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बुधवार, 28 नवंबर 2018

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-01)

सफेद बादलों का मार्ग-(अनुवाद)-ओशो 

(10 से 24 मई 1974 तक श्री रजनीश आश्रम, पूना में सदगुरु ओशो द्वारा दी गई

मूल अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

सफेद बादलों का मार्ग, प्रवचन-1

मेरा मार्गः शुभ्र मेघों का मार्ग

पहला प्रश्नः

प्यारे सदगुरु ओशो, आपका मार्ग सफेद बादलों का मार्ग क्यों कहलाता है?

देह त्यागने के ठीक पूर्व गौतम बुद्ध से किसी ने पूछा : ‘जब एक संबुद्ध व्यक्ति शरीर छोड़ता है तो वह कहां जाता है? क्या वह शेष बचता है या शून्य में विलीन हो जाता है’
यह सवाल जरा भी नया नहीं था। यह बड़ा प्राचीन प्रश्न है; जो बहुत बार पूछा जा चुका है। उस दिन भी जब बुद्ध से पूछा गया तो वे बोले : ‘जैसे कोई सफेद बादल देखते-देखते विलीन हो जाता है... !’

आज ही सुबह यहां आकाश में शुभ्र बादल घिरे थे। और अब वे नहीं हैं। वे सब कहां से आए थे? वे कहां चले गए? वे बने कैसे और मिटे कैसे? वे क्यों प्रकट हुए और क्यों विलीन हो गए? उनका आना, उनका जाना, उनका होना; सब रहस्यमय है! यही पहला कारण है कि मैं अपने मार्ग को श्वेत बादलों का मार्ग कहता हूं। परंतु कई अन्य कारण भी हैं और अच्छा होगा कि उन सब को समझा जाए, उन पर भी ध्यान दिया जाए।

पहली बात, बादल की जड़ें नहीं होतीं। वह निर्मूल है, ‘कहीं-नहीं’ आधारित है, फिर भी ‘अभी-यहीं’ में स्थापित है। (अंग्रेजी में इन दोनों शब्दों की स्पैलिंग समान है : ‘ग्राउन्डेड नो-व्हेअर ऑर ग्राउन्डेड इन नाऊ-हियर’। ) निराधार होते हुए भी बादल का अस्तित्व तो है। ऐसे ही यह जीवन भी बादल की तरह है : जड़-हीन, कार्य-कारण सिद्धांत से परे, बिना किसी उद्देश्य के, फिर भी है! एक रहस्य की भांति मौजूद है!!
वस्तुतः बादल के पास अपना कोई मार्ग नहीं होता। वह हवा में उड़ता फिरता है, किसी मस्त-मौला घुमक्कड़ की तरह। कहीं पंहुचने की उसे जल्दी नहीं। कोई मंजिल नहीं, कोई नियति नहीं। वह कभी उदास या कुंठित नहीं होता क्योंकि वह जहां भी है वहीं उसकी मंजिल है। यदि तुम्हारा कोई लक्ष्य है तो तुम्हारा निराश होना सुनिश्चित है। जितना अधिक लक्ष्य-केन्द्रित चित्त होगा, उतना ही अधिक दुखी होगा, उद्विग्न और निराश होगा। जब तुम्हारे सम्मुख कोई लक्ष्य होता है तो तुम एक निश्चित मुकाम की ओर चलते हो। तुम इधर-उधर नहीं मुड़ सकते; जबकि अस्तित्व का कोई गंतव्य नहीं है। यह जीवन कहीं जा नहीं रहा। कोई लक्ष्य नहीं, कोई उद्देश्य नहीं है।
उद्देश्य के आते ही तुम अखंड अस्तित्व के विरोध में हो जाते हो और स्मरण रहे, तब कुंठा की खाई में गिरते हो। एक अंश मात्र होकर, तुम विराट के विरुद्ध कभी जीत नहीं सकते। इस ब्रह्मांड में तुम्हारा होना धूल-कण मात्र है, तुम लड़कर विजयी नहीं हो सकते। यह असंभव है कि बूंद सागर से जीते या अंश पूर्ण को परास्त करे... निश्चित ही केई व्यक्ति, समष्टि पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। जीवन है लक्ष्यहीन और तुम हो लक्ष्य से बंधे; तो निस्संदेह तुम ही हारोगे।
बादल तिरता रहता है, जहां भी हवाएं ले जाएं। कोई विरोध नहीं, कोई संघर्ष नहीं। वह कोई योद्धा नहीं है। बादल कोई विजेता नहीं है, फिर भी संपूर्ण धरा पर पूरी गरिमा से मंडराता फिरता है। कोई उसे हरा नहीं सकता, क्योंकि उसके मन में जीतने की आकांक्षा नहीं है।
एक बार मन ने कोई लक्ष्य, उद्देश्य, मंजिल निर्धारित कर ली तो तुम उस तक पहुंचने के पागलपन में पड़ोगे और तत्क्षण समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। तुम हारोगे, यह सुनिश्चित है। तुम्हारी पराजय अस्तित्व के होने के ढंग में ही निहित है।
बादल को कहीं भी नहीं जाना है। बस स्वच्छंद विचरण करता है, सर्वत्र घूमता है। सारे आयाम उसके हैं और समस्त दिशाएं उसकी हैं। उसे कुछ भी अस्वीकृत नहीं है। हर चीज जहां है, जैसी है; उसे समग्र भाव से स्वीकृत है। इसीलिए मैं अपने मार्ग को बादलों जैसा सहज मार्ग कहता हूं।
मेघों के पास, पहले से तय किया हुआ कोई रास्ता, कोई नक्शा नहीं होता। वे निरुद्देश्य हवा में उड़ते फिरते हैं। रास्ते का अर्थ होता है कि तुमने चुन लिया कि तुम्हें कहीं पंहुचना है। बादलों को कहीं भी नहीं पंहुचना है इसलिए उनके रास्ते का अर्थ हुआ : ‘मार्गरहित मार्ग’ या ‘पथविहीन पथ’। निर्धारित लक्ष्य के बगैर, मन के बगैर बादल में गति तो है, साथ ही अ-मन की स्थिति भी है। इसे ठीक से समझ लेना जरूरी है, क्योंकि हमारे लिए उद्देश्य और मन पर्यायवाची हैं। उद्देश्यहीन जीवन की कल्पना भी मुश्किल है। बगैर उद्देश्य के मन जीवित नहीं रह सकता।
बहुत लोग मेरे पास आकर हास्यास्पद प्रश्न करते हैं कि ‘ध्यान का प्रयोजन क्या है’ ध्यान का कोई भी प्रयोजन हो नहीं सकता, क्योंकि मौलिक रूप से ध्यान अ-मन की अवस्था है। ऐसी स्थिति, जहां बस तुम हो, कहीं आना-जाना नहीं है। चाहो तो कह लो कि ध्यान का लक्ष्य ‘यहीं और अभी’ मौजूद है : तुम्हारा अंतर्तम।
जैसे ही गंतव्य कहीं दूर होता है, मन उस ओर यात्रा शुरू कर देता है। मंजिल के बारे में सोच-विचार की प्रक्रिया में संलग्न हो जाता है। भविष्य के साथ ही चित्त गति कर सकता है। लक्ष्य के आते ही भविष्य आता है और भविष्य के साथ समय आता है।
श्वेत बादल समयातीत आकाश में मंडराता है, उसके पास न मन है और न भविष्य है। वह यहीं और अभी है, उसका हर क्षण पूर्ण शाश्वत है। चूंकि बिना लक्ष्य के मन बच नहीं सकता, इसलिए अपना वजूद बनाए रखने के लिए, मन नए-नए उद्देश्य पैदा किए चले जाता है। यदि लौकिक लक्ष्य पूरे हो गए, तो तथाकथित पारलौकिक लक्ष्यों की तरफ लालायित होता है। अगर धन व्यर्थ हो गया तो ध्यान उपयोगी हो जाता है। यदि सांसारिक प्रतियोगिता और राजनीति निरर्थक हो गई, तो तथाकथित स्वर्ग आदि की होड़ शुरु हो जाती है; धार्मिक उपलब्धियां सार्थक बन जाती हैं। मगर मन सदैव किसी न किसी प्रयोजन की कामना से ग्रस्त रहता है। जबकि मेरे अनुसार, केवल वही मन धार्मिक है, जो लक्ष्यहीन है। इसका मतलब है कि मन, वस्तुतः मन की तरह तब बचता ही नहीं। ऐसे मन-रहित बादल की तरह स्वयं को महसूस करो।
तिब्बत में एक सुंदर ध्यान विधि है; वहां भिक्षु पहाड़ियों पर नितांत अकेले में, आकाश में मंडराते हुए बादलों पर ध्यान लगाते हैं। क्रमश: वे खुद भी बादलों की भांति, रूप से अरूप में खोने लगते हैं। धीरे-धीरे वे बादल जैसे ही हो जाते हैं- निर्विचार, स्वयं के होने में प्रफुल्लित! कोई विरोध नहीं, कोई संघर्ष नहीं। कुछ पाना नहीं, कुछ खोना नहीं, केवल होना! वर्तमान क्षण के आनंद में मग्न, वे अपने होने का उत्सव मनाते हैं।
इसीलिए मैं अपने मार्ग को श्वेत मेघों का मार्ग कहता हूं और चाहता हूं कि तुम भी गगन में मंडराते इन बादलों के समान हो जाओ। मैं किसी गंतव्य की ओर निर्धारित दिशा में गति करना नहीं सिखा रहा हूं- सिर्फ तिरना है, जहां भी हवाएं तुम्हें ले जाएं; बस, उसी तरफ निर्विरोध बहते जाना है। जहां कहीं भी पंहुच जाओ, वही तुम्हारा लक्ष्य है। लक्ष्य किसी सीधी रेखा की भांति नहीं है जिसके आरंभ और अंत के बिंदु तय हैं। जीवन का कोई ओर-छोर नहीं है। प्रत्येक क्षण स्वयं में एक लक्ष्य है।
तुम सब सिद्ध हो, बुद्ध हो। तुम्हारे पास एक संपदा है। तुम अपनी समग्रता और परिपूर्णता में हो। तुम सक्षम हो, बिल्कुल बुद्ध, महावीर और कृष्ण की भांति। तुम क्या खोज रहे हो? ठीक अभी, इसी क्षण में, सब कुछ यहीं तो है; केवल तुम सतर्क नहीं हो। और तुम सजग इसलिए नहीं हो पाते क्योंकि तुम्हारा मन भविष्य में डोल रहा है। तुम वर्तमान में नहीं हो। तुम इसके प्रति बिल्कुल भी जागरूक नहीं हो कि वर्तमान के क्षण में कुछ महत्त्वपूर्ण घटित हो रहा है। और ऐसा सदा-सदा से हो रहा है। लाखों जन्मों से यह होता चला आ रहा है। हर क्षण तुम एक ‘बुद्ध’ हो। एक पल के लिए भी तुम बुद्धत्व के अनुभव से अछूते नहीं रहे। और कभी चूक भी नहीं सकते, क्योंकि स्वाभाविक रूप से सत्य ऐसा है, चीज़ें ऐसी हैं।
बुद्धत्व से तुम कभी च्युत नहीं हो सकते। लेकिन तुम इस तथ्य के प्रति सजग नहीं हो पा रहे, क्योंकि कहीं-न-कहीं तुम्हारे मन में कोई दूरगामी लक्ष्य है जो तुम्हें प्राप्त करना है। इसी लक्ष्य-उन्मुखता की वजह से एक अवरोध उत्पन्न हो जाता है और अपने वास्तविक स्वरूप को तुम भूल जाते हो।
एक बार वास्तविकता प्रकट हो जाए, एक दफा तुम आंतरिक सचाई को अनुभव कर लो, तो चेतना का महानतम और गहनतम रहस्य प्रकट हो जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में पूर्ण है, पूरी समष्टि को स्वयं में समेटे हुए है। जब कहा जाता है कि ‘सर्वम् ब्रह्मम्’ या ‘सब की आत्मा एक है’ या ‘कण-कण में भगवान’ या ‘सर्वत्र अखण्ड और असीम भगवत्ता है’ तो इसका तात्पर्य उसी अंतर्निहित पूर्णता से है। यही भाव उपनिषद् के महावाक्य ‘तत्वमसि’ अर्थात ‘तुम वही हो’ में समाहित है।
ऐसा नहीं कि तुम्हें ‘वह’ बनना है, क्योंकि यदि तुम्हें ‘वह’ बनना है तो तुम ‘वह’ हो नहीं। और यदि तुम वह नहीं हो, तो तुम ‘वह’ कैसे बन सकते हो? एक बीज जब एक वृक्ष बनता है, तो बीज में पहले से ही वह वृक्ष छुपा होता है। कंकड़-पत्थर कभी वृक्ष नहीं बन सकते। बीज वृक्ष बन जाता है, क्योंकि बीज पहले से ही वह संभावना लिए हुए है। इसलिए प्रश्न कुछ विशिष्ट बनने का नहीं है। प्रश्न सृजन का नहीं, केवल प्रकटीकरण का है। बीज अभी बीज की भांति स्वयं को प्रकट कर रहा है, आगामी क्षण में वह वृक्ष की भांति प्रकट हो सकता है। इसलिए सवाल केवल प्रकट होने का है। यदि तुम बीज की गहराई में झांक सको तो पाओगे कि बीज वर्तमान क्षण में भी वस्तुतः वृक्ष ही है।
तिब्बती रहस्यदर्शियों, झेन सदगुरुओं और सूफी दरवेशों ने भी शुभ्र मेघों की उपमा देकर चर्चाएं की हैं। इन बादलों ने हमेशा से असंख्य लोगों के अंतस को आकर्षित किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि बादलों के साथ अनेक ऋषियों का संवाद हुआ और कहरा संबंध स्थापित हुआ है। तुम भी इसे एक ध्यान विधि बना लो और तब कई रहस्य तुम्हारे सामने उजागर होंगे।
जीवन को एक समस्या की भांति नहीं लेना चाहिए। जहां तुमने जीवन को समस्या माना वहीं तुम्हारा खत्मा हुआ! अगर तुम सोचते हो कि जीवन एक समस्या है, तो वह कभी भी हल नहीं हो सकती। दर्शनशास्त्र इसी तरह से काम करता है और वह हमेशा गलत दिशा में ले जाता है। कोई भी सिद्धांत ठीक नहीं हैं और वे हो भी नहीं सकते। सभी सिद्धांत गलत हैं। दार्शनिकता ही गलत है, क्योंकि दर्शनशास्त्र का सबसे पहला कदम ही तब गलत उठ जाता है जब वह जीवन को एक समस्या की भांति सोचता है। एक बार जीवन को समस्या समझा तो फिर कोई हल संभव नहीं। धर्म के सही मायनों में, जीवन एक पहेली नहीं बल्कि एक रहस्य है।
श्वेत बादल सर्वाधिक रहस्यमय घटना है, अचानक प्रकट होता है और अनायास विलीन भी हो जाता है। क्या तुमने कभी सोचा कि बादलों के पास कोई नाम, रूप, पहचान या ठोस आकार क्यों नहीं होता? यहां तक कि एक क्षण के लिए भी बादल ठहरता नहीं, रुकता नहीं। वह चलता रहता है, सरिता की भांति सतत प्रवाहित होता रहता है। हाँ, तुम बादल में कोई रूप या आकृति देख सकते हो, लेकिन वह तुम्हारी अपनी ही कल्पना है, मन का आरोपण है। बादल के पास कोई रूप या आकार नहीं होता। वह अरूप होता है या कह सकते हैं कि निरंतर नई आकृतियां बनाता रहता है। वह निरंतर परिवर्तन की प्रक्रिया में है। यह जीवन भी ठीक इसी तरह है। यहां सभी रूप प्रक्षेपित हैं, आरोपित हैं, कल्पित हैं।
इसे थोड़ा समझो, अपने इस जीवन में तुम स्वयं को पुरुष कहते हो और ठीक पिछले जन्म में हो सकता है शायद तुम स्त्री रहे हो। इस जीवन में तुम गोरे रंग के हो और अगले जन्म में काले रंग के हो सकते हो। जन्मांतर की बात छोड़ो, अभी तुम बेहद बुद्धिमान हो और अगले ही क्षण शायद मूर्खतापूर्ण ढंग से व्यवहार करने लगो। यदि इस क्षण तुम शांत हो तो अगले क्षण क्रोधित और आक्रामक हो सकते हो। क्या तुमने कभी एक स्थिर आकृति पाई है? क्या तुम भी सदा बदलते हुए बादल नहीं हो? हाँ, तुम एक सतत परिवर्तन हो, एक श्वेत बादल हो। क्या तुम्हारा कोई स्थाई नाम अथवा पहचान है? क्या तुम दृढ़ता के साथ स्वयं को, किसी ठोस परिचय के रूप में परिभाषित कर सकते हो? जिस क्षण तुम कहते हो कि तुम ‘यह’ हो, ठीक उसी क्षण तुम इसके प्रति भी सचेत हो जाते हो कि तुम उसके विपरीत ‘वह’ भी हो।
तुम किसी से कहते हो, ‘मैं तुमसे प्रेम करता हूं’ और उसी क्षण वहां घृणा भी मौजूद होती है। तुम कहते हो कि तुम किसी के मित्र हो परंतु उसी क्षण तुम्हारे अंदर बैठा हुआ शत्रु मुस्कुराता है, क्योंकि वह बाहर आने के लिए केवल ठीक समय की प्रतीक्षा कर रहा है। किसी पल तुम कहते हो कि तुम बहुत प्रसन्न हो किंतु अगले ही पल प्रफुल्लता खो जाती है और तुम उदास हो जाते हो। गौर से निरीक्षण करो : तुम्हारे पास कोई ठोस पहचान-पत्र नहीं है। जैसे ही अपने इस आंतरिक सच को अनुभव करते हो, तुम भी एक अरूप और अनाम बादल बन जाते हो और तब शुरू होता है हवा में निश्चिंत बहना और आकाश में अकारण मंडराना।
शुभ्र मेघ की तरह ही एक संन्यासी का जीवन है। ऐसा व्यक्ति जिसने सब परित्याग कर दिया, वह सफेद बादल की तरह ही है। गृहस्थ का जीवन एक नियमित दिनचर्या से बंधा है। संसारी के जीवन का एक अलग ढांचा है, वहां एक मृत नियमावली है, वहां एक निश्चित नाम है, रूप है। वहां जिंदगी रेल की पटरियों के समान बंधे हुए सपाट रास्ते पर दौड़ती है। पटरी से अलग रेलगाड़ी चलने की कल्पना भी कठिन है। पटरी पर भागती गाड़ी के पास एक गंतव्य है, उसे किसी निश्चित स्थान पर पंहुचना है। परंतु एक संन्यासी आकाश में बहते हुए बादल के समान होता है। संन्यासी किसी पूर्व-निर्धारित, बंधी-बंधाई लोहे की पटरियों जैसी कृत्रिम राह पर यात्रा नहीं करता। उसके मार्ग की कोई पहचान नहीं होती है। संन्यासी का अपना कोई वजूद नहीं होता, वह तो ‘ना-कुछ’ हो जाता है, वह ऐसे रहता है जैसे मानो है ही नहीं।
यदि तुम एक ऐसा जीवन जी सको, जैसे तुम हो ही नहीं, तो तुम मेरे मार्ग पर हो। अपने ‘कुछ विशिष्ट’ होने की ओर तुम जितना ज्यादा ध्यान देते हो, उतना ही तुम्हारे चारों तरफ का परिवेश रुग्ण होने लगता है। तुम जितना ‘ना-कुछ’ होते जाते हो, उतने ही अधिक स्वस्थ एवं निर्भार होते जाते हो; उतनी ही अधिक दिव्यता और धन्यता से भरते जाते हो।
जब मैं कहता हूं कि जीवन एक समस्या नहीं है, बल्कि एक रहस्य है तो मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि तुम उसे हल नहीं कर सकते, लेकिन उसे आनंदपूर्वक जी सकते हो। किसी समस्या का हल सदैव बुद्धिमत्ता से किया जाता है, और यदि तुम उसे हल कर भी लेते हो तो तुम्हें कुछ विशेष प्राप्त नहीं होता। हां, शायद इससे तुम्हारी बुद्धि का थोड़ा विकास हो जाता है, परंतु इससे तुम्हें कोई परमानंद नहीं मिल जाता। रहस्य के साथ मिलकर तुम स्वयं एक रहस्य हो सकते हो, तुम उसमें समाहित हो सकते हो, तुम उसके साथ एकात्म हो सकते हो। इस मिलन में परमानंद जन्मता है, परम सुख घटता है और तब मनुष्य अपनी सर्वोच्च संभावना तक पंहुच सकता है : चरम हर्षोन्माद तक।
धर्म, जीवन को एक रहस्य की भांति लेता है। तुम रहस्य के संग भला क्या कर सकते हो? कुछ भी तो नहीं कर सकते। लेकिन तुम स्वयं के बारे में अवश्य कुछ कर सकते हो। तुम और अधिक रहस्यमयी हो सकते हो और तब समान गुण होने के कारण, एक रहस्य दूसरे रहस्य में समाहित हो जाता है। समान गुण वाली दो वस्तुएं एक-दूसरे में घुल-मिल सकती हैं। जीवन में छिपे रहस्यों को खोजो। तुम जहां भी देखो : श्वेत बादलों में, रात्रि में आकाश के सितारों में, फूलों में, बहती हुई नदी में, तुम जहां भी देखो... वहां रहस्य को खोजो। और जैसे ही तुम उस रहस्य को खोज लो, बस वहीं उस पर ध्यानमग्न हो जाओ।
ध्यान का अर्थ है कि उस रहस्य के सामने तुम स्वयं को लुप्त हो जाने दो, उस रहस्य के सामने तुम अपने को पूर्णतया मिट जाने दो, स्वयं को जड़ से नष्ट कर डालो, उस रहस्य के सामने तुम अपने को तितर-बितर कर डालो। तुम बिल्कुल ‘ना-कुछ’ हो जाओ ताकि वह रहस्य पूर्ण समग्रता से तुम्हें अपने आप में तल्लीन कर सके। इस तल्लीनता के घटते ही, अचानक एक नया द्वार खुलता है, एक नया बोध जन्मता है। अनायास ही विभाजन और अलगाव से भरा यह तुच्छ जगत विलुप्त हो जाता है और एक भिन्न, एक बिल्कुल ही नया आयाम, समग्र रूप से एकीकृत एक नया संसार तुम्हारे समक्ष प्रगट होता है। प्रत्येक वस्तु की सीमा विलुप्त हो जाती है; सबकुछ एक दूसरे में विलय हो जाता है; वहां कोई पृथकता नहीं होती बल्कि परम एकता होती है।
लेकिन, यह केवल तभी संभव हो सकता है यदि तुम अपने साथ प्रयोग करने के लिए तैयार हो। यदि तुम्हें केई समस्या हल करनी है तो तुम्हें समस्या के साथ प्रयोग करने होंगे। तुम्हें कोई संकेत अथवा कोई चाबी खोजनी होगी। तुम्हें उस समस्या पर प्रत्यक्ष कार्य करना होगा। तुम्हें एक प्रकार से प्रयोगशाला ही निर्मित करनी होगी। तुम्हें कुछ प्रयास करना होगा। परंतु यदि तुम्हें किसी रहस्य का अचानक सामना करना पड़े तो तुम्हें रहस्य के साथ नहीं बल्कि स्वयं के साथ कुछ काम करना पड़ेगा, कुछ प्रयोग करना पड़ेगा क्योंकि एक रहस्य के साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता है।
एक रहस्य के सामने हम शक्तिहीन हैं। इसी कारण हम जीवन के गूढ़ रहस्यों को हमेशा समस्याओं में बदलते रहते हैं, क्योंकि समस्याओं के सामने हम शक्तिवान हैं और समस्याओं के बाबत हमें लगता है कि हम उन्हें हल कर सकते हैं, उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं। किंतु जीवन के रहस्यों के सामने हम शक्तिहीन हो जाते हैं, वहां हम कुछ भी नहीं कर सकते। रहस्यों के साथ हम एक तरह की मृत्यु, मन की मृत्यु का साक्षात्कार करते हैं। रहस्यों के साथ हम किसी प्रकार की चालाकी नहीं कर सकते। मनुष्य की बुद्धि अधिकांशतः गणित व तर्क के ढंग से विकसित होती है तथा इसीलिए परमानंद के अनुभव की और काव्यानुभूति की संभावना प्रायः न्यूनतम हो जाती है। इसी कारण जीवन का रोमांच जैसे खो गया है और जीवन प्रतीकात्मक होने की बजाय तथ्यात्मक बनकर रह गया है।
अतः जब मैं कहता हूं कि मेरा मार्ग सफेद बादलों का मार्ग है, तो यह केवल एक प्रतीक है। यहां श्वेत मेघ का एक तथ्य की भांति प्रयोग नहीं किया गया है, उसका प्रयोग एक संकेत की तरह किया गया है, एक काव्यात्मक उपमा की भांति; जो रहस्यमय एवं चमत्कारिक अस्तित्व के संग गहन एकत्व की ओर इशारा करता है।

दूसरा प्रश्नः
ओशो! क्या आप हमें यह बताएंगे कि आपका श्वेत बादलों के साथ क्या संबंध है?

मैं स्वयं एक श्वेत बादल ही हूं। इसलिए कोई भी संबंध नहीं है और न हो सकता है। संबंध तभी संभव है जब तक दो हैं, द्वैत है, विभाजन है; इसलिए कोई संबंध वस्तुतः संबंध नहीं होता है। जहां कहीं भी संबंध होता है, वहां पृथकता भी होती है। मैं खुद श्वेत बादल हूं। तुम श्वेत बादल से संबंधित नहीं हो सकते। तुम उसके साथ एक अवश्य हो सकते हो और श्वेत बादल को अपने साथ एक होने की अनुमति दे सकते हो, लेकिन उसके साथ संबंध स्थापित करना असंभव है। संबंध में तुम पृथक बने रहते हो और कुछ न कुछ जोड़-तोड़ किए जाते हो।
मनुष्य जीवन की एक बहुत बड़ी वेदना है कि हम प्रेम में भी संबंध निर्मित कर लेते हैं। तब प्रेम विफल हो जाता है। प्रेम को एक संबंध नहीं बनाना चाहिए। तुम्हें एक प्रेमी और प्रेमिका दोनों ही होना चाहिए। तुम्हें दोनों किरदार इस तरह निभाने होंगे कि दोनों एक-दूसरे में विलीन हो जाएं, एक्य घट जाए, दूसरा बचे ही नहीं। केवल तभी प्रेम के नाम पर संघर्ष बंद हो सकता है, अन्यथा प्रेम सिर्फ संघर्ष और विवाद बन कर रह जाता है। यदि ‘तुम’ हो, तब तुम अपने अनुसार दूसरे को नियंत्रित करने का प्रयास करोगे, तुम दूसरे को अपने अधिकार में रखना चाहोगे, तुम उसके स्वामी बनना चाहोगे और इस तरह शोषण का बीजारोपण हो जाता है। तब दूसरा एक साध्य की भांति नहीं बल्कि एक साधन की भांति प्रयुक्त किया जाता है।
शुभ्र मेघों के संग तुम ऐसा नहीं कर सकते। तुम उन्हें पति और पत्नी की तरह नहीं बना सकते। तुम उन्हें किसी संबंध में नहीं बांध सकते। किसी बंधन में बंधने के लिए उन्हें राजी नहीं कर सकते। वे इसकी अनुमति नहीं देंगे और न ही तुम्हारी बात सुनेंगे। वे संबंधों का यह खेल पर्याप्त मात्रा में देख चुके हैं, शायद इसी कारण अब वे श्वेत बादल बन गए हैं। तुम उनके साथ बस एक हो सकते हो और तब उनके हृदय के द्वार खुले हुए होंगे।
लेकिन मनुष्य का मन संबंधों से परे कुछ सोच ही नहीं सकता, क्योंकि हम स्वयं के ‘ना-कुछ’ होने की कल्पना भी नहीं कर पाते। हालांकि किसी भी तरह से हम अपनी ‘मैं’ को छिपाते हैं परंतु फिर भी कहीं गहराई में हमारा अहंकार मौजूद होता है और अपनी हर संभव चाल चलता है।
सफेद बादल के साथ यह संभव नहीं है। तुम अपने अहंकार के साथ भी श्वेत बादलों की ओर देख सकते हो, उनके बारे में सोच सकते हो, लेकिन ऐसा करने से गूढ़ रहस्य अनावृत्त नहीं होंगे। रहस्यों के उद्घाटन के समस्त द्वार बंद हो जाएंगे। तुम अपने अहंकार के साथ एक अंधेरी रात में कहीं खो जाओगे।
यदि तुम्हारा अहंकार विलुप्त हो जाता है, तो तुम श्वेत बादल बन जाओगे।
झेन परंपरा में चित्रकारी की एक बहुत पुरानी कला है। एक झेन सदगुरु के पास एक शिष्य वह चित्रकला सीख रहा था और निश्चित ही इस कला के माध्यम से वह वास्तव में ध्यान ही सीख रहा था। वह शिष्य बांसों के प्रति बहुत आकर्षित था, लगभग पागलपन की हद तक। वह सदैव बांस का ही चित्र बनाकर उसमें रंग भरता रहता था। ऐसा कहा जाता है कि एक दिन झेन सदगुरु ने उस शिष्य से कहा : ‘जब तक तुम स्वयं एक बांस नहीं हो जाते, तब तक कुछ भी नहीं होगा।’
दस वर्षों तक वह शिष्य बांसों के ही चित्र बनाता रहा। वह इतना अधिक कुशल हो गया था कि वह आंखें बंद करके, अंधेरी रात में भी बांस का अद्भुत चित्र बना सकता था। उसके द्वारा बनाए गए बांस के चित्र आदर्श थे और जीवंत प्रतीत होते थे।
लेकिन उसके सदगुरु उन चित्रों को स्वीकार नहीं करते थे। वे सदैव उससे यही कहते : ‘जब तक तुम एक बांस ही न बन जाओ, तुम कैसे बांस का चित्र बना सकते हो? तुम पृथक बने रहते हो, तुम एक देखने वाले, दर्शक बने रहते हो। ऐसा इसलिए है कि तुमने अभी तक बांस को बाहर से जाना है, लेकिन वह तो केवल उसकी परिधि है, वह बांस की आत्मा नहीं है। जब तक तुम उसके साथ एक नहीं हो जाते, जब तक तुम खुद एक बांस ही नहीं बन जाते, तब तक तुम उसे अंदर से कैसे जान सकते हो’
शिष्य ने दस वर्षों तक संघर्ष किया, लेकिन सदगुरु ने उसके चित्रों को मान्यता नहीं दी। तब वह शिष्य बांस के एक घने जंगल में कहीं लुप्त हो गया। तीन वर्षों तक उसके बारे में कोई भी खबर नहीं मिली परंतु धीरे-धीरे यह समाचार आने शुरू हो गए कि वह एक बांस ही बन गया है। अब वह बांस के चित्र नहीं बनाता अपितु बांस की तरह जीता है, वह बांसों के झुरमुट में उन्हीं की तरह खड़ा रहता है। जब हवा चलती है और बांस डोलते हैं, नाचते हैं, तब वह भी उनके साथ झूमता है।
तब उसके सदगुरु उसे खोजने निकले और उन्होंने देखा कि उनका शिष्य वाकई एक बांस ही बन गया था। सदगुरु ने उससे कहा : ‘अब अपने और बांस के बारे में सब कुछ भूल जाओ।’
शिष्य ने उसी क्षण कहा : ‘लेकिन आपने ही मुझे बांस बन जाने के लिए कहा था और वह मैं बन गया हूं।’
सदगुरु ने कहा : ‘अब इसे भी भूल जाओ, क्योंकि अब केवल यही अवरोध है। कहीं भीतर, गहराई में तुम अभी भी पृथक हो और स्मरण कर रहे हो कि तुम एक बांस बन गए हो, इसलिए तुम अभी भी एक आदर्श बांस नहीं हो, क्योंकि एक बांस तो कुछ भी स्मरण नहीं रख सकता, इसलिए इसे भी भूल जाओ।’
अगले दस वर्षों तक बांसों की बिल्कुल भी चर्चा नहीं की गई। फिर एक दिन सदगुरु ने शिष्य को बुलाकर उससे कहा : ‘अब तुम चित्र बना सकते हो। पहले बांस बनो, फिर बांसों के बारे में भूल जाओ, ऐसा करने पर तुम आदर्श बांस बनोगे और तब तुम्हारा बनाया हुआ चित्र, केवल एक चित्र नहीं होगा बल्कि तुम्हारे अंतर्विकास का द्योतक होगा।

मैं किसी भी प्रकार से श्वेत बादलों से संबंधित नहीं हूं। मैं एक श्वेत बादल हूं और चाहता हूं कि तुम भी श्वेत बादल बनो, लेकिन संबंध स्थापित न करो। बहुत हो चुका संबंधों के जाल में फंसना, इसके कारण तुमने भरपूर यातनाएं भी सहन की हैं। अनेकानेक जन्मों में तुम कहीं न कहीं, किसी न किसी से संबंधित रहे हो। तुमने जरूरत से ज्यादा कष्ट उठाए हैं। तुमने अपनी क्षमता से भी ज्यादा तकलीफ सहन की है। इस प्रकार संबंधों की गलत अवधारणा पर समस्त दुख केंद्रित हो गए हैं। असम्यक धारणा यह है कि तुम अपने को बचाए रखो और तब संबंध बनाओ। तब वहां संबंध तो नहीं रहता परंतु तनाव, मतभेद, संघर्ष, हिंसा और आक्रामकता ही बचती है, पूरा नरक निर्मित हो जाता है।
सार्त्र ने कहा है : ‘दूसरा व्यक्ति नर्क है।’ लेकिन वास्तव में दूसरा व्यक्ति नर्क नहीं है, क्योंकि दूसरा, दूसरा इसलिए ही लगता है, क्योंकि तुम अपने अहंकार को बचाने में लगे हो। यदि तुम अपने ‘मैं-पन’ को विदा कर देते हो तो उसी क्षण ‘दूसरा-पन’ भी विदा हो जाता है। मनुष्य और वृक्ष के बीच, मनुष्य और बादल के बीच, पुरुष और स्त्री के बीच अथवा आदमी और चट्टान के बीच, जब कभी भी ऐसा होता है कि तुम्हारा अहंकार नहीं है तो नर्क विलुप्त हो जाता है। अनायास ही तुम रूपांतरित हो जाते और स्वर्ग में प्रविष्ट हो जाते हो।
पुरानी बाइबिल की एक कहानी बहुत सुंदर है कि आदम और ईव, ईडन-उद्यान से बाहर निकाल दिए गए, क्योंकि उन्होंने ज्ञान के वृक्ष का वह फल खा लिया था जिसके लिए उन्हें मना किया गया था। यह अब तक की कल्पित नीति कथाओं में सबसे अधिक आश्चर्यजनक कथा है। ज्ञान के वृक्ष का फल खाना क्यों मना था? क्योंकि जिस क्षण ज्ञान अंदर प्रविष्ट होता है, तत्क्षण अहंकार जन्म जाता है। जिस क्षण तुम जानते हो कि तुम कुछ हो, तुम्हारा पतन हो जाता है। यही एक मौलिक अपराध है।
वास्तव में आदम और ईव को किसी व्यक्ति ने स्वर्ग से नहीं निकाला था। जिस क्षण वे सचेत हुए कि वे ‘कुछ’ हैं, और बस ईडन-उद्यान विलुप्त हो गया। ऐसी आंखों के लिए, जो अहंकार से भरी हुई हों, स्वर्ग का बगीचा बच ही नहीं सकता। ऐसा कदापि नहीं था कि वे बाग से निकाले गए, वह बाग तो सदैव मौजूद है, अभी और यहीं मौजूद है, ठीक तुम्हारी ही बगल में है। तुम जहां कहीं भी जाते हो, वह हमेशा तुम्हारा अनुसरण करता है, लेकिन तुम उसे देख नहीं पाते हो। यदि अहंकार नहीं है, तो तुम फिर से उस उद्यान में प्रविष्ट हो जाते हो, वह उद्यान पुनः उजागर हो जाता है। वास्तव में तुम इस उद्यान से कभी बाहर नहीं किए गए हो।
कभी यह अभ्यास करो कि एक वृक्ष के नीचे बैठकर स्वयं को पूरी तरह भूल जाओ। केवल वृक्ष को रहने दो। ऐसा ही बोधि-वृक्ष के नीचे बैठे हुए गौतम बुद्ध को घटित हुआ था। बुद्ध तो वहां थे ही नहीं, और उसी क्षण में सबकुछ घट गया। केवल और केवल बोधि-वृक्ष ही वहां था।
तुम शायद इसके बारे में सजग नहीं हो कि बुद्ध के लगभग पांच सौ वर्ष बाद तक भी उनकी न तो मूर्ति बनाई गई और न ही उनका चित्र बनाया गया। निरंतर पांच सौ वर्षों तक, जब कभी बुद्ध का मंदिर निर्मित किया गया, वहां केवल बोधि-वृक्ष का ही चित्र होता था। यह अत्यंत सुंदर बात है क्योंकि जिस क्षण में गौतम सिद्धार्थ, भगवान बुद्ध बने, वह तो वहां थे ही नहीं। केवल वृक्ष ही था। उस एक अमूल्य क्षण में वे विलुप्त हो गए थे और वहां वृक्ष मात्र रह गया था। ऐसे क्षण खोजो, जब तुम नहीं बचते हो और असल में वे ही क्षण होंगे, जब वास्तव में पहली बार ‘तुम’ होओगे।
अतः मैं एक श्वेत बादल हूं और मेरा पूरा प्रयास है कि तुम्हें भी उन आकाश में बहते हुए श्वेत बादलों की तरह बना सकूं। ऐसे सफेद बादल जिन्हें न कहीं जाना है, जो न कहीं से आ रहे हैं, जो बस हैं। जो समग्रता से, पूर्णता से बस इस क्षण में हैं। मैं तुम्हें कोई आदर्श नहीं सिखाता हूं, मैं तुम्हें कोई कर्त्तव्य का पाठ नहीं पढ़ाता। मैं तुमसे यह भी नहीं कहता कि ऐसे बनो या वैसे बनो। मेरी पूरी शिक्षा सरलतम रूप में यही है कि तुम जैसे भी हो, उसे पूरी समग्रता से स्वीकार करो। ऐसी पूर्ण स्वीकृति कि पाने के लिए कुछ भी शेष न बचे और तब तुम एक श्वेत बादल बन जाओगे।

तीसरा प्रश्नः
ओशो! क्या यह सच है कि समस्त मानसिक बाधाएं पार करके पूर्णरूपेण वर्तमान में उपस्थित बने रहने के लिए, अर्थात् एक श्वेत बादल बनने के लिए; हमें अपने सभी सपनों व कल्पनाओं से गुज़रकर जीना सीखना होगा? यहां पुणे में ‘हरे कृष्णा-हरे रामा’ कीर्तन करते हुए कैसे यह घटना घट सकती है, जैसी कि प्रकृति के हृदय में, ईडन-उद्यान में थी?

 प्रश्न यह नहीं है कि एक व्यक्ति को अपने सभी सपनों और कल्पनाओं से गुज़रते हुए जीना पड़ेगा अथवा नहीं। तुम पहले से ही उन में जी रहे हो। तुम पहले से ही उनमें हो और सवाल चुनाव का नहीं है, तुम चुनाव नहीं कर सकते। क्या तुम चुनाव कर सकते हो? क्या तुम अपने सपनों को छोड़ सकते हो? क्या तुम अपनी कल्पनाओं को छोड़ सकते हो? यदि तुम अपने सपनों को छोड़ने का प्रयास करते हो तो तुम्हें दूसरे सपनों के साथ उनकी भरपाई करनी होगी। यदि तुम अपनी कल्पनाओं को हटाने का प्रयास करते हो तो वे दूसरी तरह की कल्पनाओं में बदल जाएंगी, परंतु फिर भी कल्पनाएं मौजूद रहेंगी।
इसलिए उपाय क्या है? उनको स्वीकार करो। उनके विरुद्ध क्यों चलना चाहते हो? एक वृक्ष के पास लाल फूल हैं, दूसरे वृक्ष के पास पीले फूल हैं, ऐसा होना बिल्कुल स्वभाविक है और यह भिन्नता पूरी तरह ठीक भी है। तुम्हारे पास कुछ विशिष्ट सपने हैं : पीले सपने। किसी अन्य व्यक्ति के पास कुछ दूसरे सपने हैं : नीले या लाल सपने।
ऐसा होना एकदम सहज है। सपनों के साथ क्यों लड़ा जाए? उन्हें बदलने की कोशिश क्यों की जाए? जब तुम उन्हें बदलने का प्रयत्न करते हो तो इसका अर्थ है कि तुम्हें स्वयं भी उनमें अत्याधिक विश्वास है। तुम यह नहीं सोचते हो कि वे मात्र स्वप्न हैं, तुम सोचते हो कि वे वास्तविक हैं और उनका बदल जाना सार्थक होगा। यदि स्वप्न मात्र स्वप्न ही हैं, तो क्यों न उन्हें स्वीकार कर लिया जाए?
जिस क्षण तुम उन्हें स्वीकार करते हो, वे विलुप्त हो जाते हैं। यही गहरा राज है। जिस क्षण तुम उन्हें पूर्ण अंगीकार करते हो, उसी क्षण वे पूर्णतः गायब हो जाते हैं, क्योंकि विरोध के कारण ही सपने देखने वाले मन का अस्तित्व बना रहता है। स्वप्नदर्शी मन का मूल कारण वस्तुतः अस्वीकृति ही है।
तुम जीवन में अनेक वस्तुओं को अस्वीकार करते रहे हो, इसी कारण तुम्हारे सपनों में उनका विस्फोट होता है। तुम सड़क पर घूम रहे हो और एक सुंदर स्त्री अथवा पुरुष को देखते हो, तुम्हारे भीतर एक इच्छा उत्पन्न होती है परंतु अचानक तुम उसे दबा देते हो। उस इच्छा का दमन कर देते हो कि ऐसा सोचना गलत है। तुम उसे नामंजूर कर देते हो क्योंकि परंपरा, संस्कृति, समाज और नैतिकता के अनुसार ऐसा करना ठीक नहीं है।
तुम एक सुंदर फूल की ओर आसानी से देख सकते हो, इसमें कुछ भी बुरा नहीं है, लेकिन जब तुम एक सुंदर चेहरे को देखते हो तो तुरंत ही कुछ गलत हो जाता है, तुम अपनी उस इच्छा को दबा देते हो। अब यही चेहरा एक स्वप्न बनेगा। अस्वीकृत कामनाएं ही स्वप्न बन जाती हैं। अब यह चेहरा तुम्हारे विचारों में मंडराता रहेगा, यह चेहरा तुम्हें बारंबार तंग करेगा, अब यह चेहरा रात में तुम्हारे आस-पास घूमेगा, अब यह चेहरा लगातार तुम्हारा पीछा करेगा। जिस कामना को तुमने अस्वीकार कर दिया था, वह एक स्वप्न बन जाएगी। जिन कामनाओं का तुमने दमन किया है वे कल्पनाओं में तबदील हो जाएंगी। इसलिए यह बात समझो कि स्वप्न कैसे निर्मित होता है? विरोध से, अस्वीकार से पैदा होता है।
तुम जितनी अधिक उपेक्षा करते हो, उतने ही अधिक स्वप्न निर्मित होते हैं। वे लोग जो पर्वतों पर भाग जाते हैं और जीवन को अस्वीकार करते हैं, वे बहुत अधिक स्वप्नों से भरे होते हैं। उनके सपने इतने अधिक वास्तविक बन जाते हैं कि उन्हें वास्तविकता का विभ्रम होने लगता है और वे स्वप्न तथा सचाई में अंतर नहीं कर पाते हैं। इसलिए उपेक्षा मत करो, अस्वीकार मत करो, अन्यथा तुम बहुत अधिक स्वप्नों को सृजित कर लोगे। स्वीकार करो, जो कुछ भी तुम्हारे भीतर हो रहा है, उसे स्वीकार करो, उसे अपने अस्तित्व का एक हिस्सा जानो। उसकी निंदा मत करो। जैसे-जैसे तुम अधिकाधिक स्वीकार भाव से भर जाते हो, वैसे-वैसे स्वप्न विलुप्त हो जाएंगे। एक व्यक्ति जो अपने जीवन को, उसकी समस्त घटनाओं को समग्रता से स्वीकार लेता है वह स्वप्नहीन नींद लेता है, क्योंकि आधारभूत कारण ही समाप्त हो गया। यह एक बात हुई।
दूसरी बात यह है कि अस्तित्व अखण्ड है। जब मैं कहता हूं- ‘अखण्ड अस्तित्व’ तो केवल वृक्ष ही नहीं, केवल बादल ही नहीं, बल्कि पूरी समष्टि की बात कर रहा हूं। संसार में जो कुछ भी घट रहा है वह प्राकृतिक है, कोई भी घटना अप्राकृतिक नहीं है और हो भी नहीं सकती। अन्यथा वह कभी होती ही नहीं। प्रत्येक वस्तु प्राकृतिक है, नैसर्गिक है। इसलिए कोई विभाजन मत निर्मित करो कि यह स्वभाविक है और वह स्वभाविक नहीं है। यहां जो कुछ भी विद्यमान है सब स्वभाविक है। परंतु मनुष्य का मन विशिष्टता और विभेद पर निर्भर रहता है। इन विभाजनों को अपनी स्वीकृति, अपनी अनुमति मत दो। जो भी है, जैसा भी है; उसे अंगीकार करो और बिना किसी विश्लेषण के अंगीकार करो।
चाहे तुम बाजार में हो या पहाड़ी वादियों में, तुम उसी अखण्ड प्रकृति में हो। कहीं यह प्रकृति पहाड़ और वृक्ष बन गई है, कहीं यह प्रकृति बाजार और दुकानें बन गई है। एक बार यदि तुम स्वीकार करने का रहस्य जान लेते हो तो बाजार भी सुंदर बन जाता है। बाजार का भी अपना एक अलग सौंदर्य है : वहां जीवन है, सक्रियता है, एक आकर्षण है, चारों तरफ एक अल्हड़ सा उन्माद है। बाजार की अपनी एक सुंदरता है और ध्यान रखना कि यदि यह बाजार न होता तो शायद यह पर्वत भी इतने सुंदर नहीं लगते। पर्वत अत्याधिक सुंदर और अत्यंत शांत हैं क्योंकि उनकी पृष्ठभूमि में कहीं बाजार भी विद्यमान है। बाजार का अत्याधिक शोर ही पहाड़ों को प्रगाढ़ शांति देता है। इसलिए प्रत्येक स्थान पर, चाहे तुम बाजार में हो अथवा ‘हरे कृष्णा-हरे राम’ का कीर्तन कर रहे हो या एक वृक्ष के नीचे मौन बैठे हो- इन सभी को एक ही फैलाव के रूप में स्वीकार करो, इन्हें बांटो मत। जब तुम नृत्य करते हुए ‘हरे कृष्णा-हरे रामा’ गा रहे हो तो उसका पूर्णता से आनंद लो। आनंदित होना ही एक ऐसा मात्र ढंग है जिससे वर्तमान के क्षण में तुम्हारी भीतरी खिलावट होती है। अतः ‘हरे कृष्णा-हरे राम’ का कीर्तन तुम्हारे भीतर खिलावट ला सकता है और अनेक लोगों के भीतर इससे खिलावट आई भी है, इसका प्रमाण मौजूद है। जब ‘महाप्रभु चैतन्य’ बंगाल के गांवों में नाचते हुए ‘हरे कृष्णा-हरे रामा’ का कीर्तन करते थे तो वह चेतना की अनूठी खिलावट ही थी।
अब तक घटने वाली समस्त घटनाओं में वह सर्वाधिक सुंदर घटना थी। केवल यही आकर्षक और सुंदर नहीं हो सकता कि बुद्ध बोधिवृक्ष के नीचे बैठे हुए हैं, बल्कि महाप्रभु चैतन्य का ‘हरे कृष्णा-हरे रामा’ का कीर्तन करते हुए, सड़कों पर नृत्य करना भी उतना ही अधिक सुंदर और आकर्षक है, दोनों समान हैं, अपनी-अपनी उच्चतम खिलावट में हैं।
तुम वृक्ष के नीचे बैठ सकते हो और स्वयं को पूर्णतः भूल सकते हो कि जैसे तुम वहां हो ही नहीं। तुम सड़क पर नाचते हुए, कीर्तन करते हुए, अपने नाच और गाने में इतने अधिक रसमग्न हो सकते हो कि जैसे तुम मिट ही गए। तो राज का सूत्र यह है कि जो भी हो रहा है, जहां भी हो रहा है, उसमें पूर्ण रूप से, समग्रता से तल्लीन हो जाना और ऐसा कहीं भी घटित हो सकता है। ऐसा भिन्न-भिन्न लोगों के साथ विभिन्न मार्गों के द्वारा हुआ है। हम नृत्य करते हुए भगवान बुद्ध की कल्पना भी नहीं कर सकते, वे उस प्रवृत्ति के नहीं थे, नाचना उनका ढंग नहीं था। परंतु तुम्हारा ढंग, तुम्हारी रूचि, तुम्हारी खिलावट नृत्य में हो सकती है, तो स्वयं को बोधि-वृक्ष के नीचे बैठने के लिए विवश मत करो, इससे तुम कठिनाई में पड़ जाओगे। बलपूर्वक स्वयं को शांत बैठने के लिए बाध्य करना, एक हिंसक प्रयास होगा। तब तुम्हारा चेहरा कभी भी बुद्ध के समान शांत नहीं होगा। वह आत्महिंसा से, यातना से पीड़ित होगा। संभवतः तुम चैतन्य महाप्रभु के समान या मीरा की भांति नाच सकते हो! परंतु अपना मार्ग खोजो, अपना ढंग खुद खोजो। वह जीवन-शैली ढूंढ़ो जिससे तुम्हारे भीतर का बादल गतिमान होता हो। खोजो कि वह बादल तुम्हें उड़ा कर कहां ले जाता है, और पूरी तरह उसके साथ जाओ, अपने को बांधो मत, खुला छोड़ दो। उस बादल को बहने की पूरी स्वतंत्रता दो, क्योंकि वह जहां कहीं भी ले जाए, अंततः दिव्यता तक ही पहुंच जाता है। इसलिए उससे संघर्ष मत करो, केवल बहो। नदी को धक्का मत दो, केवल उसके साथ बहो।
कीर्तन औ नर्तन बहुत सुंदर कला है, लेकिन तुम्हें उसमें समग्रता से डूबना आना चाहिए। बस, यही मुख्य बिंदु है। किसी भी वस्तु को अस्वीकार मत करो, उसकी उपेक्षा मत करो। अस्वीकृति एक तरह की अधार्मिकता है। समग्रता से स्वीकार करो, पूर्ण स्वीकार ही सच्ची प्रार्थना है।
आज इतना ही।

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