पांचवां प्रवचन-सरल सत्य
मेरे प्रिय आत्मन्!विगत वर्ष दुनिया के बायोलाजिस्टों की, जीवशास्त्रियों की एक कांफ्रेंस में ब्रिटिश बायोलाजिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष बादकुन ने एक वक्तव्य दिया था। उस वक्तव्य से ही मैं आज की थोड़ी सी बात शुरू करना चाहता हूं। उन्होंने उस वक्तव्य में बड़ी महत्वपूर्ण बात कही, जो एक वैज्ञानिक के मुंह से बड़ी अदभुत बात है। उन्होंने कहा कि मनुष्य के जीवन का विकास किन्हीं नई चीजों का संवर्धन नहीं है, नथिंग न्यू एडेड, वरन कुछ पुरानी बाधाओं का गिर जाना है, ओल्ड हिंडरेंसेस गॉन। मनुष्य के विकास में कुछ जुड़ा नहीं है, मनुष्य के भीतर जो छिपा है... कोई भी चीज प्रकट होती है, तो सिर्फ बीच की बाधाएं भर अलग होती हैं। पशुओं में और मनुष्य में विचार करें, तो मनुष्य के भीतर पशुओं से कुछ ज्यादा नहीं है, बल्कि कुछ कम है। पशु के ऊपर जो बाधाएं हैं, वे मनुष्य से गिर गई हैं; और पशु के भीतर जो छिपा है, वह मनुष्य में प्रकट हो गया है।
एक बीज में और फूल में, फूल में बीज से ज्यादा नहीं है, कुछ कम है। यह बहुत उलटा मालूम होता है, लेकिन यही सच है। बीज में जो बाधाएं थीं, वे गिर गई हैं और फूल प्रकट हो गया है। पौधों में पशुओं से कुछ ज्यादा है, बाधाएं ज्यादा हैं, हिंडरेंसेस ज्यादा हैं। वे गिर जाएं तो पौधे पशु हो जाएंगे। पशुओं की बाधाएं गिर जाएं तो पशु मनुष्य हो जाएंगे। मनुष्यों की बाधाएं गिर जाएं, फिर जो शेष रह जाता है, उसका नाम परमात्मा है।
अगर समस्त बाधाएं गिर जाएं और जो छिपा है वह पूरी तरह से प्रकट हो जाए, तो उस शक्ति को हम जो भी नाम देना चाहें--आत्मा, परमात्मा, या कोई भी नाम न देना चाहें तो भी चल सकता है। मनुष्य में भी अभी बाधाएं मौजूद हैं, इसलिए मनुष्य के विकास की अभी संभावना है।
बादकुन को अध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन उसका वक्तव्य ठीक वैसा ही है, जैसा पच्चीस सौ वर्ष पहले बुद्ध ने अपने ज्ञान की घटना के समय दिया था।
जिस दिन बुद्ध को पहली बार ज्ञान हुआ तो लोगों ने उनसे पूछा, आपको क्या मिल गया है? तो बुद्ध ने कहा, मुझे मिला कुछ भी नहीं, जो मेरे ही भीतर था वह प्रकट हो गया है। मुझे मिला कुछ भी नहीं, जो मेरे ही पास था, मुझे ज्ञात हो गया है। मुझे मिला तो कुछ भी नहीं, जो मैं था ही और जिसके प्रति मैं सोया था, उसके प्रति मैं जाग गया हूं। बल्कि बुद्ध ने यह भी कहा कि तुम्हें मैं यह भी कह दूं कि कुछ मेरे पास था जरूर जो खो गया है। अज्ञान था, वह खो गया है; नासमझी थी, वह खो गई है। और जो मुझे मिला है, अब मैं कह सकता हूं, वह मेरे पास था ही, लेकिन सिर्फ मैं अपरिचित था।
बादकुन और बुद्ध के वक्तव्यों में फर्क नहीं है। लेकिन बादकुन का वक्तव्य मनुष्य से पिछड़े हुए प्राणियों के संबंध में दिया गया है और बुद्ध का वक्तव्य मनुष्य से आगे गए व्यक्तित्वों के संबंध में दिया गया है।
ध्यान की प्रक्रिया आपको किसी नये जगत में नहीं ले जाती, सिर्फ उसी जगत से परिचित करा देती है जहां आप जन्मों-जन्मों से हैं ही। ध्यान की प्रक्रिया आपमें कुछ जोड़ती नहीं है, कुछ गलत काट देती है, गिरा देती है, समाप्त कर देती है।
एक मूर्तिकार को कोई पूछ रहा था कि तुमने यह मूर्ति बहुत सुंदर बनाई! तो उस मूर्तिकार ने कहा, मैंने बनाई नहीं है, मैं तो उस रास्ते से गुजरता था और इस पत्थर में छिपी मूर्ति ने मुझे पुकार लिया। मैंने जो व्यर्थ पत्थर इसमें जुड़े थे, उन्हें भर अलग कर दिया है और मूर्ति प्रकट हो गई। मैंने कुछ जोड़ा नहीं, कुछ घटाया है। बेकार पत्थर जो मूर्ति के चारों तरफ जुड़े थे, उन्हें मैंने छांट दिया है और मूर्ति जो छिपी थी वह प्रकट हो गई।
मनुष्य के भीतर जो छिपा है, कुछ गलत जुड़ा है, उसे काट देने से प्रकट हो जाता है। परमात्मा मनुष्य से भिन्न कुछ नहीं है, मनुष्य के भीतर छिपी ऊर्जा, एनर्जी का नाम है। लेकिन जैसे हम हैं, उसमें बहुत मिट्टी मिली है सोने में। थोड़ी मिट्टी छंट सके तो सोना प्रकट हो सकता है।
तो ध्यान के संबंध में पहली बात जो मैं आपको कह दूं वह यह कि आप अपने ध्यान के विकास में अंतिम क्षणों में भी जो होंगे, वह आप अभी, इस क्षण में भी हैं। ध्यान आप में कुछ जोड़ नहीं जाएगा, सिर्फ घटा जाएगा। आपसे कुछ गलत को काट जाएगा, कुछ व्यर्थ को अलग कर जाएगा। और जो सार्थक है वह पूरी तरह से प्रकट होने की सुविधा पा सकेगा। नथिंग समथिंग न्यू एडेड--नहीं कुछ नया जुड़ेगा, सिर्फ पुरानी बाधाएं गिर जाएंगी।
इन बाधाओं को गिराने के लिए जो प्रयोग हम चार दिन यहां करने वाले हैं, वे बहुत वाइटल, बहुत प्राणवान प्रयोग हैं। और जो लोग भी, जो मित्र भी ईमानदारी से उसे करने को राजी होंगे, उनके लिए परिणाम होने सुनिश्चित हैं।
ईमानदारी शब्द को थोड़ा समझ लेना उचित होगा। ईमानदारी से मेरा अर्थ है कि जो सच में ही करेंगे, उनका परिणाम निश्चित है। सिर्फ उन्हीं के लिए परिणाम नहीं हो सकेगा जो करेंगे ही नहीं। उनके लिए परिणाम की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। और किसी पात्रता के लिए मैं आपसे नहीं कह रहा हूं। और दूसरी किसी क्वालिफिकेशन की जरूरत नहीं है। सिर्फ एक पात्रता चाहिए कि जो मैं आपसे कहूंगा इन चार दिनों में, वह आप करें। और जो मैं करने को कहने वाला हूं, वह कठिन नहीं है, बहुत सरल है, छोटे से छोटा बच्चा भी उसे कर सकता है। इसलिए आप यह भी न सोचें कि इतना कठिन हो कि हम न कर पाएं। नहीं, कठिनाई अगर होगी तो वह आपके अपने प्रति बेईमान होने में हो सकती है। मेथड में, विधि में कोई कठिनाई नहीं है। छोटे से छोटा बच्चा, जो भाषा समझ सकता है, वह भी कर सकता है। सिर्फ आपके सहयोग की जरूरत है कि आप करें।
तो मैं आपको प्रयोग समझा दूं, सरल सा प्रयोग है। सभी महत्वपूर्ण चीजें सरल होती हैं, सिर्फ गैर-महत्वपूर्ण चीजें कठिन और जटिल होती हैं। सभी सत्य सरल होते हैं, सिर्फ असत्य जटिल और कांप्लेक्स होते हैं।
लेकिन हम अजीब लोग हैं! अगर कोई चीज हमें बहुत कठिन और जटिल मालूम पड़े, तो हम सोचते हैं, बहुत प्रोफाउंड ट्रुथ होगा, कोई बहुत गंभीर सत्य होना चाहिए।
ऐसा नहीं है। जीवन के सब सत्य दो और दो चार जैसे सरल हैं। सिर्फ असत्य कठिन होते हैं। असत्य को कठिन होना पड़ता है, क्योंकि अगर असत्य सरल हो तो पकड़ में आ जाएगा कि असत्य है। असत्य को बहुत चालबाजियों में, गोल घेरों में घूमना पड़ता है, ताकि यह पता न चले कि वह असत्य है। सत्य सीधा और नग्न खड़ा हो जाता है। वह जैसा है, वैसा ही पर्याप्त है। उसे छिपने की, मुंह छिपाने की, चेहरे बदलने की कोई भी जरूरत नहीं है।
इसलिए दुनिया में जितनी कठिन बातें कही गई हैं, आमतौर से असत्य हैं। दुनिया में जितनी सत्य बातें कही गई हैं, आमतौर से सरल और सीधी हैं। चाहे उपनिषद हों, चाहे गीता हो, चाहे कुरान हो, चाहे बाइबिल, चाहे बुद्ध और महावीर के वचन, वे बिल्कुल सीधे--दो और दो चार की भांति हैं।
यह जो प्रयोग मैं आपसे कहता हूं, अत्यंत सरल है। परिणाम इसके बहुत हैरानी से भरने वाले हैं। इस प्रयोग में चार चरण हैं दस-दस मिनट के। पहले तीन चरण में कुछ आपको करना है और चौथे चरण में आपको कुछ भी नहीं करना है, परमात्मा की शक्ति कुछ करे, इसके लिए सिर्फ प्रतीक्षा करनी है। पहले तीन चरण में पहले दस मिनट तीव्र श्वास का प्रयोग है। दस मिनट इस भांति श्वास लेनी है जैसे कि लोहार की धौंकनी चलती हो--जितनी फास्ट हो सके, जितने जोर से श्वास की चोट भीतर पहुंचाई जा सके। श्वास का उपयोग हैमरिंग की तरह करना है।
उसके परिणाम हैं। एक तो जितने जोर से भीतर श्वास की चोट की जाती है, हमारे शरीर में छिपी हुई प्राण-ऊर्जा जगती है। शायद आपको पता न हो कि हम सबके शरीरों में--हमारे शरीर में ही नहीं, जीवन के समस्त रूपों में--जो ऊर्जा छिपी है, वह विद्युत का ही रूप है, इलेक्ट्रिसिटी का ही रूप है। हमारा शरीर भी चल रहा है जिस शक्ति से, वह विद्युत का ही रूप है। वह आर्गनिक इलेक्ट्रिसिटी उसे हम कहें, वह जीवंत विद्युत है। इस विद्युत को जितनी ज्यादा आक्सीजन मिले, उतनी तीव्रता से जगती है। इसलिए बिना आक्सीजन के आदमी मर जाएगा। और बिल्कुल मरते हुए आदमी को भी अगर आक्सीजन दी जा सके तो हम उसे थोड़ी-बहुत देर जिंदा रख सकते हैं।
इस दस मिनट में इतने जोर से श्वास लेनी है कि आपके भीतर की सारी वायु बाहर चली जाए और बाहर से ताजी वायु भीतर चली आए। आपके शरीर के भीतर आक्सीजन का अनुपात बदल डालना है। वह अपने आप बदल जाता है। और चोट इतने जोर से करनी है कि शरीर में जो शक्ति सोई हुई है, वह उठने लगे।
पांच मिनट के प्रयोग में ही कोई साठ परसेंट लोगों के शरीरों के भीतर कंपन शुरू हो जाएगा। वह आपको बहुत स्पष्ट मालूम पड़ने लगेगा कि कोई चीज वाइब्रेट करती हुई उठने लगी है। योग ने उसे कुंडलिनी कहा है। अगर हम विज्ञान से पूछेंगे तो उसे वह बॉडी इलेक्ट्रिसिटी कहेगा। वह कहेगा, वह शरीर की विद्युत है।
अभी अमेरिका में एक आदमी है, जिसके शरीर की विद्युत से बहुत अदभुत प्रयोग हुए हैं। उसके शरीर की विद्युत सामान्यतया ज्यादा है, जितनी आमतौर से होती है। वह एक विशेष प्रकार की श्वास का प्रयोग करने के बाद हाथ में पांच कैंडल का बल्ब लेकर उसने जला दिया। स्वीडन में अभी एक स्त्री जिंदा है, जिसे कोई भी छू नहीं सकता। उस स्त्री का विवाह नहीं हो सका। क्योंकि उसको छूने से शॉक वैसा ही लगेगा जैसा कि विद्युत को छूने से लगता है।
ये थोड़े से इनके शरीर में विशेष विद्युत है और केमिकली थोड़े से फर्क हैं, इसलिए ऐसा परिणाम है। लेकिन विद्युत हम सबके शरीर में है। और अभी पहले दिन ही कम से कम साठ प्रतिशत लोगों को--सौ प्रतिशत को हो सकता है, कोई कारण नहीं है। लेकिन चालीस प्रतिशत आमतौर से प्रयोग नहीं कर पाते, पीछे खड़े रह जाते हैं, ऐसा मेरा अनुभव है, इसलिए साठ की बात कह रहा हूं। लेकिन आपमें से प्रत्येक से कहूंगा कि साठ प्रतिशत में होना, चालीस प्रतिशत में मत होना।
पांच मिनट के बाद ही आपके शरीर के भीतर कोई चीज कंपती हुई उठती हुई मालूम पड़ने लगेगी। शरीर एक नई शक्ति से भरता हुआ मालूम पड़ने लगेगा। दस मिनट पूरा प्रयोग करने पर आप इलेक्ट्रिफाइड हालत में हो जाएंगे। सारा शरीर विद्युत का एक प्रवाह बन जाएगा। स्वभावतः इसके परिणाम होंगे। जब शरीर में जोर से वाइब्रेशंस होंगे तो शरीर कंपने लगेगा, डोलने लगेगा, नाचने लगेगा।
दूसरा जो प्रयोग है दस मिनट का, वह शरीर को डोलने, नाचने या शरीर को जो भी करना है उसे करने की पूरी छूट दे देने का है। उसके परिणाम कैथार्टिक हैं।
हमने अपने शरीर में न मालूम कितने तरह के दमन कर रखे हैं। मन में भी बहुत तरह के सप्रेशंस कर रखे हैं। जो व्यक्ति भी ध्यान में जाना चाहता है, उसे पहले इन दमनों से मुक्त हो जाना जरूरी है। क्रोध आया है, हम क्रोध को पी गए हैं। वासना आई है, हमने वासना को दबा लिया है। चिंता आई है, हम चिंता को पीकर सो गए हैं। हमने न मालूम कितना मन में छिपा लिया है। जब रोना चाहा है तो रोए नहीं; हंसना चाहे हैं तो हंसे नहीं; चिल्लाना चाहे हैं तो चिल्लाए नहीं; नाचना चाहे हैं तो नाचे नहीं। वह सब हमने दबाया हुआ है। मन और शरीर दोनों में हजार तरह के दमन इकट्ठे हो गए हैं। वे दमन न गिर जाएं तो मन इतना हलका नहीं हो सकता कि उड़ान भर सके।
इसलिए दूसरे दस मिनट में शरीर के साथ पूरी की पूरी स्वतंत्रता और सहयोग करना है। शरीर नाचना चाहे तो उसे पूरी तरह नाचने देना है, चिल्लाना चाहे तो चिल्लाने देना है, रोना चाहे तो रोने देना है। शरीर जो भी करना चाहे--सिर्फ अपने शरीर के साथ, दूसरे शरीर के साथ नहीं--अपने शरीर के साथ जो भी करना चाहे, उसे पूरी स्वतंत्रता और सहयोग दे देना है।
कोई साठ प्रतिशत लोग अचानक अपने भीतर बहुत कुछ होता हुआ पाएंगे। जिन मित्रों को ऐसा लगे कि उनके भीतर तो कुछ भी नहीं हो रहा है, तो उनसे मैं कहूंगा कि वे आज कम से कम--जिनको अपने आप हो जाएगा उनका प्रश्न नहीं है, अधिक लोगों को अपने आप हो जाएगा--जिनको लगे कि उनको अपने आप नहीं हो रहा है, तो उसका कारण कुल इतना ही है कि वे इनहीबीशंस में, अपने दमन में इतने मजबूत हैं कि बीच की पर्त उन्हें भीतर तक नहीं पहुंचने दे रही है। तो उनसे मैं कहूंगा कि वे इसकी फिकर न करें, उनको न हो रहा हो तब भी जो उनसे बन सके वे दस मिनट करें। अगर उनसे नाचते बन सके तो वे नाचते रहें। कोई विधि, व्यवस्था और गति की बात नहीं है। उनसे चिल्लाते बन सके तो वे चिल्लाते रहें। कल ही वे पाएंगे कि उनकी धारा टूट गई और स्पांटेनियस उनके भीतर से प्रवाह शुरू हो गया।
इस दस मिनट के बहुत गहरे परिणाम हैं। इस दस मिनट के नाचने, चिल्लाने, डोलने, रोने-हंसने के बाद आप इतने हलके हो जाएंगे, जैसे शायद आप जीवन में कभी भी नहीं हुए। पहले चरण में आपके शरीर में जो विद्युत जगेगी, वह आपको सहयोग देगी। नाचने में, चिल्लाने में, रोने में, हंसने में वह आपको सहयोग देगी। और आपको भी अपनी तरफ से कोआपरेट करना है और जो भी आपके भीतर हो उसको पूरी तरह होने देना है। अगर आपका हाथ इतना हिल रहा है तो आप उसे और पूरी तरह हिला दें--कि हाथ के भीतर जो भी वेग दमित हैं, वे निष्कासित हो जाएं, उनकी निर्जरा हो जाए। इस प्रयोग से चार दिन में इतना हो सकेगा जो कि चार वर्ष में किसी साधारण प्रयोग से नहीं हो सकता।
दूसरे चरण के बाद आपका शरीर वेटलेस मालूम होगा, जैसे बिल्कुल हलका हो गया है, जैसे उड़ सकता है। दोहरी बातें मालूम होंगी। पहले चरण के बाद शरीर शक्ति से भरा हुआ मालूम होगा। दूसरे चरण के बाद शक्ति पूरी मालूम होगी, लेकिन शरीर एकदम वेटलेस और हलका हो गया होगा। दूसरे चरण के बाद आपको स्पष्ट ऐसा लगना शुरू हो जाएगा कि शरीर नहीं है, बल्कि सिर्फ एनर्जी है, सिर्फ ऊर्जा है, सिर्फ शक्ति है।
इस दूसरे चरण में जिसका भी प्रयोग पूरा हो जाएगा, उसको एक हैरानी का अनुभव होगा और वह होगा कि उसे पहली दफे मालूम पड़ना शुरू होगा कि शरीर अलग है और मैं अलग हूं। अगर आपने अपने शरीर को पूरा छोड़ दिया तो आपकी आइडेंटिटी टूट जाएगी। यह आज भी हो जाएगा। सिर्फ सवाल इतना है कि आप उसको पूरा कोआपरेट करें। आप अपनी तरफ से रोकें न। आप यह न सोचें कि मैं नाचूंगा तो कोई क्या कहेगा! मैं चिल्लाऊंगा तो कोई क्या कहेगा! जो आपके भीतर हो रहा है, उसे आप बिल्कुल सबकी फिकर छोड़ कर हो जाने दें। तो आप दस मिनट के भीतर, जो निरंतर सुना है, पढ़ा है कि शरीर और मैं अलग हूं, वह आपके अनुभव का हिस्सा बन जाएगा। नाचता हुआ शरीर आपको अलग दिखाई पड़ने लगेगा, आप साक्षी हो जाएंगे कि शरीर नाच रहा है, आप साक्षी हो जाएंगे कि शरीर रो रहा है। आप बहुत साफ देख सकेंगे कि कोई और हंस रहा है और मैं देख रहा हूं। यह प्रतीति ध्यान की गहराई में ले जाने के लिए अनिवार्य द्वार है। इसके बिना कोई ध्यान में नहीं जा सकता।
तीसरे चरण में--जब दूसरे चरण में यह घटना घट जाएगी कि शरीर अलग और मैं अलग, तो एक स्वाभाविक प्रश्न मन में उठना शुरू होगा कि फिर मैं कौन हूं? क्योंकि अब तक मैं अपने को शरीर मानता हूं, श्वास मानता हूं। अब शरीर और श्वास बिल्कुल अलग दिखाई पड़ रहे हैं--फिर मैं कौन हूं? इस तीसरे चरण में दस मिनट तक हम अपने भीतर पूछेंगे कि मैं कौन हूं?
पहले दस मिनट में तीव्र श्वास। दूसरे दस मिनट में शरीर के साथ तीव्र सहयोग। और तीसरे चरण में ‘मैं कौन हूं?’ की तीव्र वर्षा। भीतर इतने जोर से पूछना है कि पैर से लेकर सिर तक एक ही सवाल गूंजने लगे कि मैं कौन हूं? और शरीर की विद्युत जगी हुई होगी, आपके सवाल को विद्युत की तरंगें पकड़ लेंगी और पूरे शरीर के कंपन में प्रश्न गूंजने लगेगा--मैं कौन हूं? इसे इतने जोर से पूछना है कि दो ‘मैं कौन हूं?’ के बीच में जगह न बचे। इसे इतनी शक्ति से पूछना है कि कुछ और सोचने का न समय बचे, न शक्ति बचे, न सुविधा बचे, बस ये दस मिनट एक सवाल रह जाए। पांच मिनट तेजी से भीतर पूछने के बाद बहुत से मित्रों की आवाज बाहर निकलने लगेगी, तो उससे भयभीत नहीं होना है। ‘मैं कौन हूं?’ शुरू भीतर करना है। अगर चिल्ला कर बाहर आवाज निकलने लगे तो उसे बाहर भी निकलने देना है, उसकी कोई फिकर नहीं करनी है।
तीस मिनट में आपका शरीर थक जाएगा, आपकी प्राणशक्ति थक जाएगी, आपकी मनःशक्ति थक जाएगी। ये तीन चरण तीनों को थका डालेंगे। और तीस मिनट में इतनी क्लाइमेक्स तक आपको पहुंच जाना है तनाव की, टेंशन की, इतने जोर से यह सब करना है कि तीस मिनट में जैसे आप बिल्कुल मुर्दा होकर गिर पड़े।
तीस मिनट बाद मैं आपको कहूंगा कि बस, अब रुक जाएं! कोई बैठा होगा, कोई गिर गया होगा, कोई खड़ा होगा। जो जैसा होगा वह वैसा ही रह जाएगा। उस समय आपको अपनी तरफ से कुछ नहीं करना है। गिर गए हैं तो गिरे रह जाएंगे; बैठे हैं तो बैठे रह जाएंगे; खड़े हैं तो खड़े रह जाएंगे। ऐसा नहीं कि आप खड़े हैं तो बैठ जाएं अपनी तरफ से। उस समय जो हालत आपकी हो, आप उसी में रह जाएंगे। और दस मिनट सिर्फ प्रतीक्षा करेंगे कि क्या हो रहा है।
उस दस मिनट में बहुत से अनुभव होंगे। उस दस मिनट में शांति का अनुभव तो सहज ही सभी को होगा। आधे से ज्यादा मित्रों को आनंद की भी प्रतीति होगी। उससे भी ज्यादा मित्रों को प्रकाश का अनुभव होगा। कुछ मित्रों को रंगों के अनुभव होंगे। कुछ मित्रों को सुगंध का अनुभव होगा। बहुत थोड़े से, एक-दो मित्रों को, स्वाद का अनुभव होगा। और फिर भी भिन्न-भिन्न अनुभव प्रत्येक को होंगे।
इन अनुभव की धारा भीतर बहने लगेगी, उसे साक्षी-भाव से देखते रहना है। ये अनुभव आध्यात्मिक नहीं हैं, ये अनुभव मानसिक ही हैं। लेकिन अध्यात्म की तरफ गति हो रही है, इसके ये सूचक हैं। ये भी खो जाएंगे, कुछ मित्रों के चार दिन में भी खो जाएंगे, सिर्फ शून्य रह जाएगा। और उस शून्य में, जिसे हम निराकार परमात्मा कहें, ब्रह्म कहें, आत्मा कहें--उसके लिए क्या शब्द प्रयोग किया जाए--उसकी अनुभूति, उसका स्वाद, उसका रस अनुभव में आना शुरू होगा।
यह सहज हो जाएगा अगर आपने तीन चरण पूरे किए--ऑनेस्टली, ईमानदारी से। क्योंकि वह आपकी जानकारी की बात है, उसका दूसरे से कोई संबंध नहीं है। आप खड़े रह सकते हैं। पैर नाचना चाहें, आप न नाचें, तो पैर रुके रह जाएंगे। प्राण चिल्लाना चाहें, आप न चिल्लाएं, तो नहीं चिल्लाएंगे, रुके रह जाएंगे। आप धीरे-धीरे ‘मैं कौन हूं?’ मुर्दे की तरह भीतर पूछते रहें, तो वह गति पैदा नहीं हो पाएगी जो जरूरी है।
पानी को भाप बनना हो तो सौ डिग्री तक गरम करना जरूरी है, तब वह भाप बनता है। अट्ठानबे डिग्री पर भी भाप नहीं बनता, निन्यानबे डिग्री पर भी भाप नहीं बनता। आप परमात्मा से यह नहीं कह सकते कि सिर्फ एक डिग्री के लिए इतनी ज्यादती क्यों कर रहे हैं? निन्यानबे डिग्री हो गया है, भाप बना दें, एक ही डिग्री की तो बात है! निन्यानबे डिग्री तक आ गए, एक डिग्री की इतनी कंजूसी क्यों कर रहे हैं? लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सौ डिग्री पर ही पानी भाप बनेगा। अगर निन्यानबे डिग्री तक भी जाकर आप रुक गए तो गरम पानी ही रह कर वापस ठंडे हो जाएंगे।
ठीक प्रत्येक के भीतर एक क्लाइमेक्स की स्थिति है, जहां से जीवन में ऊर्ध्वगमन शुरू होता है, जहां से क्रांति शुरू होती है, जहां से म्यूटेशन शुरू होता है, जहां से व्यक्ति मिटता है और परमात्मा शुरू होता है। अगर आप उस सौ डिग्री तक नहीं पहुंचते, तो आप वापस नीचे गिर जाएंगे और मेहनत बिल्कुल व्यर्थ हो जाएगी, उसका कोई अर्थ नहीं रह जाएगा।
इसलिए मैं आपसे कहूंगा कि ईमानदारी से जो मैं कहूं उसे पूरा करके देख लें। इसमें श्रद्धा की कोई भी जरूरत नहीं है। एक हाइपोथेटिकल एक्सपेरिमेंट करके देख लें, कि हम देखें इससे क्या हो सकता है? चार दिन करके देख ही लें।
और जो लोग भी ईमानदारी से करेंगे वे श्रद्धा को उपलब्ध हो जाएंगे। श्रद्धा पहले से जरूरी नहीं है। आपको विश्वास करने की जरूरत नहीं है कि जो मैं कह रहा हूं वह होगा ही। आप तो इतना ही मान कर चलें कि यह व्यक्ति कुछ कह रहा है, इसे करके देख लें। हो तो ठीक, न हो तो समझें कि गलत है।
और अगर आप ने किया तो होना वैसे ही निश्चित है, जैसे सौ डिग्री पर पानी गरम हो जाता है। किसी के विश्वास की जरूरत नहीं है। विश्वास से पानी गरम नहीं होता। आप चाहे अविश्वासी हों, नास्तिक हों, कोई फर्क नहीं पड़ता। पानी गरम करिए, सौ डिग्री पर भाप बनेगा।
मैं जिस ध्यान की बात कर रहा हूं, वह बिल्कुल साइंटिफिक बात है। आप नास्तिक हों, ईश्वर को न मानते हों, आत्मा को न मानते हों, धर्म को न मानते हों, कोई हर्जा नहीं, मानने की कोई जरूरत ही नहीं। आप प्रयोग को करें, और आप पाएंगे कि उस प्रयोग के अनुभव से आपके भीतर फर्क होना शुरू हो गया है। श्रद्धा, ध्यान का फल है; प्राथमिक शर्त नहीं है, वह आखिरी परिणाम है। पहली शर्त नहीं है।
आपने समझ लिया। दो-तीन बातें और आपसे कह दूं, फिर हम प्रयोग के लिए खड़े हों। जो लोग बीमार हों और अशक्त हों, वे लोग भर बैठ कर प्रयोग करेंगे, बाकी सारे लोग खड़े होकर ही प्रयोग करेंगे। खड़े होकर जल्दी परिणाम होते हैं, बैठ कर जल्दी परिणाम नहीं होते हैं। सारे लोग फासले पर खड़े होंगे, यहां तो जगह काफी है, दूर-दूर फैल जाएंगे फासले पर, ताकि आप नाचने लगेंगे तो किसी को आपके द्वारा धक्का न लगे और किसी को धक्का लग जाए तो उसकी परेशानी नहीं लेनी है।
दूसरी बात--जैसे ही प्रयोग शुरू होगा, उसके पहले दो बातें हैं--मैं आपको आंख बंद करने के लिए कहूंगा और यह आंख चालीस मिनट तक बंद रखनी है। यह आपका पहला संकल्प होगा। उसे भी ईमानदारी से निभाना है। एक दफे भी आंख खोली तो नुकसान होगा। आपके भीतर जो ऊर्जा इकट्ठी होगी, वह व्यर्थ खराब हो जाएगी। हमारे भीतर की शक्ति का अधिक हिस्सा हमारी आंख से बिखरता है। इसलिए चालीस मिनट आंख बिल्कुल ही बंद रखनी है। जब तक मैं न कहूं तब तक आपको आंख नहीं खोलनी है। आपके आस-पास चिल्लाना होगा, रोना होगा, नाचना होगा--आपके भीतर होगा--आपको फिकर छोड़ देनी है।
देखने की इच्छा होगी। हमारे भीतर का बच्चा जल्दी नहीं मर जाता। जितनी जल्दी शरीर बदल जाता है, उतनी जल्दी भीतर का बच्चा नहीं मर जाता। वह जानना चाहेगा कि बगल का आदमी क्या कर रहा है?
तो उसके लिए मैंने फिल्म बुलवा ली है। अभी आज ही बनी है। तो रात आपको फिल्म दिखा देंगे, उसमें आप पूरा देख लेंगे कि कौन क्या कर रहा है। तो आपकी जिज्ञासा तृप्त हो जाएगी। इसलिए आप अभी फिकर न करेंगे कि कौन क्या कर रहा है, किसको क्या हो रहा है। रात में फिल्म देख लेंगे।
यहां देखने वाला कोई भी नहीं रुकेगा। अगर किसी को सिर्फ देखना हो, तो वह यहां कैंपस के बाहर हो जाएगा--या तो वह दूर पीछे चला जाएगा, लेकिन यहां नहीं बैठ सकेगा। यहां एक भी आदमी, जो ध्यान नहीं कर रहा हो, उसे अलग हो जाना है। उसकी मौजूदगी हमारे सब मित्रों को बाधा बनेगी। उसे यहां से हट जाना है। न केवल आपके भीतर विद्युत पैदा होती है, पूरा एटमास्फियर चार्ज्ड होता है। उसमें एक आदमी भी अगर व्यर्थ खड़ा है, तो वह नुकसान करता है और वह चेन को तोड़ता है। उसकी यहां जरूरत नहीं है। इसलिए वह ख्याल से, जिनको भी नहीं करना हो, वे यहां खड़े नहीं रहेंगे, वे चुपचाप चले जाएंगे।
ये कुर्सियां जो हैं, ये आप उठेंगे और कुर्सियां हटा दें वहां से पीछे, क्योंकि उन पर कोई गिर जाएगा तो तकलीफ होगी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें