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सोमवार, 26 नवंबर 2018

सहज समाधि भली-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

साधक अर्थात सोया हुआ सिद्ध

दिनांक २४ जुलाई, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

एक शिष्य ने केम्बो से पूछाः ‘क्या सभी बुद्ध-पुरुष निर्वाण के एक ही मार्ग पर अग्रसर होते हैं और सभी युगों में?’
केम्बो ने अपनी छड़ी उठा कर हवा में शून्य की आकृति बनाते हुए कहाः ‘यह रहा वह मार्ग। यहीं से वह शुरू होता है।’
वह शिष्य फिर उमोन के पास गया और उनसे भी वही सवाल पूछा। दोपहरी थी और उमोन के हाथ में पंखा था। उसने सभी दिशाओं में पंखा हिला कर कहाः ‘वह मार्ग कहां नहीं है? उसका आरंभ कहां नहीं है?’
और फिर जब किसी ने ममोन से इसी घटना का राज पूछा, तब उसने कहाः ‘इसके पहले कि पहला कदम उठे, मंजिल आ जाती है। और इसके पूर्व कि जीभ हिले, वक्तव्य पूरा हो जाता है।’
ओशो, इस झेन परिचर्चा का अभिप्राय क्या है?


साधक और सिद्ध में रत्ती भर भी भेद नहीं है। भेद दिखाई पड़ रहा है--साधक की भ्रांति के कारण। साधक भी सिद्ध है; अभी उसे इसका पता नहीं चला है। सिद्ध भी साधक था, जब तक पता नहीं था। जैसे ही पता चला, सिद्ध हो गया। तो भेद आत्मा में नहीं है, सिर्फ प्रतीति में है। साधक भी सिद्ध है; सिर्फ उसे होश नहीं है; कौन है--इसका पता नहीं है।


साधक अपने ही हाथ भिखारी बना है। सम्राट होना उसकी नियति है। सम्राट वह अभी भी है। इस क्षण भी साम्राज्य खोया नहीं, क्योंकि यह साम्राज्य ऐसा नहीं है, जो खोया जा सके। स्वभावतः साम्राज्य खोया नहीं जा सकता।
साधक और सिद्ध में रत्ती भर भी फासला नहीं है; हो नहीं सकता। तुम सिद्ध हो ही। यह दूसरी बात है कि कितनी देर तुम इस बात का पता लगाने में लगाओगे। कितना समय गंवाओगे, यह बात दूसरी है।
तुमसे और सिद्ध तक कोई यात्रा नहीं होनी है। तुमसे और सिद्ध तक सिर्फ स्मरण का फासला है। जैसे एक आदमी सोया है और एक आदमी जाग कर उसके पास बैठा है। दोनों चैतन्य हैं, पर पहला आदमी गहरी नींद में है। और उसे कुछ भी पता नहीं है और वह सपनों में खोया है। और दूसरा जाग कर बैठा है। उसे सब पता है। उसके सपने टूट गए हैं। पर क्या दोनों में वस्तुतः भेद है? जरा सा हिलाना, जरा सा डुलाना या घड़ी का अलार्म भी सोए को जगा देगा। जैसे ही जागेगा, वैसे ही उसमें और जागने वाले में जरा भी फर्क न रह जाएगा। फर्क पहले भी न था। बस, ढंका पड़ा था--तंद्रा में। और दूसरे की तंद्रा टूट गई थी। दूसरे व्यक्ति को स्मरण आ गया था और पहले को अभी स्मरण नहीं आया था। पर दोनों की अंतरात्मा में भेद नहीं है।
पहले तो यह बात ठीक से समझ लें, अन्यथा अक्सर ऐसा होता है कि साधक यह सोच कर कि मैं तो साधक हूं, सिद्ध के वचनों से वंचित रह जाता है। सोचता हैः ‘यह तो बहुत ऊपर की बात है--अपनी समझ के पार। यह तो आकाश की बात है; हम तो पृथ्वी पर खड़े हैं। यह हमारे लिए नहीं है।’ लेकिन तुम चाहे कितने ही पृथ्वी पर खड़े रहो, तुम्हारा सिर सदा आकाश को छू रहा है। एक क्षण को भी इससे बचने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि पृथ्वी भी आकाश में है। और तुम जहां भी हो, आकाश से घिरे हो।
बहुत बार यह सोच कर कि ये वचन हमसे बहुत ऊपर के हैं, हम अकारण ही अपने को नीचे रखने का कारण बन जाते हैं। कोई वचन तुमसे ऊपर नहीं है, क्योंकि कोई अनुभव तुमसे पार नहीं है। और ब्रह्म अगर कहीं सातवें आकाश में होता, तो शायद फासला भी होता। लेकिन ब्रह्म तुम्हारे भीतर है। सीढ़ी लगा कर उस तक पहुंचना नहीं है, सिर्फ आंख खोल कर उस तक पहुंचना है।
मैंने सुना हैः एक शराबी एक रास्ते से गुजर रहा है; गहरे नशे में है, पैर डगमगाते हैं। कुछ पता नहीं कि कहां जा रहा है और एक स्त्री--एक नीतिवादी स्त्री जो शरीर से अति कुरूप और भयंकर दीखती थी, उसने शराबी को रोका और कहा कि ‘क्या कर रहे हो यह? यह आंतरिक कुरूपता छोड़ो; यह बेहोशी हटाओ। तुम निंदा के योग्य हो, पापी हो।’ शराबी ने आवाज सुन कर आंख खोली। देखा इस कुरूप स्त्री को, सामने खड़े। उसने कहाः ‘मैं तो सुबह होश में आ जाऊंगा, लेकिन तेरी कुरूपता का क्या होगा? यह सुबह भी ऐसी ही रहेगी।’
सिद्ध और साधक के बीच जो फर्क है, वह शराबी और उसके होश में आने के बीच का फर्क है। सुबह जागकर तुम भी पाओगे कि तुम सिद्ध हो। वह फासला ऐसा नहीं है कि कुरूपता जैसा हो कि सुबह भी वैसी ही रहेगी--चाहे तुम जागो, चाहे तुम सोओ।
स्मरण का हलका सा झोंका तुम्हारे सारे संसार को बहा ले जाएगा। इस संसार की जगह तुम पाओगे--एक स्वच्छ आकाश। इसलिए पहली बात तो यह ख्याल में ले लें कि सिद्ध और साधक के बीच कोई अंतर नहीं है। भक्त और भगवान में रत्ती भर का फासला नहीं है। और अगर फासला है, तो वह भक्त के ख्याल में है, भगवान के ख्याल में नहीं है। वह भक्त की ही भ्रांति है।
दूसरी बातः चाहे सिद्ध कैसे ही मार्गों से पहुंचे हों और चाहे उन मार्गों के नाम अनेक हों, लेकिन मार्ग एक ही है। मार्ग दो हो नहीं सकते। इसे समझना पड़े; थोड़ा कठिन है, थोड़ा सूक्ष्म है। अगर हम प्रतिमाएं बनाएं, तो लाख तरह की प्रतिमाएं बन सकती हैं। लेकिन हम प्रतिमाएं मिटाएं, तो मिटाना तो एक ही तरह का होगा। तुम मकान बनाओ तो आर्किटेक्ट्स हजार रास्ते बताएंगे मकान बनाने के, लेकिन अगर मकान गिराना हो तो किसी आर्किटेक्ट से कुछ पूछने की जरूरत नहीं है। और मकान किसी भी ढंग का बना हो, गिराने का ढंग तो एक ही होगा। गिराने में क्या फर्क होगा?
सिद्धत्व को पाना, बुद्धत्व को पाना, संसार को मिटाने की प्रक्रिया है--कुछ बनाने की नहीं। बनाने में भेद होते हैं; मिटाने में क्या भेद होता है? आकार भिन्न होते हैं। निराकार कैसे भिन्न होगा! तुम्हारे खीसे में रुपये हों, मेरे खीसे में रुपये हों, तो फर्क हो सकता है। तुम्हारे पास करोड़ हो सकते हैं। मेरे पास अंगुलियों पर गिने जा सकें, इतने रुपये हो सकते हैं; फर्क हो सकता है। लेकिन तुम्हारा भी खीसा खाली हो, मेरा भी खीसा खाली हो, तो खालीपन में क्या फर्क होंगे? भरेपन में फर्क हो सकते हैं। मात्रा का भेद हो सकता है, लेकिन खाली की तो कोई मात्रा नहीं होती। खाली तो सिर्फ खाली होता है।
वस्तुओं में अंतर होगा, शून्यों में कैसे अंतर होगा? सभी शून्य समान होते हैं--शायद तुमने सोचा भी न होगा। तुम छोटा शून्य बनाओ कि बहुत बड़ा शून्य बनाओ। क्या दोनों में कोई भेद होगा? शून्य का मूल्य तो शून्य है। एक में भेद है, दो में भेद है, तीन में भेद है। संख्याओं में अंतर है; शून्य अभेद है।
सिद्धत्व को पाना मिटने की प्रक्रिया है, खोने की प्रक्रिया है। गंगा अलग है, यमुना अलग है। नर्मदा अलग है। मिल जाएं तो भी दोनों का पानी अलग दिखाई पड़ता है। कोई नदी पूरब की तरफ बह रही है, कोई पश्चिम की तरफ बह रही है। सबका ढंग अलग है, सबके किनारे--यात्रा-पथ अलग हैं। लेकिन सागर में--जहां नदियां मिल जाती हैं, रूप मिट जाते हैं, वहां कौन सा जल गंगाजल है? वहां सभी खारा हो जाता है। वहां गंगा, यमुना, और नर्मदा के भेद नहीं रह जाते।
बुद्धत्व सागर में खोने का नाम है। वहां व्यक्तित्व शून्य होता है। इसलिए मार्ग कितने ही अलग मालूम होते हों, अलग हो नहीं सकते। मिटने का मार्ग तो एक ही होगा। तुम नाम अलग-अलग रख सकते हो, वह तुम्हारी मरजी है। बस, नाम का ही भेद होगा, यथार्थ भिन्न नहीं हो सकता। लेकिन उस यथार्थ को कहने के ढंग भिन्न हो सकते हैं। और दो मूल ढंग हैं--कहने के। वह ख्याल में ले लो, तो यह छोटा सा संवाद बड़ा अदभुत हो जाएगा।
दो ढंग हैं उसे कहने के। एक ढंग तो है--पूर्ण निषेध का और एक ढंग है--पूर्ण विधेय का। एक है--निगेटिविटी का। और एक है--पाजिटिविटी का। या तो तुम कह सकते हो कि वह शून्य है। या तुम कह सकते हो कि वह पूर्ण है। मगर दोनों का मतलब एक है। क्योंकि पूर्ण भी शून्य है।
पूर्ण कोई संख्या नहीं है। पूर्ण की कोई मात्रा नहीं है। शून्य भी कोई संख्या नहीं है; उसकी भी कोई मात्रा नहीं है। शून्य वहां है, जहां संख्याएं शून्य हैं। और पूर्ण वहां है, जहां संख्याएं समाप्त हो गई हैं। शून्य संख्याओं के पहले का नाम है और पूर्ण संख्याओं के बाद का। लेकिन एक मामले में बात साफ है कि संख्या वहां दोनों में नहीं है। दोनों संख्या--शून्य हैं, संख्या-रहित हैं या कहें असंख्य हैं। और यह भी हमारे ख्याल में है कि एक संख्या के पहले है और दूसरी संख्या के बाद। लेकिन संख्या के पहले जो है, वही तो संख्या के बाद बचेगा। जब संख्याएं शून्य ही होती हैं, तब शून्य है और जब संख्याएं समाप्त हो जाती हैं, तब जो बचता है, उसे हम पूर्ण कहते हैं। लेकिन बचेगा तो वही जो संख्याओं के पहले था। संख्याएं डाल दी थीं। संख्याएं निकाल लीं। बचेगा क्या? तुम्हारा खीसा खाली था--शून्य था। हमने रुपये डाल दिए, फिर हमने रुपये निकाल लिए। बचेगा क्या? बचेगा वही, जो रुपये डालने के पहले था।
तो पूर्ण हमारे कहने का ढंग है, अन्यथा शून्य ही है। न शून्य की कोई सीमा है, न पूर्ण की कोई सीमा है। दोनों के बीच में सब सीमाएं हैं और ये दोनों असीम हैं। लेकिन दो असीम हो नहीं सकते। यह थोड़ा गणित का गहरा सवाल है।
असीम तो एक ही हो सकता है। क्योंकि अगर दो असीम हों, तो वे एक दूसरे की सीमा बनाएंगे। दो असीम नहीं हो सकते हैं, सीमित अनंत हो सकते हैं। इसलिए ज्ञानी कहते हैं कि दो ईश्वर नहीं हो सकते। क्योंकि अगर दो होंगे, तो वे एक दूसरे की सीमा बनाएंगे। ‘दूसरे’ से सीमा निर्मित हो जाएगी। दो असीम न हो पाएंगे। असीम तो एक ही होगा। इनफिनिट एक ही होगा। संख्या के पहले हम उसे शून्य कहते हैं; संख्या के बाद पूर्ण कहते हैं, लेकिन वह एक है। पर प्रगट दो ढंग से किया जा सकता है। और दो ही तरह के चित्त हैं।
एक चित्त है, जो शून्य में आनंद लेता है और एक चित्त है, जो पूर्ण में आनंद लेता है। इसलिए दुनिया के सारे धर्म अभिव्यक्तियों के भेद हैं।
बुद्ध शून्य में रस लेते हैं--संख्या के पहले। वे कहते हैं--संख्या की उलझन में ही क्यों जाना? संख्या के पहले जो है, उसी में उनका रस है। तो वे शून्य का प्रयोग करते हैं। शंकर पूर्ण का प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं--संख्या के पार। लेकिन जो लोग जानते हैं, वे जानते हैं कि शंकर और बुद्ध एक ही बात कह रहे हैं। इसलिए रामानुज ने शंकर की आलोचना में एक शब्द उपयोग किया है, वह हैः ‘प्रच्छन्न बौद्ध’--छिपा हुआ बौद्ध। शंकर से बड़ा आलोचक खोजना मुश्किल है--बुद्ध का। शंकर ने बड़ी गहरी आलोचना की है। क्योंकि शंकर पूर्ण के आग्रही हैं। शून्य की भाषा उन्हें जंचती नहीं। वे कहते हैंः ‘शून्य तो नकार है; और परमात्मा? परमात्मा नकार नहीं है, वह पूर्ण है। वह सब कुछ है। उसे मत कहो--‘कुछ भी नहीं’। उसे कहोः ‘सब कुछ’। वह सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापक है। वह शून्य नहीं है, पूर्ण है।’ तो शंकर आलोचना करते हैं बुद्ध की, लेकिन रामानुज ने कहा है कि शंकर छिपे हुए बौद्ध हैं। इनमें जरा भी भेद नहीं है--बुद्ध में और शंकर में। है भी नहीं। क्योंकि तुम पूर्ण की कोई भी परिभाषा करो, वह शून्य की ही परिभाषा होगी। तुम शून्य के लिए कुछ भी कहो, वह पूर्ण ही होगा।
अब हम इस संवाद में प्रवेश करें।
एक शिष्य ने केम्बो से पूछा, ‘क्या सभी बुद्ध-पुरुष निर्वाण के एक ही मार्ग पर अग्रसर होते हैं और सभी युगों में, सभी युगों से, सदा से?’
केम्बो एक बुद्ध-पुरुष है--एक जाग्रत चैतन्य। ‘क्या सभी बुद्ध-पुरुष निर्वाण के एक ही मार्ग पर अग्रसर होते हैं? और सभी युगों से, सदा से?’ केम्बो ने अपनी छड़ी उठा कर हवा में शून्य की आकृति बनाते हुए कहा, ‘यह रहा वह मार्ग। यहीं से वह शुरू होता है।’ छड़ी उठा कर हवा में शून्य की आकृति बना दी केम्बो ने और कहाः ‘यह रहा वह मार्ग। यहीं से सब शुरू होता है। यहीं से सब बुद्ध जाते हैं।’
उत्तर बड़ा बारीक है और ठीक किया केम्बो ने कि जमीन पर खड़िया से आकृति न बनाई। क्योंकि जमीन पर खड़िया से बनाई गई आकृति शून्य नहीं हो सकती। आकृति बन जाए, तो निराधार खो जाता है। ठीक किया केम्बो ने; खाली आकाश में छड़ी से आकृति बना दी। बन भी न पाई और खो गई।
तीन तरह की आकृतियां हैं। पत्थर पर आकृति बनाओ, सदियों तक टिकती है। पानी पर आकृति बनाओ, बनती है, मिट जाती है। आकाश में आकृति बनाओ, बनती ही नहीं। इसलिए इस्लाम विरोध में है--पत्थर की मूर्ति के। क्योंकि वह कहताः ‘पत्थर में तुम आकृति बना रहे हो, निराकार की? मत बनाओ आकृति। मस्जिद को खाली रहने दो; मंदिर शून्य रहने दो। क्योंकि पत्थर में बनाई आकृति मिट जाएगी, और परमात्मा कभी मिटता नहीं है।’ इसलिए इस्लाम मूर्तियों को मिटाता रहा है। क्योंकि तुम मूर्तियां बना कर परमात्मा को मिटा रहे हो। हटाओ मूर्तियों को। मूर्त वह नहीं है, उसे अमूर्त ही रहने दो।
इस्लाम पसंद करेगा केम्बो की बात, कि उसने शून्य में आकृति बनाई है।
पानी पर आकृति बनाओ तो खिंचती है, मिट जाती है। पत्थर पर बनाओ, टिकती है। आकाश में बनाओ, न बनती है, न मिटने का कोई सवाल है।
और केम्बो ने कहा कि ‘यह रहा वह मार्ग।’ जिस दिन तुम भी--तुम्हारा अहंकार, तुम्हारी अस्मिता, तुम्हारा होना आकाश में खिंची हुई शून्य की आकृति की भांति हो जाएगा, उसी दिन तुम बुद्ध हो जाओगे। बुद्ध तो तुम अभी भी हो। लेकिन तुमने खड़िया--मिट्टी से अपनी आकृति खींच ली है। या तुम कोशिश कर रहे हो, पत्थर पर आकृति बनाने की।
लोग मरते हैं, तो पत्थर पर नाम खोद जाते हैं। लोग पहाड़ों पर जाते हैं--यात्रा को, पत्थरों पर नाम खोद आते हैं। बड़ा मोह है--बने रहने का। किसी भी तरह मैं बचूं, खो न जाऊं। कुछ भी नाम-रेखा रह जाए। तो मंदिर बनाते हैं, मस्जिद बनाते हैं, लेकिन सारी चेष्टा अहंकार की है। और अहंकार का अर्थ हुआः ‘जहां रेखा नहीं खींचनी थी, वहां तुमने रेखा खींच ली और आकृति बना ली।’ बस, यही सिद्ध और साधक का फर्क है--कि साधक आकृतियां खींच रहा है और सिद्ध समझ गया है कि आकृतियां व्यर्थ हैं; निराकार होना मेरा स्वभाव है।
केम्बो ने अपनी छड़ी उठा कर हवा में शून्य की आकृति बनाते हुए कहा, ‘यह रहा वह मार्ग।’ हो जाओ शून्य, बन जाओगे बुद्ध। हो जाओ खाली। तुम्हारी नाव में कोई यात्री न रहे। तुम सूने घर हो जाओ, जहां कोई भी नहीं है। एक सन्नाटा है--एक मौन, जहां शब्द भी नहीं उठते। जहां लहरें तरंगें नहीं लेतीं, जहां कोई आकृति निर्मित नहीं होती। जहां सिर्फ सन्नाटा है। जहां कोई प्रतिध्वनि भी नहीं गूंजती। तुम हो जाओ ऐसे, बस, यहीं से मार्ग शुरू होता है।
शून्य हो जाने की कला ही महाकला है। जिसने जान लिया मिटना, उसने पाने का राज पा लिया।
मलूक ने कहा है, ‘राम द्वारे जो मरे, बहुरि न मरना होय।’ राम के दरवाजे पर जो मर जाना सीख जाता है, फिर उसकी मृत्यु नहीं होती। उसने अमृत का सूत्र पा लिया है। पर ‘राम के द्वार पर।’
तुम्हारी हालत उलटी है, तुम्हारे द्वार पर राम मरे पड़े हैं। तुम कितना ही राम-राम जपते हो, लेकिन राम को तुम सेवक बनाने की कोशिश में लगे हो। राम को भी तुम नियोजित कर रहे हो, अपने काम में। तुम परमात्मा को भी काम में लगाने की कोशिश में हो। तुम्हारी सारी प्रार्थनाएं मांगें हैंः लड़का पैदा हो जाए, कि धन मिल जाए, कि नौकरी बड़ी हो जाए। तुम परमात्मा से भी शोषण का संबंध रखना चाहते हो। तुम उसकी हत्या कर रहे हो।
नीत्शे ने एक अदभुत किताब लिखी हैः ‘दस स्पेक जरथुस्त्र’। उस किताब में एक बड़ी मीठी कहानी है कि जरथुस्त्र पहाड़ से नीचे उतरा, बाजार में गया भागता हुआ। चीख उसने लगाई और कहा कि ‘सुनो, तुम अपने काम में लगे हो, दुकान खोले धंधा कर रहे हो! तुम्हें पता नहीं कि ईश्वर मर गया!’ लोग हंसने लगे। उन्होंने कहाः ‘तुम्हारा दिमाग खराब हुआ है?’ किसी ने उसकी बात सुनी नहीं, मानी नहीं। लोग अपने काम में लगे रहे। तो जरथुस्त्र ने स्वयं से कहाः ‘ऐसा मालूम होता है, इन तक अभी खबर पहुंची नहीं है।’ लेकिन तब जरथुस्त्र सोचने लगा, ‘यह कैसे हो सकता है, क्योंकि इन्होंने ही तो उसकी हत्या की है! और इन तक ही उसकी खबर नहीं पहुंची है।’ तो सोचा जरथुस्त्र ने कि ‘शायद पुजारियों को पता होगा। क्योंकि वे परमात्मा के प्रतिनिधि हैं। उसने मंदिरों के द्वारों पर दस्तक दी, पुजारियों को हिलाया और कहा कि ‘सुनो, किसकी पूजा कर रहे हो? वह मर चुका।’ पुजारियों ने कहाः ‘बाहर हटो, इस तरह की नास्तिकता की बात मत करो।’ तब जरथुस्त्र ने कहाः ‘हद हो गई! तुम्हीं ने उसकी गरदन दबाई और तुम्हीं को उसका पता नहीं है? खूब भोले बने बैठे हो!’
तुम पूछते फिरते हो, ईश्वर कहां है और तुमने ही उसे मार डाला है--दरवाजे पर ही। अहंकार ईश्वर की हत्या है। क्योंकि अहंकार यह कह रहा हैः ‘मैं हूं-तू नहीं। और अगर तू भी है, तो मेरे लिए है।’ निर-अहंकार का अर्थ है कि तू है, मैं नहीं। ‘राम द्वारे जो मरै, बहुरि न मरना होय।’
निर-अहंकार का अर्थ है--शून्यता--कि मैं अपने को छोड़ता हूं तेरे द्वार पर; अब मैं नहीं हूं। और जिस क्षण तुम नहीं हो, उसी क्षण परमात्मा जीवंत है। तुम दोनों में से एक ही जी सकता है। अगर तुम जी रहे हो, तो परमात्मा मरेगा। अगर परमात्मा जी रहा है, तो तुम मिटोगे। तुम दोनों का एक साथ होना संभव नहीं है। तुम दोनों विपरीत हो।
केम्बो ने शून्य बनाया आकाश में; वह बना भी नहीं है, क्योंकि तुम पकड़ना चाहो इस केम्बो के शून्य को, तो पकड़ न पाओगे। तुम मुट्ठी में बांधना चाहोगे, तो बांध न पाओगे। तुम किसी को दिखाना चाहो कि यह बनाया है मार्ग केम्बो ने, तो तुम दिखा न पाओगे। लेकिन इशारा कीमती है।
केम्बो ने कहा, ‘यह रहा वह मार्ग। यहीं से वह शुरू होता है।’ और जो इसमें प्रविष्ट हो गया, वह बुद्ध हो गया।
मिटने के मार्ग दो कैसे हो सकते हैं? मिटने का मार्ग तो एक ही हो सकता है। यह भी हो सकता है कि कोई आदमी पहाड़ से कूद कर मरे, कोई आदमी जहर पीकर मरे, कोई आदमी ट्रेन के नीचे दब कर मरे। लेकिन फिर भी क्या तुम कहोगे कि मरने के मार्ग अलग हो सकते हैं? क्योंकि मरने की घटना तो भीतर एक ही होगी। चाहे तुम पहाड़ से कूदो, चाहे तुम जहर पीओ, चाहे तुम ट्रेन के नीचे दब जाओ, लेकिन मरने की जो घटना है, प्रक्रिया है, वह तो एक ही होगी।
फर्क यह हो सकता है कि किसी ने लाल छड़ी से आकाश में शून्य बनाया है, किसी ने हरी छड़ी से आकाश में शून्य बनाया है, किसी ने पीली छड़ी से आकाश में शून्य बनाया है, लेकिन छड़ी का रंग क्या शून्य में प्रवेश कर सकता है? शून्य तो निराकार रहेगा, शून्य तो निर्गुण रहेगा, शून्य तो निरंग रहेगा, तुम्हारी छड़ी का रंग तो शून्य में नहीं उतर सकता!
तो तुम जहर पीकर मरे, कि तुम पहाड़ से कूद कर मरे, कि तुम सागर में डूब कर मरे, इससे क्या फर्क पड़ता है। जब शरीर से आत्मा अलग होगी, तो वह घटना एक ही होने वाली है। तुम कैसे अलग हुए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। तुम मस्जिद के सामने टूटे, कि तुम मंदिर के सामने टूटे, कि तुमने राम के द्वार पर अपने को मिटाया, कि तुमने बुद्ध के द्वार पर अपने को मिटाया--क्या फर्क पड़ता है? छड़ी के रंग शून्य में नहीं उतरेंगे। जब तुम मिट जाओगे तो न मस्जिद रहेंगे, न मंदिर रहेंगे, न राम रहेंगे, न कृष्ण, न बुद्ध। शून्य ही रह जाएगा।
उस शून्य का कोई भी नाम नहीं है। इसलिए केम्बो ने ज्यादा बात नहीं की। केम्बो ने कहा, ‘यह रहा मार्ग। यहीं से वह शुरू होता है।’ मार्ग अलग-अलग दिखाई पड़ते हों, अलग-अलग हो नहीं सकते। शून्यों में भेद हो नहीं सकता।
वह शिष्य तृप्त न हुआ होगा। अन्यथा कहीं और जाने की जरूरत न थी। शिष्य बड़े कठिन प्राणी हैं! उनकी बीमारी बड़ी उलझन भरी है। केम्बो जैसे व्यक्ति के पास पहुंच कर भी यह शिष्य तृप्त न हुआ! कुएं से प्यासा लौट गया। इसको कुआं दिखाई ही न पड़ा। बल्कि शायद इसे कुएं में और समस्याएं दिखाई पड़ीं। यह जो सवाल लेकर आया था, वह तो बना ही रहा। यह केम्बो और एक सवाल बन गया। इसकी छड़ी, इसका आकाश में शून्य का बनाना--और नई समस्याएं खड़ी हो गईं कि ‘केम्बो का प्रयोजन क्या है?’ मैंने तो सीधा सा सवाल पूछा था, इसने और पहेली खड़ी कर दी।’
वह शिष्य दूसरे गुरु के पास पहुंचा। शिष्य एक गुरु से दूसरे गुरु के पास भटकते हैं और इस तरह भटकने की अगर आदत बन जाए, तो गुरु से मिलना असंभव हो जाएगा। क्योंकि वे पहुंच भी नहीं पाते कि वे दूसरे के पास पहुंचने के लिए बिस्तर बांधने लगते हैं। वे जहां भी पहुंचते हैं, ‘भीतर’ नहीं पहुंच पाते, बाहर से ही लौट जाते हैं।
अगर शिष्य में थोड़ी भी समझ होती तो केम्बो की छड़ी पकड़ लेनी था। अब कहीं जाने की बात नहीं रही। ‘राम’ का द्वार आ गया, यहीं मरना था।
इस आदमी ने जो बात कही थी, इसमें और परिष्कार किया नहीं जा सकता। यह आखिरी है। लेकिन शिष्य लौट गया। वह शिष्य उमोन के पास गया--दूसरे बुद्ध-पुरुष के पास पहुंचा और उसने उससे भी यही सवाल पूछा। दोपहर थी और उमोन के हाथ में पंखा था। उसने सभी दिशाओं में पंखा हिला कर कहा, ‘वह मार्ग कहां नहीं है? उसका आरंभ कहां नहीं है?’
केम्बो शून्य का पक्षपाती रहा होगा, उमोन पूर्ण का पक्षपाती। केम्बो बुद्ध जैसा था, उमोन शंकर जैसा। उसने कहाः ‘चारों तरफ मार्ग ही मार्ग हैं। सभी कुछ मार्ग है।’ केम्बो ने तो शून्य खींचा था आकाश में, जगह बताई थी कि ‘यह रहा मार्ग’। उमोन ने अपने पंखे को सब दिशाओं में घुमाया और कहाः ‘सभी दिशाएं उसका मार्ग हैं।’ यह सारा आकाश उसका मार्ग है। इससे छोटे से काम न चलेगा। वही वही है। तुम जहां खड़े हो, वहीं से मार्ग है। कहीं और जाने की जरूरत नहीं है। तुम जो हो, वही मार्ग है। क्योंकि तुम पूर्ण हो।
शून्य की भाषा में मार्ग की तरफ इंगित हो सकता है; पूर्ण की भाषा में इंगित भी नहीं हो सकता। अगर शून्य को बताना हो तो उंगली उठाई जा सकती है; पूर्ण को बताना हो तो मुट्ठी बांधकर ही बताया जा सकता है। सब दिशाएं उसी की हैं।
नानक मक्का गए। रात सोए, तो पैर उन्होंने पवित्र पत्थर की तरफ कर दिए थे। पुजारियों को खबर लगी, वे बहुत नाराज हुए। पुजारियों से ज्यादा अंधे लोग खोजना कठिन है। नानक आया था, इसको तो नहीं पहचान पाए वे। यह वही था, जो मुहम्मद थे। जरा भी फर्क न था। लेकिन उन्होंने देखे इसके पैर और कहाः ‘अपने पैर दूसरी दिशा में करो! पवित्र मंदिर की तरफ--परमात्मा की तरफ पैर! शर्म नहीं आती! और ज्ञानी होने का दावा करते हो?’ तो नानक ने कहा, ‘तुम्हीं मेरे पैर उस तरफ कर दो, जहां परमात्मा न हो!’
पुजारी मुश्किल में पड़ गए होंगे। अब पैर कहां करें--जहां परमात्मा न हो! कहानी तो यह कहती है कि उन्होंने पैर सब दिशाओं में करके देखे, लेकिन जिस तरफ पैर किए, उसी तरफ मक्का का मंदिर घूम गया। मगर यह तो प्रतीक है, मंदिरों का घूमना इतना आसान नहीं है; पुजारी नहीं घूमते, मंदिर क्या घूमेंगे? पुजारी पत्थर है। तो पत्थरों के मंदिर क्या घूमेंगे? लेकिन बात सच है।
पुजारियों को समझ में आ गई होगी इतनी बात कि पैर कहीं करना व्यर्थ है, क्योंकि मंदिर तो उसका सभी तरफ है। वह किस दिशा में नहीं है? और जिस तरफ हम इसके पैर करेंगे, तो यह कहेगाः क्या यहां परमात्मा नहीं है?’ और यह भी तो कहना उचित नहीं कि इस दिशा में थोड़ा ज्यादा है, उस दिशा में थोड़ा कम है। क्योंकि परमात्मा क्या कम-ज्यादा हो सकता है? या तो है या नहीं है।
उमोन नानक जैसा आदमी रहा होगा। उसने पंखे को चारों तरफ घुमाकर कहा, ‘कहां नहीं है उसका मार्ग?’ कहां नहीं है उसका आरंभ?
शिष्य और भी मुश्किल में पड़ गया होगा। अगर कभी कोई बुद्ध-पुरुष मिल जाए, तो जहां तक बने उसी में डूब जाना उचित है। दूसरा बुद्ध-पुरुष मिल जाए तो तुम्हारा कंफ्यूजन और बढ़ेगा, घटेगा नहीं। क्योंकि दूसरा बुद्ध-पुरुष दूसरी भाषा बोलेगा। पहली भाषा भारी पड़ गई थी; केम्बो ही समझ में नहीं आया था। अब और मुसीबत हो गई। क्योंकि यह बिल्कुल विपरीत भाषा है। केम्बो ने दिशा बताई थी, इशारा साफ किया था। इस आदमी ने सब दिशाएं छीन लीं। इशारा और धूमिल हो गया।
केम्बो ने कहा था, ‘यह रहा।’ इस आदमी ने कहा, ‘कहां नहीं है?’ दोनों एक ही बात कहते हैं। लेकिन यह शिष्य बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा।
दो बुद्धों के बीच अगर शिष्य पड़ जाए तो पिस जाएगा। एक बुद्ध काफी है। ऐसा हुआ। एक यहूदी सिद्ध-पुरुष हुआ--बालसेम। एक शिष्य उसके पास आता था। उस शिष्य के लिए यही रबाई था, यही गुरु था। शिष्य पापी भी था, उपद्रवी भी था, शराबी था, सब तरह के दुराचरण उसमें थे। एक दिन बालसेम को पता चला कि वह शिष्य दूसरे गांव गया है, दूसरे रबाई, दूसरे गुरु के पास। जब वह लौट कर आया, तो बालसेम ने पूछा कि ‘क्या मैं अकेला काफी नहीं था?’ तो शिष्य ने (जो कि सिर्फ एक छोटा सा गाड़ीवान था। ) कहा कि ऐसा है कि अगर कीचड़ बहुत हो, तो एक घोड़े से काम नहीं चलता है। दो घोड़ा जोतना पड़ता है। और कीचड़ बहुत है, वह आप भलीभांति जानते हैं। तो मैंने सोचा कि अच्छा होगा--दो गुरु, दो घोड़े! कीचड़ से आप अकेले शायद न निकाल पाएं, क्योंकि बहुत कीचड़ है। आपका कसूर नहीं है।’ बालसेम ने कहा कि ‘तू ठीक कहता है, लेकिन इस जगत में जहां तू गुरुओं की खोज कर रहा है, यहां अक्सर ‘घोड़े’ विपरीत दिशाओं में खड़े हैं। तो दो घोड़े अगर एक गाड़ी में दो तरफ जोत दिए तो कीचड़ से निकलना कभी संभव ही न हो पाएगा। एक बाहर खींचेगा, दूसरा भीतर खींच लेगा।’
दो बुद्धों से बचना। एक काफी है। क्योंकि कभी-कभी दवाइयां बीमारी से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध होती हैं। और दो तरह की दवाइयां तो बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकती हैं। सभी दवाइयां जहर हैं। और जहर को अमृत में बदलना कला है। लेकिन दो विपरीत जहर ले जाने पर बड़ी कठिनाई खड़ी हो जाती है।
पृथ्वी पर बहुत बुद्धों के कारण बहुत कठिनाई है। कसूर उनका नहीं है। क्योंकि हर बुद्ध-पुरुष अपने ढंग का है। वह अपने ही ढंग से बोलेगा। अपने ही ढंग से कहेगा। वह तुमसे समझौता भी नहीं कर सकता है। उसने जिस ढंग से जाना है, वह उसी को प्रामाणिक रूप से कह भी सकता है, दूसरे ढंग की बात कर भी नहीं सकता।
केम्बो ने शून्य से जाना, तो शून्य की बात कही। उमोन ने पूर्ण से जाना, तो पूर्ण की बात कही। तुम्हारी बुद्धि के लिए बड़ी कठिनाई हो जाएगी, क्योंकि ये दो विपरीत बातें हो गईं--तुम्हारे लिए। ये विपरीत नहीं हैं सिद्ध के लिए। लेकिन तुम अगर सिद्ध होते, तो तुम चिंता में ही क्यों पड़ते? तुम अगर सिद्ध होते, तो इन बुद्धों के पास जाते ही क्यों? तुम गए ही इसलिए की तुम अभी स्मरण से भरे हुए नहीं हो। तुम्हारी बुद्धि बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगी।
वह शिष्य उमोन के पास गया और उससे भी वही सवाल पूछा। फिर कहानी नहीं कहती है कि कहीं गया कि नहीं। वह जाने की हालत में ही नहीं रहा होगा। उसका विभ्रम भारी हो गया होगा। शायद उसने यह तलाश ही छोड़ दी होगी कि यह तो पागलपन का मामला है। एक कहता है, ‘यह रहा’। और एक कहता है, ‘कहां नहीं है?’ इससे ज्यादा विपरीत छोर और क्या होंगे! शायद वह अपनी दुकान पर वापस लौट गया होगा। उसने सोचा होगाः अपनी दुकान करो, अपना धंधा करो।
लेकिन पीछे किसी और ने, जो अध्ययन कर रहा होगा इन घटनाओं का, और शिष्य के लिए दिए गए दो उत्तर जिसने पढ़े होंगे, उसने ममोन से--एक तीसरे बुद्ध-पुरुष से पूछा कि ‘इस घटना का राज क्या है?’
अब यह और एक खतरनाक बात है। इसमें तुम एक तीसरे बुद्ध-पुरुष को प्रवेश करवा रहे हो। उसकी व्याख्या तुम्हें हल नहीं करवाएगी। उसकी व्याख्या एक तीसरे सूत्र को भीतर ले आएगी।
ममोन से इस घटना का राज जब किसी ने पूछा, तो उसने कहा, ‘इसके पहले कि पहला कदम उठे, मंजिल आ जाती है। और इसके पूर्व कि जीभ हिले, वक्तव्य पूरा हो जाता है।’ उसने न तो शून्य की तरफ इशारा किया, न पूर्ण की तरफ इशारा किया। उसने कुछ और ही बात कही। उसने दोनों घटनाओं के संबंध में कुछ कहा जो कि अति जटिल है। इससे ज्यादा वक्तव्य नहीं हो सकता है।
उसने कहा कि ‘इसके पहले कि पहला कदम उठे, मंजिल आ जाती है।’ मंजिल इतनी पास है! तुम मार्ग की बकवास ही क्यों कर रहे हो? तुम मार्ग को पूछते ही क्यों हो? तुम पूछोगे गलत सवाल, तो मुश्किल में पड़ोगे।
तुमने पूछा, ‘मार्ग कहां है?’ केम्बो ने शून्य बना दिया; कहा, ‘यह रहा।’ तुम इतने से राजी न हुए। तुमने फिर भी पूछा, ‘मार्ग कहां है?’ उमोन ने कहा, ‘कहां नहीं है? सब तरफ है।’ और अब तुम पूछते हो, इन दोनों का राज क्या है? तो ममोन कह रहा है, ‘इसके पहले कि पहला कदम उठे, मंजिल आ जाती है।’ मार्ग की बात ही बकवास है। पहला कदम उठता नहीं है कि मंजिल आ जाती है। पहले कदम के उठने में मंजिल है। मार्ग तो तब होता है, जब मंजिल में और तुम में फासला हो। तो फिर हजार कदम उठाना पड़े, दस हजार कदम उठाना पड़े, तब मंजिल आए। लेकिन तुमने पहला कदम उठाया नहीं, पहला कदम जमीन को छू भी नहीं पाता कि मंजिल आ जाती है।
यह तो बड़े मजे की बात हो गई। उसने कहा कि ‘उठना ही, पहले कदम का, मंजिल का आ जाना है।’ तुम दूर नहीं हो, सिर्फ ख्याल की बात है।
साधक ने उठाया कदम कि सिद्ध हो गया। कदम उठाने की वजह से सिद्ध नहीं होता, क्योंकि उतना भी फासला नहीं है। कदम उठाने का ख्याल, संकल्प--बस, काफी है। तुमने तय किया कि ध्यान--कि ध्यान--ध्यान हो जाएगा। और नहीं हो रहा है, तो उसका मतलब है कि तुमने तय ही नहीं किया है, तुम खेल खेल रहे हो अपने साथ।
एक मस्जिद में एक फकीर पूछ रहा था। उसने स्वर्ग के बड़े सुंदर चित्र खींचे और कहा कि ‘जिन-जिन को स्वर्ग जाना है, वे खड़े हो जाएं।’ उसकी वाणी में बल था। आंखों में तेज था--जादू था। करीब-करीब नब्बे प्रतिशत लोग खड़े गए। फिर भी दस प्रतिशत लोग बैठे थे। उसने कहा कि ‘बैठ जाओ।’ फिर उसने नरक की तस्वीर खींची--इतनी भयानक कि लोगों के रोएं खड़े हो गए। लोगों को लगने लगा कि लपटें आस-पास जल रही हैं। लोगों के हृदय धड़कने लगे। और तब उस फकीर ने पूछा कि ‘अब खड़े हो जाएं--कौन-कौन स्वर्ग में जाना चाहते हैं?’ सभी लोग खड़े हो गए, सिर्फ एक आदमी छोड़ कर। उस फकीर ने पूछाः ‘हद हो गई! तुम्हारा क्या इरादा है? तुम स्वर्ग नहीं जाना चाहते हो?’ उसने कहाः ‘जाना तो चाहता हूं, लेकिन इतनी जल्दी नहीं। और आपकी बातचीत से ऐसा लगता है कि बस बिल्कुल तैयार है, बाहर खड़ी है बस, यहां हां कहा कि वहां बस में बिठाया! इतनी जल्दी नहीं।’
तुम जब भी ध्यान करने जाते हो, तो तुम अपने मन से पूछना; तुम्हारा मन पूरे वक्त कह रहा है कि ‘इतनी जल्दी नहीं।’ अगर तुम ध्यान में असफल होते हो, इसलिए नहीं कि ध्यान कठिन है। ध्यान में असफल होते हो, क्योंकि तुम पहला कदम भी उठाते नहीं। तुम अपने को ही धोखा दे रहे हो। तुम सिर्फ खेल कर रहे हो--पैर उठाने का, उठाते नहीं, क्योंकि तुम्हारा मन भीतर से कह रहा है कि इतनी जल्दी नहीं। अभी संसार में और रस बाकी है। अभी कुछ भोगने को शेष है, अभी कुछ जानने को बाकी है। इतनी जल्दी नहीं। अभी वक्त है। इतनी जल्दी भी क्या है!
तुम अगर सच में ही पहला कदम उठाने को राजी हो, तो ममोन ने ठीक कहा कि रास्ता? सब बकवास है। कोई रास्ता नहीं है। न छड़ी से खींच कर रास्ता बताया जा सकता है, न पंखे से हिला कर रास्ता बताया जा सकता। रास्ता है नहीं पागल! पहला कदम उठा नहीं कि मंजिल आ जाती है। उठा नहीं कि मंजिल आ जाती है। उठने से नहीं आती; बस, उठने का ख्याल काफी है। तुम साधक हो, तुम्हारे विचार के कारण। तुम सिद्ध हो जाते हो, तुम्हारे निर्विचार के कारण। बस, एक हलका सा कदम--वह भी पूरा नहीं उठाते।
‘और इसके पहले की जीभ हिले वक्तव्य पूरा हो जाता है।’ क्योंकि जीभ के हिलने से जो भी कहा जाएगा, वह सत्य नहीं हो सकता। फिर चाहे कोई छड़ी को हिला कर बताए, उसने भी बाहर के जगत का प्रयोग किया। और भीतर की घटना को बताने के लिए बाहर के जगत का संकेत काम भी नहीं कर सकता। फिर चाहे पंखा हिलाए, उसने भी स्थूल का उपयोग किया--सूक्ष्म को दर्शाने के लिए। कोई स्थूल सूक्ष्म को दर्शा नहीं सकता।
‘शब्द बोले जाएं, उसके पहले ही वक्तव्य पूरा हो जाता है।’ ममोन कह रहा हैः इसके पहले कि केम्बो की छड़ी घूमी, रास्ता बता दिया गया। और इसके पहले कि ममोन का पंखा भटका--सब दिशाओं को दिखाने, इसके पहले कि पंखा हिला, उसी वक्त समझ लेना था।
वह जो सत्य का वक्तव्य है, वह व्यक्ति के भीतर है, वह उसकी अंतरात्मा है। जब तुम बुद्ध-पुरुष के पास जाओ, तो प्रश्न मत पूछना, उसे देखना। वह जब बोलता नहीं है, तब उसे देखना। क्योंकि वहीं असली वक्तव्य है। जब उसकी छड़ी नहीं हिलती, तभी वह शून्य है। छड़ी भी हिली, तो शून्य में आकृति आ गई। कुछ तो ‘हो’ गया। कंपन हो गया। बात झूठी हो गई।
जब बुद्ध पुरुष के पास जाओ, तो उसके पंखे के लिए रास्ता मत देखना--जब वह सब दिशाएं दिखाए। क्योंकि जिसे दिखाना पड़े, वह सब दिशाओं में नहीं हो सकता। सब दिशाओं में हम अभिव्यक्त कैसे कर सकते हैं! जिसको हम अभिव्यक्त करेंगे, वह सीमित हो जाएगा। अभिव्यक्ति सीमा है, परिभाषा है।
ममोन ने बात और भी उलझा दी। सच यह है कि जितना सुलझाओ, उतनी बात उलझती है। क्योंकि सुलझाते तुम बुद्धि से हो। और बुद्धि उलझने का उपकरण है। जिस दिन बुद्धि को छोड़ते हो, उस दिन बात सुलझ जाती है। बात सुलझी ही थी।
यह मामला कुछ ऐसा है कि तुम एक रंगीन चश्मा लगा कर जगत को देख रहे हो। सब तुम्हें नीला-नीला दिखाई पड़ता है। और तुम उसी चश्मे से और गौर से देखने की कोशिश करते हो, ताकि नीला न दिखाई पड़े! तुम जितने ही गौर से उस चश्मे से देखते हो, जगत और नीला दिखाई पड़ता है। ‘चश्मा’ उतारकर तुम नीचे रख दो, जगत का नीलापन खो जाता है।
बुद्धि से जब तक देखोगे, जगत एक समस्या है। जगत समस्या नहीं है। बुद्धि से देखने में सारा उपद्रव है। बुद्धि रंग देती है। और बुद्धि का रंग समस्या है। वह हर चीज में से समस्या उठाती है।
बुद्धि का स्वभाव प्रश्न निर्मित करना है। जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं, ऐसे बुद्धि में सवाल लगते हैं, प्रश्न लगते हैं। बुद्धि को हटा दो। सनातन से कभी कोई प्रश्न नहीं रहा है।
कभी कोई प्रश्न था ही नहीं अस्तित्व में। अस्तित्व निष्प्रश्न है। अस्तित्व साफ है, रहस्य खुला है। वहां कुछ भी उलझा नहीं है। तुमने पूछा, कि तुम उलझे।
बुद्ध के पास कोई आया... सवाल लेकर आया था। बुद्ध ने कहाः ‘अगर तुमने पूछा, तो फिर सुलझाना मुश्किल है। तुम चुप रहो। तुम पूछो ही मत। साल भर रुक जाओ। साल भर बिल्कुल चुप रहो और पूछो मत। फिर साल भर बाद पूछ लेना, फिर मैं जवाब दे दूंगा।’
वह आदमी बहुत जगह भटक चुका था। बहुत जवाब उसने पाए थे। लेकिन जवाब अभी मिला नहीं था। भटकन अभी जारी थी। सुलझाए थे लोगों ने हल, लेकिन समाधान हुआ नहीं था। समस्या कायम थी। उसने सोचाः ‘चलो, यह भी प्रयोग करके देख लो। साल भर की ही बात है।’ उसने कहाः ‘ठीक, तो साल भर बाद आप जवाब देंगे?’ बुद्ध ने कहाः ‘निश्चित।’
जब यह बात ही चल रही थी, तब एक भिक्षु पास के वृक्ष के नीचे बैठा खिलखिला कर हंसने लगा। उस आदमी ने पूछाः ‘क्या बात है?’ उसने कहाः ‘धोखे में मत पड़ना। इसी चक्कर में हम पड़ गए थे। कई साल बीत गए, इस आदमी ने जवाब न दिया!’ उस आदमी ने बुद्ध से कहाः ‘यह आदमी क्या कह रहा है?’ बुद्ध ने कहाः ‘इसने पूछा ही कहां साल भर के बाद। शर्त यह थी कि तुम पूछोगे साल भर बाद, हम जवाब देंगे।’ उस आदमी ने कहाः ‘यही चाबी है इनकी। पूछना हो, तो अभी पूछ लो। क्योंकि साल भर अगर चुप रह गया, तो चुप्पी आ जाती है। फिर कोई पूछता ही नहीं।’ बुद्ध ने कहाः ‘मैं अपने वचन पर दृढ़ रहूंगा। जब तू पूछेगा, जवाब दूंगा।’
साल भर बीता। और बुद्ध ने ठीक साल भर के बाद सुबह की भिक्षुओं की सभा में उस भिक्षु को कहाः ‘तू खड़ा हो जा, और पूछ।’ वह हंसने लगा। उसने कहाः ‘कुछ पूछने को नहीं है। और अब मैं जानता हूं भलीभांति, कि जो भी जानने को था, वह चुप होकर मिल जाता है।’
ममोन ने कहा, ‘इससे पहले कि पहला कदम उठे, मंजिल आ जाती है। और इससे पूर्व कि जीभ हिले वक्तव्य पूरा हो जाता है।’
गुरु के पास उत्तर की खोज में मत जाना। अगर गए तो तुम गुरु के पास में पहुंच न पाओगे। गुरु के पास चुप्पी की खोज में जाना--कि कैसे मन को हटा कर रख दो, कैसे बिना मन के जीवन को तुम देख सको। वहां कभी कोई प्रश्न नहीं रहा है। वहां कोई उलझन ही नहीं है। वहां सब सुलझा हुआ है। वहां एक रत्ती भर भी कोई जटिलता नहीं है। वहां सब कुछ सीधा, साफ और सरल है।
जैसे सूर्य की किरण कांच के टुकड़े से निकलती है, प्रिज्म से निकलती है, तो सात हिस्सों में बंट जाती है; सात रंग पैदा हो जाते हैं। सूरज की किरण सफेद है--रंगहीन है। ध्यान रहे, सफेद कोई रंग नहीं है। सफेद रंगहीनता है। काला भी कोई रंग नहीं है। काला सभी रंगों का अभाव है। मिश्रण नहीं, सभी रंगों का अभाव। सफेद सभी रंगों का भाव है। दोनों रंग नहीं हैं। काला शून्य की भांति है, सफेद पूर्ण की भांति है। दोनों, रंगों के दो तरफ हैं। बीच में सात रंगों का इंद्रधनुष है। अगर तुम सातों रंगों को जोर से मिला दो तो सफेद बन जाएगा।
छोटे बच्चों को स्कूलों में समझाने के लिए एक वर्तुलाकार चाक बना देते हैं। उस चाक में सात रंग होते हैं। फिर उस चक्के को जोर से घुमाते हैं। घूमने पर वह चक्का सफेद हो जाता है।
तुम अपने बिजली के पंखे में सात रंग लगा दो, फिर उसे चला दो--पंखा सफेद हो जाएगा। जब सातों रंग जोर से घूमेंगे और मिल जाएंगे तो सफेद हो जाएंगे।
सूरज की किरण सफेद है। सभी रंगों की पूर्णता है वहां। कोई रंग नहीं है वहां। क्योंकि सभी रंग एक दूसरे को काट देते हैं, अभाव रह जाता है।
सूरज की किरण शंकर के ब्रह्म जैसी है। या फिर तुम जब सभी रंगों को अलग कर लो तो काला बचता है। इसलिए जहां प्रकाश नहीं होता, वहां काला है। काला इसलिए बच रहता है कि प्रकाश न हो तो रंग पैदा नहीं हो सकते। वह भी अभाव है। वह बुद्ध के शून्य जैसा है। इन दोनों के बीच में सात रंगों की दुनिया है--इंद्रधनुष का फैलाव है। और इंद्रधनुष से ज्यादा झूठी तुमने कोई चीज देखी है? दीखता है आकाश में--एक कोने से दूसरे कोने तक फैला हुआ। और अगर तुम पास जाओ, तो खो जाता है। मुट्ठी बांधो, तो पकड़ में नहीं आता।
इंद्रधनुष भ्रम का प्रतीक हो गया है। तो ज्ञानियों ने कहा कि जो संसार में भटक रहा है, वह वासनाओं के इंद्रधनुष पकड़ने की कोशिश कर रहा है। जितने तुम पास जाते हो, उतने ही वे हट जाते हैं। सदा दिखाई पड़ते हैं--बड़े रंगीन कि अगर घर में ले आएं, तो घर रंगीन हो जाएगा। फूल ही फूल खिल जाएंगे घर में। लेकिन इंद्रधनुष को पकड़ने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि वह है नहीं। वर्षा के दिनों में जब आकाश में पानी की बूंदें लटकी होती हैं वायुमंडल में, तो सूरज की किरण पानी की बूंदों से निकलकर टूट जाती हैं--सात हिस्सों में, इंद्रधनुष निर्मित हो जाता है।
मन एक प्रिज्म है। इस जगत में इतने रंग दिखाई पड़ रहे हैं, वे तुम्हारे मन के प्रिज्म से टूट कर बन रहे हैं। मन की बूंद से सारा इंद्रधनुष निर्मित हो रहा है। तुम मन को हटाओ--इंद्रधनुष खो जाता है। मन के हटते ही या तो सफेद रह जाता है, वह तुम्हारी व्याख्या है। या काला रह जाता है, वह भी तुम्हारी व्याख्या है।
कुछ ज्ञानियों ने कहाः ‘परमात्मा प्रकाश की तरह है।’ कुछ ज्ञानियों ने कहाः ‘परमात्मा महान अंधकार की भांति है।’ तुम्हारी पसंद की बात है। तुम अगर थोड़े भयभीत व्यक्ति हो, तो तुम कहोगेः ‘परमात्मा प्रकाश की भांति है।’ अगर तुम थोड़े निर्भीक व्यक्ति हो, तो तुम कहोगेः ‘परमात्मा गहन अंधकार की भांति है।’ चूंकि दुनिया में भयभीत लोग ज्यादा हैं, इसलिए परमात्मा को प्रकाश की भांति मानने वाले लोग ज्यादा हैं। अंधकार की भांति मानने में तुम्हें डर लगेगा। लेकिन दोनों संभावनाएं हैंः शून्य--अंधकार; पूर्ण--प्रकाश।
और तुम्हारे मन के द्वारा अगर तुम देखो तो फिर रंग ही रंग फैल जाते हैं, फिर बड़ी उलझन खड़ी होती है। फिर इंद्रधनुष खड़े हो जाते हैं। मन को हटाते ही सात खो जाते हैं और एक रह जाता है।
यह जो ममोन ने कहा, इसे बहुत गहरे में डूब जाने देना। ‘इसके पहले कि पहला कदम उठे मंजिल आ जाती है।’ तुम्हें कहीं जाना नहीं है; मार्ग पूछो मत। तुम वहीं खड़े हो, जहां मंजिल है। ‘तुम जैसे हो।’
इससे ज्यादा कठिन बात नहीं हो सकती, क्योंकि हम सब अपनी निंदा में लगे हुए हैं और तुम्हारे धर्म-गुरु तुम्हें निंदा सिखा रहे हैं। वे कह रहे हैंः ‘तुम पापी हो।’ वे कह रहे हैंः ‘तुम अधर्मी हो, तुम नारकीय जीव हो।’ तुम्हारे धर्म-गुरु तुम्हारी जितनी निंदा कर रहे हैं, उतनी निंदा कहीं और नहीं हो रही है।
तुम्हारे मंदिर तुम्हें ग्लानि से भर रहे हैं। तुम्हारे धर्म शास्त्र तुम्हें गहरी आत्म-पीड़ा, आत्म-आलोचना से भर रहे हैं। जब कि सच्चाई बिल्कुल दूसरी है। सच्चाई यह है कि तुम जहां हो, वहां रत्ती भर कुछ करने की जरूरत नहीं है। बस, जरा सा होश, जरा सा स्मरण, कि तुम कौन हो।
कभी रास्ते के किनारे खड़े होकर एक छोटा सा प्रयोग करना। रास्ता चलता है, लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं। तुम उन्हें देख रहे हो और तुम सोचते हो कि तुम उन्हें देख रहे हो। लेकिन तुमने कभी उन्हें देखा? तुम उन्हें देखोगे कैसे! रास्ते के किनारे खड़े हो जाना और सोचना कि वे भी तुम्हें देख रहे हैं, जैसे तुम उन्हें देख रहे हो। लेकिन क्या वे तुम्हें देख सकते हैं? तुम्हारे शरीर को ही देख सकते हैं, तुम्हें तो नहीं; तुम्हारे रूप को देख सकते हैं, तुम्हें तो नहीं। तुम्हारी बाहर की परिधि को देख सकते हैं, तुम्हें तो नहीं। रास्ते के किनारे खड़े होकर देखना कि तुम्हें कोई भी नहीं देख सकता है। तुम अदृश्य हो। और जिसे वे देख रहे हैं, तुम्हारी दृश्य खोल है। तुम्हें कोई भी नहीं देख सकता। ये इतनी आंखें, जो रास्ते से गुजर रही हैं--तुम्हें नहीं देखतीं, सिर्फ परिधि को छूती हैं। तुम अस्पर्शित रह जाते हो।
तुम कौन हो? --यह जो दिखाई नहीं पड़ रहा है, किसी को भी। रास्ते पर खड़े हो, भरे बाजार में और तुम्हारे भीतर जो चेतना है, वह किसी को भी दिखाई नहीं पड़ रही है--अदृश्य है। इसका स्मरण थोड़ा भरने देना कि मैं अदृश्य हूं, मुझे कोई भी नहीं देख रहा है। मुझे कोई देखना भी चाहे तो देख नहीं सकता। और जिसे लोग देख रहे हैं, वह मैं नहीं हूं। वह तो केवल देह है, जो कल जवान थी, आज बूढ़ी है। कल थी, कल नहीं हो जाएगी। ऊपर की खोल है, मेरा वस्त्र है।
‘मैं कौन हूं?’ उस भरे बाजार में तुम अपने पर ख्याल करना, अचानक जैसे सारा फोकस बदल जाए, जैसे ज्ञान की सारी की सारी प्रक्रिया बदल जाए--शरीर से आत्मा की तरफ तुम्हारा रुख हो जाएगा। एक क्षण को भी अगर ऐसा हुआ, तो उस भरे बाजार में तुम अकेले हो जाओगे। सब खो जाता है। तुम्हीं हो--अत्यंत अकेले।
यह जो स्थिति है तुम्हारी--यह स्थिति सिद्ध की है। यह तुम्हें क्षण भर रहेगी, फिर चूक जाओगे तुम। फिर झपकी लग जाएगी। फिर तुम लोगों को देखने लगोगे। फिर तुम समझने लगोगे कि लोग तुम्हें देख रहे हैं। सिद्ध की यह स्थिति सदा बनी रहती है। तुम्हारी यह स्थिति कभी क्षण भर को बनती है और खो जाती है। लेकिन यह स्थिति तुम्हारे भीतर है। तुम भूल जाओ, तो भी उसे खो नहीं सकते।
तुम जैसे हो, वैसे परिपूर्ण हो। कमी तुममें जरा भी नहीं है। सिर्फ स्मरण चाहिए। और इस स्मरण को लाने के लिए जरूरी है कि तुम थोड़ा अपने को हिलाओ और जगाओ। ध्यान के प्रयोग जागरण के प्रयोग हैं--होश, अवेयरनेस के प्रयोग हैं।
तुम बाजार में यह प्रयोग करना। बाजार से अच्छी जगह तुम हिमालय पर भी न पा सकोगे। बाजार में तुम दूसरों पर ध्यान रखना और देखना कि वे तुम्हें देख रहे हैं और फिर भी कोई तुम्हें नहीं देख रहा है। कोई तुम्हें देख नहीं सकता। तुम अदृश्य हो। यहां, इस बीच बाजार में खड़े बिल्कुल अकेले हो, इस भीड़ के बीच अत्यंत एकाकी हो। धीरे-धीरे भीड़ दूर होती जाएगी। जैसे सपना हो गई। जैसे-जैसे तुम अपने करीब आओगे, भीड़ दूर होती जाएगी। कई बार तुम्हें ऐसा लगेगा कि भीड़ करीब आई, दूर हुई; करीब आई, दूर हुई। कई बार बाजार की आवाजें बहुत दूर सुनाई पड़ने लगेंगी, जैसे कहीं किसी दूसरे गांव में! जब तुम अपने करीब हो जाओगे, बाजार दूर हो जाएगा। जब तुम अपने से दूर होओगे, बाजार करीब आ जाएगा। और पूरे समय तुम्हारा फोकस बदलेगा। एक क्षण को भी अगर--जिसको कबीर ने कहा है कि ऐसी तारी लागी--अगर एक क्षण को भी वहां भीतर जागना हो जाए, तो बाहर तुम ‘सो’ जाओगे। इसलिए कबीर ने कहा है--तारी। क्योंकि तुम बाहर जगे हुए हो, भीतर सोए हो। जब भीतर जागोगे, बाहर सो जाओगे।
जैसे ही भीतर की तारी लगी तुम सिद्ध हो। जैसे ही तुम बाहर जागे और भीतर सो गए, तुम साधक हो।
साधक और सिद्ध में जो फासला है, वह, बस इतना ही है। तुम्हारी आंखें जब बाहर को देखती हैं, तब तुम साधक हो; जब भीतर को देखती हैं, तब तुम सिद्ध हो।
‘पहला कदम उठता नहीं है कि मंजिल आ जाती है। जीभ हिलती नहीं कि वक्तव्य पूरा हो जाता है।’

आज इतना ही।  

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