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सोमवार, 26 नवंबर 2018

सहज समाधि भली-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन

समग्रता ही है मार्ग

दिनांक 26 जुलाई, 1974; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा: 

एक शिष्य ने गुरु उमोन से कहा, ‘बुद्ध का प्रकाश समस्त विश्व को प्रकाशित करता है; बुद्ध की प्रज्ञा सारे जगत को आलोकित करती है।’
लेकिन वह अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि गुरु ने कहा, ‘आह! क्या तुम किसी दूसरे की पंक्तियां नहीं दुहरा रहे हो?’
शिष्य झिझका, तो उमोन ने उसकी आंखों में ध्यान से देखा। घबड़ा कर शिष्य ने कहा, ‘हां।’
उमोन बोला, ‘तब तुम मार्गच्युत हो गए।’
कुछ समय बाद एक दूसरे गुरु शिशिन ने अपने शिष्यों से पूछा, ‘किस बिंदु पर उमोन का शिष्य मार्गच्युत हुआ था?’
ओशो, इस रहस्य भरी परिचर्चा पर प्रकाश डालने की कृपा करें।

बुद्ध के अंतिम शब्द, जो उन्होंने इस पृथ्वी पर कहे, वे सदा स्मरण रखने जैसे हैं। वे तीन छोटे से शब्द हैं--‘अप्प दीपो भव’--अपना दीया स्वयं ही बनो; खुद के प्रकाश स्वयं ही बनो; बी ए लाइट अनटु दाई सेल्फ।

जैसे ही बुद्ध ने कहा--छोड़ता हूं इस शरीर को, आनंद रोने लगा। और उसने कहा, ‘हमारा क्या होगा? हम जो तुम्हारे पीछे चलते थे, हमने बड़ी आशाएं बांध रखी थीं। और अब सब अंधकार हो जाएगा। प्रकाश बुझा जाता है।’ बुद्ध ने कहा, ‘अगर तुमने मुझे अपना प्रकाश समझा था, तो तुम भूल में थे। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही अपना प्रकाश हो सकता है।’

प्रकाश खोजना हो, तो भीतर खोजो। जिसने बाहर प्रकाश खोजा, वह अंधकार में ही भटकता रहेगा। ‘अप्प दीपो भव’--अपने प्रकाश खुद ही बनो।
और बड़ी अनूठा घटना है कि बुद्ध के जीते-जी आनंद ज्ञान को उपलब्ध न हुआ। बुद्ध के मर जाने के एक दिन बाद ही ज्ञान को उपलब्ध हो गया। चालीस साल तक बुद्ध के साथ रह कर ज्ञान को उपलब्ध न हुआ और एक दिन--केवल एक दिन बुद्ध के अभाव में--ज्ञान को उपलब्ध हो गया!
कहां अड़चन थी? बुद्ध की मौजूदगी उसे स्वयं को नहीं देखने देती थी। बुद्ध की मौजूदगी में वह बुद्ध की तरफ देख रहा था; आंखें बाहर लगी थीं। बुद्ध के हटते ही बाहर देखने योग्य कुछ भी न रहा। और जिसने बुद्ध को देखा हो, बुद्ध के हटने के बाद, उसे बाहर देखने योग्य रह भी क्या जाएगा! उसने सब कुछ देख लिया--जो इस जगत में देखने योग्य था। और इस जगत के पार जो था, अदृश्य जो था, उसकी भी झलक पा ली।
बुद्ध के मिटते ही आनंद की आंखें निश्चित ही बंद हो गई होंगी। संसार में देखने योग्य कुछ भी न बचा। उसी क्षण उसने स्वयं को देखा। और जैसे ही कोई स्वयं को देख ले, वैसे ही मार्ग पर आ जाता है। स्वयं का होना ही मार्ग है।
लेकिन मन कोशिश करता है--दूसरे के अनुसरण की। क्योंकि नकल आसान है; वास्तविक होना कठिन है। यह सदा सरल है कि तुम किसी और का अभिनय करो। क्योंकि अभिनय तो ऊपर होता है। भीतर तो तुम जो थे, वही बने रहते हो। इसलिए मन अक्सर अनुकरण को चुनता है; प्रभावित होता है; किसी दूसरे के ढंग से जीना शुरू करता है।
कितनी ही तुम चेष्टा करो, अगर तुम दूसरे के पीछे चल रहे हो, तो मंजिल भटक जाएगी। और इसलिए जीवन की गहरी से गहरी कला यह है--बुद्ध-पुरुषों के पास होकर भी उनके अनुकरण से बचना। उनके पास न हुए, तो भी न चलेगा। उनके पास होकर नकल में पड़ गए, तो भी न चलेगा, दोनों के मध्य में एक बिंदु है--जहां मार्ग है।
बुद्ध-पुरुषों के पास होना सौभाग्य है। लेकिन उनकी लीक पर चल पड़ना दुर्भाग्य है। उनसे तुम बुद्धत्व सीखना, आचरण नहीं। उनके जीवन की बाह्य रूपरेखा को तुम अपने जीवन का नक्शा मत बनाना। क्योंकि एक व्यक्ति के जीवन की बाह्य रूपरेखा दूसरे के लिए कारागृह सिद्ध होती है। क्योंकि तुम पृथक हो, तुम भिन्न हो। तुम बस, तुम ही जैसे हो।
तो किसी भी दूसरे के नक्शे से अगर तुमने अपने जीवन का ढांचा बनाया, तो तुम्हारा अपना ढांचा कुंद हो जाएगा। तुम्हारे अपने विकसित होने की संभावनाएं क्षीण हो जाएंगी। वह दूसरा तुम्हारे लिए कारागृह बन जाएगा।
और पत्नी क्या कारागृह बनेगी? पति क्या कारागृह बनेंगे? बुद्ध-पुरुषों के पास कारागृह निर्मित कर लेना बहुत आसान है। दुनिया के सभी कीमती कारागृह बुद्ध-पुरुषों के आसपास निर्मित हुए हैं। उनका नाम चाहे इस्लाम हो, चाहे हिंदू हो, बौद्ध हो, चाहे जैन हो। ये जो बड़े-बड़े कारागृह हैं--संप्रदायों के, ये बुद्ध-पुरुषों के पास निर्मित हुए हैं।
और बुद्ध-पुरुषों के पास जब कोई कारागृह निर्मित होता है, तो वह करीब-करीब स्वर्ण का है। उसे छोड़ने का मन भी न होगा। उससे तुम चिपटोगे, उसे तुम पकड़ोगे। और इन कारागृहों के बाहर किसी भी संतरी को खड़ा करने की जरूरत नहीं है। तुम खुद ही भागना न चाहोगे।
इस बात को स्मरण रखना।
लेकिन मध्य का बिंदु क्या होगा? प्रभावित भी होना, अनुकरण भी मत करना। बड़ी विरोधाभासी बात है। क्योंकि तुम तो जैसे ही प्रभावित होते हो, वैसे ही अंधानुकरण पैदा हो जाता है। तुम्हारे लिए तो प्रभावित होने का अर्थ ही यह होता है कि अनुकरण करो।
बुद्ध-पुरुषों से जो भी तुम लेना, बस वैसे ही ज्योति लेना, जैसे एक दीया--बुझा हुआ दीया दूसरे जलते हुए दीये से ज्योति ले लेता है, फिर स्वयं चल पड़ता है--अपनी यात्रा पर। फिर उसकी ज्योति-धारा अपनी ही होती है; अपना ही तेल जलता है, अपना ही दीया होता है।
एक झलक, एक छलांग और आग एक दीये से दूसरे दीये में प्रवेश कर जाती है। प्रभावित होने का इतना ही अर्थ है कि बुद्ध पुरुषों के पास तुम्हारी प्यास जग जाए, आग पकड़ जाए।
जीसस ने कहा हैः ‘जो मेरे पास हैं, वे आग के पास हैं। और जो मेरे पास नहीं हैं, परमात्मा का राज्य उनसे बहुत दूर है। ... जो मेरे पास हैं, वे आग के पास हैं। जो मेरे पास नहीं हैं, परमात्मा का राज्य उनसे बहुत दूर है।’
आग के पास होना, बस, इतने ही अर्थ में उपयोगी है कि एक छलांग लगे और आग तुम्हें पकड़ जाए। लेकिन तुम नकल मत करना, क्योंकि नकल की आग झूठी होगी। उसे तुम ऊपर से तो धारण करोगे, भीतर तुम अंधेरे रहोगे।
कितना आसान है--बुद्ध-पुरुषों जैसे वस्त्र पहन लेना। कितना आसान है--उनके जैसे उठना, बैठना, चलना, और कितना कठिन है, उनके जैसा हो जाना! वह जो भीतर है, वह जो जीवंत ज्योति भीतर है, उसके जैसा हो जाना अति कठिन है। इसलिए हम सुगम मार्ग खोजते हैं।
मन सदा ही लीस्ट रेसिस्टेंस--जहां कम से कम असुविधा हो, उसको चुनता है। असुविधा इसमें कुछ भी नहीं है कि तुम बुद्ध जैसा वस्त्र पहन लो, कि तुम बुद्ध जैसे उठो--बैठो; बुद्ध जो भोजन करें, तुम भी करो; बुद्ध जब सोएं, तब तुम भी सो जाओ। तुम बाहर से बिल्कुल अभिनय करो।
अभिनेता हो जाना सबसे सरल है। लेकिन अभिनेता प्रामाणिक नहीं है। अभिनेता एक झूठ है। और तुम भलीभांति जानते रहोगे कि अभिनय बाहर-बाहर है। भीतर तुम्हें अपना अंधकार, अपनी नग्नता, अपनी सड़ी-गली स्थिति दिखाई पड़ती रहेगी।
तुम उसे कैसे छिपाओगे? वस्त्र कितने ही सुंदर हों, और आभूषण कितने ही मूल्यवान, लेकिन तुम्हारे भीतर के नासूर उनसे मिटेंगे नहीं, छिपेंगे भी नहीं।
तो बुद्ध-पुरुषों से यह सीखना कि तुम अपने मार्ग पर कैसे चलो। बुद्ध-पुरुषों से अनुकरण मत सीखना। उनसे तुम यह सीखना कि तुम्हारा बुद्धत्व कैसे जगे। आंख बंद करके अंधे की भांति उनके पीछे मत चलना। क्योंकि उनका मार्ग, तुम्हारा मार्ग कभी भी होने वाला नहीं है। इसलिए जो अनुकरण करेगा, वह भटक जाएगा। यह पहली बात समझ लें।
और दूसरी बात यह समझ लेकिन केवल तुम आचरण में अनुकरण करते हो, तुम ज्ञान में भी पुनरुक्ति करते हो! तुम सुन लेते हो और दुहराने लगते हो। तुम्हारा दुहराया हुआ, तुम्हारे हृदय से नहीं आता है--तुम्हारे कंठ तक से नहीं आता। बस, तुम्हारे ओंठों पर ही होता है। तुम्हारे कान तुम्हारे ओंठों को दान देते रहते हैं। तुम सुनते हो और तुम्हारे ओंठ बोलते रहते हैं। तुम्हारे कान और तुम्हारे ओंठ के बीच सीधा द्वार है। तुम्हारे हृदय को वह द्वार छूता भी नहीं है।
तुम जो बुद्ध-पुरुषों से सुनो, तुम बुद्ध-पुरुषों के संबंध में सुनो, उसे तुम दुहराना मत। तुम तोते मत बन जाना। तुम उसे हृदय से गुजरने देना। और जब भी कोई ज्ञान की किरण हृदय से गुजरती है, तब वह तुम्हारी अपनी हो जाती है। तब तुम दुहराते नहीं हो, तब तुम्हारा जानना बाधा नहीं होता। तब उसमें वही ताजगी होती है, जो सुबह की पहली किरण में होती है; वही नयापन होता है, जो सुबह की ओस में होता है।
शास्त्रों से जिसने सुन लिया, सदगुरुओं से जिसने सुन लिया और फिर उसे दुहराने लगा, वह पंडित हो जाएगा--ज्ञानी नहीं। और पंडित मार्गच्युत है; उसका रास्ता खो गया है। अज्ञानी भी पहुंच जाएंगे, पंडित कभी पहुंचते नहीं सुने गए हैं।
अब हम इस छोटी सी वार्ता में प्रवेश करें।
एक शिष्य ने गुरु उमोन से कहा, ‘बुद्ध का प्रकाश समस्त विश्व को प्रकाशित करता है। बुद्ध की प्रज्ञा सारे जगत को आलोकित करती है।’
पढ़े होंगे कहीं उसने ये शब्द, क्योंकि कहां हैं वे आंखें, जो देख पाएं कि ‘बुद्ध का प्रकाश समस्त जगत को प्रकाशित करता है?’ और जो यह देख लेगा, वह स्वयं ही बुद्ध हो गया। कहां है वह हृदय, जो अनुभव कर पाए कि ‘बुद्ध की प्रज्ञा सारे जगत को आलोकित करती है?’ और जिसने यह अनुभव कर लिया, वह स्वयं ही बुद्ध हो गया।
बुद्ध हुए बिना बुद्धत्व की घटना को समझना आसान नहीं है। बौद्ध होने से न चलेगा; ‘बुद्ध’ होना पड़ेगा। जैन होने से नहीं चलेगा; ‘जिन’ होना पड़ेगा। क्रिश्चियन होने से काम चलता होता, तो आधी दुनिया स्वर्ग में प्रवेश कर गई होती; ‘क्राइस्ट’ होना पड़ेगा।
क्रिश्चियन होना कितना आसान है, क्राइस्ट होना कितना मुश्किल है! क्रिश्चियन होने में कुछ भी तो नहीं खोना पड़ता है। वह सौदा बिल्कुल सस्ता है। तुम गंवाते कुछ भी नहीं हो और पाने की पूरी आशा है। दांव पर तुम कुछ भी नहीं लगाते और जीत का पूरा सपना है!
जीसस ने कहा हैः ‘जो समझना चाहें, उसे--जिसकी मैं बात कह रहा हूं, उसे मेरे ही जैसे सूली अपने कंधों पर ढोनी पड़ेगी।’ और जीसस ने कहा हैः ‘जब तक सूली पर न लटक जाओ, तब तक वह स्वर्ग का राज्य तुम्हारे लिए खुलेगा नहीं।’
बड़ी विचित्र घटना मनुष्य के इतिहास में घटती है। जीसस को ढोनी पड़ी अपनी सूली गोलगोठा तक--जहां उनको सूली लगाई गई। जिस कारागृह में उन्हें बंद किया गया था, उस कारागृह से जब सिपाही उन्हें ले चले, तो उन्होंने उनकी सूली को उनके ही कंधे पर रख दिया। जीसस गोलगोठा की पहाड़ी पर चढ़ रहे हैं--पसीने से लथपथ। लोग पत्थर फेंक रहे हैं, गालियां दे रहे हैं। और जीसस सूली भी अपनी, अपने कंधे पर ढो रहे हैं।
फिर ईसाई पादरी हैं, पुरोहित हैं; वे भी सूली अपने कंधे पर टांगे हुए हैं। उनकी सूली स्वर्ण की है। ईसाई पादरी सोने का क्रास अपने गले में लटकाए हुए हैं! एक सूली थी लकड़ी की, जो भारी थी, वजनी थी; पहाड़ की चढ़ाई थी, चारों तरफ अपमान और गाली थी। और अपनी ही सूली पर क्षण भर बाद जीसस को लटक कर मर जाना था। और एक सूली सोने की है, जो बड़ी कीमती है; जो भारी नहीं है; और जिसके कारण अपमान नहीं मिलता, प्रतिष्ठा मिलती है, सम्मान मिलता है, सत्कार मिलता है!
आदमी बड़ा कुशल है, लकड़ी की असली सूलियों को सोने की नकली सूलियों में बदल लेता है। क्रिश्चियन होना हो तो यह ठीक है, लेकिन क्राइस्ट होने के लिए यह काफी नहीं है। शायद क्राइस्ट होने के लिए यही बाधा है।
जब उमोन के शिष्य ने यह कहा, तो उमोन को देखने में क्षण भर भी देर न लगी होगी। देखने की जरूरत भी नहीं है। ज्ञानी-पुरुष के सामने अगर तुम उधार ज्ञान प्रकट करो, तो वह आंखें बंद किए भी देख लेगा। टटोलने की भी जरूरत नहीं है।
तुम्हारे शब्द इतने बासे और सड़े होते हैं, ऐसे ही जैसे किसी चेहरे पर रंग-रोगन किया गया होता है। उससे किसको धोखा होता है? कौन धोखे में पड़ता है? शायद तुम ही दर्पण के सामने खड़े होकर अपने को सुंदर समझ लेते हो, तो बात दूसरी है। अन्यथा तुम्हारे चेहरे पर लगा हुआ रंग-रोगन, सिर्फ तुम्हारी कुरूपता का प्रदर्शन होता है।
उमोन को देखने में क्षण भर की भी देर न लगी होगी कि ये शब्द किसी और के हैं। ये होंगे ही--किसी और के। क्योंकि उस शिष्य को वह भलीभांति जानता है। जो अभी अंधेरे में भटक रहा है, उसे कैसे दिखाई पड़ा कि ‘सारा जगत बुद्ध के प्रकाश से आलोकित है?’ और जिसके हृदय की पहली धड़कन भी अभी नहीं खुली, उसे कैसे समझ में आया कि बुद्ध की प्रज्ञा से सारा जगत आंदोलित है?
ये शब्द उधार हैं। उधार ज्ञान बड़ा जहरीला है। किसी और को नहीं मारता है, तुम्हीं को मारता है। तुम ही उधार ज्ञान के नीचे दबते हो, सड़ते हो, भटकते हो।
अज्ञान नहीं भटकाता है, उधार ज्ञान निश्चित भटकाता है। अज्ञान तो विनम्र होता है कि ‘मुझे पता नहीं है।’ इसलिए जानने की संभावना रहती है। उधार ज्ञान विनम्र नहीं होता है; उधार ज्ञान अकड़ से भरा होता है कि ‘मुझे पता है।’
और जब इस शिष्य ने कहा होगा उमोन के सामने कि ‘बुद्ध का प्रकाश समस्त विश्व को प्रकाशित करता है; बुद्ध की प्रज्ञा सारे जगत को आलोकित करती है’, तो बड़ी अकड़ से कहा होगा। लेकिन अकड़ न हो, तो ऐसे शब्द कहे ही नहीं जा सकते।
और उमोन के सामने इन शब्दों को कहने की जरूरत क्या थी? उमोन खुद बुद्धपुरुष है। उमोन के सामने ये शब्द शिष्य कह रहा है--ज्ञान के प्रदर्शन के लिए। वह बताना चाहता है कि उमोन स्वीकार करे कि मैं भी जानता हूं, मुझे भी पता है। यह एक आत्म-प्रदर्शन है।
लेकिन उमोन जैसे गुरुओं से बचने का उपाय नहीं है। वे तुम्हें वहां तक देख लेंगे, जहां तक तुमने भी स्वयं को नहीं देखा है। तुम उनके पास जाते हो, तो वे तुम्हारे आर-पार देख पाते हैं। तुम उनके लिए ट्रांस्पेरेंट हो। तुम्हारे छिपने का कोई उपाय नहीं है। तुम्हारी सब नग्नता उनके सामने उघड़ जाती है।
काश! यह शिष्य चुप बैठा रहता, तो बेहतर था। बोल कर ही यह फंसा।
ज्ञानियों ने कहा है कि ज्ञानी तो ‘चुप हो’ जाते हैं। अज्ञानी को ‘चुप रहना’ चाहिए। ज्ञानी चुप हो जाते हैं, अज्ञानी को चुप रहना चाहिए; क्योंकि अज्ञानी बोला कि फंसा। तुम बोले नहीं, कि तुम गलत हुए नहीं। तुम्हारे मौन में तुम ठीक हो। लेकिन बोलते ही तुम उपद्रव मोल लेते हो।
ज्ञानी चुप हो जाते हैं, अज्ञानी को चुप्पी साधनी चाहिए। और सदगुरुओं के पास--उमोन जैसे सदगुरुओं के पास अगर तुम बोल रहे हो, तो तुम बिल्कुल पागल हो। उनके पास बोल कर तुम क्या सीखोगे? उनके पास बोल कर तुम भटकोगे। उनके पास तुम्हें ऐसे हो जाना चाहिए, जैसे तुम हो ही नहीं। ताकि तुम्हारे न--होने में उनका होना पूरा का पूरा परिव्याप्त हो सके, ताकि तुम्हारी शून्यता उनकी ध्वनि से भरे, ताकि तुम्हारे निर्जन एकांत में उनका प्रकाश तुम्हें जगा सके।
जब तुम बोलते हो, ध्यान रहे--बोलना और चुप होना विपरीत प्रक्रियाएं हैं। जब तुम बोलते हो, तब आक्रमण है। जब तुम चुप होते हो, तब ग्रहण है। गुरु बोले--समझ में आता है, क्योंकि तुम्हारे भीतर कुछ मिटाना है, तोड़ना है। गुरु आक्रामक होगा, अन्यथा वह तुम्हें बदल भी न पाएगा। शिष्य बोले--समझ में नहीं आता है। क्योंकि शिष्य अगर बोले, तो ग्रहण बंद हो जाता है। तब यह रिसेप्टिव नहीं है, तब वह आक्रामक हो गया।
उमोन के सामने ‘चुप’ होना था। उमोन के सामने बोल कर तुम सिर्फ अपना अज्ञान ही प्रकट करोगे। लेकिन चुप होना बड़ा कठिन है।
मैंने सुना हैः रमजान के दिन थे। लोग उपवास कर रहे थे और दिन-दिन भर लोग मस्जिदों में नमाज पढ़ रहे थे। रमजान के दिनों में मस्जिदों में चुप होना जरूरी है। जहां भी धर्म है, वहां चुप होना जरूरी है। क्योंकि तुम जब तुम चुप हो, तभी धर्म बोल पाता है। जब तुम बोलते हो, तब धर्म चुप हो जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन भी मस्जिद गया था। जाना तो नहीं था, जाने का कोई मन भी न था, लेकिन प्रतिष्ठा का सवाल था। जो मस्जिद न जाएगा--रमजान के दिनों में--गांव उसे अधार्मिक मानता है। और अधार्मिक होना जरा महंगा सौदा है।
रेस्पैक्टीबिलिटी चाहिए--समाज में जीना हो, तो धार्मिक होना--कम से कम दिखाई पड़े, इतना तो चाहिए। क्योंकि जब तुम्हें लोग धार्मिक समझते हैं, तब तुम धोखा आसानी से दे सकते हो। जब लोग तुम्हें अधार्मिक समझते हैं, तब तुम्हारी दुकान का चलना बहुत मुश्किल हो जाता है। चोर को भी यहां मस्जिद में जाकर नमाज पढ़नी पड़ती है। बेईमान को भी मंदिर की तरफ जाना पड़ता है। इससे बेईमानी करने में सुविधा होती है।
सारा गांव जा रहा था, तो मुल्ला नसरुद्दीन को भी जाना पड़ा। एक कोने में बैठकर वह भी आंख बंद करके नमाज कर रहा है। उसके पास बैठे एक आदमी ने कहा--बोलना नहीं था, नियम के विपरीत था--उस आदमी ने कहा, ‘पता नहीं, मैं घर में ताला लगा पाया या नहीं।’ दूसरे आदमी ने सुना, उसने कहा, ‘बोले! सब खराब कर डाला। अब फिर से नमाज पढ़नी पड़ेगी।’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘थैंक गॉड। आई हैव नॉट स्पोकन येट, परमात्मा का धन्यवाद। मैं अभी तक नहीं बोला; मैं चुप ही हूं।’
वह जो आक्रामक चित्त है, वह बोलता ही चला जाता है। उसे होश भी नहीं है कि वह बोल रहा है। जब तुम बाहर से चुप दिखाई पड़ते हो, तब भी वह भीतर बोलता जाता है। उमोन के सामने बोलने की कोई जरूरत न थी। उमोन के सामने तो मस्जिद में हो। वह तो नमाज वक्त है। मंदिर में हो; वह तो पूजा का स्थल है, वहां तुम्हें चुप होना चाहिए। गुरु के पास केवल वही पहुंच पाता है, जो चुप है।
देखा होगा उमोन ने कि बोलता है! निश्चित ही उधार बोल रहा है।
लेकिन वह अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया और गुरु ने कहा, ‘आह! क्या तुम किसी दूसरे की पंक्तियां नहीं दुहरा रहे हो?’
बात अभी भी पूरी नहीं हो पाई थी, इसलिए यह निर्णय बात को सुन कर नहीं लिया गया है। क्योंकि बात को अगर सुनकर निर्णय लेना था, तो कम से कम शिष्य को पूरा बोल तो लेने देते! अभी वह क्या कहना चाहता था, यह भी पूरा नहीं हो पाया है। अभी उसने पंक्ति शुरू ही की थी। लेकिन उमोन को निर्णय--कोई सुन कर लेने का सवाल नहीं है। शिष्य बोला, इसी में निर्णय हो गया। शिष्य बोला, इतने में ही बात तय हो गई।
गुरु के सामने प्रदर्शन की जो वृत्ति है, वह अज्ञान से ही उठ सकती है।
गुरु के सामने अपने को ज्ञान में ढांकने की कोशिश आत्मघाती है। यह वैसे है, जैसे कोई मरीज डाक्टर के पास जाए और बीमारी बताने से इनकार करे या छिपाए। लेकिन तुम डाक्टर के पास जाकर सारी बीमारियां बता देते हो। लेकिन यही तुम गुरु के पास नहीं करते हो। गुरु के पास तुम कोशिश करते हो--दिखाने की, कि तुम स्वस्थ हो। इलाज कैसे होगा? और फिर तुम चाहते हो इलाज!
मेरा रोज का अनुभव है। मैं लोगों से पूछता हूं, ‘क्या है तकलीफ?’ वे कहते हैं, ‘कोई तकलीफ नहीं है।’ तकलीफ साफ है! तकलीफ से ज्यादा और कुछ भी साफ नहीं है। तकलीफ ही तकलीफ है। पर वे कहते हैं, ‘कोई तकलीफ नहीं है। सब ठीक है।’ अगर मैं इंगित करूं कि यह बीमारी है, तो वे बुरा मानेंगे। और अगर मैं इंगित भी करता हूं, तो मैं पाता हूं, वे इनकार करते हैं कि ‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है!’
तुम क्यों छिपाते हो--अपने को? और बीमारियां कहीं छिपाने से मिटी हैं? उन्हें उघाड़ना ही होगा। और जहां सर्जरी करनी हो, वहां उन्हें पूरा ही उघाड़ना होगा; उनकी जड़ तक जाना होगा। और तुम्हारी हड्डियों तक जड़ है। तुम्हारी मांस-मज्जा--सभी में जड़ है। तुम्हारी पूरी भूमि को खोदना पड़ेगा; तुम्हारी बीमारियों के बीज मूल से अलग करने होंगे।
तुम छिपाओगे तो कैसे होगा? लेकिन तुम शरीर के संबंध में ज्यादा होशियार हो। तुम चिकित्सक के पास जाकर सब खोल कर बता देते हो। आत्मा के संबंध में तुम्हारी होशियार इतनी नहीं है; तुम छिपाते हो।
मैंने सुना है, स्टैलिन के संबंध में एक कहानी प्रचलित है। उसकी पुलिस--खुफिया पुलिस का प्रधान था--बेरिया। और स्टैलिन उसकी परीक्षा लेना चाहता था कि वह योग्य भी है या नहीं। एक सांझ वह मास्को में गया, कार में बैठ कर--बिना किसी को बताए। और वह सौ कार्ड टाइप किए हुए, मास्को की अलग-अलग सड़कों पर फेंक आया। किसी कार्ड में लिखा थाः ‘स्टैलिन बदमाश है।’ किसी कार्ड में लिखा थाः ‘स्टैलिन पागल है।’ किसी कार्ड में लिखा थाः ‘स्टैलिन व्यभिचारी है।’ किसी कार्ड में कुछ। स्टैलिन को जितनी गालियां दी जा सकती थीं, सब सौ कार्डों पर लिख कर वह जगह-जगह फेंक आया।
सुबह स्टैलिन उठा ही था, चाय पी ही रहा था कि बेरिया मौजूद हुआ। उसने सौ कार्ड टेबल पर लाकर रख दिए। स्टैलिन भीतर खुश हुआ कि आदमी कुशल है। ऊपर से नाराजगी दिखाई और कहा, ‘ये किसने लिखे हैं? कौन है, उसे पकड़ो। क्या तुमने पता लगाया है कि यह कौन आदमी है, जिसने ये कार्ड शहर में फेंके हैं?’ बेरिया ने कहा, ‘महानुभाव वह आप ही हैं।’ तब तो स्टैलिन भीतर और भी खुश हुआ। उसने कहा, ‘लेकिन तुमने पता कैसे लगाया?’ बेरिया ने कहा, ‘आपके संबंध में इतनी सही बातें आपके सिवाय और किसी को पता भी कैसे हो सकती हैं!’
लेकिन जब तुम गुरु के पास जाते हो, तो जो तुम्हें भी पता नहीं है, वह भी उसे पता हो जाता है। गुरु का अर्थ ही है कि वह एक्सरे है; वह तुम्हें आर-पार देखेगा। नहीं तो वह गुरु ही नहीं है। तुम्हारे कहने के लिए थोड़ी प्रतीक्षा करेगा, कि जब तुम कहोगे, तब वह पहचानेगा।
गुरु कोई एलोपैथिक डाक्टर नहीं है कि तुम कहोगे, तब पहचानेगा। वह पुराना आयुर्वेदिक है। तुम कमरे में प्रवेश नहीं किए कि उसने जाना कि कौन सी बीमारी है। तुमने सांस नहीं ली कि उसने पहचाना कि कौन सा रोग है। उसने तुम्हारी आंखों में देखा नहीं कि पकड़ा।
पुराने आयुर्वेदिक वैद्य का यही लक्षण था कि वह तुमसे पूछे न। तुमसे पूछा तो क्या वैद्य! तुमसे पूछा, फिर निदान किया, तो क्या वैद्य? बीमार से पूछकर क्या निदान होगा!
एलोपैथी मरीज को पूछती है; आयुर्वेद मरीज को ‘देखता’ है। गुरु आयुर्वेदिक है--एलोपैथिक नहीं। तुम गए नहीं कि उसने पहचाना नहीं। तुम्हारा उठाना, तुम्हारा बैठना, तुम्हारी आंखें सब कह रही हैं। क्योंकि तुम एक खुली हुई अभिव्यक्ति हो। तुम पूरे क्षण अपने आपको ब्राडकास्ट कर रहे हो और कोई उपाय भी नहीं है।
तुम्हारी झिझक, तुम्हारी अकड़, तुम्हारा अहंकार, तुम्हारी झूठी विनम्रता, तुम्हारी छिपाने की कोशिश--सब प्रकट कर रही है। तुम प्रतिक्षण अपनी घोषणा कर रहे हो। तुम्हारी घोषणा एक क्षण को भी रुकती नहीं है; वह जारी है।
उमोन ने बात पूरी सुनी भी नहीं और बोला, ‘आह! तो क्या तुम किसी दूसरे की पंक्तियां नहीं दुहरा रहे हो?’ अभी पंक्तियां कही भी नहीं गई थीं। लेकिन पंक्तियां कहने की जरूरत नहीं है। तुम झूठे हो; तुम दुहराओगे। तुम्हारे ओंठ झूठे हैं, उन पर जो भी आएगा, वह दुहराया हुआ होगा। तुम्हारी आंखें झूठी हैं, उनसे तुम जो भी देखोगे, वह प्रवंचना होगी।
शिष्य झिझका। अभी तो बात पूरी भी न हुई थी और निर्णय हो गया। शिष्य झिझका... ! अभी उसने सोचा भी नहीं था कि पकड़ा जाएगा और पकड़ लिया गया।
तो उमोन ने उसकी आंखों में गौर से देखा, ध्यान से देखा। क्योंकि जब तुम झिझकते हो, तब तुम्हारे जीवन की सरिता पूरी की पूरी झकझोर उठती है। जब तुम झिझकते हो, तब तुम्हारे चित्त का पूरा दर्पण कंप उठता है। क्योंकि झिझकने का क्या अर्थ होता है? --झिझकने का अर्थ होता है कि तुम्हारे भीतर द्वैत है, द्वंद्व है। एक हिस्से पर तुम जानते हो कि गुरु ने जो कहा, वह ठीक है। और दूसरे हिस्से पर तुम झुठलाना चाहते हो कि ‘नहीं, यह ठीक नहीं है।’ तुम दो हो गए। जहां तुम दो हुए, वहां तुम झिझके। जहां तुम एक हो, वहां झिझक नहीं है।
तुम जितने बंटे हो, उतनी झिझक होगी। तुम जितने अनबंटे हो, उतनी झिझक नहीं होगी। जब तुम एक होते हो, तब कोई झिझक नहीं होती है।
इस झिझक के आधार पर पश्चिम में लाई डिटेक्टर विकसित किया गया है। अब तो अदालतों में उसका उपयोग करते हैं--झूठ पकड़ने के लिए। लेकिन सदगुरु सदा से जानते रहे हैं कि झिझक द्वंद्व की खबर है।
अभी पिछले पचास वर्षों में वैज्ञानिकों ने एक यंत्र विकसित किया है। तुम्हें पता नहीं होता; अदालत में तुम जाते हो; तुम मंच पर खड़े किए गए--कटघरे में--और तुमसे कुछ पूछा गया है। नीचे यंत्र लगा हुआ है। वह यंत्र तुम्हारी झिझक पकड़ेगा। जब भी तुम झिझकोगे, तब वह यंत्र खबर दे देगा कि यहां यह आदमी झिझका। और जहां तुम झिझके, वहीं झूठ है।
जब तुम झिझकते हो, तो तुम्हारे हृदय की धड़कन एक क्षण को रुक जाती है। एकाध धड़कन बीच में खो जाती है। गैप बड़ा होता है। जब तुम झिझकते हो, तब तुम्हारे खून की गति बदल जाती है। जब तुम झिझकते हो, तब तुम्हारे मन में एक झंझावात आ जाता है। जब तुम झिझकते हो, तब तुम्हारे भीतर दो उत्तर होते हैं--हां भी और न भी।
जैसे कि तुम खड़े हो अदालत में और तुमसे पूछा गया, ‘इस समय घड़ी में कितना बजा है?’ झिझकने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि घड़ी में अगर नौ बजा है, तो नौ बजा है। घड़ी अदालत में लगी है। तुम कहते हो, ‘नौ बजे हैं।’ तुम्हारा उत्तर इकहरा होता है। तुम्हारे भीतर कोई भी नहीं कहता है कि ‘नौ नहीं बजे हैं।’ तुम दो नहीं होते।
फिर तुमसे पूछा गया, ‘अदालत में कितने लोग हैं?’ तो तुम गिनती करके बात देते हो, कि दस लोग हैं। कोई झूठ का कारण नहीं है। नीचे मशीन तुम्हारे हृदय की धड़कन को, तुम्हारे श्वासों की गति को, तुम्हारे खून के प्रवाह को, तुम्हारे व्यक्तित्व की बेझिझक स्थिति को अंकित कर रही है। जैसे कार्डियोग्राम करता है, वैसे ही; नीचे लकीरें बन रही हैं। तुम एक स्वरबद्ध हो।
फिर तुमसे पूछा गया, ‘क्या तुमने हत्या की?’ एक झटका लगा। तुम जानते हो कि तुमने की इसलिए कोई उपाय नहीं है कि तुम्हें झटका न लगे। तुम भलीभांति जानते हो कि तुमने हत्या की है। इसलिए तुम्हारे भीतर का प्राण तो कहता हैः ‘हां।’ परंतु तुम भलीभांति जानते हो कि अगर तुमने ‘हां’ कहा, तो तुम्हारी मौत करीब है। तो तुम्हारा मन कहता है--‘नहीं।’ तुम्हारा हृदय कहता है--‘हां।’ भीतर एक द्वंद्व खड़ा हो जाता है। एक ही साथ विपरीत उत्तर आते हैं। इन विपरीत उत्तरों के कारण नीचे की मशीन अंकित करती है कि तुम डांवाडोल हो गए, झिझक गए। बस इसी बिंदु पर तुम पकड़ लिए जाते हो।
जब भी तुम झूठ बोलते हो, तब तुम झिझकते हो। इसलिए जो लोग झूठ बोलते हैं--निरंतर, अगर वे हृदय की बीमारी से पीड़ित हों, तो आश्चर्य नहीं है। क्योंकि निरंतर अगर इस तरह के झटके लगेंगे, तो हृदय की बीमारी बढ़ जाएगी।
दुनिया में जितना झूठ बढ़ा है, उतनी हृदय की बीमारी बढ़ी है। गांव के गरीब आदिवासी हृदय की बीमारी से नहीं मरते। जितना सफल आदमी होगा, उतना ज्यादा हृदय की बीमारी से मरता है। पोलिटीशियन, बड़ा राजनीतिज्ञ, बड़ा नेता, बड़ा धनपति--ऐसे लोग हृदय की बीमारी से मरते हैं। कारण साफ-साफ हैः इतना झूठ बोलना पड़ता है! सुबह से शाम तक झूठ ही झूठ बोलना पड़ता है। हृदय को इतने धक्के लगते हैं कि हृदय की जो सहज स्वाभाविकता है, वह नष्ट हो जाती है।
पश्चिम में तो एक मजाक है अब, कि जो व्यक्ति चालीस या पैंतालीस साल की उम्र तक हृदय के आघात से पीड़ित नहीं हुआ, उसका जीवन बेकार गया। वह सफल आदमी नहीं है। वह असफल है।
एक राजनीतिज्ञ चुनाव के लिए खड़ा हुआ था। वह मुझसे पूछने आया कि ‘क्या मैं उसे वोट करूंगा?’ तो मैंने कहा, ‘तुम जरा देर से आए। तुम्हारा विरोधी पहले आ गया। और मैंने उसे वचन दे दिया है।’ उस राजनीतिज्ञ ने कहा, ‘आप भी कहां की बातों में पड़े हैं! राजनीति में वचन देना और उसे पालन करने का कोई सवाल नहीं है। वचन और कृत्य में राजनीति में बड़ा फर्क है।’ तो मैंने उससे कहा, ‘अगर यह नियम है, तो मैं तुम्हें भी वचन दे देता हूं। तब कोई अड़चन नहीं है!’
राजनीति झूठ का जाल है; बाजार भी झूठ का जाल है। वहां सफल होने का अर्थ है--हृदय की दुर्बलता को खरीद लेना। सफल व्यक्ति हृदय की बीमारी से मरेंगे।
सदगुरु के सामने तुम जैसे ही झिझके, तुम्हारी चेतना में जरा सा कंपन हुआ कि उसे अनुभव होता है। सदगुरु से ज्यादा बड़ा ‘लाई डिटेक्टर’ खोजना बहुत मुश्किल है। लाई डिटेक्टर को तो धोखा भी दिया जा सकता है। कुछ लोगों ने धोखा देकर दिखाया है। क्योंकि अगर तुम ठीक से अभ्यास करो, तो तुम धोखा दे सकते हो। मशीन मशीन है। और जो बहुत ख्यातिनाम चोर हैं, वे उस पर अभ्यास करेंगे ही, क्योंकि आज नहीं कल अदालत में अगर मशीन ही पकड़ने वाली है, तो मशीन पर अभ्यास किया जा सकता है। निरंतर अभ्यास से ऐसी स्थिति आ सकती है कि मशीन न पकड़ पाए। तुम झूठ इतनी सरलता से बोल सकते हो कि झटका न लगे। यह झटका इतना बारीक हो कि मशीन की पकड़ के बाहर हो जाए। लेकिन गुरु कोई यंत्र नहीं है। तुम कितने ही बारीक रहो, तुम पकड़ लिए जाओगे। झिझक सब कह जाएगी। झिझक सब कह जाती है।
शिष्य झिझका, तो उमोन ने उसकी आंखों में ध्यान से देखा। उमोन की यह चुप्पी शिष्य को बड़ी महंगी पड़ी होगी--बड़ी गहरी हुई होगी। शिष्य पसीने से तरबतर हो गया होगा। बहुत बार मन हुआ होगा कि कह दे कि ‘नहीं, ये मेरे ही वचन हैं। यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं।’ इसीलिए गुरु ने आंख में गौर से देखा। ताकि शिष्य को धोखा देने की संभावना न रहे।
जब कोई ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति, कोई प्रबुद्ध-पुरुष आंख में गहरे देखता है, तो तुम्हारे झूठ की तरफ झुकने की संभावना कम हो जाती है। वह तुम्हें धक्का दे रहा है--सत्य की तरफ। उसका ध्यान तुम्हें सहारा दे रहा है--ध्यानी होने की तरफ। उसकी सच्चाई तुम्हें सरका रही है--सच्चाई की तरफ।
उमोन ने ध्यान से देखा। घबरा कर शिष्य ने कहाः ‘हां।’ यह ‘हां’ भी घबड़ाहट में ही निकला। वह डर गया होगा। उसे यह भी समझ में आया होगा कि बात तो पकड़ ली गई है। पहचान तो मैं लिया गया हूं। धोखा अब दिया नहीं जा सकता।
मुल्ला नसरुद्दीन एक बार पकड़ा गया। चोरी का मामला था। उसने चारों तरफ देखा। जूरी में बारह स्त्रियां थीं। उसने मजिस्ट्रेट से कहा, ‘मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूं।’ मजिस्ट्रेट ने कहा, ‘लेकिन अभी हमने कुछ पूछा ही नहीं है। तुमने अपराध स्वीकार कर लिया!’ उसने कहा, ‘अपने घर मैं एक औरत को धोखा नहीं दे पात हूं, यहां बारह हैं। यह असंभव है। पहले से ही स्वीकार कर लेना ठीक है।’
अगर कोई तुम्हारी आंखों में गौर से देखे, तो धोखा देना मुश्किल हो जाता है। पुरुष स्त्रियों को धोखा नहीं दे पाते। कारण क्या होगा? बहुत कोशिश करते हैं, लेकिन स्त्री बुनियादी रूप से पकड़ लेती है। कारण है--स्त्री का प्रेम। वह तुम्हें सीधी आंख में देख सकती है।
क्या तुमने कभी ख्याल किया कि जब भी तुम प्रेमपूर्ण नहीं होते, तो तुम दूसरे की आंख में देखने से बचते हो। या जब भी तुम झूठे होते हो, तब तुम इस बाजू, उस बाजू देखते हो; तुम सीधा नहीं देखते। पति को पता भी नहीं कि जब भी वह सीधा नहीं देखता, तभी पत्नी उसको पकड़ लेती है कि मामला कुछ गड़बड़ है--पति यहां-वहां देखता है!
आंख दर्पण है। और आंख में सब कुछ है। तुम्हारा पूरा व्यक्तित्व है। स्त्रियां आंख देखने में कुशल हैं। तुम्हारा पूरा शरीर धोखा दे सकता है, क्योंकि वह बहुत स्थूल है। आंखें बहुत सूक्ष्म हैं; वे धोखा नहीं दे सकतीं। और आंखों को धोखा देना सिखाना बड़ी लंबी प्रक्रिया है--कि आंखें भी धोखा दें।
और चूंकि स्त्री तुम्हें प्रेम करती है, इसलिए तुम धोखा नहीं दे पाते। गुरु को तो तुम धोखा दे ही नहीं पाओगे, क्योंकि उस जैसा प्रेम तुम्हें कोई भी नहीं कर सकता। वह असंभव है, वह घटना कभी नहीं घटी। इस जगत के सभी प्रेम बहुत छोटे-छोटे हैं; गुरु के प्रेम का तो कोई मुकाबला नहीं है।
गुरु के सामने तुम, तुम्हारा पूरा व्यक्तित्व ही आंख जैसा--निर्मल दर्पण की तरह साफ दिखाई पड़ने लगता है। तुम सब तरफ से दिखाई पड़ते हो। तुम यहां-वहां देख कर भाग नहीं सकते हो। तुम कहीं भी भागोगे, गुरु से बचना असंभव है। एक बार तुम गुरु के पास पहुंच जाओ, तो भागने का उपाय नहीं है। वह तुम्हारा पीछा करेगा।
शिष्य ने घबड़ा कर कहा, ‘हां।’ चाहा तो होगा कि कह दे ‘नहीं।’ इसलिए घबड़ाहट पैदा हुई। क्योंकि जब तुम सत्य को स्वीकार करने को जो राजी होते हो, तो कोई घबड़ाहट पैदा नहीं होती है। घबड़ाहट पैदा ही तब होती है, जब तुम सत्य को स्वीकार करने को राजी नहीं होते हो। जब तुम सत्य को स्वीकार करते हो, तब तुम क्यों घबड़ाओगे? घबड़ाना किससे है?
सब घबड़ाना--अपने ही झूठ से घबड़ाना है। इसलिए जो आदमी झूठ बोल रहा है वह न तो ठीक से सो सकता है, न आराम कर सकता है, न ध्यान कर सकता है, न प्रेम कर सकता है। क्योंकि ये सब चीजें तभी संभव हैं, जब घबड़ाहट न हो। जो आदमी झूठ बोल रहा है, वह प्रतिपल घबड़ाया हुआ है।
सत्य धर्म है--इसलिए नहीं कि सत्य से भविष्य से स्वर्ग मिलेगा; सत्य धर्म है--इसलिए कि सत्य के कारण तुम्हें यहीं और अभी स्वर्ग मिल जाएगा। झूठ पाप है--इसलिए नहीं कि नरक ले जाएगा; झूठ में तुम हुए कि तुम नरक में पहुंच ही गए। झूठ में जीने वाला व्यक्ति प्रतिपल नरक में जीता है। कोई दूसरा पैदा नहीं करता नरक। तुम्हारा झूठ ही तुम्हारे व्यक्तित्व को इतनी घबड़ाहट से भर देता है कि तुम नरक में जीते हो।
नरक का अर्थ है--घबड़ाए हुए जीना। स्वर्ग का अर्थ है--निश्चित जीना। स्वर्ग का अर्थ है--ऐसे जीना कि जीवन में, जीवन के अंतस्तलों में जरा सी भी लहर बेचैनी की न हो; एक गहन विश्राम हो।
जीसस अपने शिष्यों को बार-बार कहते हैं, ‘आओ मेरे पास, मैं तुम्हें विश्राम दूंगा।’ कैसे जीसस विश्राम देंगे? सत्य विश्राम का मार्ग है--झूठ तनाव का।
लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं, ‘मेरे मन में बड़ा तनाव है। मन में बड़ी बेचैनी है। आप कुछ करें।’ मन में तनाव है--इसका मतलब है, तुम झूठ हो। अब मैं क्या करूं! मन में बेचैनी है, तो उसका अर्थ है कि तुम जो भी कर रहे हो, उससे जीवन तुम्हारा कंपित हो रहा है। और अगर मैं उनसे कहूं कि तुम वह सब छोड़ दो, जिससे जीवन में बेचैनी है, तो वे कहते हैं, ‘यह तो मुश्किल है। आप ऐसी कोई तरकीब बताएं कि मैं शांत हो जाऊं।’
इस फर्क को आप समझ लें।
अशांत न हों, उसकी तरकीब है। शांत होने की कोई तरकीब नहीं है। स्वस्थ होने की कोई तरकीब नहीं है दुनिया में; बीमारी कैसे न हों--इसकी तरकीब है। बस, जो बीमार नहीं है, वह स्वस्थ है।
लेकिन तुम, अपनी बीमारी का जो-जो लाभ है, वह लेना चाहते हो और शांत भी होना चाहते हो। तुम असंभव की मांग कर रहे हो। तुम चाहते होः ‘दुकान भी चलती रहे, झूठ भी चलता रहे; धोखा भी चलता रहे और तुम शांत भी हो जाओ!’
तुम जहर भी पीना चाहते हो और मरना भी नहीं चाहते हो! तब तुम गुरुओं की तलाश में जाते हो। तुम्हारी गुरुओं से आकांक्षा यह है कि वे असंभव कर दें। तुम जहर भी पीओ और वे तुम्हें मरने भी न दें!
तुम जब भी अशांत हो, उसका अर्थ है कि तुमने व्यक्तित्व के गलत आधार रखे हैं। तुमने मकान अपना रेत पर बनाया है, इसलिए जरा से हवा के झोंके में वह कंपता है और गिरने का डर होता है। या तुमने ताश का घर बना लिया है, जो गिरेगा ही। ताश का घर बना कर कोई मुझसे पूछता है कि ‘इसको मजबूत कैसे करें!’ इसे गिरा ही दो। यह मजबूत होने वाला नहीं है। दूसरा ही घर बनाना होगा।
तुम्हारे चित्त अशांति केवल इतना ही बताती है कि तुम्हारा व्यक्तित्व गलत है।
शिष्य झिझका, घबड़ाया। घबड़ाहट में उसने कहा, ‘हां।’ उसकी ‘हां’ आधी थी। और अगर ठीक से समझो, तो यह ‘हां’ भी गुरु की आंखों ने--झांकती हुई आंखों ने निकलवा ली थी। अन्यथा वह ‘ना’ कह देता। यह ‘हां’ भी उसकी अपनी नहीं थी। क्योंकि जब तुम्हारी अपनी ‘हां’ निकलती है, तब तुम प्रसन्न हो जाते हो। ‘हां’ से बड़ी प्रसन्नता जगत में दूसरी नहीं है। क्योंकि तत्क्षण तुम एक हो जाते हो। तुम्हारे भीतर के सब द्वंद्व खो जाते हैं, जब तुम कहते हो--‘हां।’
लेकिन यह ‘हां’ भी गुरु की झांकती हुई आंखों ने निकलवाई है। गुरु देख रहा है। गुरु का देखना इतना तीखा और पैना था कि शिष्य ‘ना’, नहीं कह सका। चाहता तो ‘ना’ ही कहना था। इसलिए मजबूरी में कहा उसने--‘हां’। यह ‘हां’ बहुत आनंदपूर्ण नहीं हो सकी। उमोन बोला, ‘तब तुम मार्गच्युत हो गए।’ तुम्हारी ‘हां’ भी अधूरी है। इसलिए तुम मार्गच्युत हो गए। काश! यह ‘हां’ पूरी होती, तो भी मार्ग मिल जाता। पहले तो तुम झूठ बोले; पहले तो तुमने दूसरों के शब्द दुहराए; पहले तो तुमने जो ज्ञान तुम्हारा नहीं था, उसे अपना बताया। मैंने तुम्हारी आंखों में झांका, तो तुमने ‘हां’ कहा। वह ‘हां’ भी ऐसे, जैसे तुमने भय से कहा हो।
सुना है मैंनेः एक अदालत में एक मुकदमा है। जो मुकदमा है, वह एक कार एक्सिडेंट का है। एक गाड़ीवान अपनी गाड़ी लेकर रास्ते से जा रहा है और एक कार ने आकर उसे उलट दिया। अदालत में कार के मालिक के वकील ने इस गाड़ीवान से पूछा--जिसके हाथ-पैर टूट गए हैं, पलस्तर बंधा हुआ है, फ्रैक्चर हो गए हैं--उससे पूछा, ‘क्या तुम्हें याद है कि दुर्घटना के ठीक बाद, कार के मालिक ने तुमसे पूछा था कि, ‘चोट तो नहीं लगी।’ तो तुमने कहा था कि ‘नहीं लगी।’ और अब तुम कह रहे हो कि तुम्हें बड़ी भयंकर चोट लगी!’ उस आदमी ने कहाः ‘हां, मुझे भलीभांति याद है कि मैंने दुर्घटना के बाद कहा था कि मुझे चोट नहीं लगी। पर तुम पूरी कहानी सुन लो, फिर निर्णय लेना। मेरी गाड़ी उलटी; गाड़ी का एक बैल गड्ढे में गिरा, दूसरा बैल गिरते ही मर गया। एक बैल उलटा--चारों पैर ऊपर किए पड़ा था। सिर से लहूलुहान--खून बह रहा था। मैं भी गड्ढे में पड़ा था। हाथ-पैर टूट गए थे। उठने तक की हिम्मत नहीं थी। और तब उस कार का मालिक बाहर निकला। बैल तड़प रहा था। इसने अपनी बंदूक निकाली कार से; तड़पते हुए बैल को गोली मारी। वह वहीं ठंडा हो गया। और फिर इसने मुझसे पूछा, ‘तुम्हें भी तो चोट नहीं लगी?’ तो मैंने कहा, ‘नहीं।’ मैंने जरूर कहा थाः ‘नहीं’, लेकिन परिस्थिति... ! नहीं तो मैं आज यहां होता ही नहीं।’
इस उमोन के शिष्य ने ‘हां’ तो कहा, लेकिन गुरु की आंखों की वजह से ‘हां’ कहा। यह ‘हां’ अपने कारण न थी। इस ‘हां’ में कोई प्रसन्नता न थी, कोई प्रफुल्लता न थी, घबड़ाहट थी। शायद ‘नहीं’ कह कर ही यह ज्यादा प्रसन्न हुआ होता। क्योंकि इसके अहंकार की ज्यादा पूर्ति होती। ‘हां’ कह कर तो इसका अहंकार धूल-धूसरित हो गया। ‘हां’ कह कर तो यह फंस गया, पकड़ा गया--रंगे-हाथ पकड़ा गया। जैसे ही शिष्य ने ‘हां’ कहा, उमोन बोला, ‘तब तुम मार्गच्युत हो गए।’
कुछ समय बाद एक दूसरे गुरु शिशिन ने अपने शिष्य से पूछा, ‘किस बिंदु पर उमोन का शिष्य मार्गच्युत हुआ था?’
झेन फकीरों की यह पुरानी परंपरा है कि वे एक छोटी सी कहानी को गूंथते चले जाते हैं; सदियों तक पूछते हैं। और उस कहानी को आधार बना लेते हैं--अंतर-खोज का।
शिशिन ने अपने शिष्यों से पूछा कि ‘बताओ, किस बिंदु पर उमोन का शिष्य मार्गच्युत हुआ था?’
साधारणतः जो ऊपर-ऊपर सोचेंगे, उन्हें लगेगा कि शिष्य वहीं मार्गच्युत हो गया, जहां उसने कहा कि ‘बुद्ध का प्रकाश सारे जगत को आलोकित कर रहा है।’ उसे उधार बात दुहरानी ही नहीं थी। वहीं मार्गच्युत हो गया। यात्रा शुरू से गलत हो गई।
ऊपर से देखने पर ऐसा लगेगा। लेकिन यह ठीक नहीं है। क्योंकि, तुम चाहे कहो या न कहो... । जो उमोन के शिष्य ने कहा, वह न भी कहता, तो भी मन में उसके गूंजता रहता। वह उसकी दशा थी। वहां मार्गच्युत नहीं हुआ। वहां तो वह मार्ग पर था ही नहीं। मार्गच्युत तो कोई तब होता है, जब मार्ग पर हो। इस बात को थोड़ा ठीक से समझ लें।
मार्ग-भ्रष्ट होना सिर्फ सौभाग्यशालियों को मिलता है। तुम्हारे तो मार्ग-भ्रष्ट होने का उपाय भी नहीं है। अगर तुम मार्ग पर हो ही नहीं, तो तुम भ्रष्ट कैसे हो जाओगे? भ्रष्ट तो वह होता है, जो मार्ग पर हो--और मार्ग से भटक जाए। सिर्फ थोड़े से सौभाग्यशाली लोग मार्ग-भ्रष्ट होते हैं।
हिंदू ज्योतिष में--जहां बच्चों कि जन्म-कुंडली तय की जाती है। इस बात को सौभाग्य का लक्षण समझा जाता है कि अगर ज्योतिषी कह दे कि यह बच्चा पिछले जन्म का योग-भ्रष्ट है; यह बड़े सौभाग्य की बात है। इसका पहला तो मतलब हुआ कि यह मार्ग पर था; और भटक गया है। और जो भटक गया है, वापस पहुंच सकता है। लेकिन जो मार्ग पर रहा ही न हो, उसका पहुंचना बड़ा मुश्किल है।
पहली घटना में तो शिष्य मार्ग पर था ही नहीं। इसलिए भटकने का कोई सवाल नहीं है। खोता तो वही है, जिसे मिल गया हो। छूटता तो उसी से है, जिसके हाथ में हो। पहली स्थिति में तो शिष्य के पास कुछ था नहीं--न मार्ग था, न संपदा थी--उधारी थी। उधारी की कोई भटकन नहीं होती। बोलता, न बोलता।
भटका शिष्य कहां? भटका शिष्य वहां-जहां गुरु ने उसकी आंखों में झांका। जब गुरु आंखों में झांक रहा था, तब भी उसकी ‘हां’ पूरी नहीं हो पायी। भटका वहां। गुरु की आंखें--मार्ग थीं। गुरु की आंखों से उतरती हुई ज्योति-मार्ग थी। उस समय वह हृदयपूर्वक ‘हां’ कह सकता था और मार्ग पर हो जाता। शायद जन्मों-जन्मों की यात्रा पूरी हो जाती।
बड़ा मुश्किल है गुरु पाना, जो तुम्हारी आंखों में झांके। बड़ा मुश्किल है--गुरु पाना, जिसकी करुणा तुम्हारे भीतर उतरे और तुम्हें मार्ग पर लाने की चेष्टा करे।
वह शिष्य के भीतर झांक रहा था। वह उस क्षण को भी चूक गया, जो दुर्लभ है; जब कि रास्ता साफ था; गुरु की आंखें खुली थीं।
गुरु जब उसके भीतर झांक रहा था, तब वह गुरु के भीतर भी झांक सकता था। क्योंकि वह मिलन का क्षण था। लेकिन गुरु को उसकी आंखों में झांकता रहा; रास्ता साफ रहा; वह बच गया। उसने ‘हां’ भी कहा, तो आधे मन से कहा--यहां-वहां देख कर कहा। सीधा गुरु की आंखों में नहीं देखा।
जरूरत भी न थी, ‘हां’ कहने की। यदि वह गुरु की आंखों में ही ठीक से देख लेता, तो गुरु उसे सुन लेता--जो नहीं कहा गया। यह कहा हुआ बेकार था, अधमरा था। इसमें कोई प्राण न थे। वह कह रहा था--बेबसी में; क्योंकि गुरु सामने था और वह बच नहीं सकता था। मुसीबत थी; गुरु एक कोने में ले आया था। और ‘हां’ कहना ही पड़ा। यह ‘हां’ हृदय से नहीं निकला। यह भीतर हृदय का खिलना न था। एक मजबूरी थी, उपाय न देखकर बेबसी में उसने ‘हां’ कहा।
काश! वह प्रफुल्लित हो जाता। काश! वह गुरु की आंखों में देखता--जैसा गुरु ने उसकी आंखों में देखा। दोनों की आंखें अगर मिल जातीं, तो शिष्य मार्ग पर हो जाता। जहां गुरु और शिष्य की आंखें मिलती हैं--वहीं मार्ग है।
चूक गया। कहां हुआ च्युत?
शिशिन अपने शिष्यों से पूछ रहा है, ‘बताओ किस बिंदु पर उमोन का शिष्य मार्गच्युत हुआ था?’
एक महान घटना घटते-घटते नहीं घट पाई! अघट घटने के करीब था और नहीं घट पाया। गुरु ने झांका, मार्ग दिया। ठीक हृदय तक रास्ता साफ था। कहीं कोई अवरोध न था। गुरु खुला था। क्योंकि जब तुम किसी की आंखों में झांकते हो--पूरी तरह झांकते हो, तब अगर वह चाहे तो तुममें झांक सकता है और तुम्हारे हृदय तक पहुंच सकता है।
गुरु तो शिष्य के हृदय तक पहुंच रहा था, लेकिन शिष्य छिटक गया। उसने ‘हां’ भी कहा, तो वह आधा था। झिझकते हुए कहा; डरते हुए कहा। उसकी ‘हां’ भी उसे खिला न पाई। उसकी ‘हां’ झूठी थी।
तुम्हारी आस्तिकता तुम्हें समाधिस्थ नहीं कर पाई है। तुमने ईश्वर को ‘हां’ कहा है वह भी झूठा है; वह भी आधा-आधा है। ‘हां’ शायद मजबूरी में कहा गया है। तुमसे तो बेहतर वह नास्तिक है, जिसने पूरे हृदय से ‘ना’ कहा है। कम से कम हृदय तो पूरा है। तुमने ‘हां’ भी कहा है, लेकिन पूरे हृदय से नहीं कहा है। किसी भय से, किसी लोभ से तुमने ‘हां’ कह दिया है। तुम्हारा आधा हिस्सा ‘नहीं’ कहता ही रहेगा।
जैसे ही गुरु की आंखें हट गई होंगी, शिष्य फिर अपनी जगह वापस लौट आया होगा। डगमगाया था, हिला था, फिर उसने अपनी स्थिति वापस ले ली होगी। और उसने सोचा होगाः ‘इस आदमी ने डरा दिया। और डर की वजह से मैंने ‘हां’ कह दी।’
ऐसा अक्सर होता है; रोज का मेरा अनुभव है। कोई आता है, उसकी आंख में मैं देखता हूं। पूछता हूं, ‘क्या कहते हो? संन्यास की तैयारी है?’ कभी-कभी कोई मेरे डर में कह देता है कि ‘हां’। लेकिन वह ‘हां’ पूरी नहीं है। यह मार्गच्युत हो गया। अच्छा होता, वह ‘ना कह देता। कभी-कभी ऐसा घटता है कि कोई प्रफुल्लित हो जाता है। कोई पूरे आनंद से कहता है कि ‘हां’। उसका रोआं-रोआं कहता है--‘हां’। उसके भीतर एक भी विपरीत स्वर नहीं होता, कोई द्वंद्व नहीं होता, कोई विरोध नहीं होता। समग्रता से कहता है--‘हां’।
संन्यास और क्या है? संन्यास--कुछ और देने को है भी नहीं। यह जो पूरी ‘हां’ है, संन्यास हो गया। अब तो सब ऊपरी बात है। भीतरी बात घट गई। वह व्यक्ति संन्यस्त न भी हो, तो भी कोई हर्ज नहीं। यह अब जैसा भी है--संन्यासी ही होगा।
अगर तुमने एक बार भी पूरी तरह ‘हां’ कहने का आनंद जान लिया, तो तुम आस्तिक हो जाओगे। क्योंकि जब एक बार पूरी ‘हां’ कहने से इतना आनंद मिलता है, तो पूरा जीवन--प्रतिपल ‘हां’ कहने के महा-आनंद को तुम न चूकोगे फिर, तुम न छोड़ोगे।
आस्तिक का अर्थ है--जिसने पूरे अस्तित्व को कहा--‘हां’। जिसने ‘ना’ कहना बंद कर दिया। मौत आए तो भी आस्तिक कहेगा--‘हां’। सुख आए तो भी कहेगा--‘हां’। दुख आए, तो भी कहेगा--‘हां’। ‘ना’ कहना ही उसने छोड़ दिया। वह मार्ग पर आ गया है। ‘हां’ मार्ग है।
शिष्य कहां च्युत हुआ? जहां उसने ‘हां’ भी कही, और मुरदा।
आस्तिक मत बनना मरे-मरे।
किसी तर्क के आधार पर आस्तिक मत बनना। अन्यथा तुम्हारी आस्तिकता बेजान होगी। तर्क में कोई प्राण थोड़े ही होते हैं। आस्तिक मत बनना--किसी भय के कारण।
चाहे बुद्ध ही क्यों न खड़े हों सामने; और अगर तुम्हारे भीतर ‘ना’ हो, तो ‘ना’ ही कहना; ‘हां’ मत कहना। क्योंकि झूठी ‘हां’ कहीं भी न ले जाएगी। सच्ची ‘ना’ भी बुद्ध से जोड़ सकती है, झूठी ‘हां’ भी नहीं जोड़ सकती है।
तुम वही कहना, जो ठीक तुम्हारे भीतर हो। तुम अपनी प्रामाणिकता से मत हटना। यह शिष्य प्रामाणिकता से हट गया। अगर ‘ना’ कहना था, तो ‘ना’ ही कहना था; लेकिन बिना घबड़ाए--परिपूर्णता से। इसने ‘हां’ भी कही--बेजान कही, डरते हुए कही। फूल खिल नहीं पाया; कली ही रह गई।
कहां हुआ च्युत--किस बिंदु पर? जहां गुरु देख रहा था--इसके भीतर और इस अपूर्व क्षण को भी यह चूक गया। ‘हां’ और ‘ना’ कहने का सवाल ही न था। गुरु ने एक मौका दिया था। ऐसे मौके कभी-कभी दिए जा सकते हैं; रोज नहीं दिए जा सकते हैं। क्योंकि ऐसे संयोग का क्षण बहुत मुश्किल से आता है।
बोधिधर्म नौ वर्ष चीन में रहा। और जब वह चीन छोड़ने लगा--वापस भारत की तरफ यात्रा शुरू करने लगा, तो उसने अपने शिष्यों को इकट्ठा किया। उनमें चार थे--जो बड़े कीमती थे।
उसने पहले शिष्य को पूछा, ‘सार में कह दो कि मेरे तुम्हारे साथ रहने से क्या हुआ?’ तो उस शिष्य ने कहा, ‘सभी तरफ एक का ही राज्य है। अद्वैत है।’ बोधिधर्म न कहा, ‘तुम्हारे पास मेरी चमड़ी है।’
दूसरे शिष्य से पूछा, ‘क्या हुआ मेरे साथ रहने से?’ तो उस शिष्य ने कहां है! जब दो न हों, तो एक भी कैसे हो सकता है? बस, है। एक या दो में कहने का कोई उपाय नहीं है।’ बोधिधर्म ने कहा, ‘तेरे पास मेरी हड्डियां हैं।’
और तीसरे शिष्य की तरफ देखा और पूछा, ‘क्या हुआ मेरे साथ रहने से?’ तो तीसरे शिष्य ने कहा, ‘न तो एक है, न दो हैं। न दोनों का अभाव है। सर्वत्र-सब दिशाओं में परम शून्य है। शून्यता ही सत्य है। अभाव सत्य है।’ बोधिधर्म ने कहा, ‘तेरे पास मेरी मज्जा है।’
बोधिधर्म ने चौथे शिष्य की तरफ देखा और पूछा ‘क्या हुआ मेरे साथ रहने से तुझे?’ चौथा शिष्य सिर्फ बोधिधर्म की तरफ देखता रह गया। फिर झुका और उसके चरण छुए। बोधिधर्म ने कहा, ‘तेरे पास मैं हूं; मेरी आत्मा है।’ चौथा शिष्य कुछ बोला नहीं, उसने कोई उत्तर न दिया।
तीन च्युत हो गए।
बोधिधर्म जैसा व्यक्ति जब प्रश्न पूछता है, तो उत्तर पाने के लिए नहीं। तुम्हारा पूरा ‘होना’ उत्तर होना चाहिए। तुम क्या बोलते हो, उसका कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि बोला हुआ बुद्धि से होगा।
इसलिए बोधिधर्म ने कहा कि पहले शिष्य के पास मेरी चमड़ी है--ऊपर-ऊपर। दूसरे के पास थोड़ा सा भीतर का है--हड्डियां हैं। लेकिन हैं शरीर की ही। तीसरे के पास और जरा भीतर का है--मज्जा है। लेकिन है शरीर की ही, आत्मा नहीं। आत्मा उसके पास थी जो चुप ही रहा। जिसने जवाब भी न दिया, उसी ने जवाब दिया। उसने अपने पूरे ‘होने’ से जवाब दिया।
चौथे शिष्य ने बोधिधर्म की आंखों में देखा। दो आंखें मिलीं। दो आत्माएं एक दूसरे में लीन हुईं। दो सीमाएं टूटीं। वह झुका, उसने पैर छुए। धन्यवाद दिया, उत्तर न दिया। कृतज्ञता प्रकट की, सिद्धांत न बताया। कृतज्ञता को प्रकट करने का शब्दों में कोई उपाय भी तो नहीं है।
और उत्तर बोधिधर्म मांग भी नहीं रहा था। यह कोई परीक्षा न थी, जहां तुम्हें शास्त्रों का उल्लेख करना था, जहां तुम्हें शब्दों के जाल रचने थे। यह अग्नि-परीक्षा थी, जहां ‘तुम्हें’ उत्तर होना था। वहां तुम चूक गए।
चौथा शिष्य झुका, बोधिधर्म के चरण छुए। कुछ बोला नहीं। मार्ग पर चल पड़ा। यह यात्रा मंजिल तक पहुंच गई। यह सरिता सागर तक पहुंच गई।
शिशिन ने अपने शिष्यों से पूछा, ‘किस बिंदु पर उमोन का शिष्य मार्गच्युत हुआ था?’
मैं भी तुमसे यही पूछता हूं ‘किस बिंदु पर उमोन का शिष्य मार्गच्युत हुआ था?’ और अगर तुमने सोचा, तो तुम भी मार्गच्युत हुए।
सोचना मत, देखना।
देखो, तो चीजें साफ हैं; सोचो, तो सब धुंधला हो जाता है। सोचना अंधेपन का एक ढंग है, देखना आंख है। सोचना उलझन है। इसलिए कहानी यहीं पूरी हो जाती है।
शिष्यों ने क्या उत्तर दिया शिशिन को--कहानी नहीं कहती। गजब के शिष्य रहे होंगे। जहां उमोन का शिष्य चूक गया, वहां शिशिन के शिष्य नहीं चूके। कहानी प्रश्न पर ही पूरी हो जाती है। शिशिन ने पूछा और कहानी कुछ आगे नहीं कहती है कि शिष्यों ने क्या कहा। कहते तो भटक जाते। उत्तर दिया कि गलत हुआ। बोले--कि चूके।
जहां उमोन का शिष्य हार गया, वहां शिशिन के शिष्य जीत गए। इसलिए आगे कोई उत्तर नहीं है।
मैं भी तुमसे यही पूछता हूं।
सोचना मत--देखना। देखना समग्रता है। तुम्हारा पूरा व्यक्तित्व आंख बन जाता है।
सोचना हमेशा खंड-खंड है। खोपड़ी सोचती है। और ध्यान रहे, तुम खोपड़ी के बाहर हो, खोपड़ी के भीतर नहीं। काश! तुम खोपड़ी के भीतर होते, तो दर्शनशास्त्र काफी था। उत्तर किताबों में लिखे हैं। तुम खोपड़ी के बाहर हो, खोपड़ी से बहुत बड़े हो। खोपड़ी तुम्हारे भीतर है, तुम खोपड़ी में नहीं। तुम उसका उपयोग कर सकते हो--एक सेवक की भांति। जैसे ही तुमने उसे मालिक बनाया कि तुम चूके।
और बुद्धि का लक्षण है कि वह खंड-खंड है। न तो वह कभी ‘हां’ पूरा कहती है और न तो कभी ‘ना’ पूरा कहती है। वह दोनों साथ-साथ कहती है। अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम्हारे सब बौद्धिक उत्तर, ‘हां’ और ‘ना’ दोनों को साथ-साथ लिए होते हैं। कभी ‘हां’ ज्यादा प्रकट होता है--‘ना’ छिपा होता है। कभी ‘ना’ ज्यादा प्रकट होता है--‘हां’ छिपा होता है।
आस्तिक के भीतर नास्तिक बैठा रहता है। नास्तिक के भीतर आस्तिक बैठा रहता है। दोनों में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है। कोई ऊपर है, कोई नीचे है। बस, इतना ही फर्क है। बाकी दोनों मौजूद हैं। और जो आज भीतर छिपा है, वह कल बाहर आ सकता है। जो आज बाहर बैठा है, वह कल भीतर जा सकता है। यह समय की बात है, परिस्थिति बदल सकती है।
लेकिन एक और ढंग है--उत्तर देने का। वह हैः समग्रता से--विचार से नहीं।
सुनी तुमने यह कहानी। क्या तुम्हें दिखाई पड़ता है कि कहां चूक गया--शिष्य? गुरु ने देखा और शिष्य ने आंखें बचा लीं। बस, वहीं।
प्रतीक्षा करना तुम कि गुरु कब देखे।
बड़ी पुरानी कथा है कि सूफी फकीर बायजीद अपने गुरु के पास था। एक साल बीत गया, गुरु ने उसकी तरफ देखा ही नहीं। पूछा भी नहीं कि कैसे आए! तुम होते तो कभी के भाग गए होते। एक साल? एक साल बाद गुरु ने पूछा, ‘कैसे आए?’ बायजीद ने कहा, ‘आप भलीभांति जानते हैं। मेरा उत्तर कुछ ज्यादा अर्थ का न होगा।’
फिर और एक वर्ष बीत गया। गुरु ने पूछा, ‘क्या करना है?’ बायजीद ने कहा, ‘राह देख रहा हूं। जब आप कहेंगे, करना शुरू कर दूंगा। और आप भलीभांति जानते हैं। मेरा उत्तर कुछ ज्यादा अर्थ का न होगा।’
एक साल फिर बीत गया। और गुरु ने बायजीद के कंधे पर हाथ रखा, आंखों में आंख डाली और कहा, ‘सब हो गया। तू तीन साल चुप बैठा रहा, यही काफी है।’ तीन साल में क्या हुआ बायजीद को? ठहरा, शांत हुआ, तनाव छोड़े, प्रश्न गिरे, गुरु के पास होने की कला सीखी। और हर कदम पर जहां जरूरत हुई, गुरु ने कुछ पूछा, उस पूछने में उत्तर की अपेक्षा न थी। उस पूछने में सिर्फ स्वीकार था कि तू ठीक चल रहा है।
साल भर बाद पूछाः ‘कैसे आया?’ तो गुरु ने केवल सूचना दी कि तेरा आना सार्थक है। तू आया है, तो कुछ लेकर जाएगा। साल भर बाद पूछाः ‘क्या करना है!’ क्योंकि दो साल जो चुप बैठा रहा, वह करने के योग्य हो गया। उसकी क्षमता है अब। अब उससे कुछ करने को कहा जा सकता है। लेकिन तब भी शिष्य ने यह न कहा कि मुझे ‘यह’ करना है। क्योंकि जब तक तुम बताओगे कि ‘यह करना है’, तब तक तुम्हारा मन जारी रहेगा। तुम्हारी मांगी हुई मांग पूरी भी हो जाए, तो भी तुम भटकोगे। तुम जो भी चाहते हो, वह गलत ही होगा। उसने कहा कि ‘मैं क्या कहूं? आप जो कहेंगे, करूंगा।’
जो इतना छोड़ने को राजी है--जिसका समर्पण इतना भारी है... । तीन साल बीत जाने के बाद गुरु ने उसके कंधे पर हाथ रखा, उसकी आंखों में देखा और कहा, ‘सब हो गया। अब कुछ करने को बाकी नहीं है। और तू जा; जो मैंने तेरे साथ किया, वही तू दूसरों के साथ कर।’
क्या हुआ? जहां उमोन का शिष्य चूक गया, वहां बायजीद नहीं चूका। उसने प्रतीक्षा की उस क्षण की, जब गुरु देखेगा।
जब किसी प्रज्ञा-पुरुष की आंख तुम्हारी आंख में झांकती है, तब उसका दीया तुम्हारे बुझे हुए दीये के करीब आ रहा है। तुम अपनी ज्योति को यहां-वहां मत बचा लेना। तुम अपनी बाती को यहां-वहां मत हिला लेना। तब सध कर अपनी बाती को उसके सामने कर देना। क्योंकि एक क्षण में दीए के पास आने में ज्योति का स्फुलिंग छलांग लगा लेगा। घटना घट जाएगी।
फिर तुम अपनी हैसियत से जलोगे। फिर तुम अपने तेल से जलोगे। फिर तुम्हारी अपनी बाती होगी।
कोई न तो बुद्ध जैसा हो सकता है, न उमोन जैसा हो सकता है। कोई जरूरत भी नहीं है। तुम तुम जैसे ही होओगे। लेकिन च्युत हो सकते हो--क्षण से। यह क्षण सत्संग का है।
उमोन का शिष्य वहां चूक गया, जहां गुरु ने मौका दिया था--सत्संग का। वहीं चूक गया है।
इसे सोचना मत। इसे एक सुगंध की भांति अपने चारों तरफ घूमने देना। एक ध्वनि की भांति इसे अपने भीतर गूंजने देना। सोचना मत--सिर्फ देखना। ताकि किसी दिन जब वह क्षण तुम्हारे लिए आए और गुरु तुम्हारी आंख में झांके तो तुम मत चूक जाओ।

आज इतना ही।  

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