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सोमवार, 26 नवंबर 2018

सहज समाधि भली-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन

जीवन-सूत्रः दर्पणवत, अव्याख्य, तथाता में जीना

दिनांक 29 जुलाई, 1974; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

कहीं एक मंदिर बन रहा था। तीन श्रमिक वहां धूप में बैठ कर पत्थर तोड़ रहे थे। एक राहगीर वहां से गुजर रहा था। बारी-बारी से उसने श्रमिकों से पूछाः ‘क्या कर रहे हो?’
एक से पूछा। वह बोलाः ‘पत्थर तोड़ रहा हूं।’ उसके कहने में बड़ी पीड़ा थी और स्वर भी भारी था।
दूसरे से पूछा। वह बोलाः ‘आजीविका कमा रहा हूं।’ वह दुखी तो नहीं था; लेकिन उसकी उदासी कम भारी नहीं थी।
अजनबी तब तीसरे श्रमिक के पास गया और उससे भी वही सवाल पूछा। वह व्यक्ति गीत गा रहा था, उसकी आंखों में चमक थी और वह आनंदमग्न था। गीत रोक कर उसने कहाः ‘मैं मंदिर बना रहा हूं।’ और फिर वह गीत गुनगुनाने लगा।
ओशो, जीवन और धर्म के संबंध में इशारे करने वाली अपनी इस प्रिय कहानी पर प्रकाश डालने की कृपा करें।


जीवन गीत भी हो सकता है, रुदन भी। क्योंकि जीवन अपने आप में कुछ भी नहीं है--कोरा कागज है। जो भी हम उस पर लिखते हैं, जीवन वही हो जाता है। जीवन हमारी लिखावट है। हमारी दृष्टि, देखने का ढंग, सोचने की प्रक्रिया जीवन के अर्थ को निर्धारित करती है।

जीवन में कोई अर्थ नहीं है; जो हम डालते हैं, वही अर्थ उससे निकल आता है। इसलिए हिंदुओं ने जीवन को ‘माया’ कहा है। इस शब्द को समझना--बड़ा कीमती है।
‘माया’ का अर्थ होता हैः जादू। जादूगर को तुमने देखा होगा; खाली टोकरी से कबूतर निकाल देता है! खाली टोकरी से सांप निकल आता है। लेकिन तुम भलीभांति जानते हो कि खाली टोकरी से कबूतर या सांप निकल नहीं सकता; पहले डाला होगा। जो डाला है, वही निकलता है। टोकरी खाली है नहीं; दिखाई पड़ती है। बस, उस दिखने में ही सारी कला है। जो डाला है, वह निकाल लिया जाता है।
हिंदुओं ने इस पूरे जीवन को, संसार को, माया कहा है। माया का अर्थ हैः इस जीवन में भी तुम जो डालते हो, वही निकल आता है। यह भी जादू का खेल है। और जादू के खेल में तो कोई और तुम्हें धोखा देता है, इस खेल में तो तुम अपने को ही धोखा देते हो।
जीवन का अपने आप में अगर कोई अर्थ होता, तब आदमी स्वतंत्र नहीं हो सकता था। तब आदमी होता परतंत्र; अर्थ से बंधा होता। जीवन में कोई भी अर्थ नहीं है--परम स्वतंत्रता है। तुम जो भी अर्थ निकालना चाहो, निकाल सकते हो। सब अर्थ तुम्हारी व्याख्याएं हैं।
नीत्शे का बहुत प्रसिद्ध वचन है कि ‘जगत में तथ्य कोई भी नहीं है; सभी व्याख्याएं हैं।’
फूल देख कर तुम कहते होः ‘सुंदर है’ यह तथ्य है या व्याख्या है? तुम कहते होः ‘फूल सुंदर है’; तुम्हारे पास ही कोई खड़ा है, उसे फूल दिखाई ही नहीं पड़ता है। सौंदर्य का उसे पता ही नहीं चलता। तुम जब फूल को सुंदर कहते हो, तब वह भी सुन लेता है--बहरे की भांति। और अगर कोई भी जमीन पर न हो, तो फूल सुंदर होगा या नहीं? कोई भी जमीन पर न हो तो फूल होगा, लेकिन न सुंदर होगा, न कुरूप होगा। ‘होना’ खाली रह जाएगा।
‘होना’ कोरा कागज है। अर्थ तुम लिखते हो। सब अर्थ तुम्हारे हस्ताक्षर हैं। इस बात को हमें ठीक से समझ लेना चाहिए; क्योंकि इस पर बहुत कुछ निर्भर है।
पश्चिम में आधुनिक युग के करीब-करीब सभी विचारक एक बात से बहुत पीड़ित हैं, और वह है कि ‘जीवन अर्थहीन, मीनिंगलेस मालूम होता है।’ और अगर खोज में लगते... और जितना ही तुम खोजते हो, उतना ही तुम पाते हो कि कोई अर्थ नहीं है।
खोजने वाला कभी जीवन में अर्थ नहीं पाएगा; अर्थ है नहीं वहां। अर्थ डालना पड़ता है--खोजना नहीं पड़ता। अगर तुम रोना चाहते हो, तो ऐसा अर्थ डालो कि जीवन उदासी बन जाए। अगर तुम हंसना चाहते हो, तो ऐसा अर्थ डालो कि जीवन हंसी बन जाए। और अगर तुम मुक्त होना चाहते हो, तो जीवन में अर्थ डालो ही मत; तुम अर्थहीनता से राजी हो जाओ।
वह चौथी बात इस कथा में नहीं है। कथा में चौथी बात आ ही नहीं सकती। तीन बातें इस कथा में हैं, उन्हें हम समझेंगे। चौथी इसमें नहीं है। चौथी कुछ ऐसी है कि कथा में डालना कठिन है।
तीन मजदूर हैं। धूप एक जैसी है; दोपहर एक जैसी है। तीनों ही पत्थर तोड़ते हैं; पत्थर तोड़ना भी एक जैसा है। लेकिन तीनों की दृष्टियां अलग-अलग हैं।
एक से पूछे जाने पर उसने उदासी और दुख से कहाः ‘पत्थर तोड़ रहा हूं।’ इसमें क्रोध भी रहा होगा। यह उदासी आक्रामक है। यह बड़े बे-मन से तोड़ रहा है। यह बड़ी मजबूरी में तोड़ रहा है। यह बड़ी गुलामी में तोड़ रहा है। तोड़ना पड़ रहा है, इससे बहुत पीड़ित है। यह एक जबरदस्ती है। जैसे कोई कारागृह में पत्थर तोड़ रहा हो।
पत्थर तोड़ने पड़ रहे हैं; तोड़ने की कोई आकांक्षा, कोई इच्छा, कोई रस नहीं है। इसलिए जिसने पूछा, उस पर यह क्रोधित भी हुआ। उसने कहाः ‘पत्थर तोड़ रहा हूं।’ शायद कहा हो कि दिखाई नहीं पड़ता? अंधे हो? साफ है कि पत्थर तोड़ रहा हूं। और क्या पूछने को है? ?
उदासी के दो ढंग हैं। एक उदासी का पाजिटिव, विधायक ढंग है, तब उदासी क्रोध बन जाती है। और एक उदासी का निगेटिव, पैसिव, निष्क्रिय ढंग है, तब उदासी केवल बोझिलता होती है--एक उपेक्षा, एक निष्क्रियता। तब उससे क्रोध नहीं निकलता, तब सिर्फ शिथिलता छा जाती है।
क्रोध उदासी का आक्रामक रूप है और उदासी क्रोध का अनाक्रमक रूप है। जो लोग हमला कर सकते हैं, वे क्रोध करते हैं; जो लोग हमला नहीं कर सकते हैं, वे रोते हैं, उदास होते हैं।
दूसरे मजदूर की उदासी अनाक्रमक है। उसने यह नहीं कहा कि पत्थर तोड़ रहा हूं; अंधे हो, दिखाई नहीं पड़ता? उसने कहाः ‘आजीविका कमा रहा हूं।’ मजबूरी में वह भी है। लेकिन मजबूरी जैसे किसी और ने नहीं थोपी है; अपने हाथ से चुनी है। कारागृह में वह भी है, लेकिन किसी ने धक्के देकर कारागृह में नहीं डाला है। खुद ही चला आया है। आजीविका तो कमानी ही होगी। रोटी-रोजी तो कमानी ही होगी। बच्चे हैं; पत्नी है। अपने हाथ से जो जाल खड़ा किया है, उसका कर्तव्य तो निभाना ही होगा।
पहला मजदूर पत्थर तोड़ रहा है। दूसरा मजदूर रोटी-रोजी कमा रहा है।
और तीसरे मजदूर ने अपने गीत की गुनगुनाहट को रोक कर कहाः ‘मंदिर बना रहा हूं।’ वह भी पत्थर तोड़ रहा है।
बाहर के तथ्य में कोई भेद नहीं है। रत्ती भर अंतर नहीं है। धूप एक सी है। पत्थर तोड़ने का श्रम एक सा है। तीनों का पसीना बह रहा है। लेकिन पहला आक्रामक रूप से उदास है, दुखी है। दूसरा अनाक्रमक रूप से दुखी है--उदास है।
तीसरा प्रफुल्लित है। वह पत्थर नहीं तोड़ रहा है, मंदिर बना रहा है। उसका कृत्य किसी विराट कृत्य से जुड़ा हुआ है। वह कोई छोटा काम नहीं कर रहा है। एक विराट मंदिर बन रहा है, उसका भागीदार है, उसका निर्माता है, उसका स्रष्टा है। उसके पत्थरों के बिना यह मंदिर बन न सकेगा। उसका हाथ इस मंदिर के बनने में है।
तीसरा प्रफुल्लित है, क्योंकि अपने से बड़ी किसी चीज से जुड़ा है। तीसरा खुश है, आनंदित है, क्योंकि कुछ सार्थक काम हो रहा है।
रोटी कमानी कोई बड़ी सार्थकता नहीं है। तुम जीवन में सौ में से निन्यानबे लोगों को उदास देख रहे हो; क्योंकि वे सब रोटी-रोजी कमा रहे हैं। जाते हैं दफ्तर, दुकान; काम करते हैं; कमाते हैं; वे तो रोटी-रोजी कमा रहे हैं।
रोटी-रोजी कमाने वाला चित्त बहुत प्रसन्न नहीं हो सकता है। भरना है पेट किसी तरह; चाहते थे कि अगर पेट न होता तो अच्छा था। राह देख रहे हैं कि मर जाएं तो छुटकारा मिले।
दो दुकानदार साझीदार थे। धंधा बुरा जा रहा था। और धंधा वस्तुतः कभी भी अच्छा नहीं जाता। क्योंकि आकांक्षाएं सदा ज्यादा हैं। सभी व्यवसाय पीछे छूट जाते हैं। कमाई सदा कम होती है--वासना से। धंधे सदा ही बुरे जाते हैं। कितना ही कमाओ, ‘पेट’ भरता नहीं है! पेट के भरने का कोई उपाय नहीं है।
तो दोनों रोना रो रहे थे कि धंधा बुरा जा रहा है। ग्राहक दिखाई नहीं पड़ते। और एक तो इतना उदास था कि उसने कहा, ‘इससे अच्छा था कि मैं पैदा ही नहीं होता। यह जिंदगी होती ही न, तो अच्छा था। बेहतर था, मैं पैदा ही न होता। किस दुर्भाग्य के क्षण में मैं पैदा हुआ!’
दूसरे आदमी ने कहाः ‘छोड़ो भी, नो बडि हैज दैट काइंड ऑफ लक। ऐसा सौभाग्य बहुत कम लोगों का होता है कि वे पैदा ही न हों। यह होता ही किसका है? यह बात ही नहीं उठाओ। इतना भाग्यशाली कौन है--कि पैदा ही न हो! यह तो बड़े सौभाग्य की घटना है।’
पैदा होगा; दुर्भाग्य शुरू हो गया। पेट भरना ही होगा। रोटी-रोजी कमानी ही होगी। काम करना ही होगा।
चित्त उदास होता है, क्योंकि तुम जो कर रहे हो, वह इतना छोटा मालूम पड़ता है। और कर-कर के भी उससे कोई अर्थ, कोई निष्पत्ति को निकलती नहीं, कोई सार तो निकलता नहीं।
रोज उठोगे, दफ्तर जाओगे, लौट आओगे। रोज फिर उठोगे, फिर दफ्तर जाओगे, फिर लौट आओगे। जीवन एक बंधी हुई लीक हो जाता है। जैसे मालगाड़ी के डब्बे शंटिंग करते रहते हैं--अर्थहीन; ऐसा ही जीवन है। दुकान-बाजार, घर-बाजार; शंटिंग होती रहती है। एक दिन तुम मर जाते हो; कहीं कोई मंजिल उपलब्ध नहीं होती!
तीसरे मजदूर ने कहाः ‘मंदिर बना रहा हूं।’ इसके कृत्य में एक सार्थकता है। वह तो मिट जाएगा, लेकिन मंदिर रहेगा। वह तो नहीं रहेगा, लेकिन उसका कृत्य बचेगा। समय की धारा में यह तो खो जाएगा, लेकिन वह कुछ बना जा रहा है, जो बड़ा स्थायी है; हजारों लोग पूजा करेंगे।
जिन लोगों के जीवन में भी तुम्हें प्रफुल्लता दिखाई पड़ती हो, तुम फौरन समझ जाना कि वे कोई मंदिर बना रहे हैं। चाहे वह मंदिर सच हो कि झूठ, यह सवाल नहीं है। कौन सा मंदिर सच है।
लेकिन जिस आदमी को भी तुम प्रसन्न देखो, प्रफुल्ल देखो, समझ लेना कि वह कोई मंदिर बना रहा है। वह किसी ऐसे कृत्य में लगा है, जो उससे बड़ा है। राष्ट्र की सेवा कर रहा है, कि समाजवाद ला रहा है, कि स्वतंत्रता का अभियान चला रहा है, कि शहीद होने की तैयारी किए बैठा है, कि गरीबी मिटा कर रहेगा। तुम पाओगे कि उसकी आंखों में एक चमक है, एक प्रफुल्लता है।
भगतसिंह सूली पर भी इतने प्रसन्न हैं, जितने तुम दुकान पर नहीं हो। और वैज्ञानिक कहते हैं कि शहीदों का वजन बढ़ जाता है--सूली के वक्त, जो कि बड़ी अदभुत घटना है। भगतसिंह का भी एक पौंड वजन बढ़ गया। एक दिन पहले वजन और है। सूली के ठीक घड़ी भर पहले वजन और हो गया। सूली पर वे इतने प्रफुल्लित हो गए कि एक पौंड वजन बढ़ गया। कुछ खाया-पिया नहीं है अभी। पानी भी नहीं पीया है। वजन बढ़ने का कोई भौतिक आधार नहीं है। लेकिन जब कोई बहुत प्रफुल्लित होता है, तो जैसे चारों तरफ जो ऊर्जा से भरा हुआ विराट आकाश है, उससे ‘कुछ’ उसे मिल जाता है। वह भूखा भी प्रफुल्लित होता है।
जब तुम उदास होते हो, तब तुम भोजन भी करते हो, लेकिन वजन बढ़ता। लोग कहते हैं कि क्रोधी, दुखी क्षीण होता जाता है। खाए-पीए, सुख-सुविधा हो, कुछ फल नहीं होता। वजन गिरता जाता है।
तुमने शायद देखा हो--छोटे बच्चों को दिखाई पड़ता है, बड़े लोग उसको इनकार कर देते हैं... । छोटे बच्चों को--कभी-कभी तुम्हें भी--जब तुम खुले आकाश में शांत बैठे हो, तो तुम्हें प्रकाश के छोटे-छोटे बिंदु आकाश में तैरते हुए दिखाई पड़ते हैं। आंख को नीचे लाओ तो नीचे आते हैं, आंख ऊपर ले जाओ तो ऊपर जाते हैं। छोटे बच्चों को बहुत दिखाई पड़ते हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि वह प्राण ऊर्जा है। उसी तत्व को हिंदुओं ने प्राण कहा है। वह चारों तरफ व्याप्त है। और जब कोई व्यक्ति बहुत प्रफुल्लित होता है, तो वे जो छोटे-छोटे प्रकाश-बिंदु चारों तरफ हैं, वे उसके शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं। उसका वजन बढ़ जाता है। या जब कोई व्यक्ति बहुत उदास होता है, तो उसके भीतर संगृहीत प्रकाश के बिंदु-ऊर्जा के कण आकाश में निकल जाते हैं। वह क्षीण हो जाता है। उसका वजन कम हो जाता है।
भगतसिंह सूली पर चढ़ कर इतने खुश हैं, तुम दुकान पर चढ़ कर इतने खुश नहीं। दुकान तुम्हारी सूली से बदतर मालूम होती है। जीसस सूली पर दुखी नहीं हैं। तुम शैया पर भी दुखी हो। बात क्या है?
जीसस एक विराट मंदिर को बना रहे हैं। एक बड़ी अर्थपूर्ण घटना चारों तरफ घट रही है। उनके हाथ से कोई कृत्य हो रहा है जो मूल्यवान है और उसका मूल्य जीसस से ज्यादा है। भगतसिंह कोई आजादी का सपना पूरा कर रहा है। खुद मिट जाएगा इसकी चिंता नहीं। उससे बड़ा कुछ रहेगा, कुछ घटेगा। वह निमित्त बन रहा है, विराट के एक आयोजन का।
जब भी कोई व्यक्ति अपने से बड़े से संयुक्त होता है, तभी प्रफुल्लित हो जाता है। अक्सर तुमने देखा होगा कि भीड़ में लोग प्रफुल्लित हो जाते हैं। एक भीड़ चली जा रही है। हिंदू-मुस्लिम दंगा है। तुम पाओगे हिंदू भी प्रफुल्लित हैं, मुसलमान भी प्रफुल्लित हैं। ये कभी प्रफुल्लित नहीं थे। ये वही साधारण जन हैं जो रोज दफ्तर और दुकान जाते थे और आज इनकी आंखों में एक चमक है, पैरों में एक गति है। रोज ये घसीटते से चलते थे और आज ये दौड़े जा रहे हैं। आज ये छोटे नहीं हैं, बड़ी भीड़ का हिस्सा हो गए हैं। हिंदू धर्म, इस्लाम--कोई बड़ा लक्ष्य इनको पकड़ लिया है। इसी कारण दुनिया में बहुत उपद्रव घटित होता है।
हिटलर ने जर्मनी को प्रसन्न कर दिया। क्योंकि उसने एक सपना दिया, एक आदर्श दिया, एक भविष्य की कल्पना दी। और लोग उस कल्पना से इतने आनंदित हो गए--सपने इतने साकार हो गए, कि मंदिर बनने लगा। लोग तैयार हो गए--कोई भी कृत्य करने को, कोई भी पाप करने को।
हिटलर का सम्मोहन क्या है? हिटलर का सम्मोहन यही है कि तुम अपनी क्षुद्रता में बंद थे; तुम्हारे काम में कोई अर्थ न था; उसने तुम्हारे जीवन को अर्थ दे दिया। तुम गुनगुनाने लगे।
जब भी जीवन में कोई अर्थ की झलक तुम्हें मिलेगी, गुनगुनाहट आ जाएगी, गीत आ जाएगा। जिसको भी तुम प्रसन्न देखो, समझना कि वह ‘मंदिर’ बना रहा है।
वह तीसरा व्यक्ति गीत गा रहा था। उत्तर देने के लिए रुका, उसने कहाः ‘देखते हो, मंदिर बना रहा हूं।’ तब पसीना, पसीना नहीं है। तब धूप, धूप नहीं है। तब पत्थर का तोड़ना कोई श्रम नहीं है; पूजा हो गई--प्रार्थना हो गई--एक बड़ा मंदिर बन रहा है। ‘मैं क्षुद्र भी सार्थक हुआ जा रहा हूं।’
तुम अपनी क्षुद्रता को जब भी किसी विराटता से जोड़ लेते हो, तभी तुम सार्थक मालूम पड़ने लगते हो। जब तुम अकेले हो, तब बिल्कुल क्षुद्र हो; जब तुम किसी चीज से भी जुड़ जाते हो, तभी तुम प्रसन्न हो जाते हो।
आज का आदमी उतना प्रसन्न नहीं है, जितना अतीत में था। क्योंकि अतीत के आदमी ने बहुत मंदिर बनाए। आज का आदमी मंदिर बनाता ही नहीं। हालांकि बहुत बड़े मकान बनाता है--आकाश छूने वाले। मंदिर फीके पड़ जाते हैं; लेकिन फिर भी वे मकान--मंदिर नहीं। सौ-सौ मंजिल के मकान हैं--गगनचुंबी, जिनके नीचे बदलियां छूट जाती हैं। कोई मंदिर इतना ऊंचा नहीं है। लेकिन फिर भी ये ‘मकान’ हैं। ये तुम ही रहने के लिए बना रहे हो, तुमसे विराट के लिए इनमें निमंत्रण नहीं है।
छोटे-छोटे मकान जो मंदिर थे, मकान भी नहीं थे--कहीं झाड़ के नीचे, पत्थर जोड़ कर छोटा सा मंदिर बना लिया था, छोटा सा शिवालय बना लिया था। ये मूर्ति भी न थे, पत्थर थे। पत्थर रंग कर हनुमान की या शिव की मूर्ति बना ली थी। और उस मूर्ति से भी आदमी प्रफुल्लित था।
अतीत के लोग प्रसन्न थे, प्रफुल्लित थे, क्योंकि परमात्मा बहुत निकट मालूम होता था। सच या झूठ--यह सवाल नहीं था। जीवन की व्याख्या सुंदर थी। जो भी कर रहे थे, वह करना ऐसे ही शून्य में नहीं खो रहा था। उसकी कोई निष्पत्ति थी, उसका कोई तार्किक अंत था।
जब कभी तुम प्रेम में होते हो, तो तुम्हें थोड़ी सी झलक मिलती है। एक युवक आज प्रेम में पड़ जाता है, उसकी कल की और आज की चाल में फर्क होता है। कल चलता था, जैसे पैरों में पत्थर बंधे थे। आज चलता है, जैसे पैरों में पंख लग गए। कल भी कपड़े बदलता था, आज भी कपड़े बदले हैं। लेकिन आज कपड़े की बात ही और है। कल भी हाथ-मुंह धोया था, आज भी धोया है। लेकिन आज की बात ही और है। आज किसी के लिए तैयार हो रहा है, कोई युवती उसकी प्रतीक्षा कर रही है।
अपनी क्षुद्रता से बाहर एक और नये व्यक्ति से संबंध जुड़ गया है। कोई आंखें उसे सुंदर देखना चाहेंगी। उन आंखों में अर्थ मिलेगा। कल तक अपनी शक्ल खुद ही देखते थे; कोई ज्यादा अर्थ नहीं था। आज कोई और भी प्रशंसा करेगा। आज कोई और भी आह्लादित होगा। तुम बड़े हो गए।
तो थोड़ा सोचोः जब एक व्यक्ति प्रेम में पड़ता है, तब कितना प्रसन्न हो जाता है, तो जो व्यक्ति प्रार्थना में पड़ जाता होगा, उसकी प्रसन्नता कितनी बड़ी होगी! क्योंकि प्रेम तो दो व्यक्तियों का संबंध है। प्रार्थना तुम्हारे और पूरे अस्तित्व के संबंध का नाम है।
यह तीसरा मजदूर निश्चित आनंदित था, प्रसन्न था; मंदिर बना रहा था। वह जो परमप्रिय है, उसका मंदिर बना रहा था। यह कोई पत्थर तोड़ना न था, यह सेवा थी। यह धूप में गिरता हुआ पसीना--यह पूजा थी। यह त्याग कर रहा था। प्रसन्न था।
लेकिन ये तीन अवस्थाएं हैं। एक चौथी और अवस्था है, जब व्यक्ति शांत होता है--न तो दुखी होता है, न उदास होता है, न सुखी होता है; जब सब शांत होता है।
तुम सोचो कि इन तीन के पास बुद्ध भी पत्थर तोड़ रहे हैं। एक चौथा मजदूर--गौतम बुद्ध भी पत्थर तोड़ रहा है। और इस कहानी के नायक ने उससे भी पूछा होता। तो बुद्ध क्या कहते? बुद्ध चुप ही रहते। बुद्ध गीत नहीं गुनगुनाते। क्योंकि अगर उदासी व्याख्या है, तो प्रसन्नता भी व्याख्या है। अगर तुम उदास हो तो अपने कारण, अगर प्रसन्न हो तो अपने कारण। अगर उदासी भ्रांति है, तो प्रसन्नता भी भ्रांति है।
बुद्ध कोई अर्थ नहीं डालते जीवन जैसा है, उसे वैसा ही देख लेते हैं--कोरा। उसमें कुछ भी नहीं जोड़ते। उस कोरे जीवन से राजी हैं। इस कोरे जीवन से न तो उदासी आती है; क्योंकि उदासी उदासी भी तुम जोड़ो तो आती है; न उससे प्रसन्नता आती है, क्योंकि प्रसन्नता भी तुम जोड़ो तो आती है।
बुद्ध न तो पत्थर तोड़ते, न बुद्ध रोटी-रोजी कमाते, न बुद्ध मंदिर बनाते। बुद्ध कुछ भी जोड़ते नहीं; जैसा है, जो है, उसी को बुद्ध सत्य कहते हैं। वे उससे राजी हैं। इस राजीपन से एक शांति घटित होती है।
उदासी एक बेचैनी है, प्रसन्नता भी एक बेचैनी है। इसीलिए तुम ज्यादा दिन उदास रहोगे, तब भी थक जाओगे। और ज्यादा दिन प्रसन्न रहोगे, तो भी थक जाओगे।
कभी तुमने बहुत देर हंस कर देखा है? तब तुम्हें थकान आने लगती है। तब तुम चाहते हो कि अब छुटकारा मिले। अब और हंसना न पड़े। तब ओंठ थक जाते हैं। मुंह खिंचा हो जाता है, तनाव हो जाता है।
ज्यादा देर हंस कर हंसी भी व्यर्थ हो जाती है। कितनी देर गीत गुनगुनाओगे? गुनगुनाना भी थका देता है। आखिर गुनगुनाहट भी उदास हो जाती है; उस पर भी धूल जम जाती है। गीत भी सब फीके हो जाते हैं। जितना दुहराओगे, उतने ही मुर्दा हो जाते हैं। प्रेम भी बासा हो जाता है। प्रार्थना भी पुनरुक्ति हो जाती है।
पहले दिन जब तुम मंदिर गए थे तब पैरों की जो चाल थी, वह रोज-रोज नहीं रहेगी। धीरे-धीरे मंदिर भी रूटीन, रोज के क्रिया-कर्म का हिस्सा हो जाएगा।
पहले दिन तुम प्रेम में पड़े थे, तब तुम्हारी चाल में जो पंख लगे थे, वे रोज-रोज नहीं लगेंगे। थोड़े दिन में वह स्त्री दिखाई पड़नी बंद हो जाएगी। थोड़े दिन में तुम आदी हो जाओगे। थोड़े दिन में चिंता छोड़ दोगे कि वह क्या सोचती है, क्या नहीं सोचती। थोड़े दिन में तुम भूल ही जाओगे; वह पास बैठी रहेगी और तुम अकेले रहोगे--तुम अपने भीतर बंद, वह अपने भीतर बंद। कुछ वर्षों बाद शायद तुम एक दूसरे को देखे भी न पाओगे। देखना भी बंद हो जाएगा। आंखें बिल्कुल धूल से ढंक जाएंगी। तब पैरों की गति, वह पंख, वह गुनगुनाहट--सब बंद हो जाएगी।
चौथा भी एक मजदूर है, जो दिखाई नहीं पड़ता--इस कहानी में। क्योंकि चौथे मजदूर का दिखाई पड़ना बहुत कठिन है। वह जीता है--और जीवन की निरर्थकता को स्वीकार करके जीता है; उसमें कोई अर्थ नहीं डालता। अर्थ डाला कि माया शुरू हुई।
तीन संसारी के ढंग हैं, वह चौथा गैर-संसारी का ढंग है; वह संन्यासी का ढंग है। तो तुम यह मत सोचना कि तीसरा संन्यासी है; तीसरा भी संसारी है। और अगर होना हो संसारी, तीसरे के ढंग के होना। क्योंकि जब चुनना ही हो, तो गुनगुनाना ही चुनना, उदासी क्या चुननी! जब मानना ही हो कुछ झूठ, तो गीत का मानना; आंसुओं का क्यों मानना!
इस कहानी में तीनों ही संसारी हैं। लेकिन एक चौथा व्यक्ति भी है, जो संसारी नहीं है--जो कहता ही नहीं है कि जीवन में कोई अर्थ है। जो पूछता भी नहीं है कि जीवन का कोई प्रयोजन है; जो स्वीकार कर लेता है। फूल को देखता है, लेकिन नहीं कहता है कि सुंदर है, नहीं कहता है कि कुरूप है। सुंदर स्त्री गुजरती हैः न कहता है--सुंदर है, न कहता है--कुरूप है। देखता है और कोरे कागज को कोरा ही रह जाने देता है; उस पर कुछ भी लिखता नहीं है। उसकी कोई व्याख्या नहीं करता है। वह निर्व्याख्य जीता है। तथ्य को तथ्य ही रहने देता है; उसमें कुछ भी जोड़ता नहीं है। वह कुछ भी बदलने को राजी नहीं है। वह कहता हैः ‘जो जैसा है--है। और मैं उससे राजी हूं।’ इस राजीपन का नाम तथाता है। लेकिन ऐसे आदमी को न तुम उदास पाओगे, न गीत गुनगुनाते पाओगे।
बुद्ध को किसी ने उदास नहीं देखा। बुद्ध को किसी ने गीत गुनगुनाते भी नहीं देखा। बुद्ध न तो प्रसन्न हैं और न दुखी हैं, क्योंकि ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
और ध्यान रहे; जो हंसेगा, उसे कभी उदास भी होना पड़ेगा। जो उदास है, वह कभी न कभी हंसेगा भी। क्योंकि एक ही स्वाद ज्यादा दिन तक नहीं खींचा जा सकता; स्वाद बदलना पड़ता है। और जीवन में सब चीजें बदलती हैं; कोई भी स्थिर नहीं हैं।
यह कहानी तो इतने में ही पूरी हो जाती है, लेकिन अगर तुम जिंदगी में पकड़ो, तो जिसको तुमने गुनगुनाते पाया था--मंदिर के बाहर क्योंकि वह मंदिर बना रहा था। अगर तुम इसका पीछा करो तो तुम जल्दी ही इसे रोते हुए भी पाओगे। कहीं न कहीं यह तुम्हें उदास भी मिल जाएगा। क्योंकि मंदिर कितनी देर बनाओगे? चौबीस घंटे मंदिर नहीं बनाए जा सकते।
शहीदों की जिंदगी में भी उदासी के क्षण हैं। त्यागियों की जिंदगी में भी भोग के क्षण हैं; विपरीत प्रवेश कर जाता है। जो प्रार्थना करता है, वह भी वासना से भरता है। जो रोज-रोज मंदिर जाता है, अगर उसे मंदिर जाना जारी ही रखना हो, तो कभी उसे वेश्यालय के दरवाजे पर भी जाकर दस्तक देनी पड़ती है! तब मंदिर में फिर रस आ जाता है।
पश्चिम में मनोवैज्ञानिक सुझाव दे रहे हैं कि जो पति अपनी पत्नी में रस जारी रखना चाहते हों, उन्हें कभी-कभी दूसरी स्त्रियों से भी प्रेम कर लेना चाहिए। तो पत्नी फिर से सार्थक हो जाएगी। इसलिए पत्नियां बदलने का आंदोलन पश्चिम में चलता है। मित्र अपनी पत्नियां बदल लेते हैं--एक दो दिन के लिए--सप्ताह दो सप्ताह के लिए। और जिन लोगों ने ऐसे प्रयोग किए हैं, वे कहते हैं कि इससे एक लाभ होता है कि पत्नी में फिर से रस आ जाता है। स्वाद बदल जाता है। पत्नी को पति में फिर से रस आ जाता है।
मन तो हर वक्त नये को चाहता है। पुराने से मन बिल्कुल राजी नहीं है। वह नई संवेदना चाहता है, नई चोट चाहता है, नया गीत चाहता है।
मंदिर भी पुराना हो जाएगा। नये-नये मंदिर रोज कैसे बनाओगे? नया-नया प्रेमी रोज कैसे खोजोगे? इसलिए सब बासा हो जाता है और सभी से उदासी आ जाती है।
और यह जो आदमी क्रोध से पत्थर तोड़ रहा है, अगर तुम इसका भी पीछा करो, तो कहीं तुम इसे भी खिलखिलाते पाओगे। क्योंकि आदमी क्रोधित भी तो चौबीस घंटे नहीं रह सकता है! चौबीस घंटे रहना--एक दशा में--महयोगी की क्षमता है।
अगर तुम्हें क्रोधित रहना हो चौबीस घंटे... । कभी तुमने सोचा कि क्या तुम रह सकते हो चौबीस घंटे क्रोधित? सम्हालना असंभव होगा। वह तो महायोगी की क्षमता है कि वह चौबीस घंटे एक दशा में रहे। साधारण आदमी क्षण भर भी एक दशा में नहीं रह सकता। इधर क्रोध आया नहीं, उधर गया नहीं। इधर हंसी आयी नहीं कि वहां निकली नहीं। दोनों दरवाजे बिल्कुल पास-पास हैं। हवा का एक झोंका एक कोने से आता है, दूसरे कोने से निकल जाता है। यह आदमी भी तुम्हें कहीं खिखिलाता मिलेगा। यह आदमी भी हंसता मिलेगा।
वह जो आदमी बिल्कुल उदास बैठा है, जो कहता हैः ‘रोटी-रोजी कमा रहा हूं’, यह भी तो सांझ रोटी-रोजी कमा कर घर वापस लौटेगा। तुम इसे शतरंज पर बैठे हुए देखना, तो तुम पाओगे कि यह उदास नहीं है। तुम इसे ताश खेलते हुए देखना, तुम पाओगे--यह उदास नहीं है।
इन तीनों आदमियों का अगर तुम जिंदगी में पीछा करोगे तो तुम पाओगेः ये सब बदल जाते हैं। जो हंस रहा है, वह रोता है। जो हंसता है, वह उदास होता है। जो उदास है, वह हंसता है। जो क्रोधित है, वह कभी गीत भी गुनगुनाता है।
जिंदगी सतत परिवर्तन है, प्रवाह है। एक चौथा आदमी है--जो प्रवाह के पार है, वही लक्ष्य है। वह चौथा आदमी जैसा है, वैसा है। चूंकि वह कोई अर्थ डालता नहीं है, इसलिए बदलाहट भी कभी नहीं आती। तुम बुद्ध को सदा वैसा ही पाओगे।
बुद्ध ने कहाः ‘मैं वैसा हूं, जैसा सागर का पानी। तुम कहीं से भी चखो, तुम मुझे खारा ही पाओगे।’
ठीक कहा है। बुद्ध का स्वाद सदा एक सा ही रहेगा; कहीं से भी उन्हें चखो। तुम सोते समय उन्हें उठाओ, तो भी तुम उन्हें वही पाओगे। क्योंकि जिसने कोई अर्थ अपनी तरफ से नहीं जोड़ा है, उसकी जिंदगी शाश्वत हो जाती है।
अगर भगतसिंह को तुम कब्र से उठाओ, तो तुम उसे दुखी पाओगे। क्योंकि जिस आजादी के लिए बेचारे ने जान गंवाई, वह आजादी दो कौड़ी की साबित हुई। तुम शहीदों को उठाओ कब्रों से और पूछो, ‘इसी आजादी के लिए तुम मरे थे, इतने प्रसन्न हुए थे? इन्हीं राजनीतिज्ञों के हाथ में ताकत देने के लिए तुमने कुरबानी दी थी?’ तो भगतसिंह छाती पीट कर रोएगा कि हमें क्या पता था भविष्य का।
गांधी तो जिंदा थे--आजादी आई। और आजादी आने के बाद गांधी छाती पीटने लगे थे। गांधी बार-बार कहते थेः ‘मेरी कोई नहीं सुनता। मैं खोटा सिक्का हो गया हूं। मेरा कोई चलन नहीं है।’ गांधी दुखी हैं।
गांधी सोचते थेः एक सौ पच्चीस वर्ष जीऊंगा। लेकिन आजादी के थोड़े ही महीनों बाद, उन्होंने कहा कि अब मेरी एक सौ पच्चीस वर्ष जीने की कोई इच्छा नहीं है।
यह बड़ी हैरानी की बात है।
लेनिन को उठाओ कब्र से और पूछो कि ‘इसी सोवियत रूस के लिए तुम मरे और जीए?’ सन यात-सेन को कब्र से उठा कर पूछो कि ‘यह वह चीन है, जिसके लिए तुमने जीवन कुरबान किया!’ तुम इन सबको उदास पाओगे। वे कहीं भी होंगे, छाती पीटकर रो रहे होंगे।
शहीदों की चिताओं पर भले मेले भर रहे हों, लेकिन शहीदों की चिताओं के भीतर आंसू बह रहे होंगे! क्योंकि कुछ भी करो, जो किया है, उसका परिणाम कभी कुछ आता नहीं मालूम पड़ता। कुछ उलटा ही हो जाता है।
कोई भेद नहीं पड़ता। जिंदगी वैसे ही चाल से चलती चली जाती है। सफेद चमड़ी की जगह काली चमड़ी बैठ जाती है। वह सफेद चमड़ी से बेहतर सिद्ध नहीं होती। अक्सर बदतर सिद्ध होती है। हर क्रांति और गड़्ढे में ले जाती है। सब बदलाहट--थोड़े ही दिन बाद बेकार सिद्ध होती है। फिर चीजें थिर हो जाती हैं, सब वैसे ही चलने लगता है।
यह जो आदमी, मंदिर बना कर प्रसन्न हो रहा था, इसको पता नहीं कि इस मंदिर पर पुजारी कब्जा कर लेंगे। इस मंदिर को लोग दुकान बना लेंगे। यह मंदिर शोषण की जगह हो जाएगी!
तुम जिस मंदिर को बना रहे हो, वह भगवान का मंदिर कब बन पाता है? कुछ भी बनाओ, आदमी सब पर कब्जा कर लेता है! अभी यह तीसरा मजदूर प्रसन्न है, क्योंकि इसे पता नहीं है।
बुद्ध ने कहा हैः ‘मेरे मरने के बाद मेरा कोई मंदिर न बने; मेरी कोई प्रतिमा न बनाई जाए, क्योंकि जितनी प्रतिमाएं बनीं, जितने मंदिर बने, उतना आदमी का शोषण हुआ है।’ पर इससे क्या फर्क पड़ता है! जितने मंदिर बुद्ध के बने, उतने किसी के भी नहीं बने और जितनी प्रतिमाएं बुद्ध की आज पृथ्वी पर हैं, किसी दूसरे व्यक्ति की नहीं हैं।
जीसस ने यहूदियों से संघर्ष किया ताकि परमात्मा का राज्य पृथ्वी पर स्थापित हो सके। परमात्मा का राज्य स्थापित नहीं हुआ, पोप का राज्य स्थापित हुआ! और पोप बदतर है--उस पुरोहित से, जिसके खिलाफ जीसस लड़े थे। नाम बदल गए, आदमी वही के वही हैं। शकलें बदल जाती हैं, नाटक वही का वही जारी रहता है। शोषण चलता ही रहता है।
ये जो तीन हैं, ये साधारण तीन जन हैं। चौथे पर ध्यान देना। वह चौथा इस कहानी में नहीं है, क्योंकि उस चौथे को देख पाना बहुत कठिन है; वह अदृश्य है। और जिस दिन तुमको चौथा दिखाई पड़ जाए, उसी दिन तुम्हारे जीवन में आंतरिक क्रांति शुरू होगी।
क्या तुम ‘जीवन जैसा है’, उससे राजी नहीं हो सकते हो--बिना उदास हुए? क्या उदास होना जरूरी है? क्या जीवन जैसा है, तुम उससे राजी नहीं हो सकते हो--बिना कोई कल्पना जोड़े? क्योंकि कल्पना तुम्हें प्रसन्न करती है। क्या तुम तथ्य के साथ नहीं खड़े हो सकते? तुम सपना जोड़ोगे ही--अच्छा या बुरा? तुम कोई व्याख्या करोगे ही? क्या तुम निर्व्याख्य नहीं हो सकते हो? अगर तुम हो सको, तो बुद्ध हो जाओ। जब तुम न उदास हो, न क्रोधित हो, न तुम प्रफुल्लित हो; तुम सिर्फ शांत हो; तुम परम शांत हो; तुम परम शून्य हो। और वही शून्य उपलब्धि के योग्य है।
‘अर्थ’ नहीं--शून्य उपलब्धि के योग्य है। अर्थ तो सब डाले हुए हैं। और जब तक तुम अर्थ डालोगे--माया जारी रहेगी। तुम जो डालोगे, वही तुम निकाल लोगे।
पहले तुम डालते हो, फिर तुम निकालते हो। पहले तुम एक व्यक्ति को कहते होः ‘कितना सुंदर!’ फिर इस सौंदर्य पर तुम मोहित होते हो। पहले तुम कहते होः ‘कितना महान!’ फिर तुम इस महानता के दीवाने हो जाते हो। तुम ही डालते हो, तुम ही निकालते हो। तुम अपनी ही व्याख्या में बंध जाते हो।
क्या निर्व्याख्या का जीवन संभव नहीं? क्या सिर्फ तथ्य के साथ रुक जाना संभव नहीं है? --संभव है। जो रुक गए हैं, उन्होंने जीवन का परम-जीवन का गुह्य-शून्य उपलब्ध कर लिया है।
कोई अर्थ नहीं है जीवन में। जीवन है; ‘अर्थ’ नहीं है। जीवन कहीं जा नहीं रहा है। इसका कोई गंतव्य नहीं है। जीवन जैसा है, वैसा ही रहेगा। तुम्हारी आंखें क्या कहती हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम कैसे रंग के चश्मे पहन लेते हो, इससे जीवन का रंग नहीं बदलता। इससे सिर्फ तुम्हारी आंखों का परदा बदलता है।
ये तीनों ही आदमी आंखों पर परदा डाले हुए हैं।
संसार का अर्थ हैः आंखों पर परदा डाले हुए लोगों की भीड़! फिर जो परदा होता है, वही हमें दिखाई पड़ता है। एक आदमी धन की तलाश में लगा है, तो उसे चारों तरफ धन दिखाई पड़ता है। उसे कुछ और दिखाई नहीं पड़ता। वह एक मित्र भी बनाता है, तो मित्र में धन की खदान दिखाई पड़ती है--तो बनाता है। वह रास्ते पर किसी को नमस्कार भी करता है, तो भी अगर उसको रुपयों की झनकार सुनाई पड़ती है, तो नमस्कार करता है। उसके चारों तरफ रुपए का परदा है।
मैंने सुना हैः मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन नदी के किनारे बैठा था। वर्षा के दिन हैं--नदी बाढ़ में है। और दस अंधे आए और वे पार होना चाहते हैं। नसरुद्दीन ने कहा, ‘पार करवा दूंगा। सस्ते जमाने की कहानी है। एक-एक पैसा एक-एक अंधे का लूंगा।’ अंधे राजी हो गए।
एक-एक अंधे को नसरुद्दीन कंधे पर उस पार ले गया। नौ को तो पार करवा दिया, तब तक थक भी गया और दसवां थोड़ा वजनी भी था; पैर फिसल गया और दसवां अंधा हाथ से छूट गया। बाढ़ थी तेज; दसवें को बहा ले गई।
आवाज और शोरगुल सुन कर नौ अंधे चौंके कि कुछ गड़बड़ है। उन्होंने पूछा, ‘क्या बात है नसरुद्दीन!’ उसने कहा, ‘कुछ भी नहीं; तुम्हारे फायदे में ही है; एक पैसा कम देना पड़ेगा।’
‘आदमी मर गया’--यह दिखाई नहीं पड़ता उसे; वह पैसे की तलाश में है। उसने कहा कि ‘एक पैसा कम देना पड़ेगा!’ वह उदास है कि नौ पैसे मिलेंगे! दस पार करवाता तो दस मिलते!
जिनकी आंख पर भी पैसा है, उन्हें सब तरफ पैसा दिखाई पड़ता है। उनके जीवन की सारी व्यवस्था पैसे के इर्द-गिर्द खड़ी होती है।
जिनको प्रतिष्ठा का मोह है, उनके चारों तरफ हर चीज प्रतिष्ठा की सीढ़ी बन जाती है। वे तुम्हारे ऊपर पैर रख कर ऊपर चढ़ सकते हैं; बस इतना ही तुम्हारा मूल्य है। उनके लिए सारे लोग साधन हैं और साध्य है--उनकी प्रतिष्ठा--उनका सिंहासन।
इमेनुएल कांट ने एक बहुमूल्य वचन लिखा है। उसने लिखा है कि नैतिक व्यक्ति वह है, जो दूसरे व्यक्ति का साधन की तरह उपयोग नहीं करता है। तब तुम्हें ऐसा व्यक्ति खोजना बहुत मुश्किल है। क्योंकि सभी लोग एक-दूसरे का साधन की तरह उपयोग करते हैं।
एक राजनीतिज्ञ तुम्हारे द्वार पर आता है। तुम्हारी बड़ी प्रशंसा करता है। लेकिन वह तुम्हें राजी कर रहा है--सीढ़ी बनने को कि तुम जरा कंधा झुकाओ, ताकि मैं पैर रखूं और ऊपर जाऊं। ऊपर चढ़ते ही वह तुम्हें भूल जाएगा। वह तुम्हें पहचानेगा भी नहीं। सीढ़ियों को कौन पहचानता है? न केवल इतना ही, बल्कि ऊपर चढ़ते ही लोग सीढ़ियों को मिटाने में लग जाते हैं। क्योंकि जिस सीढ़ी से तुम चढ़े हो, उससे दूसरे भी चढ़ सकते हैं। इसलिए जैसे ही कोई राजनीतिज्ञ ऊपर पहुंचता है, सीढ़ियों को मिटाता है। जिन सीढ़ियों से चढ़ा है, उन्हीं को पहले मिटाता है। क्योंकि वे खतरनाक सीढ़ियां हैं; उनसे ही यहां तक आना संभव हुआ है। दूसरे भी उनसे यहां आ सकते हैं।
जिन-जिन का तुम शोषण करते हो, उनके प्रति तुम्हारी मैत्री धोखा है। तुम वस्तुतः शत्रु हो।
सब तरफ शोषण चलता है। सब संबंधों के नाम पर शोषण चलता है। तुम प्रेम भी करते हो तो भी शोषण है। तुम प्रेम इसलिए नहीं करते कि दूसरा मूल्यवान है। उपनिषदों ने कहा है कि काई पति पत्नी को इसलिए प्रेम नहीं करता है कि पत्नी मूल्यवान है। पति पत्नी को इसलिए प्रेम करता है कि उसका स्वार्थ है, उसका सुख है। पत्नी से सुख मिलता है, इसलिए प्रेम करता है; जिस दिन सुख नहीं मिलेगा, उसी दिन प्रेम समाप्त हो जाएगा।
तुम्हारा प्रेम, तुम्हारे संबंध, तुम्हारी मित्रता--सब सीढ़ियां हैं। और दूसरे का साधन की तरह उपयोग करना अनीति अगर है, तो इस जगत में नैतिक व्यक्ति खोजना बहुत मुश्किल है, जो तुम्हारा उपयोग न कर रहा हो।
जो भी हमारी आंख पर चढ़ा हो नशा--धन का, पद का, प्रतिष्ठा का, अहंकार का, बस, हम उसी से देखते हैं। सारी दुनिया हमें उसी रंग में रंगी हुई दिखाई पड़ती है और सत्य हमें तब तक दिखाई नहीं पड़ सकता, जब तक कोई भी ‘चश्मा’ हमारी आंख पर है।
इसलिए ज्ञानी पुरुषों ने कहा हैः जब तक तुम्हारी वासना है, तब तक तुम सत्य को न देख सकोगे। क्योंकि तुम रंगोगे; तुम्हारी वासना रंग देगी।
संस्कृत में जो शब्द है--वासना के लिए, वह बड़ा बहुमूल्य है। वह है--राग। और राग का एक अर्थ रंग भी होता है।
जब तक तुम्हारे मन में राग है, तब तक तुम्हारी आंखों में रंग है। वैराग्य तो उसी का फलित होगा, जिसकी आंखों के सब रंग खो जाएं।
विराग का अर्थ हैः रंगहीन, रंगशून्य दृष्टि। जब तक तुम्हारी आंख में कोई भी वासना है, वही तुम्हारी आंख का रंग है। तुम उसी से देख रहे हो।
तुमने कभी ख्याल कियाः अगर तुमने उपवास किया हो, और तुम बाजार से निकलो, उस दिन तुम्हें रेस्टोरेंट, होटल, भोजन की, मिठाई की दुकानें अतिरेक से दिखाई पड़ेंगी। वे सदा से वहां थी। लेकिन रोज तुम भर-पेट निकले थे। तब तुमने कभी उन पर ध्यान नहीं दिया था। उनको चुना नहीं था। आज वे तुम्हें अतिरेक से दिखाई पड़ेंगी। उनकी मात्रा बहुत ज्यादा मालूम पड़ेगी। बीच की और दुकानें खो जाएंगी। जूते की दुकानें, कपड़ों की दुकानें--वे सब बीच से खो जाएंगी। सारा बाजार ऐसा लगेगा कि मिष्ठान्न का है। क्योंकि तुम उपवासे हो; तुम्हारी आंखों पर भोजन का रंग है।
ब्रह्मचारी निकले रास्ते से, तो उसे पुरुष नहीं दिखाई पड़ते, सिर्फ स्त्रियां दिखाई पड़ती हैं। उसकी आंखों पर एक रंग है। तुम जो भी आंख में लिए हो, वही रंग तुम्हारे चारों तरफ प्रोजेक्ट होता है। इसको हमने माया कहा है।
तथ्य को रंग कर देखना माया है। तथ्य को तथ्य की तरह देख लेना ब्रह्म है। तब तुम बाजार से गुजरते हो, तुम्हारी आंखें खाली हैं। तब तुम चुनते नहीं। तब ‘जो है’, वह तुम्हें दिखाई पड़ता है। तब तुम जगत में कुछ डालते नहीं। तुम सिर्फ साक्षी होते हो।
ये तीनों मजदूर रागी हैं। और अगर राग ही चुनना हो, तो तीसरे मजदूर का चुनना। अगर राग में ही पड़ना हो, तो धार्मिक व्यक्ति का राग पड़ने जैसा है। अगर बीमारी ही चुननी हो, तो धार्मिक आदमी की बीमारी सबसे बेहतर है।
अगर कहीं जाना ही हो, तो मंदिर की तरफ जाना। कम से कम गुनगुनाओगे तो! कम से कम प्रफुल्लित तो होओगे! वह भी भ्रम है; वास्तविक नहीं है। लेकिन सपना ही देखना हो, तो अच्छा देखना। बुरा क्या देखना? सपना ही देखना हो, तो भिखारी का क्या देखना! सम्राट का देखना। लेकिन सपने भी तुम्हारे हाथ में तो नहीं हैं।
तुम अपना सपना भी तो नहीं बदल सकते। तुम लाख उपाय करो कि सम्राट होने का सपना देखूं, इससे क्या फर्क पड़ता है। सपने पर तुम्हारा कोई काबू नहीं है। सपने पर काबू तो उसका होता है, जिसका वासना पर काबू होता है। तब वह अपने सपनों का मालिक होता है, वह कोई सपना नहीं देखता है। वह सपना देखेगा ही क्यों? क्योंकि वह जानता है कि सपने में सम्राट होना, उतना ही फिजूल है, जितना सपने में भिखारी होना। मंदिर के सामने बैठकर पत्थर तोड़ना है, तो दुखी होना भी व्यर्थ है, उदास होना भी व्यर्थ है, प्रफुल्लित होना भी व्यर्थ है।
तथ्य न तो उदास करता है, न दुखी करता है, न प्रफुल्लित करता है। तथ्य केवल शांत कर जाता है। और शांति बड़ी अलग दशा है। वह अनुत्तेजना की स्थिति है। तब तुम ठीक संतुलित हो। न तुम यहां झुके हो, इस तरफ--दुख, उदासी। न झुके उस तरफ--प्रफुल्लता, सुख। तब तुम झुके ही नहीं हो; तुम बीच में खड़े हो; तुम संतुलित हो। इसको गीता में स्थितप्रज्ञ कहा है।
तब तुम्हारी चेतना ऐसे थिर हो गई है, जैसे किसी भवन में--जहां हवा का झोंका न आता हो--कोई दीया थिर हो जाए; दीये की ज्योति निष्कंप हो जाए।
वह चौथा आदमी इस कहानी में नहीं है; उसे मैं जोड़ देता हूं। लेकिन अगर चौथा तुम्हारी समझ में न आए, तो तुम तीसरे को चुनना। अगर तीसरा तुम्हें बहुत मुश्किल पड़े, तो दूसरे को चुनना। और पहले को तो चुनने का सवाल नहीं है। वह तुम हो।
तुम्हारा जीवन एक क्रोध है; एक आक्रामक हिंसा है। ऐसा नहीं है कि तुम कभी-कभी क्रुद्ध होते हो; तुम क्रोध में हो। उठते हो, बैठते हो, चलते हो, लेकिन तुम क्रुद्ध हो। तुम सारे जीवन के प्रति क्रोध से भरे हो, प्रतिशोध से भरे हो, जैसे कोई बदला लेना है। जैसे कि तुम पैदा हुए, यह तुम पर बड़ा अन्याय हो गया! तुम शिकायत से भरे हो।
दोस्तोवस्की का एक बहुत प्रसिद्ध उपन्यास हैः ‘ब्रदर्स कर्माजोव’। इस पृथ्वी पर कम ही ऐसे उपन्यास हैं, जैसा ‘ब्रदर्स कर्माजोव’ है। इसका कोई मुकाबला नहीं है। मुझसे अगर कोई कहे कि ‘नंबर एक’ किसी उपन्यास को रखूं, तो ‘कर्माजोव’ को रखूंगा। यह बाइबिल जैसी कीमत, गीता जैसी कीमत का उपन्यास है। उसमें एक पात्र ईश्वर से कहता है कि ‘अगर तू मुझे मिल जाए, तो धन्यवाद देने का कोई सवाल ही नहीं है। शिकायत करने योग्य भी नहीं है। जिंदगी इतनी फिजूल है कि शिकायत भी क्या करनी! शिकायत में भी थोड़ा ख्याल रहता है कि शायद इससे बेहतर हो सकती थी। शिकायत की भी इच्छा नहीं होती। बस, तूने जो टिकट इस जगत में आने के लिए दी थी, वह मैं वापस करना चाहता हूं। यह तू सम्हाल। मुझे बाहर कर-अस्तित्व के।’
तुम क्रुद्ध हो, दुखी हो, आक्रामक हो--पहले मजदूर की तुम्हारी दशा है। पत्थर तोड़ रहे हो। अगर कुछ न बन सके, तो कम से कम दूसरे की तरफ सरकना। पत्थर तोड़ने को कम से कम रोटी-रोजी बनाना। क्रोध को कम से कम अनाक्रमक बनाना। उदास रहोगे, बोझिल रहोगे, लेकिन कम से कम दूसरे पर आक्रमक न करोगे। दुख पाओगे लेकिन दूसरे को दुख न दोगे। यह भी काफी है। लेकिन अगर थोड़ी हिम्मत और हो, तो तीसरे की तरफ जाना।
जब पत्थर तोड़ने ही हैं, तो गुनगुनाने में हर्ज क्या है? जब पत्थर तोड़ने हैं, तो गुनगुना कर ही तोड़ना। पत्थर भी बेहतर टूटेंगे और तुम टूटने से बचोगे। सोचना, मंदिर बना रहा हूं।
जीवन को एक सुंदर सपना बनाना। लेकिन अगर मेरी मानो तो ये तीनों एक जैसे हैं। इनमें अंतर बड़े ऊपर हैं। भीतर कोई बहुत भेद नहीं है।
समाज चाहेगा कि तुम तीसरे पत्थर तोड़ने वाले हो जाओ। ताकि तुम पत्थर भी तोड़ो, गीत भी गुनगुनाओ, कोई अड़चन भी खड़ी न करो।
मनोवैज्ञानिक कहते हैंः ‘दूसरे’ से आगे जाना असंभव है। बस, तुम ज्यादा से ज्यादा इतना कर सकते हो क्रोध न करो, उदास हो जाओ। फ्रायड के जीवन भर का निष्कर्ष यह है कि आदमी सुखी नहीं हो सकता है। यह उसकी नियति नहीं है। उसका स्वभाव ऐसा है कि ज्यादा से ज्यादा वह, कम से कम दुखी हो सकता है--बस, सुखी तो हो ही नहीं सकता।
मनोवैज्ञानिक दूसरे पर रुक जाते हैं। लेकिन साधारण आदमी पहले से आगे ही नहीं बढ़ता है।
पहला आदमी साधारण आदमी है। जैसा संसार में सब तरफ पाया जाता है। दूसरा आदमी थोड़ा मनोवैज्ञानिक चिंतक है। थोड़ा सोचता है--मनस के बाबत। तीसरा आदमी धार्मिक है। चौथा आदमी आध्यात्मिक है।
अध्यात्म में और धर्म में बड़ा फर्क है। धर्म के मंदिर हैं, अध्यात्म का कोई मंदिर नहीं है। धर्म के शास्त्र हैं, अध्यात्म का कोई शास्त्र नहीं है।
तीसरे आदमी पर सब धर्म समाप्त हो जाते हैं; सब मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे--तीसरे आदमी पर समाप्त हो जाते हैं। और असली आदमी चौथा है--दि फोर्थ। वह जो चौथा--तुरीय है, वह जो चौथा आदमी है, वह जो बुद्ध-पुरुष है--खोज तो उसकी करना। वह परम लक्ष्य है। वहां तुम जैसे हो, वैसे ही बचोगे। संसार जैसा है, वैसा ही बचेगा--दो कोरे दर्पण हों।
किसी ने पूछा रिंझाई को कि ‘जब तुम ज्ञान को उपलब्ध हुए तो तुम्हें कैसा लगा?’ तो उसने कहा कि ‘जैसे एक दर्पण दूसरे दर्पण के समाने है और एक दर्पण दूसरे दर्पण की निर्मलता को प्रतिबिंबित करता है। दूसरा पहले की निर्मलता को प्रतिबिंबित करता है। निर्मलता अनंत गुना होती चली जाती है। क्योंकि एक दर्पण के सामने दूसरा दर्पण, चित्र कोई बनता नहीं है, निर्मलता ही प्रतिफलित होती है।
जिस दिन तुम चौथा आदमी हो जाओगे--तुम दर्पण की तरह कोरे, यह जगत भी दर्पण की तरह कोरा। और ये दोनों दर्पण एक दूसरे को प्रतिफलित करते हैं--करते चले जाते हैं। अनंतगुना निर्दोष, निर्मलता--अनंत अनंत होती चली जाती है। कहीं कोई रूप नहीं बनता, कोई आकृति नहीं बनती। यह अनंत गुना निर्मलता निराकार बन जाती है।
चौथे की खोज करना; वही खोज है; वही परम लक्ष्य है। लेकिन अगर चौथे को असंभव पाओ, तो पहले से राजी मत होना।
मंदिर के भी ऊपर जाना है। मंदिर कोई गंतव्य नहीं है। लेकिन घर से तुम मंदिर तक पहुंच जाओ, तो भी काफी है। फिर मंदिर को भी पार कर जाना है।
इस कहानी को दुहरा देता हूंः
कहीं एक मंदिर बन रहा था। तीन श्रमिक वहां धूप में बैठ कर पत्थर तोड़ रहे थे। एक राहगीर गुजरा; बारी-बारी से उसने श्रमिकों से पूछाः ‘क्या कर रहे हैं?’
एक से पूछा! वह बोलाः ‘पत्थर तोड़ रहा हूं।’ उसके कहने में बड़ी पीड़ा थी और स्वर भारी था।
दूसरे से पूछा। वह बोलाः ‘आजीविका कमा रहा हूं।’ वह दुखी तो नहीं था; लेकिन उसकी उदासी कम भारी नहीं थी।
अजनबी तीसरे श्रमिक के पास गया और उससे भी वही सवाल पूछा। वह व्यक्ति गीत गा रहा था, उसकी आंखों में चमक थी, वह आनंदमग्न था। गीत रोककर उसने कहाः ‘मंदिर बना रहा हूं।’ और फिर वह गीत गुनगुनाने लगा।
ये तीन आदमी हैं। इनमें से भी तीसरा बहुत मुश्किल है--मिल जाना। इनमें से दूसरा तक--आसान नहीं है मिलना। पहला सुगम है; सब तरफ है। तुम वही हो। तुम्हारा परिवार वही है। तुम्हारा समाज वही है।
पहला अति साधारण है। तुम इससे राजी मत हो जाना। पहले से--कदम दूसरे की तरफ उठाना।
जो क्रोध सब के प्रति मालूम पड़ता है उसे तुम सब के प्रति आक्रमक मत बनाना। हिंसा छोड़ देना। अगर दुखी भी हो, तो अपने कारण दुखी होना। क्रोध का मतलब होता हैः ‘दूसरा जिम्मेवार है’, दुख का मतलब होता हैः ‘मैं ही जिम्मेवार हूं।’ इस फर्क को समझ लो।
क्रोध हमेशा कहता हैः दूसरा जिम्मेवार है। ‘तुमने ऐसा किया है, इसलिए मैं परेशान हूं।’ उदासी सदा कहती है कि ‘मैं अपने ही कारण उदास हूंः मैं ही जिम्मेवार हूं।’ क्रोध पत्थर तोड़ता है। उदासी रोटी-रोजी कमाती है। उदासी कहती है कि जिम्मेवारी मेरी ही है। पत्नी है, बच्चे हैं। यह मैंने घर-संसार बनाया है। अब मुझे ही पूरा करना है।
कम से कम ‘दूसरे’ से हट कर ‘अपने’ पर आना है। यह भी बड़ा कदम है। हिंसक से अहिंसक हो जाना, यह भी बड़ा कदम है। दूसरे पर हमला न करके अपने पर ही राजी हो जाना, यह भी बड़ी बात है।
जिनको तुम मंदिरों में बैठे देख रहे हो, स्थानकों में बैठे देख रहे हो--जैनों, बौद्धों के विहारों में--उनको तुम पाओगे, वे दूसरी तरह के लोग हैं। उन्होंने समाज छोड़ दिया है। क्योंकि उन्होंने दूसरे को जिम्मा देना छोड़ दिया है। अब वे नंबर दो के आदमी हो गए हैं। उन्होंने सब उदासी अपने ऊपर ले ली है।
इसलिए जैन मुनि को तुम प्रसन्न नहीं पाओगे; उदास पाओगे। यह ‘नंबर दो’ का आदमी है। उसने घर छोड़ा है। क्योंकि दूसरे से इसने जिम्मेवारी हटा ली। अब यह सारा बोझ अपने सिर पर लेकर बैठ गया है। यह उदास है।
यह भी कोई लक्ष्य नहीं है। क्योंकि जीवन में फूल तो इसके भी नहीं खिलेंगे। यह भी त्रिशंकु की तरह लटक गया है। जमीन भी छूट गई, आकाश भी न मिला! संसार भी छूट गया और मोक्ष भी नहीं मिला। इसका स्थानक, इसका विहार, इसका मंदिर बीच में अटका हुआ है।
तीसरे तरह का आदमी तुम्हें कभी मस्जिद में, कभी हिंदुओं के मंदिर में मिलेगा--गीत गाता, पूजा करता, नाचता। इस फर्क को ख्याल में ले लो।
हिंदुओं ने तीसरे आदमी के आधार पर मंदिर को बनाया है। जैनों ने दूसरे में मिलेगा--गीत गाता, पूजा करता, नाचता। इस फर्क को ख्याल में ले लो।
हिंदुओं ने तीसरे आदमी के आधार पर मंदिर को बनाया है। जैनों ने दूसरे आदमी के आधार पर मंदिर को बनाया है। इसलिए जैन साधु उदास दिखेगा। हिंदू साधु प्रसन्न दिखेगा।
जैन साधु को हिंदू साधु की प्रसन्नता भी गलत मालूम पड़ती है। क्योंकि साधु को उदास होना चाहिए! साधु का अर्थ हैः संसार से विराग होना चाहिए। इसमें क्या प्रसन्नता? इसमें हिंदू साधु की प्रसन्नता में लगता है कि थोड़ा बहुत संसार से राग-रंग बाकी है। थोड़ा रस ले रहा है।
वैष्णव भक्त हैंः वे तीसरे आदमी पर चल रहे हैं। गीत गा रहे हैं, प्रसन्न हैं।
अगर बन सके तो तुम तीसरे तरह के आदमी बनना। अगर रहना ही है इस नासमझी में, तो गीत गाते हुए रहना। गुजारना ही है यह रास्ता, तो गुनगुनाते हुए गुजारना। रोते हुए गुजारने का क्या प्रयोजन है? रास्ते से बच नहीं सकते रोकर, तो हंसते हुए निकल जाना ठीक है।
मगर ध्यान रहे, मेरा चुनाव तीनों का नहीं है। मेरे लिए तीनों बराबर हैं। यह मैं तुमसे कह रहा हूं कि चुनना ही हो... । यह ऐसा ही है जैसा कोई कहे कि अगर बीमारी ही चुननी हो, तो फिर ‘यह’ बीमारी चुन लेना। लेकिन बीमारी बीमारी है। चुनना ही क्यों बीमारी? स्वास्थ्य क्यों न चुनना! अगर स्वास्थ्य और बीमारी में चुनना हो तो ये तीनों ही बीमारियां हैं।
चौथा आदमी--उसके आस-पास कोई धर्म निर्मित नहीं हो सकता। बुद्ध, महावीर, लाओत्सु जैसा व्यक्ति--उसके आस-पास कोई धर्म निर्मित नहीं होता है। सब धर्म इन तीन के आस-पास कहीं बन जाते हैं।
वह चौथा आदमी निराकार जैसा है। तुम उसे समझ भी लोगे, फिर भी पकड़ न पाओगे। वह तुम्हारी मुट्ठी में नहीं आता है। वह परम स्वतंत्र है। लेकिन उस पर ध्यान रखना। ऐसा हो जाना है कि जहां न उदासी हो, न जहां क्रोध हो, न जहां प्रसन्नता हो--जहां ये सभी रोग छूट जाएं। जहां कोई भी तरंग न उठे। न आंसू बहें और न हंसना पड़े। जहां गहन सन्नाटा हो, शून्य हो, शांति हो--वही सम्यकत्व है। वही सम अवस्था है। वहीं तुम पूरे संतुलित हुए। वहीं बैलेंस आया। उस क्षण ही तुम इस संसार के बाहर हो जाते हो।
जैसे ही तुम संतुलित हुए, शांत हुए, तुम्हारी आंखें शून्य हुईं, तुम्हारा कोई राग न रहा, कोई रंग न रहा, तुम्हारी कोई व्याख्या न रही--सत्य प्रकट हो जाता है।
जिस दिन तुम व्याख्या-शून्य हो, उसी दिन सत्य प्रकट हो जाएगा। इसलिए कृष्णमूर्ति निरंतर दुहराते हैंः तुम किसी सत्य के सिद्धांत को लेकर सत्य के पास मत जाना। तुम कोई सिद्धांत लेकर मत जाना; क्योंकि सिद्धांत सत्य को विकृत कर देगा। तुम व्याख्या मत करना। तुम कोरे, नग्न, शून्य--उसके पास जाना।
यह चौथी ही ध्यान धारणा है। यह चौथी ही समाधिस्थ होने की कला है।
यह कहानी तुम्हारे बाबत है। यह चौथी ही समाधिस्थ होने की कला।
यह कहानी तुम्हारे बाबत है। और इस कहानी से पार जाना है--तभी तुम्हारा जो सार-जीवन का निचोड़ है, जो फूल है, जो सुगंध है, वह उठेगी। तभी तुम्हारा दीया जलेगा।
मुझसे पूछा तो इन तीनों को छोड़ना; चौथे की तलाश करना।
और ध्यान रहे, ये तीनों कितने ही सरल दिखाई पड़ते हों, बहुत कठिन हैं। क्योंकि तीनों झूठ हैं। झूठ से कठिन और कुछ भी नहीं हो सकता है। और वह चौथा कितना ही कठिन दिखाई पड़े, बहुत सरल है, सहज है; क्योंकि स्वभाव सहज ही हो सकता है। जो कबीर गुनगुनाते हैंः ‘साधो सहज समाधि भली’--वह चौथा सहज आदमी है। ये तीनों असहज हैं।
सहज का अर्थ हैः जैसा तुम्हारा स्वभाव है, जिसमें कुछ भी न जोड़ना पड़े। जोड़ा कि असहज हुआ। रंग पोता कि असहज हुआ। जैसे तुम तुम्हारी नग्नता में हो--तुम्हारी दिगंबरत्व, तुम्हारी नग्नता--वही सहजता है, वही समाधि है।
इस कहानी को सोचना और इस कहानी के पार चलने की कोशिश करना।

आज इतना ही।  

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