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मंगलवार, 20 नवंबर 2018

चेतना का सूर्य-(प्रवचन-06)

प्रवचन-छट्ठवां 

परम जीवन का सूत्र

जिस दिन हमें अपने स्वयं को पूरी सम्पदा का, अपने स्वयं के पूरे सुख की पूरी शक्ति का पता चलता है। उस दिन यह खतरा है कि हम भूल जायें कि यह स्व बड़ी छोटी भूमि हें, यह बड़ी अनन्त भूमि का एक छोटा-सा टुकड़ा है। यह ऐसे ही है, जैसे किसी ने मिट्टी के घड़े में पानी के भीतर पानी है सागर की ही। लेकिन सागर की, उस मिट्टी के घड़े बाहर जो सागर है, उससे इसकी तुलना!
 --... इसी अध्याय से
योग का आठवां सूत्र। सातवें सूत्र में मैंने आपसे कहा, चेतन जीवन के दो रूप हैं स्व-चेतन कान्शस और स्व-अचेतन, सेल्फ अनकान्शस। आठवां सूत्र है स्व-चेतना से योग का प्रारम्भ होता है और स्व के विसर्जन से अन्त। स्व-चेतन होना मार्ग है, स्वयं से मुक्त हो जाना मंजिल है। स्वयं के प्रति होश से भरना साधना है और अन्ततः होश ही रह जाये, स्वयं खो जाये, यह सिद्धि है।

स्वयं को जो नहीं जानते हैं, वे तो पिछड़े ही हुए हैं, जो स्वयं पर ही अटक जाते हें, वे भी पिछड़ जाते हैं। जैसे सीढ़ी का चढ़कर कोई अगर सीढ़ी पर ही रुक जाय तो चढ़ना व्यर्थ हो जाता ह। सीढ़ी चढ़नी भी पड़ती है और छोड़नी भी पड़ती है। मार्ग पर ही रुक जायें तो भी मंजिल पर नहीं पहुंच पाते। मार्ग पर चलना भी पड़ता है।
और मार्ग छोड़ना भी पड़ता है, तब मंजिल तक पहुँचता है मार्ग मंजिल तक ले जा सकता है, अगर मार्ग को छोड़ने की तैयारी हो। और मार्ग ही मंजिल में बाधा बन जायेगा, अगर पकड़ने का आग्रह हो। स्वयं के प्रति होश से भरना सहयोगी है, स्वयं के विसर्जन के लिए। लेकिन अगर स्वयं को ही पकड़ लिया जाये तो जो सहयोगी है, वही अवरोध हो जाता है। इस सूत्र को समझना शायद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।

स्वयं को तो पाने की हमारी उत्कट आकांक्षा होती है, लेकिन स्वयं को खोना कठिन बात है। इसलिए बहुत-से असाधक योग के सातवें सूत्र तक आते हैं, आठवे सूत्र में नहीं आ पाते। सातवें सूत्र तक हमारे अहंकार को कोई बाधा नहीं है। सातवें सूत्र तक की यात्रा ईगोसण्टर्ड है, अहंकार-केन्द्रित है। इसलिए सातवें सूत्र तक साधक से अगर कहें कि धन छोड़ दो तो साधक धन छोड़ देगा। कहें कि परिवार छोड़ा दो तो परिवार छोड़ देगा। कहें कि यश छोड़ दो, महत्वाकांक्षा छोड़ दो, सिंहासन छोड़ दो तो वह सब छोड़ देगा। लेकन सब छोड़ने के पीछे ‘मैं’ मजबूत होता चला जाता है।
साधना में भी उत्सुक होगा इसीलिए कि वह ‘मैं’ और भी निखर जाये। साधना में भी इसलिए लगेगा कि ‘मैं’ कुछ हो जाऊं। परमात्मा को भी इसीलिए खोजेगा कि कहीं मैं परमात्मा के बिना न रह जाऊं। सातवें तक आने में अड़चन, कठिनाई नहीं है। असली कठिनाई सातवें के बाद आठवें सूत्र को समझ लेने में हैं, क्योंकि आठवां सूत्र तो स्वयं को खोने का सूत्र है, स्वयं के विसर्जन का सूत्र तक अपार ऊर्जा, अपार शक्ति का जन्म हो जायेगा। लेकिन परमात्मा से मिलन नहीं हो सकता है। सातवें सूत्र तक स्वयं से मिलन होगा।
स्वयं से मिलन भी छोटी बात नहीं है, बहुत बड़ी बात है। लेकिन पिछले छः सूत्रों की दृष्टि से बड़ी बात है, आठवें सूत्र की दृष्टि से बड़ी बात नहीं है। स्वयं को पा लेना भी बहुत कठिन है। स्वयं को भी पूरा जान लेना बहुत कठिन है। लेकिन उससे ज्यादा कठिन स्वयं को भी खोना और विसर्जित करना है। अगर एक व्यक्ति कारागृह में कैद हो तो कारागृह से मुक्त होने के लिए पहली शर्त तो यही होगी कि वह जाने कि कारागृह में कैंद है। अगर उसे यह पता ही न हो कि वह कारागृह में है। दूसरी शर्त होगी कि कारागृह को ठीक से पहचानना कि कारागृह क्या हे? कहाँ है दीवार? कहाँ है मार्ग, कहाँ हैं खिड़कियां, कहाँ हैं शीशे, कहाँ है कमजोर रास्ता, कहाँ से निकला जा सकता है, कहाँ पहरेदार है? दूसरा सूत्र होगा, कारागृह से पूरी तरह परिचित होना, कारागृह के प्रगति पूरी तरह सचेतन होना, तब कहीं कारागृह से छुटकारा हो सकता है।
मनुष्य के गहरे व्यक्तित्व में स्व ही कारागृह है, सेल्फ में अहंकार ही कारागृह है। छोटा कारागृह है, लेकिन बड़ा है। बड़ी शक्तियों से भरा है, बड़े खजाने डूबे हैं, पर कारागृह है। उसके बाहर विराट का विस्तार है, जहाँ स्वतन्त्रता है, जहाँ मुक्ति है। पहले तो हमें अपने इस स्व का ही पता नहीं है कि इतना बड़ा क्या है? इसका पता लगाना सातवें सूत्र तक पूरा होता है। और जब इसका पूरा पता लगता है तो खतरा है बड़ा, वह खतरा आपसे कहूं। वही खतरा जो पार कर ले, वह सातवें सूत्र को समझ पायेगा। जैसे ही पता चलता है, इतनी सम्पत्तियां, इतने हीरे-माणिक, इतने खजानों का मैं मालिक हूँ, वैसे ही कारागृह कारागृह नहीं, सम्राट का महल मालूम पड़ने लगता है। अगर एक कैदी को भी पता चल जायें कि कारागृह में इतने खजाने भरे हैं, इतना सोना है, इतनी सम्पदा है, अगर उसको कारागृह के खजानों का पता चल जायें तो शायद वह भी यह बात इनकार कर दें कि कारागृह है, यह महल है सम्राट का और शायद यह खजाना ही उसे अब कारागृह से बाहर जाने के लिए बाधा बन जाये। हो सकता है पहरेदार इतना न रोक सकें होते और जंजीरे इतना न रोक सकती थीं, हो सकता है सारा इन्तजाम कारागृह का न रोक सका हो उसे बाहर जाने से लेकिन उसे कारागृह से मिले खजाने रोक सकते हैं।
जिस दिन हमें अपने स्वयं की पूरी सम्पदा का, अपने स्वयं के पूरे सुख की शक्ति का पता चलता है, उस दिन यह खतरा है कि हम भूल जायें कि यह स्व बड़ी छोटी भूमि है, यह बड़ी अनन्त भूमि का एक छोटा- सा टुकड़ा है। यह ऐसे ही है, जैसे किसी ने मिट्टी के घड़े में पानी भर के सागर में छोड़ दिया हो। वह मिट्टी के घड़े के भीतर पानी है सागर का ही। लेकिन सागर की, उस मिट्टी के घड़े से बाहर जो सागर है, उससे इसकी तुलना! हम भी मिट्टी के घड़े है बहुत है भीतर। वही है जो परमात्मा का है सागर का ही रूप, लेकिन बाहर जो है उसकी क्या तुलना है? मिट्टी के घड़े को भी एक दिन तोड़ना ही पड़ता है। जो सेल्फ है, जो मैं हूँ यह जो आत्मा का भाव है, यह जो ईगो है, अहंकार है, यह घेरे हुए है। लेकिन जिस दिन स्वयं को पूरी गरिमा का पता चलता है, उस दिन मिट्टी का घड़ा सोने का घड़ा होता है। तोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है। इसलिए बहुत बार साधक को अद्भूत तरह के अहंकारों का जन्म होता है। बहुत बार साधना के पथ पर चलने वाले को जो अन्तिम चीज रोक लेती है। वह, वह जगह है जहाँ उसका मैं सोने का हो रहा है, जहाँ उसे भीतरी ‘मैं’ की बड़ी गहरी घोषणा बन जाती है। जो इस पर रुक जाते हैं वे सातवें सिद्ध पर रुक जाते हैं। और यह रुक जाना वैसा ही है कि जैसे कोई आदमी अपनी मंजिल के करीब आकर द्वार पर रुक जाये। सारा रास्ता तय करे और मंजिल के बाहर ठहर जाये। ऐसा होता भी है।
हजारों मील आदमी चल लेता है और मंजिल के पास एक-एक कदम उठाना मुश्किल हो जाता है। हजारों मील चल लेता है, जब तक दूर होती है मंजिल तब तक दौड़ लेता है, जैसे-जैसे पास आने लगती है वैसे-वैसे थकान पकड़ने लगती है। अक्सर ऐसा हुआ है कि लोग मंजिलों के बाहर आकर विश्राम को चले गये हैं।
अनेक साधक सातवें सूत्र पर अटक जाते हैं। आठवां सूत्र छलांग है। बड़ी छलांग है। स्वयं को पाने की बात बड़ी नहीं है, स्वयं को खोने की बात बहुत बड़ी है। फिर मन में सवाल उठता है कि स्वयं को खोना किसलिए? स्वयं ही न होंगे तो जो भी होगा उसका क्या प्रयोजन है, क्या अर्थ है? स्वयं ही न होगा तो फिर क्या होगा मोक्ष? क्या होगा परमात्मा, क्या होगा योग, क्या होगा धर्म? स्वयं के लिए मुक्ति छोड़ी जा सकती है। स्वयं से मुक्ति बड़ी कठिन बात है। फ्रीडम फ्राम सेल्फ, स्वयं के लिए मुक्ति तो, आसान है, मन करता है कि मैं स्वतन्त्र हो जाऊं। लेकिन फ्रीडम फ्राम सेल्फ स्वयं से मुक्ति, वहाँ जाकर एकदम अटकाव आ जाता है। मन वहाँआखिरी छलांग की तैयारी में है। लेकिन येग के पास मार्ग है, जिससे उस आखिरी छलांग को भी पूरा किया जा सकता है।
सातवें सूत्र के बाद आठवें सूत्र में प्रवेश के लिए जो सबसे बड़ी खोज शुरू होती है वह यह है, मैं कौन हूँ? इसकी खोज शुरू होती हैं। मैं क्या हूँ, यह सातवें सूत्र तक पता चल जाता है। क्या हूँ? मैं कहा तक हूँ, यह सातवें सूत्र तक पता चल जाता हे। लेकिन मैं कौन हूँ, यह सातवें सूत्र तक पता नहीं चलता। उसकी खोज ही आठवां सूत्र बनता है कि मैं कौन हूँ, और जितना गहरे हम खोजते हैं, उतना ही हम पाते हैं कि वहां भी मेरा अन्त नहीं है, यहाँ भी मैं नही हूँ और आगे भी हूँ बियॉण्ड एण्ड बियॉण्ड। खोज चलती जाती, खोज चलती जाती है और सब सीमाएं टूट जाती हैं और आखिर में पता चलता है कि जो भी है वह सभी कुछ में हूँ। जिस दिन यह पता चलता है कि जो भी है वह सभी कुछ मैं हूँ, उस दिन मैं नहीं बचता, क्योंकि तू ही बचता है। कोई तू नहीं रह जाता है, बाहर के जगत में। सभी कुछ मैं हूँ। सभी कुछ मैं हूँ।
विगत 1857 की क्रान्ति के समय एक संन्यासी को अंग्रेज सिपाहियों ने मार डाला था। वह तीस वर्ष से मौन था, चुप था। लोगों ने उससे पूछा था, चुप्पी क्यों ले रहे हो, मौन क्यों हो रहे हो ता उसने कहा था, जो मैं कहना चाहता हूँ, वह कह नहीं सकता हूँ, क्योंकि शब्द असमर्थ हैं। और जो मैं कह सकता हूँ, उसे कहना नहीं चाहता हूँ, क्योंकि वह व्यर्थ है। फिर वह तीस साल चुप था। नग्न, चुप, मौन भटकता रहता था। रात में वह गुजर रहा था रास्ते से, अंग्रेज सिपाहियों की छावनी थी। उन्होंने उसे कोई डिटेक्टिव, कोई जासूस समझकर पकड़ लिया। उसने बहुत पूछा कि तुम कौन हो, लेकिन जब उसे पूछते थे कि तुम कौन हो तो हँसता था। वह मौन था, उत्तर भी नहीं दे सकता था। और कौन हूँ मैं, इसका उत्तर अब तक किसने दिया है? उत्तर दिया भी नहीं जा सका है। जब उत्तर मिलता है, तब तक उत्तर नहीं मिलता है।
तो यह जो पहेली है, अब तक हल नहीं हो पायी, कभी होगी भी नहीं। वह खोजने वाला जब खत्म हो जाता है, तब उत्तर मिलता है। तब उत्तर का कोई मतलब नहीं है। और जब तक वह खोजने वाला मौजूद रहता है तब तक उत्तर मिलता नहीं है। तब उत्तर दिया नहीं जा सकता, क्योंकि मिलता ही नहीं।
वह हँसता था खिलखिलाकर। जितना वह हँसता था, उतना सिपाही नाराज होते गये, अन्त में संगीन उन्होंने उसकी छाती में भोंक दी। वे समझे कि वह धोखा दे रहा है। मरते वक्त उसने दो शब्द जरूर कहे-तीस साल का मौन उसने मरते वक्त तोड़ा था। बड़ा अजीब था, क्योंकि पूछ रहे थे वे सिपाही कि कौन हो तुम? इसका उसने कोई उत्तर नहीं दिया। मरते वक्त आँख खोलकर वह फिर हँसा था और उसने उपनिषद के एक महावाक्य का प्रयोग किया था और मारने वाले और संगीन भोंकने वाले अंग्रेज पिहियों से कहा था-तत्त्वमसि श्वेतकेतु, तुम भी वही हो श्वेतकेतु, तुम भी वही हो! ‘पूछा था, कौन हो तुम? मरते वक्त उत्तर दिया था, तुम भी वही हो। यह नहीं कहा था, मैं कौन हूँ, तुम भी वही हो। बाकी छोड़ दिया, वह अण्डरस्टुड है, वही हूँ मैं, उसे छोड़ दिया, क्योंकि कौन कहे वहीं हूँ मैं, और वह बचा ही नहीं। उसने उत्तर बड़े चक्कर से दिया था, बहुत राऊण्ड अबाऊट था। कहा कि तुम भी हो, दैट आर्ट दाऊ।
पता नहीं, वे सिपाही संकेत नहीं समझे, मुश्किल ही है कि समझे हों। मैं कौन हूँ? इसकी खोज अन्ततः मैं का विसर्जन बन जाती है। इसकी खोज सातवें सूत्र के बाद ही हो सकती हे, इसके पहले बहुत कठिन है। सातवें सूत्र के बाद सरल है।
पूछ सकते हैं हम, क्योंकि अब जाग गये हें, प्रकाश से भर गये हैं, पूछ सकते हैं, मैं कौन हूँ? और यही प्रश्न एकमात्र धार्मिक प्रश्न है। इसका उत्तर कभी नहीं मिलेगा। ऐसा नहीं है कि आपको उत्तर मिल जाता है कि आप परमात्मा हो। जब तक ऐसा उत्तर आये, समझना, आपकी स्मृति ही उत्तर दे रही है। शास्त्र पढे़ हैं, वही बोल रहे हैं। शब्द सुने हैं, वही बोल रहे हैं। सिद्धान्त सीखे हैं, वे ही बोल रहे हैं।
वह आठवां सूत्र शास्त्रों से हल नहीं होता, सिद्धान्तों से हल नहीं होगा। इसलिए अगर इस आठवें का उत्तर आपका मन दे दे कि ब्रह्मा हो या मैंने अभी कहा-तत्त्वमसि श्वेतकेतु। आपने जो पढ़ा है। पूछें अपने से कि मैं कौन हूँ और मन कह दे, वही हो, इससे हल नहीं होगा। जब तक आप उत्तर दे सकते हो तब तक उत्तर नहीं मिलेगा, क्योंकि आपके पास उत्तर नहीं है, सिर्फ शब्द हैं। मैं कौन हूँ? और उत्तर कोई भी न हो। उत्तर है ही नहीं, क्योंकि अगर उत्तर ही आपके पास हो तो पूछने की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन हम सबके पास उत्तर हैं, इसलिए आठवें सूत्र में समस्त शास्त्र बाधा बन जाते हैं। समस्त ज्ञान बाधा बन जाते हैं। वह जिसको हम नॉलेज कहते हैं, ज्ञान कहते हैं, जो हमने सीखा है, समझा है, याद किया है, वह सब बाधा बन जाता है। श्रेष्ठतम बचन भी बाधा बन जाते हैं-गीता, कुरान बाइबल, सब बाधा बन जाते हैं।
जो भी हमने पढ़ा है। जो हमने सीखा है, सब उस आठवें सूत्र में बाधा देने लगता है, क्योंकि हमारी स्मृति उत्तर देती है कि यह हूँ मैं। यह हूँ मैं, यह हूँ मैं। इन सब उत्तरों को तोड़ डालना पड़ेगा। ये कोई उत्तर हमारे नहीं है। ये जिन्होंने दिये होंगे, उन्होंने जानकर दिये, जिन्होंने दिये होंगे, उन्होंने समझकर दिये हैं, लेकिन ये उत्तर हमारे नहीं है। यह उत्तर मेरा नहीं है। यह जानना मेरा नहीं है, यह बॉरोड है, उधार है, बासी है।
इस आठवें सूत्र से पहले सब ज्ञान छोड़कर मनुष्य को पूर्ण अज्ञानी हो जाना पड़ेगा। और जो अज्ञानी होने को समर्थ है- यह अज्ञानी बहुत और तरह का है। सुकरात ने एक छोटा-सा अच्छा विभाजन किया है। और वे लोग जो आठवें सूत्र के करीब पहुँचे हैं, उनमें सुकरात एक है। सुकरात के गांव के कुछ लोगों ने जाकर कहा कि डेल्फी की देवी ने घोषणा की है कि सुकरात से बड़ा ज्ञानी और कोई नहीं है। तो लोगों ने आकर कहा कि डेल्फी की देवी का वचन है कि सुकरात से बड़ा ज्ञानी और कोई भी नहीं है-क्या कहते हो? सुकरात ने कहा-कहा न कहीं कोई भूल हो गयी हे, क्योंकि मैं तुमसे कहता हूँ, सुकरात से बड़ा अज्ञानी और कोई भी नहीं है। लोगों ने कहा-यह तो बड़ी मुश्किल हो गयी। अब हम अगर डेल्फी की देवी की बात मानें कि सुकरात ज्ञानी है तो सुकरात की बात भी माननी पड़ेगी। और सुकरात कहता है कि सुकरात से बड़ा अज्ञानी और कोई भी नहीं है। और अगर हम सुकरात की बात मानें कि सुकरात से बड़ा अज्ञानी कोई नहीं है तो डेल्फी के वचन का क्या होगा? उन्होंने कहा-हमें मुश्किल में डाल दिया सुकरात ने।
सुकरात ने कहा-हमारा काम मुश्किल में डालना है। हम भी बहुत मुश्किल में पड़े तब यहाँ तक आ पाये। पर उन्होंने कहा-हम क्या समझें? तो सुकरात ने कहा-जाकर वापस डेल्फी की देवी से पूछो। वे वापस गये और डेल्फी की देवी से पूछा कि सुकरात तो कहता है कि मुझसे बड़ा अज्ञानी कोई भी नहीं है। आप कहती हैं कि उससे बड़ा ज्ञानी कोई नहीं है। डेल्फी की देवी ने कहा-इसीलिए, इसीलिए कहती हूँ कि उससे बड़ा ज्ञानी कोई भी नहीं है, क्योंकि जिसको अपने अज्ञान का पता चल गया हो, वह ज्ञान के द्वार पर खड़ा हो गया है। वे लौट के आये, उन्होंने सुकरात से कहा देवी कहती है, इसलिए। अब तो यह पहेली और उलझ गयी। वह कहती है। इसलिए कि सुकरात अपने को अज्ञानी कह सकता है। कि जब मंजिल के द्वार पर खड़ा है। सुकरात ने कहा तुमने ख्याल किया, तुमने जब मुझसे आकर कहा तो मैंने यह सोचा कि डेल्फी की देवी को यह भ्रम कैसे हो गया? लेकिन उनका वचन बहुत अर्थपूर्ण था। इस वचन मे उसने यह नहीं कहा था कि सुकरात महाज्ञानी है। इसने कहा था, सुकरता से बड़ा ज्ञानी ओर कोई भी नहीं है। निगेटवि कहा था। उसने यह नहीं कहा था। तो सुकरात ने कहा तुम देवी के पास वापस गये, मैं गांव में पता लगाने गया कि मुझसे कोई बड़ा ज्ञानी है या नहीं? तो मैंने एक-एक ज्ञानी से जाकर पूछा।
सब सवालों के जवाब उनके पास थे, सिर्फ एक सवाल का जवाब उनके पास न था कि तुम कौन हो। मैं कौन हूँ, इसका उनके पास जवाब न था। तो मैंने उनसे कहा कैसे ज्ञानी हो? जिन्हें अभी यह भी पता नहीं कि हम कौन हैं, उनके और पता होने का मतलब भी क्या है? जो अभी यह भी नहीं जान पाये कि मैं कौन हूँ, वे और क्या जान पाये होंगे? मैं तो गांव के एक-एक ज्ञानी के पास जाकर लौट आया और उसने कहा कि देवी बहुत होशियार है। उसने कहा कि सुकरात से बड़ा ज्ञानी और कोई नहीं हे। इसका कुछ मतलब इतना ही है कि सुकरात से बड़ा ज्ञानी और कोई नहीं है। इसका कुछ मतलब इतना ही है। कि इस गांव में अज्ञानी तो अभी है, सिर्फ सुकरात को इतना ज्ञान है कि उसे अज्ञान का पता है। और कोई बात नहीं है। इतना ज्ञान भी गांव में किसी को नहीं है।
सातवें सूत्र को वही पार कर पायेगा जो अपने अज्ञान को अनुभव करे। जाने कि मुझे कुछ भी पता नहीं है। यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूँ। और जब यह गहन रूप से जाना जाता है, सघन, तब इसकी पीड़ा बहुत अद्भुत है। रोयें-रायें में, इसकी पीड़ा फैल जाती है कि मैं कौन हूँ। तब यह प्रश्न नही रहा जाता, तब यह कोई इण्क्वायरी नहीं रहती। तब यह कोई बौद्धिक सवाल नहीं रहता, जिसका कोई जवाब है कहीं। तब यह प्राणों की अकुलाहट, यह प्राणों की प्यास, तब यह प्राणों की सतत घुटन बन जाती है। सतत्। प्राण कम्पित होने लगते हें उसी एक जिज्ञासा से कि मैं कौन हूँ। और जब कहीं कोई उत्तर नहीं मिलता, कहीं कोई उत्तर है ही नहीं। जो कहीं से उत्तर पा लेगा, वह अपने को धोखा दे रहा है। कहीं कोई उत्तर नहीं है। जब कहीं कोई उत्तर नही मिलता और प्रश्न पीड़ा बनाये चला जाता है और पागल कर देता है, विक्षिप्त कर देता है भीतर, जब प्रशन ही प्रश्न रह जाता है, उत्तर की आशा ही मिट जाती है, उत्तर की सम्भावना भी मिट जाती है, उत्तर की अपेक्षा भी मिट जाती है, उत्तर मिलेगा, इसकी सम्भावना भी मिट जाती है। सिर्फ प्रश्न ही रह जाता है। बल्कि कहना चाहिए जब पूछने वाला और प्रश्न एक ही हो जाता है, उस क्षण प्रश्न भी खो जाता हैं। उत्तर नहीं मिलता, प्रश्न भी गिर जाता है। निष्प्रश्न, उस क्षण आदमी सातवें सूत्र से आठवें सूत्र में प्रवेश कर जाता है। उस क्षण वह नहीं कहता कि मैं कौन हूँ उस क्षण वह यह कहता है, मुझे वह बताओ जो मैं नहीं हूँ। उस क्षण वह कहता है मैं नहीं हूँ?
नानक गये हैं और मक्का के मन्दिर के बाहर सो गये हैं। उनके पैर मक्का के पवित्र पत्थर की तरफ हैं। पुजारियों ने आकर कहा पैर हटाओं। नासमझ, इतना भी तुझे पता नहीं कि पवित्र पत्थर की तरफ पैर नहीं करने चाहिए। परमात्मा की तरफ पैर करता है। तो नानक ने कहा मैं भी बड़ी मुश्किल में हूं। तुम मेरे पैर उस तरफ कर दो जहां परमात्मा न हो। पकड़ो मेरे पैर और उस तरफ कर दो जहाँ परमात्मा न हो। वे मुल्ला, वे पण्डित बड़ी मुश्किल में पड़ गये। वे हिम्मत भी न कर पाये कि नानक के पैर कहीं और करें, क्योंकि परमात्मा सब जगह है।
जिस दिन ‘मैं कौन हूँ’ यह प्रश्न भी गिर जाता है, उस दिन यह सवाल नहीं रह जाता, कि ‘मैं कौन हूँ’ उस दिन अगर कोई पूछे तो हम यही पूछेंगे कि मैं कौन हूँ, सभी कुछ मैं हूं। उस दिन वह जो दीवारे है बीच की, सेल्फ की, वह विसर्जित हो जाती है। वह गिर जाती है। वह बिल्कुल, ड्रीम, स्वप्न की दीवारे है। वह गिर जाती है। उसके गिरते ही व्यक्ति अनन्त के साथ एक हो जाता है। तब सेल्फ सेण्टर्ड, स्व-केन्द्रित व्यक्तित्व खो जाता है।
ऐसा नहीं है। कि आप मिट जाते हैं। ऐसा नहीं कि आप समाप्त हो जाते हैं। नहीं, आप तो होते ही हैं। और भी पूर्णता से होते हें, लेकिन आप ‘मैं’ नहीं रह जाते, आप सब हो जाते हैं। आप तब लहर नहीं रह जाते, सागर हो जाते हैं। आप तब बूंद नहीं रह जाते, विराट हो जाते हैं। आप आपकी तरह मिट जाते हें ओर परमात्मा की तरह हो जाते हैं। इसलिए ‘मैं’ को खोकर कोई कुछ भी नहीं खोता है। जैसे रात के स्वप्न से जागकर कोई कुछ भी नहीं खोता है, ऐसे ही ‘मैं’ के स्वप्न से जागकर भी कोई कुछ नहीं खोता है। रात के स्वप्न से जागकर पाता ही है, कुछ जागरण। ‘मैं’ के स्वप्न से जागकर भी पाता ही है कुछ, परमात्म जीवन-परमात्मा का जीवन। क्षुद्र दीवारे गिर जाती है। वह क्षुद्र घेरा टूट जाता है। वह लक्ष्मण रेखा ‘मैं’ की मिट जाती है। उसकी कोई जरूरत भी अब नहीं है। अब तक थी, सातवीं सीढ़ी तक, सातवें सूत्र तक उसकी जरूरत है। उस ‘मैं’ के सहारे इतनी यात्रा हुई है। अगर वह ‘मैं’ न हो तो इतनी यात्रा नहीं हो सकती। झूठ भी यात्रा में सहयोगी होते हैं, इलूजन भी, भ्रम भी यात्रा में सहयोगी होते हैं। मंजिल पाने नहीं ले जा सकते, मंजिल पर साथ नहीं जा सकते।
ईसाई फकीर, रूस के जेलखाने में बीस साल तक बन्द था उसने एक बहुत अद्भुत किताब लिखी है ‘इन गाड्स अण्डरग्राउण्ड’, प्यारा आदमी जेलखाने को, जो जमीन के नीचे अंधेरी कोठरी थी, उसको भी ‘इन गाड्स अण्डरग्राउण्ड’, नाम से उसने एक छोटी-सी किताब लिखी। वह परम्परा का ही, जमीन के नीचे छिपा घर। बीस साल तक बन्द था अंधेरी कोठरी में, जहां बीस साल तक रोशनी रोशनी नहीं दिखाई पड़ी। रोटियां फेंक दी जाती हैं एक बार, आदमी की आवाज सुनाई नहीं पड़ी। लेकिन पांच-सात दिन बाद अचानक बगल की दीवारे पर कोई खट-खट करके आवाज करने लगा। समझने की कोशिश की, लेकिन खट-खट से क्या समझ में आ सकता है। लेकन एक बात समझ में आ गयी कि कोई पड़ोसी कैदी भी है। फिर बीस साल तक दोनों साथ रहे, बीच में दीवार थी। उस पार कोई था फिर उन्होंने खट-खट करते धीरे-धीरे भाषा ईजाद कर ली। ए के लिए एक चोट, बी के लिए दो, सी के िएल तीन-ऐसी उन्होंने भाषा धीरे-धीरे ईजाद कर ली। फिर उन्होंने एक दूसरे का नाम जान लिया, फिर एक-दूसरे का मैसेज और सन्देश भी देने लगे। फिर एक-दूसरे को सुबह उठकर नमस्कार भी करने लगे। फिर एक-दूसरे को रात विदाई नमस्कार भी करने लगे। फिर तो उनका कम्युनिकेशन धीरे-धीरे गति पकड़ गया, कोड विकसित हो गया। ये दोंनों आदमी अगर कैदखाने के बाहर आ जायें तो क्या ये अब भी दीवारों को ठोंक के बात करेंगे? नहीं करेंगे, वह तो एक संकेत-लिपि विकसित करनी पड़ी, जिसके बिना दीवारों के पार काम नहीं चल सकता था।
आदमी का ‘मैं’ भी कोड लैंग्वेज है, जो चारों तरफ की दुनिया, जहां हम सब अपनी-अपनी दीवारों में बन्द हैं, वहाँ से खट-खट करके एक दूसरे से बातचीत करनी पड़ती हैं तो हम नाम रखते हैं दूसरे का, किसी को कहते हैं राम, किसी को कहते हैं, कृष्ण, किसी को कुछ, किसी को कुछ। सब नाम झूठे हैं। कोई बच्चा नाम ले के नहीं आता, लेकिन बिना नाम के तो दीवारों के आर-पार बात करनी बड़ी मुश्किल हो जायेगी। तो कृष्ण यानि खट-खट दो दफा। राम यानी तीन दफा। तो हम खट-खट करे एक-दूसरे से पिरचय बना लेते हें कि जब तक तीन बार खटखटायें तो समझना कि तुमको बुला रहे हैं। तुम हुए राम, तुम हुए कृष्ण। हम आदमियों का नाम चिपका देते हैं, यह कोड लैंग्वेज हैं, जिसमे दीवारों के पास बात करने का और कोई उपाय नहीं है।
सबको हम नाम दे देते हैं। मुझे किसी को बुलाना हो तो मैं कहता हूँ, राम इधर आओ। मेरा भी नाम हो सकता है। मेरा नाम है, लेकिन अगर मैं भी अपना नाम बुलाऊं तो बड़ी दिक्कत होगी समझने में किसी दूसरे को बुला रहा हूँ कि अपने को बुला रहा हूं। इसलिए कोड लैग्वेज दो तरफा है। जब अपने को बुलाना हो तो मैं कहता हूँ ‘मैं’ और जब किसी दूसरे को बुलाना होता हे। तो लेता हूँ नाम। जब आपको भी अपने को बुलाना है तो आप कहते है मैं और जब दूसरे को बुलाना है तो आप बुलाते हैं।
स्वामी राम अमेरीका गये तो वे अपने को भी राम ही कहकर बुलाते थे। उन्होंने मैं कहना बन्द कर दिय था। स्वभावतः कोड लैंग्वेज तोड़ियेगा तो गड़बड़ होगी। वह अपने को भी राम ही कहते है। रास्ते में कोई हंस दिया, किसी ने गाली दी तो वह लौट के आकर कहते, आज राम बड़ी मुश्किल में पड़े हुए थे। कुछ लोग मिल गये और गालियां देने लगे। तो जो लोग अपरिचित थे, अमरीका में, वे पूछते कि मतलब? क्या कह रहे हें आप? कौन राम? तो वे कहते हैं, यह राम। वे बड़ी मुश्किल में पड़ गये। धीरे-धीरे कोड को समझे लोग कि यह अपने को भी राम ही कहता है आदमी।
लेकिन हम अपने को राम कहें या मैं कहें, नाम दें या सर्वनाम का उपयोग करें, मैं का उपयोग करें न तो हम मैं को लेकर पैदा होते हैं और न हम नाम लेकर पैदा होते हैं। बच्चों को पहले तू का पता चलता है। बाद में ‘मैं’ का पता चलता है। बच्चे पहले दाऊ कान्शस होते हैं, तू के प्रति चेतन होते हैं, पहले उन्हें दूसरों का पता चलता है, ‘मैं’ का पता बाद में चलता है। जब तू बहुत सुनिश्चित हो जाते हैं तब इसलिए कई बच्चे ऐसा कहते हुए पाये जाते हैं कि इसको भूख लगी हें छोटे बच्चे कहेंगे, किसको भूख लगी है।? अभी ‘मैं’ विकसित नहीं हुआ है, अभी ‘मैं’ विकसित होगा।
इस जिन्दगी के व्यवहार में, कम्यूनिकेशन में, जहाँ हम सब अपने-अपने घेरों में बन्द, दीवारों में बन्द हैं, कोड लेंग्वेज विकसिकत करनी पड़ती है। मैं सूचक शब्द है, इशारा है उसके बाबत जिसका मुझे भी पता नहीं है कि कौन हूँ। कृष्ण, राम, सूचक है, इशारा है। उसके बाबत, जिसका मुझे भी पता नहीं है, कौन हूँ। हम सब दीवारों के पार खड़े हैं।
हम कैदियों की तरह हैं जो अपनी-अपनी दीवाल के पार से खट-खट करते रहते हैं। लेकिन ऐसी ही जिन्दगी है, हमें पहचान में नहीं आती हे यह बात, क्योंकि हम अपनी-अपनी सैल को, अपनी-अपनी दीवारों को अपने साथ लिये चलते हैं। वै कैदी बन्द हैं, एक जगह दीवारे थर हैं।
हम जन्म के साथ अपने कारागृह हो लेकर अपने साथ चलते हैं, इसलिए हमें कभी पता हनीं चलता कि मैं अपनी दीवारें अपने साथ लिया हूं। एक पति और पत्नी भी जिन्दगी भर दो दीवारों के पार कोड लैंग्वेज में बात करते हैं, जो बहुत मुश्किल से कभी-कभी समझी जाती हैं, कभी नहीं समझी तो नहीं समझी जाती हैं। पिता और बेटे भी बात करते हैं, मित्र भी बात करते हैं, लेकिन दीवारों के पार। खटखटाते कुछ हैं, दूसरा कुछ समझता है। वह डर से खटखटाता हैं, यहाँ कुछ समझते हैं। लेकिन एक बात भूल जाते हैं कि मैं भी और तू भी, ये दोनों ही शब्द कामचलाऊ, यूटीलिटेरियन हैं, द्रुथ नही है, सत्य नहीं है। उपयोगिता हैं, सत्य नहीं है।
इसलिए जैसे ही हम नये की खोज से निकलेंगे, पायेंगे कि मैं कहीं भी नहीं हे तो व्हेअर टू बी फाउण्ड। है ही नहीं कहीं। जैसे जिस आदमी का नाम कृष्ण है, वह अगर अपने भीतर कृष्ण की खोज में जाये तो क्या कहीं कृष्ण मिलेगा? वह लेबल तो डिब्बे के बाहर चिपका हुआ हे। कण्टेनर के बाहर। उसे भीतर खोजने जाइएगा तो कहीं भी नहीं पाइयेगा। ‘मैं’ भी भीतर कहीं नहीं हूं। ये कामचलाऊ शब्द हैं, भाषा की ईजादें हैं, लेकिन जरूरी नहीं हैं। और सातें सूत्र तक साधक को इनसे बाधा नहीं पड़ती, बल्कि सहयोग मिलता है।, क्योंकि सातवें सूत्र तक वह ‘मैं’ की ही खोज में आता है। ‘मैं’ के लिए शक्ति, ‘मैं’ के लिए शान्ति, ‘मैं’ के लिए मृक्ति, ‘मैं’ के लिए परमात्मा, वह इसकी खोज में आता हैं सातवें तक। सातवें तक ‘मैं’ उपयोगी है, सत्य नहीं। सातवें के बाद ‘मैं’ बाधा बनाना शुरू हो जाता है, उसकी उपयोगिता व्यर्थ हो गयी। आठवें पर वह कोड लैंग्वेज तोड़ देनी पड़ती है। आइवे पर तोड़ते वक्त पीड़ा होती है, क्योंकि इसी ‘मैं’ के लिए सब कुछ किया, इसी ‘मैं’ के लिए जिये, इसी ‘मैं’ के लिए मे, इस ‘मैं’ के लिए न मालूम कितने जन्म लिये!
हिन्दुस्तान से फकीर चीन गया। बोधिधर्म उसका नाम था। चीन का सम्राट उसका स्वागत करने आया था। रास्ते पर जब साम्राज्य प्रवेश के समय स्वागत किया बोधिधर्म का तो सम्राट ने मौका देखकर कहा कि में बहुत अशान्त हूँ, कुछ रास्ता बतायें। बोधिधर्म ने कहा कल सुबह तीन बजे आ जाओ तो शान्त कर देंगे। उस सम्राट ने बहुत फकीरों से सवाल पूछे, किसी ने कुछ रास्ता, किसी ने कुछ रास्ता बताया था, लेकिन यह आदमी अद्भुत मालूम पड़ा। इसने कहा, कल तीन बजे आ जाओ, शान्त कर देंगे। उसे थोड़ा कुछ शक हुआ कि यह मामला इतना आसान नहीं हो सकता हैं जिन्दगी भर अशान्त रहा, सब उपाय कर लिये और शान्ति नहीं हुई। उसने फिर कहा बोधिधर्म से कि शायद आपको मेरी जटिलता का पता नहीं है। धन जितना चाहिए पा चुका हूँ। लेकिन शान्ति नहीं मिलती। उपवास जितने कहे हैं करने को फकीरों ने, उतने किये हैं, शान्ति नहीं मिलती। मन्दिर बनवाये हैं लाखों, शान्ति नहीं मिलती। पुण्य जितना बताया, किया हैं उससे दुगुना शान्ति नहीं मिलती।
उस फकीर ने कहा ज्यादा बातचीत नहीं, सुबह तीन बजे आ जाओ, शान्त कर देंगे। बहुत हैरानी हुई। ठीक, सोचा कि तीन बजे देखेंगे। अब इसे शक हुआ कि इस आदमी के पास जाना भी कि नहीं सीढ़िया उतरता था मन्दिर की, जहां बोधिधर्म ठहरा था, आखिरी सीढ़ी पर पहुंचा था कि बोधिधर्म ने चिल्लाकर कहा सुन! मैं को साथ ले आना, नहीं तो शान्त किसको करूंगा। उसने कहा और पागलपन! उससे कहा जब में आऊंगा तो ‘मैं’ तो साथ रहेगा ही। उसेन कहा ध्यान रख के ले आना, घर मत छोड़ आना। रात में उसने कई दफा सोचा कि जाना कि नहीं, लेकिन सोचा, इतना हिम्मतवर आदमी कभी नहीं मिला जिसने कहा कि शान्त कर देंगे।
सुबह तीन बजे हिम्मत जुटाकर आया। चढ़ीं सीढ़ियां, चढ़ भी नहीं पाया था कि बोधिधर्म ने कहा ‘मैं’ को साथ लाया या नहीं? सम्राट वू ने कहा आप कैसी मजाक की बातें करते हैं, मैं आ ही गया हूँ तो ‘मैं’ को साथ लाने की बात क्या है? उस बोधिधर्म ने कहा मैं पूछता हूँ जानकर ही मैं हूं और मुझे दिखाई पड़ रहा है और फिर भी मेरा मैं अब मेरे साथ नहीं हैं इसलिए मैंने कहा कि साथ लाया कि नहीं अन्यथा मैं शान्त किसको करूंगा?
उस बोधिधर्म की समझ, उसकी बात उस सम्राट वू की समझ में कुछ आयी नहीं। फिर भी उसने कहा ठीक है, तब तू आ ही गया। तो तू कहता है, साथ ले आय है ता बैठ। आंख बन्द कर और पकड़ अपने ‘मैं’ को कि कहां है और पकड़कर मुझे दे दे, मैं उसे शान्त कर दूं।
उसने बोधिधर्म से कहा मुझे रात ही शक होता था कि नहीं आना चाहिए। आप किस तरह की बातें कर रहे हैं? मैं क्या कोई चीज है कि मैं पकड़कर आपको दे दूं। बोधिधर्म ने कहा मुझे न दे सके, छोड़ अपने भीतर खुद तो पकड़ सकता है।? उस सम्राट ने कहा मैंने कभी कोशिश नहीं की। बोधिधर्म ने कहा कोशिश कर। आंख बन्द करके वह सम्राट बैठा है, बोधिधर्म एक बड़ा डण्डा लेकर उसके सामने बैठा है।
वह सम्राट घबरा भी रहा है। रात हैं, अंधेरी है, अकेला आ गया इस भिक्षु का भरोसा करके। पता नहीं, यह क्या करने को उतारू है, बोधिधर्म बीच-बीच में उसका सिर डण्डे से हिलाता है और कहता है खोज, एक भी कोना छोड़ मत देनां जहां भी मिले, पकड़। आधा घण्टा बीत गया है, पौन घण्टा बीत गया हें, घण्टा भर बीत गया है, दो घण्टे बीत गये और वह सम्राट न मालूम कहां खो गया है! सुबह का सूरज निकलने लगा। बोधिधर्म ने कहा अब मैं स्नान वगैरह करूं? अभी तक नहीं पकड़ पाया? उस सम्राट ने आंखे खोलीं और उस बोधिधर्म के चरणों पर गिर पड़ा। उसने कहा यह तो मैंने कभी ख्याल ही नहीं किया था कि ‘मैं’ जैसी कोई चीज भीतर हैं ही नहीं। जब मैं खोजने गया तो कहीं पाता ही नहीं हूं। इस कोने उस कोने तक देख डाले। सब तरफ, कोने से उस कोने देख डाला, ‘मैं’ ते कही भी नहीं।
तो बोधिधर्म ने कहा अब मैं किसको शान्त करूं? मैं डण्डा लिये तीन घण्टे से बैठा हूँ। उस सम्राट ने कहा अब शान्त हो गया, क्योंकि जहां मैं नहीं हैं, वहां अशान्ति कैसी? ये तीन घण्टे मेरे शन्ति के ही घण्टे थे। जैसे-जैसे मैं खोजने लगा और जैसे-जैसे पाने लगा कि नहीं पा रहा हूँ, वैसे-वैसे कुछ शान्त होता चला गया। अब मैं कह सकता हूँ कि मैं शान्त था, ऐसा कहना ही गलत था ‘मैं’ ही अशान्ति थी। बोधिधर्म ने कहा जा और दुबारा ‘मैं’ से सावधान रहना, इसको फिर मत पकड़ लेना।
सम्राट वू अपनी कब्र पर लिखवा गया है कि लाखों संन्यासियों और साधुओं के वचन सुने, हजारों शास्त्र सुने, लेकिन कुछ राज पकड़ में न आया और एक अजीब से फकीर की बात में आकर, भीतर झांककर देखा और सब राज खुल गये। वहां कोई ‘मैं’ था ही नहीं, जिसे शान्त कराना है। वहां कोई ‘मैं’ था हीं नहीं, जिसे शुद्ध करना था। वहां कोई ‘मैं’ था ही नहीं, जिससे लड़ना था और जिसे जीतना था। वहां कोई ‘मैं’ था ही नहीं, जिसके लिए मोक्ष और परमात्मा को खोजना था। वहां ‘मैं’ था ही नहीं।
आठवां सूत्र, ‘मैं’ की खोज और ‘मैं’ के खोने का सूत्र हैं जैसे ही ‘मैं’ खो जाता है, सब मिल जाता है। ‘मैं’ का मतलब है, हमने कुछ पकड़ा हे, सबके खिलाफ। ‘मैं’ को अगर ठीक से कहें तो ‘मैं’ का मतलब है प्रतिरोध का बिन्दु, ए प्वाइण्ट ऑफ रजिस्टेंस। यह ‘मैं’ हमने पकड़ा हैं सबके खिलाफ, सबकी दुश्मनी में, सबको छोड़कर इसे पकड़ा है। यह ‘मैं’ ऐसा ही है, जैसे राष्ट्रों की सीमाएं हैं हिन्दुस्तान, पाकिस्तान। कहीं भी खोजने जायें, कहीं कोई सीमा नहीं, जहां हिन्दुस्तसान खत्म होता है। और पाकिस्तान शुरू होता हैं कहीं कोई सीमा नहीं, कहीं कोई सीमा नहीं, जहां हिन्दुस्तान खत्म होता है। और चीन शुरू होता है, सिर्फ राजनीतिज्ञों के मस्तिष्कों को छोड़कर। ये सीमाएं कहीं भी नहीं हैं। ओर राजनीतिज्ञों के पास अगर मस्तिष्क होते तो भी ठीक था। राजनीतिक नक्शों को छोड़कर कहीं सीमाएं नहीं है। जाएं ऊपर जरा ऊपर आकाश से देखें तो कोई हिन्दुस्तान नहीं है। कोई पकिस्तान नहीं हे, कोई चीन, कोई जापान नहीं है। कोई सीमाएं नहीं है। अगर मंगल पर कोई होगा और जमीन की तरफ देखता होगा तो कोई सीमा दिखाई पड़ेगी।
जब पहली दफा यूरी गागरिन अन्तरिक्ष में गया तो आशा कर रहे थे, उसके देशवासी कि वह वहां से, अन्तरिक्ष से सन्देश भेजेगा, चिल्लायेगा, सोवितयत रूस की जय, कुछ कहेगा, लेकिन जो पहला शब्द यूरी गागरिन के मुख से निकला, वह समझने जैसा है। वह योग का बहुत पुराना अनुभव हैं किसी और आकाश में उठने का। यूरी गागरिन के मुख से नहीं निकला ‘माइरशा’, उसके मुँह से निकला ‘माई वर्ल्ड’, ‘माई अर्थ’। उस ऊंचाई पर देखने से कोई देश नहीं रह गया।
उस ऊंचाई से देखने पर पूरी जमीन एक हो गयी, सारी दुनिया एक हो गयी। उसके मुख से निकला, मेरी पृथ्वी! मेरी दुनिया! लौटकर उससे पूछा मास्को ने कि तुमने क्यों न कहा, मेरा रूस? तो उसने कहा, वहां कोई रूस न रह गया। वहां सब सीमाएं खो गयीं!
ऐसे ही भीतर के आकाश में कोई जाता है। तो वहां ‘मैं’ और ‘तू’ की सीमाएं खो जाती हैं। वे भी मनुष्य की काम चालऊ, एक नक्शें पर खींची गयी सीमाएं हैं। मेरा देश जितनी झूठी सीमा बनाता है, मेरा ‘मैं’ भी उतनी ही झूठी सीमा बनाता है। मेरा देश कितनी झूठी सीमा बनाता है, मेरा ‘मैं’ भी उतनी ही झूठी सीमा बनाता है। लेकिन ये झूठ सातवें तक चलेंगे, सातवें के बाद नहीं चलगे। जमीन पर ही चलना हो, होरीजन्टल चलना हो तो रूस और हिन्दुस्तान और पिकस्तान चलेंगे, लेकिन वर्टिकल उड़ान लेनी हो, आकाश में उठना हो तो रूस, हिन्दुस्तान खो जायेंगे। जिसको भीतर के आकाश में ऊपर उठना हो उसे ‘मैं’ और ‘तू’ सब खो जायेंगे और जब ‘मैं’ और ‘तू’ खो जाते हैं तो शेष रह जाता है, दी रिमेनिंग, वह जो बच रहता हे।, वही परमात्मा हैं वह आठवां सूत्र है।
और नौवां सूत्र छोटा-सा है, उसे कहकर अपनी बात को पूरी करूंगा।
पहला सूत्र मैंने कहा था, जीवन-ऊर्जा। नौवां सूत्र है। योगा, मृत्यु भी ऊर्जा है। र्डथ ईज टू एनर्जी। जीवन ही ऊर्जा, ऐसा नहीं मृत्यु भी ऊर्जा है। जीवन ही जीवन हैं, ऐसा नहीं, मृत्यु भी जीवन है। और जीवन ही चाहने योग्य है, ऐसा नहीं, मृत्यु भी बहुत प्यारी है। और जीवन ही स्वागत के योग्य है, ऐसा नहीं, मृत्यु के लिए भी खुला द्वार चाहिए। और जो मृत्यु के लिए राजी हैं, वह जीवन से वंचित रह जायेगा। और जो मृत्यु के लिए राजी है, वह परम जीवन का अधिकारी हो जायेगा।
मृत्यु भी ऊर्जा है, मृत्यु भी परमात्मा हैं, मृत्यु भी प्रभु हैं। यह योग का परम सूत्र है। अन्तिम सूत्र है। जो मृत्यु को भी जीवन की तरह देख पायेगा, है ही, सिर्फ देखने की बात हैं और आठवें सूत्र के बाद देखना सम्भव हो जायेगा। जिस दिन पता चलेगा ‘मैं’ नहीं हूँ, उसी दिन पता चलेगा, मृत्यु किसकी? मृत्यु कैसी? कौन मरेगा? कौन मर सकता है?
लोग जब तक कहते हैं कि मैं नहीं मरूंगा, मैं अमर हूँ, मैं अमर हूँ, मेरी आत्मा अमर है, तब तक समझना कि सब बातचीत सुनी-सुनायी है। जब कोई कहे कि ‘मैं’ नहीं हूं और जो है, वह अमृत है तब समझना कि कोई बात हुई। मैं तो अमर होना चाहता हूं, लेकिन मैं हूं ही नहीं। जो अमर होना चाहता हैं वह नहीं और जो अमर है उसका हमें पता नहीं।
रामकृष्ण मरे तो मरने के तीन दिन पहले पता चल गया था कि रामकृष्ण अब विदा होते हैं। तो उनकी पत्नी शारदा परेशान, चिन्तित होती थी। रामकृष्ण ने कहा लेकिन तू क्यों रोती है।? क्योंकि वह तो जो है, वह तो मरेगा नहीं और तू मुझे प्रेम करती थी या उसे, जो है। शारदा ने कहा उसी को प्रेम करती हूं, जो है तो रामकृष्ण ने कहा फिर छोड़ दे। फिर जब यह मर जाये, जो नहीं है तो चूड़ियां मत तोड़ना। हिन्दुस्तान में एक विधवा थी शारदा, जिसने चूड़ियों नहीं तोड़ी। फिर रामकृष्ण मर गयें सब रोये, लेकिन शारदा चूड़ी तोड़ने को राजी नहीं हुई। वह वैसी ही रही, जैसी थी। सबने कहा-यह क्या करती हो? रामकृष्ण मर गये। तो उसने कहा-जो मर गया, वह था ही नहीं, जो था, वह है। चूड़िया ये उसके स्मरण में हैं। शारदा रामकृष्ण के मरने के बाद सधवा रही। उसके मुख से कभी न लिकला फिर कि रामकृष्ण मर गये और जब भी कोई पूछता तो वह कहती कि शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया था, उन्होंने वस्त्र बदल लिये हैं। वस्त्र ही बदलते हैं, आवरण ही बदलते हैं।
जिस दिन यह पता चलेगा-आठवें सूत्र पर पता चलेगा कि मैं तो हूँ ही नहीं, तब कौन मरेगा, तब कैसा मरना है, तब मरने का कोई उपाय न रहा। तब कोई तलवार से काटे तो किसे काटेगा? ‘मैं’ को काट सकता है और किसे काटैगा? जब ‘मैं’ न रहा तो कोई कटनेवाला न रहा। कृष्ण ने जो अर्जुन को कहा कि न ही कोई मरता हे, न ही कोई मारता है, उसका अर्थ-उसका अर्थ इतना ही है कि नहीं कोई है। जो दिखाई पड़ रहीं है। छायाएं, वे सूरज के बढ़ने और ढलने से छोटी-बड़ी हो जाती हैं। हैं नही, सूरज की छाया से छोटी-बड़ी होती रहती हैं।
जिब्रान ने एक कहानी लिखी है कि एक लोमड़ी सुबह-सुबह निकली है भोजन की तालाश में सूरज जाग रहा है, लोमड़ी के पीछे है सूरज। बड़ी छाया पड़ती है उस लोमड़ी की, दूर दरख्तों जैसी।
उस लोमड़ी ने सोचा, आज तो बहुत भोजन की जरूरत पड़ेगी। इतना बड़ा शरीर है उसके पास। लोमड़ी के पास कोई दर्पण तो नहीं है कि शरीर को देख ले, उसके पास छाया है। और दर्पण में भी छाया ही दिखेगी और क्या दिखेगा? और दर्पण के उस पार जो खड़ा है वह भी, जो जानते हैं, कहते हैं, छाया है। देखी है, लम्बी छाया, वृक्षों जैसी। सोचा मन में, बड़ी मुश्किल है। आज तो बड़े भोजन की तलाश करनी पड़ेगी। कम-से-कम ऊंट मिले तो काम चले। फिर खोजती रही, दोपहर हो गयी, सूरज ऊपर आ गया। छाया सकुड़कर छोटी हो गयी। उस लोमड़ी ने नीचे देखा, कहा-भूख तो बहुत लगी है। अब तो कुछ छोटा भी मिल जाय तो चलेगा। छाया सकुड़ गई है। छोटी हो गयी है। लेकिन वह लोमड़ी छाया को ही अपना होना समझती है।
जिसे हम शरीर कहते हैं, वह एक बहुत गहरे डायमेन्शन में, छाया से ज्यादा नहीं है। ऐ शैडो मेटीरियलाइज्ड, एक छाया, जो रूपाकृत हो गयी है, रूपायित हो गयी है। एक छाया, जो शक्ति के कणों के सघन परिभ्रमण से दिखाई पड़ने लगी है। उस छाया का आना अैर जाना। लेकिन जब तक ‘मैं’ है, तब तक उस छाया के साथ तादाम्य है, आइडेन्टिटी है।
ये नौ सूत्र मैंने योग के आपसे कहे। ये नौ सूत्र बारह डाइमेन्शन्स में कहे जा सकते हैं, बारह ढंग से कहे जा सकते हैं। मैंने सिर्फ एक ढंग से कहा। ये नौ सूत्र बारह ढंग से कहे जा सकते हैं और बारह नौ का गुणा आप करते हैं तो एक सौ आठ हो जाता है। संन्यासियों के गले में जो मालाएं आपने देखी हैं, वह 108 योग के नौ सूत्रों के बारह ढंग से कहे जाने के सूचक के अतिरक्ति और कुछ भी नहीं है। और वह 108 मानकों के नीचे एक सो नौवां फल भी रुद्राक्ष का लटका हुआ देखा होगा। इन एक सौ आठ ढंगों से कोई भी, कहीं से भी चले, वह उस एक पर पहुंच जाता है। ये सिर्फ मैंने एक डाइमेन्शन, एक आयाम में योग के नौ सूत्र आपसे कहे।
ये बारह ढंग से कहे जा सकते हैं और उस तरह 108 ध्यान की विधियां बन जाती हैं। प्रत्येक सूत्र से एक ध्यान की विधि विकसित हो जाती है। लेकिन कोई कहीं से भी पहुंचे, वहीं पहुंच जाता है। और कोई न भी पहुंचे कहीं से तो जहां खड़ा है, वहीं खड़ा है। सिर्फ पता नहीं चलता कि कहां खड़ा हूँ।
एक फकीर के सम्बन्ध में मैंने सुना है कि वह एक तीर्थयात्रा के मार्ग पर पड़ा रहता था। तीर्थयात्री चढ़कर पहाड़ जाते थे। उस फकीर से कहते थे, यहीं पड़े हो, यहीं पड़े हो, ऊपर न चलोगे तीर्थयात्रा पर? तो वह फकीर कहता-तुम जहां जा रहे हो, मैं वहीं हूँ। फिर भी लौटते में कोई उससे पूछता-तुम यहीं पड़े रहोगे कि ऊपर की यात्राएं करोगे? वह फकीर कहता-तुम जहां से आ रहे हो, मैं वहीं हूँ। वे तीर्थयात्री समझते न समझते, वहाँ से चले जाते होंगे।
जिस दिन पता चलता है यात्रा के बाद तो बड़ी हँसी आती है। झेन फकीर कहते हैं कि जब पता चलता है तो बड़ी हँसी आती है। झेन फकीरों में एक कहावत है कि जब पता चलता है तो सिवाय चाय की प्याली में चुस्की ले के हँसने के कुछ भी नही बचता। जब कोई फकीर रिन्झाई से पूछ रहा था कि यह क्या है, वह कैसी बात है कि हमने सुना है कि जब निर्वाण की स्थिति उपलब्ध होती है। तो सिवाय चाय पीने और हँसने को कुछ भी नहीं बचता। तो रिन्झाई ने कहा-सच में कुछ नहीं बचता, क्योंकि जब पता चलता है, तब यह भी पता चलता है कि यह तो मैं सदा से था। जो मुझे मिला है, वह मिला ही हुआ था और जो मैंने सोचा है, उसे कभी खोया ही नहीं था। लेकिन फिर भी इतनी यात्रा करनी पड़ती है।
एक-छोटी से कहानी, अपनी बात मैं पूरी कर दूं।
मैंने सुना है, अरबपति आदमी की मृत्यु के पहले, मरने के पहले पता चला कि उसे सुख अभी तक नहीं मिला। सौभाग्यशाली होगा। कुछ को मरने के बाद ही पता चलता है। उसे पहले पता चला, मुझे सुख अभी तक नहीं मिला है। मौत करीब थी, ज्योतिषियें ने कहा-दिन ज्यादा नहीं है। जल्दी करों। उसने कहा-जल्दी तो मैं सदा से कर रहा हूँ। लेकिन सुख है कहाँ? और अब मेरे पास खरीदने के साधन है। कोई भी कीमत पर मैं खरीदने को राजी हूँ उन ज्येतिषियों ने कहा-हमें इसका पता नहीं।
हम सिर्फ इतना कह सकते हैं, जल्दी करों, क्योंकि मौत करीब है। और अगर तुम्हें पता चल जायें तो हमें खबर कर देना, क्योंकि जल्दी हमें भी करनी है, मौत करीब है। लेकिन उसने कहा-मैं खोजूं कहाँ? तो उन्होंने कहा-यह हमें पता नहीं, तुम कहीं भी, एनी व्हेयर, तुम कहीं भी खोजो।
वह अपने तेज घोड़े पर सवार हुआ। उसने करोंड़ों रुपयें के हीरे-जवाहरात अपने घोड़े पर रख लिये और गांव-गांव जाकर चिल्लाने लगा कि कोई मुझे सुख की झलक दे दे तो यह सब मैं दे देने को तैयार हूँ। फिर वह उस गांव में पहुँचा, जिसमें एक बहुत अद्भुत सुफी फकीर था। गांव के लोगों ने कहा-तुम ठीक जगह आ गये। इस तरह की उल्टी-सीधी बातों को हल करने वाला एक आदमी इस गांव में है। उसने कहा- उल्टी-सीधी बातें! उस गांव के लोगों ने कहा-हम भी उसके सत्संग में रहते हुए कुछ उल्टी-सीधी बातें सीख गये हैं। एक तो हम यह सीख गये हैं कि उल्टी ही बात, क्योंकि धन से कभी कोई सुख की झलक भी खरीद नहीं सकता, सुख तो बहुत दूर है। लेकिन फिर भी तुम आ गये हो, ठीक किया। तुम ठीक जगह आ गये। इस गांव में वह आदमी है।
उसे खोजा गया। गांव वाले उसके पास ले गये। यह सूफी फकीर नसरुद्दीन एक झाड़ के नीचे बैठा था। सांझढल रही थी। गांव के लोगों ने कहा-यह रहा वह आदमी। उस अरबपति ने अपने सोने की थैली, हीरे-जवाहरातों की, नीचे पटक दी और कहा-यह है, मैं देने को तैयार हूँ, करोड़ों का इसमें सामान है। मुझे सुख की एक झलक चाहिए। उस फकीर ने नीचे से ऊपर तक उसे देखा। उसने कहा-बिल्कुल पक्की झलक चाहिए? उसने कहा-पक्की झलक चाहिए। वह इतना कह भी नहीं पाया था कि उस फकीर ने झोली उठायी और भाग खड़ा हुआ। एक क्षण तो अवाक रह गया वह अमीर। फिर चिल्लाया कि मैं लुट गया, मैं मर गया। लेकिन तब तक अंधेरे में वह फकीर काफी दूर निकल गया था। गांव के लोग तो जानते थे उस फकीर को कि वह कुछ उलटा करेगा। उन्होंने कहा-हमने पहले ही कहा था- कि यह आदमी है जो उल्टी-सीधी बातों का जवाब दे सकता है। उस आदमी ने, अमीर ने कहा-यह कोई जवाब है! पकड़ो इसे! भागे लोग। वह अमीर भी भागा, वह गांव तो परिचित था फकीर से। गली-कूचे मे चक्कर देने लगा। पूरा गांव जग गया।
पूरे गांव को जगाने के लिए उसने चक्कर दे दियां फिर सारा गांव दौड़ रहा हैं अमीर हांफता, भागता, पसीने से लथपथ पहुंचा। झोली देखी, उठायी, छाती से लगायी और परमात्मा को कहा-तेरा बड़ा धन्यवाद! उस फकीर ने पीछे से कहा झाड़ के-कुछ झलक मिली? उस अमीर ने कहा-बिल्कुल मिली। बड़ा सुख मालूम पड़ा। उस फकीर ने कहा-बस, तुम अपने घोड़े पर बैठो और जाओ।
जिस चीज के हम मालिक ही हैं, उसको भी जब तक हम खो न दें, तब तक पता नहीं चलता हैं यह पूर संसार की यात्रा उसी को खोने की यात्रा है, जिसे पाना है। जो मिला ही हुआ हे, उसे एक दफे ख्ल्लाये बिना हमें पता नहीं चल सकता है। हमने खोया है, अब खोजना पड़ेगा। जिस दिन खोज लेंगे, उस दिन चाय पीने और हँसने के सिवाय कुछ बचेगा नहीं।
चीन में तीन फकीर जब उपलब्ध हो गये ज्ञान को तो गांव-गांव में हँसते हुए घूमने लगे और जब भी उनसे कोई पूछता तो हँसते। एक हँसता, दूसरा हँसता, तीनों हँसते, फिर हँसी पूरे गांव में फैल जाती, फिर चौरस्ते पर पूरे लोग इकट्ठे हँसते। फिर हँसी का फव्वारा छूट जाता। फिर वह तीनें प्रसिद्ध हो गये पूरे चीन में ‘थ्री लाफिंग सेट’, तीन हँसते हुए फकीर। वे मरने के पहले कागज पर लिखकर रख गये कि हम अपने पर हँसते थे, क्योंकि जिसे खोजते थे, वह हमारे पास था अैर हम तुम पर हँसते है कि तुम जिसे खोज रहे हो, वह तुम्हारे पास है!
ये नौ सूत्र इन चार दिनों में मैंने आपसे कह। इसलिए नहीं कि आपकी थोड़ी-सी बौद्धिक समझ बढ़ जाये। इसलिए भी नहीं कि आप थोड़े से और ज्ञानी हो जाये। ज्ञानी आप वैसे ही काफी हैं, सभी हैं। इस ज्ञान में थोड़ा और एडीशन करने से कुछ भी नहीं होगा। वह वैसे ही काफी है, बहुत जन्मों का ज्ञान है सबके पास। ये सूत्र मैंने आपके ज्ञान बढ़ाने के लिए नहीं कहे, ये सूत्र मैंने आपसे आपका ज्ञान छीन लेने के लिए कहे। ये सूत्र आपको कुछ सिद्धान्त मिल जायें, बहुत-से सिद्धान्त हैं और आपके पास बहुत सहारे के लिए शास्त्र हैं और अगर उनसे ही आप बच सकते होते तो बच गये होते।
यह मेरे थोड़े-से शब्दों को और सहारा बनाकर आप नहीं बच सकेंगे। सब सिद्धान्त, सब शास्त्र, सब शब्द बोझ बन जाते हैं सिर पर और डुबो देते हैं।
मैंने इसलिए ये बातें नहीं कहीं कि आपका सहारा बन जायें। मैंने तो इसलिए आपको ये बातें कहीं कि आपको अपने बेसहारा होने का पता चल जाये। मैंने इसलिए ये बातें नहीं कहीं। ऐसा नहीं है कि मैं समझता हूँ कि आपको समझाने से कुछ समझ आ जायेगी, बिल्कुल नहीं समझता हूँ। कि आपको समझाने से कुछ समझ आ जायेगी, बिल्कुल नहीं समझता हूँ। ऐसी नासमझी मैं करता ही नहीं। मेरे समझाने से आपको समझ आ जायेगी ऐसा होता, तब तो बड़ी आसान बात थी, तब तो एक आदमी समझा देता। और अब तक सारी दुनिया समझदार हो गयी होती। लेकिन बुद्ध थककर मर जाते हैं, कृष्ण थककर, मर जाते हैं, जीसस थककर मर जाते हैं, महावीर थककर मर जाते हैं, दुनिया की नासमझी इंच भर भी इधर-उधर नहीं टलती। इसलिए अब कोई समझदारी से कुछ हो जायेगा, ऐसा मेरा मानना नहीं है।
फिर मैंने आपसे ये बातें क्यों कहीं? मैंने ये बातें आपसे इसलिए कहीं कि आपको अगर अपनी समझदारी पर थोड़ा शक आ जाये तो काफी है। अगर आप थोड़े सर्न्दिध हो जायें और आपको अपनी समझदारी पर थोड़ा शक आ जाये तो काफी है, पर्याप्त है। मैंन ये बातें इसलिए आपसे कहीं कि आप समझेंगे कि समझ पर्याप्त नहीं है। कुछ और करना पड़ेगा। समझ से रहने भर से कुछ भी नहीं होगा। नासमझी दब जायेगी और मौजूद रहेगी, मिटेगी नहीं। समझना काफी नहीं है, टू नो इज़ नाट इनफ। कुछ करना भी पड़ेगा। असल में बिना किये असली समझ कभी नहीं आती। बिना किये तो समझ आती है, वह सिर्फ समझ का धोखा होती है, डिसेप्टिव होती है। और झूठे सिक्के असली सिक्कों को धोखा दे सकते है।  

समाप्त 

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