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मंगलवार, 20 नवंबर 2018

चेतना का सूर्य-(प्रवचन-04)

प्रवचन-चौथा-(प्रेम का केन्द्र)

अगर दुनिया बहुत होश से भरी हो तो इतने नासमझ आदमी खोजने बहुत मुश्किल होंगे, जो धुएं को भीतर करने और बाहर करने का काम घण्टो करते हो। सिर्फ धुएं को बाहर और भीतर करने के काम को घण्टो करने वाले आदमी खोजना बहुत मुश्किल हो जायेगा। और किसी से आप कहेंगे तो वह कहेगा, मैं कोई पागल तो नहीं हूँ जो धुएं को बाहर और भीतर खींचू। न केवल धुएं को बाहर और भीतर किया जा रहा है, सारी दुनिया चिल्लाती हे, समझाती है कि नुकसान है, उम्र कम होगी, बीमारी होगी, बेहोश, कान कुछ सुनते ही नहीं।
----... इसी अध्याय से


एक सूत्र मैंने आपसे कहा जीवन ऊर्जा है और ऊर्जा के दो आयाम हैं-अस्तित्व और अनस्तितव। और फिर दूसरे सूत्र में कहा कि आस्तित्व के भी दो आयाम हैं- अचेतन और चेतन। सातवें सूत्र में चेतन के भी आयाम हैं-स्व-चेतन, सेल्फ कान्शस और स्व-अचेतन, सेल्फ अनकान्शस। ऐसी चेतना, जिसे पता है अपने होने का और ऐसी चेतना, जिसे पता नहीं है अपने होने का।

जीवन को यदि हम एक विराट वृक्ष की तरह समझें तो जीवन-ऊर्जा एक है वृक्ष की। फिर दो शाखाएं टूट जाती हैं, अस्तित्व को हमने छोड़ दिया, उसकी बात नहीं की, क्योंकि उसका येग से कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर अस्तित्व की शाखा भी दो हिस्सों में टूट जाती है- चेतन और अचेतन। अचेतन की चचा्र भ्ी हमने चर्चा के बाहर छोड़ दी, क्योंकि उससे भी योग का कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर चेतन की शाखा भी दो हिस्सों में टूट जाती है- स्व-चेतन और स्व-अचेतन। सातवें सूत्र में इस भेद को समझने की कोशिश सबसे ज्यादा उपयेगी है। अब तक जो मैंने कहा है, वह आज का सातवां सूत्र आपसे कहूँग, उसके समझने के लिए भूमिका थी। सातवें सूत्र से योग की साधना प्रक्रिया शुरू होती है। इसलिए इस सूत्र को ठीक से समझ लेना उपयोगी है।

पौधें हैं, पक्षी हैं, पशु है। वे सब चेतन हैं, लेकिन स्वयं की चेतना उन्हें नहीं है। चेतन हैं, फिर भी अचेतन हैं। जीवन है, चेतना है, लेकिन स्वयं के होने का बोध नहीं है। आदमी हैं, वह भी वैसे ही है, जैसे पशु हैं, पक्षी हैं, पौधे हैं, लेकिन उसे स्वयं के होने का बोध है। उसकी चेतना में एक नया आयाम और जुड़ जाताह ै और वह स्व-चेतन भी है उसे यह भी पता है कि मैं चेतन हूँ। अकेला चेतन होना काफी नहीं है मनुष्य होने के लिए। मनुष्य होने की यह भी शर्त है कि मुझे यह भी पता है कि मैं चेतन हूँ। इतना ही फर्क मनुष्य और पशु में है। पशु भी चेतन है, लेकिन स्वयं बोध नहीं है उसे कि मैं चेतन हूँ।
अगर आप स्मरण करेंगे अतीत का तो आप ज्यादा-से ज्यादा पांच वर्ष या चार वर्ष की उम्र तक की याद कर पायेंगे। उसके बाद अंधेरा छा जायेगा। चार वर्ष के जब आप थे, उसके पीछे फिर अंधेरा छा जाता है। चार वर्ष की उम्र तक आप थे तो जरूर, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि स्व-चेतन नहीं थे। इसलिए छोटे बच्चे और पशुओं में एक-सी सरलता दिखाई पड़ती है। तनाव भी नहीं है। छोटे बच्चे और पक्षियों और पौधें में एक-सी सहजता दिखाई पड़ती है। चार वर्ष शायद हमें भी बोध नहीं था कि हम हैं। फिर रोज रात आठ घण्टे सिर्फ बेहोशी में चले जाते हैं। अगर एक आदमी साठ साल जिये तो बीस साल सोता है। बीस साल जिन्दगी के सिर्फ बेहोशी में ही होते हैं। वहां भी आप चेतन नहीं होते हैं। यह जानकर आपको हैरानी होगी कि कितनी बार सो चुके हैं आप, लेकिन आप बता सकते हैं कि नींद किस भांति आती है? कब आती है? और क्या है?
नहीं बता सकते। जब तक जागते रहते हैं रात में, तब तक तो नींद आयी नहीं होती और जब नींद आ गयी है तब आप बेहोश हो गये होते हैं। नींद आपके बेहोश ही पाती हैं सुबह जब नींद जाती है, तब तक आप बेहोश होते है। जब चली जाती है, तब होश आता है।
इसलिए तो आप कहते हैं कि रात मैं आठ घण्टे सोया। इसका यह मतलब नहीं होता कि आपके पता है कि आप आठ घण्टे सोये। इसका कुल इतना मतलब होता है कि आपके रात जागने से आखिरी क्षण और सुबह जागने के आखिरी क्षण में आठ घण्टे का फासला है, गैप है। उससे आप हिसाब रखते हैं, अन्यथा नींद में आप पशुओं, पौधों के जगत में वापस चले गये।
शेष दिन में जब आपको लगता है कि आप होश से भरे हुए हैं, तब भी आप होश से भरे हुए कभी-कभी होते हैं। रास्ते पर किसी दिन खड़ें हो जायें और राह चलते लोगों को देखें तो आपको ऐसा लगेगा, उसमें से बहुत से लोग नींद में चले जा रहे हैं। कोई किसी से बातें कर रहा है। उससे जो कि साथ है ही नहीं! कोई हाथ हिला रहा है! कोई होठ हिला रहा है! वे किससे बातें कर रहे हैं? वे किसी सपने में हैं। जागे हैं। साथ तो कोई दिखाई नहीं पड़ता। यह चर्चा किससे चल रही है? अगर अपने प्रति भी ख्याल रखेंगे तो आप पायेंगे कि जब आप जागे होते हैं तब भी पूरे समय होश में नहीं होते। होश कभी-कभी ही आता है। जैसे कोई आपकी छाती पर एकदम से छुरा रख दे तो उस क्षण में आप में सेल्फ अवेयरनेस होती है। उस क्षण में आप होश से भर जाते हैं, अन्यथा नहीं।
एक-दो-तीन उदाहरण से समझने की कोशिश करें। ये दोनों मकानों की छतें हैं। इन दोनों मकानों की छत पर एक फुट चौड़ी लकड़ी की पट्टी रख दी जाये और आपसे कहा जाये कि चल के पार कर जायें तो आप में से शायद ही कोई चलने को राजी होगा। उसी पट्टी को हम जमीन पर रख दें और आपसे कहें कि इसको चल के पार हो जायें, आप बूढ़ें, बच्चे, स्त्रियां-सभी पार हो जायेंगे और शायद ही कोई गिरे। पट्टी वही है, आप भी वही हैं। दो छतों के ऊपर रख दी है, आप चलने से इनकार क्यों कर रहे हैं? और जमीन पर इतने लोग चले और एक भी नहीं गिरा तो अभी भी गिरने की सम्भावना कहाँ है? लेकिन दिक्कत क्या आ रही है? कठिनाई बहुत दूसरी है। कठिनाई यह है कि जमीन पर चलते वक्त होश में होने की कोई जरूरत नहीं है, आप बेहोश चल सकते हैं। लेकिन उतनी बड़ी छत पार करने में होश रखना पडे़गा। होश तो अपने पास नहीं है, इसलिए बेहोशी में अगर गिर गये तो जान गयीं जमीन पर बेहोशी मे गिरे भी तो कोई जान जाने वाली नहीं है।
खतरे के क्षण में कभी-कभी होश होता है, बाकी और तो हम सोये होते हैं। जब मौत निकट होती है तो होश होता है। ऐसे हम होश में नहीं होते। इसलिए हम अपनी आदतें नहीं बदलना चाहते, क्योंकि आदतें बदलें तो होश लाना पड़ता है। पुरनी आदतें बेहोशी से चल जाती हैं। एक आदमी को देखें, वह किस भांति सिगरेट खीसे से निकलता है, मुँह से लगाता है, माचिस जलाता है। अगर गौर से देखें तो पायेंगे वह बिल्कुल बेहोश, नींद में ही काम कर रहा है। कब उसने सिगरेट निकाल ली है, कब उसने माचिस जला ली है, कब उसने धुआं निकालना शुरू कर दिया है।
अगर दुनिया बहुत होश से भरी हा तो इतने नासमझ आदमी खोजने बहुत मुश्किल होंगे, जो धुएं को भी तर करने और बाहर करने का काम घण्टों करते हों। सिर्फ धुएं को बाहर और भीतर करने के काम को घण्टों करने वाले आदमी खोजना बहुत मुश्किल हो जायेगा। और किसी से आप कहेंगे तो वह कहेगा, मैं कोई पागल तो नहीं हूँ जो धुएं को बाहर और भीतर खींचूं। न केवल धुएं को बाहर और भीतर किया जा रहा है, सारी दुनिया चिल्लाती है, समझती है कि नुकसान है, उम्र कम होगी, बीमारी होगी, बेहोश, कान कुछ सुनते ही नहीं।
अमेरीका ने पीछे तय किया कि हर सिगरेट के पैकिट पर लाल स्याही में बड़े अक्षरों में लिखा होना चाहिए, ‘दिस इज हार्मफुल टु हेल्थ’, यह हानिकर है स्वास्थ्य के लिए। सिगरेट के दुकानदारों ने, मालिकों ने, फैक्ट्री के बनाने वालों ने बड़ा शोरगुल मचाया कि हमें करोंड़ों कानुकसान हो जायेगा। जब मैंने यह सब पढ़ा तो मैंने कहा कि इन सिगरेट बनाने वालों को पता नहीं है कि लोग इतने बेहोश हैं कि लाल स्याही से लिखा हुआ कितने दिन तक पढ़ेंगे? और यही हुआ। छः महीने तक सिगरेट की बिक्री कम हुई, छः महीने के बाद फिर उतनी-की-उतनी हो गयी। और वह लाल स्याही से लिखा हुआ है पैकेट पर, मगर पढ़ने वाला तो मौजूद होना चाहिए। एक-दो दफा पढ़ लिया, फिर सो गये। वह सिगरेट की पैकिट आती है, उसमें सब लिखा है। कोई पढ़ता ही नहीं है उसको। सिगरेट की बिक्री फिर अपनी जगह आ गयी।
क्या लाल स्याही से किसी चीज पर लिखा हो कि यह जहर है, पीना खतरनाक है, होशपूर्वक आदमी कोई पियेगा? मुश्किल है। सब चीजों पर साफ है कि जहर क्या है? सब चीजों का साफ है कि बुरा क्या है? कितनी दफा आपने तय किया है कि अब क्रोध नहीं करेंगे। कितने दफे तय किया है, कितने दफे पूरा हुआ? एक भी बार पूरा नहीं हुआ, क्योंकि फिर दुबारा तय करने की जरूरत नहीं पड़ती।
मैं एक घर में मेहमान था। उस घर के बूढ़े ने मुझसे कहा कि मैंने ब्रह्ममचर्य का तीन बार व्रत लिया है। मैं बहुत हैरान हुआ ब्रह्मचर्य पर और व्रत तीन बार लिया कैसे होगा? मैंने उनसे पूछा कि फिर चौथी क्यों नहीं लिया? उस बूढ़े आदमी ने कहा तीन बार लेकर मैंने अनुभव किया कि यह पूरा नहीं हो सकता है, इसलिए चौथी बार नहीं लिया। ऐसा नहीं कि तीसरी बार पूरा हो गया।
रोज आप क्रोध करते है, रोज कसम खाते हें, फिर कल क्या होता है। जब क्रोध आता है? तब कसम का भी पता नहीं होता, क्योंकि आपको ही पता नहीं होता कि आप कहां हैं? जिसने कसम खायी थी, वह सोया हुआ है। सांझ को एक आदमी निर्णय करके सोता है कि मुझे चार बजे उठना है, कुछ भी हो जाये अब कल से उठना ही है। वही आदमी चार बजे बिस्तर मे करवट लेकर-अलार्म बजता रहता है, कहता है, छोड़ो भी, कल देखेंगे! मैंने चार बजे उठने की पक्की कसम खायी थी। लेकिन जिसने कसम खायी थी, वह सोया हुआ है। सुबह सात बजे फिर कसम खायी खा लेंगे, कल चार बजे फिर धोखा होगा। जिन्दगी भर ऐसे ही नींद में बीतते हैं। अगर हम अपने कृत्यों को देखें तो हम यह न कह सकेंगे कि हमने किये, क्योंकि अगर हमने किये होते तो इनमें से बहुत से तो किये हीं नहीं जा सकते थे।
दुनिया भर की अदालतों को पता है कि सैकड़ों अपराधियों ने अदालतों मे यह कहा है कि हमने यह खून नहीं किया, हमने यह चोरी नहीं की, लेकिन मजिस्ट्रेट झूठा मानता है, अदालत झूठा मानती है कि गवाह हैं, प्रमाण हैं, चोरी हुई है। लेकिन मैं आपसे कहता हूँ कि वे अपराधी झूठ नहीं कह रहे। हैं। जब उन्होंने चोरी की, तब वह होश में नहीं थे। जब उन्होंने हत्या की, तब वे होश में नहीं थे। होशपूर्वक हत्या करना बहुत मुश्किल है। होशपूर्वक चोरी करना बहुत मुश्किल हैं। मेरी दृष्टि में और योग की दृष्टि में, पुण्य मैं उसे कहता हूँ, जिसे करने की अनिवार्य शर्त बेहोशी है। पाप का मतलब है, ऐसा काम जिसे बिना बेहोश हुए नहीं किया जा सकता है। बेहोश होंगे तो ही कर सकते हैं। अनिवार्य शर्त है, बेहोशी होना।
इसलिए जब हम कहते हैं किसी आदमी से कि उस आदमी से कि उस आदमी का काम पशुओं जैसा है तो इसका यह मतलब नहीं होता कि पशु ऐसे काम करते हैं। आदमी जैसे काम कोई पुश नहीं करते। नहीं, लेकिन पशुओं जैसे का मतलब बहुत दूसरा है। उसाक मतलब यह है कि जिस भांति पशु सेल्फ अनकॉन्शस हैं, जैसे उनहें स्वयें का पता नहीं, ऐसे ही आदमी को भी स्वंय का पता नहीं है। यह काम पशुओं जैसा इस अर्थ में है, अन्यथा न किसी कुत्ते ने हिटलर जैसा काम किया और न किसी सांप ने चंगेज खां का काम किया है। न ही किसी पुश ने ऐसी बुराइयां की हैं जैसी आदमी नाम के पशु ने की हैं कि मानसिक तल पर यह आदमी सबको भूलकर यह काम कर रहा है, बेहोश हे, यह होश में नहीं है। इसलिए छोटे बच्चों को, सात साल के नीचे तक के बच्चों को अदालत अपराधी मानकर, दण्ड देने के लिए राजी नहीं होती, क्योंकि हम मानते हैं कि बच्चे को अभी होश नहीं आया। लेकिन सत्तर साल के बूढ़े को आ जाता है, इसकी अदालत पक्की गारण्टी दे सकती हे? सत्तर साल के बूढ़े को भी नहीं आ जाता, हम मान के चलते हैं कि आ गया हे। क्योंकि हम सत्तर साल के बूढ़े आदमी के भी कृत्य देखें तो पता चलेगा, नींद में चलते हैं, बेहोशी में चलते हैं। सत्तर साल की जिन्दगी में अगर कोई आदमी सात मिनट के होश से भर जाता हो तो काफी बड़ी मात्रा है। सात मिनट भी! अगर किसी आदमी के सत्तर साल की जिन्दगी में कॉन्शसनेस के कुछ क्षण हों तो यह पर्याप्त है उस आदमी को महावीर, बुद्ध और कृष्ण बनाने के लिए। लेकिन इतने क्षण भी नहीं होते। हम जिये जाते हैं बेहोश!
लेकिन मैंने कहा कि आदमी शुरू ही उस दिन होता है, जिस दिन सेल्फ कॉन्शसनेस, स्व-चेतना शुरू होती है। तो हम सिर्फ आदमी होने की सम्भावना हैं, आदमी नहीं। सिर्फ आदमी होने का अवसर है, आदमी नहीं। हम सिर्फ बीज रूप से सम्भव हैं कि हम स्व-चेतन हो सकते हैं, लकिन हो नहीं गये। इसलिए हमारी कठिनाई रही सदा कि बुद्ध या महावीर जैसा आदमी हो तो हम उनके आदमी कैसे कहें, हम उनको भगवान कहते हैं। भगवान का कुल कारण इतना है कि हम अपने को आदमी कहते हैं, जोकि हम आदमी ठीक अर्थों में नहीं हैं। तो अब उनको हम कहां रखें? अगर आदमी कहें तो हमारे साथ रखना पड़े। हम एक नयी कैटेगरी खोजते हैं, भगवान की।
अच्छा यह होता है कि उनको हम आदमी कहें और अपने को सब-हयूमन, उप-आदमी कहें। अभी आदमी होने की तरफ हैं, अभी आदमी हो नहीं गये। यही उचित है। यही सही है। लेकिन हमारी जिन्दगी में भी कभी-कभी एकाध क्षणों को हम चेतन हो जाते हैं। वे क्षण ही हमारी जिन्दगी के आनन्द के क्षण हैं, क्योंकि वे क्षण ही हमें हमारे स्वरूप की एक झलक, एक बिजली कौंध जाती है जैसे-ऐसी झलक दिखा जाते हैं।
योग चेतना को इन दो हिस्सों में बांटता है-स्व-चेतन और स्व-अचेतन। जो अचेतन हैं स्व की दृष्टि से, वे तो स्व-अचेतन हैं ही। हम जिन्हें कि स्व-चेतन होना चाहिए, हम बहुत हिस्सों में पशुओं के साथ हैं, बहुत हिस्सों में पौधों के साथ है, बहुत हिस्सों में पशुओं के साथ हैं। थोड़ा सा हिस्सा हमारा आदमी हुआ है।, बहुत थोड़ा-सा हिस्सा। जैसे कि बर्फ के एक टुकड़े को हम पानी में डाल दें तो जरा-सा हिस्सा बाहर निकला रहता है, दसवां हिस्सा। और नौ हिस्से नीचे डूबे रहते हैं। हम ऐसे ही हैं। हमारे नौ हिस्से तो नीचे डूबे हैं, अंधेरे में, एक हिस्सा थोड़ा-सा सतह के ऊपर आकर आदमी हुआ है।
इसलिए आदमी की बैचनी बहुत ज्यादा हैं, पशु बेचैन नहीं हैं। कोई पशु आत्मघात नहीं करता, सुसाइड नहीं करता। जिस दिन कोई पशु सुसाइड कर ले, उस दिन समझ लेना कि बहुत दिन तक वह पशु, पशु नहीं रहेगा। उसने आदमी होना शुरू कर दिया। कोई पशु आत्महत्या नहीं करता। इतनी चिन्ता ही पैदा नहीं होती कि आत्महत्या की जा सके। कोई पशु हंसता नहीं, आदमी को छोड़कर। अगर रास्ते पर भैंस हंसती हुई मिल जाये तो आप फिर दुबारा उस रास्ते पर नहीं निकलेंगे।
कोई पशु हंसता नहीं, बात क्या है? कोई पशु इतना दुखी नहीं है। कि हंस के अपने दुख को भुलाये। हंसी दुख का भुलाने की व्यवस्था है। इसलिए दुनिया में जितना दुख बढ़ता जाता है, उतना हमें मनोरंजन के साधन खोजने पड़ते हें। सिनेमा है। टेलीविजन है, रेडियों है, नाच है, गीत है। और वे सब चुक जाते हैं और आदमी कहता है और नया लाओ, क्योंकि अब वे बहुत ऊब गये हैं।
इस समय सारी दुनिया की पचास प्रतिशत ताकत मनुष्य को मनोरंजन के साधन देने में लग रही है। और इस वक्त जो आदमी को मनोरंजन दे पाता है, वही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है। जैसे अभिनेता। उनके महत्त्वपूर्ण होने का और कोई कारण नहीं है। वह आपको थोड़ी देर तक मनोरंजन दे पाते हैं। इतने दुखी हैं आप कोई आपका थोड़ा-सा मनोरंजन दे पाये तो महत्त्वपपूर्ण हो जाता है।
कोई पशु हंसता नहीं, क्योंकि पशु इतना दुःख में नहीं है कि हंसी की जरूरत हो। हंसी जो है वह सेफ्टी वाल्ब है। जैसे कि कोई भी भाप का यन्त्र हो तो सेफ्टी वाल्व लगाना होता है। कि भाप ज्यादा हो जाये तो वाल्व टूट जाये और भाप बाहर निकल जाये, अन्यथा सबकी जान खतरे में हो जायेगी। तो हंसी जो हैं, आदमी का सेफ्टी वाल्व है। जब भीतर बहुत तकलीफ इकट्ठी हो जाये तो उसके रिलीफ के लिए, उससे मुक्त होने के लिए हंसी है। इसलिए कोई पशु हंसता नहीं है।, क्योंकि इसका तनाव, इतनी एंग्जाइटी, इतनी चिन्ता नहीं है।
आदमी की चिन्ता क्या है?
आदमी की चिन्ता यह है कि उसका एक हिस्सा तो स्व-चेतन हो गया है बाकी हिस्सा अचेतन में पड़ा हुआ है। आदमी की तकलीफ वही हैं, जो नरसिंह अवतार की तकलीफ रही होगी कि आधा हिस्सा जानवर का है और आधा हिस्सा आदमी का हो गया है। नरसिंह जिस मुसीबत में पड़े होंगे, उसी मुसीबत में हम सब हैं। तो लेग मुझसे पूछते हैं कि नरसिंह अवतार हो कैसे सकता है? मैं उनसे कहता हूँ कि सभी आदमी नरसिंह के अवतार हैं और आधा-ही-आधा बंटवारा होता तो भी एक बैलेन्स, एक सन्तुलन हो जाता। जरा-सी खोपड़ी बहुत छोटा-सा हिस्सा पूरी खोपड़ी भी नहीं आदमी हो गयी है बाकी सारा-का-सारा हिस्सा पशु का है। सारी जिन्दगी पशु की है।, अचेतन का है। जरा-सा कोना बुद्धि का, पूरा मन भी नहीं बुद्धि का जरा-सा कोना! जैसे बड़ा हिस्सा एक अन्धकार में हैं और जैसे दीया एक कोने में जलता है, उसी कोने में बुझ जाता है। और अगर नहीं बुझता है किसी का तो आदमी शराब पीकर बुझा लेता है। हजार तरह के नशे करके बुझा लेता हे। शराब पीने में इसीलिए राहत मिलती हैं कि आपको जो हिस्सा थोड़ा-सा बेचैनी डालता था, आदमी हो गया था।
वह भी नीचे गिर जाता है। बर्फ का पूरा टुकड़ा पानी में डूब जाता हैं अब आप भी पशु की दुनिया में हो गये, अब कोई चिन्ता नहीं है। इसलिए नींद राहत देती है, क्योंकि नींद में आप शत-प्रतिशत नीचे डूब गये। इसलिए सुबह आप ताजे उठते हैं। अब आप पशु की दुनिया से फिर वापिस लौट रहे हैं, जहाँ कोई चिन्ता न थी, जहाँ कोई परेशानी न थी। अब फिर आदमी की दुनिया शुरू होगी। चौबीस घण्टे यह हो रहा है।
तो जब मैं कहता हूँ कि आदमी स्व-चेतन है तो मेरा मतलब इतना है कि स्व-चेतन होने की सम्भावना है। आदमी के साथ थोड़ा-सा हिस्सा स्व-चेतन हुआ है। योग कहता है, अगर पूरा स्व-चेतन हो जाये तो आदमी ध्यान को उपलब्ध हो जाता है। अगर उसके सब अंधेरे कोने प्रकाश से भर जाये तो आदमी समाधि को उपलब्ध हो जाता है।
सव-ज्ञान, सेल्फ-नॉलेज तभी होगी, जब मेरा पूरा-का-पूरा भवन मेरे जीवन का, मेरे प्रकाश से भर जाये। यह एक छोटे-से दीये की बत्ती से काम नहीं चलेग। यह पूरे घर में सूर्य का प्रकाश चाहिए। इसका कोना-कोना उजाले से भर जाये, अन्यथा मैं सदा ही टूट रहूंगा, दो हिस्सों में। वह जो हिस्सा है उजाले से भरा, वह निर्णय करेगा कि मैं घर में सांप न आने दूंगा। लेकिन उस अंधेरे के बाबत क्या निर्णय करेगा, वहाँ सांप निवास कर ही रहे हैं! और थोड़ी बहुत देर में जब सांप सड़क की रोशनी पर आ जायेंगे दीये की, तब हम चिल्लाकर कहेंगे कि मेरा व्रत टूट गया, मैंने तो कसम खायी थी कि घर में सांप न आने देंगे।
अब आप कसम खाते हें कि मैं अब क्रोध न करूंगा ता आप उस छोटे-से हिससे में कसम खा रहे हैं जो प्रकाशित हैं और बाकी अंधेरे नौ हिस्सों के बाबत आप फिक्र ही छोड़ देते हें जो अंधेर में डूबे हैं, जहाँ क्रोध अभी तैयार हो रहा है, ढल रहा है। जब आप कसम खा रहे हैं। तब आपके भीतर किसी कोने में क्रोध तैयार हो रहा है। और आपका पूरा भीतरी हिस्सा हैरान होता होगा कि आप क्या कसमें खा रहे हैं? यह ऐसे ही जैसे घर में भीतर बैठा हुआ चपरासी, जिसे पूरे घर का कोई भी पता नहीं है, भवन के सम्बन्ध में निर्णय लेता रहे। उसे कुछ भी पता नहीं कि भीतर क्या हो रहा है। अंधेरे हिस्सों में सब तैयारियां चल रही हैं।
आपने ब्रह्मचर्य की कसम खा ली, लेकिन आपके सेक्स-सेण्टर सब अंधेरे में डूबे हुए हैं। वहाँ तक आपकी बुद्धि की कोई रोशनी नहीं गयी है। तो आपने खोपड़ी के एक कोने से तय कर लिया है कि ब्रह्मचर्य की कसम खाता हूँ? लेकिन आपके सेक्स-केन्द्र को पता नहीं चलता इस कसम का कि आपने कोई कसम खायी। वह अपना काम जारी किये चले जाते हें। वहाँ से सेक्स उठेगा, वही आपकी बुद्धि-उद्धी को, सबको दबा डालेगा, क्योंकि वह नौ-गुना ताकतवर है और बुद्धि सिर्फ एक हिस्सा है। तब आप रोयेंगे, चिल्लायेगे, फिर कसम खायेंगे, लेकिन कभी न समझ पायेंगे कि कसमें बेकार हैं। असली सवाल यह नहीं है कि इस छोटे-से हिस्से से कसमें खाये, असली सवाल यह है कि इस छोटे-से हिस्से को बड़ा करें और पूरा व्यक्तित्व आपका चेतना हो जाये। फिर कसम खाने की जरूरत न होगी।
इसलिए मैं आपको कहता हूँ, योग किसी को कसम खाने के लिए नहीं कहता, व्रत के लिए नहीं कहता। सिर्फ अज्ञानियों के सिवाय दुनिया में किसी ने भी व्रत नहीं लिये हैं। व्रत का कोई अर्थ ही नहीं है। असली सवाल दूसरा है, असली सवाल यह है कि आपका पूरा-का-पूरा व्यक्तित्व रोशन हो जाये, फिर व्रत की जरूरत न पड़ेगी। लेकिन हम व्रत लिये चले जायेंगे! किसके खिलाफ लेते हें व्रत? अपने ही अंधेरे हिस्से के खिलाफ कसमें खाते हैं और अंधेरे हिस्से में आपकी कोई भी गति नहीं है। आपकी कोई पहुंच नहीं है, आपके सारे निर्णय खोपड़ी के एक कोने मे बैठे रहते हैं। पूरी खोपड़ी भी रोशन नहीं है।
अभी वैज्ञानिक इस बात से राजी होते हैं योग की यह दृष्टि कि अभी मनुष्य का पूरा मस्तिष्क भी चेतन नहीं हैं अब विज्ञान इसको सहमति देता है। इसलिए मैं बार-बार दोहरा रहा हूँ कि योग विज्ञान है, क्योंकि प्रतिदिन विज्ञान जितनी खोजें करता है, उतनी योग की अनुभूतियां और योग की अन्तर्दृष्टियां प्रमाणित होती चली जाती हैं। अब वैज्ञानिक भी कहते हैं कि आदमी की आधी से ज्यादा खोपड़ी बिल्कुल निष्क्रिय पड़ी है, उसमें कोई काम ही नहीं होता, वह बन्द पड़ी है। यह भी सबकी नहीं, जो बुद्धि से बहुत काम लेते हैं, उनकी बात है।
जो बुद्धि से बहुत कम काम लेते हें, उनका तो तीन चौथाई मस्तिष्क बन्द पड़ा है और जितना हिस्सा काम करता है, एक चौथाई या आधा बड़े-से-बड़े प्रतिभाशाली आदमी का भी आधा मस्तिष्क काम करता है और आधा बन्द पड़ा है। साधारण मनुष्य का तो आधा भी काम नहीं करता है। आधे का भी कोई हिस्सा काम करता है। और यह जितना हिस्सा काम करता है, चौथाई या आधा यह भी अपनी कैपेसिटी, अपनी क्षमता का पूरा काम नहीं करता। बड़े-से-बड़ा बुद्धिमान आदमी भी पन्द्रह प्रतिशत अपनी क्षमता का उपयोग करता है। बाकी पचासी प्रतिशत क्षमता बेकार पड़ी रह जाती है वह आधे को छोड़ दें, उसकी बात नहीं कर रहे हैं, जितना हिस्सा काम कर रहा है, उसकी सौ प्रतिशत क्षमता अगर माने तो हम पन्द्रह प्रतिशत क्षमता को जिन्दगी में उपयोग करते हैं।
अब इसके लिए तो वैज्ञानिक आंकड़े, प्रमाण, खोज-बीन सब सहयोगी हो गये हैं कि आदमी का इतना छोटा-सा हिस्सा काम करता है। और यह हिस्सा भी आमतौर से अठारह साल के बाद शान्त रहता है, फिर काम-वाम नहीं करता। इसलिए आपके पास करीब-करीब उतनी ही बुद्धि होती है, जितनी अठारह साल तक आपने विकसित की है। इस भ्रम में आप मत रहना कि अस्सी साल के हो गये तो बुद्धि आपके पास ज्यादा हो गयी होगी। बहुत कम लोग हैं जो अठारह साल के बाद अपनी बुद्धि को विकसित करते हैं। अधिक लोग अठारह साल तक जो हो गया, उसी बुद्धि के द्वारा अनुभवों को इकट्ठा करते चले जाते हैं। अनुभव बढ़ जाते हैं, बुद्धि नहीं बढ़ती। अनुभव का संग्रह बढ़ जाता है, बुद्धि नहीं बढ़ती। लोग उतनी ही बुद्धि में अनुभव किये चले जाते हैं। अनुभव बढ़ जाते हैं। तो अस्सी साल के आदमी के पास अनुभव बहुत होते हें, लेकिन बुद्धि उतनी ही होती हैं, जितनी अठारह साल की होती है।
पिछले महायुद्ध में बड़ी हैरानी का अनुभव अमेरीका में हुआ हे। अमरीका जो कि कहना चाहिए, सर्वाधिक शिक्षित, विकसित, बुद्धि का सर्वाधिक उपयोग करने वाला मुल्क है आज पृथ्वी पर। पिछले महायुद्ध में सैनिकों की बुद्धि का माप करके भर्ती करने का उन्होंने इन्तजाम किया जो बड़ी हैरानी हुई। लाखों सैनिकों की भर्ती ने जो नतीजे दिये, वे ये हें कि उन लाखों सैनिकों मे तेरह साल से ़ऊपर की उम्र की बुद्धि नहीं थी। एवरेज तेरह साल की बुद्धि! तेरह साल सब रुक गया जैसे।
योग बहुत पूर्व से इस बात को कहता रहा है कि मनुष्य का पूरा मन भी रोशन नहीं है। अगर मनुष्य का पूरा मन रोशन हो जाये तो अद्भुत घटनाएं घटनी शुरू हो जाती हैं। जिनको आप सिद्धियां कहते हैं, योग उन्हें मन के उन हिस्सों के काम कहता है, जो निष्क्रिय हैं और कुछ भी नहीं हैं।
इसके लिए भी वैज्ञानिक प्रमाण धीरे-धीरे उपलब्ध होने शुरू हो गये हैं। अमेरीका में अभी एक आदमी है ‘टेड सीरिओ’। उसके मस्तिष्क के उस हिस्से का कुछ हिस्सा सक्रिय है जो आमतौर से निष्क्रिय होता हे। अब इसकी जांच के उपाय हैं कि मस्तिष्क का कौन सा हिस्सा काम कर रहा है। और मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्से काम करते हैं। और मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्से अलग-अलग काम करते हैं। जब आप पढ़ते हैं, जब मस्तिष्क का दूसरा हिस्सा काम कर रहा है, जब आप रोते हैं तो दूसरा हिस्सा काम करता है।? जब आप हंसते हैं तो दूसरा हिस्सा काम करता हैं। जब आप गीत गाते हैं तो दूसरा हिस्सा काम करता हैं और जब आप वीणा बजाते हैं तो दूसरा और जब प्रेम करते हें तो दूसरा। यहाँ तक भी कि यदि आप हिन्दी भाषा में बोलते हैं तो दूसरा हिस्सा काम करता है। और अगर आप मराठी भी बोलते हैं साथ मे तो आपके मस्तिष्क का दूसरा हिस्सा काम करता है। अंग्रेजी भी जानते हों तो तीसरा हिस्सा काम करता है। मस्तिष्क के लाखों केन्द्र हैं, जो अलग-अलग काम करते हैं।
टेड सीरिओ के मस्तिष्क के कुछ ऐसे हिस्से काम कर रहे हैं, जो साधारणतः काम नहीं करते। वह आंख बन्द कर ले अमेरीका में और उससे कहा जाये, यहाँ पूना में, आज रात संघवी फैक्ट्री में क्या हो रहा है तो वह आंखें बन्द करके पन्द्रह मिनट बैठा रहेगा, फिर आंख खोल देगा बतायेगा नहीं, आंख खोल देगा और उसकी आंख को कैमरे के सामने रखकर फोटो ले ली जायेगी आंख की ओर आपके इतने सिरों का चित्र, इस भीड़ को चित्र उसकी आंख में कैमरा पकड़ लेगा। अब यह अगर दो हजार साल पहले की किसी किताब में वर्णन होता तो वह कहते गप्प होगा। यह आदमी अभी जिन्दा है और सारे अमेरीका के सब विश्वविद्यालयों ने उसकी परीक्षा की है, जगह-जगह उसने प्रयोग करके दिखाये। थोड़ा-सा फर्क होगा, अगर हमारा फोटोग्राफ अगर हम यहाँ से भेजें और उसके फोटोग्राफ में इतना फर्क होगा, जैसे फीकी कॉपी हो, बस।
इससे ज्यादा फर्क नहीं होगा। थोड़ी धुंधली कॉपी इससे ज्यादा फर्क नहीं होगा। उसकी आंख इतनी दूर बैठे हम सबके चित्र को पकड़ पाती हैं तो अगर महाभारत कहता है कि संजय अन्धे धृतराष्ट्र के पास बैठकर और दूर-सैकड़ों मील दूर होते हुए कुरुक्षेत्र के युद्ध की खबर देता रहता तो टेड सीरिओं कर सकता है तो संजय को क्या अड़चन हैं? आंख इतनी दूर देख सकती हैं आंख कितनी ही दूर देख सकती हैं, लेकिन फिर मस्तिष्क के दूसरे हिस्से रोशन होने चाहिए।
रूस से एक उदाहरण आपको दूँ। फयादोव एक वैज्ञानिक है रूस का। अमरीका को छोड़ दें, रूस तो नास्तिक मुल्क है। और रूस तो आत्मा-परमात्मा को मानने को अब तक राजी नहीं हैं, लेकिन फयादोव ने एक हजार मील दूर तक टेलीपैथिक सन्देश भेजकर बिना किसी यन्त्र के, सिर्फ विचार के सन्देश भेजकर बडे़ प्रयोग किये। मास्को में बैठकर तिफलिस तक उसने सन्देश भेजे हें, सिर्फ आंख बन्द करे। वह मास्को में बैठकर सन्देश सोचेगा और तिफलिस में पकड़ें जायेंगे। तिफलिस में एक दिन प्रयोग किया और तिफलिस के बगीचे में दस नम्बर की बेंच पर एक आदमी आकर बैठा। इस आदमी को कोई पता नही है, राहगीर है, थका-मांदा, दोपहर में विश्राम करने बैठा है, इसे कुछ भी पता नही है। झाड़ियों में छिपे हुए लोगों ने फयादोव को वायरलेस से खबर दी कि दस नम्बर की सीट पर एक आदमी बैठा है, तुम अगर पांच मिनट में सन्देश भेजकर इसे सुला दो हम समझें। अब मास्को में बैठे हुए फयादोव पांच मिनट तक अपने मन में सोचता रहा, उस दस नम्बर की बेंच पर बैठे आदमी को सो जाना चाहिऐ। वह आदमी पांच मिनट में गहरी नींद में सोकर खर्राटे भरने लगा। उन छिपे हुए मित्रों को लगा, स्वभावतः हो सकता हैं थका-मांदा हो और अपने-आप सो गया हो। संयोग सम्भव है। तो उन्होंने खबर भेजी कि वह आदमी तो सो गया है, ठीक सात मिनट पर तुम उसे वापिस उठा दे तो हम समझें। ठीक सात मिनट पर वह आदमी चौंककर उठ आया। उसने चारों तरफ देखा, जैसे किसी ने आवाज दी हो। वे लोग झाड़ी से निकल आये, उन्होंने कहा तुम किसको देख रहे हो? उसने कहा कोई मुझसे निरन्तर कह रहा है कि उठो, जागो, अब सोय मत रहो, ठीक सात मिनट पर उठ जाना है। कौन कह रहा है? वहाँ कोई भी नहीं है। वह आदमी तो सैकड़ों मील दूर वहाँ मास्कों में बैठा हुआ है।
मन भी पूरा लग जाये तो आदमी महाशक्ति का आविष्कारक हो जाता है। ऐसी और सैकड़ों सम्भावनाएं मनुष्य के मस्तिष्क में हैं। योग उनको सिद्धियां कहता था। हम उन्हें कोई भी नाम दें, इससे फर्क नहीं पड़ता है। हमारा पूरा मस्तिष्क भी जागा हुआ नहीं है। जितने दीन-हीन हम दिखाई पड़ रहे हैं, यह दीन-हीनता हमारे सोये होने की दीन-हीनता है। और जो बेचैनी हमारी जिन्दगी में बनी रहती हे यह यही बेचैनी है कि हम जो सम्पत्ति लेकर आये हैं, हम उसका पूरा उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। योग कहता है, मन के ये सारे-के-सारे केन्द्र सजग किये जा सकते और यह खोपड़ी के भीतर छिपा हुआ मस्तिष्क है, यह पूरा व्यक्तित्व नहीं है। ठीक इतना ही बड़ा मस्तिष्क हृदय के पास भी छिपा हुआ है। उसकी तो हमें खबर ही मिलनी बन्द हो गयी है। कभी-कभी किसी की जिन्दगी में थोड़ा प्रेम झलकता है तो उसे हृदय के पास केन्द्रों का ख्याल आता है, अन्यथा नहीं ख्याल आता। और जिन्दगी से प्रेम रोज-रोज कम होता चला गया है। प्रेम के नाम पर और हमने बहुत तरह के नकली सिक्के चलाये हुए हैं, जो जिन्दगी में चलते रहते हैं। मस्तिष्क पूरा-का-पूरा भी विकसित जो जाये तो हृदय के पास भी अपना मस्तिष्क है, वह बिल्कुल अधूरा रह जाता है, वह तो छूता ही नहीं, क्योंकि हमारी सारी शिक्षा मस्तिष्क है, तो थोड़ा-बहुत मस्तिष्क तो विकसित होता है, लेकिन हृदय की तो कोई शिक्षा नहीं है। वह बिल्कुल विकसित नहीं होता। वह अविकसित रह जाता है। और आदमी बहुत भीतरी तनाव में भर जाता हे और हृदय और मस्तिष्क मिल कर भी पूरा मनुष्य नहीं है। मनुष्य के पास और केन्द्र हैं और योग मनुष्य का ेसात केन्द्रों में बांटता है। और वह कहता है, मनुष्य के पास सात तलों पर व्यक्तित्व के विकास की सम्भावना है। ये मोटे तल हैं, यह मोटा विभाजन है, विभाजन और ज्यादा भी किये जा सकते हैं।
बुद्ध ने नौ विभाजन किये हैं। वह जगत में हुए महायोगियों में से एक हैं। पतंजलि ने सात विभाजन किये हैं। कोई और विभाजन भी कर सकता है, क्योंकि सैकड़ों केन्द्र हैं मनुष्य के भीतर, जिन सबकी अपनी क्षमताएं हैं और वे सब क्षमताएं अगर पूरी विकसित हों और पूरा मनुष्य जाग जाये तो मनुष्य अगर उस स्थिति में कह सके, ‘अहं ब्रह्मास्मि’, मैं ब्रह्म हूँ, तब उसके वक्तव्य में अतिशयोक्ति नहीं होगी।
लेकिन घर में बैठे हुए ब्रह्मसूत्र से वचन निकालकर, उपनिषद से महावाक्य खोज बैठे हैं किताब रखे हुए, मिट्टी के तेल के दीये जला के बैठे हैं और कह रहे हैं अहं ब्रह्मास्मि!
मिट्टी के तेल से काम नहीं चलेगा और बाहर के दीये में पढ़े गये शास्त्र काम के नहीं हो सकते। भीतर का दीया जले और भीतर की ज्योति पूरे सात केन्द्रों तक जल जाये, तब उस समय जिस शास्त्र का उद्घाटन होगा, जिस वेद का अनुभव होगा, वह वेद किसी किताब में लिखा हुआ नहीं है। और उस क्षण जो उच्चारण होगा, जो उद्घोष होगा ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का, वह कहीं शास्त्र में आया नहीं होगा, स्वयं की समग्र सत्ता से आया होगा।
योग को तो। आदमी जो मानता है एक शास्त्र और उसमें बहुत-से अनपढ़े अध्याय पड़े हैं-अनजाने, अपरिचित, जिन पर हम कभी रोशनी लेकर नहीं गये, जिनका हमें कोई पता नहीं रहा है ऐसे ही, जैसे कोई सम्राट अपने महल में सोया हो और भूल गया हो अपनी तिजोरियों को, अपने धन को और सपना देख रहा हो कि मैं भिखारी हो गया और सड़क पर भीख माँग रहा हूँ और कोई एक पैसा नहीं दे रहा है। और वह रो रहा है और पेरशान हो रहा है और चिल्ला रहा है। करीब-करीब हम ऐसे सम्राट की हालत में हैं, जिन्हें अपनी पूरी सम्पत्ति का पता ही नहीं है। अगर कोई हमसे कहे तो भरोसा नहीं होगा। कैसे भरोसा हो। कि हमारे पास और इतनी सम्पत्ति! नहीं-नहीं। अगर उस सम्राट को उसके सपनों में कोई कहे कि तुम और भीख माँगते हो? तुम तो सम्राट हो! वह सम्राट कहेगा, कैसा मजाक करते हो? मजाक मत करो, एक पैसा दान करो, समझ में आयेगा।
ठीक, हमारी स्थिति वैसी है।
योग कहता है, हमारे भीतर अनन्त सम्पदाओं का विस्तार है। लेकिन वे सारी सम्पदाएं स्व-चेतन होने से जागेंगी, उसके अतिरिक्त कोई जगने का उपाय नहीं है। अब इसे थोड़ी समझें। हमारे व्यक्तित्व के सारे केन्द्र कॉन्शसनेस से जगते हैं और सक्रिय होते हैं। जितनी चेतना उन पर इकट्ठी होती है, उतने सक्रिय होते हैं। जिस हिस्से पर चेतना इकट्ठी होती है, वही सक्रिय हो जाता है।
छोटे बच्चों की सेक्स के केन्द्र पर कोई सक्रियता नहीं होती तो उनको पता भी नहीं होता। चौदह वर्ष के बाद प्रकृति उस केन्द्र को सक्रिय करती है तो होश आना शुरू होता है। तो केन्द्र सक्रिय हो जाता है। वह प्रकृति करती है। इसलिए अगर प्रकृति सेक्स के केन्द्र को सक्रिय न करे तो आपको पता नहीं चलेगा। कैसे पता चलेगा? लेकिन प्रकृति को उस केन्द्र से काम लेना है, जीवन को बनाये रखने का, इसलिए उस केन्द्र को वह खुद सक्रिय करती है, वह आप पर नहीं छोड़ती। पशुओं में भी सक्रिय करती है, पौधों में भी सक्रिय करती है, समस्त जीवन में खुद सक्रिय कर देती है।
मस्तिष्क के केन्द्र को समाज सक्रिय करवाता है- शिक्षा से, समझाने से, क्योंकि जिन्दगी चलानी मुश्किल हो जोयगी। तो गणित सिखाता है, भूगोल सिखाता है। उतनी चीजे सिखाता है समाज, जितने से आदमी की जिन्दगी चलनी आसान हो जाये। लेकिन मस्तिष्क के केन्द्र को समाज सक्रिय करवा देता है थोड़ा, सेक्स के केन्द्र को सक्रिय करवा देती हे प्रकृति। बीच के सब केन्द्र बन्द पड़े रह जाते हैं। वे कभी सक्रिय नहीं होते। उनकी किसी को जरूरत नहीं है। समाज को उनकी जरूरत नहीं, बल्कि समाज नहीं चाहेगा कि कुछ केन्द्र सक्रिय हो। जैसे व्यक्ति का प्रेम अगर बहुत सक्रिय हो जाये तो समाज पसन्द नहीं करेगा। समाज कहेगा कि प्रेम का केन्द्र बहुत सक्रिय न हो। परिवार भी चाहेगा कि प्रेम का केन्द्र बहुत सक्रिय न हो। पत्नी भी चाहेगी, प्रेम का केन्द्र बहुत सक्रिय न हो। माँ भी चहेगी, बाप भी चाहेगा। उसका कारण है, क्योंकि जब प्रेम के केन्द्र पूरी तरह सक्रिय हों तो फिर प्रेम किसके साथ और किसके साथ नहीं, यह फासला टूटना बन्द हो जाता है। फिर माँ यह नहीं कर सकती कि मुझी को प्रेम करो। अगर प्रेम का केन्द्र ठीक से सक्रिय हो जाये तो बच्चा सभी को प्रेम करने लगेगा। तो माँ की ईर्ष्या उसे रोकेगी। पत्नी नहीं चाहेगी कि पतिउसका किसी को भी प्रेम से देखने लगे। उसकी ईर्ष्या उसे रोकेगी। सारा समाज कोशिश करेगा कि प्रेम का केन्द्र सक्रिय न हो पाये, क्योंकि प्रेम का केन्द्र खतरनाक न हो जाये। इसलिए उसको दबाने की कोशिश करेगा, काट डालने की कोशिश करेगा। और दूसरे केन्द्र हैं, उनको तो समाज और भी बर्दाश्त नहीं करेगा। अब जैसे यह टेड सीरिओ है, इस तरह के दुनिया में बहुत लोग हो जायें तो समाज इनके खिलाफ कोई कानून बनाने की कोशिश करेगा।
अभी ऐसी एक घटना घटीं इण्डोनेशिया में एक आदमी है, टोनी उसका नाम है। और इस सदी की महत्त्वपूर्णतम घटनाओं में से महत्त्वपूर्ण घटना टोनी की जिन्दगी में एशिया, इण्डोनेशिया में घट रही है। लेकिन सारा समाज, अदालतें, कानून, सब उसके खिलाफ खड़े हो गये हैं। टोनी ने एक प्रयोग किया है जो योरोप के बहुत गहरे प्रयोगों में से एक है। स्प्रिचुअल सर्जरी का-आध्यात्मिक शल्य चिकित्सा, आध्यात्मिक सर्जरी। यह सब विधि ख्याल में नही पड़ती। टोनी किसी भी तरह का, जैसे आपके पेट में एपेडिक्स है तो टोनी बिना किसी औजार के दोनों हाथ, नंगे हाथ आपके पेट पर रख देगा, आँख बन्द करेगा, परमात्मा से प्रार्थना करेगा और दोनों हाथ आपके पेट में प्रवेश कर जायेंगे। चमड़ी जगह दे देगी बिना किसी औजार के! खाली हाथ आपके पेट के भीतर पहुँच जायेंगे। और ये पच्चीसों मेडिकल वैज्ञानिकों, डॉक्टरों, सर्जनों के सामने यह घटना हो चुकी है। उसकी सब फिल्में ली जा चुकी हैं, सारी दुनिया में उनका प्रदर्शन हो चुका है।
उसके हाथ भीतर पहुँच जायेंगे, उसकी आँखें बन्द ही रहेंगी। वह आपके भीतर, खुले पेट के भीतर आपके अपेण्डिक्स को पकड़ेगा, हाथ से ही वापस खींचकर बाहर निकाल देगा, तोड़ के बाहर रख देगा। दोनों हाथ आपके पेट पर वापस फेरेगा, आपकी कटी हुई चमड़ी वापस जुड़ जायेगी। और दो दिन के बाद कोई निशान भी देखने को नहीं मिलेंगे कि पेट को कोई काटा गया था! अब ऐसे आदमी की कीमत होनी चाहिए, लेकिन इण्डोनेशिया की सरकार उसके खिलाफ मुकदमा चला रही है और मेडिकल एसोसिएशन ने उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दायर किया है कि उस आदमी के पास सर्जरी का लायसेन्स नहीं हे, वह सर्जरी कैसे कर सकता है?
आदमी के पागलपन का कोई हिसाब है? क्योंकि उसके पास किसी मेड़िकल कॉलेज का सर्टिफिकेट नहीं है, वह एम.डी. नहीं है तो वह सर्जरी कैसे कर सकता है? और अदालत तो उसके खिलाफ वक्तव्य देगी, क्योंकि कानून तो सदा से अन्धा है।
उस आदमी को सरकार ने हुक्म दिया है कि वह अब कहीं भी सर्जरी नहीं कर सकता। इस आदमी के पास पच्चीस मित्रों का एक समूह है। वे सब प्रार्थना और ध्यान करने वाले लोग हैं। उनसे पूछा जाता है तो वे कुछ भी नहीं बता सकते। वे कहते हैं कि हम कुछ भी नही जानते। हम परमात्मा के हाथ में छोड़ देते हैं। वह जो हमसे काम करवाता है, वह हम कर देते हैं। हम कुछ भी नहीं करते। लेकिन अगर यह आदमी बढ़ जाए तो मेडिकल प्रोफेशन का क्या होगा, सर्जन्स का क्या होगा? वह उसके खिलाफ उपद्रव करेंगे। वे इसको जालसाजी में फेंसायेंगे। यह गरीब आदमी है, सीधा-सादा आदमी है। उनके उपद्रव से परेशान होकर हाथ जोड़ लेगा कि ठीक है। मैं कुछ भी नहीं करता, माफी मांगे लेता हूँ।
इस दुनिया में बहुत बार बहुत से चमत्मार घटित हुए हैं हमने उन्हें बन्द किया है। और हमने सदा ऐसी व्यवस्था की है कि इस तरह की बातें न हो जायें, क्योंकि इन बातों के कारण हमारे जो एस्टेब्लिशमेण्ट होते हें, हमारी जो व्यवस्थित संस्थाएं होती हैं, सब दिक्कत में पड़ जाती हैं। पड़ ही जायेंगी, क्योंकि उन सबका क्या होगा? और फिर इन सब चीजों के आधार पर, जिनको हम बहुत वैज्ञानिकता कहते हैं, साइण्टिफिक आउटलुक कहते हैं, वह भी दो कौड़ी का हो जाता है, क्योंकि ये बातें कुछ और दूर की खबर लाती हैं। टेड सीरियों या टोनी जैसी लोगों के खिलाफ हम हो जायेंगे, क्योंकि हम कहेंगे कि ये बातें तो हमारी सारी व्यवस्था को तोड़ देंगी। अगर टेड सीरिओ दूसरे के घर के भीतर की चीजें देख सकता है। तो आज नहीं कल, हम चिन्तित हो जायेंगे। वह हमारी तिजोरी भी देख सकता है! हम इसे रोकने की कोशिश करेंगे। समाज योगी की बहुत कीमती उपलब्ध्यियों को दबाने का काम करता रहा है और स्वभावतः जिन चीजों को बिल्कुल दबा दें, वह प्रगट होना बन्द हो जाती हैं, क्योंकि उनके प्रगट होने के अवसर, परिस्थितियाँ हम रोक देते हैं।
मेरे सामने और मेरे पास एक घटना घटी और तब मुझे लगा कि कितना आश्चर्य है। एक मित्र मेरे पास आते थे ध्यान करने। उनका बच्चा जो तीसरी क्लास में हिन्दी पढ़ता है, वह भी उनके साथ आता था। उन्होंने मुझे कहा कि यह बच्चा मेरे पास बैठा रहे तो कोई हर्ज तो नहीं हैं?
मैंने कहा, कोई हर्ज नहीं है। अच्छा ही है कि आता है वे मित्र ध्यान करते थे, वह बच्चा भी उनके पास बैठकर ध्यान करने लगा। पिता तो बहुत गहरी गति नहीं कर पाये, लेकिन वह छोटा बच्चा बहुत गति कर गया। चार दिन उनको आना था, चार दिन बाद तो वह नहीं आये, पन्द्रह दिन बाद बहुत घबराये हुए आये और उन्होंने कहा कि आपने बच्चे को क्या कर दिया? उसे बुलाइऐ, हम नहीं चाहते कि वह ध्यान में जाये। मैंने पूछा क्या हुआ? उन्होंने कहा अजीब अजीब बातें होने लगी हैं। वह और उनकी पत्नी दरवाजा बन्द करके ताला लगा के, बच्चे को भीतर करके कि तुम घर में खेलना और हम किसी पड़ोसी के घर जा रहे हैं। जब वे लौटे तो बच्चा खिड़की पर खड़ा था और उसने कहा कि झूठ बोले, आप सिनेमा देखकर आ गये, आप मैटिनी शो में गये थे। तो मैटिनी शो में ही थे, बच्चे को धोखा देकर गये थे पर वे हैरान हुए। उन्होंने कहा तुम्हें पता कैसे चला? उसने कहा कुछ नहीं, जब कोई घर में नहीं था तो ध्यान करने बैठ गया और मुझे दिखाई पड़ा कि आप दोनों सिनेमा में बैठे हुए हैं। तो उन्होने कहा कि हम नहीं चाहते कि इस बच्चे में इस तरह की बात विकसित हो। लेकिन बेईमान बाप का मन हम नहीं चाहते, इसको हम नहीं चाहते कि ध्यान वगैरह हो, उपद्रव हो जायेगा!
आश्चर्यजनक लगता है, लेकिन ऐसा ही है। अगर आपके घर भी बच्चा इस तरह की बातें देखने लगे तो आप भी कहेंगे कि बस, बन्द क्योंकि आप लड़के को समझाते हैं कि सिगरेट मत पीना और खुद पीते हैं। वह लड़का कल कहेगा, कैसी बात कह रहे हैं पिताजी। आप मुझको रोकते है कि सिनेमा नहीं जाना और खुद जाते हैं। वह लड़का कल कहेगा कि कैसी बातें कह रहे हैं? जो आपने रोका हैं, वह सब आपने किया हैं तो आप बच्चों में प्रतिभाएं विकसित न होने देंगे। इसलिए पूरी मनुष्यता यौगिक विकास की खिलाफत में षड्यन्त्र करती रही है, जिसका हमें पता नहीं है। हम इन बातों को दबाने की कोशिश करेंगे और जब सारा समाज उनको दबायेगा और विकास का मौका न देगा।
आप थोड़ा सोचे यूनिवर्सिटीज बन्द कर दी जायें, कॉलेज और सब स्कूल बन्द कर दिये जायें तो दुनिया में कितने लोग गणित जानेंगे? अगर दो हजार साल तक सब शिक्षा का काम बन्द कर दिया जायें तो दो हजार साल बाद शक होने लगेगा कि इतनी बुद्धि भी हो सकती है आदमी में कि हवाई जहाज उड़ाये!
इतनी बुद्धि हो सकती है कि चांद पर पहुँच जाये! लोग कहेंगे कि कैसे हो सकती है? बैलगाड़ी बनाना मुश्किल हो जायेगा, हवाई जहाज बनाना तो बहुत दूर की बात है। यह जो आज आदमी चांद पर पहुँच सकता है, यह दस-बीस हजार साल के बुद्धि के शिक्षण का परिणाम हैं अगर हम योग के द्वार कहे गये केन्द्रों पर भी दस-बीस हजार साल मेहनत करते तो आदमी जहाँ पहुँच जाता, उसकी आज कल्पना करना भी सम्भव नहीं है। कभी कोई एकाध आदमी पहुँचता है तो उसे पूजा का केन्द्र बना लेते हैं और भूल जाते हैं। लेकिन सब सम्भव है। मनुष्य के भीतर बहुत से तल हैं, लेकिन अचेतन में डूबे हैं, इसलिए हमें उनका कोई पता नहीं है।
योग मनुष्य को सात तलों में बांटता है। सात केन्द्रों में, सप्त चक्रो में मनुष्य के व्यक्तित्व को बांटता है। इन सातों चक्रों पर अनन्त ऊर्जा और शक्ति सोयी हुई हैं, जैसे एक कली में फूल बन्द होता है। कली देखकर पता भी नहीं चलता कि इसके भीतर ऐसा फूल भी होगा। ऐसा कमल खिलेगा, इतने दलों वाला कमल प्रगट होगा। कली भी बन्द होती हे। अगर किसी ने सिर्फ कमल की कलियां ही देखी हों और कभी फूल न देखा तो कल्पना भी नहीं कर सकता कि यह कली फूल बन सकती है? हमारे पास जितने चक्र हैं, वे कलियों की तरह बन्द हैं। अगर वे खिल जायें तो हमें पता भी नहीं कि उनके भीतर क्या-क्या छिपा हो सकता है। कितनी सुगन्ध, कितना सौन्दर्य कितनी शक्ति! एक-एक चक्र के पास अनन्त शक्ति छिपी है। वह लेकिन कलियां खिलें तो प्रगट हो सकती हैं, न खिलें तो प्रगट नहीं हाती।
कभी आपने कमल की कलियों को खिलते देखा है? कब खिलती हैं? सूरज जब निकलता है सुबह और रोशनी छा जाती है। तब। रात के अंधेरे में बन्द कलियां, सुबह खिल जाती हैं, सूरज के साथ। ठीक ऐसे ही जिस दिन हमारी चेतना का सूर्य एक-एक केन्द्र पर प्रगट होता है। तो एक-एक केन्द्र की कली खिलनी शुरू हो जाती है। भीतर भी हमारी चेतना का सूर्य है। उस तक पहुँचने से उसे हम ध्यान कहें या और कोई नाम दें, इससे फर्क नहीं पड़ता। हमारे भीतर होश का एक सूर्य है। उसका प्रकाश जिस केन्द्र पर पड़ता है, उसकी कली खिल जाती है चटक के और फूल बन जाती है। और उसके फूल बनते ही हम पाते है कि अनन्त शक्तियां हममें छिपी पड़ी थीं, वे प्रगट होनी शुरू हो गयीं।
ये जो सात चक्र हैं, यह प्रत्येक चक्र खोला जा सकता है और प्रत्येक चक्र की अपनी क्षमताएं हैं। और जब सातों खुल जाते हें तो व्यक्ति के द्वार-दरवाजें जिनकी मैं कल बात कर रहा था, वे अनन्त के लिए खुल जाते हैं। व्यक्ति तब अनन्त के साथ एक हो जाता है। चेतना, सिर्फ होश, इन चक्रों को कैसे खोल देगा? इस सम्बन्ध में भी कुछ वैज्ञानिक तथ्य आपको कहना चाहूंगा।
बीस पच्चीस वर्ष के पूर्व वैज्ञानिकों को यह ख्याल नहीं था कि कान्शसनेस से, चेतना से किसी चीज में कोई फर्क पड़ सकता है। हम देखते भी नहीं हमने फकीरों की कहानियां सुनी हैं, योगीयों की, लेकिन वे कहानियां हो गयी हैं। अब जिन चीजों को करने की कला हम भूल जाते हैं, वे कहानियां हो जाती हैं। स्वाभाविक हैं, अगर तीसरा महायुद्ध हो जाये और दुनिया से ज्यादा नहीं, कुछ बड़े-बड़े वैज्ञानिक मर जायें तो फिर एटम बम बनाना सम्भव नहीं होगा। अभी दस-पच्चीस लोग ही उस सूत्र को जानते हैं, ज्यादा नहीं। अगर इन पच्चीस आदमियों को पकड़ कर हत्या कर दी जाये तो एटम बम नहीं बन सकेगा। और अब तो पच्चीस जानते हैं दस साल पहले पन्द्रह ही जानते थे। हिरोशिमा पर जब एटम बम गिरा, उसके पहले दुनिया में मुश्किल से चार आदमी थे सिर्फ उन चार आदमियों को अगर मार डाला जाये तो फिर एटम बम सिर्फ कहानी हो जायेगी, क्योंकि जब भी कोई कहेगा कि सच है, हम कहेंगे बनाकर बताओ। और तब मुश्किल हो जायेगा।
अगर तीसरा महायुद्ध हो जाये, जैसा कि कई दफे हो चुका महाभारत हुआ और उस समय का सारा विज्ञान और सारी संस्कृति उस युद्ध के साथ नष्ट हो गयी, कहानियां रह गयीं। हम कहते हैं कि ये सब कहानियां हैं, कहानियां हैं ही अब। अगर तीसरा महायुद्ध हो जाये और सारी दुनिया नष्ट हो जाये, जैसा कि सम्भव है और जब भी दुनिया नष्ट होती हैं युद्धों में तो उस दुनिया में जो सर्वक्षेष्ठ विकिसित लोग होते हैं वे सबसे पहले नष्ट होते हैं। अगर बम गिरेंगे तीसरे महायुद्ध में तो पूना नहीं बचेगा, बम्बई नहीं बचेगा, दिल्ली नहीं बचेगा, लन्दन-न्यूयार्क नहीं बचेंगे।
अगर बच भी सके तो बस्तर की पहाड़ियों में छिपे हुए कुछ आदिवासी बच जायेंगे, हिमाचल प्रदेश के पहाड़ों में रहने वाले कुछ लोग बच जायेंगे। इन पर कोई एटम बम गिराने की कोशिश नहीं करेगा। इनको खोज-खोज कर एटम बम गिराना बहुत महंगा भी पड़ेगा। लेकिन दुनिया के सब विकसित सेण्टर, यूनिवर्सिटीज, विज्ञान के भवन, सब गिर जायेंगे। यह पहले गिर जायेंगे। और पीछे जो बचेंगे, अविकसित लोग, उन्होने भी रेलगाड़ियां देखी थी। दो-तीन पीढ़ियों के बाद बच्चे कहेंगे कि नहीं हो सकती। ऐसा हो कैसे सकता है? क्या प्रमाण है? कोई प्रमाण नहीं रह जायेगा।
योग की कला के साथ भी वैसा हुआ है। बहुत बार कला विकसित होती है, फिर अनेक कारणों से खो जाती है। उनमें बड़ा कारण तो हम ही होते हैं कि हम उसे बर्दाश्त नहीं कर पाते, क्योंकि उसके खतरे हैं। यह मैं आपसे कह रहा था कि चेतना से चीजों में अन्तर पड़ता है। ऐसा योग का तो बहुत सरल-सा प्रयोग है। सदा का कि चीजों मे अन्तर पड़ता है। चेतन होने से अन्तर पड़ता है। लेकिन अब विज्ञान इसके लिए राजी हुआ और राजी तब हुआ... हम एक कंकड़ को देखें तो कोई अन्तर तो नहीं पड़ता कंकड़ को कितना ही हम देखते रहें, क्या अन्तर पड़ता है? कंकड़ कंकड़ बना रहता है। कितनी चेतना एकाग्र करें, कंकड़ कंकड़ ही रहत हे। लेकिन जब से इेलेक्ट्रॉन को देखने की कोशिक करते हैं तो इलेकट्रॉन की चाल डगमगा जाती है, ऐसे ही जैसे आप बाथरूम में नहा रहे हैं तो आप अपनी मौज में होते हैं, मुंह बिचकाते हैं, आईने में हंसते है, भूल जाते हैं, कितनी उम्र है? फिर अचानक आपको पता लगे कि कोई आपके बाथरूम के की-होल में झांक रहा है, आप एकदम सजग होकर खड़े हो जाते हैं। अगर फिल्मी गाना गा रहे थे तो एकदम से भजन गाने लगते हैं, कुछ और करने लगते हैं।
तो यह तो हम मान सकते हैं कि की-हाल में से आपको देखा जाय तो आप बदलते हैं, लेकिन वैज्ञनिकों का कहना है कि जब हम इलेक्ट्रॉन को बहुत खुर्दबीनों से देखते हैं तो वह जैसा चल रहा था, उसको बदलकर चलने लगता है तो बड़ी हैरानी की बात हैं
इसका मतलब यह हुआ कि ऑब्जर्वेशन जो है, निरीक्षण जो है, वह परिवर्तन ले आता है। कल मैंने आपसे बात की थी एक ईसाई फकीर की जिसने आक्सफोर्ड की एक प्रयोगशाल मे बीजों को आशीर्वाद दिया है। उसी फकीर के एक बीज को आशीर्वाद देने के साथ एक और अद्भुत घटना घटी। वह अपने गले में क्रास लटकाये हुए था और हाथ जोड़कर उस बीज के ऊपर झुका और उसने प्रार्थना की और जब उस बीज का फोटो निकाला गया तो हैरानी हुई। और उस बीज के भीतर उसके छाती से लटके क्रास के चित्र भी आ गये। बड़ी हैरानी की बात हे, जब वह प्रार्थना करने को झुका तो उसका क्रास भी उस बीज के पास पहुँचा, लेकिन बीज के भीतर क्रास का चित्र! यह कैसे सम्भव हुआ? क्या उसकी प्रार्थनाएं, उसका बीज पर गया हुआ ध्यान इस चित्र को भी उसके भीतर संवादित कर सका? क्या बीज ने भी रिस्पांस किया, क्या बीज ने भी उत्तर दिया इस प्रार्थना का? क्या बीज ने हृदयपूर्वक स्वीकार किया उस फकीर को?
योग का बहुत पुराना ख्याल है, ख्याल ही नहीं अनुभव है कि जिस केन्द्र पर हम भीतर ध्यान करते हैं वह केन्द्र तत्काल सक्रिय हो जाता है। उसकी सक्रियता, उसकी कलियों को जो बन्द थीं, खोल देती हैं, जैसे सूरज सुबह पक्षियों को जगा देता हैं और ध्यान रहे, ख्याल आपने क्यों न किया जो, सूरज आने के पहले ही घड़ी भर पहले पक्षी गीत गाने लगते हें। अभी सूरज का रुख ही हुआ है आने, अभी आ भी नहीं गया, अभी बस आने का हुआ है, बस, पक्षी गीत गाने लगते हैं, फूलों की कलियां खिलने लगती हैं। अभी सूरज आने को हुआ है, अभी आ ही नहीं गया और फूल खिलने लगे, कलियां भीतर की तरफ ओर आपके चक्र शुरू हो जाते हैं, सिर्फ जाना शुरू हो जाये और आपके भीतर अनूठे अनुभव होने लगते हैं।
अभी तीन दिनों में न मालूम कितने मित्रों ने आकर न मालूम कितने अनुभव मुझे कहे। वे सदा से हुए अनुभव हैं। किसी को प्रकाश से तीव्र अनुभव होने भीतर शुरू हो जाते हें, किसी केन्द्र से फूटता हुआ प्रकाश, किसी को सुगन्ध का अनुभव भीतर होना शुरू हो जाता है। वह किसी केन्द्र से फूटती हुई सुगन्ध है।
किसी को संगीत के अनूठे नाद सुनाई पड़ने लगते हैं, किसी केन्द्र से फूटते हुए संगीत की ध्वनियां हैं, नाद हैं और अलग-अलग अनुभव भीतर से प्रगट होने शुरू हो जाते हें, जितना बड़ा जगत हमारे बाहर हैं उतना छोटा जगत हमारे भीतर नहीं है। अभी हमने बाहर ही ध्यान किया हे, इसलिए बाहर की चीजें सक्रिय हो जाये। एक-दो छोटे प्रयोग आपसे कहूं, जिससे आपको स्मरण में आ सके कि यह हो सकता है। रास्ते पर जा रहे हों, सामने आपके कोई चल रहा हो। एक-दो मिनट के लिए ऐसा करें कि ठीक उसकी चोंथी पर दो मिनट तक उसके पीछे से आंख गड़ाकर देखते रहें, पलक न झपकें-पलक बिना झपके उसकी चोथीं पर देखते रहें, दो मिनट तक। दो मिनट से ज्यादा आप न देख पायेंगे, उस आदमी को लौटकर आपके देखना पड़ेगा। उसके केन्द्र पर सक्रियता हो गयी, वह तत्काल बेचैन होकर पीछे लौटकर देखेगा कि क्या हुआ, पीछे क्या हो रहा है। आप ऐसा आदमी नहीं खोज सके जिसको आप दो मिनट तक देखें और वह पीछे ने लौटकर देख ले। आप अगर ऐसा आदमी मिल जाये तो समझना कि बड़ा कीमती आदमी मिला है।
अपने ही शरीर में आज कोई भी केन्द्र चुन लें और उस पर थोड़ी चेतना ले जाना शुरू करें। हम सबको अगर पूछा जाये कि अगर आपका हाथ कट जाये तो हम कहेंगे कि हमारा कुछ बहुत कहीं कट जायेगा। थोड़ी तकलीफ होगा, लेकिन बहुत नहीं कट जायेगा। लेकिन कोई कहे कि सिर कट जाये तो हम कहेंगे कि सब कट जायेगा, क्योंकि हमारी आइडेण्टिटी, हमारे सिर्फ मस्तिष्क में रह गयी है, हमारा होना सिर्फ वही है हम कहेंगे कि हमारा होना वही है। जो कुछ भी हमारी सम्पत्ति है, विचार है, ज्ञान है। जो भी हमने जाना है अपने बाबत, वह मस्तिष्क के छोटे-से केन्द्र पर है, बाकी पूरे शरीर पर वह नहीं है।
अपने भीतर किसी भी केन्द्र पर ध्यान करना शुरू करें, जैसे मैंने प्रयोग के लिए आपसे बाहर के लिए कहा, आप एक चार-छः दिन सिर्फ आंख बन्द करके हृदय पर ध्यान ले जायें और कुछ न करें। पांच मिनट रोज और आप पायेंगे आपके व्यक्तित्व में प्रेम बढ़ना शुरू हो गया, वह आपको दिखाई पड़ेगा, आपके पड़ोसियों को दिखाई पड़ेगा। आपके लोगों को दिखाई पड़ेगा।
कहने की जरूरत नहीं, चुपचाप आप ध्यान देते रहें, आप पायेंगे कि लोग आपसे कहने लगेंगे कि आप में बड़ा फर्क हो रहा है। आप इतने प्रेमपूर्ण कभी नहीं थे। केन्द्र पर चेतना आयेगी, वह केन्द्र सक्रिय हो जाता है और हमारे सात केन्द्र हैं। इन बातों पर चेतना ले जायी जा सकती है। अगर ले जायेंगे तो ही चेतना आयेगी। स्व-चेतना होने का यह फायदा भी है और खतरा भी है। नहीं ले जायेंगे तो नहीं जायेंगी। और नहीं ले जायेंगे तो स्व-अचेतन, पशु में और आदमी में कोई फर्क नहीं है। अगर मैं इसे ऐसे कहूँ कि योग पशु को मनुष्य बनाने का विज्ञान है तो यह परिभाषा अतिशयोक्ति नहीं है। योग में पशु का अर्थ भी बहुत अद्भुत है। योग उसको पशु कहता है जो पाश में बंधा है- जैसे भैंस या गाय को हम रस्से में बाँध के ले जाते हैं, वह जो रस्सी है, उसका नाम पाश है और उसमें बँधे हुए का नाम पशु है।
योग कहता है जो आदमी अचेतना की जंजीरों में बँधा है, वह पशु है और जो आदमी अचेतना की जंजीरों को तोड़कर खड़ा हो गया है, वह मुनष्य है। मनुष्य का मतलब है, जो मन हो गया पूरा और मन, कान्शसनेस का, चेतना का मतलब है, मन का अर्थ है चेतना, जो चेतन हो गया पूरा। अंग्रेजी का मैन भी संस्कृत के मनु से ही बना है। जो मन हो गया पूरा अर्थात जो पूरा चेतन हो गया और यह जो चेतन हो गया पूरा, यह मनुष्य है। योग का यह सातवां सूत्र है। इस सम्बन्ध में दो-तीन बातें और, फिर बाकी सूत्र की बात कल आपसे करूंगा। दो-तीन और बातें ख्याल में ले लेनी जरूरी हैं।
जैसे मैंने कहा कि आदमी कभी-कभी चेतन होता है, बाकी अचेतन होता है। इससे उलटी घटनाएं भी घटती हैं। जिनको हम निरन्तर अचेतन मानते हैं, वे भी किसी-किसी क्षण में चेतन होते हैं। जैसे पौधा भी किसी क्षण में चेतन होता है, जैसे पत्थर भी किसी क्षण में चेतन होता है। इसी तरह मनुष्य से पिछड़ी हुई जातियां जीवन के किन्ही क्षणों में चेतन होती है। पर ये घटनाएं बहुत मुश्किल से घटती हैं और कभी-कभी घटती हैं। जैसे बुद्ध के वक्त में बोधिवृक्ष के साथ घटी।
बुद्ध के मरने के पांच सौ वर्ष तक बुद्ध की प्रतिमा नहीं बनायी गयी, क्योकि बुद्ध ने कहा था कि प्रतिमा मत बनाना। यह बोधिवृक्ष ही काम देगा और पांच सो वर्ष तक बोधिवृक्ष की पूजा की जाती रही। पांच सौ वर्ष बाद बुद्ध की प्रतिमाएं बनीं, पांच सौ वर्ष तक नहीं। बहुत से कारणों में एक कारण यह था कि जस क्षण बुद्ध को बुद्धत्व हुआ, उस क्षण जिस वृक्ष के नीचे वे बैठे थे वह भी प्रतिध्वनित हो गय बुद्धत्व से, वह भी जाग गया। वह साक्षी हो गया, वह अकेले ही साक्षी था, अकेला विटनेस था, बाकी कोई मौजूद नहीं था, वह साक्षी मौजूद था। आप कहेंगे कि वह वृक्ष कैसे अचेतन हो गया?
बुद्ध जैसा बड़ा सूर्य प्रगट हुआ, वहाँ उस वृक्ष के नीचे तो कितना ही सोया हो वृक्ष अपनी अचेतना में, उसका भी एक हिस्सा जाग गया। उसने भी जाग के यह घटना देखी। इसलिए बुद्ध ने कहा-यह वृक्ष मेरा गवाह है, यह विटनेस है। इसकी पूजा कर देना तो चलेगा। यह अकेला गवाह है, यह बोधिवृक्ष अब तक बचाने की कोशिश की गयी है, उसका कुल कारण इतना ही है। हालांकि बौद्धों को भी पता नहीं कि लोग क्यें उसको बचाये चले जा रहे हैं? हिन्दुस्तान में सूख गया तो उसकी एक शाखा को अशोक ने अपने बेटे और अपनी बेटी के हाथ श्रीलंका भेजा था। उसकी एक शाखा फिर श्रीलंका में लग गयी थी। तो जब हिन्दुस्तान का बोधित्व सूख गया तो फिर वापस उस वृक्ष की एक शाखा पुनः लगा दी गयी है। लेकिन पच्चीस सौ साल से वह वृक्ष जीवित है, यह विटनेस है, गवाह है। बुद्ध की चेतना में जो घटना घटी, उस बड़ी घटना के साथ वह वृक्ष भी आन्दोलित हो उठा और उसने भी जागकर देखा अपनी गहरी निद्रा में कि क्या घट गया है?
इसे इस तरह समझना आसान होगा। अगर आप किसी बड़े संगीतज्ञ से पूछें तो वह शायद आसानी से बता सकेगा। अगर एक सुनसान सूने कमरे में एक वीणा रखी जाय, कोई न बजाये, बस वीणा रखी हो और दूसरे कोने में कोई कुशल संगीतज्ञ दसूरी वीणा बजाये और कमरा सुनसान हो और चीज न हो तो जो खाली जगह रखी वीणा है वह दूसरी रखी वीणा की प्रतिध्वनि को पकड़ कर संगीत छेड़ना शुरू कर देगी। उस दूसरी वीणा के तार भी कम्पित होकर नाचने लगते हैं। ऐसा ही हुआ। वह इतनी बड़ी घटना घटी बुद्ध की कि उस कम्पन में वृक्ष की वीणा के भी तार हिल गये। वह भी नाच उठा वह गवाह बना।
हकीम लुकमान का नाम आपने सुना होगा। लुकमान के जीवन में एक बहुत अद्भुत उललेख है और वह योग के गहरे रास्तों से जुड़ा हुआ है। लुकमान के सम्बन्ध में एक कहानी है। कहानी कहता हूँ। ऐसे वह इतिहास है। कहानी है कि लुकमान ने वृक्षों से जाकर पूछा कि तुम किस काम आ सकोंगे? जड़ी-बूटियों से पूछा कि तुम्हारा क्या उपयोग है? और अभी भी जो लोग मेडिकल रिसर्च करते हैं, वे तकलीफ में हैं, यह बात जानकर कि लाखों जड़ी-बूटियों के बाबत-आयुर्वेद, यूनानी और पुरानी चिकित्सा शास्त्रों से इतनी लाखों जड़ी-बूटियों के बाबत पता कैसे लगाया होगा कि यह फलां बीमारी में काम आ सकती है, क्योंकि इतनी बड़ी प्रयोगशालाओं का कोई प्रमाण नहीं मिलता और आज भी हम पूरी जड़ी-बूटियों को पता नही लगा पाये हैं कि किस बीमारी में काम आती है। अभी काम चलता है तो हजारों साल तक मेहनत की हो तब पता चलेगा, लेकिन लुकमान अकेले आदमी ने पूरी साइन्स पैदा कर दी। एक आदमी एक जिन्दगी में कैसे पता लगा पायेगा।?
लुकमान की कहानी कुछ और कहती है। वह कहती है कि लुकमान एक-एक पौधों पर जाता, उसके पास बैठ जाता, ध्यान करता। उस पौधे से प्रार्थना करता कि तू बता कि तू किस काम आ सकता हैं और लुकमान के भीतर हृदय में उस पौधे से जो उत्तर मिलता वह उसी बीमारी में उस पौधे का उपयोग शुरू कर देता। और लुकमान ने जिन पौधें का उपयोग किया है अभी प्रयोगशाला में भी वे वैसे ही सही सिद्ध हो रहे हैं। पौधे भी झांक सकते हैं किसी लुकमान के पास, किसी बुद्ध के पास। पत्थर भी जाग सकते है, किसी योगी के पास। लेकिन हम आदमी हैं, जो कि सोये रह जाते हैं। अब यह बड़ी दुखद घटना है कि बुद्ध के पास एक वृक्ष जग गया, लेकिन बुद्ध के पास ऐसे हजारों लोग आये जो नहीं जागे और सोये ही वापिस चले गये। शायद वृक्ष बहुत सरह है इसलिए प्रतिध्वनित हो गया। आदमी बहुत जटिल है, चालाक है, होशियार है, जल्दी प्रतिध्वनित नहीं होता। हर चीज को जांच परख लेता है और जांच-परख में कभी-कभी दो पैसे की हण्डी तो बजा बजाकर ठीक ले जाता है और करोड़ों रुपये की चैक बजा-बजाकर खो देता है।
बहुत चालाक लोग कभी बड़े धोखे में पड़ जाते हैं और अगर कोई आदमी एक-एक कदम बहुत संभालकर रखेगा तो एक बात पक्की है, परमात्मा की यात्रा पर नहीं जा सकता। क्योंकि वह यात्रा इनसिक्योरिटी की है, वह यात्रा इतनी अनजान और अज्ञान और अपरिचित हैं कि वहाँ बहुत होशियारों का काम नहीं है, वहाँ बहुत बार नासमझ भी प्रवेश कर जाते है और समझदार दरवाजे पर खड़े सोचते रह जाते हैं।
कल अगले सूत्र पर आपसे बात करूंगा। इस सम्बन्ध में जो भी प्रश्न हों तो वह पूछ लेंगे। जो-जो प्रश्न थे, मैंने धीरे-धीरे उनकी बात कर ली है। कुछ बच जायेंगे तो उनकी बात कल कर लेंगे। जो मित्र सुबह ध्यान में आना चाहते हों, वे स्नान करके और ठीक समय पर आ जायें और चुप आकर बैठें। कल आखिरी दिन है, देखने कोई भी न आये, सिर्फ जो करना चाहते हैं वे ही निमन्त्रत हैं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शन्ति से सुना, उससे अनुगृहीत हूँ। अन्त में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूँ। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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