और फूलों की बरसात हुई-सातवां
मठ में लगी हुई आग
जिस समय तोकाई एक विशिष्ट मठ में
एक अभ्यागत की भांति रुका हुआ था।
तो रसोईघर में नीचे फर्श पर,
एक आग लगना शुरू हो गई।
एक भिक्षु ने तेज़ी से तोकाई के-
शयनकक्ष में प्रवेश करते हुए
और चिल्लाते हुए कहा :
‘सद्गुरु! एक आग, आग लग गई है।’
थोड़ा-सा उठते हुए तोकाई ने पूछा : ‘ओह! कहां?’
‘कहां’ भिक्षु ने चिल्लाते हुए कहा :
‘वह रसोई घर के फर्श पर नीचे लगी हुई है,
आप तुरन्त उठ जाइये।’
उनींदी स्थित में डूबे हुए सद्गुरु ने कहा :
‘बस रसोई घर में? ठीक है, मुझे बताना
कि आगे क्या हुआ, और जब वह गलियारे तक
पहुंचती है तब लौटकर आना और मुझे बताना।’
और तोकाई शीघ्र ही फिर से खर्राटे लेने लगा।
मन की पूरी अज्ञानता वर्तमान में न बने रहने में ही है। मन हमेशा भविष्य में अथवा अतीत में गतिशील हो रहा है। मन कभी भी अभी और यहीं में नहीं होता है। वह हो भी नहीं सकता। मन का वास्तविक स्वभाव ही ऐसा है कि वह वर्तमान में रह ही नहीं सकता, क्योंकि मन को सोचना है, और वर्तमान क्षण में वहां सोचने की कोई भी संभावना नहीं है। तुम्हें देखना है, तुम्हें सुनना है, तुम्हें उपस्थित बने रहना है, लेकिन तुम सोच नहीं सकते।
वर्तमान क्षण इतना अधिक तंग है कि वहां सोचने के बारे में कोई भी अंतराल नहीं है। तुम हो सकते हो, लेकिन विचार नहीं हो सकते हैं। तुम कैसे सोच सकते हो? यदि तुम सोचते हो तो इसका अर्थ है कि पहले ही से अतीत है और वह क्षण चला गया है। अथवा तुम सोच सकते हो, यदि वह अभी तक नहीं आया है, तो वह भविष्य में है।
सोचने के लिए स्थान की ज़रूरत है, क्योंकि सोचना एक टहलने के समान है- वह मन का टहलना अथवा एक यात्रा है। स्थान की ज़रूरत है। तुम भविष्य में चहलकदमी कर सकते हो, तुम अतीत के गलियारे में घूम सकते हो, लेकिन वर्तमान में तुम कैसे चलफिर सकते हो? वर्तमान इतना अधिक निकट है, वास्तव में वह निकट ही नहीं है, तुम ही वर्तमान हो। अतीत और भविष्य तो समय के भाग हैं, वर्तमान तुम हो और यह समय का भाग नहीं है। यह एक काल नहीं है। यह बिल्कुल भी समय का भाग नहीं है। यह समय का भाग है ही नहीं। वर्तमान तुम हो, अतीत और भविष्य तुम्हारे से बाहर है।
मन वर्तमान में नहीं रह सकता। यदि तुम यहां हो सकते हो, पूर्ण रूप से उपस्थित हो सकते हो तो मन विलुप्त हो जाएगा। मन कामना कर सकता है, वह सपने देख सकता है, वह एक हज़ार एक विचारों के स्वप्न देख सकता है। वह संसार के वास्तविक छोर तक गतिशील हो सकता है, वह संसार के बिल्कुल प्रारम्भ तक जा सकता है, लेकिन वह यहीं और अभी में नहीं रह सकता- वह उसके लिए असंभव है। पूरा अज्ञान इसे न जानने में ही रहता है। और तब तुम अतीत के बारे में फिक्र करते हो, जो अब और नहीं रह गया है- वह पूर्ण रूप से मूर्खतापूर्ण है। तुम अतीत के बारे में कोई कार्य नहीं कर सकते हो। तुम अतीत के बारे में जो अब और है ही नहीं, कोई भी कार्य कैसे कर सकते हो? कुछ भी नहीं किया जा सकता, वह पहले ही जा चुका है, लेकिन तुम उसके बारे में फिक्र करते हो और तुम उसके बारे में चिंता करते हुए स्वयं अपने को व्यर्थ नष्ट कर रहे हो।
अथवा तुम भविष्य के सपनों और कामनाओं के बारे में सोचते हो। क्या तुमने कभी निरीक्षण किया है कि भविष्य कभी भी नहीं आता है। वह आ भी नहीं सकता। जो कुछ भी आता है, हमेशा वर्तमान ही होता है और वर्तमान तुम्हारी कामनाओं और तुम्हारे सपनों से पूर्णरूप से भिन्न होता है। यही कारण है कि तुम जिसके बारे में कामनाएं करते हो सपने देखते हो और जिसके बारे में फिक्र और कल्पना करते हुए योजना बनाते हो, वे कभी भी पूरे नहीं होते हैं। लेकिन वे तुम्हें व्यर्थ बर्बाद करते हैं। तुम्हारा ह्नास होता चला जाता है। तुम मरते चलते जाते हो। तुम्हारी ऊर्जाएं एक मरुस्थल में भटकती चली जाती हैं और वे किसी लक्ष्य पर न पहुंचते हुए तुम्हें पूरी तरह से बर्बाद किये चली जाती हैं। और तब मृत्यु तुम्हारे द्वार पर दस्तक देती है। और स्मरण रहे : मृत्यु कभी अतीत में द्वार नहीं खटखटाती और मृत्यु कभी भविष्य में द्वार नहीं खटखटाती मृत्यु वर्तमान में ही द्वार पर दस्तक देती है।
तुम मृत्यु से यह नहीं कह सकते- ‘कल आना’ मृत्यु वर्तमान में ही दस्तक देती है। जीवन भी वर्तमान में द्वार खटखटाता है। परमात्मा भी वर्तमान में ही दस्तक देता है। प्रत्येक चीज जो हमेशा दस्तक देती है, वर्तमान में ही देती है और प्रत्येक वह चीज जो हमेशा नहीं है, अतीत अथवा भविष्य का भाग है।
तुम्हारा मन एक नकली सत्ता है क्योंकि वह कभी भी वर्तमान में दस्तक नहीं देता। सत्यता का इसी को मापदण्ड बनने दो! जो कुछ भी है, हमेशा यहीं और अभी है, जो कुछ भी नहीं है, वह कभी भी वर्तमान का भाग नहीं है। उस सभी को छोड़ दो जो अभी में कभी दस्तक नहीं देता है। और यदि तुम अभी में गतिशील हो, तो एक नया आयाम खुलता है- शाश्वतता का आयाम।
अतीत और भविष्य एक समतल रेखा में गतिशील होते हैं। ‘अ’ ‘ब’ की ओर जाता है, ‘ब’ ‘स’ की ओर जाता है, और एक ही रेखा में उसी तरह ‘स’ ‘द’ की ओर जाता है। शाश्वतता लम्बवत गतिशील होती है। ‘अ’, ‘अ’ के अंदर ही गहराई में जाता है, वह ‘अ’ के अंदर ऊंचाई की ओर भी जाता है और वह ‘ब’ के अंदर ही गहराई में जाता है, वह ‘अ’ के अंदर ऊंचाई की ओर भी जाता है और वह ‘ब’ की ओर नहीं जाता है। ‘अ’, गहराई में और ऊंचाई में दोनों तरह से गतिशील होता है। वह लम्बवत है। वर्तमान क्षण लम्बवत गतिशील होता है और समय समतल और रेखावत गतिशील होता है। समय और वर्तमान कभी नहीं मिलते। और तुम वर्तमान हो : तुम्हारा पूरा अस्तित्व लम्बवत गतिशील होता है। गहराई खुली हुई है, ऊंचाई खुली हुई है, लेकिन तुम मन के साथ समतल और रेखावत चल रहे हो। इसी तरह से तुम परमात्मा से चूक जाते हो।
लोग मेरे पास आते हैं और वे पूछते हैं कि परमात्मा से कैसे मिलन हो, कैसे उसके दर्शन हों ओर कैसे उसका अनुभव हो? अभिप्राय यह नहीं है, अभिप्राय यह है कि तुम कैसे उससे चूक रहे हो?- क्योंकि वह अभी और यहीं है और तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे रहा है। वह अन्यथा हो ही नहीं सकता है। यदि वह सत्य है तो उसे यहीं और अभी होना चाहिए। केवल असत्य ही यहीं और अभी में नहीं होता है। वह पहले ही से तुम्हारे द्वार पर है- लेकिन तुम ही वहां नहीं हो। तुम घर पर कभी रहते ही नहीं हो। तुम लाखों शब्दों में भटकते चले जाते हो, लेकिन तुम ‘कभी भी घर पर नहीं होते हो। वहां तुम कभी पाये ही नहीं जाते और परमात्मा वहां तुमसे मिलने के लिए आता है, सत्य वहां तुम्हें चारों ओर से घेर लेता है लेकिन तुम्हें वहां कभी नहीं पाता है। असली प्रश्न यह नहीं है कि तुम्हें कैसे परमात्मा से मिलना चाहिए, वास्तविक प्रश्न यह है कि तुम्हें कैसे घर पर होना चाहिए, जिससे जन परमात्मा दस्तक देता है, वह वहां तुम्हें पाये यह प्रश्न तुम्हारा उसे खोजने का नहीं है, यह प्रश्न उसका तुम्हें पाने का है।
इसलिए यही वास्तविक ध्यान है। एक समझदार व्यक्ति परमात्मा के बारे में अथवा उसी तरह के मामले के बारे में फिक्र नहीं करता है क्योंकि वह एक दार्शनिक नहीं है। यह पूरी तरह से घर पर होने का प्रयास करता है और यह ध्यान करता है कि अतीत और भविष्य के बारे में कैसे फिक्र करना बंद किया जाए, अतीत और भविष्य के बारे में विचार न करते हुए, वह ध्यान करता है कि यहीं और अभी में कैसे व्यवस्थित हुआ जाए, और कैसे इस क्षण से गतिशील न हुआ जाए। एक बार तुम इस क्षण में होते हो, तो द्वार खुलता है। यह क्षण ही द्वार है।
मैं एक बार एक कैथोलिक पादरी और उनके परिवार के साथ ठहरा हुआ था। एक शाम मैं पादरी, उनकी पत्नी और उनके छोटे बच्चे और पूरे परिवार के साथ बैठा हुआ था और उनका किशोर बच्चा, कमरे के एक कोने में थोड़े से लकड़ी के ब्लोक्स (चौकोर सांचों) के साथ खेलते हुए कुछ चीज बना रहा था। तभी अचानक बच्चे ने कहा : ‘अब प्रत्येक व्यक्ति को खामोश हो जाना चाहिए क्योंकि मैंने एक चर्च बनाया है। चर्च बनकर तैयार है, अब कृप्या खामोश हो जाइए।’
पिता बहुत प्रसन्न हुए कि बच्चा यह समझ गया है कि चर्च में प्रत्येक व्यक्ति को मौन होना चाहिए। उसे प्रोत्साहित करते हुए उन्होंने उससे पूछा : ‘प्रत्येक व्यक्ति को चर्च में खामोश क्यों होना चाहिए?’
लड़के ने उत्तर दिया- ‘क्योंकि लोग सो रहे हैं।’
लोग वास्तव में सो रहे हैं, न केवल चर्च में बल्कि प्रत्येक जगह, पूरी पृथ्वी पर सो रहे हैं। वे चर्च में सो रहे हैं, क्योंकि वे बाहर से सोए हुए ही आते हैं। वे चर्च से बाहर जाते हैं, तो वे जैसे नींद में ही चलते हैं- प्रत्येक व्यक्ति नींद में चलने की आदत रखने वाला बन गया है। और सोते रहने की यही प्रवृति है : तुम कभी भी कहीं और अभी में नहीं होते, क्योंकि यदि तुम्हें यहीं और अभी में रहना है तो तुम्हें जागना होगा।
नींद का अर्थ है कि तुम भूतकाल में हो, नींद का अर्थ है कि तुम भविष्य में हो। मन ही नींद है, मन एक गहन आत्मसम्मोहन है- वह गहरी नींद में है। और तुम अनेक तरह से प्रयास करते हो, लेकिन कोई भी चीज तुम्हारी सहायता करती हुई प्रतीत नहीं होती क्योंकि यदि तुम्हारी नींद में कोई भी कार्य किया जाता है, तो वह अधिक सहायता नहीं करेगा, क्योंकि यदि तुम नींद में कुछ करते हो तो वह एक सपने से अधिक न होगा।
मैंने सुना है कि एक बार एक व्यक्ति एक मनोविश्लेषक के पास आया। वह बहुत खोया-खोया रहने वाला मनोविश्लेषक था- और प्रत्येक व्यक्ति खोया-खोया सा ही रहता है क्योंकि मन ही खोया-खोया हुआ है कोई भी घर पर नहीं है ओर खोये-खोये से मन का यही अर्थ होता है। एक व्यक्ति बिल्कुल ऐसे ही खोये-खोये से रहने वाले मनोविश्लेषक के पास गया और उससे कहा : ‘मैं एक असाधारण कठिनाई में पड़ गया हूं। मैंने सभी तरह के डाक्टर्स के द्वारों पर दस्तक देकर उनसे उपचार कराया, लेकिन कोई भी मेरी सहायता न कर सका और वे लोग कहते हैं कि कहीं कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन मैं मुसीबत में हूं। मैं सोते समय इतनी अधिक तेज ध्वनि के साथ खर्राटे लेता हूं कि उनको सुनकर में स्वयं जाग जाता हूं। और ऐसा रात में अनेक बार हो चुका है और खर्राटों की आवाज़ इतनी अधिक तेज़ और शोर से भरी हुई होती है कि मैं स्वयं जाग जाता हूं।’
वह व्यक्ति क्या कह रहा है, उसे ठीक से सुने बिना ही मनोविश्लेषक ने उससे कहा : ‘आप सामान्य रूप से दूसरे कमरे में जाकर सो जायें।’
तुम समझते हो?- यह ठीक वही है, जो प्रत्येक व्यक्ति कर रहा है। तुम कमरे बदलते जा रहे हो, लेकिन नींद निरंतर जारी है, खर्राटे भी जारी हैं, क्योंकि तुम एक दूसरे कमरे में भी उन्हें लेना नहीं छोड़ सकते हो। यह कोई ऐसी चीज़ नहीं है, जो तुमसे पृथक हो, यह तुम हो, यह तुम्हारा मन है, यह तुम्हारा पूरा इकट्ठा किया गया अतीत है, तुम्हारी स्मृति है। तुम्हारा ज्ञान है- यह वही है जिसे हिंदू ‘संस्कार’ कहते हैं! वे सभी आदतें, नियम और अनुशासन हैं, जिन्हें तुम्हारे मन ने निर्मित किया है। तुम दूसरे कमरे में जाते हो, और वे वहां भी तुम्हारा अनुसरण करती हैं।
तुम अपना धर्म बदल सकते हो, तुम हिंदू से एक ईसाई हो सकते हो अथवा तुम एक ईसाई से एक हिंदू बन सकते हो- तुम केवल कमरे बदलते हो। उससे कुछ भी नहीं होगा। तुम अपने सद्गुरुओं को बदले चले जा सकते हो- तुम एक सद्गुरु के पास से एक दूसरे के पास, एक आश्रम से दूसरे में जा सकते हो, लेकिन किसी से भी अधिक सहायता नहीं मिलेगी। तुम कमरे बदल रहे हो, लेकिन मूल बात कमरों का बदलना नहीं है बल्कि तुम्हारे बदलने का है। तुम्हारे खर्राटे भरने का कमरे के साथ कोई भी संबंध नहीं है, कारण कमरा नहीं है, तुम ही उसके कारण हो। यह पहली बात है जो समझ लेना है, तभी तुम इस सुंदर कथा का अनुसरण करने में समर्थ हो सकोगे।
जैसा भी है, तुम्हारा मन सोया हुआ है। लेकिन तुम अनुभव नहीं कर सकते कि वह कैसे सोया हुआ है, क्योंकि तुम्हें प्रतीत होता है कि तुम खुली आंखों के साथ पूरी तरह जाग रहे हो। लेकिन क्या तुमने कभी भी कोई चीज़ देखी है; क्या तुम अपने खुले हुए कानों के साथ पूरी तरह जागे हुए प्रतीत होते हो, लेकिन तुमने क्या कभी कोई बात सुनी है?
तुम मुझे सुन रहे हो इसलिए तुम कहोगे- ‘हां! लेकिन तुम मुझे सुन रहे हो अथवा तुम अंदर अपने मन को सुन रहे हो? तुम्हारा मन निरंतर व्याख्या कर रहा है। मैं यहां हूं, तुमसे बात कर रहा हूं, लेकिन तुम मुझे सुनते हुए भी यहां नहीं हो। तुम्हारा मन निरंतर व्याख्या कर रहा है- ‘हां, यह ठीक है। मैं इससे सहमत हूं। यह बात पूरी तरह से झूठ है और मैं इससे सहमत नहीं हूं!’ तुम्हारा मन वहां खड़ा हुआ निरंतर व्याख्या कर रहा है। इस टीका-टिप्पणी और मन की इस धुंध और कोहरे के कारण मैं तुम्हारे अंदर प्रवेश नहीं कर सकता। समझ तब आती है, जब तुम व्याख्या नहीं कर रहे हो और जब तुम पूरी तरह से सुन रहे हो।
एक छोटे से स्कूल में शिक्षिका ने पाया कि एक लड़का नहीं सुन रहा है। वह बहुत चंचल, आलसी और बैचेन था। इसलिए उसने उससे पूछा- क्यों? क्या तुम किसी कठिनाई में हो? क्या तुम मुझे नहीं सुन पा रहे हो?’
लड़के ने कहा- ‘सुन तो ठीक से रहा हूं, पर ध्यान से सुनना ही एक समस्या है।’
उसने वास्तव में एक सूक्ष्म भेद बना दिया। उसने कहा : सुनना तो ठीक है और मैं आपको सुन रहा हूं, लेकिन ध्यान से सुनना एक समस्या है- क्योंकि ध्यान से सुनना, सुनने की अपेक्षा कहीं अधिक है। ध्यान से सुनना पूरी सचेतनता के साथ सुनना है। केवल सुनना तो ठीक है, तुम्हारे सभी ओर ध्वनियां हैं, तुम सुन रहे हो, लेकिन तुम उन्हें ध्यान से नहीं सुन रहे हो। तुम्हें सुनना होगा क्योंकि ध्वनियां तुम्हारे कान के पर्दों पर दस्तक देंगीं, तुम्हें उन्हें सुनना ही होगा। लेकिन ध्यान से सुनने के लिए तुम वहां नहीं हो, क्योंकि ध्यान से सुनने का अर्थ है- एक गहन ध्यान देना, एक सम्पर्क जोड़ना, अंदर निरंतर कोई व्याख्या न चल रही हो, अंदर कोई है अथवा नहीं कहने वाला कोई सहमत अथवा असहमत होने वाला न हो, क्योंकि यदि तुम सहमत और असहमत हो, तो उस क्षण में तुम मुझे कैसे ध्यान से सुन सकते हो?
जब तुम सहमत हो, तो मैंने जो कुछ भी कहा वह पहले ही अतीत बन चुका है; और जब तुम असहमत हो तो वह पहले ही चला गया और उस क्षण में तुम अंदर अपना सिर हिलाकर हां अथवा नहीं कहते हो और तुम चूक जाते हो- और तुम्हारे अंदर यह बात निरंतर चल रही है।
तुम ध्यान से नहीं सुन सकते। और तुम्हारे पास जितना अधिक उधार ज्ञान होता है, ध्यान पूर्ण होकर सुनने में उतनी ही अधिक कठिनाई होती है। ध्यान से सुनने का अर्थ है- निर्दोष ध्यान देना- तुम पूरी तरह ध्यान देकर सुनते हो। वहां उससे सहमत अथवा असहमत होने की कोई भी ज़रूरत नहीं है। मैं तुम्हारी सहमति अथवा असहमति की खोज में नहीं हूं। मैं तुमसे तुम्हारा मत नहीं मांग रहा हूं और न मुझे तलाश है कि तुम मेरा अनुसरण करो। मैं किसी भी तरह से तुम्हें कायल करने का भी प्रयास नहीं कर रहा हूं।
जब एक तोता एक वृक्ष पर बैठा चीखना शुरू करता है, तो तुम क्या करते हो? क्या तुम टीका-टिप्पणी करते हो? हां, तब भी तुम कहते हो; ‘बाधा उत्पन्न कर रहा है’ः- तुम ध्यान से एक तोते को भी नहीं सुन सकते। जब वृक्षों से गुज़रती हुई हवा चलती है तो एक सरसराहट की ध्वनि होती है, क्या तुम उसे ध्यान से सुनते हो? कभी-कभी, हो सकता वह तुम्हारी अचेतनता को पकड़ती है। लेकिन तब भी तुम टिप्पणी करते हो-‘हां! सुंदर है।’
अब निरीक्षण करो : जब कभी तुम टीका-टिप्पणी करते हो, तुम्हें नींद आ जाती हैं अंदर मन आ जाता है और मन के साथ अतीत और भविष्य प्रवेश करते हैं। लम्बवत रेखा खो जाती है और तुम समतल और पृथ्वी के समानंतर हो जाते हो। जिस क्षण मन तुम्हारे अंदर प्रवेश करता है तुम भूमि के समान्तार हो जाते हो। तुम शाश्वतता को खो देते हो।
पूरी तरह ध्यान से सुनो। वहां हां अथवा नहीं कहने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। वहां कायल होने अथवा कायल न होने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। पूरी तरह ध्यान से सुनो और सत्य अथवा असत्य तुम पर प्रकट होगा। यदि कोई व्यक्ति व्यर्थ की मूर्खतापूर्ण बात कह रहा है, यदि तुम सामान्य रूप से ध्यान से सुनते हो तो वह व्यर्थ की मूर्खता पूर्ण बात तुम पर मन की बिना किसी टिप्पणी के प्रकट होगी। यदि कोई व्यक्ति सत्य बोल रहा है तो वह तुम पर प्रकट होगा। सत्य अथवा असत्य, तुम्हारे मन की सहमति अथवा असहमति नहीं है, वह एक अनुभूति है। जब तुम पूर्ण संबंध में होते हो तो तुम अनुभव करते हो, और तुम पूरी तरह से यह अनुभव करते हो कि यह सत्य है अथवा असत्य है- और बात समाप्त हो जाती हैं। न उसके बारे में सोचना है और न उस बारे में कोई फिक्र करनी है। सोचने से क्या हो सकता है?
यदि एक विशिष्ट ढंग से तुम्हारा पालन पोषण हुआ है, यदि तुम एक ईसाई अथवा एक हिंदू अथवा एक मुसलमान हो, और मैं जो कुछ बात कह रहा हूं- वह यदि तुम्हारे लालन-पालन के साथ तुम्हारी सहमति से हुई है तो तुम कहोगे ‘हां’ और यदि वह वैसे नहीं हुई है तो तुम कहोगे- नहीं। तुम यहां हो अथवा केवल तुम्हारा लालन-पालन यहां है। और लालन-पालन केवल एक संयोग है।
मन नहीं खोज सकता कि सत्य क्या है और मन यह भी नहीं खोज सकता कि असत्य क्या है। मन इस बारे में तर्क कर सकता है, वह कारण बता सकता है लेकिन सभी तर्क और कारण, थोपे गए नियम, अनुशासन और आदतों पर आधारित हैं। यदि तुम एक हिंदू हो तो तुम एक ढंग से तर्क करते हो, यदि तुम एक मुसलमान हो तो तुम भिन्न ढंग से तर्क देते हो। और प्रत्येक तरह के थोपे गए नीति, नियम, अनुशासन और आदतों अर्थात ‘कंडीशनिंग’ तर्क और प्रमाण से उसे सत्य सिद्ध करते हो। यह वास्तव में तर्क देना और कारण बताना ही नहीं है, तुम उसे प्रमाण जुटाकर सत्य सिद्ध करते हो।
मुल्ला नसरुद्दीन बहुत अधिक बूढ़ा हो गया और वह सौ वर्ष की आयु तक जा पहुंचा। एक रिपोर्टर उससे भेंट करने के लिए आया क्योंकि वह चारों ओर के उन भागों का सबसे अधिक बुजुर्ग नागरिक था। रिपोर्टर ने कहा : ‘नसरुद्दीन! इस बारे में थोड़े से प्रश्न हैं जो मैं तुमसे पूछना चाहता हूं। उनमें से एक यह है कि क्या तुम यह सोचते हो कि तुम सौ वर्ष और अधिक जीने में समर्थ हो सकते हो?’
नसरुद्दीन ने कहा : ‘निश्चित रूप से, क्योंकि सौ वर्षों पूर्व मैं इतना अधिक मजबूत नहीं था जितना कि अब हूं।’
सौ वर्ष पूर्व वह हाल ही जन्मा एक बच्चा था, इसीलिए उसने कहा : ‘सौ वर्ष पूर्व मैं इतना अधिक शक्तिशाली नहीं था जितना कि अभी हूं, और यदि एक छोटा, कमजोर और असहाय बच्चा सौ वर्ष तक जी सका, तो मुझे क्यों नहीं जीना चाहिए?’
यह तर्क के द्वारा अपनी बात को सिद्ध करना है। यह तर्कपूर्ण प्रतीत होता है लेकिन इसमें कुछ चीज़ अनुपस्थित है। यह कामना को पूरा करना है। तुम लंबी अवधि तक जीना चाहते हो, इसलिए तुम अपने चारों ओर एक तर्क का आधार सृजित करते हो और तुम आत्मा की शाश्वतता में विश्वास करते हो। तुम एक ऐसी संस्वृफति में पाले-पोसे गए हो जो कहती है कि आत्मा शाश्वत है। यदि कोई व्यक्ति कहता है-‘‘हां, आत्मा अमर है’’ तो तुम सिर हिलाते हो और तुम कहते हो-‘‘हां, यह ठीक है।’’ लेकिन वह ठीक नहीं है अथवा गलत है। तुम ‘हां’ इसलिए कहते हो क्योंकि तुम्हारे अंदर गहरी जड़ें जमाए हुए संस्कार हैं। वहां अन्य दूसरे लोग भी हैं। आधा संसार जिसमें हिंदू, बौद्ध और जैन हैं, वे विश्वास करते हैं कि आत्मा अमर है और वहां अनेक पुनर्जन्म भी होते हैं और आधा संसार जिसमें ईसाई, मुसलमान और यहूदी हैं, वे विश्वास करते हैं कि आत्मा अमर नहीं है तथा वहां कोई भी पुनर्जन्म नहीं होता है। केवल एक ही जीवन होता है और तब आत्मा उस सर्वोच्च सत्ता में विलुप्त हो जाती है।
आधा संसार इस बात में विश्वास करता है और आधा संसार उस बात में विश्वास करता है तथा उन सभी के पास अपने-अपने तर्क हैं और उन सभी लोगों के पास अपने तर्कों को सत्य प्रमाणित करने वाले प्रमाण भी हैं। तुम जो भी विश्वास करना चाहते हो, वही विश्वास करोगे। लेकिन नीचे गहराई में तर्क नहीं तुम्हारी कामना ही तुम्हारे विश्वास का कारण बनेगी। मन तर्कपूर्ण प्रतीत होता है लेकिन वह है नहीं। तुम जोकुछ भी विश्वास करना चाहते हो, वह प्रमाणों द्वारा सत्य सिद्ध करने वाली एक प्रक्रिया है और मन ‘हां’ कह देता है। वह चाह कहां से आ रही है? और वह तुम्हारे पालन-पोषण करने और संस्कारों से आ रही है।
ध्यान से सुनना एक पूर्ण रूप से भिन्न कार्य-व्यवहार है, उसके पास उसका पूर्ण रूप से भिन्न एक गुण और लक्षण है। जब तुम ध्यान से सुनते हो, तुम एक हिंदू अथवा एक मुसलमान अथवा एक जैन अथवा एक ईसाई नहीं हो सकते। जब तुम होशपूर्ण सुनते हो, तुम एक आस्तिक अथवा एक नास्तिक नहीं हो सकते। जब तुम होशपूर्ण होकर सुनते हो तो तुम उसे अपने संप्रदाय अथवा शास्त्रों की त्वचा के द्वारा नहीं सुन सकते- तुम्हें सभी को एक ओर अलग रख देना होता है और तुम उसे पूर्ण रूप से होशपूर्ण होकर सुनते हो।
भयभीत मत हो, मैं तुमसे सहमत होने के लिए नहीं कह रहा हूं। पूर्ण रूप से उसे तुम सहमति अथवा असहमति की फिक्र किए बिना सुनो और तब एक संवाद घटित होता है।
यदि वहां उसमें सत्य है तो अचानक तुम उसकी ओर खिंचते हो। तुम्हारा पूरा अस्तित्व जैसे मानो एक चुंबक के द्वारा खींच लिया जाता है। तुम उसमें पिघलकर लीन हो जाते हो और तुम्हारा हृदय यह अनुभव करता है कि वह बिना किसी कारण, बिना कोई तर्क-वितर्क के भी सत्य है। इसी कारण धर्म कहते हैं कि परमात्मा तक जाने का मार्ग तर्क नहीं है। वे कहते हैं कि वह आस्था है, वे कहते हैं कि वह श्रद्धा है।
श्रद्धा क्या है? क्या वह एक विश्वास है? नहीं, क्योंकि विश्वास का संबंध मन से है। श्रद्धा एक संवाद है। तुम पूरी तरह से अपने सभी सुरक्षा-कवच और अन्य सुरक्षात्मक साधनों को उठाकर अलग रख देते हो, तुम उसे सहन करने योग्य बन जाते हो। तुम किसी बात को ध्यान से सुनते हो और तुम उसे इतनी अधिक समग्रता से सुनते हो कि तुम्हारे अंदर यह भाव उत्पन्न होते हैं कि वह सत्य है अथवा नहीं है। यदि वह असत्य है, तुम उसे अनुभव करते हो। ऐसा क्यों होता है? यदि वह सत्य है, तुम उसे अनुभव करते हो। ऐसा क्यों होता है?
यह इसलिए होता है क्योंकि सत्य तुम्हारे अंदर ही निवास करता है। जब तुम पूर्ण रूप से निर्विचार होते हो, तुम्हारे अंतरस्थ का सत्य यह अनुभव कर सकता है कि सत्य वहां है क्योंकि समान हमेशा समान का अनुभव कर लेता है : वह उसके अनुरूप होता है। अचानक प्रत्येक चीज़ अनुकूल और ठीक हो जाती है, प्रत्येक चीज़ एक आकार में उतरने लगती है और शून्यता एक सुव्यवस्थित ब्रह्मांड बन जाता है। शब्द एक पंक्ति में उतरने लगते हैं और एक कविता का जन्म होता है, तब प्रत्येक चीज़ पूर्ण रूप से योग्य और अनुरूप हो जाती है।
यदि तुम संवाद में हो और सत्य वहां है तो तुम्हारे अंदर की आत्मा की उसके साथ पूर्ण रूप से सहमति बन जाती है, लेकिन यह एक समझौते जैसी सहमति नहीं है। तुम एक समस्वरता का अनुभव करते हो। तुम एक हो जाते हो। यही श्रद्धा है। यदि कुछ चीज़ गलत है तो वह तुमसे सामान्य रूप से गिर जाती है- तुम कभी दुबारा सोचते ही नहीं, तुम उसकी ओर दूसरी बार देखते ही नहीं, उसमें वहां कोई अर्थ होता ही नहीं। तुम कभी नहीं कहते ‘यह असत्य है’ अथवा यह पूरी तरह से अनुकूल नहीं है- तुम गतिशील हो जाते हो। यदि वह अनुकूल है तो वह तुम्हारा घर बन जाता है। यदि वह अनुकूल नहीं है तो तुम आगे बढ़ जाते हो।
ध्यानपूर्ण होकर सुनने से ही श्रद्धा आती है। पर होशपूर्ण होकर सुनने में सुनने और ध्यान का जोड़ होता है। तुम गहरी नींद में हो- तुम होशपूर्ण कैसे हो सकते हो? लेकिन गहरी नींद में भी होश का एक खंड तुम्हारे अंदर तैरता रहता है अन्यथा वहां कोई मार्ग ही नहीं होता। तुम एक बंदीघर में हो सकते हो लेकिन संभावनाएं हमेशा बनी रहती हैं- तुम उससे बाहर आ सकते हो। वहां कठिनाइयां हो सकती हैं लेकिन यह असंभव नहीं है क्योंकि बंदी उससे छुटकारा पाकर भाग जाने के लिए जाने जाते हैं। एक बुद्ध उसे छोड़कर निकल जाते हैं, एक महावीर उसे छोड़ देते हैं और एक जीसस उससे छुटकारा पा लेते हैं, वे सभी तुम्हारे समान ही एक बंदी थे। बंदियों ने पहले भी छुटकारा पाया है- बंदी हमेशा से ही मुक्त होते रहे हैं। वहां कहीं-न-हीं एक द्वार खुला रहता है, एक संभावना बनी रहती है, तुम्हें सामान्य रूप से उसके लिए खोज करनी है।
यदि यह असंभव है, यदि वहां कोई भी संभावना नहीं है, तब वहां कोई समस्या नहीं है। समस्या तब उत्पन्न होती है जब वहां संभावना होती है- तुम थोड़े से सजग होते हो। यदि तुम पूर्ण रूप से सजग नहीं थे तब वहां कोई भी समस्या न होती। यदि तुम एक मूर्च्छा में थे तब वहां कोई भी समस्या नहीं होती लेकिन तुम पूर्ण अचेतावस्था में नहीं हो, तुम सोये हुए हो लेकिन पूर्ण रूप से नहीं। दोनों स्थितियों के मध्य वहां एक अंतराल है, वहां एक रिसावट है। तुम्हें स्वयं अपने अंदर ही ध्यान में होने की उस संभावना को खोजना है। कभी-कभी तुम ध्यानपूर्ण बन जाते हो। यदि कोई व्यक्ति आता है और तुम पर चोट करता है तो होश आ जाता है। यदि तुम खतरे में हो, यदि तुम रात में एक जंगल से होकर गुजर रहे हो और वहां अंधेरा है तो तुम एक भिन्न गुण के ध्यान के साथ चलते हो। तुम जाग गए हो और वहां कोई भी विचार नहीं है। तुम पूरी तरह से स्थिति के साथ और जोकुछ भी हो रहा है उसके साथ संवाद बनाए हुए हो। यदि एक पत्ता भी खड़कता है, तुम पूर्ण रूप से सजग हो। तुम ठीक एक खरगोश अथवा एक हिरण के समान हो, वे जीव हमेशा जागे हुए रहते हैं। तुम्हारे कान पहले से बड़े हो गए हैं, तुम्हारी आंखें खुलकर फैल गई हैं, चारों ओर जोकुछ भी हो रहा है, तुम उसका अनुभव कर रहे हो क्योंकि वहां खतरा है। खतरे में तुम्हारी नींद कम हो जाती है, तुम्हारी सजगता अधिक होती है क्योंकि गेस्टाल्ड बदल जाता है। यदि कोई व्यक्ति तुम्हारे हृदय पर एक खंजर रख देता है और बस वह उसे तुम्हारे अंदर भोंकने ही जा रहा है तो उस क्षण में भी वहां कोई विचार नहीं होता है। अतीत लुप्त हो जाता है, भविष्य भी विलुप्त हो जाता है, तुम यहीं और अभी में होते हो।
वहां संभावना बनी रहती हैं यदि तुम प्रयास करते हो तो तुम एक किरण को भी पकड़ लोगे, जो तुम्हारे अंदर मौजूद है और एक बार तुम एक किरण को पकड़ लेते हो तो सूरज भी बहुत अधिक दूर नहीं है, तब किरण के द्वारा तुम सूरज तक पहुंच सकते हो- किरण ही मार्ग बन जाती है।
इसलिए स्मरण रहे : ध्यान खोजो, एक दिन के चौबीसों घंटे तुम अपने अंदर उसकी निरंतरता बनी रहने दो। तुम भोजन करो अथवा जोकुछ भी करो लेकिन होशपूर्ण बने रहने का प्रयास करो। टहलो लेकिन सचेत बनकर चलो। प्रेम करो लेकिन पूर्ण रूप से सचेत बनकर। प्रयास करो।
यह केवल एक दिन में पूर्ण नहीं बन सकता है लेकिन यदि एक दिन भी तुम इसे पकड़ पाते हो तो तुम्हें एक गहन तृप्ति का अनुभव होगा- क्योंकि गुण समान है, यदि तुम एक किरण को पा लेते हो अथवा पूरे सूरज को। यदि तुम सागर से एक बूंद पानी का स्वाद लो अथवा पूरे सागर का, नमकीन स्वाद समान होगा और स्वाद ही तुम्हारी एक झलक तथा एक सटोरी बन जाती है।
यहां मुझे ध्यानपूर्ण सुनते हुए तुम सजग बने रहो। जब कभी तुम्हें अनुभव हो कि तुम फिर से नींद में चले गए हो तो केवल थोड़ा हिलो या कंपो और स्वयं अपने को वापस ले आओ। जब सड़क पर चल रहे हो और यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम नींद में चल रहे हो तो थोड़ा-सा हिलो अथवा कांपो और पूरे शरीर को थोड़ा-सा कांपने दो। सजग हो जाओ। यह सजगता केवल कुछ क्षणों तक बनी रहेगी और तुम फिर उसे खो दोगे क्योंकि तुम इतनी लंबी अवधि तक एक नींद में ही जीते रहे हो, वह एक ऐसी आदत बन जाती है कि तुम नहीं समझ सकते कि कैसे तुम उसके विरुद्ध जा सकते हो।
मैं एक बार हवाई जहाज से कलकत्ते से बंबई तक यात्रा कर रहा था और एक बच्चा बहुत अधिक उत्पात कर रहा था, वह एक कोने से दौड़ते हुए दूसरे गलियारे तक जा रहा था और प्रत्येक व्यक्ति को परेशान कर रहा था- तभी चाय और कॉफी लेकर वेट्रेस आई। बच्चा दौड़कर उसके पास गया और प्रत्येक चीज़ गड्डबड्ड हो गई। तब बच्चे की मां ने उससे कहा-‘‘अब सुनो! मैंने तुमसे कई बार कहा है कि तुम बाहर जाकर क्यों नहीं खेलते?’’
केवल पुरानी आदत। वह मेरे बगल में बैठी हुई थी और जोकुछ उसने कहा था वह उसके प्रति सचेत नहीं थी। जैसे ही उसने यह कहा, मैंने ध्यान से उसे सुना और वह कभी उसके प्रति जोकुछ उसने कहा था सजग ही नहीं हुई। केवल बच्चे ने उसे सजग बनाते हुए कहा-‘‘आपके कहने का क्या अर्थ है? यदि मैं जहाज से बाहर जाता हूं तो मैं समाप्त हो जाउंफगा।’’
निश्चित रूप से एक बच्चा कहीं अधिक होशपूर्ण होता है क्योंकि उसके पास कम आदतें होती हैं। एक बच्चा कहीं अधिक सजग होता है क्योंकि उसके पास उसके चारों ओर कम सुरक्षा-कवच होते हैं और वह कैद में कम होता है। इसी कारण सभी धर्म कहते हैं कि जब एक व्यक्ति एक ऋषि बन जाता है तो उसके पास एक बच्चे जैसे कुछ गुण होते हैं : एक निर्दोषता और भोलापन होता है। तब आदतें छूट जाती हैं क्योंकि आदतें तुम्हारा कारागार हैं और सोना सबसे बड़ी आदत है।
अब मेरे साथ इस बोध-कथा में प्रवेश करने का प्रयास करो।
जिस समय तोकाई एक विशिष्ट मठ में, एक अभ्यागत की भांति रुका हुआ था,
तो रसोईघर में नीचे फर्श पर एक आग लगना शुरू हो गई।
एक भिक्षु ने तेजी से तोकाई के शयनकक्ष में प्रवेश करते हुए
और चिल्लाते हुए कहा-‘‘सद्गुरु! एक आग, एक आग लग गई है।’’
थोड़ा-सा उठते हुए तोकाई ने पूछा-‘‘ओह! कहां? कहां’’ भिक्षु ने चिल्लाते हुए कहा-‘‘वह रसोईघर के फर्श पर नीचे लगी हुई है, आप तुरंत उठ जाइये।’’ उनींदी स्थिति में डूबे हुए सद्गुरु ने कहा-‘‘बस, रसेईघर में? ठीक है मुझे बताना कि आगे क्या हुआ और जब वह गलियारे तक पहुंचे, तब लौटकर आना और मुझे बताना।
और तोकाई शीघ्र ही फिर से खर्राटे लेने लगा।
तोकाई एक असाधारण ज़ेन सद्गुरु था। वह बुद्धत्व को उपलब्ध था और पूर्ण सचेतनता में जी रहा था और जब तुम पूर्ण सचेतना में जीते हो, तुम क्षण-क्षण में जीते हो। तुम योजना नहीं बना सकते, तुम अगले क्षण के लिए भी योजना नहीं बना सकते क्योंकि कौन जानता है कि अगला क्षण कभी नहीं आ सकता है। तुम पहले से ही कैसे योजना बना सकते हो क्योंकि कौन जानता है कि अगले क्षण क्या और कैसी स्थिति होगी? यदि तुम बहुत अधिक योजना बनाते हो तो तुम उसकी ताज़गी और नूतनता से चूक सकते हो।
जीवन एक ऐसा प्रवाह और परिवर्तन है कि कोई भी चीज़ वैसी ही नहीं बनी रहती है और प्रत्येक चीज़ गतिशील रहती है। हेराक्लाईटस ने कहा है कि तुम वैसी ही नदी के समान जल में दोबारा कदम नहीं रख सकते- फिर तुम कैसे योजना बना सकते हो? जिस समय दूसरी बार तुम नदी में कदम रख रहे हो उसमें बहुत अधिक पानी बह चुका है और यह वही समान नदी नहीं है। यदि अतीत स्वयं अपने को दोहराता है तो योजना बनाना संभव है। लेकिन अतीत कभी स्वयं अपने को दोहराता नहीं है। दोहराना कभी होता ही नहीं है यदि तुम किसी भी चीज़ को स्वयं अपने को दोहराते हुए देखते हो तो वह केवल इसलिए है क्योंकि तुम उसे पूर्ण रूप से नहीं देख सकते हो।
हेराक्लाईटस पुनः कहता है कि प्रत्येक दिन सूरज नया होता है। निश्चित रूप से तुम कहोगे, यह तो वही समान सूरज है- लेकिन वह समान नहीं हो सकता है। उसके समान होने की वहां कोई भी संभावना ही नहीं है। बहुत कुछ बदल गया है : पूरा आकाश भिन्न है, सितारों का पूरा स्वरूप भिन्न है और स्वयं सूरज ही अधिक पुराना हो गया है। अब वैज्ञानिक कहते हैं कि चालीस लाख वर्षों के अंदर सूरज मर जाएगा और उसकी मृत्यु निकट आ रही है क्योंकि सूरज एक जीवंत दृश्यसत्ता है और वह बहुत अधिक पुराना और बूढ़ा है और उसे मरना ही होगा।
सूरज जन्म लेते हैं, वे जीवित रहते हैं और वे मर जाते हैं। हम लोगों के लिए चालीस लाख वर्षों की अवधि बहुत अधिक लंबी है लेकिन सूरज के लिए यह कुछ भी नहीं है वह इस तरह है जैसे मानो अगले क्षण वह मरने जा रहा हो। और जब सूरज मरता है तो पूरा सौर-परिवार विलुप्त हो जाएगा क्योंकि सूरज ही उनका स्रोत है। सूरज प्रत्येक दिन मर रहा है और वह बूढ़ा और बूढ़ा, पुराना और पुराना होता ही जा रहा है- वह वैसा ही समान नहीं बना रह सकता। प्रत्येक दिन ऊर्जा नष्ट होती है और एक विराट मात्रा में ऊर्जा किरणों में पेंफकी जा रही है। सूरज प्रतिदिन कम हो रहा है, वह थक रहा है। वह वैसा ही समान नहीं है और वह समान हो भी नहीं सकता है।
जब सूर्य उदित होता है, वह एक भिन्न संसार के ऊपर उगलता है और उसको देखने वाले भी समान नहीं होते हैं। कल हो सकता है कि तुम प्रेम से भरे हुए थे, तब तुम्हारी आंखों की दृष्टि भिन्न थीं और निश्चित रूप से सूरज भिन्न दिखाई दिया था। तुम प्रेम के साथ इतने अधिक भरे हुए थे कि एक विशिष्ट गुणों वाला काव्य तुम्हारे चारों ओर व्याप्त था तथा तुमने उस काव्य के द्वारा उसे देखा था और हो सकता है कि सूरज एक भगवान के समान दिखाई दिया हो, जैसा कि उसे वेदों के ऋषियों ने देखा था। वे लोग काव्य में इतने अधिक डूब गए थे कि उन्होंने सूरज को भगवान कहकर पुकारा। वे अस्तित्व के साथ प्रेम में डूबे हुए कवि थे, वे वैज्ञानिक नहीं थे। वे लोग इस खोज में नहीं थे कि पदार्थ क्या होता है, वे लोग तो इस खोज में थे कि चित्तवृत्ति क्या होती है। उन्होंने सूर्य की आराधना की। उन्हें अनिवार्य रूप से बहुत प्रसन्न और अहोभाव में डूबे परम आनंदित व्यक्ति होना चाहिए क्योंकि तुम केवल तभी आराधना कर सकते हो, जब तुम वरदान, आशीर्वाद और दिव्यानंद का अनुभव करते हो, तुम केवल तभी उसकी आराधना कर सकते हो जब तुम अनुभव करते हो कि तुम्हारा पूरा जीवन एक वरदान बन गया है।
कल हो सकता है कि तुम एक कवि रहे हो, आज हो सकता है तुम किसी भी प्रकार से एक कवि न हो क्योंकि तुम्हारे अंदर प्रत्येक क्षण एक नदी प्रवाहित हो रही है। तुम भी बदल रहे हो। कल चीज़ें एक-दूसरे के अनुकूल थीं, आज प्रत्येक चीज़ अव्यवस्थित है, तुम क्रोधित हो, तुम निराश और उदास हो। सूरज वैसा ही समान कैसे हो सकता है जब उसे देखने वाला बदल गया है। प्रत्येक चीज़ बदलती है इसलिए एक समझदार व्यक्ति कभी भी ठीक से भविष्य के लिए योजना नहीं बनाता, वह बना भी नहीं सकता है लेकिन भविष्य से मुलाकात करने के लिए वह तुम्हारी अपेक्षा कहीं अधिक तैयार होता हैं यह एक विरोधाभास है। तुम योजना बनाते हो लेकिन तुम इतने अधिक तैयार नहीं होते हो।
वास्तव में योजना बनाने का अर्थ है कि तुम इतने अधिक संकुचित और अपने को अपर्याप्त होने का अनुभव करते हो और इसी कारण तुम योजना बनाते हो अन्यथा योजना बनाने की आवश्यकता क्या है। एक मेहमान आ रहा है और तुम योजना बनाते हो कि तुम उससे क्या कहने जा रहे हो। कैसी मूर्खता की बात है? जब मेहमान आता है, क्या तुम स्वयं-प्रवर्तित नहीं हो सकते हो? लेकिन तुम भयभीत हो, तुम्हें स्वयं पर विश्वास नहीं है और न तुम्हारे पास कोई आस्था है, तुम योजना बनाते हो और तुम एक रिहर्सल से होकर गुजरते हो। तुम्हारा जीवन एक वास्तविक चीज़ न होकर एक अभिनय है क्योंकि अभिनय करने के लिए ही पूर्वाभ्यास करने की आवश्यकता होती है। स्मरण रहे : जब तुम एक पूर्वाभ्यास से होकर गुजर रहे हो तो जोकुछ भी होता है, वह वास्तविक न होकर एक अभिनय ही होगा। मेहमान अभी आया नहीं है और तुम पहले ही से योजना बना रहे हो कि तुम उससे क्या कहोगे, तुम कैसे उसे हार पहनाओगे, तुम कैसे उसे प्रत्युत्तर देने जा रहे हो, तुम पहले ही उससे बातें कर रहे हो। मन में मेहमान पहले ही से आ पहुंचा है और तुम उससे बातचीत कर रहे हों वास्तव में जिस समय तक मेहमान पहुंचता है तुम उसके साथ थक चुके होगे। वास्तव में जिस समय मेहमान पहुंचता है वह तुम्हारे साथ पहले ही लंबी अवधि तक रह चुका है और तुम उससे ऊब चुके हो और तुम उससे जोकुछ भी कहोगे, वह सत्य और प्रामाणिक न होगा। वह तुम्हारे अंदर से नहीं आएगा, वह तुम्हारी स्मृति से आएगा। वह तुम्हारे अस्तित्व से बंदूक की गोली की तरह नहीं निकलेगा, वह तुम्हारे रिहर्सल से आएगा, जिसे तुम करते रहे हो और जो तुम्हारे पास है। वह नकली होगा और एक मिलन संभव नहीं होगा क्योंकि एक नकली व्यक्ति कैसे मुलाकात कर सकता है? और हो सकता है कि ऐसी ही समान स्थिति मेहमान के भी साथ हो, वह भी योजना बना रहा था और वह भी हो सकता है तुम्हारे साथ पहले ही थक चुका हो। उसने बहुत अधिक बातचीत कर ली हो और वह मौन रहना पसंद करे और तब वह जोकुछ भी कहेगा वह रिहर्सल के बाहर होगा।
इसलिए जहां कहीं भी दो व्यक्ति मिलते हैं तो वहां कम-से-कम चार व्यक्ति मिल रहे हैं और अधिक भी संभव हो सकते हैं। दो असली लोग पीछे हैं, पृष्ठभूमि में हैं और दो नकली लोग एक-दूसरे का आमना-सामना करते हुए मुलाकात कर रहे हैं। प्रत्येक बात नकली है क्योंकि वह योजना से आती है। जब तुम एक व्यक्ति से प्रेम भी करते हो, तुम योजना बनाते हो और एक रिहर्सल से होकर गुजरते हो, वे सभी गतिविधियां तुम करने जा रहे हो कि तुम कैसे चुंबन लेने जा रहे हो और कैसी मुद्राएं बनाने जा रहे हो, वे सभी चीज़ें नकली बन जाती हैं। तुम स्वयं अपने पर भरोसा क्यों नहीं करते? जब वह क्षण आता है तो तुम्हें अपनी स्वेच्छा से किए गए कार्यों पर विश्वास क्यों नहीं होता?
मन उस क्षण विश्वास नहीं कर सकता, वह हमेशा भयभीत रहता है और इसी कारण वह योजना बनाता है। योजना बनाने का अर्थ है- भय। वह भय ही है जो योजना बनाता है और योजना बनाने के द्वारा तुम प्रत्येक चीज़ से चूक जाते हो। प्रत्येक वह चीज़ जो सुंदर है और सत्य है, प्रत्येक वह चीज़ जो अलौकिक है, तुम उससे चूक जाते हो। योजना बनाने के साथ कोई भी व्यक्ति कभी भी परमात्मा तक नहीं पहुंचा है और न कोई भी व्यक्ति कभी पहुंच सकता है।
जिस समय तोकाई एक विशिष्ट मठ में, एक अभ्यागत की भांति रुका हुआ था तो रसोईघर के नीचे फर्श पर, एक आग लगना शुरू हो गई।
पहली बात : आग, भय उत्पन्न करती है क्योंकि वह मृत्यु है। यदि आग भी भय उत्पन्न नहीं कर सकती तो कोई भी चीज़ भय उत्पन्न नहीं कर सकती। लेकिन आग भी भय उत्पन्न नहीं कर सकती जब तुमने मृत्यु से मुठभेड़ की हो और जब तुम जानते हो कि मृत्यु अस्तित्व में ही नहीं है अन्यथा जिस क्षण तुम ‘आग’ का शब्द सुनते हो, तुम एक दहशत में होते हो। वहां वास्तविक आग होने की भी कोई आवश्यकता नहीं है, केवल कोई व्यक्ति दौड़ता हुआ आता है और कहता है- ‘आग’ और तुम दहशत में हो जाओगे। कोई व्यक्ति ऊपर से नीचे कूद सकता है और स्वयं को मार सकता है और वहां कोई भी आग नहीं थी। केवल आग का शब्द ही तुम्हें दहशत में डाल सकता है।
तुम शब्दों के साथ जीते हो। कोई व्यक्ति कहता है- नींबू और तुम्हारे मुंह मे ंरस प्रवाहित होना शुरू हो जाता है। कोई व्यक्ति कहता है- ‘आग’ और तुम यहां और अधिक नहीं होते, तुम पहले ही भाग चुके होते हो। तुम वास्तविकताओं के साथ नहीं, तुम शब्दों के साथ जीते हो। तुम वास्तविकताओं के साथ नहीं चिह्नों के साथ जीते हो और सभी चिह्न बनावटी हैं और वे वास्तविक नहीं हैं।
मैंने सुना है और संयोग से दूसरों की बातचीत में सुना है कि एक बूढ़ी महिला एक लड़की को किसी विशिष्ट चीज़ को पकाकर तैयार करने की विधि सिखला रही थी। वह उसे स्पष्ट कर रही थी और तभी उसने कहा-‘‘शीरे की बोतल से तेजी से छह बार उड़ेलना और प्रत्येक बार उड़ेलने पर ‘ग्लग’ जैसी आवाज होगी।’’
युवा लड़की ने पूछा-‘‘छह बार ग्लग जैसी आवाज से क्या मतलब है?’’
वृद्ध स्त्री ने कहा-‘‘बोतल से शीरा बर्तन में उड़ेलने पर ‘ग्लग’ ध्वनि निकलती है। जब छह बार ग्लग जैसी आवाज निकले, बस उतना ही शीरा।’’
युवा लड़की उलझन में पड़ गई और उसने फिर पूछा-‘‘यह ‘ग्लग’ जैसी आवाज क्या होती है? मैंने पहले इसे कभी नहीं सुना।’’
वृद्ध महिला ने कहा-‘‘हाय राम! तुम इतनी सरल-सी भी बात नहीं समझती? तब तुम्हें पाक-कला सिखाना बहुत कठिन है।’’
युवा लड़की ने कहा-‘‘वृफपा करके मुझे बताइए कि इस ‘ग्लग’ जैसी आवाज से क्या मतलब है?’’
बूढ़ी महिला ने कहा-‘‘तुम जग के मुंह कोढककर जरा-सा मुंह हटाओ तो ग्लग जैसी ध्वनि निकलती है। यह हुआ एक ग्लग। इसी तरह पांच ग्लग और छह ग्लग।’’
लेकिन पूरी भाषा ठीक इसी के समान है। किसी भी शब्द का वास्तव में कुछ भी अर्थ नहीं होता है। आपसी संबंधों के द्वारा हमी लोग उसे अर्थ देते हैं। इसी कारण संसार में तीन हजार भाषाएं विद्यमान हैं लेकिन वहां तीन हजार वास्तविकताएं नहीं हैं। पूरी भाषा ही ठीक ‘ग्लग’ के ही समान है।
तुम अपनी व्यक्तिगत भाषा स्वयं सृजित कर सकते हो और इस बारे में कोई भी समस्या नहीं है। प्रेमी हमेशा अपनी निजी भाषा सृजित करते हैं, वे ऐसे शब्दों का प्रयोग करना प्रारंभ कर देते हैं कि जिन्हें कोई भी व्यक्ति नहीं समझता है कि वे क्या कह रहे हैं लेकिन वे लोग उसे समझते हैं। शब्द प्रतीकात्मक हैं। वहां वास्तव में कोई भी अर्थ नहीं होता है, अर्थ तो दिया जाता है। जब कोई व्यक्ति कहता है- ‘आग’ तो वहां शब्द में कोई भी आग नहीं है, वहां वह हो भी नहीं सकती। जब कोई व्यक्ति कहता है ‘ परमात्मा’ तो परमात्मा शब्द मे ंवहां कोई भी परमात्मा नहीं है- हो भी नहीं सकता है। परमात्मा शब्द परमात्मा नहीं है। जब कोई व्यक्ति कहता है- प्रेम, तो प्रेम के शब्द में प्रेम नहीं है।
जब कोई व्यक्ति कहता है-‘‘मैं तुमसे प्रेम करता हूं’’, तो शब्दों के द्वारा धोखा मत खा जाना। लेकिन तुम धोखा खाओगे क्योंकि कोई भी व्यक्ति वास्तविकता की ओर नहीं देखता है; लोग केवल शब्दों की ओर देखते हैं। जब कोई व्यक्ति कहता है-‘‘मैं तुमसे प्रेम करता हूं’’ तो तुम सोचते हो- ‘‘हां, वह मुझसे प्रेम करता है’’ अथवा ‘‘हां, वह मुझसे प्रेम करती है’’। तुम एक जाल में फंस रहे हो और तुम कठिनाई में पड़ोगे। इस पुरुष अथवा इस स्त्री की केवल वास्तविकता की ओर देखो। शब्दों को मत सुनो, वास्तविकता को सुनों इस व्यक्ति के यथार्थ के साथ संबंध जोड़ो और समझ का जन्म होगा कि वह जोकुछ भी कह रहा है, वे केवल शब्द हैं अथवा वे तृप्त और संतुष्ट करने वाली सामग्री भी अपने साथ लिए हुए हैं। और तृप्त होने वाली सामग्री पर निर्भर रहो तथा कभी भी शब्दों पर आश्रित मत रहो, अन्यथा देर अथवा सवेर तुम निराश होगे। संसार में इतने अधिक प्रेमी, लगभग निन्यानवे प्रतिशत प्रेमी निराश हैं। शब्द ही इसका कारण हैं। उन्होंने शब्दों में विश्वास किया और उन्होंने वास्तविकता की ओर नहीं देखा।
शब्दों के बादलों से घिरे बिना बने रहो। अपनी आंखों को शब्दों से बचाकर स्पष्ट रखो। अपनी आंखों में और अपने कानों में शब्दों को व्यवस्थित होने की अनुमति मत दो अन्यथा तुम एक मिथ्या संसार में जीते रहोगे। शब्द स्वयं अपने में ही नकली हैं और वे केवल तभी अर्थपूर्ण बनते हैं कि जहां से वे शब्द आ रहे हैं, वहां यदि हृदय में कुछ सत्य विद्यमान है।
जिस समय तोकाई एक विशिष्ट मठ में
एक अभ्यागत की भांति रुका हुआ था,
तो रसोईघर के नीचे फर्श पर,
एक आग लगना शुरू हो गई।
आग भय है, आग मृत्यु है- लेकिन आग के शब्द में कुछ भी नहीं है।
एक भिक्षु ने तेजी से तोकाई के शयनकक्ष में प्रवेश करते हुए
और चिल्लाते हुए कहा-‘‘सद्गुरु एक आग, एक आग लग गई है।
वह उत्तेजित था, क्योंकि मृत्यु निकट थी।
थोड़ा-सा उठते हुए तोकाई ने पूछा-‘‘ओह! कहां?’’
तुम एक सद्गुरु को उत्तेजित नहीं कर सकते, यदि मृत्यु भी वहां मौजूद हो क्योंकि उत्तेजना का संबंध मन से है। यदि मृत्यु भी वहां हो, वह भी तुम एक सद्गुरु को चकित नहीं कर सकते, क्योंकि विस्मित होने का संबंध भी मन से है। तुम एक सद्गुरु को चकित क्यों नहीं कर सकते?- क्योंकि वह कभी भी किसी चीज़ की आशा नहीं रखता है। तुम एक ऐसे व्यक्ति को कैसे चकित कर सकते हो जो कभी भी किसी चीज़ की आशा अथवा अपेक्षा नहीं करता। क्योंकि तुम आशा करते हो और तब कुछ अन्य चीज़ घटित होती है, इसी कारण तुम चकित हो जाते हो। यदि तुम एक सड़क पर टहल रहे हो और तुम आते हुए एक मनुष्य को देखते हो और अचानक वह घोड़ा बन जाता है, तुम आश्चर्यचकित हो जाओगे, तुम चकरा जाओगे कि यह हुआ क्या? लेकिन तोकाई के समान व्यक्ति इस पर भी आश्चर्य नहीं करेगा क्योंकि वह जानता है कि जीवन प्रवाहवान है- यहां प्रत्येक चीज़ संभव है : एक मनुष्य एक घोड़ा बन सकता है और एक घोड़ा एक मनुष्य बन सकता है। यह वही है जो पहले भी अनेक बार हो चुका है : अनेक घोड़े मनुष्य बन गए हैं और अनेक मनुष्य घोड़े बन गए हैं और जीवन गतिशील है।
एक सद्गुरु बिना किसी आशा या अपेक्षा के बना रहता है, तुम उसे चकित नहीं कर सकते हो। उसके लिए प्रत्येक चीज़ संभव है और वह किसी भी संभावना के लिए बंद नहीं है। वह पूर्ण रूप से हृदय के द्वार खोलकर इसी क्षण में जीता है, जोकुछ भी होता है, वह होता है। उसके पास वास्तविकता से मिलने के लिए कोई भी योजना नहीं है और उसके पास न कोई सुरक्षा है। वह स्वीकार भाव से जीता है।
यदि तुम किसी चीज़ की आशा करते हो तो तुम उसे स्वीकार नहीं कर सकते। यदि तुम प्रत्येक चीज़ को स्वीकार करते हो तो तुम अपेक्षा या आशा नहीं कर सकते। यदि तुम स्वीकार करते हो और तुम आशा नहीं करते तो तुम आश्चर्यचकित नहीं हो सकते। उत्तेजना एक ज्वर है, वह एक बीमारी है, जब तुम उत्तेजित हो उठते हो तो तुम्हारा अस्तित्व ज्वरग्रस्त हो जाता है और तुम उत्तप्त हो उठते हों तुम कभी-कभी उसे पसंद भी कर सकते हो क्योंकि इस बारे में ज्वर दो तरह के होते हैं : एक वह है जो प्रसन्नता के कारण आता है और दूसरा पीड़ा और दर्द के कारण आता है। वह एक, जिसे तुम पसंद करते हो तुम उसे प्रसन्नता कहते हो लेकिन वह भी एक ज्वर है, उसमें उत्तेजना होती है; और एक जिसे तुम नापसंद करते हो उसे तुम पीड़ा अथवा दर्द कहते हो, वह एक रुग्णता है- लेकिन दोनों ही उत्तेजनाएं हैं। निरीक्षण करने का प्रयास करो : वे एक-दूसरे में बदलती चली जाती हैं।
तुम एक स्त्री से प्रेम करते हो, तुम उत्तेजित हो उठते हो और तुम एक विशिष्ट प्रसन्नता का अनुभव करते हो। लेकिन उस स्त्री को वहां बने रहने दो और देर अथवा सवेर उत्तेजना चली जाती है। इसके विपरीत एक ऊबाहट अंदर सरक आती है, तुम उससे थक जाने का अनुभव करते हो, तुम उससे छुटकारा पाना पसंद करते हो, तुम अकेले बना रहना चाहते हो। यदि वह स्त्री तब भी बनी रहती है तो अब नकारात्मकता प्रविष्टि होती है। तुम केवल ऊब ही नहीं जाते हो अब तुम एक नकारात्मक ज्वर से ग्रस्त होते हो, तुम रुग्णता का और वमन होने जैसा अनुभव करते हो।
तनिक देखो, तुम्हारा जीवन ठीक एक इंद्रधनुष के समान है। वह अपने साथ सभी रंग लिए हुए है और तुम एक रंग से दूसरे की ओर गतिशील होते चले जाते हो। तुम सभी पराकाष्ठाओं और सभी विरोधों को साथ लिए हुए चलना है, तुम प्रसन्नता और सुख से पीड़ा और दर्द की ओर गतिशील होते हो और पीड़ा तथा दर्द से सुख की ओर गतिशील होते हो। यदि दर्द और पीड़ा एक लंबी अवधि तक बने रहते हैं तो हो सकता है कि तुम उनसे एक विशिष्ट सुख पाना शुरू कर देते हो। यदि सुख और प्रसन्नता भी एक लंबी अवधि तक बने रहते हैं तो निश्चित रूप से तुम उनसे पीड़ा और दुःख पाने लगोगे। दोनों ही उत्तेजना की स्थितियां हैं और दोनों ही ज्वर हैं। एक समझदार व्यक्ति बिना किसी ज्वर के रहता है। तुम उसे उत्तेजित नहीं कर सकते और न तुम उसे चकित कर सकते हो। यदि वहां मृत्यु भी हो तो भी वह शीतलता से पूछेगा-‘‘कहां?’’ और यह प्रश्न ‘कहां’ बहुत आकर्षक है क्योंकि एक बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति का संबंध हमेशा ‘यहां’ के साथ होता हैं उसका संबंध ‘वहां’ के साथ नहीं होता है, उसका संबंध ‘तब’ के साथ नहीं होता है, उसका संबंध केवल ‘अब’ अथवा ‘अभी’ के साथ होता है। अभी, यहीं, यह उसकी वास्तविकता है और ‘तब’ और ‘वहां’ यह तुम्हारी वास्तविकता है।
‘‘एक आग, सद्गुरु! एक आग लग गई है।’’
थोड़ा-सा उठते हुए तोकाई ने पूछा-‘‘ओह! कहां?’’
वह यह जानना चाहता है : ‘वहां अथवा यहां?’
‘कहां?’भिक्षु ने चिल्लाते हुए कहा
... क्योंकि वह उस पर विश्वास ही न कर सका कि जब वहां एक आग लगी है तो कोई व्यक्ति ऐसा मूर्खतापूर्ण प्रश्न पूछ सकता है। उस एक को सामान्य रूप से खिड़की के बाहर कूदकर घर से बाहर निकल जाना चाहिए था और सूक्ष्म तर्क-वितर्क करने का यह समय नहीं था।
‘कहां?’भिक्षु ने चिल्लाते हुए कहा-‘‘वह रसोईघर के फर्श पर नीचे लगी हुई है,
आप तुरत उठ जाइये।’’ थोड़ा-सा उठते हुए सद्गुरु ने कहा-‘‘ऐं! सिर्फ रसोईघर में? ठीक है, मुझे बताना कि आगे क्या हुआ और जब वह गलियारे तक पहुंचती है,
तब लौटकर आना और मुझे बताना।’’
जब वह यहां तक पहुंचे तब आना और मुझे बताना। यदि वह ‘वहां’ है तो उससे मेरा कोई भी संबंध नहीं है। यह घटना बहुत कुछ प्रगट कर रही है। कोई भी चीज़ ‘वहां’ है तो उससे मेरा कोई संबंध नहीं है, केवल जब वह ‘यहां’ है तभी वह सत्य होती है।
एक सद्गुरु भविष्य के लिए योजना नहीं बना सकता। निश्चित रूप से वह तैयार है जोकुछ भी होता है, वह उसका प्रत्युत्तर देगा लेकिन वह एक पूर्वाभ्यास से होकर नहीं गुजर सकता और वह योजना नहीं बना सकता और वह वास्तविकता के आने से पूर्व गतिशील नहीं हो सकता। वह कहेगा-सत्य को सामने आने दो, उस क्षण को मेरे द्वार पर दस्तक देने दो और तब हम देखेंगे। पूर्वाभ्यासों और योजनाओं के बिना बोझ के साथ वह हमेशा स्वयं-प्रवर्तित है और वह जोकुछ भी कहता है अपनी स्वेच्छा के साथ वह हमेशा ठीक है।
इस मापदंड का हमेशा स्मरण बना रहे, वह तुम्हारी स्वेच्छा से बाहर आता है और वह ठीक है। इस बारे में गलत और ठीक का कोई दूसरा मापदंड अस्तित्व में नहीं है। उस क्षण से जोकुछ भी बाहर आता है उसके प्रति तुम्हारा जीवंत प्रत्युत्तर ही अच्छा है। कोई अन्य चीज़ अच्छी नहीं है तथा अच्छे और बुरे के लिए इस बारे में कोई दूसरा मापदंड विद्यमान नहीं है।
लेकिन तुम भयभीत हो। अपने भय के कारण ही तुम नैतिकता सृजित करते हो। भय के कारण ही तुम अच्छे और बुरे के मध्य भेद सृजित करते हो। लेकिन क्या तुम यह नहीं देखते कि जब कभी एक स्थिति भिन्न होती है और ठीक गलत बन जाता है और गलत ठीक बन जाता है? लेकिन तुम मृत बने रहते हो। तुम स्थिति की ओर देखते ही नहीं। तुम पूरी तरह से अपने चारों ओर ठीक तथा गलत की अपनी धारणाओं का अनुसरण किए चले जाते हो। यही कारण है कि तुम एक बेमेल व्यक्ति बन जाते हो। वृक्ष भी तुम्हारी अपेक्षा कहीं अधिक बुद्धिमान है-वे बेमेल नहीं हैं। जानवर भी तुमसे कहीं अधिक बेहतर हैं- वे बेमेल नहीं हैं। बादल भी तुम्हारी अपेक्षा कहीं अधिक योग्य हैं, वे बेमेल नहीं हैं। पूरा अस्तित्व एक-दूसरे के अनुकूल है; और केवल मनुष्य ही बेमेल अर्थात अत्यधिक ढीला अथवा बहुत सख्त हैं वह कहां गलत हो गया है?
वह अपने मानसिक भेदभाव के साथ गलत हो गया है कि यह ठीक है और यह गलत है और जीवन में ऐसी स्थिर चीज़ें उपयोगी नहीं हो सकतीं। इस क्षण कुछ चीज़ गलत है और अगले ही क्षण वह ठीक हो जाती है। इस क्षण कोई चीज़ ठीक है और अगले ही क्षण वह और अधिक ठीक नहीं रह गई है। तुम क्या करोगे? तुम निरंतर एक भय की स्थिति में बने रहोगे और तुम अंदर से तनावग्रस्त तथा चिंतित बने रहोगे।
इसलिए उन सभी लोगों की, जिन्होंने जाना है, यह आधारभूत शिक्षा है : सजग और स्वयं प्रवर्तित बनो तथा तुम्हारी स्वयं प्रवर्तित सजगता से जोकुछ भी होता है, वही ठीक है और जोकुछ भी तुम्हारी निद्रा और अचेतनता के कारण होता है, वही गलत है। जोकुछ भी तुम अचेतन रूप से करते हो वह गलत है और तुम जोकुछ भी सचेतनता के साथ करते हो वह ठीक है। ठीक और गलत का भेदभाव वस्तुओं के मध्य नहीं है, ठीक और गलत का भेद चेतना के मध्य है।
उदाहरण के लिए भारत मे ंवहां एक जैन संप्रदाय तेरापंथ मौजूद है। महावीर ने कहा-‘‘किसी भी व्यक्ति के कर्म में हस्तक्षेप मत करो। उसको उसे पूरा करने दो’’- एक सुंदर बात है। वास्तव में वह ठीक वही बात कहते हैं जो पश्चिम में अब हिप्पी कह रहे हैं : अपना ही कार्य करो। इसके दूसरी ओर महावीर समान बात ही कहते हैं- किसी अन्य व्यक्ति के कार्य में हस्तक्षेप मत करो। उसे अपना कार्य करने दो, उसे उसको पूरा करने दो। उसमें हस्तक्षेप मत करो। हस्तक्षेप करना हिंसा है। जब तुम किसी अन्य व्यक्ति के कर्म के साथ हस्तक्षेप करते हो तो तुम एक हिंसा कर रहे हो; तुम उस व्यक्ति को उसके मार्ग से पेंफक रहे हो। ‘हस्तक्षेप मत करो’। एक सुंदर बात है।
लेकिन सुंदर बातें भी कैसे गलत जा सकती हैं। जैनों के इस संप्रदाय तेरापंथ ने इससे यह निष्कर्ष निकाला कि यदि कोई व्यक्ति सड़क के किनारे मर रहा है तो तुम सामान्य रूप से आगे बढ़ जाओ, तुम उसका स्पर्श मत करो, तुम उसको कोई दवा भी मत दो और यदि वह चिल्ला रहा है ‘‘मैं प्यासा हूं’’ तो उसे पानी भी मत दो। उसे पानी भी मत दो क्योंकि किसी भी व्यक्ति के कार्य के साथ हस्तक्षेप मत करो।’ यह तर्कपूर्ण है क्योंकि वह अपने अतीत के कर्मों के कारण ही दुःख भोग रहा है, तब तुम हस्तक्षेप करने वाले कौन होते हो? उसने अनिवार्य रूप से विशिष्ट कर्म संग्रहीत किए हैं जिससे इस जीवन में प्यास से तड़पते हुए वह मर जाए। तुम उसे पानी देने वाले कौन होते हो? तुम सामान्य रूप से उसकी उपेक्षा कर आगे बढ़ जाओ।
मैं तेरापंथ मुनियों के मुख्य मुनियों में से एक से बात कर रहा था और मैंने उनसे कहा-‘‘और क्या आपने कभी इस संभावना पर भी विचार किया है कि उसे पानी देना आपके भी कर्म हो सकते हैं।’’
तुम उसके कर्म के साथ हस्तक्षेप नहीं कर रहे हो लेकिन तुम अपने साथ ही हस्तक्षेप कर रहे हो। यदि उसकी सहायता करने की इच्छा उत्पन्न होती है तो तुम क्या करोगे? वह इच्छा यह प्रदर्शित करती है कि उसे पानी देना यह तुम्हारा कर्म है। यदि तुम उस कामना का प्रतिरोध करते हुए अपने सिद्धांत के कारण आगे बढ़ जाते हो तो तुम स्वंय प्रवर्तित नहीं बने रहे हो- इसलिए क्या किया जाए? यदि तुम भारी मृत सिद्धांतों का बोझ अपनी खोपड़ी पर लादे हुए चलते हो तो तुम हमेशा कठिनाई में रहोगे क्योंकि जीवन तुम्हारे सिद्धांतों में विश्वास नहीं करता और जीवन के पास उसके अपने नियम हैं। लेकिन वे तुम्हारे सिद्धांत और तुम्हारा तत्वज्ञान नहीं है।
स्वयं प्रवर्तित बनो। यदि तुम सहायता करने जैसा अनुभव करते हो तो इसकी फिक्र मत करो कि महावीर ने क्या कहा है। यदि तुम सहायता करने जैसा अनुभव करते हो तो सहायता करो। तुम अपना ही कार्य करो। यदि तुम सहायता करने जैसा अनुभव नहीं करते हो तो सहायता मत करो। जीसस ने चाहे जोकुछ भी कहा हो कि लोगों की सहायता करने के द्वारा तुम मेरी ही सहायता करोगे- उसकी फिक्र मत करो क्योंकि कभी-कभी सहायता करना खतरनाक भी हो सकता है। एक व्यकित किसी अन्य व्यक्ति को मारने जा रहा है और वह तुमसे कहता है मुझे पानी पिला दो क्योंकि मैं प्यासा हूं और मैं उस व्यक्ति को मारने के लिए इस लंबी यात्रा पर नहीं जा सकता तो तुम क्या करोगे?
... क्योंकि यदि तुम उसे पानी पिलाते हो तो तुम हत्या करने में उसकी सहायता करोगे। निर्णय लो- लेकिन उस क्षण से पूर्व निर्णय मत लो क्योंकि ऐसे सभी निर्णय नकली होंगे। कोई कभी भी नहीं जानता है कि वहां किस तरह की स्थिति होगी।
इस बारे में भारत के पुराने शास्त्रों में एक कहानी है। एक हत्यारा एक चौराहे पर आया जहां एक साधु बैठा हुआ ध्यान कर रहा था। वह एक व्यक्ति का पीछा कर रहा था। उसने पहले ही उस व्यक्ति को मारकर घायल कर दिया था लेकिन वह बचकर भाग निकला और वह अपने शिकार का पीछा कर रहा था। चौराहे पर आकर वह उलझन में पड़ गया और उसने उस साधु से पूछा, जो एक वृक्ष के नीचे बैठा ध्यान कर रहा था, क्या आपने यहां से गुजरते हुए एक व्यक्ति को देखा है जिससे रक्त बह रहा हो। यदि ऐसा है तो वह किस दिशा में गया है? क्योंकि वह एक चौराहा था।
उस साधु को क्या करना चाहिए? यदि वह सत्य बताता है कि वह व्यक्ति उत्तर दिशा में गया है तो वह उस हत्या का एक भाग बनेगा। यदि वह कहता है कि वह उत्तर की ओर नहीं गया है तो वह झूठ बोलेगा। उसे क्या करना चाहिए? क्या उसे सत्य कहना चाहिए और उस हत्या को होने की अनुमति देना चाहिए? क्या झूठ बोलकर उसे रोक देना चाहिए। उसे क्या करना चाहिए?
इस बारे में अनेक उत्तर दिए गए हैं। मेरे पास कोई भी उत्तर नहीं है।
जैन कहते हैं यदि वह असत्य बोलने भी जा रहा है तो उसे असत्य ही बोलने दो क्योंकि हिंसा करना सबसे बड़ा पाप हैं उनके पास उनके अपने मूल्यांकन हैं- हिंसा सबसे बड़ा पाप है, असत्य उसके बाद आता है। लेकिन हिंदू कहते हैं- नहीं, असत्य पहले आता है इसलिए उसे सत्य कहना ही है और जो होता है उसे होने दो। इस बारे में गांधी के पास उनका अपना उत्तर था- उन्होंने कहा-‘‘मैं दो के मध्य चुनाव नहीं कर सकता क्योंकि दोनों ही सर्वोत्तम मूल्य हैं और वहां कोई भी चुनाव नहीं है। इसलिए मैं उसे सत्य बतलाउंफगा और मैं उसके रास्ते में खड़ा होकर उससे कहूंगा : पहले मुझे मारो और तब उस व्यक्ति का पीछा करना।’’
यह उत्तर आकर्षित करता है, गांधी जी के उत्तर में आकर्षण है, वह हिंदुओं और जैनों दोनों के उत्तरों की अपेक्षा बेहतर है- लेकिन पूरी स्थिति की ओर देखो : वह व्यक्ति एक हत्या करने जा रहा है और गांधी उसे दो हत्याएं करने के लिए विवश करते हैं। इसलिए उनके कर्म के बारे में क्या कहा जाए?
इसलिए करना क्या है, मेरे पास कोई भी उत्तर नहीं है। अथवा मेरा उत्तर है : पहले ही से कोई निर्णय मत लो, उस क्षण को आने दो और उस क्षण को ही निर्णय लेने दो क्योंकि कौन जानता है? वह शिकार एक ऐसा व्यक्ति भी हो सकता है जो मार देने योग्य हो। कौन जानता है कि वह शिकार एक खतरनाक व्यक्ति भी हो सकता है और यदि वह जीवित बच जाता है तो वह अनेक हत्याएं कर सकता है। कौन जानता है कि क्या कैसी स्थिति होगी क्योंकि वह कभी भी फिर से समान नहीं होगी और तुम पहले से उस स्थिति को नहीं जान सकते। निर्णय मत लो। लेकिन तुम्हारा मन बिना निर्णय लिए एक बेचैनी का अनुभव करेगा, क्योंकि मन को स्पष्ट और निश्चित उत्तरों की आवश्यकता होती है। केवल एक ही चीज़ निश्चित है कि सजग, सचेत और स्वयं प्रवर्तित बनो तथा किसी भी नियम का अनुसरण मत करो। पूरी तरह से स्वयं प्रवर्तित बनो और जोकुछ भी होता है उसे होने दो। यदि उस क्षण में तुम अनुभव करते हो कि सत्य को खोकर जोखिम लेने जैसी है तो उसे खो दो। यदि उस क्षण में तुम अनुभव करते हो कि वह व्यक्ति इस योग्य नहीं है तो हिंसा को होने दो अथवा यदि तुम अनुभव करो कि वह व्यक्ति मुझसे भी कहीं अधिक योग्य है तो मध्य में खड़े हो जाओ।
वहां लाखों संभावनाएं होंगी। पहले से उसे तय मत करो। केवल सजग और सचेत बने रहो तथा चीज़ों को होने दो। तुम कोई भी बात कहना पसंद नहीं कर सकते हो। क्यों न मौन बने रहो? कोई भी झूठ मत बोलो, पर हिंसा में लिप्त व्यक्ति की सहायता मत करो और हत्यारे को दो हत्याएं करने के लिए विवश मत करो। क्यों न मौन बने रहो। तुम्हें कौन बाध्य बना रहा है?
लेकिन उस क्षण को ही तय करने दो, यह वही बात है जो सभी जागे हुए लोगों ने कही है।
लेकिन यदि तुम सामान्य नैतिकतावादियों की बात सुनते हो तो वे तुमसे कहेंगे कि जीवन बहुत खतरनाक है और तुम उसमें एक निर्णय के साथ ही जाना अन्यथा तुम कुछ गलत कार्य कर सकते हो। मैं तुमसे कहता हूं कि तुम जोकुछ भी एक निर्णय के द्वारा करते हो वह गलत होगा क्योंकि पूरा अस्तित्व तुम्हारे लिए गए निर्णयों का अनुसरण नहीं कर रहा है और पूरा अस्तित्व अपने ही ढंग से चलता है। तुम उसके एक भाग हो, तुम कैसे पूर्ण के लिए निर्णय ले सकते हो? तुम्हें वहां सामान्य रूप से बना रहना है और स्थिति का अनुभव करना है और तुम जोकुछ भी करो तुम उसे विनम्रता के साथ और उसके गलत होने की प्रत्येक संभावना के साथ कर सकते हो। एक ऐसे अहंकारी मत बनो जो यह सोचे, ‘‘मैं जोकुछ भी करता हूं वह ठीक ही होगा।’’ तब गलत कार्य कौन करेगा? ऐसे अहंकारी मत बनो जो यह सोचे ‘‘मैं नैतिक हूं और दूसरा अनैतिक है।’’ दूसरा भी तुम हो और तुम ही दूसरे हो। एक हैं। हत्यारा और परिस्थिति का शिकार व्यक्ति दो नहीं हैं।
लेकिन निर्णय मत लो केवल वहां बने रहो और पूरी स्थिति को महसूस करो, पूरी स्थिति के साथ संपर्क में बने रहो और जोकुछ भी आता है अपनी अंतरस्थ चेतना को उसे करने दो। तुम्हें कर्ता नहीं बनना चाहिए और तुम्हें केवल एक साक्षी बना रहना चाहिए। एक कर्ता को पूर्व में ही निर्णय लेना होता है, पर साक्षी को उसकी आवश्यकता नहीं होती।
गीता और वृफष्ण का पूरा संदेश यही है। वृफष्ण कहते हैं : केवल पूरी स्थिति को देखो और नीतिवादियों के मृत नियमों का अनुसरण मत करो। स्थिति को देखो, एक साक्षी की भांति कार्य करो और एक कर्ता मत बनो। और यह फिक्र मत करो कि परिणाम क्या होगा। कोई भी नहीं कह सकता कि परिणाम क्या होगा। वास्तव में वहां कोई परिणाम नहीं है, हो भी नहीं सकता क्योंकि वह एक शाश्वतता है।
उदाहरण के लिए हिटलर का जन्म हुआ था। यदि इस बच्चे को मां ने मार दिया होता तो संसार-भर के सभी कोर्ट उसे एक हत्यारी मानते। उसे दंड दिया गया होता। लेकिन अब हम जानते हैं कि उसे जीवित छोड़ देने की अपेक्षा उसको मार डालना ही उचित होता क्योंकि उसने लाखों लोगों की हत्या की। इसलिए क्या हिटलर की मां ने इस बच्चे को न मारकर ठीक कार्य किया? क्या वह ठीक थी अथवा वह गलत थी? किसे यह निर्णय करना है? और वह बेचारी मां यह कैसे जान सकती थी कि यह बच्चा इतने अधिक लोगों का हत्यारा बनने जा रहा है?
किसे यह निर्णय करना है? और कैसे निर्णय करना है? ... और यह एक अनंत क्रम है। हिटलर ने अनेक लोगों की हत्या की लेकिन कौन यह निर्णय कर सकता है कि क्या वे ठीक लोग थे जिनको मारना अथवा न मारना ठीक था। कौन कब निर्णय करेगा और कौन कभी उसे जान पाएगा, यह कोई भी व्यक्ति नहीं जानता है। कौन जानता है, शायद परमात्मा ही हिटलर जैसे लोगों को मार डालने के लिए भेजता है जो गलत है क्योंकि किसी-न-किसी तरह से परमात्मा प्रत्येक चीज़ में संबद्ध है। वह ठीक कार्य में है और गलत कार्य में भी है।
जिस व्यक्ति ने हीरोशिमा पर एटम बम गिराया- क्या वह ठीक था अथवा गलत था? क्योंकि उसके बम के कारण ही द्वितीय विश्व-युद्ध बंद हुआ। वास्तव में पूरे शहर हीरोशिमा में बम गिरते ही एक लाख लोग तुरंत मर गए। लेकिन यदि एटम बम हीरोशिमा पर न गिराया गया होता तो युद्ध आगे भी जारी रहता और कई लाख और लोग मरे होते। यदि जापान केवल एक और अधिक वर्ष तक बना रहता तो उसने भी एटम बम का आविष्कार कर लिया होता और तब उन लोगों ने उसे न्यूयार्क और लंदन पर गिराया होता। कौन यह निर्णय करेगा और कैसे निर्णय करेगा कि वह व्यक्ति जिसने एटम बम गिराया, ठीक था अथवा गलत?
जीवन इतना अधिक जाल में फंसकर गुंथा हुआ है कि प्रत्येक घटना दूसरी घटनाओं की ओर ले जाती है और तुम जोकुछ भी करते हो, तुम लुप्त हो जाओगे, लेकिन तुमने जोकुछ भी किया है उसके परिणाम हमेशा-हमेशा के लिए निरंतर बने रहेंगे। उनका अंत नहीं हो सकता। तुम एक व्यक्ति की ओर देखकर मुस्कराते हो, यह एक छोटा-सा वृफत्य भी करने से तुमने अस्तित्व का पूरा गुण ही बदल दिया है क्योंकि वह मुस्कान बहुत-सी बातों का निर्णय करेगी।
ऐसा हुआ भी है। मैं गेटा गारबो की जीवन पढ़ रहा था। वह एक नाई की दुकान में काम करने वाली मामूली-सी लड़की थी। वह केवल लोगों के चेहरों पर ब्रुश से साबुन लगाती थी और वह वैसी ही समान बनी रहती क्योंकि वह पहले ही बाइस वर्ष की हो चुकी थी और तभी संयोग से एक अमरीकन फिल्म निर्देशक उस नाई की दुकान में आया। उस शहर में वैसी बाइस दुकानें और भी थीं। जब वह उसके चेहरे पर साबुन लगा रही थी तो वह दर्पण में लड़की की ओर देखते हुए मुस्कराया और उसने कहा-‘‘तुम कितनी सुंदर हो?’’- और प्रत्येक चीज़ बदल गई।
ग्रेटा गारबो से यह कहने वाला कि तुम कितनी अधिक सुंदर हो, वह पहला व्यक्ति था और उसने स्वयं भी यह कभी नहीं सोचा था कि वह सुंदर है क्योंकि तुम स्वयं के सुंदर होने के बारे में कैसे सोच सकते हो, यदि कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं कहता है।
वह पूरी रात सो न सकी। अगली सुबह खोज करती हुई वह उस निर्देशक के पास वहां पहुंची, जहां वह ठहरा हुआ था और उसने उससे कहा-‘‘क्या आप वास्तव में सोचते हैं कि मैं सुंदर हूं।’’
उस निर्देशक ने हो सकता है अकारण ही यह टिप्पणी की हो, यह कौन जानता है। लेकिन जब एक लड़की तुम्हें खोजती हुई तुम्हारे पास आकर तुमसे पूछती है-‘‘क्या वास्तव में? आपने मुझसे जोकुछ भी कहा था, क्या वास्तव में आपके लिए उसका कुछ भी अर्थ है? ...
इसलिए उस निर्देशक ने कहा-‘‘हां, तुम सुंदर हो।’’
तब ग्रेटा गारबो ने कहा-‘‘तब आप मुझे अपनी फिल्म में, जो आप बना रहे हैं, मुझे कोई काम क्यों नहीं देते?’’ अब परिस्थितियां बदलना शुरू हुईं और ग्रेटा गारबो सबसे अधिक प्रसिद्ध अभिनेत्रियों में से एक बन गई।
बहुत छोटी-सी चीज़ें चारों ओर गतिशील हैं और वे चलती चली जाती हैं। यह एक झील में एक छोटा-सा पत्थर पेंफकने के समान है। इतना अधिक एक छोटा-सा पत्थर और तब लहरें आगे और आगे बढ़ती चली जाती हैं तथा वे वास्तविक अंत तक जाएंगी। जिस समय तक वे किनारे पर पहुंचती हैं, उससे बहुत पहले ही पत्थर गहरे तल में जाकर स्थिर होकर खो जाता है।
वह पत्थर ही अस्तित्व के पूरे गुण बदल देगा, क्योंकि वह सभी कुछ एक जाल है, वह ठीक एक मकड़ी के जाले के समान है, तुम कहीं से भी उसे छुओ, उसे थोड़ा-सा हिलाओ, तो पूरे जाल में तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं। प्रत्येक जगह उसका अनुभव किया जाता है। तुम एक व्यक्ति की ओर देखकर मुस्कराते हो- और पूरा संसार एक मकड़ी का जाला है और उस मुस्कान के द्वारा पूरा परमात्मा ही बदल जाता है।
लेकिन कैसे निर्णय किया जाए? वृफष्ण कहते हैं कि तुम्हें निर्णय के साथ चिंता करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह एक ऐसी विराट चीज़ है कि तुम कभी भी एक निर्णय लेने में समर्थ न हो सकोगे। इसलिए परिणाम के बारे में फिक्र मत करो, सामान्य रूप से स्थिति को प्रत्युत्तर दो। स्वयं प्रवर्तित, सजग और एक साक्षी बने रहो तथा एक कर्ता मत बनो।
एक भिक्षु ने तेजी से तोकाई के शयनकक्ष में प्रवेश करते हुए
और चिल्लाते हुए कहा-एक आग, एक आग लग गई है।’’
थोड़ा-सा उठते हुए तोकाई ने पूछा-‘‘ओह! कहां? कहां’’ भिक्षु ने चिल्लाते हुए कहा-‘‘वह रसोईघर के फर्श पर नीचे लगी हुई है, आप तुरंत उठ जाइये।’’ उनींदी स्थिति में डूबे हुए सद्गुरु ने कहा-‘‘बस, रसेईघर में? ठीक है, मुझे बताना कि आगे क्या हुआ और जब वह गलियारे तक पहुंचे, तब लौटकर आना और मुझे बताना।
जब वह वर्तमान का भाग बन जाती है, जब मुझे बताना। वह अभी भी भविष्य में है, मुझे परेशान मत करो।
और तोकाई शीघ्र ही फिर से खर्राटे लेने लगा।
एक बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति का यही लक्षण होता है : इतना अधिक विश्राममय, कि यद्यपि रसोईघर में आग लगी हुई है, आग मठ में फैल रही है- प्रत्येक व्यक्ति उत्तेजित होकर चारों ओर दौड़ रहा है और कोई भी नहीं जानता कि क्या होने जा रहा है, प्रत्येक चीज़ अव्यवस्थित है और वह शिथिल होकर फिर से नींद में चला जाता है। बिना कोई समय लिए वह खर्राटे लेने लगा।
यह तनावहीनता प्रकाशित होनी चाहिए और एक गहन आस्था कि जोकुछ भी होता है, अच्छा है, उसे भी प्रकाशित होना है। वह चिंतित नहीं है, यदि वह मर भी जाता है तो भी वह परेशान नहीं है और यदि आग आती है तथा उसे जला देती है तो भी उसे तनिक भी फिक्र नहीं है क्योंकि अब वह और अधिक है ही नहीं। वहां अहंकार नहीं है, अन्यथा वहां भय भी होगा, वहां फिक्र होगी, वहां एक भविष्य होगा वहां एक योजना होगी और वहां स्वयं को बचाकर पलायन कर जाने की एक कामना होगी। वह चिंतित नहीं है वह पूरी तरह से नींद में विश्रामपूर्ण होकर वापस लौट जाता है।
मन का केंद्र अहंकार ही है और यदि तुम्हारे पास एक मन है और अहंकार है तो वहां विश्राममय होने की कोई भी संभावना नहीं है। तुम तनावग्रस्त होगे, तुम तनाव में बने रहोगे। फिर विश्राम कैसा? क्या वहां विश्राममय होने का कोई उपाय है? वहां कोई भी उपाय नहीं है यदि वहां समझ नहीं है। यदि तुम संसार के स्वभाव को और इस वास्तविक अस्तित्व के स्वभाव को समझते हो, तब तुम फिक्र करने वाले होते कौन हो और तब तुम क्यों परेशान स्थिति में निरंतर बने रहो?
तुम्हारे जन्म लेने के बारे में किसी भी व्यक्ति ने तुमसे नहीं पूछा था और जब तुम्हारे लिए अलग होने का समय आता है तो कोई भी व्यक्ति तुमसे पूछने नहीं जा रहा है। तब चिंतित क्यों होते हो? तुम्हारे जन्म लेने की घटना घटित हुई और तुम्हारी मृत्यु भी घटित होगी, तुम बीच में आने वाले होते कौन हो?
सभी कार्य घटित हो रहे हैं। तुम भूख लगने का अनुभव करते हो, तुम प्रेम करने का अनुभव करते हो, तुम क्रोधित होने का अनुभव करते हो- तुम्हारे साथ प्रत्येक चीज़ घटित होती है, पर तुम एक कर्ता नहीं हो। प्रवृफति तुम्हारी देखभाल करती है। तुम भोजन करते हो और प्रवृफति उसे पचाती है, तुम्हें इस बारे में फिक्र करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है कि पेट कैसे कार्य कर रहा है और कैसे भोजन रक्त बनता जा रहा है। यदि तुम इस बारे में बहुत अधिक तनावग्रस्त हो जाते हो तो तुम्हारे उदर में साधारण नहीं बड़े-बड़े फोड़े हो जाएंगे। फिक्र करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है।
यह ‘पूर्ण’ गतिशील हो रहा है। यह विराट और अनंत सागर गतिशील हो रहा है। तुम उसके अंदर की केवल एक लहर हो। विश्राम करो और कार्यों को होने दो।
एक बार तुम जान लेते हो कि कैसे बिना फिक्र के विश्रामपूर्ण ढंग से रहा जाए तो तुमने वह सभी कुछ जान लिया जो जानने योग्य है। यदि तुम नहीं जानते हो कि कैसे बिना फिक्र के विश्रामपूर्ण ढंग से रहा जाए तो तुम जोकुछ भी जानते हो वह व्यर्थ है, वह एक कूड़ा-कर्कट है।
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