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सोमवार, 19 नवंबर 2018

चेतना का सूर्य-(प्रवचन-03)

प्रवचन-तीसरा  -( घर क मन्दिर)

आदमी दो ही बातों के चक्कर में जीवन को नष्ट करता है। या तो वह 'हीनता के बोध' से पीड़ित होता है, 'इनफीरिआरिटी' के बोध से पीड़ित होता है। अभी तो एडलर ने 'इनफीरिआरिटी कॉम्पलेक्स' सभी की जबानों पर पहुँचा दिया है। हीनग्रन्थि। या तो व्यक्ति हीनग्रन्थि से पीड़ित होता है और निरन्तर अनुभव करता है कि मैं कछु भी नहीं हूं, न कुछ हूं जैसा के उमर खैयाम की प्रसिद्ध पंक्ति को आपने सुना हागा डस्ट इन टू डस्ट मिट्टी में मिट्टी लौट जाती है और कुछ भी नहीं है।
                                                              इसी अध्याय से
योग के सम्बन्ध में चार सूत्रों की बात मैंने की। आज पांचवें सूत्र पर आपसे बात करना चाहूंगा। योग का पांचवा सूत्र है, जो अणु में है, वह विराट् में भी है। जो क्षुद्र में है, वह विराट् में भी है। जो सूक्ष्म-से-सूक्ष्म में है, वह बड़े-से-बड़े में भी है, जो बूंदों में है, वही सागर में भी है। इस सूत्र की सदा से योग ने घोषण की थी, लेकिन विज्ञान ने अभी-अभी इसका समर्थन किया है। सोचा भी नहीं था कि अणु के भीतर इतनी ऊर्जा, इतनी शक्ति होगी। अत्यंश के भीतर इतना छिपा होगा, न-कुछ के भीतर-कि सब-कुछ का विस्फोट हो सकेगा।

अणु के विभाजन ने योग की इस अन्तदर्ुृष्टि को वैज्ञानिक सिद्ध कर दिय है। परमाणु तो दिखाई भी नहीं पड़ता आंख से, लेकन दिखाई पड़ने वाले परमाणु में, अदृश्य में विराट् शक्ति का संग्रह है। वह विस्फोट हो सकता है। व्यक्ति के भीतर आत्मा का अणु तो दिखाई नहीं पड़ता है, लेकिन उसमें विराट् ऊर्जा छिपी है और परमात्मा का विस्फोट हो सकता है। योग की घोषणा की क्षृद्रतम में विराट्तम मौजूद हैं, कण-कण में परमात्मा मौजूद है, यही अर्थ रखती है। योग ने क्यों जोर दिया होगा इस सूत्र पर?
एक तो इसीलिए कि वह सत्य है और दूसरा इसलिए कि एक बार यह स्मरण आ जाये कि अणु में परम छिपा है तो व्यक्ति को अपनी आत्मशक्ति का स्मरण करने का मार्ग बन जाता है। व्यक्ति को क्षुद्र अनुभव करने का कोई भी कारण नहीं हैं क्षुद्रतम को भी क्षुद्र अनुभव करने का कोई कारण नहीं है। इसमें उलटी बात भी ख्याल में ले लेनी जरूरी है। कि विराट्तम को भी अहंकार से भर जाने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि जो उसके पास है, वह क्षुद्रतम के पास भी है। सागर के पास है, वह एक छोटी-सी बूंद के पास भी है। क्षुद्रतम को हीन होने का कोई कारण नहीं है, विराट्तम को अहंकार से भर जाने का कोई कारण नहीं है। न हीनता का कोई अर्थ है।, न श्रेष्ठता को कोई अर्थ है। ये दोनों ही व्यर्थ हैं, इस सूत्र से ऐसा निष्पक्ष होता है।
आदमी दो ही बातों के चक्कर में जीवन को नष्ट करता है। या तो वह 'हीनता के बोध' से पीड़ित होता है।, 'इनफीरिआरिटी' के बोध से पीड़ित होता है। अभी तो एडलर ने 'इनफीरिआरिटी कॉम्पलेक्स' सभी की जबानों पर पहुँचा दिया है। हीन ग्रन्थि। या तो व्यक्ति हीनग्रन्थि से पीड़ित होता है और निरन्तर अनुभव करता है कि मैं कुछ भी नहीं हूँ, न कुछ हूँ। जैसा क उमर खैयाम की प्रसिद्ध पंक्ति को आपने सुना होगा-डस्ट इन टू डस्ट- 'मिट्टी में मिट्टी लौट जाती है' और कुछ भी नहीं हे।
हीनता अगर व्यक्ति को पकड़ ले तो बहुत गहरे और बहुत भीतर से रुग्णता, डिसीज पकड़ लेती है। कोई अगर ऐसे जीने लगे कि जैसे कुछ भी नहीं है तो जीना ही मुश्किल हो जाता है, वह जीते-जी मर जाता है। बहुत कम ही लोग हैं, जो मरने तक जिन्दा रहते हों, अधिक लोग पहले ही मर जाते हैं। अक्सर तो ऐसा होता है कि सत्तर साल में दफनाये जाते हैं, मरना तो बहुत पहले हो गया होता है। मरने और दफनाने के समय में तीस-तीस, चालीस-चालीस, पचास-पचास साल का फासला होता है। जिस दिन लगता है, हीनता पकड़ लेती है भीतर। और अगर इस चारों तरफ फैले हुए विराट् को देखेंगे तो हीनता पकड़ ही लेगी। क्या है स्थिति मनुष्य की? कुछ भी नहीं है।
सागर की लहरों पर एक तिनका मालूम होता है। न कोई दिशा है, न कोई शक्ति है। अगर ऐसी हीनता मन को पकड़ ले तो जीते-जी जीवन उदास और मृत हो जाता है, राख हो जाता है। अंगार बुझ़ा-बुझा हो जाता है। और अगर भीतर अपना ही जीवन बुझ जाये, बुझा-बुझ़ा हो जाये, अपने ही दीये की ज्योति बुझ जाये तो फिर सूर्य के प्रकाश का भी क्या करियेगा? होगा प्रकाश, लेकिन इससे कोई अर्थ नहीं रह जाता।
व्यक्ति के भीतर विराट् है, इसका स्मरण जरूरी है। व्यक्ति के भीतर अनन्त है, इसका स्मरण जरूरी है, व्यक्ति के भीतर परमात्मा है, इसका स्मरण जरूरी है, ताकि व्यक्ति हीन न हो जाये। और मजे की बात है कि हीनता को मिटाने के लिए व्यक्ति श्रेष्ठता की कल्पनाओं में पड़ जाता है-सुपीरिआरिटी कॉम्पलेक्स। वह जो हीनता की भावना है, उसे दबाने के उपाय में लग जाता है। लगती है भीतर हीनता तो आदमी धन कमाने लगता है ताकि धन कमाकर दुनिया को बता दे और खुद भी समझ ले कि नहीं, कुछ भी नहीं, बहुत कुछ ताकि सिंहसान पर खड़े होकर घोषणा कर दे कि कौन कहता है कि मैं कुछ भी नहीं हूँ- मैं कुछ हूँ। हीनता ही श्रेष्ठता की दौड़ बन जाती है। इसलिए जितने लोग श्रेष्ठ होने की पागल दोैड़ में होते हें, भीतर हीनता की ग्रन्थि से पीड़ित होते हैं।
एडलर ने तो बहुत अद्भुत बातें कहीं हैं। उसकी बातें अर्थपूर्ण हैं। उसने कहा है कि अक्सर जो लोग दौड़ में प्रथम आते हैं, वे वे ही होते हैं, जो बचपन में लंगड़ाते हैं। और जो लोग संगीत में बहुत कुशल हो जाते हैं, वे वे ही होते हैं, जो बचपन में जरा कम सुनते हैं। ओर जो लोग राष्ट्रपति बन जाते हैं ओर प्रधानमन्त्री  हो जाते हैं, वे अक्सर वे ही लोग हैं, जिनको स्कूल की बेंचों पर पीछे बैठना पड़ता था। वह जो चोट लगती है हीनता की, वह सिद्ध करने निकल पड़ते हैं दुनिया में कि हम कुछ हैं दिख देंगे कि हम कुछ हैं। इसलिए राजनीतिज्ञ अगर हीनता से पीड़ित होता है तो आश्चर्य नहीं। भीतर एक कीड़ा लगा हुआ है कि वह कुछ भी नहीं है। और वह मन को दुखाती है, तकलीफ में डाल देता है। दौड़ाता है।
लेकिन अगर कुर्सी पर बैठता था तो उसके पैर जमीन तक नहीं पहुँचते थे। उसके ऊपर के शरीर का हिस्सा बड़ा था और पैर छोटे थे। वह कुर्सी पर बैठे तो साधारणतः पैर जमीन नहीं छू पाते थे। हिटलर अत्यन्त साधारण बुद्धि का व्यक्ति था और सेना में साधारण हैसियत का सिपाही था। और वहाँ से भी अनफिट होकर, अयोग्य होकर निकाला गया था। स्टैलिन एक चमार का लड़का था और लिंकन भी एक चमार का लड़का था।
अगर हम दुनिया के राजनीतिज्ञों के पीछे झाकें तो बहुत हैरानी होगी इन्हें कहीं-न-कहीं बचपन में लगी हीनता की चोट, इनकी दौड़ बन गयी है। ये विक्षिप्त होकर दौड़ पड़ें हैं। और जब तक ये किसी पहाड़ पर न चढ़ गयें तब तक उन्होंने तृप्ति न पायी। पहाड़ पर चढ़कर तो इन्होंने दुनिया को दिखा दिया कि मैं कुछ हूँ, लेकिन निश्चित स्वयं वे कुछ भी न थे। इसलिए सभी पद, सभी धन, सभी यश, पाने वाले अन्ततः व्यर्थ मालूम पड़ते हैं। जब वह सिंहासनों पर खड़ा हो जाता है तब वह पाता है कि खड़ा तो मैं ही हूँ सिंहासन भला मिल गया, लेकिन मैं तो मैं ही हूँ। और वह हीनता का घुन खाये जाता है। इसलिए बड़े-से-बड़ा पद कोई तृप्ति नही लाता। बड़े-से-बड़े पद के आगे भी दौड़ बनी रहती है।
और जब किसी ने सिकन्दर से कहा था कि मैंने सुना है तुम सारी दुनिया जीत लोगे, लेकिन कभी यह भी सोचा है कि दुनिया जीत लेने के बाद फिर क्या करोगे? क्योंकि एक ही दुनिया है। तब सुना है मैंने, सिकन्दर बहुत उदास हो गया और उसने कहा था वह तो मैंने सोचा ही नहीं। ठीक कहते हैं अगर पूरी दुनिया जीत लूंगा तो फिर क्या करूंगा? दूसरी दुनिया कहाँ है? क्योंकि पूरी दुनिया जीतने के बाद भी सिकन्दर के मन में जो हीनता पकड़ी होगी, उससे तो छुटकारा नहीं है। दूसरी दुुनिया जीत के भी छुटकारा नहीं है। हीनता की ग्रन्थि ही परवर्टेड होकर या इनवर्टेड होकर, शीर्षासन करके श्रेष्ठता की ग्रन्थि बन जाती है।
इसलिए जो आदमी सड़क पर अकड़ा हुआ दिखाई पड़े, उस पर दया करना, वह हीनता से पीड़ित है। किसी को जरा धक्का लग जाये तो वह कहता है,जानते नहीं मैं कौन हूँ? वह बेचारा हीनता से पीड़ित है।
जो आदमी जरा-जरा सी बातों में क्रोधित हो रहा है, जो जरा-जरा-सी बातों में अहंकार को चोट मान लेता है-रास्ते पर कोई हंसता हो तो जो समझता है कि उसे ही देखकर लोग हंस रहे हैं जानता है कि वह हीनता की गन्थि से पीड़ित है। यह पीड़ा उसे श्रेष्ठ होन की पागल दौड़ में डाल देती है।
हीनता रोग है। श्रेष्ठता रोग को दबाने के लिए महारोग है। और कई बार दवाएं बीमारियों से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध होती हैं। दबायी गयी बीमारियां और भी खतरनाक सिद्ध हो जाती हैं। तो योग दूसरी बात भी स्मरण दिलाना चाहता है। वह यह कहता है कि परमात्मा भी अगर कहीं है। तो वह भी इस अहंकार में भर जाये कि मैं कुछ हूँ, क्योंकि जो उसके पास है, वह मिट्टी के कण के पास भी है। इसलिए एक दिशा से मिट्टी के कण को भी हीनता न पकड़े और दूसरी दिशा से परमात्मा को भी श्रेष्ठता न पकड़ जाये। और तब कोई हीनता और श्रेष्ठता दोनों से मुक्त होता है, तभी समत्व को उपलब्ध होता है। योग की यह घोषण मनुष्य के गहरे मानस रोग को मुक्त करने की चेष्टा है। लेकिन यह सिर्फ मानस रोग को ही दूर करने की चेष्टा नहीं है, सत्य भी यही है। न तो क्षुद्र को रोने का कारण है, न विराट् को अकड़ जाने का कोई कारण है। यहाँ जो बहुत बड़ा दिखाई पड़ता है और जो बहुत छोटा दिखाई पड़ता है, उन सबके पास एक-सी ही सम्पदा हैं
जीसस एक छोटी-सी कहानी कहते हैं। एक दिन बहुत बड़े अमीर ने अपने बगीचे में कुछ मजदूर लगाये। फिर दोपहर कुछ और मजदूर अमीर के पास गये और उन्होंने कहा कि हमें भी काम दो। उसने उन्हें भी बगीचे में लगा दिया। फिर दोपहर ढलने लगी, तब कुछ मजदूर आये और उन्होंने कहा कि हमें भी काम दो। उस अमीर ने उन्हें भी काम पर लगा दिया। फिर सांझ पर सूरज ढलता था और दिन अस्त होत था, तब भी कुछ मजदूर आये। और उस अमीर ने उन्हें भी काम पर लगा दिया। फिर दिन ढल गया और सबको दिन भर का मेहनताना बांटा गया। उसने सबको बराबर मेहनताना दे दिया। जो सुबह से आये थे, वे नाराजगी में खड़े हो गये। उन्होंने कहा यह अन्याय है, हम सुबह से मजदूरी कर रहे हैं। कुछ लोग दोपहर के बाद आये और कुछ तो अभी आये ही हैं, जब हम काम ही खत्म कर चुके थे।
इन सबको बराबर मजदूरी देना अन्याय है। तो उस अमीर ने कहा तुम्हें जो दिया, वह तुम्हारे काम से कम तो नहीं है? उन्होंने कहा नहीं, हमारे काम के लिए तो बहुत है। लेकिन इन्हें जो बहुत पीछे आये हैं? उस अमीर ने कहा परमात्मा के राज्य में न कोई आगे है, न कोई पीछे हैं, सब बराबर हैं।
योग यही कह रहा हैं वह यह कह रहा है कि मिट्टी के कण को कोई दुखी होने का कारण नहीं है और खुद परमात्मा को भी अहंकार से भरने का कोई कारण नहीं है। इस जीवन के खेल में न कोई आगे हैं, न कोई पीछे हैं, न कोई बड़ा है, न कोई छोटा है। योग क्षुद्र को दिखाता है। बूंद में सागर को दिखाता है, सागर में बूंद को दिखाता हैं सत्य भी यही है, मैंने कहा। चूकि विज्ञान अब बहुत अद्भुत बातें कह रहा है....
रदर फोर्ड ने जब सबसे पहले अणु के परिवार को तोड़ा तो एक बहुत अद्भुत अनुभव प्रकाश में आया और वह यह था कि सबसे कम मात्रा वाला परमाणु भी ठीक ऐसे ही है, जैसे महासूर्या का सौर-जगत्‌। एक परमाणु में, सबसे छोटे परमाणु में, एक तो केन्द्र हाता है और उस केन्द्र के आसपास चक्कर लगाने वाला इलेक्ट्रॉन उस केन्द्र का चक्कर लगाता हैं इस चक्कर की गति ठीक वैसे ही है जैसे सूरज के आसपास पृथ्वी और मंगल और बृहस्पति ग्रह चक्कर लगाते हैं। इस छोटे-से परमाणु की गति वही है। और उस केन्द्र पर जो ऊर्जा छिपी है, वह वैसी ही ऊर्जा है, जैसी सूर्य की ऊर्जा है। जैसे एक बहुत छोटे रूप में सौर परिवार इस परमाणु के भीतर बैठा है। फर्क सिर्फ मात्रा का है, गुण का कोई भी फर्क नहीं हैं।
तो विज्ञान ने कहना श्ुारू किया, जो योग का पुराना सूत्र है, हम सबको याद होगा कि अण्ड में ब्रह्माण्ड है। तो वैज्ञानिक रदरफोर्ड या उसक साथी कहते हैं, 'द मैक्रोकाज्म इज द माइक्रोकाज्म।' वह जो विराट् जगत्‌ है, वह बिल्कुल क्षुद्र माइक्रोकाज्म में मौजूद हैं वह जो कॉसमॉस, वही ब्रह्ममाण्ड है, वह छोटे छोटे अण्ड में इतना छोटा है कि उसे देखना भी सम्भव नहीं है। अनुमान ही किया जाता है कि वह है। सिर्फ अनुमान से ही जाना है। कि वह घूमता है। इतने छोटे से वह जो इतना विराट् दिखाई पड़ रहा है, वह सब बहुत छोटी तस्वीर की तरह वहाँ मौजूद है। छोटा प्रिण्ट है।
यह ऐसा ही समझें, फर्क जो है वह मात्रा का है। यह ऐसा है कि जैसे हम कहें, दो और दो के बीच जो फर्क है, बीस और चालीस के बीच भी वही फर्क है। दो सौ और चार सौ के बीच भी वही फर्क है। दो करोड़ और चार करोड़ के बीच में भी वहीं फर्क है। दो और चार के बीच जो फर्क है, जो अनुपात है, दो करोड़ और चार करोड़ के बीच भी वहीं अनुपात है। दी सेम प्रपोर्शन। सिर्फ विस्तृत हो गयी है संख्या, लेकिन दोनों के बीच अनुपात एक ही है। ठीक ऐसे क्षुद्रतम को अनुपात वही है, जो विराट्तम का अनुपात है।
इस सत्य को समझकर दो बातें स्मरण कर लेनी चाहिए। हीनता पागलपन है, श्रेष्ठता महापागलपन है। इसे समझकर ठीक से समझ लेना चाहिए। अपने को न-कुछ समझना भी पागलपन है, अपने को बहुत-कुछ समझना भी पागलपन है।
योग कहता है, तुम जो हो, वहाँ हीन और श्रेष्ठ होने का, दोनों का ही कोई उपाय नहीं है। बस तुम, हो, इतना ही जानो, इतना ही काफी है। इसका दूसरा अर्थ यह है कि अपने को तोलों ही मत, डोण्ट कम्पेयर। उसका कुछ अर्थ ही नहीं है। तुलना ही मत करो। तुलना का कोई अर्थ ही नहीं है। दो और चार, अगर बीस और चालीस से तुलना में कोई फर्क नहीं पड़ता। तुलना में कोई अन्तर नहीं है, दोनों बराबर हैं। अनुपात बराबर है, प्रपोर्शन बराबर है, इसलिए तुलना व्यर्थ है।
इसलिए योग कहता है, बूंद की सागर से तुलना मत करो, क्योंकि बूंद छोटा सागर ही है। और सागर को भी अकड़ने का मौका मत दो, क्यांकि सागर फैली हुई बूंद ही है। सिर्फ फैलाव का फर्क है। अभी वैज्ञानिकों को ख्याल है कि जल्दी ही, शायद इस सदी के पूरे होते-होते हम चीजों के फैलाव को कम ज्यादा कर सकेंगे।
इक्कीसवीं सदी की कहानी मैंने सुनी है कि एक आदमी एक स्टेशन पर उतरता है। उसके पास कोई सामान दिखाई नहीं पड़ता है। सिर्फ एक मचिस की डिब्बी भर उसके बेंच के पास रखी है। और नीचे उतरकर वह जोर से चिल्लाने लगा, दस-बीस कुली हों तो आ जायें।
तो पास-पड़ोस के यात्रियों ने कहा कि सामान तो आपके पास कुछ दिखाई नहीं पड़ता है, दस-बीस कुलियों का क्या करियेगा? तो उस आदमी ने कहा कि सामान मेरा उस माचिस की डिब्बी में रखा है। उन्होंने कहा लेकिन बीस-पच्चीस कुली उठायेंगे, आप नहीं उठायेंग? लेकिन उस आदमी ने डिब्बी खोलकर दिखाई तो उसमें एक कार एक डिब्बी के भीतर रखी है। पर उन्होंने कहा यह बच्चों के खेलने की कार होगी, उठा लें। उस आदमी ने कहा यह बच्चों के खेलने की कार नहीं है, सिर्फ कार को कन्डेन्स किया गया है, ताकि छोटी जगह में यात्रा करवायी जा सके। इसको जाकर हम फिर फुला लेंगे। जैसे कि गुब्बारे को हम खोलकर रख लेते हैं तो सिकुड़ जाता है , भीतर हवा भर देते हैं तो फैल जाता है।
अब वैज्ञानिक कहते हैं कि लोहे को और सिकोड़ा जा सकता है। जैसे कि गुब्बारों को सिकोड़ते हैं, ऐसे लोहे को भी सिकोड़ा जा सकता है, फैलाया जा सकता है, क्योंकि प्रत्येक चीज परमाणुओं का जोड़ है और परमाणुओं के बीच में बहुत स्पेस है, उस स्पेस को छोटा-बड़ा किया जा सकता है। तो यह हो सकता है कि पूरी रेलगाड़ी एक छोट-सी माचिस की डिब्बी में लायी जा सके और फिर वापस फैला कर बड़ी की जा सके। जिस दिन यह हो जायेगा, प्रयोग तो हो गया है, बड़े पैमाने पर उपयोग में आयेगा वक्त पर। जिस दिन यह हो जायेगा, इस दिन बूंद की सागर से तुलना करने में क्या अर्थ रहेगा? सागर सिकोड़कर बूंद बनाया जा सकता है। और बूंद को फैलाकर सागर बनाया जा सकता है। व्यक्ति को फैलाकर परमात्मा बनाया जा सकता है, परमात्मा को सिकोड़कर व्यक्ति बनाया जा  सकता है। ऐसा हो ही गया है। योग इसे बहुत दिन से कह ही रहा है कि चीजों में सिर्फ फैलाव का अन्तर हैं, और कोई अन्तर नहीं है। बड़ा और छोटा सिर्फ फैलाव है। छोटा और बड़ा सिर्फ फैलाव है।
यह पांचवा सूत्र हैं और महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि एक बार यह दृष्टि में साफ आ जाये तो आपकी हीनता कहाँ टिकेगी? आपकी श्रेष्ठता कहाँ टिकेगी? कहाँ रखियेगा? किसलिए बोझ ढोइयेगा? उसे आप छिटककर फेंक देंगे और अपने रास्ते पर चल पड़ेंगे। और उस दिन अगर कोई अकड़ेगा। तो हंसेंगे और अगर कोई हीन होकर पूंछ हिलायेगा तो भी हंसेंगे।
पूंछ हिलाने वाले से कहेंगे कि बेकार मेहनत मत करो। अकड़ने वाले से कहेंगे-नाहक शरीर को दुखाये जा रहे हो, कोई जरूरत नहीं है। सब चीजें अपने होने में हैं। सब चीजें अपने स्वभाव में हैं और सब स्वभाव अतुलनीय हैं, तुलना का कोई अर्थ ही नहीं है। कोई आयोजन भी नहीं है। योग का सूत्र। योग का छठवा सूत्र है कि ऐसा नहीं है कि जो क्षुद्र दिखाई पड़ता है वह और जो विराट् दिखाई पड़ता है वह इनमें विराट् दाता हो और क्षुद्र सिर्फ ग्राहक हो, भिखारी हो। ऐसा नहीं है।
छठवा सूत्र है योग का, दान और ग्रहण भिखारी होना सम्राट होना सबके साथ इकट्ठा है। यहाँ बूंद भी सागर को दान देती हे और सागर से दान लेती है। यहाँ बूंद भी विराट् को देती है और यहाँ विराट् भी क्षुद्र में अपने को उड़ेलता है। यहाँ देना और लेना बिल्कुल बराबर चल रहा है।
अभी एक फ्रेंच वैज्ञानिक एस्ट्रन ने एक छोटा-सा यन्त्र बनाया है। और यह मन्त्र योग की दिशा में बड़ा क्रान्तिकारी सिद्ध होगा। एस्ट्रन का यह यन्त्र व्यक्ति में जो प्रतिपल अनन्त से ऊर्जा समाहित हो रही है, उसकी रिपोर्ट करता है कि वह कितनी मात्रा में प्रवेश कर ही है। आप खड़े हो जायें उस यन्त्र के पास तो वह यन्त्र बताता है। कि आपके भीतर चारों ओर ब्रह्माण्ड से जो शक्ति आ रही है वह किसी मात्रा में आ रही है। पूरे वक्त जैसे अनन्त-अनन्त मार्गों से शक्ति आपके ऊपर गिर रही है और आपके राये-रोये से प्रवेश कर रही है।
बड़े मजे की बात है कि जब आप आनन्दित होते हैं। तो यह शक्ति ज्यादा प्रवेश करती है और जब आप दुखी होते हैं तो यह कम प्रवेश करती है। एस्ट्रन का यह यन्त्र बड़ा कीमती है। अगर आप दुखी हैं तो आपके द्वार-दरवाजे बन्द होते हैं सिकुड़े होते हैं। आपक भीतर शक्ति कम प्रवेश करती है। आपने भी अनुभव किया होगा क दुख सिकोड़ता है। इसलिए दुखी आदमी कहता है।, मुझसे बोलो मत, मुझे छेड़ो मत, मुझे एक कोने में बैठ जाने दो, मुझे एक कोने में सो जाने दो। दरवाजा बन्द कर लेता है, अंधेरा कर लेता है। देखी आदमी सिकुड़ता है, आनन्दित आदमी बंटना चाहता है। आनन्दित आदमी अकेला हो तो बेचैन होता है, भागता है किसी के पास कि आनन्द की खबर दे।
हम सबको पता है कि बुद्ध जब दुखी थे तो जंगल गये और जब आनन्दित हुए तब वापस गाँव में लौट आये। महावीर जब दुखी थे जब जंगल गये और जब आनन्दित हुए तब वापस गाँव में लौट आये। कोई पूछे कि दुखी आदमी जंगल क्यों जाता है? सिकुड़ जाता है, मिलने से भी भय खाता है। आनन्दित आदमी नदी की धार की तरह दौड़ता है, सबको बांटना चाहता है। आनन्द बंटना चाहता है, आनन्द एक शेयरिंग है। बिना बंटे आनन्द प्रसन्न नहीं होता। दुख सिकुड़ना चाहता है। इसलिए दुखी आदमी अकेला रह जाता है। आनन्दित आदमी को बहुत मित्र मिल जाते हैं। दुखी आदमी आईलेंड बन जाता है। उसके साथ भी कोई खड़ा नहीं होना चाहता वह भी किसी को खड़ा नहीं करनाा चाहता। आनन्दित आदमी महाद्वीप हो जाता है, दुखी आदमी छोटा-सा द्वीप हो जाता है अपने में बन्द और अपने मे अकेला आइसोलेटेड।
एस्ट्रन का यन्त्र यह बताता है कि जब दुखी आदमी सामने खड़ा होता है तो उसमें विराट् की ऊर्जा कम बरसती है और जब आनन्दित आदमी खड़ा होता है तो विराट् सब तरफ से उसमें प्रवेश करने लगता है जैसे बांध टूट गये हों और सब तरफ से उसमें ऊर्जा आने लगी हो।
योग इसे बहुत दिन से कहता है। योग कहता है कि आदमी के भी द्वार-दरवाजे तुम्हारे हाथ में हैं कि तुम परमात्मा के लिए अपने दरवाजे खुले रखो कि बन्द रखो।
लिवनित्ज हुआ एक बड़ा गणितज्ञ। वह कहता था, आदमी एक 'मोनोड' है। मोनोड उसका शब्द है। और मोनोड का अर्थ है विण्डोलेस। आदमी ऐसा घर है, जिसमें कोई खिड़की दरवाजा नहीं है। बन्द घर है। और लिवनित्ज कहता था कि इस बन्द घर में हाथ भी फैलाओ तो दूसरे तक नहीं पहुँचते, अपने ही मकान की दीवारों को छूते हें। दूसरे तक तुम पहुँचते ही नहीं। सब आदमी अपने-अपने में बन्द हैं। साधारणतः दुखी आदमी मोनोड होता है। और ऐसा लगता है कि लिविनित्ज दुखी आदमी रहा होगा या जिन लोगों को उसने जाना और सोचा होगा, वे दुखी रहे होंगे। उसने किसी योगी को शायद कभी नहीं देखा, क्योंकि योगी बिल्कुल उल्टा आदमी होता है।
अगर हम मोनोड के खिलाफ कोई शब्द बनायें तो 'ओपनिंग' शब्द है।
मोनोड का अर्थ है विण्डोलेस, खिड़की-रहित, द्वार-रहित। अगर हम योगी के लिए कोई शब्द बनायें तो कहना पड़ेगा दीवार-रहित। खिड़की-द्वार तो सवाल ही नहीं है, पूरे मकान को द्वार बना लेता है। इसलिए दीवारे भी अलग कर देता है, खुले आकाश के नीचे हो जाता है। सब तोड़ देता है, ताकि विराट् उसमें सीधा बरसता रहे। बरसता नहीं, जुड़ ही जाता है। इसलिए योग शन्ति पर, आननद पर, मौन पर, स्वार्थ पर जोर देता है।
अभी एस्ट्रन का यन्त्र बताता है कि जब मौन में आदमी खड़ा होता है, तब ऊर्जा की मात्रा बढ़ जाती है और जब बोलता है, बात करता है, विचार करता है, तब ऊर्जा की मात्रा कम हो जाती है। जब शान्त खड़ा होता है तब ऊर्जा ज्यादा बरसने लगती है। जब अशान्त खड़ा होता है, टेन्स होता है।, चिन्तित होता है।, तब ऊर्जा कम आनी शुरू हाती है। मौन या शान्ति या आनन्द परमात्मा तक पहुँचने के लिए इसीलिए मार्ग समझे योग ने, क्योंकि उनसे आप ज्यादा खुले हो जाते हैं, ओपन। खिड़कियां-दरवाजे सब खुल जाते हैं। धीरे-धीरे वे गिर जाते हें। फिर दीवारें भी गिर जाती हैं। फिर आप खुले आकाश के नीचे आ सकते हैं। एस्ट्रन का यन्त्र न केवल इतना ही रेकार्ड करता है कि बाहर से ऊर्जा आ रही है, वह यह भी रेकार्ड करता है कि व्यक्ति से प्रतिपल रिस्पॉन्स हो रहा है। व्यक्ति भी प्रति पल ऊर्जा की तरगे छोड़ रहा है। हम परमात्मा से ले ही नहीं रहे हैं, हम दे भी रहे हैं। और ऐसा मत समझना कि अगर परमात्मा न होगा तो आप न हो सकेंगे। इससे उल्टा भी सच है, अगर आप न होंगे तो परमात्मा भी नहीं हो सकेगा। ऐसा मत सोचना कि सागर सिर्फ बादलों को पानी देता ही नहीं लेता भी हैं। सागर लेता ही नहीं, देता भी है। और नदियां सिर्फ लेती ही नहीं, देती भी हैं। जहाँ भी लेना हे, वहाँ देना भी है। और समतुल है, लेन-देन बराबर है। अगर यह हिसाब ठीक न हुआ तो भूल होती है। और जिन्दगी उलझ जाती है। इसलिए योग के इस छठे सूत्र को ठीक से समझ लेना जरूरी है। उस आदमी को मैं योगी कहूंगा, जो जितना लेता है, उतना दे देता है। और हिसाब सदा चुकाता है।
कबीर जब कह सके मरते वक्त कि 'ज्यो की त्यों धर दीन्हीं चदरिया' तो उसका मतलब है। उसका मतलब है, लेन-देन सब बराबर है। खाते में न कुछ देना बचा, न कुछ लेना बचा। हिसाब-किताब पूरा हो गया। हम जाते हैं। कोई उधारी नहीं। ऐसा नहीं कि लिया ही हो और दिया न हो। हम सारे लोग लेते हैं, लेकिन दे नहीं पाते, बाँट नहीं पाते। और लेने तक में कंजूसी कर जाते हैं तो देने में कंजूसी करेंगे ही । लेते तक खुले मन से नहीं हैं, वहाँ भी दरवाजे बन्द रखते हैं। और देने में तो बहुत कठिनाई है।
जैसा कहा, आनन्द में ज्यादा मिलता है, वैसे ही आनन्द में ज्यादा दिया जाता हेै। मौन में ज्यादा मिलता है।, मौन में ज्यादा दिया जाता है।
असल में जब कोई बिल्कुल शान्त, मौन होता है। तो ऐसे हो जाता है जैसे पहाड़ो पर 'ईको प्वाइण्ट' होते हैं। आपने आवाज दी ओैर पहाड़ ने उन्हें लौटा दिया। खाली मन्दिर में आप बोले, गूंजी आवाज लौटकर आप पर बरस गयी। खाली, मौन, ध्यान को उपलब्ध आदमी पर जो भी आता है, तत्काल रिसपॉन्स, तत्काल प्रतिध्वनित होकर लौट जाता है। वह प्रति पल ले रहा है। और दे रहा है। लेने और देने में फासला भी नहीं है। जैसे लहर सागर की तट पर आयी और वापस लौट गयी और सागर अपने तट पर सदा ही ऋणमुक्त खड़ा है। जितना लेता हैे, उतना लौटा देता है। जो भी लेता है, लौटा देता है।
यह जो मैंने कहा, एस्ट्रन के यन्त्र में यह भी पकड़ा जाता है कि आपके बाहर कितनी ऊर्जा गिर रही हैं आपके भीतर से कितनी एनर्जी-वेव्ज बाहर जा रही है। दुखी आदमी से बहुत कम बाहर जाती है। दुखी आदमी अपने को पकड़ कर खड़ा हो जाता है। चिन्तित आदमी से बहुत कम बाहर जाती है। चिन्तित आदमी की शक्ति उसी के भीतर वर्तुल बन जाती है और गूंजने लगती है, जैसे पानी में भंवर बन जाते हैं। ऐसे ही चिन्तन आदमी की ऊर्जा भी भीतर भंवर बनकर घूमने लगती है। और वह उन्हीं-उन्हीं बातों को घूम-घूमकर सोचने लगता है जिन्हें हजार बार सोच चुका है। वह जुगाली करने लगता है, जैसे भैस करती है। खाना खा लिया है,फिर उसे निकालकर चबाने लगती है.... फिर चबाने लगती है....फिर चबाने लगती है।
भैंस के चबाने का तो उपयोग भी है, क्योंकि भैंस इकट्ठा खा लेती है, फिर कोषों से चबाती रहती है। आदमी, चिन्तित आदमी जो चबाता है, उसका चबाना बिल्कुल बेमानी है। उसका कोई अर्थ ही नहीं है? वह एक ही बात को लाख दफे सोचने लगता है। उसका मतलब? उसका मतलब हुआ, उसके भीतर रुग्ण भंवर बन गया। अब सब उसके बाहर है, वह आब्सेस्ड हो गया। अब वह उसी बात को हजार बार सोच रहा है। और यह भी सोचता है कि क्या मैं बेकार बात सोच रहा हूँ? लेकिन सोचे जा रहा हैं
ऊर्जा ने बाहर जाना बन्द कर दिया है, वह भीतर ही घूमने लगी है। ऐसा आदमी रुग्ण हो जायेगा, आध्यात्मिक अर्थों में रुग्ण हो जायेगा।
ऊर्जा आनी भी चाहिए, जानी भी चाहिए। और भीतर सदा ही समतुल, लेना-देना बराबर होने चाहिए। तो व्यक्ति और परमात्मा के बीच जो सम्बन्ध बनते हैं, उनका हिसाब लगाना मुश्किल है। तब सीधे सम्बन्ध होते हैं और तब ऐसा नहीं होता है कि व्यक्ति चरणो में होता है, परमात्मा सिर पर होता हैं तब व्यक्ति परमात्मा हो जाता है, परमात्मा व्यक्ति हो जाता है। तब भगवान्‌ भक्त हो जाता है, भक्त भगवान्‌ हो जाता है फर्क फासले नहीं रह जाते, क्योंकि कोई लेन-देन नहीं होता। भगवान्‌ भी जोर से नहीं कह सकता, क्योंकि जो लिया था, वह दे दिया गया है। कहीं कोई बाकी नही रह गयी है बात। दुख में, बेचैनी में, परेशानी में हम देते भी नहीं, लेते भी नहीं, सिकुड़कर बन्द हो जाते हैं और जीवन-स्रोत सूख जाते हैं। ऐसे ही जैसे कोई कुआं हो और कुआं कह दे कि सागर से अब मैं पानी नहीं लूंगा।
झरने बन्द करता हूँ अपने-और लोगों से कह दे कि अब तुम गगरियां डालना बन्द कर दो, अब मैं दूंगा नहीं स्वभावतः जो लेना बन्द करेगा, वह देना भी बन्द करेगा, नहीं तो वह सूखता जायेगा और जो देना बन्द करेगा, उसे लेना भी बन्द करना पड़ेगा। अन्यथा फट जायेगा, जी नहीं सकता। ये दोनों बातें एक साथ करनी पड़ेंगी। लेकिन ध्यान रहे, जो कुआं सागर से कह देगा कि नहीं लेता तुझसे और गाँव के लोगों से कह देगा कि नहीं देते तुम्हें तो वह सिर्फ सड़ेगा, गन्दा होगा, बदबू फैलायेगा उसकी ताजगी नष्ट हो जायेगी, उसका जीवन खो जायेगा।

हम सब ऐसे ही कुएं हो गये हैं। योग की दृष्टि से हम सड़ते हुए कुऐ हें। जीवित कुएं नहीं हैं, जो सागर से लेते हैं। और सागर को बांट देते हैं वापस क्योंकि वे जो लोग गगरियां लेकर आ गये हैं। वे सागर के साधन हैं। तो वे वापस सागर तक पहुँचा देंगे और कुंआ ताजे-से-ताजा बनता जायेगा। आश्चर्य की बात है,योग का यह कहना कि जो जितना ले जाये, उतना देगा,उतना जीवन्त, उतना लिविंग होगा। जो जितनी ही बड़ी मात्रा में लेगा और उतनी ही बड़ी मात्रा में लौटा देगा, वह उतना जीवन-ऊर्जा का केन्द्र हो जायेगा। उतनी पुलक, उतनी थिरक, उतना जीवन सघन होकर उसमें प्रगट होगा।
कृष्ण हों कि बुद्ध हों कि महावीर हों कि क्राइस्ट हों, ये सारे लोग, जो इतने विराट् जीवन-ऊर्जा से भरे हुए मालूम पड़ते हैं, उसका कारण ?..... उसका एक ही कारण है लेने की भी कंजूसी नहीं है, देने की भी कंजूसी नहीं है। लेते भी बड़े पैमाने पर हैं, देते भी बड़े पैमाने पर हैं, देते भी उतने बड़े पैमाने पर हैं।
जीसस का एक वचन आपसे कहूं और जीसस पृथ्वी पर हुए उन थोड़े बड़े योगियों मे से एक हैं, जिन्होंने कुछ कीमती सूत्र छोड़े। जीसस का एक वचन है 'जो बचायेगा, उससे छीन जायेगा। जिसके पास थोड़ा है, उससे छीन लिया जायेगा और जिसके पास बहुत हे, उसे बहुत दे दिया जायेगा।'
बड़ी उलटी बात कहते हैं। हम कहेंगे कैसी ज्यादती कर रहे हैं। जिसके पास कुछ नहीं है उसे दो और जिसके पास बहुत-कुछ हैं उसे क्यों देते हो? उसे न दो तो भी चलेगा। लेकिन जीसस किसी और गहरी बात की बात कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि जिसके पास जितनी ज्यादा ऊर्जा है, उसे उतनी ही ज्यादा दी जायेगी, जिसके पास जितनी कम ऊर्जा है, उसे उतनी कम मिलेगी। मिलने का कारण यही है कि जिस आदमी के पास कम है, वह आदमी अपने द्वार-दरवाजे बन्द किये बैठा है, इसीलिए कम है। उसने देने में कंजूसी की है, इसीलिए लेने में हार गया, थक गया,ले नहीं सकता।
सुनी है मैंने एक कहानी कि गाँव में एक आदमी ने किसी किताब में पढ़ा कि रुपया रुपये को खींच लेता है। उसके पास एक रुपया था गरीब आदमी था।
उसने सोचा, अगर रुपया को खींच लेता है तो ऐसी जगह चलना चाहिए जहाँ रुपये हों, ताकि अपने रुपये को वहाँ रखे, वह रुपये को खींच लेगा। वह शहर गया। साहूकार की दुकान पर पहुँचा। सांय रुपये गिने जा रहे थे तो वह बाहर सीढ़ी पर बैठकर अपने रुपये का बजाने लगा। बड़ी देर तक उसने रुपयें को बजाया, लेकिन कोई रुपया खिंचकर आया नहीं। तब उसने समझा कि लगता है, दूरी ज्यादा है। उसने अपने रुपयें को साहूकार की गड्डियों पर फेंका। फिर थोड़ी देर राह देखी कि रुपयों को लेकर आयेगा। लेकिन वह नहीं आया तो उसने साहूकार से कहा कि गलत थी वह किताब, मेरा रुपया वापस कर दो। साहूकार ने कहा, कौन-सी किताब ? उसने कहा - मैंने एक किताब में पढ़ा है, रुपया रुपयें को खींच लेता है।
साहूकार ने कहा-सही थी वह किताब, रुपयें ने रुपयें को खींच लिया है, तुम अपने घर जाओ। पागल, एक रुपया इतने रुपयें को खींच सकेगा! सही थी वह किताब, रुपये रुपये को खींच लेंगे। तुम अपने घर जाओं, कभी भूल से मत कहना कि किताब गलत थी। और उस किसान ने फिर कभी किसी से नहीं कहा कि किताब गलत थी, क्योंकि किताब सही साबित हुई।
जीसस जिस अद्भुत नियम की बात कर रहे हैं, वे यह कह रहे हैं कि अगर चाहते हो कि विराट् से भर जाओ तो विराट् के दाता बनो। बांटो तो मिलेगा, रोका तो छिन जायेगा। बचाया तो खो दोगे, खोया तो पा लोगे। उलटे लगते हैं सूत्र, लेकिन योग उन सूत्रों को कहने का कारण समझता है। कारण है, जितना ही हम अपने को खाली करते हैं, उतना ही हम विराट् के लिए स्थान रिक्त करते हैं। जितना ही विराट् हममें उतरता है, उतना ही हम खाली करने के आनन्द से, लुटाने के आनन्द ेस भरते हैं और उलीचते हैं
यह छटवा सूत्र यह कहता है कि यहाँ कोई भी न दाता है अकेला, न ग्राहक है। यहाँ न कोई भिखारी है और न कोई अकेला सम्राट है। और जो आदमी अकेला सम्राट होना चाहेगा, वह मुश्किल में पड़ेगा। और जो आदमी भिखारी होना चाहेगा, वह भी मुश्किल में पड़ेगा।
यहाँ तो भिखारी और सम्राट एक के ही भीतर हैं। एक हाथ से देना है और एक हाथ से लेना है। और हाथ उतना ही ले पायेगा, जितना दूसरे हाथ ने दिया है। और दूसरा हाथ उतना ही दे पायेगा, जितना एक हाथ से लिया गया है।
काश! यह हमारी समझ में आ सके तो हमारी जिन्दगी की सारी रूप रेखा बदल जाये। तब हम चीजों को पकड़ने वाले सिद्ध न हों, क्योंकि जो चीजों को पकड़ लेता है, वे दरिद्र रह जाता है। जो जितने जोर से पकड़ लेता है, वह उतना ही दीन रहा जाता है। छोड़ने की कला आनी चाहिए, दे देने की कला आनी चाहिए, क्योंकि दे देने की कला ही पा लेने का मार्ग है जितने हम खाली होंगे, उतने हम पाने में समर्थ और पात्र हो जाते हैं। जो खाली होंगे, वे हार जायेंगे। जो पहले से ही भरे हुए, पकड़े हुए, अपने को रोके हुए हैं, वे खाली रह जायेंगे। झीलें भर जाती है, पहाड़ खाली रह जाते हैं।
पहाड़ों पर भी वर्षा होती है लेकिन पानी उन पर टिकता नहीं, वह पहले से ही भरे पड़े हैं। झीलें खाली होती हैं, उन पर वर्षा न हो तो भी कोई चिन्ता नहीं, पहाड़ों का पानी बहकर झीलों में आ जाता है और भर जाता है। झीलें खाली हैं, यह उनका राज़ है।
खाली होते रहना है सब दृष्टियों से तो भरते रहेंगे। और सब दृष्टियों से भरते रहना है तो खाली होते रहेंगे। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और परमात्मा से अगर कोई मांगता ही चला जाये तो ध्यान रखें, परमात्मा से उसका कोई सम्बन्ध न हो सकेगा। हमारे सम्बन्ध नहीं है।, क्योंकि मन्दिर हमारे प्रार्थनागृह हैं, वहाँ हम सिर्फ माँगते हैं। वहाँ हम पाचक होते हैं। हमारी प्रार्थनाएं झूठी हो जाती हैं, क्योंकि हमारी प्रार्थनाएं भिखमंगों की प्रार्थनाएं हैं जो सिर्फ माँगने के लिए ही जाते हैं।
ध्यान रहे, जब हम माँगने को जाते हैं, तब हम परमात्मा को कोई मूल्य नहीं दे रहे हैं, जो हमें चाहिए, उसी को मूल्य दे रहे हैं। एक आदमी मेरे पास आया और कहा - मैं तो पहले परमात्मा में नही विश्वास नहीं करता था, अब करने लगा हूँ।
मैंने उसे पूछा-क्या तुम्हारी माँग कोई पूरी हो गयी? उसने कहा-आप कैसे पहचाने ? तो मैंने कहा - और तो मुझे दिखाई नहीं पड़ता तुम्हारी शक्ल से कि तुमने परमात्मा की थोड़ी-सी भी यात्रा की हो। जरूर कोई माँग पूरी हो गयी है। उसने कहा-बिल्कुल, मेरे लड़के की नौकरी नहीं लगती थी, मैंने प्रार्थना की और ठीक अल्टीमेटम दे दिया भगवान्‌ को कि एक महीने के भीतर अगर नौकरी नहीं लगी तो ध्यान करना, फिर कभी विश्वास न करेंगे। और नौकरी लग गयी, अब मैं बिल्कुल पक्का विश्वास करता हूँ।
इस आदमी को लड़के की नौकरी परमात्मा से ज्यादा कीमती है। अगर इसके लड़के की नौकरी छूट जाये तो परमात्मा भी अनएम्प्लायड हो जायेगा, इसी तरह। वह भी बेकार हो जायेगा। उसका भी कोई मतलब नहीं रह जायेगा। यह जाकर ठोकर मार देगा कि हटो सिंहासन से, बहुत हो गया।
हम परमात्मा के पास सिर्फ प्रार्थनाएं लेकर जाते हैं, माँग की। ध्यान रहे, परमात्मा के पास जो दान लेकर जाता है, उसकी ही प्रार्थनाओं का अर्थ है। जो परमात्मा के पास देने जाता है, वही जुड़ता है। ऐसा नहीं है, जो देने जाता है, उसे नहीं मिलता, बहुत मिलता है। लेकिन देने वाले को मिलता है। माँगने वाले से और पाते हों तो छीन लिया जाता है।
इसलिए जीसस कहते है, जिसके पास थोड़ा है, उससे छीन लेंगे। जैसे ही कोई देने को तैयार हो जाता है, वह पाने का हकदार हो जाता है, क्योंकि देने के लिए हृदय के द्वार खोलने पड़ते हैं। उन्हीं द्वारों से मिलता है। और जो देने में डरता है, उसे दरवाजे बन्द करने पड़तें हैं कि चोर न आ जायें, भिखारी न आ जायें, कोई दरवाजे पर माँग न ले उससे। उसे खिड़की-दरवाजे सब बन्द रखने पड़ते हैं। घर के भीतर से वह माँग करता है कि यह दें, वह दें, दरवाजे न खोलेगा कि पता नहीं कोई भिखारी आ गया हो, कोई मांगने वाला न आ गया हो।
और मैंने सुना है कि परमात्मा यह मजाक बहुत बार करता है कि भिखारी की शक्ल में द्वार पर आ जाता है। तब पहचान हो जाती है पक्की कि यह आदमी पाने का पात्र नहीं है, क्योंकि जो अभी देने में ही समर्थ नहीं हुआ, वह पाने का पात्र नहीं हो सकता। स्वभावतः भगवान्‌ आपसे धन नहीं माँग सकता है। स्वभावतः परमात्मा आपसे मकान नहीं माँग सकता है, क्योंकि मकान आपका नहीं, आपके हाथ में है आज, कल किसी और के हाथ में होगा। परमात्मा तो एक ही चीज हो सकते हैं। इसलिए योग कहता है-जो अपने को देने को तैयार है, वह सब पा लेने का हकदार हो जाता है। हम अपने को दे पायें, हम अपने को छोड़ पायें, हम कह पायें-जो तेरी मर्जी, मुझे ले ले ...।
विवेकानन्द के जीवन में एक छोटा-सा संस्मरण है। विवेकानन्द के पिता चल बसे तो घर में बहुत गरीबी थी और घर में भोजन इतना नहीं था कि माँ और बेटा दोनों भोजन कर पायें। तो विवेकानन्द अपनी माँ को यह कहकर कि आज किसी मित्र के घर निमंत्रण है, मैं वहाँ जाता हूँ- कोई निमंत्रण नहीं होता था कोई मित्र भी नहीं होते थे-सड़कों पर चक्कर लगाकर घर वापस लौट आते थे, अन्यथा भोजन इतना कम है कि माँ उन्हीं को खिला देगी और खुद भूखी रहेगी।
तो भूखे घर लौट आते। हँसते हुए आते थे कि आज तो बहुत गजब का खाना मिला। क्या चीजें बनी थीं। बस उन्हीं चीजों की चर्चा करते आते थे, जो कहीं बनी ही नहीं थीं, जो कहीं खायी भी नहीं थीं। भूखे, चक्कर लगाकर लौट आते थे, ताकि माँ खाना खा ले। रामकृष्ण को पता चला तो उन्होंने कहा-तू कैसा पागल है, भगवान से क्यों नहीं कह देता, सब पूरा हो जायेगा तो विवेकानन्द ने कहा कि खाने-पीने की बात भगवान से चलाऊँ तो जरा ...बहुत साधारण बात हो जायेगी।
फिर भी रामकृष्ण ने कहा कि तू एक दफा कहकर देख तो। विवेकानन्द को भीतर भेजा घण्टा बीता, डेढ़ घण्टा बीता, वह मन्दिर से बाहर आये, बड़े आनन्दित थे। नाचते हुए बाहर निकले। रामकृष्ण ने कहा-मिल गया न ? माँग लिया न ? विवेकानन्द ने कहा-क्या ? रामकृष्ण ने कहा-तुझे मैंने कहा था कि माँग अपनी रख देना। तू इतना आनन्दित क्यों आ रहा है ? विवेकानन्द ने कहा-वह तो भूल गया।
ऐसा कई बार हुआ। रामकृष्ण भेजते और विवेकानन्द वहाँ से बाहर आते और वे पूछते तो वे कहते-क्या ? तो रामकृष्ण ने कहा-तू पागल तो नहीं है, क्योंकि भीतर जाता हैं तो पक्का वचन देकर जाता है। विवेकानन्द कहते हैं कि भीतर जाता हूँ तो परमात्मा से भी मांगू, यह तो ख्याल ही नहीं रह जाता। देने का मन हो जाता है कि अपने को दे दूं। और जब अपने को देता हूँ तो इतना आनन्द, इतना आनन्द कि फिर कैसी भूख, कैसी प्यास, कौन माँगने वाला, कौन याचक , नहीं माँग सके। यह सम्भव नहीं हो सका।
आज तक किसी धार्मिक आदमी ने परमात्मा से कुछ भी नहीं माँगा है। और जिन्होंने माँगा हो, उन्हें ठीक से समझ लेना चाहिए। कि धर्म से उनका कोई नाता नहीं है। धार्मिक आदमी ने दिया है। जीसस को सूली लगी। सूली लगने की रात बगीचे में उनके मित्रों ने कहा- अपने परमात्मा से कह दो, माँग लो जो माँगना है। जीसस हँसते रहे। फिर सुबह उनको सूली लगने का वक्त भी आ गया और साथी उनके उनसे बार-बार कहते रहे कि तुम अपने परमात्मा से कह क्यों नहीं देते कि यह मत करवाओ, लेकन जीसस हँसते रहे। फिर सूली पर वे लटका भी दिये गये। हाथ में कीलें ठोंक दी गयीं और तब उनके मुँह से एक आवाज निकली और वे सूली पर लटक गये। फिर यह सूली नहीं थी, यह परमात्मा का प्रतीक हो गयी थी। अब वे अपने को दे सके। वे सूली पर लटक गये।
सूली पर लटकना प्रतीक बन गया। है भी अद्भुत प्रतीक कि जिन्हें परमात्मा तक जाना है, उन्हें अपने को, 'मैं' को बिलकुल सूली पर लटका देने का साहस चाहिए।
लेकिन आदमी बेईमान है, उसकी बेईमानी का कोई अन्त नहीं। ईसाई पादरी गले में सोने की सूली लटकाये हुए सारी प्‌थ्वी पर घूम रहे हैं! कोई पूछे कि गला सूलियों पर लटकाया जाता है कि गले में सूलियां लटकायी जाती है? लेकिन आदमी धोखेबाज है। जीसस सूली पर लटकाये गये, उनको मानने वाला गले में एक छोटी-सी सूली लटकाए घूम रहा है! सूली को भी आदमी आभूषण बना सकता हे, आदमी इतना बेईमान है! देने की बात ही भूल जाता है, मिटने की बात ही भूल जाता है-पाने की, पाने की बात ही याद रखता है!
योग कहता है, जिस अनुपात में दिया जायेगा, उसी अनुपात में मिलता है। और जो दिया जायेगा, वही मिलता है। अगर जीवन दे देंगे तो जीवन मिलेगा, अगर स्वयं को दे देंगे तो स्वयं का होना परिपूर्ण रूप से मिलेगा। अगर अहंकार दे देंगे तो आत्मा मिलेगी। अगर यह न कुछ व्यक्तित्व दे देंगे तो परम व्यक्तित्व मिलेगा जो भी दिया जायेगा वह मिलेगा। और हमारे पास क्या हो सकता है देने योग्य ? हमारे पास मरणधर्मा देह है, एक झूठा अहंकार है, ख्याल है कि मैं कुछ हूँ। बस, यही चीज है, वापस आ जाता है, सच में जो मेरी देह है-अमृतवत्‌ वह मुझे मिल जाती है।
इसलिए योग के छठेवें सूत्र को ठीक-से ध्यान में रखना, देना ही पाना है, मिटना ही होना है, क्योंकि यहाँ बँूद भी सागर को देती है। लेकिन जब कोई बूँद सागर को देती है, तब कभी देखा है ? जब बूँद अपने को सागर को देती है तो सागर बूँद को मिल जाता  है ? तत्काल बूँद सागर हो जाती हे ? कबीर ने कहा है, एक बहुत अद्भुत वचन कहा है कबीर ने कहा है खोजते-खोजते मैं खो गया और फिर ऐसा हुआ कि 'बूँद समा गयी समुन्द्र में, सो कत हेरी जाई' और फिर बूँद सागर में गिर गयी, अब मैं बूँद को कैसे वापस निकालूं। लेकन कुछ दिन बाद उन्होंने एक दूसरा वचन भी लिखा और अपने मित्रों को कहा कि पहले वचन को छोड़ देना, उसमें कुछ गलती हो गई। पहला वचन था - 'हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराई, बूँद समाना समुन्द्र में, तो कत हेरी जाई।'
कहा कि काट दो वह पहली बात, उसमें कुछ उसमें कुछ गलती हो गयी कि बूँद सागर में कूद गयी। अब मैं तुमसे ज्यादा असली बात कहता हूँ कि सागर बूँद में गिर गया, और बूँद सागर में गिरी होती तो निकाल भी लेते, अब सागर बूँद में गिर गया, अब कहाँ निकालेंगे ? अब कैसे निकालेंगे ?
जब बूँद सागर में गिरती है तो यह बूँद की तरफ से हमें लगता है कि बूँद सागर में गिर रही है, लेकिन जब गिर जाती है तब बूँद से पता चलता है कि यह तो सागर ही मुझमें गिर गया। जब व्यक्ति अपने को खोता है, तब उसे लगता है कि मैं अपने को खो रहा हूँ, जैसे ही खोता है, वैसे ही उसे पता चलता है, यह तो परमात्मा का मिलना हो गया। यह तो मैंने खोया नहीं, पाया।
बुद्ध का एक युवा भिक्षु ज्ञान को उपलब्ध हो गया तो बुद्ध ने उससे कहा-अब तूने पा लिया, अब तू जा और लोगों को खबर दे उस मार्ग की, उस राह की, उस द्वार की, जहाँ से तूने प्रवेश किया। जा और लोगों को बता वह मन्दिर जहाँ आनन्द के निनाद हो रहे हैं। उस भिक्षु ने कहा-बस, मैं आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा करता था, आज ही चल पड़ता हूँ। जो मिला है, उसे बाँट दूंगा। बुद्ध ने पूछा-तू जायेगा कहाँ, किस ओर? उस भिक्षु ने कहा, उस भिक्षु का नाम था, पूर्ण। उसने कहा - मैं ? बिहार का एक हिस्सा था सूखा, वहाँ जाऊँगा। वहाँ अब तक कोई आपकी खबर नहीं ले गया। बुद्ध ने कहा-वहाँ मत जा। मैं तुझे सलाह नहीं दूंगा, क्योंकि वहाँ के लोग अच्छे नहीं है। इसीलिए तो वहाँ अब तक कोई गया नहीं। तो उस पूर्ण ने कहा कि जहाँ लोग अच्छे हैं, वहाँ मेरे जाने की जरूरत ही क्या है ? मुझे वहीं जाने की आज्ञा दें। तो बुद्ध ने कहा-मैं तुमसे तीन सवाल पूछ लूं, फिर तू जा सकता है।
पहला सवाल यह पूछता हूँ कि वहाँ के लोग दुष्ट हैं, कठोर हैं, गंवार हैं, वे तुझे गालियां देंगे तो मेरे मन को क्या होगा ? वही, जो आपके मन को होगा। मेरे मन को यही होगा कि कितने भले लोग हैं, सिर्फ गालियां देते हैं, मारते नहीं हैं। मार भी सकते थे! तो बुद्ध ने कहा-पूर्ण! समझ कि वे तुझे मारे भी, क्योंकि वे लोग बहुत बुरे हैं, मारेंगे भी। वे जब तुझे मारेंगे तब तेरे मन को क्या होगा ? तो पूर्ण ने कहा-वहीं, जो आपके मन को होगा। धन्यवाद दूंगा कि कृपा है प्रभु की कि अच्छे लोग हैं, मार ही नहीं डालते हैं। मार भी डाल सकते थे। तो बुद्ध ने कहा-बस, आखिरी सवाल और पूछ लूं कि अगर वे मार ही डालें तो मरते क्षण में आखिरी ख्याल क्या होगा ? तो पूर्ण ने कहा-आप व्यर्थ ही पूछते हैं। जानते हैं भली-भाँति वहीं, जो आपको होगा। मरते क्षण में हाथ जोड़कर धन्यवाद देकर जा सकूंगा कि अच्छे लोग हैं, इस जीवन से छुटकारा दिला दिया, जिसमें कोई भूल-चूक हो सकती थी, तो बुद्ध ने कहा-तू धािर्मक आदमी हो गया, तू कहीं भी जा सकता है। अब तेरे लिए सारी पृथ्वी स्वर्ग है और सब घर मन्दिर हैं और हर आँख परमात्मा की आँख है।
योग ऐसी दृष्टि के आधार रखता है। और सूत्रों पर कल आपसे बात करूंगा। कुछ सवाल आये हैं, कुछ सवाल और कल आ जायेंगे तो अन्त में सारे सवालों को इकट्ठा ही ले लेंगे। मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना, इससे अनुगृहीत हूँ। सुबह के लिए दो सूचनाएं आपको दे दें। जो मित्र ध्यान करने आना चाहते हों, ध्यान रखें, जो करने आना चाहते हों वे ही सुबह आयें। देखने न आयें। देखने से कुछ पता हनीं चलेगा, करने से ही पता चल सकता है। और देखने से करने वालों को बाधा पड़ती है। जो आते हैं, वे स्नान करके आयें और चुपचाप आकर यहाँ बैठ जायें। जरा भी शब्द का उपयोग न करें, ताकि यहाँ का वातावरण ध्यान में आने के लिए सहयोगी और मित्र बन सके।
मेरी बातें इतने प्रेम से सुनी, उससे अनुगृहीत हूँ, अन्त में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूँ, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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