पांचवां प्रवचन-शून्यता
मेरे प्रिय आत्मन्!सत्य की खोज में स्वतंत्रता और सरलता के दो अनिवार्य भूमिकाओं के बाबत थोड़ी सी बातें मैंने कही हैं और आज शून्यता के संबंध में कुछ कहूंगा।
चित्त सरल हो, स्वतंत्र हो और शून्य हो तो ही उसे जाना जा सकता है जो जीवन का गूढ़तम रहस्य है। चाहे उसे परमात्मा कहें, चाहे कोई और नाम दें। शून्यता की दिशा में सबसे पहला चरण हैः न जानने की भाव-दशा, स्टेट ऑफ नॉट नोइंग। हम सभी जानते हुए मालूम होते हैं। हम सभी को यह भ्रम है कि हम जीवन को जानते हैं। जन्म ले लेने से कोई जीवन को जानता नहीं। और न ही श्वास ले लेने से कोई जीवन को जान लेता है। लेकिन जन्म के कारण श्वास चलती है इस वजह से, भूख लगती है, प्यास लगती है इस वजह से यदि हम सोच लेते हों कि हमने जीवन को जान लिया है तो हम भ्रांति में हैं।
जीवन को हम जानते नहीं हैं, एकदम अपरिचित हैं। और जो जीवन से अपरिचित है उसे नाममात्र को ही जीवित कहा जा सकता है वह वस्तुतः जीवित नहीं है।
सबसे पहली बात, यह जो जानने का भ्रम है हमें, यह जो इल्युजन ऑफ नालेज है। यह जो भ्रांति है कि हम जानते हैं, यह भ्रांति न छूटे तो चित्त शून्य नहीं हो सकता। क्योंकि चित्त भर गया है ज्ञान से, जानने के भ्रम से। सच यह है कि जीवन है अज्ञात, अननोन। उसके ओर-छोर का हमें कोई बोध नहीं। जीवन के केंद्र का हमें कोई बोध नहीं। जीवन के अर्थ और अभिप्राय का हमें कोई बोध नहीं। कुछ अनुमान हैं जिनके आधार पर ज्ञान का भ्रम पैदा होता है। क्यों हम पैदा हुए हैं? क्यों जीते हैं? क्यों है यह सत्ता? क्यों है यह सारा, सारा विस्तार?
कुछ भी पता नहीं है। अज्ञान, इग्नोरेंस बड़ा सत्य है। लेकिन बहुत से अनुमान हैं हमारे और उन अनुमानों के आधार पर, कल्पनाओं के आधार पर अज्ञान को ढांक लिया है और ज्ञानी बन गए हैं। इस ज्ञानी बन जाने ने जीवन के रहस्य को समाप्त कर दिया है। वह जो मिस्टी है, वह जो जीवन का रहस्य है समाप्त हो गया है। और जिस व्यक्ति के चित्त से जीवन का रहस्य समाप्त हो जाता है, उस व्यक्ति के चित्त में कभी सत्य का अवतरण नहीं हो सकता।
नहीं चाहिए ज्ञान, चाहिए रहस्य की अनुभूति। लेकिन जिन चीजों को हम जानते हुए प्रतीत होने लगते हैं उन चीजों के प्रति रहस्य विलीन हो जाता है।
आपके द्वार पर वृक्ष लगा हो, रोज सुबह उसके पास से निकल जाते हैं, आंख उठा कर भी नहीं देखते हैं। आकाश तारों से भरा रहता है, कौन आंख उठा कर देखता है उन तारों को? सुबह सूरज निकलता है, कौन देखता है? शायद हम सोचते हैं कि जानते हैं हम सूरज को, वही सूरज जो कल निकला था वही आज भी निकल रहा है। वे तारे जो कल थे वे ही आज भी हैं। और वह वृक्ष वही है जो रोज हम देखते हैं। लेकिन क्या रोज देख लेने से वृक्ष से हम परिचित हो गए हैं? या कि तारों से, या कि सूरज से, यह जो विराट विस्तार है चारों तरफ क्या हम इसे जान गए हैं? लेकिन नहीं; रोज-रोज देखने से एक झूठा परिचय पैदा हो गया है। पति अपनी पत्नी को भी नहीं जान पाता, सोचता होगा, जान लिया। पिता अपने पुत्र को भी नहीं जान पाता, सोचता होगा, जान लिया। जीवन में सब कुछ अत्यंत अपरिचित और अज्ञात है। लेकिन कुछ अनुमान हैं जो बाधा देते हैं।
बुद्ध बारह वर्ष के बाद अपने गांव वापस लौटे। सारा गांव उन्हें लेने गया। सारा गांव। लेकिन उनकी पत्नी उन्हें लेने नहीं गई। उस गांव में उस दिन एक ही व्यक्ति रुक गया पीछे जो उनकी पत्नी थी। पिता भी लेने गए थे, गांव के बाहर बुद्ध के पिता ने कहा, अभी भी मैं क्षमा कर सकता हूं, तुम भाग गए थे इस बात को भूल सकता हूं। तुमने चोट पहुंचाई बुढ़ापे में मेरे मन को, इस बात को भी क्षमा कर सकता हूं अगर वापस लौट आओ। मेरे द्वार अब भी खुले हुए हैं। क्रोध में मैंने उन्हें बंद नहीं कर दिया है।
बुद्ध ने क्या कहा? बुद्ध ने अपने पिता को कहाः आप भूलते हैं, आप मुझे देख भी नहीं रहे हैं कि मैं क्या होकर लौटा हूं और क्या जान कर और क्या पाकर?
बुद्ध के पिता ने कहाः भलीभांति जानता हूं तुम्हें, मेरे ही पुत्र हो और मैं न जानूंगा। मैंने ही जन्म दिया और मैं न जानूंगा। मेरे ही खून हो और मैं न जानूंगा।
बुद्ध ने कहाः माना कि आपने मुझे जन्म दिया था, लेकिन भूल जाते हैं इस बात को कि आप एक रास्ते की भांति थे जिस पर से मैं आया, लेकिन आप मेरे बनाने वाले नहीं थे। आप एक रास्ते की भांति थे जिस पर से मैं आया दुनिया में, लेकिन आप मेरे बनाने वाले नहीं थे। और जिस रास्ते से गुजर कर मैं अभी आ रहा हूं अगर वह रास्ता यह कहने लगे कि मैं जानता हूं इसे, क्योंकि यह आदमी मेरे ऊपर से निकला था। तो उस रास्ते की जितनी बड़ी भूल होगी उससे छोटी भूल आपकी नहीं है। पिता भी पुत्र को जानता नहीं, क्योंकि पुत्र का होना भी एक इतना बड़ा रहस्य है, और इतने अछोर और अज्ञात जीवन से आना हुआ है उस पुत्र का। लेकिन हम सोचते हैं कि पिता हैं तो हम जानते हैं। पति हैं तो हम जानते हैं। पत्नी है तो हम जानते हैं। और यह जानने का प्रश्न न केवल मनुष्य तक सीमित है, चारों तरफ हर चीज रहस्यमय है और अज्ञात है, उस सबको भी हम मान लेते हैं कि हम जानते हैं। क्या जानते हैं आप? जानना हमारा क्या है?
गहन, गहन अज्ञान है। लेकिन जानने का भ्रम। जानने का इस भ्रम ने मनुष्य को धर्म से तोड़ा है। इधर विज्ञान का इतना विकास हुआ है, तो मनुष्य के जानने के भ्रम में और बढ़ती हो गई। उसका यह इल्युजन और बढ़ गया कि हम जानते हैं। क्योंकि उसने कुछ कामचलाऊ बातें पता लगा ली हैं।
एक बहुत बड़ा विद्युत का जानकार वैज्ञानिक एक कालेज में गया था। उस कालेज के विद्यार्थियों ने बहुत-बहुत से उपक्रम बनाए थे विद्युत के, और नये-नये चमत्कार पैदा किए थे। उस बड़े वैज्ञानिक को दिखाने वे अपनी प्रयोगशाला में ले गए। उन बच्चों को ज्ञात भी न था कि जिसे वे दिखला रहे हैं उससे बड़ा विद्युत को जानने वाला, इलेक्टिसिटी को जानने वाला और कोई व्यक्ति जमीन पर नहीं है। उन्होंने अपनी--छोटी-छोटी चीजें हैं, बड़ी चीजें जो बनाई थीं, वे दिखलाईं। वह वैज्ञानिक खूब प्रशंसा करता रहा। और अंत में उसने पूछा कि क्या मेरे दोस्तो, तुम यह बता सकोगे कि विद्युत क्या है? वॉट इ.ज इलेक्टिसिटी? वे बच्चे ठगे रह गए। उन्होंने कहाः यह तो हम नहीं जानते। तो उसने कहा कि तुम यह भी जान लो, मुझसे ज्यादा जमीन पर शायद ही कोई विद्युत के संबंध में जानता हो, लेकिन मैं भी यह नहीं जानता हूं कि विद्युत क्या है! हम जानते हैं कि विद्युत का कैसे उपयोग कर लें, लेकिन हम यह नहीं जानते कि विद्युत क्या है!
साइंस ज्ञान नहीं है, साइंस युटिलिटी है। साइंस जानना नहीं है जीवन को, लेकिन किन्हीं शक्तियों का उपयोग कर लेना है। तो अब तक जो भी हम जान पाए हैं वह केवल उपयोग कर लेना जान पाए हैं, अभी हमने कुछ जाना नहीं है। मनुष्य ने कुछ भी नहीं जाना है। लेकिन इधर विज्ञान का विकास हुआ, तो और भ्रम पैदा हो गया लोगों को, उन्हें लगने लगा कि हम सब जान गए। यह भी हो सकता है कि किसी दिन विज्ञान जीवन को पैदा कर ले, लेकिन इससे कुछ सिद्ध नहीं होता। फिर भी जीवन को जाना नहीं जा सकेगा।
यह जो विज्ञान है, इसने तो कुछ व्यावहारिक प्रयोग किए हैं। और कुछ नतीजे उपयोगिता के लिए ले लिए। फिर दर्शन हैं, उसने अनुमान किए हैं आकाश के हवाई। और उनके आधार पर कुछ निर्णय ले लिए हैं। उन्होंने भी हमारे मस्तिष्क को ज्ञान से भर दिया है। लेकिन अब तक का सारा ज्ञान अंधेरे में टटोलने जैसा है और शायद हमेशा रहेगा। शायद हम जीवन के पूर्ण केंद्र को कभी भी इस भांति नहीं जान सकेंगे। क्योंकि जानने वाला बहुत छोटा है। और जो जाना जाना है वह बहुत विशाल, बहुत अनंत है, उसकी कोई सीमाएं नहीं। मनुष्य की बुद्धि बहुत छोटी और वह जो सत्य है बहुत विराट और अनंत। वह ऐसा ही जैसे कोई छोटी सी मटकी लेकर सागर के किनारे चला जाए और सागर को मटकी में भरने का प्रयास करने लगे। सागर तो शायद न भरे, मटकी टूट जाए।
सागर भी छोटा है उस सत्य की दृष्टि में, तुलना में जो जीवन है। और मटकी भी बड़ी है उस बुद्धि की तुलना में जो हमारे पास है। बुद्धि है बहुत अल्प और बहुत छोटी, और होगी भी। और जीवन है बहुत विराट और बहुत अनंत, क्या बुद्धि इस जीवन को जान सकेगी? क्या कोई रास्ता है कि बुद्धि इस जीवन को जान ले? नहीं, बुद्धि अनुमान कर सकेगी, कल्पना कर सकेगी, धारणा बना सकेगी। और वे धारणाएं वैसी ही होंगी जैसी शेखचिल्लियों की होती हैं।
सुना होगा, एक गांव में एक शेखचिल्ली था। ऐसी कोई भी बात न थी जो वह न जानता हो। सर्वज्ञ था। सभी शेखचिल्ली सर्वज्ञ होते हैं। और सभी सर्वज्ञ शेखचिल्ली होते हैं। ऐसी कोई भी बात न थी जो वह न जानता हो। कैसे भी प्रश्न हों वे उनके उत्तर देने को सदा तैयार था। वह ज्ञानी था, परम ज्ञानी था।
गांव के राजा की चोरी हो गई। सब तरफ खोज-बीन कर ली गई। सिपाही थक गए, जासूस थक गए, गांव के ज्योतिषी थक गए, भविष्यवक्ता थक गए। तब सबने हार मान ली और राजा से कहाः अब एक ही उपाय है, शेखचिल्ली को और पूछ लिया जाए। शेखचिल्ली को राजा ने दरबार में आमंत्रित किया। वह उसी भांति आया जैसे ज्ञानी आते हैं--जो सब जानते हैं, जिस भांति अकड़ से भरे हुए हैं--वह भी दरबार में आया। राजा ने उससे कहा कि हमने सुना है कि तुम सभी कुछ जानते हो, क्या तुम बता सकते हो कि चोरी किसने की?
उस शेखचिल्ली ने कहाः ऐसी कौन सी बात है जो मैं नहीं जानता हूं? लेकिन यह बात अकेले में बताऊंगा। सबके सामने इस बात को नहीं बताया जा सकता है।
राजा ने कहाः यह उचित है। पता नहीं किसने चोरी की है, शेखचिल्ली उसका नाम ले दे और बाद में मुसीबत में पड़े या कोई झंझट डाली जाए। उस राजा ने कहाः यह उचित है, तुम एकांत में चलो। वे एकांत में गए। राजा ने कहाः अब बताओ, दरवाजे बंद कर लिए गए भवन के।
शेखचिल्ली ने कहाः आपके कान में कहूंगा। राजा के मकान की दीवालें भी सुनती हैं। उसने शेखचिल्ली ने राजा के कान में कहाः बिल्कुल निश्चित बता दूं।
राजा ने कहाः निश्चित ही बताओ।
शेखचिल्ली ने कहाः निश्चित है किसी चोर ने चोरी की है।
यह जो शेखचिल्ली है, इस पर हम हंसते हैं। लेकिन ज्ञानियों से पूछो, दुनिया किसने बनाई है? वे कहते हैं, किसी बनाने वाले ने दुनिया बनाई है। वे कहते हैं किसी ईश्वर ने दुनिया बनाई है। मतलब क्या है किसी बनाने वाले ने दुनिया बनाई है? किसी चोर ने चोरी की है? ये ज्ञानी भी शेखचिल्लियों से बहुत ज्यादा भिन्न नहीं हैं। इनसे पूछो, दुनिया किसने बनाई है? वे कहते हैं किसी बनाने वाले ने दुनिया बनाई है। और बनाने वाले का नाम भी उन्होंने अपने मन से रख लिया है। किसी ने ईश्वर, किसी ने अल्लाह, किसी ने कुछ, किसी ने कुछ। यह कोई नई बात बता रहे हैं आप कि किसी बनाने वाले ने दुनिया बनाई है? यह क्या उस बात से बहुत भिन्न है कि किसी चोर ने चोरी की है? इसमें क्या भेद है? इससे कुछ ज्ञान बढ़ता है?
नहीं; इससे केवल हमारा अज्ञान ढंक जाता है और ज्ञान का भ्रम पैदा हो जाता है। और दुनिया में अनुमान लगाने वाले लोग, जिनको लोग फिलासफर्स कहते हैं, दार्शनिक कहते हैं। वे काफी बड़ी तादात में पैदा हुए हैं। और उन्होंने सारे दुनिया के अज्ञान को ढंक दिया है, और ज्ञान की सब बातें बता दी हैं। लेकिन वे सब निपट अनुमान हैं। और इसी वजह से इन अनुमानों पर झगड़े और विवाद खड़े होते हैं, शास्त्रार्थ खड़े होते हैं।
मैं निवेदन करता हूं, इस तरह के ज्ञान से जो भरा है वह कभी सत्य को नहीं जान सकेगा। ये सब अनुमान हैं, ज्ञान नहीं; अंधेरे में टटोलना है।
एक छोटी सी घटना मुझे याद आती है, वह मैं कहूं।
एक स्कूल इंस्पेक्टर का दिमाग खराब हो गया था। हुकूमत को खबर कर दी गई थी कि उसका दिमाग खराब हो गया। लेकिन जैसे कि हुकूमतों की चाल होती है बहुत धीमी। खबर पहुंच गई थी, विचार चलता था, आज्ञाएं निकलने को थीं। शायद उस इंस्पेक्टर के रिटायर्ड होते-होते तक आर्डर पहुंच जाएगा, उसकी चिकित्सा की व्यवस्था हो जाएगी। लेकिन अभी बहुत देर थी। और तब तक वह पागल इंस्पेक्टर अपनी जगह पर काम कर रहा था, स्कूलों के निरीक्षण कर रहा था। जब तक वह पागल नहीं हुआ था, तब तक वह कभी निरीक्षण को गया भी नहीं था। लेकिन जब से पागल हुआ था तब से वह दिन-रात निरीक्षण करता रहता था। इसी से तो दूसरे इंस्पेक्टरों को पता चला था कि यह पागल हो गया है। वैसे कोई जो पागल नहीं होता वह इंस्पेक्टर कभी निरीक्षण को जाता है? वह दफ्तर में बैठे-बैठे निरीक्षण भर देता है। लेकिन यह कुछ गड़बड़ हो गया था। दूसरे इंस्पेक्टरों को इसी से तो शक हुआ था कि इसका दिमाग कुछ गड़बड़ है। वह महीने में तीस ही दिन निरीक्षण करता फिरता था।
पागलों को काम करने में बड़ा आनंद आता है। इसी तरह के पागलों ने तो दुनिया में काम खूब किया है और बहुत मुसीबत खड़ी कर दी है। पागल कभी शांत बैठने को राजी नहीं होते, उन्हें तो कुछ न कुछ काम चाहिए। वह इंस्पेक्टर भी शांत बैठने को राजी नहीं था। हर स्कूल में मुसीबत कर दी, जहां भी वह निरीक्षण करने गया। क्योंकि वह ऐसे प्रश्न पूछता था जिनके उत्तर ही नहीं हो सकते हैं। और जब उत्तर नहीं मिलते थे तो वह रिपोर्ट खराब कर आता था कि इस स्कूल के बच्चों को कुछ भी नहीं आता। बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई थी।
एक गांव में उसके आने की खबर आई तो स्कूल के अध्यापक, प्रधानाध्यापक, बच्चे सभी डरे हुए थे कि पता नहीं क्या हो। आखिर वह आया। जिस मुसीबत से लोग डरते हैं वह और भी जल्दी आ जाती है। आखिर वह आ ही गया।
सारा स्कूल घबड़ाया हुआ था, अध्यापक, प्रधानाध्यापक घबड़ाए हुए थे, वह न मालूम क्या पूछेगा? उसके पूछने में न कोई तुक होती थी, न कोई बात होती थी। उसके प्रश्न बड़े फिलासफीकल होते थे, बड़े दार्शनिक होते थे, बड़े ऊंचे होते थे। ऊंचे प्रश्न वे होते हैं जिनके उत्तर नहीं हो सकते। इसलिए ऊंचे प्रश्न या तो पागल पूछते हैं, या दार्शनिक पूछते हैं। और इसलिए लोगों को ख्याल भी है कि पागल और दार्शनिकों में कोई भाईचारा होता है, कोई निकट संबंध होता है। इसलिए अक्सर अगर पागल थोड़ी अच्छी बात करना जानते हों, तो दार्शनिक हो जाते हैं और दार्शनिक अगर थोड़ी गड़बड़ बात करने लगें तो पागल हो जाते हैं। इससे ज्यादा कोई फर्क कभी होता नहीं।
वह आया, जो स्कूल की सबसे बड़ी कक्षा थी उसके भीतर गया और उसने कहा कि मेरे बच्चों एक ऐसा प्रश्न पूछता हूं जो बहुत सरल है और एक लिहाज से बहुत कठिन भी है। सरल तो है प्रश्न, कठिन इसलिए है कि मैंने न मालूम कितने विद्यालयों में पूछा कोई उत्तर ही देने में समर्थ नहीं है। शिक्षा का स्तर मालूम होता है बहुत गिर गया। जब से अंग्रेज गए हैं तब से सब गड़बड़ हो गई है। कोई उत्तर ही नहीं देता। फिर भी मैं आशा बांधे हुए हूं कि कोई न कोई उत्तर तो देगा। हो सकता है कि आज तुम्हारे स्कूल में मुझे उत्तर मिल जाए। और अगर मेरे पहले प्रश्न का उत्तर मिल गया तो फिर मैं दूसरा प्रश्न नहीं पूछूंगा। क्योंकि हंडी का एक ही चावल देख लिया जाता है और उससे पता चल जाता है कि हंडी पकी या नहीं। और अगर मेरे पहले प्रश्न का उत्तर तुमने न दिया तो आज सांझ तक मैं तुम से प्रश्न पर प्रश्न पूछे चला जाऊंगा।
उसने पहला प्रश्न पूछा, उसने पूछा कि दिल्ली से एक हवाई जहाज दो सौ मील प्रति घंटा की रफ्तार से कलकत्ते की तरफ उड़ा, तो क्या तुम बता सकते हो कि मेरी उम्र कितनी है?
सब लड़के बहुत घबड़ा गए। इसमें कोई तुक नहीं था, कोई संबंध नहीं था। हवाई जहाज कितने मील घंटे की रफ्तार से कलकत्ते की तरफ उड़े, इससे इंस्पेक्टर की उम्र का क्या संबंध है? लेकिन जब प्रश्न पूछ ही लिया गया था, तो उत्तर देना तो जरूरी था। अध्यापक घबड़ा गया, प्रधानाध्यापक कंपने लगा कि कि खराब कर देगा रिपोर्ट। और उत्तर तो हो क्या सकता है इसका? लेकिन इससे भी घबड़ाने की बात दूसरी हुई, यह तो कोई खास बात न थी। घबड़ाने की बात यह हुई, एक लड़के ने उत्तर देने के लिए हाथ उठाया। तब तो अध्यापक और घबड़ा गए कि यह तो और मुसीबत हो गई। उत्तर न देना भी ठीक था। कम से कम अज्ञान ही सिद्ध होता, अब तो महाअज्ञान सिद्ध हो जाएगा, यह लड़का क्या उत्तर देगा? सभी गलत होंगे। कोई उत्तर सही नहीं हो सकता, क्योंकि प्रश्न ही गलत है। लेकिन जब हाथ हिला दिया गया था, तो इंस्पेक्टर बहुत खुश हुआ, उसने कहाः यह पहला मौका है कि किसी ने मेरे प्रश्न के उत्तर देने की हिम्मत की है। बेटे खड़े हो जाओ और उत्तर दो। कितनी है मेरी उम्र?
वह लड़का खड़ा हुआ और उसने कहा कि यह भी मैं आपको बता दूं, मेरे सिवाय इस प्रश्न का उत्तर दुनिया में कोई भी आपको दे नहीं सकता था। इसका उत्तर सिर्फ मुझको मालूम है, आपकी उम्र चवालीस वर्ष है।
वह इंस्पेक्टर बहुत घबड़ा गया। उम्र उसकी चवालीस वर्ष थी। उसने कहाः क्या तुम बताओगे, किसी मेथड से, किस विधि से तुमने यह उत्तर निकाल लिया?
उस लड़के ने कहाः विधि बहुत सरल है, लेकिन सिर्फ मुझको पता है इसलिए आपको उत्तर नहीं मिल पाया। मेरा बड़ा भाई है उसका आधा दिमाग खराब है, उसकी उम्र बाईस वर्ष है, आपकी उम्र चवालीस वर्ष होनी चाहिए। यह उत्तर सिर्फ मेरे ही पास हो सकता था क्योंकि मेरे भाई का दिमाग आधा खराब है, उसकी उम्र बाईस वर्ष है। हवाई जहाज कितनी ही रफ्तार से जाए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, आपकी उम्र चवालीस वर्ष है।
हम हंसते हैं इस बच्चे पर, लेकिन दार्शनिकों ने तो उत्तर दिए हैं वे इससे भिन्न नहीं हैं। और दार्शनिकों ने जो प्रश्न पूछे हैं वे भी इससे भिन्न नहीं हैं। दार्शनिक क्या पूछ रहे हैं? क्या बातें पूछ रहे हैं? जिनको हम तथाकथित धार्मिक कहते हैं, वे क्या पूछ रहे हैं?
मेरे पास बहुत से इस तरह के प्रश्न आए हैं। ईश्वर की शक्ल कैसी है? प्रश्न आया है। ईश्वर कहां रहता है? क्या करता है? क्यों उसने दुनिया बनाई? मरने के बाद आत्मा कहां जाती है? स्वर्ग या नरक हैं या नहीं? मोक्ष जैसी कोई जगह है या नहीं? ये सब किस भांति के प्रश्न हैं? लेकिन चूंकि हजारों वर्ष से इन प्रश्नों को प्रतिष्ठा रही है, हम यह भी पूछना भूल गए हैं कि ये पागलपन के सबूत हैं। जीवन इस तरह की अटकलबाजियों में बिताने का कोई भी अर्थ नहीं है। और क्या निर्णय हो सकता है? अगर कोई कहने लगे कि ईश्वर पश्चिम की तरफ रहता है। तो क्या निर्णय करिएगा कि रहता है या नहीं। दूसरा कहने लगे पूरब की तरफ रहता है, तो कैसे निर्णय करिएगा कि पूरब की तरफ रहता है या नहीं। फिर एक ही रास्ता है कि जो कहता, पश्चिम की तरफ रहता है और जो कहता है, पूरब की तरफ रहता है। दोनों कुश्ती लड़ लें, जो जीत जाए वह ठीक। यही हो रहा है आज पांच हजार वर्षों से। कि लड़ लो और तय कर लो, जो जीत जाए वह ठीक, जो हार जाए वह गलत। और तो कोई निर्णय का रास्ता नहीं है। इसलिए जिन लोगों को संख्या बढ़ती जाती है वे जीतते मालूम होने लगते हैं। क्रिश्चियंस की संख्या अगर एक अरब के करीब पहुंचने लगी, तो उनको ख्याल हो गया कि वे जीत रहे हैं, क्योंकि दूसरों की संख्या कम पड़ती जा रही है, दूसरे हारते जा रहे हैं, आखिर में तय हो जाएगा कि हम जीत गए। इसलिए सारे धर्मों के लोग अपनी संख्या बढ़ाने के लिए उत्सुक रहते हैं। और उनकी संख्या कम न हो जाए, इसलिए भी उत्सुक रहते हैं। क्योंकि ताकत ही आखिर में तय कर देगी कि सत्य कौन है और असत्य कौन है।
लेकिन ताकत से कहीं सत्य के निर्णय हुए हैं? लेकिन अटकलबाजियां हैं। अंधेरे में चलाए गए तीर हैं। वे लग जाएं तो ठीक, न लग जाएं तो ठीक। जैसा उस बच्चे ने कहा चवालीस की उम्र वर्ष है। एक अटकलबाजी थी। भाई का आधा दिमाग खराब है, तो इसकी चवालीस होनी चाहिए। एक अटकलबाजी थी। इस तरह हमारी सारी, जिसको हम मैटाफिजिकल थिंकिंग कहते हैं। जिसको हम आध्यात्मिक चिंतन और मनन कहते हैं, वह इसी तरह की नासमझियों से भरा हुआ है।
तो मैं आपसे यह निवेदन करना चाहता हूं, इस बात को समझ लेना बहुत आवश्यक है कि मनुष्य की बुद्धि अनुमान के द्वारा ज्ञान पर नहीं पहुंच सकती। और जितना भी ज्ञान है हमारा वह सभी अनुमान है। वह सभी अनुमान है। फिर क्या रास्ता है?
तो पहली बात है, इस बात की स्वीकृति कि अज्ञान एक तथ्य है, एक सत्य है। अज्ञान का स्वीकार, इस बात की स्पष्ट प्रतीति कि नहीं जानते हैं। सत्य की खोज में, शून्यता की दिशा में मैं नहीं जानता हूं, इस स्थिति को पाना अत्यंत अनिवार्य है। क्या कठिन है इस बात को पा लेना। सत्य तो यही है, तथ्य तो यही है कि हम नहीं जानते हैं। मैं नहीं जानता हूं। और आपको पता भी नहीं है अगर यह बोध आपको स्पष्ट हो जाए कि मैं नहीं जानता हूं, यह स्टेट ऑफ नॉट नोइंग, यह न जानने का भाव स्पष्ट हो जाए, तो आपका चित्त एकदम शांत हो जाएगा, एकदम सरल हो जाएगा, एकदम स्वतंत्र हो जाएगा और शून्य की तरफ जाने की उसकी क्षमता बहुत प्रगाढ़ हो जाएगी।
इसको देखें, पहचानें, समझें, मैं नहीं जानता हूं। अगर यह इस वक्त भी ख्याल में आ जाए कि सच ही मैं कुछ भी तो नहीं जानता हूं, तो आप भीतर पाएंगे कि कोई चीज जैसे शांत हो गई, कोई उद्विग्नता जैसे विलीन हो गई, कोई उलझन जैसे समाप्त हो गई, कोई प्रश्न जैसे विलीन हो गए और भीतर एक प्रगाढ़ सन्नाटा उतरने लगेगा।
शून्यता की दिशा में पहला चरण हैः मैं नहीं जानता हूं। दूसरा चरण क्या है? इस पहले चरण से अपने आप दूसरा चरण निकलता है। जो व्यक्ति यह अनुभव कर लेता है ‘मैं नहीं जानता हूं’ उसे सारा जीवन अत्यंत रहस्य से, मिस्टी से भर जाता है। एक छोटा सा पत्ता भी वह देखता है तो उसके प्राण रहस्य से भर जाते हैं, क्या है? एक छोटा सा बीज अंकुर बनता है तो उसके प्राण रहस्य से आंदोलित हो उठते हैं, क्या है? किसी आंख में झांकता है तो, किसी सुंदर चेहरे को देखता है तो, किसी को मुस्कुराते देखता है तो, किसी को रोते देखता है तो। जीवन में कुछ भी दिखाई पड़ता है तो उसके प्राण आंदोलित होने लगते हैं, क्या है यह? क्या है? जब तक वह जानता था कि मैं जानता हूं, तब तक, तब तक यह रहस्यपूर्ण जिज्ञासा उसे घेरती नहीं थी। जिस दिन उसने जाना कि मैं नहीं जानता हूं, उस दिन सारा जीवन रहस्यपूर्ण हो उठता है। एक अपूर्व मिस्टी, एक अज्ञात रहस्य सब तरहों से प्राणों को छेदने लगता है और कंपाने लगता है। उस कंपन से क्या पैदा होता है? रहस्य के कंपन से किस बात का जन्म होता है?
मैं आपसे निवेदन करता हूं, रहस्य के कंपन से प्रेम का जन्म होता है। जो रहस्य से भर जाता है उसका हृदय प्रेम से भर जाता है। असल में प्रेम अज्ञात और रहस्यपूर्ण के तरफ उठा हुआ भाव है। जिसे हम सामान्य लौकिक भाषा में प्रेम कहते हैं, वह भी अज्ञात और रहस्यपूर्ण के प्रति उठा हुआ भाव है।
एक युवक एक युवती को देख कर प्रेम से भर जाए। किस चीज के प्रति प्रेम से भर रहा है? उस युवती में उसे कोई सौंदर्य दिखाई पड़ा है जो बिल्कुल अज्ञात है और रहस्यपूर्ण है। जिसे वह नहीं समझ पा रहा। जो उसकी समझ के पार हुआ जा रहा है। कोई अज्ञात सौंदर्य उसके प्राणों को खींच रहा है जो उसकी समझ के बाहर है। वह आकर्षित हो गया है। वह उस युवती को प्रेम करके, विवाह करके घर ले आता है। और महीने-पंद्रह दिन बीतता नहीं कि प्रेम क्षीण होता मालूम पड़ता है। वर्ष दो वर्ष बीतते हैं कि वह ऊब जाता है। क्यों? वह जो अज्ञात रहस्यपूर्ण था, इधर दो वर्ष साथ रहने में उसे यह भ्रम पैदा हो गया कि वह खत्म हो गया, मैंने जान लिया कि स्त्री क्या है। जैसे ही उसे ख्याल आता है कि मैंने पहचान लिया यह स्त्री क्या है, जान लिया यह स्त्री क्या है, वह रहस्य का भाव विलीन हो गया, वह अज्ञात सौंदर्य आंख से ओझल हो गया।
अंग्रेजी का कवि था, बायरन। उसने अपनी जिंदगी में, कहते हैं कि जितनी स्त्रियों को प्रेम किया उतना शायद ही किसी व्यक्ति ने कभी किया होगा। विवाह करने को वह कभी राजी नहीं हुआ। सारा देश उसे लंपट मानता था। लेकिन एक स्त्री ने उसे अंततः मजबूर कर लिया विवाह करने को। जिन स्त्रियों से भी बायरन का प्रेम हो जाता, बायरन अपूर्व सुंदर था, प्रतिभाशाली था; उसके काव्य का कोई मुकाबला न था, उसमें कुछ खूबियां थीं, बड़ी खूबियों का आदमी था। इसलिए कोई भी स्त्री मोहित हो जाए यह आश्चर्यजनक नहीं था। लेकिन जो भी स्त्री मोहित होती थी, उसके हाथों में गिर जाती थी। दिन दो दिन में वह आदमी ऊब जाता था उस स्त्री से। एक स्त्री ने उसे मजबूर कर दिया। बायरन उसका हाथ भी नहीं छू सका, उसने कहा, पहले विवाह, फिर मेरा हाथ छू सकोगे। बायरन बड़ी मुश्किल में पड़ गया।
आखिर उसे राजी होना पड़ा उस स्त्री से विवाह करने के लिए। और जिस दिन वह चर्च से उतरता था, उस स्त्री से विवाह करके सीढ़ियों से उतरता था, लोग अभी विदा हो रहे थे, चर्च की घंटियां अभी बज रही थीं और उसके स्वागत में जलाई गई मोमबत्तियां अभी जल रही थीं, वह सीढ़ियों से अपनी पत्नी का हाथ पकड़े हुए नीचे उतर रहा था। गाड़ी में पत्नी को बिठाया और अपनी पत्नी से बोला, बस सब समाप्त हो गया।
उसकी पत्नी ने कहाः मतलब?
उसने कहाः कल तक तुम जब पराई थीं और मेरा तुम पर कोई कब्जा नहीं था, मैं पागल हो रहा था, और आज जब मैं तुम्हारे हाथ को हाथ में लेकर उतर रहा हूं, तो सब फीका हो गया। मुझे ऐसा लग रहा कि ठीक है, आज मेरे प्राणों में कोई आकर्षण नहीं मालूम हो रहा है, कोई उद्दाम वेग नहीं मालूम हो रहा है, यह क्या हो गया? यह सब राख-राख मालूम पड़ रहा है और अभी एक घड़ी पहले तक मैं दीवाना था। और अगर अभी तुम मेरी पत्नी न होकर किसी और की पत्नी होकर चर्च से उतर रही होती, तो मैं शायद पागल हो जाता कि मुझे यह स्त्री कैसे मिल जाए? लेकिन अब सब ठंडा हो गया और सब शांत हो गया।
उसकी स्त्री शायद ही समझ सकी होगी कि यह बायरन क्या कहता है। और दुनिया में मुश्किल से थोड़े ही लोग होंगे जो समझ सकें कि यह क्या कह रहा है। लेकिन मैं आपसे कहना चाहूंगा कि यह यह कह रहा है कि जीवन में आकर्षण और प्रेम वहीं हैं जहां रहस्य है और अज्ञात है। और जहां चीजें ज्ञात हो जाती हैं और रहस्य खुल जाते हैं, और सब चीजें साफ हो जाती हैं, एक्सप्लेनेशंस मिल जाते हैं, वही प्रेम और आकर्षण विलीन हो जाता है।
लेकिन मेरा कहना यह है कि जीवन इतना रहस्यपूर्ण है कि मनुष्य लाख उपाय करे, तो भी उसका रहस्य समाप्त नहीं होता। और जीवन इतना अज्ञात है कि वह सिर पीट-पीट कर मर जाए, तो भी उसे ज्ञात नहीं बना सकता। इसलिए जिसके जीवन में रहस्य के पर्दे खुल जाते हैं और आंखें खुल जाती हैं, वह रोज-रोज पाता है कि जीवन और रहस्यपूर्ण होता जाता। वह रोज-रोज पाता है, जीवन और अज्ञात, और अननोन होता चला जाता है। वह रोज-रोज पाता है, जीवन मुट्ठी से छूटता चला जाता है, मुट्ठी खुलती चली जाती है। उसके भीतर प्रेम के और आकर्षण का जन्म विकसित होता है।
जिसके जीवन में रहस्य आता है, उसके जीवन में प्रेम आता है। कोई प्रेम कोशिश कर-कर के नहीं ला सकता। कोई सोचता हो कि प्रेम करें सबको, इससे प्रेम नहीं कर सकता। चाहे कोई कितनी ही शिक्षा दे कि अपने शत्रुओं को प्रेम करो, सच्चाई यह है कि लोग अपने मित्रों को भी प्रेम करने में सफल नहीं हो पाते हैं; शत्रुओं को प्रेम करना दूर की बात है। मित्रों को प्रेम करना ही बहुत कठिन है।
प्रेम करने में इसलिए सफल नहीं हो पाते कि जीवन में रहस्य का कोई बोध ही नहीं है। जिसके बिना प्रेम कभी पैदा नहीं होता। प्रेम तो प्राणों की वह तीव्र भाव-दशा है जो रहस्य को जानने के लिए आंदोलित हो उठती है। इसलिए मैं नहीं कहता हूं कि आप प्रेम करें, मैं कहता हूं, जीवन में रहस्य को आने दें। द्वार खोल दें, ज्ञान की झूठी बातें हटा दें। रहस्य को आने दें और आप रहस्य की छाया की भांति पाएंगे कि हृदय प्रेम से भर रहा है। वह प्रेम जब समस्त जीवन के प्रति आंदोलित हो उठता है, तो उसे हम प्रार्थना कहते हैं। उसे मैं प्रार्थना कहता हूं। जब एक पत्ती भी हिलती है और आपके प्राणों में कोई कंपित होता है। और जब हवा का झोंका चलता है, तब भी आपके भीतर कोई कंपित होता है। और जब धूल का बवंडर उठता है, तब भी आपके भीतर कोई रहस्य से जाग उठता है और पूछने लगता है, क्या है? क्या है? और कुछ सूझ नहीं पड़ता, कुछ बुझ नहीं पड़ता, और बुद्धि ठगी रह जाती है, और प्राण प्यासे जानने को आतुर रह जाते हैं। वही है अवस्था प्रेम की। वही है अवस्था सबसे जुड़ जाने की।
प्रेम हृदय को भर देगा, अगर बुद्धि को आप ज्ञान से मुक्त कर दें। बुद्धि अगर झूठे ज्ञान से मुक्त हो जाए, तो हृदय सच्चे प्रेम से भर जाएगा।
पंडित कभी प्रेमी नहीं हो पाता। और अजीब लोग हुए हैं, कबीर ने कहा हैः ढाई अक्षर प्रेम के, पढ़े सो पंडित होय। अजीब बात कहीं है! कि प्रेम के ढाई अक्षर जो पढ़ ले, तो पंडित हो जाए। नहीं कहा कि वेद पढ़ ले, चारों संहिताएं कंठस्थ कर ले, तो पंडित हो जाए। नहीं कहा कि उपनिषद पढ़ ले सब, तो पंडित हो जाए। नहीं कहा कि गीता कंठस्थ हो, तो पंडित हो जाए। कहा कि ढाई अक्षर प्रेम के! तो लिख लो कागज पर ढाई अक्षर और पढ़ते रहो रोज सुबह उठ कर, तो पंडित हो जाओगे।
नहीं, कोई प्रेम का अक्षर पढ़ने से पंडित नहीं हो जाएगा। लेकिन हां, प्रेम को कोई पढ़ ले तो जरूर, जरूर, एक, एक ज्ञान का जन्म होता है। जो बुद्धि का ज्ञान नहीं है, जो समग्र प्राणों के और पूरे आत्मा का जानना है। और इस प्रेम का जन्म होता है रहस्य से। तो बाहर, जो सब तरफ फैला हुआ विराट जगत है, जो अस्तित्व है, जो एक्झिस्टेंस है, उसके प्रति रहस्य का बोध। और हमारा रहस्य का बोध एकदम कुंठित है।
अमरीका में कोई बीस साल पहले लुथर बरबांक नाम का एक वैज्ञानिक था। वनस्पति शास्त्री था। पौधों के साथ ही जीवन भर रहा। पौधों के साथ जीवन भर रहा। अपने मित्रों को उसने एक दिन कहा कि मैं एक बात बताना चाहता हूं, पौधे भी बोलते हैं। उसके मित्र बहुत हैरान हुए, उन्होंने कहाः क्या कहते हो? क्या पौधों के साथ रहते-रहते, पौधों की खोज करते-करते दिमाग खराब हो गया, पौधे बोलते हैं?
उसने कहाः हां। ऐसा मुझे लगता है कि पौधे बोलते हैं। ऐसा मुझे लगता है कि पौधे समझते हैं। ऐसा मुझे लगता है कि पौधों से कुछ कहा जा सकता है।
उसके मित्रों ने कहा कि अगर तुम्हारा दिमाग दुरुस्त है, तो कुछ करके दिखाओ, तो हम समझें।
उसने एक प्रयोग किया। जो कि मनुष्य-जाति में एकदम अनूठा प्रयोग था। वह एक कैक्टस के पौधे को रेगिस्तान से लाया। उस कैक्टस के पौधे में कांटे ही कांटे होते हैं। और उसमें बिना कांटों की कभी कोई जाति नहीं होती। उस कैक्टस के पौधे में। वह उस कैक्टस के पौधे से रोज सुबह-शाम कहने लगा कि मेरे मित्र, क्या मेरी आवाज तुम तक पहुंचती है? क्या मेरा प्रेम तुम तक पहुंचता है? उसके मित्र तो थोड़े दिन में छोड़ दिए उसका साथ। सड़क पर लोगों ने उसे पहचानना बंद कर दिया। क्योंकि पागलों से दोस्ती करनी ठीक नहीं। खुद भी पागल होने का डर होता है। उसकी पत्नी ने उसे तलाक दे दिया। अदालत को कह कर कि इसका दिमाग खराब हो गया है, यह पौधों से बातें करता है।
लेकिन वह अटूट हिम्मत का आदमी होगा, लगा रहा। और उसने उस पौधे को कहा कि लेकिन मैं कैसे समझूंगा कि तुमने मेरी बात समझी, तुमने मुझे सुना, मेरे प्रेम को पहचाना, मैं कैसे समझूंगा? मुझे कुछ सबूत दो। सबूत मुझे यह दो कि एक ऐसी शाखा पैदा करो जिसमें कांटे न हों। उस पौधे से वह कहने लगा कि तुममें एक ऐसी शाखा निकले जिसमें कांटे न हों। अब यह कहीं हो सकता था! उस पौधे में बिना कांटे की शाखा होती ही नहीं। लेकिन सारा अमरीका दंग रह गया, पांच साल के निरंतर प्रयत्न से उस पौधे में एक शाखा निकल आई जिसमें कांटे नहीं थे। वह निरंतर उस पौधे से कहता रहा सुबह और सांझ, उस पौधे की सेवा करता रहा, उस पौधे को प्रेम करता रहा, उस पौधे को पानी सींचता रहा, उसकी हिफाजद करता रहा। रोज सुबह और सांझ उससे कहता रहा कि मेरे मित्र, अगर मेरा प्रेम तुम तक पहुंचता है तो कोई सबूत दो, सबूत यह दो कि तुममें एक शाखा निकले, जिसमें कांटे न हों। उसमें एक शाखा निकली।
क्या हुआ होगा पौधे के प्राणों में? क्या हुआ होगा उस कैक्टस के प्राणों में इस आदमी की प्रेम का और प्रार्थनाओं का? इसके निवेदन का कोई परिणाम हुआ होगा। उस पौधे के प्राण और आत्मा तक कोई बात गई होगी, पहुंची होगी। वह पौधा आंदोलित हुआ होगा। उस पौधे ने जाना होगा, मित्रता को, प्रेम को पहचाना होगा, तभी तो वह शाखा निकली, नहीं तो वह शाखा कैसे निकलती। वह जो द्वार पर पौधा खड़ा है, उसके पास भी आत्मा है, उसके भीतर भी परमात्मा है। वे जो राह के किनारे पत्थर पड़े हैं, वे भी जीवन से आपूरित हैं, उनके भीतर भी कोई सोया है। चारों तरफ एक चैतन्य का विस्तार है।
लेकिन जिसकी आंखें हृदय से संबंधित हो जाती हैं, केवल बुद्धि से संबंधित नहीं रहतीं, और जिसके प्राण प्रेम से भर उठते हैं और रहस्य से भर जाते हैं, उसे जीवन में चारों तरफ चैतन्य का दर्शन होने लगता है। हृदय में रहस्य न हो, तो संसार में पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। और हृदय में रहस्य हो, तो संसार में परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
बुद्धि कितना ही जाने, वह मुर्दा विचारों से ज्यादा आगे कभी नहीं पहुंच पाएगी। विचार मुर्दा होते हैं, प्रेम जिंदा होता है। इसलिए विचार के द्वारा परमात्मा को कभी नहीं जाना जा सकता, केवल पदार्थ को जाना जा सकता है। लेकिन प्रेम लिविंग है, प्रेम जिंदा है। विचार तो मुर्दा होते हैं। इसलिए प्रेम के आंदोलन में जिसे जाना जा सकता है, वही जीवित होगा, जीवंत होगा।
रहस्य प्रेम लाता है। लेकिन मैं यह नहीं कहता हूं कि आप रहस्य को कल्टीवेट करें। कि आप जबरदस्ती प्रेम करने लगें। जबरदस्ती का प्रेम खतरनाक है, झूठा है, अर्थ का नहीं है। तो मैं आपसे नहीं कहता, जाकर भगवान की मूर्ति को प्रेम करें। जो भगवान की मूर्ति को प्रेम करने गया है वह तो सबूत दे रहा है इस बात का कि उसे सारी दुनिया में भगवान दिखाई नहीं पड़ता, इसलिए एक मूर्ति में खोजने गया। और जिसे मूर्ति में खोजना पड़ता है, वह पक्का जान ले, उसे कहीं दिखाई नहीं पड़ेगा कभी भी। इतना जीवंत विस्तार है, उसमें जिसे भगवान का अनुभव नहीं होता, उसे मूर्ति में क्या अनुभव होगा। हां, यह सच है कि जिसे सबमें दिखाई पड़ने लगे, उसे मूर्ति में भी दिखाई पड़ने लगेगा। लेकिन कोई मूर्ति में देखना चाहे तो उसे तो कहीं भी दिखाई नहीं पड़ेगा। सब तरफ है उसका विस्तार, लेकिन देखने की कोशिश से नहीं होगा। पहले रहस्य, पीछे प्रेम। बिना रहस्य के प्रेम नहीं हो सकता। और अगर हम जबरदस्ती सिखाएं कि प्रेम करो, प्रेम करो, भक्ति करो, पूजा करो, सब झूठी हो जाती है। सब झूठी हो जाती है। और उसके परिणाम घातक आते हैं। उसके परिणाम ये आते हैं कि झूठे प्रेम से न तो आनंद मिलता, न झूठी भक्ति से, न झूठी सेवा से। और जब आनंद नहीं मिलता है, इस संसार से भी आनंद नहीं मिलता है, इस भक्ति से, सेवा से, प्रार्थना से भी आनंद नहीं मिलता, तो जीवन एकदम बोझिल हो जाता है, पंगु हो जाता है। चीजें टूट जाती हैं, भीतर से आशा नष्ट हो जाती है कि कुछ मिल सकेगा। लेकिन अब तक बिना रहस्य को पैदा किए, प्रेम, प्रार्थना और सेवा की बातें कही गई हैं।
धर्म हैं, जो सिखाते हैंः लोगों की सेवा करो। लेकिन सेवा कैसे हो सकती है जब तक प्रेम न हो। और अगर बिना प्रेम के सेवा होगी, तो वह सेवा केवल अहंकार का पोषण करेगी और कुछ भी नहीं। और वह सेवा मिस्चिवियस भी हो सकती है। वह सेवा उपद्रवी भी हो सकती है।
एक चर्च में एक पादरी ने आकर बच्चों को समझाया कि तुम रोज सेवा का थोड़ा-बहुत कार्य किया करो। क्योंकि बिना सेवा के प्रेम नहीं होगा, और बिना प्रेम के परमात्मा नहीं मिलेगा। उन बच्चों ने पूछा कि हम कैसी सेवा करें? तो उसने कुछ बातें बताईं। कि कोई डूबता हो तो उसको बचा लो। कोई बूढ़ा आदमी रास्ता पार न कर पाता हो तो उसको रास्ता पार करवा दो। कोई गिर पड़ा हो तो उसको उठा लो। किसी का दुख हो तो उसको दूर करो। इस भांति सेवा करो।
सात दिन बाद वह पादरी वापस लौटा, उसने बच्चों से पूछा, तुमने कोई सेवा की? तीन बच्चों ने हाथ उठाए कि हमने सेवा की। वह बहुत खुश हुआ। उसने कहाः कम से कम तीन बच्चों ने सेवा की, यह भी क्या कम है! मेरे प्यारे बच्चो, कौन सी सेवा तुमने की? तो एक लड़के से पूछा, तुमने क्या किया?
उसने कहाः मैंने एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया।
उसने कहाः बहुत ठीक!
दूसरे से पूछा। उसने कहाः मैंने भी एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया।
वह थोड़ा हैरान हुआ। सोचा, लेकिन संयोग की बात है, उसने भी करवाया होगा।
उसने कहाः बहुत ठीक!
तीसरे से पूछा। उसने कहा कि मैंने भी एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया।
तो वह थोड़ा चिंतित हुआ। उसने पूछा कि क्या तुम तीनों को तीन बूढ़ी औरतें मिल गईं रास्ता पार करवाने को?
उन्होंने कहाः तीन नहीं, बूढ़ी औरत तो एक ही थी, हम तीनों ने मिल कर पार करवाया।
उसने कहाः हद्द हो गई। क्या बहुत भीड़-भाड़ थी? क्या बूढ़ी स्त्री बिल्कुल चलने में असमर्थ थी कि तुम तीन की जरूरत पड़ी उसको रास्ता पार करवाने में?
उन्होंने कहाः नहीं, न तो रास्ते पर भीड़ थी, भीड़ बल्कि बिल्कुल नहीं थी। कोई था ही नहीं रास्ते पर, वह अकेली बूढ़ी औरत थी। और बूढ़ी औरत बहुत कमजोर भी नहीं थी। कमजोर होती तो एक ही पार करवा देता। बहुत तगड़ी थी, बड़ी मुश्किल से हम तीनों मिल कर पार करवा पाए, वह पार होना ही नहीं चाहती थी। वह पार होने को राजी ही नहीं थी। वह तो हमें सेवा का कार्य करना था, इसलिए मजबूरी में करना पड़ा।
दुनिया भर के सेवक इसी तरह के काम कर रहे हैं। ये जो सेवक हैं, समाज-सेवक, और जमाने भर के सेवक हैं, ये इसी तरह के काम कर रहे हैं। ऐसे लोगों को पार करवा देते हैं जो पार ही नहीं होना चाहते। ऐसे लोगों को डूबा कर निकालते हैं जो डूबे ही नहीं थे। सारी दुनिया में सेवकों ने जितना उपद्रव किया है उतना किसी और ने नहीं। इनसे ज्यादा मिस्चिफ मांगर्स और कोई भी नहीं है। और मिस्चिफ इसलिए पैदा होती है, उपद्रव इसलिए पैदा होता है कि हृदय में तो कोई प्रेम नहीं है और सेवा करना है। और सेवा इसलिए करनी है कि बिना सेवा के परमात्मा नहीं मिलेगा। और सेवा इसलिए करनी है कि बिना सेवा के परलोक में मेवा नहीं मिलता। और सेवा इसलिए करनी... और न मालूम क्या-क्या कारण हैं उनके सेवा करने के। प्रेम उनका कारण नहीं है। इसलिए जबरदस्ती सेवा हो रही है। और यह जबरदस्ती सेवा खतरनाक सिद्ध हो रही है।
तो मैं नहीं कहता कि आप कोई ऐसा प्रेम करने लगें। भूल कर किसी से जबरदस्ती प्रेम नहीं करना। नहीं तो उसके गले की फांसी लग जाती है जिससे आप प्रेम करते हो। और अक्सर ऐसा होता है कि जिनसे हम प्रेम करते हैं उनके गले पर फांसी लगा देते हैं। यानी वे पीछे पछताते हैं कि हमसे कैसे छुटकारा हो। जनम-मरण से छुटकारा पाने के लिए जैसी आत्मा आकुल होती है, ऐसे ही प्रेम से छुटकारा पाने के लिए भी आकुल हो जाती है। जो प्रेम झूठा होता है वह फंदा बन जाता है गले पर। किसी से झूठा प्रेम मत करना। लेकिन अगर जीवन में रहस्य का जन्म हो, तो प्रेम का जन्म अनिवार्य है। और एक बात स्मरण रख लें, जब रहस्य का जन्म होता है तो प्रेम किसी एक के प्रति पैदा नहीं होता। प्रेम अगर एक के प्रति पैदा हो तो जानना कि वह प्रेम प्रार्थना नहीं है। जब जीवन में रहस्य का बोध होता है, तो समग्र जीवन के प्रति प्रेम का जन्म होता है। किसी एक के प्रति नहीं, समग्र के प्रति। प्रेम तब एक रिलेशनशिप नहीं होती, एक संबंध नहीं होता, स्टेट ऑफ माइंड होती है, प्रेम तब चित्त की एक दशा होती है।
जैसे एक दीये को हम जला दें, तो दीया यह नहीं कहता कि मैं फलां आदमी के लिए प्रकाश दूंगा और फलां के लिए नहीं दूंगा। दीया जलता है, जो भी आ जाए, सभी को प्रकाश मिलता है। और कोई न आए, तो निर्जन में, एकांत में भी प्रकाश पड़ता रहता है। ऐसे ही जब चित्त में रहस्य का जन्म होता है, तो प्रेम का दीया जलता है। वह प्रेम यह नहीं कहता कि मैं तुमको प्रेम करूंगा और तुमको नहीं करूंगा। वह प्रेम कोई च्वाइस नहीं करता। वह प्रेम दीये की भांति जलता है। जो भी उसके निकट आता है उस पर प्रेम पड़ता है। और कोई न आए तो निर्जन एकांत में भी प्रेम झरता है। वह प्रेम चौबीस घंटे चित्त से विकीर्ण होता रहता है। वैसा प्रेम प्रार्थना है। और वैसा प्रेम जब आता है, तो चित्त एकदम शून्य हो जाता है।
रहस्य से प्रेम का जन्म होता है, प्रेम से शून्यता आ जाती है। अगर जीवन में क्षण भर को भी कभी प्रेम अनुभव किया हो तो यह पाया होगा कि मन एकदम शून्य हो जाता है प्रेम में। साधारण प्रेम में भी मन शून्य हो जाता है। एक प्रेमी जब अपने प्रेम करने वाले के पास बैठता है तो मन शून्य हो जाता है। उसे समझ में नहीं आता मैं क्या कहूं क्या न कहूं? उसने बहुत सी बातें सोची होंगी कि जिसे मैं प्रेम करता हूं, जब वह मिलेगा तो उससे मैं यह कहूंगा, यह कहूंगा, यह कहूंगा, लेकिन जब वह प्रेम करने वाले के पास जाता है तो पाता है सारी वाणी खो गई, सारे शब्द खो गए, कुछ कहने को नहीं सूझता, कुछ बोलने को नहीं सूझता, चुप और मौन हो जाता है, क्योंकि भीतर सब शून्य हो जाता है। साधारण प्रेम में भी चित्त क्षण भर को शून्य की अवस्था में पहुंचता है। और मैं आपसे कह दूं, प्रेम जो आनंद मिलता है, वह प्रेम का नहीं है, वह जो चित्त थोड़ी देर को शून्य हो जाता है उसका ही आनंद है।
तो जिसका हृदय सबके प्रति प्रेम से भर जाता है, उसका हृदय सब भांति शून्य हो जाता है। और उस शून्य में ही, उस सब भांति शांत हो गए चित्त में ही आनंद का आविर्भाव होता है, आनंद का जन्म होता है। आनंद तो सब तरफ है, लेकिन शून्य चित्त ही उसे अपने में भरने में समर्थ हो पाता है। इस शून्यता में अहंकार खंडित हो जाता है और टूट जाता है। क्योंकि वही तो मन को भरे हुए है। वही तो मन को भरे हुए है कि मैं कुछ हूं। प्रेम जानता है, मैं ना-कुछ हूं, मैं कुछ भी नहीं। अहंकार जानता है, मैं कुछ हूं। अहंकार समबडी बनाता है, कुछ बनाता है। प्रेम नो-बडी बना देता है, ना-कुछ बना देता है। प्रेम तोड़ देता है अहंकार की प्रतिमा को। मैं का भ्रम टूट जाता है। और जहां अहंकार है वहां प्रेम नहीं और जहां प्रेम है वहां अहंकार नहीं। प्रेमी जानता है मैं नहीं हूं। अनुभव करता है भीतर कुछ भी नहीं है, सब शांत और शून्य हो गया।
यह जो शून्यता है--रहस्य से प्रेम; प्रेम से शून्यता। इस शून्यता में ही, इस शून्यता में ही...
लाओत्सु ने कहा हैः धन्य हैं वे लोग जो खाली हैं, क्योंकि परमात्मा उन्हें भर देगा। और अभागे हैं वे लोग जो भरे हुए हैं, क्योंकि वे परमात्मा से खाली रह जाएंगे। वही भरता है परमात्मा से जो अपने तईं खाली हो जाता है। प्रेम खाली करता है। और एक ऐसा खालीपन और एक ऐसा वाइड, एक ऐसा शून्य निर्मित हो जाता है जहां कुछ भी नहीं होता। एक शांति, एक सन्नाटा, एक मौन और कुछ भी नहीं। उस मौन में ही सुनी जाती है वह वाणी जिसे हम परमात्मा की कहें, वह ध्वनि जिसे हम परमात्मा की कहें, उस खालीपन में ही अनुभव किया जाता है वह भरावट जो परमात्मा की है। उस सन्नाटे में ही उस संगीत को सुना जाता है जो परमात्मा का है। मनुष्य के सामने शून्य होने के अतिरिक्त पूर्ण को पाने का और कोई द्वार नहीं है। मनुष्य के समक्ष शून्य होने के अतिरिक्त पूर्ण को पाने का और कोई मार्ग नहीं है। मनुष्य मिट जाए तो परमात्मा हो आता है। मनुष्य टूट जाए, समाप्त हो जाए, तो उसका आगमन हो आता है। इस मूल्य पर ही उसका मिलन है। इस कीमत पर ही, इस सौदे पर ही।
एक छोटी सी घटना और आज की चर्चा में पूरी करूंगा।
एक पहाड़ी के किनारे जापान के किसी गांव में एक साधु खड़ा हुआ था। तीन मित्र सुबह-सुबह घूमने निकले थे। उन्होंने उस साधु को पहाड़ी की टेकड़ी पर खड़े हुए देखा। उनके मन में ख्याल उठा कि यह साधु सुबह-सुबह वहां खड़े होकर क्या करता है? कोई जरूरत न थी उन्हें इस बात को सोचने की। लेकिन हम सभी लोग गैर-जरूरत बातें सोचते हैं, उन्होंने भी सोचा, तो क्षमा कर देना। गैर-जरूरत बात थी, कोई मतलब न था कि साधु क्या करता है। कोई भी क्या करता हो, क्या लेना-देना था। लेकिन हम सभी इसी तरह की बातें सोचते हैं कि कौन क्या करता है, कौन क्या नहीं करता। हमारे जैसे ही वे तीनों लोग भी रहे होंगे। उन्होंने भी यह सोचा, तो उन्हें क्षमा कर देना। न केवल यह सोचा बल्कि उनमें से एक ने कहा कि मैं तो समझता हूं, उस साधु की गाय कभी-कभी खो जाती है, तो वह टेकड़ी पर खड़े होकर देखता है कि मेरी गाय कहां खो गई। बाकी दो ने कहा कि गलत। यह बात सरासर गलत है। क्योंकि वह आदमी जिस भांति खड़ा है, न तो सिर हिलाता है, न इधर-उधर देखता है, इससे पता चलता है वह कुछ खोज नहीं रहा, गाय-वाय नहीं खोज रहा। दूसरे मित्र ने कहाः मैं तो समझता हूं, कोई मित्र उसके साथ आया होगा घूमने, वह पीछे छूट गया, वह खड़े होकर उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। तीसरे मित्र ने कहाः गलत, एकदम गलत। उसे देख कर ऐसा नहीं लगता कि वह किसी की प्रतीक्षा कर रहा है, उसने एक भी दफे पीछे लौट कर नहीं देखा, प्रतीक्षा करने वाला कभी-कभी लौट कर पीछे भी देखता है। तो मैं तो यह समझता हूं कि न तो वह गाय खोज रहा है, न मित्र की प्रतीक्षा कर रहा है, वह शायद परमात्मा की प्रार्थना कर रहा है वहां खड़े होकर।
निर्णय होना कठिन हो गया। जैसे कि हर मसला कठिन हो जाता है। आखिर उन तीनों ने सोचा कि चलो हम चले चलें और उस साधु से ही पूछ लें कि तुम यहां क्या कर रहे हो। विवाद बहुत बढ़ गया। और विवाद की गर्मी में आदमी कितनी ही दूर चला जाता है, तो वे भी पहाड़ी चढ़ कर उतनी दूर चले गए। जाकर उन्होंने उस साधु को पूछा। पहले मित्र ने पूछा कि महानुभाव, आप यहां क्या कर रहे हैं? क्या आपकी गाय खो गई है, उसको आप खोजते हैं?
उस साधु ने कहाः गाय? किसकी गाय? कैसी गाय? मेरा तो कुछ भी नहीं है, खोएगा क्या? मैं किसी को नहीं खोज रहा हूं, मेरा कुछ भी नहीं खो गया।
दूसरे मित्र ने कहाः तब ठीक, हमारा भी यही ख्याल था कि आप कुछ खोज नहीं रहे। निश्चित ही कोई मित्र आपके साथ आया होगा जो पीछे छूट गया, आप उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
उस साधु ने कहाः नहीं, न मेरा कोई मित्र है, न मेरा कोई शत्रु। मैं किसी की प्रतीक्षा नहीं कर रहा हूं।
तीसरे ने कहा कि बिल्कुल ठीक, तब तो बात बिल्कुल तय हो गई कि आप परमात्मा का स्मरण कर रहे हैं, परमात्मा की प्रार्थना कर रहे हैं।
उस साधु ने कहा कि मैं नहीं जानता कौन परमात्मा है। मैं किसी की प्रार्थना नहीं कर रहा हूं। तो वे तीनों घबड़ा गए और उन्होंने पूछा कि फिर आप क्या कर रहे हैं?
उस फकीर ने कहाः आई एम जस्ट एक्झेस्टिंग। मैं कुछ कर नहीं रहा हूं, मैं केवल हूं। मैं कुछ कर नहीं रहा हूं, मैं केवल हूं। क्या अर्थ हुआ इस बात का कि मैं केवल हूं?
जो आदमी रहस्य से भर जाता है, और जिस आदमी के जीवन में प्रेम का अवतरण होता है, वह केवल रह जाता है, बस रह जाता है, होता है, कुछ करता नहीं। उसके चित्त में एक परम शांति, एक परम मौन, और मात्र होना रह जाता है। ऐसी जो अवस्था है, इसी में जाना जाता है परमात्मा, इसी में जाना जाता है सत्य, इसी में जाना जाता है स्वयं की निजता का अस्तित्व, स्वयं का होना। और जो ऐसी स्थिति में पहुंच जाता है उसे जीवन की कृतार्थता और सार्थकता उपलब्ध हो जाती है।
इससे ज्यादा अभी इस सुबह कुछ नहीं कहूंगा। चाहूंगा कि इस शून्य पर थोड़ा सोचते हुए जाएं। चाहूंगा कि इस शून्य का स्वाद किसी दिन उपलब्ध हो। हो सकता है, निश्चित हो सकता है। लेकिन रहस्य से शुरू करना पड़ेगा, तो क्रमशः रहस्य, प्रेम और शून्य का जन्म होता है। और जहां शून्य है वहीं सब कुछ प्रकट हो जाता है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए पुनः-पुनः धन्यवाद। परमात्मा करे कि शून्य कर दे, ताकि पूर्ण की संपदा उपलब्ध हो जाए। सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा के प्रति मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें