प्रवचन-चौथा
सभी आशाएं झूठी हैं
( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)
पहला प्रश्नः
ओशो! आप हमें बताते रहे हैं कि अपने अहंकार को छोड़ना और श्वेत बादलों के साथ एक हो जाना कितना अधिक सरल है। आपने हमें यह भी बताया है कि हमारे लाखों जन्म हुए हैं और उनमें से अनेक में हम कृष्ण और क्राइस्ट जैसे बुद्धों के साथ रहे हैं, पर तब भी हम अपने अहंकारों को नहीं छोड़ पाए।क्या आप हमारे अंदर झूठी आशाएं उत्पन्न कर रहे हैं?
सभी आशाएं झूठी हैं। आशा करना ही अपने आप में झूठ है, इसलिए यह प्रश्न झूठी आशाएं निर्मित करने का नहीं है। तुम जो भी आशा कर सकते हो, वह झूठी ही होगी। आशा तुम्हारे मिथ्या होने की स्थिति से आती है। यदि तुम वास्तविक और प्रामाणिक हो तो किसी भी आशा की कोई आवश्यकता ही नहीं है। तब तुम भविष्य के बारे में सोचते ही नहीं कि कल क्या घटित होगा? तुम वर्तमान के क्षण में इतने अधिक सच्चे और इतने अधिक प्रामाणिक होते हो कि भविष्य विलुप्त हो जाता है।
जब तुम अवास्तविक होते हो, तब भविष्य बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है, तब तुम भविष्य में ही जीते हो। तब तुम्हारी वास्तविकता यहीं और अभी नहीं होती, तुम्हारी वास्तविकता कहीं और तुमसे दूर, तुम्हारे सपनों में होती है।
तुम उन स्वप्नों को ही सच दिखाने का प्रयास करते हो क्योंकि उन्हीं सपनों से तुम अपनी वास्तविकता को पाते हो। तुम जैसे हो, तुम नकली और झूठे हो। यही कारण है कि इतनी अधिक आशाएं बनी ही रहती हैं। तुम्हारी सभी आशाएं झूठी हैं : केवल तुम वास्तविक हो और मेरा पूरा प्रयास यही है कि कैसे तुम्हें, तुम्हारे ही भीतर गिरा सकूं, कैसे तुम से ही तुम्हारा परिचय करवा सकूं।
बहुत सी झूठी आशाओं का एक साथ जुड़ जाना ही अहंकार है। अहंकार एक वास्तविकता नहीं है, वह तुम्हारे सभी झूठे सपनों की, भ्रामक सपनों की एक भीड़ है। वर्तमान के क्षण में अहंकार का अस्तित्व हो ही नहीं सकता। इसे अच्छी तरह से समझ लो। अहंकार का अस्तित्व सदैव ही अतीत में अथवा भविष्य में होता है, वह कभी भी ‘यहीं और अभी’ में नहीं हो सकता- कभी भी नहीं। यह असंभव है। जब भी तुम अतीत के बारे में सोचते हो, तो अहंकार आ जाता है : ‘मैं’ आ जाता है। जब कभी तुम भविष्य के बारे में सोचते हो, तो ‘मैं’ आ जाता है, लेकिन जब तुम अतीत और भविष्य के बारे में नहीं सोचते हो, तुम केवल वर्तमान में हो- अभी और यहीं, तब तुम्हारा ‘मैं’ कहां होता है? एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए, अतीत और भविष्य से परे, केवल उसी वर्तमान के क्षण में, तुम कहां होते हो? तुम्हारा ‘मैं’ कहां होता है? उस क्षण तुम उसका अनुभव नहीं कर सकते क्योंकि वह वहां है ही नहीं। अहंकार का अस्तित्व वर्तमान में कभी होता ही नहीं है। अतीत जा चुका, वह अब नहीं है और भविष्य अभी आया नहीं है, दोनों ही विद्यमान नहीं हैं। केवल वर्तमान है और वर्तमान में अहंकार जैसी कोई चीज कभी पाई ही नहीं जाती।
इसलिए जब मैं कहता हूं कि अहंकार को छोड़ दो, तो मेरे कहने का क्या अर्थ है? मैं तुम्हें एक नई आशा नहीं दे रहा हूं, बल्कि मैं तुमसे तुम्हारी सभी आशाएं छीन रहा हूं और तुम्हारी सभी आशाओं को तुमसे दूर ले जा रहा हूं। बस यही कठिनाई है क्योंकि तुम आशाओं के सहारे ही जीते हो, इसलिए तुम यह अनुभव करते हो कि यदि तुम्हें सभी आशाओं से दूर कर लिया जाएगा तो तुम मर ही जाओगे।
तब प्रश्न उत्पन्न होगा कि फिर क्यों जिया जाए? आखिर किसके लिए जिया जाए? एक एक पल, एक एक घड़ी क्यों और कैसे जीवन को निकाला जाए? आशाओं के विलुप्त होने के साथ ही लक्ष्य भी मिट जाता है, इसलिए बिना किसी लक्ष्य के आगे बढ़ना, समुद्र में भटके हुए जहाज जैसा लगता है। यदि जीवन में कहीं पंहुचना नहीं है तो क्यों आगे बढ़ा जाए? यदि कोई मंजिल ही नहीं है तो क्यों चलना जारी रखें? इसलिए तुम आशाओं के बिना जी ही नहीं सकते। इसी कारण अहंकार को छोड़ना इतना अधिक कठिन हो जाता है। आशा जीवन का पर्याय बन गई है।
इसलिए जब कभी भी एक व्यक्ति कोई आशा करता है, तो वह कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण, कहीं अधिक जीवंत और कहीं अधिक शक्तिशाली प्रतीत होता है। जब वह आशा नहीं करता है, तो वह निर्बल और निराश प्रतीत होता है, जैसे वह पिछड़ गया हो, वह नहीं जानता है कि उसे अब क्या करना है और कहां जाना है? जब जीवन में कोई आशा नहीं होती है, तब तुम अपने भीतर एक अर्थहीनता का अनुभव करते हो और तुरंत एक दूसरी आशा निर्मित करते हो, तुम एक विकल्प निर्मित कर लेते हो। यदि एक आशा निराश कर देती है तो तुरंत दूसरी आशा उसके स्थान पर प्रतिस्थापित हो जाती है क्योंकि तुम बिना आशा के, बिना स्वप्न के, जीवन के एक लक्ष्यहीन अंतराल में जी ही नहीं सकते।
मैं तुमसे कहता हूं कि जीने का केवल यही एक मार्ग है। बिना आशा के ही जीवन सच्चा है और आशा हीन क्षणों में ही पहली बार यह जीवन प्रामाणिक होता है।
दूसरी बात भी समझ लेने जैसी है, जब मैं कहता हूं कि अहंकार को छोड़ना आसान है, तो मेरे कहने का यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारे लिए अहंकार छोड़ना आसान है। मेरा अर्थ यह है कि अहंकार छोड़ना आसान है, क्योंकि वह अवास्तविक है। यदि यह समझ आ जाए कि अहंकार अवास्तविक है, झूठ है, मिथ्या है तो उसे छोड़ना कैसे कठिन हो सकता है? यदि सपना, केवल एक सपना है तो उससे बाहर आना कठिन कैसे हो सकता है? हां, यदि वह सपना सच हो तो कठिनाई हो सकती है। यदि एक सपना केवल सपना ही है, तो उससे बाहर आने में समस्या कहां है? तुम उससे बाहर आ सकते हो। सपना तुम्हें पकड़कर नहीं रख सकता, सपना तुम्हें रोक नहीं सकता, सपना एक अवरोध नहीं बन सकता, क्योंकि वह वास्तविक ही नहीं है। सपने के पास कोई शक्ति नहीं होती है, इसी कारण हम उसे एक सपना कहते हैं। एक सपने से बाहर आना आसान है। मेरे कहने का ठीक यही अर्थ है, जब मैं कहता हूं कि अहंकार को छोड़ना आसान है।
लेकिन मेरा यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह तुम्हारे लिए आसान होगा, क्योंकि सपना अभी भी तुम्हारे लिए एक वास्तविकता है, वह मात्र एक सपना नहीं है। तुम्हारे लिए अहंकार झूठा अथवा मिथ्या नहीं है, वह ही केवल तुम्हारी एकमात्र सच्चाई है। इस अहंकार के अलावा अन्य प्रत्येक वस्तु तुम्हारे लिए मिथ्या है। हम अहंकार के ही चारों ओर जी रहे हैं। हम अधिक से अधिक अहंकारपूर्ण यात्राओं की खोज पर जा रहे हैं। कोई व्यक्ति धन के द्वारा, कोई पद-प्रतिष्ठा और शक्ति के द्वारा, कोई राजनीति के द्वारा और कोई धर्म और पंडिताई के द्वारा। अहंकार की ओर जाने के लाखों मार्ग है परंतु उनका अंतिम बिंदु, उनका परिणाम, उन सब की मंजिल एक है, और वह है अधिक से अधिक ‘मैं’ की खोज करना... अधिक से अधिक अहंकार की तलाश करना।
तुम्हारे लिए यह अहंकार ही एक सत्यता है और मैं जोर देकर कहता हूं कि तुम्हारे लिए केवल यही वास्तविकता है। नकली ही असली बन गया है। छाया ही सार वस्तु बन गई है। इसी कारण वह कठिन है। कठिन इसलिए नहीं है कि अहंकार बहुत अधिक शक्तिशाली है। वह कठिन इसलिए है, क्योंकि तुम अभी भी उसमें विश्वास रखते हो और उसकी शक्ति में तुम्हारी आस्था है। यदि तुम उसमें विश्वास करते हो तो निश्चित ही यह कठिन होगा, क्योंकि एक ओर तो तुम उसे छोड़ना चाहते हो और दूसरी ओर तुम उससे चिपके भी रहते हो। यह कठिन होगा। जब मैं तुमसे कहता हूं कि यह एक सपना है, तब तुम उस पर विश्वास करना चाहते हो, क्योंकि तुमने इस अहंकार के द्वारा बहुत अधिक दुख उठाए हैं और जो मैं कह रहा हूं तुम उसकी सच्चाई को भी अनुभव करते हो। यदि तुम उस सच्चाई का अनुभव कर रहे हो जो मैं कह रहा हूं, तो तुम इस अहंकार को तुरंत छोड़ दोगे। तुम यह नहीं पूछोगे कि कैसे? इस ‘कैसे’ का तब कोई औचित्य ही नहीं है। अगर तुम बात को गहराई से समझ जाते हो तो तुरंत ही उसे छोड़ दोगे।
तुम मेरी बातों के पीछे छिपे सत्य को नहीं देखते। जब मैं कहता हूं कि यह जाना ही नहीं गया है कि अहंकार झूठा है और उसे छोड़ा जा सकता है; जब मैं कहता हूं कि अहंकार को छोड़ा जा सकता है, तो तुम उससे भी एक आशा निर्मित कर लेते हो, क्योंकि तुम उसके द्वारा बहुत अधिक कष्ट उठा चुके हो, तुम एक आशा निर्मित करते हो कि यदि अहंकार को छोड़ा जा सके तो सारे दुख और कष्ट भी छूट जाएंगे। तुम इस उम्मीद से खुश हो जाते हो।
मैं आशा निर्मित नहीं कर रहा हूं। तुम ही आशा निर्मित कर रहे हो। मैं सामान्य रूप से एक तथ्य बता रहा हूं कि अहंकार का निर्माण किस प्रकार होता है? कैसे अहंकार का ढांचा निर्मित होता है? और कैसे उसे छोड़ा जा सकता है? क्योंकि अहंकार मिथ्या है, भ्रम है, इसलिए किसी तरह का प्रयास आवश्यक नहीं है। केवल उसकी स्थिति और उसके प्रयोजन को देखने से ही वह विलुप्त हो जाता है।
एक व्यक्ति डर से भाग रहा है, वह मृत्यु से भयभीत है और अपनी छाया से ही भाग रहा है। तुम उसे रोकते हो और कहते हो कि तुम मूर्ख हो, अपनी ही छाया से भाग रहे हो, कोई भी व्यक्ति तुम्हारा पीछा नहीं कर रहा है और न कोई तुम्हारी हत्या करने जा रहा है। तुम्हारे सिवा अन्य कोई मौजूद ही नहीं है और तुम अपनी ही छाया से डर गए हो। लेकिन एक बार तुम भागना शुरू करते हो, तो छाया भी तेज़ी से तुम्हारे पीछे भागती है। तुम जितना अधिक तेज़ दौड़ते हो, छाया उतनी ही तेज़ी से पीछा करती है। तब तर्कपूर्ण मन कह सकता है कि तुम खतरे में हो और तर्कपूर्ण मन यह भी कहेगा कि यदि इससे छुटकारा पाना चाहते हो तो बहुत तेज़ गति से भागो। पर तुम जो कुछ भी करते हो, छाया तुम्हारा अनुसरण करती है। यदि तुम छाया से छुटकारा नहीं पा सकते तो तुम और अधिक डर जाओगे। तुम स्वयं ही पूरी स्थिति का निर्माण कर रहे हो।
लेकिन यदि मैं तुमसे कहता हूं- ‘यह केवल एक छाया है और कोई भी तुम्हारा पीछा नहीं कर रहा है।’ यदि तुम इस बात को समझ लेते हो, जान लेते हो, तब तुम छाया की ओर देखते हो और सहजता से स्थिति को अनुभव कर लेते हो। तब क्या तुम मुझसे यह पूछोगे कि इस छाया को कैसे छोड़ा जाए? क्या तब तुम किसी युक्ति, किसी विधि अथवा किसी योग प्रक्रिया के बारे में पूछोगे? तुम स्वयं पर ही हंसोगे। तब तुमने उसे छोड़ दिया है।
जिस क्षण तुम देख लेते हो कि यह केवल एक छाया है और कोई भी व्यक्ति तुम्हारा पीछा नहीं कर रहा है, तब बात स्पष्ट हो जाती है और छाया स्वतः ही छूट जाती है। वहां यह प्रश्न ही नहीं उठता कि कैसे? तुम ठहाका लगाकर हंसोगे कि तुम्हारे तर्क का यह संपूर्ण खेल ही मूर्खतापूर्ण था।
ठीक ऐसा ही अहंकार के साथ भी होता है। जो मैं कह रहा हूं यदि तुम उसके सार को, उसकी सत्यता को समझ सको तो घटना घट जाती है। केवल इतना समझने मात्र से ही बात बन जाती है। बार बार ‘क्यों’ पूछने का कोई मतलब ही नहीं हैं। यदि फिर भी तुम पूछते हो कि कैसे? तो घटना नहीं घटी है और तुम उस स्थिति को नहीं देख पाए, नहीं समझ पाए हो। तुमने उससे एक आशा निर्मित कर ली है, क्योंकि तुम इस अहंकार के द्वारा बहुत कष्ट भोगते रहे हो। तुमने हमेशा इसे छोड़ना चाहा है, लेकिन यह चाह हमेशा तुम्हारे अधूरे मन से ही उठी है।
तुम्हारी समस्त पीड़ा, सभी कष्ट, अहंकार के द्वारा आए हैं, लेकिन तुम्हारे सभी सुख भी अहंकार के द्वारा ही आए हैं। एक भीड़ तुम्हारी प्रशंसा करती है, तुम्हारी जय-जयकार करती है, तालियां बजाती है तो तुम्हें अच्छा अनुभव होता हैं। केवल यही वह आनंद है जिसे अब तक तुमने जाना है। तुम्हारा अहंकार ऊंचा उठता है, वह शिखर पर पहुंच जाता है और एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ जाता है। तुम इसका मज़ा लेते हो, आनंदित होते हो। जब वही भीड़ एक दिन तुम्हारा तिरस्कार करती है, तुम्हारी निंदा करती है तो तुम दुखी हो जाते हो, तुम्हारी भावना को चोट लगती है। वही भीड़ है जो बदल जाती है, वही भीड़ तुम्हें अनदेखा करती है, तुम्हारे प्रति उदासीन हो जाती है और तुम उसके द्वारा कुचल दिए जाते हो। तब तुम अवसाद की एक गहरी घाटी में गिर जाते हो। तुम अहंकार के द्वारा सुखी होते रहे हो और अहंकार के द्वारा ही दुखी होते रहे हो। दुखों के कारण तुम अहंकार को छोड़ना चाहते हो परंतु सुखों के कारण तुम इसे छोड़ भी नहीं पाते हो।
इसलिए जब मैं कहता हूं कि अहंकार आसानी से छोड़ा जा सकता है, तुम्हारे अंदर एक आशा जन्म लेती है। मैं कदापि इस आशा को निर्मित नहीं कर रहा हूं, बल्कि तुम्हारा लालच ऐसा करता है। जब तक तुम अनुभव नहीं कर लेते, यह लालच बना रहेगा ताकि और अधिक प्रसन्नता और आनंद को खोजा जा सके। तुम अनुभव करते हो कि अब एक रास्ता है और एक ऐसा व्यक्ति है, जो अहंकार और उसके द्वारा निर्मित सभी दुखों को मिटाने और छोड़ने में तुम्हारी सहायता कर सकता है। परंतु क्या तुम उन सभी सुखों को छोड़ने के लिए तैयार हो, जो अहंकार द्वारा ही निर्मित होते हैं? यदि तुम सचमुच तैयार हो तो यह बहुत ही आसान होगा, बिल्कुल वैसे ही जैसे एक छाया को छोड़ना। परंतु तुम इसके आधे भाग को छोड़कर, बाकी आधे भाग के साथ नहीं जा सकते। या तो यह पूरा ही जाएगा अथवा पूरा ही तुमसे चिपका रहेगा। यही समस्या है और यही कठिनाई है। तुम्हारे सभी सुख और तुम्हारे सभी दुख एक ही तथ्य से संबंधित हैं, परंतु तुम सुखों को तो सुरक्षित रखना चाहते हो और दुखों को छोड़ना चाहते हो। तुम असंभव की मांग कर रहे हो। तब यह कठिन है, न केवल कठिन है बल्कि असंभव भी है। यह कभी घटित नहीं हो पाएगा। तुम जो कुछ भी करोगे, वह व्यर्थ होगा, उससे कोई भी परिणाम नहीं निकलेगा।
तुम एक उम्मीद निर्मित कर लेते हो, एक स्वर्ग की उम्मीद और बुद्ध के सघन परमानंद की स्थिति की आशा निर्मित कर लेते हो। मुझे सुनते हुए अथवा जीसस को सुनते हुए अथवा बुद्ध को सुनते हुए यही आशा उत्पन्न होती है। मगर मैं इसे निर्मित नहीं कर रहा हूं, तुम ही इसे निर्मित कर रहे हो। तुम इस पर अपनी आशा भरी योजनाएं थोप रहे हो और यही परेशानी है, यही जटिलता है कि प्रत्येक आशा फिर से अहंकार के लिए एक भोजन बन जाती है। यहां तक कि स्वर्ग पाने की आशा और बुद्धत्व को उपलब्ध होने की आशा भी एक आशा ही है और अहंकार के लिए प्रत्येक आशा एक भोजन है।
बुद्धत्व को उपलब्ध होने का प्रयास कौन कर रहा है? जो बुद्धत्व को उपलब्ध होने का प्रयास कर रहा है, वह समस्या ही है। कोई भी कभी बुद्ध बनता नहीं है। बुद्धत्व तो घटित होता है, कोई भी व्यक्ति अभी तक प्रयास से बुद्ध नहीं बना है। जब कक्ष खाली है, शून्य है, तब बुद्धत्व घटित होता है। जब वहां कोई है ही नहीं जो बुद्धत्व तक पहुंच सके, तब बुद्धत्व घटता है। भाषा के कारण, भाषा की द्वैतता के कारण गूढ़ रहस्यों के बारे में जो कुछ भी कहा जाता है, वह गलत हो जाता है।
हम कहते हैं : गौतम बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। यह गलत है। गौतम बुद्ध कभी भी किसी प्रयास से बुद्ध नहीं बने। गौतम बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हुए। बल्कि जब वे वहां नहीं थे, जब वह अनुपस्थित हो गए, तब बुद्धत्व घटित हो गया। एक दिन अचानक उन्होंने अनुभव किया कि वह एक मूर्खतापूर्ण और बेतुके ढांचे का अनुसरण कर रहे थे। जैसे ही उन्होंने यह अनुभव किया कि ‘मैं ही समस्या हूं, इसलिए मैं जो कुछ भी कहता हूं, वह और अधिक समस्याएं निर्मित करेगा... ’ यह प्रश्न ठीक अथवा गलत का नहीं है। तुम जो कुछ भी करोगे, वह अहंकार को मजबूत बनाएगा। एक बार बुद्ध ने इसका अनुभव किया लेकिन यह अनुभूति उन्हें अनेक वर्षों के प्रयास के बाद हुई। जब उन्हें यह अनुभूति हो गई कि मैं जो कुछ भी करता हूं उससे मेरे अहंकार को और अधिक सहायता मिलती है, तो उन्होंने पूरी तरह से क्रिया को छोड़ दिया। उस अनुभूति के क्षण में वह सामान्य रूप से एक अकर्ता बन गए, वह पूर्ण रूप से निष्क्रिय हो गए।
स्मरण रहे, यही समस्या है। तुम अपनी निष्क्रियता से भी सक्रियता निर्मित कर सकते हो अथवा तुम केवल निष्क्रियता को लाने हेतु सक्रियता निर्मित कर सकते हो। परंतु तब तुम विफल हो जाते हो। तुम स्थिर खड़े रह सकते हो, तुम शांत होकर बैठ सकते हो, लेकिन यदि तुम स्थिर खड़े रहने का प्रयास कर रहे हो, तो तुम्हारा खड़ा होना नकली और मिथ्या है। तब तुम खडे़े नहीं हो, तुम गतिशील हो। यदि तुम शांत बैठने का प्रयास कर रहे हो तो तुम्हारा बैठना नकली और झूठा है, तब तुम शांत और मौन नहीं हो।
जब बुद्ध ने यह अनुभव किया कि वे स्वयं ही समस्या थे और उनकी प्रत्येक गतिविधि ने उनके अहंकार को और अधिक बल दिया है तो उन्होंने सबकुछ पूरी तरह से छोड़ दिया। तब वह निष्क्रिय स्थिति को निर्मित करने का कोई भी प्रयास नहीं कर रहे थे। जो कुछ भी हो रहा था, वह बस घट रहा था। वायु बह रही थी और वृक्ष शायद नाच रहे होंगे; तभी पूर्णिमा का चांद उदय हुआ और पूरा अस्तित्व जैसे उत्सव मना रहा था। श्वास अंदर आ रही थी, श्वास बाहर जा रही थी, धमनियों में रक्त बह रहा था, हृदय धड़क रहा था, सबकुछ बस हो रहा था। वे कुछ भी स्वयं से निर्मित नहीं कर रहे थे। इसी अक्रिया की स्थिति में गौतम सिद्धार्थ मिट गए, वे कहीं विलुप्त हो गए।
सुबह होने पर वहां बुद्धत्व का स्वागत करने के लिए कोई भी शेष बचा ही नहीं था, लेकिन बुद्धत्व वहां था। उस बोधि वृक्ष के नीचे एक शून्य-वाहन बैठा हुआ था, वह निश्चित रूप से श्वास ले रहा था, निश्चित ही उसका हृदय पहले से बेहतर धड़क रहा था। सब कुछ परिपूर्णता से घट रहा था लेकिन वहां कोई कर्ता न था। रक्त संचार हो रहा था और संपूर्ण अस्तित्व चारों ओर जीवंत होकर नृत्य कर रहा था। बुद्ध के शरीर का प्रत्येक रोम जीवंत बनकर नाच रहा था। वे इतने अधिक जीवंत कभी भी नहीं थे, लेकिन अब उर्जा अपने आप ही गतिशील हो रही थी। उसे कोई भी संचालित नहीं कर रहा था, उसे कोई भी नियंत्रित नहीं कर रहा था। बुद्ध एक श्वेत बादल बन गए और बस बुद्धत्व घटित हुआ।
वह तुम्हें भी घटित हो सकता है, लेकिन उससे कोई आशा निर्मित मत करो। वस्तुतः स्थिति को समझते हुए सभी आशाएं छोड़ दो। आशाविहीन बन जाओ, पूर्ण रूप से आशाएं टूट जाएं। हांलांकि पूरी तरह से आशाविहीन बन पाना बहुत कठिन है। अनेक बार तुम निराशा की स्थिति तक पहुंचते हो, लेकिन फिर भी कहीं किसी कोने में तुम्हें एक उम्मीद बनी रहती है, वह परिपूर्ण और समग्र निराशा नहीं होती है। एक आशा छूटती है तो तुम निराश हो जाते हो, लेकिन उस निराशा से दूर जाने के लिए, तुरंत ही तुम एक दूसरी आशा निर्मित कर लेते हो और वह निराशा समग्र नहीं रह जाती, वह निराशा अधूरी हो गई।
लोग एक गुरु के पास से दूसरे गुरु के पास भटकते रहते हैं, यह एक आशा से दूसरी आशा की ओर गतिशील होना है। वह एक सदगुरु के पास इस आशा के साथ जाते हैं कि उसके प्रताप से, उसकी ऊर्जा से उनकी कामनाएं पूरी हो जाएंगी। तब वे एक गुरु के पास, बहुत तनाव भरे मन के साथ प्रयास करते हैं, प्रतीक्षा करते हैं, क्योंकि एक मन, जो आशा से भरा है, वह कभी भी सहज नहीं हो सकता। वे बहुत अधैर्यपूर्ण मन के साथ प्रतीक्षा करते हैं क्योंकि एक मन जो आशा से भरा हो, कभी भी धैर्यशील नहीं हो सकता। जब वहां चीज़ें उनके अनुसार नहीं घटती हैं तो यह लोग बेचैनी का अनुभव करने लगते हैं। वे सोचते हैं कि यह सदगुरु गलत है और उन्हें किसी अन्य गुरु के पास जाना चाहिए। यह एक सदगुरु के पास से दूसरे सदगुरु के पास पलायन नहीं है बल्कि यह एक आशा से दूसरी आशा की ओर अग्रसर होना है। लोग एक धर्म से दूसरे धर्म में चले जाते हैं और ये धर्म-परिवर्तन केवल अधूरी आशाओं के कारण ही है। तुम इसी चक्रव्यूह में अनेकों वर्षों तक फंसे रह सकते हो और फंसे ही हुए हो, ऐसा तुम करते ही चले आ रहे हो।
अब इस बात को देखने और समझने का प्रयास करो। यह प्रश्न न तो एक सदगुरु का है और न ही किसी पद्धति का है, यह प्रश्न है एक प्रत्यक्ष अंतर्दृष्टि का, आंतरिक समझ का कि जो भी घट रहा है उसमें में तुरंत गहराई तक प्रवेश किया जाए और खोजा जाए कि क्या हो रहा है, क्यों तुम बार बार आशा करते हो? क्यों तुम बिना किसी आशा के नहीं रह सकते? और अपनी समस्त आशाओं से तुमने अभी तक क्या प्राप्त किया है? इसे देखो और समझो। केवल समझ लेने मात्र से वह स्वयं ही छूट जाती हैं, यहां तक कि तुम्हें उन्हें छोड़ने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। इसी कारण मैं कहता हूं कि यह आसान है और मैं भलीभांति जानता हूं कि यह बहुत कठिन भी है। कठिन केवल तुम्हारे कारण है और आसान इसलिए है क्योंकि वह स्वयं ही छूट जाती है। बात बहुत सरल है, परंतु तुम ही कठिन हो।
यह किसी भी क्षण घट सकता है। जब मैं कहता हूं कि यह किसी भी क्षण घट सकता है तो मेरा अर्थ बुद्धत्व से है, निरअहंकारिता से है, जो किसी कारण पर निर्भर नहीं है। खाली होने के लिए, शून्य होने के लिए, बुद्धत्व घटने के लिए कोई भी कारण आवश्यक नहीं है। बुद्धत्व किसी कारण का परिणाम नहीं है, यह कार्य-कारण संबंध से परे है, निश्चित ही यह कोई ‘बाय-प्रोडक्ट’ नहीं है। यह सामान्य रूप से एक सूक्ष्म अंतरदृष्टि है। ऐसा भी संभव है कि यह अंतरदृष्टि एक संत को न घटे और एक पापी को घट जाए।
इसलिए वास्तव में कोई आवश्यक स्थिति अथवा शर्त आवश्यक नहीं है। यदि कोई ध्यान से देख सके और समझ सके तो यह एक पापी को भी घट सकता है। यदि वह आशाविहीन हो जाता है, यदि वह अनुभव करता है कि प्राप्त करने जैसा कुछ भी नहीं है, यदि वह यह देख पाता है कि यह केवल एक मूर्खतापूर्ण खेल है, तो वह घटना पापी को भी घट सकती है। शायद एक संत को यह घटित न हो, क्योंकि संत सफलता में उत्सुक है, वह प्राप्त करने का प्रयास किए चला जाता है। उसने अभी भी आशा छोड़ी नहीं है। उसके लिए यह संसार तो व्यर्थ हो गया है, वह समझ गया है कि इस संसार से कुछ भी सार्थक नहीं मिलेगा, परंतु अब वह दूसरे संसार यानि स्वर्ग के लिए प्रयासरत हो गया है। उसे इस पृथ्वी को तो छोड़ना है, लेकिन इसके पार जो स्वर्ग है, अब वहां पहुंचना है।
यहां तक कि जीसस और बुद्ध के निकट रहकर भी लोग इस तरह की बातों में उलझे रहते हैं। ठीक उस अंतिम रात्रि को, जब जीसस पकड़े गए और अगले ही दिन उन्हें सूली पर चढ़ाया जाना था, तब भी उनके शिष्यों ने उनसे यही पूछा : ‘हे सदगुरु! कृपया हमें बताइये कि परमात्मा के राज्य में जब आप परमात्मा के सिंहासन के दाईं ओर बैठे होंगे तब प्रभु के उस राज्य में हम लोगों की स्थिति क्या होगी? हम लोग वहां किस क्रम में बैठे होंगे? परमात्मा अपने सिंहासन पर बैठा होगा, जीसस उनका एकमात्र इकलौता प्यारा पुत्र, परमात्मा के दाहिनी ओर होगा और तब ये बारह शिष्य, इनका क्या होगा? हम लोग वहां किस क्रम में बैठे होंगे’
जीसस के पास रहने वाले लोग ऐसा मूर्खतापूर्ण प्रश्न पूछ रहे हैं, लेकिन यह भी मनुष्य के मन का एक नमूना है। उनका मन इस संसार की कोई भी बात नहीं पूछता, वे लोग यहां भिखारी बन गए हैं, लेकिन वे दूसरे संसार के बारे में पूछ रहे हैं। वे लोग अभी भी उस दूसरे संसार के संदर्भ में आशावान हैं। उन्होंने इस संसार को दांव पर लगाया है, यह एक सौदेबाजी है कि ‘हम लोग वहां कहां होंगे? क्रम में आपके बाद हममें से कौन बैठेगा’
उन बारह शिष्यों के बीच, इस संदर्भ में निश्चित ही एक प्रतियोगिता रही होगी। वहां राजनीति, महत्त्वाकांक्षा, आगे जाने की होड़, किसी को नीचा दिखाने की होड़ और प्रमुख बनने की चाह अवश्य रही होगी। वहां अनिवार्य रूप से आंतरिक विवाद और राजनीति रही होगी, कहीं बहुत गहरे में हिंसा और आक्रामकता की तरंगे रही होंगी। यहां तक कि जीसस के साथ भी ये लोग अपनी उम्मीदें कायम रखे हुए हैं। तुम्हारे अंदर आशा की जड़ें अत्यंत गहरी हैं। जो कुछ भी कहा जाता है, तुम उससे एक आशा निर्मित कर लेते हो। तुम आशा निर्मित करने वाले एक यंत्र हो और यह ‘आशा-निर्माण यंत्र’ ही अहंकार है।
इसलिए करना क्या है? वास्तव में करना कुछ भी नहीं है। तुम्हें केवल निर्मल दृष्टि चाहिए जो अनुभव कर पाने में सक्षम हो, जो बोधपूर्ण हो, जो अंतरबेधी हो, विलक्षण हो और सूक्ष्म तथ्यों की परख रखने वाली हो। तुम्हें केवल इस चीज़ की जरूरत है कि तुम अपने और अपने अस्तित्व के प्रति एक नए दृष्टिकोण, एक नई छवि को आत्मसात कर सको। तुम जो भी करते हो, उसके बाबत तुम हमेशा एक नवीनता की उम्मीद करो।
और मैं तुमसे कहता हूं कि उस नवीनता में, उस नूतन दृष्टि में, उस निर्दोष दृष्टि में अहंकार स्वयं ही गिर जाता है, वह स्वेच्छा से मिट जाता है। यह सबसे आसान तो है परंतु साथ ही सबसे कठिन भी है, लेकिन भलीभांति स्मरण रहे कि मैं तुम्हारे अंदर कोई भी आशा निर्मित नहीं कर रहा हूं।
दूसरा प्रश्नः
ओशो! जैसा आपने बताया, उसी संदर्भ में एक झेन मुहावरा है : ‘प्रयास रहित प्रयास’; इस बारे में हमें समझाएं और यह कैसे आपके सक्रिय-ध्यान में निरूपित होती है, बताने की कृपा करें?
ध्यान ऊर्जा का संचालन है। सभी तरह की ऊर्जाओं के बारे में एक बहुत आधारभूत बात को समझ लेना है। यह एक मौलिक नियम है कि ऊर्जा दो विपरीतताओं में गतिशील होती है। ऊर्जा के गतिशील होने का यही एक ढंग है, इसके अलावा कोई दूसरा ढंग नहीं है। ऊर्जा सदैव दो विपरीत धु्रवों में गतिशील होती है। किसी भी ऊर्जा के सक्रिय होने के लिए, विपरीत ध्रुव आवश्यक है। यह ठीक विद्युत के समान है, जोऋणात्मक और धनात्मक दो विपरीत धु्रवों के साथ गतिशील होती है। यदि केवल ऋणात्मक धु्रव है तो विद्युत नहीं बहेगी और यदि केवल धनात्मक ध्रुव है तो भी विद्युत नहीं बहेगी। दोनों ध्रुव आवश्यक हैं। जब दोनों धु्रव मिलते हैं तो विद्युत निर्मित होती है, तब बिजली की चिंगारी उठती है।
यह बात सभी तथ्यों पर लागू होती है। यहां तक कि जीवन भी स्त्री और पुरूष नामक दो विपरीत धु्रवों के मध्य चलता है। स्त्री ऋणात्मक जीवन ऊर्जा है और पुरुष धनात्मक ध्रुव है। यह दोनों विद्युतमय है, इसीलिए इतना अधिक आकर्षण है। अकेले पुरुष के साथ जीवन विलुप्त हो जाता और अकेली स्त्री के साथ भी कोई जीवन नहीं हो सकता था। पुरुष और स्त्री के मध्य एक संतुलन बना रहता है। पुरुष और स्त्री, इन्हीं दो धु्रवों अथवा इन दो किनारों के मध्य जीवन की सरिता प्रवाहित होती है। तुम जहां कहीं भी देखो, तुम उस एक ऊर्जा को ही भिन्न-भिन्न विपरीत धु्रवों के मध्य संतुलन साधते हुए, गतिशील पाओगे।
यह विपरीत ध्रुव ध्यान के लिए भी बहुत अर्थपूर्ण हैं, क्योंकि मन तर्कपूर्ण है और जीवन द्वन्दात्मक है। जब मैं कहता हूं कि मन तर्कपूर्ण है तो मेरे कहने का अर्थ है कि मन एक सीधी रेखा में, एक ही दिशा में गतिशील होता है। जब मैं कहता हूं कि जीवन द्वन्दात्मक है, तो मेरा अर्थ है कि जीवन एक रेखा में नहीं है, वह विरोधाभासों के साथ गतिशील होता है। वह ऋणात्मक से धनात्मक और धनात्मक से ऋणात्मक पर डोलता रहता है। जीवन अनियमित है, जीवन विरोधाभास का प्रयोग करता है।
मन सामान्य रूप से एक सीधी रेखा में, एक निश्चित दिशा में गतिशील होता है। वह कभी भी विरोधाभास की ओर नहीं जाता। मन सामान्यतः विरोधाभास से इंकार करता है। मन अपनी सुरक्षा के लिए, एक ही दिशा में विश्वास करता है और जीवन दो में विश्वास करता है। इसलिए मन जो कुछ भी निर्मित करता है, वह हमेशा एक समय में एक का ही चुनाव करता है। यदि मन जीवन के उतार-चढ़ाव से थककर, शांत और मौन होना चाहता है तो वह केवल शांति और मौन का ही चुनाव करता है और हिमालय चला जाता है। वह शांति और मौन की एक दिशा पकड़ लेता है, तब वह किसी भी तरह के शोरगुल और आवाज़ के साथ नहीं रहना चाहता है। यहां तक कि पक्षियों के गीत भी अब उसे परेशान करेंगे, वृक्षों से गुजरती हुई हवा की आवाज़ भी उसके लिए एक बाधा होगी। मन शांति चाहता है और उसने इस शांति की दिशा को, इस एक मार्ग को ही पकड़ लिया है। अब मन उन सभी मार्गों को इंकार करेगा जो शांति के विरोधी हैं। परंतु एक व्यक्ति जो हिमालय में शांति खोज रहा है, और अन्य समस्त विरोधों से बच रहा है, वह एक मृतक के समान हो जाएगा। वह निश्चित रूप से सुस्त और मंद पड़ जाएगा। वह जितना अधिक शांत होने की कोशिश करेगा, वह उतना ही अधिक निरूत्साहित होता जाएगा क्योंकि जीवन की गतिशीलता विरोधभास और चुनौतियों से ही कायम है।
जीवन का मौन एक अलग तरह का होता है, वह दो विरोधाभास के मध्य होता है। पहला मौन मृत है, पार्थिव है, वह कब्रिस्तान का मौन है। एक मृतक पूर्णरूप से मौन हो जाता है, कोई भी उसे बाधा नहीं पहुंचा सकता है। वह पूर्णता स्थिर हो जाता है और तुम उसे विचलित करने हेतु कुछ भी नहीं कर सकते। उसका मौन पूर्ण रूप से अविचल है। यदि उसके चारों ओर का संसार विक्षिप्त भी हो जाए तब भी वह अपनी मूक और मुर्दा स्थिति में बना रहेगा। लेकिन किसी भी कीमत पर तुम एक मुर्दा व्यक्ति के समान नहीं बनना चाहोगे। मौन, एकाग्रता, स्थिरता जो भी नाम दो पर तुम एक मृतक की भांति नहीं होना चाहोगे क्योंकि मृतक का मौन अर्थहीन है, उस मौन में सौंदर्य नहीं है, प्राण नहीं हैं।
वास्तविक मौन तो तब घटित होता है जब तुम पूर्ण रूप से जीवंत हो, जिंदादिल हो, प्राण ऊर्जा से लबालब हो और एक उत्साह से भरे हुए हो। ऐसा जीवंत मौन ही अर्थपूर्ण होता है। लेकिन तब वह मौन एक भिन्न तरह का होगा, उसमें सर्वथा एक भिन्न गुण होगा। वह सुस्त और मंद नहीं होगा, वह जीवंत होगा। वह दो विरोधाभासों के मध्य एक सूक्ष्म संतुलन होगा।
तब इस तरह के लोग, जो एक जीवंत मौन और जीवन-संतुलन खोज रहे हैं, वे बाजार और हिमालय दोनों स्थानों में जाना चाहेंगे। ऐसा व्यक्ति बाजार भी जाएगा और शोरगुल का आनंद लेगा, और साथ ही वह शांति और मौन का आनंद लेने हेतु हिमालय जाना भी पसंद करेगा। वह इन दो विरोधी ध्रुवों के मध्य एक संतुलन निर्मित करेगा और वह उस संतुलन में स्वयं को बनाए रखेगा। ऐसा संतुलन एक ही दिशा में चलने वाले मन के रेखावत प्रयासों के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता।
यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसे कि ‘प्रयास रहित प्रयास’ की झेन विधि है। झेन तकनीकों में विरोधाभासी शब्द व्यवहार का प्रयोग किया जाता है : जैसे प्रयास रहित प्रयास, द्वारहीन द्वार और मार्गहीन मार्ग इत्यादि। झेन तुरंत ही और सदैव ही विरोधाभासी तथ्यों का प्रयोग करता है ताकि तुरंत ही तुम्हें संकेत मिल सके कि कोई भी प्रक्रिया सीधी-सरल और रेखागत नहीं है बल्कि द्वन्दात्मक है। इसलिए विरोधाभास से इंकार नहीं करना है, बल्कि उसे समाहित करना है, उसे अवशोषित कर लेना है। विरोध पृथक कर देने के लिए नहीं है, बल्कि उसका प्रयोग करना है। विरोध को पृथक करके देखने से, यह तुम पर एक बोझ बना रहेगा और तुम्हारे साथ ही मुरझा जाएगा। वह विरोध अनुपयोगी रहेगा, अनछुआ रहेगा और तुम एक अनमोल अनुभव खो दोगे। ऊर्जा रूपांतरित की जा सकती है और उसका प्रयोग किया जा सकता है। ऊर्जा के इस बेहतर प्रयोग द्वारा तुम अधिक जीवंत और प्राणवान हो जाओगे। विरोध को भी समेट लेना होगा, अवशोषित कर लेना होगा, तब प्रक्रिया द्वन्द्वात्मक बन जाती है।
प्रयासहीनता का अर्थ है : कोई भी कार्य न करना, अक्रिया या अकर्म। प्रयास का अर्थ है बहुत अधिक कार्य करना- क्रिया अर्थात कर्म। ‘प्रयास रहित प्रयास’ में दोनों को ही बने रहना है। कार्य करना है लेकिन कर्ता नहीं बनना है, अकर्ता ही बने रहना है। तब तुम दोनों किनारों को अनुभव कर सकोगे। संसार में गतिशील रहो, लेकिन उसका भाग मत बनो। संसार में रहो, लेकिन संसार को अपने अंदर न रहने दो। इस तरह विरोधाभास अवशोषित कर लिया गया है। अब तुम किसी भी वस्तु को अस्वीकार नहीं कर रहे हो, किसी भी वस्तु से इंकार नहीं कर रहे हो, तब तुमने समग्र स्वीकार किया है, पूरे अस्तित्व को स्वीकार कर लिया है। बस यही तो मैं भी कर रहा हूं। सक्रिय ध्यान एक विरोधाभास है। सक्रिय होने का अर्थ है प्रयास, बहुत अधिक प्रयास या संपूर्ण प्रयास तथा ध्यान का अर्थ है शांति, मौन, कोई भी प्रयास नहीं या अक्रिया। तुम इसे एक द्वंद्वात्मक ध्यान कह सकते हो। पहले तो इतने अधिक सक्रिय बनो कि केवल तुम्हारी ऊर्जा ही बचे, ऊर्जा का एक संवेग उठ जाए और वह एक बवंडर बन जाए, तुम्हारे अंदर कोई भी ऊर्जा स्थिर न बचे। समस्त ऊर्जा बाहर की ओर उमड़ पड़े, भीतर कुछ भी न बचा रहे। ऐसा हो जैसे कि जमी हुई ऊर्जा पिघल रही है और बाहर की ओर बह रही है। अब तुम एक जमी हुई, मृत वस्तु नहीं हो, तुम सक्रिय हो गए हो। अब तुम एक जड़ पदार्थ नहीं हो, तुम एक चेतन ऊर्जा हो। तुम भौतिक और स्थूल नहीं रहे, अब तुम सूक्ष्म और विद्युतमय हो गए। क्रिया में अपनी पूरी शक्ति लगा दो, समस्त ऊर्जा लगा दो, समग्रता से क्रियाशील हो जाओ, एक भंवर की तरह गतिशील हो जाओ।
जब प्रत्येक वस्तु गतिशील है और तुम एक चक्रवात बन गए हो, तब उस क्षण में सजग हो जाओ। स्मरण रहे... होशपूर्ण रहो और तभी इस चक्रवात में अचानक तुम एक केंद्र खोज लोगे, जो पूर्ण रूप से शांत और मौन है। यही चक्रवात का केंद्र है और यह तुम हो- तुम अपने दिव्य-स्वरूप में हो, तुम यहां परमात्मा की भांति हो।
तुम्हारे चारों ओर सक्रियता है। तुम्हारा शरीर एक सक्रिय चक्रवात बन गया है। प्रत्येक वस्तु बहुत तेज़ी से गतिशील है। सभी जमे हुए भाग पिघल गए हैं और तुम प्रवाहित हो रहे हो। तुम एक ज्वालामुखी बन गए हो, जहां केवल अग्नि की लपटें हैं, गति है। लेकिन इस संपूर्ण संवेग और गतिशीलता के मध्य में, ठीक केंद्र पर, वहां एक स्थिर और शांत धुरी है। यह शांत और स्थिर धुरी निर्मित नहीं की जा सकती है। वह बस वहां है और तुम्हें उस के साथ कुछ भी नहीं करना है। वह हमेशा से ही वहां थी। वही तुम्हारा वास्तविक एवं सारभूत तत्त्व है और वही तुम्हारे अस्तित्व का आधार है। यह वही है जिसे हिन्दुओं ने आत्मा कहा है, शुद्ध चेतना कहा है। वह वहां है ही, लेकिन जब तक तुम्हारा शरीर और तुम्हारा भौतिक अस्तित्व पूर्ण रूप से सक्रिय नहीं हो जाता है, तुम उसके प्रति सचेत नहीं हो पाते हो। पूर्ण सक्रियता के साथ ही संपूर्ण निष्क्रियता भी स्पष्टता से प्रकट हो पाती है। यह सक्रियता तुम्हें एक वैषम्य अथवा एक विरोधाभास देती है। वह एक ‘ब्लैकबोर्ड’ की तरह बन जाती है और उस काले बोर्ड पर वहां एक श्वेत बिंदु स्पष्ट हो जाता है।
सफेद दीवार पर तुम सफेद बिंदु को नहीं देख सकते, परंतु काले बोर्ड पर वही सफेद बिंदु साफ दिखाई देता है। इसलिए जब तुम्हारा शरीर सक्रिय होकर एक संवेग से भर गया है, उसमें अपार गतिशीलता है, अथाह ऊर्जा है, तब अचानक तुम उस पूर्णतया स्थिर बिंदु के प्रति सचेत हो जाते हो, जो समस्त क्रियाशील विश्व का एक अक्रियाशील केंद्र है।
यह प्रयास रहित प्रयास है, इस बिंदु के लिए कोई भी प्रयास नहीं किया गया बल्कि यह स्वतः ही अनावृत्त हो गया। सामान्यतः परिधि पर ही प्रयास होता है, लेकिन केंद्र पर कोई प्रयास नहीं करना पड़ता है। जब परिधि पर गतिविधि होती है तब केंद्र पर स्थिरता और शांति है। परिधि पर समग्र सक्रियता है और केंद्र पर नितांत निष्क्रियता। और इन दोनों के मध्य... यह समझना थोड़ा कठिन होगा, क्योंकि तुम इस केंद्र के साथ, जिसे हिन्दू आत्मा कहते है, एक तादात्मय जोड़ सकते हो। यदि तुम केंद्र के साथ, जो स्थिर है, तादात्म्य स्थापित कर लेते हो तो तुमने फिर दो में से किसी एक का चुनाव कर लिया, मुख्य बात यह है कि तुमने चुनाव कर लिया। तुमने फिर से एक को स्वीकार किया और एक को अस्वीकार कर दिया।
इस संदर्भ में पूरब की एक बहुत सूक्ष्म खोज है और वह यह है कि यदि तुम स्थिर बिंदु के साथ तादात्मय स्थापित कर लेते हो तो तुम कभी भी परमात्मा को नहीं जान पाओगे। तुम आत्मा को तो जानोगे, स्वयं के होने को तो जान लोगे परंतु कभी भी परमात्मा को नहीं जानोगे। ऐसी ही अनेक परंपराएं हैं, विशेष रूप से जैन परंपरा, जिन्होंने आत्मा के साथ बहुत अधिक तादात्म्य स्थापित कर लिया है, इसलिए उन्होंने कहा कि वहां कोई भी परमात्मा है ही नहीं और केवल यह आत्मा ही स्वयं परमात्मा है।
हिन्दू लोग, जो वास्तव में बहुत गहराई तक प्रविष्ट हुए हैं, वे इस स्थिर बिन्दु अथवा केंद्र के बारे में यह कहते हैं कि गतिविधि परिधि पर होती है, इसलिए या तो तुम दोनों हो अथवा तुम दोनों ही नहीं हो। स्मरण रहे- या तो तुम दोनों हो अथवा तुम दोनों ही नहीं हो, इन दोनों बातों का अर्थ एक समान है। ये दो धु्रव हैं। ये दो विरोधाभासी छोर हैं, पूर्व-पक्ष और उत्तर-पक्ष। ये दो किनारे हैं और तुम इन दोनों किनारों के मध्य में कहीं हो, न तो गतिशील हो और न स्थिर हो। यह है परम अतिक्रमण। यह वही है, जिसे हिन्दू ब्रह्म कहते हैं।
प्रयास और प्रयासहीनता, गतिविधि और गतिहीनता, सक्रियता और निष्क्रियता, पदार्थ और आत्मा, ये दो किनारे हैं और इन दोनों के मध्य एक अदृश्य सत्ता प्रवाहित होती है। ये दो किनारे दृश्यमान हैं और इन दो के मध्य में वह अदृश्य बहता है। तुम वही हो- ‘तत्त्वमसि श्वेतकेतु’ जैसा कि उपनिषद् कहते हैं। ‘वह’ जो इन दो किनारों के मध्य बहता है, ‘वह’ जिसे देखा नहीं जा सकता, ‘वह’ जो अन्य कुछ नहीं अपितु वास्तव में एक सूक्ष्म संतुलन है, ‘वह’ इन दो के मध्य है, ‘वह’ तुम ही हो। उसी को ब्रह्म और परम-आत्मा कहा गया है।
अतः संतुलन को प्राप्त करना है और संतुलन केवल तभी प्राप्त हो सकता है जब तुम दोनों धु्रवों का प्रयोग करते हो। यदि तुम केवल एक का प्रयोग करते हो तो तुम मृत हो जाओगे। अनेक लोगों ने ऐसा किया है और व्यक्ति ही नहीं बल्कि कई समाज मृत हो गए हैं। ऐसा भारत में भी हुआ है। यदि तुम एक ध्रुव को चुनते हो तब पक्षपात है, एकतरफा रवैया है और इससे असंतुलन पैदा होता है। ऐसा ही भारत में, वरन समूचे पूरब में हुआ कि शांत, स्थिर और मौन बिंदु चुन लिया गया और सक्रिय एवं गतिशील भाग को छोड़ दिया गया। इसलिए समस्त पूरब सुस्त और मंद हो गया। उसकी तीक्ष्णता, उसकी प्रतिभा और उसका पैनापन कहीं खो गया। बुद्धि की कुशाग्रता, शरीर का तेज एवं ओज कहीं खो गया। पूरब इतना अधिक सुस्त, मंद और कुरूप हो गया, जैसे मानो जीवन एक बोझ था, ऐसा बोझ जिसे किसी भी तरह ढोना था, जीवन एक कर्तव्य हो गया जिसे बस किसी भी तरह निभा देना है। वर्तमान जीवन पूर्व जन्म के किसी बुरे कर्म के परिणाम जैसा हो गया। ऐसे जीवन में, न कोई प्रसन्नता, न कोई उत्साह, न कोई नृत्य रहा बल्कि जीवन अकर्मण्यता से भर गया।
इस अकर्मण्यता के कई परिणाम हुए। पूरब निर्बल बन गया, क्योंकि स्थिर, शांत और मौन बिंदु के साथ तुम लंबे समय तक शक्तिशाली नहीं रह सकते क्योंकि शक्ति अर्जन करने के लिए सक्रिय होने की आवश्यकता होती है, शक्ति को गतिशीलता की ज़रूरत होती है। यदि तुम सक्रिय होने से इंकार करते हो तो शक्ति विलुप्त हो जाती है। पूरब ने अपनी शक्ति और अपना बाहुबल पूर्णतया खो दिया, वह कमजोर पड़ गया। इसलिए जिसने भी चाहा उसने भारत पर विजय प्राप्त ली। हजारों वर्षों तक गुलामी ही पूरब का भाग्य बनी रही। पूरब गुलाम होने के लिए हमेशा ही तैयार बैठा रहा, क्योंकि पूरबी मन ने धु्रवीय विपरीतता के विरुद्ध, केवल एक छोर को चुन लिया था। पूरब शांत तो हुआ लेकिन मृत और आलसी बन गया। इस तरह की शांति का कोई भी मूल्य नहीं है।
पश्चिम में ठीक इसके विपरीत हो रहा है। पश्चिम ने सक्रिय ध्रुव को चुना, परिधि पर गतिशीलता का चुनाव किया और सोचा कि कोई भी आत्मा नहीं है। वे सोचते हैं कि यह सक्रियता ही सब कुछ है। सक्रिय बने रहकर आनंद लेना, सक्रिय बने रहकर उपलब्धि प्राप्त करना, सक्रिय बने रहकर महत्त्वाकांक्षी होना और सक्रियता से विश्व पर विजय प्राप्त करना ही पश्चिम के अनुसार जीवन है। इसका परिणाम यह हुआ कि पश्चिम विक्षिप्तता की ओर बढ़नेलगा, क्योंकि शांत और मौन बिंदु पर स्थिर हुए बिना तुम समझदार नहीं हो सकते, तुम मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं हो सकते। तुम पागल हो ही जाओगे। केवल स्थिर बिंदु के साथ तुम जीवंत नहीं बने रह सकते, तुम मृतक के समान हो जाओगे और केवल सक्रियता चुनने पर भी तुम पागल हो जाओगे। वे लोग जो उन्मत्त हैं, उनके साथ क्या हुआ? उन्होंने अपने स्थिर बिंदु अथवा आत्मा के साथ अपने सारे संपर्क तोड़ दिए हैं और यही मात्र कारण है उनके उन्माद का, उनकी विक्षिप्तता का।
पश्चिम एक बड़े पागलखाने में बदलता जा रहा है। अधिकांश लोग मनोविश्लेषण का सहारा ले रहे हैं, वे मनोरोगी हो रहे हैं, उनकी मनोचिकित्सा की जा रही है और बड़ी संख्या में लोग पागलखानों में भेजे जा रहे हैं। और वे लोग जो बाहर हैं, वे इसलिए बाहर नहीं हैं कि वे समझदार हैं, बल्कि इसलिए बाहर हैं कि पागलखानों में उन्हें रखने के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है, अन्यथा पूरे समाज को ही कैद में रखना होता। वे सामान्य हैं, कार्य करने के लिए सामान्य हैं, लेकिन पश्चिमी मनोविज्ञान कहता है कि यह कहना बहुत ही कठिन है कि अब कोई भी व्यक्ति सामान्य है। पश्चिम में व्यक्ति सामान्य नहीं रह गया है। इसलिए अकेली सक्रियता भी पागलपन उत्पन्न करती है, जिसमें संतुलन साधना असंभव है। बहुत अधिक सक्रिय समाज एवं सभ्यताएं, अंत में पागल हो जाती हैं और नितांत निष्क्रिय समाज एवं सभ्यताएं मृत प्रायः हो जाती हैं। ऐसा केवल समाज के साथ ही नहीं बल्कि व्यक्तिगत रूप से भी होता है।
मेरे लिए संतुलन ही प्रमुख है। चुनाव मत करो, तिरस्कार मत करो। दोनों को ही स्वीकार करो और एक आंतरिक संतुलन निर्मित करो। सक्रिय ध्यान, उस संतुलन की ओर किया गया एक प्रयास है। सक्रिय बनो... आनंदमग्न हो जाओ, उल्लासित हो जाओ और उसमें पूरी तरह डूब जाओ, बाद में शांत और मौन हो जाओ, और आनंद लो, परम आनंद तक पहुंचो। इन दोनों विरोधाभासों के मध्य में जितना संभव हो सके, डोलते रहो, पूरी स्वतंत्रता से प्रवाहित हो जाओ और कोई भी चुनाव बिल्कुल मत करो। यह मत कहो कि ‘मैं यह हूं अथवा वह हूं।’ किसी से भी तादात्मय मत जोड़ो। केवल इतना जानो कि- ‘मैं दोनों हूं।’ स्वयं अपने प्रति ही विरोधाभासी होने से बिल्कुल भयभीत न होना। विपरीतता का वरण करो और दोनों ही हो जाओ। ऐसे में तुम सरलता से गति करोगे।
जब मैं यह कहता हूं, तो मैं बिना किसी शर्त के ऐसा कहता हूं। केवल सक्रियता और निष्क्रियता के लिए ही नहीं, बल्कि जो कुछ भी बुरा या अच्छा कहा जाता है, वह सब इसमें शामिल है, जिसे भी शैतान या देवता कहा जाता है, वह भी इसमें शामिल हैं।
सदा स्मरण रहे- जीवन में सदैव दो किनारे हैं और यदि तुम एक नदी की तरह बहना चाहते हो तो बिना किसी शर्त के दोनों किनारों का प्रयोग करो। यह मत कहो कि मैं पहले निष्क्रिय था, अब कैसे सक्रिय हो सकता हूं? या पहले सक्रिय था तो अब निष्क्रिय कैसे हो सकता हूं? इतना भी मत कहो कि मैं ‘यह’ हूं, इसलिए अब मैं ‘वह’ कैसे हो सकता हूं? तुम दोनों ही हो और ऐसे में चुनाव करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता, चुनाव की कोई भी आवश्यकता ही नहीं है। केवल एक ही बात याद रखनी है कि दोनों के मध्य संतुलन बनाए रखना है, तब इस संतुलन से तुम दोनों का अतिक्रमण कर जाओगे। तब तुम शैतान और देवता दोनों के ही पार चले जाओगे। जब तुम दोनों का अतिक्रमण कर जाते हो तो वह ही ब्रह्म है। ब्रह्म का कोई भी विरोधी ध्रुव नहीं है, क्योंकि वह दो धु्रवताओं के मध्य केवल एक संतुलन है : परम संतुलन। उसका कोई भी विपरीत छोर नहीं है। जितना संभव हो सके, जीवन में पूर्ण स्वतंत्रता से गतिशील होते रहो और जितना अधिक संभव हो दोनों किनारों और दोनों विरोधों का प्रयोग करो। कोई भी विरोधाभास निर्मित मत करो।
जीवन के दो किनारे- अनुकूल और प्रतिकूल, वास्तव में विरोधाभासी हैं ही नहीं, वे केवल विरोधाभासी प्रतीत होते हैं। भीतर गहराई में वे एक ही हैं। वे ठीक तुम्हारे दाएं और बाएं पैर के समान हैं। तुम दायां उठाने के लिए बाएं का प्रयोग करते हो और फिर बायां उठाने के लिए दाएं का प्रयोग करते हो। जब तुम दाहिना पैर उठाते हो तो बायां पैर सहायता देने के लिए, पृथ्वी पर प्रतीक्षा कर रहा है। इसलिए केवल दक्षिणपंथी अथवा वामपंथी मत बनो। एक छोर के आदी मत बनो। दोनों ही पैर तुम्हारे हैं और दोनों पैरों में तुम्हारी ही अखण्ड ऊर्जा प्रवाहित हो रही है। क्या तुमने कभी यह अनुभव किया है कि दाएं पैर के पास अलग ऊर्जा है और बाएं पैर के पास अलग ऊर्जा है? दोनों में तुम ही प्रवाहित हो रहे हो। अपनी आंखें बंद करो, दायां और बायां विलुप्त हो जाता है, भेद समाप्त हो गया। वे दोनों तुम ही हो और चलते समय तुम उन दोनों का प्रयोग कर सकते हो, दोनों का प्रयोग करो। यदि तुम दाएं पैर के आदी हो गए, अभ्यस्त हो गए, जैसा कि अनेक लोग हो गए हैं, तब तुम लंगड़े हो जाओगे, अपाहिज हो जाओगे और बाएं का प्रयोग नहीं कर सकोगे। तब तुम खड़े तो हो जाओगे, लेकिन तुम अपंग हो। ऐसे ही धीरे-धीरे तुम मृत हो जाओगे। गतिशील रहो, सक्रिय रहो और साथ ही निरंतर उस स्थिर केंद्र का, आत्मा का स्मरण बना रहे। कर्ता बनो और निरंतर अकर्ता होने का भी स्मरण बना रहे। प्रयास करो और प्रयासहीन भी बने रहो। यदि एक बार तुम विपरीत ध्रुवों अथवा विरोधाभासों का प्रयोग करने की यह रहस्यमयी कीमिया जान लेते हो, तब तुम स्वतंत्र हो अन्यथा तुम अपने ही भीतर एक कैदखाना निर्मित कर लेते हो। कई बार लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं : ‘मैं यह कैसे कर सकता हूं? मैंने इसे कभी भी नहीं किया है।’ अभी परसों ही एक व्यक्ति आया था, उसने मुझसे कहा कि वह पिछले कई वर्षों से शांत और मौन है, तो अब वह ये सक्रिय ध्यान कैसे कर सकता है? उसने एक चुनाव कर लिया है और यही कारण है कि वह अब तक कहीं भी नहीं पहुंचा है, अन्यथा उसे मेरे पास आने की कोई भी आवश्यकता ही नहीं थी। वह सक्रिय ध्यान नहीं कर सकता, क्योंकि उसने निष्क्रिय शारीरिक मुद्रा के साथ तादात्म्य स्थापित कर लिया है। यह ऐसा ही है जैसे वह एक छोर के साथ जम गया है, हिमीभूत हो गया है। अधिक गतिशील बनो। गतिशील होते हुए जीवन को स्वयं में से प्रवाहित होने की अनुमति दो। यदि एक बार तुम जान जाते हो कि दो विरोधों के मध्य संतुलन साधना संभव है और एक बार भी तुम्हें उसकी झलक मिल गई, तो तुम उस कला को जान गए। तब सब जगह जीवन है, सब कुछ जीवंत है। तब जीवन के प्रत्येक आयाम में बड़ी सरलता से तुम वह संतुलन प्राप्त कर सकते हो। सच कहूं तो ‘प्राप्त कर सकते हो’ ऐसा कहना भी गलत होगा। एक बार तुम यह युक्ति जान लेते हो, यह कौशल जान लेते हो, तब तुम जो कुछ भी करते हो, वह संतुलन एक छाया की भांति तुम्हारा अनुसरण करता है। दो विरोधाभासों के मध्य यह आंतरिक संतुलन सबसे प्रमुख बिंदु है, यह महत्त्वपूर्ण अनुभव है जो एक व्यक्ति को घटित हो सकता है।
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