पहला प्रवचन
विसर्जन की कला- जिज्ञासा का लोक
एक अंधेरी रात में एक युवक ने एक साधु से पूछा कि क्या आप मुझे सहारा न देंगे अपने गन्तव्य पर पहुँचने में? गुरु ने एक दीया जलाया और उसे साथ लेकर चला। और जब वे आश्रम का द्वार पार कर चुके तो साधु ने कहा अब मैं अलग हो जाता हूँ। कोई किसी का साथ नहीं कर सकता है और अच्छा है कि तुम साथ के आदी हो जाओ, इसके पहले मैं विदा हो जाऊं इतना कहकर उस घनी रात में, अंधेरी रात में, उसने उसके हाथ के दीये को भी फूंककर बुझा दिया। वह युवक बोला यह क्या पागलपन हुआ? अभी तो आश्रम के बाहर भी नहीं निकल पाये, साथ भी छोड़ दिया और दीया भी बुझा दिया। उस साधु ने कहा दूसरों के जलाये हुए दीये का कोई मूल्य नहीं है। अपना ही दीया हो तो अंधेरे में काम देता है, किसी दूसरे के दीये काम नहीं देते। खुद के भीतर से प्रकाश निकले तो ही रास्ता प्रकाशित होता है और किसी तरह रास्ता प्रकाशित नहीं होता।तो मैं निरन्तर सोचता हूँ। लोग सोचते होंगे कि मैं आपके हाथ में कोई दीया दे दूंगा, जिससे आपका रास्ता प्रकाशित हो जायेगा तो आप गलती में हैं। आपके हाथ में दीया होगा तो मैं उसे बड़ी निर्ममता से फूंककर बुझा सकता हूँ। मेरी मंशा और मेरा इरादा यही है कि आपके हाथ में, अगर कोई दूसरे का दिया हुआ प्रकाश हो तो मैं उसे फूंक दू, उसे बुझा दूं। आप अंधरे में अकेले छूट जाएं, कोई आपका संगी-साथी हो तो उसे छीन लूं।
और तभी, जब आपके पास दूसरों का जलाया हुआ प्रकाश न रह जाये और दूसरों का साथ न रह जाये, तब आप जिस रास्ते चलते हैं, उस रास्ते पर परमात्मा आपके साथ हो जाता है और आपकी आत्मा के दीये के जलने की सम्भावना अधिक हो जाती है।
सारी ज़मीन पर ऐसा हुआ है, सत्य की तो बहुत खोज है, परमात्मा की बहुत चर्चा है। लेकिन-लेकिन ये सारे कमजोर लोग कर रहे हैं, न दीया बुझाने को राजी हैं। अंधेरे में जो अकेले चलने का साहस करता है, बिना प्रकाश के, उसके भीतर साहस का प्रकाश पैदा होना शुरू हो जाता है और जो सहारा खोजता हैं, वह निरन्तर कमजोर होता चला जाता है। भगवान को आप सहारा न समझें। और जो लोग भगवान को सहारा समझते होंगे वे गलती में हैं, उन्हें भगवान का सहारा उपलब्ध नहीं हो सकेगा।
कमजोरों के लिए जगत में कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। और जो शक्तिहीन हैं और जिनमें साहस की कमी है, धर्म उनका रास्ता नहीं है। दिखता उल्टा है। दिखता यह है कि जितने कमजोर हैं, उतने साहसहीन हैं, वे सभी धार्मिक होते हुए दिखाई पड़ते हैं। कमजोरों को, साहसहीनों को, जिनकी मृत्यु करीब आ रही हो, उनको घबराहट में, भय में धर्म ही मार्ग मालूम होता है। इसलिए धर्म के आस-पास कमजोर और साहसहीन लोग इकट्ठे हो जाते हैं, जबकि बात उल्टी हैं धर्म तो उनके लिए हें, जिनके भीतर साहस हो, जिनके भीतर शक्ति हो, जिनके भीतर अदम्य हिम्मत हो और जो खुद अंधेरे में अकेले, बिना प्रकाश के चलने का दुस्साहस करते हों।
यह मैं प्राथमिक रूप से आपसे कहूं-दुनिया में यही वजह है कि जबसे कमजोरों ने धर्म को चुना है तबसे धर्म कमजोर हो गया है और अब तो सारी दुनिया में कमजारे लोग ही धार्मिक हैं। जिनमे थोड़ी-सी भी हिम्मत हैं, वे धार्मिक नहीं हैं। जिनमें थोड़ा-सा साहस है, वे नास्तिक हैं और जिनमें साहस की कमी है, वे सब आस्तिक हैं। भगवान की तरफ सारे कमजोर लोग इकट्ठे हो गये, इसलिए दुनिया में से धर्म नष्ट होता चला जाता हैं इन कमजोरों को भगवान तो बचा ही नहीं सकता, ये कमजोर भगवान को कैसे बचायेंगे? कमजोरों की कोई सुरक्षा नहीं है और कमजोर लोग किसी की रक्षा कैसे करेंगे?
सारी दुनिया में मनुष्य के इतिहास के इन दिनों में, इन क्षणों में, जो धर्म का अचानक हस हुआ और पतन हुआ है, उसका बुनियादी कारण यही है। तो मैं आपसे कहूं, अगर आप में साहस हो ते ही धर्म के रास्ते पर चलने का मार्ग खुलता हैं न हो तो दुनिया में बहुत रास्ते हैं। धर्म आप में भी नहीं हो सकता। जो आदमी भय के कारण भयभीत होकर धर्म की तरफ आता हो, वह गलत आ रहा है।
लेकिन सारे धर्म-पुरोहित तो आपको भय देते हैं-नरक के भय, स्वर्ग का प्रलोभन, पाप-पुण्य का भय और प्रलोभन और घबराहट पैदा करते हैं। वे घबराहट के द्वारा आप में धर्म का प्रेम पैदा करना चाहते हैं। और यह आपको पता है, भय से कभी प्रेम पैदा नहीं होता। और जो प्रेम भय से पैदा होता हैं, वह एकदम झूठा होता है, उसका कोई मूल्य नही होता। आप भगवान से डरते हैं तो आप नास्तिक होंगे, आस्तिक नहीं हो सकते।
कुछ लोग कहते हैं, जो भगवान से डरे वह आस्तिक है गॉड फियरिंग, जो ईश्वर स डरता हो, वह आस्तिक है। यह बिल्कुल झूठी बात है। ईश्वर से डरने वाला कभी आस्तिक नहीं हो सकता, क्योंकि डरने से कभी प्रेम पैदा नहीं होता। और जिससे हम भय खाते हैं, उसको बहुत घृणा करते हैं। यह तो सम्भव ही नहीं है। भय के साथ भीतर घृणा छिपी होती है। जो लोग भगवा से भयभीत है, वे भगवान के शत्रु हैं और उनके मन में भगवान के प्रति घृणा होगी।
तो मैं आपसे कहूं, ईश्वर से भय मत खाना। ईश्वर से भय खाने का कोई भी कारण नहीं है। इस सारे जगत में अकेला ईश्वर ही है, जिससे भय खाने का कोई भी कारण नहीं है। और सारी चीजें भय खाने की हो सकती हैं। लेकिन हुआ उलटा है और मैं बड़े-बड़े धार्मिकों का यह कहते सुनता हूँ कि ईश्वर का भय खाओ और ईश्वर का भय खाने से पुण्य पैदा होगा और ईश्वर का भय खाने से सच्चरित्रता पैदा होगी। ये निहायत झूठी बातें हैं। भय से कहीं सदाचार पैदा हुआ है? जैसे हमने रास्ते पर पुलिस वाले खड़े कर रखे हैं, वैसे ही हमने परलोक में भगवान को खड़ा कर रखा है। वह एक बड़े पुलिस वाले की हैसियत से है, एक बड़े कांस्टेबल की हैसियत से है। भगवान को जिन्होंने कांस्टेबल बना दिया है, उन लोगों ने धर्म को बहुत नुकसान पहुंचाया हैं भगवान के प्रति भय से कोई विकसित नही होता। भगवान के प्रति तो अभय चाहिए और अभय का अर्थ क्या होगा?
अभय का अर्थ होगा, जो लोग श्रद्धा करते हैं, वे लोग भय के कारण श्रद्धा करते हैं। इसलिए श्रद्धा को मैं धर्म की आधारभूत शर्त नहीं मानता। आपने सुना होगा कि जिसको धार्मिक होना है, उसे श्रद्धालु होना चाहिए। गांधीजी से एक बहुत बड़े व्यक्ति ने जाकर पूछा कि मैं परमात्मा को जानना चाहता हूँ तो क्या करूं? तो गांधीजी से कहा, विश्वास करो। अगर वह मुझसे पूछता तो मैं उससे यह नहीं कहता कि विश्वास करो। गांधीजी की बात ठीक नहीं है और उस आदमी ने गांधी ने कहा, विश्वास करूं? जिस बात को जानता नहीं, विश्वास कैसे करूं? जिस बात से मैं परिचित नहीं, उसे मानूं कैसे? गांधी ने कहा, बिना माने तो परमात्मा को जाना नहीं जा सकता।
और मैं आपसे यह कहना चाहता हूँ कि जो मान लेते हैं, वे कभी नहीं जान सकेंगे। मैं आपसे यह कहता हूँ कि जो मानते हैं, क्योंकि मानने का अर्थ यह हुआ कि आपने जिज्ञासा और खोज के द्वार बन्द कर दिये। मानने का अर्थ यह हुआ कि अब आपकी कोई तलाश नहीं है। अब आपकी कोई खोज नहीं है।, अब आपकी कोई इन्क्वायरी नहीं है। अब आप कुछ खोज नहीं रहे हैं, आप तो मानकर बैठ गये, आप तो मर गये।
श्रद्धा मृत्यु और सन्देह? सन्देह जीवन है। सन्देह खोज है। तो मैं आप से श्रद्धालु होने के लिए नहीं, मैं आपसे सन्देहवान होने को कहता हूँ। लेकिन सन्देह करने का यह मतलब मत समझ लेना कि मैं आपको ईश्वर को न मानने को कह रहा हूं, क्योंकि न मानना भी मानने का एक रूप है। आस्तिक भी श्रद्धालु होता हैं, नास्तिक भी श्रद्धालु होता है। आस्तिक की श्रद्धा है कि ईश्वर है, नास्तिक की श्रद्धा है कि ईश्वर नहीं है। वे दोनों अज्ञानी हैं। इन दोनों की श्रद्धाएं हैं, इन दोनों की खोज नहीं है। सन्देह तीसरी अवस्था है, आस्तिक और नास्तिक दोनों ही नहीं। सन्देह तो स्वतन्त्र चित्त की अवस्था है, वैसा व्यक्ति निर्भय होकर पूछता है, क्या है? और न वह परम्परा को मानता है, न वह रूढ़ि को मानता है, न वह शास्त्र को मानता हैं वह किसी दसूरे के दीये को अंगीकार नहीं करता। वह यही कहता है कि खोजूंगा अपना दीया। वही साथी हो सकेगा। दूसरों के दीये कितनी दूर तक, कितनी सीमा तक साथ दे सकते हैं?
और जीवन के इस रास्ते पर सच तो यह है कि अपने सिवाय, स्वयं के सिवाय और कोई साथी नहीं है। कितनी ही बड़ी भीड़ खड़ी हो, कोई साथी नहीं है। महावीर को, बुद्ध को, कृष्ण को क्राइस्ट को कितना ही ज्ञान मिला हो, एक रत्ती भर भी, अपना ज्ञान वह आपको देने में समर्थ नहीं हैं। इस जगत में ज्ञान दिया-लिया नहीं जा सकता, और जब चीजें ली-दी जा सकती हैं। और स्मरण रखें जो नहीं लिया जा सकता, नहीं दिया जा सकता, वही मूल्यवान है। जो लिया जा सकता, दिया जा सकता है उसका कोई मूल्य नहीं है।
मैं तो ऐसा ही मानता हूं कि वही चीज संसार का हिस्सा है, जिसको हम ले-दे सकते हैं और वह चीज सत्य का हिस्सा हो जाती है जिसका लेना-देना सम्भव नहीं है। काई इस आशा में न रहे कि वह अपनी श्रद्धाओं से सत्य की या परमात्मा की खोज कर लेगा साधारणतया यही हमें सिखाया जाता है और इसके दुष्परिणाम हुए हैं। इसके परिणाम हुए हैं कि दुनिया में इतने लोग धार्मिक हैं, लेकिन धर्म कहां हैं? इतने मन्दिर हैं, इतनी मस्जिदें हैं, लेकिन मन्दिर-मस्जिद हैं कहां?
कल रात मैं बात करता था एक संन्यासी के पास मेरा एक मित्र मिलने गया था। उस सन्यासी ने कहा मन्दिर जाते हो? मेरे उस मित्र ने कहा मन्दिर है कहां? हम तो जरूर जाएं कोई मन्दिर बता दे! वह संन्यासी तो हैरान हुआ। वह संन्यासी तो मन्दिर में ठहरा हुआ था। उस संन्यासी ने कहा यह जो देख रहे हो, यह क्या है? उस युवक ने कहा यह तो मकान है, यहाँ मन्दिर कहां है? यह तो मकान है। और उस युवक ने कहा सारी जमीन पर, जिनको लेग मन्दिर और मस्जिद कहते हैं, वे मकान हैं, मन्दिर कहां हैं? और जिनको आप मूर्तिया कह रहे हैं, जिनको आप भगवान की मूर्तियां कह रहे हैं कैसी आत्मप्रवंचना है, कैसा धोखा है! मिट्टी और पत्थर को, अपनी कल्पना से हम भगवान बना लेते हैं, जैसे कि हम भगवान के सृष्टि हैं।
सुना था मैंने कि भगवान मनुष्यों का स्रष्टा है, देखा यही कि आदमी, मनुष्य ही भगवान के स्रष्टा हैं और हर एक आदमी अपनी-अपनी शक्ल में भगवान को बनाये हुए बैठा है। भगवान ने दुनिया को कभी बनाया या नहीं, यह तो सन्देह की बात हैं, लेकिन आदमी ने भगवान की खूब शक्लें बनायी हैं, यह स्पष्ट ही है। और जो भगवान आदमी का बनाया हुआ हो, उसे भगवान कहना, आदमी के अज्ञान और अहंकार की घोषणा के सिवाय और कुछ भी नहीं हैं। कैसा धोखा आदमी अपने को दे सकता है!
यह हमारा निम्नतम अहंकार है कि हम सोचते हैं कि जो हम बनाते हैं, वह भगवान हो सकता हैं जो नहीं बनाया जा सकता और जिसे कोई कभी नहीं बना सकेगा। और जो सब बनाने के पहले और सब बनाने के बाद भी शेष रह जाता है, उसे हम भगवान कहते हैं। उसका मन्दिर कहां हैं, उसकी मस्जिद कहां हैं, उसके मानने वाले लोग कहां हैं? असल में उसका कोई मानना नही होता, उसका तो जानना होता है। अन्धा प्रकाश को मान लेगा तो उसके मानने का क्या मूल्य होगा? और वह प्रकाश की जो कल्पना करेगा, वह भी कैसी होगी? उसका प्रकाश से क्या सम्बन्ध होगा?
रामकृष्ण के पास एक दफा एक व्यक्ति आया। रामकृष्ण ने उससे कहा कि मुझे सत्य के सम्बन्ध में कुछ बतायें। रामकृष्ण से उसने कहा कि मुझे परमात्मा के सम्बन्ध में कुछ बतायें। रामकृष्ण ने कहा तुझे तुम्हारे पास आंखें तो दिखाई नहीं देतीं, तुम समझोगे कैसे? वह बोला आंखें मेरे पास हैं। रामकृष्ण ने कहा अगर उन्हीं आँखों से परमात्मा और सत्य को जाना जाता होता तो परमात्मा और सत्य को जानने की जरूरत ही न रह जाती। सभी लोग उसे जानते। और भी आँख है और भी आँखें हैं। वह बोला फिर भी कुछ तो समझायें। रामकृष्ण ने एक कहानी कहीं। वह कहानी बड़ी मीठी हैं, बड़ी अद्भुत है।
बड़ी प्राचीन कथा है, हजारों-हजारों ऋषियों ने उस कहानी को कहा है और आने वाले जमाने में भी हजारों-हजारों ऋषि उस कहानी को कहेंगे। उसमें बड़ी पवित्रता समाविष्ट हो गयी है। बड़ी छोटी-सी कहानी, बड़ी सरल-सी ग्रामीण कहानी है। रामकृष्ण ने कह एक गांव में एक अन्धा था और उस अन्धे को दूध से बहुत प्रेम था उसक मित्र जब भी आते, उसके लिए दूध ले आते। उसने एक दफा अपने मित्रों से पूछा इस दूध को मैं इतना प्रेम करता हूँ, इतना प्रेम करता हूँ कि मैं जानना चाहता हूँ कि दूध कैसा है? क्या है? मित्रों ने कहा मुश्किल है कैसे बतायें? फिर भी उसे अन्धे ने कहा कुछ तो समझायें, किसी तरह समझायें?
उसके एक मित्र ने कहा दूध बगुले के पंख जैसा सफेद होता है। अन्धा बोला मुझसे मजाक न करो। बगुले को मैं जानता नहीं, उसके पंख की सफेदी को नहीं जानता। मैं कैसे समझूगा कि दूध है! उस मित्र ने कहा बगुला जो होता हैं, उसकी गर्दन घास काटने के हंसिये की तरह टेढ़ी होती है। अन्धा बोला आप पहेलियां बुझा रहे हैं। मैंने कभी देखी नहीं हंसिया। मुझे पता नहीं, वह कैसा टेढ़ा होता हैं? तीसरे मित्र ने कहा इतनी दूर क्यों जाते हों? उसने अपना हाथ मोड़कर उस अन्धे से कहा इस हाथ पर हाथ फेरो, इससे पता चल जायेगा। कि हंसिया कैसा होता है?
उसने उसके तिरछे हाथ पर फेरा घूमा हुआ मुड़ा हुआ हाथ, औंधा हाथ। वह अन्धा नाचने लगा। वह बोला मैं समझ गया, दूध मुड़े, हुए हाथ की तरह होता है।
और रामकृष्ण ने कहा सत्य के सम्बन्ध में जो नहीं जानते हैं, उनको बतायी हुई सारी बातें ऐसी ही हो जाती हैं। इसलिए आपसे सत्य के सम्बन्ध में न कुछ कहा गया है और न कभी कुछ कहा जा सकेगा। आपसे यह कहा जा सकता है कि सत्य क्या है? आपसे इतना कहा जा सकता है कि सत्य को कैसे जाना जा सकता है। सत्य को नहीं बताया जा सकता, लेकिन सत्य की विधि का विचार किया जा सकता हैं उस विधि में श्रद्धा का कोई हिस्सा नहीं है, खोज और अन्वेषण, जिज्ञासा और अभीप्सा-उसमें किसी चीज को मान लेने की कोई जरूरत नहीं है।
जब से दुनिया के धार्मिकों ने यह शुरूआत की कि भगवान को मान लो, स्वीकार कर लो, अंगीकार कर लो, तब से जो भी विवेकशील हैं, वे सब भगवान के विरोध में खड़े हो गये हैं, क्योंकि स्वीकार करना, अज्ञान में किसी चीज को मान लेना, जिसका थोड़ा भी विचार जाग्रत हो और विवेक प्रबुद्ध हो, उसके लिए कभी भी सम्भव नहीं होगा। अपने हाथों से धार्मिकों ने धर्म को विवेक-विरोधी बनाकर खडा कर दिया है। तो मैं आज की सुबह आपसे यह कहना चाहूंगा कि धर्म का विवेक से कोई विरोध नहीं है। धर्म भी परिपूर्ण रूप से विवेक को प्रतिष्ठा देता है और विवेक धर्म का खण्डन नहीं है। विवेक के माध्यम से ही धर्म की परिपूर्ण उपलब्धि होती है। लेकिन अपने भीतर विवेक को जगाना होता हैं, श्रद्धा को नहीं।
विवेक और श्रद्धा मनुष्य के भीतर दो दिशाएं है। श्रद्धा का अर्थ है कि मैं मान लूं, जो कहा जाये। दुनिया के जितने प्रचारवादी हैं, सब यही चाहते हैं कि वे जो कहें, आप मान लें। दुनिया के जितने प्रापेगेण्डिस्ट हैं, चाहे वे राजनीजिक हों, चाहे धार्मिक हों, वे चाहते हैं, जो भी वे कहें, आप मान लें। उनकी कहीं हुई बात में आप को कोई इनकार न हो। उन सबकी चेष्टाएं यह हैं कि आपका विवेक बिल्कुल सो जाये और आपके भीतर एक अन्धी स्वीकृति पैदा हो जाये
इसका परिणाम यह हुआ है कि जो बहुत कमजोर हैं और जिनके भीतर विवेक की कोई सम्भावना नहीं है या जिनका विवेक बहुत क्षत था, क्षीण हो गया था या जो साहस नहीं कर सकते थे किसी कारण से अपने विवेक को जगाने का, वे सारे लोग धर्म के पक्ष में खड़े रह गये और जिनके भीतर थोड़ा भी साहस था, वे सब धर्म के विरोध में चले गये। उन विरोधी लोगों ने विज्ञान को खड़ा किया और इन कमजोर लोगों ने धर्म को संभाले रखा।
आज दोनों सामने खड़े हैं और धर्म रोज क्षीण होता जाता है, विज्ञान रोज विकसित होता जाता है। इसे कोई देखता नहीं कि यह क्या हो रहा है। हम समझ रहे हैं कि विज्ञान नुकसान पहुँचा रहा है। लेकिन विज्ञान नुकसान नहीं पहुँचा रहा है। धर्म के दरवाजे विवेकशील के लिए जब तक बन्द रहेंगे, तब तक विवेकशील विज्ञान के पक्ष में खड़ा रहेगा। धर्म के द्वार विवेकशील के लिए खुल जाने चाहिए और विवेकहीन के लिए बन्द हो जाने चाहिए। श्रद्धा धर्म के लिए आधार नहीं रह जानी चाहिए। ज्ञान, विवेक, शोध को धर्म का अंग हो जाना चाहिए। अगर यह हो सकता तो धर्म से बड़ा विज्ञान इस जगत में दूसरा नहीं है और जिन लोगों ने धर्म को खोजा और जाना है, उनसे बड़े वैज्ञानिक नहीं हुए। यह उनकी अप्रतिम खोज है। मनुष्य के जीवन में उस खोज से बहुमूल्य कुछ भी नहीं है। उन सत्यों की थोड़-सी भी झलक मिल जाये तो जीवन अपूर्व आनन्द और अमृत से भर जाता है।
तो मैं आपसे कहूंगा, विवेक-जागरण श्रद्धा नहीं है। स्वीकार कर लेना नहीं, शोध कर लेना। किसी दूसरे को अंगीकार कर लेना नहीं, स्वयं अपनी साधना और अपने पैरों पर खड़ा होना और जानना, चाहे अनेक जन्म लग जायें, दूसरे के हाथ से लिय सत्य, अगर एक क्षण में मिलता हो तो भी किसी कीमत का नहीं है। और अगर अनेक जन्मों के श्रम और साधना से, अपना सत्य मिलता हो तो उसका मूल्य है। और जिनके भीतर थोड़ी भी मनुष्य की गरिमा है, जिनको थोड़ा भी गौरव है कि हम मनुष्य हैं, वे किसी के दिये हुए झूठे सत्यों को स्वीकार नहीं करेंगे।
लेकिन हम सब झूठ सत्यों को स्वीकार किये बैठे हैं। और हमने अच्छे-अच्छे शब्द ईजाद कर लिये हैं, जिनके माध्यम से हम अपनी श्रद्धा को जाहिर करते हैं। यह बहुत बड़ी प्रवंचना है, यह बहुत बड़ा डिसेप्शन है। यह समाप्त होना जरूरी है। मैं आपसे कहूंगा, आपके भीतर बहुत बार श्रद्धा होती होगी कि मान लें तो कमजोर मन है, कौन खुद खोये। जितने आलसी हैं, जितने तामसी हैं, वे सब श्रद्धालु हो जायेंगे। लेकिन कौन खुद को खोजे, खुद की कौन चेष्टा करे? कृष्ण कहते हैं तो ठीक ही होगा और महावीर कहते हैं तो ठीक ही होगा, क्राइस्ट कहते हैं तो ठीक ही होगा। उन्होंने सारी खोज कर ली है, हमें तो सिर्फ स्वीकार कर लेना है।
यह वैसा ही पागलपन है जैसा कोई आदमी दूसरों को प्रेम करते देखकर यह समझे कि मुझे प्रेम करने से क्या प्रयोजन! दूसरे लोग प्रेम कर रहे हैं, मुझे तो सिर्फ समझ लेना हैं, ठीक है। लेकिन दूसरे को प्रेम करते देखकर क्या आप समझ पायेंगे कि प्रेम क्या है? इस जगत में सारे लोग प्रेम करते हों, मैं देखता रहूं तो भी मैं नहीं समझ पाऊंगा, जब तक कि वह आन्दोलन न कर जायें, जब तक कि वे हवाएं मुझे न छू जायें, तब तक मैं प्रेम को नहीं जान सकूंगा। सारी दुनिया प्रेम करती हो तो वह किसी मतलब का नहीं।
सारी दुनिया बुद्ध कृष्ण और क्राइरूट से भरी पड़ी हो और मुझे सत्य का स्वयं अनुभव न होता हो तो मुझे कुछ पता न चलेगा कोई रास्ता नहीं है। सारी दुनिया में आँख वाले हों और मैं अन्धा हूं तो क्या होगा? इन सबकी मिली हुई आँखें भी, मेरी दो आँखों के बराबर मूल्य नहीं रखती हैं इस दुनिया में दो अरब लोग हैं, तीन अरब लोग हैं, छह अरब आंखें हैं। एक अन्धे आदमी की दो आँखों का जो मूल्य हैं, वह छह अरब आँखों का नहीं है। मैं आपसे यह कहना चाहूंगा, अपने भीतर श्रद्धा की जगह, विवेक को जगाये रखने का उपाय करना चाहिए और विवेक को जगाने के क्या नियम हो सकते हैं उस सम्बन्ध में थोड़ी बात आपसे कहूं।
पहली बात जन्म के साथ प्रत्येक मनुष्य को, दुर्भाग्य से किसी न किसी धर्म में पैदा होने का मौका मिलता है। दुनिया अच्छी होगी तो हम दुर्भाग्य कम कर सकेंगे। लेकिन अभी तो यह है। और तब परिणाम यह होता है कि जब उसमें विवेक का कोई जागरण नहीं होता है, बाल-मन होता है, चुपचाप चीजें स्वीकार कर लेने की मनःस्थिति होती है, तब सारे धर्मों के सत्य उसके मन में प्रविष्ट करा दिये जाते हैं। तब उसके मन में सारी बातें डाल दी जाती हैं। वह उन पर श्रद्धा करने लगता हें
मैं एक गांव में गया। वहाँ एक अनाथालय भी देखने गया। वहाँ कोई पचास बच्चे थे। उस अनाथालय के संयोजक ने मुझसे कहा कि इनको हम धिर्मक शिक्षा भी देते हैं। मुझे यह समझकर कि मैं साधु जैसा हूँ उसने सोचा कि यह खुश होंगे कि मैं धर्म की शिक्षा देता हूँ मैंने कहा कि बुरा काम दूसरा नहीं है दुनिया में, क्योंकि धर्म की शिक्षा आप क्या देंगे? धर्म की कोई शिक्षा होती है? धर्म की तो साधना होती हैं, शिक्षा नहीं होती।
अभी मैं सुनता हूँ कि एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक ने अमेरीका में एक संस्था खोली, जहां वह प्रेम की शिक्षा देते हैं। यह तो बड़ी बेवकूफी की बात है, यह तो बड़ी मूर्खतापूर्ण बात है। और इस संस्था से जो लेग प्रेम की शिक्षा लेकर निकलेंगे, इस जगत में वे प्रेम कभी नहीं कर पायेंगे। इसे स्मरण रखें, कैसे प्रेम करेंगे? वे जब भी प्रेम करेंगे, तब यह शिक्षा बीच में आ जायेगी और जब उनके भीतर प्रेम उठेगा, तब उनके सिखाये हुए ढंग बीच में आ जायेंगे और वह अभिनय करने लगेंगे, प्रेम नहीं कर सकेंगे। जब उनके हृदय में कुछ कहने को होगा, तब वह उन किताबों से पढ़कर कहेंगे, जिनमें लिखा हुआ है कि प्रेम की बातें कैसे कहनी चाहिए? और तब वैसा आदमी, जो प्रेम में शिक्षित हुआ है, वंचित हो जाएगा और यह जो आदमी धर्म में शिक्षित होगा, वह धर्म से वंचित हो जाएगा।
धर्म तो प्रेम से बड़ी गूढ़ और रहस्य की चीज है। प्रेम को तो कोई सीख भी ले, धर्म कैसे सीख सकेगा? धर्म की कोई लर्निंग नही होतीं वह कोई गणित थोड़े ही है, कोई फिजिक्स थोड़े ही है, कोई भूगोल थोड़े ही है कि आपने समझा दिया, लोगों ने याद कर लिया और परीक्षा दे दी। धर्म की कोई परीक्षा हो सकती है। अगर धर्म की परीक्षा नहीं हो सकती है तो शिक्षा भी नहीं हो सकती हैं जिस चीज की परीक्षा हो सके, उसकी ही शिक्षा हो सकती है।
तो मैंने उनसे कहा कि यह तो आप बड़ा बुरा काम कर रहे है। इन बच्चों के मन को बड़ा नुकसान पहुंचा रहे हैं, क्या शिक्षा देते होंगे? तो वे बोले आप क्या कहते हैं, जब धर्म की शिक्षा नहीं होगी तो लोग बिल्कुल बिगड़ जायेंगे। मैने कहा दुनिया में धर्म की इतनी शिक्षा है, लोग भले दिखाई पड़ रहे हैं। दुनिया में धर्म की इतनी शिक्षा है, जितनी बाइबिल दिखती हे। उतनी कोई किताब नहीं दिखती, जितनी गीता पढ़ी जाती है कोई किताब नहीं पढ़ी जाती, जितने रामायण के पाठ होते हैं, उतने कौन-सी किताब के होते होंग? कितने संन्यासी हैं, कितने साधु हैं। एक-एक धर्म के कितने प्रचारक हैं। कैथोलिक ईसाइयों के प्रचारकों के प्रचरकों की संख्या ग्यारह लाख है और इसी तरह सारी दुनिया के धर्म-प्रचारकों की संख्या है। यह इतना प्रचार, इतनी शिक्षा, इसके बाद आदमी कोई बना हुआ तो मालूम नहीं होता है। इससे बिगड़ी शक्ल और क्या होगी। जो आदमी की आज है।
तो मैं आपसे यह कहना चाहूंगा कि धर्म-शिक्षा से आदमी नहीं ठीक होगा। मैंने उनसे कहा यह तो गलत बात है। फिर भी मैं समझूं आप क्या शिक्षा देते हैं? उन्होंने कहा आप कोई भी प्रश्न पूछिए, यह बच्चे हर प्रश्न का उत्तर देंगे। मैंने कहा यह दुर्भाग्य है। सारी दुनिया में किसी से पूछिए, ईश्वर है? कह देगा है। यही खतरा है। जिनको कोई पता नहीं है, वे कहते हैं? कह देगा है। यही खतरा है। जिनको कोई पता नहीं है, वे कहते हैं और इसका परिणाम यह होगा कि वह धीरे-धीरे अपने इस उत्तर पर खुद विश्वास कर लेंगे कि ईश्वर है और तब उनकी खोज समाप्त हो जाएगी।
मैंने उन बच्चों से पूछा आत्मा हैं? वे सारे बच्चे बोले- है। उनके संयोजक न पूछा आत्मा कहां है? उन सब बच्चो ने हृदय पर हाथ रखा और कहा यहाँ। मैंने एक छोटे से बच्चे से पूछा हृदय कहाँ है? उसने कहा यह हमें सिखाया नहीं गया। यह हमें बताया नहीं गया। मैंने उन संयोजक से कहा ये बच्चे जब बड़े हो जायेंगे तो यही बातें दोहराते रहेंगे और जब भी प्रश्न उठेगा, आत्मा है तो यान्त्रिक मैकेनिकल रूप से, उनके हाथ भीतर चले जाएंगे और वे कहेंगे, यहां। यह बिल्कुल झूठा हाथ होगा, जो सीखने की वजह से चला जाएगा।
आपके जितने उत्तर हैं परमात्मा के सम्बन्ध में, धर्म के सम्बन्ध में, वह सब सीखे हुए हैं।
विवेक-जागरण के लिए पहली शर्त है,, जो सीखा हुआ हो सत्य के सम्बन्ध में, उसे कचरे की भांति बाहर फेंक देना है। जो आपके मां-बाप ने, आपकी शिक्षा ने, आपकी परम्परा ने, आपके समाज ने जो भी सिखाया हो, उसे कचरे की तरह बाहर फेक देना। धर्म इतनी ओछी बात नहीं है कि कोई सिखा सके। इसमें मैं आपके मां-बाप का, आपकी परम्परा का अपमान नहीं कर रहा हूं, इससे मैं धर्म की प्रतिष्ठा कर रहा हूँ। स्मरण रखें, मैं यह नहीं कह रहा कि परम्परा बुरी बात है।
मैं यह कह रहा हूँ कि धर्म इतनी बड़ी बात है कि परम्परा नहीं सिखा सकती। कोई मां-बाप नहीं सिखा सकते। कोई पाठशाला नहीं सिखा सकती। जो लोग समझते हैं कि सिखाया जा सकता है धर्म, उनको धर्म की महिमा का पता नहीं है।
पहली बात है जिज्ञासा, स्वतन्त्र जिज्ञासा और जो सिखाया गया है, उसे कचरे की भांति फेक देने की जरूरत। इसके लिए साहस चाहिए। अपने वस्त्र छोड़कर नग्न हो जाने के लिए उतने साहस की जरूरत नहीं है, जितने साहस की जरूरत मन के वस्त्रों को छोड़ने के लिए है जो कि परम्परा आपको पहना देती है। और उन ढांचों को तोड़ने के लिए है, जो सामज आपको दे देता है। हम सबके मन बंधे हुए हैं। एक ढांचे में। और इस ढांचे में जो बंधा है, वह सत्य की उड़ान नहीं भर सकेगा। इसके पहले कोई सत्य की तरफ अग्रसर हो, उसे सारे ढांचे तोड़कर मिटा देने होंगे। मनुष्य ने जितने भी विचार परमात्मा के सम्बन्ध में सिखाये हैं, उन्हें छोड़ देना होगा।
एक रात को कुछ शराबी एक नदी पर गये हुए थे। और उन्होंने सोचा कि पूर्णिमा की रात है, नाव में बैठकर यात्रा करें। वे नाव में बैठे। उन्होंने पतवार चलायी और उन्होंने समझा कि नाव चलनी शुरू हो गयी। वे रात भर चलाते रहे। उन्होंने सोचा कि नाव चलनी शुरू हो गयी। सुबह जब ठण्डी हवाएं चलने लगी उनका नशा थोड़ा उतरा, तब उनमें से एक ने कहा कि हम देखें तो कितनी दूर निकल आये, वापिस लौटे। वे घाट पर उतरे। उन्होंने देखा कि अरे! रात भर की मेहनत व्यर्थ गयी। वे नाव को खोलना भूल गये थे। वह नाव वहीं खूंटे से बंधी हुई थी। चलायी उन्होंने रात भर और समझा कि यात्रा हो रही है, लेकिन नाव को खूंटे से खोलना भूल गये थे।
वे लोग, जिन्होंने अपनी नाव को, सत्य और परमात्मा की तरफ लगाया हो, अगर उन्होंने परम्परा और समाज के खूंटे से अपने को नहीं छोड़ा तो एक दिन वे पायंगे कि नाव वहीं खड़ी है। एक दिन जब वे तट पर उतरकर देखेंगे तो पायेंगे कि जीवन व्यर्थ गया। हमने पतवार तो बहुत चलायी, लेकिन नाव एक इंच भी आगे नहीं जा सकी। नाव को गतिमान करने के लिए चलाना ही काफी नहीं, छोड़ना भी जरूरी है। इससे पहले कि आप सत्य की तरफ चलें, आप अपने को छोड़े। जो छोड़ना भूल जाएगा, इसका चलना सार्थक नहीं होगा।
आपने कहीं अपने को छोड़ा है क्या? मैं तो हैरान हूं। सत्य की तरफ जो लोग उत्सुक होते हैं, वे उतने ही जोर से बंधने लगते हैं, छोड़ने की बजाय। अगर वह जैन हैं तो और ज्याद जैन होने लगते हैं। अगर वे हिन्दू हैं तो और ज्यादा हिन्दू होने लगता हैं। अगर वे मुसलमान हैं तो और ज्यादा मुसलमान होने लगते हैं। वह उस खूंटे पर जंजीर को और गहरा करने लगते हैं। सत्य की तरफ जिसे जाना है, उसे हिन्दू होने का मौका कहां है? सत्य की तरफस जिसे जाना है, वह जैन कैसे हो सकता है? जिसे परमात्मा में उत्सुकता है, उसकी उत्सुकता मुसलमान और ईसाई होने में कैसे हो सकती है? और अगर ये उसकी उत्सुकताएं हैं तो खूंटे हैं और नाव को आगे नहीं जाने देंगे।
विवेक-जागरण के लिए पहली जरूरत है, उन खूंटों से अपने को छुड़ा लें, जिनमे समाज ने आपको बांध दिया है। समाज की जरूरत है बांधने के लिए। समाज को मुश्किल पड़ेगी, अगर आप बंधे हुए न हों। समाज का सारा ढांचा दिक्कत में पड़ जाएगा, अगर वह आपको न बांधे। इसलिए समाज आपको बांधने की चेष्टा करता है। समाज की व्यवस्था, समाज की सुव्यवस्था इस पर निर्भर है कि आप बंधे हुए हों। हर आदमी खूंटे से बंधा हुआ हो तो समाज व्यवस्थित होता है। समाज अपनी व्यवस्था के लिए, आपको बलि चढ़ा देता है। समाज व्यक्तियों का बलिदान कर देता है, व्यवस्था के लिए। इसलिए समाज जितना व्यवस्थित होगा, व्यक्तियों का बलिदान उतना ही जरूरी हो जाएगा।
स्टैलिन या हिटलर जैसे लोगों ने व्यक्तियों को बिल्कुल समाप्त कर दिया, क्योंकि समाज की पूरी व्यवस्था उनको करनी थी। उन्होंने व्यक्तियों को खूंटों से बांधा नहीं, व्यक्तियों को खूंटे बना दिये। उनके छूटने की गुंजाइश नहीं रखी। समाज की जरूरत है कि व्यक्ति बिल्कुल मर जाये। वह मशीन की तरह व्यवहार करे। समाज जो कहे, उस तरफ जाये, समाज जो व्यवस्था दे, उसको माने। समाज को सत्य से कोई मतलब नहीं है, समाज को तो सुव्यवस्था से मतलब है। इसलिए समाज की जरूरतें आपको बांधेगी।
लेकिन एक सीमा पर आपकी जरूरत है और सबको आपको छोड़ना पड़ेगा। छोड़ने का मतलब यह नहीं कि आप उच्छृंखल हो जायेंगे। छोड़ने का मतलब यह नहीं है कि आप स्वच्छन्द हो जाएंगे। छोड़ने का मतलब केवला इतना है कि आपके चित्त की भूमिका, जंजीरों से बंधी नहीं रह जाएगी। आप किन्हीं धारणाओं में अपने को कैद नहीं करेंगे, किन्ही कन्सेट्स में अपने को बांधेंगे नहीं और किन्ही संस्कारों को आप अज्ञान में स्वीकार नही करेंगे। आप खोज में संलग्न होंगे, आप आन्तरिक जिज्ञासी के लोक में प्रवेश करने लगेंगे और धीरे-धीरे वहां आपकी जो गति होगी और जो अनुभव आपको होंगे, वे अनुभव आपके पथ के प्रदीप बनेंगे, आपके लिए प्रकाश बनेंगे।
पहली जरूरत है, समाज ने जो ढांचे और संस्कार दिये हैं, उनको कोई व्यक्ति क्षीण करे, उनको छोड़े मन सें नहीं, इतना ही काफी नहीं है। समाज के ढांचे क्षीण हो जाए तो मन उड़ने को मुक्त हो जाता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उड़ान शुरू हो गयी। उड़ने की सम्भावना पैदा हो जाती है। समाज के ढांचे, परम्परा, शास्त्र, सम्प्रदाय इनके द्वारा प्रचारित संस्कार, इनको छोड़कर चेतना इतनी हल्की हो जाती है कि चेतना उड़ सकती है। फिर साथ में दूसरी चेष्टा, अन्तर्दृष्टि के लिए करनी होती है। एक तो खूंटे से छोड़ देना, फिर अन्तर्दृष्टि की पतवार चलानी होती है, तब नाव में गति आती है। अन्तर्दृष्टि की पतवार का क्या अर्थ है? अन्तर्दृष्टि की पतवार का अर्थ है कि चीजों को, जैसी वे दिखाई पड़ती हैं, उनको वैसा ही मत मान लेना। उनके भीतर बहुत-कुछ है। एक आदमी मर जाता है। हमने कह, आदमी मर गया हे। जो आदमी इस बात को यहीं समझकर चुप हो गया, उसके पास अन्तर्दृष्टि नहीं है।
गौतम बुद्ध एक महोत्सव में भाग लेने जा रहे थे। रास्तें में उनके रथ पर उनका सारथी था और वे थे। और उन्होंने एक बूढ़े आदमी को देखा। वह उन्होंने पहला बूढ़ा देखा। जब गौतम बुद्ध का जन्म हुआ तो ज्योंतिषियों ने उनके पिता से कहा कि यह व्यक्ति बड़ा होकर या तो चक्रवर्ती सम्राट होगा अथवा संन्यासी हो जाएगा। उनके पिता ने पूछा-मैं इसे संन्यासी होने से कैसे रोक सकता हूँ? उस ज्योतिषी ने बड़ी अद्भुत बात कही थी और वह समझने जैसी है। उस ज्योतिषी ने कहा- अगर इसे संन्यासी होने से रोकना है तो इसे ऐसे मौके मत देना कि इसमें अन्तर्दृष्टि पैदा हो जाये। पिता बहुत हैरान हुए। उनके पिता ने कहा-यह तो बड़ा मुश्किल हुआ, क्या करेंगे? उस ज्योतिषी ने कहा-इसकी बगिया में फूल कुम्हलाने से पहले अलग कर देना। यह कभी कुम्हलाया हुआ फूल न ेदख सके, क्योंकि यह कुम्हलाया हुआ फूल देखते ही पूछेगा, क्या फूल कुम्हला जाते हैं? और यह पूछेगा, क्या मनुष्य भी कुम्हला जाते हैं? और यह पूछ्रेगा, क्या मैं भी कुम्हला जाऊँगा? और उसमें अन्तर्दृष्टि पैदा हो जाएगी। इसके आस-पास बूढ़े लोगों को मत आने देना, अन्यथा यह पूछ्रेगा कि यह बूढ़े हो गए तो मैं भी बूढ़ा हो जाऊँगा। यह कभी मृत्यु को न देखे, पीले पत्ते गिरते न देखें। अन्यथा यह पूछेगा, पीले पत्ते गिर जाते हैं तो क्या मुनष्य भी एक दिन पीला होकर गिर जाएंगा?
पिता ने बड़ी चेष्टा की ओर उन्होंने ऐसी व्यवस्था की कि बुद्ध ने युवा होते-होते कभी पीला पत्ता नहीं देखा, कुम्हलाया हुआ फूल नहीं देखा, बूढ़ा आदमी नहीं देखा। किसी के मरने की कोई खबर नहीं सुनी। लेकिन यह कब तक हो सकता था? इस दुनिया में किसी आदमी को कैसे रोका जा सकता है कि मृत्यु को न देखें, कैसे रोका जा सकता है कि पीले पत्ते न देखे, कैसे रोका जा सकता है कि कुम्हलाये फूल न देखे। लेकिन मैं आपसे कहता हूँ, आपने भी मरता हुआ आदमी नहीं देखा होगा और अभी आपने पीला पत्ता नहीं देखा, अभी आपने कुम्हलाया हुआ फूल नहीं देखा। बुद्ध को उसके बाप ने रोका बहुत मुश्किल से, तब भी एक दिन उन्होंने देख ही लिया। आपको कोई नहीं रोके हुए है और आप नहीं देख पा रहे हैं। अन्तर्दृष्टि नहीं है, नहीं तो आप संन्यासी हो जाते, क्योंकि उस ज्योतिषी ने कहा था कि अगर अन्तर्दृष्टि पैदा हेती है तो यह संन्यासी हो जायेगा। तो जितने लोग संन्यासी नहीं हैं, मानना चाहिए कि उनमें अन्तर्दृष्टि नहीं होगी।
खैर, एक दिन बुद्ध को दिखाई पड़ गया। वह यात्रा पर गये, एक महोत्सव में भाग लेने और एक बूढ़ा आदमी दिखाई पड़ा। और उन्होंने तत्क्षण अपने सारथी से पूछा-इस मुनष्य को क्या हो गया? तो सारथी ने कहा- यह वृद्ध हो गया है। बुद्ध ने पूछा-क्या हर मनुष्य वृद्ध हो जाता है? उस सारथी ने कहा- हर मुनष्य वृद्ध हो जाता है। बुद्ध ने पूछा-क्या मैं भी? उस सारथी ने कहा-भगवन कैसे कहूं? लेकिन कोई भी अपवाद नहीं है। आप भी हो जायेंगे। बुद्ध ने कहा-रथ लौटा लो वापस, रथ को वापस फेर लो। सारथी बोला-क्यों? बुद्ध ने कहा-मैं बूढ़ा हो गया।
यह अन्तर्दृष्टि है। बुद्ध ने कहा-मैं बूढ़ा हो गया। अद्भुत बात कही, बहुत अद्भुत बात कही और वह लौट भी नहीं पाए कि उन्होंने एक मृतक को देखा। बुद्ध ने पूछा-यह क्या हुआ? तो सारथी ने कहा-यह बूढ़ापे के बाद का दूसरा चरण है। यह आदमी मर गया। बुद्ध ने पूछा-क्या हर आदमी मर जाता है? सारथी ने कहा-आप भी, कोई भी अपवाद नहीं है। बुद्ध ने कहा-अब लौटाओ या न लौटाओ, सब बराबर है। सारथी ने कहा-क्यों? बुद्ध ने कहा-मैं मर गया।
यह अन्तर्दृष्टि है। चीजों को उनके ओर-छोर तक देख लेना, चीजें जैसी दिखाई पड़े। उनको वैसा ही स्वीकार न कर लेना। उनके अन्तिम चरण तक, जिसको अन्तर्दृष्टि पैदा होगी, वह इतने जिन्दा लोगों की जगह इतने मुर्दा लोग भी देखेगा-उन्हीं के बीच, इन्हीं के साथ। जिसे अन्तर्दृष्टि होगी, वह जन्म के साथ ही मृत्यु को भी देख लेगा, सुख के साथ दुख को भी और मिलन के साथ विछोह को भी।
अन्तर्दृष्टि आर-पार देखने की विधि है। और जिस व्यक्ति को सत्य जानना हो, उसे आर-पार देखना सीखना हेगा, क्येंकि परमात्मा कहीं और नहीं है। जिसे आर-पार देखना आ जाता है, उसे परमात्मा उपलब्ध हो जाता है। वह आर-पार देखने के माध्यम से हुआ दर्शन है।
बगदाद में एक बहुत बड़ा राजा मुसलिम हुआ। वह एक रात सोया हुआ था। उसने ऊपर छत पर किसी के चलने कही आवाज सुनी। उसने सोचा, यह कैसा पागलपन है, इतनी रात को महल की छत पर कौन चलता है। उसने चिल्ला कर पूछा-आधी रात है, यह कौन ऊपर छत पर चल रहा है-कौन है जो ऊपर छत पर चल रहा है? एक आदमी ने ऊपर से कहा-मेरा ऊंट खो गया है, उसे खोज रहा हूँ। वह राजा हैरान हुआ, उसने कहा-पागल मालूम होते हो। ऊंट कहीं छतों पर खो सकते हैं?
उस आदमी ने कहा कि अगर मकानों की छतों पर ऊंट नहीं खो सकते और अगर मकानों की छतों पर ऊंट नहीं खोजे जा सकते तुम वहां राजसिंहासन पर परमात्मा को क्यों खोज रहे हो? कभी सोचा कि मकान पर तो ऊंट खो भी जाएं, मिल भी जाएं, लेकिन राजसिंहासन पर परमात्मा कभी नहीं मिलेगा। राजा बहुत हैरान हुआ। उसने बहुत कोशिश की कि कौन आदमी था जिसने ऊपर से यह बात कही, उस फकीर को खोजवाया जाए। उसे बहुत ढुंढ़वाया लेकिन उसका कहीं पता नहीं चला। दिन बीते, राजा वह बात भूल गया।
पर एक दिन एक संन्यासी, एक फकीर दरबार में आया। वह इतना महिमायुक्त था, इतना प्रभावी था कि सन्तरी उसे रोक नहीं सके, वे पूछ नहीं सके कि आप कैस ेजाते हैं? किसकी आज्ञा से? वह भीतर प्रविष्ट हुआ और दरबार में पहुँच गया। सारे दरबारी घबरा कर खड़े हो गये, खुद राजा भी खड़ा हो गया। और उसने पूछा-कौन हैं आप और कैसे आये? क्या प्रयोजन है? उस फकीर ने कहा- इस सराय में मैं कुछ दिन ठहरना चाहता हूँ। राजा ने कहा-सराय! अशिष्ट बात बोल रहे हो। थोड़ा शिष्टाचार का भी बोध नहीं है। यह मेरा महल है, यह मेरा निवास है।
वह फकीर जोर से हंसने लगा और बोला-इससे पहले भी मैं आया था, लेकन तुमको नहीं पाया था। तब दूसरा आदमी इस सिंहासन पर था। उससे पहले भी आया था, तब उसको भी नहीं पाया था, तब तीसरा आदमी इस सिंहासन पर था। यहाँ मैं कई दफा आया, हर दफा आदमी बदल जाते हैं। इसलिए क्षमा करें, मुझे शक हुआ कि यह सराय है, यहां लोग आते हैं और जाते हैं। और इसलिए मैंने कहा कि इस सराय में मुझे ठहरने का कोई स्थान मिल जाए तो बड़ी कृपा हो।
राजा ने उठकर उसके पैर पकड़ लिये और कहा कि निश्चिंत हो गया। जिस आदमी को मैं खोजता था, वह तुम्हीं हो सकते हो। क्या उस रात मेरी छत पर ऊंट तुम्हीं खोजते थे? क्योंकि तुम्हारे सिवाय और कौन खोजगा? वह फकीर बोला-मैं ही था और आया था कि शायद तुम्हें अन्तर्दृष्टि प्राप्त हो जाए और आज फिर आया हूँ कि शायद अन्तर्दृष्टि पैदा हो जाए। उस राज ने कहा-बात समझ में आ गयी। और उसने पीछे लौटकर नहीं देखा और महल के बाहर हो गया उससे जब भी लोग पूछते कि ऐसा तुमने इतनी जल्दी क्यों किया तो वह कहता, अन्तर्दृष्टि जब पैदा होती है तो जल्दी और देर का कोई सवाल नहीं रहता।
आर-पार देखने की जरूरत है, तब मकान सराय दिखाई पड़ेगा और आप चलते-फिरते मुर्दे मालूम होंगे। खुद अपने को मुर्दे मालूम होंगे, क्योंकि जो चीज मर जानी है, वह आज ही मरी हुई होनी चाहिए। जो चीज मर जानी है, वह हमेशा मर रही है धीरे-धीरे। मैं जिस दिन पैदा हुआ, उसी दिन से मर रहा हूँ। एक दिन यह मरने की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी और मैं समाप्त हो जाऊँगा। उसे लोग मृत्यु कहेंगे, लेकिन जो देखता हे, वह जान रहा है कि मैं प्रतिक्षण मर रहा हूँ। नहीं तो मृत्यु घटित कैसे हो? मरने का क्रमिक विकास ही, "ग्रेजुअल ग्रोथ" ही है रोज बढ़ती हो रही मृत्यु की। वह एक दिन मरण बन जाएगा। हम यहाँ जितने लोग बैठे हैं मर रहे हैं।
जो जीवन में आर-पार देखेगा, उसे अनेक बातें दिखाई पड़नी शुरू होंगी। जिज्ञासामुक्त हो और अन्तर्दृष्टि की तलाश रहे और हम किसी चीज को जैसी वह दिखाई पड़ती हो, उसका चेहरा जैसा मालूम पड़ता हो, वैसा स्वीकार न कर लें, उसके भीतर प्रवेश करें और देखें, तब क्या सारा जगत संन्यास का उपदेश बन जाता है। यह सरा जगत परित्याग का उपदेश बन जाता है। यह सारा जगत धर्म का शिक्षालय हो जाता है और जो आर-पार देखने में समर्थ हो जाता है, जिसकी शिक्षा, जिसकी जीवन-शिक्षा और अनुशासन आर-पार देखने में समर्थ हो जाता है, वह व्यक्ति घटनाओं के पीछे, उसको देखने लगता है जिससे कोई घटना नहीं घटती। वह व्यक्ति परिवर्तन के पीछे उसका अनुभव करने लगता है जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है। वह व्यक्ति जड़ता के पीछे उसको अनुभव करने लगता है जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है। वह व्यक्ति जड़ता के पीछे उसको देखने लगता है, जो चैतन्य है। उस व्यक्ति की जैसे-जैसे क्षमता गहरी होती जाती है, वह अनित्य के पीछे नित्य की ओर सामीप्य के पीछे दूरी का दर्शन करने लगता है। जब उसे सारे तथ्य के पीछे वह शाश्वत मिल जाता है, वह सनातन मिल जाता है, जिसके पार देखना असम्भव है, उसी बिन्दु का नाम ईश्वर है।
जिसके पार देखा जा सकता हे, उसका नाम संसार है और जिसके पार नहीं देखा जा सकता है, उसका नाम सत्य है। जहाँ तक हमारी दृष्टि प्रवेश कर सकती है, जहाँ तक दृष्टि की गति है, वहाँ तक संसार है। और जहाँ दृष्टि की अगति हो जाती है और दृष्टि आगे जा ही नहीं सकती, अन्तिम क्षण आ जाता है, तब अन्तिम बिन्दु आ जाता है, जिसके पार दृष्टि शून्य हो जाती है, जिसके पार देखने को कुछ नहीं रह जाता है उस जगह का नाम सत्य है, उस जगह का नाम परमात्मा है। उसे जो मन्दिर में खोज रहा है, वह नासमझ है। मन्दिर के तो पार देखा जा सकता है, वह तो संसार का हिस्सा है। जो उसे शास्त्र में खोज रहा है, वह नासमझ है। शास्त्र के तो पार देखा जा सकता है, शास्त्र तो पदार्थ का हिस्सा है। परमात्मा को तो वहाँ खोजना होगा, जिसके पार नहीं देखा जा सकता।
कौन-सी चीज है ऐसी, जिसके पार आप नहीं देख सकते? अगर आप अपने भीतर प्रविष्ट होंगे तो आपके सिवाय कोई ऐसी चीज नहीं जिसके पार आप देख सकते हैं। हर चीज के पार देखा जा सकता है, सिवाय आपको छोड़कर। जब आप भीतर प्रविष्ट होंगे तो आपको अपने ही भीतर एक बिन्दु उपलब्ध होगा, जिसके आर-पार कहीं नहीं देखा जा सकता। वह दृष्टा का बिन्दु है। जो देख रह है, उसको ही केवल देखा नहीं जा सकता। जो देख रहा है, उस बिन्दु पर स्थिर होकर, व्यक्ति सत्य को अनुभव करता है, परमात्मा को अनुभव करता है और उस दिन जो प्रकाश उसमें उत्पन्न होता है, उस दिन जो अनुभूति उसे स्पष्ट होती है, उस दिन जो दिखाई पड़ता है, उस दिन जो प्रतीति में आता है, वह उसके सारे जीवन को बदल देता है। उसके बाद मृत्यु नहीं रह जाती, क्योंकि उसे जानकर वह जानता है कि अमृत है। उसके बाद कोई दुखी नहीं रह जाता, क्येंकि उसे जानकर वह जानता है कि सब आनन्द है। उसके बाद सारा जगत सच्चिदानन्द रूप में परिणत हो जाता है।
ऐसी परिणति को साहसी ही उपलब्ध होते हैं। ऐसी परिणति को दुर्दम्य साहसी उपलब्ध होते हैं, दुस्साहसी उपलब्ध होते हैं। जो सब कुछ छोड़कर, अनन्त के सागर में अपनी नाव को खोते हैं, जो सारे खूटें तोड़कर, अज्ञात सागर में अपने को छोड़ देते हैं-अनजान, कहां जायेंगे, कुछ पता नहीं। जिन्हें तटों का मोह है, वे सत्य को नहीं पा सकते। जिन्हें मंझधार में डब जाने का साहस है, जिन्हें किनारों की कोई चाह नहीं, जो मंझधार को ही किनारा मान सकते हैं, जो बीच सागर को भी किनारा मान सकते हैं, केवल उनके लिए ही सत्य की खोज है।
ईश्वर ऐसा साहस पैदा करे, ईश्वर ऐसी हिम्मत दे, ईश्वर ऐसा दुर्दम्य बोध, ऐसी अन्तर्दृष्टि, ऐसी जिज्ञासा उत्पन्न करे तो हम इस सारी दुनिया में फिर से धर्म को प्रतिष्ठित करने में समर्थ हो जायेंगे। जो धर्म वीरों का था, वह वृद्धों का बना हुआ है। जो धर्म साहसियों का था, वह आलसियों का बना हुआ है। जिस धर्म पर केवल वे ही चढ़ते थे, जो पर्वतों में अकेले अपने को खो देने का साहस रखते हैं, जिन्हें मृत्यु का कोई भय नहीं। लेकिन वह उनका बना हुआ है, जो मृत्यु से बहुत भयभीत हैं, बहुत डरे हुए हैं और धर्म में अपना बचाव खोजते हैं। धर्म कोई सुरक्षा नहीं है, धर्म कोई बचाव नहीं है। धर्म को इन अर्थों में शरण मत समझना। धर्म तो आक्रमण है। जो लोग आक्रमण करते हैं सत्य पर, जो उसे विजय करते हैं, वे ही केवल उसे उपलब्ध होते हैं।
ईश्वर ऐसी सद्बुद्धि दे, ऐसा साहस दे, ऐसी हिम्मत दे कि अनन्त सागर में आप अपनी नाव को छोड़ सकें। तो किसी दिन, किसी क्षण, किसी सौभाग्य के क्षण में, कोई अनुभूति आपके जीवन को उपलब्ध होगी, जो आपको परिपूर्ण बदल देगी। जो आपकी सारी दृष्टि को बदल देगी। संसार तो यही होगा, लेकिन आप बदल जायेंगे। सब कुछ यहीं होगा, लेकिन आप दूसरे हो जायेंगे।
उस दूसरे हो जाने का नाम ही संन्यासी है। संन्यासी का अर्थ यह नहीं है कि जिसने कपड़े बदले और भीख माँगने लगा। वह संन्यासी हो गया या किसी ने टीका लगाया और किसी ने कपड़े रंग लिये तो वह संन्यासी हो गया। और कोई घर में रहा तो वह गृहस्थ हो गया। संन्यासी का यह अर्थ नहीं है। सत्य के अनुसन्धान मे इतने साहस को लेकर जो कूद पड़ता है, वही संन्यासी है। और जिसके घरघूले हैं और जिसके खूंटे हैं और जो अपने घर के बाहर नहीं निकलता वही गृही है, वही गृहस्थ है। कोई पत्नी और बच्चों से दुनिया में गृहस्थ नहीं होता और न कोई पत्नी-बच्चों के न होने से संन्यासी होती है। और न कोई कपड़ों के परिवर्तन से गृहस्थ होता है, न कोई संन्यासी होता है। अगर इन छोटी और ओछी बातों से दुनिया में संन्यासी होता है तो उसका मूल्य दो कौड़ी का हो जायेगा। उसका कोई मूल्य नहीं रह जायेगा। संन्यास तो बड़े आन्तरिक परिवर्तन की, इनर ट्रांसफर्मेशन की बात है। और वह परिवर्तन आन्तरिक जीवन की दिशा के बदलने से शुरू होता है।
उस दिशा के दो चरणों की मैंने आपसे बात की है- एक चरण है, जिज्ञासा को स्वतन्त्र और उन्मुक्त कर देना। आस्थाओं, श्रद्धाओं के खूंटों से उसे अलग कर देना। और दूसरी बात है-तथ्यों के आर-पार देखना। जो तथ्यों के आर-पार देखता है, वही सत्य को उपलब्ध हेता है।
इन थोड़ी-सी बातों को आपने बड़े प्रेम और बड़ी शान्ति से सुना है, उसके लिए मैं बहुत अनुगृहित हूँ। ईश्वर की आप पर अनुकम्पा हो, उसका प्रसाद आपको मिले, यह कामना करता हूँ और पुनः धन्यवाद देता हूँ। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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