पांचवां प्रवचन-एक सीधा सत्य
एक धर्मगुरु ने एक रात एक सपना देखा। सपने में उसने देखा कि वह स्वर्ग के द्वार पहुँच गया है। जीवनभर उसने स्वर्ग की ही बातें की थी। और जीवनभर स्वर्ग का रास्ता क्या है, यह लोगों को बताया था उसे निश्चित था कि जब मैं स्वर्ग के द्वार पर पहुंचूंगा ता स्वयं परमात्मा मेरे स्वागत को तैयार रहेंगे। लेकिन वहां द्वार पर तो कोई भी नहीं था द्वार खुला भी नहीं था, बन्द था। द्वार इतना बड़ा था कि उसके ओर-छोर को देख पाना सम्भव नहीं था उस विशाल द्वार के समक्ष खड़े होकर, वह एक छोटी चींटी जैस मालूम होने लगा। उसने द्वार को बहुत खटखटाया, लेकिन उस विशाल द्वार पर, उस छोटे-से आदमी की आवाजें भी पैदा हुई या नहीं, इसका पता चल पाना कठिन था। वह बहुत डर गया।
निरन्तर उसने यही कहा था कि परमात्मा ने, अपनी ही शक्ल में, आदमी को बनाया और आज इस विराट द्वार के समक्ष, खड़े होकर वह इतना छोटा मालूम होने लगा। बहुत चिल्लाने, बहुत द्वार पीटने पर, द्वार से कोई एक छोटी, खिड़की खुली और किसी ने झांका। जिसने झांका था, उसकी हजार आंखें होंगी और इतनी तेज रोशनी थी उन आंखों की कि वह धर्मगुरु दीवार के एक छोटे-से कोने में सरक गया। इतना डर गया और चिल्लाया कि आप कृपा कर चेहरा भीतर रखें।
हे परमात्मा! आप चेहरा भीतर रखें, मैं बाहुत डर गया हूं। उस हजार आंखों वाले व्यक्ति ने कहा मैं परमात्मा नहीं हूं। मैं तो यहां का पहरेदार हूं, द्वारपाल हूं। तुम कहां हो? मुझे दिखाई नहीं पडते, तुम कितने छोटे हो और कहां छिप गये हो। उस धर्मगुरु ने चिल्लाकर कहा कि मैं परमात्मा के दर्शन करना चाहता हूँ और स्वर्ग में प्रवेश करना चाहता हूं। उस द्वारपाल ने पूछा तुम हो कौन और कहा से आये हो? उसने का क्या आपको पता नहीं? मैं एक धर्मगुरु हूं और पृथ्वी से आ रहा हूं। उस हजार आंख वाले आदमी ने कहा पृथ्वी यह कहां है? वह धमगुरु हैरान हुआ, कहा तुम्हें पृथ्वी का भी पता नहीं? उस हजार आंख वाले ने कहा कि किस यूनिवर्स में? तुम किस विश्व की? पुथ्वी की बात कर रहे हो? करोड़ों यूनिवर्स हैं, करोड़ों विश्व हैं। प्रत्येक विश्व के करोड़ों सूरज हैं, प्रत्येक सूरज की अपनी पृथ्वियां हैं। तुम किस पृथ्वी की बात करते हो? क्या नम्बर है तुम्हारी पृथ्वी का, क्या इण्डेक्स नम्बर है? उसे तो कुछ पता नहीं था। उसने कहा कि हम तो एक ही विश्व को जानते हैं और एक ही सूरज को। और हमने इसलिए उनका कोई नाम नहीं रखा, कोई नम्बर नहीं रखा।
उस पहरेदार ने कहा तब बहुत मुश्किल है पता लगाना कि तुम कहां से आ रहे हो। पहली बार ही इस द्वार पर पृथ्वी का नाम सुना गया है और "मनुष्य" शब्द भी पहली बार ही मेरे कानों में पड़ा है।
उस धर्मगुरु के तो प्राण बैठ गये सोचा था, परमात्मा द्वार पर स्वागत को मिलेंगे। यहां तो इसका भी पता नहीं है कि जिस पृथ्वी से वह आ रहा है वह कहां हैं
फिर भी उस पहरेदार ने कहा तुम निश्चिन्त रहो, मैं अभी पूछताछ करवाता हूं। थोड़ा समय तो लग जायेगा, उस भवन में खोज करवाता हूँ कि तुम किस पृथ्वी की बातें करते हो, जहां सारी पृथ्वियों के सम्बन्ध में, हमारे पास आंकड़े इकट्ठे हैं, नक्शें हैं, लेकिन कुछ महीने लग जायेंगे। इसके पहले तो पता लगाना कठिन है कि तुम कहां से आते हो, किस जाति के हो और तुम्हारा यहां आने का क्या प्रयोजन है। उसने कहा कि मैं परमात्मा के दर्शन करना चाहता हूं। उस पहरेदार ने कहा-अनन्त वर्ष हो गये, मुझे इस द्वार पर। अभी तो मैं भी परमात्मा के दर्शन नहीं कर पाया। और अब तक मैं ऐसे व्यक्ति से भी नहीं मिला हूं, इस स्वर्ग के द्वार पर, जिसने परमात्मा के दर्शन किये हों। परमात्मा की पूरी सृष्टि को ही जान लेना कठिन हैं परमात्मा का जानना तो और भी कठिन है। वह तो समग्रता का ही नाम है।
घबराहट में उस धर्मगुरु की नींद टूट गयीं वे पसीने से लथपथ था। घबरा गया था। फिर रातभर उसे नींद नहीं आ सकी। वह बार-बार यही सोचता रहा कि कहीं मनुष्य ने, अपने अहंकार के ही प्रभाव में तो यह सारी बातें नहीं सोच ली है। कि परमात्मा ने आदमी को अपनी ही शक्ल में बनाया और परमात्मा आदमी से मिलने को उत्सुक है, पुकार रहा है और स्वर्ग के द्वार और मोक्ष यह कहीं मनुष्य ने अपने ही मन की कल्पनाएं तो नहीं खड़ी कर ली हैं?
इस कहानी से, इसलिए मैं शुरू करना चाहता हूं, धर्मगुरु के इस सपने से कि आदमी एक बहुत बड़े भ्रमलोक में जीता है। वह स्वयं को न जाने क्या-क्या समझ लेता है, जब कि विराट विश्व के किसी कोने मे, उसका कोई अस्तित्व नहीं है। इस विश्व की विराटता का हम अनुभव करें और फिर उसके सामने अपने को खड़ा करें तो हम कहां रह जाते हैं, हम कहां है? यह पृथ्वी बहुत छोटी है। हमारा सूरज इस पृथ्वी से साठ हजार गुना बड़ा है। और यह सूरज, जितने सूरज हम जानते हैं, उनमें सबसे छोटा है। और कोई दो अरब सूरज ही समाप्ति नही हैं, उनके आगे भी विश्व होगा, उसके आगे भी विस्तार होगा, उसे आगे भी फैलाव होगा। इतने अनन्त विश्व के एक छोटी-सी पृथ्वी के कोने पर, छोटा-सा प्राणी है मनुष्य। उसकी भी कोई बहुत बड़ी संख्या नहीं है। कोई साढ़े तीन अरब उसकी संख्या है। अगर हम और प्राणियों की संख्या के हिसाब से विचार करेंगे तो पायेंगे, वह कहीं भी नहीं है। और छोटे-छोटे प्राणी हैं, उनकी संख्या अनन्त है। उसमें छोटा-सी संख्या का यह मनुष्य है।
मनुष्य का यह जो ह्यूमन कॉर्नर है, यह तो छोटा-सा कोना है, इस जगत में हम अपने को न मालूम क्या समझ बैठे हैं। अपने को न मालूम क्या सोच बैठे हैं। यह मनुष्य भी बहुत थोड़े से दिन जीता हैं कोई सत्तर अस्सी वर्ष, ज्यादा से ज्यादा सौ वर्ष। इस अनन्त विश्व के विस्तार में सौ वर्षों की कोई गणना नहीं, कोई कीमत नहीं, कोई जगह नहीं। पृथ्वी को बने ही कोई दो अरब वर्ष हो गये और पृथ्वी बहुत नया आगमन है जगत में। अरबों खरबों वर्ष पीछे है। उनकी श्रंखला का कोई अन्त नहीं। उतना ही समय आगे-अनन्त, इटर्नल, कोई अन्त नहीं। उसमें एक छोटे-से क्षण में, एक आदमी जी लेता है और न मालूम क्या सोच लेता है। स्पेस के ख्याल से भी आदमी ना-कुछ है, टाइम के ख्याल से भी आदमी न कुछ है।
धार्मिक व्यक्ति मैं उसे कहता हूं, जो अपने इस ना-कुछ होने के अनुभव को उपलब्ध हो जाता है। लेकिन धार्मिक व्यक्ति की कथा उलटी रही है। धार्मिक व्यक्ति घोषणा करता है, अहं ब्रह्ममास्मि मैं हूं ब्रह्म, मैं हूं ईश्वर, मैं हूं आत्मा, मैं हूं अनन्त आत्मा, मैं हूं मोक्ष का अधिकारी, मैं यह हूं, मैं वह हूं! धार्मिक व्यक्ति इन बातों की घोषण करता है! ऐसे व्यक्ति को मैं धार्मिक नहीं कहता। धर्मिक व्यक्ति वह है जो अपनी इस नथिंगनेस को, न कुछ होने को अनुभव कर ले। जिस दिन यह ना-कुछ होना अनुभव हो जाता है, उसी दिन जीवन के बन्द द्वार खुल जाते हैं और सब कुछ होने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। लेकिन न कुछ होने का अनुभव अत्यन्त प्राथमिक है। बिल्कुल पहली सीढ़ी है कि हम जानें कि हम कुछ भी नहीं हैं। लेकिन यह हमें पता लगाना कठिन हो जाता है, क्योंकि हम मनुष्यों के बीच में जीते हैं। हम सबका भ्रम चूंकि समान है, इसलिए उस भ्रम का कभी खण्डन नहीं होता। हम सब एक-दूसरे के भ्रम के पोषक बनते चले जाते हैं।
जब पहल बार गैलीलियो और उसके साथियों ने कहा कि सूरज पृथ्वी का चक्कर नहीं लगाता है, पृथ्वी ही चक्कर लगाती है सूरज के तो मनुष्य के अहंकार को बड़ा धक्का पहुंचा। धर्मगुरु ने कहा यह कैसे हो सकता है? परमात्मा ने विशेष रूप से मनुष्य को बनाया है। और सारा जगत मनुष्य के उपभोग के लिए बनाया है। तो जिस पृथ्वी पर मनुष्य रहता है, वह पृथ्वी सूरज के चक्कर कैसे लगा सकती है, सूरज ही चक्कर लगाता है पृथ्वी के। गैलीलियो को बुलाकर अदालत में कहा गया कि माफी मांग लो, ऐसी भूल की बातें मत करो। आदमी जिस पृथ्वी पर रहता है, वह कैसे सूरज का चक्कर लगा सकती है, सूरज ही चक्कर लगता है।
लेकिन धीरे-धीरे जितनी हमारी समझ बढ़ी पता चला कि पृथ्वी सेण्टर नहीं है विश्व का कि सारा विश्व उसका चक्कर लगाये। पृथ्वी को सेण्टर मानने का ख्याल हमें पैदा हुआ था, क्योंकि हम अपने को सेण्टर मानने के ख्याल में हैं। हम सारे जगत में केन्द्र में हैं, सारा जगत हमारे इर्द-गिर्द चक्कर लगाता है। हम सब-कुछ हैं, बीच में यह जो मनुष्य है मनुष्यता है, यह केन्द्र है और बाकी सारा जगत चक्कर लगाता है। हजारों वर्षों से धार्मिक व्यक्ति यह कहते रहे हैं कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। यह बड़े आश्चर्य की बात है। कि किन्ही और प्राणियों के बिना पूछे ही हम घोषणा करते रहे हैं कि मनुष्य सर्व श्रेष्ठ प्राणी है। कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। न तो हमने चींटियों से पूछा है, न हमने पक्षियों से पूछा है। यह इकतरफा गवाही हमने स्वीकार कर ली है। अपने ही मुँह से कहते रहे कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। वह सरताज है सृष्टि का। बिना किसी प्राणी से पूछे हमने यह घोषणा कर दी है और चूंकि किसी प्राणी को इस घोषणा का पता भी नहीं है, इसलिए कोई प्रतिवाद भी नहीं आता है, कोई इन्कार भी नहीं करता है।
हम अपने कोने में बैठे हुए घोषणाएं करते रहते हैं कि हम यह हैं, हम वह हैं। अगर पशु-पक्षियों से पूछा जाये और किसी दिन हम जान सकें कि वे क्या सोचते हैं तो शायद ही कोई ऐसे प्राणी की जाति मिले, जो अपने मन में यह न सोचती हो कि हम सर्वश्रेष्ठ हैं चींटियां सोचती होंगी हम, बन्दर सोचते होंगे हम। डार्विन ने कह दिया है कि मनुष्य विकसित हुआ है बन्दरों से। अगर बन्दरों से पूछा जाये तो बन्दर यह कभी मानने को राजी न होंगे कि आदमी उनके ऊपर एक विकास है वह तो यही मानेंगे कि आदमी है, वह हमारा एक पतन है। हम दरख्तों पर कूदते, छलांगते हैं, आदमी जमीन पर सरकता है। यह हमारा पतन है, हमारी जाति से कुछ लोग पतित हो गये हैं नीचे और वे आदमी हो गये हैं। यह एवोलूशन नहीं है। अगर बन्दरों का कोई डार्विन होगा तो इसको एवोलूशन य विकास मानने को तैयार नहीं होगा कि आदमी विकसित हो गया है। लेकिन आदमी मानने को राजी हो गये।
आदमी के अहंकार को जो भी चीज पुष्ट करती है, वह मानने को एकदम राजी हो जाता है। पृथ्वी केन्द्र थी, मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। लेकिन धीरे-धीरे, रोज- रोज ये बातें छिनती चली गयीं। विज्ञान न रोज- रोज चोट की। पहली चोट यह हुई कि पृथ्वी केन्द्र न रही जिस दिन पृथ्वी केन्द्र न रही, उसी दिन बहुत बड़ा धक्का मनुष्य क अहंकार को पहुंचा।
हम सोचते थे कि मनुष्य के भीतर जितना घुसेंगे, उतना ही परमात्मा उपलब्ध होगा, उतना ही आत्मा का दर्शन होगा। इधर आय फ्रायड, उसने कहा कि मनुष्य के भीतर जितना घुसो, सिवाय सेक्स के कुछ उपलब्ध होता है? बहुत घबराहट सारी दुनिया में फैली। आदमी ने फिर इनकार किया कि कैसी फिजूल की बातें हैं। भीतर तो है परमात्मा और यह फ्रायड कहता है कि भीतर हे सेक्स। यह सब बड़ी गलत बातें हैं। लेकिन जितनी हमारी समझ बढ़ी, पता चला कि आदमी के सामान्य केन्द्र पर सेक्स ही है। वह उसी से जन्मता है, उसी में जीता है, उसी के लिए जीता है। और उसी में समाप्त हो जाता है। और एक बड़ा धक्का लगा और एक केन्द्र अहंकार का टूट गया।
और तीसरा बड़ा धक्का लगा जो विराट विश्व की खोजबीन शुरू हुई और पाया कि अन्तहीन सीमाएं हैं जगत की कहीं कोई अन्त होता नहीं फैलता जाता है, फैलता जाता है जगत्, कहीं कोई जगह नहीं आती, जहां हम कहें कि यह समाप्त हो गया। सोचते हैं हम, तारे हमारे बहुत निकट हैं, रात को दिखाई पड़ते हैं, लेकिन जैसे-जैसे समझ बढ़ी पता चला, तारे हमसे बहुत दूर हैं। इतनी दूर हैं कि उनकी गणना भी करना बहुत कठिन है।
सबसे करीब का जो तारा है हमसे, उसकी रोशनी भी आने में हम तक चार वर्ष लग जाते हैं। और रोशनी की गति साधारण नहीं होती, एक सेकेण्ड में एक लाख छियासी हजार मील होती है। एक सेकेण्ड में प्रकाश की किरण एक लाख छियासी हजार मील चलती है। जो सबसे करीब का तारा है, उसकी किरण चले आज तो चार वर्ष बाद यहां पहुंचेगी। दूर से दूर के जो तारे हैं, उनकी रोशनी तब चली थी जिस दिन पृथ्वी बनी, दो अरब वर्ष पहले, अभी तक पहुंची नहीं। उनके आगे भी तारे हैं, वे हमें दिखाई नहीं पड़ते, क्योंकि उनकी रोशनी हम तक अभी पहुंची ही नहीं है।
रात का जो तारे हम देखते हैं, वे जहां हमें दिखाई पड़ते हैं, वहां नहीं होते। कोई तारा वहां नहीं होता। रात बिल्कुल झूठी है। कोई तारा नहीं है, जहां हमें दिखाई पड़ रहा है। वहां कभी था, उसकी रोशनी इतनी देर में आयी कि इतनी देर में तो वह न मालूम कहां चला गया, कितनी यात्रा कर गया, अब वहां नहीं है। जो तारासबसे करीब है, वह चार वर्ष पहले वहां था। अब वहां नहीं है। चार वर्ष में तो वह अरबों मील चल चुका। और हो सकता है, चार वर्ष मे टूटकर नष्ट भी हो गया तो भी हमें दिखाई पड़ता है, क्योंकि चार वर्ष पहले वह वहां था। उसकी रोशनी वहां से चली थी। वह अब हमारी आंख पर आयी है तो हमें दिखाई पड़ रहा है वहां।
पूरी रात झूठी है, कोई तारा वहां नहीं है जहां हमें दिखाई पड़ रहा है। काई तारा साठ वर्ष पहले वहां था, कोई हजार वर्ष, कोई लाख वर्ष, कोई करोड़ वर्ष, कोई अरब वर्ष। दो अरब वर्ष पहले जो तारे थे, उनकी रोशनी तो धीरे-धीरे हम तक पहुंचेगी। यह सारी रात झूठी है। ये तारे इतने दूर हैं, इनकी दूरी ने घबराहट पैदा कर दी है। इनके विस्तार ने, यह जो इतना एक्सपेडिग जगत है, इसने आदमी को एकदम छोटे-से-छोटा कर दिया। वह कहीं भी नहीं रह गया, उसकी कोई गणना नहीं रह गयी, उसका कोई हिसाब नहीं रह गया। धार्मिक आदमी को बड़ी चोटें पहुंची हैं।
मेरी दृष्टि से तो धार्मिक आदमी का चोट पहुंचनी नहीं थीं, बल्कि धार्मिक आदमी की गहराई बढ़नी थी इन बातों से, क्योंकि इन बातों से, यह पता चलना शुरू हुआ कि हम कुछ भी नहीं हैं। और हमारा यह पुराना भ्रम टूटा कि हम सब कुछ अपने को मान कर बैठे थे। उस भ्रम को धक्के लगे, उससे सारी दुनिया को धार्मिक जगत एकदम हिल गया, कांप गया। उसे लगा कि यह आदमी तो कुछ भी नहीं हैं तो फिर गहरी घोषणाएं, हमारी अमरता की घोषणाएं, हमारी आत्मा की, ब्रह्म की, ईश्वर की, मोक्ष को पाने की घोषणाएं इनका क्या होगा? लेकिन मेरी दृष्टि से विज्ञान की इन तीन सौ वर्षों की खोजों ने, असली धार्मिक आदमी को पैदा करने की भूमिका उपस्थित कर दी।
असली धार्मिक आदमी का पहला लक्षण है अपने-ना कुछ होने को जान लेना। और जिस दिन, कोई अपनी पूरी नथिंगनेस परिपूर्णता में जान लेता है, उसी दिन शून्य को उपलब्ध हो जाता है।
आज की सुबह, इस सम्बन्ध में थोड़ी-सी बात आपसे कहना चाहता हूं। हम कुछ भी नहीं है, यह बोध हमारा गहरे से गहरा हो जाना चाहिए। यह बोध हमारा निरन्तर तीव्र से तीव्र होते जाना चाहिए कि कुछ भी नहीं हूं। जिन्दगी को हम ऐसे देखेंगे तो हमको दिखाई पड़ जायेगा कि मैं कुछ भी नहीं हूं।
यह दिखाई पड़नें में कौन-सी कठिनाई है? मृत्यु रोज इसकी खबर लाती है कि हम कुछ भी नहीं है। लेकिन हम मृत्यु को कभी गौर से देखते नहीं कि वह क्या खबर लाती हैं। मृत्यु को तो हमने छिपाकर रख दिया है। मरघट गांव के बाहर बना दिया है, ताकि दिखाई न पड़े। किसी दिन आदमी समझदार होगा, धार्मिक होगा। तो मरघट बिल्कुल गांव के चौरास्ते पर बनाये जायेंगे। रोज दिन में दस दफा निकलते, जाते-आते, दिखाई पड़े मौत तो ख्याल में आये कि मौत है।
अभी कोई लाश निकलती है, मुर्दा निकलता है, बच्चों को हम घर के भीतर बुला लेते हैं कि कोई मुर्दा निकल रहा है, भीतर आ जाओ, मुर्दा निकले और हमे समझ हो तो सब बच्चों को बाहर इकट्ठा कर लेना चाहिए कि देखो यह आदमी मर गया और ठीक ऐसे ही हम सब मर जाने को हैं। हमारे न-कुछ होने का बोध, जिस बात से भी कुछ गहरा होता हो, जिस बात से भी तीव्र होता हो, वह सारी प्रक्रियाएं हमारे जीवन में वास्तविक धर्म के जन्म का, सत्य के जन्म का, प्रकाश के जन्म का कारण बनती हैं। हम न-कुछ हैं, यह किन-किन बातों से ख्याल में गहरा हो सकता है? इसी बात की पूरी प्रक्रिया को ध्यान से समझना चाहिए जिसने अपने ना-कुछ होने का, आपको रोज रोज पता चलता चला जाये। हमारी हालत उल्टी है। हम कुछ हैं, इस बात की कोशिश में जीवनभर प्रयास करते रहते हैं।
एक बोधिधर्म नाम का भिक्षु था। वह कोई चौदह सौ वर्ष पहले चीन गया। वहां के सम्राट वू ने उसका स्वागत किया। वू ने जो वहां का सम्राट था, बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए करोड़ों रुपये खर्च किये थे। हजारों भिक्षुओं को रोज भोजन देता था। हजारों मन्दिर बनवाये थे, बुद्ध की लाखों प्रतिमाएं बनवायी थीं। एक ही मन्दिर बनवाया था उसने, जिसमें बुद्ध की दस हजार प्रतिमाएं रखवायी थीं। वह दस हजार बुद्धों वाला मन्दिर अब भी शेष है। तो जब बोधिधर्म चीन पहुंचा तो वू भी उससे मिलने आया और उसने कहा क्या मैं पूछ सकता हूं, मैंने इतने मन्दिर बनवाये, इतने भिक्षुओं को मैंने दान दिया, धर्म की मैंने इतनी प्रभावना की, दूर-दूर तक धर्मशास्त्र बंटवाये, धर्म का प्रचार करवाया, इन सबका फल क्या है?
बोधिधर्म ने कहा कुछ भी नहीं। सम्राट तो बहुत हैरान हो गया। उसके भिक्षुओं ने उसको यही समझाया कि इसका फल है, तुम्हें मोक्ष मिल जायेगा, स्वर्ग मिल जायेगा। यह सब समझाया था और बोधिधर्म ने कहा, कुछ भी नहीं, फल तो कुछ भी नहीं है। लेकिन पाप जरूर तुम्हें लगां वू न कहा क्या कहते हैं आप! इन सबसे मुझे पाप लगेगा? बोधिधर्म ने कहा इससे आपका यह ख्याल मजबूत हुआ है कि मैं कुछ हूं मैंने इतना किया, इतने मन्दिर बनवाये, इतने धर्मशास्त्र छपवाये, इतना प्रचार करवाया। इससे आपका यह ख्याल मजबूत हुआ कि मैं कुछ हूं।
और जगत में एक ही पाप है इस बात का बोध कि मैं कुछ हूं और एक ही पुण्य हैं इस बात का अनुभव कि मैं कुछ भी नहीं हूं।
वू तो नाराज हो गया, क्योंकि जिसने इतना किया हो और भिक्षु ने उससे कहा, इसका कोई फल नहीं है, उलटा पाप है। तो वह नाराज होकर चला गया और उसने आज्ञा दे दी कि बोधिधर्म उसके राज्य में नहीं ठहर सकेंगा। बोधिधर्म को आज्ञा आयी कि वू ने कहलवाया है कि तुम इस राज्य में नहीं ठहर सकोगे।
बोधिधर्म ने कहा वह गलती में है। वह अगर चाहता कि मैं यहां ठहरूं तो मैं भी ठहरने वाला नहीं था। ऐसे पापी राज्य में मैं रुकूंगा भी कैसे? उसको कहना कि वह चाहता भी कि मैं ठहरूं तो मैं ठहरने वाला नहीं था। उसकी आज्ञा की कोई जरूरत नहीं, मैं तो जा ही रहा हूं। उसके राज्य को छोड़कर बोधधर्म दूसरे राज्य में चला गया। नदी के उस पार निकल गया।
अब वू की मृत्यु आयी, कोई दस वर्ष बाद! रोज रोज वह सोचता रहा। उस बोधिधर्म की बात उसके प्राणों को छेदती रही रोज रोज कि उसने कहा है कोई फल नहीं है इसका। बल्कि पाप है, क्योंकि यह ख्याल पैदा हो गया है कि मैं कुछ हूं। रोज रोज वह सोचता रहा। फिर जैसे-जैसे मौत करीब आयी, उसे लगना शुरू हुआ कि मैं तो न- कुछ हो जाऊंगा। और जब कल मृत्यु मुझे न-कुछ कर ही देगी तो मेरा यह ख्याल कि मैं कुछ था, मैंने इतना किया था, मैं यह था, मैं वह था, इसका क्या मूल्य रहेगा, क्या अर्थ रहेगा?
मरते वक्त उसने खबर भिजवायी, एक संदेशवाहक दौड़ाया कि जाओ और बोधिधर्म को बुला लाओ। मुझे अनुभव हो रहा है कि शायद वही ठीक कहता था। मैं तो डूबता जा रहा हूं, सब विलीन होता चला जा रहा है। बोधिधर्म के पास खबर पहुंची। बोधिधर्म ने कहा मैं चलता तो हूं, लेकिन जिसकी खबर तुम लेकर आये हो, वह समाप्त हो गया। और बहुत देर हो गयी। जब मैंने कहा था, अगर वह तभी जान लेता कि मैं कुछ भी नहीं हूं तो परम जीवन का उसे अनुभव हो जाता।
मृत्यु के क्षण में तो सभी जानते हैं कि हम कुछ भी नहीं हैं, लेकिन जीवन में जो जान लेते हैं, वे धन्यभागी हैं। जीवन में ही जो इस सत्य को जान लेता है कि मैं कुछ भी नहीं हूं। मृत्यु में तो इस सत्य को जान लेता है कि मैं कुछ भी नहीं हूं। मृत्यु में तो इस सत्य को सभी को जान ही लेना पड़ता हैं। लेकिन तब बहुत देर हो गयी, तब कोई क्रान्ति का समय न रहा। लेकिन जीवन में ही जो जान लेता है, जीते-जी जो जान लेता है कि मैं कुछ भी नहीं हूं, वही धन्यभागी है।
च्वांगत्से का शायद आपने नाम सुना होगा। एक अद्भुत फकीर था। एक गांव से गुजर रहा था। गांव के बाहर, सांझ का समय था। अंधेरा था। एक आदमी की खोपड़ी से उसका पैर टकरा गया। मरघट था। उसने खोपड़ी को उठाकर सिर पर लगा लिया और खोपड़ी को घर ले आया, अपने झोंपड़े पर रख लिया। उसके मित्रों ने, उसके शिष्यों ने उससे पूछा कि इस खोपड़ी को यहां किसलिए ले आये हो? उस च्वांगत्से ने कहा मुझसे बड़ी भूल हो गयी है। मरघट से मैं जा रहा था। और छोटे लोगों का मरघट न था, बड़े लोगों को मरघट था। मरघट भी अलग-अलग होते हैं, छोटे आदमियों के अलग, बड़े आदमियों के अलग, जिन्दगी में, छोटे और बड़े तो अलग होते ही हैं, मृत्यु में भी हम फर्क कर लेते हैं यह सम्राटों का मरघट है, यह दरिद्रों का मरघट है! उसने कहा वह बड़े लोगों का मरघट था। यह किसी बड़े आदमी की खोपड़ी होनी चाहिए। हो सकता है, यह किस सम्राट की खोपड़ी हो। अगर यह आदमी जिन्दा होता तो आज मेरी मुश्किल हो जाती। इसकी खोपड़ी में मेरा पैर लग गया। कुछ भी हो, मर गया फिर भी माफी तो मांग ही लेनी चाहिए। बड़े आदमी की खोपड़ी है, इसलिए इसको मैं ले आया, सम्मान से घर में रखूंगा। रोज माफी मांग लूंगा और फिर च्वांगत्से ने कहा कि यह खोपडी यहां पास रखी रहेगी तो मुझे यह ख्याल बना रहेगा कि आज नहीं कल, मेरी खोपड़ी की भी यही गति हो जाने वाली है। आज नहीं कल, किसी मरघट पर मेरी खोपड़ी पड़ी रहेगी और लोगों के जूते और लात उस पर लगते रहेंगे। जिस खोपड़ी के लिए मैं इतने सम्मान की अपेक्षा करता हूं, कल वह मिट्टी मे मिल जाने को है। यह सत्य मेरे ख्याल में बना रहेगा, इसलिए इस खोपड़ी को मैं पास ही रखूंगा। और जिस दिन से इस खोपड़ी को मैंने अपने पास रखा, अगर अब कोई जिन्दा भी मेरी खोपड़ी में आकर लात मार दे तो मैं ही उससे माफी मांग लूंगा कि आपके पैर को चोट तो नहीं लग गयी है, क्योंकि यह लात तो लगनी ही है कल। मैं कब तक बचाऊंगा। यह खोपड़ी कल लातों में चली जाने को है।
यह जो सीधा सत्य है, जीवन के ना-कुछ में बिखर जाने का जीते जी जो इस सत्य को जानने में समर्थ हो जाए, उसके जीवन में एक क्रान्ति हो जाती है। उसकी क्रान्ति को मैं धर्म कहता हूं। उसके जीवन में दुःख का अन्त हो जाता है, क्योंकि दुःख की जड़ इस ख्याल में है कि मैं कुछ हूं, और जिस आदमी को इसका ख्याल जितना बढ़ता है कि मैं कुछ हूं। वह आदमी उतने ही गहरे दुख में उतरता चला जाता है। दुःख का और कोई आध्यात्मिक अर्थ नहीं है, सिवाय इसके कि मैं कुछ हूं। जितनी तीव्रता से यह गांठ मेरे मन में होती है कि मैं कुछ हूं, उतनी ही यह गांठ दुख देती है।
जिस आदमी का यह ख्याल मिट जाता है कि मैं कुछ हूं, उसे दुख देना कठिन हो जाता है, उसे दुख नहीं दिया जा सकता। और जिस दिन दुख की सारी सम्भावना विलीन हो जाती है भीतर से, उसी दिन आनन्द की वर्षा शुरू हो जाती है। आनन्द को कोई खोज नहीं सकता। आनन्द कहीं मिलता नहीं है कि कोई चला जाये और भर लाये। आनन्द कोई दो नहीं सकता है किसी को। लेकिन दुख को हम खोजते हैं। दुख को हम इकट्ठा करते हैं, दुख की हम गांठ बांध लेते हें और दुखी होते रहते हैं। दुख को हम चाहें तो विसर्जित कर दें, दुख को हम चाहें तो विदा कर दें और दुख विदा हो जाये तब जो शेष रह जाता है, वही आनन्द है।
और दुख किस गांठ पर इकट्ठा होता है? "मैं" के अतिरिक्त, अहंका के अतिरिक्त दुख किसी और गांठ पर इकट्ठा नहीं होता। लेकिन हमारा सारे जीव का उपक्रम, इस दुख को ही इकट्ठा करने में, इस दुख को ही बांध लेने में लगा है। हम मन्दिर भी बनाते हैं। तो वहां भी हमारे अहंकार की पूजा होती है कि मैंने बनाया है यह मन्दिर। हम सेवा भी करते हैं तो वह भी अहंकार की ही पूजा होती है कि मैंने की है यह सेवा। हम प्रेम भी करते हैं तो वह भी घोषणा अहंकार की होती है कि मैं कर रहा हूं प्रेम। और तब प्रेम भी दुख लाता है, सेवा भी दुख लाती है, धर्म भी दुख लाता है, मन्दिर और मस्जिद भी दुख लाते हैं। जहां "मैं" है, वहां दुख अनिवार्य है। "मैं" की छाया है दुख। हम सब मुक्त होना चाहते हैं दुख से। लेकिन जो "मै" से मुक्त नहीं होना चाहता, वह दुख से मुक्त नहीं हो सकता। हम दुख से तो बचना चाहते हैं और "मैं" भरना चाहते हैं। ये इतनी कण्ट्राडिक्टरी, ये इतनी विरोधी बातें हैं कि इन दोनो का कोई मेल नहीं होता।
क्या यह सम्भव नहीं है कि हम यह जानने में समर्थ हो जायें, सफल हो जायें कि मैं कुछ भी नहीं हूं? इसे बहुत रूपों में विचार करें तो आदमी सफल हो सकता है। पहला तो मैंने यह कहा कि स्थान, स्पेस के विस्तार को निरन्तर ख्याल में लेना चाहिए। लेकिन स्पेस का जो विस्तार है, उससे हमारे सब सम्बन्ध छूट गये हैं। आदमी की बनायी हुई बस्तियों में स्पेस का कोई पता नहीं चलता। बम्बई जैसी बस्ती में कब चांद निकलता है, कब डूबता है, कोई पता नहीं चलता। आदमी के मकान इतने बड़े हैं कि आकाश उसमें छिप गया। अगर कोई बड़ा आधा घड़ी को जमीन पर चुपचाप लेट जाये और आकाश के विस्तार को देखता रहे तो उसे पता चलेगा कि मैं कुछ भी नहीं हूं, मैं कहां हूं!
अनन्त के विस्तार की प्रतीति, चारों तरफ जो दूर तक असीम फैला है उसका अनुभव, उसका बोध, उसके प्रति जागना मैं कुछ भी नहीं हूं, इसका ख्याल लायेगा। एक विस्तार स्पेस का है, दूसरा विस्तार टाइम का है। समय की भी, काल की भी कोई सीमा नहीं है। पीछे अनन्त है, आगे अनन्त है। उसमें मैं कहां हूं? इस काल की अनन्त धारा में मैं कहां हूं? इस काल की अनन्त गंगा में मेरी बूंद कहां है? एक सपने से भी ज्यादा नहीं है। यह दो विस्तार-समय का और स्थान का, आकाश का और काल का, इन दोनों विस्तारों को गहराई में देखने से, मैं कुछ भी नहीं हूं, स इसका अनुभव होना शुरू होता है। इन दोनों पर मेडीटेशन, इन दोनों पर ध्यान, रोज रोज गहरा करने की जरूरत है। उठते-बैठते, चलते-सोते, इस बात का पूरा ख्याल रखना जरूरी है रिमेम्बरिंग, इसका स्मरण कि मैं कहां हूं। मेरे हाने के दो ही बिन्दु हैं जहां मैं होता हूं। टाइम और स्पेस जहां कटते हैं, वहीं मैं हूं। और अगर ये दोनों अननत हैं तो मेरे होने का क्या अर्थ है? थोड़े से समय का क्या मूल्य है, जब मैं जीता हूं? और थोड़े-से स्थान का क्या मूल्य है, जिसको मैं घेरता हूं? कल मौत आयेगी, न तो मैं स्थान घेरूंगा और न समय घेरूंगा। वह दोनों बातें समाप्त हो जायेंगी। दन दोनों के ऊपर निरन्तर ध्यान, इन दोनों का निरन्तर स्मरण, इन दोनों की निरन्तर प्रतीति बहुत अद्भुत गहराई में मौन में ले जाती है। लेकिन करें तो ही ख्याल में आ सकता है, नहीं तो नहीं आ सकता है।
एक तो इन दो बातों के ध्यान के लिए आपसे कहूंगा। इनको किसी भी क्षण भूलना उचित नहीं है। यह दोनों तरफ का अनन्त विस्तार हमारे ख्याल में बना रहना चाहिए। और अगर इन दो बातों का बोध स्पष्ट हो जाये तो आप एक क्रान्ति अपने भीतर होती हुई पायेंगे। आपको पता भी नहीं चलेगा भीतर कोई व्यक्ति बदलने लगा और एक-दूसरे व्यक्ति का जन्म शुरू हो गया। गहरे अर्थों में तो ये दो बोध हैं, लेकिन इनके आस-पास और बहुत-से बोध सहयोगी हो सकते हैं।
बुद्ध अपने भिक्षुओं से कहते थे कि जाकर कभी-कभी मरघट पर बैठा करो। एक भिक्षु ने उनसे पूछा कि मरघट पर किसलिए तो बुद्ध कहते, वहां जीवन अपनी पूर्णता को उपलब्ध होता है। तुम भी उसी तरफ रोज चले जा रहे हो, शायद इसका तुम्हें ख्याल आये। जब वहां चिता जलती हो तो बैठकर देखा करो, शायद किसी दिन तुम्हें दिखाई पड़ जाये कि चिता पर कोई और नहीं, तुम्हीं चढ़े हुए हो, थोड़ी देरी होगी। आज कोई और चढ़ा है, कल मैं चढूंगा, परसों कोई और चढ़ेगा। तो शायद किसी दिन चिता को देखकर तुम्हें ख्याल आ जाये कि कोई और नहीं, तुम्हीं चढ़े हुए हो। तो भिक्षुओं से अनिवार्य रूप से वह कहते थे कि मृत्यु के सम्बन्ध में वे ध्यान करें।
दूसरी बात, जीवन के सतत परिवर्तन-कल मैं कुछ और था, आज मैं कुछ और हूँ, परसो मैं बच्चा था, आज जवान हूँ, कल बूढ़ा हो जाऊँगा। एक दिन मैं नहीं था और एक दिन मैं फिर नहीं हो जाऊँगा यह फ्लक्स, यह जो धारा है निरन्तर परिवर्तन की- वह हेराक्लतु तो कहता था कि ही नदी में दोबारा नहीं उतर सकते। जब तक हम दोबारा उतरने जाते हैं, नदी बह गयी होती है। जब तक हम दोबारा उतरने जाते हैं तब तक हम बद गये होते हैं। एक ही नदी में दुबारा नहीं उतर सकते। हेराक्लतु से कोई मिलने आता और जब जाने लगता तो हेराक्लतु उससे कहता-मेरे मित्र! ख्याल रखना, तुम जो आये थे, वही वापस नहीं लौट रहे हो और तुम जिससे मिले थे, अब आकर उसी से विदा नहीं ले रहे हो! तुम भी बदल गये, मैं भी बदल गया। चौबीस घण्टे, सब बदल जाता है। वहाँ कुछ भी स्थिर नहीं है।
एडिग्ंटन ने एक बार मजाक में यह कहा कि भाषा के कुछ शब्द बिल्कुल ही झूठे हैं ऑक्सफोर्ड में वह बोलता था तो किसी ने पूछा कि जैसे तो उसने कहा-रेस्ट। रेस्ट बिल्कुल झूठा शब्द है। कोई चीज ठहरी हुई है ही नहीं। सारी चीजें बदलती जा रही हैं। कोई चीज ठहरी हुई नहीं है, कोई चीज खड़ी हुई नहीं है। जिसको आप खड़ा हुआ देख रहे हैं, वह भी खड़ा हुआ नहीं है, उसके भीतर भी सब भागा जा रहा हें, वह भी खड़ा हुआ नहीं है, ये दीवारें मकानों की आपको खड़ी दिखाई पड़ रही हैं, ये दरख्त आपको ठहरे हुए मालूम पड़ रहे हैं, यह बिल्कुल झूठी बात है। यह दरख्त ठहरा हुआ नहीं है। नहीं तो यह दरख्त कभी बूढ़ा नहीं हो पायेगा। यह भागा जा रहा हे भीतर। यह बूढ़ा होता चला जा रहा है। यह दीवार ठहरी हुई नहीं है, यह भीतर बदलती जा रही है। नहीं तो यह मकान कभी गिर नहीं पायेगा। सब बदल रहा है। इस बदलाहट का पूरा बोध अगर आपको है तो आपको पता नहीं चलेगा कि मैं हूँ, क्योंकि जहाँ सब बदल रहा है, वहाँ, "मैं" के खड़े होने की जगह कहाँ है? जहाँ कोई चीज खड़ी नहीं हे, जहाँ सब फ्लक्स है, जहाँ सब प्रवाह है, वहाँ मैं कहा हूँ? इसलिए बुद्ध ने तो एक बहुत बड़ी अद्भुत बात कहनी शुरू की थी। उन्होंने कहा था, आत्मा और अहंकार का एक ही अर्थ करते थं। वह कहते, इस बात का भाव कि मैं हूँ, यही अहंकार हे, यही आत्मा है। अगर सब-कुछ बदल रहा है तो मैं खड़े होने के लिए कहाँ जगह पाऊँगा? मेरे स्थिर होने की कहाँ गुंजाइश हैं?
सांझ को हम एक दीया जला देते हैं। सुबह हम कहते हैं कि वही दीया अब तक जल रहा है, उसे बुझा दें। झूठी बात हम कहते हैं। सांझ जो दीया जलाया था, वह तो कभी का बुझ गया। लो हर क्षण बदलती जाती है। दूसरी लौ आ जाती है। इतनी तीव्रता से ज्योति बुझती जा रही हे, धुआं होता जा रहा है। दूसरी ज्योति जलती जा रही है। सांझ जो ज्योति हमने जलायी, फिर सुबह हम उसी को नहीं बुलाते। रातभर ज्योति बदलती रही, बदलती रही, वही ज्योति सुबह नहीं है। जो आप पेदा हुए थे, सब बदलता रहा है। इस पूरी बदलाहट का बोध हो तो आपको पता नहीं चलेगा कि मैं हूँ।
तो यह चार बोध-एक तो समय का विस्तार, एक आकाश का विस्तार, क्षण-क्षण परिवर्तन ओर अन्ततः मृत्यु-इन चार पर जो मेडिटेट करता है, जो ध्यान करता है, वह उस परम अवस्था को उपलब्ध हो जाता है, जहाँ उसका पता चल जाता है जो काल से भी अनन्त है और जो आकाश से भी विस्तीर्ण है और जिसको कोई मृत्यु नहीं और जिसमें कोई परिवर्तन नहीं। लेकिन इन चार के बोध से उसका पता चलता है जो इन चारों से भिन्न और पृथक है।
इन चारों के बोध से उसका क्यों पता चलता है, असल में पता चलने के लिए, किसी भी जीज के ठीक-ठीक बोध के लिए, विपरीत की पृष्ठभूमि चाहिए। स्कूल में हम बच्चों के लिए काले तख्त, ब्लैकबोर्ड बना देते हैं। सफेद दीवार पर कोई शिक्षक न पड़ेगा और अगर सफेद खड़िया से सफेद दीवार पर कोई शिक्षक लिखता हो तो हम कहेंगे पागल है। ब्लैकबोर्ड हम बना देते हैं और सफेद खड़िया से उस पर लिखते हैं, क्योंकि काले की पृष्ठभूमि में सफेद की रेखाएं उभरकर स्पष्ट हो आती हैं। अगर हमें उसे खोजना हो जो अनन्त है और असीम है, उसे खोजना हो जिसमें कोई परिवर्तन कभी नहीं होता, उसे खोजना हो जिनकी कभी मृत्यु नहीं होती, उसे खोजना हो जो शाश्वत है, उसे खोजना हो जो सत्य है तो निरन्तर परिवर्तन में है, जो कि निरन्तर मर रहा है। उसका बोध, उसके काले तख्त पर, वह जो बिल्कुल भिन्न और विपरीत है, उसकी सफेद रेखाएं उभर आयेंगी और दिखाई पड़ जायेंगी। जितनी अंधेरी रात होती है, तारे उतने ही चमकदार दिखाई पड़ते हैं। तारे तो दिन में भी रहते हैं, लेकिन वे दिखाई नहीं पड़ते। तारों को देखने के लिए रात की प्रतीक्षा करनी पड़ती है, क्योंकि दिन की रोशनी में तारों के दिखाई पड़ने की कोई जगह नहीं रह जाती। लेकिन रात के अन्धकार में वे चमकने लगते हैं, वे अलग दिखाई पड़ने लगते हैं।
तो ये चार स्मरण जितने प्रगाढ़ हो जायेंगे, उतना ही इन चारों से जो भिन्न है, जो नान-टेम्पोरल है, जो नान-स्पेशियल हे, जो न समय के भीतर है और न स्थान के भीतर है, जो अनचेंजिंग हे, अनमूविंग है, जो न बदलता है और न परिवर्तित होता हे, जो अनडाइंग है, जिसकी कभी कोई मृत्यु नहीं होती, उसका अनुभव, उसकी प्रतीति, उसका साक्षात हो सकता है। उसके लिए यह तैयारी करनी अत्यन्त आवश्यक है। और जिस दिन उसका अनुभव होता है, उसी दिन जीवन वस्तुतः जीवन बनता है। उसी दिन जीवन आलोक से मण्डित होता है, उसी दिन जीवन समस्त बन्धनों से शून्य और रिक्त हो जाता है। उसी दिन हम उसे जान पाते हैं, जिसको जान लेने के बाद फिर कुछ जानना और पाना शेष नहीं रह जाता। वही है उपलब्धि, उसी की दिशा में, उसी सागर की खोज में, हम सबके जीवन की नदिंया बही जाती है।
लेकिन जो इन नदियों को ही सब कुछ समझ लेता है, वह फिर सागर तक पहुँचने से वंचित रह जाता है। इन चार चीजों का बोध आपके भीतर नथिंगनेस को, नॉनबीइंग को, नहीं हूँ मैं कुछ, इस भाव को गहरा करेगा और जिस दिन यह भाव पूर्ण हो जायेगा कि मैं कुछ नहीं हूँ, उसी दिन एक विस्फोट हो जायेगा और उसका पता चलेगा जो मैं हूँ, जो सब कुछ है।
कल रात मैंने आपसे कहा कि हम-साधक अपने जीवन के केन्द्र पर हों और साधक का अर्थ है, ना-कुछ होने का भाव। कबीर कहते थे, मैं एक बांस की पोंगरी हूँ। जो संगीत है, वह मुझसे बहता है। मैं उस संगीत को रोकने में बाधा तो बन सकता हूँ, लेकिन संगीत को पैदा करने वाला मैं नहीं हूँ। बांसुरी अगर गड़बड़ हो तो संगीत पैदा नहीं होगा। लेकिन बांसुरी संगीत की जन्मदात्री नहीं है। जिस दिन हमें पता चलता है कि मैं न कुछ हूँ, उस दिन हम बांस की एक पोंगरी रह जाते हैं। और फिर परमात्मा का संगीत, उस बांस की एक पोंगरी से सहज प्रवाहित होता चला जाता है। फिर कोई बाधा नहीं रह जाती हमारी तरफ से। फिर हम पोली बांस की पोंगरी हो जाते हैं। वह जो पोलापन है, वह जो नथिंगनेस हे, वह पोलापन है। वह जो ना-कुछ हा जाना है, वह सारी जीज पोली हो गयी। जगह दे दी गयी। अब परमात्मा बह सकता है।
रवीन्द्रनाथ मृत्युशैय्या पर थे। उसके दो दिन पहले, किसी मित्र ने उनसे कहा कि आपने इतने गीत गाये कि आप तो धन्यभागी हैं और-आपने तो पा लिया उसे, जो पाने जैसा था। रवीन्द्रनाथ ने कहा-मेरे मित्र, जो गीत मैंने गाये, उनका कोई भी मूल्य नहीं है। लेकिन जिन गीतों को गाते वक्त मैं मौजूद नहीं था, बस, उनका ही थोड़ा-सा मूल्य है। और मैंने दो तरह के गीत गाये। एक, जो मैंने गाये, उनका कोई मूल्य नहीं है। दो, जिनको मैंने गाया ही नहीं, मैं केवल बांसुरी बन गया, किसी और ने गाया। और मुझसे वे बह गये और प्रवाहित हो गये, उनका मूल्य है जिन गीतों के लिए लोगों ने मुझे धन्यवाद दिया, वे मैंने गाये ही नहीं थे जो मैंने गाये थे, उनमें तो भूल हो गयी है। उनमें वह बात नहीं है, वह अमृत-स्वर नहीं है।
साधक का अर्थ, इतना खाली हो जाना कि वह समिष्ट का माध्यम बन जाये, बांसुरी बन जाये। उससे सारा संगीत बह जाये। साधक का अर्थ है, इतना शून्य, इतना पोला हो जाना कि परमात्मा उससे प्रवाहित हो सके, मार्ग बन जाये। साधक का अर्थ है मार्ग बन जाना, माध्यम बन जाना, केवल बीच का सेतु बन जाना ताकि परमात्मा उससे प्रकट हो सके। वह जो समष्टि है, वह जो सबके भीतर छिपा हुआ प्राणों का संगीत है, उसके लिए बांसुरी बन जाये।
यह बांसुरी आप बन सकें, इसकी मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ। और आपने भी, क्योंकि जो मैंने चार बातें कहीं, वह जो चार स्मरण और ध्यान करने को कहा, अगर उन पर थोड़ा-सा भी प्रयास किया जो कोई भी कारण नहीं कि हम क्यों न बन जायें, क्योंकि हम वस्तुतः वही हैं, जो हम बनना चाहते हैं। सिर्फ हमें पता नहीं है। हम उस बन्द आँखें की आदमी की तरह हैं जो सूरज के सामने खड़ा है और चिल्ला रहा है बहुत अन्धकार है, मैं क्या करूं, दीया जलाऊँ? लेकिन बन्द आँख किये आदमी को दीया जलाने से भी क्या होगा?
जो चिल्ला रहा है कि मैं क्या करूं, मैं क्या न करूं, मैं अन्धकर में खड़ा हूँ, उससे अगर कोई कहे के तुम सिर्फ आँख खोल लो तो उसे बड़ी हैरानी होगी कि इतना बड़ा अन्धकार और मेरे सिर्फ आँख खोलने से कैसे मिट जायेगा? आँख जैसी छोटी-सी चीज, पलक जैसा छोटा-सा परदा, इतने बड़े अन्धकार को कसे मिटा देगा, जिससे मैं घिरा हूँ? वह कहेगा, मुझे विश्वास आता नहीं आपका बात पर कि आँख खोलने से मिटने का सम्बन्ध ही क्या है? शायद हम समझाने भी बैठें तो उसके ख्याल में भी न आये, क्योंकि बात उसकी ठीक है, लॉजिकल है। इतनी छोटी-सी आँखें, इतनी छोटी-सी पलक, इससे इतने बड़े अंधकार का क्या सम्बन्ध इतनी-सी पलक खोलने से, इतना बड़ा अन्धकार मिट जायेगा क्या? लेकिन काश! वह आँख खोलकर देखे तो पायेगा कि निश्चित ही मिट जाता है। छोटी-सी पलक का यह परदा हट जाये, वह आँख खुल जाये तो रोशनी है, प्रकाश है, सूरज हमेशा मौजूद है। हम आँख बन्द किये हुए खड़े हैं। इसके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है।
परमात्मा करे हमारी यह आँख खुल सकें मेरी बातों को इतने प्रेम और शान्ति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुग्रहीत हूँ और अन्त में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूँ, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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