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गुरुवार, 22 नवंबर 2018

सत्य की प्यास-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

आत्म-विस्मरण नहीं, आत्म-स्मरण

मेरे प्रिय आत्मन्!
बहुत से प्रश्न मेरे सामने हैं, अभी तीन प्रश्न रखे गए हैं, इन तीन पर मैं पहले अपना विचार आपके सामने रखूं और फिर और प्रश्नों को लूंगा। सबसे पहले सबसे अंतिम प्रश्न लेता हूं तीसरा।

वैज्ञानिक अपने काम में खुद को डूबा देता है, उसे जो शांति मिलती है, क्या वह वही है जिस शांति की मैं बात कर रहा हूं?

नहीं, वह शांति बिल्कुल वही नहीं है। कवि भी अपने काव्य के निर्माण में खुद को डूबा देता है; नृत्यकार भी नाचता है तो भूल जाता है; संगीतज्ञ भी संगीत में डूब जाता है, लेकिन यह डूबना स्वयं को जानना नहीं है। और यह शांति वस्तुतः शांति नहीं है बल्कि केवल जीवन के दुख का विस्मरण है। यह एक मूर्च्छा है, ज्ञान नहीं।

मनुष्य अपने दुख को, अपनी अशांति को दो प्रकार से छुटकारा पा सकता है। एक तो प्रकार यह है कि वह अपनी अशांति को भूलने के लिए स्वयं को कहीं डूबा दे, कहीं तन्मय कर दे, कहीं लग जाए। इस तरह अशांति भूल जाती है मिटती नहीं। फॉरगेटफुलनेस, भूल जाना मिटना नहीं है। किसी काम में आदमी डूब जाए तो भूल जाता है। अगर बहुत जोर से डूब जाए तो बिल्कुल भूल जाता है। लेकिन भूल जाना मिट जाना नहीं है। काम एक नशे का काम करता है, इंटाक्सिकेंट का काम करता है। मूर्च्छा ला देता है।
एक छोटी सी घटना सुनाऊं। उससे मेरी बात समझ में सके।


एक नवाब के द्वार पर एक वीणावादक आया। उस वीणा बजाने वाले ने कहा कि मैं बजाऊंगा, लेकिन एक शर्त है। सुनने वाला कोई आदमी अगर सिर हिलाएगा तो मैं नहीं बजाऊंगा। वीणा बजाऊंगा, लेकिन कोई सिर न हिले।
वह नवाब पागल था, जैसे कि अक्सर नवाब पागल होते हैं। वह नवाब भी पागल था, उसने कहा कि बेफिकर रहो। अगर कोई सिर हिला तो गर्दन अलग करवा देंगे उसकी, तुम चिंता मत करो। और गांव में डुंडी पीट दी गई कि जो सांझ को वीणा को सुनने आएं वे थोड़ा सम्हल कर आएं, किसी ने अगर सिर हिलाया तो सिर अलग करवा दिया जाएगा। हजारों लोग आते सुनने उस संगीतज्ञ को, लेकिन थोड़े से ही लोग आए, दो-चार सौ लोग आए। वे ही लोग आए जिनको यह ख्याल था कि वे इतने संयमी हैं कि अपने सिर को सम्हाल कर बैठे रहेंगे। पहले ही घोषणा कर दी गई कि कोई सिर न हिले, नहीं तो पीछे पछताने का मौका नहीं है।
वीणा बजनी शुरू हुई, कुशल था वह संगीतज्ञ, हाथों में उसके जादू था। कोई आधी घड़ी बीती होगी, लोग बिल्कुल सधे हुए मूर्तियों की भांति बैठे रहे, लेकिन घड़ी बीतते-बीतते दस-पांच सिर हिलने शुरू हो गए।
नवाब ने आदमी रख छोड़े थे कि निशान लगा लेना कौन-कौन आदमी हिल रहे हैं, बाद में गर्दन कटवा देंगे।
आधी रात गए वीणा बंद हुई, बीस आदमी पकड़ कर सामने खड़े कर दिए गए। नवाब ने कहा कि इनकी गर्दन अलग कर दें।
संगीतज्ञ ने कहाः नहीं, कल केवल यही लोग सुनने के लिए आ सकें और कोई नहीं आ सकेगा।
नवाब ने पूछाः मतलब क्या है? और उन लोगों से पूछा कि तुम कितने पागल हो, गर्दन कटेगी यह जानते हुए तुमने सिर हिलाया?
उन्होंने कहा कि नहीं, हमने सिर नहीं हिलाया। जब तक हम मौजूद थे हमने सिर न हिलने दिया, लेकिन एक घड़ी आई कि हम गैर-मौजूद हो गए। एक घड़ी आई कि हम थे ही नहीं। फिर हमें पता नहीं है कि सिर कैसे हिला। हम होश में नहीं थे जब सिर हिला, हम बेहोश थे। इसलिए जिम्मा हम पर नहीं है। हम तो जब तक होश में थे हमने सिर नहीं हिलाया, सम्हाले रहे। फिर एक घड़ी आई कि हम बेहोश हो गए और सिर हिला। हमें उस घड़ी का फिर कोई पता नहीं है कि कब सिर हिला, वह हमने नहीं हिलाया था, वह हिला होगा।
संगीतज्ञ ने कहा कि कल ये ही लोग सुनने को आएं। यही लोग डूब सकते हैं। लेकिन यह डूबने से जो शांति मिलती है, यह जो मूर्च्छा है, यह एक तरह की हिप्नोसिस है, एक तरह का सम्मोहन है। जो संगीत के स्वरलहरी में उन पर पैदा हो गया और वे अपने को भूल गए। जितनी देर वे अपने को भूले रहे बड़ी शांति में रहे होंगे, क्योंकि उनकी चिंताएं, दिन भर के दुख और पीड़ाएं सब भूल गए। लेकिन जब मूर्च्छा के बारह आए होंगे, सब दुख वापस लौट आएंगे। वे तो मौजूद थे भीतर, केवल हम बेहोश हो गए थे। संगीत से जो सुख मिलता है वह सुख विस्मरण का सुख है, वह सुख नहीं है। शराब से जो सुख मिलता है वह भी इसी तरह का सुख है।
अभी अमरीका में मैस्कलीन और लिसर्जिक एसिड का प्रयोग चलना शुरू हुआ। ये नये बेहोश होने के नये इंजेक्शन, इनकी जोर से हवा है अमरीका में। लिसर्जिक एसिड या मैस्कलीन का एक इंजेक्शन लेने पर छह घंटे के लिए आदमी उसी अवस्था में पहुंच जाता है जिसमें वैज्ञानिक पहुंचते हैं, कवि पहुंचते हैं, संगीतज्ञ पहुंचते हैं, सब भूल जाता है, एकदम मस्त हो जाता है, मग्न हो जाता है। दुनिया में इतने दिनों से शराब, गांजा, अफीम और भांग अकारण नहीं पी जा रही है। पीने का कुछ कारण है। किन्हीं चीजों को भूलने में उनसे सहारा मिलता है।
सेक्स का इतना आकर्षण है। अकारण नहीं है। आदमी अपने को भूल पाता है, डूबा पाता है। लेकिन सेक्स से जो शांति मिलती है और शराब से जो शांति मिलती है वह वह शांति नहीं है जिसकी मैं बात कर रहा हूं। वैज्ञानिक भी अपने को डूबा लेता है अपने काम में। काम इतना बड़ा होता है इतना तल्लीन हो जाता है अपने काम में कि उसे जीवन की चिंताएं और दुख विस्मरण हो जाते हैं। लेकिन इससे कोई आत्मज्ञान नहीं होता और न आनंद उपलब्ध होता है। बल्कि सच यह है कि इस भांति डूबने वाले आदमी ने तो अपने द्वार ही बंद कर लिए उसे तो कभी भी उपलब्ध नहीं हो सकेगा। क्यों? जो दुख को भूल गया उसे दुख को मिटाने का भी अब कोई कारण नहीं रहा।
आत्मिक खोज में दुख का बोध बहुत महत्वपूर्ण है। आपको अपने दुख और चिंता का जितना स्पष्ट बोध हो, जितनी साफ-साफ अवेयरनेस हो, उतना अच्छा है। क्योंकि दुख का बोध, पीड़ा का बोध, चिंता का बोध आपके भीतर उस सजगता को पैदा करता है, जो कि सत्य तक और आनंद तक जाने का मार्ग बनती है। लेकिन भूल जाने से यह काम हल नहीं होता।
हम सभी लोग तो भूलने के छोटे-मोटे प्रयोग करते हैं। कोई अपने बच्चों में भूल जाता है, कोई अपनी पत्नी में। एक धन को कमाने वाला इतने जोर से धन कमाने में लगता है कि भूल जाता है धन कमाने में। वैज्ञानिक की ही बात थोड़े ही है, एक कंजूस को देखें, पैसा कमाने वाले को देखें, वह कैसा तल्लीन होकर पैसा कमाता है, सब भूल जाता है, बस पैसे ही गिनता है और डूबा रहता है दिन-रात। एक राजनीतिज्ञ को देखें जो पदों की दौड़ में पागल है, वह भी कितना भूला हुआ है, कितना डूबा हुआ है, कितना शांत मालूम पड़ता है जब उसे पद मिलते हैं और मिलते ही चले जाते हैं और वह दौड़ता चला जाता है।
नहीं, ये सब दौड़ें मनुष्य को आत्मशांति तक नहीं ले जातीं केवल जीवन के दुख भुलाने के उपाय हैं ये, एस्केप्स हैं। और एस्केप, पलायन किसी भी ढंग का हो सकता है, हजार ढंग का हो सकता है। एक आदमी मंदिर में बैठ कर भजन-कीर्तन करता है और अपने को भूल जाता है, वह भी पलायन कर रहा है, वह भी शांति को उपलब्ध नहीं होगा। एक आदमी राम-राम, राम-राम जपता है और अपने को भूल जाता है, वह भी नशा कर रहा है, वह भी शांति को उपलब्ध नहीं होगा।
शांति की उपलब्धि का पहला सूत्र हैः भूले नहीं, जागें। आत्म-विस्मरण नहीं, आत्म-स्मरण। फॉरगेटफुलनेस नहीं, सेल्फ-रिमेंबरिंग। स्मरण करें स्वयं का, भूलें नहीं स्वयं को। चाहे कितना ही पीड़ादायी हो यह स्मरण, चाहे कितना ही दुखदायी हो यह स्मरण, लेकिन इसका स्मरण करें, इसे जानें, इसे पहचानें, इससे भागे नहीं, इससे भूलें नहीं, इसे डुबाएं नहीं, इसे किसी तरह के नशे में छिपाएं नहीं, सब तरह के नशे तोड़ दें, सब तरह की मूर्च्छा तोड़ दें, सब तरह के सेल्फ-ेहिप्नोसिस तोड़ दें, और देखें जाग कर कि क्या है यह चिंता, क्या है यह दुख। जब दुख के प्रति पूरी तरह जागेंगे तो क्या होगा? एक बहुत अदभुत घटना घटती है जो आदमी दुख के प्रति पूरी तरह जागता है। वह घटना यह है कि जब हम दुख के प्रति पूरी तरह जाग जाते हैं तो हमें स्मरण होता है, स्पष्ट बोध होता है¬दुख अलग है और मैं अलग हूं। क्योंकि हम केवल उसी चीज के प्रति पूरी तरह जाग सकते हैं जो हमसे अलग हो। हम केवल उसके ही द्रष्टा बन सकते हैं, उसके आब्जर्वर हो सकते हैं जो हमसे अलग हो।
मैं आपको देख रहा हूं, मैं आपसे अलग हूं। मैं इस माइक तो देख रहा हूं, मैं इस माइक से अलग हूं। मैं इस शरीर को देख रहा हूं, मैं इस शरीर से अलग हो गया। क्योंकि देखने वाला उससे अलग हो जाता है जिसे देखता है। द्रष्टा दृश्य से अलग हो जाता है। अगर कोई अपने प्राणों में उतर कर अपने सारे दुख, सारी पीड़ा और सारी चिंता को पूरे रूप से देख ले, तत्क्षण वह पाएगा एक अदभुत खाई पैदा हो गई है वह अलग हो गया और दुख अलग हो गया। वह तादात्म्य टूट गया जहां मालूम पड़ता था मैं दुख हूं, उसे ज्ञात होगा कि मैं हूं और दुख है। और जैसे ही यह दिखाई पड़ जाएगा कि मैं हूं और दुख है, वह नाता टूट गया जो दुख देता था, वह संबंध टूट गया, वह आइडेंटिटी टूट गई। यह तो पहला आघात है दुख पर। और जैसे ही यह संबंध टूट गया, मैं अलग हो गया और दुख अलग हो गया, फिर दुख कहां है। फिर दुख गया। फिर दुख विलीन हो जाएगा। दुख है इसलिए कि मैं दुख से अपने को जोड़े हुए हूं। कोई आंतरिक लगाव जुड़ा हुआ है, इसलिए दुख है। मैं भूला दूं दुख को इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन अगर मैं दुख के प्रति पूरी तरह जाग जाऊं तो दुख से मुक्ति हो सकती है।
इसलिए कोई वैज्ञानिक, कोई कवि, कोई संगीतज्ञ इस भ्रम में न रहे कि उसकी शांति वही शांति है जिसकी धर्म बात करते हैं। नहीं, वह शांति वही नहीं है। वह तो शांति न होकर शांति का धोखा है। लेकिन यह है। यह चलता रहा है। यह आज भी चल रहा है।
इसलिए वैज्ञानिक अपने आम जीवन में उतना ही दुखी होता है जितने आप दुखी हैं। कवि अपने आम जीवन में उतना ही दुखी होता है। बातें तो कविता में करता है बहुत-बहुत गहरी, लेकिन जिंदगी में जाकर देखेंगे तो वही सब दुख उसे भी पीड़ा देते हैं जो आपको देते हैं।
संगीतज्ञ डूब जाता है अपने सितार के बजाने में या और किसी के बजाने में, लेकिन बाकी जिंदगी में दुखी का दुखी बना रहता है। वैज्ञानिक भी वैसे ही दुखी बना रहता है। यह हो सकता है कि उसकी तंद्रा इतनी गहरी हो, वह इतने काम में डूबा हो कि हमें पता भी न चलता हो कि वह दुख में है। वह एक तरह की मूर्च्छा में जी रहा है। इस मूर्च्छा के फायदे हैं। अगर मूर्च्छा न हो तो संगीत पैदा न हो, विज्ञान पैदा न हो। और कुछ पैदा न हो। इतना पैदा हुआ है यह सब इस मूर्च्छा से। जरूर इस मूर्च्छा के कुछ फायदे हैं। लेकिन यह मूर्च्छा शांति नहीं है। और यह भी मैं आपसे कह दूं, मनुष्य जब मूर्च्छा से विज्ञान को जन्म दे पाया है, संगीत को, गणित को, तो अगर कहीं किसी दिन मनुष्य जागरूक हुआ, तो वह शायद सुपर-साइंस को जन्म दे पाएगा जो कि परा-विज्ञान होगा।
यह मूर्च्छा से ऐसा विज्ञान पैदा हो गया तो अमूर्च्छित चित्त से कैसा विज्ञान पैदा होगा? अभी हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। क्योंकि अमूर्च्छित मनुष्य ने अभी विज्ञान पर कोई प्रयोग नहीं किए। और यह भी मैं आपसे कह दूं, चूंकि यह मूर्च्छा से विज्ञान पैदा होता है, इसलिए यह विज्ञान खतरनाक भी सिद्ध हो रहा है। यह मूर्च्छा का विज्ञान है जो हाइड्रोजन बम तक ले आया, और विनाश तक ले आया। क्योंकि जो वैज्ञानिक डूब कर काम कर रहा है उसे इससे कोई प्रयोजन नहीं है कि वह काम कहां ले जा रहा है और क्या हो रहा है। उसको केवल इससे प्रयोजन है कि वह भूला रहता है अपने काम में। उससे हाइडरेजन बम बन रहा है, कि आदमी मरेंगे, कि जमीन डुबेगी, उसे कुछ मतलब नहीं, वह अपना काम रहा है, वह डूबा हुआ है। उसको डूबने में सहारा मिल रहा है, फिर क्या परिणाम होगा यह नहीं कहा जा सकता। लेकिन अगर वैज्ञानिक जागरूक हो, तो वह इस बात से निश्चिंत नहीं हो सकता कि वह जो कर रहा है उसके क्या परिणाम होंगे।
विज्ञान मूर्च्छित हाथों से विकसित हुआ है। अभी हमारा सभी कुछ मूर्च्छित हाथों से विकसित हुआ है। हमारी पेंटिंग, हमारी कविताएं मूर्च्छित हाथों से बनी हैं।
इसलिए दुनिया में एक तरह का मूर्च्छित विकास हुआ है। अब तक सचेतन, कांशस एवलूशन नहीं हुई। कभी हो सकती है। और यह जो मैं कह रहा हूं कि अगर सचेत, पूरी तरह से सावधान, होश से भरा हुआ मनुष्य कुछ करेगा, तो उसके परिणाम बहुत भिन्न होंगे।
यह तो मैंने पहली बात कही तीसरी प्रश्न के उत्तर में।
दूसरी बात पूछी है कि जो बात मैं कह रहा हूं यह तो ठीक मालूम होती है, लेकिन कितने लोग इसको कर पाएंगे?
शायद थोड़े से लोग कर पाएंगे। सभी लोग तो नहीं कर पाएंगे। मैं निवेदन करता हूं कि मैं जो बात कह रहा हूं वह चूजन फ्यू के लिए नहीं है, कुछ चुने हुए लोगों के लिए नहीं है। अभी तक हमने हर तरह के भ्रम पाले हैं। और हमने हर चीज में कैटेगेरीज की हैं और वर्ग बनाए हैं। हमने गरीब और अमीर बनाए हैं। हमने समझदार और नासमझ बनाएं हैं। हमने शूद्र और ब्राह्मण बनाएं हैं। हमने हर तरह के वर्ग किए हैं। हम परमात्मा के संबंध में भी वर्ग करना चाहते हैं कि कुछ लोग पा सकेंगे, कुछ लोग नहीं पा सकेंगे।
लेकिन मैं आपसे निवेदन करता हूं, दुनिया की सब चीजों को पाने में वर्ग हो सकते हैं परमात्मा को पाने में वर्ग नहीं हो सकते। कम से कम एकाध चीज तो रहने दो जिसे सब पा सकें। कम से कम परमात्मा को तो बच जाने दो। बड़े महल सब लोग नहीं पा सकते, और राष्टपति सभी लोग नहीं हो सकते, और सभी लोग चांद की यात्रा भी नहीं कर सकते, सभी लोग कवि नहीं हो सकते, सभी लोग वैज्ञानिक हो सकते। बिल्कुल ठीक है। लेकिन सभी लोग परमात्मा को पा सकते हैं।
क्यों? क्योंकि वैज्ञानिक होना एक विशिष्ट प्रतिभा की बात है, कवि होना एक विशिष्ट प्रतिभा की बात है, लेकिन परमात्मा को पाना स्वरूप है हम सबका, विशिष्ट प्रतिभा की बात नहीं। एक आदमी गणितज्ञ होता है, यह एक कुशलता की बात है, एक टेलेंट की बात है। लेकिन हर आदमी श्वासें लेता है और हर आदमी प्रेम करता है, यह कोई टेलेंट की बात नहीं है। हर आदमी प्रेम करता है। नहीं तो एक वक्त आएगा कि सभी लोग प्रेम नहीं कर सकते, कुछ थोड़े से लोग प्रेम करेंगे। प्रेम किसी विशिष्ट प्रतिभा की बात नहीं, सभी के प्राणों का स्वर है। सभी प्रेम करते हैं। बड़े कवि भी, बड़े वैज्ञानिक भी, छोटा सा गांव का चमार भी। और मेरी समझ यह है कि बड़े वैज्ञानिक गांव के चमार से कोई अच्छी तरह प्रेम कर लेते हों इसका कोई जरूरी नहीं है। प्रेम करना जैसे सबके लिए संभव है, सबके प्राणों की छिपी हुई क्षमता है, वैसे ही मेरी दृष्टि में परमात्मा और भी गहरी क्षमता है और सबकी क्षमता है। परमात्मा सबका स्वरूप है। परमात्मा कोई टेलेंटेट आदमी का सवाल नहीं है, किसी जीनियस का सवाल नहीं है, किसी मेधावी का सवाल नहीं है, परमात्मा सबका स्वभाव है, सबका स्वरूप है। जैसे सब सांस लेते हैं और सब जीवित हैं। परमात्मा जीवन है।
इसलिए इसमें कोई कैटेगेरीज नहीं चलेंगी। इसमें कोई वर्ग नहीं चलेंगे, कोई क्लासेस नहीं चलेंगी कि कुछ लोग पा सकते हैं कुछ लोग नहीं। कौन लोग पा सकते हैं? क्या गणित बहुत अच्छा कर लेते हैं इससे परमात्मा को पा लेंगे? क्या तुकबंदी कर लेते हैं और कविता लिख लेते हैं और दिल्ली में रहने लगे हैं और राष्टकवि हो गए हैं इसलिए कोई, इसलिए कोई परमात्मा को पा लेंगे? या एकाध-दो किताबें लिख लीं इसलिए परमात्मा को पा लेंगे? या दुकान बहुत अच्छी चलाते हैं इसलिए परमात्मा को पा लेंगे? इन किस चीज से परमात्मा का संबंध है? इनसे तो किसी का कोई संबंध नहीं है।
मनुष्य के भीतर जो विशिष्ट, विशिष्ट दिशाएं हैं उनसे परमात्मा का कोई संबंध नहीं है। मनुष्य के भीतर जो सबका स्वभाव है, परमात्मा से उसका संबंध है। तो एक आदमी कवि हो सकता है, दूसरा गणितज्ञ हो सकता है। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, दोनों जीवित हैं, दोनों के भीतर जीवन लहरें ले रहा है। वह जो लहरें लेता हुआ जीवन है वही परमात्मा है।
तो मैं यह निवेदन करता हूं कि परमात्मा तक पहुंचने के लिए कोई वर्ग नहीं है। और यह वर्गों की धारणा, यह शूद्र और ब्राह्मण की धारणा इतनी मूर्खतापूर्ण साबित हुई जिसका कोई हिसाब नहीं है। कोई ब्राह्मण नहीं है, कोई शूद्र नहीं है परमात्मा की तरह जाने के लिए। कोई अधिकारी नहीं है, कोई अनधिकारी नहीं है। और कोई पात्र नहीं है और कोई अपात्र नहीं है। तो बड़ी मुश्किल होगी। आप कहेंगे कि जब सभी पा सकते हैं तो सभी पा क्यों नहीं लेते? यह बिल्कुल दूसरी बात है। सभी बीज वृक्ष हो सकते हैं, लेकिन जरूरी नहीं है कि सभी बीज वृक्ष हो जाएं। सभी बीज वृक्ष हो सकते हैं, लेकिन जरूरी नहीं है कि सभी बीज वृक्ष हो जाएं। लेकिन इससे यह सिद्ध नहीं होता कि कुछ बीज वृक्ष हो सकते हैं और कुछ नहीं हो सकते। परमात्मा को तो सभी पा सकते हैं। क्योंकि सभी पाए हुए हैं। लेकिन इसका बोध सभी को होगा या नहीं यह प्रत्येक पर खुद निर्भर है, यह किसी दूसरे पर निर्भर नहीं है।
आपका जीवन अनुभव, आपके जीवन की अनुभूति, आपके जीवन की प्यास, आपकी आकांक्षा और अभीप्सा आपको परमात्मा तक ले जा सकती है। कोई बाधा नहीं है। कोई विशिष्ट प्रतिभा की जरूरत नहीं है, किसी युनिवर्सिटी से किसी प्रमाणपत्र की कोई जरूरत नहीं है। कोई पंडित होने की जरूरत नहीं है और कोई शास्त्र आपको कंठस्थ हो इसकी जरूरत नहीं है। और बीच में किसी पादरी-पुरोहित की जरूरत नहीं है जो कि दलाली का काम करे और आपको परमात्मा तक पहुंचा दे। परमात्मा तक पहुंचने के लिए आपकी प्यास और अपनी अभीप्सा की बात है। और मुझे ऐसा दिखाई पड़ता है कि हर मनुष्य के भीतर परमात्मा को पाने की प्यास भी है। हर मनुष्य के भीतर। ऐसा मनुष्य खोजना कठिन है जो आनंद को न पाना चाहता हो। ऐसा मनुष्य खोजना कठिन है जो शांति को न पाना चाहता हो। ऐसा मनुष्य खोजना कठिन है जो जीवन में आलोक को और प्रकाश को न पाना चाहता हो। सभी लोग पाना चाहते हैं। और सभी लोग पाने का प्रयास भी करते हैं। लेकिन इस पाने के प्रयास में बहुत सी भ्रांतियां हैं, बहुत सी भूले हैं। इस पाने के प्रयास में सम्यक विवेक का प्रयोग नहीं है, बुद्धि का प्रयोग नहीं है। और अब तक हजारों साल से यह सिखाया गया है कि इसे पाने के लिए किसी विवेक के प्रयोग की जरूरत नहीं है विश्वास कर लेने की जरूरत है। विश्वास के कारण अधिक लोग रुके हुए हैं और परमात्मा को नहीं पा सके। क्योंकि विश्वास कर देता है अंधा, और परमात्मा को पाने के लिए चाहिए आंखें। और विश्वास कर देता है जड़, और परमात्मा को पाने के लिए चाहिए एक चैतन्य। इसलिए सारी गड़बड़ है।
विश्वास ने मनुष्य को परमात्मा तक जाने से रोका है। विश्वास और श्रद्धाओं ने मनुष्य को रोका है। बिलीफस ने रोका है। अगर मनुष्य थोड़ा विश्वासों के अंधेपन से मुक्त हो, और हो सकता है प्रत्येक। थोड़ा विवेक को जाग्रत करे। और कर सकता है प्रत्येक। तो कोई कारण नहीं है कि कोई मनुष्य परमात्मा से वंचित रह जाए। कोई कारण नहीं है। जितना यह सरल है कि बीज से अंकुर निकलता है और पौधा बन जाता है, उतना ही सरल यह भी है कि मनुष्य परमात्मा को अनुभव कर ले।
क्राइस्ट कहा करते थे, एक किसान ने अपने खेत में जाकर बीज फेंके। कुछ उसने मुट्ठियों से बीज फेंके। जेरुसलम में उसी तरह बीज बोए जाते थे, मुट्ठियों से बीज फेंक देते थे। कुछ बीज सड़क के ऊपर पड़ गए। सड़क तो चलती हुई थी, बीजों पर निरंतर पैर पड़ते रहे, उनमें से कभी अंकुर नहीं निकल सके। कुछ बीच सड़क के किनारे पत्थरों पर पड़ गए। उनमें से अंकुर तो निकले, लेकिन पत्थरों में जड़ें पहुंचनी मुश्किल थी, इसलिए अंकुर निकले और कुम्हला गए और सुख गए। कुछ बीज खेत की भूमि पर पड़े, उनमें से अंकुर निकले, उनमें से पौधे आए और उन बीजों में फल भी लगे। वे सभी बीज एक जैसे थे। वे सभी बीजों की क्षमता थी कि वे पौधे बन जाते और उनमें फूल आते और फल आते। लेकिन कुछ बीज सड़क पर पड़ गए हैं और कुछ बीज पत्थरों पर। हम सारे लोग भी एक जैसे बीज हैं। बुद्ध और महावीर में, कृष्ण और क्राइस्ट में, मोहम्मद में और मो.जे.ज में हमसे भिन्न कोई बीज नहीं है, ठीक वही बीज है जो हम हैं। कोई फर्क नहीं है। लेकिन हम अपनी ही भूलों से अगर अपने बीज को सड़क के किनारे डाल देंगे और पत्थरों पर फेंक देंगे, इसमें कसूर किसी और का नहीं है। और हम सारे लोग ऐसी जगह अपने जीवन को डालते हैं, फेंकते हैं तो उसमें से अंकुर नहीं निकल पाते।
मैं कल सुबह इस संबंध में बात आपसे करूंगा कि कहां ठीक भूमि है और कहां हमारे बीज ठीक से पड़ें, तो अंकुरित हो सकते हैं। प्रत्येक मनुष्य की पोटेंशिएलिटी है, बीजात्मक संभावना है कि वह परमात्मा हो सके। इसलिए इतना निवेदन करना चाहता हूं कि कम से कम परमात्मा के संबंध में क्लासेस का सवाल पैदा न करें। यह नहीं है, बिल्कुल झूठा है। कोई आदमी विशेष रूप से अधिकारी नहीं है परमात्मा को पाने का। सभी लोग समान रूप से अधिकारी हैं। लेकिन सभी लोग उस तरफ आकांक्षा करें, प्यास करें, ठीक भूमि दें चित्त को, तो, तो जरूर, जरूर वह हो सकता है।
मैंने जो ये कही हैं बातें, ये सबके लिए हैं। इनमें से कोई विशेष लोगों के लिए नहीं है। हां, यह हो सकता है कि मेरी बातें आपके मन की धारणाओं से मेल न खाती हों, इसलिए आपको ऐसा लगता हो कि ये हमारे काम की बातें नहीं क्योंकि हमारी धारणाओं से मेल नहीं खातीं। इस कारण से ऐसा लग सकता है कि ये बातें किन्हीं कुछ लोगों के लिए है हमारे काम की नहीं हैं।
लेकिन मैं निवेदन करूंगा, अपनी धारणाओं पर फिर से पुनर्विचार करें, और मैंने जो कहा है उस पर भी विचार करें। मान लेने का कोई सवाल नहीं है। पिछली धारणाएं भी आपने मान रखी हैं, वह गलत किया है। अगर उन पर विचार किया होता तो आपने कभी उनको माना न होता। अब वे आपकी प्रिज्युडिस बन गई हैं, पक्षपात बन गई हैं। उनको छोड़ने में प्राण को धक्का लगता है। जैसे हम किसी आदमी के कपड़े उतार दें, तो वह घबड़ाता है। लेकिन कपड़े उतारने में कोई इतना ज्यादा नहीं घबड़ाएगा, जितना उसकी धारणाएं खींचो तो वह घबड़ाता है। वे हमारी भीतरी वस्त्र बन गई हैं।
हमने अपने भीतरी नंगेपन को उन धारणाओं में छिपा लिया है। इसलिए कोई खींचता है तो घबड़ाहट होती है। तब एक ही सस्ती तरकीब होती है और वह तरकीब यह है कि हम आंख बंद कर लें, कहें कि ये हमारे काम की बातें नहीं हैं। ये होंगी किन्हीं और लोगों के काम कीं। ये अपने बस की बातें नहीं हैं। हम तो अपना भजन-कीर्तन करेंगे, उससे कुछ रास्ता निकले तो निकले।
नहीं, कोई बातें किसी विशिष्ट के लिए नहीं हैं। अगर ईमानदारी हो और विचार हो तो अपनी धारणाओं को फिर से रि-कंसीडर करें, फिर से सोचें। और यह मैं कहता नहीं हूं कि मैंने जो कहा है उसे मान लें, उसको भी सोचें। और उस सोच-विचार से जो ठीक है वह निकलेगा। और वह ठीक सबके लिए है। लेकिन आप उसको निकालना ही न चाहें तो बात दूसरी है। कोई आदमी आंख बंद किए बैठा रहे और सूरज को देखना ही न चाहे तो बात दूसरी है, और कहे कि होगा सूरज कुछ लोगों के लिए सबके लिए नहीं है।
लेकिन मैं निवेदन करता हूं, सूरज उन सबके लिए है जो आंख खोलने को राजी हैं। और जो आंख बंद करने को राजी हैं उनके लिए नहीं है। इससे ज्यादा भिन्न इसमें और कोई बात नहीं है।
इसी प्रश्न में पूछा है कि जो नीति का मार्ग है, जो मॉरल कोड है, जो हमारी नैतिकता है, मॉरेलिटी है, वही शायद सबके लिए सम्यक मार्ग है। तो मैं आपसे कहना चाहूंगा, कि मॉरेलिटी तो कोई मार्ग ही नहीं है। नीति तो कोई मार्ग ही नहीं है।
नीति मार्ग नहीं है। नीति मार्ग है इस तरह की बातें हजारों साल से प्रचलित हैं। और लोगों को यह भी ख्याल है कि नैतिक हुए बिना कोई धार्मिक नहीं हो सकता, नैतिक होगा तब धार्मिक होगा।
मैं आपसे कहना चाहूंगा, नैतिक होने से कोई कभी धार्मिक नहीं होता है। हां, कोई धार्मिक हो जाए तो जरूर नैतिक हो जाता है। इन दो बातों को ठीक से समझ लेना जरूरी होगा।
नीति से धर्म पैदा नहीं होता, धर्म से नीति पैदा होती है। नैतिकता से तो एक तरह का पाखंड पैदा होता है धर्म पैदा नहीं होता। क्योंकि नैतिकता आचरण का परिवर्तन है, आत्मा का परिवर्तन नहीं है। और हमारी आत्मा तो होती है कुछ और आचरण हम बदल लेते हैं कुछ। प्राण तो कहते हैं चोरी करो और बुद्धि कहती है चोरी मत करो। भीतर से तो कोई कहता है कि यह करो, सुनी हुई नैतिकता कहती है यह मत करो। मनुष्य एक द्वंद्व में टूट जाता है। भीतर उठता है कि असत्य बोलो, नैतिकता को ध्यान में रख कर सत्य बोलने की कोशिश करता है।
आप कहेंगे कि क्या यह जरूरी है कि ऐसा होता हो? हां, ऐसा ही होता है। और बिल्कुल जरूरी है। नहीं तो सत्य बोलने की कोशिश ही न करनी पड़े। अगर असत्य न उठता हो तो सत्य बोलने की कोशिश का सवाल ही क्या है। अगर भीतर बेईमानी न उठती हो तो ईमानदार होने का सवाल ही क्या है। भीतर चोरी उठती है इसलिए बाहर से हम चोरी से अपने को रोकते हैं। और इस रोकने में क्या होता है, मनुष्य दो हिस्सों में टूट जाता है। भीतर चोर रह जाता है आचरण में अचोर हो जाता है। मनुष्य दो हिस्सों में टूट जाता है। आत्मा तो कमसिद बनी रहती है और आचरण शुद्ध खादी के वस्त्रों जैसा हो जाता है सफेद, धुला हुआ। यह आचरण बड़ा धोखा पैदा करता है। यह दूसरों को तो धोखा देता ही है इससे खुद को भी धोखा पैदा होता है। और यह धोखा पैदा होगा, क्योंकि जीवन का जो वास्तविक परिवर्तन है, आचरण तो परिधि है, केंद्र तो आत्मा है। अगर आत्मा परिवर्तित हो तो आचरण अपने आप बदल जाता है। लेकिन आचरण बदले लें तो आत्मा अपने आप नहीं बदलती। जीवन भर चोरी न करें, तो भी भीतर से चोरी समाप्त नहीं होती। और जीवन भर विनम्र बने रहें तो भी भीतर से अहंकार नहीं जाता है, वह मौजूद होता है भीतर। क्योंकि जीवन के परिवर्तन की जो ठीक विधि है वह यह नहीं है। जीवन के परिवर्तन की ठीक विधि यह है कि पहले आत्मा, केंद्र बदल जाए, तो फिर परिधि अपने आप बदल जाती है। नहीं तो हम किसी न किसी रूप में चीजों से चिपके रहते हैं वहीं के वहीं।
दो व्यक्ति पति और पत्नी जंगल से लौटते थे। वे दोनों बहुत साधु-चरित्र थे, बहुत नैतिक थे। न तो चोरी करते थे, न बेईमानी, न असत्य बोलते थे, न संपत्ति का संग्रह करते थे। लकड़ियां काट लाते थे जंगल से, बेच देते थे, जो मिलता था उसे खा लेते थे। सांझ जो चावल, गेहूं के दाने बच जाते थे उनको बांट देते थे, रात उनके पास कुछ भी नहीं होता था। दूसरे दिन सुबह फिर जंगल जाते और लकड़ी काट लाते। लेकिन एक बार सात दिन तक पानी गिरता रहा, और वे जंगल नहीं जा सके और सात दिन उपवास करना पड़ा। लेकिन उन्होंने किया। उन्होंने पड़ोसियों से मांगा नहीं। पड़ोसियों ने देना भी चाहा, तो वे लेने को राजी न हुए।
सात दिन बाद पानी खुला और वे जंगल गए। वे लकड़ियां काट कर लौटते थे। पति आगे था पत्नी पीछे थी। कमजोर हो गए थे, सात दिन के भूखे थे, परेशान थे। और फिर लकड़ियों को काटने का श्रम और बोझ। पति थोड़ा आगे पत्नी थोड़ी पीछे। पति ने देखा कि राह के किनारे किसी राहगीर की सोने की अशर्फियों से भरी हुई थैली गिर गई है, कुछ अशर्फियां बाहर पड़ी हैं, कुछ थैली के भीतर हैं। उसके मन में हुआ, मैंने तो स्वर्ण को जीत लिया है, मेरे मन में तो स्वर्ण के प्रति कोई कामना और वासना नहीं उठती। लेकिन स्त्री का क्या भरोसा। पुरुषों को आज तक स्त्रियों का भरोसा कभी भी नहीं रहा है। उसको भी नहीं था। इसलिए पुरुषों ने जो धर्म बनाएं हैं उनमें स्त्रियों को मोक्ष जाने की व्यवस्था नहीं की है। उनका कोई भरोसा नहीं है। स्त्रियां शास्त्र बनातीं तो शायद पुरुष का भरोसा उसमें नहीं होता, और पुरुष को स्वर्ग जाने की कोई व्यवस्था नहीं होती। लेकिन चूंकि सभी शास्त्र पुरुषों ने बनाएं हैं इसलिए स्त्रियों को कोई हक स्वर्ग वगैरह, मोक्ष वगैरह जाने का नहीं है।
उसने भी सोचा कि नहीं, यह स्त्री का क्या भरोसा। इसकी नैतिकता का कोई पक्का विश्वास नहीं है। स्त्री ही ठहरी, मन डांवाडोल हो सकता है। तो उसने उस थैली को सरका दिया गड्ढे में और मिट्टी डाल दी। पीछे से तब तक उसकी स्त्री भी आ गई, वह मिट्टी डाल ही रहा था। उसकी स्त्री ने पूछा कि क्या करते हैं? सत्य बोलने का नियम था। नैतिक आदमी था, झूठ बोल सकता नहीं था। तो बड़ी मुश्किल में पड़ गया। बताना पड़ा उसे कि ऐसा-ऐसा हुआ, यहां थैली पड़ी थी अशर्फियों से भरी, मेरे मन में हुआ कि मैंने तो स्वर्ण को जीत लिया लेकिन मेरी स्त्री का मन न डोल जाए। इसलिए मैंने उस स्वर्ण की थैली को गड्ढे में डाल कर मिट्टी से ढंक दिया है।
उसकी स्त्री बोलीः मैं बहुत हैरान हूं, तुम्हें अभी स्वर्ण दिखाई पड़ता है? और अभी तुम्हें मिट्टी पर मिट्टी डालते हुए शर्म नहीं आती? तुम्हें अभी स्वर्ण दिखाई पड़ता है? और मिट्टी पर मिट्टी डालते हुए शर्म नहीं आती? े
यह स्त्री धार्मिक है और वह पुरुष नैतिक है। उसने अपने आचरण को तो ठोंक-पीट कर बदल लिया है, लेकिन उसकी आत्मा में वही सब वासनाएं मौजूद हैं स्वर्ण के प्रति। स्त्री पर तो वह प्रोजेक्ट कर रहा है। उसके भीतर वह मौजूद है। स्त्री का तो बहाना ले रहा है, उस पर ढाल रहा है। लेकिन स्त्री धार्मिक है। वह यह कह रही है कि तुम्हें मिट्टी पर मिट्टी डालते हुए शर्म नहीं आती। जब आत्मा से कोई परिवर्तन होता है तो सोना छोड़ना नहीं पड़ता, सोना मिट्टी हो जाता है। और जब नैतिक परिवर्तन होता है तो सोना छोड़ना पड़ता है, सोना मिट्टी नहीं होता।
तो चाहे सोने को पकड़ो और चाहे छोड़ो, ये दोनों हालत में कोई बहुत बुनियादी फर्क नहीं है। लेकिन जिस दिन सोना मिट्टी ही हो जाए, उसी दिन कोई फर्क है। और सोना उसी दिन मिट्टी होगा जिस दिन आत्मा का दर्शन हो जाए उसके पहले नहीं। जिसको अपना शरीर ही दिखाई पड़ रहा है उसे सोना मिट्टी कभी नहीं हो सकता। वह चाहे छोड़े और चाहे इकट्ठा करे। जिसने अभी अपने शरीर के पार नहीं देखा है उसे सोना मिट्टी नहीं हो सकता। जो अपने शरीर के पार देखने में समर्थ हो जाता है उसे शरीर मिट्टी हो जाता है। और शरीर मिट्टी हो जाता है इसलिए शरीर की दुनिया का सब कुछ मिट्टी हो जाता है। उसमें सोना भी मिट्टी हो जाता है। तब छोड़ना नहीं पड़ता।
धार्मिक चित्त चीजों को छोड़ता नहीं है। नैतिक चित्त छोड़ता है। और यह बड़े मजे की बात है जिस चीज को आप छोड़ते हैं उससे आप हमेशा कि लिए बंध जाते हैं, उससे कभी मुक्त नहीं होते। छोड़ कर देख लें कोई चीज, उससे आप बंध जाएंगे। क्योंकि छोड़ने का मतलब यह है कि भीतर रस था, जबरदस्ती धक्का दिया और छोड़ दिया, रस मौजूद है। धार्मिक चित्त से चीजें छूटती हैं, छोड़ी नहीं जातीं। जैसे पके पत्ते गिर जाते हैं वृक्ष से, वैसे धार्मिक चित्त से कुछ चीजें गिर जाती हैं, झड़ जाती हैं। उन्हें कोई छोड़ता नहीं है। धार्मिक व्यक्ति असत्य बोलना छोड़ता नहीं है असमर्थ हो जाता है असत्य बोलने में। नैतिक व्यक्ति समर्थ होता है असत्य बोलने में, लेकिन असत्य बोलना छोड़ता है। इससे एक द्वंद्व उसके भीतर पैदा होता है।
नैतिक व्यक्ति तो द्वंद्वग्रस्त व्यक्ति है। नैतिक व्यक्ति धार्मिक व्यक्ति नहीं है। तो क्या मैं यह कह रहा हूं कि आप अनैतिक हो जाएं? नहीं, मैं आपसे यह कह रहा हूं कि नैतिक होने से आप इस भूल में मत पड़ जाना कि आप धार्मिक हो गए हैं। नैतिक हो जाने से इस भूल में मत पड़ जाना कि आप धार्मिक हो गए हैं। धार्मिक होना आयाम ही दूसरा है, दिशा ही दूसरी है। वह बात ही और है। वह सुगंध और है। वह प्रकाश और है। नैतिक मनुष्य को न तो कोई प्रकाश मिलता है, न कोई सुगंध और न कुछ। बल्कि नैतिक मनुष्य का सारा रस अहंकार का रस होता है। जैसे हम अच्छे-अच्छे वस्त्र पहन कर शानदार दिखाई पड़ने लगते हैं, हममें जो बहुत चालाक हैं वे अच्छा आचरण करके बहुत शानदार हो जाते हैं। उनका अहंकार तृप्त होता है इस बात से कि मैं झूठ नहीं बोलता, मैं चोर नहीं हूं, मैं बेईमान नहीं हूं। मैं बेईमान हो सकता हूं? तुम होओगे बेईमान, सारी दुनिया होगी बेईमान, लेकिन मैं? मैं सात्विक पुरुष और नैतिक पुरुष, मैं बेईमान हो सकता हूं, चोर हो सकता हूं। तो यह नैतिक पुरुष तो ईगोइस्ट होता है। और नैतिक पुरुष से ज्यादा अहंकारी आदमी खोजना मुश्किल है। और इसीलिए नैतिक पुरुष दूसरे की अनीति में हमेशा झांकता रहता है। देखता रहता है कि कौन-कौन चोरी कर रहा है। क्योंकि इसी में उसे रस होता है कि मैं चोरी नहीं करता हूं। कौन-कौन चोरी करता है। नैतिक पुरुष दूसरों की दीवाल में छेद करके झांकता रहता है कि दूसरे लोग अपने घरों में क्या कर रहे हैं। नैतिक व्यक्ति निंदक होता है हमेशा दूसरों का। क्योंकि उसका सारा रस ही इस बात में है कि वह नैतिक है और दूसरे लोग नैतिक नहीं हैं।
इसलिए जो कौम नीति के चक्कर में पड़ जाती है वह निंदक हो जाती है। हम अपने ही मुल्क में इस बात को भलीभांति जानते हैं। हमारे मुल्क जैसे निंदक लोग कहां खोजने से मिलेंगे। और हमारे जैसे मुल्क के लोग नीति के प्रेमी भी और कहां मिलेंगे। दिन-रात सुबह से शाम तक नीति की चर्चा करते हैं। और दिन-रात सुबह से शाम तक दूसरों की निंदा करते हैं और दूसरों के वस्त्र उघाड़ कर देखते हैं और दूसरों की दीवालों में झांकते हैं। क्यों? यह अनिवार्य है। क्योंकि नैतिक पुरुष का एक ही मजा है कि मैं भला आदमी हूं। और यह भलापन उतना ही बड़ा हो जाता है जितने दूसरे लोग बुरे सिद्ध हो जाते हैं। इसलिए हर नैतिक आदमी दूसरे को बुरा सिद्ध करने में लगा रहता है।
लेकिन धार्मिक व्यक्ति बहुत दूसरे तरह का व्यक्ति होता है। उसकी नैतिकता उसके धार्मिक स्वभाव से बहती है वैसे ही जैसे दीये से प्रकाश बहता है, फूल से सुगंध बहती है। उसे पता भी नहीं चलता कि मैं नैतिक हूं। और इसलिए धार्मिक व्यक्ति कभी किसी दूसरे की अनीति में झांक कर देखने की कोशिश भी नहीं करता। बल्कि अगर आप उसे दिखाना भी चाहें तो उसे दिखना मुश्किल हो जाएगा।
जापान में एक रात एक फकीर के घर में एक चोर घुसा। दरवाजा धकाया, सोचता था बंद होगा, लेकिन फकीर का दरवाजा था, बंद किसके लिए किया जाता, वह खुला था, अटका हुआ था। चोर को अंदाज न था कि फकीर जगता होगा, कोई बारह बजे थे रात के। भीतर गया तो घबड़ा गया, फकीर बैठा था, कुछ चिट्ठी-पत्री लिखता था। उस फकीर ने कहाः आओ, आओ, इतनी रात को तो कोई कभी आता नहीं, कैसे आए मित्र? उस फकीर को ख्याल भी नहीं आया कि यह आदमी चोर हो सकता है या हत्यारा हो सकता है। आधी रात में दूसरे के घर में एकदम से घुस आया और हाथ में उसके छुरा था नंगा। लेकिन उस फकीर ने कहाः आओ, आओ मित्र, इतनी रात गए तो कोई भी नहीं आता, आओ, बैठो। उस फकीर की प्रेम भरी बात सुन कर उस चोर को लौट कर भागना भी आसान न हुआ। मजबूरी में उसे बैठ जाना पड़ा कुर्सी पर। उस फकीर ने पूछाः क्या इरादे हैं? कैसे आए? क्या चाहते हो? उस सीधे-सरल आदमी के सामने झूठ बोलना भी शायद आसान नहीं हुआ। उस चोर ने कहा कि मैं चोरी करने आया हूं। उस फकीर ने कहाः बड़े बेवक्त आए। एक-दो दिन पहले तो खबर करनी थी, तो मैं कुछ व्यवस्था करता कि तुम चोरी करके ले जाते। फकीर का झोपड़ा है। बड़ी दुविधा में तुमने मुझे डाल दिया। तो क्या तुम्हें दूं? हां, अच्छा ही हुआ, सुबह एक आदमी आया था और दस रुपये भेंट कर गया था, वे रखे हैं। लेकिन इतने से पैसे में... तुम इतनी दूर आए अंधेरी रात में और फकीर के झोपड़े पर आए, इसी से पता चलता है कि कितनी मुसीबत में और कितनी जरूरत में होओगे, दस रुपये से काम चल सकेगा? वह चोर तो बहुत घबड़ा गया। उसकी कुछ समझ में नहीं आया कि क्या करे। फकीर उठा उसने अपने आले से दस रुपये निकाले और उस चोर को दिए। और कहा कि अगर तुम्हारी मर्जी हो तो एक रुपया छोड़ जाओ, सुबह-सुबह कभी मुझे जरूरत पड़ जाती है। उस चोर ने एक रुपया छोड़ दिया और वह भागा निकल कर। फकीर चिल्लाया और उसने कहा कि रुको मित्र, दरवाजा तो कम से कम अटका दो और कम से कम मुझे धन्यवाद तो दे जाओ, क्योंकि दस रुपये जो तुमने लिए हैं वे तो कल चुक जाएंगे, लेकिन दिया हुआ धन्यवाद कभी पीछे भी काम पड़ सकता है, तो धन्यवाद देते चले जाओ।
वह चोर किसी तरह धन्यवाद देकर वहां से भागा। पीछे वह पकड़ा गया और मुकदमा चला। और भी बहुत सी चोरियां उसके ऊपर थीं। इस फकीर की चोरी का मामला भी था। इस फकीर को अदालत में बुलाया गया। वह चोर बहुत डरा हुआ था, कि अगर उस फकीर ने पहचान लिया तो उसका पहचानना ही काफी होगा, फिर किसी और प्रमाण की जरूरत न रह जाएगी। वह इतना प्रसिद्ध आदमी था।
मजिस्ट्रेट ने पूछा उस फकीर को कि आप पहचानते हैं इसे?
उसने कहाः भलीभांति पहचानता हूं, ये मेरे मित्र हैं। और कई बार तो ऐसा हुआ है कि आधी रात भी आ गए हैं। मित्र के घर ही कोई आधी रात को आता है, ऐसे किसके घर कौन जाता है। वह फकीर ने यह कहा, वह चोर तो घबड़ाया हुआ था।
मजिस्ट्रेट ने पूछाः इसने कभी तुम्हारे यहां चोरी की?
उसने कहा कि नहीं, कभी नहीं। एक बार ये आए थे तो नौ रुपये मैंने इन्हें दिए थे, लेकिन उसके लिए इन्होंने धन्यवाद दे दिया था। बात खतम हो गई, उसका कोई लेना-देना बाकी नहीं रहा। और ये आदमी बहुत भले हैं मैं आपसे कह दूं, क्योंकि मैंने इनसे कहा था एक रुपया छोड़ जाओ, तो ये छोड़ गए थे। और मैंने इनसे कहा, दरवाजा अटका दो, तो इन्होंने दरवाजा अटका दिया था। और मैंने इनसे कहा कि धन्यवाद दे दें, तो यह इतना सीधा आदमी कि इसने मुझे धन्यवाद भी दिया था। कौन कहता है यह चोर है?
यह एक धार्मिक व्यक्ति का अनुभव होता है जीवन के प्रति। उसे चोर दिखना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि उसके भीतर का चोर मर जाता है। उसे बेईमान दिखना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि उसके भीतर का बेईमान मर जाता है। उसे हत्यारा दिखना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि उसके भीतर का हत्यारा मर जाता है। नैतिक व्यक्ति के भीतर खूब घनीभूत हो जाता है हत्यारा, चोर और बेईमान, तो उसे हर एक के भीतर चोर, बेईमान दिखाई पड़ने लगता है।
इन्हीं नैतिक व्यक्तियों ने नरक की कल्पना की है कि चोरों को वहां जलवाएंगे कड़ाहियों में, बेईमानों को वहां आग में डालेंगे, कीड़े-मकोड़े सताएंगे, और नरक में अनंतकालीन कष्ट देंगे। ऐसे-ऐसे धर्म हैं जो कहते हैं कि अनंतकाल के लिए नरक में डाल दिए जाएंगे, अनंतकाल के लिए। कितने पाप किया होगा आखिर? एक आदमी जिंदगी में कितना पाप कर सकता है। दो-चार-दस साल की सजा भी ठीक हो सकती थी, अनंतकाल के लिए नरक में डाल देने वाले लोग कौन रहे होंगे? ये वे ही नैतिक लोग, जिन्होंने थोड़ी-बहुत ईमानदारी साध ली है तो बेईमानों से बदला लेना चाहते हैं उसका नरक में डाल कर। ये वे ही नैतिक लोग रस लेते हैं नरक में और खुद के लिए व्यवस्था कर ली उन्होंने स्वर्ग की। जहां ऐसी स्त्रियां हैं जो हमेशा जवान रहती है और कभी बूढ़ी नहीं होतीं। और जहां नदियों में शराब बहती है पानी नहीं बहता। यहां उन्होंने चुल्लू भर शराब छोड़ दी है तो वहां शराब के झरनों में नहाना चाहते हैं और पीते रहना चाहते हैं।
अपने लोगों ने व्यवस्था कर ली है नैतिक लोगों ने स्वर्ग की और अनैतिक लोगों के लिए नरक की। यह क्या धार्मिक लोगों ने किया होगा? क्या कोई धार्मिक चित्त का व्यक्ति यह कल्पना कर सकता है कि जिसने कभी भूल की है उसे नरक में डाल कर आग में सड़ाएंगे। और अगर ऐसा आदमी भी धार्मिक आदमी भी यह कल्पना कर सकता है तो फिर अधार्मिक आदमी और धार्मिक आदमी में भेद क्या है?
तो मुझे दिखाई पड़ता है ये सारे स्वर्ग-नरक नैतिक व्यक्ति से पैदा हुए हैं, धार्मिक व्यक्ति से नहीं। यह भय और प्रलोभन नैतिक व्यक्ति ने पैदा किया धार्मिक व्यक्ति ने नहीं।
धर्म का संबंध नीति से कोई भी नहीं है इस भांति का जैसा हम सोचते हैं कि नैतिक व्यक्ति धार्मिक हो जाएगा।
नहीं, लेकिन एक दूसरी तरह का संबंध जरूर है। धार्मिक व्यक्ति अनिवार्यतः नैतिक हो जाता है, लेकिन उसे नैतिक होने का बोध नहीं होता। यह सहज होता है। यह कोई कल्टिवेटिड, यह कोई आरोपित बात नहीं होती उसका नैतिक होना। वह नैतिक होने को मजबूर होता है। वह नैतिक होने को विवश होता है। वह नैतिक ही हो सकता है, अनैतिक होने का सवाल ही नहीं उठता। यह मुझे नहीं लगता कि कोई नैतिकता जीवन का पथ है। कभी भी नहीं है। नैतिकता तो कोई और प्रयोजन से व्यवस्था की गई है, उसका धर्म से कोई संबंध नहीं है। समाज की व्यवस्था है नैतिकता। समाज चाहता है चोरी न हो। समाज चाहता है जिनका धन है उनके पास सुरक्षित रहे। और जिनके पास धन है वे तो बहुत ही चिंतित हैं इस बात के लिए कि चोरी बिल्कुल न हो। इसलिए धनियों ने जितने भी ग्रंथ लिखवाए हैं सबमें लिखवा दिया है चोरी करना पाप है। लेकिन धनिकों के द्वारा लिखवाए गए ग्रंथों में कहीं भी नहीं लिखा है कि शोषण करना पाप है, एक्सप्लाइटेशन पाप है, यह कहीं भी नहीं लिखा है। आज तक एक भी धर्मग्रंथ ने यह नहीं लिखा कि एक्सप्लाइटेशन पाप है। चोरी पाप है यह तो समझ में आ गया, लेकिन इतना धन इकट्ठा कैसे हो जाता है एक आदमी के पास? यह पाप नहीं है? नहीं तो वे धर्मग्रंथ कहते हैं यह पिछले जन्मों के पुण्य से इकट्ठा हो गया।
गरीबी पिछले जन्म के पाप के कारण है, धन पिछले जन्म के पुण्य के कारण है। और चोरी, चोरी करना मत, क्योंकि चोरी हमेशा धनिक के विरोध में है, इसलिए चोरी पाप है। शोषण पाप नहीं है। और बड़ा मजा यह है कि अगर शोषण न हो तो चोरी कैसे हो सकती है? जब तक दुनिया में शोषण है चोरी होगी। चोरी कैसे रुक सकती है। बड़े चोर धनपति हैं, छोटे चोर जेलों में बंद हैं। बिना चोरी के धन इकट्ठा होता ही नहीं। धन का संग्रह मात्र चोरी है, लेकिन धन के संग्रह को पाप नहीं कहते हैं धर्मग्रंथ। और नैतिक गुरु उसको पाप नहीं बताते हैं। क्योंकि सब नैतिक गुरु और सब धर्मशास्त्री जिन-जिन के धन पर जीते हैं, उनके धन की निंदा नहीं कर सकते, उसमें असमर्थ हैं। इसलिए एक शड्यंत्र चल रहा है दुनिया में हजारों साल से¬धनियों के बीच और धर्मगुरुओं के बीच एक साजिश चल रही है। और धर्मगुरु धनी की सुरक्षा कर रहा है हजारों साल से। और व्यवस्था दे रहा है उसको कि तेरे पुण्य का फल है यह। और चोरी के विरोध में है वह।
कनफ्यूशियस कुछ दिनों के लिए एक दफा मजिस्ट्रेट हो गया था। ज्यादा दिन नहीं रह सका। क्योंकि अच्छा आदमी मजिस्ट्रेट ज्यादा दिन नहीं रह सकता। मजिस्ट्रेट ज्यादा दिन वही रह सकता है जिसके पास कोई आत्मा न हो। कनफ्यूशियस मजिस्ट्रेट हो गया था, उसके पास आत्मा थी इसलिए पहले मुकदमे में ही सब गड़बड़ हो गई बात। पहला मुकदमा, दूसरा मुकदमा उसके सामने नहीं लाया जा सका, क्योंकि वह निकाल बाहर कर दिया गया। पहला मुकदमा ही गड़बड़ हो गया।
मुकदमा आ गया था, एक साहूकार, जो उसके गांव का सबसे बड़ा साहूकार था, उसकी चोरी हो गई थी। कनफ्यूशियस के सामने मुकदमा आया। चोर पकड़ लिया गया था। चोरी में गई चीजें पकड़ ली गई थीं। मामला साफ था। सजा देनी चाहिए थी। कनफ्यूशियस ने सजा दी। लेकिन दोनों को सजा दे दी, साहूकार को भी और चोर को भी। छह-छह महीने की सजा दे दी।
साहूकार चिल्लाया कि मजाक करते हैं, किस कानून में लिखा है यह? और यह क्या पागलपन है, मुझे सजा देते हैं? कनफ्यूशियस ने कहाः तुम न होते तो यह चोर भी नहीं हो सकता था। तुम हो इसलिए यह चोर है। चोर बाई-प्रोडक्ट है। चोर तुम्हारी पैदाइश है। यह तुम्हारा पुत्र है चोर। तुम बाप हो, यह बेटा है। तुमने सारे गांव की संपत्ति इकट्ठी कर ली, चोरी नहीं होगी तो क्या होगा? सारे गांव की संपत्ति इकट्ठी हो गई एक तरफ, सारा गांव कंगाल हो गया, चोरी नहीं होगी तो क्या होगा? इस चोर का कसूर ज्यादा नहीं है, पूरा गांव चोर हो जाएगा धीरे-धीरे।
और यह हुआ है। सारी दुनिया चोर हो गई चिल्लाते-चिल्लाते कि चोरी मत करो। यह होगा। क्योंकि चोरी की बुनियाद तोड़ने के लिए धर्मग्रंथ कुछ भी नहीं कहते, शोषण को तोड़ने के लिए कुछ भी नहीं कहते। इसलिए चोरी तो बढ़ती जाएगी, एक दिन सारी दुनिया चोर होगी। यह होना मजबूरी है।
कनफ्यूशियस को निकाल कर बाहर कर दिया गया कि यह मजिस्ट्रेट होने के काबिल नहीं, यह आदमी तो पागल है।
ढाई हजार साल हो गए कनफ्यूशियस को मरे हुए। अब तक भी हम उस स्थिति में नहीं आ पाए हैं कि कनफ्यूशियस को फिर से मजिस्ट्रेट बना दें। अब भी हम उस हालत में नहीं आ पाए। उस दिन की प्रतीक्षा करनी है अभी और जिस दिन कनफ्यूशियस को हम वापस मजिस्ट्रेट बना सकें कि अब फिर तुम मजिस्ट्रेट हो जाओ। लेकिन अभी भी आदमी उतनी समझ पर नहीं आ पाया।
समाज की व्यवस्था को जमाए रखने के लिए सारी नीति है। और समाज ने व्यवस्था कर रखी है। पुलिस, मजिस्ट्रेट, इनसे काम थोड़ा-बहुत चलता है, लेकिन कुछ चोर बहुत होशियार होते हैं, वे पुलिसवाले से भी बच जाते हैं, मजिस्ट्रेट से भी बच जाते हैं। क्योंकि आखिर मजिस्ट्रेट भी आदमी है, पुलिसवाला भी आदमी है। और आदमी की कमजोरियां हैं। वे बच जाते हैं। सबकी कमजोरियां हैं। तो जो बच जाते हैं उनके लिए क्या किया जाए? तो उनके लिए कांसियंस पैदा की है। कांस्टेबल बाहर, कांसियंस भीतर। पुलिसवाला बाहर और भीतर नैतिक बुद्धि। बचपन से पिला रहे हैं उनको चोरी मत करना, यह मत करना, वह मत करना, ताकि भीतर से भी एक घबड़ाहट पैदा हो जाए। बाहर के पुलिसवाले से बच जाएं तो भीतर के पुलिसवाले से न बच सकें। और ऊपर एक परमात्मा बिठाया हुआ है सुप्रीम कांस्टेबल, सबसे बड़ा पुलिसवाला, हेड कांस्टेबल। उसका डर है कि वह नरक में डाल देगा, सड़ा देगा। यह कर देगा, वह कर देगा।
समाज अपनी व्यवस्था को जमाए रखने के लिए सारी नैतिकता का जाल खड़ा किया है। इसका मतलब यह नहीं है कि मैं आपसे कह रहा हूं अनैतिक हो जाएं, मैं आपसे यह कह रहा हूं कि इस भांति आप नैतिक भी हो जाएं तो भी नैतिक नहीं होते, यह सब अनैतिकता है। अगर सच में ही नैतिक होना है तो धार्मिक होना पड़ेगा। धार्मिक हुए बिना कोई नैतिक नहीं होता। एक सामाजिक जाल का हिस्सा होता है, और समाज नैतिक व्यक्ति को आदर देता है, उसके अहंकार को तृप्ति देता है, उसी के बल पर उससे कुछ त्याग करवाता है। उसके अहंकार को फुसलाता है। उसको आदर देता है कि ये बहुत नैतिक पुरुष हैं, राष्टपतियों से जाकर उनको पद्मश्री और भारतरत्न की उपाधियां दिलवाता है कि ये बहुत अच्छे नैतिक पुरुष हैं, उसके अहंकार को, उसके अहंकार को पुष्टि दिलवाता है। ताकि उस अहंकार के प्रभाव में वह बेचारा थोड़ा त्याग करे, चोरी न करे, बेईमानी न करे। लेकिन यह व्यवस्था असफल हो गई है, क्योंकि वे सारे नैतिक पुरुष इस बात को अच्छी तरह समझ लेते हैं कि नैतिकता दिखलाओ इतना ही काफी है, होने की कोई खास जरूरत नहीं। और तब एक ढकोसला और एक झूठ पूरे समाज के जीवन को पकड़ लिया है।
तो मैं आपसे निवेदन करता हूं, नैतिक होने से कोई धार्मिक नहीं होता। नैतिक होने से वस्तुतः कोई नैतिक ही नहीं होता है, क्योंकि नैतिकता अहंकार को समाप्त ही नहीं करती और बढ़ाती है। और अहंकार सबसे बड़ी अनैतिकता है।
धार्मिक होने से यह होता है। धार्मिक चित्त, रिलीजस माइंड एक अदभुत क्रांति है। सारा जीवन बदल जाता है। फिर चोरी से बचना नहीं पड़ता, चोरी का चित्त ही चला जाता है। फिर झूठ से बचना नहीं पड़ता, झूठ का चित्त ही चला जाता है। फिर क्रोध से बचना नहीं पड़ता, क्रोध का चित्त चला जाता है।
बुद्ध एक गांव के पास से निकलते थे, कुछ लोग वहां इकट्ठे हुए और उन्होंने बुद्ध को बहुत गालियां दीं, बहुत अपमानजनक शब्द कहे। बुद्ध ने खड़े होकर सुना, और फिर बाद में उनसे कहा कि मित्रो, तुम्हारी बात पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव थोड़ा जल्दी पहुंचना है।
वे लोग थोड़े हैरान हुए, गाली देने वाला सबसे ज्यादा हैरान तभी होता है जब दूसरा आदमी उसकी गाली लेता नहीं। अगर ले ले तब तो हैरानी खतम हो जाती है। मामला बन जाता है। वह भी हमारे तल पर उतर आता है, हम भी उसके तल पर खड़े हो जाते हैं। बात सीधी और साफ हो जाती है। लेकिन बुद्ध ने कहा कि मुझे दूसरे गांव जल्दी जाना है। अगर तुम्हारी बातें पूरी हुई हों तो मैं जाऊं।
उन लोगों ने कहाः ये बातें थीं क्या? हमने इतनी गालियां दीं, इतना अपमान किया?
बुद्ध ने कहाः तुमने किया वह तो ठीक है, लेकिन इतनी आजादी तो मुझे दोगे कि मैं उसे लूं या न लूं? इतना हक तो मुझे दोगे? तुमने गाली दी वह ठीक लेकिन मैं न लूं, इतना हक तो मुझे है। कि मुझे मजबूरी है कि मुझे लेनी पड़ेगी? बुद्ध ने कहा, पहले मैं भी ले लेता था लोग जो भी देते थे, अब तो मैं चुन-चुन कर लेता हूं जो लेना होता है, जो नहीं लेता वह नहीं लेता।
पिछले गांव में कुछ लोग मिठाइयां लेकर आए थे और कहने लगे कि ले लो। मैंने कहाः पेट मेरा भरा है, और बोझ ढोना ठीक नहीं, दूसरे गांव में फिर कोई दे ही देगा। वे बेचारे वापस ले गए। मिठाइयां वापस ले गए। अब तुम क्या करोगे? तुम गालियां लेकर आए हो। तुम्हें वापस ले जाना पड़ेगा। तुम गड़बड़ आदमी के पास आए गए। मैं लेता नहीं हूं। और उन्होंने तो अपने बच्चों को बांट दी होंगी मिठाइयां, तुम अपनी गालियां का क्या करोगे? बड़ी मुसीबत में पड़ गए। और तुम पर मुझे बहुत दया आती है। अब मैं क्या करूं, तुम्हें किस भांति सहारा दूं? मैं किस भांति तुम्हें बोझ से हलका करूं? मैं बिल्कुल मुश्किल में हूं, मैंने गालियां लेना बंद कर दीं। और गालियां लेनी मैंने इसलिए बंद नहीं कीं कि तुम पर मुझे कोई दया करनी है बल्कि इसलिए कि मुझे अपने पर दया आनी शुरू हो गई। जैसे-जैसे मैंने भीतर देखा मुझे अपने पर दया आने लगी और अपने से प्रेम हो गया। अब मैं अपने को इतना प्रेम करता हूं कि मैं गाली नहीं लेता। अब मैं अपने को इतना प्रेम करता हूं कि मैं क्रोधित नहीं होता। अब मैं अपने को इतना प्रेम करता हूं कि चोरी असंभव है।
बुद्ध ने यह कहाः जब भी कोई व्यक्ति अपने चित्त में धर्म को पाएगा, तो वह पाएगा कि क्रोध असंभव हो गया। गाली लेना असंभव हो गया। अपमान लेना असंभव हो गया। करना भी असंभव हो गया। जीवन एक बिल्कुल ही नई दिशा में गति करना शुरू करता है। नैतिक व्यक्ति की दिशा का कोई भेद नहीं है वह अनैतिक के साथ ही खड़ा है। जिस तरफ अनैतिक आंख किए खड़ा है नैतिक व्यक्ति उस तरफ पीठ किए खड़ा है, लेकिन खड़ा वहीं है, उसके खड़े होने में कोई डायमेंशन का फर्क नहीं है, कोई दिशा का फर्क नहीं है, कोई आयाम का फर्क नहीं है। वह वहीं खड़ा है। उसकी पीठ फेर लेने में कोई दिक्कत नहीं है, जरा ही हाथ का धक्का दो उसकी पीठ फेरी जा सकती है। जरा ही उसको जोर से एक सुई चुभा दो, तो उसकी स्किनडीप जो मॉरेलिटी है, खतम हो जाएगी, वह अपने असली रूप में वापस लौट आएगा। यह तो रोज होता है।
एक आदमी को हम देखते हैं रोज मस्जिद जाता है, नमाज पड़ता है; एक आदमी को हम रोज देखते हैं गीता खोलता, पाठ करता है, तिलक लगाता है, चंदन लगाता है, सब करता है, और एक दिन हम अचानक पाते हैं कि हिंदू-मुसलमान लड़ गए। और वह नमाज पढ़ने वाला और गीता पढ़ने वाला छुरा लिए दौड़ा जा रहा है। बड़ा मुश्किल है। यह क्या हो गया इनको? ये तो बड़े नैतिक और भले आदमी थे, रोज नमाज पड़ते थे, गीता पड़ते थे, रामायण पड़ते थे, यह हो क्या गया? एक मंदिर तोड़ रहा है, दूसरा मस्जिद में आग लगा रहा है। यह हो क्या गया? इनकी नैतिकता गई कहां? इनका धर्म कहां गया? चमड़े से भी पतली नैतिकता थी वह, जरा उसको खरोंच दो खतम हो जाती है, उसमें कोई देर नहीं लगती। ऐसी नैतिकता का कोई मूल्य नहीं है। और ऐसी नैतिकता के भ्रम में मनुष्य आज तक रहा है।
मैं नीति को धर्म नहीं मानता, लेकिन धर्म को जरूर नीति मानता हूं।
और बहुत से प्रश्न हैं, आज तो मुश्किल होगा, आज तो तीन प्रश्न इतने लंबे रख दिए गए थे कि मैं उन्हें कितने संक्षिप्त में उत्तर दूं यह भी मुश्किल है। अभी एक और रह गया है, उसको अंत में थोड़े समय में कह देता हूं, फिर जो प्रश्न बचे हैं उनको कल ले लूंगा। और इसकी बहुत चिंता न करेंगे कि आपके प्रश्न का उत्तर हुआ कि नहीं। क्योंकि अगर जितने प्रश्नों के मैं उत्तर दे रहा हूं, उनसे मेरी दृष्टि आपको समझ में आ जाएगी, तो आपका प्रश्न अगर छूट भी गया, तो भी आप समझ ले सकते हैं कि मैं क्या कहता।
तो मैं चुने हुए जो प्रतिनिधि प्रश्न हैं उनके उत्तर दे रहा हूं। इसी ख्याल से कि मेरी दृष्टि आपके ख्याल में आ जाए। उत्तर का कोई मूल्य भी नहीं है, मेरी दृष्टि का आपको ख्याल में आ जाए। तो फिर आप जिन प्रश्नों के उत्तर मैंने नहीं भी दिए, उनका भी आप ख्याल कर ले सकते हैं कि मैं क्या कहूंगा।
पहला प्रश्न मैंने छोड़ दिया अंत के लिए, क्योंकि पहले प्रश्न में थोड़ी सी गड़बड़ी है। गड़बड़ी इसलिए है कि उसको मैं एक कहानी से ही आपको समझाऊं। क्योंकि जो बात सिद्धांत से नहीं बताई जा सकती वह शायद कहानी बता देती है।
एक सराय में एक रात मुल्ला नसरुद्दीन नाम का एक आदमी आकर ठहरा। एक बहुत अदभुत आदमी था जो कभी पैदा नहीं हुआ दुनिया में, नसरुद्दीन। वह कभी पैदा नहीं हुआ इसलिए कोई उसकी चिंता मत करना। लेकिन आदमी बहुत अदभुत था। और उसके बाबत बहुत कहानियां प्रचलित हैं। यह भी कहानी उसके बाबत प्रचलित है। वह एक सराय में ठहरा। सराय भरी हुई थी। एक कमरा, एक नया यात्री आकर ठहरा था, तो सराय के मालिक ने कहा कि अगर आप भी इस यात्री के साथ ठहर जाएं मुल्ला तो ठीक, खाली कमरा नहीं है।
रात आधी होती थी इसलिए मजबूरी में मुल्ला नसरुद्दीन को ठहरना पड़ा। यज्ञपि उन्होंने बहुत सोचा कि मैं किसी के साथ न ठहरूं। वे अकेले ही ठहरने चाहते थे, कुछ कारण था जिसके वजह से अकेले ठहरना चाहते थे। लेकिन मजबूरी थी, बाहर रात बिताने के बजाय भीतर रात बितानी बेहतर थी, चाहे किसी के साथ ही सही।
वे गए कमरे में। जूते और पगड़ी पहने हुए और कोट पहने हुए वे बिस्तर पर लेट गए। वह जो दूसरा यात्री था हैरान हुआ, उसने कहा कि आप कपड़े तो उतार दें, कम से कम पगड़ी और जूते तो खोल दें, ऐसे में कैसे नींद आएगी?
नसरुद्दीन ने कहाः मैं खुद ही परेशान हूं कि नींद कैसे आएगी? लेकिन एक बड़ा प्रश्न, एक बड़ा प्रॉब्लम है, उसके कारण मैं अपने जूते नहीं खोल रहा हूं।
वह आदमी बोलाः कौन सा प्रश्न है, कौन सी समस्या है?
नसरुद्दीन ने कहा कि कपड़े पहने रहा तब तो मैं पहचान जाता हूं कि मैं मुल्ला नसरुद्दीन हूं। और अगर मैंने कपड़े निकाल दिए, सुबह मैं कैसे पहचानूंगा कि मैं मुल्ला नसरुद्दीन हूं कि कोई और हूं? उसने कहा कि जब तक कपड़े पहने हूं तब तक मुझे पक्का पता है कि मैं मुल्ला नसरुद्दीन हूं लेकिन सुबह, अगर मैंने कपड़े उतार दिए और सुबह उठा और दो आदमी कमरे में हैं अगर अकेला होता तो भी मैं समझ जाता कि मैं मैं ही हूं। दो आदमी कमरे के भीतर हैं, मैं कैसे पहचानूंगा कि मैं कौन हूं और तुम कौन हो? मुल्ला नसरुद्दीन कौन है दो में से? कपड़े उतारने से यह खतरा है।
वह आदमी भी बोला यह तो बड़ी मुश्किल की बात है। अब यह जरूर मुश्किल का मामला है कि अब यह सुबह कैसे तय होगा कपड़े उतार देने पर? उसने कहा कि एक काम करो, उसके पहले उस कमरे में जो यात्री ठहरे होंगे उनमें का कोई बच्चा एक गुड्डी और एक फुग्गा छोड़ गया था। तो उसने कहा, इस फुग्गे को अपने पैर में बांध लो और गुड्डी को अपने बिस्तर के पास रख लो। ये सबूत हो जाएंगे तुम्हारे। जब तुम सुबह उठो तो देख लेना कि पैर में फुग्गा बंधा है, गुड्डी बिस्तर पर रखी है, तो तुम ही मुल्ला नसरुद्दीन हो।
उसने कहाः यह बात तुमने ठीक बताई। इससे कुछ तो चिह्न रहेगा, कुछ तो टेस्ट रहेगा, कुछ तो परीक्षा रहेगी, इम्तिहान रहेगा, पहचानने की कोई तो तरकीब रहेगी। उसने फुग्गा बांध लिया और गुड्डी रख कर नसरुद्दीन सो गया। वह दूसरा आदमी बड़ा शैतान रहा होगा। जब नसरुद्दीन सो गया, उसने फुग्गा निकाल कर अपने पैर में बांध लिया और गुड्डी अपने बिस्तर पर रख ली। जो कि कोई भी समझदार आदमी करता है ऐसे आदमी के साथ, उसने भी किया। सुबह में चार बजे के करीब नसरुद्दीन की नींद खुली तो वे घबड़ा गए, उचक कर खड़े हुए, उस आदमी को हिलाने लगे कि देखो वह गड़बड़ हो गई जो मैंने कही थी। पैर में फुग्गा नहीं है, गुड्डी पास में नहीं है, अब मैं कौन हूं? तुम तो मुल्ला नसरुद्दीन हो गए लेकिन मैं कौन हूं?
हम हंसते हैं इस आदमी पर। लेकिन हम पूछते हैं कि अगर हम भीतर जाएंगे तो हम कैसे पहचानेंगे कि हम कौन हैं? कैसे हम जानेंगे कि मैं मैं ही हूं? मैं वही हूं जो हूं? यह हम पूछते हैं इसकी परीक्षा क्या? इसका उपाय क्या? इसका मेथड क्या? इसका लक्षण क्या? कैसे हम पहचानेंगे कि मैं मैं ही हूं?
तो मैं आपसे निवेदन करता हूं, जब तक आप नहीं गए हैं तब तक यह प्रश्न उठता है। जैसे ही आपने आंख भीतर फेरी, न किसी परीक्षा की जरूरत और न पैर में किसी फुग्गे के बांधने की और न पास में कोई गुड्डी रखने की। आप भीतर आंख फेरते ही जानेंगे कि आप आप हैं। किसी से पूछने की इसके लिए कोई जरूरत नहीं है। और अगर इसके लिए भी पूछना पड़े, तब तो फिर बड़ी मुश्किल हो गई, फिर तो कोई रास्ता ही नहीं रह जाएगा। यह तो अंतिम स्थिति है, यह अंतिम तत्व है जो आप हैं, इसे किसी से पूछने की जरूरत नहीं है। तो सवाल यह नहीं है कि आप कैसे पहचानेंगे कि आप कौन हैं, सवाल यह है कि सिर्फ आप कैसे भीतर आंख ले जाएं? जो भी ले जाता है वह एकदम पहचान लेता है कि मैं मैं हूं। लेकिन आंख ही न ले जाएं तो सारी गड़बड़ है। और आंख ले जाने के पहले प्रश्न उठाएं तो बड़ी मुश्किल है, कोई रास्ता नहीं है। मैं भी नहीं बता सकता, कोई कभी नहीं बता सका इस बात को।
तो मैं निवेदन करूंगा, आंख भीतर ले जाने का रास्ता है। और आंख जब भीतर जाती है, तो आप उसी भांति पहचान लेते हैं कि आप आप हैं। जैसे अभी आपको भूख लगती है तो आप कैसे पहचान लेते हैं कि भूख लगी? कौन बताता है आपको? किसी से पूछने जाते हैं? कि कोई तरकीब बताइए कि मैं पहचान लूं कि मुझे भूख लगी है? आप बस पहचानते हैं कि मुझे भूख लगी है। प्यास लगती है आप पहचानते हैं कि मुझे प्यास लगी है। पैर में कांटा गड़ जाता है तो आप जानते हैं कि मुझे दर्द हो रहा है, किसी से पूछते नहीं कि मैं कैसे पहचानूं कि मुझे दर्द हो रहा है। नहीं, बस आप जानते हैं कि आपको दर्द हो रहा। प्यास लगी, भूख लगी। अगर आप भीतर जाएंगे तो आप जानेंगे कि आप हैं। क्या हैं, कौन हैं, इसे भी जानेंगे बिना किसी प्रमाण के और बिना किसी विटनेस के, बिना किसी साक्षी के, बिना किसी गवाह के। असल में अगर हम अपने को भी जानने के लिए गवाह की जरूरत हो और परीक्षा की जरूरत हो, तब तो फिर हम दुनिया में कुछ भी न जान सकेंगे। कम से कम एक चीज तो हम जान सकते हैं बिना गवाह के और बिना परीक्षा के, वह स्वयं का होना है।
लेकिन प्रश्न उठता है और प्रश्न बिल्कुल उचित उठता है। क्योंकि हमें डर लगता है कि हम अपने को जानते तो है नहीं। बाहर की दुनिया में तो हम अपने को थोड़ा-बहुत पहचानते हैं क्योंकि पैर से फुग्गा बंधा रहता है, पास में गुड्डी रखी रहती है। मैं जानता हूं कि मैं फलां जगह, फलां-फलां आदमी हूं, फंलानी पोस्ट पर काम करता हूं, मेरा यह नाम है, मेरी यह पत्नी है, मेरा यह मकान है, बाहर की दुनिया में तो हम अपने को पहचानते हैं। अपने कपड़ों से, जैसे नसरुद्दीन ने कहा, उस पर तो आप हंसे थे, लेकिन आप भी अपने को अपने कपड़ों के अलावा और किस चीज से पहचानते हैं? नसरुद्दीन ने कहा कि मैं अपनी पगड़ी निकाल लूं तो फिर पहचानूंगा कैसे? एक राष्टपति राष्टपति रहता है तो वह पहचानता है कि मैं राष्टपति हूं। वह राष्टपति न रह जाए तो फिर कैसे पहचानेगा? एक राजा अपने को राजा रहने से पहचानता है कि मैं राजा हूं। आप भी अपने को कुछ होने से पहचानते हैं कि मैं यह हूं।
तो बाहर की दुनिया में तो हमने कुछ-कुछ इशारे बना लिए हैं जिनसे हम पहचान लेते हैं। लेकिन भीतर की दुनिया में कोई इशारा नहीं है, अनचाटर्ड सी है वह, वहां कोई निशान नहीं लगे हैं। सागर है। राह के किनारे लगी हुई बत्तियां नहीं हैं और राह के किनारे मील के पत्थर नहीं हैं। समुद्र की तरह है, जहां कोई कुछ पहचानने जैसा नहीं लगता। तो वहां हमें बड़ी घबड़ाहट होती है। वहां नाम भी काम नहीं देता। क्योंकि नाम बाहर के उपयोग कि लिए है, भीतर नाम है ही नहीं। वहां पद काम नहीं देता, पद बाहर के उपयोग के लिए है, भीतर कोई पद नहीं है। तो घबड़ाहट लगती है कि वहां पहचानेंगे कैसे?
लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि अगर आंख भीतर ले गए, तो जरूर पहचान लेंगे, जरूर पहचान लेंगे। और जब तक आंख भीतर न ले गए तब तक नहीं पहचानेंगे, नहीं पहचानेंगे।
आंख कैसे भीतर ले जाएं, उसकी कल या परसों सुबह में आपसे चर्चा करूंगा कि आंख भीतर कैसे जा सकती है।

मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना है, जो कि हो सकता है उतनी प्रीतिपूर्ण न हों जितनी कि आप चाहते हों, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और धन्यवाद करता हूं।
एक बात जो मैं रोज ही निवेदन कर देना चाहता हूं वह यह कि मेरी बातें मान लेने के लिए नहीं हैं। जैसा कि हरेक उपदेशक आपसे कहता है कि मेरी बातें मान कर आचरण करना। वैसा मैं नहीं कहता, मैं कोई उपदेशक नहीं हूं। मैं यह आपसे नहीं कहता कि मेरी बातें मान लेना और इनके अनुसार आचरण करना। भूल कर ऐसा काम मत करना। न तो मानना और न आचरण करना। मेरी बातों को सोचना, विचार करना, विश्लेषण करना। हो सकता है उस विश्लेषण से कोई चीज आपको दिखाई पड़ जाए, कोई अंतर्दृष्टि आपको उपलब्ध हो जाए। वह अंतर्दृष्टि आपकी होगी, वह आपके मार्ग को प्रशस्त करेगी, वह आपके मार्ग को प्रकाशित करेगी।
परमात्मा करे हम सबके भीतर उस अंतर्दृष्टि का जन्म हो, जो सोई है और जाग सकती है, जो बीज की तरह है और विकसित हो सकती है।

अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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