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मंगलवार, 27 नवंबर 2018

सहज समाधि भली-(प्रवचन-14)

चौदहवां प्रवचन

एक साधे सब सधै

दिनांक 3 अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

याज्ञवल्क्य ने अपनी मित्र-स्त्री मैत्रेयी से कहाः ‘देखो, मैं गृहस्थाश्रम में ही पड़े रहना नहीं चाहता, मैं ऊपर उठना चाहता हूं। आओ, कात्यायिनी के साथ तुम्हारा निपटारा करा दूं।’
मैत्रेयी ने कहाः ‘भगवन, अगर यह सारी पृथ्वी वित्त से पूर्ण होकर मेरी हो जाए, तो क्या मैं उससे अमर हो जाऊंगी?’
याज्ञवल्क्य ने कहाः ‘उस अवस्था में जैसे साधन-संपन्न लोग चैन से जीवन-निर्वाह करते हैं, वैसा तुम्हारा जीवन होगा। धन-धान्य से अमरता पाने की आशा नहीं हो सकती।’
मैत्रेयी ने कहाः ‘जिससे मैं अमर न हो सकूं, उसे लेकर मैं क्या करूंगी? भगवन, अमर होने का जो रहस्य आप जानते हों, उसका मुझे उपदेश कीजिए।’
याज्ञवल्क्य ने कहाः ‘तू तो मेरी प्रिय है, और बड़ा प्रिय वचन बोल रही है। आ, बैठ, तुझे मैं सब खोल कर समझाता हूं। ज्यों-ज्यों मैं बोलता जाऊं, मेरी बात ध्यान देकर सुनते जाना।

फिर उन्होंने कहना शुरू कियाः ‘अरे, पति की कामना के लिए पति प्रिय नहीं होता, अपनी आत्मा की कामना के लिए पति प्रिय होता है। पत्नी की कामना के लिए नहीं, अपनी आत्मा की कामना के लिए पत्नी प्रिय होती है। पुत्र की कामना के लिए नहीं, अपनी आत्मा की कामना के लिए पुत्र प्रिय होते हैं। वित्त की कामना के लिए नहीं, अपनी आत्मा की कामना के लिए वित्त प्रिय होता है। पुरोहित की कामना के लिए नहीं, अपनी आत्मा की कामना के लिए पुरोहित प्रिय होता है। राजा की कामना के लिए नहीं, अपनी आत्मा की कामना के लिए राजा प्रिय होता है। लोगों की कामना के लिए नहीं, अपनी आत्मा की कामना के लिए लोग प्रिय होते हैं। देवों की कामना के लिए नहीं, अपनी आत्मा की कामना के लिए देव प्रिय होते हैं। भूतों की कामना के लिए नहीं, अपनी आत्मा की कामना के लिए भूत प्रिय होते हैं। और इस सब कुछ की कामना के लिए नहीं, अपनी आत्मा की कामना के लिए सब कुछ प्रिय होता है।
‘मैत्रेयी, यह आत्मा देखने, सुनने, चिंतन करने और ध्यान करने योग्य है। जब यह आत्मा देखी जाती है, सुनी जाती है, विचारी जाती है, जानी जाती है, तब सब कुछ जान लिया जाता है।’
ओशो, याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी की इस अदभुत परिचर्चा को प्रकाशित करने की कृपा करें।

याज्ञवल्क्य और उनकी पत्नी मैत्रेयी के बीच जो बात हुई, उसे समझने के पहले कुछ और बातें समझ लेनी जरूरी हैं। पहली बात यह कि याज्ञवल्क्य की दो पत्नियां थींः मैत्रेयी और कात्यायिनी। उपनिषदों का यह बहुत गहरा प्रतीक है। मन सदा दो को चाहता है। मन एक पत्नी के साथ राजी नहीं है। मन अद्वैत के साथ राजी नहीं है, मन द्वैत का आकांक्षी है। दो पत्नियों का अर्थ है कि मन जब भी चाहता है, दो को चाहता है। वहां द्वंद्व है और दो पत्नियों से बड़ा द्वंद्व तुम खोज भी नहीं सकते।
मैंने सुना हैः एक अदालत में एक चोर पर मुकदमा चल रहा था। न्यायाधीश दयावान था और उसने कहा कि ‘तुम्हारा अपराध तो सिद्ध हो गया, तुमने स्वीकार भी कर लिया। अब तुम जो सजा कहो, वही मैं तुम्हें दे दूं।’ उस चोर ने कहाः ‘और सब सजा देना, दो पत्नियों से विवाह करने की सजा भर मत देना।’ थोड़ा न्यायाधीश भी चौंका। उसने कहाः ‘मैं समझा नहीं--यह बात--अचानक!’ उसने कहाः ‘मैं जिस घर में चोरी करते हुए पकड़ा गया हूं, उस घर में पति की दो पत्नियां हैं। एक पत्नी ऊपर रहती है, एक नीचे रहती है और पूरी रात--इसी में मैं पकड़ा भी गया। पति सीढ़ियों पर था। एक टांग नीचे की पत्नी खींच रही थी, एक टांग ऊपर की पत्नी खींच रही थी। न पति नीचे जा सका, न वह ऊपर जा सका। इसी शोरगुल और उपद्रव में मैं घर से निकल कर भाग न सका। पति तो फंसा ही है--दो पत्नियों में--मैं गरीब चोर नाहक फंस गया। उस रात जो कष्ट देखा है! बस, और सब सजा, जो आपको देनी हो, दे दें। यह सजा भर मत दें।’
लेकिन जीवन का सारा कष्ट ‘दो पत्नी का’ ही कष्ट है। और मन की सारी पीड़ा यही है कि वह सदा दो को चुन लेता है--सदा विपरीत को चुन लेता है। और दो पत्नियों से ज्यादा विपरीत और क्या हो सकता है! दो पत्नियों का अर्थ हुआः तुमने दो तरफ नावें चला दीं। तुम दोनों पर सवार हो। तुमने बैलगाड़ी में दो तरफ बैल जोत दिए। और तुम दोनों तरफ बैलों को हांके जा रहे हो। तुम्हारा जीवन एक गहरी विडंबना हो जाएगा। चिंता और संताप ही तुम्हारी नियति होगी। शांति का तुम एक क्षण भी न पाओगे। एक ही पत्नी दुख देने के लिए काफी है। ‘पत्नी’ से अर्थ हैः एक ही की ‘चाह’, मन को बहुत पीड़ा दे जाती है, तो दो की चाह तो अनंत पीड़ा दे जाएगी।
मुल्ला नसरुद्दीन से उसका बेटा पूछ रहा है, ‘कानून में ऐसा क्यों लिखा है कि आदमी दो विवाह नहीं कर सकता?’ तो नसरुद्दीन ने कहा, ‘बेटा जब बड़े होओगे तब समझोगे। जो लोग अपनी रक्षा नहीं कर सकते, कानून उनकी रक्षा करता है। कानून है ही कमजोरों की रक्षा के लिए। नहीं तो सभी लोग दो पत्नियां कर डालेंगे और मुसीबत में पड़ेंगे!’
मन बहुत गहरे में विपरीत की आकांक्षा एक साथ करता है--एक साथ। जिसे तुम चाहते हो, उसे तुम नहीं भी चाहते हो। जिसे तुम चाहते हो, उससे प्रतिकूल को भी चाहते हो। तुम धन भी चाहते हो और निर्धन की शांति भी चाहते हो। तुम महलों में सोना चाहते हो और ऐसे सोना चाहते हो, जैसे भिखारी वृक्षों के नीचे सोता है। मन सदा ही इस तरह की मांग करता है। और यह मांग कभी पूरी नहीं हो सकती। और इन दोहरी मांगों में जो फंस जाएगा, वह दो तरफ चल रहा है। उसकी आधी जिंदगी एक तरफ और आधी जिंदगी दूसरी तरफ।
‘याज्ञवल्क्य की दो पत्नियां’, इसे ठीक से समझ लेना, यह बड़ा गहरा प्रतीक है। उन दो पत्नियों में एक याज्ञवल्क्य की मित्र है। उसका नाम मैत्रेयी है।
तुम्हारे मन के दो विभाजन हैं। एक, जो तुम्हें नीचे की तरफ खींचता है और एक, जो तुम्हें नीचे की तरफ खींचने के विपरीत ले जाता है। तुम्हारे मन का एक हिस्सा तुम्हें संसार की तरफ खींचता है और तुम्हारे मन का एक हिस्सा तुम्हें मुक्ति की तरफ खींचता है। मन का जो हिस्सा मुक्ति की तरफ खींचता है, वह तुम्हारा मित्र है। मन का जो हिस्सा तुम्हें संसार की तरफ खींचता है, वह तुम्हारा शत्रु है।
एक ‘पत्नी’ उसमें मित्र है। उतनी मित्रता का उपयोग कर लेना है--साधक को। थोड़ी दूर तक तो मन का साथ लेना पड़ेगा। मन को तुम आज ही न छोड़ पाओगे। तुम चाहो तो भी न छोड़ पाओगे। क्योंकि चाह भी मन की ही है। तुम श्रम भी करो, साधना भी करो, योग करो, पूजा-प्रार्थना करो, कुछ काम न आएगा, क्योंकि वह मित्र-मन ही यह सब कर रहा है।
मन के पार जाना आज अचानक न होगा। सहज रूप से तो यही सुलभ होगा कि तुम पहले मन का जो हिस्सा संसार की तरफ ले जाता है, उसका साथ छोड़ दो। उसका साथ छोड़ने में तुम उस मन का उपयोग कर लो, जो तुम्हें जगत के पार ले जाता है।
जैसे कोई एक लगे कांटे को दूसरे कांटे से निकाल लेता है, संसार की तरफ खींचते हुए मन को तुम परमात्मा की तरफ जाते हुए मन से खींच कर निकाल लो। लेकिन ध्यान रहे, जब कोई एक कांटे को निकाल लेता है--दूसरे कांटे से, तो फिर दोनों को फेंक देता है। दूसरे कांटे को सम्हाल कर नहीं रखता है। दोनों ही कांटे हैं। जो लगा था, वह भी कांटा है; जिससे निकाला, वह भी कांटा है। उनमें मूल्य का कोई भेद नहीं है। दूसरे को सम्हाल कर मत रख लेना अन्यथा वह भी चुभने लगेगा, वह भी गड़ जाएगा।
तो जैसे ही पहला मन--शत्रु-मन छूट जाए, वैसे ही मित्र-मन को भी त्याग देना है। क्योंकि वस्तुतः तो मन को ही त्याग देना है।
तीसरी बात समझ लेने की हैः याज्ञवल्क्य के पास बहुत धन था। बड़ी सुविधा, संपन्नता थी। बड़े सम्राट उसके चरणों में बैठते थे। वह बड़ा पंडित था। उसके पांडित्य की दूर-दूर तक खबर थी और अपने पांडित्य पर उसे भरोसा था।
एक दफा जनक ने घोषणा की कि ‘जो व्यक्ति भी सबसे बड़ा ज्ञानी हो, उसे मैं एक हजार गौवेंः स्वर्ण से मढ़े हुए सींगवाली गौवें, हीरे जवाहरातों की--गले में उनके पड़ी होंगी--माला, बहुमूल्य वस्त्रों से ढंकी होगी उनकी पीठ--ऐसे करोड़-करोड़ रुपये की एक-एक गाय होगी, ऐसी एक हजार गाएं भेंट करूंगा।’
दूर-दूर से पंडित इकट्ठे हुए। ध्यान रहे, ज्ञानी तो कोई भी न आया, क्योंकि ज्ञानी प्रतियोगी नहीं हो सकता। और जो प्रतियोगी हो, वह ज्ञानी कैसा? ज्ञानी को विवाद में नहीं उतारा जा सकता। ज्ञानी से केवल संवाद हो सकता है। उसे तुम लड़ा नहीं सकते। और वह भी धन की आकांक्षा से किसी ज्ञानी को तुम प्रतियोगिता में उतार दोगे?
पर बड़े पंडित आए, महापंडित आए, बड़ा विवाद चला। और तब याज्ञवल्क्य आया--अपने शिष्यों के साथ। उस विशाल मंडप में जहां हजारों पंडित थे, याज्ञवल्क्य ने आकर कहा, ‘सुनो, गौवें धूप में खड़ी-खड़ी थक गई हैं, तो मैं अपने शिष्यों को कहता हूं कि तुम इन्हें घेर कर आश्रम ले जाओ। विवाद मैं पीछे कर लूंगा।’ ऐसा आश्वस्त पंडित था--‘विवाद पीछे हो जाएगा। निर्णय पीछे कर लेंगे।’
जनक भी चौंका। और उसके शिष्य गौवों को घेर कर आश्रम ले गए। उसने पुरस्कार पहले ले लिया। जनक ने कहा भी कि ‘यह आप क्या करते हैं?’ उसने कहाः ‘ऐसा करने में कोई कठिनाई नहीं है। मैं विजेता हूं। और यह सब जो पंडित इकट्ठे हुए हैं, इनको मैं शांत कर दूंगा। मैं आश्वस्त हूं, आप क्यों परेशान होते हैं?’ और उसने पंडितों को शांत कर दिया। वह विजेता होकर लौट गया।
बड़ा धन था याज्ञवल्क्य के पास, बड़ी प्रतिष्ठा थी, बड़ा पांडित्य था। लेकिन कुछ भी काम न आया। इतना आश्वस्त व्यक्ति भी एक दिन अनुभव करता है कि मैं अज्ञानी हूं। इतना आश्वस्त पंडित भी एक दिन सोचता है कि नहीं, इन शास्त्रों से कुछ भी न मिला, अब मुझे वन की राह पर जाना पड़ेगा। ‘वन की राह’ का एक ही अर्थ होता है कि अब मुझे शब्द से--शून्य की तरफ जाना पड़ेगा।
समाज से--निर्जन की तरफ जाने का एक ही अर्थ होता है। क्योंकि समाज गहरे में भाषा है। तुम समाज में बिना बोले नहीं जी सकते। बोलने से समाज बनता है। इसलिए जब तुम ट्रेन में सवार हो, और एक अजनबी भी बगल में बैठा है; वह फौरन पूछेगा, ‘कहां जा रहे हैं?’ बोलना शुरू हुआ, समाज निर्मित हुआ।
वैज्ञानिक कहते हैं, समाजशास्त्री कहते हैं कि अगर भाषा न हो तो समाज नहीं हो सकता। सोचो, कैसे होगा समाज? जहां सब मौन बैठे हों, वहां कैसे समाज होगा?
मैंने सुना हैः एक संन्यासी एक ट्रेन में यात्रा कर रहा है। उसकी आंखें कोरे आकाश में खिड़की के बाहर टिकी हैं। बगल में एक यात्री और है डिब्बे में केवल दो ही यात्री हैं। बगल का यात्री धीरे-धीरे परेशान होने लगा--इस संन्यासी की चुप्पी से। न तो यह संन्यासी देखता उसकी तरफ, न इसने आंख से भी स्वीकार किया कि तुम हो। इसने समाज न बनने दिया।
कई बार बगल के पड़ोसी यात्री ने कोशिश की कि कुछ चर्चा चलाए, मगर यह आदमी पत्थर जैसा लगा। इससे चर्चा का कोई द्वार न मिला। संन्यासी का अंगोछा हवा में उड़ रहा है--खिड़की के बाहर, तो उस यात्री ने कहाः ‘देखिए, स्वामीजी, आपका अंगोछा खिड़की के बाहर उड़ रहा है।’ कोई रास्ता बनाना चाहा, कोई सेतु--जिससे भाषा चल पड़े, समाज निर्मित हो जाए। अकेलापन अखरता है। और जब कोई दूसरा चुप मौजूद हो, तो अकेलापन और भी अखरता है। तुम बिल्कुल अकेले हो, तो स्वीकार कर लेते हो कि करना क्या है। लेकिन यहां दूसरा मौजूद है। समाज बन सकता है और नहीं बन पा रहा है।
लेकिन संन्यासी ने जैसे सुना, नहीं सुना। अंगोछा उड़ता रहा। इसकी बात आई--गई हो गई। संन्यासी का सिर भी न डोला। तब यह जरा और डरा कि आदमी पागल तो नहीं है! इसने और जोर से कहाः ‘स्वामीजी सुनते हैं? आपका अंगोछा हवा में उड़ रहा है!’ उस संन्यासी ने वहीं देखते हुए कहाः ‘उड़ने दो, तुम्हारी सिगरेट से तुम्हारा कपड़ा जल रहा है। मैंने तो कुछ नहीं कहा! अंगोछा मेरा उड़ रहा है, तुम क्यों परेशान हो रहे हो?’
यह जो आदमी है, इससे संबंध बनाना कठिन है।
भाषा दूसरे में उत्सुकता है। और भाषा के साथ हम जुड़ते हैं। मौन के साथ हम टूटते हैं। इसलिए सभी धर्मों ने मौन की महिमा गाई है। क्योंकि मौन ही तुम्हें समाज के बाहर ले जाएगा। भाषा तुम्हें समाज में ले जाती है। इसलिए तुम जितने बोले, उतना फंसे। अगर तुम बोलो ही न, तो तुम्हारी नब्बे प्रतिशत दिक्कतें तो तत्क्षण विलीन हो जाएं; वे बोलने से पैदा होती हैं।
कभी तुमने ख्याल कियाः सुबह से सांझ तक तुम जो बोलते हो, अगर उसको तुम न बोलो, तो नब्बे प्रतिशत उपद्रव तो तुम्हारे शांत हो जाएं। कितने उपद्रव तुम बोलकर ही खड़े कर लेते हो! अपने हाथ से निमंत्रण दे देते हो। बोले कि फंसे। चुप रह जाते। लेकिन चुप रहने का मतलब यह होता है कि तुम समाज से टूटते हो।
अगर लोग मौन हो जाएं, भाषा खो जाए, तो तुम वृक्षों जैसे हो जाओगे, पहाड़ की चट्टानों जैसे होओगे, झरनों जैसे होओगे, लेकिन ‘आदमी’ तुम्हारा खो जाएगा। इसलिए अगर कोई संन्यासी बहुत दिन तक एकांत में रह कर लौटता है, तो उसकी आंखों में ‘आदमी’ न पाओगे। प्रकृति मिलेगी, परमात्मा मिलेगा, आदमी नहीं मिलेगा। उसकी आंखों में गहरा सन्नाटा होगा। आदमी उथली चिंता का नाम है। तुम उसकी आंखों में पशु की आंखें पा सकते हो, लेकिन तुम आदमी की आंखें न पाओगे।
यह याज्ञवल्क्य बोल-बोल कर थक चुका है। इसकी बड़ी प्रतिष्ठा है। प्रतिष्ठा भी दो कौड़ी की सिद्ध हुई है। यह विवादों में जीत कर भी अज्ञानी बना रहा। यह महापंडित था। इसने प्रतियोगिताएं जीतीं, लेकिन आत्मज्ञान न हुआ। धन इसके पास था, लेकिन पाया कि धन असार है, राख है; कुछ उससे मिला नहीं। और एक दिन उसने अपनी मित्र-पत्नी मैत्रेयी को कहा कि ‘अब मैं सब छोड़ कर जाता हूं।’
याज्ञवल्क्य जैसे व्यक्ति को भी छोड़ कर जाना पड़ता है। तुम्हारी कहां बिसात! उपनिषद जिसका गुणगान गाते हैं, उसको भी छोड़ कर जाना पड़ता है। पंडितों में जिसकी कोई तुलना नहीं है। शायद याज्ञवल्क्य जैसा पंडित फिर भारत में दुबारा पैदा हुआ भी नहीं। ऐसी बारीक पकड़ शब्दों पर और विजय का ऐसा आश्वासन--बड़ा कठिन है, असंभव है। लेकिन एक दिन पाया कि इस भरोसे के नीचे भी संदेह है। और एक दिन पाया कि भवन कितना ही बड़ा हो, आधार रेत पर रखा है। भवन गिरा-गिरा होने लगा। और याज्ञवल्क्य ने एक दिन अपनी पत्नी को सूचना दी कि ‘अब मैं जाना चाहता हूं।’
अब हम इस कहानी को समझने की कोशिश करें।
याज्ञवल्क्य ने अपनी मित्र-स्त्री मैत्रेयी से कहाः ‘देखो, मैं गृहस्थाश्रम में ही पड़े रहना नहीं चाहता। मैं ऊपर उठना चाहता हूं। आओ, कात्यायनी के साथ मैं तुम्हारा निपटारा करा दूं।’ उसने कहा कि ‘देखो, मैं गृहस्थाश्रम में ही पड़े नहीं रहना चाहता।’
घर-गृहस्थी एक पड़ाव है--मुकाम नहीं है। वहां से तुम गुजरना जरूर, लेकिन वहीं बस मत जाना। गुजरना तो जरूरी है--अनुभव के लिए। क्योंकि जो वहां से बिना गुजरे निकल जाएगा, वह बड़े अनुभवों से वंचित रह जाएगा।
गृहस्थी से गुजरना आवश्यक है। कुछ वहीं मिलेगा देखने को, जो कहीं और न मिलेगा। कुछ पीड़ाएं तुम वहीं झेल सकोगे, जो कहीं और न झेल सकोगे। और पीड़ाएं निखारती हैं, वे आग की तरह हैं। उनमें सोना कुंदन बनता है, शुद्ध होता है। वहीं चमक आती है। तो पीड़ा से बच कर मत निकलना।
हिंदुओं की जीवन व्यवस्था में पलायन की जगह नहीं है। इस बात को समझ लें। हिंदुओं की जीवन व्यवस्था सभी कुछ स्वीकार करती है। बस, इतना ही कहती है कि स्वीकार जरूर करना, लेकिन ‘पार जाना है’, यह स्मरण रखना। पार जाने की चेष्टा क्षीण न हो। तुम रुक न जाओ, अवरुद्ध न हो जाओ। सागर तक पहुंचे बिना, मध्य में कहीं नदी खो न जाए। गुजरना सब जगह से, क्योंकि बिना गुजरे अनुभव न होगा। बिना अनुभव के प्रौढ़ता न होगी। और बिना प्रौढ़ता के तुम परमात्मा को उपलब्ध न हो पाओगे।
क्योंकि अत्यंत प्रौढ़ और पका हुआ हृदय चाहिए। क्योंकि जैसे पका हुआ फल गिरता है, वैसे ही पका हुआ प्रौढ़ चित्त गिर जाता है।
और जैसे पका हुआ फल अपने आप गिर जाता है; गिराने के लिए कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ती, सहज गिर जाता है। कच्चे फल को तोड़ना पड़ता है। तोड़ने में पीड़ा होती है--वृक्ष को भी, फल को भी। घाव भी छूट जाता है। पका फल चुपचाप गिर जाता है। खबर भी नहीं होती। न घाव छूटता है, न लकीर बनती है, न वृक्ष को पता चलता है कि कब पका फल गिर गया।
कबीर जिसको कहते हैं--‘साधो सहज समाधि भली’, वह पके फल के गिरने का नाम है। तुम पक कर गिरना। कच्चे गिरोगे तो मेहनत करनी पड़ेगी। सब योग कच्चे फलों के लिए है। सब साधना कच्चे फलों के लिए है। पका फल क्यों साधेगा कुछ। जीवन ही साधना है। वह जहां से गुजरा, वही योग था। उसने जो जाना और जीया, वही तपश्चर्या थी। तपश्चर्या कम है जीवन में, जो तुम अलग से साधो!
हिंदू सब स्वीकार करते हैं। हिंदू-धर्म से बड़ा तथाता का धर्म दूसरा नहीं है। हिंदू कहते हैंः सब स्वीकार कर लो। और सबसे गुजर जाओ। कोई भी सीढ़ी चूको मत, क्योंकि डर है कि जिस सीढ़ी को तुम चूक जाओगे, शायद तुम्हें उस पर वापस लौटना पड़े। जिससे तुम बच कर निकल जाओगे, शायद तुम्हें वापस उस पर आना पड़े। क्योंकि अनुभव की खाली जगह छूट जाएगी।
और जीवन का एक छोटा सा सूत्र सदा याद रखना। खाली जगह सदा ही आकर्षित करती है। एक दांत तुम्हारा टूट जाता है, तो जीभ फिर वहीं-वहीं जाती है। दांत था, तब तक कभी न गई। और अब तुम लाख उपाय करो तो जीभ रुकती नहीं, वह खाली दांत को खोजती है।
जिस सीढ़ी से तुम बच कर निकल जाओगे, वह सीढ़ी खाली दांत की तरह हो जाएगी। तुम्हारा चित्त उसे खोजेगा। इसलिए हिंदू कहते हैंः बच कर मत भागना। भागा हुआ कभी पहुंचता नहीं। क्योंकि जिससे बच जाता है, वह खाली जगह की तरह उसे पकड़े रखता है। उसकी स्मृति बार-बार आती है।
इसलिए हिंदू-विचार, जैन और बौद्धों से राजी न हुआ। जैन और बौद्धों से विरोध का मौलिक कारण यह था कि जैन और बौद्धों ने पलायन की सुविधा दी। महावीर और बुद्ध ने कहाः जब तुम चाहो तब संन्यस्त हो जाओ। छोटा बच्चा भी संन्यस्त हो सकता है। इस बात में बुनियादी भूल तो नहीं है। क्योंकि छोटा बच्चा भी छोटा बच्चा नहीं है। न मालूम कितने जन्मों के बाद यहां आया है। छोटा बच्चा भी बहुत बूढ़ा है। लेकिन हिंदू कहते हैं कि वह फिर से पैदा हुआ है, यह इसी बात का सबूत है कि अनुभव पूरे नहीं हुए हैं। नहीं तो पैदा ही क्यों होता? वह छोटा ही बच्चा है--कितने ही जन्म उसने लिए हों और कितने ही बार बूढ़ा हुआ हो--पका नहीं है। उसका पकापन अभी नहीं आया है। अभी उसे और गुजरना होगा; नहीं तो परमात्मा व्यर्थ वापस नहीं भेजता है। जब तक सीखने को कुछ बाकी रह जाता है, तो ही वापस भेजता है।
एक मां अपने छोटे बच्चे से--जो पहले ही दिन स्कूल गया था--उससे पूछ रही थी कि ‘बेटे आज क्या सीखा?’ उसने कहाः ‘ज्यादा नहीं। लगता है कल फिर स्कूल जाना पड़ेगा।’
जब तक सीखने को बाकी है, लौटना ही पड़ेगा। जगत विद्यापीठ है।
तो हिंदू कहते हैंः बच्चा पैदा हुआ है, यह इस बात का सबूत है कि अभी सीखने को बाकी रह गया है। पिछले जन्मों में पलायन करता रहा, भागता रहा। अब उसे पलायन का और मौका मत दो, उसे जीवन को जान लेने दो। इसलिए हिंदुओं ने चार सीढ़ियां बनाई हैं। जीवन की पहली सीढ़ी हैः ब्रह्मचर्य। यह बड़ी उलटी लगती है। क्योंकि पहले ब्रह्मचर्य, फिर गृहस्थ, फिर वानप्रस्थ, फिर संन्यस्त। लेकिन बहुत वैज्ञानिक है।
हिंदू कहते हैंः तुम संभोग का पूरा अनुभव न ले पाओगे, अगर तुम्हारे पास ऊर्जा संगृहीत न हुई। इसलिए संभोग के पहले ब्रह्मचर्य। इतनी ऊर्जा तुम्हारे पास हो कि बहती हो, आपूरित हो। ऊपर से बह रही हो, इतनी अतिरेक में हो तुम्हारे पास। तो जितनी ज्यादा ऊर्जा होगी, उतने ही संभोग का अनुभव गहरा होगा। और अगर परिपूर्ण ऊर्जा से--ठीक कोई आदमी पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य में रहा हो, तो एक ही संभोग पर्याप्त होगा। एक ही संभोग से संभोग का सारा राज जान लेगा।
तुम जीवन भर संभोग का राज नहीं जान पाते, क्योंकि जानने योग्य ऊर्जा ही नहीं होती। तुम्हारी नदी में कोई पूर नहीं है। तुम एक डबरे के किनारे चम्मच लिए बैठे हो। वह जो नदी पूर में होती है, वह जो जानती है, तुम्हारी चम्मच में भरा हुआ पानी कभी न जान पाएगा।
लोग कहते हैं कि प्यालियों में भी कभी तूफान आते हैं! कभी आते नहीं। तो तुम्हारा वीर्य प्याली में अगर है, तो तूफान कभी आएगा नहीं। तुम जानने से वंचित रह जाओगे। और तुम जानने से वंचित रहोगे तो वासना रोज-रोज जगेगी, क्योंकि जो तुमने नहीं जाना है, वह पुकारेगा। जो अनुभव नहीं हुआ है, वह आकर्षित करेगा। तुम फिर से जानना चाहोगे। और तुम कभी भी न जान पाओगे। क्योंकि जीवन में जो भी जाना जाता है, उसके लिए बाढ़ चाहिए--अतिरेक से भरी शक्ति चाहिए। शक्ति जानती है। शक्तिहीनता क्या जानेगी!
ऊर्जा का प्रवाह जब तरंगें लेता है, तो संभोग का एक अनुभव ही समाधि के लिए पहली सीढ़ी बन जाता है।
संभोग का एक अनुभव भी मुक्त कर जाता है, अगर वह पूर्णरूप से जीया गया हो। लेकिन तुम चम्मच-चम्मच जीते हो। जिंदगी भर बूंद-बूंद रिसते हो। अनुभव कभी नहीं हो पाता। और सदा मन में आस बनी रहती है कि कुछ चूक गया; कुछ हो सकता था, जो नहीं हुआ।
मेरे पास सैकड़ों लोग आते हैं, उनकी पीड़ा यही है। संभोग में मन लगा रहता है। और उनको लगता है कि कुछ चूक रहा है। जो हो सकता था, नहीं हुआ है। कोई आनंद का अतिरेक घटना चाहिए था, वह नहीं घट रहा है। उनके पूरे प्राण का रोआं-रोआं कहता है कि कुछ तुम वंचित रहे जा रहे हो। तो रोज-रोज आकांक्षा जगती है। इस स्त्री से पूरा नहीं होता, इस पुरुष से पूरा नहीं होता, तो दूसरी स्त्री खोजो, दूसरा पुरुष खोजो। लेकिन असली कारण वह नहीं है। किसी स्त्री से पूरा न होगा, किसी पुरुष से पूरा न होगा।
तुम्हारी बाढ़ चाहिए। तुम एक भरे हुए शक्ति के कुंड होने चाहिए, ताकि जब तुम उबलो, तो वह उबाल इतना ऊंचा जाए, इतना गहरा जाए कि एक तूफान बन जाए और उस ऊर्जा के तूफान के क्षण में ही बिजली कौंधेगी--तुम्हें अनुभव होगा। तब एक अनुभव भी मुक्त कर देता है।
ठीक ब्रह्मचर्य पच्चीस वर्ष तक सधा हो, तो संभोग का एक अनुभव संभोग के पार जाने के लिए मार्ग बन जाता है। हिंदू पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य पर जोर देते हैं, फिर वे कहते हैंः जब ब्रह्मचर्य सध गया, तो अब ब्रह्मचर्य से जो तुमने इकट्ठा किया है--वीर्य का जो संग्रह तुम्हारे पास है, अब इसे तुम संभोग में, अनुभव में ले जाओ। इसलिए पच्चीस वर्ष गृहस्थ अवस्था के।
पचास वर्ष पूरे हो रहे थे--याज्ञवल्क्य के। उसने मैत्रेयी को बुला कर कहा कि ‘मैं सदा ही गृहस्थाश्रम में पड़ा नहीं रहना चाहता।’
यह ‘आश्रम’ शब्द बड़ा प्रीतिकर है। आश्रम का वही अर्थ होता है, जो रेस्ट हाउस का। वहां तुम रुकना, विश्राम करना, उसको तुम घर मत समझ लेना। कोई आश्रम घर नहीं है। इसलिए हम संन्यासियों के घर को आश्रम कहते हैं। वे वहां रुके हैं, ठहरे हैं--बसे नहीं हैं। वह उनका आवास नहीं है। वे यात्रा पर हैं। यह बीच का पड़ाव है।
तुम एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने रुक जाते हो, बस, इतना ही घर का उपयोग है। गृहस्थ-आश्रम कोई अंत नहीं है। तो याज्ञवल्क्य ने कहाः ‘समय आ गया। और अब मैं गृहस्थाश्रम में ही नहीं पड़े रहना चाहता। मैं ऊपर उठना चाहता हूं। आओ, कात्यायिनी के साथ तुम्हारा निपटारा करा दूं।’
और ध्यान रहे, यह प्रक्रिया भी ख्याल में ले लेना कि जिसने पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य जाना है, वह ही गृहस्थाश्रम के ऊपर उठना चाहेगा। जिसने पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य नहीं जाना, उसे गृहस्थाश्रम के ऊपर उठने का ख्याल ही नहीं आएगा; पकेगा नहीं वह। जब तक तुम पकोगे नहीं, तब तक तुम पार न जाओगे।
और दूसरी बात कि जिसने ब्रह्मचर्य जाना है, वह गृहस्थाश्रम में उतरते ही जान लेगा कि असली चीज तो वही थी। उसके पास तुलना है। तुम्हारे पास तुलना नहीं है।
ब्रह्मचर्य जिसने नहीं जाना, वह कैसे पहचानेगा कि ब्रह्मचर्य कीमती था कि संभोग कीमती है! उसके पास आधार नहीं है--तौलने का। इस व्यक्ति को समझ में आएगा कि कीमती तो वही था, जो मैं छोड़ आया। और इसकी कीमत पता चलने के लिए छोड़ना जरूरी था, नहीं तो पता भी नहीं चलता। इसलिए इस अनुभव से भी गुजरना जरूरी है, क्योंकि इसकी पृष्ठभूमि में ब्रह्मचर्य का अर्थ और ब्रह्मचर्य की महिमा पहली दफा प्रकट होगी। वह जो रस तुम्हारे जीवन में था, जिसे तुमने छोड़ दिया, उसे पुनः पाना है।
तो हिंदू कहते हैंः जन्म के बाद ब्रह्मचर्य और मरने तक पुनः पूरा ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो जाना चाहिए।
हिंदुओं का एक आशीर्वाद है, जो गुरु विवाह के समय अपने शिष्यों को देता था। वह कहता था--स्त्री को ‘तू गर्भवती हो। तेरे दस पुत्र हों और तेरा ऐसा सौभाग्य हो कि जीवन के अंत तक तेरा पति तेरा ग्यारहवां पुत्र हो जाए।’ ऐसा आशीर्वाद दुनिया में कहीं भी नहीं है। क्या अर्थ हुआ इसका? कि तू फिर से मां हो जाए--पति की भी। और पति पुनः बच्चा हो जाए। फिर ब्रह्मचर्य की पहली दशा वापस आ जाए जहां से यात्रा शुरू हो, वहीं यात्रा पूरी हो जाए।
पच्चीस वर्ष गृहस्थाश्रम, फिर पच्चीस वर्ष वानप्रस्थ। ‘वानप्रस्थ’ शब्द बड़ा कीमती है। उसका अर्थ है--रुख जंगल की तरफ, प्रस्थान जंगल की तरफ; चाहे घर में ही रहो, लेकिन आंख जंगल पर लगी रहे। दुकान पर बैठो, लेकिन मन जंगल की तरफ दौड़ता रहे। काम करो, लेकिन मन वहां न रहे। तुम भले वहां रहो--शरीर से, लेकिन तुम्हारी आत्मा जंगल चली जाए।
और पचहत्तर वर्ष के बाद, तीसरी सीढ़ी के बाद संन्यास-आश्रम। ब्रह्मचर्य और संन्यास एक ही अवस्था के दो तरफ से नाम हैं। संन्यास का अर्थ हैः फिर ब्रह्मचर्य, फिर बच्चे जैसा भोलापन। लेकिन यह भोलापन बहुत कीमती है। यह बच्चे जैसा है, लेकिन बचकाना नहीं है। बच्चे का भोलापन तो मिटेगा; इसको अब नहीं मिटाया जा सकता। बच्चे का भोलापन अबोध था; यह भोलापन बोधपूर्वक है--बुद्धत्व से भरा है। बच्चे का भोलापन प्राकृतिक था; वह कोई उपलब्धि न थी। यह भोलापन उपलब्धि है। यह जीवन का सार--संचित है। यह सारे जीवन का निचोड़ है। और बूढ़े होकर जब तक बच्चे न हो जाओ, तब तक जानना कि तुम्हारी उम्र तो बढ़ी, तुम न बढ़े। तुम्हारे बाल तो सफेद हुए और पके, तुम न पके।
कहा याज्ञवल्क्य ने, ‘देखो, मैं गृहस्थाश्रम में नहीं पड़े रहना चाहता, ऊपर उठना चाहता हूं। आओ, कात्यायिनी के साथ तुम्हारा निपटारा करा दूं।’ निपटारा यह था कि मेरी संपत्ति है, धन-धान्य है, बड़ा फैलाव है--संसार का, वह मैं आधा-आधा बांट दूं।
मैत्रेयी ने कहा--न तो मैत्रेयी रोयी, न छाती पीटी, न चिल्लाई, न उसने कहा कि ‘यह क्या करते हो? जीते-जी मुझे विधवा किए जाते हो!’ यह कुछ भी उसने न कहा। उसने यह भी न कहा कि ‘मत जाओ, हमारा क्या होगा?’ उसने यह भी सुझाव न दिया कि ‘यह उचित नहीं है। हमें विवाह कर लाए थे, अब तुम जंगल जाते हो?’ नहीं, उसने यह बात ही न उठाई।
मन का एक हिस्सा है--मन का जो ऊपरी हिस्सा है, ऊर्ध्वगामी हिस्सा है, जब तुम ध्यान में जाने लगोगे, तो वह तुम्हें साथ देगा। मन का अधोगामी हिस्सा है, वह विरोध करेगा। मन के दो हिस्से हैं और अगर तुम ठीक से नहीं पहचानते, तो तुम बड़ी कठिनाई में पड़ोगे। ठीक से पहचानो तो मन के ऊपरी हिस्से का तुम उपयोग कर सकते हो--सीढ़ी की तरह, और ध्यान में जा सकते हो। ‘मैत्रेयी वाला’ हिस्सा भी तुम्हारे भीतर है।
मैत्रेयी ने न तो विरोध किया, न शिकायत की। उसने कोई बात ही न उठाई। उसने यह कहा ही नहीं कि ‘तुम मत जाओ।’ उसने दूसरी ही बात पूछी। उसने कहा, ‘भगवन, अगर यह सारी पृथ्वी वित्त से पूर्ण होकर मेरी हो जाए, तो क्या मैं उससे अमर हो जाऊंगी?’ उसने कहा कि ‘तुम काफी धन-धान्य हमारे लिए छोड़े जाते हो, आधा मुझे मिलेगा। लेकिन मैं तुमसे यह पूछती हूं कि सारी पृथ्वी मेरी हो जाए, सब कुछ जो है जगत में--मेरा हो जाए, तो क्या मैं उससे अमर हो जाऊंगी? क्या मुझे उससे अमरत्व उपलब्ध हो जाएगा? क्या मुझे शाश्वत जीवन उससे उपलब्ध होगा?’ यह जिज्ञासा धार्मिक व्यक्ति की जिज्ञासा है।
धार्मिक व्यक्ति की एक ही जिज्ञासा है कि उसे पाना है, जिसे कभी खोया नहीं जाता। उस जीवन को जानना है, जिसकी कोई मृत्यु नहीं है। उस दशा को उपलब्ध होना है, जहां फिर कोई डांवाडोल--परिवर्तन नहीं होता। क्योंकि जो चीज बदल जाती है, उसे पाकर भी क्या करोगे? और जो आज अपनी हो, कल अपनी न रह जाती हो, उसे पाने में किया गया श्रम व्यर्थ है। और जब सारा जीवन ही खो जाता हो तो फिर धन का क्या करेंगे? बड़े भवनों का क्या करेंगे? बड़े साम्राज्य का क्या होगा? जब मैं ही न बचूंगा, तो साम्राज्य का क्या मूल्य है?
मैत्रेयी ने कहा कि ‘क्या इससे मैं अमर हो जाऊंगी, जो आप मुझे दे जा रहे हैं?’ याज्ञवल्क्य बोला, ‘उस अवस्था में जैसे साधन-संपन्न लोग चैन से जीवन निर्वाह करते हैं, वैसा तुम्हारा जीवन होगा। धन-धान्य से तो अमरता पाने की आशा नहीं हो सकती।’ तुम सुविधा से जीओगी। लेकिन अमरता उससे नहीं मिलती। और सुविधा से जीने का क्या अर्थ होता है? सुविधा से जीने का इतना ही अर्थ होता है कि मरोगी तो तुम। अगर धन-धान्य पास न हो, तो असुविधा से जी कर मरोगी। अगर धन-धान्य पास हो, तो सुविधा से जी कर मरोगी।
कोई आदमी पैदल कब्र पर पहुंचेगा, कोई आदमी रथ पर कब्र तक पहुंचेगा। कब्र तक तो पहुंचना ही पड़ेगा। तुम पैदल जाते हो कि बड़े शानदार रथ पर जाते हो, इससे कोई फर्क न पड़ेगा! लेकिन मैत्रेयी कहती है कि रथ और पैदल का सवाल नहीं है। सवाल यह है कि अगर यह रथ भी कब्र पर ही ले जाएगा, तो क्या फर्क पड़ता है कि हम पैदल पहुंचे कि रथ पर सवार होकर पहुंचे! क्या फर्क पड़ता है कि कंधा जिन्होंने दिया--वे सम्राट थे, कि जिन्होंने कंधा दिया, वे भिखारी थे। क्या फर्क पड़ता है कि सोने की डोली ले गई कब्र तक, कि ऐसे ही म्युनिसिपल का ट्रक आया और उठा कर उसने मरघट पर पहुंचा दिया! क्या फर्क पड़ता है? अगर मौत होनी ही है, तो कोई भी अंतर नहीं है। तब सब भेद झूठा है।
याज्ञवल्क्य ने कहाः ‘यह तो न होगा। इससे अमरता नहीं मिलेगी। सिर्फ सुविधापूर्ण जीवन हो सकता है।’ लेकिन मैत्रेयी यह पूछती है कि थोड़ा सा जीवन है, यह सुविधापूर्ण कि असुविधापूर्ण, इससे क्या भेद पड़ता है?’ रात तुमने सपना देखा, वह सुखद था कि दुखद? सुबह जागकर सपना टूट ही जाता है। तो क्या मूल्य है उस सपने का? ऐसे ही यह जीवन भी सत्तर साल के बाद टूट जाता है। सभी जीवन टूट जाते हैं--सुखद, दुखद। इनमें भेद कहां है?
मैत्रेयी बोली, ‘जिससे मैं अमर न हो सकूं उसे लेकर मैं क्या करूंगी? भगवन, अमर होने का रहस्य जो आप जानते हों, मुझे उसका उपदेश करें।’ मैत्रेयी यह कह रही है कि ‘जिस धन से तुम्हें कुछ न मिला, तुम उसे मुझे दिए जा रहे हो? और अगर तुम उसे छोड़ रहे हो, तो तुम मुझे इतना पागल समझते कि मैं उसे पकड़ लूं? तुम जैसा बुद्धिमान जब उसे छोड़ कर जा रहा है, तो तुम मुझे उस कचरे को क्यों दे जाना चाहते हो? जब तुमने जान लिया कि वह कचरा है, तो तुम मुझे अब खिलौनों में मत भरमाओ। तुम मुझे भी वही बताओ, जिससे अमरत्व उपलब्ध हो जाए।’
याज्ञवल्क्य ने कहा, ‘तू तो मेरी प्रिय है और बड़ा प्रिय वचन बोल रही है।’ यही याज्ञवल्क्य सुनना चाहता था। मैत्रेयी से यही अपेक्षा थी।
कात्यायिनी का कहानी में कोई उल्लेख नहीं है। क्योंकि कात्यायिनी बड़ी प्रसन्न हुई। आधा धन बड़ा धन था। आधी संपदा उसे उपलब्ध हो गई। वह बड़ी निश्चिंत हुई। पति से क्या प्रयोजन था? शायद हो सकता है, इसी धनधान्य के लिए उसने विवाह किया हो! पतियों से कौन विवाह करता है? शायद कभी सौ में कोई एक मैत्रेयी होती है। निन्यानबे तो कात्यायिनी होती हैं।
मैंने सुना हैः मुल्ला नसरुद्दीन एक युवती से विवाह करना चाहता था। युवती बहुत धनी बाप की बेटी थी। एक दिन हिम्मत जुटा कर उसने कहाः ‘क्या यह सच है कि तुम्हारे पिता के पास करोड़ों रुपये हैं?’ उस युवती ने कहाः ‘निश्चित। करोड़ों रुपये हैं, मेरे पिता के पास। और मैं अकेली उसकी मालिक हूं।’ नसरुद्दीन ने हिम्मत जुटाई और कहाः ‘क्या तुम मुझसे विवाह करोगी?’ उस युवती ने स्पष्ट सीधा उत्तर दियाः ‘नहीं।’ नसरुद्दीन ने कहाः ‘यह मुझे पहले से ही पता था।’ उस स्त्री ने कहाः ‘जब पता ही था, तो यह पूछा ही क्यों?’ नसरुद्दीन ने कहाः ‘सिर्फ यह अनुभव करने को कि करोड़ों रुपये खोकर मन को कैसा लगता है!’ स्त्री से तो प्रयोजन भी किसको है? करोड़ों रुपये खोकर मन को कैसा लगता है, यह अनुभव करने के लिए!
कात्यायिनी सीधी सांसारिक स्त्री है, इसलिए कथा में उसका कोई उल्लेख नहीं है। उसने स्वीकार कर लिया, बल्कि वह प्रसन्न ही हुई होगी कि झंझट मिटी। अब सारे धन की मालिक मैं हूं। शायद मैत्रेयी की बातें सुन कर उसको और भी अच्छा लगा होगा कि अब आधे का ही सवाल नहीं है, पूरे की मालिक मैं हूं।
लेकिन याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को कहाः ‘तू मेरी बड़ी प्रिय है। और बड़ा प्रिय वचन बोल रही है।’ इसकी गहरे में यही अपेक्षा रही होगी मैत्रेयी से।
मन तुम्हारा एक हिस्सा है, जो श्रेय की तरफ ले जाता है, वही प्रिय है। मन पूरा प्रेय नहीं है। क्योंकि मन आधा बाहर की तरफ जाता है, आधा भीतर की तरफ जाता है। मन दरवाजे की तरह है। वह भीतर की तरफ भी खुलता है, बाहर की तरफ भी खुलता है। आधा भीतर की तरफ ले जाता है, आधा बाहर की तरफ लाता है। जो भीतर की तरफ लाता है, वह प्रिय है। जो बाहर की तरफ ले जाता है, वह अप्रिय है। यद्यपि दिखाई उलटा पड़ता है। जो तुम्हें बाहर की तरफ ले जाता है, वह प्रिय मालूम होता है। जो भीतर की तरफ लाता है, वह अप्रिय मालूम होता है। जो भी तुम्हें बाहर की तरफ लुभाता है, वह प्रिय मालूम होता है।
याज्ञवल्क्य ने जब मैत्रेयी से कहा कि ‘तू तो बड़ी प्रिय है।’ तो उसने इंगित किया कि संन्यास की तरफ उत्सुक व्यक्ति की भावना होगी कि मन का वह हिस्सा उसे प्रिय मालूम पड़ेगा, जो भीतर की तरफ लाता है। मन का वह हिस्सा अप्रिय मालूम पड़ेगा, जो बाहर की तरफ ले जाता है। तुम भी मन को साफ खोजोगे तो पाओगे कि एक मन का हिस्सा है, जो अशांति में ही सुख पाता है। एक मन का हिस्सा है, जब तक उपद्रव न होता हो, तब तक उसे कुछ रस नहीं आता।
जब तुम सुबह अखबार पढ़ते हो और देखते हो कि कोई उपद्रव नहीं हुआ, तो ऐसे उदास होकर अखबार गिरा देते हो कि ‘कोई खबर नहीं। कुछ खास नहीं हुआ।’ यह भी मन का हिस्सा है, जो देखना चाहता था कि ‘कहीं आग लगे, किसी की स्त्री भाग जाए, कुछ उपद्रव हो, कोई युद्ध छिड़ जाए।’
जब युद्ध छिड़ जाता है, तब तुम्हारी ‘कुंडलिनी’ जाग्रत हो जाती है, तुम सीधे बैठ जाते हो। तुम्हारी आंखें जो धुंधला देखती थीं, एकदम साफ देखने लगती हैं। तुम चश्मे को ठीक कर लेते हो। तुम एकदम पढ़ने लग जाते हो--एक-एक शब्द, कि कहीं कुछ चूक न जाए।
एक मन का हिस्सा है जो उपद्रवों के लिए बड़ा रस लेता है। इसलिए तुम देखोगे कि जब युद्ध छिड़ता है, तो लोगों के चेहरे पर रौनक आ जाती है। जो सदा मरे हुए और मुरझाए हुए लगते थे, वे भी लगता है कि जीवंत हो गए हैं। जैसे वर्षा हो गई है और वृक्ष हरे हो गए हैं। जिनकी आंखों में कभी तुमने तेज नहीं देखा था, उनकी आंखों में दीये जलने लगते हैं। जो चलते ऐसे थे, जैसे घसिट रहे हों, वे तेजी से चलने लगते हैं। कुछ हो रहा है! युद्ध के कारण लोग उदास नहीं होते, युद्ध के कारण लोग प्रसन्न होते हैं!
तुम जान कर हैरान होओगे कि युद्ध के समय में पागलों की संख्या गिर जाती है। लोग कम पागल होते हैं--पचास प्रतिशत कम। हत्याएं पचास प्रतिशत कम हो जाती हैं। चोरी, व्यभिचार पचास प्रतिशत कम हो जाते हैं। बड़ी हैरानी की बात है कि युद्ध जब फैलता है, तो दुनिया में अपराध कम हो जाते हैं। तुम्हें खुद अपराध करने की--प्राइवेट--जरूरत नहीं है। इतना बड़ा अपराध हो रहा है। तुम उसी में सम्मिलित होकर भाग ले लेते हो, तुम उसी में प्रसन्न हो लेते हो। निजी--अपनी तरफ से--अलग--कुछ करने की जरूरत नहीं होती। ऐसा लगता है कि आदमी जैसा है, उसका आधा हिस्सा निरंतर ही उपद्रव में रस लेता है।
तुम अपने भीतर इस बात को ठीक से पहचानना कि कौन कात्यायिनी है, कौन मैत्रेयी है। और जिस दिन तुम ठीक से पहचान लोगे, उस दिन मैत्रेयी प्रीतिकर मालूम पड़ेगी।
मन भीतर की तरफ भी खुलता है। उस मन का थोड़ा उपयोग करना है--आत्मा तक पहुंचने के लिए। वह भी छूट जाएगा। क्योंकि बाहर-भीतर भी छूट जाने चाहिए। एक ऐसी घड़ी आनी चाहिए, जब न कुछ बाहर बचा, न कुछ भीतर बचा। बस, तुम ही बचे, द्वार ही खो गया। लेकिन उस घड़ी के आने के पहले द्वार का उपयोग अनिवार्य है।
तो कहा याज्ञवल्क्य ने, ‘तू मेरी बड़ी प्रिय है और तू बड़ा प्रिय वचन बोल रही है। आ, बैठ। मैं तुझे सब खोल कर समझा दूं। ज्यों-ज्यों बोलता जाऊं, मेरी बात ध्यान देकर सुनती जाना।’ इसमें एक-एक शब्द कीमती है। पहला शब्द हैः ‘आ, बैठ।’
यह मन, यह मैत्रेयी अगर बैठे न, तो सुन न पाए, समझ न पाए। तुमसे भी मैं ध्यान के लिए कह रहा हूं तो यही कह रहा हूंः ‘आ, बैठ। पहले तुम बैठो।’ मन का स्वभाव चलते रहना है। मन का स्वभाव गति करना है। मन का स्वभाव चंचलता है। और जब तक मन बैठे न, तब तक अमृत की बात तो कही नहीं जा सकती। सुनेगा कौन?
शाश्वत की बात सुननी हो, तो थोड़ा तो शाश्वत जैसा होना पड़े। क्योंकि समान ही समान को समझ सकता है। उसकी बात सुननी हो, जो कभी नहीं बदलता, थोड़ी देर तुम्हें भी बैठना पड़े।
बौद्धों ने जापान में ध्यान के लिए जो शब्द खोजा है, वह हैः झाझेन। ‘झाझेन’ का मतलब होता है--जस्ट सिटिंग--‘आ, बैठ’--बस, इतना ही मतलब होता है। गुरु इतना ही कहता है शिष्य से कि ‘तू बैठना सीख जा, बस। और जब बैठे, तो सिर्फ बैठ। फिर भीतर कोई गति नहीं, बाहर कोई गति नहीं। बस, बैठा है, बैठा है। सिर्फ बैठने की कला आ जाए।’
चलना इतना बीमारी की तरह हो गया है कि पैर रुक जाते हैं, तो मन नहीं रुकता। तुम भला बैठ जाओ, मन चलता जाता है! मन तुम्हें दूर की यात्रा पर ले जाता है; जहां तुम कभी नहीं गए, वहां पहुंचाता है; जिन सपनों को तुमने कभी नहीं देखा, उनको दिखलाता है; जिन वासनाओं को तुम जानते हो कि कभी पूरी न होंगी, उनमें लुभाता है। और क्षण भर को तुम सपनों में जाते हो। मन चलता ही रहता है।
तो याज्ञवल्क्य ने जो पहली बात कही, वह बड़ी कीमती है। कहाः ‘आ, बैठ।’ अगर जो तुझे समझना हो--अमृत का राज, तो पहला सूत्र है--‘बैठ’। तू बैठ जाए तो मैं तुझे सब खोल कर समझा दूं। क्योंकि बैठे हुए मन को ही सब खोलकर समझाया जा सकता है।
‘ज्यों-ज्यों मैं बोलता जाऊं, मेरी बात ध्यान देकर सुनते जाना।’ ध्यान देकर सुनने का क्या अर्थ होता है?
बात तीन तरह से सुनी जा सकती है। एकः सिर्फ सुन रहे हो और मन भीतर चल रहा है। तब तुम सुन भी लोगे और अचानक तुम पाओगे, कुछ नहीं सुना है। तुम यहां थे ही नहीं। दूसरा एक ढंग है--एकाग्रता से सुनना। तुम सारे मन को तनाव से भरकर मेरी तरफ लगाए हुए हो। यह सहज नहीं है। इसके लिए कोई भय या लोभ चाहिए। अगर मैं तुमसे कह दूं कि ‘अगर तुमने ठीक से न सुना, तो बस, आज सांझ खतम हो जाओगे।’ तो तुम सुनोगे। लेकिन वह सुनना--ध्यान से सुनना नहीं होगा, एकाग्रता से सुनना होगा। क्योंकि मृत्यु का भय है।
जैसे कोई आदमी गरदन पर तलवार लिए खड़ा है। वह कहता है कि ‘सुनो’। तब तुम सुनोगे, लेकिन वह एकाग्रता होगी। क्योंकि तनाव होगा। तब तुम सुन रहे हो जरूर, तुम रुक भी गए हो, लेकिन जबरदस्ती है। जबरदस्ती, भीतर ऊर्जा को भरमाती है, भटकाती है। तुम दौड़ नहीं रहे हो, एक ही जगह पर कूद रहे हो। तुम चल नहीं रहे हो। क्योंकि इतनी भय की स्थिति है कि तुम चल नहीं सकते। लेकिन तुम्हारी पुरानी आदत।
ऐसा हुआ। महाराष्ट्र में एक संत हुए--एकनाथ। वे तीर्थयात्रा को जाते थे, तो गांव का एक चोर था, उसने कहा, ‘मुझे भी साथ ले लें।’ एकनाथ ने कहा, ‘तुझे साथ लेना खतरनाक है। तू पक्की कसम खा कि तीन महीने, जब तक यात्रा चलेगी, चोरी नहीं करेगा।’ उसने कहा, ‘कसम खाता हूं।’ लेकिन दूसरे दिन से मुसीबत शुरू हो गई। यात्रियों की चीजें गुम होने लगीं। पर बड़ी हैरानी की बात थी कि गुम भी हो जातीं, मिल भी जातीं।
आखिर एकनाथ को शक हुआ कि यही आदमी कुछ कर सकता है तो एक रात जगते रहे, चादर ओढ़ कर पड़े रहे। वह आदमी उठा, जब सब सो गए; उसने किसी का बटुआ निकाला और दूसरे के बिस्तर में सरका दिया। किसी का लोटा उठाया और दूसरे की बाल्टी में डाल दिया। एकनाथ ने उसे पकड़ा और कहाः ‘तू यह क्या कर रहा है?’ उसने कहाः ‘कसम खाई थी कि चोरी न करूंगा, लेकिन अभ्यास तो जारी रखने दें! चोरी कर भी नहीं रहा हूं। इधर की चीज उधर कर रहा हूं। ले नहीं रहा हूं इसमें से। तीन महीने कसम खाई है, तो पूरा करूंगा। लेकिन महाराज, लौटकर तो चोरी करनी पड़ेगी! और उसका अभ्यास छूट जाए, तो फिर मैं क्या करूंगा? यह सिर्फ अभ्यास के लिए है--बतौर रिहर्सल।’ तो अगर भय के कारण यह आदमी चोरी कोई भाव से नहीं छोड़ आया है। इसने तो सिर्फ भय से कि एकनाथ साथ न ले जाएंगे, साथ जाना है, एक शर्त मान ली।
तुम्हारी गर्दन पर कोई तलवार लेकर खड़ा हो जाए, तो तुम भय के कारण एकाग्र हो जाओगे। भय सदा एकाग्रता ले आता है।
बच्चे साल भर यहां-वहां करते रहें, परीक्षा के वक्त एकाग्र हो जाते हैं। और जो साल भर में नहीं समझे, वे एक रात में समझ जाते हैं। साल भर तो सिर्फ नासमझ बच्चे ही मेहनत करते हैं। समझदार बच्चे तो यहां-वहां करते रहते हैं। क्योंकि ऐन वक्त पर, जब परीक्षा का भय सवार होता है, तो चित्त एकाग्र हो जाता है। तुम्हारी सारी विद्या, शिक्षा भय पर खड़ी है या लोभ पर खड़ी है--कि गोल्ड मेडल है; अगर चूके, तो चूके सदा के लिए; मिल गया तो जिंदगी सार्थक है। जब भय और लोभ पकड़ता है, तो चित्त एकाग्र हो जाता है। इस एकाग्रता का भी कोई मूल्य नहीं है। यह भी सांसारिक है।
याज्ञवल्क्य ने कहा कि तू ध्यान से सुन। यह ध्यान बड़ा मुश्किल है। यह तीसरी बात है। ध्यान का अर्थ हैः जबरदस्ती नहीं, किसी लोभ और भय के कारण नहीं। अपने पर कोई तनाव डाल कर नहीं--सहज, शांत भाव से।
ध्यान से सुनना बड़ी कठिन बात है। तब तुम सिर्फ सुनते हो, सुनने में ही रस होता है। कोई आगे पुरस्कार, कोई फल--कारण नहीं होता। तुम सुनते हो, क्योंकि सुनना प्रीतिकर होता है, रसपूर्ण होता है। और सुनने में तुम पूरे खुल जाते हो। कोई तनाव भी नहीं होता है कि तुम अपने को ताने हुए हो। तुम अपनी मौज से सुनते हो। ‘ध्यान देकर तुम सुनते जाना, ज्यों-ज्यों मैं बोलता जाऊं।’ यही तुम्हें मेरे साथ करना है। बैठना सीखना है। ध्यानपूर्वक सुनना सीखना है।
मैत्रेयी बैठ गई ध्यानपूर्वक सुनने लगी, तो याज्ञवल्क्य ने कहाः ‘अरे, पति की कामना के लिए पति प्रिय नहीं होता, अपनी आत्मा की कामना के लिए पति प्रिय होता है!’ यह उपनिषदों का सार है--इन वचनों में। इसलिए याज्ञवल्क्य ने बार-बार दुहराया हैः ‘पत्नी की कामना के लिए नहीं, अपनी कामना के लिए ही पत्नी प्रिय होती है; आत्मा की कामना के लिए ही पत्नी प्रिय होती है। पुत्र की कामना के लिए नहीं, अपनी आत्मा की कामना के लिए ही पुत्र प्रिय होते हैं।’
उपनिषद कहते हैं कि तुम जो भी चाहते हो, वह तुम वस्तुतः किसलिए चाहते हो? क्या चाह का कारण वस्तु में है? या चाह का कारण तुम्हारे भीतर है? तुम पत्नी को चाहते हो--यह तुम पत्नी के लिए चाहते हो? या पत्नी को भी अपनी आत्मा के लिए चाहते हो? यह पत्नी सुख देती है, यह पत्नी प्रीतिकर है। इसके चारों तरफ सदा एक सुगंध बनी रहती है, एक ताजगी बनी रहती है, एक गीत गूंजता रहता है--यह तुम्हें प्रीतिकर है, यह तुम्हारा आनंद है। इसलिए यह पत्नी प्रीतिकर है। ‘अपने ही आनंद के लिए पत्नी प्रीतिकर है। अपने ही आनंद के लिए सब कुछ प्रीतिकर है।’
इस जगत में तुमने जो भी चाहा है, वह अपने लिए चाहा है। तुम कितना ही कहो कि मैं तेरे लिए ही चाहता हूं, तुम भी जानते हो, सुनने वाला भी जानता है कि वह ‘मधुर-असत्य’ है। झूठ है, लेकिन कभी-कभी झूठ सुनना भी अच्छा लगता है।
अगर दो प्रेमियों की बातें सुनो, तो तुम्हें पता चलेगा कि मधुर-असत्य का क्या अर्थ होता है। दोनों झूठ बोल रहे हैं। जरूरी नहीं है कि जान कर बोल रहे हों। धोखा दे रहे हों, ऐसा भी नहीं है। खुद धोखे में हो सकते हैं।
यही तो मजा है, यही तो नशा है--प्रेम का। कि ऐसा नहीं है कि कोई तुम झूठ बोल रहे हो--जान कर--कि ‘तुझसे सुंदर कोई स्त्री नहीं है। कि तेरे बिना मैं एक क्षण न जी सकूंगा।’ ऐसा नहीं है कि तुम जान कर झूठ बोल रहे हो। तुम इतने नशे में हो कि तुम्हें लगता है कि तुम ठीक ही बोल रहे हो। तुम्हें लगता हैः तुम भीतर से ही बोल रहे हो। लेकिन होश नहीं है। अगर होश हो, तो तुम्हें लगेगाः सारा प्रेम, सारा राग, सारी आसक्ति, सारी चाह, सारी वासना अपने ही सुख के लिए है। तुम सबको अपना साधन ही बना रहे हो। साध्य तुम ही हो।
तुम कितना ही कहो कि मैं कुर्बान हो जाऊंगा--तुम्हारे लिए, लेकिन यह भी हो सकता है कि तुम कुर्बान भी हो जाओ, लेकिन उस कुर्बानी में भी तुम्हें ही सुख आ रहा है, इसलिए तुम कुर्बान हो रहे हो।
इमैनुएल कांट ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही है और इमैनुएल कांट पर उपनिषदों का बड़ा प्रभाव है। उसने कहा है कि एक आदमी नदी में डूब रहा है; तुम किनारे पर खड़े हो। तुम छलांग लगा कर, अपनी जान को जोखिम में डाल कर उस आदमी को बचाते हो। सारी दुनिया कहेगी कि यह परार्थ है, कि परोपकार किया तुमने, कि तुमने अपनी जान को दांव पर लगाया। तुम साधन बने हो, दूसरे को साध्य बनाया है। लेकिन इमैनुएल कांट कहता है कि बहुत सोचने पर ऐसा नहीं लगता। बहुत खोजने पर ऐसा लगता है कि वहां खड़े रहना--किनारे पर, तुम्हें दुखद हो गया। ‘यह आदमी डूब रहा था’, यह दुख नहीं है। इसका डूबना ‘तुम्हें’ दुखद हो गया। अपना दुख मिटाने के लिए तुम कूदे।
लेकिन यह तो बहुत विश्लेषण करोगे तो समझ में आएगा। और जब तुमने इसे बचा लिया, तो तुम प्रसन्न हुए। और तुमने अपनी जान दांव पर लगाई। इससे भी तुम प्रसन्न हुए कि तुम जान दांव पर लगा सकते हो, कि तुम कुर्बानी कर सकते हो, कि तुम शहीद हो सकते हो। लेकिन सब चीजें घूम कर आत्मा पर आ जाती हैं। तुम ही केंद्र हो अपने जगत के। कोई दूसरा केंद्र हो भी कैसे सकता है!
कोई उपाय भी नहीं है कि तुम किसी दूसरे को अपना केंद्र बना दो। तुम कितना ही दूसरे का चक्कर लगाओ, लेकिन अंततः गहरे में तुम ही अपने केंद्र रहोगे। तुम ही साध्य हो।
उपनिषद इस पर जोर क्यों दे रहे हैं? याज्ञवल्क्य इसको क्यों इतना दुहरा रहे हैं? इसको दुहराने का कारण है। याज्ञवल्क्य यह कहना चाहता है कि अगर सभी चीजों का अंत तुम ही हो तो पहले इसका तो पता लगा लो कि तुम कौन हो? जो सभी चीजों का अंत है और जो सभी चीजों का साध्य हैः इसे बिना जाने तुम क्यों जीवन को खराब कर रहे हो!
जिसके आनंद के लिए सब कुछ चाहा गया है, तुमने उसको ही नहीं जाना है अभी तक, तो तुम उसका आनंद कैसे उपलब्ध कर पाओगे? जो अंतिम सिंहासन पर विराजमान है, उससे पहचान तो कर लो।
आत्म-ज्ञान की इतनी आकांक्षा का कारण ही यही है कि जब तक तुम आत्मज्ञानी न हो जाओ, तब तक तुम जो भी करोगे, वह गलत होगा, वह भ्रांति में होगा। क्योंकि तुमने एक मौलिक सत्य जीवन में नहीं देखा--कि तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी तुम्हारा केंद्र नहीं हो सकता।
और पति-पत्नी की ही बात नहीं है; देवता भी देवता के लिए नहीं, अपनी ही आत्मा के लिए प्रिय होता है। भगवान भी भगवान के लिए नहीं, अपनी ही आत्मा के लिए प्रिय होता है। इसलिए उपनिषद कहते हैंः आत्मा से बड़ा कोई भी सत्य नहीं है। इसलिए वे परमात्मा को भी आत्मा से बड़ा सत्य नहीं कह सकते। क्योंकि परमात्मा भी परिधि पर ही रह जाता है; केंद्र पर तो तुम्हीं हो। तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारी जीवन ऊर्जा का कोई भी साध्य नहीं है। तो तुम कौन हो, जिसके लिए यह सारा जगत चारों तरफ घूम रहा है?
रामतीर्थ ने कहा हैः ‘मैं कौन हूं--जिसके चारों तरफ चांद-तारे घूम रहे हैं? मैं कौन हूं--जिसके लिए सुबह होती है, सांझ होती है, आकाश में तारे उगते हैं?’
‘मैं कौन हूं?’ इसको बिना जाने, सब अधूरा है। और तब तक मैं जो भी करूंगा, वे कदम--अंधेरे में उठाए गए कदम हैं। वे मुझे मंजिल पर नहीं ले जाएंगे।
मंजिल यहां भीतर छिपी है। और हम सदा मंजिल बाहर देखते हैं। पति देखता है--पत्नी में, पत्नी देखती है--पति में। दोनों चूक जाते हैं। ऑब्जेक्ट में, वस्तु में, कहीं बाहर, बाह्य में मंजिल दिखाई पड़ती है। जब कि मंजिल है--सब्जेक्ट में--भीतर अंतस में। जब कि मंजिल तुम हो।
‘मंजिल बाहर है’--इस धोखे को जो व्यक्ति तोड़ लेता है, उसके जीवन में पहली किरण उतरती है--ज्ञान की। इसलिए दुहराए जाता है याज्ञवल्क्य, ताकि मैत्रेयी को सब तरफ से ख्याल में आ जाए कि ‘इस सब कुछ की कामना के लिए नहीं, अपनी आत्मा के लिए ही सब कुछ प्रिय होता है।’
एक बात याज्ञवल्क्य कहता है कि मैत्रेयी, तू ठीक से समझ ले, बैठ कर समझ ले, ध्यान से समझ ले कि तेरे भीतर ही केंद्र छिपा है--सारे अस्तित्व का। और तू उसे बाहर खोजती फिरे, तो अनंत-अनंत जन्मों तक भटकती रहेगी--परिधि पर। वह केंद्र तुझे मिलेगा नहीं। क्योंकि वह खोजने वाले में छिपा है।
हमारी सारी कठिनाई यही है--सारी अड़चन, उलझन यही है, पहेली यही है कि हम जिसे खोज रहे हैं, वह भीतर छिपा है। काश, वह बाहर होता, तो हम कभी का उसे पा लेते। दिखाई पड़ता होता, तो हम कभी का उसे देख लेते। मुट्ठी में आता, तो हमने कभी का उसे मुट्ठी में ले लिया होता। लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ता। वह वहां छिपा है, जहां से हम देखते हैं। वह मुट्ठी की पकड़ में नहीं आता, क्योंकि वह वहां छिपा है--मुट्ठी के भीतर, अंगुलियों में। उसे छूने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि वह छूने वाला है। यह जो शिफ्ट करना है ध्यान का--बाहर से भीतर की तरफ, कि वह चाह के विषयों में नहीं, चाहने वाले में छिपा है--यह घटना जिस दिन घटती है, उसी दिन व्यक्ति वानप्रस्थ हो जाता है।
वानप्रस्थ होने के क्षण में याज्ञवल्क्य ने ये सत्य कहे। यह उसे दिखाई पड़ रहा था, यह उसके जीवन का अनुभव था। जीवन में--गृहस्थी में रह कर उसने जाना था--धन, संपत्ति, यश, कीर्ति इकट्ठी करके उसने जाना था कि ‘सब कुछ चाहा जाता है--अपने लिए। और अपने को ही हम भूल जाते हैं। जो सब चाहने के भीतर छिपा है, उसकी विस्मृति हो जाती है।’
‘मैत्रेयी, यह आत्मा देखने, सुनने, चिंतन करने और ध्यान करने योग्य है। जब यह आत्मा देखी जाती है, सुनी जाती है, विचारी जाती है, जानी जाती है, तब सब कुछ जान लिया जाता है।’
कहते हैं उपनिषद कि उस एक को जानने से सब जान लिया जाता है। और जो सबको जानने में लगा रहता है, वह उस एक से भी वंचित रह जाता है।
‘यह आत्मा देखने, सुनने, चिंतन करने, ध्यान करने योग्य है।’ यही तो जीवन का सारा आधार है, जिस पर सब खड़ा है। वही है देखने योग्य, बाकी कुछ भी देखने योग्य नहीं है। इसलिए ज्ञानी की आंखें धीरे-धीरे संसार के प्रति झपती जाती हैं। बाहर की तरफ उसकी आंख का परदा गिरने लगता है। क्योंकि अब सारी ऊर्जा भीतर की तरफ बहती है। अब उसे देखना है, जो सबका देखने वाला है।
ध्यान में अगर तुम आंख बंद करके बैठते हो, तो उसका प्रयोजन यही है, ताकि ऊर्जा बाहर न जाए। देखने की शक्ति भीतर की तरफ बहे।
‘वही’ सुनने योग्य है, इसलिए ध्यानी धीरे-धीरे बाहर के सुनने की तरफ रस को क्षीण करता है। और भीतर के नाद की तरफ प्रवाहित होता है। वह अंतर्नाद--उसको हिंदुओं ने ओंकार कहा है--वहां ओंकार की ध्वनि निरंतर गूंज रही है। ओंकार कोई मंत्र नहीं है, वह तुम्हारे भीतर गूंजती हुई ध्वनि है। वह तुम्हारे अस्तित्व का संगीत है। वह तुम्हारे भीतर का सन्नाटा है, जो ओंकार जैसा मालूम पड़ता है।
लेकिन जब तक तुम्हारे कान बाहर की आवाज से भरे होंगे, तब तक तुम भीतर की उस छोटी, धीमी, सूक्ष्म आवाज को कैसे सुनोगे? इसलिए कान को बाहर की भीड़, और बाहर के बाजार, और बाहर की आवाज से खाली कर लेना है।
आंख को बाहर के रूप-रंग-आकृति से खाली कर लेना है। जीभ को बाहर के स्वाद से, नाक को बाहर की गंध से, हाथ को बाहर के स्पर्श से खाली कर लेना है।
जब तुम बाहर की समस्त संवेदनाओं से खाली हो जाते हो, तब तुम्हें जीवन के केंद्र की संवेदना पहली दफा होती है। तब तुम पहली दफा अपने को सुनते हो, तब तुम पहली दफा अपने को देखते हो, तब पहली दफा तुम्हें अपना स्पर्श होता है, अपना स्वाद आता है। और यह स्वाद सच्चिदानंद का है। क्योंकि जिसने इस ‘एक’ को चख लिया, उसने जीवन का सारा रहस्य चख लिया। क्योंकि तुम्हारे भीतर स्रोत छिपा है, जड़ें छिपी हैं; तुम्हारे भीतर परमात्मा छिपा है।
‘यह आत्मा देखने, सुनने, चिंतन करने और ध्यान करने योग्य है।’ तुम अपनी जीवन की ऊर्जा को--चाहे वह देखने की हो, चाहे सुनने की हो, चाहे चिंतन करने की हो, चाहे ध्यान करने की हो--सबको भीतर लगा दो।
अभी भी तुम चिंतन तो करते ही हो, लेकिन बाहर की चीजों का करते हो। कभी दुकान, कभी बाजार, कभी मित्र, कभी शत्रु, कभी धन--अनेक समस्याएं हैं--तुम उनके चिंतन में लीन होते हो।
मैंने सुना हैः ऐसा हुआ एक दिन, एक मस्जिद में नमाज पढ़ी जा रही थी। वह बड़ा दिन था, बड़ी नमाज का दिन था। वर्ष का सबसे बड़ा उत्सव था। हजारों लोग इकट्ठे हुए थे। जो मौलवी था मस्जिद का, उसके घर एक फकीर जुन्नैद ठहरा हुआ था।
जुन्नैद कभी मस्जिद नहीं जाता था। कई बार मौलवी ने कहा भी, तो जुन्नैद हंसता और टाल जाता। जवाब न देता। लेकिन इस बड़े दिन पर, मौलवी ने कहा, ‘आज तो चलना ही पड़ेगा।’ मौलवी ने जब बहुत ही आग्रह किया तो जुन्नैद ने कहा, ‘ठीक, जैसे यहां, वैसे वहां। हमें कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन तुम्हें आनंद आता हो, तो चलो, चले चलते हैं--तुम्हारी खातिर। लेकिन ध्यान रहे, तुम भी चलना!’
वह मौलवी थोड़ा चौंका। उसने कहा, ‘मैं तो जाऊंगा ही; रोज ही जाता हूं--पांच बार।’ जुन्नैद ने कहा, ‘व्यवसाय के लिए जाना और मस्जिद में जाने में फर्क है। तुम्हारी दुकान है--मस्जिद, इसलिए तुम जाते हो; जैसे दुकानदार अपनी दुकानों में जाते हैं। अब आज मैं चल रहा हूं, तो तुम भी साथ चलना। आज तक मैंने बात न छेड़ी। तुम रोज कहते थेः चलो, चलो। लेकिन मैंने तुम्हें कभी मस्जिद जाते न देखा। इसलिए मैंने सोचा कि तुम्हारे साथ कहां जाऊं! पर आज तुम खुद अपने हाथों उलझ गए।’
‘और ध्यान रहे, चलता तो हूं, लेकिन नमाज पढ़ना, तो ही मैं साथ दूंगा अन्यथा मैं उपद्रव कर दूंगा।’ मौलवी ने सोचाः ‘नमाज तो मैं पढूंगा ही।’
इधर मौलवी ने नमाज पढ़नी शुरू की; वहां जुन्नैद खड़ा था--सामने ही, वह जोर-जोर से ऐसी आवाज करने लगा, जैसी भैंसें आवाज करती हैं। सारी मस्जिद को उसने चकित कर दिया। लोग आंख खोल-खोल कर देखने लगे। जुन्नैद बड़ा प्रतिष्ठित फकीर था--सम्मानित था। मौलवी भी थोड़ा बेचैन हुआ कि इस नासमझ को मैं कहां ले आया! और जुन्नैद बड़े जोर-जोर से आवाज करने लगा, जैसे भीतर उसके भैंस बोल रही है।
आखिर उस मौलवी ने कहा, ‘जुन्नैद, बहुत हो गया। सबकी नमाज खराब किए दे रहे हो! यह क्या खेल है? और तुमसे कभी ऐसी नासमझी की आशा न थी!’ जुन्नैद ने कहा, ‘मैंने पहले कह दिया था कि अगर तुम नमाज पढ़ोगे, तो मैं नमाज में साथ दूंगा अन्यथा मैं उपद्रव कर दूंगा। अब तुम भैंस ही भैंस के संबंध में सोच रहे हो, तो मैं क्या कर सकता हूं! मैं तुम्हारा साथ दे रहा हूं। और तुम्हीं ने कहा था कि साथ चलो।’
मौलवी चौंका। वह निश्चित ही सोच रहा था--वह भैंस के संबंध में ही सोच रहा था। बहुत दिन से भैंस खरीदना चाहता था। पैसे नहीं जुड़ रहे थे और आज बड़े दिन की नमाज पर काफी पैसे आ गए थे। तो वह हिसाब कर रहा था भीतर कि अब इतने पैसे हो गए हैं कि कल बाजार जाकर पहला काम भैंस को खरीद लेने का है। कई तरह की भैंसें दिखाई पड़ रही थीं। वह उनमें से चुन रहा था कि कौन सी खरीदूं, कौन सी न खरीदूं! कई बार भैंस-बाजार से गुजरा था, देखी थी भैंसें, लेकिन पास पैसे नहीं थे। अब पैसे हैं। तो वह उनका विचार कर रहा था।
जुन्नैद ने कहा, ‘तू सच बोल?’ उस मौलवी ने कहा, ‘मुझे माफ कर दें; भूल मेरी है। मैं जुन्नैद को गलत जगह ले आया। और जब यह जोर मारता है तो मुझे भी सच कहने को मजबूर करता है। यह बात ठीक है। मैं नमाज ऊपर-ऊपर पढ़ रहा हूं, भीतर तो भैंस का ही ख्याल चल रहा है। और आप भी आदमी हद के हैं! जब भी मैं एक भैंस का चेहरा देखता हूं, तब ही आप आवाज करने लगते हैं!’
ऐसी ही घटना नानक के साथ घटी। नानक कहते थेः हिंदू-मुसलमान सब एक, मंदिर-मस्जिद सब एक। तो एक मुसलमान ने जो गांव का नवाब था, उसने नानक को यह कहते सुनकर कहा, ‘अगर यह सच है तो आप मंदिर तो जाते हैं, लेकिन मस्जिद कभी नहीं आते। और कहते हैं कि मस्जिद मंदिर एक! तो मेरे साथ मस्जिद चलें।’ नानक ने कहा, ‘तुम चलोगे तो मैं चलूंगा।’
फकीरों की जिंदगी में अक्सर तुम्हें एक सी घटनाएं होती मिल जाएंगी। क्योंकि सभी फकीरों का स्वाद एक है। फकीरी का ढंग एक है।
कहा नानक ने ‘तुम चलोगे तो मैं भी चलूंगा।’ उसने कहाः ‘साफ बात है। मैं तो जा ही रहा हूं। आओ।’ सारे गांव के मुसलमान इकट्ठे हो गए। रास्ते में नानक ने कहाः ‘और देखो, नमाज पढ़ना, नहीं तो मैं न पढूंगा।’ उसने कहाः ‘यह क्या कहने की बात है! नमाज हम पढ़ेंगे ही!’
नानक सामने ही खड़े हैं, वे नमाज पढ़ते नहीं, झुकते नहीं। नवाब बेचैन हो गया। जल्दी-जल्दी उसने नमाज पूरी की और टूट पड़ा नानक पर, ‘सब बकवास है, सब झूठ है, कि हिंदू और मुसलमान एक हैं। फर्क तुम भी मानते हो। तुम नमाज में सम्मिलित न हुए!’ नानक ने कहाः ‘मैं क्या कर सकता था; क्या तुम नमाज पढ़ रहे थे? तुम बार-बार आंख खोल कर मुझे देख रहे थे। मुझे देखना नमाज है? कि परमात्मा को देखना नमाज है? तुम मेरे संबंध में सोच रहे थे। तुमने एक क्षण को भी परमात्मा की याद न की!’
सोच तुम भी रहे हो, चिंतन तुम भी कर रहे हो, मनन-ध्यान चल रहा है--लेकिन संसार का। ‘कात्यायिनी’ के पीछे तुम यात्रा कर रहे हो। मन को भीतर की तरफ मोड़ो। मित्र को तलाशो मन में। उस मित्र का उपयोग करना है। उसको सीढ़ी बनाना है।
याज्ञवल्क्य ने कहाः ‘मैत्रेयी, यह आत्मा देखने, सुनने, चिंतन करने और ध्यान करने योग्य है।’ शेष सब व्यर्थ है; शेष सब भटकाव है। कितना ही समय गंवाओ, कुछ सार हाथ नहीं आता। क्योंकि तुम परिधि पर ही घूमते चले जाते हो; केंद्र से संबंध ही नहीं जुड़ता।
तो सारी जीवन की ऊर्जा को जो इंद्रियों से बाहर जाती है--देखने में, सुनने में, स्वाद में--उसे मोड़ दो भीतर की तरफ। और ‘जब यह भीतर की आत्मा सुनी जाती है, विचारी जाती है, जानी जाती है, तब सब कुछ जान लिया जाता है।’
धर्म एक को जानने पर जोर देता है, विज्ञान अनेक को जानने पर जोर देता है। इसलिए विज्ञान अनेक है, धर्म एक ही है। विज्ञान शाखाओं-प्रशाखाओं में बंटता जाता है। धर्म जड़ को पकड़ता है। इसलिए वैज्ञानिक बहुत जान लेता है, फिर भी अज्ञानी रह जाता है। और धार्मिक एक को जानता है और ज्ञानी हो जाता है।
बुद्ध को, याज्ञवल्क्य को, नानक को, कबीर को क्या पता है? क्या जानते हैं वे? पर हमने उन्हें ‘महाज्ञानी’ कहा है। अगर तुम उनसे कामचलाऊ दुनिया की कुछ बात पूछो, तो तुम उन्हें निपट अज्ञानी पाओगे। तुम उनसे यह आशा मत रखना कि वे तुम्हें यह बताएंगे कि हाइड्रोजन और आक्सीजन मिल कर पानी बनता है। यह उनको पता ही नहीं है। तुम उनसे संसार की बातें मत पूछना। संसार के संबंध में उन्हें कुछ भी पता नहीं है। उनके ज्ञान का इससे कोई नाता नहीं है। उन्होंने ‘कुछ और’ जान लिया है--जिसके लिए सब कुछ जाना जाता है, उसे जान लिया है। उन्होंने मालिक को पकड़ लिया है। तुम नौकरों के पीछे दौड़ रहे हो। नौकर बहुत हैं और तुम उनको पकड़ भी लोगे तो भी कुछ पकड़ में न आएगा।
सुना है मैंनेः एक सम्राट विजय-यात्रा से वापस लौटता था। उसकी सैकड़ों पत्नियां थीं। और उसने घर खबर भेजी कि ‘मैंने बड़ी विजय की है, बड़ा साम्राज्य फैलाया है और अब मैं वापस लौट रहा हूं वर्षों के बाद।’ तो हर पत्नी को उसने पुछवाया कि ‘तू क्या चाहती है, वह तेरे लिए मैं ले आऊंगा। अब मेरे पास सुविधा है।’ सभी पत्नियों ने बड़ी फेहरिस्तें भेजीं। किसी को हीरे चाहिए थे, किसी को माणिक चाहिए थे, किसी को स्वर्ण चाहिए था, किसी को दूर देश की सुगंध चाहिए थी। किसी को कुछ, किसी को कुछ--वस्त्र। सब तरह की बातें थीं। एक पत्नी ने कोरा कागज भेजा और साथ में एक पत्र भेजा कि तुम्हारे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहिए। तुम आ जाओ घर वापस।
और ऐसा हुआ संयोग, कि जिस जहाज में यह सम्राट वापस लौटता था, वह डूब गया। और जो भी वह लेकर आया था, वह सब डूब गया। सिर्फ सम्राट ही बामुश्किल, किसी तरह किनारे लग सका। जिन पत्नियों ने संसार की चीजें मांगी थीं, उनके हाथ कुछ भी न आया। जिसने सम्राट को मांगा था, उसके हाथ सब आ गया।
आखिर में ऐसा होता है कि जब तुम्हारी नाव डूबेगी, तो सब संसार उसमें डूब जाएगा; सिर्फ मालिक बचेगा। और अगर उस मालिक को ही तुमने कभी नहीं मांगा, तो तुम दरिद्र मरोगे। अगर तुमने उस मालिक को मांगा है, उसको तुमने खोज लिया है, तो नाव डूबे, न डूबे, कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारी मालकियत नहीं छिन सकती। तुम्हारा सम्राट होना सुनिश्चित है।
मौत से सभी नावें डूब जाती हैं। ‘सिर्फ तुम’ किनारे लगोगे; बाकी कुछ भी किनारे नहीं लगेगा। क्या तुमने इकट्ठा किया, जो तुमने पाया--सब जाएगा। लेकिन तुमने अपने को तो कभी मांगा नहीं, खोजा नहीं, पूछा नहीं। जब तुम्हारा सब खो जाएगा, नाव डूबेगी, तब तुम छाती पीटोगे और रोओगे। तुम कहोगेः ‘सब गया।’ कुछ भी नहीं गया है। जो गया, वह तुम्हारा कभी नहीं था; छीना-झपटी थी। जो तुम्हारा सदा था, उस पर तुमने आंख न की थी, उसे तुमने कभी पहचाना न था।
इसलिए याज्ञवल्क्य कहता हैः ‘उस एक को जान लेने से सब कुछ जान लिया जाता है।’ मैत्रेयी, अगर तू अमृत को जानना चाहती है, तो उस एक को जान ले, जो तेरे भीतर छिपा है। अगर सुख-चैन से रहना चाहती है, तो इस संसार की सारी चीजें हैं, वे सुख-चैन दे सकती हैं। लेकिन उनसे कभी सच्चिदानंद नहीं मिला है, उनसे कभी अमृत नहीं मिला है।
और याज्ञवल्क्य की बात समझ में आई होगी मैत्रेयी को, क्योंकि याज्ञवल्क्य अनुभव से गुजर कर कह रहा है। वह उस सब कुछ को छोड़ कर जा रहा है, जिसे कचरा पाया है। पूरी नाव को खुद ही छोड़ रहा है। भरा हुआ जहाज खुद ही छोड़ रहा है। उसकी तलाश में जा रहा है--सारा ध्यान उसको देना चाहता है--जो केंद्र है।
कहते हैंः मैत्रेयी भी उसकी यात्रा में संलग्न हो गई। कहते हैंः उसने भी उसे पा लिया--जिसे याज्ञवल्क्य ने पाया। कात्यायिनी कहां भटक गई, उसकी कोई खबर नहीं है।
तुम ‘कात्यायिनी जैसे’ मत बनना। भीतर ‘मैत्रेयी’ को जन्माना, ताकि एक दिन तुम उसे पा लो, जिसे पाए बिना सब पाया हुआ व्यर्थ है, और जिसे पाकर अगर सब खो भी जाए, तो कुछ भी नहीं खोता है।

आज इतना ही।  

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