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गुरुवार, 22 नवंबर 2018

सत्य की प्यास-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

प्रार्थना का अर्थ

मेरे प्रिय आत्मन्!
सत्य की खोज में स्वतंत्रता से बड़ी और कोई भूमिका नहीं है। जिसका मन परतंत्र है, जिसका मन गुलाम है, वह सत्य के दर्शन को कभी उपलब्ध नहीं हो सकता। और मन की गुलामी बहुत प्रकार की है। मन की दासता बहुत प्रकार की है। हमें ख्याल भी नहीं है कि मन कितने प्रकार से परतंत्र है। कितने-कितने रूपों में परतंत्रता की जड़ियों में मन बंधा है। इसका हमें ख्याल भी नहीं है। सुबह मैंने थोड़ी सी बातें इस संबंध में कही हैं एक बात को स्पष्ट करके, जो प्रश्न आए हैं उनके उत्तर दूंगा। सबसे पहले तो यह समझ लेना जरूरी है कि मन की गुलामी क्या है। हो सकता है, और ऐसा बताया गया है हजारों वर्षों से, जिस बात को मैं मन की गुलामी कहता हूं उसी बात को बहुत से लोग ज्ञान समझते रहे हैं और बताते रहे हैं।
तो जब मैं कहता हूं ज्ञान को छोड़ दें, तो बहुत से प्रश्न आए हैं कि ज्ञान को छोड़ देंगे तब क्या होगा? तब तो हमारा सहारा छूट जाएगा। तब तो हम भटक जाएंगे, तब तो मार्ग खो जाएगा।

असल में जिस ज्ञान को मैं छोड़ने को कह रहा हूं अगर वह ज्ञान ही होता तो मैं भी उसे छोड़ने को क्यों कहता। वह ज्ञान नहीं है। न केवल वह ज्ञान नहीं है बल्कि वही परतंत्रता है। और मनुष्य के मन में जिस भांति का प्रचार कर दिया जाए उसी भांति की परतंत्रता पैदा की जा सकती है।


सोवियत रूस में उन्नीस सौ सत्रह में क्रांति हो जाने के बाद वहां के बच्चों को वे सिखा रहे हैं कि कोई ईश्वर नहीं है, कोई आत्मा नहीं है, कोई परलोक नहीं है। उन्नीस सौ सत्रह में उन्होंने यह सिखाना शुरू किया। उस मुल्क में भी भगवान को मानने वाले लोग थे। उस मुल्क में भी मस्जिद थे, मंदिर थे और गिरजे थे। उस मुल्क में भी प्रार्थना होती थी और शास्त्र पढ़े जाते थे। बीस करोड़ के मुल्क में उन्होंने समझाना शुरू किया कि न कोई ईश्वर है, न कोई आत्मा है, न कोई परलोक है। यह सब पाखंड है। उन्होंने समझाया ये सब धर्म जो है अफीम का नशा है। लोग पहले हंसे, लेकिन बच्चों को वे सिखाए चले गए। बीस वर्ष बीतते-बीतते बीस करोड़ लोग भी यही दोहराने लगे कि कोई ईश्वर नहीं है, कोई आत्मा नहीं है, परलोक नहीं है। आज छोटे से बच्चे से रूस में पूछें, तो वह भी हंसेगा।
मेरे एक मित्र रूस में थे, उन्होंने एक बच्चे को स्कूल में पूछा, ईश्वर है?
उस बच्चे ने कहाः पहले हुआ करता था, जब लोग अज्ञानी थे, अब नहीं है। लेकिन हां, कुछ लोग हैं दुनिया में जो अब भी अज्ञान में और अंधकार में हैं वे मानते हैं कि है। छोटे बच्चे ने यह कहा।
बीस करोड़ लोग किस भांति यह कहने लगे कि ईश्वर नहीं है? आप हंसेंगे, कहेंगे, उनको गलत शिक्षा दे दी गई इसलिए कहने लगे। लेकिन मैं यह निवेदन करना चाहता हूं, अगर बीस-पच्चीस वर्ष की शिक्षा से लोग कहने लगते हैं कि ईश्वर नहीं है, तो दो-तीन हजार वर्ष की शिक्षा से अगर कहने लगे हों कि ईश्वर है, तो इसमें कोई फर्क है दोनों बातों में? कोई भी फर्क नहीं है। अगर उनकी बात सिखाई हुई है, तो हमारी बात भी सिखाई हुई है। अगर उनका जो है वह प्रचार है तो हम जो जानते हैं वह भी प्रचार है। हिंदू घर में एक तरह का प्रचार होता है, मुसलमान घर में दूसरे प्रकार का, जैन घर में तीसरे प्रकार का। तीन प्रचारों का परिणाम होता है कि तीन तरह के लोग खड़े हो जाते हैं। और अलग-अलग धर्मों का अलग-अलग प्रचार है। यह जिसको आप ज्ञान समझ रहे हैं यह ज्ञान है या कि कोई प्रोपेगेंडा है या कि कोई प्रचार है? और अगर आपका यह ज्ञान है तो रूस में जो है वह अज्ञान कैसे हो गया? वह भी तो एक प्रचार है, वह भी तो एक प्रोपेगेंडा है।
वहां की हुकूमत समझा रही है लोगों को ईश्वर नहीं है, तो लोग दोहराने लगे कि ईश्वर नहीं है। बच्चे को बचपन से सिखाइए कि ईश्वर नहीं है, तो वह दोहराने लगता है ईश्वर नहीं है। सिखाइए ईश्वर है, दोहराने लगता है ईश्वर है। मेरा कहना यह नहीं है कि इसमें कौन सही है कौन गलत है, मेरा कहना यह है, जो भी सिखाया जाता है वह सही नहीं हो सकता। सिखाया हुआ और जाने हुए में फर्क है।
एक अनाथालय में मैं गया था। वहां के संयोजकों ने मुझसे कहा कि हम इन बच्चों को धर्म की शिक्षा देते हैं। तो मैंने पूछा कि धर्म की शिक्षा कैसे हो सकती है? मेरी समझ में नहीं आया आज तक कि धर्म की शिक्षा कैसे हो सकती है? धर्म की साधना हो सकती है, शिक्षा नहीं हो सकती। धर्म की शिक्षा नहीं हो सकती, धर्म की साधना हो सकती है। मैंने पूछा, लेकिन कैसी शिक्षा होती है? विज्ञान की शिक्षा हो सकती है, धर्म की शिक्षा नहीं हो सकती।
पूछा है इसमें प्रश्न। विज्ञान की शिक्षा इसलिए हो सकती है, साइंस की शिक्षा हो सकती है, क्योंकि साइंस का संबंध बाहर से है। धर्म की कोई शिक्षा नहीं हो सकती, धर्म का संबंध भीतर से है। साइंस सिखाई जा सकती है क्योंकि साइंस ज्ञान नहीं है, साइंस इनफर्मेशन है, सूचना है। बाहर के संबंध में कुछ बातें सिखाई जा सकती हैं। बाहर के संबंध में बाहर से सिखाया जा सकता है, भीतर के संबंध में बाहर से कैसे सिखाया जा सकता है? तो विज्ञान की शिक्षा हो सकती है, धर्म की कोई शिक्षा नहीं हो सकती। हां, हिंदू की शिक्षा हो सकती है, मुसलमान की शिक्षा हो सकती है, जैन की, ईसाई की शिक्षा हो सकती है क्योंकि ये धर्म नहीं हैं, इनकी शिक्षा हो सकती है। बाइबिल की शिक्षा हो सकती है, गीता की और कुरान की शिक्षा हो सकती है। धर्म की कोई शिक्षा नहीं हो सकती। अगर धर्म की शिक्षा हो सकती तो हमने दुनिया को धार्मिक कभी का बना लिया होता। हमने स्कूल खोल दिए होते, विद्यालय खोल दिए होते, दुनिया धार्मिक हो गई होती।
जीवन में जो भी गहरा है उसकी कोई शिक्षा नहीं होती। प्रेम की कोई शिक्षा हो सकती है? कोई स्कूल हो सकता है जहां हम प्रेम करना सिखा दें लोगों को? और अगर ऐसा कोई स्कूल हो जहां हम प्रेम करना सिखा दें, तो आप पक्का मान लेना उस स्कूल से सीखे हुए बच्चे फिर कभी प्रेम न कर सकेंगे। क्योंकि वे बच्चे एक्टिंग करना सीख जाएंगे प्रेम की, अभिनय करना सीख जाएंगे। वे सब भांति सीख जाएंगे कैसे प्रेम किया जाए। और जो सब भांति सीख जाता है कैसे प्रेम किया जाए, उसके जीवन में फिर प्रेम का अंकुर कभी नहीं खिलता, क्योंकि वह अभिनय से तृप्त हो जाता है। वह प्राण उसके कभी प्रेम से नहीं भर पाते। अभिनेता कभी प्रेम नहीं कर पाते। हालांकि दिन-रात वे धंधा प्रेम का करने का करते हैं। अभिनेता, एक्टर कभी प्रेम नहीं कर सकता। कर नहीं पाएगा। एक्टिंग इतनी ज्यादा सीख लेगा कि वास्तविक प्रेम के झरने सुख जाएंगे, निकल नहीं पाएंगे। तो प्रेम सिखाया नहीं जा सकता। जब प्रेम नहीं सिखाया जा सकता तो परमात्मा कैसे सिखाया जा सकता है। परमात्मा तो प्रेम से बहुत प्रगाढ़, बहुत गहरा है। धर्म कैसे सिखाया जा सकता है। जीवन में जो भी श्रेष्ठतम है वह सिखाया नहीं जाता।
तो मैंने उनसे कहा कि कैसे सिखाते होंगे? उन्होंने कहा कि आप पूछ लें। कोई भी प्रश्न पूछ लें। मैंने उनसे कहाः आप ही पूछें, मैं सुनूंगा। उन्होंने बच्चों से पूछा कि ईश्वर है? उन सब बच्चों ने हाथ हिला दिए कि हां, ईश्वर है। आत्मा है? उन बच्चों ने हाथ उठा दिए, आत्मा है। जैसा वे गणित सीख गए थे वैसे ये बातें भी सिखा दी गई थीं। छोटे-छोटे बच्चे, उन पर मुझे दया आने लगी। उनसे पूछा आत्मा कहां है? उन्होंने सबने हाथ उठा कर अपनी छातियों पर रख दिए कि यहां।
मैंने एक छोटे से बच्चे से पूछाः हृदय कहां है?
उसने कहाः यह तो हमें बताया नहीं गया। आत्मा कहां है? तो उसने कहा--यहां! और मैंने पूछाः हृदय कहां है? उसने कहाः यह तो हमें बताया नहीं गया। यह तो हमारी किताब में नहीं है।
इन बच्चों को हमने सिखा दिया ईश्वर है? ये हाथ हिलाने लगे। यह कितनी झूठी बात हमने इनको सिखा दी। इन्हें कुछ भी पता नहीं है ईश्वर के होने का। हमने इन्हें सिखा दिया आत्मा, उन्होंने हाथ उठा कर बता दिया यहां! कितना हाथ झूठा है। इस हाथ को कुछ भी पता नहीं कि यहां क्या है। लेकिन हमने सिखा दिया।
अब यह सीख लेगा अच्छी तरह से। जिंदगी भर दोहराता रहेगा यही। इसको ज्ञान कहिएगा? यह ज्ञान है? जब भी जिंदगी में सवाल उठेगा ईश्वर है? इसकी सिखी हुई बात भीतर से बोलेगी, हां, है। और यह जानता नहीं है। और इसको भ्रम पैदा होगा कि मैं जानता हूं। और जब भी कोई पूछेगा, आत्मा है? यह कहेगा, है। यह वही बच्चा है सिखाया हुआ। बूढ़ा भी हो जाएगा, और जब भी सवाल उठेगा आत्मा कहां है, इसका हाथ मशीन की तरह यहां चला जाएगा और कहेगा, यहां।
ये सब सिखी हुई झूठी बातें हैं। यह हाथ झूठा है। यह हां ईश्वर के प्रति झूठी है। यह जानता तो नहीं। इसको धर्म की शिक्षा कहते हैं। इस भांति सिखा हुआ व्यक्ति कभी भी धार्मिक नहीं हो सकेगा। क्योंकि इसके पहले कि इसके भीतर खोज पैदा होती, इंक्वायरी पैदा होती, इसे कुछ उत्तर सिखा दिए गए। इसके पहले कि इसके जीवन में प्रश्न खड़ा होता, इसे उत्तर दे दिया गया। जिनके जीवन में बिना प्रश्न खड़े उत्तर मिल जाते हैं उनकी खोज बंद हो जाती है। हम सबकी खोज बंद हो गई है। फिर वे उत्तर चाहे किसी के भी हों, चाहे रूस में नास्तिक के उत्तर हों और चाहे भारत में आस्तिक के और चाहे मुसलमान के, चाहे हिंदू के, चाहे ईसाई के। असल में जीवन के संबंध में बाहर से दिए गए उत्तर भीतर के प्रश्नों की हत्या बन जाते हैं। और जब भीतर के प्रश्नों की हत्या हो जाती है तो खोज बंद हो जाती है, आदमी वहीं रुका रह जाता है। जीवन भर वहीं रुका रह जाता है। इसको आप ज्ञान कहते हैं? इसको आप सहारा कहते हैं? यह सहारा नहीं है और न यह ज्ञान है। इसको मैंने कहा कि इसे छोड़ दें। यह बंधन है, यह गुलामी है, यह प्रोपेगेंडा है। और यह प्रोपेगेंडा से हम सभी पीड़ित हैं और सभी परेशान हैं। सारी दुनिया इससे पीड़ित और परेशान है।
धर्म की खोज के लिए बाहर से जो प्रचार है उससे छुटकारा होना चाहिए। तो हमें डर होता है। प्रश्न पूछे हैं, हमें डर होता है कि अगर इसे हम छोड़ देंगे तो सहारा खो जाएगा। यह सहारा है ही नहीं। यह तो बाधा है। लेकिन होता यह है कि बहुत दिन तक जंजीरों में बंधे रहने से जंजीरों से भी प्रेम हो जाता है।
ऐसी घटनाएं घटी हैं। फ्रांस में क्रांति हुई, तो वहां के एक किले में जहां कि फ्रांस के सभी जघन्य अपराधी बंद किए जाते थे, कोई दो हजार कैदी बंद थे। वे सब आजन्म कैदी थे। जीवन भर उन्हें वहां रहना था। वेस्टाइल के किले में वे बंद थे। क्रांतिकारियों ने सोचा, जैसे ही उनके हाथ में ताकत आई, उन्होंने सोचा कि सबसे पहले वेस्टाइल के किले को तोड़ दें और वहां के कैदियों को मुक्त कर दें। वे गए उन्होंने दरवाजे तोड़ दिए। और उन्होंने कैदियों से कहाः बाहर निकल आओ। उसमें ऐसे कैदी थे जो साठ-साठ वर्ष से भी बंद थे। नब्बे वर्ष की उम्र का कैदी था उसमें जो साठ साल से बंद था। अंधेरी कोठरी में हाथ पर मजबूत लोहे की और पैर में जंजीरें थीं जो साठ वर्ष से लटकी थीं--उन्हीं के साथ सोया था, उन्हीं के साथ उठा था, उन्हीं के साथ बैठा था। जब उसकी जंजीरें तोड़ दी गईं और उसे बाहर निकाला गया, तो वह बोला कि मुझे बहुत कमी-कमी मालूम पड़ती है, बिना जंजीरों के मुझे ऐसा लगता है मेरे शरीर का कुछ हिस्सा छूट गया, साठ साल। कैदियों को उन्होंने जबरदस्ती बाहर कर दिया। आपको पता भी नहीं होगा, ख्याल भी नहीं होगा, आधे कैदी शाम होते-होते वापस आ गए। और उन कैदियों ने कहाः क्षमा करें, हमें बाहर अच्छा नहीं लगता। हम यहीं रह लेंगे, हम यहीं ठीक हैं। ये अंधेरी कोठियां ठीक हैं हम इनमें रहे बहुत दिन, ये हमें प्रीतिकर हो गई हैं। और बिना जंजीरों के हम नहीं रह सकते। आज दोपहर हमने सोने की कोशिश की तो हम सो भी नहीं पाए। बिना जंजीरों के अच्छा नहीं लगता है। क्या कहिएगा इनसे? जंजीरें भी साथी हो गईं। गुलामी भी साथी हो जाती है। और उसी को हम सहारा भी समझने लगते हैं। गुलामी में खतरा नहीं है, लेकिन गुलामी को जिसने सहारा समझ लिया उसके लिए खतरा हो गया। गुलामी खतरनाक नहीं है, अगर मेरे मन में यह ख्याल हो कि यह गुलामी है और इसे तोड़ देना है। लेकिन अगर गुलामी सहारा मालूम होने लगे, तब तो डूब गई बात। क्योंकि अब छूटेगा कौन? मुक्त कौन होगा।
तो जिस ज्ञान को मैंने छोड़ने के लिए कहा है असल में वह ज्ञान नहीं है, नहीं तो ज्ञान को छोड़ने के लिए कौन कहेगा। वह ज्ञान नहीं है। लेकिन पूछा है प्रश्नों में कि अगर हमें कोई न सिखाएगा तो हम सीखेंगे कैसे? हमारा जीवन सब कुछ हम दूसरों से सीखते हैं। दुकान चलाते हैं, दूसरों से सीखते हैं। डाक्टरी सीखते हैं, इंजीनियरिंग सीखते हैं, दूसरों से सीखते हैं। जीवन में जो कुछ है हम दूसरों से सीखते हैं। इसलिए यह भ्रम पैदा होता है कि जो भीतर छिपा है उसको भी हमें दूसरों से सीखना पड़ेगा। नहीं, जो भीतर छिपा है उसे किसी दूसरे से सीखना नहीं पड़ता। जो भीतर छिपा है उसे उघाड़ना पड़ता है सीखना नहीं पड़ता। उसके ढक्कन हटाने पड़ते हैं। उसे खोजने कहीं और नहीं जाना पड़ता। और जो भीतर छिपा है उस पर सबसे बड़े जो पत्थर की तरह ढक्कन हैं वे उस सिखावन के हैं जो हमने दूसरों से पकड़ लिए हैं। तो मैं यह नहीं कहता कि आप विज्ञान सीखने दूसरों से न जाएं, विज्ञान तो दूसरों से सीखना ही पड़ेगा। गणित दूसरों से सीखना पड़ेगा। दुकान चलानी है तो दूसरों से सीखना पड़ेगा। रास्ते पर चलना है तो बाएं चलना है, यह भी दूसरों से सीखना पड़ेगा। जो भी संसार का है वह दूसरों से सीखना पड़ेगा, क्योंकि संसार का सब कुछ बाहर है। लेकिन जो भी परमात्मा का है वह किसी से भी नहीं सीखना पड़ेगा, क्योंकि वह सब भीतर है। ये दोनों को जब आप मिला लेते हैं तो मुसीबत खड़ी हो जाती है। बाहर जो कुछ भी है उसे सीखने के लिए गुरु की जरूरत है। भीतर जो है उसके लिए किसी गुरु की कोई भी जरूरत नहीं है। इन दोनों में भेद करना जरूरी है।
इन दोनों को एक सा मत समझ लें। ये एक से नहीं हैं। जो बाहर का है वह बाहर से सीखना पड़ता है। जो भीतर का है वह भीतर से जगाना पड़ता है। लेकिन हमारी हालत--एक कहानी कहूं उससे समझ में आ जाए।
राबिया नाम की फकीर औरत एक दिन संध्या को अपनी सड़क के सामने, अपने घर के, झोपड़े के बाहर कुछ ढूंढती हुई देखी गई। बूढ़ी औरत थी, कुछ ढूंढती थी। राह से कुछ लोग निकलते थे, उन्होंने पूछा कि क्या ढूंढती हो? हम भी साथ दे दें। उसने कहाः मेरी सुई खो गई है कपड़ा सीने की। सुई खो गई। वे लोग भी झुक गए रास्ते पर और खोजने लगे। छोटी सी सुई थी। तब उनमें से एक ने पूछा कि ठीक-ठीक बताओ किस जगह गिरी है? छोटी सुई है, रास्ता बड़ा है, रात उतर रही है, खोजना मुश्किल है। ठीक बताओ किस जगह गिरी है? उस स्त्री ने कहाः यह तो न पूछो तो अच्छा। क्योंकि सुई तो मेरे घर के भीतर गिरी है। वे लोग हंसने लगे, उन्होंने कहाः तुम बड़ी पागल मालूम पड़ती हो। तुम बहुत पागल हो, सुई अगर भीतर गुमी है तो बाहर कैसे खोज रही हो? उस बूढ़ी स्त्री ने कहाः सुई तो भीतर गिरी, लेकिन मैं बहुत गरीब हूं, मेरे घर में कोई दीया नहीं है, कोई रोशनी नहीं है। भीतर सुई गिरी तब सांझ होने के करीब थी, बाहर दहलान में थोड़ी सी रोशनी थी। तो बिना रोशनी के कोई खोज सकता है? तो मैंने सोचा जहां रोशनी है वहां खोजूं, तो मैं बाहर खोजती हुई आ गई। मैं दहलान में जब तक खोजती थी, वहां तो मिली नहीं। तब तक रोशनी और भी सूरज नीचे उतर गया। तो सड़क पर थोड़ी सी रोशनी थी तो मैं सड़क पर आ गई। बिना रोशनी के सुई को कैसे खोजूं? तो जहां रोशनी है वहां खोजी, अब मैं यहां खोज रही हूं। और घर में तो रोशनी नहीं है। तो उन लोगों ने कहाः तुम बहुत पागल मालूम पड़ती हो। सुई जहां हैं वहां रोशनी ले जाओ। जहां रोशनी है वहां खोजने से क्या होगा अगर वहां खोई ही नहीं है। उस बूढ़ी स्त्री ने कहाः तुम मुझे पागल कहते हो, लेकिन मैं सारी दुनिया को ऐसे ही देखती हूं कि सभी लोग बाहर खोज रहे हैं। जो भीतरी गुमा है उसे बाहर खोज रहे हैं। तो मैं तो दुनिया जैसा करती है वैसा ही मैं कर रही हूं।
सभी लोग बाहर खोज रहे हैं उसे जो भीतर गुमा है। असल में हमारी आंख बाहर खुलती हैं, हाथ बाहर फैलते हैं, कान बाहर सुनते हैं, हमारी सभी इंद्रियों के द्वार बाहर खुलते हैं। इसलिए हम बाहर खोजना शुरू कर देते हैं बिना इस बात को जाने हुए कि जिसे हम खोज रहे हैं वह कहां है। अगर आप पदार्थ को खोज रहे हों, तो खोज ठीक है, वह बाहर है। अगर आप चांद-तारों पर जाने की कोशिश कर रहे हों, तो ठीक कोशिश है, बाहर खोजना होगा। यान बनाने होंगे और चांद-तारों पर जाना होगा। इसलिए विज्ञान की खोज तो ठीक है, क्योंकि जिसे वह खोज रहा है वह बाहर है। लेकिन जब कोई मनुष्य आत्मा को खोजने लगता है बाहर, तो गलती में पड़ जाता है।
आत्मा कोई चांद-तारा नहीं है, जिस पर जाने के लिए हमें कोई यान बनाना पड़े। और आत्मा कोई बाहर की वस्तु नहीं है जिसे समझने को हमें किसी प्रयोगशाला में जाना पड़े। और आत्मा कोई ऐसी बात नहीं है कि जिसे कोई दूसरा इशारा कर सके। आत्मा कुछ है जो मेरा स्वरूप है, जो मैं हूं। इसलिए यदि मैं परिपूर्ण रूप से शांत होकर भीतर देख सकूं, तो उसे पा लिया जाएगा। यदि मैं परिपूर्ण मौन होकर भीतर ठहर सकूं, तो उसे खोज लूंगा। इसलिए सवाल यह नहीं है कि कोई मुझे वहां ले जाए, सवाल केवल इतना है कि क्या मैं भीतर शांत होकर देखने में समर्थ हूं। और यह हमारा तथाकथित ज्ञान हमें भीतर नहीं ले जाता बाहर अटकाता है। किसी शास्त्र में उलझा देता है, किसी सिद्धांत में, किसी वाद में, किसी इज्म में, किसी आइडियालाजी में, बाहर उलझाता है। और फिर उस उलझन में, उस शब्द में और शास्त्र में और सिद्धांत में, विचार में, उसके ऊहापोह में हम जीवन को व्यतीत करते हैं। स्मरण रखिए, शास्त्रों में शब्दों से ज्यादा और क्या है। हो भी नहीं सकता कुछ ज्यादा। सत्य है भीतर, शास्त्रों में है शब्द।
और स्मरण रखिए कि शास्त्रों के ज्ञान को सीख कर आपके भीतर शब्दों की संपदा बढ़ सकती है। लेकिन शब्दों की संपदा जितनी बढ़ जाती है भीतर और विचार जितने ज्यादा संगृहीत हो जाते हैं भीतर, उतना ही भीतर मौन और शांत होना असंभव हो जाता है, कठिन हो जाता है। भीतर मौन होने के लिए शब्द छोड़ने होंगे, विचार छोड़ने होंगे, निःशब्द और निर्विचार में ठहरना होगा। तो आप जिनको सहारा कहते हैं मैं उनको बाधा कहता हूं। सब शब्द बाधा है, वह मेरा हो या किसी और का। अगर उसे पकड़ लेते हैं, तो भीतर निःशब्द होना असंभव हो जाएगा। निःशब्द हो जाएं, मौन हो जाएं, तो जाना जा सकता है। और पंडित इतना ज्यादा शब्दों से भर जाता है कि वह तो कभी मौन नहीं हो पाता। वह तो रात भी सपने देखना है शास्त्रों के। और दिन में भी उसी ऊहापोह में होता है। दिन-रात रटता है, रटता है, रटता है। एकाध शब्द को पकड़ लेता है राम-राम, राम-राम, तो राम-राम ही रटता रहता है। कोई सूत्र पकड़ लेता है उसे रटता रहता है। या फिर शब्द और विचार इकट्ठे कर लेता है। और उन इकट्ठे विचारों की पुंजीभूत करता जाता है। और जितने विचार बढ़ते जाते हैं सोचता है कि मैं ज्ञान को उपलब्ध हो रहा हूं।
नहीं, ज्ञान उपलब्ध विचारों के संग्रह से नहीं होता बल्कि जहां कोई विचार नहीं होता उस शांत और निस्तब्ध अवस्था में ही ज्ञान उत्पन्न होता है। विचारों का संग्रह ज्ञान नहीं है। विचारों का मौन हो जाना ज्ञान है। इसलिए जिसे मैंने कहा कि ज्ञान को छोड़ दें, वह ज्ञान नहीं है, वह केवल शब्द की संपदा है, उसमें जो भटकता है वह भटकता चला जाता है। यह सहारा यह सहारा नहीं है, बाधा है, बीच में रुकावट है।

पूछे हैं कुछ और प्रश्न।
पूछा है कि मंदिर है, पूजा है, जप है, मूर्तियां हैं, क्या इन सबमें धर्म नहीं है?

मैं निवेदन करूं, मनुष्य जो भी बनाएगा उसमें धर्म नहीं हो सकता। मनुष्य जो भी बनाएगा उसमें धर्म नहीं हो सकता, वह चाहे मूर्ति बनाए, चाहे शास्त्र बनाए, चाहे मंदिर बनाए। बल्कि वह इन सारी चीजों को बना कर जीवन में और अधर्म के अड्डे बना देगा। हमारे तीर्थ, हमारे मंदिर, हमारी मूर्तियां, हमारे पूजागृह क्या बन गए हैं? उपद्रवों की जड़, केंद्र। उनके केंद्रों से ये सारे जीवन में विष व्याप्त होता चला जाता है। क्यों? क्योंकि हम जो भी बनाते हैं हमीं तो बनाएंगे न? जो हम बनाएंगे वह हमसे बेहतर कैसे होगा? मैं बनाऊंगा कोई चीज मुझसे बेहतर नहीं हो सकती। मंदिर बनाने वालों से मंदिर बेहतर नहीं हो सकता। कैसे होगा? बनाने वाले से उसकी बनाई गई चीज बड़ी कभी नहीं होती। कभी हो भी नहीं सकती। तो अगर यहां इतने बैठे हुए लोग एक मंदिर बना लें तो वह मंदिर हम सबके जुड़े श्रम से बनेगा, हमारी जुड़ी बुद्धि से वह हमसे बड़ा नहीं होगा। हम छोटे होंगे हमारा मंदिर भी छोटा होगा। हम ओछे होंगे हमारा मंदिर भी ओछा होगा। और हम जो भगवान की मूर्ति बनाएंगे, हम हीं तो बनाएंगे न? वह मूर्ति हमसे बेहतर नहीं हो सकती, हमसे बदतर होगी। आदमी ने जो कुछ बनाया है वह आदमी से छोटा होगा। है। और उसके परिणाम हमारे सामने हैं। उसके परिणाम ये हुए हैं कि हमारे मंदिर और मस्जिद हमें भगवान से जोड़े यह तो दूर उन्होंने हमें आदमी को आदमी से जरूर तोड़ दिया है। और जो चीज आदमी को आदमी से तोड़ देती हो, क्या आप सोचते हों वह आदमी को परमात्मा से जोड़ सकेगी? क्या यह संभव है? पड़ोसी से जिसने तोड़ दिया हो वह परमात्मा से जोड़ सकेगी?
एक रात एक चर्च में एक नीग्रो ने आकर दरवाजा खटखटाया। पादरी ने दरवाजा खोला और देखा कि कोई काला आदमी है। काले आदमी के लिए तो उस चर्च में प्रवेश का कोई इंतजाम न था। वह सफेद चमड़ी के लोगों का चर्च था। उसमें काली चमड़ी के लोगों के लिए कोई जगह न थी। आज तक एक भी ऐसा मंदिर नहीं बन सका जिसमें सबके लिए जगह हो। किसी के लिए है, किसी के लिए नहीं है। उस चर्च में भी नहीं थी। लेकिन पादरी ने, जमाना बदल गया है, पुराना जमाना होता तो धक्के देकर बाहर करवा देता, कि शूद्र यहां कहां चला आया। लेकिन जमाना बदल गया है, लोकतंत्र की हवाओं ने सारी दुनिया का दिमाग खराब कर दिया है। कहीं भगाए, कहीं उपद्रव खड़ा हो जाए, इसलिए उसने होशियारी की, उसने उस काले आदमी को कहाः मेरे मित्र, मंदिर का द्वार तो खोल दूं, लेकिन किसलिए भीतर आना चाहते हो? उस आदमी ने कहाः इसलिए ताकि मैं परमात्मा को पा सकूं। तो उस पादरी ने कहाः इसके पहले कि तुम परमात्मा को पाने की कोशिश करो, जाओ, अपने मन को शुद्ध करो, चित्त को निर्मल बनाओ, मन से विकार दूर करो तब आना, ऐसे कहीं भगवान मुफ्त में मिलता है।
वह नीग्रो वापस लौट गया। सीधा आदमी होगा। अगर सीधा न होता तो चर्च में जाता ही क्यों? अगर सीधा न होता तो परमात्मा की खोज ही उसके मन में क्यों पैदा होती। सीधा था, भोला-भाला होगा, इसकी बात मान लिया और वापस लौट गया। महीने दो महीने बीत गए। वह पादरी सोचता था शायद फिर कभी आए। लेकिन नहीं आया। तो तरकीब काम कर गई, न होगा चित्त शुद्ध, न आएगा वापस। लेकिन एक दिन रास्ते पर उसे देखा तो वह बड़ा शांत चला जा रहा था। उसकी आंखों में भी बड़ी शांति मालूम पड़ती थी, उसके चेहरे पर भी बड़ा प्रकाश दिखता था। तो उस पादरी ने उसे रोका और कहा कि सुनो, आए नहीं दुबारा? उसने कहाः मैं तो आता, लेकिन एक बाधा आ गई। क्या बाधा आ गई? उसने कहा कि मैं निरंतर प्रार्थना में, शांति में, मौन में रहने लगा ताकि चित्त शुद्ध हो जाए। अपने विकारों को विसर्जित करने लगा। कोई दो महीने बीतने पर एक रात मुझे सपने में भगवान ने दर्शन दिए। और उन्होंने मुझसे पूछा कि इतनी तपश्चर्या, इतनी साधना किसलिए कर रहा है? तो मैंने कहा कि वह जो चर्च है हमारे गांव में मैं उसमें प्रवेश करना चाहता हूं ताकि आपके दर्शन कर सकूं। तो भगवान ने मुझसे कहाः तू बिल्कुल पागल है, यह काम छोड़ दे, यह काम बिल्कुल असंभव है, मैं खुद दस साल से कोशिश कर रहा हूं वह पादरी मुझे चर्च में घुसने नहीं देता। तो दस साल से में खुद कोशिश कर-कर के हार गया हूं, तू गरीब नीग्रो तुझे कौन घुसने देगा, मुझे भी वह घुसने नहीं देता बाहर से ही लौटा देता है कि हटो यहां तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है। यह सपने में भगवान ने उस नीग्रो को कहा। भगवान ने अतिशयोक्ति नहीं की। शायद डर के कारण दस वर्ष कहे कहीं नीग्रो घबड़ा न जाए। लेकिन मुझसे भी मेरे सपने में उस भगवान ने कहा, कि दस वर्ष नहीं मैं दस हजार साल से कोशिश कर रहा हूं। और उस चर्च में नहीं किसी चर्च में और किसी मंदिर में मुझे आज तक नहीं घुसने दिया गया है क्योंकि पादरी-पुरोहित दरवाजे पर रोक देते हैं, अंदर मत आना। आज तक किसी मंदिर में भगवान प्रवेश नहीं पा सका है। नहीं पा सकेगा। क्योंकि भगवान है बड़ा और मंदिर हैं छोटे। भगवान है विराट और मंदिर हैं सीमित। और भगवान कोई सीमा नहीं और मंदिरों में बड़ी सख्त दीवालें हैं, दरवाजे लोहे के हैं और बाहर संतरी खड़ा हुआ है, घुसना बहुत मुश्किल है।
मंदिर हैं आदमी के बनाए हुए, आदमी खुद बहुत छोटा है। उसके मंदिर उससे भी ज्यादा छोटे हैं। लेकिन हम सस्ते धर्म के प्रेमी हैं, सुबह उठ कर मंदिर हो आते हैं और सोचते हैं कि चलो धर्म हो गया। एक आदमी सुबह से उठ कर मंदिर हो आता है और धार्मिक होने का मजा ले लेता है। धार्मिक होना इतनी आसान बात नहीं है। इतनी सस्ती और इतनी बाजारू बात नहीं है कि आप एक मकान से दूसरे मकान में चले गए और धार्मिक हो गए। और स्मरण रखिए, अगर बात इतनी आसान होती कि एक मकान में जाने से अगर कोई आदमी धार्मिक हो जाता, तो हम ऐसे बड़े-बड़े मकान बनाते और लोगों को रोज सुबह-शाम उनमें से जबरदस्ती निकलवा देते। लेकिन यह नहीं हो सका। यह हो नहीं सकता।
आप अपने घर में बैठे हुए जैसे आदमी हैं मंदिर में जाकर आप दूसरे आदमी नहीं हो सकते। आप वही आदमी होंगे। मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ते वक्त आप जैसे आदमी हैं मंदिर में पहुंच कर दूसरे आदमी कैसे हो जाएंगे? आप वही आदमी होंगे।
गंगा बहती है हिमालय से समुद्र तक, तो कोई सोचता हो कि सिर्फ प्रयाग पर आकर पवित्र हो जाती है उसके पहले पवित्र नहीं रहती और पीछे फिर पवित्र नहीं रहती, तो वह पागल है। अविचछिन्न धारा है, कंटिन्युअस धारा है।
जीवन की और चित्त की भी अविच्छिन्न धारा है। आपके मंदिर में जाने से आप धार्मिक नहीं हो जाते। आप अगर धार्मिक हों तो जहां आप हैं वहां मंदिर जरूर हो सकता है। लेकिन आप किसी मंदिर में जाकर धार्मिक नहीं हो सकते। आप अगर धार्मिक हों तो जहां आप बैठ जाएं वह जगह जरूर मंदिर हो जाती है। लेकिन कोई जगह मंदिर नहीं है, जहां आप चले जाएं और धार्मिक हो जाएं।
चेतना का परिवर्तन व्यक्ति को धार्मिक बनाता है, मकानों में आना-जाना नहीं। और जिन मूर्तियों के सामने आप हाथ जोड़ कर खड़े हैं बहुत बच्चों जैसा काम कर रहे हैं। वे मूर्तियां आपकी अपनी बनाई हुई हैं और उनको आप भगवान कह रहे हैं।
चीनी भगवान की मूर्ति बनाता है तो गाल की हड्डी वैसी बनाता है जैसी चीनी की होती है। और नीग्रो भगवान की मूर्ति बनाता है तो लटके हुए मोटे होंठ बनाता है, घुंघराले बाल बनाता है, जैसा नीग्रो होता है। और हिंदू भगवान की मूर्ति बनाता है, तो हिंदू की शक्ल। और दुनिया में जितनी शक्ल के लोग हैं अपनी-अपनी शक्ल में भगवान को बनाते हैं। अगर घोड़े और गधे भगवान को बनाएं, तो वे आदमी की शक्ल में नहीं बना सकेंगे। नहीं बना सकेंगे, वे घोड़ों की शक्ल में बनाएंगे। अगर बंदर बनाएं तो बंदर की शक्ल में बनाएंगे। जो भी भगवान को बनाएगा वह अपनी इमेज, अपनी शक्ल में बनाएगा। यह मनुष्य के अहंकार की पूजा हो रही है, यह कोई भगवान नहीं है। हम अपने अहंकार की पूजा कर रहे हैं अपनी ही मूर्ति बना कर। खड़े हैं उसके सामने हाथ जोड़े हुए। ये सारी मूर्तियां मनुष्यों की अपनी मूर्तियां हैं। और इनकी पूजा को हम कहते हैं कि भगवान की पूजा। भगवान को हम जानते भी नहीं हैं, पूजा क्या करेंगे? प्रेम क्या करेंगे? भगवान का हमें कोई पता भी नहीं। बस वही प्रचार है कि ये भगवान हैं इनको भगवान मानो और पूजो। और हम पूज रहे हैं। और जो आदमी बिना सोचे और विचारे, और बिना विवेक और जिज्ञासा किए और बिना संदेह किए इनको पूजे चला जाता है, वह आदमी गुलाम है। वह आदमी हद्द दर्जे की गुलामी में है। उस तरह का आदमी कभी भी, उस स्थिति को नहीं पा सकता जहां कि धर्म के सत्य का उदय हो जाए और धर्म का सूर्य उसके जीवन को प्रकाशित कर दे। उसकी भूमिका भी नहीं है उस आदमी के पास।
भूमिका के लिए इस तरह के बच्चों जैसे काम बंद करने पड़ेंगे। छोटे-छोटे बच्चे, गुड्डे-गुड्डियां बना लेते हैं उनका विवाह रचाते हैं, तो हम हंसते हैं, हम कहते हैं, ये बच्चे हैं, चाइल्डीस और हम राम का जुलूस निकालें और विवाह रचाएं तो हम समझते हैं हम प्रौढ़, हम समझदार, हम चाइल्डीस नहीं, हम बच्चे जैसे नहीं हैं। और समझते हैं कि यह धर्म का काम हो रहा है।
यह बच्चों जैसी बुद्धि धार्मिकता नहीं है। धार्मिकता बड़ी प्रौढ़ता की बात है। बड़ी प्रौढ़ता की बात है। और उस प्रौढ़ता के लिए एक सूत्र स्मरण रखें, जो भी मनुष्य का बनाया हुआ है वह कभी उस तक नहीं ले जा सकेगा जो कि किसी का भी बनाया हुआ नहीं है। असृष्ट है परमात्मा, उसकी कोई सृष्टि नहीं, उसे किसी ने बनाया नहीं। उस तक जाना हो, तो कुछ बनाने कि जरूरत नहीं है, अपने को मिटाना पड़ता है। परमात्मा तक जिसको जाना हो उसे कुछ बनाने की जरूरत नहीं, खुद को मिटाना पड़ता है। तो धार्मिक भगवान की मूर्ति नहीं बनाता, अपनी मूर्ति को मिटा देता है। और जिस दिन अपनी मूर्ति मिट जाती, उस दिन भगवान प्रकट हो जाते हैं। लेकिन हम भगवान की मूर्ति बनाते हैं, अपनी मूर्ति नहीं मिटाते हैं, अपनी मूर्ति को तो मजबूत करते हैं और भगवान की मूर्ति और बनाते हैं।
अपनी मूर्ति को मिटाइए, अपनी मूर्ति अपना अहंकार, यह मेरा होना, यह मैं हूं कुछ। यह मेरी मूर्ति जो है इसको तोड़ना पड़ेगा। और यह मेरी मूर्ति टूट जाए, तो उसका रूप प्रकट होगा जो किसी का बनाया हुआ नहीं है। लेकिन मनुष्य का अहंकार अदभुत है। वह अपने को तो मिटाता नहीं, हद्द मौज में आ जाता है भगवान तक को गढ़ने लगता है, भगवान तक को बनाता है। हमने कारखाने खोले हुए हैं भगवान को बनाने के जगह-जगह। और इन सब कारखानों में और दुकानों में झगड़ा होता है जो कि स्वाभाविक है। क्योंकि एक दुकान कहती है कि हमारी दुकान के बने हुए भगवान ही सच्चे हैं, तुम्हारी दुकान के बने हुए भगवान झूठे हैं। बाजार में हमारी दुकान के भगवान चलने चाहिए, तुम्हारे को न चलने देंगे। तलवारें चलती हैं, लकड़ियां चलती हैं, हत्याएं होती हैं, क्योंकि हमारे कारखाने में जो भगवान ढालते हैं वही सच्चा भगवान है, तुम्हारे कारखाने में ढला हुआ भगवान झूठा है।
मनुष्य भगवान को ढालता है फिर बाजार में बेचता है। दुकानें खोली हुई हैं। और इन दुकानों का कुल परिणाम इतना हुआ है कि मनुष्य निर्मित भगवान के इर्दगिर्द मनुष्यता को हम घुमा रहे हैं। और परमात्मा से आदमी रोज-रोज दूर होता चला गया है। यह इसको हम कहते हैं पूजा और प्रार्थना और मंदिर। अगर ये मंदिर ही धर्म होते, तो जमीन पर कितने मंदिर हैं, कितनी मस्जिदें हैं; कितने संन्यासी हैं, कितने पुजारी हैं, कितने पादरी हैं, कुछ हिसाब है। इन सबकी निरंतर उपदेश चल रहे हैं, निरंतर पूजा हो रही है, मंदिरों में घंटियां बज रही हैं और जमीन रोज-रोज अधार्मिक होती जा रही है, कुछ समझ में नहीं पड़ता यह क्या हो रहा है। इतने मंदिर और मस्जिद और जमीन, जमीन नरक से बदतर। धर्म, धर्म का कोई पता नहीं। यह क्या मामला है? अगर कोई मुझसे कहे कि मेरे घर में बहुत गुलाब के फूल लगे हैं, बहुत चमेली के फूल आए हैं, बहुत मेरे घर में सुगंध ही सुगंध फूलों की भर गई है। और वहां जाकर हम पाएं कि दुर्गंध ही दुर्गंध है और एक फूल नजर न आए, तो क्या ख्याल पैदा होगा? ख्याल पैदा होगा कि इस आदमी ने कागज के फूलों को शायद असली फूल समझ लिया है। इसीलिए तो कहता है फूल बहुत हैं मेरे घर में लेकिन न सुगंध आती है, न फूलों की हवाओं में कोई सुगंध के तार उड़ते हैं, और न फूल, जीवंत फूल कहीं दर्शन में आते हैं, तो शायद इसने कुछ नकली फूलों को फूल समझ लिया है।
जमीन पर इतने धर्म-स्थान हैं लेकिन धर्म कहां है। अगर धर्म की सुगंध नहीं है, तो हमने शायद कागज के फूलों को असली फूल समझ लिया है। शायद हमने मकानों को मंदिर समझ लिया है। और अपने हाथ की बनाई हुई मूर्तियों को परमात्मा समझ लिया है। नहीं तो जीवन कुछ से कुछ होता, कुछ और होता, कुछ और बात होती।
तो मैं यह निवेदन करना चाहता हूं, मनुष्य जिस मंदिर को बनाएगा, वह मंदिर परमात्मा का नहीं हो सकता। हां, अगर मनुष्य अपने को मिटा ले, तो उसका हृदय परमात्मा का मंदिर जरूर बन जाता है। लेकिन कोई मिट्टी की दीवाल, कोई ईंटें परमात्मा के मंदिर को नहीं बनातीं, हृदय जरूर परमात्मा का मंदिर बना सकता है। और वही हृदय परमात्मा का मंदिर बना सकता है जो अपने को मिटा ले।
रवींद्रनाथ एक रात एक बजरे में थे, एक नाव पर थे। पूर्णिमा की रात थी। एक मोमबत्ती को जला कर एक किताब को पढ़ते थे। रात आधी हो गई और तब थक गए वे, उन्होंने किताब बंद की, मोमबत्ती फूंक कर बुझाई, बुझाते से ही हैरान हो गए। उठ कर खड़े हो गए और नाचने लगे। क्या हो गया उनको? मोमबत्ती बुझाई, बुझते ही खड़े हो गए, नाचने लगे, बाहर निकल आए बजरे के, और आकाश की तरफ हाथ जोड़ कर क्षमा मांगने लगे। उनका एक मित्र भी था, उसने कहाः यह क्या करते हैं? पागल हो गए हैं! उन्होंने कहाः पागल नहीं हुआ। आज एक अदभुत सत्य का मुझे बोध हुआ, जिसे मैं आज तक नहीं जाना था। छोटी सी मोमबत्ती को जला रहा था, तो मोमबत्ती का टिमटिमाता पीला सा प्रकाश भरा हुआ था, धुआं भर गया था और चांद भीतर नहीं आ रहा था। मोमबत्ती फूंक कर बुझाई कि बजरे के द्वार से, खिड़की से, रंध्र-रंध्र से चांद की अदभुत रोशनी भीतर भर गई। सारा बजरा आलोकित हो गया। तो रवींद्रनाथ ने कहाः आज मुझे एक अदभुत, अदभुत सत्य का दर्शन हुआ है।
एक छोटी सी मोमबत्ती मेरी जलाई हुई, धुआं फेंकती थी, पीला प्रकाश फेंकती थी। और मेरी जलाई हुई छोटी सी मोमबत्ती परमात्मा के जलाए हुए चांद को बाहर रोके रही, भीतर न आने दिया। द्वार चांद खड़ा था, खिड़की पर चांद खड़ा था, रंध्र-रंध्र पर चांद खड़ा था, भीतर नहीं आ सका, बाहर ठहरा रहा। एक छोटी सी मोमबत्ती ने बाधा दे दी। और मैंने मोमबत्ती बुझाई और चांद भीतर भर गया। और सारा अदभुत आलोक सारे बजरे को छा लिया, सारे बजरे को डूबा दिया। तो आज मैंने जाना कि जब तक मेरे भीतर भी मेरे अहंकार की छोटी सी मोमबत्ती जलती है तब तक परमात्मा का प्रकाश भीतर नहीं जा सकेगा। तो जब मैं अपने भीतर की मोमबत्ती को बुझा दूंगा, उसी दिन उसका प्रकाश भीतर आ जाएगा। वह तो द्वार-द्वार पर खड़ा प्रतीक्षा करता है। वह तो जगह-जगह प्रतीक्षा करता है। लेकिन जब तक हम अपने पर, अपनी मोमबत्ती पर, अपने अहंकार पर ही पकड़े हुए ठहरे रहते हैं, तब तक, तब तक उसे आने का कोई कारण नहीं है।
तो यह जो मनुष्य जो बनाता है उससे नहीं धर्म का संबंध, क्योंकि मनुष्य जो भी बनाएगा उसका हर बनाया हुआ काम उसके अहंकार को और मजबूत कर देता है।
एक मंदिर बना कर देखें, फिर आपका अहंकार और मजबूत हो जाता है कि मैंने मंदिर बनाया। फिर आप मंदिर के ऊपर एक तख्ती लगा कर अपना नाप टांग देते हैं कि मैंने मंदिर बनाया। और यह पत्थर लगा रहे हजारों तक ताकि लोग जानें कि किसने यह मंदिर बनाया था। कभी छोटा सा धार्मिक काम करके देखें, फिर देखें रीढ़ कैसी ऊंची हो जाती है, अहंकार कैसा मजबूत हो जाता है कि मैंने यह किया। मैंने यज्ञ किया, मैंने मंदिर बनाए, मैंने इतना-इतना धर्म का कार्य किया, ये हमारे अहंकार को और मजबूत कर जाते हैं। इससे कोई परमात्मा के निकट नहीं पहुंचता, यह मैं मिट जाए, टूट जाए। मनुष्य की प्रतिमा तोड़नी है, वह टूट जाए, तो कोई और, कोई और उतरता है और जीवन को बदल देता है।
इस संबंध में मैं अंतिम दिन बात करूंगा शून्यता के संबंध में। तब इस पर पूरी चर्चा आपसे कर सकूंगा कि मनुष्य के भीतर का अहंकार कैसे टूट जाए।
ये हमारी पूजाएं, हमारी प्रार्थनाएं भी कोई अर्थ नहीं रखती हैं। क्यों?
एक छोटी सी कहानी से आपको कहूं।
पूछा है कि हम पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं, तो क्या यह सब व्यर्थ है?
समुद्र में एक नाव थी। बहुत यात्री उस नाव पर थे। एक फकीर भी था। नाव किनारे के करीब-करीब पहुंचने को थी। आशा थी कि सुबह होते-होते नाव किनारे से लग जाएगी। लेकिन आधी रात भयंकर तूफान आ गया, और नाव डगमगाने लगी और पानी के थपेड़े भीतर पानी फेंकने लगे और हवाएं पागल हो गईं और रास्ता भटक गया और मल्लाह चिंतित हो गए और आधी रात को सारे यात्री जग गए, हाथ जोड़ कर, घुटने टेक कर आकाश की तरफ प्रार्थना करने लगे कि हे परमात्मा! हमें बचाओ। और उस प्रार्थनाओं में कहने लगे कि अगर हम बच गए तो इतना दान करेंगे, अगर बच गए तो तीर्थ हो आएंगे, अगर बच गए तो ऐसा करेंगे, वैसा करेंगे। भगवान को आश्वासन भी देने लगे। मनुष्य की भाषा में कहें तो रिश्वत देने लगे। और धर्म की भाषा में कहें तो भगवान के सामने प्रतिज्ञाएं और व्रत लेने लगे कि हम ऐसा करेंगे, हम वैसा करेंगे, मगर हमें बचाओ।
वह फकीर था, सारे लोगों ने उससे कहा कि तुम भी प्रार्थना करो, तुम्हारी प्रार्थना वह ज्यादा सुन लेगा। क्योंकि तुम फकीर हो, निकट का तुम्हारा संबंध है, तुम्हारी बात जल्दी सुन लेगा। लेकिन वह फकीर अजीब था, वह आंखें बंद किए बैठा रहा, और प्रार्थना में सम्मिलित नहीं हुआ। तो वे सब बहुत नाराज हो गए और उसने कहा कि तुम कैसे दुष्ट आदमी हो, तुम भगवान के निकट रिश्तेदार मालूम होते हो, जीवन भर के फकीर हो, तुम कहोगे तो जल्दी मान लेगा। मिनिस्टर भी उसका कोई रिश्तेदार कहता है तो जल्दी मान लेता है, भगवान भी तुम्हारी जल्दी मान लेगा। लेकिन तुम हो कि तुम चुप बैठे हो।
वह फकीर लेकिन चुप बैठा रहा। सुबह होने के करीब थी, बजरा डांवाडोल हो रहा था, डूबने के करीब था। वे सारे लोग आंसू बहा रहे हैं, प्रार्थना कर रहे हैं। और तभी वह फकीर चिल्लाया कि ठहर जाओ, देखो, वायदा मत कर देना, वचन मत दे देना, प्रॉमिस मत कर देना भगवान से, किनारा करीब आ गया है। वे तो सब बेचारे प्रार्थना में थे, आंख उठा कर देखा, किनारा करीब था, प्रार्थना वहीं भूल गए, अपना सामान बांधने लगे। उस फकीर ने कहा कि देखी तुम्हारी प्रार्थना, किनारा करीब आ गया तो एक भी घुटने टेके न रहा, एक भी हाथ जोड़े नहीं रहा, सब उठाए अपना सामान बांधने लगे, और भूल गए प्रार्थना और भगवान दोनों। हमारी सब प्रार्थनाएं भय से पैदा होती हैं, या प्रलोभन से पैदा होती हैं। और भय और प्रलोभन जहां है वहां प्रार्थना असंभव है। क्योंकि जो प्रार्थना भय से पैदा होती है वह भय के हट जाने पर समाप्त हो जाएगी। और जो प्रार्थना किसी चीज को पाने के लिए है वह प्रार्थना ही नहीं है।
कभी ऐसी कोई प्रार्थना की है जिसमें भय और प्रलोभन न हो? तो आप कहेंगे, फिर हम करेंगे कि क्यों? जब कोई भय ही न हो, कोई प्रलोभन ही न हो, तो हम प्रार्थना क्यों करेंगे? तो फिर मैं आपसे कहूंगा, आप प्रार्थना को अभी जानते भी नहीं है। ये जितनी हमारी प्रार्थनाएं हो रही हैं सब भय और प्रलोभन पर खड़ी हैं। या तो किसी भय से छुटकारा चाहिए या कोई प्रलोभन है, कोई नौकरी चाहिए, किसी को स्वास्थ्य चाहिए, किसी को मुकदमा। और अगर स्वास्थ्य और मुकदमे से मन ऊब गया है तो स्वर्ग चाहिए, मोक्ष चाहिए, भगवान के दर्शन चाहिए, भगवान के चरणों में निवास चाहिए, इस तरह की पच्चीस बातें, लेकिन चाहिए।
क्या आपको पता है जो प्रेम कुछ मांगता है वह प्रेम झूठा है। लेकिन हमारी सब प्रार्थनाएं कुछ मांगती हैं।
कोई प्रार्थना जो मांगती है सच्ची नहीं हो सकती है। फिर कौन सी प्रार्थना सच्ची होगी? क्या आपको पता है जो प्रेम मांगता है वह झूठा होता है, फिर कौन सा प्रेम सच्चा है? जो प्रेम देता है वह सच्चा होता है। जो प्रार्थना देती है वह भी सच्ची होती है। लेकिन हम तो देने को जानते नहीं, हम तो मंदिर में मांगने जाते हैं, हम देने को जाते नहीं।
धर्म का संबंध मांगने से नहीं है, धर्म का संबंध देने से है।
एक सुबह एक भिखारी अपने घर के बाहर निकला। निकलते वक्त उसने अपनी झोली में चावल के थोड़े से दाने डाल लिए। जैसा कि सभी समझदार भिखारी हमेशा करते हैं। क्योंकि जिसके द्वार पर भी भीख मांगनी है अगर उसको पता चल जाए कि इसको किसी और ने भी भीख दी है, तो उसको भी देने में आसानी होती है। दो कारणों से। एक तो उसे यह ख्याल नहीं पैदा होता कि यह मुझको ही मूर्ख बना रहा है किसी और को भी बना चुका है। दूसरा यह कोई साधारण भिखारी नहीं है कोई विशिष्ट भिखारी है, इसको दान मिलता है। यानी मैं किसी ऐरे-गैरे आदमी को नहीं दे रहा हूं जिसको मिलता है उसको ही दे रहा हूं।
तो उस भिखारी ने भी अपने घर से निकलते वक्त अपनी झोली में चावल के दाने डाल लिए और वह दरवाजे से बाहर निकला। सुबह होने के करीब है, वह गांव में भिक्षा मांगने जाता है।
रास्ते पर आया था कि उसे दिखाई पड़ा, दूर से राजा का रथ आ रहा है। उसने सोचा कि यह तो बड़ी सौभाग्य की घड़ी है, ऐसा आज तक न हुआ था। और राजा के घर दरवाजे से संतरी वापस लौटा देते थे, कभी भीतर घुसने का मौका नहीं आया। राजा भी उनको भीतर आने देता है जिनसे कुछ मिलने की आशा हो। जिनको देना पड़े उनको कौन भीतर आने देता है। तो उस भिखारी को तो कभी भीतर घुसने नहीं दिया गया था। आज मौका, रास्ते पर ही राजा मिल गया था। तो उसने सोचा आज तो झोली फैला कर सामने खड़ा हो जाऊंगा, और आज तो मांग ही लूंगा और हमेशा की मुराद पूरी हो जाएगी। वह अपने मन में विचार करने लगा, क्या मांगूं, क्या न मांगूं। और सोचता ही था कि रथ आकर सामने खड़ा हो गया है।
राजा नीचे उतरा और भिखारी घबड़ा कर रह गया, उसकी कल्पना में भी न था जो हो गया। राजा ने अपना कपड़ा फैला दिया और कहा कि मुझे कुछ दो। तो भिखारी ने सोचा भी न था कि यह राजा और अपना वस्त्र फैला देगा। और कभी जीवन में कल्पना भी न की थी कि मुझसे भी कोई मांग लेगा। वह अपनी झोली में हाथ डालता था और बाहर निकल लेता था। हिम्मत न पड़ती थी कि एक मुट्ठी चावल के दाने दे दूं। देने की कोई आदत न थी, मांगने की ही आदत थी। दिया कभी था ही नहीं, हमेशा मांगा था। कल्पना में भी नहीं सोचा था कि कभी देना पड़ेगा। ऐसा पहाड़ भी सिर पर गिरेगा कि देना पड़े। तो मुट्ठी बांधता था छोड़ देता था। राजा बोला, जल्दी करो, जो भी देना हो दे दो मैं जाऊं। और आज तो राजा ने कहा कि मैं यही कल्पना करके निकला था कि जो भी मुझे पहले मिल जाएगा उससे कुछ मांग लूंगा। बड़ा गड़बड़ राजा था। आखिर बामुश्किल, बामुश्किल उसने एक, एक दाने को निकाला। एक दाना चावल का! और राजा की झोली में डाल दिया। राजा बैठा और चल पड़ा, रथ पर की धूल उड़ती रह गई, और उसके मन में पश्चात्ताप कि एक दाना व्यर्थ ही चला गया। मांगना था वह तो मांग ही नहीं पाया और एक दाना और व्यर्थ चला गया।
उस सांझ दिन भर उसने भीख मांगी, लेकिन मन दुखी रहा, एक दाना खो दिया था। इतनी भिक्षा कभी न मिली थी, आज पूरी झोली भर गई थी, लेकिन चित्त दुखी था, एक दाना कम था। घर लौटा, पत्नी पूछा, तो कहा, इतने उदास, आज तो झोली पूरी भरी है, इतनी तो कभी न भरी थी। उसने कहाः झोली पूरी भरी दिखती है, थोड़ी खाली है, एक दाना कम है, एक दाना आज देना पड़ा है। और तू कल्पना भी नहीं कर सकती कि देना कितना कष्टप्रद हुआ होगा उसके लिए जो हमेशा मांगता रहा और पाता रहा। मेरे प्राण ही खिसक गए थे, मेरी श्वास ठहर गई थी। लेकिन देना पड़ा, मजबूरी में उलझ गया था। उसने अपनी झोली उलटाई, अब तक तो दुखी था, फिर छाती पीट कर रोने लगा और आंसू उसकी आंखों से झर-झर टपकने लगे। झोली उलटा कर देखा, और सब दाने तो दाने थे एक चावल का दाना सोने का हो गया था। और तब वह छाती पीटने लगा और रोने लगा कि मैं कैसा पागल हूं, मैंने सारी झोली राजा को क्यों न उलटा दी, तो आज सारे दाने सोने के हो जाते। लेकिन अब तो अवसर निकल गया था। और राजा रथ पर मिलता नहीं सड़क पर।
यह तो कहानी है, लेकिन मैं आपसे कहूं, केवल वे ही जीवन के दाने सोने के हो जाते हैं जो हम देते हैं। और जो हम बचा लेते हैं वे मिट्टी के सिद्ध हो जाते हैं। मरते वक्त जब हर आदमी अपनी झोली उलटा कर देखता है तो पाता है थोड़े से दाने सोने के हो गए हैं जो उसने दिए थे और बाकी सब दाने मिट्टी के हैं जो उसने पाए थे।
प्रार्थना का अर्थ हैः ऐसा जीवन जो देने का जीवन है, मांगने का जीवन नहीं। प्रार्थना का अर्थ किसी मंदिर में बैठ कर हाथ जोड़ कर कुछ बातें करना नहीं है। प्रार्थना का अर्थ हैः समग्र जीवन ऐसा हो जो देने का जीवन हो, पाने का जीवन नहीं। जिसके जीवन में जितना दान है समग्रभूत अपने प्राणों का, अपनी शक्तियों का, अपनी ऊर्जाओं का, अपने प्रेम का, अपनी दया का, उसका जीवन उतना ही प्रार्थनापूर्ण है। प्रार्थना कोई प्रेयर नहीं है कि बैठ कर हमने स्तुति कर ली। प्रार्थना समग्र जीवन का रूपांतरण है।
अभी हम मांगते हैं, सब कुछ मांगते हैं, मांगते हैं, मांगते हैं, मांगते हैं, मांगने वाला मन कभी प्रार्थना नहीं कर सकता। देना, देना ही प्रार्थना है। प्रार्थना कोई शब्दों की स्तुति नहीं है, पूरे जीवन का देना है। तो देने की जिसके जीवन में दृष्टि होती है। हमारे जीवन में तो मांगना ही मांगना होता है। भिखमंगा मांगता है तो यह मत सोचना कि भिखमंगा मांगता है, हम सब भी भिखमंगे हैं। कोई छोटा भिखमंगा है, कोई बड़ा भिखमंगा है। हम सब भिखारी हैं। जिनको हम महामहिम कहते हैं और जो बहुत-बहुत बड़े-बड़े हैं वे भी मांगते ही रहते हैं।
एक फकीर था, फरीद। वह अकबर के समय में हुआ। उसके गांव के मित्रों ने उससे कहा कि मित्र, अकबर तुम्हें बहुत आदर करता है, तुम जाओ और उससे कहो कि हमारे गांव में एक मदरसा खोल दे, एक स्कूल खोल दे। फरीद गया, सोचा जल्दी जाऊं, सुबह-सुबह अकबर का मन अच्छा होगा।
भिखमंगे सभी सुबह-सुबह आते हैं, सांझ कोई भिखमंगा नहीं आता। भिखमंगे बहुत दिनों से मनुष्य के मन को समझते हैं कि सुबह-सुबह थोड़ा ताजा रहता है, सांझ थक जाता है। सुबह मिल जाए तो कुछ मिल जाए, सांझ तो कोई देगा नहीं।
इसलिए फरीद भी सुबह-सुबह पहुंच गया अकबर के वहां। अकबर नमाज में था। वह सुबह की नमाज पढ़ रहा था, तो फरीद जाकर पीछे खड़ा हो गया। सोचा कि अच्छे मौके पर आ गया हूं। नमाज से उठेगा तो शायद देने के लिए पिघल जाए। वह खड़ा रहा पीछे। अकबर को पता नहीं कोई पीछे खड़ा है। अकबर हाथ जोड़ कर जब नमाज पूरी किया, प्रार्थना पूरी किया, तो उसने कहाः हे भगवान! हे परम पिता! मेरे राज्य को और बढ़ा! मेरे धन को और बड़ा कर! मेरी सीमाओं को और दूर ले जा! मेरी यश की पताका और ऊंची उठा! इसने भगवान से कहा।
फरीद ने सुना, वह चुपचाप वापस लौट पड़ा। अकबर उठा उसने देखा कि फरीद लौटता है, उसने रोका और पूछा कि आए और चले बिना कुछ कहे? फरीद ने कहा कि मैंने सोचा कि मैं एक सम्राट के पास जाता हूं, यहां मैंने पाया कि यहां भी एक भिखारी है। मैं तो सोच कर आया था कि एक सम्राट के पास जाता हूं, लेकिन तुम्हारी प्रार्थना सुनी और पाया कि तुम भी एक भिखारी हो। तो अब मैं वापस लौट जाता हूं, एक भिखारी से मांगना तो शोभा नहीं देता। और अगर अब मांगना ही होगा तो हम भी उसी मांग लेंगे जिससे तुम मांगते थे, अब तुमको बीच में क्यों लें, अब अकारण तुमको क्यों परेशान करें।
फरीद लौट गया। उसने अकबर से नहीं मांगा। फरीद की आत्मकथा में बाद में लिखा है कि वह लौट गया उसने नहीं मांगा। क्योंकि उसने कहा एक भिखारी से क्या मांगना। तो हम सब भिखारी हैं। हम सब मांग रहे हैं। और जो मांगने वाला है वह प्रार्थना करेगा तो प्रार्थना में भी मांगना ही होगा, भीख ही होगी। परमात्मा के पास भिखारी होकर कोई कभी नहीं पहुंचा है। परमात्मा के पास सम्राट होकर पहुंचना पड़ता है। जो देता है वह पहुंचता है, जो मांगता है वह कभी नहीं पहुंचता।
इसलिए मैं आपकी प्रार्थनाओं की समर्थन में नहीं हूं। लेकिन हां, एक प्रेम का जीवन हो सकता है, देने का जीवन हो सकता है, वह जीवन प्रार्थना है। उसमें कोई परमात्मा नहीं होता, सिर्फ देना होता है, सिर्फ दान होता है, सिर्फ प्रेम होता है। और धीरे-धीरे देना और दान और प्रेम उस जगह पहुंच जाता है कि हम अपने को समग्रीभूत खो देते हैं, सब भांति दे डालते हैं। उसी स्थिति में जब कि हम सब भांति दे चुके होते हैं उसकी उपलब्धि होती है जो सब कुछ है। तो इसलिए इन प्रार्थनाओं का कोई मूल्य नहीं, कोई अर्थ नहीं।

एक और अंतिम प्रश्न, फिर और जो प्रश्न बच गए हैं वह मैं कल चर्चा करूंगा।
एक मित्र ने पूछा है कि हम जो कुछ भी करते हैं सभी में कामना रहती है, वासना रहती है, इच्छा रहती है। कोई न कोई कामना, कोई न कोई इच्छा, कोई न कोई वासना, कोई डिजायर, हम जो भी करते हैं, कोई पाने की आकांक्षा रहती है। और आप कहते हैं, पाने की आकांक्षा न हो, तब तो फिर हम कुछ करेंगे ही नहीं।

नहीं, हम एक ही तरह के काम को जानते हैं। एक तरह का और भी काम होता है जिसका हमें कोई भी पता नहीं। हम एक ही तरह के काम को जानते हैं जिसमें कुछ मांगना, कोई इच्छा, कोई लक्ष्य, कोई फल की प्राप्ति। हम एक तरह का और भी काम होता है उसे हम जानते ही नहीं। और बड़े आश्चर्य की बात यह है कि वही काम, वह दूसरी तरह का काम ही जीवन में धर्म को और सत्य को और परमात्मा को लाता है।
एक छोटी से घटना से बात कहूं।
अकबर ने एक रात्रि तानसेन को विदा करते वक्त कहाः तुम्हारे गीत सुनता हूं, तुम्हारा वाद्य सुनता हूं, तो मेरे प्राण इस भांति सम्मोहित हो जाते हैं, और मुझे ऐसा लगने लगता है कि तुमसे बेहतर तो कभी किसी ने भी नहीं बजाया होगा औरे तुमसे बेहतर कभी कोई बजा भी नहीं सकेगा। संगीत में तुमने जो जाना है और जो पाया है शायद कभी किसी ने नहीं जाना और कभी कोई नहीं जान सकेगा। ऐसा मेरे मन में भाव निरंतर उठता है। लेकिन आज मुझे एक नया प्रश्न आ गया है वह मैं तुमसे पूछता हूं और वह यह कि जब मैं तुम्हें सुनता था तो मुझे अचानक यह ख्याल आया, तुमने शायद किसी से सीखा हो, तुम्हारा कोई गुरु हो, और हो सकता है वह तुमसे भी बेहतर बजाता हो और तुमसे भी बेहतर, तुमसे भी गहरा जाता हो, हो सकता है। तो तुम्हारा गुरु कोई है कोई जीवित? यदि हो तो मैं उसे सुनना चाहूंगा। मुझे विश्वास नहीं पड़ता कि तुमसे आगे कोई हो सकता है। लेकिन फिर भी मैं सुनना चाहूंगा। मेरा कुतूहल जग गया।
तानसेन ने कहा कि बड़ी कठिन बात है। गुरु तो मेरे हैं, लेकिन उनको कहा नहीं जा सकता कि वे गाएं, हां, कभी-कभी वे गाते हैं तब सुना जा सकता है। कभी-कभी वे बजाते हैं तब सुना जा सकता है, लेकिन कहा नहीं जा सकता कि वे बजाएं। क्योंकि उनकी कोई आकांक्षा नहीं है जिसके लिए उनको प्रलोभन दिया जा सके कि इसलिए बजाओ। उनकी कोई यश की कामना नहीं है, कोई इच्छा नहीं है, कोई पाने का भाव नहीं है, हां, कभी-कभी अपनी मौज में वे बजाते हैं तब सुना जा सकता है। अकबर ने कहा कि मैं सुनूंगा। तानसेन कहाः चोरी से सुनना पड़ेगा, क्योंकि सामने चले जाएं तो हो सकता है वे बंद कर दें और चीज टूट जाए।
तो आधी रात को अकबर और तानसेन गए। तानसेन का गुरु एक फकीर था, हरिदास, वह यमुना के किनारे रहता। एक झोपड़े में। कोई तीन बजे सुबह उठ कर वह अपनी मौज में कुछ गाता और बजाता। दोनों ने झोपड़े के बाहर चोरी से बैठ कर सुना। शायद ही कभी किसी सम्राट ने चोरी से बैठ कर सुना हो।
अकबर रोने लगा। लौटते में तानसेन से बोला नहीं। महल पहुंच कर उसने तानसेन से कहा कि मैं तो सोचता था तुम्हारा कोई मुकाबला नहीं, अब मैं क्या सोचूं, तुम्हारे गुरु के सामने तो तुम ना-कुछ हो। लेकिन इतना फर्क क्यों है? तुम इतना, इतना अलौकिक क्यों नहीं बजा पाते हो?
तानसेन ने कहाः सीधी सी, सरल सी बात है, मैं इसलिए बजाता हूं कि मुझे कुछ मिल जाए। और मेरा गुरु इसलिए बजाता है कि उसे कुछ मिल गया है। उसे कुछ मिल गया है इसलिए बजाता है और मुझे कुछ मिल जाए इसलिए बजाता हूं। मेरा बजाना एक भिखमंगे का बजाना है, मेरे गुरु का बजाना एक सम्राट का बजाना है। आनंद मिल गया है और आनंद से उसका संगीत निकल रहा है। और मेरा संगीत तो एक साधन है कि मुझे रुपये मिल जाएं तो शायद आनंद मिले।
दो तरह का जीवन है, एक आनंद को खोज लेने से जो जीवन विकसित होता है वह, उस जीवन में कुछ पाने की आकांक्षा नहीं होती। वह सारा जीवन प्रार्थना बन जाता है। वह सारा जीवन सहज ही निष्काम बन जाता है। वह सारा जीवन सहज ही किसी तरह की फलाकांक्षा से मुक्त हो जाता है। और एक जीवन है दुख का जीवन जिसमें सब कुछ पाने की इच्छा होती है, आकांक्षा होती है।
और स्मरण रखिए, दुख से जो कृत्य निकलता है वह आनंद कभी न ला सकेगा। क्योंकि जहां से जो चीज निकलती है वही मिल जाती है। मिट्टी से जो चीज पैदा होती वह मिट्टी में गिर जाती है। जो शुरुआत है वही अंत है। तो अगर हमारा चित्त दुखी है और हम कोई काम कर रहे हैं कि इससे सुख मिल जाए, तो गलती में हैं आप। दुखी चित्त से जो कृत्य निकलेगा उसका अंत दुख ही होगा सुख नहीं हो सकता। दुख के बीज से दुख के फल लगते हैं। जो कृत्य आनंद की भूमि से निकलता है, वह आनंद लाता है। क्योंकि आनंद से निकला हुआ बीच आनंद के फलों को पैदा करता है।
तो मैं आपसे नहीं कहता कि आप निष्काम हो जाएं, वासना छोड़ दें, यह तो कभी कोई छोड़ ही नहीं सकता। मैं आपसे नहीं कहता आप फलाकांक्षा छोड़ दें, यह कभी कोई छोड़ ही नहीं सकता। यह तो मैं आपसे कहता नहीं। मैं तो आपसे यह कहता हूं, आनंदित हो जाएं। और आनंद को पाने का सूत्र है, मार्ग है। और जिस दिन आप आनंद को पा लेंगे, पाएंगे कि गई आकांक्षा, गई वासना। आनंद से भरी हुई आत्मा में कोई वासना नहीं होती, दुख से भरी हुई आत्मा में होती है। तो जिसका चित्त दुख से भरा है, अगर वह वासना-वासना छोड़ने की बातें करता हो, तो पागल है, नासमझ है, वह कभी छोड़ नहीं सकेगा। दुखी चित्त वासना छोड़ ही नहीं सकता। दुखी चित्त से तो वासना पैदा होती है। हां, हम दुखी चित्त को छोड़ सकते हैं। और दुखी चित्त छूट जाए तो उसके साथ उसकी सारी वासना विलीन हो जाती है। और दुखी चित्त छोड़ना अत्यंत सरल बात है। क्योंकि दुखी चित्त हमने बनाया है इसलिए है। अगर हम न बनाएं तो दुखी चित्त विलीन हो जाएगा और तब जो शेष रह जाता है वह आनंद है। आनंद हमारा स्वभाव है, हमारा स्वरूप, उसकी बात मैं कल करूंगा, परसों करूंगा कि वह हमारा स्वभाव, स्वरूप कैसे उघड़ जाए। उसे कहीं से पाना नहीं है वह अपने भीतर मौजूद है।

मेरी इन बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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