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शनिवार, 17 नवंबर 2018

अज्ञात की ओर-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-मन का पात्र कभी भरता नहीं 

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा शुरू करना चाहूंगा।
एक राजमहल के द्वार पर बहुत भीड़ लगी हुई थी। भीड़ सुबह से लगनी शुरू हुई थी, दोपहर आ गई थी और भीड़ बढ़ती चली गई थी। जो भी उस द्वार पर आकर रुका था वह रुका ही रह गया था। वहां कोई बड़ी अभूतपूर्व घटना घट गई थी। और जिसको भी राजधानी में खबर लगी वह भागा हुआ महल की तरफ चला आ रहा था। सांझ भी आ गई। करीब-करीब सारी राजधानी महल के द्वार पर इकट्ठी हो गई थी। लाखों लोग इकट्ठे थे।
उस द्वार पर सुबह-सुबह एक भिक्षु आया था। और उस भिक्षु ने राजा से कहा था, मुझे कुछ भिक्षा मिल सकेगी? राजा ने कहा था कोई कमी नहीं है, तुम जो चाहो मांग लो। उस भिखारी ने एक बड़ी अजीब शर्त रखी। उसने कहा कि मैं भिक्षा तभी लेता हूं जब मुझे यह आश्वासन मिल जाए, यह वचन मिल जाए कि मेरा पूरा भिक्षापात्र भर दिया जाएगा। मैं अधूरा भिक्षापात्र लेकर नहीं जाऊंगा। तो यदि यह वचन देते हों कि मेरा पूरा भिक्षापात्र भर देंगे तो मैं भिक्षा लूं अन्यथा मैं किसी और द्वार पर चला जाऊं।


ऐसा शर्त वाला भिखारी कभी देखा नहीं गया था। और यह शर्त कोई इतनी बड़ी भी न थी कि राजा के द्वार से उसे लौटना पड़े। राजा हंसा और उसने कहाः तुमने मुझे क्या समझ रखा है, क्या मैं तुम्हारे इस छोटे से भिक्षा पात्र को न भर सकूंगा? शायद तुम सोचते हो कि मैं धन-धान्य में कुछ कम हूं और एक भिखारी का भिक्षा पात्र भी न भर सकूंगा?


उसने अपने वजीरों को कहा कि जाओ और अन्न के दानों से नहीं बल्कि हीरे-मोतियों से इसके भिक्षापात्र को भर दो। उसने कहाः शर्त मुझे स्वीकार है। राजा हंसा था यह कह कर। लेकिन भिखारी भी हंसा और उसने कहाः एक बार फिर सोच लें, क्योंकि न मालूम कितने लोगों ने यह शर्त स्वीकार की है और वे इसे पूरा नहीं कर पाए।
राजा ने कहाः कैसी पागलपन की बातें करते हो। वजीर से कहा, समय मत खोओ, जाओ और उसके भिक्षापात्र को बहुमूल्य पत्थरों से भर दो। वजीर बहुत से हीरे-मोती लेकर आया। उस राजा के पास कोई कमी न थी हीरे-मोतियों की। अकूत उसके खजाने थे। और उस भिखारी के भिक्षापात्र में डाले। लेकिन डालते ही भूल पता चल गई। भिक्षापात्र में डाले गए मोती-हीरे कहीं खो गए और पात्र खाली का खाली रहा। फिर और लाकर डाले गए फिर और लाकर डाले गए और वे जो अकूत खजाने थे वे खाली होने लगे। सुबह की दोपहर आ गई भिक्षापात्र खाली का खाली रहा।
राजा घबड़ाया, कठिनाई खड़ी हो गई थी। वचन दिया था। लेकिन न मालूम कैसा था यह भिक्षापात्र? सांझ हो गई। राजा भी अड़ा हुआ था कि भर देगा उसे। लेकिन राजा भी छोटा पड़ गया। भिक्षापात्र बहुत बड़ा था। वह नहीं भरा, नहीं भरा। और सांझ आखिर राजा को उस भिक्षु के पैरों पर गिर जाना पड़ा और माफी मांग लेनी पड़ी। उसने कहा कि मुझे माफ कर दें, भूल हो गई।
लेकिन मैं यह पूछना चाहता हूं और यह उत्तर मिल जाएगा तो मैं समझूंगा कि मैं माफ कर दिया गया। यह भिक्षापात्र क्या है? यह कोई जादू है? यह क्या है रहस्य? यह क्या है मिस्ट्री? छोटा सा पात्र है और भरता नहीं और मेरे खजाने खाली हो गए हैं?
उस भिक्षु ने जो कहा, उसने कहाः न तो कोई जादू है और न कोई रहस्य। मैं एक मरघट से निकलता था, एक आदमी की खोपड़ी पड़ी मिल गई, उससे ही मैंने यह भिक्षापात्र बना लिया। और मैं खुद ही हैरान हो गया यह भरता नहीं है। सच्ची बात यह है आदमी की खोपड़ी कभी भी भरी नहीं है।
उस राजमहल के द्वार पर यह जो घटना घटी थी। कोई रहस्य नहीं है इसमें, कोई मिस्ट्री नहीं है। हम सब जानते हैं कि हमारी खोपड़ी भरती नहीं है। मनुष्य का मन कुछ ऐसा बना है कि भरता नहीं है। और मनुष्य को मन के भरने की जो दौड़ है, वही संसार है। और इस सत्य को जान लेना कि मनुष्य का मन भरता नहीं, धर्म की शुरुआत है, धर्म का प्रारंभ है।
धर्म से मेरा कोई संबंध हिंदू और मुसलमान और ईसाई और जैन से नहीं है। ये धर्म हैं भी नहीं। अगर ये धर्म होते तो दुनिया धार्मिक हो गई होती। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है। और इस होने की वजह से ही वह धार्मिक नहीं है। धार्मिक होना कुछ बात ही और है। धार्मिक होना एक आंतरिक क्रांति है, एक रिवोल्यूशन है जो चित्त में घटित हो जाती है। उसका कोई एफलिएशन से, कोई आर्गेनाइजेशन से, कोई संगठन, किसी मंदिर और चर्च से कोई वास्ता नहीं है।
धर्म का संबंध है मनुष्य के मन से। अगर कोई मंदिर है, तो मनुष्य का मन है। और अगर कहीं कोई सत्य और परमात्मा है, तो वहीं खोजा जाना है। जो किन्हीं और मंदिरों में खोजते हैं वे भटक जाते हैं। क्योंकि वे सब मंदिर बाहर होंगे। और बाहर के मंदिर और बाहर के मकानों में कोई फर्क नहीं। भीतर है कोई, और वह भीतर जो मंदिर है उसकी खोज उसी दिन शुरू होती है जिस दिन यह भ्रम टूट जाता है कि इस मन को भरने की दौड़ व्यर्थ है, यह दिखाई पड़ जाता है। जब तक हम इस मन को भरने की दौड़ में होते हैं तब तक न समय होता है और न फुर्सत होती है कि हम उसे खोजें जो भीतर है। क्योंकि मन की इस दौड़ को भरने कि लिए हमें बाहर दौड़ना पड़ता है। भीतर जाने का अवकाश नहीं मिलता, समय नहीं मिलता, सुविधा नहीं मिलती।
मन को भरना है तो बाहर दौड़ना पड़ता है और परमात्मा को जानना है तो भीतर। जो बाहर दौड़ रहा है वह भीतर नहीं देख पाए इसमें कोई आश्चर्य नहीं। हम सब बाहर दौड़ रहे हैं। और हम सबका आज तक का भी अनुभव वही है जो उस राजमहल के उस राजा को हुआ था।
हममें से कौन कितना भर गया है? और क्या यह सीधा सा तर्क और सीधा सा अनुमान नहीं कि आज तक हम दौड़े हैं और भरे नहीं, तो कल भी हम दौड़ेंगे तो भर कैसे जाएंगे? आज तक हम सब दौड़े हैं और खाली हैं, लेकिन कल की आशा दौड़ाए चली जाती है कि कल भर जाएं शायद। और दौड़ें, और दौड़ें, कल शायद वह फुलफिलमेंट मिल जाए, वह पूर्णता मिल जाए जिसकी तलाश और खोज है। लेकिन जो दौड़ता है बाहर वह उसे कभी न पा सकेगा। शायद मनुष्य के निर्माण के समय ही कोई बात हो गई जिसकी वजह से यह नहीं हो सकता।
मैंने एक बड़ी काल्पनिक कथा सुनी है। मैंने सुना है कि परमात्मा ने आदमी को बनाया। और यह आपको पता है, आदमी को बनाने के बाद उसने फिर कुछ भी नहीं बनाया। आदमी को बना कर वह घबड़ा गया होगा और उसने बनाने का अपना सारा काम बंद कर दिया होगा। और आदमी से शायद वह डर गया होगा उसकी आशा न थी कि ऐसा आदमी बन जाएगा और शायद, पुरानी कथा है, वह इतना डर गया अपने ही बनाए हुए आदमी से कि उसने देवताओं से पूछा कि आज नहीं कल यह आदमी मुझे परेशान करने लगेगा। मुझे कोई छिपने की जगह बता दो जहां मैं छिप जाऊं और यह आदमी मुझे न खोज सके।
तो अलग-अलग सुझाव आए, बड़े प्रस्ताव आए, किसी ने कहा, दूर हिमालय में, पहाड़ों में छिप जाओ। परमात्मा हंसा और उसने कहा कि जो आदमी है, हिमालय इसके लिए बहुत दूर नहीं है, यह वहां पहुंच जाएगा। किसी ने कहा चांद-तारों में छिप जाओ। परमात्मा ने कहाः थोड़ी बहुत देर छिपे रह सकते हैं, लेकिन यह आदमी जैसा मैंने बना लिया है यह वहां पहुंच ही जाएगा। फिर किसी ने उससे कहा, फिर एक ही रास्ता है, इसी आदमी के भीतर छिप जाओ। परमात्मा राजी हो गया। यह सुझाव बड़ा उचित और बड़ी समझदारी का था। क्योंकि आदमी और सब जगह ढूंढेगा, शायद ही उसे खयाल आए कि उसके भीतर भी ढूंढने को कुछ है।
कहानी तो काल्पनिक है, लेकिन बात बड़ी सच है। आदमी ढूंढता है बाहर और जिसे पाना है वह है उसके भीतर। इसलिए जितनी खोज बढ़ती है उतना ही खोता चला जाता है। उलटा ही होता है, खोज होती है ज्यादा और पाता है कि खो गया हूं।
सिकंदर हिंदुस्तान की तरफ आता था। रास्ते में उसे एक फकीर मिला, डायोजनीज। बड़ी खबर थी उस फकीर की, बड़ा अनूठा वह आदमी था। एक छोर पर सिकंदर था, तो दूसरे छोर पर वह था। सिकंदर ने राह से चलते वक्त सोचा कि मिलता चलूं डायोजनीज को भी। बड़ी खबर सुनी है इस आदमी की। नंग-धड़ंग, नंगा ही वह रहता था। एक छोटे से टीन के पोंगरे में पड़ा रहता था। टीन का एक गोल पोंगरा था, उसे धक्के देकर किसी भी दूसरे गांव में ले जाना आसान था। वह उसमें ही सोता और उसमें ही रहता। वह दोनों तरफ से खुला था। कोई द्वार दरवाजे न थे।
सिकंदर ने खबर भेजी। खबर पहुंचाई की जाकर कह दो कि महान सिकंदर मिलने आता है। डायोजनीज अपने उस पोंगरे के बाहर सुबह की धूप लेता था, सर्दी के दिन थे। वह हंसने लगा और उसने कहाः जाओ कह देना सिकंदर को, जो खुद को महान समझता है उससे छोटा दूसरा आदमी नहीं है। वे सिपाही बोले, बड़ी भूल की बात कह रहे हो। इसका एक ही नतीजा हो सकता है कि गर्दन तुम्हारे सिर से अलग कर दी जाए।
 डायोजनीज ने कहा कि जाओ और कह देना--बड़ी कठिन है यह बात; क्योंकि जिस गर्दन को मेरी कोई अलग कर सकता है उसे बहुत देर पहले ही मैं खुद ही अलग कर चुका हूं। कह दो सिकंदर से, बहुत मुश्किल है यह बात, तलवार काम नहीं कर सकेगी। क्योंकि जिस शरीर को वह समाप्त करेगा, मैं जान चुका हूं कि वह मैं नहीं हूं। खबर यह सिकंदर को कर दी गई होगी।
सिकंदर आया और उसने डायोजनीज से कहाः बहुत खुश हूं तुम्हारी बातों से, तुम्हारी हिम्मत और साहस से। तुम अकेले आदमी हो जिसने सिकंदर को जबाब दिया है, इससे मैं खुश हूं। डायोजनीज ने कहाः लेकिन मैं बहुत दुखी हूं। तुम्हें देख कर मेरे मन में बड़ी दया आती है, बहुत दुख होता है। तुम पागल हो। सिकंदर ने पूछाः क्या है मेरा पागलपन? डायोजनीज ने कहाः महीनों से देखता हूं, फौजें चली जा रहीं हैं, क्या इरादे हैं? क्या करना चाहते हो? इतने हथियार, इतने घोड़े, इतने सैनिक, यह क्या हो रहा है? कहां जा रहे हो? ये तोपें कहां जा रही हैं? सिकंदर ने कहा कि मेरा इरादा है एशिया माइनर को जीतने का। डायोजनीज ने पूछाः और उसके बाद? सिकंदर ने कहा कि उसके बाद हिंदुस्तान। और डायोजनीज ने पूछाः उसके बाद? सिकंदर ने कहाः पूरी दुनिया। और डायोजनीज ने पूछाः उसके बाद? सिकंदर ने कहाः फिर मैं विश्राम करूंगा, आनंद से विश्राम करूंगा।
डायोजनीज बोलाः बड़े पागल हो! इसलिए मैंने कहा, मैं अभी विश्राम कर रहा हूं, आ जाओ और विश्राम करो, इतनी दौड़ की क्या जरूरत है? अगर अंत में विश्राम ही करना है, तो इतनी दौड़ की क्या जरूरत है? और अगर अंत में अपने पर ही लौटना है, तो इतनी सारी दुनिया के भ्रमण करने की क्या जरूरत है? कहते हो, आखिर में अपने पर लौट आऊंगा अपने घर और विश्राम करूंगा। तो इतनी दौड़? नाहक समय खो रहे हो। इतनी देर और विश्राम कर ले सकते हो। और फिर मेरे झोपड़े में दो के लायक काफी जगह है, आ जाओ, जैसा मैं विश्राम कर रहा हूं तुम भी करो।
सिकंदर ने कहा कि बात तो तुम्हारी ठीक मालूम पड़ती है, लेकिन मैं अब आधी यात्रा पर निकल आया, अब बीच से लौटना उचित नहीं। डायोजनीज बोलाः तुम्हें पता है आज तक किसी आदमी की यात्रा पूरी नहीं हुई, हर आदमी को बीच यात्रा से लौट जाना पड़ता है। और तुम भी बीच यात्रा से लौट जाओगे, स्मरण रखना। वह क्षण नहीं आएगा जब तुम विश्राम कर सको। क्योंकि वह चित्त तुम्हारा नहीं है जो विश्राम और आनंद को जान ले। और तुम बीच में ही टूट जाओगे, समाप्त हो जाओगे। यात्रा तो नहीं होगी पूरी, तुम पूरे हो जाओगे। और यही हुआ। सिकंदर भारत से वापस लौटते वक्त घर तक नहीं पहुंच पाया, बीच में समाप्त हो गया।
फिर तो बड़ी अजीब एक और घटना घटी और वह यह कि जिस दिन सिकंदर की मृत्यु हुई संयोग की बात उसी दिन डायोजनीज की भी मृत्यु हुई। और सारे यूनान में एक कहानी प्रचलित हो गई की मरने के बाद दोनों वैतरणी पर मिल गए स्वर्ग में। जब वे वैतरणी पार करते थे, नदी पार करते थे स्वर्ग के प्रवेश के लिए तो वहां उनका मिलना हो गया, वे एक ही दिन मरे थे। सिकंदर थोड़ी देर पहले मरा था और डायोजनीज थोड़ी देर बाद। सिकंदर आगे था, डायोजनीज पीछे था। पैरों की आवाज सुन कर और किसी की हंसने की आवाज सुन कर सिकंदर को खयाल आया, यह हंसी तो पहचानी हुई मालूम पड़ती है, लौट कर उसने देखा, हैरान हुआ, वही फकीर था। और तब सिकंदर बहुत डर आया। उसकी कल्पना न थी कि इस आदमी से फिर मिलना हो जाएगा। उसकी घोषणा सच साबित हुई थी, यात्रा अधूरी समाप्त हो गई थी और सिकंदर ने दुनिया तो जीत ली थी लेकिन विश्राम नहीं कर पाया था। शायद डायोजनीज इसीलिए हंस रहा था। लेकिन अपनी झेंप और अपनी हीनता मिटाने को सिकंदर ने जोर से खुद भी हंसा और चिल्ला कर कहा कि बड़ी खुशी की बात है डायोजनीज, हम दोनों का फिर मिलना हो गया। एक बादशाह का एक फकीर से फिर से मिलना हो गया।
डायोजनीज और जोर से हंसने लगा और उसने कहा कि तुम ठीक ही कहते हो, एक बादशाह का एक फकीर से मिलना। लेकिन थोड़ी भूल करते हो। कि कौन बादशाह है और कौन फकीर है? बादशाह पीछे है और फकीर आगे है। मैं सब कुछ पाकर लौट रहा हूं, तुम सब कुछ खोकर लौट रहे हो, फिर कौन है बादशाह इस समय?
एक ऐसी संपदा है मनुष्य के भीतर कि उसे पाए बिना न कभी कोई पूर्ति, पूर्णता, न कोई आनंद को उपलब्ध होता है। एक ऐसा सत्य है मनुष्य के भीतर, एक ऐसा राज्य, एक ऐसा साम्राज्य, एक ऐसा सौंदर्य, एक ऐसा आनंद और आलोक कि उसे पाए बिना हर आदमी दरिद्र है, दीन-हीन है, दुखी और पीड़ित है। फिर चाहे वह बाहर की दुनिया में कुछ भी पा ले, अगर भीतर के जगत में उसने कुछ नहीं पाया तो उसकी सारी संपदा का मूल्य दो कौड़ी से ज्यादा नहीं है। और वह संपत्ति केवल प्रतीत होती है कि है। क्योंकि जो संपत्ति छिन सकती है वह संपत्ति नहीं है, केवल विपत्ति है। और जो संपत्ति नहीं छीनी जा सकती वही संपत्ति है।
क्या कोई ऐसी संपत्ति है मनुष्य के भीतर? क्या कोई ऐसा सत्य है? क्या कोई ऐसा लोक है मनुष्य की चेतना में जहां वह दुख और पीड़ा के पार हो जाए? अंधकार और अज्ञान के बाहर? जान सके मृत्यु के अतीत, जान सके उसे जो अनंत है और असीम है। है, मनुष्य के भीतर है, सबके भीतर है। लेकिन होना काफी नहीं है, उस पर आंख पड़नी चाहिए, उसका दर्शन होना चाहिए। अगर मेरे घर में खजाने भी गड़े हों और मुझे पता न हो तो मैं भिखारी की तरह भटकूंगा, रोऊंगा, गिड़गिड़ाऊंगा, दूसरों के द्वारों पर भीख मांगूंगा। मेरे घर में गड़े हुए खजाने किसी अर्थ के न होंगे। वे अर्थवान हो सकते हैं तभी जब मैं उन्हें जान लूं, पहचान लूं।
एक बहुत बड़े महानगर में एक भिक्षु मर गया था। वह जिस जमीन पर तीस वर्षों से भीख मांगता रहा बैठ कर, जहां उसने अपने गंदे चीथड़े फैला रखे थे, और तीस वर्षों की गंदगी फैला रखी थी। वह मर गया, तो पड़ोस के लोगों ने उसकी लाश को तो फिंकवा दिया। और चूंकि उस भिखारी ने तीस वर्षों तक गंदगी की थी उस जमीन पर, उन्होंने सोचा, इसे थोड़ा खोद कर जरा इसकी जमीन साफ करवा दें। वे हैरान रह गए। जहां उन्होंने खोदा वहां खजाने गड़े थे। और वह भिखारी उन्हीं के ऊपर बैठ कर जीवन भर भिक्षा का पात्र फैलाए बैठा रहा और भीख मांगता रहा।
क्या अर्थ था उस खजाने का जो नीचे गड़ा था? कोई भी नहीं। वह न होने के बराबर था। वह भिखारी और हममें बहुत भेद नहीं। जिस जमीन पर हम खड़े हैं वहीं बहुत कुछ गड़ा है। जहां हम हैं वहां बहुत कुछ है। ऐसे खजाने हैं जिन्हें पाकर आदमी परम आनंद को उपलब्ध हो जाता है। ऐसा सौंदर्य है, ऐसा सत्य है, ऐसा संगीत है कि जिसमें डूब कर जीवन का अर्थ उपलब्ध हो जाता है। लेकिन उस तरफ आंख उठनी चाहिए। उसके होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह दिखाई पड़ना चाहिए। अगर वह दिखाई नहीं पड़ता तो हम तो भिखमंगे भीख मांगे चले जाएंगे और हम भीख मांगते हुए समाप्त भी हो सकते हैं।
लेकिन उस तरफ आंख तभी उठ सकती है जब बाहर की तरफ से आंख का धोखा टूट जाए, उसके पहले उसकी तरफ आंख नहीं उठ सकती। कौन सी चीज है जो रोके हुए है उस तरफ आंख उठने से? कौन सी बात है जो अटकाए हुए है? एक बात, और केवल एक ही बात, और वह यह कि शायद यह आशा कि बाहर मैं कुछ पा लूं--संपत्ति, शक्ति, पद, वैभव--कुछ पा लूं बाहर तो तृप्ति हो जाएगी मेरी। यह आशा और यह भ्रम भीतर आंख नहीं उठने देता। चैबीस घंटे, चैबीस घंटे आंख अटकी रहती है कहीं बाहर। फिर यह आंख बाहर भटकते-भटकते परेशान हो जाती है, थक जाती है, बुढ़ापा आ जाता है। तो हम देखते हैं बूढ़े आदमियों को मंदिरों में जाते, संन्यासियों की बातें सुनते, शास्त्र पढ़ते। थक जाती है आंख, बाहर से ऊब जाती है, परेशान हो जाती है, तो फिर हम सोचते हैं अब धर्म की शरण, क्योंकि मौत आती है करीब और वह जीवन तो हमने गंवा दिया।
लेकिन तब भी हम बाहर ही खोजते हैं। जीवन भर की गलत आदत पीछा नहीं छोड़ती। तब भी हम किसी मंदिर में खोजते हैं जो बाहर है। और किसी गुरु के चरणों में खोजते हैं, वह भी बाहर है। और किसी शास्त्र में खोजते हैं, वह भी बाहर है। और हिमालय पर चले जाएं और संन्यासी हो जाएं, वह सब होना बाहर है। वह जीवन भर की जो गलत आदत थी बाहर खोजने की, यद्यपि यह दिखाई पड़ गया कि बाहर नहीं मिलता, लेकिन फिर भी धर्म के नाम पर भी हम बाहर ही खोजते हैं। पहला भ्रम टूट जाता है तो दूसरा भ्रम उसकी जगह खड़ा हो जाता है।
सवाल यह नहीं है कि बाहर आप धन खोजते हैं, अगर आप धर्म भी बाहर खोजते हैं तो बात वही है, कोई फर्क न हुआ। सवाल यह नहीं है कि बाहर आप शक्ति खोजते हैं, पद खोजते हैं, राज्य खोजते हैं, अगर ईश्वर को भी बाहर खोजते हैं कोई फर्क न हुआ, बात वही की वही है। जो बाहर खोजता है उसकी आंख भीतर नहीं पहुंच पाती, फिर चाहे बाहर वह कुछ भी खोजता हो। एक संन्यासी मोक्ष खोज रहा है कि मरने के बाद मोक्ष चला जाएगा, बाहर खोज रहा है। एक आदमी परमात्मा को खोज रहा है जगह-जगह, जगह-जगह, बाहर खोज रहा है। बाहर की खोज संसार है। फिर चाहे वह खोज किसी भी चीज की क्यों न हो। भीतर की खोज धर्म है। भीतर क्या खोजेंगे? भीतर का तो हमें कोई पता ही नहीं, खोजेंगे क्या? ईश्वर को खोजेंगे? धन को खोजेंगे? क्या खोजेंगे भीतर? भीतर तो अननोन है, अज्ञात है, क्या खोजेंगे? भीतर का हमें कोई पता नहीं, इसलिए हम क्या खोजेंगे?
 बस एक ही बात हो सकती है, बाहर की खोज व्यर्थ दिखाई पड़ जाए तो बाहर से आंख अपने आप भीतर लौटनी शुरू हो जाएगी। जहां हमें सार्थकता दिखाई पड़ती है वहां हमारी आंख अटकी रहती है। वहीं हमारी आंख लगी रहती है जहां हमें अर्थ दिखाई पड़ता है, मीनिंग दिखाई पड़ता है। अगर वह मीनिंग दिखाई पड़ना बंद हो जाए कि वहां नहीं है अर्थ, आंख बदल जाएगी, फौरन बदल जाएगी। जहां हमें दिखाई पड़ता है कि अर्थ है वहीं हम बंधे रह जाते हैं।
 एक रात एक जंगल में दो साधु निकलते थे। वृद्ध साधु, जैसे ही सांझ ढलने लगी और सूरज ढलने लगा, अपने युवा साथी से पूछा, कोई खतरा तो नहीं है इस जंगल में? कोई डर तो नहीं है? वह युवा संन्यासी हैरान हुआ। आज तक ऐसी बात उसके वृद्ध गुरु ने कभी न पूछी थी। अंधेरे से अंधेरे, बीहड़ से बीहड़, निबिड़ से निबिड़ जंगलों में से वे निकले थे, लेकिन कभी उसने न पूछा था कि कोई भय तो नहीं, कोई फियर तो नहीं, कोई डर तो नहीं। संन्यासी को डर कैसा? वह थोड़ा चिंतित हुआ। आज यह बात क्यों उठ आई है मन में? क्या हो गया है आज? कुछ गड़बड़ जरूर है। कोई फर्क जरूर है।
थोड़ी देर बाद वे एक कुएं के पास रुके हाथ-मुंह धो लेने को। सूरज ढल गया था। वृद्ध ने अपनी झोली युवा को दी और कहाः जरा सम्हाल कर रखना, मैं हाथ-मुंह धो लूं। तब उस युवक को खयाल आया, झोली में जरूर कुछ होना चाहिए। शायद कुछ है झोली में, उसी का भय है। उसने झोली में हाथ डाला, देखा, एक सोने की ईंट। उसने उस ईंट को तो फेंक दिया जंगल के रास्ते के किनारे, उतने ही वजन का एक पत्थर झोली के भीतर रख दिया।
फिर यात्रा फिर शुरू हो गई। गुरु आ गया और उसने जल्दी से अपनी झोली ले ली और वे फिर चलने लगे। थोड़ी ही देर बाद फिर गुरु ने कहाः जंगल में कोई डर तो नहीं है? रात घनी होती जाती है। रास्ता तुम्हारा परिचित है, भटक तो न जाएंगे? जल्दी ही गांव आ जाएगा या नहीं? जल्दी ही गांव आ जाएगा या नहीं? उस युवक ने कहाः भयभीत न हों, अब कोई भय नहीं, मैं भय को पीछे फेंक आया हूं। उसने घबड़ा कर झोली में हाथ डाला, वहां तो एक पत्थर का टुकड़ा रखा था। वह वृद्ध हंसने लगा और उसने कहाः कितने आश्चर्य की बात है, मुझे खयाल था कि सोने की ईंट ही रखी है, तो मैं सम्हाले चला जा रहा था, बार-बार टटोल कर देख लेता था। मुझे क्या पता है कि भीतर पत्थर है?
पत्थर उसने फेंक दिया और वह बोला कि अब चलने की कोई जरूरत नहीं है, अब यहीं सो जाएं। अब गांव फिर सुबह उठ कर चलेंगे। उस ईंट में अर्थ था तो मन वहां बंधा था। अब ईंट पत्थर हो गई तो रात वहीं सो गए वे। फिर कोई भय न था, फिर कोई चिंता न थी, फिर कोई विचार न था। फिर वह झोला एक तरफ पड़ा रहा और वह पत्थर भी एक तरफ पड़ा रहा।
जहां हमारा अर्थ है, चाहे उसमें अर्थ हो या न हो, जहां हमें अर्थ का बोध है, जहां हमारे चित्त को लगता है कि वहां अर्थ है, वहां हम बंधे रह जाते हैं। बाहर, बाहर जो जगत है उसमें लगता है अर्थ है, इसलिए बंधन है।
 बाहर का जगत नहीं बांधता है किसी को--वह घर नहीं बांधता जिसमें आप रहते हैं, वह पत्नी और बच्चे नहीं बांधते जो आपके पास हैं। कोई नहीं बांधता आपको। आपके अर्थ का बोध बांधता है। आपको लगता है कि वहां अर्थ है, तो चित्त बंध जाता है, अटक जाता है, उलझ जाता है।
फिर कुछ नासमझ हैं कि इस बाहर के जगत को छोड़ कर भागते हैं--पत्नी को छोड़ कर, बच्चे को छोड़ कर, घर-द्वार छोड़ कर जंगल की तरफ भागते हैं। जो भागता है वह भी मानता है कि अर्थ वहां था। नहीं तो भागने का कोई कारण नहीं।
जिसके पीछे हम भागते हैं उसमें भी अर्थ है और जिससे हम भागते हैं उसमें भी अर्थ है। अगर अर्थ न हो तो उससे भागने का कोई कारण भी तो नहीं। दो तरह के लोग हैं जमीन पर। एक तो वे जो बाहर की चीजों के पीछे भागते हैं और एक वे जो बाहर की चीजों से डर कर भागते हैं। लेकिन दोनों एक बात में सहमत हैं कि बाहर की चीज में अर्थ है।
ये दोनों ही व्यक्ति धार्मिक नहीं हैं। यह गृहस्थ धार्मिक नहीं जो घर में रह रहा है और वह संन्यासी धार्मिक नहीं जो घर छोड़ कर भागता है। इन दोनों का जहां तक इस बात का संबंध है कि बाहर अर्थ है, ये दोनों सहमत और राजी हैं। यह एक ही आदमी की दो शक्लें हैं। यह एक ही आदमी के दो पहलू हैं। यह एक ही दृष्टि के दो रूप हैं। यह भिन्न दृष्टि नहीं है।
भिन्न दृष्टि तो उसकी है जिसे बाहर अर्थ दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। तो न तो वह बाहर की चीजों के पीछे भागता है और न उनसे डर कर भागता है। उसका भागना, उसका दौड़ना बंद हो जाता है। न तो वह धन के पीछे भागता है और न धन को छोड़ कर भागता है।
एक बहुत बड़े संन्यासी के पास मैं था। लोगों ने कहा, उनके सामने अगर कोई रुपये-पैसे ले जाए, तो वे आंख बंद कर लेते हैं। तो मैंने कहा कि फिर रुपये-पैसे से उनका लगाव जारी है, उनका संबंध कायम है, रुपये-पैसों पर उनकी नजर है। नहीं तो आंख बंद करने का क्या कारण है? कौन सी वजह है? अगर कोई आदमी स्त्री को देख कर आंख बंद कर लेता हो, तो समझ लें उसकी आंख स्त्री पर है। नहीं तो आंख बंद करने की क्या वजह है? भागने की क्या वजह है? डरने की क्या वजह है? कोई स्त्री से थोड़े ही डरता है, कोई स्त्री पुरुष से थोड़े ही डरती है, डरती है अपने भीतर छिपे हुए भाव से। डरता है व्यक्ति अपने भीतर छिपी हुई कामना से। वह वहां मौजूद है, इसलिए डर है, इसलिए आंख बंद करते हैं। और आंख बंद करने से वह मिटेगा जो आंख के भीतर है? आंख बंद करने से उसका क्या संबंध है? कोई भी संबंध नहीं है। आंख खुली हो या बंद हो, जो भीतर है वह भीतर है।
तो हम धन के पीछे भागें कि धन छोड़ कर भागें। हम राज्य को पकड़ें या राज्य को छोड़ें। दोनों हालत में हम वहीं हैं। कोई फर्क नहीं है। संन्यास के भ्रम ने, इस बात के भ्रम ने कि जो बाहर को छोड़ कर भागता है वह धार्मिक है, जमीन पर धर्म को नहीं आने दिया। यह बात बिलकुल ही भ्रामक है। यह वही आदमी है जो चीजों के पीछे भाग रहा था। यह वही आदमी है बिलकुल वही जो चीजों को छोड़ कर भाग रहा है। इसके भीतर कोई भी क्रांति नहीं हो गई।
एक गांव में एक वृद्ध दंपति था। पति था और पत्नी थी। और दोनों न तो भीख मांगते और न ही कोई बड़ा व्यवसाय करते थे। लकड़ियां काट लाते थे जंगल से, बेच देते। जो पैसा आ जाता संध्या तक, जो थोड़ा रूखा-सूखा खाने को मिल जाता खा लेते और जो बच जाता वह संध्या बांट देते। रात्रि फिर दरिद्र होकर सो जाते। सुबह फिर वही लकड़ी काट लाते।
एक दिन वर्षा थी, दूसरे दिन भी वर्षा और तीसरे दिन भी। अचानक वर्षा आ गई थी। तीन-चार दिन उन्हें भूखे ही रह जाना पड़ा। और चैथे दिन जब सूरज निकला और धूप निकली तो वे जंगल गए।
चार दिन के भूखे बूढ़े कमजोर बामुश्किल उन्होंने लकड़ियां काटीं और उन लकड़ियों को काट कर उनकी मौलियां बना कर लौटे। पति आगे था, पत्नी थोड़े पीछे थी। रास्ते पर देखा उसने कि एक थैली पड़ी है। कुछ अशर्फियां बाहर पड़ी हैं सोने की, कुछ थैली के भीतर हैं। उसके मन को खयाल आया, पति को खयाल आया, मैंने तो स्वर्ण को जीत लिया, मैंने तो धन पर विजय पा ली, मैंने तो त्याग कर दिया है पूरा, लेकिन पत्नी का क्या भरोसा?
पतियों को कभी भी पत्नियों पर कोई भरोसा नहीं है, उसको भी नहीं था। सोचा, कहीं उसका मन न डोल जाए, कहीं उसके मन में यह खयाल न आ जाए, चार दिन की भूख, परेशानी। उठा ले, व्यर्थ पाप लगेगा उसके मन को। कमजोर होती हैं स्त्रियां, सोचा ऐसा उसने। ऐसा अपने आपको मजबूत सोचने के लिए सुविधा होती है दूसरे को कमजोर सोच लेना।
तो उसने जल्दी से उस अशर्फी और थैली को गड्ढे में सरका कर मिट्टी डाल दी। पीछे उसकी पत्नी भी आ गई जब वह मिट्टी डाल ही रहा था, उसकी पत्नी ने पूछा क्या करते हैं? सत्य बोलने का नियम था उसका, मुश्किल में पड़ गया।
जो भी नियम ले लेते हैं सत्य बोलने का वे मुश्किल में पड़ ही जाते हैं। क्योंकि सत्य सहज निकले वह बात दूसरी है और नियम से निकले वह बात बिलकुल दूसरी है। तो कठिनाई खड़ी हो गई। सच बोलता है, तो जो बात छिपानी चाही थी वह जाहिर होती, झूठ बोल नहीं सकता। इसलिए मजबूरी में उसे कहना ही पड़ा कि मुझे क्षमा करो, अपने मन में कोई वासना मत लाना। बहुत बहुमूल्य अशर्फियों वाली थैली यहां पड़ी थी, सोने की अशर्फियां थीं। मैंने सोचा, मैंने तो स्वर्ण पर विजय पा ली, लेकिन तुम्हारा मन कहीं डोल न जाए। इसलिए मैंने उन्हें हटा कर मिट्टी से ढंक दिया, ताकि तुम देख न पाओ। वह पत्नी हंसने लगी और उसने कहाः तुम्हें सोना अभी दिखाई पड़ता है? और तुम्हें मिट्टी पर मिट्टी डालते हुए शर्म भी नहीं आती?
यह जो पति है, यह वही का वही है, इसने सोना छोड़ा है लेकिन सोने से इसका अर्थ नहीं गया। इसे अभी सोना मिट्टी नहीं हुआ। सोना ही है छोड़ा है इसने, लेकिन छोड़ने से सोना मिट्टी थोड़े ही हो जाता है। जानने से, छोड़ने से नहीं। जागने से, छोड़ने से नहीं। बोध के जगने से सोना जरूर मिट्टी हो जाता है। और सोना मिट्टी हो जाए तो न तो उसे पकड़ने की दौड़ रह जाती है और न छोड़ने की। सोना अपनी जगह रह जाता है, हम अपनी जगह रह जाते हैं। उससे हमारा नाता टूट जाता है।
गृहस्थी का भी नाता है, संन्यासी का भी नाता है, रिलेशनशिप है। वह चाहे पकड़ने की हो, चाहे छा.ेडने की हो। धार्मिक आदमी वह है बाहर के जगत से जिसका अर्थ विलीन हो गया, रिलेशनशिप टूट गई, संबंध टूट गया। यह तो बोध, अवेयरनेस, बाहर से हम इतना अपने को भरते हैं फिर भी भर नहीं पाते, तो कहीं कोई भूल तो नहीं है? कहीं कुछ ऐसा तो नहीं है कि बाहर हम कुछ भी इकट्ठा करने में समर्थ हो जाएं भीतर हम खाली ही बने रहेंगे।
सच है, सीधी गणित की बात है, जो बाहर है वह भीतर को कैसे भर सकेगा? जो बाहर है वह भीतर आ कैसे सकेगा? खालीपन है भीतर, एंप्टीनेस है भीतर। और जो भी हम जोड़ लेंगे वह होगा बाहर। भीतर और बाहर का मेल कहां होता है। जोड़ेंगे वह रह जाएगा बाहर, भीतर उसे कैसे ले जाइएगा?
 जो भी बाहर है वह भीतर न जा सकेगा। वह डाइमेन्शन अलग है, वह आयाम अलग है। जो बाहर है वह भीतर नहीं जा सकेगा। बाहर का बाहर रह जाएगा। भीतर हम खाली के खाली रह जाएंगे। और उसी भीतर के खालीपन को भरने के लिए दौड़े थे, इकट्ठा किया था यह सब। इस इकट्ठा करने में जीवन तो व्यतीत होगा लेकिन उपलब्धि नहीं होती है, नहीं हो सकती है।
 भीतर को भरने का उपाय बाहर नहीं है, इस बोध का नाम धर्म है। इस समझ, इस अंडरस्टेंडिंग का नाम धर्म है। न तो गीता पढ़ लेने का नाम, और न बाइबिल पढ़ लेने का नाम, और न टीका लगा लेने का नाम, और न मंदिर चले जाने का नाम, और न इस तरह के वस्त्र या उस तरह के वस्त्र पहन लेने का नाम धर्म है। यह सब धोखे की बातें हैं, जिनमें हम धार्मिक होने का मजा ले लेते हैं बिना धार्मिक हुए।
सस्ते उपाय हमने खोज लिए हैं धार्मिक होने के भी। सस्ते, दो-दो पैसे के उपाय। एक आदमी चार पैसे की माला खरीद लाए और उस पर अंगुलियां फिराता रहे, तो वह धार्मिक हो जाता है। इस भांति सेल्फ-डिसेप्शन, खुद को हम धोखा दे लेते हैं, धार्मिक हो गए हैं। धार्मिक होना एक आमूल-क्रांति है। और वह क्रांति इस बात से संबंधित है कि बाहर के जीवन में अर्थ नहीं है यह दिखाई पड़ जाए। यह कैसे दिखाई पड़ेगा? किस मार्ग से यह दिखाई पड़ जाएगा कि बाहर के जीवन में अर्थ नहीं है? अॅाब्जर्वेशन से, निरीक्षण से। बाहर के जीवन को और स्वयं को थोड़ा निरीक्षण करें, थोड़ा देखें। निंदा न करें। निंदा न करें कि बाहर का जीवन पाप है और बुरा है, छोड़ना है इसे। जो निंदा करता है उसे अर्थ दिखाई पड़ रहा है। निंदा न करें। कंडेमनेशन का कोई मतलब नहीं है।
बाहर की दुनिया की निंदा न करें कि यह पाप है और बुरा है। पाप और बुरा है तो भी अर्थ मौजूद है। नहीं, बाहर के जीवन को बहुत निर्दोष चित्त से देखें। बहुत इनोसेंट आब्जर्वेशन चाहिए। देखें आंख खोल कर यह बाहर की जिंदगी है, क्या है यह? और इतना मैं दौडूं और इतना इकट्ठा कर लूं, क्या होगा? क्या हो रहा है दूसरों को?
अमरीका का एक अरबपति कारनेगी मरा। तो उसके पास चार अरब रुपये थे मरते वक्त। लेकिन बहुत उदास और दुखी था। उसकी जीवन-कथा लिखने वाले लेखक ने उससे पूछा, आप तो तृप्त होंगे, अपने ही जीवन में अकेले अपने श्रम से चार अरब रुपये आपने खड़े किए। कारनेगी ने कहाः तृप्त? मेरे इरादे दस अरब रुपये इकट्ठे करने के थे। मैं एक असफल आदमी हूं।
क्या आप सोचते हैं कारनेगी को दस अरब रुपये मिल जाते तो सफल आदमी हो जाता? हम जानते हैं जिनको दस अरब मिलते हैं वे भी सफल नहीं मानते अपने को, क्योंकि यदि वे सफल मान लें तो आगे की दौड़ बंद कर दें। लेकिन नहीं, दस अरब के बाद भी दौड़ जारी रहती है। सफलता नहीं आई, नहीं तो दौड़ बंद हो जाती। सफलता आती तो दौड़ रुक जाती। कभी किसी की दौड़ रुकते देखी है? दस अरब मिल जाते कारनेगी को, तो उसे पता भी नहीं चलता कि उसके सपने सौ अरब के कब हो गए? चुपचाप अंधेरे में सपने आगे बढ़ जाते हैं।
जितना हम पा लेते हैं उससे बहुत आगे हमारे सपने खड़े हो जाते हैं आकाश के क्षितिज की भांति, हॅारिजन की भांति दिखता है कि जमीन को छू रहा है। यहीं पास, यहीं सूरत के बाहर जमीन को छू रहा है आकाश चारों तरफ से, बढ़ें, बढ़ें थोड़ा, तो पाएंगे वह आकाश भी हटता चला जा रहा है। सूरत बहुत पीछे छूट जाएगा और आकाश को जमीन छूने की जो रेखा है वह उतनी ही दूर रहेगी जितनी तब थी, जब हम नहीं चले थे। कितना ही चल लें वह उतनी ही दूर रहेगी। असल में आकाश जमीन को कहीं छूता ही नहीं, नहीं तो फासला पूरा हो सकता था। चित्त की जो क्षितिज रेखा है आकांक्षा की, आशा की, वह भी कहीं पूर्ति को छूती नहीं। नहीं तो पूरी हो सकती थी।
बच्चों की एक छोटी कथा है। अलाइस नाम की लड़की परियों के देश में पहुंच गई थी। जब वह परियों के देश में पहुंची, जमीन से चलते-चलते बहुत थक गई थी। आकाश में पहुंच गई, तो बहुत थकी हुई थी। जमीन से चलना, छोटी बच्ची, भूख-प्यास लग आई थी उसे। वहां जाकर उसने देखा, शीतल ठंडी हवाएं बहती हैं, बड़ी सुंदर जगह है, पर भूख उसे जोर से लगी है। और चारों तरफ आंखें दौड़ाईं, देखा, थोड़ी ही दूर पर, थोड़ी ही दूर पर, जरा से फासले पर, सौ कदमों की दूरी पर परियों की रानी खड़ी है। उसके हाथ में फलों के, मिठाइयों के थाल हैं। और वह रानी उसे बुला रही है कि अलाइस आ, उसे इशारा कर रही है।
अलाइस ने दौड़ना शुरू किया। सुबह थी, तब सूरज निकल रहा था। वह भागी, सौ ही कदम का फासला था, दो क्षण का फासला था, लेकिन भागी। भागी, सूरज ऊपर चढ़ने लगा और वह घबड़ा गई। वह भागती जा रही है, रुक कर देखती जाती है, फासला उतना ही है, डिस्टेंस उतना ही है। वह रानी अब भी खड़ी है दरख्त के नीचे, हाथ में उसके फलों के थाल हैं और वह इशारा करती है कि आओ, उसकी आवाज सुनाई पड़ती है कि आ जाओ अलाइस। वह फिर भागती है। सूरज ऊपर आ गया, धूप कड़ी हो गई। वह थक गई, पसीने से भर गई। उसने रुक कर खड़े होकर चिल्ला कर पूछा, यह क्या मामला है? सुबह से दोपहर हो गई दौड़ते-दौड़ते, फासला छोटा मालूम पड़ता है, लेकिन मैं दौड़ती चली जा रही हूं और तुम उतनी ही दूर हो जितनी दूर थीं?
 उस रानी ने कहाः यह मत सोचो, जो सोचते हैं वे मुश्किल में पड़ जाते हैं। दा.ैडो, सोचने वाला मुश्किल में पड़ जाता है। उसने कहाः दौड़ो। दौड़ने वाला पहुंचता है, सोचने वाला मुश्किल में पड़ जाता है। उसको भूख लगी थी। वह फिर दौड़ने लगी। सूरज ढलने को आ गया, सांझ हो गई, वह अलाइस थक कर गिर पड़ी। फासला उतना का उतना था। उसने चिल्ला कर पूछाः रानी, यह कैसी दुनिया है तुम्हारी? सुबह से सांझ हो गई मेरे दौड़ते-दौड़ते, यह रास्ता कहीं ले जाता नहीं, तुम तक पहुंचाता नहीं, फासला उतना है और अब तो अंधेरा भी उतरने लगा। उस रानी ने कहाः पागल लड़की, तुझे शायद पता नहीं, दुनिया में कोई रास्ता किसी को कहीं नहीं पहुंचाता।
सुबह जन्म के सूरज के साथ आदमी जहां अपने को पाता है मृत्यु की संध्या वहीं पाता है, फासले उतने ही रहते हैं। फासले उतने ही रहेंगे। दौड़ने से पूरे नहीं होते। इसका आब्जर्वेशन चाहिए, इसका निरीक्षण चाहिए कि हम आंख खोल कर चारों तरफ देखें। आंख खोल कर जो देखेगा वह आदमी धार्मिक हुए बिना नहीं रह सकता। लेकिन जिनको हम धार्मिक जानते हैं वे तो आंख बंद करके बैठ जाते हैं।
आंख बंद करने में धर्म नहीं, आंख ठीक से पूरी खोलने में धर्म है। आंख बंद करना एक तरह की मौत है। आंख बंद करना एक तरह की सुसाइड है, आत्महत्या है। क्योंकि जो आंख बंद करता है वह तथ्यों के जगत से टूट जाता है। और उन्हीं तथ्यों के निरीक्षण में छिपा है सत्य। उसी में जो सब तरफ फैला है, उसी में देखना है ठीक से। उसमें हम ठीक से नहीं देख पाते, इसलिए अर्थ मालूम होता है। ठीक से देख पाएं, अर्थ विलीन हो जाता है।
तो राइट अॅाब्जर्वेशन चाहिए, सम्यक दृष्टि, ठीक-ठीक आंख चाहिए देखने वाली। ठीक आंख का पहला लक्षण हैः निष्पक्ष, अनप्रिज्युडिस्ड। पहलाः बिना किसी पक्ष के। दूसरा लक्षण हैः सरलता से, सहजता से जो तथ्य है उसको देखना। सिद्धांतों के माध्यम से जो तथ्य को देखता है वह तथ्यों को कभी नहीं देख पाता और जो तथ्यों को नहीं देख पाता, फैक्ट्स को नहीं देख पाता, उसकी आंखें कभी भ्रम से मुक्त नहीं हो पाती हैं।
एक युवक अपने गुरुकुल से वापस लौटा। जब वह गुरु से विदा होता था, उसने गुरु के पैर पड़े और उसकी आंखों से आंसू गिर पड़े गुरु के चरणों पर। गुरु ने कहाः रोते हो, क्या बात है? उसने कहाः रोऊं न तो क्या करूं? मेरे सारे मित्र आज विदाई के क्षण में कुछ न कुछ भेंट करते हैं आपको, मेरे पास लेकिन सिवाय आंसुओं के और कुछ भी नहीं, तो मैं रोता हूं और एक वचन चाहता हूं कि जब मेरे पास कुछ हो तो उसे स्वीकार कर लेना। बाद में कभी जब मैं आऊं तो मुझे इंकार न हो, इसका वचन दें, तो ही मैं जाऊंगा। मैं हूं बहुत दरिद्र, मां और पिता भी मेरे नहीं हैं। आपने ही मुझे शिक्षा दी और भोजन भी दिया और वस्त्र भी दिए और आश्रय भी। मेरे पास कुछ भी नहीं है देने को, सब कुछ आपका ही है जो मैं हूं, तो किसी दिन अगर मैं कुछ ले आऊं तो वह स्वीकृत होगा, यह वचन दे दें।
गुरु ने बहुत कहाः आंसुओं से बड़ी और कोई भेंट नहीं और प्रेम से बड़ा कोई सम्मान नहीं। लेकिन फिर भी तू नहीं मानता तो तेरी मर्जी, मेरे द्वार तेरे लिए हर चीज के लिए खुले हैं, तू कभी भी आ।
वह युवक वहां से चला देश की राजधानी में पहुंचा। उसी संध्या अपने एक मित्र के घर मेहमान हुआ। रात उसे करवटें बदलते देख कर उसके मित्र ने पूछाः बेचैन मालूम होते हो बहुत, क्या बात है? उसने कहाः बेचैनी एक ही है। जिस गुरु के पास बहुत कुछ पाया उसे मैं भेंट भी न कर सका कुछ भी, भेंट न कर सका। उसके मित्र ने पूछाः क्या भेंट करना चाहते हो? उस युवक ने कहा कि अगर पांच स्वर्ण-मुद्राएं भी मुझे मिल जाएं...लेकिन कहां मिलेंगी? मैंने तो इकट्ठी पांच मुद्राएं देखी भी नहीं। तो मैं गुरु के चरणों में रख आता। उसके मित्र ने कहाः तुम निशिं्चत सो जाओ, सुबह थोड़े जल्दी उठ आना, इस देश का जो राजा है उसका नियम है कि पहले भिक्षु, पहला याचक उसके द्वार पर जो चला जाता है वह जो भी मांग लेता है वह दे देता है। तुम पांच स्वर्णमुद्राएं मांग लेना। जल्दी चले जाना। और घबड़ाने की कोई बात नहीं है, मुश्किल से कभी कोई याचक जाता होगा।
वह निशिं्चतता से सो गया और सुबह बहुत जल्दी राजा के द्वार पर पहुंच गया। कोई वहां न था। थोड़ी देर बाद राजा अपनी बगिया में घूमने को आया। तो वह हाथ जोड़ कर उसने कहा कि मैं पहला याचक हूं जो मैं मांगूंगा दे सकेंगे आप? राजा ने कहाः आज के ही नहीं, सदा के तुम पहले याचक हो, क्योंकि आज तक जब से मैंने यह नियम लिया, कोई नहीं आया। तो जो तुम मांगोगे मैं दे दूंगा। जो तुम मांगोगे।
जैसे ही राजा ने यह कहा, जो तुम मांगोगे! पांच स्वर्ण अशर्फियों का खयाल एकदम खिसक गया और पांच हजार अशर्फियों का खयाल आ गया। गणित सीखा था उसने भी। आप थोड़े ही गणित जानते हैं, मैं ही थोड़े ही, वह भी गणित जानता था। पांच हट गए और शून्य पर शून्य लग गए--पांच हजार। उसने सोचा, जब राजा कहता है, जो मांगोगे, तो पागल हूं जो मैं पांच मागूं, पांच हजार क्यों नहीं? और फिर उसे लगा पागल हूं जो मैं पांच हजार ही मागूं, पांच लाख क्यों नहीं? या कि पांच करोड़, या कि पांच अरब, या कि खरब। और फिर बहुत ही शीघ्र क्षणों में संख्याएं लंबी हो गईं। और अंतिम संख्या आ गई जो उसे मालूम थी। और तब उसका हृदय धक् से रह गया कि मैंने और गणित क्यों न सीख लिया?
राजा सामने ही खड़ा था, उसने कहाः प्रतीत होता है तुम निश्चय करके नहीं आए। तो तुम निश्चय कर लो, मैं बगिया का एक चक्कर लगा आऊं। युवक को राहत मिली, उसने कहाः बड़ी कृपा है आपकी। मैं थोड़ा सोच लूं। लेकिन सोचने की तो अंतिम सीमा आ गई थी, संख्याएं चुक गईं थीं। क्या सोचे? क्या करे? और बहुत पीड़ा मालूम होने लगी। राजा के पदचाप सुनाई पड़ने लगे। वह वापस लौटता है। उसके पदचाप बढ़ते चले जाते हैं और वह घबड़ाया जा रहा है और मरा जा रहा है।
पांच स्वर्ण-अशर्फियां बहुत पहले छूट गईं। गुरु न मालूम कहां खो गया। देने-लेने की बात न रही। भेंट का कोई सवाल न था। सवाल था, एक राजा कहता है, जो मांगोगे दे दूंगा। तो पीड़ा मन को सताने लगी। इस बात की खुशी नहीं की बहुत कुछ मिल जाएगा, इस बात का दुख कि पता नहीं कितना पीछे छूट जाएगा। मांग तो लूंगा यह लेकिन पता नहीं कितना पीछे छूट जाएगा। और यह अवसर जीवन में दुबारा आए न आए। और डर है कि न आएगा। क्योंकि राजा इस भेंट को देकर सचेत हो जाएगा। और शायद वापस ले-ले अपने नियम को। सोचा होगा एक गरीब सा लड़का है दस पचास रुपये मांगेगा, कोई स्कॅालरशिप की बात कहेगा या कुछ और। राजा करीब आने लगा तभी उसके सारे प्राण जैसे इकट्ठे हो गए और उसे खयाल आया मैं गलती में हूं संख्या छोड़ दूं, मैं सीधा मांग लूं कि जो कुछ तुम्हारे पास है सब मुझे दे दो। संख्या की उलझन गड़बड़ है। पीछे पछतावा होगा। सब दे दो जो तुम्हारे पास है। हां, दो वस्त्र छोड़ दूं, जो वह पहने है पहने चला जाए।
बाहर निकल जाओ दो वस्त्र पहने हुए। दया है मेरी कि दो वस्त्र छोड़ता हूं। ऐसे मन तो छोड़ने का नहीं होता। दो वस्त्र भी कौन छोड़ना चाहता है? राजा सामने आया तो वह निर्णीत था। उसने कहाः फिर से कह दें कि जो मैं मांगूंगा देंगे। राजा ने कहाः कहा मैंने, तुम चिंता क्यों करते हो। बोलो? उस युवक ने कहाः तब जो आप वस्त्र पहने हो उन्हें पहने बाहर निकल जाएं, और जो आपका है सब मेरा हुआ।
सोचा था राजा घबड़ा आएगा। पता नहीं हृदय का दौरा आ जाए, हार्ट अटेक हो जाए, या क्या हो जाए, लेकिन राजा घबड़ाया नहीं। बात उलटी हो गई। घबड़ाया युवक ही। क्योंकि राजा ने आकाश की तरफ हाथ जोड़े और कहा कि हे परमात्मा! जिस आदमी की मैं प्रतीक्षा करता था वह आ गया। और राजा ने कहाः मेरे बेटे, दो वस्त्र छोड़ने में तुझे बहुत कष्ट होगा, वह भी मैं छोड़े जाता हूं, मैं नग्न ही इस द्वार के बाहर निकल जाता हूं, जिसमें कि कभी तुझे पछतावा न हो और मेरे प्रति क्रोध न आए।
छोड़ना बहुत कठिन होता है। राजा ने कहाः दो वस्त्र भी छोड़ना बहुत कठिन होता है। और तेरी उम्र में बहुत कठिन है। वस्त्र उतारने लगा राजा। युवक बोलाः ठहरो। एक चक्कर और बगीचे का लगा आएं, मैं एक बार और सोच लूं। क्योंकि मैं घबड़ा आया हूं। मैं अबोध हूं, मेरा कोई अनुभव नहीं है। और आपकी छोड़ने की इतनी राजी, इतनी मर्जी, इतनी स्वेच्छा, इतना आनंद, तो मैं डर गया। क्योंकि जो इतना बड़ा राज्य इतनी खुशी से छोड़ कर भगवान को धन्यवाद देकर जाता है, निश्चित ही इस सबमें उसने कुछ भी न पाया होगा। जब वह अपने जीवन को व्यर्थ कर लिया आपने और आप बूढ़े हो आए और आपके सारे केश शुभ्र हो गए और आपके चेहरे पर झुर्रियां आ गईं और जीवन आपसे विदा हो गया, और आप इस सबके बीच कुछ न पा सके, तो क्षमा करें, अभी मेरे पास जीवन है, मैं वहां खोजूं जहां कुछ मिल सकता है। क्षमा करें, एक दफा और घूम आएं, मैं सोच लूं। राजा ने कहाः सोचोगे तो मुश्किल में पड़ जाओगे। सोचने वाले हमेशा मुश्किल में पड़ जाते हैं। और फिर जीवन पड़ा है सोचते रहना। मैंने भी तो जीवन भर सोचा तब जाना। रुको, जल्दी क्या है। जल्दी हो तो मुझे होनी चाहिए, सम्हालो इसे जल्दी, मैं जाऊं।
लेकिन युवक राजी नहीं हुआ और राजा को दूसरा चक्कर लगाने जाना पड़ा। और जैसा कि राजा को ज्ञात था वही हुआ। लौट कर युवक वहां नहीं था। वह अपनी पांच स्वर्ण-मुद्राएं भी बेचारा छोड़ गया।
इसे मैं कहता हूंः अॅाब्जर्वेशन। इसे मैं कहता हूंः निरीक्षण। उस युवक ने कुछ देखा, निरीक्षण किया। उसके पास आंख थी। वह राजा के आर-पार देख गया। राजा की सारी संपत्ति के आर-पार देख गया। उसे दिखाई पड़ गया।
एक आदमी के लिए जो व्यर्थ हो गया वह हरेक के लिए व्यर्थ है। आदमी और आदमी में भेद नहीं। मन और मन में अंतर नहीं। और एक आदमी सब आदमी की कथा है। लेकिन हम सब इस भ्रम में होते हैं कि मैं हूं एक्सेप्शन, मैं हूं अपवाद। मैं बात ही और हूं, बाकी सब और होंगे। इसलिए हर आदमी यह सोच कर मैं अपवाद हूं, सोचता है निरीक्षण करने की क्या जरूरत है। मैं जीऊं अपने ढंग से। नहीं, कोई मनुष्य अपवाद नहीं है। मनुष्य की कथा एक है। मनुष्य के चित्त की कथा अलग-अलग नहीं। और उसके चित्त के नियम एक हैं, भिन्न नहीं। दस हजार वर्षों में अगर कोई अनुभव मनुष्य के सामने निरपवाद रूप से खड़ा हो गया है तो वह यह कि जिन्होंने बाहर खोजा उन्होंने कुछ भी नहीं पाया। एक भी बार खोजने वाला आदमी यह नहीं कह सका कि मैं हाथ उठा कर कहता हूं कि मैंने बाहर की दुनिया में पा लिया उसे जिसे मैं पाना चाहता था। पूरे मनुष्य के इतिहास में एक आदमी नहीं जो यह कह सके कि मैंने बाहर खोजा और पा लिया। और दूसरी बात भी इतनी ही निरपवाद सत्य है जिसने भीतर खोजा उनमें से भी एक भी आदमी ऐसा नहीं जिसने कहा हो मैंने भीतर खोजा और नहीं पाया।
अगर किसी चीज को साइंटीफिक ट्रूथ कहा जा सके, किसी चीज को वैज्ञानिक सत्य कहा जा सके, तो वह यह है। क्योंकि इसका कोई एक्सेप्शन नहीं हैै, कोई अपवाद नहीं है। यह युनिवर्सल है, यह सार्वलौकिक है। यह सर्वलोक में सर्व मनुष्य के इतिहास में प्रमाणित है कि बाहर नहीं कोई अर्थ पाया जा सका।
करोड़-करोड़ अरब आदमी दौड़े और समाप्त हो गए। हम उनकी लाशों पर खड़े हैं। लेकिन हम नीचे झुक कर नहीं देखते कि हमारे पैर में किनकी धूल है, किनकी लाशें हैं।
थोड़े से लोगों ने भीतर भी खोजा है और पाया है। वे थोड़े से लोग ही सुगंध की तरह, प्रकाश की तरह, वे थोड़े से लोग ही उस सुवास की तरह हैं, उस संगीत की तरह जो कभी-कभी हमारे कानों में पड़ जाता है और कोई याद जगा देता है, खोई स्मृति और एक खयाल और एक धुन पैदा हो जाती है। हम भी खोजें।
क्या ऐसा नहीं हो सकेगा कि कभी पूरा मनुष्य का समाज इस सत्य को खोजने में समर्थ हो जाए? क्या ऐसा कभी नहीं हो सकेगा कि मनुष्य इस पृथ्वी पर बहुत बड़ी संख्या में भीतर जो छिपा है उसे जान ले?
 ऐसा हो सकेगा। क्योंकि अगर एक मनुष्य के जीवन में भी ऐसा हो सका है, तो फिर मान लें, समझ लें, इस बात को पहचान लें इस बात को कि जो एक मनुष्य के जीवन में भी हो सका है, अगर एक बुद्ध या एक महावीर या एक कृष्ण, एक क्राइस्ट के जीवन में अगर कोई आनंद की किरण फूटी है और जीवन आलोकित हो उठा है तो हर मनुष्य हो गया हकदार उसको पाने का। क्योंकि बीज अगर एक अंकुर ले आता है तो सभी बीज अंकुर ले आएंगे। अगर एक मनुष्य के भीतर ऐसी परमात्मा की सुगंध उठ आती है तो हर मनुष्य की संभावना हो गई, यह पोटेंशिएलिटी हो गई, उसके भीतर भी यह संभावना प्रकट हो सकती है। हो सकता है किसी दिन जमीन पर ऐसा दिन ऐसा लोक कि बहुत अधिक लोगों के जीवन संगीत और प्रेम और प्रकाश से भर जाएं।
 धर्म के द्वारा यह होगा। धर्मों के द्वारा नहीं। रिलीजंस के द्वारा नहीं, रिलीजन के द्वारा। धर्म के द्वारा, धर्मों के द्वारा नहीं। और यह भीड़ धर्मों की तो बाधा बनी है, यह विदा हो जानी चाहिए।
हिंदू, मुसलमान, ईसाई और जैन बड़ी अग्लिनेस के सबूत हैं, बड़ी कुरूपताओं के। मनुष्य को तोड़ने की दीवालें ये ही हैं। मनुष्य मनुष्य के बीच के फासले ये ही हैं। और जो चीज एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से अलग कर देती हो, क्या आप सोच सकते हैं वह मनुष्य को परमात्मा से जोड़ सकेगी? जो मनुष्य को मनुष्य से ही अलग कर देती हो वह मनुष्य को परमात्मा से कैसे जोड़ सकेगी?
जो तोड़ने वाला है वह धर्म नहीं है। लेकिन जो जोड़ दे प्राणों को प्राण से, एक को सबसे। और वह जोड़ तभी पैदा होता है जब आंख भीतर जाती है। जोड़ पैदा नहीं होता बल्कि आंख भीतर जाते ही पता चलता है कि हम तो जुड़े हैं, संयुक्त हैं, इकट्ठे हैं। एक ही प्राण एक ही चेतना बहुत बहुत रूपों में प्रकट और अभिव्यक्त है। और जैसे ही आंख भीतर जाती है ज्ञात होता है कि न कोई दुख हैः दुख था इसलिए की हम बाहर थे बाहर होना ही दुख था। न कोई चिंता है, न कोई पीड़ा और न है मृत्यु। बाहर हम थे इसलिए उसे नहीं देख पाते थे जो भीतर है और अमृत है।
इस छोटी सी चर्चा में मैंने एक ही बात आपसे कही, एक ही छोटा सा सूत्र, देखें आंख खोल कर जीवन को, निरीक्षण करें, तो बाहर की व्यर्थता दिखाई पड़ सकती है। और बाहर की व्यर्थता दिखाई पड़ आए तो भीतर की सार्थकता पर तत्क्षण आंख पहुंच जाती है। और जिसकी भीतर की सार्थकता पर आंख पहुंच गई वह कोई बाहर की दुनिया को वह जानने वाला नहीं बन जाता है बल्कि वही बाहर की दुनिया के लिए भी आनंद का और सुवास का स्रोत हो जाता है। वह कोई बाहर की दुनिया को मिटाने वाला और वह उजाड़ने वाला नहीं होता, बल्कि वही आधार बन जाता है बाहर की दुनिया के लिए भी।
क्योंकि जब भीतर सुगंध पैदा होती है, तो सुगंध बाहर फैलनी शुरू हो जाती है। और जब भीतर आनंद पैदा होता है, तो आनंद बाहर बंटना शुरू हो जाता है। और जब भीतर प्रकाश का जन्म होता है, तो उसकी किरणें बाहर पहुंचनी शुरू हो जाती हैं। जो भीतर है फिर वह बाहर बंटने लगता है।
इसलिए जो स्वयं को जानता है और जो धर्म में जीता है वह संसार को उजाड़ता नहीं बल्कि उसके लिए तो सारा संसार ही परमात्मा हो जाता है।
अंत में यही प्रार्थना करूंगा, परमात्मा करे आपके भीतर से सुगंध और सत्य और संगीत पैदा हो सके। वह मौजूद है, आपकी आंख वहां पहुंच जाए, तो वह जाग जाएगा, उठ आएगा और प्रकट हो जाएगा।
बीज मौजूद हैं, अगर आपकी आंख उन बीजों पर पड़ गई तो वे अंकुरित हो जाएंगे और उनमें फूल आ जाएंगे। और जब किसी आदमी के जीवन में फूल आते हैं तो वह पूर्णता को उपलब्ध हो जाता है।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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