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शनिवार, 17 नवंबर 2018

अमृत वर्षा-(प्रवचन-01) 

अमृत वर्षा-(विविध) 

पहला प्रवचन-सत्य का दर्शन

 मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा शुरू करना चाहूंगा।
एक बड़ी राजधानी में राजमहल के द्वार पर बड़ी भीड़ लगी हुई थी। भीड़ सुबह से लगनी शुरू हुई थी और बढ़ती ही जा रही थी। जो भी आदमी आया था, वह ठहर गया था और वापस नहीं लौटा था। मैं भी भटकते हुए उस राजधानी में पहुंच गया था। और मैं भी उस भीड़ में खड़ा हो गया। कुछ बड़ी अजीब घटना उस दिन घट गई थी। इसलिए सारे नगर से लोग उसी महल की तरफ भागे हुए आ रहे थे। ऐसी तो कोई बड़ी अजीब बात न थी। सुबह ही एक भिखारी ने आकर उस द्वार पर भिक्षा मांगी थी। रोज ही सुबह द्वार पर भिखारी भिक्षा मांगते हैं, अभी वैसी दुनिया तो नहीं आ पाई जब भिखारी नहीं होंगे। इसलिए कोई बहुत अजीब बात न थी। लेकिन भिखारी ने न केवल भिक्षा मांगी, अपना भिक्षा पात्र राजा के सामने फैलाया, बल्कि उसने एक शर्त भी रखी। भिखारी कोई शर्त रखे, यह आश्चर्य की बात थी। देने वाला शर्त रखे, यह तो ठीक है। लेने वाला भी शर्त रखे, यह जरूर आश्चर्य की बात थी। और शर्त भी बड़ी अनूठी थी।

देखने में तो बहुत सरल बात मालूम पड़ी थी। और राजा उस शर्त के लिए राजी हो गया था। लेकिन पूरा करना बहुत कठिन हो रहा था।


उस भिखारी ने कहा था कि मैं एक ही शर्त पर भिक्षा लूंगा, और वह शर्त यह है कि मेरा भिक्षा पात्र पूरा भर दिया जाए। मैं अधूरा पात्र लेकर नहीं लौटूंगा। राजा के अहंकार को हंसी आ गई थी। और राजा ने कहा था तुम पागल हो? शायद तुम्हें पता नहीं तुम किसके द्वार पर भिक्षा मांग रहे हो? अगर तुम खुद अधूरा पात्र लेकर लौटना चाहते तो भी मैं तुम्हें अधूरा पात्र भरा हुआ लौटने न देता। शर्त रखने की कोई बात नहीं है। और उसने अपने वजीरों को कहा अब अन्न से भरना इसका पात्र ठीक न होगा, स्वर्ण-मुद्राओं से भर दो। उस भिखारी ने फिर कहाः एक बार सोच लें क्योंकि और राजा भी मुसीबत में पड़ चुके हैं। यह शर्त मैंने पहली बार नहीं रखी और द्वारों पर भी रखी है, और आज तक कोई भी द्वार मेरे पात्र को पूरा नहीं भर सका है। राजा हंस पड़ा, बात पर ध्यान देने की उसने जरूरत न समझी, और वजीर को कहा कि जाओ स्वर्ण अशर्फियों से पात्र भर दो। वजीर स्वर्ण अशर्फियां लाया, उसने वे पात्र में डालीं, छोटा सा पात्र था, लेकिन बड़ी अदभुत घटना घटी, पात्र में गिरते ही वे अशर्फियां न मालूम कहां विलीन हो गई? पात्र खाली का खाली रह गया। और तब भीड़ उस द्वार पर बढ़ने लगी थी। मैं भी उस भीड़ में जाकर खड़ा हो गया था। दोपहर हो गई, भिक्षु का छोटा सा पात्र राजा की बहुत बड़ी तिजोरिया न भर सकीं। सांझ होने लगी, सम्राट की तिजोरियां खाली हो गई, लेकिन भिक्षु का पात्र नहीं भरा, नहीं भरा। और तब जो सम्राट किसी से भी कभी हारा न था, वह उस भिखारी से हार गया और उसके पैरों पर गिर पड़ा और उसने क्षमा मांगी कि भूल हो गई है मुझसे, मैं क्षमा चाहता हूं; और आज मुझे एक बड़े सत्य का दर्शन हो गया कि सम्राट की संपत्ति भी एक भिक्षु की भूख को नहीं भर सकती। मुझे माफ कर दो मैं तुम्हारा पात्र पूरा न भर सकूंगा।
भीड़ छंट गई, राजा हार चुका था, लोग अनेक तरह की बातें करते हुए अपने घर चले गए। और वह भिखारी भी अपने रास्ते पर हो गया। लेकिन इतनी आसानी से मैं उस भिखारी को न छोड़ सका और उसके पीछे हो गया। रात गांव के बाहर मैंने उसे पकड़ लिया और उससे पूछा, क्या रहस्य है इस भिक्षा के पात्र का, जो भर नहीं सका? वह भिखारी हंसने लगा और उसने कहाः गांव-गांव मैं गया हूं, और न मालूम कितने द्वार पर कितने अहंकार पराजित हो गए, लेकिन तुम पहले आदमी हो जो मेरे पीछे आए हो और भिक्षा का इस पात्र का रहस्य पूछते हो। मैं इस आदमी की तलाश में था कि कोई मुझसे पूछे उसी के लिए मैं गांव-गांव घूम रहा हूं। लेकिन कोई यह पूछता ही नहीं। इस भिक्षा के पात्र में कोई भी रहस्य नहीं है। और भिक्षा का पात्र उसने मेरे हाथ में दे दिया और उसने कहाः मैं एक मरघट से निकलता था और एक आदमी की खोपड़ी मुझे पड़ी मिल गई, उससे ही मैंने इस पात्र को बना लिया है। और जैसा कि सभी जानते हैं, आदमी का मन कभी भरता नहीं, इसलिए यह पात्र भी भरता नहीं है।
इस कहानी से इसलिए मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं कि जीवन में सबसे बड़े से बड़े रहस्यों में से समझने की जो बात है वह यही है, मनुष्य का मन जैसा है वह कभी भी भरने में समर्थ नहीं है। मनुष्य की पीड़ा, और चिंता, और दुख, और विषाद, इसी तथ्य से पैदा होते हैं। हम उस मन को भरने की कोशिश में हैं जो भरने में स्वभावतः असमर्थ है। लेकिन इस तथ्य का उदघाटन मुश्किल से ही कोई कर पाता है। और जो इस तथ्य का उदघाटन कर लेता है, उसके जीवन में एक क्रांति घटित हो जाती है। लेकिन सामान्यतः मुश्किल से ही शायद हमारी दृष्टि में यह बात दिखाई पड़नी शुरू होती है, हम मन को भरने की कोशिश करते हैं, अनेक-अनेक दिशाओं में, धन से और यश से, और पद से महत्वाकांक्षाओं के न मालूम किन-किन मार्गों पर चल कर हम उसे भरने की कोशिश करते हैं। और इस बात को भलीभांति देखते हुए भी शायद हम अंधे बने रहते हैं कि आज तक कोई भी अपने मन को भर नहीं सका है। क्या किसी मनुष्य ने मनुष्य-जाति के पूरे इतिहास में यह कहने का साहस दिखाया है कि मेरा मन भर गया, मेरा मन तृप्त हो गया? क्या किसी ने लंबे दस हजार वर्षों के ज्ञात इतिहास में यह बात कही है कि मैं मन की पूर्ति पर पहुंच गया? मन की आकांक्षाएं तृप्त हो गईं। नहीं, एक भी मनुष्य ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। और हर शेष मनुष्य की जीवन कथा, मनुष्य के निरंतर खाली रह जाने की खबर देती है।
सिकंदर की जिस दिन मृत्यु हुई, और जिस नगर में उसकी अरथी निकली उस दिन एक बहुत अजीब बात लोगों ने देखी। शायद वैसा कभी भी नहीं हुआ था, और शायद आगे भी कभी नहीं होगा। सिकंदर की अरथी को देखने लाखों लोग रास्तों पर खड़े थे। कोई साधारण आदमी न मर गया था। महान सिकंदर की मृत्यु हो गई थी। लेकिन लोग देख कर हैरान हुए, उसकी अरथी बड़ी अजीब थी। अरथी के बाहर सिकंदर के दोनों हाथ लटके हुए थे। और हर कोई पूछने लगा कि ये हाथ अरथी के बाहर क्यों लटके हुए हैं? सारे नगर में एक ही बात उठ गई, सांझ होते-होते पता चला, सिकंदर ने मरने के पहले कहा थाः मेरे हाथ अरथी के बाहर लटके रहने देना, ताकि हर आदमी देख ले मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं। मेरे हाथ भी भरे हुए नहीं हैं। मेरी दौड़, मेरी विजय यात्राएं, सब असफल हो गईं, हाथ मेरे खाली हैं। किसके हाथ भरे हुए कब गए हैं? यह बात दूसरी है कि हम हाथों को अरथियों के भीतर छिपा देते हैं ताकि कोई देख न ले कि ये हाथ खाली जा रहे हैं। लेकिन अरथियों के भीतर छिपाएं या न छिपाएं, हर आदमी की जीवन-कथा निरंतर खाली बने रहने की कथा है। यह मन का पात्र भरता नहीं है।
ऐसा नहीं है कि धन से नहीं भरता, ऐसा नहीं है कि यश से नहीं भरता, धर्म से भी नहीं भरता, त्याग से भी नहीं भरता। भरना उसका स्वभाव नहीं है, मोक्ष से भी नहीं भरता, परमात्मा से भी नहीं भरता। भरना उसका स्वभाव नहीं है। कुछ लोग धन से भरने से ऊब जाते हैं, लेकिन भरने से नहीं ऊब पाते। धन से भरने से ऊब जाते हैं, तो सोचते हैं धर्म से भर लें; यश और कीर्ति से ऊब जाते हैं और पाते हैं कि उससे मन नहीं भरता, तो सोचते हैं कि त्याग और तपश्चर्या से भर लें। लेकिन मन अगर भरने में समर्थ होता, तो धन से भी भर जाता और धर्म से भी भर जाता। मन भरने में ही असमर्थ है। मन स्वभावतः भरने में असमर्थ है। कोई बात है, जिसकी वजह से मन नहीं भर सकता है। किसी भी चीज से नहीं, और जब तक इस तथ्य को कोई साक्षात नहीं करता है, इस समग्र सत्य को कि मन को भरना ही असंभव है, तब तक किसी मनुष्य के जीवन में कोई क्रांति फलित नहीं हो सकती। तब तक कोई मनुष्य आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकता; तब तक कोई मनुष्य धार्मिक नहीं हो सकता। धार्मिक मनुष्य की शुरूवात इस बात से नहीं होती कि धन से छोड़ कर हम त्याग से मन को भरने लगें। धन और त्याग दोनों की भाषा एक ही है, धन की भाषा है और, और, और धन मिले तो शायद मन भर जाए। उतना मिल जाता है, तो पता चलता है कि मन नहीं भरा, और धन मिले तो शायद मन भर जाए, उतना भी मिल जाता है तो मन नहीं भरता। त्याग की भाषा भी और की ही भाषा है। इतना छोड़ देते हैं तो मन नहीं भरता, और छोड़ दें, तो शायद मन भर जाए। और छोड़ देते हैं फिर पता चलता है और छोड़ दें, तो शायद मन भर जाए। पकड़ने और छोड़ने का सवाल नहीं। और की भाषा समान है, और भरने की आकांक्षा समान है। अगर मन स्वभावतः भरने में असमर्थ है, तो शायद किसी रास्ते से उसे नहीं भरा जा सकेगा। और इसलिए मन के साथ, मन के भराव के लिए की गईं सारी बातें व्यर्थ हो जाती हैं। सारे निदान और सारी चिकित्सा व्यर्थ हो जाती है। और मनुष्य की जो गहरी चिंता है, जो तनाव है जो दुख है, उसके ऊपर मनुष्य नहीं उठ पाता है। अब तक हमने जो भी उपाय खोजे हैं, वे असमर्थ हो गए, असफल हो गए, शायद हमने मूल बात नहीं पूछी और इसलिए सारी गड़बड़ हो गई।
मैंने सुना है, न्यूयार्क के एक छोटे से स्कूल में, जहां न्यूयार्क के धनपतियों के बच्चे पढ़ते थे; एक छोटे से बच्चे में कुछ अजीब से लक्षण दिखाई पड़ने शुरू हुए। चिंता की बात थी, लक्षण ऐसे थे कि चिंतित हो जाना जरूरी था। उस बच्चे ने इधर कोई पंद्रह-बीस दिनों से हर चीज काले रंग में रंगनी शुरू कर दी थी। वह चित्र बनाता तो काले ही रंग में बनाता। सूरज बनाता तो काले रंग और गुलाब का फूल बनाता तो काले रंग का। समुद्र बनाता तो काले रंग का, आदमी बनाता तो काले रंग का। उसकी अध्यापिका चिंतित हो गई। काले रंग का इतना मोह भीतर चित्त में किसी गहरी उदासी और दुख का, दुख की खबर देता था। स्कूल के मनोवैज्ञानिक को खबर की गई, उस बच्चे में ये काले के प्रति इतना मोह, अंधेरे के प्रति इतना आकर्षण शुभ नहीं था। जीवन का सूचक नहीं था। मृत्यु की खबर देता था। चिंता जरूरी थी, उसका इलाज होना जरूरी था। उसके भीतर कोई बात घटित हो रही थी, जो बाहर काले रंगों में प्रकट होने लगी थी।
एक आदमी हंसता है तो भीतर की कोई खबर लाता है, एक आदमी रोता है तो भीतर की कोई खबर लाता है; एक व्यक्ति काले रंगों के प्रति आकर्षित हो जाए तो भीतर की खबर देता है।
उस बच्चे के जीवन में कुछ हो रहा था, जिसकी खोज-बीन जरूरी थी। मनोवैज्ञानिक ने पंद्रह दिनों तक खोज-बीन की--उस बच्चे के घर में जाकर, और उस बच्चे के पड़ोस में, उस बच्चे के संबंध में सारी जानकारी इकट्ठी की, और पंद्रह दिन बाद एक बड़ी रिपोर्ट पेश की, जिसमें बहुत से कारण बताए गए थे। बच्चे की घर की जिंदगी शायद सुखद नहीं थी, बच्चे के मां-बाप के बीच शायद अच्छे संबंध नहीं थे, झगड़ा था, विरोध था; घर का वातावरण उदास था, प्रसन्न नहीं था। आस-पास भी अच्छे लोग नहीं थे पड़ोस में। इन सबका शायद परिणाम बच्चे पर पड़ना शुरू हुआ था। बच्चे की मां जब बच्चा गर्भ में था तब बीमार रही थी, शायद उसके परिणाम हुए थे। स्कूल के चिकित्सक को भी कहा गया, उसने भी जांच-पड़ताल की, उसने बताया किन्हीं विटामिंस की कमी है, शायद उनकी वजह से बच्चा उदास और शिथिल हो गया है। शायद जीवन में उसके आनंद और थिरक में कमी हो गई। ये सारी रिपोटे आ गई और उसके पहले कि इलाज शुरू होता एक और घटना घट गई, जिसने सारे निदान को गलत कर दिया। स्कूल के चपरासी ने बच्चे को निकलते वक्त स्कूल से एकदम उसके कान में पूछा, कि मेरे बेटे, मुझे तो बताओ तुम काले रंग से ही चित्र क्यों बनाते हो? उस बच्चे ने कहाः सच बात तो यह है कि मेरी डिब्बी के और सब रंग खो गए हैं, केवल काला रंग ही बचा है। और कोई बात नहीं है। उसे दूसरे रंग दे दिए गए, और उसने दूसरे दिन से ही काले रंग में चित्रों का बनाना बंद कर दिया।
बात उतनी ही थी कि उसकी डिब्बी के और रंग खो गए थे। लेकिन इन विशेषज्ञों ने बड़ी बातें खोज निकाली थीं। और उन बातों के आधार पर अगर उस बच्चे का इलाज होता तो आप सोच सकते हैं क्या हुआ होता? तो उस बच्चे का बचना मुश्किल हो जाता। वे इलाज खतरनाक सिद्ध होते। क्योंकि जो बीमारी ही न हो, उसकी चिकित्सा सिवाय खतरे के और क्या ला सकती है? मनुष्य के साथ भी बहुत तरह के इलाज किए गए हैं। और मनुष्य के साथ सब इलाज खतरनाक सिद्ध हुए हैं। क्योंकि शायद हमने उसके भीतर गहरे में जाकर यह पूछा ही नहीं; असल बात क्या है? आदमी के भीतर हमने ठीक-ठीक समस्या को पकड़ने की कोशिश नहीं की है, और इलाज शुरू हो गए हैं। पांच-छह हजार वर्षों से मनुष्य के सब भांति के इलाज हो रहे हैं। सब तरह के विशेषज्ञ उसकी चिकित्सा कर रहे हैं। और सच्चाई यह है कि मनुष्य ज्यादा से ज्यादा बीमार होता जा रहा है। स्वस्थ नहीं हो रहा है।
सारे धर्मों के इलाज, सारे विशेषज्ञों, सारे पुरोहितों, सारे गुरुओं की चिकित्साएं आदमी को और मरणासन्न किए दे रही हैं। और अगर यह इलाज जारी रहे तो शायद आदमी के बचने की बहुत दिन संभावना नहीं है। चिकित्सक बहुत हैं और गरीब आदमी उनके बीच फंस गया है। और शायद हम यह पूछना ही भूल गए हैं, एक सीधा सा सवाल, या आदमी की सारी बीमारी, आदमी की चिंता और दुख, उसकी बेचैनी, उसकी अशांति कहीं मन के स्वभाव के साथ ही तो संबंधित नहीं है?
एक मुसलमान फकीर था। एक सुबह एक व्यक्ति ने उससे जाकर कहा, मैं ईश्वर को खोजना चाहता हूं, मोक्ष पाना चाहता हूं, कोई रास्ता है? मन मेरा अशांत है, उसे शांत करना चाहता हूं, कोई मार्ग है? उस फकीर ने कहाः अभी तो मैं कुंए पर पानी भरने जा रहा हूं, मेरे साथ आओ, अगर कुएं से वापस लौटते वक्त भी मेरे साथ बने रहे, तो शायद मैं कोई रास्ता सुझाऊं। वह आदमी हैरान हुआ कि कुएं से वापस लौटते वक्त ऐसी क्या कठिनाई होने वाली है कि मैं साथ न रहूंगा? वह फकीर के पीछे कुएं की तरफ गया। फकीर अपने घर से एक बाल्टी और एक बड़ा ड्रम लेकर निकला। उस आदमी ने देखा, तभी उसे शक हुआ, ड्रम बड़ा अजीब था; उसमें कोई पेंदी न थी, उसमें कोई तलहटी न थी, वह दोंनों तरफ से पोला था। क्या फकीर इसमें पानी भरने जा रहा है? लेकिन बीच में कुछ बोलना ठीक न था, वह कुएं तक गया। फकीर ने वह ड्रम कुएं के पाट पर रखा, जो दोनों तरफ पोला था, कोई तलहटी न थी, कोई बॉटम न थी। बाल्टी कुएं में डाली, पानी खींचा, और बाल्टी खींच कर उस खाली ड्रम में डाली। पानी नीचे से बह गया। ड्रम खाली का खाली रह गया। उसने दुबारा बाल्टी डाली। वह आदमी बहुत साहस करके, बहुत धीरज रख कर खड़ा रहा, सोचा कि मेरा बोलना बीच में ठीक नहीं है, क्या इस आदमी को खुद यह बात दिखाई नहीं पड़ रही होगी कि पानी जिसमें डाला गया है उसमें भर नहीं सकेगा? दूसरी बाल्टी भरी गई, और उस फकीर ने उसे भी उस ड्रम में डाल दिया। वह पानी भी बह गया। और फकीर तीसरी बाल्टी भरने लगा, उस आदमी का धीरज टूट गया। किसी का भी टूट जाता। उसने फकीर के कंधे पर हाथ रखा और कहा, महानुभव, ऐसे तो जिंदगी भर भरने से भी यह ड्रम भरने वाला नहीं है। कृपा करके देखें तो सही, इस ड्रम में कोई तलहटी नहीं है, इसमें कोई पेंदी नहीं है। यह पानी भरेगा नहीं।
उस फकीर ने कहाः तुमसे किसने सलाह मांगी है? तुम मुझसे ज्ञान लेने आए थे या मुझे ज्ञान देने आए हो? उस फकीर ने कहा, अक्सर मैं देखता हूं, जो लोग शिष्य बनने आते हैं थोड़ी देर में ही गुरु हो जाते हैं। तुमसे किसने पूछा? बिना मांगे जो आदमी सलाह देता है उससे ज्यादा नासमझ कोई और है? तुमने अपनी नासमझी सिद्ध कर दी। और फिर मुझे इस ड्रम में पानी भरना है, तो मैं ड्रम के ऊपर की तरफ आंखें गड़ाए हुए हूं, जब पानी वहां तक आ जाएगा, तो मैं घर चला जाऊंगा। मुझे पेंदी से क्या लेना-देना? मैं ऊपर की तरफ देख रहा हूं कि जब पानी भर जाएगा तो ऊपर की कगार तक आ जाएगा, तब मैं उठा कर घर ले जाऊंगा। मुझे ऊपर की कगार तक पानी भरना है, बॉटम से मुझे क्या लेना-देना? उसने अपनी बाल्टी फिर कुएं में डाल दी। उस आदमी ने सोचा, इस आदमी के पास अब और खड़े रहना ठीक नहीं है। यह आदमी पागल मालूम होता है। वह आदमी मुड़ा और अपने घर की तरफ चला गया।
फकीर हंसा होगा और अपने ड्रम और बाल्टी को लेकर अपने घर चला गया। घर पहुंच कर उस आदमी ने सोचा कि अरे, उसने मुझसे कहा था कि अगर लौटते में भी मेरे साथ रहे तो शायद मैं रास्ता बताऊं। मैं तो बीच में ही वापस आ गया हूं। और उसने रात सोचा, कि जो सीधी सी बात मुझे दिखाई पड़ती थी, क्या उस फकीर को न दिखाई पड़ती होगी? फिर मैं क्यों बीच में बोला? कहीं इसमें कोई राज न हो, कोई रहस्य न हो; सुबह वह वापस लौटा, और फकीर के पास गया और कहाः मैं क्षमा मांगता हूं। मैं यह पूछने आया हूं, आप मुझे क्या सिखाना चाहते थे? वह फकीर बोलाः तुम आदमी थोड़े समझदार हो, यह मेरी पुरानी तरकीब है, नासमझ लोगों से छुटकारा पाने की। जो भी मुझसे पूछने आता है, पहले मैं उसे कुएं पर ही ले जाता हूं, यही ड्रम और यही बाल्टी। अक्सर तो लोग भाग जाते हैं फिर कभी नहीं लौटते। तुम वापस आ गए हो, तो मैं तुमसे यह निवेदन करना चाहता हूं कि जिस मन को तुम भरना चाहते हो--आनंद से, परमात्मा से--कभी तुमने गौर किया, उसमें कोई बॉटम है, कोई तलहटी है? कभी भीतर खोज-बीन की कि कहीं इस ड्रम की तरह ही वह पोला न हो? और तुम भरते चले जाओ और वह खाली का खाली बना रहे। तो जाओ पहले मन को खोजो, अगर उसमें तलहटी हो तो मेरे पास आ जाना, मैं तुम्हारे मन को भर दूंगा। और अगर तलहटी न हो, और अगर यह सत्य का तुम्हें दर्शन हो जाए कि यह मन भरा ही नहीं जा सकता, तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं, उसी क्षण तुम्हारी भरने की दौड़ समाप्त हो जाएगी और जिस क्षण तुम्हारी यह दौड़ समाप्त हो जाएगी, तुम पाओगे कि तुम सदा से ही भरे हुए हो। जिस क्षण इस मन से तुम्हारा यह आग्रह छूट जाएगा कि मैं इसे भरूं, उसी क्षण तुम पाओगे कि मन के पीछे कोई मौजूद है जो निरंतर भरा हुआ है, जो कभी खाली ही नहीं है। उस सत्य का नाम ही आत्मा है।
मन को भरने की एक दौड़ है, और इस भरने की दौड़ में ही हम आत्मा को नहीं देख पाते हैं। मन को भरने की एक विक्षिप्त दौड़ है, और इस दौड़ में ही व्यस्त होने के कारण हम उसे नहीं उपलब्ध हो पाते हैं जो हम हैं। इस दौड़ से मुक्त हुए बिना, कोई स्वयं की अनुभूति को उपलब्ध नहीं होता है। लेकिन इस दौड़ से मुक्त होने के लिए कोई प्रयास, कोई पाजिटिव एफर्ट, कोई विधायक चेष्टा, कोई साधना काम नहीं दे सकती। इस मन से मुक्त होने के लिए हम कुछ और कुछ भी करेंगे, वह भी मन को ही भरने की दिशा में एक चेष्टा होगी। इस मन से मुक्त होने के लिए इस मन को जानना जरूरी है। इससे पूरी तरह से परिचित होना जरूरी है। इसकी पूरी स्थिति को देखना जरूरी है। और जिस दिन यह दिखाई पड़ जाता है, कि मन तो एक बॉटमलेस पिट है, एक अतल खाई है, जिसमें कुछ भी भरा नहीं जा सकता है। जिस दिन यह अतल खाई, मन की स्पष्ट दर्शन में आ जाती है, उसी दिन मनुष्य एक दूसरे... एक दूसरे आयाम में, एक दूसरी दिशा में गतिमान हो जाता है। जहां कभी भी कुछ खाली नहीं है, जहां सब कुछ भरा हुआ है। उस दिशा का नाम ही परमात्मा है। और दो ही दिशाएं हैं, एक मन को भरने की दिशा, जो असफल है, सतत असफल है, जो व्यर्थ है और जिसके अंतिम परिणाम में खाली हाथों के अतिरिक्त और कुछ उपलब्ध नहीं हो सकता है।
इस मन को कैसे जाना जा सकता है? इस दिशा में ही इन दो दिनों में आपसे बात करूंगा। पहली बात-हम सारे लोग मन को जानने की बात तो दूर रही, इसे जानने से बचना चाहते हैं। जानने की बात तो बहुत दूर हम अपनी आंखें चुरा लेना चाहते हैं इस मन से कि कहीं इससे मिलना न हो जाए। कोई आदमी अपनी शक्ल देखने को तैयार नहीं है। कोई आदमी जैसा वह है, वैसा ही अपने को उघाड़ कर देखने का साहस नहीं करता। हम तो अपने से भाग रहे हैं और भागते-भागते हम रास्ते में जो भी मिलता है, उससे पूछते चलते हैं, आत्मज्ञान का कोई रास्ता है? अपने से भाग रहे हैं और आत्मज्ञान को उपलब्ध होना चाहते हैं। ये दोनों बातें अत्यंत मूढ़तापूर्ण हैं। ये दोनों बातें इतनी विरोधी हैं कि इससे बड़ा और कोई विरोध, इससे बड़ा और कोई कंट्राडिक्शन नहीं हो सकता। पूछें अपने से कहीं मैं अपने से भाग तो नहीं रहा हूं? हम सब भाग रहे हैं। भागने के हमने बहुत से रास्ते ईजाद कर लिए। कोई भी आदमी ठीक अपने आमने-सामने नहीं होना चाहता है। आंख चुराता है अपने से। और इस आंख चुराने के लिए जो उपाय करता है वह यह कि जो वह नहीं है वही अपने को समझ लेता है। हिंसक व्यक्ति अपने को अहिंसक समझ लेता है। अधार्मिक व्यक्ति अपने को धार्मिक समझ लेता है, ताकि जो अधार्मिकता है वह दिखाई न पड़े। वह आमने-सामने न आ जाए। वह सस्ती तरकीबें खोज लेता है। अधार्मिक व्यक्ति रोज सुबह उठ कर मंदिर जाने लगता है, ताकि उसे दिखाई पड़ने लगे कि मैं धार्मिक हूं। हिंसक व्यक्ति पानी छान कर पीने लगता है, ताकि उसे दिखाई पड़ने लगे कि मैं अहिंसक हूं। कामुकता से भरा हुआ व्यक्ति ब्रह्मचर्य के व्रत ले लेता है, ताकि उसे दिखाई पड़ने लगे कि मैं काम और सेक्स से मुक्त हूं। हम जो हैं उससे विरोधी वस्त्र अपने ऊपर ओढ़ लेते हैं। हम जो हैं उससे ठीक उलटी शक्ल, उससे ठीक उलटे मुखौटे, उससे ठीक उलटे वस्त्र हम अपने ऊपर ढांक लेते हैं ताकि दिखाई न पड़े। ताकि दूसरों की आंखों में तो हम छिप ही जाएं, अपनी आंखों में भी छिप जाएं। एक धोखा चल रहा है, दूसरे के साथ नहीं अपने साथ। दूसरों के धोखे हमें दिखाई पड़ जाते हैं, लेकिन खुद जो हम अपने को धोखा दे रहे हैं वह दिखाई नहीं पड़ता।
मैंने सुना है, एक स्कूल में सुबह ही सुबह स्कूल का इंस्पेक्टर निरिक्षण करने को आ गया था। वह पहली ही कक्षा में जो उसके सामने पड़ी उसके भीतर गया। और उसने जाकर तख्ते पर एक सवाल लिखा और विद्यार्थियों से कहाः कि तुम में से जो भी तीन विद्यार्थी इस कक्षा में सर्वाधिक कुशल हो, वे खड़े हो जाएं और एक के बाद एक आकर सवाल को हल करें। आकस्मिक निरीक्षण करने वह स्कूल में आया था। एक विद्यार्थी उठा, जो कक्षा में प्रथम था, उसने आकर बोर्ड पर सवाल किया, ठीक सवाल किया था, लौट कर अपनी जगह जाकर बैठ गया। दूसरा विद्यार्थी उठा, जो कक्षा में द्वितीय था, उसने भी आकर सवाल किया और अपनी जगह जाकर बैठ गया। फिर तीसरा विद्यार्थी उठा, लेकिन तीसरा थोड़ा झिझका, झिझकते हुए बोर्ड के पास आया और सवाल जैसे ही हल करने को था, उस इंस्पेक्टर ने गौर से देखा, तो पाया, यह तो वही विद्यार्थी है जो पहले भी आया था। पहली बार जो आया था यह वही है। और उसने उसका हाथ पकड़ा और कहाः तुम मुझे धोखा दे रहे हो, तुम तो पहली दफा आकर सवाल हल कर चुके हो? तीसरा विद्यार्थी कहां है? उस विद्यार्थी ने कहाः माफ करिए, तीसरा विद्यार्थी आज मौजूद नहीं है, वह क्रिकेट का खेल देखने गया हुआ है और मुझसे कह गया है कि मेरी जगह कोई भी काम हो तो तुम कर देना।
इंस्पेक्टर तो आग बबूला हो गया। उसने कहा यह क्या बात है? क्या तुम दूसरे की जगह परीक्षा दोगे? क्या तुम दूसरे की जगह सवाल करोगे? ये मैंने कभी आज तक सुना ही नहीं, हद धोखा चल रहा है। उसने विद्यार्थी को डांटा, और कुछ नैतिक शिक्षाओं का उपदेश दिया। ऐसा मौका मिल जाए तो शिक्षा कोई भी देता है, छोड़ता नहीं। और उस विद्यार्थी को डांटने के बाद वह शिक्षक की तरफ मुड़ा, जो बोर्ड के पास खड़ा हुआ था। और उससे कहाः महाशय! मैं तो अपरिचित हूं, लेकिन आप तो इस कक्षा से भलीभांति परिचित हैं, आप भी खड़े देखते रहे कि यह विद्यार्थी धोखा दे रहा है और आपने मुझसे कुछ कहा नहीं। उस शिक्षक ने आंख नीची की और कहाः महानुभाव, मैं भी इन्हें पहचानता नहीं हूं। वह इंस्पेक्टर तो हैरान हो गया। उसने कहाः इस कक्षा के शिक्षक हैं और पहचानते नहीं? उसने कहाः असल बात यह है कि कक्षा का शिक्षक क्रिकेट का खेल देखने चला गया है और वह मुझसे कह गया है कि जरा मैं उसकी क्लास देख लूं। मैं इस कक्षा का शिक्षक नहीं हूं।
तब तो बात और भी बिगड़ गई। और इंस्पेक्टर की आंखों से आग निकलने लगी। और वह पैर पटकने लगा और चिल्लाने लगा और उसने कहा कि यह तो हद हो गई। यह तो धोखे की हद हो गई! विद्यार्थी धोखा दे तो दे आप शिक्षक होकर भी धोखा दे रहे हैं? और उसने शिक्षक को भी कुछ उपदेश की बातें कहीं।
अंत में जब वह चलने लगा, तब उसने कहा, बच्चों और शिक्षक को कहाः महाशय, आप भगवान को धन्यवाद दीजिए, नहीं तो आपकी जिंदगी खराब हो जाती, नौकरी पर आंच आ जाती। वह तो अच्छा हुआ कि असली इंस्पेक्टर क्रिकेट का खेल देखने गया है। मैं तो उसका दोस्त हूं जो उसकी जगह निरीक्षण करने आ गया हूं।
यह हमें हंसने जैसी बात मालूम होती है। लेकिन जिंदगी ने ऐसे ही रास्ते पकड़ लिए हैं, जहां सब धोखा हो गया है। जहां हम सब किसी और की जगह खड़े हुए मालूम हो रहे हैं। जहां हम सब किसी और के चेहरे लगाए हुए हैं। जहां हम सब किसी और के कपड़े पहने हुए हैं, जहां हम सब वहां नहीं है, जो हम हैं, बल्कि कहीं और कुछ और दिखलाई दे रहे हैं, दिखलाई देने की कोशिश कर रहे हैं। और इस सारे धोखे में किसी और का नुकसान होता हो या न होता हो, एक बात निश्चित हो जाती है, स्वयं से परिचित होने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, क्योंकि इस निरंतर धोखाधड़ी में हम भूल ही जाते हैं कि हम कौन हैं? वस्तुतः हम कौन हैं?
अपने को पहचानने के लिए, जो झूठे वस्त्र हमने पहन रखे हैं और झूठी शक्लें बना रखी हैं, उन शक्लों को और वस्त्रों को उतार देना अत्यंत आवश्यक है। इसे ही मैं तपश्चर्या कहता हूं। जो अभिनय हमने ओढ़ रखे हैं, उनको अलग कर देना ही तपर्श्चया है। वस्त्र छोड़ कर नग्न खड़ा हो जाना बहुत आसान है, लेकिन मन पर और व्यक्तित्व के जो हमने वस्त्र ओढ़ रखे हैं, उनको छोड़ कर नग्न होना, बहुत कठिन है। वही कठिनाई है मनुष्य के आत्म-ज्ञान के मार्ग पर। वही कठिनाई है उसके चित्त के पूरे उदघाटन में, सोचें और हम देखें कि हम जो दूसरों को दिखला रहे हैं कि हम हैं, वे हम हैं, हमने जो नाटक खेल रखा है जीवन में, हमने जीवन को तो एक मंच बना रखा है, जहां हम दूसरों का अभिनय कर रहे हैं। और धीरे-धीरे यह भूल गए हैं कि यह अभिनय था। आदमी भूल जाता है धीरे-धीरे।
बर्ट्रेंड रसल ने एक संस्मरण लिखा है। और लिखा है, एक दिन सुबह मैं अपने द्वार के बाहर बैठा हुआ था और एक आदमी आया और उसने कहाः महाशय! आप बड़ी कठिन किताबें लिखते हैं, खैर आपकी ज्यादा किताबें तो मैंने पढ़ी नहीं, लेकिन एक किताब मैंने पढ़ी जिसमें मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया। एक वाक्य भर मेरी समझ में आया और वह वाक्य एकदम गलत है। जो समझ में आया है वह एकदम गलत है, झूठ है वह वाक्य। बर्ट्रेंड रसल ने कहा कि कौन सा वह वाक्य है जो आपकी समझ में आया? और क्या भूल है उसमें? उस आदमी ने कहाः आपने लिखा हैः सिजर इ.ज डेड। सिजर मर चुका है। यही मेरी समझ में आया और यह बिल्कुल झूठ है, यह बात अफवाह है।
बर्ट्रेंड रसल तो हैरान हो गया! सिजर को मरे तो सैकड़ों वर्ष हो चुके। उन्होंने पूछा कि आपके पास क्या प्रमाण है कि यह बात गलत है? तो उस आदमी ने कहाः मैं खुद सिजर हूं। बर्ट्रेंड रसल ने उस आदमी से और बातचीत करनी उचित न समझी, उसे नमस्कार किया और कहाः माफ करिए, नये संस्करण में मैं सुधार कर लूंगा। वह आदमी प्रसन्न होकर चला गया। पीछे पता चला कि वह एक नाटक में सिजर का काम किया था। और तब से दिमाग उसका खराब हो गया। वह अपने को सिजर ही समझने लगा। और ठीक ही वह बर्ट्रेंड रसल को सुझाव देने आया था कि अपनी भूल सुधार लो। सिजर अभी जिंदा है।
यह आदमी पागल मालूम होता है। हम लोग किस भांति के लोग हैं। लेकिन एक पति अपनी पत्नी के सामने प्रेम का अभिनय करता है कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं और धीरे-धीरे भूल जाता है कि यह अभिनय था। एक बेटा अपने बाप के सामने आदर का अभिनय करता है कि मैं तुम्हें आदर करता हूं और धीरे-धीरे भूल जाता है कि यह अभिनय था। एक मित्र-मित्र के सामने अभिनय करता है कि मैं प्राण दे दूंगा तुम्हारे लिए और भूल जाता है कि यह अच्छी बातचीत थी, कविता थी, यह जिंदगी नहीं थी, यह सच्चाई नहीं थी। और इस बात को याद रख लेता है कि मैं उन मित्रों में से हूं जो जान दे देगा।
लेकिन न तो हमारा प्रेम सच्चा है, न हमारी मित्रता सच्ची है, न हमारा आदर सच्चा है। अगर हमारा प्रेम सच्चा होता, हमारी मित्रता सच्ची होती, हमारा आदर सच्चा होता, तो यह सड़ी-गली और कुरूप दुनिया हम पैदा करते? जो हमने पैदा की। हर पति अपनी पत्नी को प्रेम कर रहा है, हर बाप अपने बेटे को प्रेम कर रहा है, हर मां अपने बच्चों को प्रेम कर रही है, तो सारी दुनिया में इतना प्रेम और इतनी रद्दी दुनिया पैदा हुई? इतने प्रेम से इतनी रद्दी दुनिया पैदा हो सकती थी? इतनी कुरुप, इतनी भ्रमित ये दुनिया हमारे सब... अगर प्रेम सच्चा होता तो उससे पैदा हो सकती थी?
तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध हमने लड़े हैं। तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध हमें लड़ने पड़ते हैं। तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध किस बात की खबर देते हैं? हमारे भीतर प्रेम है या कि घृणा? हमारे भीतर आदर है या कि अपमान? हमारे भीतर मित्रता है या शत्रुता है? अगर कोई भी आदमी आंख खोल कर इस दुनिया को देखेगा, तो उसे यह शक पैदा हो जाना स्वाभाविक है कि प्रेम की बातें अभिनय होंगी, मित्रता की बातें कविताएं होंगी; अगर वे सच्चाईयां होतीं तो जिंदगी और होनी चाहिए थी, जैसी वह बिल्कुल नहीं है।
कौन इस दुनिया को बना रहा है? हम सारे लोग इस दुनिया को बना रहे हैं। कौन इस समाज के घटक हैं? हम सारे लोग। और हम सारे लोग तो बहुत प्रेम से भरे हुए लोग हैं। फिर इस दुनिया में यह अप्रेम और घृणा और हिंसा कहां से आ जाती है? हमारे अतिरिक्त कोई और रास्ता भी है इसके आ जाने का। निश्चित ही असलियत कुछ और होगी, अभिनय हमारा कुछ और है। बड़े व्यापक पैमाने पर दुनिया में जो प्रकट होता है, वह हमारी असलियत है। और अपने-अपने घर में बैठ कर हम जो बातें करते हैं, वह अभिनय है। जिसे हम कहते हैं कि मुझे तुमसे प्रेम है, क्या उससे सच में हमें प्रेम है? क्या हमने कभी भी उसका मंगल और कल्याण चाहा है? क्या उस प्रेम में भी हमारी ईर्ष्या और घृणा सम्मलित नहीं है। क्या जिसे हम प्रेम करते हैं उसकी गर्दन पर भी हमने फंदे नहीं डाल दिए हैं? क्या उसको भी हमने घर की दीवालों में बंद नहीं कर दिया है। क्या हमने उसके ऊपर सींखचे और ताले नहीं जड़ दिए हैं। जिसको हमने प्रेम किया है क्या उसको भी हमने अपना पजेशन, अपनी संपत्ति नहीं बना लिया है? क्या कोई व्यक्ति प्रेम करता है और प्रेम को संपत्ति बना सकता है? क्या कोई प्रेम करता है, और प्रेम करके किसी का मालिक बन सकता है? क्या कोई प्रेम करता है और किसी के लिए बंधन खड़े कर सकता है? क्या कोई प्रेम करता है और ईर्ष्या से भी भरा हुआ हो सकता है? प्रेम के लिए यह सब असंभव है। इसलिए प्रेम तो हमारा अभिनय है, सच्चाईयां हमारी बहुत दूसरी हैं।
मैंने सुना है, एक घर में एक मां और बेटी दोनों को ही रात में उठ कर चलने की बीमारी थी। एक रात मां उठी और अपने मकान के पीछे बगिया में चली गई। आधी रात होगी, उसके पीछे ही उसकी लड़की भी उठी और बगिया में चली गई। मां ने लड़की को देखते ही कहाः वह नींद में ही थी, लड़की को देखते ही उसका चित्त क्रोध और ईर्ष्या से भर गया। और उसने कहा कि इस दुष्ट के कारण ही मेरा सारा यौवन नष्ट हो गया, इसी ने मेरी सारी जवानी छीन ली, मन होता है इसकी गर्दन दबा दूं। और उस लड़की ने उस बूढ़ी को देखते ही कहाः वह भी नींद में थी, कि इस बूढ़ी औरत के कारण ही मेरा जीवन एक कष्ट और कारागृह बन गया है, मेरी हर खुशी में यह बाधा बन गई है, परमात्मा करे यह उठ जाए, तो मेरे रास्ते के सारे कांटे दूर हो जाएं। लेकिन ये बातें दोनों ने नींद में कहीं थीं। क्योंकि जाग कर तो सच्ची बातें कोई भी कहता नहीं है। तभी मुर्गे ने बांग दी और उन दोनों की नींद खुल गई। और उस लड़की ने जाग कर देखा अपनी मां को और कहाः मां इस सर्दी में तुम बाहर और शॉल भी भीतर छोड़ आईं, अगर सर्दी लग जाए तो? और उस मां ने कहाः बेटी तू इतनी जल्दी उठ आई, चल वापस सो जा, अभी तो दो घंटे हैं। फिर जल्दी उठ आती है इसलिए तो दिन भर थकान मालूम पड़ती है। वे एक-दूसरे के गले में हाथ डाल कर घर में वापस लौट गईं और सो गईं।
नींद में उन्होंने जो कहा था वह और जाग कर जो उन्होंने जो कहा वह, उन दोनों में तो जमीन-आसमान का फर्क है। लेकिन सच्चाई क्या है? जो जाग कर कहा वह या जो नींद में कहा वह? नींद में तो झूठ बोलने का कोई कारण ही न था, जागने में झूठ बोलने के कारण हैं, क्योंकि जागने में सब सोच-विचार आ गया है कि क्या कहना ठीक है, और क्या नहीं? और जागने में ख्याल आ गया कि कौन मां है और कौन बेटी? और जागने में सारा शिष्टाचार है। और जागने में सारी बातें ख्याल में आ गईं और उन ख्याल में आई हुई बातों से जो पैदा हुआ, वह झूठा है, वह अभिनय है। नींद में तो सच्चाइयां खुल गई थीं!
आदमी की सच्चाइयां उसके सपनों में ज्यादा खुल जाती हैं बजाय उसके जागने के। और एक आदमी अगर नशा करके खड़ा हो जाए, तो ज्यादा सच्चाई से वही होता है जो वह है। वही गालियां बकने लगता है, वही आदमी जो भजन गा रहा था। नशा करके गालियां बकने लगता है। नशे में कोई ताकत हो सकती है कि भीतर गालियां पैदा कर दे? नहीं लेकिन भीतर गालियां भरी थीं, भजन ऊपर थे। और नशे ने सारा बोध छीन लिया, भीतर जो भरा था वह निकलना शुरू हो गया। दिन में हम जागे हैं, रात हम सो गए हैं। होश खो गया है सपने में जो सच्चाइयां थीं वे प्रकट होने लगीं।
आप खुद अपने भीतर अगर थोड़ी खोज-बीन करेंगे तो बहुत डर जाएंगे। कहीं मेरे भीतर यह जो सब जो छिपा है लोगों को पता न चल जाए, कहीं यह उघड़ न जाए, कहीं कोई इसमें झांक न लें। इसलिए जो हमारे भीतर छिपा है हम उसके ऊपर दीवाल पर दीवालें खड़ी करते चले जाते हैं ताकि उसका किसी को पता न लगे, ताकि वह छिपा रहे, ताकि कोई उसमें झांक न ले, हमारा निकटतम मित्र भी हमारा इतना निकट नहीं होता कि हम उसे अपने भीतर झांकने दें। और तब धीरे-धीरे डर से और भय से हम भी अपने भीतर झांकना बंद कर देते हैं। और फिर हम पूछते हैं, आत्म-ज्ञान कैसे हो? सत्य कैसे मिले? परमात्मा के दर्शन कैसे हों? जो अपने ही दर्शन करने को राजी नहीं है, वह और किस सत्य के दर्शन करने की आकांक्षा कर सकता है? या उसकी आकांक्षा में कितनी सच्चाई हो सकती है? कितनी उत्कंठा हो सकती है?
मनुष्य के समक्ष मनुष्य का मन जैसा है--क्रोध, हिंसा और ईर्ष्या जो कुछ भी है, उसे बहुत सरलता से वैसा ही जानना जरूरी है। सारे वस्त्र ओढ़े हुए उतार देने जरूरी हैं। नग्न चित्त के समक्ष खड़ा होना जरूरी है। यह तो पहली बात है कि हम अपने से बचना बंद कर दें। अगर किसी भी दिन हमें जीवन की गहराइयों में उतरना हो, और किसी भी दिन हमें जीवन के अर्थ और अभिप्राय को जानना हो और किसी भी दिन हमें जीवन में छिपे सौंदर्य और आनंद की अनुभूति करनी हो तो अपने आपसे पलायन बंद कर देना होगा, अपने आपसे भागना बंद कर देना होगा। और अपने वस्त्रों को उघाड़ कर देखना ही पड़ेगा चाहे यह कितना ही पीड़ादायी हो, चाहे यह कितना ही कष्टप्रद हो, और चाहे कितनी ही सांत्वना हमसे छिन जाए, और हमारा संतोष नष्ट हो जाए। लेकिन देखना ही होगा इस बात को, इसे बिना देखे कोई रास्ता सत्य तक न कभी गया है और न जा सकता है।
यह तो पहली बात है कि हम अपने से भागना बंद कर दें। और अपने से हम भाग रहे हैं, नये-नये रास्ते खोज रहे हैं, और ये अपने से भागना इतना ज्यादा तीव्र हो सकता है, यह अपने आपकी पीड़ा इतनी गहरी हो सकती है कि हम किसी तरह न केवल अपने से भागना चाहें, बल्कि पीड़ा से अपने को भूलना भी चाहें। भागने के बाद भूलने की सीमा आ जाती है। घबड़ा कर जो आदमी अपने से निरंतर भागता रहता है, आखिर में उसे पता चलता है मैं कितना ही भागूं, लौट-लौट कर कुछ चीजें दिखाई पड़ जाती हैं। बार-बार अपने से मिलना हो जाता है। आखिर कोई अपने से भाग कैसे सकता है? किसी और चीज से भागता तो भाग भी सकता था?
मैं अगर भाग कर जंगल चला जाऊं, आप सब तो पीछे छूट जाएंगे, लेकिन मैं, मैं अपने साथ ही वहां पहुंच जाऊंगा। मैं जहां भी भागूंगा, मैं अपने साथ रहूंगा, तो भागने की अतिश्यता एक दिन इस निष्कर्ष पर ले आती है कि भागने से काम नहीं चलेगा, भूलना जरूरी है। तब हजार तरह के नशे खोजने की बात शुरू हो जाती है। कोई आदमी शराब पीकर अपने को भूलना चाहता है, कोई आदमी संगीत में भूलना चाहता है, कोई आदमी सेक्स में अपने को भूल जाना चाहता है। कुछ भले लोग हैं, वह इस तरह के नशे करना पसंद नहीं करते, तो उन्होंने भले आदमियों के नशे ईजाद कर लिए हैं, कोई राम-राम जप कर अपने को भूल जाता है, कोई मंदिर में जाकर भजन-कीर्तन करता है, नाचता है और भूल जाना चाहता है। कोई गीता और कुरान और बाइबिल पढ़ता है और उन्हीं में अपने को भूल जाना चाहता है। लेकिन नशे चाहे अच्छे हों, चाहें बुरे, उनका काम एक ही है कि किसी भांति हम अपने को भूल जाएं, वह जो हम हैं, उसकी हमें स्मृति न रह जाए। वह द्वार बंद हो जाए, जो हम हैं। बहुत राहत मिलती है। जैसे ही कोई अपने को भूलने में समर्थ होता है, बहुत राहत मिलती है।
यूरोप और अमरीका में वे नई-नई इजादें कर रहे हैं, नये ड्रग्स खोज रहे हैं--मेस्कलीन हैं, एल एस डी है, और कुछ है। बहुत पुराने दिन से यह खोज चल रही है, वेद के ऋ षियों से लेकर आज तक, सोमरस से लेकर एल एस डी तक वही खोज चल रही है कि अपने को किस तरह भूल जाएं? कोई नशा कर लें और अपने को भूल जाएं। भूल जाने में अच्छा लगता है क्योंकि अपने को जानने में बुरा लगता है। वह जो अपने को जानने की पीड़ा है, दंश है, द्वंद्व है, तकलीफ है कि मैं यह क्या हूं? उसे जितनी देर को हम भूल जाते हैं तो हम तो भगवान हो जाते हैं क्योंकि वह सारा अंधेरा भूल गया। सब ज्योति हो गई, वे सारे घाव भूल गए, सब स्वस्थ्य हो गया। वे सब पीड़ाएं भूल गईं, चिंताएं भूल गईं, सब शांत और संगीत हो गया, लेकिन कोई अपने को कितनी देर भूले रह सकता है, और भूले रहना क्या कोई क्रांति है या कि कोई परिवर्तन?
भूलना कोई मार्ग तो नहीं हो सकता। न भागना कोई मार्ग हो सकता है, न भूलना कोई मार्ग हो सकता है। भूलने से क्या हित है? सो जाने से कौन सी राहत है? सो जाने से वह चीज दबी रह जाएगी भीतर, दिखाई नहीं पड़ेगी, लेकिन कब तक सोए रहेंगे? क्या सोने से उसका अंत हो जाएगा जिससे हमने भागना चाहा था? क्या आत्म-विस्मरण से जीवन की चिंता से छुटकारा हो जाएगा? क्या आत्म-विस्मरण मुक्ति बन सकता है? नहीं, बिल्कुल नहीं, कभी भी नहीं, बल्कि जितनी देर आत्मविस्मरण में बीतता, उतना जीवन व्यर्थ हो जाता है, उतना अवसर खो जाता है, जिसमें हम अपने को जान लेते और शायद बदल लेते। उतना अवसर अपने हाथ से हम खो देते हैं। उतना अवसर हमारे हाथ से व्यर्थ रीत जाता है।
उतनी शक्ति और क्षमता जो हमने अपने को भुलाने में लगाई काश हम अपने को जगाने में लगाते, तो जिंदगी और हो सकती थी। जिंदगी कुछ और हो सकती थी। बात कुछ और हो सकती थी। लेकिन हमने अपने को भुलाने में लगाया है, एक आदमी के पैर में फोड़ा हो और वह नशा करके भूल जाए। एक आदमी के सिर में दर्द हो, और वह अफीम खाकर सो जाए। और एक आदमी की जिंदगी में चिंता हो, पीड़ा हो, परेशानी हो और वह भजन करता रहे और भूल जाए। क्या इससे कोई पीड़ा, इससे कोई दुख, इससे कोई बीमारी का अंत होता है? नहीं उसका तो कोई अंत कैसे होगा? उसका अंत तो उसके साक्षात से हो सकता है, उसके मुकाबले से हो सकता है, उसके निकट जानने से उसे पहचानने से हो सकता है, ज्ञान के अतिरिक्त मनुष्य के जीवन की चिंता और दुख से कोई छुटकारा नहीं है। लेकिन ज्ञान से शायद हम भयभीत हैं, क्योंकि ज्ञान की पहली सीढ़ी अपने को जानना होगी। और अपने को जानने का अर्थ आत्मा को जानना नहीं है, अपने को जानने का अर्थ परमात्मा को जानना नहीं है, अपने को जानने का पहला और सीधा अर्थ अपने चित्त को, अपने मन को जानना है। मन शांत हो जाए, समाप्त हो जाए, मन विलीन हो जाए, तो जो जाना जाएगा वह है आत्मा। मन के रहते, मन की इस दौड़ और आकांक्षा में डूबे रहते, उससे कोई परिचय नहीं हो सकता। जैसे समुद्र में तूफान हो और सारी समुद्र की छाती लहरों से भरी हो, तो उन लहरों में डूबे समुद्र को, उस समुद्र की शांति को, उस समुद्र की अथाह गहराई को देखना और जानना असंभव है। हां हम हो जाएं लहरें तो समुद्र सामने आएगा, शांत और गहरा और अथाह। लेकिन लहरों के तूफान में तो उसका कोई दर्शन नहीं हो सकता। मन का तूफान है, विचार का तूफान है, चिंता का तूफान है, बहुत लहरें हैं। तो उन लहरों के नीचे छिपी आत्मा के सागर से कोई मिलन नहीं हो सकता।
इन लहरों को जानना ही होगा, इन लहरों को जान कर, इनके विलीन होने पर ही पीछे छिपे सागर की अनुभूति हो सकती है। तो पहला कदम बहुत नकारात्मक है, और वह यह कि अपने से भागना हम बंद करें। लेकिन पहले तो यह समझ लें कि हम अपने से भाग रहे हैं; आमतौर से तो हम समझते हैंः मैं भाग कहां रहा हूं अपने से? लेकिन हम भाग रहे हैं। इस तथ्य को मेरे कहने से नहीं, अपने भीतर, अपनी जिंदगी में खोजने से ही देखा जा सकता है। सुबह से सांझ तक हम भाग रहे हैं, जो हम हैं न हम जानना चाहते हैं और न दूसरे को जानने देना चाहते हैं कि हम क्या हैं? और हम रोज-रोज नई तस्वीरें और रोज-रोज नये चित्र गढ़ लेते हैं, और नये कपड़े बना लेते हैं। और भरते जाते हैं कपड़ों से, डूबते जाते हैं, धीरे-धीरे खो जाते हैं, कपड़े ही रह जाते हैं। और हमारा कोई पता नहीं रह जाता कि हम कहां हैं? अगर हमारे कपड़े कोई छीन ले एकदम तो शायद हम पहचान भी न पाएं कि हम कौन हैं? हम क्या हैं? जो बाते हमने दूसरों को दिखाई है, अगर हमारी पोंछ दी जाएं, छीन ली जाएं, तो हम नग्न खड़े रह जाएं, और पहचानना मुश्किल हो जाएगा कि मैं कौन हूं?
मैंने सुना है, एक भिखारी औरत, एक संध्या एक मेले से भीख मांग कर वापस लौट रही थी। दिन भर थक गई थी, बूढ़ी औरत थी। दिन भर मेले की दौड़-धूप में थक गई थी, मांगने में एक-एक आदमी के सामने हाथ फैलाने में। चलते समय घर लौटते वक्त रास्ते में एक झाड़ के नीचे विश्राम करने को ठहरी और सो गई। उस मेले से और लोग भी उस रास्ते से निकल रहे थे, दो अभिनेता जो कि मेले में नाच-कूद कर लोगों को खुशी दिए थे और अपनी जेबें भर कर लौट रहे थे। दो हंसोड़ आदमी, वे भी उस रास्ते से निकले और उस बूढ़ी औरत को उन्होंने सोते देखा। उन्हें मजाक सूझी, उन्होंने उसके डिब्बे को उठा लिया जिसमें उसने दिन भर के पैसे इकट्ठे किए थे। उसकी टोकरी में जो सामान उसने मांगा था, वह भी निकाल लिया। और चलते वक्त आखिरी मजाक की जो कोई भी आदमी किसी दूसरे आदमी के साथ कर सकता है। चलते वक्त उस सोई, थकी, बूढ़ी औरत के कपड़े भी वे निकाल कर ले गए। वह थकी बूढ़ी औरत नग्न पड़ी रह गई। सब कुछ उसका ले गए थे, उसका भिक्षा का पात्र, उसकी मांगी हुई चीजें, उसके पैसे और उसके वस्त्र भी। यह बड़ा मजाक था। क्योंकि उसके कपड़े ले गए होते, उसके भिक्षा के सामान ले गए होते, तो कोई बात न थी, लेकिन उसके पहने हुए वस्त्र भी, कठिनाई हो गई, बूढ़ी की आधी रात के करीब नींद खुली। उसने हाथ फेरा तो पाया कि उसके वस्त्र नदारद हैं। वह बहुत हैरान हुई, उसे ख्याल आया कि मैं, मैं तो वस्त्र पहने हुए थी, फिर यह नग्न औरत कौन है? उसने अपने डिब्बे को देखा और डब्बा नदारद था। उसने कहा, मैं तो भिक्षा मांग कर लाई थी और वस्त्र? मेरा डब्बा भरा हुआ था, पैसों से, डब्बा कहां है, मेरी टोकरी कहां है? मेरी पोटली कहां हैं? कुछ भी न था, और तब वह खड़ी हुई उसने देखा कि उसके ऊपर कोई वस्त्र नहीं है, उसे बड़ी कठिनाई हो गईं, पहचानने में कि मैं कौन हूं?
उसे बड़ी हैरानी हुई कि मैं जो थी उसके पास तो वस्त्र थे, अब मैं कौन हूं? अब मैं कैसे पहचानूं कि मैं वही हूं या कोई और हूं? उसने सोचा कि चलुं अंधेरी रात है, घर चली चलूं, कोई रास्ते पर भी नहीं है, मेरा कुत्ता तो मुझे जरूर पहचान लेगा। उसके घर पर उसके पास एक कुत्ता था। बूढ़ी औरत भीख मांग कर आती थी तो कुत्ता दौड़ कर बाहर आ जाता था, और पूंछ हिलाने लगता था। सभी लोग कुत्ते पाल रखते हैं, जो पूंछ हिलाएं और पहचानें, नहीं तो कोई भी आदमी अपने को पहचानने में कठिनाई पाएगा। सम्राट भी कुत्ते पाल रखते हैं, भिखारी भी। क्योंकि वे पूंछ हिलाते हैं तो खुद को पहचानने में आसानी होती है कि मैं वही हूं। वह बूढ़ी गई अपने घर भागी हुई कि अब एक ही रास्ता है कि कुत्ता मुझे पहचान ले, तो निश्चित हो जाए कि मैं वही हूं, कोई मेरे कपड़े ले गया और मेरा सामान ले गया। और अगर कहीं कुत्ते ने भी नहीं पहचाना तो? वह डरी हुई थी, लेकिन एक ही उपाय था, वह घर गई और जैसा कि आप समझ सकते हैं, कुत्ता नहीं पहचान सका। क्योंकि नंगी बूढ़ी उसने कभी देखी नहीं थी। कुत्ता बजाय इसके कि पूंछ हिलाता, जोर से भौंकने लगा, एक अपरिचित और वह बूढ़ी घबड़ा गई। उसने कहा अब तो बड़ी कठिनाई हो गई, कुत्ता भी नहीं पहचानता है कि मैं कौन हूं?
मुझे पता नहीं कि इसके आगे क्या हुआ? उस बूढ़ी ने क्या रास्ता खोजा और कैसे वह अपने को पहचान पाई? लेकिन हम सबकी भी यही हालत हो जाए, अगर रात सोते में हमारे ओढ़े हुए सारे वस्त्र, हमारे व्यक्तित्व की सारी चादरे कोई खींच ले, और सुबह हम पाएं कि वह जो पद, वह जो नाम, वह जो प्रतिष्ठा, वह जो सब कुछ अखबारों ने हमारे लिए कहा था वह और पड़ोस के लोग जो हमसे कहते थे, वह सब छीन लिया गया है। और मेरे पास वह कुछ भी नहीं है। वह तख्तियां जो मैंने घर के आगे लगा रखी थीं, वह सर्टिफि केट जो मेरे पास थे, वह मेरे पास कुछ भी नहीं है। उस नग्न अवस्था में हम भी अपने को न पहचान पाएंगे। हम अपने को पहचानते ही नहीं हैं, दूसरे लोग हमें पहचानते हैं, इसी से हम अपने को पहचानने लगते हैं। कोई आपसे कहता है, आप बहुत भले आदमी हैं, और आपके भीतर एक ख्याल बन जाता है कि आप बहुत भले आदमी हैं। और कोई कहता है आप बहुत बुरे आदमी हैं, तो आपको चोट लगती है क्योंकि पहले आदमी ने जो भले आदमी की आपके भीतर धारणा भर दी थी, ये उस धारणा को छीन रहा है और आप फिर खाली हो जाएंगे। और भीतर फिर कोई धारणा न रह जाएगी। चौबीस घंटे हम अपने संबंध में एक इमेज, एक प्रतिमा खड़ी करने में लगे हुए हैं, और यह प्रतिमा हम खड़ी कर भी लेते हैं, कोई कुछ बन जाता है, कोई कुछ, लेकिन भीतर, भीतर वह जो हमारे छिपा है, उससे हम अपरिचित ही रह जाते हैं। और यह प्रतिमा रोज-रोज बदलनी पड़ती है, क्योंकि आस-पास के लोग रोज बदल जाते हैं।
नेपोलियन हार गया और सेंट हेलेना के द्वीप में उसको बंद कर दिया गया। महान विजेता एक कैदी की भांति बंद हो गया था। लेकिन दुश्मनों ने भलमनसाहत बरती थी। उसके हाथ में हथकड़ियां नहीं डालीं थीं। द्वीप पर चलने-फिरने की उसे आजादी थी। लेकिन द्वीप से भागने का कोई उपाय न था। सुबह ही सुबह वह घूमने निकला था। और दुश्मनों ने यह भी भलमनसाहत की थी कि उसके डाक्टर को भी उसके पास छोड़ दिया था। डाक्टर और वह दोनों घूमने निकले थे, सुबह-सुबह। एक पगडंडी पर उस ओर से छोटे से पहाड़ी रास्ते पर एक औरत अपने घास की गटरी लिए हुए आती थी। नेपोलियन का डाक्टर एकदम चिल्लाया और कहा, ओ घसियारिन! रास्ता छोड़, देखती नहीं है नेपोलियन आ रहा है। लेकिन नेपोलियन ने उस डाक्टर को कहाः मेरे मित्र वह प्रतिमा नष्ट हो गई, जो कल तक मेरी थी। तुम भूल में हो, अब कोई नेपोलियन नहीं है, मैं एक साधारण कैदी हूं। तुम वही प्रतिमा ढोए जा रहे हो, जो कल तक मेरी थी, वह टूट गई। मुझे रास्ते से हट जाना चाहिए और नेपोलियन रास्ते से हट गया। और उसने कहा वे दिन गए, जब मैं पहाड़ से कहता कि हट जाओ, और पहाड़ हट जाते थे। आज एक घास वाली औरत के लिए मुझे हट जाना चाहिए।
यह नेपोलियन बहुत समझदार आदमी रहा होगा। इस बात को समझ सका कि वह प्रतिमा मैंने बनाई थी इतने दिन तक वह टूट चुकी है। हम सब भी अपनी प्रतिमा बना रहे हैं। हो सकता है मौत तक न भी टूटे, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? अगर हम अपनी प्रतिमा को ही जानते हैं तो वह प्रतिमा झूठी है, हमारी बनाई हुई है। और उस प्रतिमा को ही अगर हमने मान लिया कि मैं हूं तो हम उसको कभी न जान सकेंगे जो वस्तुतः मैं हूं। जो प्रतिमा से उलझ गया वह आत्मा को कभी न जान सकेगा। इस प्रतिमा को इसके पहले की मौत तोड़ दे, या इसके पहले की कोई बड़ी हार नेपोलियन की प्रतिमा को तोड़ दे, जो आदमी समझता है वह खुद ही इस प्रतिमा को तोड़ देता है और भीतर प्रवेश करता है, वही आदमी साधक है, जो अपने हाथ से बनाई गई प्रतिमा को तोड़ कर भीतर प्रवेश करता है। वह प्रवेश कैसे हो सकता है? उसकी चर्चा मैं कल सुबह आपसे करूंगा, आज तो मुझे इतना ही कहना था कि हमने एक झूठी प्रतिमा अपने बाबत खड़ी कर ली है। एक फॉल्स इमेज हमने बना लिया है, कोई वजह है, कोई कारण है इसलिए हमने यह बना लिया है। आत्मज्ञान का जो अभाव है उसको भरने के लिए हमने एक झूठी प्रतिमा बना ली है और उसी को मान लिया है कि मैं हूं।
इस प्रतिमा के भीतर बिल्कुल उलटी हमारे चित्त की स्थिति है। हमने ऊपर फूल चिपका लिए हैं, भीतर दुर्गंध भरी है। हमने ऊपर रोशनी कर ली है, भीतर अंधेरा भरा है। और उस अंधेरे से हम डरते हैं कहीं उसका हमें पता न चल जाए। क्योंकि उसका पता इस प्रतिमा की हत्या हो जाएगी। यह प्रतिमा टूट जाएगी अगर उसका हमें पता चल गया। लेकिन गुजरना ही पड़ता है इस रास्ते से, उस प्रतिमा को तोड़ने के, अन्यथा कोई फिर और गहरे और भीतर नहीं जा सकता। फिर वह अपने से बाहर ही घूमता हुआ रह जाता है। और हम सबने इतनी सुरक्षा कर ली है इस प्रतिमा में कि इसमें कोई दरवाजा भी नहीं छोड़ते हैं कि कहीं हम भीतर जा सकें, क्योंकि वह दरवाजे से कोई दूसरा भी भीतर जा सकता है। और कहीं वह भीतर हमारे जाकर देख ले, तो हमने सब तरह की सिक्योरिटी कर ली है। प्रतिमा को सब तरफ से बंद कर दिया है। अपने चारों तरफ खोल खड़ी कर ली है। और उसके भीतर हम बंद हो गए हैं।
एक सम्राट ने एक महल बनाया था। उस महल की दूर-दूर तक चर्चा हुई और दूर-दूर के सम्राट उसे देखने आए। महल बहुत अदभुत था। इतना सुरक्षित महल कभी भी नहीं बनाया गया था। पड़ोस का एक सम्राट उसे देखने आया। महल के मालिक ने एक-एक महल का कौना-कौना दिखलाया। सम्राट चकित हुआ, इतना सुरक्षित था वह कि चोर उसमें घुस न सकते थे, दुश्मन उसमें प्रवेश नहीं कर सकते थे। एक ही दरवाजा था उस महल में, ताकि कोई भीतर न आ सके। ताकि भीतर से कोई अनजान, अपरिचित बाहर न जा सके। द्वार पर सख्त पहरा था। लौटते वक्त पड़ोसी सम्राट ने प्रशंसा की और कहाः बहुत सुंदर महल बनाया, बहुत सुरक्षित, मैं भी कोशिश करुंगा एक ऐसे महल को बनाने की।
एक भिखारी द्वार पर खड़ा था वह यह सुन कर हंस पड़ा। मकान के मालिक ने पूछा क्यों हंस रहे हो? क्या बात है? कोई भूल है मेरे महल में? उस भिखारी ने कहाः एक भूल है, इसमें यह एक दरवाजा है, यह भूल है, यह दरवाजा भी नहीं होना चाहिए। इससे कोई और आ सके या न आ सके, मौत इस दरवाजे से भीतर आ जाएगी।
और तुम असुरक्षित हो, भीतर बंद हो जाओ और यह दरवाजा भी बंद कर लो, तुम पूरी तरह सुरक्षित हो जाओगे। कब्र में ही आदमी पूरी तरह सुरक्षित हो सकता है। इसलिए उलटा भी सच है, जो आदमी पूरी तरह सुरक्षित हो जाता है वह कब्र में बंद हो जाता है। और हम सबने अपनी-अपनी कब्र बना ली हैं। अपनी-अपनी प्रतिमाओं में, अपने-अपने इस झूठे रूप में हमने अपनी-अपनी कब्र बना ली हैं, उसके भीतर हम सुरक्षित हो गए हैं।
यह सुरक्षा मौत है। और इस मौत से बेचैनी और घबड़ाहट पैदा होती है। इस सुरक्षा से बाहर निकलने का मन होता है। स्वतंत्रता की आकांक्षा होती है, चिंता होती है, अशांति पैदा होती है तब हम पूछते हैं कि हम शांत कैसे हो जाएं? हम मुक्त कैसे हो जाएं? अमुक्ति हमने बना ली है, बंधन हमने खड़े कर लिए, दीवालें हमने बना लीं, कब्र हमने खड़ी कर ली हैं और हम पूछ रहे हैं सारी दुनिया में कि हम मुक्त कैसे हो जाएं? कौन करेगा मुक्त आपको? कोई तीर्थंकर करेगा, कोई अवतार करेगा, कोई बुद्ध करेंगे, कोई गुरु करेगा, कोई किसी को मुक्त नहीं कर सकता? आप तो अपनी दीवालें खड़ी कर रहे हैं, और चिल्लाते हैं कि हमें मुक्त होना है। कृपा करें, पहचानें आप अपनी अमुक्ति खुद हैं। और जिस दिन आपको यह दिखाई पड़ जाएगा कि आपकी सुरक्षा ही आपका बंधन और कारागृह बन गई है, अपनी ही सुरक्षा में खड़ी की गई अपनी ही प्रतिमा हमारी मृत्यु बन गई है, उसी दिन इस प्रतिमा को तोड़ देना क्षण भर का काम होगा। आप इसको बनाते हैं इसलिए यह है। जिस दिन आप नहीं बनाते हैं उसी दिन यह विलीन हो जाती है। इसकी अपनी कोई सामर्थ्य और शक्ति नहीं है।
अमुक्ति मनुष्य का अपना सृजन है, और जिस दिन वह इसका सृजन बंद कर देता है, उसी क्षण मुक्त हो जाता है। और जो मुक्त है उसके लिए न कोई दुख है, न कोई पीड़ा है उसके लिए शाश्वत आनंद के, अमृत के द्वार खुल जाते हैं। और उस आनंद में वह जिसे पहचानता है, वही परमात्मा है, तब सब तरफ परमात्मा ही शेष रह जाता है। जब तक हम अपने कारागृह में बंद हैं तब तक हमारे भीतर भी परमात्मा नहीं है और जिस दिन हम अपने कारागृह को तोड़ कर मुक्त हो जाते हैं, उसी दिन सब तरफ भीतर और बाहर वही है, केवल वही है, केवल परमात्मा ही है। उसे जो जान लेता है वह धन्य है, वह कृतार्थ हो जाता है। जो उससे अपरिचित रह जाता है, उसका जीवन एक दुख की कथा है, उसका जीवन एक लंबी मृत्यु है, उसका जीवन एक अंधकारपूर्ण रात्रि है, उसके जीवन में जीवन जैसा कुछ भी नहीं है। कैसे इस बंधन से जो हमारा ही निर्मित है छुटकारा हो सकता है, उसकी बात कल सुबह मैं आपसे करूंगा।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुग्रहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें। 

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