अज्ञात की ओर-(प्रवचन-03)
तीसरा प्रवचन-चित को बदलने की कीमिया
मैं अत्यंत आनंदित हूं कि आपसे संध्या अपने हृदय की थोड़ी सी बातें कर सकूंगा। अभी कहा गया कि यह समय अंधकारपूर्ण है और यह युग पतन का, भौतिकवाद का और मैटीरियलिज्म का है।
सबसे पहले मैं आपको निवेदन कर दूं, यह बात अत्यंत गलत है, यह बात झूठी है। इस बात से यह भ्रम पैदा होता है कि पहले के लोग प्रकाशपूर्ण थे और आज के लोग अंधकारपूर्ण हैं। इससे यह भ्रम पैदा होता है कि पहले के लोग अंधकार में नहीं थे और हम अंधकार में हैं। इस भ्रम के पैदा हो जाने के कुछ कारण हैं। लेकिन यह बात सच नहीं है। हम अनैतिक हैं, इम्मारल हैं और पहले के लोग नैतिक थे, यह बात भी ठीक नहीं है।
अगर पहले के लोग नैतिक थे तो महावीर ने किसको समझाया कि हिंसा मत करो, चोरी मत करो, असत्य मत बोलो? बुद्ध ने किसको उपदेश दिए? राम और कृष्ण किन लोगों को समझा रहे थे अच्छा होने के लिए? अगर लोग अच्छे थे तो ये उपदेश व्यर्थ थे, झूठे थे, इनकी कोई जरूरत न थी। ये दुनिया में, पुरानी सदियों में इतने-इतने बड़े शिक्षक हुए ये क्यों पैदा हुए?
जहां अंधेरा होता है वहां दीयों की जरूरत पड़ती है। जहां भूलें होती हैं वहां शिक्षक पैदा होते हैं। जहां गलतियां होती हैं वहां सुधारक का जन्म होता है। अगर पिछली सदियों में इतने बड़े सुधारक दुनिया में पैदा हुए, यह किस बात का सबूत है? यह इस बात का सबूत है उस दिन के लोग भी हमारे जैसे लोग थे जैसे हम हैं वैसे वे लोग थे। वे भी चोरी करते थे और वे भी बेईमान थे और वे भी हिंसा करते थे और युद्ध करते थे। अगर वे बेईमान नहीं थे तो ईमानदारी की शिक्षाएं किसके लिए थीं? अगर वे चोर नहीं थे तो चोरी न करने की बातें किसको समझाई जा रही थीं? वे हम जैसे ही लोग थे, आदमी में कोई फर्क नहीं पड़ा है।
तो मैं आपसे कहना चाहूंगा, यह सदी अंधकार में है, इससे यह मतलब न लें कि पहले के लोग प्रकाश में थे। आदमी आज तक अंधकार में ही रहा है। यह भ्रम इसलिए पैदा होता है कि पहले के लोग अच्छे थे। इसके भ्रम के पैदा होने के पीछे कोई कारण है। वह यह है, हम सारे लोग अभी जमीन पर हैं, हजार साल बाद हमारी याद करने वाला कौन होगा? कोई भी नहीं। लेकिन गांधी याद रह जाएंगे, हम सारे लोगों के नाम भूल जाएंगे, हम सारे लोगों के कृत्य, हमारी नीति-अनीति सब भूल जाएगा, एक गांधी याद रह जाएगा हमारे बीच से। और हजार साल बाद लोग सोचेंगे कि गांधी इतना अच्छा आदमी था तो उस जमाने के सारे लोग अच्छे रहे होंगे।
आपको पता है बुद्ध के समय में कौन सा आदमी जमीन पर था? कौन सा आदमी सड़कों पर चल रहा था? कौन सा गांवों में रह रहा था? आपको पता है कि राम के वक्त में कौन लोग थे? आपको पता है कृष्ण के वक्त में कौन लोग थे? सामान्य आदमी की कोई कथा बाकी नहीं रह जाती, जो कि असली आदमी है। थोड़े से अपवाद, थोड़े से एक्सेप्शंस याद रह जाते हैं। और उनकी याददाश्त पर हम निर्णय करते हैं कि पहले के लोग अच्छे रहे होंगे। बुद्ध अच्छे थे, महावीर अच्छे थे, तो गांधी अच्छे थे, तो हम अच्छे हैं। बल्कि सच्चाई यह है कि अगर सारे लोग अच्छे हो जाएं तो गांधी को याद रखने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। अगर महावीर के समय के सारे लोग अच्छे होते तो महावीर का नाम हम कभी का भूल गए होते। वह उस पूरे अंधेरे में एक आदमी चमकता हुआ था इसलिए दिखाई पड़ रहा है आज तक। अगर सारे लोग चमकते हुए होते, वे महावीर कभी के भूल जाते, वे कृष्ण भी कभी के भूल जाते। ये दस-पंद्रह लोगों के नाम हमें याद हैं, केवल इसलिए कि इस पूरी अंधेरी रात में ये दस-पांच चमकते हुए सितारे थे।
लेकिन आदमी की जिंदगी आज तक जमीन पर अंधेरे से भरी रही है। पंद्रह हजार युद्ध लड़े गए हैं पांच हजार वर्षों में। पंद्रह हजार युद्ध किन लोगों ने लड़े? अगर वे अच्छे लोग थे कौन लड़ रहा था? हिंदुस्तान की जमीन पर बुद्ध के समय में दो हजार राज्य थे। और हर रोज इस जमीन पर लड़ाई हो रही थी। कौन लड़ रहा था वह लड़ाई? और लड़ाई प्रेम से लड़ी जाती है? ईमानदारी से? लड़ाइयां कैसे लड़ी जाती हैं?
महाभारत हुआ हमारे इस मुल्क में, जिनको हम बहुत अच्छे लोग कहते थे वे भी अपनी औरत को जुए पर दांव में लगा सकते थे। कैसे अच्छे लोग रहे होंगे? और अच्छे लोग थे तो जमीन के लिए लड़े? सारे मुल्क को शायद दो-चार हजार वर्ष के लिए रीढ़ तोड़ दी। जुआ खेलते थे, औरत को दांव पर लगा सकते थे। अच्छे लोग थे।
बात असल यह है कि अतीत तो हमें भूल जाता है और वर्तमान हमें दिखाई पड़ता है। आप कहते हैं, पीछे के लोग अच्छे थे और आज के लोग अंधेरे में हैं। आज तक जमीन पर जितनी किताबें लिखी गई हैं, पुरानी से पुरानी किताब भी यही कहती है कि पहले के लोग अच्छे थे। वे पहले के लोग कब थे? आपने कोई ऐसी किताब पढ़ी है जो यह कहती हो आज के लोग अच्छे हैं?
चीन में सबसे पुरानी किताब है छह हजार वर्ष पुरानी, वह भी कहती है कि पहले के लोग बहुत अच्छे थे, आज के लोग बिलकुल बिगड़ गए हैं, यह जमाना अंधकार का आ गया है। छह हजार वर्ष पुरानी किताब भी यही कहती है कि पहले के लोग अच्छे थे और आज का जमाना अंधकार का है। अगर आप उस किताब को पढ़ें तो ऐसा लगेगा हमारे जमाने के बाबत कह रहे हैं ये लोग।
नहीं, इसमें कोई बुनियादी भ्रम है। पहले के लोग अच्छे कहने का कारण यह नहीं है कि पहले के लोग अच्छे थे, लेकिन आज के आदमी को कंडेम्ड करना हो, उसकी निंदा करनी हो, तो इसके सिवाय कोई उपाय नहीं कि हम पहले के आदमी को अच्छा कहें और इसको नीचा दिखाएं। इसको नीचा दिखाने की हमारी बड़ी इच्छा है। जो हमारे साथ आदमी खड़ा है उसे नीचा दिखाने की इच्छा है। इसको कैसे नीचा दिखाएं? इसको नीचा दिखाने का एक रास्ता है कि पहले के लोग बहुत अच्छे थे।
अगर पहले के लोग अच्छे थे तो ये बुरे लोग उन अच्छे लोगों से कैसे पैदा हो गए? अगर पहले की संस्कृति और सभ्यता अच्छी थी तो यह दुष्परिणाम कैसे आया? यह उसी का तो फल है, यह उसी का तो कांसिक्वेंस है, यह उसी में से तो निकला है। यह जो कुछ निकला है उससे ही पैदा हुआ है।
मैं क्या कहना चाहता हूं यह बात कह कर, मैं यह बात कह कर यह कहना चाहता हूं कि यह सवाल किसी युग का नहीं है कि आदमी अंधकार में है, यह आदमी का चित्त जैसा है अभी और आज तक जैसा रहा है, उस चित्त से यह अंधकार पैदा हो रहा है। यह किसी युग की भूल नहीं है। यह आदमी का चित्त जैसा है उसका परिणाम है। और जब तक हम आदमी के चित्त को बदलने की कीमिया, तरकीब उसको बदलने की विधि नहीं समझ लेते हैं और जब तक हम बहुत बड़े पैमाने पर आदमी की चेतना को बदलने का उपाय नहीं करते हैं तब तक जमीन पर अंधकार रहेगा। यह किसी युग का सवाल नहीं है। यह सतयुग और कलियुग का सवाल नहीं है। यह सवाल आदमी के मन का है। और आदमी का मन वही है जो पांच हजार साल पहले था, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ा। यह आदमी का मन क्या है जो अंधकार ले आता है? और इधर पांच हजार सालों में हमने कोशिश की इसको बदलने की, वह कोशिश असफल क्यों हो गई?
और हम आज भी वही दोहराते हैं। इस आदमी को बदलना है तो उन्हीं बातों को दोहराते हैं जो पांच हजार साल में नाकामयाब साबित हो गईं। फिर भी उन्हीं बातों को दोहराते हैं। तो यह जमाना आगे भी अंधकारपूर्ण रहेगा अगर उन्हीं बातों को हम दोहराए चले गए। वे कौन सी बातें हैं जिनकी वजह से आदमी का चित्त नहीं बदल सका? कौन सा कारण है जिसकी वजह से आदमी वहीं-वहीं चक्कर काट रहा है जैसे कोल्हू का बैल चक्कर काटता हो? जमाने गुजर जाते हैं, सदियां गुजर जाती हैं, आदमी वही का वही है।
कौन सी बातें हैं? उनमे से एक बात सबसे शुरू में आपसे कहूं। निरंतर हमसे कहा जाता है कि आदमी को नैतिक होना चाहिए, मॅारल होना चाहिए। यह शिक्षा बहुत पुरानी है, यह कोई आज तो नहीं कहा जा रहा है, यह हमेशा से कहा जा रहा है। फिर आदमी नैतिक क्यों नहीं हो गया? तो हम दोष देते हैं कि आदमी की कोई गलती है इसलिए नैतिक नहीं हो गया।
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि कोई आदमी नैतिक हो ही नहीं सकता बिना धार्मिक हुए। और धार्मिक होना बड़ी दूसरी बात है। कोई आदमी नैतिक नहीं हो सकता बिना धार्मिक हुए। लेकिन हमको तो बताया जाता रहा है कि नैतिक हो जाइए तो फिर आप धार्मिक हो सकते हैं। बिना नैतिक हुए धार्मिक नहीं हो सकते, यह बात बिलकुल ही उलटी और गलत है। नैतिकता धार्मिक मनुष्य की सुगंध है।
भीतर चित्त में धर्म हो तो जीवन में होती है नीति। अंतःकरण परिवर्तित हो जाए तो आचरण हो जाता है दूसरा। नीति का संबंध है आचरण से, धर्म का संबंध है अंतःकरण से। लेकिन पांच हजार वर्षों से हम कह रहे हैं आदमी को नैतिक बन जाने को। और बिना अंतःकरण बदले हुए जो आदमी अपने आचरण को बदल लेता है वह नैतिक तो नहीं होता, विकृत जरूर हो जाता है।
क्या मतलब मेरा यह कहने का? मेरा कहने का यह मतलब है कि जो आदमी अपने जीवन को नैतिक बनाने में लगता है वह क्या करेगा? अगर उसके भीतर सेक्स है, काम है, जो कि होना चाहिए, और है, उसके जीवन का स्वभाव का हिस्सा है, तो वह क्या करेगा नैतिक बनने को? वह आदमी ब्रह्मचर्य की कसमें लेगा नैतिक बनने को। ब्रह्मचर्य की कसमों से क्या होने वाला है? इतना ही होने वाला है कि वह आदमी अपने सेक्स को भीतर दबाए चला जाएगा, दबाए चला जाएगा। ऊपर से ब्रह्मचर्य को ओढ़ लेगा और भीतर सेक्स को दबा लेगा, सप्रेस कर लेगा। वह दबी हुई कामुकता, वह दबा हुआ सेक्स नष्ट नहीं होगा, उसके भीतर उसके अचेतन मन की पर्तों में घूमने लगेगा, रात सपनों में आने लगेगा, कमजोर क्षणों में प्रकट होने लगेगा। वह उसके भीतर निरंतर मौजूद रहेगा और उसकी मौजूदगी उसको भयभीत कर देगी। वह घबड़ाया हुआ रहने लगेगा। उसको कहीं अगर स्त्री दिख जाए, तो वह घबड़ाएगा, वह आंख बंद कर लेगा, वह दूर भागेगा, जंगलों में जाएगा, बस्तियां छोड़ेगा, क्योंकि भीतर भय है कि कहीं उसका ब्रह्मचर्य न टूट जाए। और ब्रह्मचर्य टूट जाने का भय क्यों है? भय है कि भीतर सेक्स की लहरें धक्के दे रही हैं, उनको वह ऊपर से दबाए हुए बैठा हुआ है।
एक छोटी सी कहानी कहूं उससे मेरी बात समझ में आए और मैं आगे बढ़ सकूं।
एक छोटी सी पहाड़ी नदी को दो भिक्षु पार कर रहे थे। एक वृद्ध भिक्षु था और एक युवा। वृद्ध भिक्षु जैसे ही नदी के किनारे आया उसने देखा कि सांझ होने को है, सूरज ढलने को है, पहाड़ी नदी है, और एक युवती नदी के किनारे खड़ी है, संभवतः उसे नदी पार होना है। लेकिन अकेले नदी में उतरने का साहस नहीं कर पा रही है। सहज ही उसके मन को खयाल हुआ, इसे हाथ का सहारा दे दूं और नदी पार करा दूं। लेकिन तीस वर्ष से उसने किसी स्त्री को छुआ नहीं था। यह खयाल आते ही कि मैं हाथ का सहारा देकर नदी पार करा दूं, वह हैरान हो गया! तीस साल से सोचता था कि जिस काम के ऊपर उसने वश पा लिया, जिस सेक्स को उसने जीत लिया, वह अत्यंत तीव्रता से उसके भीतर खड़ा हो गया। वह घबड़ाया, उसके हाथ-पैर कंप गए। अभी उसने उस स्त्री को छुआ नहीं था। उसने आंखें झुका लीं और वह नदी पार करने लगा और वह भगवान का नाम जपने लगा और सोचने लगा मैं भी कैसा नासमझ हूं, मैंने यह व्यर्थ की बात क्यों सोची? लेकिन दोनों बातें आने लगी मन में--एक तरफ से खयाल आने लगा उसे पार मैं करा ही देता तो क्या हर्ज था, और उसके पार कराने के साथ न मालूम कितना रस, और न मालूम कितनी कामनाएं उसके मन में उठने लगीं, और कितने सपने उसके मन में उठने लगे। आंख तो उसने मोड़ ली थी, लेकिन आंख मोड़ने से कहीं कुछ होता है? वह स्त्री इतनी सुंदर न थी जितनी आंख मोड़ने से और सुंदर मालूम होने लगी। आंख उसने बंद कर ली थी, वह राम जप रहा था और नदी पार हो रहा था, लेकिन भीतर कोई राम नहीं थे, वही स्त्री खड़ी थी और बहुत सुंदर होकर खड़ी हो गई थी।
बंद आंखों में चीजें और सुंदर हो आती हैं। खुली आंखों से चीजें इतनी सुंदर कभी भी नहीं हैं। क्योंकि बंद आंखों में चीजें पार्थिव नहीं रह जातीं, अपार्थिव हो जाती हैं, सपना बन जाती हैं।
वह बहुत घबड़ाया और बहुत बेचैन हुआ। अपनी बहुत निंदा उसने की कि मैंने यह सोचा ही क्यों? प्रायश्चित करूंगा, दुखी होऊंगा। तीस वर्ष से जिसे मैंने छोड़ रखा था, अलग कर रखा था, वह मौजूद था, अलग तो हुआ नहीं था।
वह नदी पार हो गया। लेकिन नदी पार होते ही उसे खयाल आया कि जो भूल मैंने की है कहीं मेरा युवा साथी भी वही भूल तो नहीं कर रहा? वह उसके थोड़े पीछे आने को था। उसने लौट कर देखा, वह हैरान रह गया! वह युवा लड़का उस लड़की को अपने कंधे पर बिठा कर नदी पार कर रहा था।
उसे कई तरह के भाव एक साथ उठ आए। कहीं ईष्र्या भी आ गई होगी, क्योंकि वह चूक गया था इस सुख को उठाने से, वह वंचित रह गया था इस आनंद से। और तब निंदा भी आई, और तब उसने सोचा कि आज जाकर गुरु को कहेंगे, और यह तो बात बहुत गलत है, यह तो पापपूर्ण है कि संन्यासी और युवा युवती को कंधे पर उठाए। वह गुस्से में चल पड़ा। कोई दो मील के बाद उनका आश्रम था। थोड़ी देर बाद जब वे आश्रम पहुंच गए, तो वह बूढ़ा सीढ़ियों पर खड़ा था, पीछे से आते युवक को उसने कहा कि सुनो, यह बात बरदाश्त के बाहर है, यह निहायत पाप है कि तुम लड़की को कंधे पर उठाओ। और मैं असत्य न बोल सकूंगा, मुझे गुरु से कहना पड़ेगा कि यह बात मेरी आंखों के सामने हुई है और यह हमारे आश्रम-जीवन के विरुद्ध है। हमने ब्रह्मचर्य की कसम ली है और तुमने युवती को छुआ। न केवल छुआ बल्कि कंधे पर उठाया। वह युवक हंसने लगा और उसने कहा कि वृद्ध भिक्षु, मैं तो उस युवती को नदी के किनारे उतार भी आया कंधे से, लेकिन आप अभी भी लिए हुए हैं!
दमित, सप्रेस्ड माइंड चीजों को सिर पर तो नहीं लेता, लेकिन फिर भी वे उसके सिर पर चढ़ जाती हैं और जीवन भर उसके साथ चलती हैं। उन्हें उतारना कठिन हो जाता है। क्योंकि जिसे हम दबाते हैं वह नष्ट नहीं होता, वह हमारे भीतर छिप जाता है। हम जितना दबाते हैं वह हमारे भीतर और ज्यादा गहरे छिप जाता है। हम सत्य बोलने का व्रत लेते हैं और भीतर असत्य छिप कर बैठ जाता है। हम ईमानदार होने की कसम खाते हैं और भीतर बेईमानी धक्के देती है। मनुष्य दो हिस्सों में टूट जाता है। एक जैसा वह दिखाई पड़ता है और एक जैसा वह है। और यह जीवन भर का संघर्ष, यह जीवन भर की पीड़ा नरक बना देती है।
अब इसमें दो ही रास्ते हैं। अगर वह आदमी बहुत चालाक है, समझदार है, तो एक रास्ता पाखंड है। और वह रास्ता यह है कि वह ऊपर से तो जो दिखाई पड़ता है दिखता रहे और भीतर जो है छिपे रास्तों से उसकी तृप्ति का भी मार्ग खोज ले। एक रास्ता तो यह है। और इसीलिए नैतिक शिक्षा का अनिवार्य परिणाम पाखंड हुआ है। सारी दुनिया और मनुष्य-जाति पाखंडी हो गई है। उसको पाखंडी बनाने में नैतिक शिक्षा का हाथ है। जो यह सिखाती है कि सच बोलो, बेईमानी मत करो, झूठ मत बोलो, क्रोध मत करो, वासना मत लाओ। जो हर चीज में इनकार सिखाती है, उसका परिणाम यह होगा कि आदमी दमन करेगा और दमन इतना परेशान कर देगा उसे कि वह छिपे रास्तों से प्रवेश करना चाहेगा। पाखंड पैदा होगा। और वह अगर जिद्दी हुआ और पाखंडी नहीं बना तो दूसरा विकल्प है कि वह पागल हो जाएगा। क्योंकि इतना टेंशन और इतना तनाव झेलना कठिन है। उस तनाव में, चिंता में, संताप में, वह टूट जाएगा और विक्षिप्त हो जाएगा।
इसलिए सभ्यता के विकास के साथ दो तरह की बातें विकसित हुई हैं--पाखंड और पागलपन। क्या आपको पता है जितने हम सभ्य होते गए हैं उतनी ही हमारी संख्या पागलों की बढ़ती चली गई है? क्या आपको पता है जितने हम शिक्षित होते गए हैं उतने ही हमें पागलखाने बढ़ाने पड़ रहे हैं? क्या आपको पता है कि जो हमारी जमीन पर सबसे ज्यादा शिक्षित और सभ्य मुल्क है वही मुल्क सर्वाधिक मानसिक रोगों से भी पीड़ित है?
अमरीका में प्रतिदिन कोई पंद्रह लाख से तीस लाख तक लोग अपनी मानसिक चिकित्सा के लिए सलाह ले रहे हैं। ये सरकारी आंकड़े हैं। और सरकारी आंकड़े कभी सच नहीं होते। इससे ज्यादा लोग वहां खराब हालत में हैं। मानसिक चिकित्सकों की संख्या अमरीका में एकदम तीव्रता से बढ़ती चली जाती है। अमरीका सबसे ज्यादा सभ्य मुल्क है इसका यह सबूत है। और कल जब आप भी सभ्य हो जाएंगे तो आपको भी पागलों की संख्या इतनी ही बढ़ानी पड़ेगी। क्योंकि बिना पागल हुए कोई सभ्य नहीं हो सकता। वह मुल्क पूरी तरह सभ्य कहा जाएगा जिस मुल्क के सारे लोग पागल हो जाएं। वहां सभ्यता चरम उत्कर्ष पर पहुंच गई।
क्योंकि सभ्यता सिखाती है नैतिकता, और नैतिकता से पैदा होता है तनाव, द्वंद और कांफ्लिक्ट। वह चित्त को बांट देती है, खंड-खंड कर देती है, वह खंड-खंड चित्त बड़ी बेचैनी में पड़ जाता है। तो एक रास्ता तो है कि वह पागल हो जाए, पागल होकर आत्मघात कर ले। आत्महत्या की संख्या भी सभ्यता के साथ बढ़ती है। दूसरा उपाय है कि वह बेईमान हो जाए और धोखा देने लगे, बाहर से कुछ दिखाई पड़े भीतर से कुछ और हो जाए।
पीछे लंदन में शेक्सपीयर का एक नाटक चलता था। इंगलैंड के चर्च का एक बहुत बड़ा पादरी भी उस नाटक को देखने को उत्सुक था। लेकिन पादरी और नाटक देखने जाए, यह जरा अशोभन। क्योंकि यही पादरी तो समझाता रहा है कि नाटक देखना पाप है। अब यही कैसे उस नाटक को देखने जाए। लेकिन मन में उसके बड़ा लगाव था, तो उसने नाटक के मैनेजर को एक पत्र लिखा और उस पत्र में लिखा कि मेरे मित्र, बड़ी कृपा होगी, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जब भवन में अंधेरा हो जाता है तो पीछे के द्वार से मुझे भी भीतर आ जाने दिया जाए? नाटक मैं देखना चाहता हूं लेकिन मैं यह नहीं चाहता कि लोग मुझे देखें। कोई पीछे का दरवाजा नहीं है आपके नाटक-गृह में? उस थियेटर के मैनेजर ने लिखा कि पीछे का दरवाजा है। और अक्सर हमें पादरियों के लिए उससे आने की व्यवस्था करनी होती है। लेकिन एक बात मैं हमेशा बता देना पहले ही उचित समझता हूं, ऐसा दरवाजा तो है हमारे नाटक-गृह में कि आप उससे आएं और लोग आपको न देख सकें, लेकिन ऐसा कोई दरवाजा नहीं है जिसको परमात्मा न देखता हो। यह खयाल में रखें, और बराबर आ जाएं।
मुझे पता नहीं कि वह पादरी देखने गया या नहीं। लेकिन पीछे के दरवाजे खोजने की इच्छा पैदा होती है। ऊपर से नैतिकता ओढ़ लेते हैं फिर पीछे का दरवाजा खोजना पड़ता है। इससे पाखंड पैदा होता है, इससे धोखा पैदा होता है। और इस धोखे से मनुष्य के जीवन में जो भी श्रेष्ठतम है उसकी खोज असंभव हो जाती है। वह न केवल दूसरों को धोखा देता है बल्कि खुद को भी धोखा देने लगता है। यह है नैतिकता की शिक्षा, जिसके ये परिणाम हैं।
क्या मैं यह कह रहा हूं कि आप अनैतिक हो जाएं? क्या मैं यह कह रहा हूं कि आप अपनी सारी नैतिकता छोड़ दें? क्या मैं यह कह रहा हूं कि क्रोध करें? क्या मैं यह कह रहा हूं असत्य बोलें? नहीं, मैं यह कह रहा हूं कि क्रोध और असत्य और लोभ और सब कुछ जिसको हम अनैतिक कहते हैं और निंदा करते हैं, ये सिर्फ लक्षण हैं बीमारी के, यह खुद बीमारी नहीं है। इन लक्षणों से जो लड़ेगा वह बीमारी से मुक्त नहीं हो सकता।
एक आदमी को बुखार है उसके हाथ-पैर गरम हैं, तो उसके हाथ-पैर हम ठंडे करने में लग जाएं और हम सोचें की गरमी है तो हाथ-पैर इसके ठंडे कर दें। तो शायद हम मरीज को मार ही डालेंगे। बुखार गरमी का नाम नहीं है, गरमी तो केवल खबर है कि भीतर कोई बीमारी है और शरीर को उस बीमारी से लड़ना पड़ रहा है, इसलिए शरीर गरम हो गया। गरमी तो लक्षण है बीमारी का, गरमी से नहीं लड़ना है। गरमी तो मित्र है, खबर दे रही है। वह तो अगर शरीर गरम न हो और भीतर बीमारी रहे तो आदमी मर ही जाएगा उसका पता भी नहीं चलेगा। शरीर जल्दी से खबर देता है गरम होकर कि भीतर कुछ गड़बड़ हो गई है, उसे ठीक करो। लेकिन जो गरमी को ठीक करने में लग जाएगा, वह भूल में पड़ गया।
एक आदमी मेरे पास भागा हुआ आए कि मेरी मां बीमार है और मैं उसी का इलाज करने लगूं। तो उसकी मां तो मरेगी ही यह आदमी भी मरेगा। यह तो केवल खबर देने आया था, यह खुद बीमार नहीं था।
क्रोध इस बात की खबर है कि भीतर आत्मा अंधकार में है, बीमार है, अस्वस्थ है। बेईमानी, असत्य, इस बात की खबर है कि भीतर प्राण स्वस्थ नहीं है। ये सारी खबरें हैं, ये लक्षण हैं, यह बीमारी नहीं है, बीमारी कुछ और है। बीमारी दूसरी ही है और बीमारी एक ही है। और वह बीमारी है आत्म-अज्ञान। स्वयं के भीतर जो चेतना है उसको न जानना, उसको न पहचानना। वह जो सेल्फ इग्नोरेंस है वही है बीमारी, बाकी सब उससे पैदा होने वाले लक्षण हैं।
नीति इन लक्षणों का इलाज करती है। इसलिए नीति कोई उपाय नहीं है। धर्म उस आत्मा में जो अस्वास्थ्य है, वह जो आत्मा का अज्ञान है, उससे मुक्त करता है। और उससे मुक्त होते ही ये लक्षण एकदम विलीन हो जाते हैं, ये समाप्त हो जाते हैं।
जैसे ही भीतर कोई स्वयं को जानने में समर्थ होता है वैसे ही वह हंसेगा, हैरान हो जाएगा कि मैं क्रोध भी करता था। उसे आप मजबूर करें क्रोध करने को, तो भी वह क्रोध न कर सकेगा। उसे आप झूठ बोलने को कहें, तो वह न बोल सकेगा। क्योंकि अब वह जानता है और अब वह समझता है, क्रोध क्या था और कैसे हुआ था? स्वस्थ आदमी से आप कहें कि जरा फीवर लाकर दिखाओ, तो वह न ला सकेगा। क्योंकि फीवर लाना स्वस्थ आदमी के हाथ के बस की बात नहीं है। बुखार ले आना उसके हाथ की बस की बात नहीं है, बीमारी थी तो बुखार था।
बुद्ध एक बार एक गांव के पास से निकलते थे। उस गांव के लोग उनके शत्रु थे। हमेशा ही जो भले लोग हैं उनके हम शत्रु रहे हैं। उस गांव के लोग भी हमारे जैसे लोग होंगे, तो वे बुद्ध के शत्रु थे। बुद्ध उस गांव से निकले, तो उन गांव के लोगों ने रास्ते पर उन्हें घेर लिया और उन्हें बहुत गालियां दीं और बहुत अपमान किया, बहुत अपशब्द बोले। बुद्ध ने सुना और बुद्ध ने फिर उनसे कहाः मेरे मित्रो, तुम्हारी बात पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है। वे लोग थोड़े हैरान हुए होंगे। और उन्होंने कहा कि हमने क्या कोई बातें कही हैं, हमने तो गालियां दी हैं सीधी और स्पष्ट? बुद्ध ने कहाः तुमने थोड़ी देर कर दी। अगर तुम दस वर्ष पहले आए होते तो मजा आ गया होता। हम भी तुम्हें गाली देते, हम भी क्रोधित होते, थोड़ा रस आता, बातचीत होती, तुम थोड़ी देर करके आए हो। अब मैं उस जगह हूं कि तुम्हारी गाली लेने में असमर्थ हूं। तुमने गाली दी, वह तो ठीक, लेकिन तुम्हारे देने से ही क्या होता है, मुझे भी तो भागीदार होना चाहिए। मैं उसे लूं तभी तो उसका परिणाम हो सकता है। लेकिन मैं तुम्हारी गाली लेता नहीं, क्योंकि कोई पागल ही गाली ले सकता है, कोई समझदार गाली कैसे लेगा? मैं दूसरे गांव से निकला था, वहां के लोग मिठाइयां लाए थे भेंट करने, मैंने उनसे कहा कि मेरा पेट भरा है, तो वे मिठाइयां वापस ले गए। जब मैं न लूंगा तो वे मुझे कैसे दे जाएंगे? बुद्ध ने उन लोगों से पूछा कि वे लोग मिठाइयां वापस ले गए, उन्होंने क्या किया होगा? एक आदमी ने भीड़ में से कहा कि उन्होंने अपने बच्चों को दी होंगी, परिवार में दे दी होंगी।
बुद्ध ने कहाः मित्रो, अब तुम बड़ी मुश्किल में पड़ गए। तुम गालियां लाए हो, मैं लेता नहीं, अब तुम क्या करोगे? घर ले जाओगे, बांटोगे? मुझे तुम पर बड़ी दया आती है, अब तुम इन गालियों का क्या करोगे? क्योंकि मैं लेता नहीं। क्योंकि जिसकी आंख खुली है वह गाली लेगा? और जब मैं लेता ही नहीं तो क्रोध का सवाल ही नहीं उठता। जब मैं ले लूं तब क्रोध उठ सकता है। आंखें रहते हुए मैं कैसे कांटों पर चलूं? और आंखें रहते हुए मैं कैसे गालियां लूं? और होश रहते मैं कैसे क्रोधित हो जाऊं? मैं बड़ी मुश्किल में हूं। मुझे क्षमा कर दो। तुम गलत आदमी के पास आ गए। मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव जाना है, जल्दी पहुंचना है।
उस गांव के लोग कैसे निराश नहीं हो गए होंगे? कैसे उदास नहीं हो गए होंगे? बुद्ध ने क्या कहा? यह बुद्ध ने क्रोध को दबाया नहीं है। यह बुद्ध भीतर जाग गया है इसलिए क्रोध अब नहीं है।
भीतर आत्मा जाने और जागे तो नीति तो वैसे ही चली आती है जैसे आदमी के पीछे छाया आती है। आदमी के पीछे छाया आती है वैसे ही नैतिकता धर्म के पीछे आती है अपने आप, अनिवार्य। वह तो अपरिहार्य है, वह तो आएगी, उसे लाने का कोई सवाल नहीं है।
इधर हम हजारों वर्ष से आदमी को नैतिक बनाने के लिए समझा रहे हैं इसलिए नैतिकता नहीं आ पाई। आया है पाखंड, आया है पागलपन। नैतिकता धर्म तक नहीं ले जाती लेकिन धर्म जरूर नैतिकता को ले आता है। धर्म की सुगंध है नीति। अनिवार्य सुगंध है। भीतर धर्म का फूल खिलता है; जीवन और आचरण में सुगंध फैल जाती है। तब क्रोध को मिटाना नहीं पड़ता, क्रोध पाया ही नहीं जाता है। और क्रोध से जो एनर्जी और जो ताकत और जो शक्ति प्रकट होती थी, वही शक्ति प्रेम से प्रकट होने लगती है। और जो सेक्स था वही शक्ति ब्रह्मचर्य बन जाती है। सेक्स को दबाने से नहीं बल्कि स्वयं को जानने से जीवन रूपांतरित होता है, ट्रांसफार्मेशन हो जाता है।
एक आदमी अपने घर के बाहर खाद के ढेर लगा ले तो उस घर में रहना मुश्किल हो जाएगा, उस घर में दुर्गंध भर जाएगी, उस घर के पास से निकलना मुश्किल हो जाएगा। उस घर के वासी बहुत कठिनाई में पड़ जाएंगे, वह घर नरक हो जाएगा। लेकिन अगर वही आदमी उस खाद को अपनी बगिया में डाल दे और बीज बो दे, तो उस घर में फूल खिल जाएंगे, और घर में सुगंध फैल जाएगी। उसके रास्ते से निकलने वालों को भी सुगंध का फायदा मिलेगा।
यह सुगंध क्या है? यह वही दुर्गंध है जो खाद में छिपी थी। वही रूपांतरित होकर पौधों में जाकर सुगंध बन गई है। प्रेम क्या है? वही जो क्रोध था। और ब्रह्मचर्य क्या है? वही जो सेक्स था। ये दुश्मन नहीं हैं एक-दूसरों के, ये उन्हीं शक्तियों के रूपांतरण हैं, वे ही शक्तियां परिवर्तित हो जाती हैं। इसलिए अगर आपके भीतर क्रोध है, तो आप धन्य हैं, क्योंकि आपके भीतर ताकत है और प्रेम का जन्म हो सकता है। और अगर आपके भीतर सेक्स है, तो आप धन्य हैं, क्योंकि वही ताकत ब्रह्मचर्य बन सकती है, वही ताकत परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग बन सकती है।
इसलिए दुखी न हों और आत्म-निंदा न करें कि मेरे भीतर क्रोध है, काम है, फलां है, ढिकां है। आत्म-निंदा न करें। यह नैतिकता आत्म-निंदा सिखाती है, सेल्फ कंडेमनेशन सिखाती है। और जो आदमी खुद की निंदा करने लगता है वह आदमी अपनी ही आंखों में गिर जाता है। उस आदमी के विकास के सब द्वार बंद हो गए। उस आदमी का उध्र्वगमन बंद हो गया। अब वह ऊपर नहीं जाएगा, अब उसकी नीचे की यात्रा शुरू हो गई। वह जितना अपने की निंदा करेगा उतना ही नीचे गिरता जाएगा और नीचे गिरता जाएगा।
इसलिए जिन कौमों ने बहुत नैतिकता की बातें की हैं उनका आदमी एकदम कुरूप हो गया है, एकदम अग्ली हो गया है। जिन कौमों ने नैतिकता की बहुत बातें की हैं उनका आदमी दीन-हीन हो गया। उसके चित्त में बड़ी ग्लानि, आत्म ग्लानि पैदा हो गई है। उसके भीतर वह गौरव और गरिमा नष्ट हो गई। क्योंकि सब पाप ही पाप उसको दिखाई पड़ता है। क्रोध, ईमान नहीं है, बेईमानी है, चोरी है, यह सब क्या है? उसको सब भीतर खोजता है तो पाप ही पाप दिखाई पड़ता है। और इस पाप ही पाप में वह दबा जाता है, टूटा जाता है, नष्ट हुआ जाता है।
इस ग्लानि को छोड़ दें। यह ग्लानि बहुत अशुभ है। ये जीवन की शक्तियां हैं जिनकी आप निंदा कर रहे हैं। यह शक्तियां आज जिस रूप में प्रकट हो रही हैं वह रूप जरूर शुभ नहीं है। लेकिन यही शक्तियां दूसरे रूप में प्रकट हो सकती हैं और वह रूप बहुत शुभ हो सकता है। उसकी बदलाहट का रास्ता सीधी लड़ाई नहीं है, उसकी बदलाहट का रास्ता बहुत भिन्न है।
जैसा मैं निरंतर कहता हूं, अगर इस कमरे में अंधकार भरा हो और हम उसको लड़ कर, धक्के देकर निकालने लगें तो हम निकाल न पाएंगे। क्यों? अंधेरा बहुत ताकतवर है इसलिए? शायद जब न निकाल पाएंगे तो हमको यही खयाल पैदा होगा कि इतने लोग हैं हम और इस कमरे के अंधेरे को निकालते हैं और अंधेरा नहीं निकलता। हम कमजोर हैं, अंधेरा ताकतवर है। यही खयाल पैदा होगा। सीधा लॅाजिक यही है। हम निकालते हैं और नहीं निकलता, हम हार जाते हैं, वह जीत जाता है। वह ताकतवर है।
लेकिन मैं आपसे कहता हूं, अंधेरा ताकतवर नहीं है। अंधेरा है ही नहीं, इसलिए आप नहीं निकाल पाते। अगर वह होता तो हम अपनी ताकत बढ़ा सकते थे। डाइनामाइट ले आते और तलवारें ले आते और एटम बम ले आते और निकाल देते। लेकिन हम कुछ भी ले आएं, हम निकाल न पाएंगे। अंधेरा है ही नहीं। फिर भी दिखाई तो पड़ता है। और जब मैं कहता हूं, अंधेरा नहीं है, तो मेरा मतलब क्या है? मेरा मतलब है, अंधेरा प्रकाश की एब्सेंस है, अनुपस्थिति है। अंधेरा किसी चीज की प्रेजेंस नहीं है। अंधेरा कोई चीज नहीं है। अंधेरा केवल अभाव है, केवल एब्सेंस है। प्रकाश नहीं है इसी का दूसरा नाम अंधेरा है। अंधेरा अलग से कुछ भी नहीं है। इसलिए आप दीया जला लें और खोजें अंधेरा कहां है। तो वह अंधेरा आपको नहीं मिलेगा। शायद आप सोचेंगे, बाहर चला गया, तो आप गलती में हैं। आप गलती में हैं अगर सोचते हैं बाहर चला गया। बाहर भी प्रकाश जला लें सब तरफ और यहां दीया जलाएं, तो आपको अंधेरा कहीं से जाता हुआ दिखाई नहीं पड़ेगा। अंधेरा था ही नहीं, चला गया, यह भाषा की गलती है। आ गया, यह भी भाषा की गलती है। केवल प्रकाश आता है और प्रकाश जाता है। अंधेरा न आता है और न अंधेरा जाता है, अंधेरा नहीं है।
इसलिए जो लोग अंधेरे से सीधी लड़ाई लड़ेंगे वे पागल हो जाएंगे, और या पाखंडी हो जाएंगे। अगर कोई आदमी एकदम आकर घर के बाहर कहे कि हां, मैंने अंधेरे को निकाल कर बाहर कर दिया, तो समझ लेना यह पाखंडी है। और अगर वह कहे कि मैं लड़ रहा हूं, लड़ रहा हूं, परेशान हुआ जा रहा हूं, अंधेरा निकलता नहीं है; लेकिन लड़ाई तो जारी रखनी है, अंधेरे को निकालना ही है, तो समझना की यह आदमी पागल होने के रास्ते पर चल रहा है।
अंधेरे को निकालने का तो कोई रास्ता नहीं है, लेकिन प्रकाश को जलाने का रास्ता है। और हम अब तक अंधेरे को निकालने में लगे रहे हैं। हम बच्चों को सिखाते हैं क्रोध मत करो, बेईमानी मत करो, यह न करो, वह न करो, सब न करो, सब अंधेरे को निकालने की बातें हैं। प्रकाश को जलाना सिखाइए, अंधेरे को निकालने का कोई सवाल नहीं है।
भीतर जो चेतना है, जो कांशसनेस है, उसे जगाने का रास्ता है। उसे जगाइए, उसे उठाइए, उभारिए। वह जो भीतर सोई है चेतना उसे जगाइए। वह जितनी जगेगी उतना ही अंधेरा नहीं पाया जाएगा। वह दीया जल जाए, अंधेरा नहीं है।
आत्म-ज्ञान वह दीया है। धर्म उस दीये को जलाने का उपाय है। नीति उपाय नहीं है। नीति से ज्यादा घातक, ज्यादा पाय.जनस, ज्यादा विषाक्त और जहरीली और कोई बात नहीं है। और दुनिया यह जो इतनी अनैतिक दिखाई पड़ रही है, यह नैतिक शिक्षा का परिणाम है। यह मत सोचिए कि नीति की कमी के कारण ऐसा हो रहा है। यह नीति की अति शिक्षा की प्रतिक्रिया है।
अब ऊब गए पांच हजार साल में लोग इस शिक्षा से और कुछ नहीं हुआ इस शिक्षा से। तो अब वे इसके विरोध में खड़े हैं। अब वे कहते हैं कि कुछ नहीं हुआ--इससे हम शराब पीएंगे, नाचेंगे, कूदेंगे, जो हमारे मन में होगा हम करेंगे। देख ली तुम्हारी शिक्षा और देख ली तुम्हारी सभ्यता। अब इसके विरोध में वे खड़े हैं। बिटनिक हैं और बीटल हैं, और सारी दुनिया के क्रोधी प्रतिक्रिया से भरे हुए युवक हैं। नई पीढ़ियां हैं वे कह रहे हैं, तोड़ो तुम्हारे चर्च-वर्च, हो गई बकवास, बंद करो यह, पांच हजार साल से देख ली तुम्हारी सारी बातें, तुम्हारे प्रीचर और तुम्हारे संन्यासी और तुम्हारे उपदेश और तुम्हारे धर्मगुरु देखे जा चुके अच्छी तरह से, दुनिया जरा भी नहीं बदली, अब क्षमा करो! अब तुम जो-जो कहते थे उसको हम तोड़ कर दिखा देंगे और बता देंगे कि सब गड़बड़ है और हमको जैसा जीना है हम जीएंगे, अब हम नहीं रुकना चाहते इन सीमाओं में। यह उसका रिएक्शन है, जो पांच हजार साल में किया गया उसकी प्रतिक्रिया है।
बच्चे ऊब गए और घबड़ा गए। और बच्चे कहते हैं, हम तोड़ देंगे यह सब। अब हमें ये नहीं चलेंगी सारी बातें। अब हमको जो ठीक लगेगा--चाहे वह कोई गलत कहता हो, बाइबिल गलत कहती हो और मनु गलत कहते हों और कनफ्यूशियस गलत कहता हो, कोई भी गलत कहता हो, सुन लिया हमने, अब हम नहीं सुनना चाहते। यह उसी शिक्षा का रिएक्शन है। उस शिक्षा का विरोध है यह। वह शिक्षा असफल हो गई है। उस असफलता के लिए लड़के आज बदला ले रहे हैं पुरानी पीढ़ियों से। यह बहुत स्वाभाविक है।
क्या करें इसमें? क्या उसी शिक्षा को दोहराए चले जाएं? मैं आपसे कहता हूं, आप मुर्दों को जिलाने की कोशिश कर रहे हैं। अब नहीं चलेगा यह। वह शिक्षा नहीं दोहराई जा सकती है। वह मर चुकी है। उसे दफना दें। दोहराने की कोई जरूरत नहीं है। जितना आप दोहराएंगे, लड़के उसकी प्रतिक्रिया में उतना ही विरोध करेंगे। उसके खिलाफ उतना ही विरोध चलेगा। आप अपने हाथ से आने वाली पीढ़ियों को नरक में ढकेल रहे हैं। ढकेल देंगे।
निषेध विरोध लाता है। यहां खिड़की पर हम एक तख्ती टांग दें और लिख दें कि यहां झांकना मना है। फिर आपमें से कोई इतना ताकतवर है जो बिना झांके निकल जाए। और अगर निकल गया तो रात भर पछताएगा और नींद नहीं आ सकेगी। और सपने में देखेगा कि पहुंच गया उसी दरवाजे पर और पट्टी उघाड़ कर देख रहा है कि भीतर क्या है? शायद जिंदगी भर वह परेशान रहे और बार-बार यह खयाल आ जाए कि क्या था उस दरवाजे के भीतर जिसको मैं छोड़ आया? निषेध, मत झांको, झांकने की इच्छा पैदा करता है।
नैतिक शिक्षा ने अनैतिक होने की भाव-दशा पैदा कर दी है--मत करो, मत करो, मत करो। सब तरफ से यह आवाज भीतर बच्चों के मन में यह प्रतिक्रिया बन गई कि करो, करो, करो।
फ्रायड अपनी पत्नी और अपने बच्चे के साथ एक दिन एक बगीचे में गया। छोटा बच्चा था, उसकी पत्नी ने कहा कि देखो, पास ही रहना और जो फव्वारा है बगीचे में, उस तरफ मत जाना। वे दोनों गपशप करते रहे और घूमते रहे। सांझ ढल गई और रात उतर आई और जब वे लौटने लगे तो उन्होंने देखा कि बच्चा नदारद है। उसकी पत्नी घबड़ाई और उसने कहा कि अब कहां ढूंढेंगे? इतनी बड़ी रात, इतना बड़ा बगीचा। दरवााजे बंद होने को आ गए हैं, वह बच्चा कहां गया? तो फ्रायड ने यह कहा कि पहले मुझे यह बताओ तुमने कहीं जाने को मना तो नहीं किया था? उसने कहाः मैंने मना किया था कि फव्वारे पर मत जाना। उसने कहाः चलो, पहले फव्वारे पर देख लें। सौ में से निन्यानबे मौके तो ये हैं कि वह फव्वारे पर हो, अगर उसमें थोड़ी भी बुद्धि है तो फव्वारे पर होगा। अगर बिलकुल बुद्धिहीन है तो कहीं और भी हो सकता है। वे गए, वह फव्वारे पर पैर लटकाए हुए बैठा था।
यह बच्चों में जो प्रतिक्रिया आई है यह बुद्धिमत्ता का लक्षण है। बुद्धिहीन रहे होंगे वे लोग जिन्होंने इसके खिलाफ विरोध नहीं किया। बढ़ती हुई बुद्धिमत्ता और विचार इसका विरोध करेगी। क्योंकि निषेध का विरोध बिलकुल स्वाभाविक है। फिर अब हम क्या करें? जाने दें गर्त में, जो हो होने दें। नहीं, यह मैं नहीं कह रहा हूं, मेरी बात को गलत न समझ लेना। मैं यह कह रहा हूं कि हम जो कर रहे थे वह गलत था, कुछ और किया जा सकता है।
निषेध न करें। यह न कहें, यह न करो, यह न करो, यह न करो। चित्त पर यह भाव न लाएं। बल्कि क्या करो, किसको जगाओ, कोई पाजिटिव, कोई विधायक साधना जीवन में चाहिए जिससे आत्मा जगे, जागरूक हो। तो आज की संध्या तो मैं इतना ही कहूंगाः निषेधात्मक नीति अर्थहीन है। अर्थहीन ही नहीं, व्यर्थ है। व्यर्थ ही नहीं, घातक है। विधायक धर्म, पाजिटिव रिलीजन, निगेटिव मॅारेलिटी नहीं। विधायक धर्म क्या है और कैसे उपलब्ध हो सकता है, संभव नहीं होगा कि अभी मैं उसकी बात करूं। कल सुबह मैं विधायक धर्म की बात करने को हूं। कल सुबह मैं चर्चा करूंगा कि धर्म क्या है? अभी तो मैं कहता हूं, नीति जो कुछ भी है वह शुभ नहीं है।
एक अंतिम बात जरूर आपसे कह दूं। अगर भीतर विधायक धर्म का दीया जल जाए तो सारा जीवन बदल जाता है। क्योंकि रूट्स, जड़ों को हम पकड़ लेते हैं।
माओत्सु तुंग अपने बचपन की एक घटना कहा है। कहा है कि मैं छोटा था, मेरी मां की एक बहुत खूबसूरत बगिया थी। उस बगिया में बड़े प्यारे फूल लगते थे। सारे गांव के लोग उस बगिया के फूलों को देख कर हैरानी में रह जाते थे। और दूर-दूर के गांवों के लोग उन फूलों को देखने आते थे। मां बीमार पड़ी। उसे बीमारी की उतनी चिंता न थी जितनी अपनी बगिया की थी, कि उसके फूलों का, उसके पौधों का क्या होगा? कहीं वे बिगड़ न जाएं, कहीं वे सूख न जाएं। उसने बड़े जीवन भर की मेहनत से उस बगिया को खड़ा किया था। उसने खुद मेहनत की थी। वह चिंतित थी। तो माओ ने अपनी मां को कहा, चिंता न करें, मैं आपकी बगिया की देखभाल कर लूंगा। मैं फिकर कर लूंगा, आप चिंता न करें। और वह सुबह से शाम तक बगिया की फिकर करने लगा। लेकिन दो-चार दिन बीते कि उसको हैरानी हुई। पौधे सूखने लगे और कुम्हलाने लगे। तेज धूप के दिन थे और बगिया मुर्झाने लगी और जो कलियां आई थीं वे कलियां ही रह गईं, फूल न पाईं। वह बड़ा चिंतित हुआ और ज्यादा मेहनत करने लगा। सुबह से शाम तक बगिया में ही मेहनत करता। लेकिन पंद्रह दिन बाद मां जब थोड़ी ठीक हुई और बगिया में आ सकी तब तक बगिया बरबाद हो गई थी। पौधे कुम्हलाए हुए खड़े थे। पत्ते सूख गए थे। उसकी मां हैरान हुई, उसने कहाः तुम दिन भर रहते थे, यह क्या हाल हुआ? माओ ने कहाः मैं तो एक-एक फूल को पानी पिलाता था। एक-एक पत्ते को पोंछता था, एक-एक फूल को चूमता था कि बढ़ो, बड़े हो जाओ, लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि यह बगिया सब सूख गई?
उसकी मां हंसी और उसने कहाः पागल, फूलों में फूलों के प्राण नहीं होते, प्राण होते हैं जड़ों में। तू फूलों को नहलाता रहा और जड़ों की कोई फिकर नहीं की। जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं, अदृश्य हैं। फूल दिखाई पड़ते हैं, दृश्य। लेकिन जो दृश्य है उसकी जड़ें अदृश्य में हैं। जो दिखाई पड़ता है उसकी जड़ें उसमें हैं जो दिखाई नहीं पड़ता। अगर उसकी तुमने फिकर की होती तो फूलों की कोई फिकर करने की जरूरत नहीं थी। वे अपनी फिकर खुद कर लेते। अगर तुमने जड़ों में पानी दिया होता तो फूल तो अपने से आ जाते, पत्ते अपने से ताजे हो जाते, वे तो जड़ों की ताजगी से अपने आप ताजे हो जाते हैं। लेकिन तू तो पत्तों और फूलों को नहलाता रहा और जड़ें सूखती चली गईं। जड़ें सूख गईं, तो पत्तों और फूलों को कोई कितना भी नहलाए, तो कुछ भी नहीं हो सकता।
मैंने जब यह बात सुनी, तो मैं हैरान हुआ, यह बात तो पूरे आदमी की जिंदगी के बाबत सच है। हम फूलों को सम्हाल रहे हैं और जड़ों को भूल गए हैं। नीति तो केवल फूल है। सुंदर-सुंदर फूल हैं सत्य के, अहिंसा के, प्रेम के, करुणा के, बड़े सुंदर फूल हैं। और जिस जीवन में खिलते हैं वह बहुत धन्य है। लेकिन वे फूलों की जड़ें आत्मा में हैं। और जो उन फूलों को ही सम्हालता है उसकी आत्मा की जड़ें सूख जाएंगी, उसकी बगिया में फूल न खिलेंगे। फिर एक रास्ता है, बाजार में प्लास्टिक के कागज के फूल मिलते हैं, वह उनको खरीद लाएगा और उनको अपने ऊपर से चिपका लेगा और फिर उन्हीं फूलों को मान कर जी लेगा।
हमारी सब अहिंसा और सब प्रेम और सब सत्य उधार और बाजार से खरीदा हुआ है, वह ऊपर से चिपकाया हुआ है। वह कागज के फूलों से ज्यादा नहीं। उसकी जड़ें धर्म की आत्मा से नहीं निकली हैं। इसलिए तो कैसे हम धर्म की जड़ों को पकड़ पाएं, जीवन की जड़ों को, वे जो रूट्स हैं हमारे भीतर उनको हम कैसे पानी दे पाएं, वह बात तो अभी नहीं करूंगा, वह कल सुबह के लिए छा.ेड देता हूं। वह कल सुबह मैं आपसे बात करूंगा।
मेरी इन बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना है। हो सकता है कि उनमे से बहुत सी बातों ने बड़ी चोट पहुंचाई हो। अगर पहुंचाई हो तो मैं बहुत आनंदित हो जाऊंगा। क्षमा नहीं मांगूंगा। क्योंकि मैं चाहता हूं कि चोट पहुंचे। चोट पहुंचती है तो चिंतन पैदा होता है। धन्यभागी हैं वे जिनको चोट पहुंच जाती है। अभागे तो वे हैं जो बैठे सुनते रहते हैं, उनको कोई चोट भी नहीं पहुंचती, उनको कोई परेशानी भी नहीं होती, उनको कोई बेचैनी भी नहीं होती, उनमें कोई चिंतन भी पैदा नहीं होता। तो जिन-जिन मित्रों को चोट पहुंची हो, उनका मैं बहुत अनुगृहीत हूं। और जिनको न पहुंची हो, अगली बार आऊंगा तो और ज्यादा चोट पहुंचाने की कोशिश करूंगा ताकि उनको भी पहुंच जाए।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत-बहुत धन्यवाद। अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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