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शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-06)

प्रवचन-छट्ठवां 

दमन या रूपांतरण?

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)


पहला प्रश्नः

ओशो! दो भिक्षुओं के बारे में एक झेन कथा है, जो अपने मठ में वापस लौट रहे थे। मार्ग पर आगे बढ़ते हुए प्रौढ़ भिक्षु एक नदी के तट पर पंहुचा। वहां एक सुंदर युवा लड़की खड़ी थी, जो अकेले नदी पार करने से डर रही थी। इस प्रौढ़ भिक्षु ने उसकी ओर देखते ही, तेज़ी से अपनी दृष्टि दूसरी तरफ फेर ली और नदी पार करने लगा। जब वह दूसरे किनारे पंहुचा तो उसने मुड़कर वापस पीछे की ओर देखा और यह देखकर दंग रह गया कि युवा भिक्षु उस लड़की को अपने कंधों पर उठाकर नदी पार कर रहा है।
बाद में, दोनों भिक्षुओं ने साथ-साथ चुपचाप चलते हुए अपनी यात्रा जारी रखी। जब वे लोग अपने मठ के द्वार पर पंहुचे तो प्रौढ़ भिक्षु ने युवा भिक्षु से कहा : ‘वह उचित नहीं था और वह नियमों के विरुद्ध था। हम भिक्षु यह कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि हम लोग किसी स्त्री का स्पर्श करेंगे।’
युवा भिक्षु ने उत्तर दिया- ‘मैंने तो उस लड़की को नदी के तट पर ही छोड़ दिया था, लेकिन आप उसे अभी भी अपने साथ लिए हुए चल रहे हैं’
ओशो, क्या आप हमें भावों की अभिव्यक्ति अथवा भावों के दमन के बारे में कोई विकल्प बताने की कृपा करेंगे?


केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो अपनी ऊर्जाओं का दमन कर सकता है और उन्हें रूपांतरित भी कर सकता है। कोई भी अन्य प्राणी ऐसा नहीं कर सकता है। दमन और रूपांतरण, एक ही सिक्के के दो पहलुओं की भांति हैं और इन दोनों पहलुओं के संदर्भ में मनुष्य स्वयं ही कुछ कर सकता है।
वृक्ष मौजूद हैं, जानवर मौजूद हैं, पक्षी विद्यमान हैं, लेकिन वे अपने अस्तित्व के संदर्भ में कुछ नहीं कर सकते हैं, वे इस सृष्टि का एक भाग हैं, वे इससे बाहर खड़े हो ही नहीं सकते। वे कर्ता नहीं बन सकते हैं। वे अपनी ऊर्जा के साथ इतने अधिक तल्लीन होते हैं कि वे स्वयं को पृथक नहीं कर पाते हैं। परंतु मनुष्य कर सकता है। मनुष्य स्वयं के बारे में अवश्य ही कुछ कर सकता है। वह एक दूरी से स्वयं का निरीक्षण कर सकता है, वह स्वयं की ऊर्जा को इस प्रकार देख सकता है कि जैसे वह उससे दूर है। इसी कारण मनुष्य दमन और रूपांतरण दोनों ही कर सकता है। दमन का अर्थ है कि किसी विशिष्ट ऊर्जा को छिपाने का प्रयास करना, उसे अपने प्राकृतिक और शुद्ध रूप में रहने की अनुमति न देना और न ही उसे अभिव्यक्त करने की अनुमति देना। रूपांतरण का अर्थ है कि ऊर्जा को रूपांतरित करके, उसकी दिशा बदलकर उसे एक नया आयाम देना।
उदाहरण के लिए, सेक्स एक ऊर्जा है। सेक्स में ऐसा क्या है जो तुम्हें लज्जित अनुभव कराता है? तुम्हारे भीतर यह लज्जा, यह शर्मिंदगी केवल समाज की सिखावन से ही नहीं आई है। पूरे संसार में कई तरह के समाज अस्तित्व में रहे हैं और आज भी अस्तित्व में हैं परंतु किसी भी समाज ने, किसी भी मनुष्य ने सेक्स को सरलता और सहजता से नहीं लिया है। सेक्स के मूल तथ्य में ही कुछ ऐसी बात है जो तुम्हें लज्जित, अपराधी और सतर्क बनाती है। यह क्या चीज़ है? यदि सेक्स के बारे में तुम्हें कुछ भी न सिखाया जाए, सेक्स के बारे में कोई नैतिकता तुम पर न थोपी जाए, सेक्स के बारे में तुम्हें कोई भी पूर्व धारणा न दी जाए, तब भी बहुत गहरे में तुम सेक्स के साथ सहज नहीं हो पाते हो। वह क्या है?
एक- सेक्स तुम्हारी गहनतम निर्भरता को प्रदर्शित करता है। वह प्रदर्शित करता है कि तुम्हारे सुख के लिए कोई अन्य व्यक्ति अति आवश्यक है। बिना किसी अन्य व्यक्ति के वह सुख संभव ही नहीं है। इसलिए तुम आश्रित हो जाते हो और तुम्हारी स्वतंत्रता खो जाती है। इससे अहंकार को चोट लगती है। इसलिए एक व्यक्ति जितना अधिक अहंकारी होता है, वह उतना ही अधिक सेक्स के विरुद्ध होगा। तुम्हारे सभी तथाकथित संत सेक्स के विरोधी हैं : इसलिए नहीं कि सेक्स बुरा है, बल्कि इसलिए कि वे स्वयं अहंकारी हैं। वे किसी अन्य व्यक्ति पर आश्रित होने की बात सोच भी नहीं सकते, वे कल्पना भी नहीं कर सकते कि वे किसी व्यक्ति से अपने सुख के लिए भीख मांग रहे हैं। अतः सेक्स, अहंकार पर सबसे अधिक चोट करता है।
दूसरा- सेक्स की घटना में इंकार की भी संभावना है। दूसरा व्यक्ति तुम्हें अस्वीकार भी कर सकता है। यह निश्चित नहीं है कि तुम स्वीकार किए जाओगे अथवा अस्वीकार किए जाओगे, दूसरा तुम्हें न भी कह सकता है। जब तुम प्रेम-निवेदन करते हो और अस्वीकार कर दिए जाते हो तो यह संभवतः एक गहनतम तिरस्कार होता है। इस तिरस्कार से, इस अस्वीकृति से भय उत्पन्न होता है। अहंकार कहता है कि अस्वीकृत किए जाने की अपेक्षा यही सही है कि प्रयास ही न किया जाए।
आश्रित होना, अस्वीकृत होना और इंकार की संभावना... फिर भी गहनतम आकांक्षा। सेक्स की गहराई में व्यक्ति ठीक जानवरों के समान बन जाता है। यह बात मनुष्य के अहंकार को बहुत अधिक चोट पहुंचाती है, क्योंकि तब तो एक कुत्ते की प्रेम-क्रीड़ा और तुम्हारे प्रेमालाप में कोई भी अंतर नहीं रह जाता है। अंतर है भी क्या? अचानक तुम जानवर के समान बन जाते हो। सभी उपदेशक और नैतिकतावादी लोग मनुष्य से यही कहे चले जाते हैं : ‘एक जानवर मत बनो, जानवरों के समान व्यवहार मत करो।’ यह मनुष्य की सबसे अधिक और बड़ी से बड़ी निंदा है।
सेक्स के अलावा, अन्य किसी भी कार्य में तुम पशुओं जैसा व्यवहार नहीं करते हो, क्योंकि अन्य कार्यों में तुम प्राकृतिक नहीं रह पाते हो। अन्य प्रत्येक क्रिया में तुम अप्राकृतिक हो सकते हो। जैसे भोजन करने के दौरान; भोजन करने की क्रिया में मनुष्य ने अत्याधिक शिष्टाचार एवं सभ्यता को विकसित कर लिया है, जिससे वह पशु-तुल्य नहीं लगता। मौलिक बात है कि पशु जैसा व्यवहार नहीं झलकता है क्योंकि तुम्हारी सुंदर मेज़, सुंदर पकवान, मेज़ पर खाने का सलीका और तौर-तरीके... यह पूरी सभ्यता और शिष्टाचार जो तुमने अपने भोजन बनाने और ग्रहण करने के ढंग के ईर्द-गिर्द निर्मित किया है, यह निश्चित ही जानवरों से भिन्न दिखने के लिए ही किया है।
जानवर अकेले भोजन करना पसंद करते हैं, इसलिए प्रत्येक समाज ने व्यक्ति के मन में यह धारणा निर्मित कर दी है कि अकेले भोजन करना ठीक नहीं होता है। भोजन बांट कर खाओ, परिवार और मित्रों के साथ मिल-बांटकर भोजन करो और संभव हो तो भोजन पर मेहमानों को आमंत्रित करो। कोई भी जानवर भोजन करते समय परिवार, मित्रों और मेहमानों में रूचि नहीं लेता है। जब कभी एक जानवर भोजन करता है, तो वह चाहता है कि कोई भी उसके निकट न आए और वह अपना भोजन लेकर एकांत में चला जाता है, एकांत में उसका आनंद लेता है।
यदि एक मनुष्य अकेला भोजन करना चाहे तो तुम कहोगे कि वह पशु जैसा है, वह मिल-बांटकर नहीं खाना चाहता और उसकी भोजन करने की आदत प्राकृतिक ही बनी हुई है, उसमें सभ्यता और शिष्टाचार विकसित नहीं हुआ है। भोजन के चारों ओर हमने इतने अधिक मिथ्या आडम्बर और शिष्टाचार के कायदे-कानून सृजित कर लिए हैं कि भूख अब कम महत्त्वपूर्ण हो गई है और स्वाद प्रमुख बन गया है। कोई भी जानवर स्वाद के बारे में फिक्र नहीं करता है। जानवर की आधारभूत आवश्यकता भूख है, जैसे ही उसकी भूख मिट जाती है वह संतुष्ट हो जाता है। लेकिन मनुष्य संतुष्ट नहीं होता है क्योंकि उसका प्रयोजन भूख नहीं बल्कि कुछ और है। मनुष्य का मुख्य प्रयोजन स्वाद है, उसके लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण खाने के तौर-तरीके हैं। अधिक महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि तुम क्या खाते हो बल्कि महत्त्व इस बात का है कि तुम कैसे खाते हो?
जीवन के लगभग प्रत्येक आयाम में मनुष्य ने अपने चारों ओर, अपने अनुसार एक कृत्रिम संसार सृजित कर लिया है। जानवर नग्न घूमते हैं और इसी कारण मनुष्य नग्न नहीं रहना चाहता है। यदि कोई व्यक्ति नग्न होता है तो अचानक ही वह पूरी मनुष्य सभ्यता पर आघात करता है, वह वास्तविक जड़ों को ही काट देता है। इसी कारण पूरे संसार में नग्न व्यक्तियों के प्रति इतना अधिक विरोध है।
यदि तुम गलियों में नग्न होकर घूमते हो तो तुम किसी को चोट या हानि नहीं पहुंचा रहे हो, तुम किसी के प्रति कोई हिंसा भी नहीं कर रहे हो, बल्कि तुम पूरी तरह से निर्दोष हो। लेकिन तुरंत ही पुलिस आ जाएगी और चारों ओर का पूरा वातावरण उत्तेजित हो उठेगा। तुम पकड़ लिए जाओगे, तुम्हें पीटा जाएगा और यहां तक कि जेल में डाल दिया जाएगा। मगर तुमने तो कुछ भी नहीं किया है। अपराध तब होता है, जब तुम कोई गलत कार्य करते हो। पर तुम कुछ भी तो नहीं कर रहे हो, तुम सामान्य रूप से नग्न टहल रहे हो, लेकिन इससे पूरा समाज इतना अधिक क्रोधित क्यों हो जाता है? समाज एक हत्यारे के प्रति भी इतना अधिक क्रोधित नहीं होता है, वह इतना विरोध किसी हत्यारे का भी नहीं करता है। यह बड़ी अजीब बात है। लेकिन एक मनुष्य नग्न हो जाता है और समाज पूरी तरह से क्रोधित है। इसका कारण यही है, कि हत्या करना फिर भी एक मानवीय कृत्य है। कोई भी जानवर किसी की हत्या नहीं करता है। जानवर केवल अपने भोजन के लिए किसी का शिकार करता है, यह खाद्य-चक्र का नियम है। पर जानवर किसी को मारता नहीं है, वे हत्या नहीं करता है। कोई भी जानवर अपनी ही प्रजाति के किसी भी जानवर की हत्या नहीं करता है, ऐसा केवल मनुष्य करता है। इसलिए यह मानवीय कृत्य है, समाज इसे स्वीकार कर सकता है, लेकिन समाज नग्नता को स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि नग्न व्यक्ति अचानक तुम्हें याद दिला देता है कि तुम सब भी जानवर हो। हालांकि सुंदर कपड़ों के पीछे भी एक छुपा हुआ, एक नग्न जानवर मौजूद होता है, वहां एक मूल वानर, वह पूर्वज अभी भी छुपा हुआ है।
तुम एक नग्न व्यक्ति के विरुद्ध इसलिए नहीं हो कि वह नग्न है, बल्कि तुम इसलिए विरुद्ध हो कि उसकी नग्नता तुम्हें तुम्हारी नग्नता के प्रति सचेत कर देती है और इससे तुम्हारे अहंकार को चोट लगती है। सुंदर वस्त्र पहने हुए एक मनुष्य कदापि जानवर नहीं है। सुस्वादु भोजन और भोजन करने की सभ्यता के साथ मनुष्य कदापि जानवर नहीं है। भाषा, नैतिकता, दर्शन और धर्म के साथ, मनुष्य कदापि एक जानवर नहीं है। गिरजाघर और मंदिर में प्रार्थना हेतु जाना उसका प्रमुख धार्मिक कृत्य है। यह धार्मिक इसलिए है क्योंकि कोई भी जानवर चर्च या मंदिर में नहीं जाता है और न ही कोई जानवर प्रार्थना करता है। अतः यह पूर्ण रूप से मानवीय कृत्य है। मंदिर में जाकर प्रार्थना करना... यह मनुष्य को पूरी तरह से पशुता से भिन्न करता है और आदमी तथा जानवर में एक अंतर उत्पन्न करता है, इससे स्पष्ट झलक मिलती है कि तुम जानवर नहीं हो।
लेकिन सेक्स एक नैसर्गिक प्राणी प्रक्रिया है। तुम जो कुछ भी करते हो, जितना भी छिपाते हो, तुम अपने चारों ओर जितना भी कृत्रिम वातावरण उत्पन्न करते हो, तुम्हारे भीतर के मूलभूत जानवर की मौजूदगी बनी ही रहती है। जब तुम सेक्स में उतरते हो तो इसी मूलभूत प्रवृत्ति के कारण पशु-तुल्य हो जाते हो। इसी कड़वी सच्चाई के कारण अनेक लोग सेक्स का आनंद ही नहीं ले पाते, वे लोग पूर्ण रूप से जानवर या दूसरे शब्दों में कहें तो पूर्ण रूप से सहज नहीं बन पाते हैं क्योंकि उनका अहंकार उन्हें इसकी अनुमति नहीं देता है।
इसलिए अहंकार और सेक्स में इतना संघर्ष है : सेक्स बनाम अहंकार। कोई व्यक्ति जितना अधिक अहंकारी होता है, वह उतना ही अधिक सेक्स विरोधी होता है। जो निरअहंकारी होता है, वह सेक्स में उतना ही अधिक तल्लीनता से सम्मलित होता है। लेकिन निरअहंकारी व्यक्ति भी अपराध या पाप जैसा अनुभव करता है, हालांकि वह कम मात्रा में ऐसा अनुभव करता है, लेकिन तब भी उसे यह अनुभव होता है कि उसने कुछ गलत कर दिया है। जब कोई सेक्स में गहराई से प्रविष्ट होता है तो वहां अहंकार खो जाता है और जब अहंकार के पूर्ण रूप से विलुप्त होने का क्षण आता है तो तुम्हें भय जकड़ लेता है।
इसलिए लोग प्रेम करते हैं, सेक्स करते हैं, परंतु वे इसकी गहराई तक नहीं उतरते, वे इसमें वास्तविक नहीं होते। वे प्रेम करने का केवल एक नकली प्रदर्शन करते हैं, क्योंकि यदि तुम वास्तव में प्रेम करते हो तो पूरी सभ्यता को ही छोड़ देना पड़ता है। तुम्हारे मन, तुम्हारे धर्म, दर्शन और प्रत्येक धारणा को उठाकर अलग रख देना होगा। अचानक तुम अनुभव करोगे कि तुम्हारे अंदर एक जंगली जानवर उत्पन्न हो गया है। उसकी गर्जना तुम तक आएगी। तुम वास्तव में जंगली जानवर की तरह, गर्जना, गुर्राना और चीखना शुरू कर दोगे। यदि तुम ऐसा होने दोगे तो भाषा विलुप्त हो जाएगी और वहां केवल वे ही ध्वनियां बचेंगी जिन्हें पक्षी और जानवर उत्पन्न करते हैं। अचानक लाखों वर्षों की पूरी सभ्यता चरमराकर गिर पड़ेगी और तुम पुनः एक जंगली संसार में, एक जंगली जानवर की भांति स्वयं को खड़े पाओगे।
वहां एक भय है और इसी भय के कारण ही प्रेम करना बहुत कठिन हो गया है। वह भय वास्तविक है, क्योंकि जब तुम अहंकार खो देते हो तो तुम लगभग पागल और जंगली बन जाते हो और तब कुछ भी हो सकता है। तुम भलीभांति जानते हो कि कुछ भी हो सकता है। तुम किसी को मार सकते हो, तुम अपनी प्रेमिका की हत्या कर सकते हो और तुम उसके शरीर का भक्षण भी कर सकते हो, क्योंकि तब सब नियंत्रण हट जाते हैं। इसलिए इन सब से बचने के लिए दमन करना ही सबसे अधिक सरलतम मार्ग प्रतीत होता है। या तो दमन करो या स्वयं को केवल उतनी ही अनुमति दो, जिससे तुम किसी खतरे में न पड़ जाओ। केवल उतना ही हिस्सा भोगो, जिसे तुम सदैव ही पूरी तरह नियंत्रित कर सको। और जब तुम नियंत्रणकर्ता हो, जब तुम संचालक हो तो तुम एक निश्चित सीमा तक ही अनुमति देते हो, और उसके बाद तुम अनुमति नहीं देते हो। तुम स्वयं को सिकोड़ लेते हो, बंद कर लेते हो।
यह दमन एक सुरक्षा कवच की भांति कार्य करता है, यह चौकन्ना रहने का एक उपाय है, यह सुरक्षा का एक मापदण्ड बन जाता है और धर्मों ने इस मापदण्ड का भरपूर उपयोग किया है। उन्होंने सेक्स के इस भय का शोषण किया है और तुम्हें अत्याधिक भयभीत बनाया है। उन्होंने तुम्हारे भीतर भय की एक तरंग उत्पन्न कर दी है। उन्होंने सेक्स को एक मौलिक अपराध अथवा पाप बना दिया है और वे कहते हैं : ‘जब तक सेक्स विलुप्त नहीं हो जाता, तब तक तुम परमात्मा के राज्य में प्रवेश करने में समर्थ न हो सकोगे।’ एक अर्थ में वे ठीक हैं, परंतु फिर भी गलत हैं। मैं भी यही कहता हूं कि जब तक सेक्स विलुप्त नहीं होता, तब तक तुम परमात्मा के राज्य में प्रवेश करने में समर्थ न हो सकोगे, लेकिन सेक्स केवल तभी विलुप्त होगा जब तुमने उसे समग्रता से स्वीकार कर लिया होगा और दमन के बिना उसका रूपांतरण कर लिया होगा।
धर्मों ने मनुष्य के भय का और मनुष्य की अहंकार-प्रवृत्ति का शोषण किया है। धर्मों ने दमन की कई अनगिनत तकनीकें निर्मित की हैं। दमन करना बहुत कठिन नहीं है, लेकिन यह बहुत महंगा है, कीमत चुकानी पड़ती है, क्योंकि तुम्हारी पूरी ऊर्जा स्वयं से लड़ने में ही विभाजित हो जाती है और तब तुम्हारा पूरा जीवन बर्बाद हो जाता है।
मैं कहता हूं कि तुम्हारे पास सेक्स ही एकमात्र ऊर्जा है जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस मूलभूत ऊर्जा से लड़ो मत, इससे लड़ना या संघर्ष करना तुम्हारे जीवन और समय दोनों की ही बर्बादी होगी। वस्तुतः इसका रूपांतरण करो। परंतु यह कैसे करें? रूपांतरण कैसे किया जाए? हम इसके लिए क्या कर सकते हैं? यदि तुमने भय को समझ लिया है, तब तुम उस संकेत-सूत्र को भी समझ सकते हो कि क्या किया जा सकता है?
तुम्हारे भीतर भय मौजूद है, तुम अनुभव करते हो कि तुम्हारा नियंत्रण खो जाएगा और यदि एक बार नियंत्रण खो गया तो फिर तुम कुछ भी नहीं कर सकते हो। मैं तुम्हें एक नई तरह का नियंत्रण सिखलाता हूं, वह नियंत्रण है स्वयं के साक्षी हो जाने का। यह नियंत्रण मन को दमित करने वाला नियंत्रण नहीं है, बल्कि यह तो स्वयं का साक्षी हो जाने वाला नियंत्रण है। मैं तुमसे कहता हूं कि यह संभवतः श्रेष्ठतम नियंत्रण है और इतना सहज है, स्वाभाविक है, प्राकृतिक है, कि तुम कभी भी यह अनुभव नहीं करते कि तुम नियंत्रणकर्ता हो। साक्षी होने के साथ ही यह नियंत्रण सहजता से घटित होता है।
सेक्स में गतिशील हो जाओ, लेकिन साक्षी बने रहो। केवल एक ही चीज़ स्मरण रखनी है कि मुझे पूरी प्रक्रिया का अवलोकन करते रहना होगा। मुझे पूरी प्रक्रिया से गुज़रकर उसे देखना होगा। मुझे पूरी प्रक्रिया का साक्षी बने रहना होगा। मुझे अचेत नहीं होना चाहिए, बेहोश नहीं होना चाहिए। बस इतना ही ख्याल रखो। जंगली बनो, लेकिन अचेत मत बनो। तब उस जंगलीपन में भी कोई खतरा नहीं है, तब वह जंगलीपन भी सुंदर है। वास्तव में, एक जंगली मनुष्य ही सुंदर हो सकता है। एक स्त्री जो सेक्स में जंगली नहीं है, वह सुंदर नहीं हो सकती क्योंकि वह जितनी अधिक जंगली या प्राकृतिक होती है, वह उतनी ही अधिक जीवंत होती है। तब तुम जंगल में भागते हुए ठीक एक जंगली चीते अथवा एक जंगली हिरण के समान होते हो, उसमें भी एक सौंदर्य होता है।
लेकिन समस्या यह है कि अचेतन नहीं होना है। यदि तुम अचेतन में चले जाते हो, तब तुम अचेतन शक्तियों के दबाव में हो और कर्मबन्ध के प्रभाव में हो। अतीत में तुमने जो कुछ भी किया है, वह वहां एकत्रित है, वह वहां संग्रहित है। वही संग्रहण... वही कंडीशनिंग तुम्हें अपनी पकड़ में ले सकती है और तुम्हें अपनी मनचाही दिशाओं में गतिशील कर सकती है, जो तुम्हारे लिए और दूसरों के लिए खतरनाक होगा। लेकिन यदि तुम साक्षी बने रहते हो तो अतीत की कंडीशनिंग हस्तक्षेप नहीं कर सकती।
इसलिए साक्षी बनने की पूरी विधि अथवा साक्षी रहने की पूरी प्रक्रिया ही सेक्स ऊर्जा के रूपांतरण की एक प्रक्रिया है। सेक्स में पूर्णता से गतिशील होते हुए भी सजग बने रहो। जो कुछ भी घट रहा है उसका निरीक्षण करो, उसे देखते रहो और एक भी क्षण को चूको मत। जो कुछ भी तुम्हारे शरीर में, तुम्हारे मन में और तुम्हारी आंतरिक ऊर्जा में घटित हो रहा है, जो एक नया वर्तुल उत्पन्न हो रहा है, शरीर की ऊर्जा जो नये ढंग से गतिशील हो रही है और एक नई चक्राकार गति कर रही है, केवल उसके साक्षी बने रहो। अब तुम्हारे शरीर की ऊर्जा तुम्हारे साथी या पत्नी की ऊर्जा के साथ एक हो गई है। अब एक आंतरिक वर्तुल निर्मित हो गया है और तुम उसका अनुभव कर सकते हो। यदि तुम सजग हो तो तुम उसका अनुभव कर सकते हो। तुम अनुभव करोगे कि अब तुम उस महत्त्वपूर्ण और गतिशील काम-ऊर्जा के एक वाहन बन गए हो।
सजग बने रहो। शीघ्र ही तुम अनुभव करोगे कि जितना अधिक यह वर्तुल निर्मित होता जाता है, उतने ही अधिक विचार गिरने लगते हैं, सभी विचार वृक्ष के सूखे पीले पत्तों की भांति नीचे गिर जाते हैं। विचार विलुप्त हो रहे हैं, मन अधिक से अधिक खाली हो रहा है। सजग बने रहो और तुम शीघ्र ही पाओगे कि तुम तो वहां हो, पर वहां कोई भी अहंकार नहीं है। तुम इसे ‘मैं’ नहीं कह सकते। तुम्हें इस ‘मैं’ से भी अधिक सघन और महान, कुछ असाधारण अनुभव घटित हुआ है। तुम और तुम्हारा साथी, दोनों ही उस असाधारण ऊर्जा में घुल-मिलकर एक हो गए हैं।
लेकिन यह एक-दूसरे में लीन होना अचेतन रूप से नहीं होना चाहिए, अन्यथा तुम उद्देश्य से चूक जाओगे। तब यह एक सुंदर सेक्स कृत्य तो होगा, लेकिन रूपांतरण नहीं होगा। यह सुंदर है और इसमें कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन यह रूपांतरण नहीं है। यदि यह अचेतन में हुआ है, तब तुम हमेशा ही उस चक्राकार मार्ग पर घूमते रहोगे। बार-बार तुम इसी एक अनुभव से गुज़रना पसंद करोगे। भले ही अपने आप में वह अनुभव बहुत सुंदर है, लेकिन वह एक आदत बन जाएगा। प्रत्येक बार जब भी तुम इस अनुभव का आनंद लोगे तो तुम्हारे भीतर और अधिक कामना उत्पन्न होगी। तुम जितना इस अनुभव का भोग करोगे, उतना ही अधिक कामना से ग्रसित होते जाओगे और इस तरह एक दुष्चक्र में घूमते रह सकते हो। तुम इससे विकसित नहीं होते, तुम केवल चक्र में घूमते रहते हो। चक्राकार गति में लगातार घूमते रहना बुरा है, क्योंकि तब विकास नहीं हो रहा है। तब ऊर्जा पूरी तरह से नष्ट हो रही है। जबकि अनुभव सुखद है परंतु फिर भी समस्त ऊर्जा नष्ट हो गई। इससे कहीं अधिक, इससे कहीं बेहतर, कुछ घटने की संभावना थी। जो अभी घटा है वह तो केवल एक कोना, एक मोड़, एक अंश मात्र था और इससे कहीं अधिक की संभावना थी। इसी ऊर्जा से दिव्य अनुभव को भी प्राप्त किया जा सकता था। इसी ऊर्जा से सर्वोच्च परमानंद को पाना भी संभव था, परंतु तुम उस ऊर्जा को क्षणिक अनुभवों में नष्ट कर रहे हो। धीरे-धीरे ये क्षणिक अनुभव भी, चाहे वे कितने ही सुंदर क्यों न हों, तुम्हें ऊबाउ लगने लगेंगे, क्योंकि प्रत्येक चीज़ की पुनरावृत्ति अंततः एक ऊब बनकर रह जाती है। जब नयापन खो जाता है तो ऊब उत्पन्न होती है।
यदि तुम सजग बने रहते हो, साक्षी बने रहते हो, तो पहला- तुम शरीर में ऊर्जा के परिवर्तनों को देखोगे, दूसरा- तुम मन से विचारों का मिटना देखोगे और तीसरा- तुम हृदय से अहंकार का गिरना देखोगे। इन तीनों चीज़ों का सावधानी से निरीक्षण करना है और जैसे ही यह तीनों स्थितियां घटित हो जाती हैं, तीसरी स्थिति के घटित होते ही, तुम्हारी काम-ऊर्जा पूर्ण रूप से ध्यान ऊर्जा बन जाती है। अब तुम सेक्स की प्रक्रिया में नहीं हो, तुम अपने साथी के साथ, शारीरिक रूप से उपस्थित हो सकते हो परंतु तुम वहां होते ही नहीं हो, तुम एक नूतन संसार में प्रतिरोपित हो जाते हो, केवल तुम्हारा शुद्ध ‘होना’ ही बचता है। यह तुम्हारा शुद्ध ‘होना’ वही है, जिसके बारे में भगवान शिव ‘विज्ञान भैरव-तंत्र’ और तंत्र की अन्य पुस्तकों में कहते हैं। भगवान शिव निरंतर इस तथ्य के बारे में बात करते हैं कि तुम्हारा स्वरूप ही बदल जाता है और तुम आमूल रूपांतरित हो जाते हो, परिवर्तन घटित होता है। और यह परिवर्तन साक्षी के द्वारा घटित होगा।
यदि तुम दमन का अनुसरण करते हो तो दमन के द्वारा तुम एक तथाकथित मनुष्य बन सकते हो, जो भीतर से नकली होगा, खोखला होगा, उथला होगा, दिखावटी होगा, झूठा होगा और अप्रामाणिक होगा। यदि तुम दमन का अनुसरण नहीं करते हो और विलासिता तथा अतिशय भोग का अनुसरण करते हो तो तुम जानवर की भांति हो जाओगे, प्राकृतिक एवं वास्तविक। ऐसे में तुम तथाकथित सभ्य और खोखले मनुष्य की अपेक्षा प्रामाणिक तो बन पाओगे, लेकिन फिर भी वहां पशुता ही रहेगी, जिसे मनुष्य में छुपी हुई संभावित शक्ति और उसके विकास की संभावना का बोध ही नहीं है... पशुता जो सजग नहीं है, जागरूक नहीं है।
यदि तुम ऊर्जा का रूपांतरण करते हो, तब तुम दिव्य और आलौकिक बनते हो और स्मरण रहे, जब मैं कहता हूं- ‘दिव्य’ तो इसमें दोनों ही बातें समाहित हैं... वहां एक जंगली जानवर भी मौजूद है जो अपने अस्तित्व के, अपने होने के, समग्र सौंदर्य के साथ है और यह जंगली जानवर अस्वीकृत और तिरस्कृत नहीं है। वह अपनी पूर्ण समृद्धि के साथ वहां मौजूद है, क्योंकि वह अब सजग भी है। इसलिए भीतर का वह नैसर्गिक जानवर, उसकी प्रचंडता और उसका सौंदर्य वहां मौजूद है। और थोपी हुई सभ्यता जो अब तक दमन कर रही थी, वह भी स्वतंत्र है, वह अब स्वयं प्रवर्तित है, वह विवश नहीं है। एक बार यदि ऊर्जा का रूपांतरण हो जाता है, तो तुम्हारे भीतर ही प्रकृति और परमात्मा दोनों का मिलन होता है, शिव और शक्ति दोनों का मिलन होता है। तुम्हारे भीतर ही प्रकृति की ऊर्जा अपने पूर्ण सौंदर्य के साथ और परमात्मा की ऊर्जा अपनी पूर्ण अनुकंपा के साथ एकदूसरे में विलय हो जाते हैं।
ऋषि, ज्ञानी या साधु का यही अर्थ होता है कि वह प्रकृति और परमात्मा का सम्मिश्रण है, उसके भीतर सृष्टि और सृष्टा का मिलन हुआ है, उसके भीतर शरीर और आत्मा का मिलन हुआ है। साधु वही है जिसके भीतर निम्नतम और श्रेष्ठतम दोनों ही सध गए हैं, सम हो गए हैं। ज्ञानी के भीतर पृथ्वी और आकाश का मिलन घटित होता है।
लाओत्सु ने भी यही कहा है : ‘ताओ तब घटित होता है जब पृथ्वी और आकाश मिलते हैं।’ यही सच्चा मिलन है।
मौलिक स्रोत है : साक्षी होना। परंतु सेक्स के कृत्य में साक्षी होना बहुत कठिन प्रतीत होगा, यदि तुम जीवन के अन्य कृत्यों में साक्षी होने का प्रयास नहीं करोगे। इसलिए पूरे दिन-भर इसका प्रयास करो अन्यथा तुम स्वयं को ही धोखा दोगे, आत्म-प्रवंचना में पड़ जाओगे। यदि तुम सड़क पर टहलते हुए साक्षी नहीं रह पाते हो, तो स्वयं को धोखा देने का प्रयास मत करो क्योंकि तब तुम प्रेमालाप के समय भी साक्षी नहीं रह सकते हो। यदि सड़क पर टहलने जैसी एक सामान्य प्रक्रिया के प्रति भी तुम साक्षी नहीं रह सकते और तुम उसमें बेहोश हो जाते हो, अचेतन हो जाते हो, तो प्रेम जैसे कृत्य में फिर तुम कैसे साक्षी बने रह सकते हो? प्रेम तो एक गहरी प्रक्रिया है, इसमें तुम्हारे गिरने की, बेहोशी में जाने की संभावना अधिक है।
तुम सड़क पर टहलते समय भी जागरूक नहीं रह पाते हो। प्रयास करके देखो, कुछ ही क्षणों में तुम भूल जाते हो कि तुम चल रहे हो। सड़क पर टहलते हुए बस इतना प्रयास करो कि मैं यह याद रखूंगा कि मैं चल रहा हूं, केवल चल रहा हूं, मैं केवल चल ही रहा हूं। परंतु कुछ ही क्षणों में तुम यह भूल जाते हो और मन में कुछ अन्य विचार चलने लगते हैं, विचारों का विस्फोट हो जाता है और तुम किसी दूसरी ही दिशा का अनुसरण कर लेते हो, और अपनी क्रिया को पूरी तरह भूल जाते हो। अचानक तुम्हें याद आता है कि मैं भूल गया था, भटक गया था, साक्षी होना भूल गया हूं। इसलिए यदि टहलने जैसे छोटे से कृत्य में तुम सचेत नहीं रह सके, तो प्रेमालाप जैसे गहन कृत्य को सचेतन ध्यान बनाना मुश्किल होगा।
इसलिए सामान्य चीज़ों से और साधारण क्रिया-कलापों से प्रयास शुरू करो। भोजन करते हुए इसका प्रयास करो। टहलते हुए इसका प्रयास करो। बातचीत के दौरान अथवा कुछ भी सुनते वक्त इसका प्रयास करो। प्रत्येक दिशा में इसका प्रयास करो। तुम्हारे भीतर निरंतर एक चोट होती रहे, तुम्हारे संपूर्ण शरीर और मन को यह जान लेने दो कि तुम निरंतर सजग बने रहने का प्रयास कर रहे हो। केवल तभी, किसी दिन प्रेम में भी साक्षी घटित हो सकेगा। और जब ऐसा होगा तो तुम्हें परमानंद की झलक मिलेगी। उस क्षण में दिव्यता की पहली झलक तुम पर अवतरित होती है। उस क्षण के बाद, फिर कामक्रीड़ा किसी भी प्रकार से केवल कामक्रीड़ा नहीं रह जाती है, तब कभी न कभी, यह विलुप्त हो ही जाएगी। सेक्स का इस प्रकार, बिना किसी दमन के विलुप्त होना ही ब्रह्मचर्य है और तब तुम एक ब्रह्मचारी बन जाते हो।
कैथोलिक मठों में साधु और साध्वियां, जैन धर्म के परंपरावादी मुनि और ऐसे ही कई अन्य तथाकथित संन्यासी केवल नाम के ही ब्रह्मचारी होते हैं, क्योंकि उनके मन में, एक साधारण संसारी की अपेक्षा कहीं अधिक प्रेम-संबंधी विचार चलते रहते हैं। उनके लिए सेक्स एक मानसिक-चिंतन बन जाता है जो मनुष्य मन की सर्वाधिक हानिप्रद संभावना है क्योंकि यह एक विकृति है, एक विकार है, एक दोष है। यदि तुम सेक्स के बारे में चिंतन करते रहते हो तो यह एक विकृति है। प्रेमालाप करना सहज है, स्वाभाविक है, लेकिन निरंतर, मन में उसका विचार करते रहना, उसमें उलझे रहना, एक विकृति है। ये तथाकथित साधु विकृत चित्त के लोग हैं, इसलिए नहीं कि वे साधु हैं, बल्कि इसलिए कि उन्होंने दमन का मार्ग चुना है, जो एक गलत मार्ग है, जो कहीं भी नहीं ले जाता है।
जीसस, महावीर और बुद्ध ने साक्षी के मार्ग का अनुसरण किया। तभी ब्रह्मचर्य सहजता से घटित होता है। यह ब्रह्मचर्य शब्द बहुत सुंदर है। इस प्रामाणिक शब्द का अर्थ है : दिव्य सत्ता का आचरण या ब्रह्म का आचरण अर्थात वह आलौकिक दिव्य सत्ता या ब्रह्म सत्ता जिस ढंग से आचरण करती है, वही ब्रह्मचर्य है। यह शब्द ‘ब्रह्मचर्य’ कदापि सेक्स के विरुद्ध नहीं है, इसमें कुछ भी सेक्स के विरुद्ध नहीं है। यह शब्द साधारण रूप से केवल इतना ही भाव व्यक्त करता है कि वह परम तत्व या ब्रह्म तत्व किस प्रकार कार्य करता है, आचरण करता है और गतिशील होता है। यदि एक बार तुम सतोरी के अनुभव को जान लेते हो, जो सेक्स कृत्य में साक्षी होने के द्वारा जाना जा सकता है, तो तुम्हारा पूरा जीवन रूपांतरित हो जाएगा और तुम परमात्मा की भांति आचरण करना शुरू कर दोगे।
परमात्मा के आचरण के क्या लक्षण होते हैं, परमात्मा के व्यवहार की क्या विशेषताएं होती हैं? वह दिव्य तत्व कैसे आचरण करता है? पहली बातः वह आश्रित नहीं है, वह पूर्ण रूप से स्वतंत्र है। वह अपना प्रेम तुम्हें देता है, लेकिन यह उसकी आवश्यकता नहीं है। वह अपने अथाह भंडार से तुम्हें बेशर्त देता है। उसके पास प्रचुर मात्रा में है, बस इसलिए वह बांटता है। यदि तुम उसके प्रेम को ग्रहण करते हो तो तुम निश्चित ही उसे भारहीन करते हो, लेकिन यह भी उसकी आवश्यकता नहीं है। परमात्मा एक सृष्टा है, जब तुम्हारी सेक्स ऊर्जा रूपांतरित होकर एक दिव्य-शक्ति बनती है, तब तुम्हारा जीवन सृजनात्मक बन जाता है। सेक्स एक सृजनात्मक शक्ति है। साधारणतः यह जैव-विज्ञान के ढंग से गतिशील होती है, यह नए प्राणियों का सृजन करती है, यह नए जीव को जन्म देती है। परंतु जब सेक्स नहीं होता है तो वही ऊर्जा रूपांतरित हो रही है, ऊर्ध्वगामी हो रही है और तब वह सृजनात्मकता के एक नए संसार में गतिशील हो जाती है और सृजनात्मकता के अनेक नए आयाम तुम्हारे लिए खुल जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि तुम अचानक चित्र बनाना शुरू कर दोगे या कविता लिखने लगोगे या ऐसा ही कोई अन्य कार्य करोगे। ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी। लेकिन तुम जो कुछ भी करोगे, वह एक सृजनात्मक कार्य बन जाएगा। तुम जो कुछ भी करोगे वह कलात्मक हो जाएगा। यहां तक कि जब बुद्ध बोधि-वृक्ष के नीचे बैठे हैं और कुछ भी कार्य नहीं कर रहे हैं, तब भी उनका वह बैठना ही सृजनात्मक है। वह जिस ढंग से बैठे हैं, जिस प्रामाणिकता से बैठे हैं, उससे उनके चारों ओर एक सृजनात्मक शक्ति, एक ऊर्जा और एक विधायक तरंग निर्मित होती है।
अभी हाल ही में मिस्र के पिरामिडों पर बहुत शोध किया गया है और उस शोध में अनेक रहस्यमय तथ्यों का पता चला है। उन तथ्यों में से एक यह है कि पिरामिड की आकृति, उसकी विशिष्ट आकृति अत्यंत रहस्यात्मक है। अचानक, वैज्ञानिक इस सत्य के प्रति सचेत हुए हैं कि यदि पिरामिड में एक मुर्दा शरीर रख दिया जाए तो वह बिना किसी रसायनिक लेप के भी संरक्षित रह सकता है, केवल उस पिरामिड की आकृति ही उसे सुरक्षित और संरक्षित रखने में मदद करती है।
तब जर्मनी के एक वैज्ञानिक ने सोचा कि यदि आकृति द्वारा इतना कुछ संभव है कि एक मुर्दा तक संरक्षित रह सकता है। केवल आकृति के प्रभाव से ही संरक्षण संभव है... तब उसने अपने रेज़़र ब्लेड पर इस तकनीक को आजमाया। उसने गत्ते का एक छोटा-सा पिरामिड बनाया और अपने इस्तेमाल किए हुए रेज़र ब्लेड को उसमें रखा। कुछ ही घंटों में वह रेज़र ब्लेड पुनः धारदार हो गया और प्रयोग के लिए पुनः तैयार भी। पिरामिड की आकृति ने ही ब्लेड को वह पैनापन दिया था। तब उस जर्मन वैज्ञानिक ने इस प्रयोग को पेटेंट कराया। एक ही रेज़र ब्लेड पूरे जीवन भर प्रयोग किया जा सकता है, केवल यदि तुम उसे पिरामिड में रख दो, अन्य कुछ भी नहीं करना है, केवल पिरामिड की आकृति ही उसे बार-बार पैनापन देती है। अब वैज्ञानिक कहते हैं कि प्रत्येक विशिष्ट आकृति, एक विशिष्ट वातावरण को... एक विशिष्ट परिवेश को सृजित करती है।
भगवान बुद्ध जो बोधि वृक्ष के नीचे बैठे हुए हैं; वह जिस ढंग से बैठते हैं, वह जिस मुद्रा और भाव-भंगिमा से बैठते हैं, उनके अस्तित्व की वह निरअहंकारी और प्रामाणिक स्थिति ही, चारों ओर लाखों तरंगों को सृजित कर रही है। ये तरंगें चारों ओर फैलती चली जाएंगी। यहां तक कि जब बुद्ध इस वृक्ष के नीचे से विलुप्त हो गए, तब भी ये तरंगें दूर-दूर तक फैलती रहेंगी, ये तरंगे अन्य ग्रहों और सितारों तक का स्पर्श करेंगी। जहां कहीं भी एक बुद्ध की तरंगें स्पर्श करती हैं, वहां एक सृजन होगा, वहां उमंग होगी, वहां रोमांच होगा और एक ताजी हवा का झोंका होगा।
जब सेक्स की ऊर्जा रूपांतरित होती है तो तुम्हारा पूरा जीवन सृजनात्मक हो जाता है : मुक्त, स्वतंत्र और रचनात्मक हो जाता है। तुम जो कुछ भी करते हो, इसी ऊर्जा के द्वारा सृजित होता है। यदि तुम कुछ भी नहीं करते हो तो वह अक्रिया भी सृजनात्मक बन जाती है। केवल तुम्हारा शुद्धतम होना ही, तुम्हारा अस्तित्व मात्र ही ऐसा अद्भुत सृजन कर देता है, जो सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् होता है।
अब उसी कहानी पर लौट चलते हैं जिसमें प्रौढ़ भिक्षु उस युवा भिक्षु से कहता है : ‘तुम्हें नदी तट पर उस लड़की का स्पर्श नहीं करना चाहिए था और यह मठ के नियमों के विरुद्ध है। यह केवल कहने के लिए नहीं है, बल्कि ऐसा नियम बनाया गया है।’ इस कथन में अनेक चीज़ें निहित हैं, वह तर्क संगत व्याख्या कर रहा है क्योंकि वह ईर्ष्या का अनुभव कर रहा है। मनुष्य का मन इसी तरह से काम करता है। तुम प्रत्यक्ष रूप से कभी नहीं कह सकते कि तुम ईर्ष्या का अनुभव कर रहे हो।
एक युवती, एक सुंदर युवती नदी के तट पर खड़ी हुई थी। धीरे-धीरे सूर्यास्त हो रहा है, वह युवती भयभीत थी, तभी वह प्रौढ़ भिक्षु आया, जो अपने मठ की ओर जा रहा था। उसने लड़की की ओर देखा क्योंकि एक भिक्षु के लिए भी एक सुंदर लड़की की उपस्थिति को नज़रअंदाज करना और उसकी ओर न देखना बहुत कठिन होता है। भिक्षु के लिए ऐसा करना कठिन था क्योंकि बहुत गहरे में वह स्त्री के प्रति आवेशित था। वह स्वयं से संघर्ष कर रहा है। वह निरंतर सचेत है कि स्त्री के रूप में सामने एक शत्रु मौजूद है। तुम यदा-कदा एक मित्र से चूक सकते हो, लेकिन तुम एक शत्रु से कभी भी नहीं चूक सकते, तुम उसे अवश्य ही देखोगे। यदि तुम एक सड़क से गुज़र रहे हो और शत्रु वहां सामने खड़ा है तो उसकी ओर न देखना असंभव है। तुम जागरूक हुए बिना, उस सड़क पर उपस्थित मित्रों को अनदेखा कर सकते हो परंतु शत्रु को नहीं क्योंकि शत्रु के साथ भय है। और एक सुंदर युवती, बिल्कुल अकेली खड़ी हुई है, वहां कोई अन्य व्यक्ति नहीं है और वह युवती सहायता भी चाह रही है, क्योंकि नदी उसके लिए अनजानी थी और वह उसे पार करने में भयभीत हो रही थी।
इस प्रौढ़ भिक्षु ने अनिवार्य रूप से अपनी आंखों को बंद करने का प्रयास किया होगा, उसने अनिवार्य रूप से अपने हृदय के द्वार को भी बंद करने का प्रयास किया होगा और उसने अनिवार्यतः अपने कामकेंद्र को भी अवरूद्ध करने का प्रयास किया होगा, क्योंकि युवती के रूप में उस शत्रु के विरुद्ध केवल यह ही सुरक्षा की जा सकती थी। वह निश्चित ही तेजी से आगे बढ़ गया होगा और उसने पीछे मुड़कर देखने का साहस नहीं किया होगा। परंतु जब तुम बचना चाहते हो तब ही बार-बार देखते हो। तुम प्रयास करते हो कि न देखा जाए पर तब भी तुम देख रहे होते हो। उस भिक्षु का पूरा मन उस युवती के प्रति आवेशित था। उसका पूरा अस्तित्व युवती के चारों ओर ही घूम रहा था। वह नदी को पार तो कर रहा था, लेकिन वह उस समय नदी के प्रति सचेत नहीं था और वह हो भी नहीं सकता था। वह मठ की ओर तो जा रहा था लेकिन अब उसे मठ में कोई रुचि नहीं थी, उसकी गहन रूचि तो पीछे ही छूट गई थी।
तब अचानक उसे याद आता है कि उसका दूसरा साथी, दूसरा भिक्षु, युवा भिक्षु भी पीछे आ रहा है। वे दोनों भिक्षा मांगने के लिए मठ से निकले थे। वह तत्काल ही पीछे मुड़ता है और देखता है कि उस युवा भिक्षु के कंधो पर वह सुंदर युवती नदी पार कर रही है। उन दोनों की इस नज़दीकी ने अनिवार्य रूप से उस प्रौढ़ भिक्षु के मन में एक गहन ईर्ष्या उत्पन्न कर दी। यही कृत्य वह स्वयं करना चाहता था परंतु नियमों के बंधन के कारण वह ऐसा नहीं कर सका। इसलिए उसमें प्रतिशोध का बीज पैदा हो गया। वे दोनों वापिस मठ की ओर आते हुए, मीलों तक साथ-साथ चले परंतु मौन बने रहे और मठ के द्वार पर पंहुचते ही वह प्रौढ़ भिक्षु बोल उठा- ‘वह ठीक नहीं था, वह नियम के विरूद्ध था।’
उसका वह मौन नकली था। मीलों तक एक साथ चलते हुए वह प्रौढ़ भिक्षु केवल प्रतिशोध लेने के बारे में ही सोच रहा था कि कैसे बदला लिया जाए? कैसे इस युवा भिक्षु को निंदित किया जाए? वह निरंतर प्रतिशोध के उन्माद में था अन्यथा अचानक कुछ भी घटित नहीं होता है। मन एक श्रंखला निर्मित करता है, मन में विचारों की निरंतरता बनी रहती है। उन दो अथवा तीन मीलों की यात्रा में वह निरंतर यही सोच रहा था कि आखिर क्या किया जाए? और तब वह अचानक बोल उठता है। यह बोलना अचानक नहीं है। अंदर विचारों का एक लगातार और तीव्र प्रवाह बना ही हुआ था और तब वह कहता है : ‘यह ठीक नहीं है। यह नियमों के विरुद्ध है और मुझे मठाधीश से, मठ के संचालक से और गुरु से इसकी शिकायत करनी होगी। तुमने एक नियम को तोड़ा है, जो एक प्रामाणिक और आधारभूत नियम है कि किसी भी भिक्षु को एक स्त्री का स्पर्श नहीं करना चाहिए। तुमने न केवल उसका स्पर्श किया है, बल्कि तुमने उसे अपने कंधों पर भी उठाए रखा है।’
युवा भिक्षु ने अनिवार्य रूप से आश्चर्य किया होगा, उसे हैरत हुई होगी क्योंकि अब वहां कोई भी युवती थी ही नहीं, न ही कोई नदी थी और न कोई किसी को उठाए हुए था। वह पूरी घटना तो अतीत में घटित हुई थी। तीन मील तक निरंतर चलते हुए तो वे मौन बने रहे थे।
तब उस युवा भिक्षु ने कहा : ‘मैंने तो उस युवती को नदी के पार दूसरे तट पर तभी छोड़ दिया था, लेकिन लगता है आप उसे अभी भी साथ लिए हुए चल रहे हैं।’
यह एक गहन अंतर्दृष्टि है। तुम उन चीज़ों को भी साथ लिए हुए चल सकते हो, जो वास्तव में अभी है ही नहीं; तुम उन चीज़ों के व्यर्थ भार को भी ढोए चले जाते हो, जिनका अस्तित्व ही नहीं है; तुम स्वयं को उन सब चीज़ों से कुचल डालते हो जिनका कोई वजूद ही नहीं है। वह प्रौढ़ भिक्षु दमन के मार्ग पर है। वह युवा भिक्षु रूपांतरण की ओर किए गए प्रयास का एक प्रतीक है क्योंकि रूपांतरण स्त्री, पुरुष अथवा किसी को भी स्वीकार करता है। चूंकि रूपांतरण दूसरे के द्वारा ही घटित होना है, दूसरा रूपांतरण के लिए माध्यम बनता है, इसलिए दूसरा भी उसमें अवश्य भाग लेगा। दमन करने पर या संवेगों पर प्रतिबंध लगाने से दूसरे का अर्थात उस माध्यम का तिरस्कार होता है। दमन, दूसरे को अस्वीकार करता है। दमन, दूसरे का विरोध करता है। उस दूसरे को नष्ट होना ही होगा।
यह कहानी बहुत सुंदर है। युवा भिक्षु की गहन अंतरदृष्टि ही वास्तव में सही मार्ग है। प्रौढ़ और वृद्ध भिक्षु की भांति मत बनो, युवा और नूतन बनो। जीवन जैसा भी है, उसे स्वीकार करो और साथ ही सजग बने रहने का भी प्रयास करो। यह युवा भिक्षु निश्चित रूप से उस युवती को अपने कंधों पर लिए हुए भी सजग और सचेत रहा होगा और यदि तुम सजग हो तो वह युवती भला क्या कर सकती है? वह दूसरा माध्यम भला क्या कर सकता है?
इस बारे में एक छोटा सा प्रसंग और भी है। एक भिक्षु बुद्ध को छोड़कर, उनके संदेशों का प्रसार करने के लिए यात्रा पर जा रहा है। इसलिए वह बुद्ध से पूछता है कि स्त्रियों के बारे में मुझे क्या करना चाहिए? भिक्षुओं के साथ हमेशा से ही यह बात एक समस्या बनी रही है।
बुद्ध कहते हैं : ‘उनकी तरफ देखो ही मत।’ यह एक अत्याधिक सरल मार्ग है। बस स्वयं को बंद कर लो। उनकी ओर जाओ ही मत, बस तुम अपने को मोड़ लो। अपने को बंद करने का अर्थ है कि स्वयं के भीतर उठते संवेगों का दमन कर लेना और भूल जाना कि कोई स्त्री मौजूद है। लेकिन विडम्बना यही है कि यह इतना आसान नहीं है। यदि ऐसा कर पाना इतना ही आसान होता तो वे सभी लोग जो अपने को बंद कर लेना जानते हैं, अभी तक रूपांतरित हो गए होते।
बुद्ध का एक शिष्य ‘आनंद’ जानता है कि यह समस्या इतनी अधिक सरल नहीं है। बुद्ध के लिए यह सरल हो सकती है, लेकिन अन्य भिक्षुओं के लिए यह एक विकट समस्या है। यदि तुम मेरे पास एक समस्या के साथ आते हो तो वह मेरे लिए बहुत ही आसान सी बात हो सकती है, लेकिन उससे तुम्हें कोई भी सहायता नहीं मिलेगी। अतः आनंद जानता है कि बुद्ध ने सहज रूप से उत्तर दिया है : ‘उनकी ओर देखो ही मत’ और यह बुद्ध के लिए बहुत सरल है। इसलिए आनंद कहता है कि यह इतना आसान तो नहीं है। इसीलिए वह पूछता है : ‘भगवान! यदि कभी ऐसी स्थिति हो, जहां हमें स्त्री को देखना ही पड़े और हम उसे देखने से बच न पाएं, तब क्या करना होगा’
बुद्ध कहते हैं : ‘उनको स्पर्श मत करो।’ क्योंकि देखना भी आंखों के द्वारा स्पर्श करना है। तुम आंखों के द्वारा किसी के पास पहुंचकर मन ही मन उन्हें छूते हो। इसी कारण यदि तुम किसी स्त्री की ओर टकटकी लगाकर, उसे तीन क्षणों से अधिक देर तक देखते हो तो वह स्त्री बेचैन हो उठेगी। देखने की अधिकतम सीमा की अनुमति तीन सेकेंड तक की है। यह अनुमति इसलिए है, क्योंकि जीवन के क्रिया-कलापों में हमें एक दूसरे को देखना होता है, लेकिन तीन क्षणों से अधिक देखे जाने पर स्त्री बेचैन हो उठेगी क्योंकि तुम उसे आंखों के द्वारा गहनतम गहराई से छू रहे हो। अब तुम अपनी आंखों का प्रयोग अपने हाथों की भांति कर रहे हो। बुद्ध इसलिए कहते हैं : ‘उनका स्पर्श मत करना।’
लेकिन आनंद दृढ़तापूर्वक, अनवरत् पूछता ही रहा। आनंद ने पूरी मनुष्यता के लिए एक महान कार्य किया है, क्योंकि वह बुद्ध से हमेशा दृढ़तापूर्वक आग्रह करते हुए प्रश्न पूछता था। अब वह कहता है : ‘कभी-कभी ऐसी भी स्थितियां हो सकती हैं, जब हमें उनका स्पर्श करना ही पड़े, तब आप क्या कहेंगे? यदि एक स्त्री रुग्ण है अथवा एक स्त्री चोट खाकर सड़क पर गिर पड़ी है और वहां सहायता करने के लिए अन्य कोई नहीं है और हमें उसका स्पर्श करना ही पड़े, ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिए’
बुद्ध हंसते हैं और कहते हैं : ‘तब सजग बने रहना।’ बुद्ध जो अंतिम बात कहते हैं, दरअसल वही प्रथम है। केवल आंखें बंद करने से कुछ भी नहीं होगा, केवल न छूने से कुछ भी नहीं होगा क्योंकि तुम कल्पना में देख सकते हो, तुम कल्पना में ही स्पर्श कर सकते हो। तब एक वास्तविक स्त्री या वास्तविक पुरूष की आवश्यकता ही नहीं है। केवल आंखें बंद कर लेने मात्र से ही तुम अपने भीतर स्त्रियों और पुरुषों का एक काल्पनिक संसार निर्मित कर सकते हो, उन्हें देख सकते हो और उन्हें स्पर्श भी कर सकते हो। अंतिम रूप से, केवल एक ही चीज़ सहायता कर सकती है और वह है : सजग बने रहो।
हो सकता है, इस वृद्ध भिक्षु ने बुद्ध के तीन उत्तरों वाली यह कहानी पूरी न सुनी हो। वह प्रथम दो उत्तरों के साथ ही अडिग बना रहा। युवा भिक्षु ने पूरी बात समझ ली थी कि सजग बने रहना है। वह युवा भिक्षु निश्चित ही उस युवती के समीप आया होगा, यह भी स्वाभाविक है कि कामना उत्पन्न हुई होगी परंतु फिर भी वह जागरूक बना रहा कि उसके भीतर कामना उत्पन्न हो गई है। मुख्य समस्या वह युवती नहीं है, क्योंकि एक युवती कैसे तुम्हारी समस्या बन सकती है? वह युवती स्वयं अपने लिए समस्या बन सकती है परंतु वह तुम्हारी समस्या नहीं है। कामना तो तुम्हारे अंदर उत्पन्न होती है, स्त्री के लिए वासना तुम्हारे भीतर उत्पन्न होती है : यही समस्या है। युवती का तो कहीं कोई प्रश्न ही नहीं उठता। कोई भी युवती, कोई भी स्त्री हो तो यही समस्या होगी। यहां युवती तो केवल प्रासंगिक है। मुख्य बात तो यह है कि युवती के माध्यम से तुम्हारे भीतर कामना उत्पन्न हो गई और ऐसे में सजग बने रहने का अर्थ है, इस उठती हुई कामना के प्रति सजग बने रहना कि यह कामना मेरे भीतर उत्पन्न हो गई है।
अब एक व्यक्ति जो अपने संवेगों का प्रतिरोध कर रहा है, जो दमन के मार्ग पर है, वह इस कामना का दमन करेगा, वह उस विषय-वस्तु के प्रति अपनी आंखें बंद कर लेगा, वह दूर भागेगा। यह पीछा छुड़ाने की या पलायन की विधि है। लेकिन तुम भागकर कहां जा सकते हो? क्योंकि तुम तो स्वयं से ही भाग रहे हो। तुम नदी के तट पर खड़ी हुई उस स्त्री से दूर भाग सकते हो, लेकिन तुम उस कामना से दूर नहीं भाग सकते, जो तुम्हारे ही भीतर उत्पन्न हो रही है। तुम जहां कहीं भी जाते हो, वह कामना वहां तक तुम्हारा पीछा करेगी। अब केवल इस तथ्य के प्रति जागो कि कामना उत्पन्न हो गई है। वास्तव में, उस स्त्री के साथ कुछ भी नहीं करना है। यदि वह कहती है : ‘मेरी सहायता कीजिए’ तो उसकी सहायता करो। यदि वह कहती है : ‘मैं भयभीत हूं और मैं इस नदी को पार नहीं कर सकती हूं, कृपया मुझे अपने कंधों पर बिठाकर ले चलिए’ तो उसे कंधों पर बिठाकर नदी के पार ले जाओ। वह तुम्हें सजग बने रहने का एक सुनहरा अवसर दे रही है। उसके प्रति कृतज्ञ बनो। और उस युवती के माध्यम से, जो कुछ भी तुम्हारे अंदर घटित हो रहा है, उसका अनुभव करो, उसके प्रति सजग और सचेत बने रहो। तुम्हारे अंदर क्या घटित हो रहा है? तुम युवती को कंधों पर उठाकर ले जा रहे हो तब तुम्हारे अंदर क्या हो रहा है?
यदि तुम सजग और सचेत हो तो वहां कोई भी स्त्री नहीं है, केवल तुम्हारे कंधों पर थोड़ा सा भार है और कुछ भी नहीं है। यदि तुम सजग नहीं हो पाते हो, तब वहां एक स्त्री है। यदि तुम सजग हो तो वह केवल हड्डियों का एक ढांचा है, एक दबाव है, एक भार है। यदि तुम सजग नहीं हो, तब वहां वह सब कुछ है, जिसे कामना सृजित कर सकती है : कल्पना, माया या भ्रांति... सब कुछ वहां है। इस प्रकार एक युवती को कंधों पर ले जाते हुए, ये दोनों संभावनाएं मौजूद हैं। यदि तुम एक क्षण के लिए भी अपनी सजगता खोते हो तो अचानक पाओगे कि माया तुम्हारे कंधों पर बैठी हुई है। यदि तुम सजग हो तो केवल थोड़ा सा भार ढो रहे हो और कुछ भी नहीं है।
यह युवा भिक्षु जो नदी पार कर रहा था, वह एक महान अनुशासन से होकर गुज़र रहा था। वह स्थिति से बचकर दूर नहीं भाग रहा था, वह जीवन की घटना से दूर नहीं भाग रहा था। बल्कि वह सजग और सचेत मन के साथ उस घटना से होकर गुज़र रहा था। हो सकता है कि कई बार वह इस प्रयोग में विफल हुआ हो। हो सकता है कि कई बार वह पूरी तरह से इस सजगता को भूल ही गया हो। कभी वह संपूर्ण भ्रांति और माया के साम्राज्य से घिर गया हो। ऐसा भी हो सकता है कि कई बार चेतनता के प्रकाश की अचानक कौंध से उसने अपनी सजगता को पुनः प्राप्त किया हो और अंधकार विलुप्त हो गया हो। परंतु निश्चित रूप से इस सजगता का अनुभव करना बहुत ही सुंदर रहा होगा।
तब उस युवा भिक्षु ने उस लड़की को दूसरे किनारे पर पहुंचा दिया, उसे कंधे से नीचे उतारा और उसने अपने मठ की ओर चलना प्रारंभ कर दिया, पर वह अभी भी सजग था क्योंकि प्रश्न यह नहीं है कि कोई स्त्री मौजूद है या नहीं क्योंकि स्मृति में भी स्त्री का अनुसरण किया जा सकता है। नदी पार करते हुए यह हो सकता है कि उसने उस स्त्री के स्पर्श का सुख न लिया हो, लेकिन अब बाद में, अपनी स्मृतियों में वह उसका सुख ले सकता है।
पर वह अनिवार्य रूप से, हर क्षण में सजग बना रहा। वह मौन था और उसका मौन प्रामाणिक था। सच्चा मौन हमेशा सजगता के द्वारा ही आता है। इसी कारण उसने कहा : ‘मैंने तो उस लड़की को बहुत पीछे नदी पर ही छोड़ दिया। मैं उसे अभी भी अपने ऊपर लादकर नहीं चल रहा हूं, पर आप अभी भी उसे अपने साथ लिए हुए चल रहे हैं।’ वृद्ध भिक्षु के मन में विचारों की श्रंखला निरंतर चल रही थी जबकि उसने कुछ भी नहीं किया था, यहां तक कि उसने उस युवती का स्पर्श भी नहीं किया था।
इसलिए प्रश्न कुछ करने का नहीं है, प्रश्न है मन का... कि तुम्हारा मन कैसे कार्य कर रहा है? सजग बने रहो और धीरे-धीरे ऊर्जा रूपांतरित होती है। जो पुराना है, वह मरता है और उसके स्थान पर नए का जन्म होता है।

आज इतना ही।

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