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शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-05)

प्रवचन-पांचवां

अहंकार को इसी क्षण छोड़ देना है

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

ओशो! आपने कहा कि अहंकार को ठीक इसी क्षण छोड़ा जा सकता है। क्या अहंकार को धीमे-धीमे अर्थात क्रमश: भी छोड़ा जा सकता है?

छोड़ना हमेशा क्षण में और हमेशा इस क्षण में ही होता है। इसके लिए कोई क्रमिक प्रक्रिया नहीं है और हो भी नहीं सकती। यह घटना क्षणिक होती है। तुम उसके लिए पहले से तैयार नहीं हो सकते, तुम उसके लिए कोई तैयारी नहीं कर सकते, क्योंकि तुम जो कुछ भी करते हो और मैं कहता हूं कि जो कुछ भी करोगे, वह अहंकार को और अधिक मजबूत बनाएगा।

कोई भी क्रमिक अथवा धीमी प्रक्रिया एक प्रयास ही होगा, वह तुम्हारे द्वारा किया गया प्रयास होगा। इसलिए इस प्रयास के द्वारा तुम और अधिक शक्तिशाली बनोगे। तुम प्रबल हो जाओगे। प्रत्येक धीमी और क्रमिक प्रक्रिया अहंकार की सहायता करती है। केवल ऐसा कुछ, जो बिल्कुल भी धीमा और क्रमिक न हो, जो एक प्रक्रिया के समान न हो बल्कि एक छलांग के समान हो, जिसका अतीत के साथ कोई सतत् प्रवाह न हो, कोई निरंतरता न हो है, केवल ऐसा कुछ ही काम कर सकता है, तभी अहंकार छूटता है।


समस्या तब उत्पन्न होती है, जब हम समझ नहीं पाते हैं कि यह अहंकार क्या होता है? अहंकार है अतीत की निरंतरता, वह सभी कुछ जो तुमने अब तक किया है, वह सब जो तुमने अब तक एकत्रित किया है, तुम्हारे समस्त कर्म, समाज द्वारा आरोपित सभी नीतियां एवं अनुशासन, पुराने संस्कार, सभी कामनाएं और अतीत के सभी सपने जो तुमने संग्रहीत किए हैं। पूरा अतीत ही अहंकार है और यदि तुम क्रमिक गति की सीमा में सोचते हो तो तुम पूरे अतीत को अब भी कसकर पकड़े हुए हो, वह अतीत तुम्हारे अंदर ही है। छोड़ना धीमे-धीमे और क्रमिक न होकर अचानक होता है। वह एक विच्छिन्नता है : अतीत अब नहीं है, भविष्य अब नहीं है। तुम उस क्षण में अकस्मात् ही ‘यहीं और अभी’ में अकेले ही बचते हो। तब अहंकार अस्तित्व में नहीं रह सकता।
अहंकार केवल स्मृति के द्वारा ही अस्तित्व में बना रह सकता है। तुम कौन हो, तुम कहां से आए हो, तुम किस देश, जाति, धर्म, परिवार और परंपरा से संबंध रखते हो, तुम्हारे सभी सुख तथा दुख, तुम्हारे सभी घाव, और जो भी तुम्हारे साथ अतीत में हुआ, वह सभी कुछ, जो अब तक घटित हुआ है, वह अहंकार ही है। तुम वह हो, जिसके साथ यह सब घटित हुआ है। यह अंतर ठीक से समझ लेना, तुम वह हो, जिसके साथ यह सभी कुछ घटित हुआ है और जो घटित हुआ है वह अहंकार है। तुम्हारे आस-पास चारों तरफ अहंकार है, तुम निरअहंकार हो, तुम केंद्र हो।
एक बच्चा जब जन्म लेता है, वह पूर्ण रूप से नूतन, निर्मल और युवा होता है, उसका कोई अतीत नहीं होता इसलिए उसमें अहंकार भी नहीं होता। इसी कारण बच्चे इतने अधिक सुंदर होते हैं। उनके पास कोई अतीत नहीं होता। वे युवा, नूतन और ताजगी से भरे हुए होते हैं। वे ‘मैं’ नहीं कह सकते, क्योंकि वे ‘मैं’ कहां से लाएंगे? ‘मैं’ तो धीमे-धीमे बाद में विकसित होता है। वे उच्च शिक्षा पाएंगे, वे पुरस्कार जीतेंगे, वे दण्ड पाएंगे, कभी उनकी प्रशंसा की जाएगी, कभी उनका तिरस्कार किया जाएगा, कभी निंदा होगी, तब ‘मैं’ इकट्ठा होगा।
एक बच्चा सुंदर होता है, क्योंकि उसके पास अहंकार नहीं है। एक बूढ़ा व्यक्ति कुरूप होता है, इसलिए नहीं कि वह वृद्ध हो गया है बल्कि इसलिए कि उसके पास बहुत अधिक अतीत होता है, बहुत अधिक अहंकार होता है। एक वृद्ध व्यक्ति फिर से सुंदर हो सकता है, वह एक बच्चे की तुलना में कहीं अधिक सुंदर हो सकता है, यदि वह अपना अहंकार छोड़ सके, तब यह वृद्धावस्था उसका दूसरा बचपन होगी, यह एक पुनर्जन्म होगा।
जीसस के पुनर्जीवित होने का यही अर्थ है। यह कोई एक ऐतिहासिक सत्य नहीं है, यह एक नीति-कथा है। जीसस को क्रॅास पर चढ़ाया जाता है और तब वे पुनर्जीवित होते हैं। जो व्यक्ति क्रॅास पर चढ़ाया गया था, वह अब मृत है, वह एक बढ़ई का बेटा था- जीसस, जो अब नहीं रहा। जीसस को सूली दे दी, वह मर चुके। अब उस घटना से एक नए तथ्य का जन्म होता है। उनकी मृत्यु से ही एक नए जीवन का जन्म होता है। अब वे क्राइस्ट हैं, बेथलेहेम के किसी बढ़ई के बेटे नहीं हैं, वे एक यहूदी नहीं हैं, यहां तक कि एक मनुष्य भी नहीं हैं। वे क्राइस्ट हैं, नूतन और अहंकारहीन हैं।
तुम्हारे साथ भी ऐसा ही होगा, जब कभी तुम्हारा अहंकार सूली पर होगा। जब कभी तुम्हारे अहंकार को सलीब पर लटकाया जाएगा तब वहां एक पुनर्जीवन अथवा पुनर्जन्म होगा। तुम फिर से जन्म लोगे और यह बचपन शाश्वत है, क्योंकि यह शरीर का नहीं, आत्मा का पुनर्जन्म है। अब तुम कभी भी बूढ़े नहीं होगे। तुम हमेशा-हमेशा के लिए नूतन और युवा बने रहोगे जैसे सुबह की ओंस की एक बूंद होती है, जैसा रात में उदित होने वाला पहला सितारा होता है। तुम हमेशा नूतन, युवा और एक बच्चे जैसे निर्दोष बने रहोगे क्योंकि यह आत्मा का पुनर्जीवन है और यह हमेशा एक क्षण में ही घटित होता है।

अहंकार समय में होता है। जितना अधिक समय, उतना अधिक अहंकार। अहंकार को समय की आवश्यकता होती है। यदि तुम गहराई में प्रवेश करते हो तो तुम यह जानने में समर्थ हो सकते हो कि समय का अस्तित्व केवल अहंकार के ही कारण है। समय तुम्हारे चारों ओर के भौतिक संसार का भाग नहीं है। समय तुम्हारे अंदर के मनोमय संसार का एक भाग है : मन का संसार। समय, अहंकार को आगे बढ़ने, फैलने और विकसित होने के लिए भूमि प्रदान करता है। समय, वह स्थान देता है जिसकी अहंकार को जरूरत होती है।
यदि तुमसे यह कहा जाए कि यह तुम्हारे जीवन का अंतिम क्षण है और अगले ही क्षण तुम्हारी मृत्यु होने वाली है तो अचानक समय विलुप्त हो जाता है। तुम बहुत बेचैनी का अनुभव करते हो। तुम अभी भी जीवित हो, लेकिन अचानक तुम अनुभव करते हो कि जैसे मानो तुम मर रहे हो और तुम नहीं सोच पाते कि क्या किया जाए? यहां तक कि सोचना भी कठिन हो जाता है, क्योंकि सोचने के लिए भी समय की आवश्यकता होती है, भविष्य आवश्यक है। जब कल ही नहीं बचा, तब कैसे सोचा जाए, कैसे कामना की जाए और कैसे आशा की जाए? वहां कोई भी समय नहीं है। समय समाप्त हो गया है।
एक मनुष्य के साथ सबसे बड़ी वेदना तब घटित होती है, जब उसकी मृत्यु नियत हो, उससे बचा न जा सके, मृत्यु का पल निश्चित ही हो। एक व्यक्ति जिसे उम्रकैद की सजा दी गई है, वह अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। मृत्यु तो निश्चित है और वह इस बारे में कुछ भी नहीं कर सकता है। एक निश्चित समय के बाद वह मर जाएगा। उस निश्चित समय के पार उसके लिए कोई भी भविष्य नहीं होता इसलिए उसके आगे अब वह कोई कामना नहीं कर सकता, वह कोई सोच-विचार नहीं कर सकता, वह कोई योजना नहीं बना सकता और वह सपने भी नहीं देख सकता। वह अवरोध, वह बाधा हमेशा वहां है। ऐसे में वह अत्याधिक वेदना से गुजरता है। यह वेदना अहंकार के लिए है, क्योंकि समय के बिना अहंकार भी अस्तित्व में नहीं रह सकता। अहंकार समय में ही श्वास लेता है और समय ही अहंकार के प्राण हैं। जितना अधिक समय होता है, अहंकार के लिए उतनी ही अधिक संभावना होती है।
पूरब में अहंकार को समझने का बहुत अधिक प्रयास किया गया, बहुत परीक्षण और बहुत गहरी जांच की गई। उनमें से एक निष्कर्ष यह है कि जब तक तुमसे समय नहीं छूटता है, अहंकार नहीं छूटेगा। यदि कल का अर्थात भविष्य का अस्तित्व बना रहता है तो अहंकार भी अस्तित्व में बना रहेगा। यदि कोई कल न हो तो तुम अहंकार को आगे कैसे खींच सकते हो? यह ठीक ऐसा ही होगा जैसे बिना नदी के किसी नाव को खींचने का प्रयास किया जाए। वह एक बोझ बन जाएगा। एक नदी की नितांत आवश्यकता है तभी एक नाव कार्य कर सकती है।
अहंकार के लिए समय की एक नदी की आवश्यकता होती है। इसी कारण अहंकार हमेशा धीमी प्रक्रिया और अंशों या घटकों के बाबत सोचता है। अहंकार कहता है : ‘ठीक है, बुद्धत्व का घटना संभव है, लेकिन इसके लिए समय की आवश्यकता है’, क्योंकि इसके लिए तैयारी करनी होगी और तब ही उस दिशा में कार्य हो सकेगा। यह बहुत तर्कपूर्ण बात है क्योंकि यह सच है कि प्रत्येक कार्य के लिए समय की आवश्यकता होती है। यदि तुम एक बीज बोते हो तो उसे वृक्ष बनने में समय लगता है। यदि एक बच्चे का जन्म होता है, यदि एक नया शरीर सृजित होता है तो समय लगता है, बच्चे के विकास के लिए गर्भ भी समय लेगा। तुम्हारे चारों ओर प्रत्येक वस्तु विकसित हो रही है, इस विकास के लिए समय की आवश्यकता होती है, इसीलिए यह तर्कपूर्ण प्रतीत होता है कि बाहर के संसार की तरह, भीतर के संसार यानि आत्मिक विकास में भी समय आवश्यक होगा।
लेकिन यह बात महत्त्वपूर्ण है और समझ लेने जैसी है कि वास्तव में आत्मिक विकास ऐसा नहीं है जैसा कि एक बीज का विकास है। बीज को वृक्ष बनना है और बीज से लेकर वृक्ष तक की यात्रा में एक अंतराल है। इस अंतराल को पार करना होता है, वह दूरी तय करनी पड़ती है। परंतु आत्मिक तल पर तुम किसी बीज की भांति विकसित नहीं होते हो, बल्कि तुम स्वयं ही ‘विकास’ हो और संसार में केवल उसका प्रकटीकरण है, एक रहस्योद्घाटन है। जो तुम वास्तव में हो, जो तुम्हारा स्वरूप है और जैसे तुम रूपांतरण के बाद बनोगे, इन दोनों के मध्य बिल्कुल भी दूरी नहीं है, वहां लेशमात्र भी फासला नहीं है। वहां सदैव एक पूर्णता बनी हुई है, वह समग्र ही है।
इसलिए यह प्रश्न विकसित होने का नहीं है, बल्कि प्रश्न केवल अनावरण का है, एक पर्दा उठाने का है। यह केवल एक खोज है। कुछ जो पर्दे के पीछे छिपा हुआ था, वह वहां पहले से ही था, पर छुपा हुआ था, तुमने उस पर से पर्दा हटा दिया और वह वहां प्रकट हो गया। यह ठीक ऐसा ही है जैसे मानो तुम आंखें बंद करके बैठे हुए हो, सूरज वहां क्षितिज पर है पर तुम्हारी बंद आंखो के कारण तुम अंधकार में हो। अचानक तुम आंखें खोलते हो और उसी क्षण वहां प्रकाश हो जाता है, वहां दिन है ही।
आत्मिक विकास वास्तव में एक विकास नहीं होता, यह शब्द ही ठीक नहीं है, यह शब्द-भ्रम है। आत्मिक विकास, वास्तव में एक अनावरण है, कुछ ऐसा जो छिपा हुआ था और प्रकट हो गया। जो वहां पहले से ही था पर अब तुमने उसे अनुभव कर लिया है। ‘वह’ वास्तव में कभी खोया ही नहीं था, केवल विस्मृत हो गया था, तुम उसे भूल गए थे, अब तुम्हें याद आ गया है। यही मुख्य कारण है कि रहस्यदर्शी सदैव ही ‘याद’ शब्द का प्रयोग करते हैं : नानक ने कहा ‘सिमरन’ यानि स्मृति, बुद्ध ने कहा ‘सम्यक स्मृति’, कबीर ने कहा ‘सुरति’... संत कहते हैं : दिव्य सत्ता कोई उपलब्धि नहीं है, वह तो बस अपने वास्तविक स्वरूप का एक सहज स्मरण है, कोई वस्तु जिसे तुम भूल गए थे, तुम्हें उसका स्मरण आ गया है।
अतः वास्तविकता यही है कि समय की कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन मन कहता है, अहंकार कहता है कि प्रत्येक वस्तु के विकास के लिए समय की आवश्यकता होती है। यदि तुम इस तर्कपूर्ण विचार से ग्रस्त हो जाते हो, तुम इस विचार के शिकार हो जाते हो तो तुम कभी भी आत्मिक विकास न कर सकोगे। तुम उसे स्थगित करते चले जाओगे। तुम कहोगे कल, परसों और आगे ही आगे, परंतु वह कल कभी नहीं आएगा, क्योंकि कल कभी नहीं आता है।
जो कुछ भी मैं कह रहा हूं, यदि तुम उसे समझ सकते हो तो अहंकार को ठीक इसी क्षण छोड़ा जा सकता है और यदि यह सत्य है तब प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह क्यों नहीं छूट रहा है? तुम क्यों इसे नहीं छोड़ पाते हो? यदि क्रमिक विकास का कोई प्रश्न ही नहीं है, तब तुम उसे क्यों नहीं छोड़ रहे हो? क्योंकि तुम उसे छोड़ना ही नहीं चाहते। इससे तुम्हें आघात लगेगा, क्योंकि तुम यह सोचते हो कि तुम अहंकार छोड़ना चाहते हो। पुनः विचार करो, फिर से सोचो, तुम छोड़ना ही नहीं चाह रहे हो और इसलिए वह लगातार मौजूद रहता है। यह प्रश्न समय का नहीं है, क्योंकि तुम खुद उसे छोड़ना ही नहीं चाहते, इसलिए कुछ भी नहीं किया जा सकता है।
मन के ढंग बड़े अजीब हैं, रहस्यमयी हैं, तुम सोचते हो कि तुम उसे छोड़ना चाहते हो और अपनी गहराई में तुम भलीभांति जानते हो कि तुम उसे छोड़ना नहीं चाहते हो। हां, हो सकता है कि तुम अपने मन के इस बर्ताव को थोड़ा रंग-रोगन पोतकर, थोड़ा चमका कर, पॅालिश करना पसंद करोगे, तुम उसे परिष्कृत ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास करोगे। लेकिन तुम वास्तव में उसे छोड़ना नहीं चाहते हो। यदि तुम उसे छोड़ना चाहते हो तो वहां ऐसा कोई भी नहीं है, जो तुम्हें रोक रहा हो। कोई भी बाधा मौजूद नहीं है। केवल चाहने भर से ही उसे छोड़ा जा सकता है। यदि तुम छोड़ना ही न चाहो तो कुछ भी नहीं किया जा सकता है, यहां तक कि हजार बुद्ध भी तुम पर कार्य कर करें, तुम्हें मार्गदर्शन दें, तो तुम उन्हें भी असफल कर दोगे, क्योंकि बाहर से कुछ भी नहीं किया जा सकता है।
क्या सच में तुमने इसके बारे में सोचा है? क्या कभी तुमने इस पर ध्यान दिया है? क्या सचमुच तुम इसे छोड़ना चाहते हो? क्या तुम वास्तव में अस्तित्वहीन और नाकुछ होना चाहते हो? यहां तक कि अपने धार्मिक कृत्यों में भी तुम कुछ विशेष होना चाहते हो, तुम कुछ प्राप्त करना चाहते हो और तुम कहीं पहुंचना चाहते हो। जब तुम विनम्र होते हो, तब तुम्हारी विनम्रता भी अपने अहंकार को छिपाने का केवल एक गुप्त स्थान मात्र है और कुछ भी नहीं है।
तथाकथित विनम्र लोगों की ओर देखो। वे कहते हैं कि वे विनम्र हैं और वे अपने कस्बे में, अपने शहर में और अपने आसपास के स्थानों में यह सिद्ध करने का प्रयास भी करते हैं कि वे सबसे अधिक विनम्र हैं। पर यदि तुम उनसे तर्क करो और कहो- ‘नहीं, कोई अन्य व्यक्ति आपसे भी अधिक विनम्र है’, तो यह सुनकर उन्हें चोट लगेगी। यह चोट लगने का अनुभव किसे हो रहा है?
मैं एक ईसाई संत के बारे में पढ़ रहा था। वह रोज़ अपनी प्रार्थना में परमात्मा से कहता था- ‘मैं इस पृथ्वी पर सबसे बड़ा दुष्ट और पापी हूं।’ देखने में, प्रकट रूप में वह बहुत विनम्र मालूम होगा, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। वह कहता है कि पृथ्वी पर सबसे बड़ा पापी है और यदि इस बात पर परमात्मा विवाद करने लगे तो वह जरूर तर्क-वितर्क करेगा। उसकी गहरी दिलचस्पी, उसकी आंतरिक रूचि पापी बनने में नहीं है बल्कि सबसे बड़ा पापी बनने में है। यदि तुम्हें सबसे बड़ा पापी बनने की अनुमति दी जाती है, तो तुम एक पापी भी बन सकते हो। तुम इसमें प्रसन्नता का अनुभव करोगे- एक महानतम पापी। तब तुम एक शिखर बन जाते हो। सदाचार या पाप दोनों ही महत्त्वहीन है, बस तुम्हें कुछ विशेष बनना है। अतः कारण कोई भी हो, खूंटी कोई भी हो, तुम्हारा अहंकार शीर्ष पर बना रहना चाहिए।
जॅार्ज बर्नाड शॉ कहते थे- ‘मैं स्वर्ग में द्वितीय स्थान पर रहने की अपेक्षा नर्क में प्रथम बने रहना पसंद करूंगा।’ इसका मतलब यही निकलता है कि नर्क कोई बुरा स्थान नहीं हो सकता, यदि तुम वहां प्रथम हो, यदि तुम सबसे आगे हो तो नर्क भी स्वीकार्य है। स्वर्ग भी तुम्हें उदासीन लगेगा, यदि तुम बहुत भीड़ में कहीं किसी कोने में, एक पंक्ति में अनजान की भांति खड़े हो। और बर्नाड शॉ ठीक कहते हैं। मनुष्य का मन इसी तरह से कार्य करता है।
कोई भी व्यक्ति अहंकार को छोड़ना नहीं चाहता अन्यथा कोई समस्या ही नहीं है। तुम बहुत सहजता से ठीक अभी और इसी क्षण उसे छोड़ सकते हो। यदि तुम्हें ऐसा लगता है कि अहंकार छोड़ने के लिए समय की आवश्यकता है, तब यह समय केवल तुम्हारी समझ बढ़ने के लिए चाहिए ताकि तुम जान सको कि तुम ही उसके साथ लिपटे हुए हो, तुम ही उसे पकड़े हुए हो और जिस क्षण तुम यह समझ सको कि यह तुम्हारा ही लगाव है, तुम ही चिपके हो तो बस घटना घट जाएगी।
तुम इस सामान्य सच्चाई को समझने में अनेक जन्म लगा सकते हो। तुमने पहले ही से अनेक जन्म ले लिए हैं और तुम अभी तक नहीं समझे हो। यह बहुत ही विचित्र प्रतीत होता है कि जो तुम पर एक बोझ है, जो तुम्हें निरंतर एक नर्क में धकेलता है... इस सब के बावजूद भी, तुम उस अहंकार को पकडे़ रहते हो। इसके पीछे जरूर कोई गहरा कारण होना चाहिए। कोई ऐसा कारण, जिसकी जड़ें बहुत गहराई तक जम गई हैं। मैं इस बारे में थोड़ी सी बात कहना चाहूंगा। तुम उससे सचेत हो सकते हो।
मनुष्य के मन का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अक्रिया की अपेक्षा सदैव ही क्रिया या व्यस्तता का ही चुनाव करता है। यदि क्रिया पीड़ादायक है, यदि क्रिया में दुख है, तब भी वह वस्तुतः अव्यस्त होने की अपेक्षा व्यस्तता ही चुनाव करता है क्योंकि बिना किसी कार्य में व्यस्त हुए तुम स्वयं के मिटने का अनुभव करने लगते हो।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब लोग अपनी नौकरी, काम-काज और व्यापार आदि से रिटायर होते हैं तो वे बहुत शीघ्र मर जाते हैं। उनकी आयु तुरंत ही लगभग दस वर्ष कम हो जाती है। वे अपनी मृत्यु से पहले ही मरना शुरू हो जाते हैं। उनके पास अब कोई कार्य नहीं है, वे व्यस्त नहीं हैं। जब तुम व्यस्त नहीं हो, जब तुम खाली होते हो तो तुम व्यर्थ और अर्थहीन अनुभव करने लगते हो। तुम यह अनुभव करते हो कि अब तुम्हारी जरूरत नहीं है। अब तुम अन्य लोगों के लिए आवश्यक नहीं हो और तुम्हारे बिना भी संसार सुगमता से चलता रहेगा। जब तक तुम व्यस्त बने रहते हो तो तुम्हें अनुभव होता है कि संसार तुम्हारे बिना एक कदम भी नहीं चल सकता है। तुम इस संसार के एक मुख्य हिस्से हो, महत्त्वपूर्ण भाग हो और तुम्हारे बिना यह दुनिया रूक जाएगी।
यदि तुम अव्यस्त हो, खाली हो जाते हो तो अचानक तुम सचेत होते हो कि बिना तुम्हारे भी संसार बहुत सुंदरता से आगे बढ़ रहा है। कुछ भी नहीं बदल रहा है और तुम तिरस्कृत कर दिए गए हो, तुम कहीं कचड़े के ढेर पर फेंक दिए गए हो और तुम्हारी कोई भी आवश्यकता नही है। जिस क्षण भी तुम यह अनुभव करते हो कि तुम्हारी कोई भी आवश्यकता नहीं है तो अहंकार बेचैन हो जाता है, क्योंकि वह केवल तभी अस्तित्व में रह सकता है जब तक तुम्हारी जरूरत होती है। इसलिए चारों तरफ यह अहंकार अपने इसी दृष्टिकोण को प्रत्येक व्यक्ति पर थोपता चला जाता है कि तुमको होना ही चाहिए, तुम बहुत आवश्यक हो और बिना तुम्हारे कुछ भी नहीं हो सकता है, तुम्हारे बिना यह संसार मिट जाएगा।
खाली होने पर तुम्हें यह अनुभव होता है कि तुम्हारे बिना भी दुनिया का खेल जारी है। तुम इसके महत्त्वपूर्ण भाग नहीं हो, तुम्हें सरलता से फेंका जा सकता है, कोई भी व्यक्ति तुम्हारी फिक्र नहीं करेगा और न ही कोई तुम्हारे बारे में सोचेगा। वस्तुतः ऐसा भी संभव है कि तुम्हारे न होने पर लोग मुक्ति का अनुभव करें। यह व्यवहार अहंकार को खंड-खंड कर देता है। इसलिए लोग व्यस्त बने रहना चाहते हैं, बल्कि उन्हें व्यस्त बने रहना होगा। उन्हें अपनी इस भ्रांति को बनाए रखना होगा कि वे समाज का अति आवश्यक हिस्सा हैं। ध्यान, मन के खाली होने की स्थिति है। बहुत गहराई में यह सभी कार्यों से मुक्त होने जैसा है। यह मुक्ति हिमालय पर भाग जाने जैसी कोई नकली मुक्ति नहीं है। ऐसी मुक्ति किसी भी कीमत पर मुक्ति हो ही नहीं सकती क्योंकि तुम हिमालय पर जाकर भी एक छोटा संसार बसा लोगे, तुम वहां भी व्यस्तता ढूंढ ही लोगे।
 तुम हिमालय पर भी अपनी नई-नई कल्पनाएं सृजित कर सकते हो कि तुम अपनी तपस्या से संसार को नष्ट होने से बचा रहे हो। हिमालय में बैठकर तुम ध्यान कर रहे हो और इसी कारण संसार तृतीय विश्व युद्ध से बच रहा है। चूंकि तुम विधायक तरंगें फैला रहे हो इसी कारण यह संसार ‘आदर्श समाज’ और ‘शांति प्रिय’ समाज बन रहा है। इन सब तरह की कल्पनाओं से तुम अपने आप को हिमालय में भी व्यस्त कर सकते हो। वहां कोई भी तुमसे तर्क नहीं करेगा क्योंकि तुम वहां अकेले हो। कोई भी तुमसे तुम्हारी कल्पना की सत्यता के संदर्भ में विवाद नहीं करेगा और कोई इसकी चिंता नहीं करेगा कि तुम एक विभ्रम अथवा एक भ्रांतिजनक स्थिति में हो। वहां तुम इन कल्पनाओं में पूरी तरह से डूबे रह सकते हो, और एक बार फिर से तुम्हारा अहंकार एक नए और सूक्ष्म रूप में अपने होने का दावा करेगा।
ध्यान एक नकली मुक्ति नहीं है। यह एक गहन, अंतरंग और वास्तविक मिक्त है, यह एक प्रत्याहार है। ऐसा नहीं है कि ध्यान करने के बाद तुम जीवन में कोई काम ही नहीं करोगे, तुम अपने जीवन के क्रियाकलाप पहले जैसे ही जारी रख सकते हो, लेकिन ध्यान के बाद तुम अपने ‘अहं’ को और अपने वर्चस्व कायम करने की प्रवृत्ति को हटा लेते हो। प्रत्येक जगह तुम्हारी जरूरत है, तुम्हारे बिना संसार नहीं चल सकता, ऐसे भ्रमों से तुम मुक्त होने लगते हो। तुम्हें यह अनुभव होने लगता है कि तुम्हारी ऐसी भ्रांतियां केवल तुम्हारी मूर्खता थी। तुम्हारे बिना भी संसार भलीभांति चल सकता है और इसमें निराश होने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। बल्कि यह अच्छा है, यहां तक कि बहुत अच्छा है कि संसार तुम्हारे बिना भी चल सकता है। यदि तुम सही ढंग से समझ सको तो यह एक स्वतंत्रता बन सकता है। यदि तुम नहीं समझते हो, तभी तुम टूटने का, मिटने का, बिखरने का और खंड-खंड होने का अनुभव करते हो।
इसलिए लोग किसी भी कार्य में व्यस्त बने रहना चाहते हैं और उनका अहंकार उन्हें महानतम तथा संभव व्यस्तताएं दे भी देता है। चौबीस घंटे अहंकार व्यक्ति को व्यस्त रखता है। वे लगातार सोच रहे हैं कि कैसे संसद सदस्य बना जाए? वे सोच रहे हैं कि कैसे एक मंत्री अथवा उपमंत्री बना जाए? कैसे राष्ट्रपति बना जाए? अहंकार सदैव सोचता ही रहता है और योजनाएं बनाता चला जाता है। वह तुम्हें निरंतर व्यस्त रखता है कि कैसे अधिक समृद्धि प्राप्त की जाए और कैसे अपना साम्राज्य निर्मित किया जाए। अहंकार तुम्हें निरंतर सपने देता है, वह इन सपनों के माध्यम से तुम्हें भीतर भी व्यस्त बनाए रखता है और तुम अनुभव करते हो कि तुम्हारे द्वारा बहुत कुछ हो रहा है और आगे भी होना है। व्यस्तता न मिलने पर अथवा खाली होने पर तुम अचानक अपनी आंतरिक रिक्तता के प्रति सचेत होते हो। तुम्हारे सपनों के कारण वह आंतरिक रिक्तता अनुभव नहीं हो पा रही थी।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि एक व्यक्ति बिना भोजन के भी लगभग नब्बे दिनों तक जीवित रह सकता है, लेकिन नब्बे दिन तक वह बिना सपने देखे नहीं रह सकता। वह पागल हो जाएगा। यदि स्वप्न देखने की अनुमति न हो तो तुम तीन सप्ताह में ही पागल हो जाओगे। बिना भोजन के, तीन सप्ताह तक तुम्हें कोई भी हानि नहीं होगी और यहां तक कि ऐसा करना तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा हो सकता है। बिना भोजन किए तीन सप्ताह का उपवास तुम्हारी पूरी शारीरिक व्यवस्था को एक नई स्फूर्ति देगा। तुम अधिक जीवंत तथा युवा हो जाओगे, लेकिन तीन सप्ताहों तक बिना सपनों के तुम पागल हो जाओगे।
सपने निश्चित ही मन की किसी गहरी जरूरत को पूरा करते हैं। यह गहरी जरूरत है कि बिना किसी व्यस्तता के भी यह सपने तुम्हें व्यस्त बनाए रखते हैं। तुम अपनी इच्छानुसार सपने देख सकते हो, तुम जो चाहो वह कर सकते हो और कम से कम अपने सपनों में तो जो चाहो कर सकते हो। तुम्हारे सपनों में पूरा संसार तुम्हारे अनुसार ही गतिशील होता है। कोई भी वहां समस्या उत्पन्न नहीं करता है। तुम किसी को भी मार सकते हो, तुम किसी की भी हत्या कर सकते हो, तुम जैसा चाहो परिवर्तन कर सकते हो, तुम अपने सपने के मालिक होते हो।
सपनों के दौरान अहंकार अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि वहां कोई दूसरा नहीं होता, जो तुम्हारा विरोध कर सके और तुमसे यह कह सके- ‘नहीं, यह गलत है।’ तब तुम सर्वेसर्वा होते हो। तुम जो भी चाहते हो, तुम उसे अपने सपने में निर्मित कर लेते हो। जो तुम नहीं चाहते हो उसे तुम नष्ट कर देते हो। स्वप्न में तुम पूर्ण रूप से शक्तिशाली होते हो। तुम अपने सपनों में सर्वशक्तिमान होते हो।
सपने केवल तभी बंद होते हैं जब अहंकार मिट जाता है। इसलिए यह एक संकेत है। वास्तव में ऐसा संकेत पुराने योग शास्त्रों में भी मिलता है कि जो व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया हो, वह स्वप्न नहीं देख सकता। उसका स्वप्न देखना बंद हो जाता है, क्योंकि उसे अब सपनों की कोई आवश्यकता ही नहीं है। वह तो अहंकार की आवश्यकता थी। अहंकार को पोषित करने के लिए ही तुम व्यस्त बने रहना चाहते थे। इसी कारण तुम अहंकार को छोड़ नहीं सके।
जब तक तुम खाली होने को तैयार नहीं हो, जब तक तुम नाकुछ होने को तैयार नहीं हो, जब तक तुम समाज के लिए अनुपयोगी होते हुए भी जीवन में आनंद और उत्सव मनाने के लिए तैयार नहीं हो, तब तक अहंकार को नहीं छोड़ा जा सकता है।
समाज में उपयोगी बने रहना, महत्त्वपूर्ण बने रहना ही तुम्हारी गहरी जरूरत है। जब तक कोई तुम्हें महत्त्वपूर्ण समझता है, जब तक तुम किसी के लिए बहुत मूल्यवान होते हो, तब तुम बहुत भराव महसूस करते हो। यदि ज्यादा लोगों के लिए तुम ही एक मात्र केंद्र बन जाओ तो तुम अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव करते हो। यही कारण है कि नेतृत्व करने में इतनी प्रसन्नता मिलती है, क्योंकि इतने अधिक लोगों को तुम्हारी आवश्यकता होती है। एक नेता बहुत अधिक विनम्र हो सकता है। उसे अपने अहंकार को स्थापित करने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि बहुत अधिक लोगों के लिए वह महत्त्वपूर्ण है, बहुत लोग उस पर निर्भर हैं, इसलिए उसके अहंकार की अत्यंत सहजता और गहनता से प्रतिपूर्ति हो जाती है। वह इतने अधिक लोगों का जीवन-स्रोत बन जाता है कि वह प्रसन्न अनुभव करता है, और विनम्र बना रहता है, बल्कि वह विनम्र बने रहने में समर्थ हो जाता है।
तुम्हें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जो लोग अपने अहंकार को बहुत अधिक दृढ़ करते हैं, वे हमेशा ऐसे लोग होते हैं, जो दूसरों को प्रभावित नहीं कर सकते। तब वे अपने अहंकार को दृढ़तापूर्वक स्थापित करते हैं, क्योंकि उनके पास अपनी बात कहने का केवल यह ही एक रास्ता बचता है। इसी तरह से वे सिद्ध कर पाते हैं कि वे भी कुछ हैं। यदि वे लोगों को प्रभावित कर पाते, यदि वे लोगों को अपनी बात पर राजी कर ही पाते, तो उन्हें अहंकार के इस दावे की जरूरत ही नहीं पड़ती। अतः ऐसे लोग केवल दिखावे के लिए ही सही, परंतु बहुत विनम्र होंगे। वे अहंकार को प्रदर्शित नहीं करेंगे, क्योंकि वे सूक्ष्म रूप से जानते हैं कि बहुत लोग उन पर आश्रित हैं, वे जानते हैं कि अब वे उन लोगों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और इस महत्त्व के कारण ही उन्हें अपना जीवन उन लोगों के प्रति अर्थपूर्ण प्रतीत होता है। यदि इस तरह से किसी और के लिए अर्थपूर्ण होना ही तुम्हारा लक्ष्य है, यदि तुम्हारे अहंकार को पोषित करना ही तुम्हारे जीवन का अर्थ है, तब तुम उस अहंकार को कैसे छोड़ सकते हो?
मुझे सुनते हुए तुम इस अहंकार को छोड़ने के बारे में सोचना शुरू कर देते हो, लेकिन केवल सोचने से ही तुम उसे नहीं छोड़ सकते हो। इस अहंकार को समझने के लिए उसकी जड़ों तक जाना होगा, जहां वह गहरा जमा हुआ है, जहां से उसका वजूद है, और यह भी जानना होगा कि वह वहां क्यों मौजूद है? यह अचेतन शक्तियों का एक प्रवाह है जो तुम्हारी आज्ञा के बिना, तुम्हारी जानकारी के बिना ही तुम पर कार्य करता है। इस प्रवाह को चेतन बनाना होगा। तुम्हें अपने अवचेतन की भूमि से, उस की गहरी पर्तों में जमी अहंकार की सभी जड़ों को उखाड़कर बाहर लाना होगा, जिससे तुम उन्हें देख सको और समझ सको।
यदि तुम खाली बने रह सकते हो, यदि तुम संसार के लिए अनावश्यक होते हुए भी संतुष्ट रह सकते हो तो अहंकार इसी क्षण छूट सकता है, लेकिन यह ‘यदि’... बहुत बड़ा यक्ष-प्रश्न हैं और ध्यान तुम्हें इसी यक्ष-प्रश्न के उत्तर हेतु तैयार करता है। अहंकार के गिरने की घटना एक क्षण में ही घटती है परंतु समझ को गहरा होने में समय लग जाता है।

यह लगभग ऐसा है, जैसे जब तुम पानी गर्म करते हो, तो वह धीमे धीमे गर्म होता जाता है, मध्यम गर्म और फिर तेज गर्म हो जाता है तथा सौ डिग्री के विशिष्ट तापक्रम पर आते ही वह भाप बनना शुरू हो जाता है। यह पानी का भाप बन जाना... एक क्षण में ही घटित होता है, यह धीमे-धीमे नहीं होता बल्कि अचानक एक क्षण में होता है। पानी से भाप बनने की प्रक्रिया एक छलांग है। इस प्रक्रिया में अचानक पानी विलुप्त हो जाता है, परंतु पानी से भाप बनने के लिए समय लगता है, पानी धीरे-धीरे गर्म होते हुए उबाल के बिंदु तक पंहुचता है। भाप अचानक एक क्षण में बनती है पर भाप बनने के लिए सही तापमान तक आने में समय लगता है। समझ का गहरे होना, पानी के गर्म होने की तरह है, वह समय लेती है। अहंकार का छूटना भाप बनने की तरह है, वह अचानक घटित होता है।
इसलिए अहंकार को छोड़ने का प्रयास मत करो। वस्तुतः अपनी समझ को गहरा बनाने का प्रयास करो। पानी को भाप में बदलने का प्रयास मत करो। केवल पानी को गर्म करो। एक घटना के घटित होते ही दूसरी वस्तुतः स्वयं ही घटित हो जाएगी, वह अनुसरण करेगी। वह निश्चित रूप से घटित होगी ही।
इसलिए समझ को विकसित करो, अपनी समझ को और अधिक सघन करो, इसे केंद्रित करो। अपनी समस्त उर्जा का प्रयोग अपने अहंकार का मूल समझने हेतु करो। अपनी सारी शक्ति अपने अहंकार, अपने मन और अपने अचेतन को समझने में लगा दो। अधिक से अधिक सजग बनो और जो कुछ भी होता है, उसे हर हाल में समझने का प्रत्येक संभव प्रयास करो।
कोई व्यक्ति तुम्हारा अपमान करता है और तुम क्रोध से भर जाते हो। इस अवसर से मत चूको, समझने का प्रयास करो कि क्यों? आखिर यह क्रोध क्यों आता है? इस क्रोध को एक दार्शनिक तथ्य मत बनाओ और पुस्तकालयों में जाकर क्रोध के संबंध में छानबीन मत करो। यह क्रोध तुम्हें घट रहा है, यह तुम्हारा अनुभव है, एक जीवंत अनुभव है। अपनी समस्त ऊर्जा, अपना पूरा ध्यान इस पर केंद्रित कर दो और समझने का प्रयास करो कि यह तुम्हें क्यों घट रहा है? यह कोई दार्शनिक अथवा मनोवैज्ञानिक समस्या नहीं है और इसके बारे में फ्रायड जैसे किसी प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक से परामर्श लेने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। यह बहुत मूर्खतापूर्ण कृत्य है कि क्रोध तुम्हें घट रहा है और तुम दूसरे लोगों से इसका निदान पूछते हो। यह केवल एक मूढ़ता है। तुम क्रोध के इस अनुभव को महसूस कर सकते हो, तुम क्रोध में छुपे हुए अहंकार का रस ले सकते हो। तुम ही क्रोध के क्षणों के बाद बोझिल और अपमानित भी महसूस करोगे।
अतः समझने का प्रयास करो कि यह क्यों हो रहा है? यह क्रोध कहां से आ रहा है? इसकी जड़ें कहां हैं? यह उत्पन्न कैसे होता है? यह कार्य कैसे करता है? यह कैसे तुम पर हावी हो जाता है? और कैसे तुम क्रोध में पागल हो जाते हो? यह क्रोध तुमसे पहले भी हो चुका है और अब भी हो रहा है, लेकिन अब तुम एक नया तत्त्व, एक नया आयाम इसमें जोड़ दो... और वह आयाम है समझ का आयाम, समझ के जुड़ते ही क्रोध के गुण और लक्षण बदल जाएंगे।
तब धीरे-धीरे तुम पाओगे कि जितना अधिक तुम क्रोध को समझते हो, उतना ही वह कम होता जाता है और जब तुम उसे पूर्ण रूप से समझ लेते हो तो एक दिन वह विलुप्त हो जाता है। समझ को बढ़ाना तापमान को बढ़ाने के समान है। तापमान जैसे ही सौ डिग्री के विशिष्ट बिंदु तक पहुंचता है, तो पानी विलुप्त हो जाता है और भाप बन जाता है। इसी तरह, क्रोध की ही भांति सेक्स है : उसे भी समझने का प्रयास करो। जितनी गहरी समझ होगी, तुम्हारी कामुकता, तुम्हारी वासना उतनी ही क्षीण होती जाएगी। तुम्हारी समझ जैसे ही शिखर पर पंहुचेगी अथवा पूर्णतम होगी वैसे ही उसी क्षण कामुकता पूर्ण रूपेण विलुप्त हो जाएगी।
यही मेरी कसौटी है कि आंतरिक ऊर्जा का कोई भी आयाम यदि उथली और बाहरी समझ से दमित होता है और नकारात्मक ढंग से प्रकट होता है, तो वह पाप है, अपराध है। परंतु गहरी समझ के द्वारा यदि वह आयाम रूपांतरित होता है, तो वही सदाचार है। तुम्हारी समझ की मात्रा जितनी गहरी होती जाएगी, उतना ही मात्रा में तुम्हारे भीतर से व्यर्थ विसर्जित हो जाएगा, नकारात्मकता विदा होती जाएगी और सकारात्मकता या सार्थकता सघन होगी। कामुकता और वासना विलुप्त हो जाएगी और प्रेम गहन होगा। क्रोध विलुप्त होगा और करुणा गहनतम होगी। लोभ मिटेगा और बांटने का भाव गहन होगा।
इसलिए गहरी समझ के द्वारा जो कुछ भी विसर्जित होने लगे, जान लेना कि वह व्यर्थ है, नकारात्मक है और जो कुछ भी तुम्हारे भीतर गहरी जड़ें जमाने लगे, जान लेना कि वही सार्थक है। मैं इसी तरह से अच्छे और बुरे, सदाचार और व्याभिचार तथा पुण्य और पाप की व्याख्या करता हूं। एक धार्मिक व्यक्ति या पुण्यवान व्यक्ति और कुछ नहीं बल्कि एक गहरी समझ का मालिक होता है। अधार्मिक व्यक्ति या पापी व्यक्ति वही है जिसकी समझ का स्तर बहुत ही उथला है, छिछला है। एक धार्मिक और एक अधार्मिक व्यक्ति में मुख्य अंतर पाप या पुण्य का नहीं होता है अपितु एक गहरे तल की समझ का होता है।
यही गहरी समझ, पानी को गर्म करने की प्रक्रिया की भांति कार्य करती है। जब वह क्षण आता है, जब तापमान उबलने के बिंदु तक पंहुच जाता है तो अचानक जैसे भाप बनती है वैसे ही अचानक अहंकार छूट जाता है। तुम प्रत्यक्ष रूप से, बिल्कुल सीधे ही अहंकार पर प्रहार नहीं कर सकते, हां! तुम उस स्थिति को अवश्य तैयार कर सकते हो, जिसमें अहंकार स्वतः ही नष्ट हो जाता है। वह स्थिति निर्मित होने में समय लगेगा।
इस संदर्भ में सदैव से ही दो विचारधाराएं रहीं हैं : पहली यह कि बुद्धत्व अचानक घटित होता है, यह समय के पार है। दूसरी यह है कि बुद्धत्व अचानक नहीं बल्कि धीरे-धीरे क्रमिक रूप से घटित होता है। यह दोनों विचारधाराएं परस्पर विपरीत हैं। एक के अनुसार बुद्धत्व अचानक ही, अनायास ही घटता है और दूसरी के अनुसार बुद्धत्व अचानक नहीं बल्कि धीमी प्रक्रिया में घटता है और दोनों ही सही हैं क्योंकि दोनों ने सिक्के के एक-एक पहलू को चुन लिया है, धीमी प्रक्रिया वाली विचारधारा ने गहरी समझ को विकसित करने वाला भाग चुन लिया और उनके अनुसार इसमें समय लगेगा, गहरी समझ समय के साथ ही विकसित होगी। और वे सही हैं, उनके अनुसार अचानक होने वाली घटना के बारे में चिंतित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह धीमी प्रक्रिया है। वे कहते हैं कि तुम केवल प्रक्रिया का अनुसरण करो और इस प्रक्रिया में जब पानी ठीक बिंदु तक गर्म हो जाएगा तो वह स्वतः ही वाष्प बन जाएगा। तुम्हें वाष्प के बारे में फिक्र करने की आवश्यकता ही नहीं है। तुम वाष्प से संबंधित सभी विचार अपने दिमाग से निकाल दो और तुम अपना पूरा ध्यान केवल और केवल पानी के गर्म करने पर लगा दो।
इसके विपरीत, दूसरी विचारधारा जो कहती है कि बुद्धत्व अचानक घटता है, उसने अंत वाला भाग चुन लिया है। वह कहते हैं कि प्रक्रिया इतनी सारभूत नहीं है, मुख्य बात यह है कि बिना किसी समय-अंतराल के ही घटना घट जाती है, बस एक क्षण में ही विस्फोट होता है। पहली जो धीमी प्रक्रिया है, वह केवल परिधि है, परंतु दूसरी तरफ जो अचानक विस्फोट है, वही वास्तविक बिंदु है, वह केंद्र है।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि दोनों ही ठीक हैं। बुद्धत्व अचानक घटता है और हमेशा अचानक ही घटित हुआ है। लेकिन समझ समय लेती है। दोनों ही सही हैं परंतु दोनों की व्याख्या गलत ढंग से की जा सकती है। तुम मन की चाल में फंस सकते हो, तुम स्वयं को ही धोखा दे सकते हो। यदि तुम कुछ भी नहीं करना चाहते हो, कोई भी प्रयास नहीं करना चाहते हो तो अचानक घटने वाले बुद्धत्व पर विश्वास करना एक आकर्षण होगा, क्योंकि तब तुम कहोगे कि यदि यह अचानक ही घटता है तो कुछ करने की आवश्यकता नहीं है, यह अचानक घट ही जाएगा और मैं इसमें कर ही क्या सकता हूं? मैं तो बस उस क्षण की प्रतीक्षा कर सकता हूं। यह स्वयं के प्रति धोखा हो सकता है।
इसी कारण, विशेषतः जापान में धर्म पूरी तरह विलुप्त हो गया। जापान में अचानक बुद्धत्व घटने की एक प्राचीन परंपरा है। झेन कहता है कि बुद्धत्व अचानक घटता है। इसी कारण से पूरा देश गैर-धार्मिक बन गया। लोगों में यह विश्वास प्रचलित हो गया कि अकस्मात् बुद्धत्व ही एक मात्र संभावना है। इसके अलावा कुछ भी नहीं किया जा सकता है और वह जब भी घटना होगा... तब ही घटेगा। यदि वह होना है तो होगा ही और यदि नहीं होना है तो नहीं होगा। हम इसके लिए कुछ भी नहीं कर सकते हैं, इसलिए कुछ किया ही क्यों जाए? कुछ करने की चिंता ही क्यों की जाए?
पूरब में जापान सबसे अधिक भौतिकवादी देश है। पूरब में जापान, पश्चिम के एक भाग की भांति अस्तित्व में है। यह बड़ी अजीब बात है कि जापान की ध्यान और झाझेन जैसी अत्यंत सुंदर परंपराएं विलुप्त हो गईं? ऐसा क्यों हुआ? इस अचानक बुद्धत्व घटने की धारणा के कारण ऐसा हुआ। इसी धारणा के फलस्वरूप वह सुंदर परंपराएं विलुप्त हुईं। लोगों ने स्वयं को धोखा देना शुरू कर दिया। भारत में एक दूसरी चीज़ घटित हुई... और इसीलिए मैं बार-बार यह कहता रहता हूं कि मनुष्य का मन बहुत अधिक धोखेबाज और चालबाज है। तुम्हें निरंतर सजग बने रहना होगा अन्यथा तुम धोखा खाओगे।
भारत में हमारे पास एक अन्य परंपरा है : क्रमिक बुद्धत्व की। भारत का योग-विज्ञान वही धीमी प्रक्रिया है। तुम्हें योग की इस प्रक्रिया के अंतर्गत कार्य करना पड़ता है, यहां तक कि अनेक जन्मों तक कठोर श्रम करना पड़ सकता है। अनुशासन की आवश्यकता होती है, अभ्यास की आवश्यकता होती है। जब तक तुम कठोर श्रम नहीं करते, तब तक तुम योग में कुशलता प्राप्त नहीं करोगे। इसलिए यह एक अत्यंत लंबी प्रक्रिया है, इतनी अधिक लंबी है कि भारत में माना जाता है कि इसके लिए एक जन्म पर्याप्त नहीं है और तुम्हें अनेक जन्मों की आवश्यकता होगी। अत्यंत सूक्ष्म और जटिल योग साधना के संबंध में यह बात गलत भी नहीं है। जहां तक समझ का संबंध है, यह सत्य है, लेकिन तब भारत ने माना कि यदि यह प्रक्रिया इतनी अधिक लंबी है तो फिर जल्दी क्या है? इतनी शीघ्रता क्यों? तब संसार का भरपूर आनंद लो क्योंकि कोई जल्दबाजी नहीं है और पर्याप्त समय है। यह इतनी अधिक लंबी प्रक्रिया है कि तुरंत ही, आज ही इसका परिणाम मिल पाना संभव नहीं है। यदि परिणाम शीघ्रता से प्राप्त नहीं किया जा सकता है, तब क्रिया के प्रति रूचि ही समाप्त हो जाती है। कोई भी व्यक्ति इतनी गहन अभीप्सा नहीं रखता है कि वह कई जन्मों तक प्रतीक्षा कर सके और इसलिए वह बुद्धत्व की बात ही भूल जाता है।
अतः क्रमिक बुद्धत्व की धारणा ने भारत को नष्ट किया और अचानक बुद्धत्व की धारणा ने जापान को नष्ट कर दिया। मेरे लिए दोनों ही सत्य हैं, क्योंकि दोनों ही एक संपूर्ण प्रक्रिया के आधे-आधे भाग हैं। तुम्हें निरंतर सजग बने रहना होगा कि तुम स्वयं को धोखा न दे सको। यह विरोधाभासी दिखाई देगा, परंतु मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि यह ऐसा है जो अभी ‘इसी क्षण’ घटित हो सकता है, लेकिन ‘इसी क्षण’ को आने में कई जन्म लग सकते हैं। इसलिए कठोर श्रम करो, प्रयास ऐसे करो जैसे यह ठीक इसी क्षण घटित होने जा रहा हो और धैर्य से प्रतीक्षा भी करो, क्योंकि इस संबंध में कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। यह कोई नहीं बता सकता है कि वह कब घटित होगा? हो सकता है कि वह अनेक जन्मों तक घटित ही न हो। इसलिए धैर्य से प्रतीक्षा करो, ऐसी प्रतीक्षा जैसे कि संपूर्ण प्रक्रिया स्वयं में एक लंबा और धीमा विकास हो और जितना संभव हो सके उतना कठोर श्रम भी करते रहो, जैसे कि बुद्धत्व अभी इसी क्षण घटित हो सकता है।

दूसरा प्रश्नः
ओशो! काम-ऊर्जा के प्रयोग द्वारा हमारे विकास के संबंध में कुछ कहने की कृपा करें, क्योंकि पश्चिमी देशों की अनेक समस्याओं में से यह भी एक मुख्य चिंता का विषय है।

सेक्स या काम, ऊर्जा है। इसलिए मैं इसे काम-ऊर्जा नहीं कहूंगा, क्योंकि कोई दूसरी ऊर्जा है ही नहीं। केवल सेक्स ही वह मूलभूत ऊर्जा है, जो तुम्हें प्राप्त हुई है। ऊर्जा का रूपांतरण किया जा सकता है, यह एक उच्चतम और श्रेष्ठतम ऊर्जा बन सकती है। यह जितनी अधिक ऊंचाई पर गतिशील होती है, उतनी ही काम-वासना निम्नतर हो जाती है और अंत में जब यह अपने चरम शिखर पर पंहुचती है तो प्रेम और करुणा में रूपांतरित हो जाती है। यह इसकी सर्वोच्च खिलावट है, हम इसे दिव्य अथवा आलौकिक ऊर्जा भी कह सकते हैं, परंतु इसका आधार, इसका मूल और इसका गढ़ सेक्स ही है। इसलिए सेक्स प्रथम है, सेक्स इस ऊर्जा की सबसे निचली परत है और दिव्यता या भगवत्ता इसकी सबसे ऊंची परत है। इन दोनों परतों के बीच यह एक ही ऊर्जा गतिशील होती है, केवल ध्रुवों पर इसका गुण बदल जाता है।
पहली बात जो समझनी होगी, वह यह है कि मैं ऊर्जा को विभाजित नहीं करता हूं। एक बार यदि विभाजन हो जाए तो द्वैत निर्मित हो जाता है, इस विभाजन से तनाव और संघर्ष उत्पन्न होता है। यदि तुम इस ऊर्जा को विभाजित करते हो, तो तुम भी विभाजित हो जाते हो, ऐसे में या तो तुम सेक्स के पक्ष में हो जाओगे या सेक्स के विरोध में हो जाओगे। मैं न तो पक्ष में हूं और न ही विपक्ष में हूं, क्योंकि मैं उसे विभाजित नहीं करता हूं। मैं कहता हूं कि सेक्स एक ऊर्जा है, सेक्स या काम केवल इस ऊर्जा का एक नाम है। तुम उस ऊर्जा को कोई भी नाम दे सकते हो, तुम इसे ‘एक्स’ या ‘वाई’ या ‘ए’ या ‘बी’ कुछ भी कह सकते हो। जब तुम इस ऊर्जा का उपयोग जैव-वैज्ञानिक ढंग से, एक प्रजनन-शक्ति के रूप में करते हो, तब इस ‘एक्स’ ऊर्जा का, इस अज्ञात ऊर्जा का नाम सेक्स या कामुकता है। यही ‘एक्स’ ऊर्जा जब वह जैव-वैज्ञानिक बंधन से मुक्त होती है तब यह दिव्यता में रूपांतरित हो जाती है। एक बार यदि यह ऊर्जा शारीरिक बंध से, वासना से और उन्माद से मुक्त हो जाए तो यही ऊर्जा जीसस का प्रेम है और बुद्ध की करुणा है।
आज ईसाईयत के कारण पूरा पश्चिम एक तरह के सनकीपन से पीड़ित है, मनोग्रसित है। दो हजार वर्षों से ईसाईयत द्वारा दमित की गई काम-ऊर्जा ने पश्चिमी मन को सेक्स के प्रति विक्षिप्त बना दिया है। पहली बात- दो हजार वर्षों से यह प्रयास किया जा रहा था कि इस ऊर्जा को कैसे नष्ट किया जाए? तुम इसे नष्ट नहीं कर सकते। कोई भी ऊर्जा नष्ट नहीं की जा सकती, वह केवल रूपांतरित की जा सकती है। ऊर्जा को आमूल रूप से नष्ट करने का कोई उपाय ही नहीं है, इस संसार में किसी भी चीज़ को नष्ट नहीं किया जा सकता है, उसे केवल बदला जा सकता है, रूपांतरित किया जा सकता है और एक नई सत्ता में या एक नूतन आयाम में परिवर्तित किया जा सकता है। ऊर्जा का पूर्ण विनाश असंभव है। तुम एक नई ऊर्जा को निर्मित नहीं कर सकते हो, और न ही तुम किसी पुरानी ऊर्जा को नष्ट कर सकते हो। सृजन और विनाश दोनों ही तुम्हारे हाथ में नहीं है, यह तुम्हारी प्रत्येक संभव सीमा के बाहर की बात है। इसलिए निर्माण और विनाश असंभव है। अब वैज्ञानिक भी इस बात से सहमत हैं कि एक छोटे से छोटा अणु भी नष्ट नहीं किया जा सकता है।
ईसाईयत दो हजार वर्षों से सेक्स ऊर्जा को नष्ट करने का प्रयास कर रही है। वह धर्म-पूर्ण ढंग से सेक्स के बिना अपना अस्तित्व बनाए रखना चाहती है। इससे एक पागलपन उत्पन्न हो गया। तुम इस सेक्स ऊर्जा से जितना अधिक लड़ते हो, तुम उतना ही अधिक इसका दमन करते हो और इसी दमन के कारण तुम और अधिक कामुक बन जाते हो। तब सेक्स तुम्हारे अवचेतन में गहरे तक प्रवेश कर जाता है और वह तुम्हारे पूरे अस्तित्व को विषैला बना देता है। इसलिए यदि तुम ईसाई संतों के जीवन चरित्र को पढ़ो तो तुम पाओगे कि वे सेक्स के प्रति मनोग्रसित हैं। वे प्रार्थना नहीं कर सकते हैं, वे ध्यान नहीं कर सकते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें सेक्स प्रवेश कर जाता है। तब वे सोचते हैं कि कोई शैतान उनके साथ छल-कपट कर रहा है, शैतान उनसे धूर्तता कर रहा है। कोई शैतान नहीं है, कोई छल-कपट नहीं कर रहा है। यदि तुम सेक्स ऊर्जा का दमन कर रहे हो तो तुम ही वह शैतान हो।
निरंतर दो हजार वर्षों तक सेक्स का दमन करने के बाद, पश्चिम इससे दुखी हो गया, थककर चूर हो गया। सेक्स की अति हो गई। तब अचानक सबकुछ पलट गया। अब दमन के स्थान पर सेक्स के प्रति आसक्ति पैदा हो गई और इसके भोग का एक नया उन्माद उत्पन्न हुआ। मन एक छोर से दूसरे छोर पर, एक अति से दूसरी अति पर गतिशील हो गया। परंतु बीमारी ज्यों की त्यों बनी रही। एक बार वह दमन के रूप में थी, अब उसी बीमारी ने अतिशय भोग का रूप ले लिया। यह दोनों ही रुग्ण दृष्टिकोण हैं। न तो सेक्स का दमन करना है और न ही विक्षिप्त की तरह उसका भोग करना है, बल्कि सेक्स का तो रूपांतरण करना है। सेक्स को कामुकता से दिव्यता की ओर रूपांतरित करने का एकमात्र संभव उपाय यह है कि काम-क्रीड़ा में गहन ध्यानमयी सजगता के साथ उतरा जाए। यह ठीक वैसे ही है, जैसा मैं क्रोध के बारे में कह रहा था। सेक्स में उतरो परंतु एक जागरूक, होशपूर्ण और सचेतन ढंग से इसका उपभोग करो। इसे एक अचेतन शक्ति के रूप में हावी होने की आज्ञा मत दो। इसके प्रभाव में मत आओ, इसके द्वारा संचालित मत होवो। समग्र जागरूकता के साथ, जानते-समझते हुए, प्रेमपूर्ण ढंग से इसमें सहभागी बनो। अपने सेक्स के अनुभव को ध्यान का एक गहन अनुभव बनाओ। इसमें ध्यानपूर्ण बने रहो। ध्यानपूर्ण ढंग से और सजगता से सेक्स में उतरने की प्रक्रिया को ही पूरब ने तंत्रयोग कहा है।
यदि एक बार सेक्स के अनुभव में तुम ध्यानपूर्ण हो सको तो तुम पाओगे कि उसकी गुणवत्ता ही बदल गई है। वह ऊर्जा जो काम वासना के अनुभव में गतिशील हो रही थी, अब वही ऊर्जा चेतना की ओर गतिशील होना प्रारंभ कर देती है। तुम कामोन्माद के सर्वोच्च शिखर पर पूर्ण जागरूक और पूर्ण सजग रह सकते हो, जो किसी अन्य प्रकार से कभी भी संभव नहीं है, क्योंकि कोई दूसरा अनुभव इतना अधिक गहन, इतना अधिक तल्लीन करने वाला और इतना अधिक समग्र नहीं होता। संभोग के सर्वोच्च शिखर पर तुम पूर्ण रूप से ऊर्जा द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हो, तुम्हारी समस्त जड़ें उस ऊर्जा को पी लेती हैं, तुम्हारा पूरा अस्तित्व इस ऊर्जा से आविष्ट हो जाता है और उस ऊर्जा में तरंगायित होने लगता है। तुम्हारा शरीर और मन दोनों ही तल्लीन हो जाते हैं। इस क्षण में विचार की प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाती है। जब तुम संभोग के आनंद-शिखर पर पहुंचते हो तो चाहे एक क्षण के लिए ही सही, तुम्हारी पूरी विचार प्रक्रिया रूक जाती है, क्योंकि इस क्षण में तुम समग्र होते हो, इसलिए तुम विचार कर ही नहीं सकते।
संभोग के सर्वोच्च शिखर तुम विशुद्ध चेतन सत्ता के रूप में होते हो। वहां तुम चेतनता के रूप में, ऊर्जा के रूप में होते हो और तुम्हारा अस्तित्व विचार रहित होता है। इस क्षण में यदि तुम सजग और सचेत हो सको, तो यही सेक्स एक द्वार बन सकता है, दिव्यता के जगत में प्रवेश करने के लिए। यदि इस क्षण में तुम सजग बने रह सकते हो तो अन्य क्षणों में भी और जीवन के अन्य अनुभवों में भी वह सजगता आ सकती है। यह सजगता तुम्हारा एक मुख्य अंग बन सकती है। तब भोजन करते हुए, टहलते हुए और कोई भी कार्य करते हुए, तुम सजग बने रह सकते हो। सेक्स के माध्यम से सजगता ने तुम्हारे अंतरतम और गहनतम केंद्र को अथवा आत्मा को स्पर्श किया है। सजगता ने तुम्हारी समस्त परतों को भेदकर, अंदर गहराई तक प्रवेश किया है। अब तुम सजगता ही हो।
यदि तुम ध्यानपूर्ण हो जाते हो तो तुम एक नवीन तथ्य को अनुभव करोगे कि सेक्स तुम्हें परम आनंद नहीं देता है, सेक्स तुम्हें परम उन्माद नहीं देता है, वस्तुतः मन की निर्विचार स्थिति और काम-कृत्य में तुम्हारा समग्र रूप से तल्लीन हो जाना ही तुम्हें परमानंद का पूर्ण अनुभव देता है।
एक बार यदि तुम इस रहस्य को समझ जाते हो तब सेक्स की आवश्यकता निम्नतम हो जाती है, क्योंकि मन की वह निर्विचार स्थिति सेक्स के बिना भी निर्मित की जा सकती है। और ध्यान करने का ठीक यही अर्थ होता है कि निर्विचार स्थिति को उपलब्ध हुआ जा सके। अस्तित्व के साथ समग्र रूपेण एक होने की स्थिति, बिना सेक्स के भी सृजित की जा सकती है। एक बार तुम जान जाते हो कि यह अनुभव सेक्स के बिना भी हो सकता है, तब सेक्स की आवश्यकता कम हो जाएगी। एक क्षण ऐसा आएगा जब सेक्स की आवश्यकता बिल्कुल भी महसूस नहीं होगी।
स्मरण रहे, सेक्स हमेशा दूसरे पर आश्रित है, इसलिए सेक्स में एक बंधन और एक गुलामी बनी रहती है। तुम किसी अन्य व्यक्ति पर आश्रित हुए बिना, यदि एक बार भी संभोग के सर्वोच्च शिखर-आनंद को या समग्रता की उस स्थिति को निर्मित कर पाते हो, तो वह ऊर्जा तुम्हारे लिए अंतरस्रोत बन गई। अब तुम स्वतंत्र हो और मुक्त हो।
इसी स्वतंत्रता को, इसी मुक्ति को, भीतरी ऊर्जा और ब्रह्माण्डीय उर्जा के इस निराश्रित संयोग को ही भारत में ब्रह्मचर्य कहा गया है। ब्रह्मचर्य अर्थात पूर्ण रूप से कुंवारा... ऐसा व्यक्ति जो मुक्त रह सकता है क्योंकि अब वह किसी अन्य व्यक्ति पर आश्रित नहीं है, उसका परमानंद केवल उसी के भीतर से उपजता है।
ध्यान के द्वारा सेक्स विलुप्त हो जाता है, लेकिन यह ऊर्जा का विनाश नहीं है। ऊर्जा कभी भी नष्ट नहीं होती है, केवल ऊर्जा का रूप बदल जाता है। ध्यान के द्वारा, अब वह ऊर्जा काम-वासना नहीं है और जब उसका रूप कामुक नहीं है, वासनामय नहीं है, तब तुम एकदम प्रेमपूर्ण हो जाते हो।
वास्तव में, जो व्यक्ति कामुक होता है, वह प्रेमल नहीं हो सकता। उसका प्रेम केवल एक दिखावा हो सकता है, उसका प्रेम केवल एक छल-कपट हो सकता है। उसका प्रेम केवल और केवल सेक्स की ओर जाने का एक साधन है। कामातुर व्यक्ति प्रेम का उपयोग सेक्स के लिए एक तकनीक की भांति करता है। उसके लिए प्रेम एक मार्ग है, सेक्स तक जाने का। एक कामातुर व्यक्ति सचमुच प्रेम कर ही नहीं सकता है। वह केवल दूसरे का शोषण कर सकता है। उसके लिए प्रेम केवल दूसरे तक पंहुचने का और दूसरे को पाने का या दूसरे पर कब्ज़ा करने का एक साधन मात्र है।
एक व्यक्ति जो वासना से मुक्त हो गया है और उसकी काम ऊर्जा उसके ही भीतर, उसकी चेतना की ओर गतिशील हो रही है, तो वह स्वतः ही परम आनंद बन जाता है। उसका परमानंद कुंवारा है, निराश्रित है, वह स्वयं से ही जन्मा है। ऐसा व्यक्ति ही वास्तव में प्रेमल होगा। उसका प्रेम निरंतर बरसेगा, उसका प्रेम निरंतर बंटेगा और निरंतर उसका प्रेम दूसरों में वितरित होता रहेगा। लेकिन इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए तुम्हें सेक्स-विरोधी बनने की आवश्यकता नहीं है। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए तुम्हें सेक्स को जीवन के एक अभिन्न अंग की भांति स्वीकार करना होगा। सेक्स को एक स्वाभाविक और प्राकृतिक जीवन शैली की भांति स्वीकार करना होगा। सेक्स में अत्यंत सहजता और सचेतनता से गतिशील होना होगा। चेतन तत्व एक पुल की तरह है, एक स्वर्ण-सेतु की तरह है जो इस लौकिक संसार और उस आलौकिक संसार; स्वर्ग एवं नरक तथा अहंकार एवं दिव्यता के जगत को आपस में जोड़ता है।
आज इतना ही।

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