इसलिए शास्त्रीय नहीं है बाहुबली को भगवान कहना, क्योंकि वे कोई तीर्थंकर नहीं हैं, न ही किसी शास्त्रों में उनके भगवान होने का उल्लेख है। लेकिन शोरगुल मचा कर, दुंदुभी पीट कर उनको भगवान बाहुबली कहना शुरू कर दिया गया। उनको भगवान कहने का कुल कारण इतना था कि उन्होंने अपने हाथ से जीवन का त्याग किया।
लेकिन यह जरा सोचने जैसा है। जो व्यक्ति जीवन से ऊब गया है, वही तो जीवन का त्याग करेगा। और ऊब कोई बड़ी ऊंची अवस्था नहीं। ऊब कोई आनंद नहीं। ऊब कोई जीवन का अनुभव नहीं। ऊब कोई जीवन का सौंदर्य नहीं। ऊब कोई जीवन के सहस्रदल का खिलना नहीं। ऊब तो सिर्फ इतना बताती है कि तुम गलत ढंग से जीए। तुम जीए नहीं, तुम जीवन से अपरिचित रह गए। और तुम इतने ऊब गए हो जीवन से कि अब तुम्हारी आशा मौत पर अटकी है, कि जीवन में तो कुछ नहीं पाया, शायद मौत में कुछ मिल जाए। आशा नहीं मरी, वासना नहीं मरी। चूंकि तुम जीवन ठीक से न जीए, सम्यक रूप से न जीए, इसलिए जीवन खाली का खाली गया, हाथ भरे नहीं जीवन की संपदा से, तो अब आशा कर रहे हो मृत्यु से। वही वासना, जो जीवन में अधूरी रह गई उसे मृत्यु में पूरा करना चाहते हो? जिसे जीवन में पूरा न कर सके उसे मृत्यु में क्या खाक पूरा करोगे! जीवन लंबा है, मृत्यु तो एक क्षण में घट जाएगी। जो इतने लंबे समय में भी न कर सके, वह एक क्षण में कैसे कर पाओगे?
मृत्यु तो उसी की सुंदर हो सकती है जिसका जीवन परम सुंदर रहा हो। मृत्यु तो जीवन की पराकाष्ठा है। वह तो अंतिम स्वर है बांसुरी का। लेकिन जिसने जीवन भर बांसुरी को साधा हो, जिसके स्वर सधे हों, बंधे हों सुर-ताल-लय में, जिसका छंद जगा हो, वही मौत को गाते हुए, नृत्य लेते हुए अंगीकार कर सकेगा। उसे मरने के लिए आयोजन करने की जरूरत नहीं। आयोजन तो वासना है। मौत आएगी तो अंगीकार..आनंद से, अहोभाव से, जैसा जीवन अंगीकार। उसके भीतर यह दुविधा नहीं, यह द्वैत नहीं।
इसलिए बाहुबली को दिया गया यह सारा सम्मान मृत्यु को दिया गया सम्मान है। लेकिन मृत्यु को सीधा सामने लाया नहीं जाता, उसे छिपाया जाता है। हम हर तरह से छिपाने की कोशिश करते हैं। जैन मुनि, जो नग्न रहते हैं, वे भी नग्न नहीं कहलाते, ‘दिगंबर’ कहलाते हैं। दिगंबर अर्थात आकाश जिनका वस्त्र है। और कोई नंगा रहे तो नंगा, और ये जो नंगे हैं, ये आकाश का वस्त्र पहने हुए हैं!
हम शब्दों की आड़ में क्या-क्या छिपाते हैं! आत्महत्या की आड़ में हम छिपाते हैं..त्याग, जीवन से मुक्ति।
लेकिन जो जीवन से मुक्त हो गया है, उसकी मृत्यु में भी कोई आकांक्षा न रह जाएगी। सुकरात कहीं ज्यादा सतेज, ज्यादा प्रखर, ज्यादा बोध से भरा हुआ व्यक्ति है। ये बाहुबली वगैरह, इनकी प्रतिमा कितनी ही बड़ी बनानी हो तो बना लो, मगर ये पत्थर की प्रतिमाएं कुछ और छिपाए बैठी हैं। ये प्रतिमाएं तुम्हारे मृत्यु के समादर को छिपाए बैठी हैं।
और वही समादर छिपा हुआ है इस सूत्र मेंः ‘जिसमें वृद्ध नहीं वह सभा नहीं।’
तो असली सभा तो वह होगी जहां सब मुर्दे बैठे हों। जहां भूत-प्रेत इकट्ठे हों, उसका तो कहना ही क्या! वह असली सत्संग, महा सत्संग! वह तो मरघट पर ही होगा। जिनकी एक टांग कब्र में चली गई, वे वृद्ध; जिनकी दोनों चली गईं, वे महा वृद्ध। जो कई दिनों से कब्र में हैं उनका तो कहना ही क्या! और उन्हीं की प्रशंसा है।
आगे सूत्र कहता हैः वृद्धाः न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
‘और जो धर्म को नहीं समझाते-बतलाते, वे वृद्ध नहीं हैं।’
अब धर्म को न तो समझाया जा सकता है और न बतलाया जा सकता है। जो धर्म को समझाते हैं और बतलाते हैं वे पंडित हैं, वृद्ध नहीं। मेरे अर्थों में वृद्ध नहीं। मेरे अर्थों में बुद्ध नहीं। मेरे अर्थों में तो बुद्ध ही केवल वृद्ध हैं। लेकिन बुद्ध धर्म को नहीं बतलाते, न समझाते; धर्म को जीते हैं। बुद्ध के पास बैठ कर धर्म संक्रामक होता है। जैसे बीमारी संक्रामक होती है वैसे ही स्वास्थ्य भी संक्रामक होता है। जैसे दुख संक्रामक होता है वैसे ही आनंद भी संक्रामक होता है। बतलाने का कोई सवाल नहीं।
वृद्धाः न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
अगर इसका हम सीधा-सीधा अर्थ करें सहजानंद, जो धर्म को नहीं बतलाते वे वृद्ध नहीं हैं, तब तो फिर लाओत्सु वृद्ध नहीं है, क्योंकि जिंदगी भर उसने इनकार किया कि धर्म के संबंध में जो भी कहा जाएगा वह गलत होगा। इसलिए और सब पूछो, धर्म के संबंध में मत पूछो। धर्म को समझना है तो चखो, पीयो। मेरे पास बैठो, उठो, जीओ। शायद लग जाए हवा।
धर्म तो हवा है, एक लहर है, एक तरंग है! शायद छू ले। शायद हृदय में गुदगुदी उठा जाए। शायद छू जाए। कोई तार हृदय का बज उठे। किसी अनहोने क्षण में, जिसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती, कब घट जाए कोई नहीं कह सकता। क्योंकि कब तालमेल बैठ जाए कोई नहीं कह सकता। किस सुबह! रात ठीक निद्रा आई हो, किस सुबह ताजे उठे होओ! किस सुबह चित्त प्रसन्न हो, मग्न हो, पक्षियों के गीतों से तरंगित हो, फूलों ने आंखों को रंग दिया हो, आकाश की ताजगी भीतर तक प्रवेश कर गई हो, कौन जाने किस दिन ऐसी घड़ी हो, सम्यक घड़ी हो और तालमेल बैठ जाए सत्संग में! क्योंकि ऐसा ही हृदय है उसका, जो बुद्ध है। जिस दिन तुम्हारे भीतर भी ऐसा क्षण भर को हृदय हो जाता है, उसी क्षण तालमेल बैठ जाता है, संगति बैठ जाती है, उसी क्षण बुद्ध की बांसुरी और तुम्हारे तबले में संगत पड़ जाती है। बांसुरी के साथ तबला बजने लगता है। और एक बार यह बज जाए, एक बार यह संगीत तुम्हारे भीतर गूंज जाए, तो फिर इसे भूलने का कोई उपाय नहीं।
मगर कोई नहीं कह सकता, कब यह होगा।
बुद्ध तो हर गांव में प्रवेश के पहले घोषणा करवा देते थे कि ये-ये ग्यारह प्रश्न हैं जो कोई मुझसे न पूछे। तो बुद्ध तो वृद्ध नहीं महाभारत के हिसाब से, क्योंकि उन ग्यारह प्रश्नों में वे सब प्रश्न आ जाते हैं जिनके उत्तर नहीं दिए जा सकते। धर्म भी आ जाता है, सत्य भी आ जाता है, निर्वाण भी आ जाता है। वे सारे महत्वपूर्ण प्रश्न आ जाते हैं जिनको तुम सोचते हो कि कोई उत्तर दे दे। बुद्ध घोषणा करवा देते थे कि ये ग्यारह प्रश्न कोई मुझसे न पूछे; इनको छोड़ कर जो पूछना हो पूछे। ये ग्यारह प्रश्न अव्याख्य हैं। ये तो मौन में ही सुने और गुने जा सकते हैं, इनके संबंध में कुछ कहा नहीं जा सकता।
तो मुझे अर्थ बदलना पड़ेगा। मैंने वृद्ध का अर्थ कियाः प्रौढ़। मैंने वृद्ध का अर्थ कियाः बुद्ध। तो फिर मुझे वदन्ति का अर्थ करना होगा..जिनके आस-पास, जिनकी हवा में धर्म है। वही धर्म को बोलने की भाषा है। भाषा नहीं, मौन उसे बोलने की भाषा है।
वृद्धाः न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
जिनकी हवा में धर्म न हो; जिनके उठने-बैठने में धर्म न हो; जिनकी आंखों की झलक में धर्म न हो; जिनके हाथों के इशारों में धर्म न हो; जिनके पास बैठ कर ही धर्म की मदिरा में तुम डूब न जाओ, मस्ती न छा जाए, पैर न लड़खड़ाने लगें..तो समझना कि धर्म नहीं है।
प्रेम शक्ति ने एक कविता प्रश्न के रूप में भेजी है, वह इस संदर्भ में उपयोगी होगी।
प्रेम शक्ति कहती है..
सबको मालूम है मैं शराबी नहीं
फिर भी कोई पिलाए तो मैं क्या करूं?
सिर्फ एक बार नजरों से नजरें मिलीं
हर कसम टूट जाए तो मैं क्या करूं?
मुझको मैकश समझते हैं सब बादाकश
क्योंकि उनकी तरह लड़खड़ाती हूं मैं
मेरी रग-रग में नशा मुहब्बत का है
जो समझ में न आए तो मैं क्या करूं?
हाल देख कर मेरा सहमे-सहमे हैं वो
कोई आया है जुल्फें बिखेरे हुए
मौत और जिंदगी दोनों हैरान हैं
दम निकलने न पाए तो मैं क्या करूं?
कैसी लत, कैसी चाहत, कहां की खताबेखुदी में है भगवन, खुदी का नशाजिंदगी एक नशे के सिवा कुछ नहीं उनको पीनी न आए तो मैं क्या करूं? सबको मालूम है मैं शराबी नहींफिर भी कोई पिलाए तो मैं क्या करूं? कभी इन मदभरी आंखों से पीया था एक जामआज तक होश नहीं, होश नहीं, होश नहींसिर्फ एक बार नजरों से नजरें मिलींहर कसम टूट जाए तो मैं क्या करूं?
सबको मालूम है मैं शराबी नहींफिर भी कोई पिलाए तो मैं क्या करूं? सिर्फ एक बार नजरों से नजरें मिलींहर कसम टूट जाए तो मैं क्या करूं? मुझको मैकश समझते हैं सब बादाकशक्योंकि उनकी तरह लड़खड़ाती हूं मैंमेरी रग-रग में नशा मुहब्बत का हैजो समझ में न आए तो मैं क्या करूं? हाल देख कर मेरा सहमे-सहमे हैं वोकोई आया है जुल्फें बिखेरे हुएमौत और जिंदगी दोनों हैरान हैंदम निकलने न पाए तो मैं क्या करूं? कैसी लत, कैसी चाहत, कहां की खताबेखुदी में है भगवन, खुदी का नशाजिंदगी एक नशे के सिवा कुछ नहींउनको पीनी न आए तो मैं क्या करूं? सबको मालूम है मैं शराबी नहींफिर भी कोई पिलाए तो मैं क्या करूं? कभी इन मदभरी आंखों से पीया था एक जामआज तक होश नहीं, होश नहीं, होश नहींसिर्फ एक बार नजरों से नजरें मिलींहर कसम टूट जाए तो मैं क्या करूं?
बुद्ध के पास, प्रबुद्ध चैतन्य के पास सब कसमें टूट ही जाने वाली हैं। क्योंकि कसमें दिलाई थीं अंधों ने, अंधेरे में जी रहे लोगों ने। और बुद्धों के पास आकर वे सारी कसमें टूट ही जाएंगी, टूट ही जाने वाली हैं। एक बार किसी बुद्ध से नजर से नजर मिली कि तुम्हारी पूरी जिंदगी बदली। फिर कुछ करना भी चाहो तो करने का कोई उपाय नहीं।
वही प्रेम शक्ति पूछ रही है। वह कहती हैः ‘हर पल मुझे लगता है आप मेरे करीब हैं। लगता है पागल हूं ही। ऐसी मस्ती छाई रहती है’..पूछ रही है..‘कि जीने का ढंग ही बदल गया है।’
एक है गैर-मस्त आदमी का जीवन..उदास, थका-मांदा, ऊबा हुआ, अपनी लाश को अपने ही कंधों पर ढोता हुआ, घिसट रहा है, भीड़ के धक्कम-धक्के में चला जा रहा है। सब चल रहे हैं, इसलिए चल रहा है। सब जिस तरफ चल रहे हैं, उसी तरफ चल रहा है। अपनी कोई सूझ नहीं, अपनी कोई बूझ नहीं। अपनी कोई दिशा नहीं, अपनी कोई राह नहीं। भीड़ के धक्के हैं। रुकना भी आसान नहीं। रुकने में कुचल जाने का डर है। राह बदलनी मुश्किल, क्योंकि भीड़ दुश्मन है। भीड़ कहती हैः साथ रहो। इंच भर यहां-वहां हटना मत।
भीड़ उसे सम्मान देती है जो भेड़ की तरह व्यवहार करता है, आदमी की तरह नहीं। भीड़ यानी भेड़ों की ही होती है। भीड़ में जो हैं वे भेड़ें हैं। और सभी के लिए सुविधापूर्ण यही है कि लोग भेड़ें रहें। तो राजनेता जहां धकेलना चाहें, हकेलना चाहें, वहां हकेलें-धकेलें। धर्मगुरु जो करना चाहें करें।
डिब्बा था रेल का
तूफान मेल का
डिब्बे में डाकू थे
डाकुओं के हाथों में बंदूकें, चाकू थे।
पचहत्तर यात्री थे
यात्रियों में एक थे खद्दर के कपड़ों में,
दिखते थे नालायक लेकिन विधायक थे
जब से चढ़े थे बोले ही जाते थे
वर्तमान सरकार को सर्वोत्तम बताते थे
डाकुओं को देख कर यात्री सब डर गए
विधायक नहीं डरे
सीट पर खड़े हुए
भयभीत यात्रियों को करके संबोधित
देने लगे भाषण..
‘डरे हुए भाइयो! भयभीत बहनो!
डाकुओं को देख कर आप मत डरिए
डिब्बे में आपके आए हैं अतिथि ये
अतिथि का यथोचित सम्मान करिए
बाल्मीकि डाकू थे
चोर थे कन्हैया जी
माखन चुराते थे
मटकियां फोड़ कर मुरली बजाते थे
भारत की महिमा है
पावन है परंपरा
कौन जाने इनमें भी हों कोई बाल्मीकि
हों कोई कृष्ण जी!
मैं वंदन करता हूं,
अपने इस डिब्बे में आप सबकी ओर से
अभिनंदन करता हूं।’
विधायक जी डाकुओं से हाथ जोड़ बोले कि..
‘आप लोग लूटिए।’
यात्रियों से बोले कि..
‘आप लोग लुटिए।’
डाकू लगे लूटने
सोने के आभूषण,
घड़ियां कलाई की,
जेबों के नोट सब,
डाकुओं के नेता के चरणों पर अर्पित थे
बलिहारी शासन की
दुःशासन के आगे पांडव समर्पित थे
रो पड़े यात्री, बिलखीं कुछ महिलाएं
विधायक ने चुप किया सबको, दे आश्वासन..
‘रोओ मत बंधुवर, बिलखो मत माताओ
पिछले स्टेशन पर थे जो पुलिसमैन
अगले पर आएंगे
किस-किस का क्या-क्या गया,
लिख कर ले जाएंगे।’
चुप हुए यात्री सुन कर यह आश्वासन
लोग सब गुमसुम थे
आहें भी भरते तो भीतर ही भीतर भरते थे
सांसें तक लेने में बेचारे डरते थे
सहसा विधायक चुप्पी को तोड़ कर
मुस्का कर कह उठा..
‘जंगल में रेल थी तथा जंगल में मंगल था
डाकू घुसे रेल में, अब मंगल में जंगल है
कैसा सन्नाटा है, कैसा शुभ लग्न है
अदभुत एकांत है
वातावरण शांत है
न कोई पुकार है, न कोई आवाज है
यही रामराज है।’
लूट-धन बटोर कर डाकू उतर पड़े
विधायक भी डाकुओं के साथ उतरने लगा
यात्रियों ने क्रोधित हो उसको पकड़ लिया
खद्दर के कपड़ों को कर दिया तार-तार
कुरते को खींचा तो
कुरते की जेब में छिपा था रिवाल्वर
कुरते के नीचे छिपा हुआ चाकू था
चीख पड़े यात्री सब
विधायक के वेश में वह भी एक डाकू था।
डिब्बा था रेल का
तूफान मेल का
डिब्बे में डाकू थे
डाकुओं के हाथों में बंदूकें, चाकू थे।
पचहत्तर यात्री थे
यात्रियों में एक थे खद्दर के कपड़ों में,
दिखते थे नालायक लेकिन विधायक थे
जब से चढ़े थे बोले ही जाते थे
वर्तमान सरकार को सर्वोत्तम बताते थे
डाकुओं को देख कर यात्री सब डर गए
विधायक नहीं डरे
सीट पर खड़े हुए
भयभीत यात्रियों को करके संबोधित
देने लगे भाषण..
‘डरे हुए भाइयो! भयभीत बहनो!
डाकुओं को देख कर आप मत डरिए
डिब्बे में आपके आए हैं अतिथि ये
अतिथि का यथोचित सम्मान करिए
बाल्मीकि डाकू थे
चोर थे कन्हैया जी
माखन चुराते थे
मटकियां फोड़ कर मुरली बजाते थे
भारत की महिमा है
पावन है परंपरा
कौन जाने इनमें भी हों कोई बाल्मीकि
हों कोई कृष्ण जी!
मैं वंदन करता हूं,
अपने इस डिब्बे में आप सबकी ओर से
अभिनंदन करता हूं।’
विधायक जी डाकुओं से हाथ जोड़ बोले कि..
‘आप लोग लूटिए।’
यात्रियों से बोले कि..
‘आप लोग लुटिए।’
डाकू लगे लूटने
सोने के आभूषण,
घड़ियां कलाई की,
जेबों के नोट सब,
डाकुओं के नेता के चरणों पर अर्पित थे
बलिहारी शासन की
दुःशासन के आगे पांडव समर्पित थे
रो पड़े यात्री, बिलखीं कुछ महिलाएं
विधायक ने चुप किया सबको, दे आश्वासन..
‘रोओ मत बंधुवर, बिलखो मत माताओ
पिछले स्टेशन पर थे जो पुलिसमैन
अगले पर आएंगे
किस-किस का क्या-क्या गया,
लिख कर ले जाएंगे।’
चुप हुए यात्री सुन कर यह आश्वासन
लोग सब गुमसुम थे
आहें भी भरते तो भीतर ही भीतर भरते थे
सांसें तक लेने में बेचारे डरते थे
सहसा विधायक चुप्पी को तोड़ कर
मुस्का कर कह उठा..
‘जंगल में रेल थी तथा जंगल में मंगल था
डाकू घुसे रेल में, अब मंगल में जंगल है
कैसा सन्नाटा है, कैसा शुभ लग्न है
अदभुत एकांत है
वातावरण शांत है
न कोई पुकार है, न कोई आवाज है
यही रामराज है।’
लूट-धन बटोर कर डाकू उतर पड़े
विधायक भी डाकुओं के साथ उतरने लगा
यात्रियों ने क्रोधित हो उसको पकड़ लिया
खद्दर के कपड़ों को कर दिया तार-तार
कुरते को खींचा तो
कुरते की जेब में छिपा था रिवाल्वर
कुरते के नीचे छिपा हुआ चाकू था
चीख पड़े यात्री सब
विधायक के वेश में वह भी एक डाकू था।
नेता यही चाहते हैं कि लोग भेड़ें रहें, तो ही उनको काटा जा सकता है। पंडित भी यही चाहते हैं कि लोग भेड़ें रहें, तो ही उनकी बलि चढ़ाई जा सकती है।
प्रेम शक्ति, तू पूछती हैः कि ऐसी मस्ती छाई रहती है कि जीने का ढंग ही बदल गया। घरवाले, सगे-संबंधी कहते हैं..यह संन्यास नहीं, ढोंग है और अजीब पागलपन है। उनका कहना है कि उनकी आशाएं, उनकी परंपराएं, इज्जत-शोहरत, सब मैंने चकनाचूर कर दी है। उनसे मेरी भाषा का तालमेल ही नहीं बैठता। रह-रह कर अंदर न जाने कहां से अनजाने आवाज उठती है..
सबको मालूम है मैं शराबी नहीं
फिर भी कोई पिलाए तो मैं क्या करूं?
सिर्फ एक बार नजरों से नजरें मिलीं
हर कसम टूट जाए तो मैं क्या करूं?
सबको मालूम है मैं शराबी नहींफिर भी कोई पिलाए तो मैं क्या करूं? सिर्फ एक बार नजरों से नजरें मिलींहर कसम टूट जाए तो मैं क्या करूं?
घरवालों को तो अड़चन होगी। उनकी आशाएं टूटीं। उनकी आशाएं क्या थीं? उनकी आशाओं से उनको क्या मिला है सिवाय निराशा के? उनकी आशाओं से उनके बाप-दादों को क्या मिला था सिवाय निराशा के?
उनकी सारी आशाएं निराशाओं में समाप्त होती हैं। उनकी आशाओं की सरिताएं हमेशा निराशाओं के मरुस्थल में खो जाती हैं। मगर फिर भी एक पागलपन है, एक अंधापन है। हर बाप, हर मां अपने बेटे को वही रोग दे जाते हैं, जिनमें वे सड़े, जिनमें वे गले, जिनमें वे मरे, जिनमें वे पचे, जिनमें उनकी जिंदगी बेकार गई। लेकिन फिर भी एक अहंकार है कि बच्चे हमारी सौगात को सम्हाल कर रखें।
इज्जत, जो कि कभी थी ही नहीं! किस इज्जत की बातें कर रहे हो? जिंदगी इतने गलत ढंग से जीए हो कि बेइज्जती के सिवाय तुम्हारी जिंदगी में और क्या है?
हां, यह हो सकता है कि भारत-रत्न की उपाधि मिली हो। यह हो सकता है कि गांव के मेयर चुने गए होओ। यह हो सकता है कि बड़े तुमने प्रमाण-पत्र जुटा लिए हों, सोने के तगमे मिले हों! मगर ये सब धोखे हैं। भीतर गड्ढे के गड्ढे हो, खाली के खाली हो। जैसे आए थे वैसे ही खाली विदा हो गए हो। ये सब कागज के प्रमाण-पत्र यहीं पड़े रह जाएंगे, इनका कोई मूल्य नहीं, दो कौड़ी भी मूल्य नहीं है।
लेकिन प्रेम शक्ति, उनको चोट तो लगेगी, उनकी आशाएं टूट गईं, उनकी परंपराएं टूट गईं। और परंपराओं में था क्या उनकी? किसने क्या पाया है परंपराओं से? सिर्फ गुलामी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। उनकी इज्जत, शोहरत, वह तो टूटेगी। वह तो मीरा भी नाची, प्रेम शक्ति, तो भी टूट गई थी। मीरा कहती हैः लोक-लाज खोई। मीरा के परिवार के लोगों ने जहर भेजा था कि यह तू पी ले और मर जा, क्योंकि तेरे कारण हमारी इज्जत, हमारी शोहरत पर धब्बा लगा जा रहा है।
और मजा यह है कि मीरा अगर उस घर में पैदा न होती तो उस घर का कोई नामलेवा भी न होता आज। कौन राणाजी को याद करता? ऐसे कई बुद्धू, कई राणाजी हो गए; करोड़ों हो चुके। किसको फिकर थी? यह मीरा के कारण उनका नाम रह गया है।
जरा सोचो तुम, बुद्ध अगर पैदा न होते तो बुद्ध के पिता शुद्धोधन का तुमने नाम भी सुना होता? ऐसे कई शुद्धोधन आए और गए, कौन फिकर करता है, कौन चिंता करता है! कोई बड़ा साम्राज्य भी न था शुद्धोधन का। एक तहसीलदार से ज्यादा हैसियत नहीं थी। अब कितने तहसीलदार हैं? एक छोटा सा गांव कपिलवस्तु, जिसमें अब कुछ खंडहर पड़े रह गए हैं, वही राजधानी थी। जरा सा विस्तार था। छोटी-मोटी जागीरदारी थी। ज्यादा बड़ी हो भी नहीं सकती थी। भारत की परंपरा खंडित होने की परंपरा है। बुद्ध के समय में भारत में दो हजार सम्राट थे। अब तुम सोच लो कि दो हजार सम्राट! भारत दो हजार राष्ट्रों में बंटा था। इनमें से किसका तुम्हें नाम याद है? एक शुद्धोधन को छोड़ कर बाकी एक हजार नौ सौ निन्यानबे सम्राटों का क्या हुआ?
मगर लोग पिटी-पिटाई लकीरों पर चलते हैं। जहां बार-बार गिरे हैं वहीं-वहीं गिरते हैं। नयी भूलें भी नहीं करते। भूलें भी पुरानी करते हैं। ऐसे दकियानूस हैं कि नयी भूल की ईजाद करने की भी क्षमता नहीं है।
तो प्रेम शक्ति, अड़चन तो आएगी। और उनसे तेरी भाषा का तालमेल भी टूट जाएगा। जिससे मेरी भाषा का तालमेल बैठा, उसका सारे लोगों की भाषा से तालमेल टूटा।
इसलिए मैं सहजानंद, उसको कहूंगा वृद्ध, उसको कहूंगा बुद्ध, जिसकी मौजूदगी में, जिससे आंख से आंख मिल जाए तो नशा छा जाए; जिसके हाथ में हाथ आ जाए तो जीवन में नयी पुलक आ जाए, जो कभी न थी पहले। हृदय एक नयी धड़कन ले ले, एक नया नृत्य ले ले। धर्म को जो समझाए नहीं, बताए नहीं, जीए; और जिसके पास धर्म जीवंत हो उठे। ऐसा मैं अर्थ करूंगा। अर्थ मेल खाता हो महाभारत से, न खाता हो। मुझे किसी महाभारत से क्या लेना-देना? मैं किन्हीं शास्त्रों के समर्थन के लिए यहां नहीं हूं! हां, अगर कोई शास्त्र मेरे समर्थन में हो, यह उस शास्त्र का सौभाग्य है।
नासो धर्मो यत्र न सत्यमस्ति।
‘जिसमें सत्य नहीं है वह धर्म नहीं है।’
अब यह भी कोई बात है? सत्य और धर्म पर्यायवाची हैं। अब जिसमें सत्य नहीं है वह धर्म नहीं है..इसको कहने की कोई जरूरत है? जो बोतल खाली है उसमें शराब नहीं है, यह भी कहना पड़ेगा? यह तो अंधा भी टटोलेगा तो पहचान लेगा कि बोतल खाली है; शराब तो दूर, इसमें पानी भी नहीं है। सत्य ही तो धर्म है!
लेकिन महाभारत यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि सत्य शास्त्रों में है और जो शास्त्रों में है वही धर्म है! वृद्ध शास्त्र दोहराते हैं, इसलिए वे जो कहते हैं वह सत्य है।
फिर तो बहुत सत्य हो जाएंगे, क्योंकि जैन वृद्ध कुछ और कहते हैं, बौद्ध वृद्ध कुछ और कहते हैं, हिंदू वृद्ध कुछ और कहते हैं, मुसलमान वृद्ध कुछ और कहते हैं, ईसाई वृद्ध और कुछ कहते हैं। फिर तो बहुत धर्म हो जाएंगे। फिर तो बहुत सत्य हो जाएंगे। और सत्य एक है और धर्म भी एक है। धर्म और सत्य पर्यायवाची हैं।
धर्म का अर्थ ही हैः जीवन का मूल आधार; जीवन जिससे धारण किया गया है। धर्म शब्द का भी यह अर्थ होता हैः जिस पर जीवन टिका है; जो जीवन की आधारशिला है; जिसने जीवन को धारण किया है; जिसके बिना जीवन नहीं है। वही तो सत्य है। वह दूसरा शब्द है, कहने भर का भेद है। सत्य और धर्म को दो समझना उपद्रव का कारण सिद्ध हुआ है। सत्य और धर्म एक हैं।
लेकिन तब अड़चन यह आती है कि जब भी कोई सत्य की उदघोषणा करेगा, तब पुराने शास्त्रों के विपरीत पड़ जाएगी। क्योंकि पुराने शास्त्र पिट गए, उनके शब्दों पर पंडितों ने इतने ज्यादा रंग मढ़ दिए, इतनी ज्यादा पर्तें चढ़ा दीं कि उनका मूल रूप कभी का खो चुका। जब भी कोई सत्य की उदघोषणा करेगा, तब तुम्हारे तथाकथित धर्म और धर्म-शास्त्र उसके विपरीत खड़े हो जाएंगे।
उस भेद को बताने के लिए यह भेद महाभारत कर रहा हैः ‘जिसमें सत्य नहीं है वह धर्म नहीं है।’
मैं तुमसे कहना चाहता हूंः सत्य ही धर्म है। लेकिन सत्य शास्त्रों में नहीं है और न धर्म शास्त्रों में है। सत्य होता है ध्यानस्थ, समाधिस्थ व्यक्ति की चेतना में। और जिसने समाधि को पा लिया, उसी ने धर्म को पाया है। मगर यह हमेशा बगावत है, हमेशा विद्रोह है। यह हमेशा सड़ी-गली लाशों के बीच में जीवंत का अवतरण है। यह अंधेरी रात में, अमावस की रात में अचानक सूरज का ऊगना है।
‘जिसमें छल मिला हुआ है वह सत्य नहीं है।’
क्या बकवास और फिजूल की बातें! इसको कहने की जरूरत है कि जिसमें छल मिला है वह सत्य नहीं है? मगर ये तरकीबें हैं। ये तरकीबें हैं यह बताने की कि हमारा सत्य ही सत्य है, औरों के सत्य में छल मिला हुआ है। यह दुकानदारी की भाषा है, यह व्यावसायिक भाषा है..कि असली घी यहीं बिकता है, बाकी सब घी नकली है।
जैन शास्त्र कहते हैं कि जैन शास्त्र ही सदशास्त्र हैं और बाकी सब शास्त्र असद; जैन गुरु ही सदगुरु हैं, बाकी सब गुरु कुगुरु; जैन धर्म ही सत्य धर्म है, बाकी सब धर्म कुधर्म हैं। और कुधर्म से बचना, क्योंकि उसमें छल है। जहां छल है वहां सत्य नहीं।
यही महाभारत भी कोशिश कर रहा है कि जिसमें छल मिला हो वहां सत्य नहीं है। हालांकि महाभारत पूरा का पूरा छल से भरा हुआ है। छल ही छल है। द्रोणाचार्य की इतनी प्रशंसा है महाभारत में, उनको महागुरु कहा है और इससे ज्यादा छल वाला आदमी खोजना कठिन है। इसने एकलव्य को इनकार कर दिया शिक्षा देने से, क्योंकि एकलव्य शूद्र है।
सत्य भी इसकी फिकर करता है कि कौन ब्राह्मण है, कौन शूद्र है? और द्रोण अगर इतने बड़े गुरु थे तो इनके पास इतनी भी आंखें नहीं थीं कि एकलव्य की संभावना को पहचान सकते? एकलव्य कहीं ज्यादा प्रामाणिक व्यक्ति सिद्ध हुआ। उसने दूर जंगल में जाकर एक प्रतिमा बना ली द्रोण की। मान लिया जिसको गुरु मान लिया। गुरु ने इनकार भी कर दिया तो भी उसने अपनी धारणा को नहीं तोड़ा। गुरु के इनकार ने भी उसके समर्पण को नहीं मिटाया। यह समर्पण है! गुरु ने ठुकराया तो भी उसने गुरु को नहीं ठुकराया। एक दफे जो कर दिया समर्पण तो कर दिया।
तो जंगल में मूर्ति बना कर ही धनुर्विद्या का अभ्यास शुरू कर दिया। और जल्दी ही खबरें आने लगीं कि उसकी धनुर्विद्या ऐसी प्रकीर्ण होती जा रही है कि द्रोणाचार्य जिन शिष्यों को तैयार कर रहे हैं..वे सब राजपुत्र थे..उन सबको मात कर देगा वह। अर्जुन पर बड़ी आशा थी, क्योंकि अर्जुन उनका श्रेष्ठतम धनुर्धर था। और जब यह भी खबर आई कि अर्जुन भी एकलव्य के सामने कुछ नहीं है, तो यह तथाकथित महान गुरु, यह महान ब्राह्मण, यह राजपुत्रों को धनुर्विद्या सिखाने वाला, महाभारत में जिसकी प्रशंसा ही प्रशंसा भरी है, यह दक्षिणा लेने पहुंच गया..उस शिष्य के पास, जिसको कभी इसने दीक्षा दी ही नहीं थी!
अब बेईमानी की भी कोई सीमा होती है! छल और पाखंड का भी कोई अंत है! जिसको दीक्षा नहीं दी उससे दक्षिणा लेने जाना, शर्म भी न आई!
मुझे एकलव्य मिल गया होता तो कहता, ‘थूक इस आदमी के मुंह पर! जी भर कर थूक! इसको पीकदानी समझ! यही इसकी दक्षिणा है। यह शूद्र है, तू ब्राह्मण है। इसकी छाया भी पड़ जाए तो स्नान कर!’
मगर एकलव्य की भी प्रशंसा करता है महाभारत। प्रशंसा का कारण यह है कि उसने दक्षिणा देने की तैयारी दिखलाई। और दक्षिणा में क्या मांगा द्रोणाचार्य ने? उसके दाएं हाथ का अंगूठा मांग लिया! और क्या छल होगा? यह अंगूठा इसलिए मांग लिया कि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। यह अंगूठा कट गया तो धनुर्विद्या खतम। फिर यह अर्जुन का प्रतियोगी न रह जाएगा। यह राजपुत्र को बचाने के लिए गरीब के बेटे की हत्या। जिससे धन मिल रहा है उसको बचाने के लिए, उसकी हत्या जिसके पास कुछ भी नहीं है और जिसने अपना सब देने की तैयारी दिखलाई। उसने तत्क्षण, देर की न अबेर की, सोच किया न विचार किया और अंगूठा काट कर दे दिया।
यह द्रोणाचार्य की प्रशंसा इसलिए कि उन्होंने शूद्र को इनकार किया। और एकलव्य की प्रशंसा इसलिए कि उसने इस पाखंडी और छली आदमी को अपना अंगूठा काट कर दे दिया। उपदेश यह है कि गुरु सदा ऐसा करेंगे और शिष्यों को सदा ऐसा करना चाहिए। ऐसे गुरुओं को भी अंगूठे काट कर दे देना चाहिए, गर्दन मांगें तो गर्दन दे देनी चाहिए, जो तुम्हें जूते से ठुकराने योग्य भी नहीं मानते। जूते से भी ठुकराएंगे तो उनका जूता भी गंदा हो जाएगा।
और फिर वक्त पर यही द्रोणाचार्य अर्जुन को भी धोखा दे गया। यह आदमी ही धोखेबाज था। यह खड़ा हुआ कौरवों के साथ, क्योंकि इसको दिखाई पड़ा कि पांडवों के जीतने की कोई संभावना नहीं। अरे जहां जीत, वहां समझदार आदमी होता है! तब यह भूल गया अर्जुन को भी। तब यह भूल गया पांडवों को भी। इनकी संभावना जीत की नहीं थी। ये तो दर-दर के भिखारी हो गए थे। इसकी प्रशंसा की गई है।
और भीष्म की प्रशंसा की गई है। भीष्म, जब कौरव और पांडव दोनों जुआ खेल रहे थे, भलीभांति परिचित थे कि शकुनी ने, कौरवों के मामा ने, झूठे पांसे बनाए हैं..चालबाजी से भरे हुए पांसे हैं। उनको किसी भी तरह फेंको, जीत निश्चित है। फिर भी चुप रहे। छल किसको कहते हैं और? सब हार गए पांडव। द्रौपदी को दांव पर लगाया, तब भी चुप रहे। तब भी इतना मुंह न खुल सका इस महा ज्ञानी का, महा वृद्ध का! यह परम ब्रह्मचारी का तब भी मुंह न खुला कि यह क्या अन्याय हो रहा है! और सारा शड्यंत्र पता है कि अब यह द्रौपदी भी जाएगी, क्योंकि वे पांसे तैयार किए हुए पांसे हैं। और द्रौपदी भी गई। और जब दुर्योधन उसके वस्त्र उतार कर नग्न करने लगा, तब भी भीष्म चुप रहे।
ये कमजोर, ये नपुंसक, इनकी प्रशंसाएं! ये कायर, इनकी इतनी प्रशंसा कि अंत में खुद कृष्ण अर्जुन को कहते हैं और युधिष्ठिर को कहते हैं कि मरते हुए भीष्म से ज्ञान ले लो, धर्म का थोड़ा संदेश ले लो, इनसे कुछ उपदेश ग्रहण कर लो। जैसे कि कोई ये बुद्ध हों! इनसे क्या उपदेश लेना है? और यह आदमी फिर भी कौरवों की तरफ से लड़ा।
ये जालसाजी से भरी हुई किताबें, ये शड्यंत्रों से भरे हुए शास्त्र, इनमें सत्य खोजने कहां जाते हो? इनसे बचो, सहजानंद। इसमें अगर कुछ बचाने योग्य सूत्र में है तो इतना कि वृद्ध का अर्थ प्रौढ़ करना, बुद्ध करना। और धर्म को बतलाने का अर्थ धर्म को जीना करना, क्योंकि वही उसके बतलाने का अर्थ है। धर्म और सत्य एक हैं, ऐसा जानना। और स्वभावतः, यह कुछ कहने की बात ही नहीं कि जहां छल है वहां सत्य नहीं है।
तुम तसल्ली न दो सिर्फ बैठे रहो
वक्त कुछ मेरे मरने का टल जाएगा।
क्या ये कम है मसीहा के होने ही से
मौत का भी इरादा बदल जाएगा।
तुम तसल्ली न दो सिर्फ बैठे रहो
वक्त कुछ मेरे मरने का टल जाएगा।
तुम तसल्ली न दो सिर्फ बैठे रहोवक्त कुछ मेरे मरने का टल जाएगा। क्या ये कम है मसीहा के होने ही सेमौत का भी इरादा बदल जाएगा। तुम तसल्ली न दो सिर्फ बैठे रहोवक्त कुछ मेरे मरने का टल जाएगा।
मसीहा की मौजूदगी काफी है। न तो कहने की कुछ बात है, न बतलाने की कोई बात है। जो बताने में और कहने में आ जाता है, वह बात कुछ बड़ी बात नहीं। जो बताने और कहने के पार छूट जाता है, वही बड़ी बात है। लेकिन वह मसीहा की मौजूदगी, वह किसी सदगुरु की मौजूदगी में ही हो सकता है।
शास्त्र तो मरे हुए हैं, मुर्दा हैं, कागज हैं, कागज पर फैली स्याही है। अर्थ तुम जो बिठाना चाहो, बिठा लेना। अर्थ तुम्हारे हैं। शास्त्र तुम्हारे हाथ में हैं, तुम्हारे गुलाम हैं। जैसी व्याख्या चाहो, कर लेना। लेकिन सदगुरु जब जिंदा होता है तब तुम्हारा गुलाम नहीं होता। तब तुम उसके शब्दों को बिगाड़ नहीं सकते। तब उसके साथ होना खड्ग की धार पर चलने जैसा है।
तुम तसल्ली न दो सिर्फ बैठे रहो
वक्त कुछ मेरे मरने का टल जाएगा।
क्या ये कम है मसीहा के होने ही से
मौत का भी इरादा बदल जाएगा।
रुख से पर्दा उठा दे जरा साकिया
बस अभी रंगे-महफिल बदल जाएगा।
जो कि बेहोश हैं आएंगे होश में
गिरने वाला जो है वो सम्हल जाएगा।
साकी सूफी प्रतीक है सदगुरु का..जिसके पास दिव्य आनंद की शराब लुटाई जाती है; जो भरता ही जाता है अपनी सुराही से तुम्हारे मदिरा-पात्र को।
रुख से पर्दा उठा दे जरा साकियाबस अभी रंगे-महफिल बदल जाएगा।
और जब जरूरत होती है, जब भी देखता है कि कोई शिष्य तैयार है, तो रुख से पर्दा उठाता है। लेकिन यह तैयारी के क्षण में ही हो सकता है। क्योंकि जब साकी रुख से पर्दा उठाएगा तो तुम सिवाय शून्य के और कुछ भी न पाओगे। और शून्य को झेलने की सामथ्र्य होनी चाहिए। अन्यथा घबड़ा जाओगे, भयभीत हो जाओगे, भाग खड़े होओगे।
रुख से पर्दा उठा दे जरा साकियाबस अभी रंगे-महफिल बदल जाएगा। जो कि बेहोश हैं आएंगे होश मेंगिरने वाला जो है वो सम्हल जाएगा। मेरी फरियाद से वो तड़प जाएंगेमेरे दिल को मलाल तो होगा मगर। क्या ये कम है कि वो बेनकाब आएंगेमरने वाले का अरमां निकल जाएगा। अपने पर्दे का रखना है गर कुछ भरमसामने आना-जाना मुनासिब नहीं। एक वहशी से ये छेड़ अच्छी नहींक्या करोगे अगर ये मचल जाएगा। फूल कुछ इस तरह तोड़ ऐ बागवांशाख हिलने न पाए न आवाज हो। वरना गुलशन में फिर न बहार आएगीदिल अगर हर कली का दहल जाएगा।
इसलिए सदगुरु को बहुत सम्हल-सम्हल कर कदम लेने पड़ते हैं शिष्य के साथ।
फूल कुछ इस तरह से तोड़ ऐ बागवांशाख
हिलने न पाए न आवाज हो।
वरना गुलशन में फिर न बहार आएगी।
दिल हर कली का दहल जाएगा।
तीर को यूं न खींचो कहा मान लो
तीर पैवस्त दिल में है सच जान लो।
तीर निकला तो दिल साथ में आएगा
दिल जो निकला तो दम भी निकल जाएगा।
तुम तसल्ली न दो सिर्फ बैठे रहो
वक्त कुछ मेरे मरने का टल जाएगा।
क्या ये कम है मसीहा के होने ही से
मौत का भी इरादा बदल जाएगा।
सदगुरु वृद्ध है, उसकी उम्र कुछ भी हो। और सदगुरु वह है जिसने शून्य को पहचाना है। यद्यपि अपना पर्दा वह केवल उसी के लिए उठा सकता है, जो शून्य को झेलने में समर्थ हो। वह उसी कली के सामने अपने को पूरा-पूरा प्रकट कर सकता है, जो कली टूटने को, फूटने को, फूल बनने को राजी हो। फूल बनने के पहले कली को कली की तरह तो मिटना ही होगा।
इसलिए सदगुरु मौत भी है और एक नये जीवन का प्रारंभ भी। वह सूली भी है और सिंहासन भी।
वीणा भारती ने पूछा है इस गीत में..वही जो मैं कह रहा था सहजानंद को।
पूछा हैः
उजाड़ दे मेरे दिल की दुनिया
सुकून को मेरे तबाह कर दे,
मगर मेरी इल्तिजा है तुझ
सेइधर भी अपनी निगाह कर दे।
सुहानी रातों की चांदनी में
कभी न तुम बेनकाब आना,
मैं दिल पे काबू तो कर सकूंगा
निगाह शायद गुनाह कर दे।
मगर मेरी इल्तिजा है तुझ
सेइधर भी अपनी निगाह कर दे।
ये पर्दादारी है या तमाशामुझी में रह कर मुझी से पर्दा!
तबाह करना है अगर मुझको
नकाब उठा और तबाह कर दे!
मगर मेरी इल्तिजा है तुझसे
इधर भी अपनी निगाह कर दे।
वीणा, कर रहा हूं निगाह। और तू किस भूल में पड़ी है? तू किस भ्रम में पड़ी है? तू पूछती हैः ‘उजाड़ दे मेरे दिल की दुनिया।’
उजाड़ ही चुका हूं। जरा मेरी तरफ देख..यह देखा उसने! और सुकून अब बचा कहां, वह तो कभी का तबाह कर चुका हूं।
उजाड़ दे मेरे दिल की दुनिया
सुकून को मेरे तबाह कर दे,
मगर मेरी इल्तिजा है तुझसे
इधर भी अपनी निगाह कर दे।
निगाह तेरी ही तरफ है।
निगाह उन सबकी तरफ है जो भी उजड़ने को तैयार हैं। निगाह बस उन्हीं की तरफ है!
सुहानी रातों की चांदनी मेंकभी न तुम बेनकाब आना।
अब तो बहुत देर हो गई।
मैं दिल पे काबू तो कर सकूंगा
निगाह शायद गुनाह कर दे।
गुनाह तो हो चुका।
मगर मेरी इल्तिजा है तुझसे
इधर भी अपनी निगाह कर दे।
ये पर्दादारी है या तमाशा
यह दोनों है। यह लुका-छिपी का खेल है। शिष्य और गुरु के बीच यह ख्याल समझ लेने जैसा है। यह भी एक लीला हैः छिपना, प्रकट होना, फिर-फिर छिप जाना, फिर प्रकट होना। यह जरूरी है। यूं ही धीरे-धीरे शिष्य पकता है। ये दिन और रात दोनों आवश्यक हैं। रात सब पर्दा पड़ जाता है, दिन सब पर्दा उठ जाता है। यह जरूरी है कि थोड़ी देर के लिए आंखों पर पर्दा पड़ जाए। क्योंकि जब आंखों पर पर्दा पड़ जाता है तो जितना काम तब तक हुआ है वह परिपक्व हो लेता है, मजबूत हो लेता है। और जब वह मजबूत हो गया तब फिर पर्दा उठ जाता है; फिर नया अंकुर, फिर नया बीज टूटता, फिर नयी शाखाएं, नये पल्लव, नयी कलियां! लेकिन फिर जरूरी है कि पर्दा पड़ जाए। क्योंकि जो भी बढ़ती होती है जीवन में उसके लिए दोनों जरूरी हैं..अंधेरा भी और सूरज भी।
इसीलिए जड़ें अंधेरे की तरफ जाती हैं, जमीन की गहराई में जाती हैं। वे पर्दों के बिना, अंधेरे के बिना बढ़ नहीं सकतीं। और वृक्ष की शाखाएं आकाश की तरफ उठती हैं..सूरज की तरफ, चांद-तारों की तरफ। रोशनी के बिना उनकी कोई गति नहीं। रोशनी ही उनका जीवन है। मगर वे जो फूल खिलेंगे ऊंची से ऊंची शाखा पर, उनका रस भी आता है गहरे से गहरे अंधेरे से। जीवन के इस विरोधाभास को समझना जरूरी है।
ये पर्दादारी है या तमाशा
‘या’ का सवाल नहीं, वीणा। यह दोनों है। सदगुरु को दोनों काम करने पड़ते हैं। उसे कुछ अंधेरा भी कि तुम्हारी जड़ें मजबूत हों; कुछ रोशनी भी कि तुम्हारे फूल भी खिलें। इसलिए सदगुरु का काम इस दुनिया में बहुत विरोधाभासी काम है।
कबीर ने कहा हैः सदगुरु यूं है जैसे कुम्हार। कुम्हार जब चाक पर अपने बर्तन को चढ़ाता है तो भीतर से एक हाथ से सहारा देता है और बाहर से दूसरे हाथ से चोटें करता है, थपकी मारता है। तभी आहिस्ता-आहिस्ता...। भीतर का सहारा और बाहर की चोट..ये विरोधाभासी बातें हैं। एक तरफ चोट, एक तरफ सहारा। इधर मारता है, इधर पुचकारता है। और यूं आहिस्ता-आहिस्ता एक सुंदर सुराही निर्मित हो जाती है..सुराही, जो शराब से भर सकती है! यूं इतने प्रेम से चोट भी करता है, उतने ही प्रेम से सम्हालता भी है, उतने ही प्रेम से अग्नि में भी डालता है, क्योंकि बिना अग्नि के परिपक्वता नहीं होगी।
तू ठीक पूछती है, प्रत्येक शिष्य को पूछने जैसा सवाल है..
ये पर्दादारी है या तमाशामुझी में रह कर मुझी से पर्दा! तबाह करना है अगर मुझकोनकाब उठा और तबाह कर दे!
तबाह तो करना है, तबाह करना शुरू भी कर दिया। मगर तबाह करने का भी एक सलीका होता है। आहिस्ता-आहिस्ता करना होता है। हौले-हौले करना होता है। एकदम से कर दो, मजा नहीं। क्यों? क्योंकि इधर तबाह भी करना है, उधर निर्माण भी करना है। अगर सिर्फ तबाह ही करना हो, तो एक क्षण की बात है। लेकिन अगर निर्माण भी करना हो, सृजन भी करना हो तो दोहरे काम हैं। तो थोड़ा तबाह, फिर थोड़ा सृजन, ताकि जो टूटता जाए वह बनता भी जाए; इधर टूटता जाए, उधर बनता जाए। ऐसे आहिस्ता-आहिस्ता एक दिन सब पुराना विदा हो जाता है और नये का आगमन हो जाता है।

दूसरा प्रश्नः परशुराम ने फरसा चला कर क्षत्रियों को मिटा डाला और तब खत्री पैदा हुए। इधर आपका फरसा और तेज छुरियां तो मुझ पर ऐसी चल रही हैं कि मैं मिटा जा रहा हूं, मरा जा रहा हूं, मैं डूबा जा रहा हूं और तिनके का सहारा भी नहीं। आपने बच कर भाग निकलने का उपाय भी छोड़ा नहीं। आपसे बच कर भाग निकलने का उपाय कुछ समझ में भी नहीं आता और न ही अभी मेरा कोई मरने-डूबने का इरादा और तैयारी ही है। अब तो आप ही उबारें। अब क्या होना है? आपके इरादे क्या हैं? आप चाहते क्या हो?
दीन दयाल खत्री! उन्होंने ‘पुनश्च’ करके भी लिखा है..
पुनश्चः कुछ दिन से यहीं हूं, जाने का मेरा मन नहीं। बस फिदा हूं आप पर। मजा आ रहा है। बेचैनी भी बहुत है।

परशुराम ने क्षत्रिय मिटा डाले, यह बड़े दुर्भाग्य की बात थी। इस देश के जीवन में इससे बड़ा दुर्भाग्य और कोई घटा नहीं। क्योंकि जिस देश में क्षत्रिय मर जाएं, उस देश की छाती ही समाप्त हो जाती है। जिस देश में क्षत्रिय मर जाएं, उस देश में बचता ही क्या है?
क्षत्रिय से मेरा संबंध कोई क्षत्रिय वर्ण से नहीं है। क्षत्रिय से मेरा संबंध है दुस्साहसियों से।
अब तुम पूछते होः ‘परशुराम ने फरसा चला कर क्षत्रियों को मिटा डाला और तब खत्री पैदा हुए। इधर आपका फरसा और तेज छुरियां तो मुझ पर ऐसी चल रही हैं कि मैं मिटा जा रहा हूं...।’
मुझे खत्रियों को मिटाना है, ताकि क्षत्रिय फिर पैदा हो सकें। और तो कोई उपाय नहीं। परशुराम जो गड़बड़ घोटाला कर गए हैं उसको पुनव्र्यवस्था देनी है। एक-एक खत्री को मिटाना है। खत्री भी कोई बात हुई! दीन दयाल, यहां से तो क्षत्रिय ही होकर जा सकोगे। और क्षत्रियों का रंग तो तुम देख ही रहे हो, ढंग भी देख ही रहे हो।
मगर खत्री है डरपोक। तुम्हारे दिल को तो बात रुच रही, पच रही। मगर खत्री बीच-बीच में कह रहा है कि अभी अपना मरने का इरादा और तैयारी नहीं है।
अब तुम्हारे इरादे और तैयारी से कहीं कुछ मरना होगा? तुम्हारे इरादे पर बात छोड़ दी मैंने तो तुम कभी न मरोगे, तुम खत्री ही रहोगे। अब बात तुम्हारे हाथ से सरकती जा रही है।
अब तुम कहते होः ‘आपसे बच कर भाग निकलने का उपाय भी नहीं। मैं मिटा जा रहा हूं, मरा जा रहा हूं, डूबा जा रहा हूं और तिनके का सहारा भी नहीं।’
मैं तिनके का सहारा भी नहीं देता। तिनकों के सहारे तो लोग पकड़े बैठे हुए हैं। तिनकों के सहारों से कुछ सहारा है? मैं तुम्हें नाव देना चाहता हूं। नाव भी कोई नकली नहीं। कोई कागज की नहीं, कोई शास्त्र की नहीं। मैं तुम्हें नाव देना चाहता हूं जो तुम्हें पार ले चले। बहुतेरे हैं घाट! मैं तुम्हें घाट देना चाहता हूं, नाव देना चाहता हूं।
खत्री होने से तो बचना पड़ेगा। खत्री तो डरपोक रहेगा, खत्री तो क्षत्रिय की लाश समझो। खत्री की खोल गिर जाए तो क्षत्रिय अभी प्रकट हो सकता है।
मेरा कुल काम यहां यही है कि समाज ने जो किया है तुम्हारे साथ, उसको अनकिया कर दूं। जो-जो वस्त्र तुम्हें उढ़ा दिए हैं, जो-जो नकल तुम पर चढ़ा दी है, उसको तुमसे छीन लूं। मरने जैसा ही लगेगा, लेकिन यही मृत्यु महाजीवन का प्रारंभ बनती है।
अब तुम कहते होः ‘अब तो आप ही उबारें!’
अगर मुझ पर छोड़ते हो तो पहले तो डुबाऊंगा, क्योंकि पहले तो खत्री को डुबाना पड़ेगा। जब देखूंगा खत्री बिल्कुल डूब गए, अब क्षत्रिय ही बचा, तब क्षत्रिय को बाहर निकालूंगा। इसकी तैयारी लगता है हो रही है, क्योंकि तुम कहते होः ‘कुछ दिन से यही हूं, जाने का मेरा मन नहीं। बस फिदा हूं आप पर।’
सो तीर तो लग गया। और तीर कभी मैं पूरा नहीं मारता; बस छिदा रह जाता है। निकाल सकते नहीं उसे, क्योंकि उसका दर्द बड़ा मीठा। और अंततः एक न एक दिन प्रार्थना करनी पड़ती है कि अब पूरा ही मार डालें, यह तीर को पूरा ही गुजर जाने दें!
यह जो थोड़ा सा अटका हुआ तीर है, यह दर्द भी दे रहा है, मीठा दर्द भी दे रहा है। धीरे-धीरे मिठास रास आने लगेगी और तब हिम्मत बढ़ेगी। और तब यह तीर को जब तुम्हीं प्रार्थना करोगे कि अब पूरा उतर जाने दें, तभी यह तीर पूरा उतरेगा। और वही बचने का उपाय है। वही उबरने का उपाय है।
और पूछते होः ‘अब क्या होना है? ’
अब यही होना है..तीर को पार होना है।
पूछते होः ‘आपके इरादे क्या हैं? ’
नेक नहीं हैं। मैं कोई अच्छी नीयत का आदमी नहीं। एक से एक खतरनाक इरादे हैं।
आसमां से उतारा गयाजिंदगी दे के मारा गया।
इश्क जिसने किया सोच लेवो तो बेमौत मारा गया। आसमां...
मेरी महफिल से वो क्या गए
साथ में दिल हमारा गया।
आ के रिंदों में शेखे-हरम
आज बेमौत मारा गया। आसमां...
मुझको साहिल का दे के फरेबमौत के घाट उतारा गया।
मौज से भी न जो मर सकाउसको नजरों से मारा गया।
आसमां से उतारा गयाजिंदगी दे के मारा गया
इश्क जिसने किया सोच लेवो तो बेमौत मारा गया।
आसमां से उतारा गयाजिंदगी दे के मारा गया। इश्क जिसने किया सोच लेवो तो बेमौत मारा गया। आसमां...
मेरी महफिल से वो क्या गएसाथ में दिल हमारा गया। आ के रिंदों में शेखे-हरमआज बेमौत मारा गया। आसमां...
मुझको साहिल का दे के फरेबमौत के घाट उतारा गया। मौज से भी न जो मर सकाउसको नजरों से मारा गया। आसमां से उतारा गयाजिंदगी दे के मारा गयाइश्क जिसने किया सोच लेवो तो बेमौत मारा गया।
अब तुम प्रेम में पड़ गए, दीन दयाल खत्री। और प्रेम इस जगत में बड़ी से बड़ी मौत है..मगर असली मौत! क्योंकि उसी मौत से जीवन अंकुरित होता है। उसी मौत से जीवन कुंदन बनता है।
मरीजे-मुहब्बत उन्हीं का फसाना
सुनाता रहा दम निकलते-निकलते
मगर जिक्र शामे-अलम जब कि आया
चरागे शहर बुझ गया जलते-जलते मरीजे-मुहब्बत...।
इरादा था तर्के-मुहब्बत का लेकिन
फरेबे-तबस्सुम में फिर आ गए हम
अभी खा के ठोकर संभलने न पाए
कि फिर खाई ठोकर संभलते-संभलते मरीजे मुहब्बत...।
उन्हें खत में लिखा था दिल मुज्तरिब है
जवाब उनका आया मुहब्बत न करते
तुम्हें दिल लगाने को किसने कहा था
बहल जाएगा दिल बहलते-बहलते मरीजे-मुहब्बत...।
मगर कोई वादा-खिलाफी की हद है
हिसाब अपने दिल में लगा के तो देखो
कयामत का दिन आ गया रफ्ता-रफ्ता
मुलाकात का दिन बदलते-बदलते
मरीजे-मुहब्बत उन्हीं का फसानासुनाता रहा दम निकलते-निकलते
मरीजे-मुहब्बत उन्हीं का फसानासुनाता रहा दम निकलते-निकलतेमगर जिक्र शामे-अलम जब कि आयाचरागे शहर बुझ गया जलते-जलते मरीजे-मुहब्बत...।
इरादा था तर्के-मुहब्बत का लेकिनफरेबे-तबस्सुम में फिर आ गए हमअभी खा के ठोकर संभलने न पाएकि फिर खाई ठोकर संभलते-संभलते मरीजे मुहब्बत...।
उन्हें खत में लिखा था दिल मुज्तरिब हैजवाब उनका आया मुहब्बत न करतेतुम्हें दिल लगाने को किसने कहा थाबहल जाएगा दिल बहलते-बहलते मरीजे-मुहब्बत...।
मगर कोई वादा-खिलाफी की हद हैहिसाब अपने दिल में लगा के तो देखोकयामत का दिन आ गया रफ्ता-रफ्तामुलाकात का दिन बदलते-बदलतेमरीजे-मुहब्बत उन्हीं का फसानासुनाता रहा दम निकलते-निकलते
अब मुझसे छुटकारा तो करीब-करीब, दीन दयाल, असंभव है। अब यह तुम्हारी मर्जी। मुलाकात का दिन चाहो तो टालते रहो कयामत के दिन तक। मेरी तरफ से तो निमंत्रण मैंने दे दिया। अब तुम्हारे ऊपर मामला है।
मगर कोई वादा-खिलाफी की हद है
हिसाब अपने दिल में लगा के तो देखो
कयामत का दिन आ गया रफ्ता-रफ्ता
मुलाकात का दिन बदलते-बदलते
मगर कोई वादा-खिलाफी की हद हैहिसाब अपने दिल में लगा के तो देखोकयामत का दिन आ गया रफ्ता-रफ्तामुलाकात का दिन बदलते-बदलते
मुझसे कोई यह न कह सकेगा कि मैंने मुलाकात का दिन बदला। मैं तो अभी तैयार हूं, इसी क्षण तैयार हूं। मगर तुम्हीं भीतर दहले हो, डरे हो। मगर यह स्वाभाविक है। तुम यहां नये-नये हो। खत्री और फिर नये-नये! तो जाने का मन भी नहीं। जाओगे भी तो मैं पीछा करूंगा। खत्रियों को तो मैं छोड़ता ही नहीं। खत्री एक बार यहां आया कि खतरे में पड़ा।
अब तुम कहते होः ‘बस फिदा हूं आप पर। मजा आ रहा है। बेचैनी भी बहुत है।’
कुछ तो कीमत चुकानी पड़ती है मजे की। बेचैनी भी आएगी मजे के साथ-साथ।
बैठे हैं तेरे मयखाने में इक जाम तो भर लें।
कुछ जिक्रे-खुदा कर लें कुछ जिक्रे-शराब कर लें।।
आ रही हैं हर सिम्त से यही आवाजें।
गुलशन में खिले हैं फूल महकार तो भर लें।।
हर रोज लुटा करती है यहां प्रेम की दौलत।
सर को कटा और दीदारे-खुदा कर लें।।
बैठे हैं तेरे मयखाने में इक जाम तो भर लें।
कुछ जिक्रे-खुदा कर लें कुछ जिक्रे-शराब कर लें।।
बैठे हैं तेरे मयखाने में इक जाम तो भर लें। कुछ जिक्रे-खुदा कर लें कुछ जिक्रे-शराब कर लें।। आ रही हैं हर सिम्त से यही आवाजें। गुलशन में खिले हैं फूल महकार तो भर लें।। हर रोज लुटा करती है यहां प्रेम की दौलत। सर को कटा और दीदारे-खुदा कर लें।। बैठे हैं तेरे मयखाने में इक जाम तो भर लें। कुछ जिक्रे-खुदा कर लें कुछ जिक्रे-शराब कर लें।।
इतनी तैयारी दिखाओ अब। अब यह गर्दन जो अब तक बचाए फिरे हो, यह सिर जो अब तक सम्हाले रहे हो, जो बोझिल होता गया है, भारी होता गया है, इसको कटाने की तैयारी कर लो। यह मस्तिष्क और मस्तिष्क में मची विचारों की भीड़ बेचैन ही रखेगी। यह सिर कट जाए तो सारी ऊर्जा हृदय को मिल जाए। और हृदय मंदिर है। और हृदय के मंदिर में जो विराजमान है वही परमात्मा है।

आज इतना ही।

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