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सोमवार, 26 नवंबर 2018

सहज समाधि भली-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन

उन्मुक्त जिज्ञासा, खुला हृदय और जीवन-रहस्य

कथा:

मरियम का बेटा जीसस एक दिन, अपने छुटपन में, तालाब के किनारे बैठ कर मिट्टी के पक्षी बना रहा था। दूसरे बच्चे, जो ऐसा नहीं कर सके, ईर्ष्या से भर कर अपने बड़े-बूढ़ों के पास जीसस की शिकायत ले गए। उस दिन शनिवार था; इसलिए बूढ़ों ने कहाः ‘सॅबथ के दिन ऐसा नहीं होने दिया जा सकता।’
फिर बड़े-बूढ़े तालाब पर पहुंच गए और उन्होंने जीसस से अपने पक्षी दिखाने की मांग की। जीसस ने अपने बनाए पक्षियों की ओर इशारा किया, और वे पक्षी उड़ गए।
बुजुर्गों में से एक बोलाः ‘उड़ने वाले पक्षी कोई कैसे बना सकता है; इसलिए सॅबथ का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है।’
दूसरे ने कहाः ‘मैं यह कला सीखना चाहता हूं।’
और तीसरा बोलाः ‘यह कोई कला नहीं, सिर्फ धोखा है।’
फिर एक दिन एक लड़का जोसेफ बढ़ई के कारखाने में बैठा था। जब लकड़ी का एक तख्त छोटा पड़ गया, तब उसने उसे तान कर लम्बा कर दिया।

यह बात भी जब लोगों ने सुनी, तब कुछ ने कहाः ‘यह चमत्कार है, इसलिए यह लड़का संत होगा।’
कुछ दूसरों ने कहाः ‘इस पर हमें भरोसा नहीं आता, इसलिए दुबारा, तिबारा करो।’
और तीसरा दल बोलाः ‘यह कभी सच नहीं हो सकता; इस बात को किताब से अलग रखो।’

ओशो, कृपापूर्वक इस सूफी कथा का मर्म बताएं।


कुछ बातें, कथा में प्रवेश के पहले समझ लें।
एकः यहूदी मानते हैं कि परमात्मा ने जगत का निर्माण किया--छह दिनों में और सातवें दिन फिर उसने विश्राम किया। सातवां दिन पवित्र-दिन है, उस दिन कोई काम न करे। जब परमात्मा ने स्वयं काम नहीं किया, तो कोई भी व्यक्ति उस सातवें दिन काम न करे।
जैसा कि सभी नियम जड़ हो जाते हैं, यह नियम भी जड़ हो गया। ‘सातवें दिन काम न किया जाए’, यह बात अंधा जैसे पकड़ ले एक लीक को और फिर उसी पर चलता रहे, क्योंकि उसके साथ अपनी कोई आंख नहीं है--ऐसा यहूदियों ने पकड़ ली यह बात कि सातवें दिन जो काम करता है, वह पापी है; वह दंडित किया जाए। लेकिन इस सातवें दिन का अर्थ बड़ा बहुमूल्य था। और जीसस ने बाद में कहाः ‘सॅबथ का दिन--यह पवित्र दिन आदमी के लिए बनाया गया है, आदमी सॅबथ के दिन के लिए नहीं है।’ नियम मनुष्य के लिए हैं, मनुष्य नियम के लिए नहीं। लेकिन अक्सर ऐसा होता कि नियम मनुष्य से भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। मनुष्य का बलिदान चाहे हो जाए, लेकिन नियम पूरा होना चाहिए!
नियम बनते हैं--मनुष्य की सेवा के लिए, लेकिन जल्दी ही मनुष्य की छाती पर सवार हो जाते हैं और मनुष्य उनका सेवक हो जाता है। जब भी ऐसा हो, तब नियम आत्मघाती हो जाते हैं।
जीसस ने सॅबथ के नियम को तोड़ा, क्योंकि नियम आदमी की छाती पर सवार हो गया था।
जो लोग भी वस्तुतः धार्मिक हैं, वे नियम का पालन नहीं करते। नियम ही उनका अनुसरण करता है; अधार्मिक व्यक्ति नियम का पालन करता है; नियम उसका अनुसरण नहीं करता है। वह किसी चीज को पूरा करता है, क्योंकि ऐसा करना जरूरी है। उसका आविर्भाव उसकी अंतस्चेतना से नहीं होता है। नियम बाहर ही बाहर होते हैं।
जीसस ने कहा है कि अगर धार्मिक होना हो, तो तथाकथित धार्मिक आदमी की सच्चाई से तुम्हारी सच्चाई को गहरा होना पड़ेगा। अगर धार्मिक होना हो, तो तथाकथित धार्मिक आदमी के आचरण से तुम्हारे आचरण को ज्यादा गहरा होना पड़ेगा।
तथाकथित धार्मिक आदमी नियम को मानता है--ऊपर-ऊपर। लेकिन भीतर तो नियम का विरोध चलता है।
सॅबथ का दिन आ जाए, सातवां दिन आ जाए, पवित्र दिन आ जाए, तुम भला काम बंद कर दो, तुम्हारा मन तो काम बंद नहीं करेगा। शायद उस दिन और भी ज्यादा काम करेगा। रोज तो तुम्हारी शक्ति काम में लग जाती थी, उस दिन तुम्हारी सारी शक्ति मन में भटकेगी। तुम न मालूम कितने काम की योजनाएं बनाओगे, न मालूम कितने सपने देखोगे! तुम प्रतीक्षा कर रहे हो कल की, कि कब काम का दिन आ जाए और तुम्हारी वासनाएं काम में संलग्न हों।
तथाकथित धार्मिक आदमी ऊपर-ऊपर से धार्मिक होता है। वास्तविक धार्मिक आदमी भीतर से धार्मिक होता है।
तथाकथित धार्मिक यहूदियों ने इतना नियम मान लिया, कि ‘सातवें दिन काम नहीं करना है। जो काम करे, वह पकड़ा जाए, दंडित किया जाए।’ लेकिन ‘सातवें दिन परमात्मा ने विश्राम किया’ इसका भीतरी अर्थ क्या है? इसका भीतरी अर्थ समझे बिना नियम व्यर्थ होगा। भीतरी अर्थ है कि काम की निष्पत्ति है--निष्काम में।
छह दिन काम किया, वह तैयारी थी; सातवें दिन विश्राम किया, वह पूर्णाहुति है। काम तभी पूरा है जब निष्काम फलित हो। तुम जीवन भर दौड़े--काम किया, लेकिन अगर तुम ‘न-किए’ पर न पहुंचे, अगर तुम्हारी दौड़ ठहरने के बिंदु पर न आई, तो तुम फल के बिना ही रह गए। तुम्हारी सारी यात्रा निष्फल हुई।
काम साधन है, निष्कामता साध्य है। हम सब इतने कर्म में लीन हैं, ताकि हम अकर्म को उपलब्ध हो सकें; तो ही हमारा कर्म अर्थपूर्ण हुआ।
यह बड़ी उलटी बात हैः काम इसलिए, ताकि मनुष्य निष्काम हो सके। वासना की दौड़ इसलिए, ताकि निर्वासना आ सके। दौड़ इसलिए, ताकि रुकना हो सके। श्रम इसलिए, ताकि विश्राम हो सके। विपरीत लक्ष्य है और वही पूर्णाहुति है।
तुम चलते ही इसलिए हो, ताकि पहुंच जाओ। चलने के लिए तो कोई नहीं चलता है। और जो चलने के लिए चलता रहता है, वह पागल है। पहुंचने के लिए आदमी चलता है। और पहुंचने का अर्थ है--वहां रुकना हो जाए और वहां चलना समाप्त हो जाए।
साध्य जब फलित होगा, तब साधन विसर्जित हो जाएंगे।
परमात्मा ने छह दिन में जगत को निर्मित किया, ताकि सातवां दिन--पवित्र दिन फलित हो सके। उस दिन फिर कोई काम नहीं है।
तुम्हारा जीवन भी सिर्फ छह दिन में पूरा न हो जाए; सातवें दिन तक पहुंचे। तुम श्रम करो, लेकिन तुम्हारे सारे श्रम का सार अंत में विश्राम बन जाए। तुम्हारा मन सोचे, लेकिन सोचने का यह अंतिम फल हो कि तुम निर्विचार में, अ-सोच में, ध्यान में उतर जाओ।
कर्म संसार है, अकर्म मोक्ष है। छह दिन परमात्मा ने संसार निर्मित किया, सातवें दिन मोक्ष में प्रविष्ट हो गया।
तो सातवें दिन काम बंद कर देना काफी नहीं है। सातवें दिन निष्कामता फलित होनी चाहिए। तुम छह दिन बाजार में हो, दौड़-धूप में हो--यह काम है, वह काम है, बड़ा जाल है, बड़ा प्रपंच है। सातवें दिन सारे प्रपंच के बाहर हो। न कोई दुकान है तुम्हारी, न कोई संसार है, न कोई पत्नी है, न कोई पिता है, न कोई मां है। सारा प्रपंच शांत है। तुम बाहर हो। यह पवित्र दिन है।
और अगर यह पवित्र दिन फलित हो सके, तो तुम छह दिन भी संसार में होकर संसार के बाहर ही रहोगे। क्योंकि यह सातवां दिन जिसको समझ में आ गया, वह कर्म करते हुए भी अपने को अकर्ता मानेगा। वह दौड़ेगा, तो भी समझेगाः ‘मैं ठहरा हुआ हूं।’ श्रम भी करेगा, तो भी तनाव न लेगा। परिवार में होगा, फिर भी बाहर होगा; संसार में होगा, लेकिन संसार उसके भीतर नहीं होगा। यह तो भीतर की बात होगी। बाहर की बात कुल इतनी होगी कि काम-धाम छोड़ कर सातवें दिन बैठे रहो।
दूसरी बात समझ लेनी जरूरी है कि जिस व्यक्ति को भी निष्कामता का सार समझ में आ गया उसके स्पर्श में जादू है। जो भी निष्काम हो गया, वह मृतक को भी छुएगा, तो मृतक जीवित हो जाएगा। मिट्टी के बनाए हुए पक्षी भी उड़ जाएंगे। और जो कामना से जिएगा, वह जीवित को भी छुएगा, तो जीवित भी मृत हो जाएगा। जीवित पक्षी भी मिट्टी के ढेले होकर गिर जाएंगे।
कथा का तो सार ही शब्दों में नहीं होता। शब्द तो इशारे हैं। ‘तुम जो भी छूते हो, वह मर जाता है’--तुमने इस पर ध्यान दिया हो, तो जीसस की कहानी समझ में आ जाएगी।
तुम जहां भी छूते हो, वहीं मृत्यु फलित हो जाती है। तुम्हारे हाथ में जो भी आया--मरा। तुम्हारे स्पर्श से जीवित व्यक्ति वस्तु बन जाते हैं। एक स्त्री के तुम प्रेम में पड़े। और स्त्री वस्तु बननी शुरू हो गई। आज नहीं कल वह पत्नी होकर घर का एकशृंगार हो जाएगी।
तुम जिसे भी छूते हो, जहां भी छूते हो, व्यक्तितत्व खो जाता है, प्राण सिकुड़ जाते हैं; पंख बंद हो जाते हैं। हाथ में पत्थर रह जाते हैं। प्राण खो जाता है। क्योंकि प्राण तो वहीं हो सकता है, जहां निष्कामता हो। कामना जहर है--मारती है। निष्कामता अमृत है--जिलाती है।
निष्काम व्यक्ति को करीब पाकर तुम पाओगे कि तुम और भी जीवित हो उठे हो। तुम्हारी जीवन-ज्वाला धधक कर जल उठी है। बुद्ध के पास तुम्हारे अंगार की सारी राख झड़ जाएगी। अज्ञानियों के पास तुम्हारा अंगारा, तुम्हारा अज्ञान, तुम्हारे जीवन का अंगारा और भी राख से दब जाएगा। यह एक इशारा ख्याल में लें।
दूसरा इशाराः जब भी ऐसा फलित होता है कि कोई निष्कामता को उपलब्ध व्यक्ति कुछ करता है, तो हम उसके कृत्य को देख पाते हैं--जो वह कर रहा है। हम उसे नहीं देख पाते--जो वह है। इस कहानी में उस तरफ भी इशारा है। हम कृत्य के पार देख ही नहीं पाते हैं। हमारी आंखें अंधी हैं। बस, हम कर्म पर रुक जाते हैं; भीतर जो है, उसे नहीं देख पाते हैं। और जब तक हम निष्काम व्यक्ति को न देखें, तब तक हम उसे पहचान न पाएंगे। इसलिए जीसस को सूली लगी। सूली लगना सकारण है।
लोगों ने कर्म देखे, लेकिन कर्म को ‘देखना’ बड़ा कठिन है, उसकी व्याख्या मुश्किल है।
कोई तो व्याख्या करेगा कि ये पक्षी जो उड़ गए, जीसस ने बनाए ही न होंगे। क्योंकि उड़ने वाले पक्षी कोई कैसे बना सकता है। कोई व्याख्या करेगा कि धोखा हैः हमें भ्रम में डाला जा रहा है। जो हो नहीं सकता, उसका जीसस दावा कर रहे हैं। कोई कहेगाः इस तरह की घटनाओं को किताब के बाहर रखना। क्योंकि इस तरह की घटनाएं या तो घटी ही नहीं या अगर घटी हों, तो उनके पीछे कोई जालसाजी थी--धोखा था। और अगर वस्तुतः घटी हैं--तो वे इतनी रहस्यपूर्ण हैं कि उन्हें लिखना खतरनाक है। लोग उनसे भटकेंगे। किताबें तो लोगों का रास्ता साफ करने के लिए हैं। किताबें तो लोगों को रहस्य में ले जाने के लिए नहीं हैं। किताबें तो व्याख्या देने के लिए हैं।
अब हम इस कहानी में प्रवेश करें और एक-एक चरण को समझने की कोशिश करें। यह एक सूफी पैरेबल है, एक सूफी बोध-प्रसंग है :
मरियम का बेटा जीसस एक दिन, अपने छुटपन में, तालाब के किनारे बैठ कर मिट्टी के पक्षी बना रहा था। दूसरे बच्चे, जो ऐसा नहीं कर सके, ईर्ष्या से भर कर अपने बड़े-बूढ़ों के पास जीसस की शिकायत लेकर गए।
यह भी थोड़ा समझ लेने जैसा है। अक्सर तुम दूसरे की निंदा इसलिए नहीं करते हो कि वह गलत कर रहा है। अक्सर तुम दूसरे की निंदा इसलिए करते हो कि तुम ईर्ष्या से भर गए हो। तुम नहीं कर पा रहे हो और वह कर रहा है। अपने मन में झांक कर देखना कि तुम्हारी निंदा में, तुम्हारी शिकायत में--तुम्हारी ईर्ष्या तो नहीं है!
एक आदमी शराब पी रहा है। एक आदमी वेश्या के घर जा रहा है। तुम मंदिर की तरफ जा रहे हो। तुम्हारे मन में बड़ी घृणा उठती है; बड़ी निंदा उठती है। लेकिन सच में ही क्या तुम्हारी निंदा इसलिए है कि वह आदमी गलत कर रहा है? या तुम्हारे मन में बड़ी ईर्ष्या है कि तुम वेश्या के घर नहीं जा रहे हो, तुम शराब नहीं पी रहे हो, तुम कमजोर हो, तुम डरे हुए हो, तुम मंदिर की तरफ जा रहे हो।
मंदिरों में बैठे हुए लोग दूसरों के पापों की निंदा कर रहे हैं। उस निंदा में गहरी ईर्ष्या है। क्योंकि वास्तविक अगर कोई धार्मिक हो जाए, तो निंदा विलीन हो जाती है। उसके मन में कोई शिकायत नहीं रह जाती।
तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासियों के पास भी तुम सिवाय निंदा के और शिकायत के और कुछ भी न पाओगे। तुम उनके सामने खड़े होओ, तो वे तुम्हें इस भांति देखते हैं कि तुम महापापी हो। उनकी आंखों में तुम्हारे प्रति निंदा के सिवाय कोई भी भाव नहीं होता है। ‘तुम घृणित हो’, यह निंदा बताती है कि उनके मन में तुमसे ईर्ष्या है। चाहा तो उन्होंने भी था कि तुम जैसे महलों में वे भी होते। चाहा तो उन्होंने भी था कि तुम जैसे सुंदर स्त्रियों को भोगते हो, उन्होंने भी भोगा होता। चाहा तो उन्होंने भी था कि तुम्हारा जैसा संसार का विस्तार है, उनका भी होता। लेकिन वे कमजोर सिद्ध हुए। वे इस दौड़ में टिक न पाए। यह दौड़ कठिन थी। वे इसके योग्य न थे। वे इस दौड़ के बाहर हो गए। और ध्यान रहे, जो व्यक्ति भी दौड़ के बाहर हो जाता है--वह सहज ही आलोचक हो जाता है।
साहित्यकारों का अनुभव है कि साहित्य के क्षेत्र में वे ही लोग आलोचक हो जाते हैं, जो साहित्य का निर्माण नहीं कर पाते। चाहा तो था उन्होंने भी कि कालिदास हो जाएं, कि शेक्सपीयर हो जाएं। वह उनसे नहीं हो सका। कालिदास होना कुछ आसान नहीं है। शेक्सपीयर होना कुछ आसान नहीं हैः तब एक ही उपाय है कि वे रास्ते के नीचे उतर जाएं और जो शेक्सपीयर हो सकते हैं, उनकी आलोचना और शिकायत में लग जाएं। यह बहुत आसान है। आलोचक होने से सस्ता कृत्य जगत में दूसरा नहीं है। चेखोव की एक छोटी सी कहानी है। एक गांव में एक महामूर्ख था। सभी उस पर हंसते, सभी उसकी मजाक करते। फिर गांव में एक ज्ञानी आया। उस महामूर्ख ने कहा, ‘मुझे भी कुछ रास्ता बताओ। मैं अत्यंत पीड़ित हूं। जहां जाता हूं, वहीं निंदा; जो देखता है, वही हंसता है।’ उस ज्ञानी ने कहा, ‘इसमें क्या अड़चन है? छोटी सी बात है। कान में समझ ले। कल से शुरू कर दे। पंद्रह दिन के भीतर तू ज्ञानी हो जाएगा।’ और पंद्रह दिन के भीतर वह महामूर्ख ज्ञानी हो गया! गांव में लोग उसकी प्रशंसा करने लगे। जो भी देखता, वही सहम जाता और कहता कि ‘महाज्ञानी है!’
क्या सूत्र दिया उस ज्ञानी ने, उस महामूर्ख को? उसने कहा, ‘तू एक काम कर। बस, तू आलोचना करना सीख जा। कहीं लोग कह रहे हों कि ‘देखो, चांद कितना सुंदर है!’ तू जोर से चिल्ला कर कह कि ‘क्या है सौंदर्य इसमें, यह सिद्ध करो। साधारण चांद निकला है; बकवास कर रहे हो? रोज निकलता है। सौंदर्य कहां है? परिभाषा क्या है सौंदर्य की? लोग सहम जाएंगे, क्योंकि कौन परिभाषा कर पाया है सौंदर्य की। सिद्ध करना मुश्किल है। लोग किसी कविता की प्रशंसा करें, तो तू कहना कि यह तुकबंदी है। इसमें काव्य कहां है? कौन सिद्ध कर सकता है कि काव्य है। लोग किसी चित्र की प्रशंसा करते हों, तो कहना कि यह क्या है? बच्चों का खेल है, रंग पोत दिया है। दो पैसा इसका मूल्य नहीं है। इसमें कौन सी महानता है? बस, तू कुछ करना मत। क्योंकि किया तो फंसा। तू सिर्फ आलोचना करना, निंदा करना। जहां भी कोई किसी चीज को श्रेष्ठ कहे, तू उसे निकृष्ट कहना। लोग सहम जाएंगे। जल्दी ही स्वीकृत हो जाएगा।’
निश्चित ऐसा ही हुआ। दो सप्ताह के भीतर गांव में उस महामूर्ख को लोग ज्ञानी कहने लगे! लोग कहने लगे कि ‘उसकी समझ बड़ी गहरी है। जबकि हम सब साधारण जन कह रहे थे कि यह कविता है; उसने कहा कि तुकबंदी है। और कोई भी सिद्ध न कर पाया कि कविता है! जब हम कह रहे थे कि चांद सुंदर है, तो उसने कहा कि कौन कहता हैः चांद सुंदर है? कहां है सौंदर्य इसमें? कोई भी सिद्ध न कर पाया कि सौंदर्य कहां है!’ वह आदमी एक-छत्र राज्य करने लगा।
अक्सर कमजोर आलोचक बन जाते हैं। जिनके पास शक्ति है, वे स्रष्टा होते हैं; जो नपुंसक हैं, वे निंदा से भर जाते हैं। जहां भी तुम निंदा पाओ, समझ लेना कि कोई गहरी नपुंसकता निंदा के पीछे छिपी है।
और भी बच्चे पक्षी तो बनाना चाहते थे, लेकिन उनसे बन नहीं रहे थे। कोई उन्हें परेशानी न थी कि सॅबथ के दिन, पवित्र दिन पर जीसस पक्षी न बनाए मिट्टी के। वे भी बनाना चाहते थे लेकिन पक्षी उभर नहीं रहे थे, बन नहीं रहे थे। और जीसस के पक्षी जीवंत मालूम हो रहे थे।
ईर्ष्या से भरे उन्होंने बड़े-बूढ़ों के पास जाकर कहा कि ‘सॅबथ के दिन, पवित्र दिन पर जीसस काम में लगा है--पक्षी बना रहा है।’ पहले तो यह बात ही गलत थी। क्योंकि खेल काम नहीं है। काम का अर्थ ही हैः जिसमें फल की आकांक्षा हो।
जीसस अगर पक्षी भी बना रहा था मिट्टी के, तो वह खेल था, वह काम नहीं था। उसमें कोई फल की आकांक्षा न थी। ऊपर से देखने पर तो वह भी काम है। क्योंकि वह काम में लगा है। लेकिन भीतर से देखने पर वह खेल है--काम नहीं है।
तुम दफ्तर जा रहे हो। मैं घूमने निकला हूं--उसी रास्ते पर। हम दोनों के पैर चलते हैं। हम दोनों यात्रा कर रहे हैं। बाहर से देखने वाला कहेगाः ‘दोनों चल रहे हैं।’ लेकिन मैं तुमसे कहूंगाः ‘तुम चल रहे हो, मैं नहीं चल रहा हूं। मैं सिर्फ घूम रहा हूं। मैं सिर्फ सुबह के घूमने के लिए निकला हूं। मुझे कहीं पहुंचना नहीं है। मैं कहीं से भी वापस लौट सकता हूं। मैं कहीं भी रुक सकता हूं। मेरी कोई मंजिल नहीं है। लेकिन तुम कहीं से वापस नहीं लौट सकते। तुम कहीं ठहर नहीं सकते। तुम्हें दफ्तर तक पहुंचना है।’ ऊपर से देखने पर दोनों कृत्य एक जैसे हैं। भीतर से देखने पर एक ‘खेल’ है, एक ‘काम’ है।
काम में और खेल में बड़ा फर्क है। हिंदुओं ने कहा है कि परमात्मा ने जगत को ‘बनाया’ नहीं--यह उसका ‘खेल’ है। ईसाइयों की कहानी में छह दिन परमात्मा ने जगत को बनाया, सातवें दिन विश्राम किया। हिंदुओं का परमात्मा सदा से विश्राम में है। क्योंकि खेल है; थकान नहीं लाता।
तुमने अनुभव किया है! दिन भर का थका हुआ आदमी शाम को घर लौटता है, फिर कहता हैः ‘बैडमिंटन खेलने जा रहा हूं, ताकि थकान मिट जाए।’ बड़ी हैरानी की बात है। यह दिन भर का थका हुआ है और बैडमिंटन खेलेगा तो और थकेगा! लेकिन खेल थकाता नहीं; खेल जिलाता है। खेल शक्ति को वापस लौटा देता है। खेल पुनरुज्जीवन है।
ईसाइयों का परमात्मा छह दिन के बाद निश्चित थक गया होगा, क्योंकि छह दिन का काम परमात्मा तक को थका देता है, तुम्हें तो क्या नहीं थकाएगा! तुम्हें तो थका ही देगा। काम थकाता है। लेकिन हिंदुओं का परमात्मा अभी तक नहीं थका; कभी नहीं थकेगा। थकने का कोई कारण नहीं है। इसलिए हिंदुओं की कथाओं में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि उसने विश्राम किया। वह विश्राम कर ही रहा है। क्योंकि खेल कभी थकाता नहीं है।
हिंदू कहते हैंः यह जगत परमात्मा की लीला है। लेकिन सात दिन में एक दिन भी तुम लीला को उपलब्ध नहीं हो सकते, तो सातों दिन कैसे उपलब्ध होओगे?
जीसस ‘खेल’ रहा था। बच्चों ने गलत खबर दी और बूढ़ों ने भी गलत खबर मान ली। क्योंकि हमारे बच्चों और बूढ़ों में बहुत फर्क नहीं है। उनके पास बुद्धि एक जैसी है। सबके पास बचकानी बुद्धि है। अन्यथा वे कहते कि ‘खेल कोई काम नहीं है। जीसस खेल रहा है--खेलने दो।’
बच्चे काम करते ही नहीं, बच्चे तो खेलते हैं। इसलिए बच्चों पर कोई नियम लागू नहीं हो सकता। संतों पर भी कोई नियम लागू नहीं हो सकता, क्योंकि वे पुनः बच्चे हो जाते हैं। नियम तो बीच में लागू है; नियम तो समझदारों पर लागू है। बच्चे नासमझ हैं। संत भी पुनः नासमझ हो जाते हैं। उन पर नियम नहीं लागू होता।
अदालतें तक बच्चों को छोड़ देती हैं। क्योंकि बच्चा है, नासमझ है; अभी बालिग नहीं हुआ है। बालिग हुए कि मुसीबत शुरू होती है। बालिग होने में ही मुसीबत है; क्योंकि अहंकार मजबूत हो गया, पक गया। अब तुम खेल नहीं सकते, अब तुम काम ही करते हो।
तुम अगर खेलते हो, तो भी काम है। तुमने देखा हैः लोग ताश खेलते हैं, तो तलवारें निकल आती हैं! शतरंज खेलते हैं, तो कुश्तियां हो जाती हैं। वे खेल भी खेल नहीं हैं! वे भी काम हैं। उनमें भी कुछ पीछे पाने की आकांक्षा है--हार-जीत!
लेकिन एक बच्चा--जीसस मिट्टी के खिलौने बना रहा है। कैसी हार, कैसी जीत! कोई बाजार में बेचने भी नहीं जाने वाला है कि उससे कोई धन मिलेगा! थोड़ी देर बाद उन खिलौनों को यहीं छोड़ कर घर चला जाएगा, पीछे लौट कर भी नहीं देखेगा।
बुद्ध ने कहा है कि राह से गुजरते वक्त मैंने देखा कि नदी के तट पर कुछ बच्चे खेल रहे हैं। वे रेत के घर बना रहे हैं। बड़ा झगड़ा भी हो रहा है, क्योंकि किसी के धक्के से, किसी का रेत का घर गिर गया है। बड़ा विवाद छिड़ा हुआ है। बच्चे बड़े नाराज हैं। फिर सांझ हो गयी। किनारे से कोई चिल्लाया कि भागो, तुम्हारी माताएं तुम्हें याद कर रही हैं। वे बच्चे, जो रेत के घर बना रहे थे--बड़े श्रम से और बड़ी लगन से, और जिनके कारण बड़ा विवाद और संघर्ष था, वे अपने ही घरों पर कूदने लगे। उन्होंने रेत में वापस रेत मिला दी। हंसते हुए घर वापस लौट गए। बुद्ध ने कहाः ‘ऐसा ही संन्यासी है।’
जहां संसारी बड़े घर बना रहे हैं, बड़े मोहग्रस्त--श्रम में लीन हैं, विवाद कर रहे हैं, अदालतों में मुकदमे लड़ रहे हैं, दावे कर रहे हैं--वहां संन्यासी को घर की याद आ जाती है कि मां बुला रही है। मूलस्रोत का स्मरण आ जाता है। सांझ हो गयी। और अपने ही घरों को अपने ही हाथ से रौंदकर हंसता हुआ, नाचता हुआ वापस लौट जाता है।
जीसस खेल खेल रहे थे। बच्चों ने ईर्ष्या के कारण शिकायत की। बूढ़ों ने अज्ञान के कारण शिकायत स्वीकार कर ली। बच्चों और बूढ़ों में बहुत फर्क नहीं मालूम पड़ता। दोनों के पास बुद्धि छोटी है, ओछी है। अन्यथा बूढ़े कहतेः ‘खेल खेल है। खेल पर नियंत्रण लागू नहीं होते। बच्चे खेल सकते हैं। बच्चों पर नियम नहीं लागू होते।’
हिंदुओं के सूत्र साफ हैं। हिंदुओं ने संन्यासी को नियम के बाहर रखा है। हिंदू कहते हैंः संन्यासी पर समाज का कोई नियम लागू नहीं है। क्योंकि जो बच्चों जैसा सरल ही हो गया, वह नियम के बाहर हो गया।
तुम्हें पता है हिंदुओं के चार वर्ण हैं। संन्यासी का कोई वर्ण नहीं है। शूद्र भी संन्यासी हो जाए, ब्राह्मण भी संन्यासी हो जाए, तो संन्यासी होते ही वर्ण समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि वर्ण समाज के नियम थे। वह काम की दुनिया की बात थी। जब कोई आदमी संन्यस्त हो गया, फिर कैसा काम! लेकिन तुम्हारी बुद्धि में चलता रहता है। कठिनाई बनी रहती है।
विवेकानंद शूद्र हैं। कायस्थ हैं। शूद्र और कायस्थ शब्द में बड़ा गहरा संबंध है। कायस्थ का मतलब हैः जो काया में स्थित है, जो शरीर से बंधा है। इसलिए कायस्थ को शूद्र में गिना गया है। विवेकानंद कायस्थ हैं। लेकिन संन्यस्त होते ही ब्राह्मण उनके चरण छुए। संन्यस्त होते ही बात समाप्त हो गयी। वे कौन थे, यह सवाल न रहा।
रामकृष्ण ब्राह्मण हैं--संन्यास के पहले--विवेकानंद शूद्र हैं--संन्यास के पहले। संन्यास के बाद न कोई ब्राह्मण है, न कोई शूद्र।
संन्यासी नियम के बाहर है। उस पर कोई नियम लागू नहीं होते। बच्चे भी नियम के बाहर हैं। सिर्फ अहंकार नियम के भीतर आता है। और अहंकार को नियम के भीतर लाना पड़ेगा, क्योंकि वह उपद्रव की जड़ है। अहंकार पर पुलिस तैनात करनी ही होगी; अदालतें बनानी ही होंगी। क्योंकि अहंकार खतरनाक विष है, वह विष-बीज है।
लेकिन बूढ़ों ने भी स्वीकार कर ली--बच्चों की शिकायत। फिर बड़े-बूढ़े तालाब पर गए और उन्होंने जीसस से अपने पक्षी दिखाने की मांग की। जीसस ने अपने बनाए पक्षियों की ओर इशारा किया और वे पक्षी उड़ गए। ‘जीसस जैसे व्यक्ति मिट्टी को भी छू दें तो प्राण आ जाता है।’ बस, कहानी का अर्थ इतना ही है। जीसस जैसे व्यक्ति खेल-खेल में भी पक्षी बना लें, तो वैसा पक्षी उड़ जाता है। तुम खेल-खेल में पक्षी को पिंजड़े में बंद कर दोगे।
कई लोग तोतों के प्रेमी हैं, और उन्हें पिंजड़े में बंद किए हुए हैं। खेल-खेल में उनकी जान निकली जा रही है। तुम्हारे लिए खेल है। तुमने उनका आकाश छीन लिया है। खेल तुम्हारा बहुत दुष्टता से भरा है।
अगर आदमी अज्ञानी है, तो उसके खेल में भी हिंसा होगी। अगर आदमी अज्ञानी है, तो उसके खेल से भी युद्ध निकलेगा। अगर आदमी अज्ञानी है, तो उसके खेल से भी मौत फलित होगी। और आदमी अगर ज्ञानी है, तो उसके मिट्टी से बनाए हुए पक्षी भी आकाश में उड़ जाएंगे।
यह बात मीठी है, समझ लेने जैसी है। इसको शाब्दिक अर्थों में मत समझना कि पक्षी सच में उड़ गए। मिट्टी के पक्षी कैसे उड़ेंगे! असली पक्षी तक उड़ने में इतनी मुसीबत अनुभव करते हैं! तुम उड़ना चाहते हो, नहीं उड़ पाते। मिट्टी के पक्षी, तो कैसे उड़ेंगे? लेकिन अर्थ साफ है कि जीसस जैसे व्यक्ति जहां भी चलते हैं, जहां भी उठते हैं, बैठते हैं, वहीं जीवन को गति मिलती है। वहीं सोए हुए प्राण जग उठते हैं।
और ये मिट्टी के पक्षी ही जीसस के छूने से नहीं उड़े थे और पक्षी भी उड़े--जिनको हम आदमी कहते हैं, उनमें से भी बहुत ‘पक्षी’ उड़े। वे भी मिट्टी थे। वे भी जीसस को मिलने के पहले मुरदा थे।
बहुत कथाएं हैं कि जीसस ने मुरदों को जिलाया। मरे हुए को छुआ और आवाज दी कि उठ। और मुरदा उठ कर बैठ गया। बीमारों की बीमारियां छीन लीं, अंधों की आंखों पर हाथ रखा और आंखें ठीक हो गयीं और देखने लगीं। बहरों के कान छुए और बहरे सुनने लगे। अगर इनका लिटरल--शाब्दिक अर्थ लगाया जाए, तो जीसस एक मदारी मालूम पड़ते हैं--एक चमत्कारी। लेकिन जीसस जैसे व्यक्ति चमत्कारी नहीं होते। जीसस जैसे व्यक्ति का पूरा जीवन चमत्कार है--चमत्कारी नहीं हैं वे।
बड़े से बड़ा चमत्कार यह नहीं है कि अंधे की आंखें छूने से ठीक हो जाएं। क्योंकि आंखें भी होते हुए, कहां तुम देख पाते हो? कान सुनते भी हों तो भी तुम कहां सुन पाते हो? बड़ा चमत्कार यह है कि तुम ‘सुन’ पाओ। बड़ा चमत्कार यह है कि तुम ‘देख’ पाओ।
तो जीसस अपने हर वचन के पहले लोगों से कहते हैंः ‘जिनके पास कान हों, वे सुन लें। और जिनके पास आंखें हैं, वे देख लें।’ जीसस ने अंधों को आंखें दी होतीं, तो यह चमत्कार होता। जीसस ने आंख वालों को आंखें दीं, यह महा-चमत्कार है। जीसस ने बहरों को कान दिए होते, तो इसे मेडिकल साइंस के इतिहास में लिखा जाता कि एक बड़े चिकित्सक थे वे, कुछ गहरे सूत्र उनके पास होंगे। लेकिन इससे जीसस ईश्वर नहीं हो सकते थे। और अंधों को आंख देने का काम तो चिकित्सा-शास्त्र कर रहा है। बहरों को कान देने का काम चिकित्सा-शास्त्र कर रहा है। इस काम के लिए जीसस को बीच में उतरने की जरूरत नहीं है।
जीसस ने आंख वालों को ‘आंखें’ दीं, कान वालों को ‘कान’ दिए, हृदय वालों को ‘हृदय’ दिया। जो जीवित ही थे, उन्हें ‘जीवन’ दिया। क्योंकि वे करीब-करीब अपने को मृत मान चुके थे, अंधा और बहरा मान चुके थे।
बड़े-बूढ़े जीसस के पास गए, और पक्षी दिखाने की मांग की; जीसस ने अपने बनाए पक्षियों की ओर इशारा किया और वे पक्षी उड़ गए। बुजुर्गों में से एक बोलाः ‘उड़ने वाले पक्षी कोई बना नहीं सकता। इसलिए इसमें सॅबथ का कोई उल्लंघन नहीं है।’
बुद्धि के जवाब! बड़े-बूढ़े यानी बुद्धि। बुजुर्ग यानी अनुभव। और अनुभव जीवन के रहस्य को जरा भी नहीं समझ पाता है। तुम्हारी उम्र कितनी है, तुमने कितना जाना है, इससे तुम्हारे ज्ञान का कोई भी संबंध नहीं है।
अक्सर तो ऐसा होता है कि बड़े-बूढ़े देख ही नहीं पाते हैं, समझ नहीं पाते हैं। उनका अनुभव ही बाधा बन जाता है। उन्होंने इतना जान लिया है कि वे सुन भी नहीं पाते हैं।
बुजुर्गों में से एक बोला कि ‘उड़ने वाले पक्षी कोई भी नहीं बना सकता। इसलिए इसमें सॅबथ का कोई उल्लंघन नहीं है। बच्चों ने गलत खबर दी है। ये जो पक्षी बैठे थे, ये कोई मिट्टी के बनाए हुए पक्षी नहीं थे।’ दूसरे ने कहा, ‘मैं यह कला सीखना चाहता हूं।’
अनुभव पहले तो रहस्य से इनकार करता है। इसलिए बड़े-बूढ़ों के जीवन में कोई रहस्य नहीं होता है। बच्चों के चारों तरफ रहस्य का नर्तन चलता है। एक तितली उड़ती है, तो इतना बड़ा रहस्य है। फूल खिलता है, तो इतना बड़ा रहस्य है। इसलिए बच्चे सतत पूछते रहते हैं कि ‘ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसा क्यों हो रहा है?’ यह इसलिए नहीं कि वे उत्तर चाहते हैं। असल में वे अवाक हैं; वे अपने रहस्य को प्रकट कर रहे हैं। वे आश्चर्यचकित हैं। सब तरफ उन्हें आश्चर्य दिखाई पड़ रहा है। तुम उत्तरों से उन्हें चुप करने की कोशिश मत करना। वे उत्तर मांग भी नहीं रहे हैं। वे तो सिर्फ अपने आश्चर्य को अभिव्यक्त कर रहे हैं। उनके प्रश्नवाचक चिह्न वस्तुतः आश्चर्यसूचक चिह्न हैं। वे प्रश्न नहीं हैं। तुमसे उत्तर की अपेक्षा नहीं है। वे सिर्फ तुम्हें भी साझीदार बनाना चाहते हैं--उसमें जिस रहस्य को वे अनुभव कर रहे हैं, जो परियों का जगत चारों तरफ खुला हुआ है। एक छोटी सी छाया हिलती है--वृक्ष के नीचे; तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं हिलता; बच्चे के लिए न मालूम कितने लोक हिल जाते हैं; न मालूम कितने स्वप्न पैदा हो जाते हैं!
बच्चा जीता है--जैसा कि शुद्ध काव्य। उत्तर कहीं नहीं है, सब तरफ प्रश्न ही प्रश्न हैं; सब तरफ जिज्ञासा है। लेकिन बूढ़े आदमी की जिज्ञासा मर जाती है। बूढ़ा सब जानता है! उसके उठने में, बैठने में वह खबर देता है कि ‘मुझे सब पता है।’ बूढ़े को तुम चकित नहीं कर सकते--यह बुढ़ापे का लक्षण है। यू कॅन नॉट सरप्राइज हिम। उसे चकित नहीं किया जा सकता। तुम प्रश्न भी करो, वह कहेगाः ‘मुझे सब पता है।’
मैंने सुना हैः एक आदमी एक घोड़े को जबरदस्ती अपने घर के भीतर ले जा रहा था। दो आदमी रास्ते से गुजरते थे; वे सहायता करने लगे; क्योंकि घोड़ा भीतर जा नहीं रहा था। लेकिन जब वह आदमी घोड़े को सीढ़ियों के ऊपर चढ़ाने लगा, तब उन आदमियों ने कहाः ‘मतलब! तुम कर क्या रहे हो? कहां ले जा रहे हो घोड़े को?’ उसने कहाः ‘तुम साथ दे सकते हो, तो दो। बातचीत मत करो। ऊपर चलकर बताऊंगा।’ बा-मुश्किल घोड़े को ऊपर चढ़ा कर वह एक बाथरूम में ले गया और दरवाजा बंद किया, तब उन दो आदमियों ने कहा कि ‘रहस्य तो बताओ? हमें बहुत तुमने चकित कर दिया है!’ तो उस आदमी ने कहा, ‘मेरे एक बूढ़े मित्र हैं। उनसे कुछ भी कहो, वे कहते हैंः ‘मुझे पता है।’ वे आज आने वाले हैं। उनको मैं चकित करना चाहता हूं। एक दफा यह सुनना चाहता हूं कि ‘अरे! यह क्या!’ बस, एक दफा जीवन में उनके मुंह से यह सुन लूं। जब वे बाथरूम में हाथ-पैर धोने जाएंगे और घोड़े को वहां देखेंगे।’ लेकिन वह आदमी गलती में था।
जब वह बूढ़ा आया और उसने दरवाजा खोला तो वह जरा भी चकित नहीं हुआ! उसने कोई आवाज न की; वापस नीचे आ गया। यह मित्र राह देख रहा है कि वह कुछ कहे, उसने कुछ भी न कहा। इस मित्र को आखिर खुद ही पूछना पड़ा कि ‘आपको कुछ... ?’ उस आदमी ने कहा, ‘मैंने जिंदगी में इतनी चीजें देखी हैं और घोड़े इतने स्थानों में देखे हैं कि इसमें चकित होने जैसा कुछ भी नहीं है। यह संयोग भी हो सकता है।’
बूढ़े को चकित नहीं किया जा सकता है। जिस दिन तुम चकित होना बंद हो जाओ, समझना कि तुम बूढ़े हो गए। जिस दिन आश्चर्य मर जाए, समझना कि तुम बूढ़े हो गए। जब तक तुम चकित हो सकते हो--जब तक कोई चीज तुम्हें चौंका सकती है--जब तक किसी चीज के लिए तुम पूछ सकते हो--‘यह क्या है?’ जब तक कुछ है, जो नया बना रहता है और रहस्यपूर्ण है, तब तक तुम बच्चे हो, तब तक तुम शुद्ध हो, तब तक तुम सरल हो, तब तक तुम्हारा जीवन निर्दोष है।
एक बूढ़े ने कहा कि ‘यह हो नहीं सकता है। उड़नेवाले पक्षी कोई बना ही नहीं सकता। इसलिए बात ही व्यर्थ है। सॅबथ का उल्लंघन नहीं हुआ।’
इतना बड़ा चमत्कार सामने देख कर भी बूढ़ा अंधा रहा। मिट्टी के पक्षी भी उड़ा दो, तो भी अनुभवी को तुम जगा नहीं सकते। तुम चमत्कार भी करो, तो उसमें से कोई रास्ता निकाल लेगा। वह कहेगा कि ‘इसमें कुछ ऐसी खास बात नहीं है।’ उसने रास्ता निकाल लिया--सीधा, कि ‘उड़ने वाले पक्षी कोई बना नहीं सकता, इसलिए इसका उल्लंघन हुआ नहीं। इसने कुछ किया नहीं।’
दूसरे ने कहाः ‘मैं यह कला सीखना चाहता हूं।’ दूसरा भी बूढ़ा है। बूढ़े का एक ढंग तो है कि वह इनकार कर दे--कि चमत्कार है ही नहीं, रहस्य है ही नहीं। बूढ़े का ही दूसरा ढंग है कि वह सोचता है कि अगर चमत्कार है, तो ऊपर-ऊपर होगा, भीतर इसका सूत्र होगा, जो सीखा जा सकता है। कोई ट्रिक-कला! ‘कैसे किया जाता है’, इसका कोई ढंग होगा, जिसे कि खोजा जा सकता है। रहस्य नहीं है। सिर्फ हमें तरकीब का पता नहीं है।
दूसरा भी रहस्य को इनकार कर रहा है। वह कह रहा हैः ‘इसकी कला क्या है, वह हमें सिखा दो।’ तुम जानते हो, हम नहीं जानते हैं। बस, इतना ही फर्क है। हम भी सीख लेंगे, हम भी जान लेंगे।
ध्यान रहेः रहस्य वह है, जिसे सीखा न जा सके, जिसे कोई सिखा न सके। रहस्य वह है, जिसको खोलने की कोई कुंजी है ही नहीं। रहस्य को कला नहीं बनाया जा सकता। और जो चीज कला बन सकती है, वह रहस्य नहीं है।
यह दूसरा भी रहस्य को मार रहा है। यह दूसरा थोड़ा वैज्ञानिक है। यह कहता है कि चलो, कोई तरकीब होगी। तुमने किया है, तो तुम कुछ करना जानते हो, वह हमें भी बता दो। ‘मैं भी सीखना चाहता हूं।’
और तीसरा बोलाः ‘यह कला भी नहीं है; सिर्फ धोखा है।’
ये तीन रुख हैं, जो बुढ़ापा लेता है। एक रुख है--सीधा इनकार कर देना कि कुछ हुआ ही नहीं है। आंख बिल्कुल बंद कर ली। अपने अनुभव से उत्तर दे दिया और रहस्य को अस्वीकार कर दिया। दूसरी तरकीब हैः ‘कुछ होगा, जो मुझे पता नहीं है, लेकिन पता हो सकता है। अज्ञेय कुछ भी नहीं है, अज्ञात है; मैं भी जान लूं, तो ज्ञात हो जाएगा।’
दूसरा व्यक्ति जीवन को कला की दृष्टि से देखता है। पहला व्यक्ति जीवन को सामान्य मनुष्य की--कॉमन सेंस की दृष्टि से देखता है। दूसरा व्यक्ति जीवन को आर्टिस्ट की दृष्टि से देखता है। और तीसरा व्यक्ति कहता है कि ‘सिर्फ धोखा है; कोई कला भी नहीं है।’ तीसरा व्यक्ति जीवन को विज्ञान की दृष्टि से देखता है।
बस, ये तीन दृष्टियां हैं। एक सामान्य आदमी की दृष्टि है; एक वैज्ञानिक-बुद्धि की दृष्टि है; और एक कलात्मक दृष्टि है।
तीसरे ने कहाः ‘यह धोखा है।’ क्योंकि यह हो ही नहीं सकता है। यह विज्ञान के नियम के विपरीत है, इसमें कोई कला नहीं है--यह डिसेप्शन है। जैसा मदारी कबूतर निकालता है--टोप में से, तो इसमें कोई कला नहीं है, सिर्फ धोखा है। पहले कबूतर छिपाए गए होंगे। छिपाने का राज है। कोई कबूतर पैदा नहीं हो रहे हैं। कैसे छिपाया, यह बात अलग है। लेकिन धोखा है। इसकी कोई कुंजी नहीं है।
निपटारा हो गया। इतना महान चमत्कार घटा कि मिट्टी के पक्षी आकाश में उड़ गए; बूढ़ों ने निपटारा कर दिया।
मैं छोटा था, तो मेरे पिता के पिता अक्सर अगर मुझे ध्यान करते पकड़ लेते, तो कहतेः ‘बंद करो यह धोखा। सोना चाहते हो! ध्यान की तरकीब निकाली है!’ वे कभी मान नहीं सके कि ध्यान किया जा सकता है। वे समझते कि मैं सो रहा हूं--आंख बंद किए। और अपनी नींद को ध्यान का नाम देता हूं।
वे अनुभवी थे। जीवन को उन्होंने जाना था। और जीवन जानकर उन्होंने निष्कर्ष निकाला था कि ध्यान वगैरह कुछ होता नहीं है।
बूढ़ा मन सभी उत्तर जानता है; तुम उसे चौंका नहीं सकते। तुम मुरदे को भी जिला दो, तुम मिट्टी के पक्षियों को उड़ा दो, तो भी तुम उसे हिला नहीं सकते। वह बिल्कुल मर चुका है। उसके भीतर चौंकने वाली जीवंत ऊर्जा ही नहीं बची है।
निपटारा हो गया। फिर दूसरे दिन... एक दिन यही लड़का अपने बाप जोसेफ के कारखाने में बैठा था--यही जीसस अपने बढ़ई के कारखाने में बैठा था। लकड़ी का एक तख्ता थोड़ा छोटा पड़ गया, तो उसने उसे तानकर लम्बा कर दिया। यह बात भी लोगों ने सुनी, तब कुछ ने कहाः ‘यह चमत्कार है। इसलिए यह लड़का संत होगा।’ और कुछ दूसरों ने कहाः ‘इस पर हमें विश्वास ही नहीं आता है। दुबारा करके दिखाओ।’ और तीसरा दल बोलाः ‘यह सच हो नहीं सकता है। इस बात को किताब से बाहर रख लो।’ यह बात कहीं लिखी न जाए कि इस तरह की घटना घटी।
बाप के कारखाने में... जीसस बढ़ई के बेटे हैं... । गांव में खबर आई कि तख्ता छोटा पड़ गया; इसने तानकर बड़ा कर दिया। भरोसे का नहीं है। कैसे तुम लकड़ी के तख्ते को तानकर बड़ा करोगे! लकड़ी के तख्ते किसी की मानते नहीं।
जीवन के नियम अंधे हैं और निरपवाद हैं। उनमें कहीं कोई अपवाद नहीं होता, ऐसी हमारी मान्यता है। लेकिन यह सच नहीं है। और यह सच नहीं है मान्यता, इसीकी खबर देने को ये छोटी कहानियां हैं।
जीवन भी अपवाद कर रहा है। जीवन भी अपने नियम कभी-कभी छोड़ता है। प्रकृति भी कभी-कभी रास्ते से उतर कर चलती है। बुद्ध या जीसस या महावीर जैसा व्यक्ति जब घटित होता है, तो प्रकृति भी विनम्र हो जाती है। और कभी-कभी नियम को छोड़ देती है।
ऐसा नहीं है कि ऐसा व्यक्ति--जीसस जैसा व्यक्ति नियम को छुड़वाना चाहता है। उसे नियम का ख्याल नहीं है। वह इतना सरल और सीधा है कि जैसे नियम का उसे पता ही नहीं है। उसकी सरलता में ही कभी-कभी नियम टूट जाते हैं। उसके इस भरोसे में ही कभी-कभी नियम टूट जाते हैं।
जीसस का साथी, पुराना मित्र, लेजारस मर गया। जीसस गए और कहाः ‘लेजारस उठ!’ कहते हैं, लेजोरस उठ आया। या तो हम कह दें कि बात कोरी कल्पना है, कथा है, झूठ है; कोई धोखा है, कि लेजारस बना हुआ लेटा रहा हो, गांव में खबर कर दी हो कि मर गया। यह तरकीब है। वह लेटा रहा--बना हुआ। और जब जीसस ने आकर आवाज दी, तो वह उठ कर बैठ गया। लेजारस और जीसस की साझेदारी है।
बात हल हो जाती है, हम चमत्कार से बच जाते हैं; चौंकने से रुक जाते हैं! लेकिन जो लोग गहरा सोचते हैं, वे कहते हैंः ‘यह संभव है।’ क्योंकि पूरा जीवन मृत्यु से तो अपरिचित है। जब लेजारस मरता है, तब भी मरता तो कोई भी नहीं। केवल चेतना इस देह को छोड़ती है। लेकिन जो इस मकान को छोड़ कर गया, वह वापस मकान में क्यों नहीं बुलाया जा सकता है? अगर कोई हृदयपूर्वक आवाज दे, तो चेतना वापस लौट सकती है--अगर यह सच है कि शरीर केवल घर है तो। तुम बाहर चले गए, और तुम्हारी पत्नी ने भीतर से आवाज दी कि सुनो! तुम घर में वापस लौट आए।
सारी पृथ्वी पर ऐसी कथाएं हैं। कि सावित्री ने पीछा किया यमदूतों का और अपने मृत पति सत्यवान को वापस ले आई। कि जीसस ने आवाज दी, ‘लेजारस उठ।’ लेजारस उठ आया। जैसे कि घर के बिल्कुल बाहर ही निकला था; अभी द्वार पर ही खड़ा था; अभी आवाज सुनी जा सकती है। लेकिन आवाज हृदय की होनी चाहिए। क्योंकि बुद्धि तो बंद हो जाती है--जैसे ही कोई शरीर को छोड़ता है। तो अगर तुम बुद्धि से कहो, तो नहीं सुना जा सकेगा। क्योंकि वे संबंध तो छूट गए। लेकिन हृदय तो साथ जाता है। हृदय शरीर का अंग नहीं है। इसलिए वैज्ञानिक हृदय को खोज ही नहीं पाते। वे कहते हैंः ‘लंग्ज हैं, हार्ट जैसी कोई चीज नहीं है। फुफ्फुस--फेफड़े हैं; हृदय कहां है?’ हृदय आत्मा का हिस्सा है। जब तुम इस घर को भी छोड़ते हो, तब भी तुम्हारा हृदय तो होता ही है। धड़कन शरीर का हिस्सा है; हृदय बड़ी अलग बात है। वह तुम्हारी भाव-दशा है।
जीसस ने जब कहा कि ‘लेजारस उठ’, तो यह हृदय से कही बात थी और हृदय उसे सुन लेगा। इस बात की पूरी संभावना है कि जो बाहर चला गया है, वह भीतर लौट आए। जीसस जैसा व्यक्ति बुलाए और वापस न लौटना हो, यह असंभव है। मुरदा उठ सकता है।
क्या लकड़ी का टुकड़ा भी तानकर बड़ा किया जा सकता है? हमारी तकलीफ यह है कि हमारे लिए विज्ञान के नियम सब कुछ हैं। और विज्ञान के अतिरिक्त भी गहरे नियमों का संसार है, वह हमारे लिए कुछ भी नहीं है।
रूस में एक औरत अभी जिंदा है, जो आवाज देकर वस्तुओं को बुला लेती है। जब पुकारती है, तो दूर रखा हुआ गमला खिंच कर पास आने लगता है। इसके बहुत परीक्षण किए गए हैं। और हर बार वह सफल हुई है। और सब तरह की वैज्ञानिक जांच-पड़ताल की गई, क्योंकि रूस न तो किसी ईश्वर को मानता है और न किसी आत्मा को। लेकिन यह स्त्री सभी वैज्ञानिक परीक्षणों से सही सिद्ध निकली है। कोई धोखा नहीं है। तब एक ही उपाय है कि किसी गहरे नियम का उपयोग हो रहा है। क्योंकि पौधा भी जीवंत है। वह भी सुन सकता है। वह खींचा जा सकता है। वह भी पुकारा जा सकता है।
और अभी पौधों पर बड़ी खोज चल रही है और उनसे पाया जा रहा है कि पौधों के पास तुमसे भी ज्यादा सरल हृदय है; तुमसे भी ज्यादा गहन हृदय है। और उनके हृदय को भी आंदोलित किया जा सकता है।
रविशंकर के सितार के साथ पौधों का कोई प्रयोग केनाडा में किया गया। कुछ बीज बोए गए--कुछ गमलों में, जिनके पास रविशंकर सितार बजाता। कुछ बीज दूर बोए गए--बगीचे में, ठीक उसी तरह के गमलों में। वही पानी, वही धूप, वही खाद। लेकिन उनके पास कोई सितार न बजता। कुछ गमले रविशंकर के बाएं रखे गए और कुछ गमले दाएं, कुछ दूर रखे गए। जब पौधे आने शुरू हुए तो बड़ी हैरानी हुई कि जिन बीजों के पास सितार बजता था, उन बीज से जो पौधे पैदा हुए, वे सब सितार की तरफ झुके हुए पैदा हुए। जैसे कि तुम बहरे हो और सुनने के लिए कान को पास बढ़ा दो! सब पौधे सितार की तरफ झुके थे। जो बाएं रखे थे, वे दाएं झुके थे और जो दाएं रखे थे, वे बाएं झुके थे। लेकिन जो पौधे दूर थे, जिनको सितार सुनाई नहीं पड़ रहा था, वे सीधे बढ़े।
पौधे भी सुनते हैं।
धर्म की प्रतीति यह है कि पूरा जगत जीवंत ऊर्जा है। यहां मृत कुछ है ही नहीं। जो तुम्हें मृत दिखाई पड़ता है, वह भी तुम्हारा देखना है, क्योंकि तुम जीवंत को पहचान नहीं पाते, पकड़ नहीं पाते।
यह हो सकता है कि लकड़ी का टुकड़ा अभी-अभी जंगल से लाया गया हो और अभी जीवन की धारा उसमें परिपूर्ण बह रही हो--वह खींच कर बड़ा कर दिया गया है। इसमें कुछ अड़चन नहीं है। इस बात की संभावना है।
और हजारों तरह के चमत्कार रोज पृथ्वी पर घट रहे हैं--इस तरह के चमत्कार भी। लेकिन जो इस तरह के चमत्कार के साथ लोगों की प्रतिक्रिया है, वही उनके साथ भी हुई।
कुछ बूढ़ों ने कहा, ‘यह चमत्कार है। यह लड़का संत होगा।’ उन्होंने भी व्याख्या कर दी। मामला हल हो गया। वे भी चौंके नहीं। यह बड़े मजे की बात है। उन्होंने कहा, ‘यह मिरेकल है। यह लड़का संत होगा।’ बात खत्म हो गई। अध्याय बंद हो गया। इससे भी कोई चौंके नहीं वे। उन्होंने शास्त्रों में पढ़ा है कि इस तरह के चमत्कार होते हैं। और जो इस तरह के चमत्कार करता है, वह संत हो जाता है। बात खत्म हो गई!
बूढ़ा मन चमत्कार से भी नहीं चौंकता है। वह उसमें भी व्याख्या निकाल लेता है। वह कहता हैः ‘यह लड़का संत होगा।’ उत्तर उसके पास तैयार है। वह किसी चीज से भी डांवाडोल नहीं होता है। फिर ये बूढ़े अपने काम पर चले गए होंगे। फिर दुबारा इन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि क्या हुआ। तुम भी बहुत बार जीवन में वक्तव्य देते हो, जिनका तुम्हें पता नहीं है। तुम उत्तर देते हो, जो मृत हैं। और तुम समझते हो कि बात समाप्त हो गई।
ठीक जिज्ञासु व्यक्ति प्रश्न के साथ जीना पसंद करेगा--कोरा, खाली उत्तर देना पसंद नहीं करेगा। क्योंकि प्रश्न शायद कभी द्वार को खोल भी दे; उत्तर तो द्वार को बंद कर लेता है।
ये बूढ़े शायद जीसस को देखने भी न गए हों। उन्हें पता ही है। और जिन्हें पता है, वे क्यों देखने जाएं। उन्हें मालूम है कि लड़का संत होगा। बात खत्म हो गई। एक नियम--उन्होंने चमत्कार को भी एक नियम बना दिया।
जो जानता है, उसके लिए सारे नियम चमत्कार हैं। और जो नहीं जानता है, उसके लिए चमत्कार भी नियम बन जाते हैं। नियम मरी हुई बात है।
कुछ दूसरों ने कहाः ‘इस पर भी हमें विश्वास नहीं आता; दुबारा करके दिखाओ।’ यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है। क्योंकि जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है--चमत्कारपूर्ण है, वह दुबारा नहीं किया जा सकता। दुबारा तो वही किया जा सकता है, जो रुटीन है, क्रमबद्ध है। दुबारा हम उसी को दुहरा सकते हैं, पुनरुक्ति उसी की हो सकती है, जो नियम के--सामान्य नियम के अनुसार है। चमत्कार कभी-कभी घटते हैं--नियम के बाहर घटते हैं। और हम सब कहते हैं। ‘दुबारा करके दिखाओ।’
बहुत बार ऐसी घटनाएं पश्चिम में घटती हैं, पूरब में घटती हैं। वैज्ञानिकों को खबर मिलती हैः वे कहते हैंः ‘दुबारा करके दिखाओ, तो ही हम मानेंगे अन्यथा हम कैसे मानेंगे!’ उनका कहना भी ठीक है। क्योंकि विज्ञान बार-बार परीक्षण करे, तभी नियम को मानता है। लेकिन दुबारा चमत्कार को घटाया नहीं जा सकता। चमत्कार का अर्थ ही यह है कि तुम्हें पता ही न था, तब वह घटा।
समझो कि जीसस के पिता ने कहा कि ‘यह लकड़ी का तख्ता छोटा है। बड़े की जरूरत है। अब क्या होगा?’ जीसस वहां बैठा था चुपचाप, जैसाकि ध्यानमग्न जीसस रहा होगा। वह उठा, बिना कुछ सोचे, बिना कुछ जाने, बिना कुछ ख्याल किए; उसने लकड़ी के तख्ते को ताना। वह तन गया और बड़ा हो गया।
अगर इसी लड़के को तुम दुबारा कहो कि तानो, तो दुबारा वही स्थिति तो आ ही नहीं सकती, जो पहले थी। क्योंकि दुबारा यह जानकर करेगा। दुबारा इसे पता है कि ऐसा हो सकता है, यह निर्दोष न रहा। अब यह चालाक है। अब गणित साफ है। और अगर घटना निर्दोषता के कारण घटी थी, तो अब नहीं घट सकती है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैंः ‘पहले दिन जो ध्यान में रस आया, वह दूसरे दिन नहीं आया।’ अनेक बार यह होता है। पहली दफा जो ध्यान में रस आता है, पहली दफा जो रस आया, वह दूसरे दिन नहीं आया। वे कहते हैंः ‘क्या करें?’ दूसरे दिन तुम चालाक हो गए; पहले दिन तुम सरल थे। पहले दिन तुम्हें कुछ पता न था कि क्या होगा। अब तुम्हें पता है। पहले दिन तुम कोरे कागज थे। तुम अनजाने में जा रहे थे। नक्शा हाथ में न था। कोई अपेक्षा न थी, तुम सहज किए थे। अचानक घटना घटी थी। लेकिन आज तुम पहले से नियम मानकर चल रहे हो। आज तुम पहले से अपेक्षा किए हो, आज तुम चाहते हो कि घटना घटे। यह नया तत्व है। कल अपेक्षा न थी, आज अपेक्षा है। तुम्हारा चित्त कल जैसा नहीं है।
अगर कोई जीसस को कहे कि दुबारा करके दिखाओ, यह कहने के कारण ही घटना दुबारा नहीं घटेगी।
तुम्हारे जीवन में भी कई बार घटना घटती है, जो चमत्कार जैसी है। लेकिन कोई कहेः ‘दुबारा करके दिखाओ, चूक जाओगे; वह नहीं घटेगी। इसलिए जानने वाले कहते हैं कि ‘पहले प्रेम’ जैसा प्रेम कभी नहीं घटता है। पहले प्रेम की बात ही और है; रस ही और है। क्योंकि वह अनुभव-शून्य है। तुम्हें पता ही नहीं कि क्या हो रहा है। कुछ हो रहा है जो तुमसे बड़ा है। दूसरा प्रेम वैसा नहीं हो सकता। अब तुम्हें पता है। अब तुम कदम सम्हाल कर रख रहे हो। अब तुम नियंत्रण में हो। तीसरा प्रेम तो बिल्कुल साधारण हो जाएगा। चौथा प्रेम तो काम-काज की दुनिया का हिस्सा होगा। इसलिए दुनिया के सारे पुराने धर्म तलाक के विरोध में हैं। क्योंकि वे कहते हैं कि विवाह तो एक ही बार घट सकता है। वह ‘घटना’ है। प्रेम का जो अंकुरण है, वह एक ही बार घट सकता है। उसे तुमने दुबारा घटाया, तो बस, बासा हो जाएगा। वह दुबारा घटता नहीं है।
जिस चीज को भी तुम दुबारा चाहते हो, तुम उसे सामान्य वस्तुओं के नियम के भीतर ला रहे हो। चमत्कार नियम के भीतर नहीं आता। तब बड़ी कठिनाई है, क्योंकि बहुत बार ऐसा हुआ है।
कुछ वर्षों पहले सारे मुल्क में योगी राव का नाम था--जोर से--कि वह पानी पर चलेगा। घटना बड़ी सोचने जैसी है। क्योंकि महीनों उसने तैयारी की, वर्षों उसने तैयारी की। और एकांत में वह पानी पर चल सका था, इसलिए दावा किया। अकेले में वह पानी पर चल सका था इसलिए दावा किया। क्योंकि इस तरह के दावे... ! आखिर तुम फंस ही जाओगे। इस तरह का दावा करने में आखिर असफलता हाथ लगने ही वाली है।
सारे मुल्क में प्रचार हुआ। हजारों लोग देखने इकट्ठे हुए। और यह आदमी आश्वस्त था। या तो पागल हो--इस तरह का आदमी। और या तो आश्वस्त हो। पागल तो यह आदमी नहीं था। पागलपन का कोई लक्षण न था। सारी तैयारियां हुईं। पानी का तालाब बनाया गया, खर्च हुआ। और इस आदमी ने कदम उठाया और यह डूब गया!
क्या घटना क्या हुई? सभी ने समझा कि यह धोखेबाज था। लेकिन थोड़ा तुम भी सोचो कि धोखा भी कोई देगा, तो इस तरह का धोखा देने जाएगा, जिसमें कि फंसना निश्चित है! तुम सोचो, खुद अगर तुम धोखा देने जा रहे, तो तुम पानी पर चलने की कोशिश करोगे? यह हो सकता था कि वह आखिर तक धोखा देता और ऐन वक्त पर भाग गया होता। लेकिन यह आदमी भागा भी नहीं।
बड़े-बड़े कैमरे लगाए गए थे कि चित्र लिया जाए, क्योंकि अनोखी घटना होगी; ऐतिहासिक घटना होगी। हजारों लोग देखने को इकट्ठे थे। सारी दुनिया का प्रेस मौजूद था। फिल्में ली जाने वाली थीं। सब व्यवस्था थी। यह आदमी एक क्षण पहले भाग गया होता, तो हम समझते कि धोखा था। लेकिन यह आदमी भागा भी नहीं। यह आया। इसने आकर यह कह दिया होता कि ‘नहीं, यह मुझसे नहीं हो सकेगा। गलत दावा किया। मैं माफी मांग लेता हूं।’ तो भी समझ में आता। यह आदमी चला, अपनी तरफ से यह आश्वस्त था। यह किसी अनुभव पर निर्भर था--इसका आश्वासन--कि वह चल सकता है। लेकिन पानी में डूब गया। नहीं चल पाया।
किसी ने भी इस घटना का ठीक से अध्ययन नहीं किया कि मामला क्या है! मामला इतना ही है कि कुछ घटनाएं हैं, जो पुनरुक्त नहीं कि जा सकतीं, क्योंकि तुम्हारे चित्त की दशा बदल जाती है।
यह आदमी किसी निर्दोष क्षण में पानी पर चल सका है। बस, भूल वहीं हो गई है कि इसने सोचा कि ‘पानी पर चल सका हूं--एकांत में, अकेले में, निर्जन में, तो सबके सामने भी चल लूंगा।’ पर सबके सामने स्थिति बदल गई। अब यह होश से भरा हुआ है। अब यह चलने के लिए आयोजन कर रहा है; नियंत्रण में है। चमत्कार नियंत्रण में नहीं होते। इसलिए जिन-जिन लोगों ने चमत्कार को पुनरुक्त करने की कोशिश की है, वे सभी असफल सिद्ध होते हैं। और जब वे असफल सिद्ध होते हैं, तो लोग कहते हैं कि यह सब धोखा-धड़ी है। क्योंकि प्रमाण कहां है!
चमत्कार का अर्थ है कि वह पुनरुक्त नहीं किया जा सकता। कोई उपाय ही नहीं है--उसे पुनरुक्त करने का। क्योंकि चित्त की जिस दशा में वह घटित होता है, वही दशा पुनरुक्त करते समय नहीं रह जाती। तो इसका अर्थ हुआ कि जो चमत्कार पुनरुक्त किए जाते हैं, वे चमत्कार नहीं है। तो सत्य साईं बाबा रोज हाथ से राख निकाल रहे हैं वह चमत्कार नहीं हैं। क्योंकि चमत्कार पुनरुक्त होते ही नहीं हैं। अगर रोज हाथ से ताबीज निकाला जा रहा है, तो वह चमत्कार नहीं है। अगर स्विटजरलैंड में बनी हुई घड़ियां रोज हाथ से निकाली जा रही हों, तो तुम थोड़ी ही तलाश करो, सूटकेसों में उन्हें तुम पा लोगे। वे चमत्कार नहीं हैं।
चमत्कार को दुहराया नहीं जा सकता है। चमत्कार तो जैसे एक बार घटता है। कभी दुहर सकता है, लेकिन ‘दुहाराया’ नहीं जा सकता है। इस फर्क को समझ लेना।
कभी दुहर सकता है--कभी फिर वैसी दशा में। लेकिन तुम उसके मालिक नहीं हो सकते। जिसके तुम मालिक हो सकते हो, वह विज्ञान है। जिसके तुम मालिक नहीं हो सकते हो, वह धर्म है।
कुछ बूढ़ों ने कहाः दुबारा करके दिखाओ, तो हम मानें।’ जीसस ने दुबारा करके नहीं दिखाया। दुबारा करके दिखाया नहीं जा सकता। जो हो गया, हो गया। कभी फिर होना होगा--हो जाएगा। तुम उसके नियंता नहीं हो। तुम सिर्फ क्षेत्र हो, जहां वह घटता है। तुम मालिक नहीं हो, तुम उसे घटा नहीं सकते।
और तीसरा दल बोलाः ‘यह सच हो ही नहीं सकता।’ यह बात ही गलत है, झूठ है। ऐसा हो ही कैसे सकता है! क्योंकि अनुभव में नहीं है। और जो हमारे अनुभव में नहीं है, वह हो कैसे सकता है?
हर व्यक्ति अपने अनुभव को सत्य की सीमा बना लेता है। तुम्हारा अनुभव कितना छोटा है! सत्य निश्चित ही तुम्हारे अनुभव से बड़ा है। सत्य बहुत बड़ा है। तुम कितना अनुभव करोगे? फिर अनुभव के बाहर बहुत कुछ रह जाएगा। इसलिए जिसको थोड़ा भी होश है, वह कभी अपने अनुभव से सत्य को न तोलेगा। वह कहेगाः ‘मुझे ऐसा नहीं हुआ; लेकिन यह सच हो सकता है। क्योंकि सारा अनुभव मेरा नहीं है। अनंत अनुभव बाकी हैं। जिन रास्तों पर मैं कभी नहीं गया, जिन मार्गों से मैं कभी गुजरा नहीं, हो सकता है, उन रास्तों पर ऐसे फूल भी खिलते हों! और जिन रास्तों से मैं गुजरा हूं, उन पर ऐसे फूल न खिले हों।’
रास्ते अनंत हैं, फूल अनंत हैं। और अनुभव का कोई पारावार नहीं है। लेकिन हर व्यक्ति अपने अनुभव को सीमा बना लेता है। वह कहता हैः ‘जो मैं जानता हूं, अगर उसके अनुकूल घटता हो, तो घटा। अगर उससे भिन्न घटा हो, तो नहीं घटा। वह झूठ है।’ तुम सत्य हो जैसे! और तुम्हीं सत्य की परिभाषा हो! तुम जहां समाप्त होते हो, वहीं सत्य समाप्त हो जाता है? तो तुम जब नहीं थे, तब सत्य भी नहीं था। तुम्हारे अनुभव अगर मिट जाएं, तो सत्य भी मिट जाएगा। नहीं, सत्य इतना छोटा नहीं है।
लेकिन, तीसरे दल ने कहा, ‘यह सच नहीं हो सकता है। इसलिए ध्यान रखो, इस बात को किताब से अलग रखना।’
किताब में वही बात आनी चाहिए जो पुनरुक्त हो सकती है। किताब में वही बात आनी चाहिए, जो नियम के अनुसार हो। किताब में वही बात आनी चाहिए, जिसको प्रमाण और प्रयोग से सिद्ध किया जा सके। इसलिए बहुत सी घटनाएं घटती हैं रोज, और किताब के बाहर रह जाती हैं। और बड़ी कीमती घटनाएं किताब के बाहर रह जाती हैं। क्योंकि उनके लिए पुनरुक्त करने का कोई उपाय नहीं है। तुमने अपनी आंख से भी देखा हो, तो भी पुनरुक्त करने का कोई उपाय नहीं है। कितना ही छाती पीटो और चिल्लाओ कि यह मेरा अपना अनुभव है, मैंने देखा है, लेकिन दूसरे कहेंगेः ‘हम कैसे मान लें?’
रोज चमत्कार घटता है। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जिसके जीवन में एकाध नियम के बाहर की कोई घटना न घटी हो--क्योंकि जीवन बिल्कुल नियम से मुक्त और बाहर है। तुम कितने ही मुरदा हो जाओ, कभी न कभी जीवन को संध मिल जाती है। और नियम के बाहर कुछ घटता है।
कभी तुम बैठे हो अपने कमरे में, अचानक तुम्हें किसी अपने मित्र का ख्याल आता है, जिसे तुमने दस वर्षों से ख्याल नहीं किया है। और तुम आंख खोलते हो, और वह दरवाजे पर खड़ा है। तुम कहते होः ‘संयोग है।’ किताब के बाहर कर देते हो। तुम सोच भी नहीं सकते कि ‘इस मित्र को दस साल से नहीं सोचा था। आज अचानक इसका स्मरण आया। इसके स्मरण में और इसके दरवाजे पर मौजूद होने में कोई संबंध होना चाहिए।’ इसके आने के पहले उसकी टेलिग्रैफिक, टेलिपैथिक खबर तुम्हें मिल गई। लेकिन तुम कहते होः ‘संयोग है।’ तुम इसे नियम के बाहर कर देते हो।
ऐसा हुआ है। सिगमंड फ्रायड अपने कमरे में बैठा था। और उसका उन दिनों सबसे बड़ा शिष्य जुंग उसके सामने बैठा था। वह अपनी लाइब्ररी में बैठा था। फ्रायड वैज्ञानिक बुद्धि का आदमी था। और जुंग धार्मिक बुद्धि का आदमी था। दोनों में बड़े विरोध थे। फिर बाद में विरोध प्रकट हुए धीरे-धीरे। और इस दिन--इस घटना के दिन--विरोध की शुरुआत हुई। फ्रायड ने कहा कि ‘मैं कोई चमत्कार नहीं मानता हूं।’ चमत्कार की बात हो रही थी। मैं कोई अपवाद नहीं मानता। लेकिन जुंग ने कहा, ‘सुनो!’ और अचानक लाइब्रेरी की किताबों की अलमारी में जोर का धड़ाका हुआ। फ्रायड भी चौंक गए कि धड़ाका कैसे हुआ! जुंग ने कहा कि ‘ऐसा कई दफा हुआ है। जब भी कोई ऐसा धड़ाका होता है, तो मेरे पेट में बड़ा खिंचाव होता है। और जब भी खिंचाव होता है, तो मैं कह सकता हूं कि धड़ाका होगा--आस-पास कहीं न कहीं जोर का धड़ाका होगा।’
फ्रायड ने कहा, ‘दुहराओ तो समझूं, क्योंकि में कैसे... ? अब यह संयोग की बात हो सकती है कि तुम्हारे पेट में कुछ हो रहा था और तुमने बोल दिया और धड़ाका हो गया।’
फिर वे बातचीत में लग गए। दुहराने का तो कोई उपाय न था। अचानक आधा घंटे बाद जुंग ने फिर कहा कि ‘सुनो!’ फिर धड़ाका हुआ। उसने कहा कि ‘मुझे फिर वही खिंचाव पेट में मालूम पड़ा।’
जुंग ने अपने संस्मरण में लिखा है कि फ्रायड ने मुझे इस तरह देखा, जैसे मैं कोई भूत-प्रेत हूं। और उसी दिन से हमारे संबंध खराब हो गए।’ क्योंकि फ्रायड यह मान ही नहीं सकता। ‘यह किताब के भीतर... ।’ फ्रायड ने अपने संस्मरणों में इसे नहीं लिखा। यह घटना उसमें छोड़ दी। जुंग ने अपने मैमायर्स में, अपने संस्मरणों में लिखा है। लेकिन जुंग को लोग समझते हैं कि झक्की है। थोड़ा दिमाग इसका फिरा हुआ है। इसकी बातों का कोई भरोसा नहीं है। अब इस तरह की बातों का भरोसा भी क्या हो सकता है!
मेरे एक मित्र हैं, वे गांव के बाहर गए थे। रात दो बजे होटल में, जहां ठहरे थे, उन्होंने जोर की आवाज सुनी कि कोई दरवाजा खटखटा रहा है। और किसी ने जोर से कहाः ‘मुन्ना!’ तो वे बहुत हैरान हुए क्योंकि ‘मुन्ना’ उनके पिता ही सिर्फ उनसे कहते थे। उनकी उम्र काफी है, बड़े फोफेसर हैं, बड़े ख्यातिनाम लेखक हैं। तो और तो कोई मुन्ना उनको कहता नहीं, सिर्फ पिता ही कहते हैं। पिता की आवाज इतनी साफ मालूम पड़ी कि उन्होंने दरवाजा खोला, लेकिन बाहर कुछ नहीं है, सिवाय सन्नाती हवा के!
वर्षा की अंधेरी रात है, थोड़ी-थोड़ी बूंदें पड़ रही हैं। कोई नहीं है आस-पास। तो दरवाजा बंद करके समझा कि कोई ख्याल होगा मन का। या कोई आवाज होगी, मैंने भ्रांति समझी या कोई सपना होगा। और वे फिर सो जाते हैं।
आधे घंटे बाद फिर दरवाजे पर दस्तक और ‘मुन्ना’ की आवाज! अब आवाज इतनी साफ है कि उन्होंने फिर दरवाजा खोल कर सब तरफ देखा, लेकिन वहां कोई भी नहीं था, तो उन्होंने नीचे फोन किया। मैनेजर को कहा कि ‘बात क्या है, मुझे बार-बार आवाज सुनाई पड़ती है।’ मैंनेजर ने कहा, यहां तो कोई भी नहीं है। आवाज होने का कोई कारण नहीं है।’ साढ़े चार बजे रात फोन आया कि पिता ढाई बजे चल बसे। और ठीक ढाई बजे उन्होंने पहली आवाज सुनी थी।
जब वे मुझे यह घटना बता रहे थे, तो कहने लगे कि ‘किसी से आप कहना मत। क्योंकि लोग मुझे पागल समझेंगे। आपसे कह रहा हूं, क्योंकि आपसे हृदय की बातें कहीं जा सकती हैं। मैं भी इसमें भरोसा नहीं करता। कोई न कोई भांति है।’
अब इसको पुनरुक्त तो किया नहीं जा सकता। अब इसको दुहराने का क्या उपाय है? प्रयोगशाला में इसको कैसे सिद्ध करिएगा? लेकिन यह बहुत बार हुआ है; पृथ्वी पर अनेक बार रोज हो रहा है। कोई निकट का प्रियजन मरता है और तुम्हारे द्वार पर दस्तक लगती है। आवाज भी सुनाई पड़ती है। कभी-कभी उसकी प्रतिमा भी सामने प्रकट हो जाती है। लेकिन हम इसे किताब के बाहर रखते हैं, क्योंकि इस जीवन के हिसाब से जोड़ नहीं है इसका कोई। फिर इसको दुहराने का उपाय नहीं है। और अगर तुम किसी को कहो, तो वह कहेगा कि ‘तुम पागल हो।’ तुमसे ही कोई यह कहेगा, तो तुम कहोगे कि ‘तुम पागल हो। तुम्हें कोई भ्रांति हो गई है।’
तो तीसरे वर्ग ने कहा, ‘इसे किताब से बाहर रखना।’ जीवन बंधे-बंधाए नियमों का नाम नहीं है। बंधे-बंधाए नियम तो हमने खोज लिए हैं--जीवन चलाने को। जीवन उनसे बहुत बड़ा है। जैसे कोई बहुत घना जंगल हो, और हमने छोटी सी जमीन साफ कर ली, वृक्ष काट दिए; वहां हमने अपना घर बना लिया है। लेकिन थोड़ी ही दूर हमारे घर के पार, घना जंगल है। इस छोटी सी जमीन को हमने साफ कर लिया है। ऐसे ही हमने जीवन के छोटे से हिस्से को साफ कर लिया है। जिसे हम विज्ञान कहते हैं। पार विराट जंगल है। उस जंगल के अपने रहस्य हैं, उस जंगल की अपनी दौड़ती हुई चमत्कारिक छायाएं हैं, अदभुत सूत्र हैं। कभी-कभी तुम उस जंगल में, अपने घर को छोड़ कर, भटक जाते हो, तो तुम जल्दी ही वापस लौट आते हो, क्योंकि वहां डर लगता है। कभी-कभी वह जंगल भी अपनी खबरें तुम्हारे घर तक ले आता है। लेकिन तब तुम द्वार बंद कर लेते हो और तुम उन्हें अनसुनी कर देते हो, उन्हें किताब के बाहर रखते हो।
और यह जंगल अगर बाहर ही होता, तो आसान था। तुम्हारे भीतर भी ऐसा ही है। तुमने अपनी चेतना के छोटे से हिस्से को साथ-सुथरा कर लिया है, जो हमारा चेतन मन है, कांशस माइंड है। और उसके ही नीचे विराट अचेतन का जंगल है। उस अचेतन से कई दफा चीजें तुम्हारे चेतन में आती हैं। तुम उन्हें धक्का देकर पीछे कर देते हो। क्योंकि बाजार, गणित और तर्क से उनका मेल नहीं होता है। लेकिन चमत्कार तुम्हें चारों तरफ से घिरे हुए हैं।
पूरा जीवन चमत्कार है।
और तुम इन बूढ़ों की तरह व्यवहार मत करना। तुम चमत्कार के द्वार बंद मत करना। तुम मत कहना कि ‘दुबारा करो’ तो हम मानेंगे। तुम सुनी को अनसुनी मत करना। तुम अपने हृदय की किताब में उसको भी अनुबद्ध कर लेना, जो एक ही बार घटता है और दुहराया नहीं जा सकता। और तुम यह मत कहना कि ‘जो मैं जानता हूं, वही सीमा है--सत्य की।’ तुम जानते ही क्या हो? जानने को अंनत सदा शेष है।
और तुम कोई व्याख्या मत खोजना; तुम यह मत कहना कि ‘यह चमत्कार है; यह लड़का संत होगा।’ तुम सस्ती व्याख्याओं में मत बंद हो जाना। तुम जीवन की जिज्ञासा को खुली और उन्मुक्त रखना। और जो व्यक्ति अपने जीवन की जिज्ञासा को खुली और उन्मुक्त रख पाता है, आज नहीं कल, परमात्मा उसके द्वार पर दस्तक देता है।

आज इतना ही।

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