चिकलदरा शिविर-प्रवचन-तीसरा
मनुष्य के जीवन में, और जीवन के आनंद का कोई अनुभव नहीं होता, उसे बदलें, थोड़ी सी बात मैंने आपसे कहीं थी। आज सुबह अंधेपन का कौन सा मौलिक आधार है, उस पर हम बात करेंगे।कई सौ वर्ष पहले, यूनान की सड़कों पर एक आदमी देखा गया था। भरी दोपहरी में सूरज के प्रकाश में भी वह हाथ में एक कंदील लिए हुए था। लोगों ने उससे पूछा कि यह क्या पागलपन है? इस कंदील को लेकर इस भरी दोपहरी में किसे खोज रहे हो? उस आदमी ने कहा, एक ऐसे आदमी की खोज करता हूं, जिसके पास आंखें हों। वह आदमी खड़ा उस समय का एक बहुत अद्भुत डायोजनीज, डायोजनीज को मरे हुए बहुत वर्ष हो गए, डायोजनीज जीवन भर वह लालटेन लिए हुए खोजता रहा उस आदमी को, जिसके पास आंखें हों। लेकिन उसे वह आदमी नहीं मिला। पीछे अमरीका में एक अफवाह उड़ी, कि डायोजनीज फिर लौट आया है और अमरीका में फिर लालटेन लिए हुए खोज रहा है। किसी ने उससे पूछा कि हजार डेढ़ हजार साल हो गए तुम्हें खोजते अब तक वह आदमी नहीं मिला, जिसके पास आंखें हो।
डायोजनीज ने कहा, वह आदमी तो नहीं मिला, एक ही संतोष मुझे है कि मेरी लालटेन अब भी मेरे पास है और कोई उसे चुरा नहीं लेता है। और अब तो मैंने आशा भी छोड़ दी है कि वह आदमी मिलेगा। लेकिन हम सबके पास आंखें हैं और कोई यह कहे कि हम आंखों वाले आदमी को खोजते हैं और वह नहीं मिलता, तो हमें हैरानी होगी।
लेकिन जो भी जानते हैं, वह कहेंगे कि हमारे पास आंखें हैं, केवल वस्तुओं को और पदार्थ को देख पाते हैं, उसे नहीं जो परमात्मा है। हमारी आंखें अत्यंत पार्थिव को देख पाती है, उसे नहीं जो अपार्थिव है और हमारी आंखें दूसरों को देख पाती है, स्वयं को नहीं। ऐसी आंखों से जीवन का काम तो चल जाता है, लेकिन जीवन का अर्थ उपलब्ध नहीं होता। ऐसी आंखों से हम टटोल-टटोलकर किसी भांति गिरते-गिरते मृत्यु के दरवाजे तक तो पहुंच जाते हैं, लेकिन जीवन के द्वार तक नहीं पहुंच पाते।
इन आंखों को आधार पर चलने वाला और कहीं नहीं पहुंचता सिवाय मृत्यु के, वह कहीं भी दौड़ें, कुछ भी कोशिश करें, कैसे भी प्रयास करें, लेकिन अंत में पाया जाता है कि वह मौत के दरवाजे पर पहुंच गया। यह आंखें जीवन के परम जीवन के द्वार तक नहीं ले जाती मालूम होती हैं। जन्म के बाद हम रोज-रोज मौत की तरफ सरकते जाते हैं और फिर हम चाहे कोई भी उपाय करें और कोई भी सुरक्षा और सिक्योरिटी की व्यवस्था करें, मौत से बचना नहीं हो पाता है। हमारी सारी व्यवस्था शायद उसी से बचने के लिए हैं, धन इकट्ठा करते हैं, यश इकट्ठा करते हैं, शक्ति इकट्ठी करते हैं कि शायद शक्ति से, पद से और धन से हम एक दीवाल बना लेंगे और अपने को मौत से बचा लेंगे। लेकिन हमारा कोई भी उपाय सार्थक नहीं होता, वरन हम जो उपाय मौत से बचने के करते हैं, वे ही उपाय हमें और भी गति से मौत की तरफ ले जाते हैं और यह कोई एक आदमी की कथा नहीं है, सभी की कथा है जो हुए उनकी, जो है उनकी, और जो होंगे उनकी, लेकिन थोड़े से लोग इस कथा से भिन्न भी हैं, कुछ लोग अपवाद भी सिद्ध हुए हैं।
क्राइट को जिस रात पकड़ा गया और सुबह उनको सूली दी जाने को थी, उनके एक मित्र ने ल्यूक ने उनसे पूछा कि क्या आप घबड़ाए हुए नहीं है। कल मौत आ जाएगी, क्या आपके चित्त में परेशानी और बेचैनी नहीं है। क्राइट ने कहा, जिस दिन से भीतर देखा, उस दिन से मौत मिट गई, अब मुझे मारने वाले इस भ्रम में होंगे कि उन्होंने मुझे मारा और मैं नहीं मरूंगा।
मंसूर नाम के एक फकीर को सूली पर लटकाया गया और उसके हाथों में खीलियां ठोकी गई और जब लोगों ने उससे कहा कि तुमने अंतिम कोई बात कहीं है, तो मंसूर ने कहा यही कि तुम जिस भ्रम में हो, परमात्मा करें वह भ्रम तुम्हारा टूटा। उन लोगों ने कहा, कौन सा भ्रम? मंसूर ने कहा यही कि तुम मरते हो या मार सकते हो। जो है प्राणों के प्राण, वह अमृत है, लेकिन हम तो ऐसे अमृत को जानते नहीं। हम तो जानते हैं, रोज चारों तरफ घटती हुई मृत्यु को और खुद भी निरंतर मृत्यु की तरफ सरकते हैं, इसे भी जानते हैं। एक श्वास हम लेते हैं और एक आदमी जमीन पर कहीं मर जाता है। एक श्वास भीतर जाती है और एक आदमी मर जाता है और एक श्वास बाहर निकलती है और एक आदमी मर जाता है। प्रति क्षण चारों तरफ मौत घटित हो रही है और हम उसके बीच खड़े हैं और हम कुछ भी करें और कहीं भी भागे।
एक बादशाह हुआ, उसने रात एक स्वप्न देखा। स्वप्न में उसने देखा कि कोई काली छाया उसके कंधे पर हाथ रखे हैं और उससे कह रही है कि कल ठीक समय और ठीक थान पर मुझे मिल जाना। मैं मृत्यु हूं और कल तुम्हें लेने आ रही हूं। कल सूरज डूबने के पहले ठीक जगह उपस्थित हो जाना, उसकी घबराहट में नींद टूट गई। उसने अपने राज्य के बड़े ज्योतिष्यिं को बुलाया और पूछा कि मैंने ऐसा वप्न देखा और स्वप्न विश्लेष्कों को बुलवाया, उस समय के जो फ्रायड होंगे और उनको बुलवाए और उनसे पूछा, इस स्वप्न का क्या अर्थ है? और उन व्यक्तियों से पूछा कि स्वप्न का क्या अर्थ है और मैं क्या उपाय करूं, क्योंकि मुझे खबर मिली स्वप्न में कि आज संध्या होने के पूर्व, मौत मुझे पकड़ ले जाएगी। उन सारे लोगों ने बहुत सोचा और उन्होंने कहा कि सोचने में समय खोना गलती होगी, आपके पास जो तेज से तेज घोड़ा हो उसे लेकर आप भागने की कोशिश करें। जिस राजधानी में वह था दमिश्क में, उसके मित्रों ने और उसके ज्ञानियों ने सलाह दी कि तेज से तेज घोड़ा लें और भागें और सूरज डूबने के पहले जितनी दूर निकल सकें निकल जाएं और इसके सिवाय हम कुछ भी सोचने में समय गंवाना ठीक नहीं समझते, हम सोचते रहे और विश्लेषण करते रहे और व्याख्या और शास्त्रों में खोजते रहे और सांझ हो जाए और मौत हो जाए फिर कौन जिम्मेवार होगा। उस राजा ने फिर एक क्षण भी न खोया, उसने अपने अस्तबल से एक तेज से तेज घोड़ा बुलाया, उस पर वह बैठा और वह भागा। अपने मित्रों और अपनी पत्नियों और अपने बच्चों को विदा के दो शब्द भी कहने की उसे फुर्सत न थी। रोते हुए लोगों ने विदा दीं, लेकिन फिर भी उसे एक ख्याल था कि बहुत तेज घोड़ा उसके पास है और सांझ होने के पहले वह सैकड़ों मील दूर निकल जाए। सच में ही वह सैकड़ों मील दूर निकल गया, उस दिन न उसने खाना खाया, न पानी पीया, न वह एक क्षण को विश्राम के लिए रुका। वह घोड़े को भगाता ही रहा, भगाता ही रहा, आखिर में सूरज डूबने के पहले वह सैकड़ों मील दूर एक बगीचे में जाकर झाड़ के नीचे रुका, वह घोड़े को बांध ही रहा था कि मौत पीछे आकर खड़ी हो गई और उसने कहा, मित्र! हम हैरानी में थे, इतनी दूर तुम्हारी मौत होने को थी, तुम पता नहीं आ भी पाओगे या नहीं आ पाओगे, ठीक जगह तुम आ पहुंचे और ठीक समय पर, घोड़ा तुम्हारा लाजवाब है।
जिंदगी भर हम भागते हैं, भागते हैं और आखिर में वहां पहुंच जाते हैं, जिससे हम भागते थे और जिससे हम बचते थे और जिसके लिए हमने घोड़े दौड़ाएः यश के और धन के और शक्ति के और पद के, उसी जगह हम पहुंच जाते हैं। और तब मौत हमें धन्यवाद देगी कि तुम्हारी दौड़ बहुत अच्छी थी, तुम्हारे पास घोड़े बहुत तेज थे और तुम ठीक जगह और ठीक समय तक आ पहुंचे हों। यह जो जिंदगी है, जो अंततः हमें मृत्यु के दरवाजे पर ले जाती है जरूर कहीं गलत और भूल भरी है, अगर जीवन ठीक हो, तो परम जीवन के द्वार पर पहुंच जाना चाहिए। लेकिन बहुत कम सौभाग्यशाली लोग है, जो वहां पहुंचते हो और नहीं पहुंचते तो एक ही कारण है, हम किसी भांति आंतरिक जीवन के प्रति, वास्तविक जीवन के प्रति अंधे हैं। हमें पदार्थ ही दिखाई पड़ता है, परमात्मा नहीं और जब तक परमात्मा दिखाई न पड़े। पदार्थ के ऊपर चेतना के जब तक दर्शन न हो, आकार से भिन्न निराकार, अनुभूतियों का द्वार न खुलें, तब तक जानना चाहिए आंखें बंद हैं। जो आंखें आकार ही देखती है, वे आंखें देखती ही नहीं और जो आंखें केवल ठोस वस्तुओं को ही देख पाती है, वे आंखें देख ही नहीं पाता। सारे आकार के साथ कुछ निराकार व्याप्त है और इस सारी देह के साथ कुछ अदेही भी और इस सारे पदार्थ के भीतर कोई और भी मौजूद है, उसे देखने वाली आंखों के लिए जरूरी है कि वे अंधी न हों। मैंने कहा रात श्रद्धा और विश्वास... बात थोड़ी उलटी लगेगी, क्योंकि हजारों वर्षों से यही सिखाया गया है कि जो श्रद्धा नहीं करता और विश्वास नहीं करता, वह तो परमात्मा को जान ही नहीं सकेगा। मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि जो श्रद्धा करता है और विश्वास, उसके लिए परमात्मा को जानने का कोई भी उपाय नहीं है। किसी कारण से यह मैं कहना चाहता हूं, इस कारण से यह तो मैं चाहता हूं। क्योंकि श्रद्धा करने वाला मन, विश्वास करने वाला मन, अंधा हो जाता है। श्रद्धा का अर्थ है, जो हम नहीं जानते, उसे मान लें, जो हमने नहीं देखा, उसे स्वीकार कर लें। जो हमने नहीं देखा, उसे स्वीकार कर लें, जो हमने नहीं सुना, उस पर आस्था कर लें। जो हमारा अनुभव नहीं है, वह हमारी मान्यता बन जाए, श्रद्धा का यही अर्थ है। मैं कहूं कि परमात्मा है और आप विश्वास कर लें, यह श्रद्धा होगी। हो सकता है- मेरे लिए वह ज्ञान हो, लेकिन मेरा ज्ञान आपका ज्ञान बन जाए, तो श्रद्धा है आपके लिए, हो सकता है, मैंने जाना हो, मैं आपसे कुछ कहूं और उसे आप स्वीकार कर लें, वह आप का जाना हुआ नहीं है। आप अंधेपन में गिर रहे हैं, आप अंधे हो रहे हैं, आप अपने भीतर की अंधी शक्तियों को बल दे रहे हैं। श्रद्धा अंधा करती है और जो भी अंधा... बहुत सचेत आंखें चाहिए, उसके लिए तो बहुत-बहुत उन्मुक्त प्रकाश से आलोक से भरी हुई आंखें चाहिए। उसके लिए श्रद्धा का अंधकार और अंधापन, न ही उसका मार्ग है। लेकिन सिखाया हमें यह गया है कि हम श्रद्धा करें और हम श्रद्धा करते रहे।
लेकिन एक बात में हम सब सहमत है, मुश्किल से कभी कोई व्यक्ति पैदा होता है, जो इंकार करता है श्रद्धा से, जो इंकार करता है श्रद्धा से उसकी खोज शुरू होती है, उसकी इनकवायरी शुरू होती है, जो श्रद्धा के घेरे में आबद्ध हो जाता है, उसकी खोज बंद हो जाती है। खोज तो हम तभी करते है, जब हम किसी दूसरे को मानने के लिए राजी नहीं होते। तभी हमारे प्राण अपनी खोज पर निकलते हैं, तभी हमारे प्राणों की शक्ति जागती है और हम, हम खोज के लिए आगे बढ़ते हैं, हमारी खोज की यात्रा शुरू होती है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अश्रद्धा करें, अश्रद्धा भी श्रद्धा का ही एक रूप है। मैं यह कह रहा हूं कि अंधे न बनें, श्रद्धा में या अश्रद्धा में। एक आदमी मानता है ईश्वर है, हम कहते हैं यह श्रद्धालु हैं। एक आदमी मानता है ईश्वर नहीं है, हम कहते हैं यह अश्रद्धालु हैं। मेरे लिए दोनों अंधे हैं, क्योंकि जो कहता है, ईश्वर है, उसने भी नहीं जाना और जो कहता है ईश्वर नहीं है, उसने भी नहीं जाना। वे दोनों बिना जाने कुछ बात को स्वीकार कर रहे हैं, जो बिना जाने वीकार करता है, चाहे आस्तिक हो, चाहे नास्तिक है, वह श्रद्धालु हैं और श्रद्धालु अंधा हो जाता है। आस्तिक भी अंधे हैं और नास्तिक भी... आपका आस्तिक या नास्तिक होना इस बात पर निर्भर है कि आप किस प्रपोगेंडा और किस प्रचार के घेरे में पैदा हुए हैं। अगर आप हिंदू घर में पैदा हुए हैं, तो आपकी एक तरह की श्रद्धाएं बन जाएंगी। अगर आप मुसलमान घर में पैदा हुए हैं, तो दूसरी तरह की। अगर आप सोवियत रूस में पैदा हुए हैं, तो नास्तिक की तीसरी तरह की। यह सारी की सारी श्रद्धाएं, आस-पास के वातावरण, प्रचार, सिद्धांतों की हवाओं में पैदा होते हैं। यह आपका ज्ञान नहीं है। और जो व्यक्ति इनको पकड़ लेता है, उसे फिर ज्ञान के खोज की जरूरत ही समाप्त हो जाती है। फिर वह खोज ही नहीं करता। खोज तो तब शुरू होती है, जब एक व्यक्ति बाहर से आए हुए किन्हीं सिद्धांतों को भी स्वीकार नहीं करता है- मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वह अस्वीकार करता है, इस थोड़े से बारीक भेद को समझ लेना जरूरी है- अस्वीकार भी नहीं करता, स्वीकार भी नहीं करता। वह यह कहता है कि जो भी बाहर है, जो भी दूसरों का कहा हुआ है, वह मेरा हुआ जाना हुआ नहीं है। इसलिए मैं कैसे कहूं कि वह सच है, या मैं कैसे कहूं कि वह झूठ है, वह अपने को मुक्त रखता है, वह कोई आग्रह में अपने को आबद्ध नहीं करता है। वह किसी जंजीर को पकड़ता नहीं, वह यह कहता है कि मैं नहीं जानता हूं, मुझे पता नहीं कि ईश्वर है या नहीं, मुझे पता नहीं कि हिंदू ठीक कहते हैं कि मुसलमान, कि ईसाई, कि जैन, मुझे पता नहीं। मैं निपट अज्ञानी हूं, और इस अज्ञान में मैं कोई भी आग्रह करूंगा, तो वह आग्रह खतरनाक होगा, अज्ञानियों के आग्रह बहुत खतरनाक सिद्ध हुए हैं। सारी दुनिया में धर्म लड़ते हैं, अज्ञानियों के आग्रह के कारण, जिन्हें कुछ भी पता नहीं है, जिन बातों का उन्हें पता नहीं है, उन बातों के लिए मस्जिदों, मंदिरों को जलाने को तैयार है। जिन बातों का उन्हें पता नहीं है, उनके लिए वह शास्त्रों को नष्ट करने को या नए शास्त्र निर्मित करने को तैयार है। जिन बातों का उन्हें कोई पता नहीं है, उनके लिए वे लाखों लोगों की हत्या करने को या मर जाने को तैयार है।
अज्ञान में पकड़ी गई श्रद्धाएं, बहुत सुसाइडल सिद्ध हुई, बहुत आत्मघाती सिद्ध हुई। सारी दुनिया में धार्मिक लोग लड़ते रहे, कहीं धार्मिक व्यक्ति भी लड़ सकता है। धार्मिक लोग हत्याएं करते रहे हैं, धार्मिक व्यक्ति भी हत्याएं कर सकता है। धार्मिक लोग मंदिरों की मूर्तियां तोड़ते रहें, और मस्जिदों को जलाते रहे, धार्मिक व्यक्ति भी यह कर सकता है और अगर धार्मिक यह करेगा तो फिर अधार्मिक के लिए क्या शेष रह जाता है। फिर अधार्मिक क्या करेगा? नहीं, यह धार्मिक व्यक्ति ने नहीं किया है, यह किया है अज्ञान में पकड़ी हुई श्रद्धा वाले लोगों ने, अज्ञान और श्रद्धा दोनों मिलकर बहुत खतरनाक चीज बन जाती है। लेकिन मैं आपको स्मरण दिला दूं कि अज्ञान के ही कारण हम श्रद्धा कर लेते हैं, हम नहीं जानते इस सत्य को वीकार करने का साहस बहुत कम लोगों में होता है। मैं फिर से दोहराऊं हम नहीं जानते है इस सत्य को स्वीकार करने का साहस बहुत कम लोगों में होता है और जिस व्यक्ति ने यह साहस ही नहीं है, वह समझ लें कि सत्य की खोज उसका जीवन नहीं बन सकती, यह प्राथमिक साहस है, यह तो पहला चरण हैः कि मैं इस बात को जान लूं कि मैं नहीं जानता हूं। और जो अपने अज्ञान को स्वीकार कर लेता है, वह सभी तरह की श्रद्धाओं से मुक्त हो जाता है। जो अपने अज्ञान को वीकार करने से बचना चाहता है और जो यह दिखाना चाहता है कि नहीं मैं जानता हूं, इस थोथे अहंकार की पूर्ति करना चाहता है। वह किसी न किसी तरह की श्रद्धा को पकड़ लेता है और कहने लगता है कि ईश्वर है या ईश्वर नहीं है। आत्मा है या आत्मा नहीं है, पुनर्जन्म है या पुनर्जन्म नहीं है और इस तरह की बहुत सी बकवासें है, उनमें से वह किसी को पकड़ लेता है, और उसको दोहराने लगता है और चूंकि वह खुद जानता नहीं है, बहुत कमजोर है इसलिए अगर आप उसकी बात न मानें तो वह तलवार लेकर खड़ा हो जाता है। क्योंकि उसके पास मनाने का और कोई उपाय भी नहीं है वह खुद तो जानता नहीं है, तो मनाने का एक ही उपाय है कि वह तलवार उठा लें, मनाने का एक ही उपाय है कि वह भीड़ खड़ी कर लें, मनाने का एक ही उपाय है कि वह संख्या बढ़ाता जाए, इसलिए तो हिंदू फिक्र करता है- संख्या कम न हो जाए, मुसलमान फिक्र करता है, संख्या बढ़ जाए, ईसाई फिक्र करता है और लोगों को पी जाओ और सारे धर्म फिक्र करते हैं हमारी संख्या बढ़े और कम न हो जाए, क्योंकि संख्या बल है, तलवार का बल, शक्ति का बल, भीड़ का बल, उस बल के आधार पर ही हम अपने अज्ञान में पकड़ी हुई श्रद्धाओं के लिए समर्थन दे सकते हैं और हमारे पास कोई भी समर्थन नहीं है।
ज्ञान का जहां समर्थन है, वहां शक्ति का और हिंसा का कोई समर्थन कभी नहीं पकड़ा जाता है। जहां अज्ञान है, वहां समर्थन में यही बात होती है, कमजोर क्रोधी हो जाता है, कमजोर लड़ने को तैयार हो जाता। यह दुनिया के धार्मिक लोग लड़ते रहे हैं, इस बात की सूचना है कि अज्ञानी और कमजोर लोगों ने दूसरों के ज्ञान को जबरदस्ती अपना ज्ञान बना लिया है। और तब कितने खतरे हुए हैं उनका हिसाब नहीं है, कितने लाखों लोग काटे गए हैं उसका कोई हिसाब नहीं, कितने लाखों लोग जलाए गए है, उसका कोई हिसाब नहीं है। और जिन्होंने यह जलाए है, उनके बुनियाद में है अज्ञानपूर्ण श्रद्धा।
पहली बात जानने की जरूरी है, कि किसी भी तरह की श्रद्धा, जो मैं अपने अज्ञान में पकडूंगा, मेरे लिए परतंत्रता बन जाएगी। मैं फिर उस श्रद्धा के ऊपर नहीं उठ सकूंगा। उस श्रद्धा के ऊपर उठने में मेरे प्राण कंपने लगेंगे, मुझे भय मालूम होने लगेगा, मुझे डर लगने लगेगा, क्यों? डर लगेगा इस बात का और वह तो टूटना बिल्कुल स्वाभाविक है, जो व्यक्ति खोजने के लिए चला है, वह अगर किसी भी श्रद्धा को पकड़ेगा, उसकी श्रद्धा टूटनी स्वाभाविक है, खोज के पहले ही टूट जानी स्वाभाविक है, नहीं तो खोज कैसे शुरू होगी। खोज तो तभी शुरू हो सकती है, जब मैं निश्पक्ष हूं, जब मेरा माइंड, मेरा मन अनप्रजूडिसड है, बिना किसी पक्षपात के, लेकिन हम सब तो पक्षपात से भरे हैं। और फिर हम कहते हैं, हम सत्य को खोजना चाहते हैं और जीवन को जानना चाहते हैं, लेकिन अपने पक्षपात को छोड़ने को हम राजी नहीं है। और हमारे पक्षपात बहुत गहरे हमारे प्राणों को जकड़े हुए हैं, पक्षपात मनुष्य के चित्त की सबसे बड़ी परतंत्रता है और पक्षपात खड़े होते हैं श्रद्धाओं से, विश्वासों से, बिलीफ से, इसके पहले कि कोई आदमी सच में खोजने निकले कि क्या है उसे सब पक्षपातों से मुक्त हो जाना होगा, उसे सारे विश्वासों से मुक्त हो जाना होगा, उसे सारी श्रद्धाओं से मुक्त हो जाना होगा। उसे यह सारी जंजीरें तोड़ देनी होंगी, यह जंजीरें कोई दूसरा हमारे ऊपर नहीं लादता है, हम खुद बांधते हैं, इसलिए तोड़ने के लिए भी हम हमेशा स्वतंत्र है। कोई दूसरा हम पर बांधता नहीं, यह खुद हम स्वीकार करते हैं। हम खुद इनको अंगीकार करते हैं, सुरक्षा के लिए हम इनको अंगीकार कर लेते हैं, अज्ञान में असुरक्षा है, इग्नोरेंस में इनसिक्योरिटी है, अज्ञान में कुछ राता नहीं मिलता, कोई किनारा नहीं मिलता, तो हम किसी ज्ञान के किनारे को पकड़ लेते हैं, ताकि सहारा मिल जाए, सुरक्षा मिल जाए, मुझे भी लगें कि मैं भी जानता हूं। लेकिन अज्ञान में पकड़ा गया कोई भी ज्ञान, ज्ञान कैसे हो सकता है, पकड़ने वाला जब अज्ञान में हैं तो वह जो भी पकड़ेगा, वही अज्ञान हो जाएगा। अज्ञान की स्थिति में कोई ज्ञान, ज्ञान नहीं बन सकता, अज्ञानी गीता को पकड़ेगा, गीता खतरनाक हो जाएगी। अज्ञानी महावीर को पकड़ेगा, महावीर खतरनाक हो जाएंगे, अज्ञानी मोहम्मद को पकड़ेगा, मोहम्मद खतरनाक हो जाएंगे। वह अज्ञानी का जो जहर है, वह जो भी पकड़ेगा, वही जहर वहां व्याप्त हो जाएगा। अज्ञानी ने जो भी पकड़ा है, वह खतरनाक हो गया है। पहली बात जानने की है, अज्ञानी को अपने भीतर अज्ञान को नष्ट करना है, ज्ञान को पकड़ना नहीं, अज्ञान नष्ट हो जाए तो ज्ञान का जन्म उसके भीतर होगा, और अगर वह ज्ञान को पकड़ लें, अज्ञान भीतर होगा ऊपर ज्ञान की बातें होंगी। पंडित में और क्या होता है? भीतर अज्ञान होता है, और ऊपर ज्ञान की बातें होती है; भीतर घना अंधकार होता है, ऊपर शास्त्र होते हैं; भीतर निपट अंधकार होता है, ऊपर मंत्र और शब्द और शास्त्रों को जाल होता है। उस जाल के भीतर जाने पर निपट अज्ञानी आदमी खड़ा हुआ है।
एक पंडित से तो एक सीधा-सादा अज्ञानी भी बेहतर है, इसलिए कि उसे अपने अज्ञान का बोध होता है। जिसे अपने अज्ञान का बोध होता है, उसे पीड़ा होती है, दुःख होता है, उसे लगता है कि इस अज्ञान को मैं कैसे मिटाऊं, लेकिन जिसको अज्ञान का बोध ही मिट जाए और थोथे ज्ञान को पकड़ कर वह बैठ जाए और सोचे कि मैंने जान लिया, वह तो डूब गया, अज्ञान भीतर रहेगा, थोथा ज्ञान बाहर होगा। आज तक शायद ही कभी कोई पंडित ने सत्य जाना हो, वह जान नहीं सकता। शब्द उस पर इतने भारी होते हैं, दूसरों के सिद्धांत उसके प्राणों पर पत्थर की तरह सवार होते हैं। वह बातें जानता है, सिद्धांत जानता है, तर्क जानता है, उनके लिए आरग्यू कर सकता है, लड़ सकता है, विवाद कर सकता है। पच्चीस तरह की बातें और व्याख्याएं कर सकता है, लेकिन जान नहीं सकता। जानने की पहली शर्त तो यह है कि वह दूसरे के ज्ञान को स्वीकार-अस्वीकार न करें। कैसी होगी वह स्थिति, जब हम दूसरों के ज्ञान को स्वीकार और अस्वीकार नहीं करेंगे। बड़ी सरल होगी, बड़ी हयूमलिटी की होगी, बड़ी विनम्रता की होगी, क्योंकि हम जानेंगे, हम नहीं जानते। सोकरिटीस से किसी ने कहा, कि लोग कहते हैं कि तुम सबसे बड़े ज्ञानी हो, सोकरीटीज ने कहा, उनसे कहना कि वह भ्रम में है, क्योंकि जैसे-जैसे मैं जानने लगा, वैसे-वैसे मुझे पता चला कि मैं तो बड़ा अज्ञानी हूं। जैसे-जैसे मैं जानता गया, वैसे-वैसे मेरा अज्ञान स्पष्ट होता गया और अब तो मैं एक ही बात जानता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। यह जो स्थिति है चित्त की अगर पैदा हो जाए, तो एक क्रांति घटित हो जाए।
क्या हमारे मन की इतनी तैयारी है कि हम अज्ञानी होने को राजी हो जाए। अज्ञानी हम है, होना नहीं है, सिर्फ इस तथ्य को स्वीकार करना जरूरी है कि हम अज्ञानी है। क्या सच में आपको पता है कि ईश्वर है- क्या सच में आपको पता है कि आपके शरीर के भीतर कोई आत्मा है- कभी कोई झलक आपको आत्मा की मिली, कभी कोई स्पर्श हुआ, कभी ईश्वर से कोई मुठभेड़ हुई, कोई मुलाकात हुई, कोई एनकाऊंटर हुआ। कभी पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ देखा और जाना है। मृत्यु के घेरे के बाहर अमृत की कोई भी झलक कभी मिली। नहीं, सुनी है बातें, शास्त्रों में पढ़ी है। गुरुओं के मुंह से सुनी है और उनको हम पकड़े बैठे हैं। और उनको हम पकड़े रहे, तो हम उन्हें पकड़े-पकड़े समाप्त हो जाएंगे। समाप्त हो जाएंगे बिना उसको जाने जो जाना जा सकता है और निरंतर निकट था। इसके पहले कि जीवन समाप्त हो जाए, यह चित्त की परतंत्र स्थिति समाप्त होनी चाहिए। इस तथ्य को बहुत स्पष्ट रूप से प्रगट हो जाना चाहिए, हमारे मन के समक्ष कि मेरे जानने का कुछ भी आधार नहीं है। क्या होगा उससे, क्यों मैं इतना जोर दे रहा हूं इस बात पर कि अज्ञान स्पष्ट हो जाना चाहिए। इसलिए जोर दे रहा हूं कि जैसे ही अज्ञान स्पष्ट हो आपके जीवन में क्रांति की संभावना शुरू हो गई। जैसे हम यहां बैठे है और चारों तरफ आग लग जाए, तो जिसको यह दिखाई पड़े कि चारों तरफ आग लगी है वह फिर यहां आराम से और शांति से बैठा नहीं रह जाता, लेकिन फिर दिखाई पड़े कि नहीं कोई आग वगैरह नहीं लगी। वह यहां आराम से बैठा रहेगा और शांति से बैठा रहेगा। यह तथ्य दिखाई पड़ जाए कि मेरे भीतर गहन अंधकार और अज्ञान है, तो वह अज्ञान और वह अंधकार आपको फिर शांति से बैठने नहीं देगा। उसकी पीड़ा, उससे मुक्त होने के लिए द्वार बनेगी, मार्ग बनेगी, बीमारी का पता चल जाए। तो हमारे भीतर वाथ्य की सहज आकांक्षा, लेकिन बीमारी का पता न चले, तो वाथ्य की सहज आकांक्षा सक्रिय नहीं हो पाती। अज्ञान का पता चल जाए तो हमारे भीतर ज्ञान की गहन अभीप्सा है। लेकिन अज्ञान का पता न चलें, तो ज्ञान की खोज प्रारंभ भी नहीं हो पाती। अज्ञान का बोध मनुष्य को ज्ञान की प्यास से भर देता है। अज्ञान का बोध ही ज्ञान की प्यास से भरता है। लेकिन जो लोग झूठे ज्ञान को पकड़ लेते हैं, उनके भीतर ज्ञान की प्यास मंदी होती जाती है, धीमी होती जाती है। धीरे-धीरे जो बुझ भी जाती है। ज्ञान की प्यास जगे, उसके लिए अज्ञान का तीव्रतम बोध आवश्यक है और मजा यह है कि अज्ञान मौजूद हो, उसको कहीं से लाना नहीं है, केवल बोध मौजूद नहीं है। अज्ञान मौजूद है, बोध मौजूद नहीं है, अज्ञान से अगर हमारा बोध संयुक्त हो जाए, वह तभी होगा जब हम इस झूठे ज्ञान के जाले और ताने-बाने को तोड़ दें। इसे तोड़ने में कोई वर्षों के अभ्यास करने की जरूरत नहीं है कि हम ज्ञान को तोड़ने जाए।
एक फकीर उठा, और सुबह उठते ही उसने अपने शिष्य को पास बुलाया और उसने कहा कि रात मैंने एक सपना देखा। क्या तुम मेरे सपने की व्याख्या कर सकोगे। उस युवक ने यह भी न पूछा कि वह सपना कैसा है? उसने कहा, आप रुकेंगे, मैं पानी ले आता हूं हाथ-मुंह धो डालता हूं। वह युवक पानी लेने चला गया, वह पानी लेकर आया। वह फकीर अपना हाथ-मुंह धोता था, तभी दूसरा शिष्य भी करीब से निकला। उसने उसे भी बुलाया और उसने कहा कि सुनो। रात मैंने एक सपना देखा, क्या तुम उसकी व्याख्या कर सकोगे। उसने कहा अगर आप हाथ-मुंह धो चुके हो तो मैं चाय ले आऊं। उस फकीर ने कहा कि तुम दोनों अपत हो, तुमने दोनों में मेरे सपने की व्याख्या कर दी। अगर तुमने आज मेरे सपने की व्याख्या की होती, मैं तुम्हें आश्रम से निकाल कर बाहर कर देता, क्योंकि सपनों की जो व्याख्या करता है, वह नासमझ हैं। सपना आया और एक आदमी पानी ले आया हाथ-मुंह धोने के लिए समझ वाली बात है कि आप जाग जाए ठीक से ताकि फिर न आ जाए सपना, और दूसरा आदमी चाय ले आया, कि अब आप चाय पी लें, ताकि वापिस लौटने की कोई गुंजाइश न रह जाए। सपने की व्याख्या और तोड़ने की कोशिश और मिटाने की कोशिश इस बात का सबूत है कि सपने को हमने स्वीकार कर लिया है। ऐसे श्रद्धाओं को तोड़ने का सवाल नहीं है, सपने की भांति में आप उनका पकड़े हैं, इसलिए वे हैं, आपको यह स्पष्ट हो जाए कि कोई श्रद्धा ज्ञान नहीं बन सकती। वे विलीन हो जाएंगे हवा में उसी तरह, जिस तरह सपने जागने पर विलीन हो जाते हैं।
सिर्फ यह तथ्य स्मरण में आ जाए कि अज्ञानी हूं और मेरा कोई भी ज्ञान अपना नहीं है। यह मैंने दूसरों से स्वीकार कर लिया और पकड़ लिया, लेकिन सिखाया तो हमें यह जाता है कि रोज सुबह गीता पढ़ना और रोज-रोज पढ़ना और जीवन भर पढ़ना। और सिखाया तो यही जाता है कि कुरान जब तुम्हें पूरी याद अहो जाए, तुम ज्ञानी हो जाओगे और सिखाया तो हमें यह भी होता है कि जो बाइबिल पूरी दोहरा दें... चाहे वह उसे कितनी भी कंठस्थ हो जाए, चाहे वह उस नींद में भी उनको बकने लगे, बोलने लगे, तो भी यह शब्द है और मात्र। मेमोरी और नॉलेज में बुनियादी फर्क हैः इस महत्वपूर्ण ज्ञान का ... ज्ञान, ज्ञान की व्यवस्था नहीं है, स्मृति पार। क्योंकि हमें स्मरण है वह बात, जो भी जानते हैं। आदमी अज्ञानी होता जाता है और उसे अजीब मुश्किल में फंस गई है सारी दुनिया। प्रति सप्ताह पांच हजार किताबें नई छप जाती है। एक वक्त ऐसा आएगा आदमी को रहने की जगह न नसीब होगी, किताबें इतनी होंगी; कि आदमी को दफनाना हो तो किताबों में दफनाना पड़ेगा, मकान बनाना हो तो किताबों का बनाना पड़ेगा। क्या करिएगा? या फिर आदमी को कुछ और तरकीबें सिखानी पड़ेंगी कि आप अपनी पैदाइश कम करो, क्योंकि किताबों को रखने के लिए जगह नहीं है। अगर पांच हजार ग्रंथ प्रति सप्ताह तैयार होंगे तो यह तो संभवतः आज नहीं कल यह स्थिति आ जाएंगी, किताबें बढ़ती जाती है और आदमी का ज्ञान क्षीण होता चला जाता है। किताबें और शिक्षाएं स्मृति पर बल देती है, ज्ञान प्रवीण हो, विश्वविद्यालयों पर यह स्मृति का परीक्षण होता है, हम बाहर निकल आते हैं। कुछ बातें हम स्मरण करते हैं और उन्हीं को जीवन भर दोहराते रहते हैं। ज्ञान बड़ी और बात है, बड़ी गहरी बात तो यह है कि जो व्यक्ति जितनी ज्यादा स्मृति को पकड़ेगा, उतना ही अज्ञान होगा।
वही जबकि ज्ञान को उपलब्ध हो सकता है। जो पहले तो यह जान लें कि स्मृति क्या है? स्मृति
गीता को पढ़ लेना सूचनात्मक ज्ञान नहीं है, कुरान को याद कर लेना सूचना का ज्ञान नहीं है। सूचनाएं ज्ञान नहीं है। एक आदमी प्रेम के संबंध में प्रेम के बारे में तो ही प्रेम को समझता है, और एक आदमी तैरने के संबंध में शास्त्र पढ़ लें और व्याख्यान दें और किताबें लिखे तो भी तैर न सकें। कोई बात न समझ सकें कि तैरना क्या हैं? न बता सकें, न व्याख्यान दे सके। तैरना, जानना एक बात है, तैरने के संबंध में जानना बिल्कुल दूसरी बात है
बहुत पुरानी भारतीय कथा है। एक व्यक्ति सवार हुआ है नाव में और नदी पार कर रहा है और अपने साथ बड़े शास्त्र लिए हुए। बीच मझधार में नाविक
उसने कहा, क्या तुमने भवर शास्त्र नहीं पढ़ा, नाविक ने कहा, मौका नहीं आया। तो पंडित ने कहा। थोड़ी सी और आगे बढ़े और उसने पूछा कि न पढ़ा होगा। शास्त्रीय पढ़ा, काव्य पढ़ा। नाविक ने कहा कि नहीं, मैंने तो नहीं पढ़ा, उस पंडित ने कहा और चार आना गया। पानी भीतर आने लगा, उस नाविक ने पूछा, पंडित जी, तैरना जानते हो? उस पंडित ने कहा कि नहीं, तो उस नाविक ने कहा तो फिर आपका सोलहा आना जीवन गया। अब कोई उपाय नहीं है, मेरा तो आठ आना ही गया आपका तो सोलहा आना। उस दिन सोलहा आना जीवन गया पंडित जी का और नाविक तैर कर निकल गया और पंडित वहीं डूब गया। जिंदगी में भी यही हो रहा है। जिंदगी के आगे ही नदियां। फिर यह स्मृति के पल का अज्ञान होकर और जिंदगी। जिंदगी उस मृत्यु को नहीं जानती, जिंदगी काम को जानती है, जिंदगी ज्ञान को मानती है। लेकिन हम उस स्मृति को गलत समझे हुए है। यह तथ्य स्पष्ट रूप से ख्याल में आ जाए, स्मृति ज्ञान नहीं है तो आप अज्ञान स्पष्ट हो जाए। यह बात स्पष्ट होजाए कि कोई श्रद्धा मेरा ज्ञान नहीं बन सकती, तो श्रद्धा को तोड़ने के लिए कोई तलवार, टूट गई बात हो गई। जीवन बहुत अद्भुत है, कुछ बातें जानते ही नष्ट हो जाती है। मैं जला जाऊं, मेरे को खोज-खोज कर भगाना नहीं पड़ता, दीया जलाया और खोज रहे हैं कि अंधेरा कहां है तो दीया जला कि अंधेरा गया।
ऐसे ही श्रद्धाओं, विश्वासों की कोई उपस्थिति नहीं हो सकती। केवल इस बोध की अनुपस्थिति का नाम, इस बोध का कि मैं अज्ञान न हूं और किसी दूसरे का अज्ञान मेरा ज्ञान नहीं है। महावीर आपको मिल जाएं या बुद्ध या क्राइस्ट या न मिले तो खोजते ही प्राणों की निरंतर खोज और अनुसंधान से उपलब्ध करना होता है। उसे न तो चुराया जा सकता है, न किसी से मुक्त पाया जा सकता है, न भीख में पाया जा सकता है, कोई रास्ता नहीं है उसे और तरह से पाने का। उसे तो खुद ही जीना पड़ता, खोजना पड़ता। अज्ञान हमारा है, तो हमारा ज्ञान उसे मिटा सकेगा। अज्ञान हमारा है, ज्ञान दूसरे का है। इन दोनों का कहीं मिलना ही नहीं होगा। यह दूसरे को काट ही नहीं पाएंगे, इनका कोई संबंध ही नहीं है। अज्ञान बचा रहेगा और ज्ञान स्मृति में इकट्ठा होता चला जाएगा। प्राण अज्ञान में रहेंगे, बुद्धि ज्ञान से भर जाएगी। दूसरे के ज्ञान स्मृति से ज्यादा गहरा नहीं चाहता। खुद का ज्ञान ही आत्मा की केंद्रीय चेतना को जगाता है और प्रगट करता है, इसीलिए तो यह देखा जाता है कि हम ऊपर से जो थोप लें वह हममें बहुत गहरा नहीं होता, लेकिन डीप भी नहीं होता। चमड़ी के बराबर भी गहरा नहीं होता। जरा सी खरोंच उसे मिटा देती है।
एक व्यक्ति थे और वे बहुत क्रोधित थे और बहुत-बहुत अशांत, उनके मित्रों ने उन्हें सलाह दी, उनके क्रोध ने उन्हें बहुत कष्ट दिया और बहुत पीड़ा दी। आखिर वे परेशान हो गए उन्होंने किताबें पढ़ी और गुरुओं से पूछा और उन्होंने कहा, कि जब तक संसार में रहोगे तब तक तो अशांति रहेगी। संसार छोड़ो तो शांत हो सकते हो, वे पक्के क्रोधी थे, उनको यह भी चोट लग गई, पक्के जिद्दी थे, वे बड़े हटी थे, उनको यह भी चोट लग गई तो उन्होंने एक दिन गुस्से में आकर संसार भी छोड़ दिया, साधु हो गए- जिस व्यक्ति से उन्होंने दीक्षा ली, उसने उन्हें शांति नाथ का नाम दे दिया, क्योंकि वे बड़े अशांत और क्रोधित थे और शांति की साधना के लिए साधु हो गए थे। वे एक बड़े नगर में गए और उनके पुराने बचपन के एक मित्र उनसे मिलने गए, वह शांति नाथ तो मित्रों को भूल चुके थे क्योंकि संसार छोड़ चुके थे। लेकिन मित्र अभी संसार में थे और शांतिनाथ को याद रखते थे। उन मित्र ने उनसे पूछा, महानुभाव! आपका नाम? उन्होंने कहा, शांतिनाथ, कोई दो मिनट कुछ बात चली होगी, फिर उस मित्र ने पूछा, क्षमा करिए, आपका नाम? उन्होंने कहा, शांति नाथ, फिर कोई दो मिनट बात चली होगी, उस मित्र ने पूछा, क्षमा करिए! आपका नाम। उन्होंने अपना डंडा उठा लिया, कहा नहीं तुझसे कि शांतिनाथ, उन्होंने कहा, मैं समझ गया कि आप बिल्कुल शांति को उपलब्ध हो चुके हैं। मैं जाता हूं, मैं पुराना मित्र हूं, और देखने आया था कि शांति गहरी गई। वह लेकिन डीप भी नहीं, वह चमड़े से ज्यादा गहरी भी नहीं है। जब भिक्षाएं दूसरों से मिल जाए, जो संन्यास दूसरों से लिया जाए, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। जो ज्ञान दूसरों से मिले, वह गहरा नहीं जाता। जो शांति दूसरों से मिल जाए वह फिर गहरी नहीं हो सकती। प्राण तो आपके ही होंगे, चाहे वस्त्र बदल लें और घर छोड़ दें, फर्क नहीं पड़ेगा।
भाग रहे है कोने-कोने में, अपने-आप से भागना असंभव है। आप अपने साथ होंगे और सबको छोड़ कर भाग जाएंगे आप अपने साथ होंगे। इसलिए एक बात आज की सुबह मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जो आपका है वही बस आपका है और जो आपका है वही आपमें क्रांति और परिवर्तन ला सकता है। जो ज्ञान कहीं और से आता हो, जो नैतिकता, जो चरित्र बाहर से आता हो, वह गहरा नहीं होता, उसे जरा ही खरोंच दें, असली आदमी बाहर आ जाएगा, नकली आदमी फट जाएगा। वह हमेशा असली आदमी भीतर मौजूद है, दुनिया में सबको धोखा दिया जा सकता है, खुद को नहीं, लेकिन हम खुद को भी धोखा देते हैं। और कम से कम सत्य की खोज में तोहम निरंतर धोखा देते हैं। और हम बड़े होशियार है, धोखा ही नहीं देते, धोखा देने में सफल हो जाते हैं। मैं फिर से दोहराता है हम बहुत होशियार है, धोखा ही नहीं देते, धोखा देने में सफल हो जाते हैं। धन्य है वे लोग जिस धोखा देने में असफल रह जाते हैं। तब उन्हें यह ख्याल आता है कि धोखा देना व्यर्थ है, दूसरों का ज्ञान लिए बैठे हैं और ज्ञानी बन गए इससे बड़ा धोखा हो सकता है। गीता और रामायण दोहराते हैं और ज्ञानी बन गए है इससे बड़ा धोखा हो सकता है।
ज्ञान के मामले में अद्भुत धोखे हमने दिए है। मेरे एक मित्र मुझसे कह रहे थे, कि वे दूसरे महायुद्ध में थे। एक जहाज पर थे। एक आदमी सामने बैठा हुआ दिन-रात अकेला ही ताश का खेल खेलता रहता था। दोनों तरफ से, दूसरी पार्टी की तरफ से भी चलता था, अपनी तरफ से भी, अकेले ही खेलता रहता था। वह अकेला था, कोई उपाय न था। यह भी उसके साथ उसी केबिन में यात्री थे तो दिन-रात देखते रहते थे, उन्होंने देखा कि वह आदमी चालों में धोखे करता है। अकेले खेल रहा है और कोई दूसरा है नहीं, दूसरी तरफ से भी खुद चलता और अपनी तरफ से भी लेकिन चाल में धोखा करता है। वह दूसरे आदमी को धोखा देता है जो मौजूद ही नहीं है। जब उसने बार-बार देखा कि धोखा करता है तो बहुत हैरानी हुई। एक तो अकेला ताश खेलता था, यही पागलपन था। फिर वह जो मौजूद नहीं है उसको धोखा देता था और वह है ही नहीं, तो धोखा तो अपने को देता था। और तो वहां कोई था नहीं। जब उनकी बर्दाश्त के बाहर हो गया देखते-देखते तो उन्होंने कहा कि ठहरिए! आप तो हद किए दे रहे हैं, धोखा दिए दे रहे हैं। उसने कहा, मुझे सब मालूम है, क्योंकि मुझे मालूम नहीं है क्या मैं धोखा दे रहा हूं। लेकिन मैं इतना होशियार आदमी हूं कि पकड़ नहीं पाता, पकड़ा नहीं जाता हूं इतना होशियार आदमी हूं। क्या मुझे पता नहीं कि मैं धोखा दे रहा हूं मुझे पता है। लेकिन इतना होशियार हो गया आज तक पकड़ा नहीं गया, पकड़ा कैसे जाएगा?
दूसरों को आप धोखा देंगे तो पकड़े भी जा सकते हैं, अदालतें हैं, पुलिस है और जमाने भर का जाल है, कानून है, दूसरे लोग है वे भी आंखें गड़ाए हुए अपने को धोखा देंगे कोई नहीं पड़ेगा, कोई पकड़ने का कारण नहीं है। इसलिए तो दुनिया में सब तरह के धोखे पकड़ जाते हैं, लेकिन आत्मज्ञान का धोखा पकड़ में नहीं आता है। यह सबसे गहरा डीसैपशन है, यह पकड़ में नहीं आता, क्योंकि उसके खिलाफ कोई भी नहीं है। आप बने रहो आत्मज्ञानी, आप जानते हो परमात्मा को न पुलिस पकड़ती है, न अदालत में मुकदमा चलता है और कुछ मूढ़ मिल जाएंगे जो आपको इस धोखे में सहयोगी हो जाएंगे। इस जमीन पर ऐसे मूढ़ खोजना कठिन है, जिनके शिष्य न मिल जाए। शिष्य हमेशा उपलब्ध हो जाएंगे, क्योंकि बड़े मूर्ख हमेशा मौजूद है। वह आपको सहयोगी हो जाएंगे आपके ज्ञान में और ताली बजाएंगे और सिर हिलाएंगे। आप खुद अपने को धोखा देंगे और उनसे धोखा खाएंगे, लेकिन जो आदमी जानता है। थोड़ी भी जिसकी ईमानदारी की खोज है जीवन के प्रति, वह एक बात जरूर समझ लेगा कि अपने को धोखा देने से कोई भी अर्थ नहीं है। सिर्फ जीवन नष्ट होता हो, व्यय होता है। दूसरे के ज्ञान को अपना ज्ञान मानना बहुत सूक्ष्म धोखा है। लेकिन हम सब माने हुए हैं, न केवल मानना बल्कि लड़ सकते हैं उस ज्ञान पर, लोग विवाद में आ जाते हैं और लड़ते हैं मेरा विचार। तलवारें निकल आती है विचार पर और बड़े मजे की बात है आपका कोई भी विचार नहीं है, सब विचार पराए है और दूसरों के हैं। मेरा विचार बिल्कुल झूठी बात है। कौन सा विचार आप है? एकाध विचार है जो कह सकें मेरा है, अगर खोज करेंगे तो ऐसा एक भी विचार नहीं पाएंगे। और जब ऐसे पराए विचारों का हम पर बोझ हो तो स्वयं का अनुभव पैदा नहीं हो सकता है।
इसलिए मैं पहलीः जो स्वतंत्रता चाहिए सत्य के खोज के लिए, वह श्रद्धा से स्वतंत्रता, अश्रद्धा से स्वतंत्रता। उन्मुक्त अपने अज्ञान को स्वीकार करता हुआ चित्त। पहली स्वतंत्रता है, वह फर्स्ट फ्रीडम हैं, इसके बिना कोई रास्ता आगे बन नहीं सकता। तो आज की सुबह तो मैं यही प्रार्थना करूं कि श्रद्धा से स्वतंत्र हो जाइए, अश्रद्धा से स्वतंत्र हो जाइए, विश्वास से स्वतंत्र हो जाइए। मान्यता, परंपरा, संप्रदाय से मुक्त और स्वतंत्र हो जाइए। चित्त से इन जालों को तोड़ जाइए। और आपके जानते और समझते ही यह जाल टूट जाते हैं इनके लिए जाकर कमरे पर लड़ने की जरूरत नहीं है। अंडरस्टैंडिंग, इस बात की समझ जाल टूट गया।
चित्त अगर इस भांति श्रद्धा, अश्रद्धा, बिलीफ से, डिसबीलिफ से मुक्त हो जाए। बहुत निर्मल हो जाते हैं, बहुत सरल हो जाते हैं, बहुत सहज हो जाते हैं। खोज की तैयारी हो जाती है, पहला चरण पूरा हो जाता है। यह तो पहली बात है जो आज की सुबह मैंने आपसे कही। कल मैं विवेक के जागरण की बात सुबह आपसे कहूंगा। श्रद्धा से मुक्त हो जाएं तो फिर विवेक जग सकता है। श्रद्धा से चित्त मुक्त हो, विवेक जाग्रत हो। विवेक की बात कल करूंगा। विवेक जाग्रत हो, श्रद्धा से मुक्ति हो और फिर तीसरी बात परसों करूंगा जब चित्त श्रद्धा से मुक्त हो जाता है और विवेक जाग्रत हो जाता है। एक और छोटी सी बात है वह भी अगर उसके जीवन में हो जाए, जिसको हम समाधि कहते हैं। अत्यंत निर्विकार और निराकार चित्त की स्थिति को आब्जैक्टलैसनेस कहते हैं। श्रद्धा से मुक्त हो चित्त, विवेक जाग्रत हो और चित्त के समक्ष सभी आब्जेक्ट, सभी विषय, सभी विचार, सभी कल्पनाएं विलीन हो जाए। चित्त के समक्ष फिर कुछ भी न रह जाए। श्रद्धा से मुक्ति हो, विवेक जाग्रत हो और चित्त के समक्ष कुछ भी न रह जाए, चित्त के समक्ष रह जाए अनंत शून्य, सन्नाटा और शांति, बस ये तीन बातें पूरी हो जाए तो मनुष्य वहां खड़ा हो जाता है, जहां परमात्मा है। वहां उसकी आंखें खुल जाती है, जहां सत्य है, वहां उसके प्राण आंदोलित होने लगते हैं, वहां उसके प्राणों में लहरें उठने लगती है जहां व्यक्ति मिट जाता है और समस्त वह जो टोटेलिटी है, वह सबकी सत्ता है उससे मेल हो जाता है। समाधि की बात अंतिम दिन करूंगा, आज मैंने श्रद्धा से मुक्त होने की बात कहीं। कल विवेक को जाग्रत कैसे करें उसकी बात करूंगा और परसों समाधि कैसे अवतरित हो, कैसे आ जाए हमारे जीवन में। इन तीन चरणों में चर्चा करूंगा, इस संबंध में जो भी प्रश्न होंगे, वह आप संध्या पूछ लेंगे। ताकि इनके कुछ पहलू छूट गए होंगे, वह आपके प्रश्नों में आ जाएंगे और उनकी बात हो सकेगी।
अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे। इसके पहले कि हम ध्यान के लिए बैठे मैं दो थोड़ी सी बातें ध्यान के संबंध में कह दूं। ध्यान बड़ी अत्यंत सरल सी बात है, और जो कोई भी कहता हो ध्यान बहुत कठिन है, वह झूठ कहता होगा। ध्यान से ज्यादा सरल और कोई बात नहीं है। क्योंकि ध्यान हमारा स्वरूप है, जो हमारा स्वरूप होता है, वह एकदम सरल होता है। जैसे गुलाब के पौधे में गुलाब के फूल लग जाना एकदम सरल बात है, इसमें कोई कठिन बात नहीं है, सिर्फ हम पूरी परिस्थितियां जुटा दें तो फूल लग जाएंगे, फूल लगने में कोई कठिनाई नहीं है। फूल तो बड़ी सहजता से निकल आते हैं, कली बन जाती है और फिर खिल जाती है। इतने स्पोनटेनियस, इतनी सहजता से हो जाता है फूल का खिलना कि हमें पता भी नहीं चलता। न कोई बैंड बाजे बजते हैं, न कोई अखबार में खबर छपती है, न कोई रेडियो से, दिल्ली से एनाऊंस होता है, कुछ फूल पूर्ण लगते हैं खिल जाते हैं। कहीं पता नहीं चलता, कहीं कोई आवाज नहीं होती, कोई शोरगुल नहीं मचता। कलियां लगती हैं और फूल खिल जाते हैं। जैसे गुलाब के फूल में गुलाब का फूल खिल जाता है, सहज सी बात है। वैसे ही मनुष्य के चित्त में ध्यान का फूल खिल जाना उतनी ही सहज बात है। ही ही तो बहुत सहज है लेकिन हम बहुत उलटे-सीधे है। इसलिए गडबड़ होती है, इसलिए देर होती है। ध्यान तो बहुत सरल है हम बहुत कठिन है। ध्यान तो बहुत सरल है हम बहुत जटिल है। हमारी जटिलता उपद्रव कर रही है, ध्यान के आने में कोई बाधा नहीं है। गुलाब के फूल में तो अब भी फूल आ जाए, लेकिन हमने जड़ें ही काट डाली। या हम पूरे पौधे को उखाड़कर जमीन के बाहर रखें हुए हैं, या हमने पानी न देने की कसम खाली, व्रत ले लिया था हम पानी न देंगे या हम खाद नहीं देते हैं या खाद की जगह जहर देते हैं।
गुलाब के फूल में तो फूल आ जाना, बहुत सरल बात हैः इसमें तो शक का कोई सवाल पैदा कर दें। और गुलाब के फूल को कहें कि सिर-साशन करों। जड़े ऊपर करो और सिर नीचा करो। तो फिर बहुत कठिन हो जाएगा, फिर फूल नहीं आएंगे और हम सब सिर-साशन कर रहे हैं। जिंदगी सब उलटी किए हुए हैं, इसलिए ध्यान का फूल हममें खिल ही नहीं पाता है। लेकिन उसकी अगर सारी परिस्थितयों को हम उलटा कर दें तो एक बात स्मरण रखना हम कठिनाई में होंगे, ध्यान कठिन नहीं है। तो काम बन सकता है, अपनी कठिनाई छोड़नी पड़ती है, कोई बड़ी बात नहीं। अगर ध्यान कठिन होता है, तो हमको कठिन बात सीखनी पड़ती है, कठिन बात सीखनी कठिन होती है, कठिन बात छोड़नी कठिन होती है। किसी चीज को मिटा देना कठिन नहीं होता, बनाना बहुत कठिन होता है। अगर ध्यान ही कठिन होता और हमें इसके लिए तैयारी करनी पड़ती। लेकिन एक हम कठिन है और हम कठिन
पहली बातः ध्यान, दूसरी बातः ध्यान से मेरा अर्थ, एकाग्रता नहीं। सिर्फ आपने सुना होगा।
अपने मन को लगाएंगे तो मन खींच जाएगा, तन जाएगा, तनाव के बाद एक तरह की उदासी, थकान आएगी। स्वाभाविक, जब भी आप कोई तना हुआ महसूस करेंगे तो पीछे से खिंचाव आएगा, खिंचाव आने से चित्त अशांत होगा। इसलिए जो लोगों की कनसनट्रेशन या एकाग्रता करते हैं, बहुत तने हुए और खिंचे हुए लोग हो जाते हैं। वे सरल लोग नहीं रह जाते और कांप्लेक्स और जटिल हो जाता है। देखा ही होगा आपने कोई आदमी अगर माला फेरने लगा या राम-राम जपने लगे तो ज्यादा क्रोधी हो जाता है। कोई आदमी मंदिर जाने लगे, भगवान की मूर्ति के पास बैठकर एकाग्रता करने लगे, ज्यादा क्रोधी हो जाता है, ज्यादा वायलेंट हो जाता है, ज्यादा हिंसक, ज्यादा दंभी हो जाता है। अहंकार उसका और घना हो जाता है। स्वाभाविक है यह होगा, यह सब कंपीटीशन के, एकाग्रता के परिणाम है और अगर एकाग्रता बहुत बढ़ जाएगी तो आदमी पागल भी हो सकता है। वह इतना एकाग्र हो जाए तो उसकी एकाग्रता टूटने में आदमी पागल भी हो जाए। यह कोई ईश्वर का उन्माद नहीं है, ईश्वर का उन्माद नहीं होता है, ईश्वर की शांति होती है, ईश्वर का कोई पागलपन नहीं होता। ईश्वर की शांति होती है, आनंद होता है, फ्रुल्लता होती है उन्माद नहीं होता। यह सब पागलपन है, कनसनट्रेशन का परिणाम पैदा हुआ है। और आप समझ लें जिस कौम में बहुत ज्यादा कनसनट्रेशन का बल रहा हो, उस कौम का मस्तिश्क धीरे-धीरे डल हो जाता है। धीरे-धीरे उस कौम के मस्तिश्क की जो ऊर्जा और प्रतिभा चाहिए वह क्षीण हो जाती है। भारत जैसे मुल्कों की प्रतिभा के क्षीण होने का बुनियादी कारण यह है।
यहां हमने मस्तिश्क को विश्रांति नहीं दी। खींचने की कोशिश की, तनाव देने की कोशिश की। तनाव के दुश्परिणाम हुए। भारत ने आज तक कुछ भी इनवेंट नहीं किया, कुछ खोजा नहीं, कुछ नया बनाया नहीं, कुछ क्रिएट नहीं किया। तीन हजार साल के इतने नपुंसक और बांझ दिन बीते हैं हमारे, जिसका कोई हिसाब नहीं। इतना बैरल, कुछ हमने तीन हजार साल में सृजन नहीं किया। कोई खोजने की, कोई नई दिशाएं नहीं खोजी, कोई नया विज्ञान, कोई नई कला। हमने जीवन के प्राणों में कोई छिपे हुए कोने नहीं खोजे, किसी अज्ञात का हमने उदघाटन नहीं किया। हम बैठे हुए दोहराते हैं शास्त्रों को, और दोहराए चले जाते हैं, और हम बड़ी एकाग्रता की बातें करते हैं, एकाग्रता ध्यान नहीं है। ध्यान है चित्त की परम-विश्रांति की अवस्था और एकाग्रता है चित्त की तनाव की ही स्थिति। एकाग्रता होती है किसी चीज के विरोध में, ध्यान किसी चीज के विरोध में नहीं है। अगर समझ लें, आपको मैं कहूं कि यहां बैठकर एकाग्रता करिए। राम के नाम पर एकाग्रता करिए या ओम पर एकाग्रता करिए या किसी और पर, कोई भी चीज काम दे सकती है। तब जब आप एकाग्रता करेंगे, तो शेष जो दुनिया है उससे आपका मन लड़ेगा। क्योंकि एक कुत्ता यहां से भौंकता हुआ निकल जाए, तो आप कहेंगे कि इसने सब गड़बड़ कर दिया। एकाग्रता खंडित हो गई। तो कुत्ते के भौंकने से लड़िए कि यह आपको सुनाई न पड़े, आपका नाम तो वही चलता रहे, ओम-ओम, आप कहते रहिए भौंकना कुत्ते का सुनाई न पड़ें। एक बच्चा रोने लगे, यह सुनाई न पड़े। तो आप लड़िए, चारों तरफ जो घटनाएं घट रही हैं, जो दुनिया खड़ी है उससे लड़िए और अपने चित्त को एक तरफ लगाइए, आप थक जाएंगे, परेशान हो जाएंगे। तब आप कहेंगे अपने बस की बात नहीं। नहीं, इसलिए किसी के बस की बात नहीं, सिवाय पागलों को छोड़कर। पागल यह कर सकते हैं, सिर्फ पागलों को छोड़कर यह किसी के बस की बात नहीं हैं, और होनी भी नहीं चाहिए, क्योंकि अगर हो जाए तो परिणाम घातक होंगे।
ध्यान का अर्थ किसी एक चीज पर सबके विरोध में चित्त को रोकना नहीं है। ध्यान का मेरा अर्थ हैः सब चीजें बही जाए और चित्त शांत हो, चित्त अनुत्तेजित हो और चीजें बही जाएं। एक कुत्ता भौंके, तो आप कोई मुर्दा थोड़ी है कि उनको सुनाई नहीं पड़ेगा। आप जीवित है, जो जितना ज्यादा जीवित हो, उसे उतना ही स्पष्ट सुनाई पड़ेगा। जिसका चित्त जितना सेन्सेटिव है, जितना संवेदनशील है, जितना रिसेपटिव है, जितना ग्राहक है, उसे उतना तीव्रता से सुनाई पड़ेगा। जिसका चित्त जितना अनुत्तेजित शांत है, उसे उतना ही स्पष्ट सुनाई पड़ेगा, एक सुई भी गिरेगी तो उसे सुनाई पड़ेगा। शांति में तो छोटी सी ध्वनि भी सुनाई पड़ेगी, अशांति में नहीं सुनाई पड़ सकती। एक आदमी के घर में आग लग गई हो और सड़क से अपने घर की तरफ भागा जा रहा हो और आप उससे कहें जय राम जी, उसे सुनाई नहीं पड़ेगा। इसलिए नहीं कि वह कोई परमस्थिति को उपलब्ध हो गए हैं, बल्कि इसलिए है कि मस्तिश्क कनसनटरेटिड है। एक चीज पर लगा, उनके घर में आग लगी है और आप जय राम जी कर रहे हैं। या कल उनसे मिलिए कि कल हम आपको रास्ते में मिले थे ख्याल है। वे कहेंगे मुझे ख्याल नहीं, कौन दिखा, कौन नहीं दिखा मुझे कुछ पता नहीं है। चित्त एकाग्रता, लेकिन चित्त की एकाग्रता, चित्त पर तनाव है, बोझ है, भार है। चित्त होना चाहिए शांत और अनुत्तेजित। कैसे होगा?
मैं एक छोटे से रेस्टहाऊस में, गांव में रुका था। एक मित्र भी मेरे साथ थे। वह रेस्टहाऊस अजीब था। सारे गांव के कुत्ते शायद वही विश्राम करते थे रात को, करते होंगे। अच्छी जगह थी, वहां वे भी ठहरते थे। वे रात को इतनी जोर से शोरगुल करते और जब ढेर करें। कुत्तों की आदत करीब-करीब ऐसी होती हैं, जैसे नेताओं की होती हैं। दूसरा उसके विरोध में करें, तीसरा उसको जवाब दें, चौथा उसको जवाब दें, वहां करीब-करीब वही हालत थी जो चुनाव के वक्त हो जाती है। मेरे मित्र सोना उनको मुश्किल हो गया, उन्होंने मुझसे कहा यह तो बड़ी मुसीबत हो गई। यह तो यहां सोना असंभव है, मैंने उनसे कहा कि कुत्तों को पता भी नहीं कि आप यहां ठहरे हुए हैं। और आपसे उनकी कोई दुश्मनी नहीं है, पिछले जन्म का कोई संबंध हो तो मुझे पता नहीं। तो उनको पता भी नहीं वे आपको डिस्टर्ब भी नहीं कर रहे, परेशान भी नहीं कर रहे हैं, आप क्यों उनसे हैरान हो रहे हैं। आप सो जाइए, उन्होंने कहा, कैसे सो जाए। ये भौंकते हैं तो सब नींद खराब हो जाती है। मैंने उनसे कहा, उनके भौंकने से नींद खराब नहीं होती। उनके भौंकने के प्रति आप रेसिसटेंस मन में लिए हुए हैं कि नहीं भौंकने चाहिए। आपके मन में विरोध है उनके भौंकने के प्रति, इसलिए नींद नष्ट हो जाती है, डिस्टरबेंस उनके भौंकने से पैदा नहीं होता, आपके मन का यह आग्रह है, उन्हें भौंकना नहीं चाहिए, उन्हें यहां नहीं होना चाहिए। यह आग्रह पहरा दे रहा है और नींद तोड़ रहा है। मैंने उनसे कहा, आग्रह छोड़ दीजिए, रैसिटेंस छोड़ दीजिए अपने मन में सोचिए कि तुम कुत्ते हो तुम्हारा भौंकना। मेरे सोने का वक्त है मैं सोता हूं। उनको भौंकने दीजिए, उनकी आवाज को गूंजने दीजिए बराबर जब तक आप जागे होंगे, तब तक वह आवाज सुनाई पड़ेगी, लेकिन आपके भीतर विरोध मत रखिए उसके प्रति आए गूंज जाने दीजिए। मैंने उनसे कहा, ठीक उलटा परिणाम होगा यही आवाज सुलाने का काम करने लगेगी। वे मान गए, समझदार थे, इतने समझदार कम लोग होते हैं, और सो गए, सो जाना स्वाभाविक था। सुबह होते अब उससे बोले कि मैं हैरान हूं, यह मेरे ख्याल में कभी नहीं आया कि मेरा जो प्रतिरोध था कुत्तों के प्रति वही बाधा दे रहा था। कुत्ते कैसे बाधा देंगे, हमारा जो प्रतिरोध है वह बाधा देता है। अप्रतिरोध का नाम ध्यान है, नान-रैसिसटेंट माइंड, अप्रतिरोध ही मन जो रैसिस्ट नहीं करता। चीजों को आने-जाने के तहत बड़ी धुंधियाई चीजें आएंगी-जाएंगी, कोई आपका ठेका है कि आप शांत होकर बैठे तो कुत्ते न भौंके, मक्खियां न उड़ें, मच्छर न आएं, कोई बच्चा न रोएं, कोई और बात न करें। यह किसी का कोई ठेका नहीं है। दरख्त हिलेंगे, हवाएं आएंगी, पत्ते गिरेंगे-उड़ेंगे, आवाजें होंगी, लेकिन इस तरह आपका कोई जोर नहीं है। ये जोर देने वाले बेचारे जंगलों में भागते हैं, पहाड़ों पर जाते हैं, फिर इस ख्याल में कि यहां गड़बड़ होती है तो वहां जाएं। हिमालय पर जाए या तिब्बत जाए या कहां जाए, वे कहीं भी चले जाए कुछ भी नहीं होगा, वह रैसिसटेंस माइंड साथ होगा। एक पक्षी वहां चिल्ला देगा वे कहेंगे कि सब ध्यान गड़बड़ हो गया हमारा, ऐसा ध्यान जो किसी की वजह से गड़बड़ हो जाता है और ध्यान नहीं, वह एकाग्रता है। एकाग्रता गड़बड़ होती, क्योंकि एकाग्रता का मतलब है एक चीज को पकड़ कर रह जाना और बाकी सब चीज के लिए दरवाजा बंद कर देना, वह सब चीजें धक्के देने लगती है, बल्कि सच्चाई यह है जब आप एकाग्र होने की कोशिश में तब वे चीजें उतना धक्का नहीं देती। स्वाभाविक है, जब आप एकाग्र होने की कोशिश करते हैं तो वे चीजें ज्यादा धक्का देने लगती है।
मन एक प्रवाह की भांति है, वहां जाए, चारों तरफ घटनाएं हो रही है, उनके प्रति बेहोश होने की, मूर्च्छित होने की या उनके लिए दरवाजा बंद करने की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए मैंने जब बच्चों से विरोध नहीं है, कुत्तों से, बिल्लियों से किसी से कोई विरोध नहीं है। उसका संसार से कोई विरोध और जिसका किसी से कोई विरोध नहीं है और हर चीज को जो इस तरह गुजर जाने देता है, जैसे
बहुत निकट है वह और किसी भी दिन द्वार खुल सकता है। यहां हम छोटे से प्रयोग करेंगे इन तीन दिनों में अप्रतिरोध के। अभी हम यहां बैठेंगे, बैठने का मतलब अकड़ कर और रीढ़ को बहुत सीधा करके और सिर को बहुत खींच कर बैठ जाना नहीं, क्योंकि प्रतिरोध शुरू हो गया। बहुत सहजता से जैसे छोटे-छोटे बच्चे बैठ जाते हैं। वैसे सहजता से बैठ जाना, सिर झुके झुक जाए, रीढ़ झुके झुक जाए कोई भी फिर बाधा नहीं दे रहा है। ध्यान तो भीतर चित्त की स्थिति है, उसका इस सबसे कोई वास्ता नहीं है इतने इट इज, इतनी सरलता से बैठ जाना। जैसे आप कोई काम नहीं कर रहे हैं, खाली वक्त गुजार रहे हैं। आंख की पलक धीरे से फिर बंद कर लेनी है, बंद कर लेने का मतलब यह नहीं है कि आप कोशिश करके उसे दबा लेते हैं, वह रसिस्टेंस शुरू हो गया। न ही पलक को गिर जाने देना है जैसे झपकी आ गई हो व पलक गिर गयी। पलक को बंद नहीं करना है, गिर जाने देना है। उसे धीरे से गिर जाने दे, उसमें भी यह न हो कि मैंने बंद किया। उसको भी गिर जाने दे, सारे शरीर कोढीला छोड़ दें। जैसे हम कुछ बड़ा काम नहीं कर रहे हैं, खाली बैठे हैं, कोई काम नहीं कर रहे हैं कि विश्राम कर रहे हैं। आदतें नहीं है हमारी विश्राम करने की, हम तो खाली भी बैठे तो कुछ न कुछ करते, नहीं तो रेडियो खोल देंगे, अखबार उठा लेंगे, कुछ न कुछ करेंगे। न करने का हमें पता ही नहीं है और न करना बहुत अद्भुत है। न करने का कोई मुकाबला नहीं है, न करने की स्थिति का नाम ध्यान है। यहां हम न करने की स्थिति में दस-पंद्रह मिनट बैठेंगे। आंख की पलक कोढीला छोड़ देंगे सारे शरीर कोढीला छोड़ देंगे फिर क्या करेंगे। बात तो इतनी है अगर इतना ही करना तो काम हुआ।
कोई भी आवाज सुनाई पड़ रही हो। रुकी तो रहेगी नहीं, आएगी, गूंजेगी और चली जाएगी। आप विरोध न करें कि यह आवाज क्यों गूंजी, आप आवाज के प्रति सजग रहे आवाज तेजी से गूंजे, तब जानें, धीमी होने लगेगी, धीमी होने लगेगी, तब जानते रहें। फिर वह विलीन हो जाएगी तब जानते रहेंगे, जैसे धुआं आया, भर गया। ऐसी आवाजें होंगी, घटनाएं होंगी चारों तरफ किसी से कोई विरोध नहीं है, वे आएंगी और चली जाएंगी। अगर आप शांति से मात्र साक्षी रहे, प्रतिरोधी नहीं, विरोधी नहीं। जो भी आई आई, जो भी गई गई, अगर इतनी शांति से उनका निरीक्षण किया तो आप भी दो क्षण के भीतर ही पाएंगे कि चित्त तो एकदम शांत हुआ जा रहा है। वह प्रतिरोध से अशांत है स्मरण रखें और कोई अशांति नहीं है। वह विरोध से अशांत है, लड़ रहा है इसलिए अशांत है जो नहीं लड़ रहा है तो कोई अशांति नहीं है।
लाओत्से फकीर हुआ चीन में, उसने लिखा है। धन्य वे लोग जो लड़ते नहीं, क्योंकि उनको कोई हरा नहीं सकेगा। धन्य है वे लोग जो लड़ते नहीं क्योंकि उनको कोई हरा न सकेगा। जो लड़ता ही नहीं उसके हारने का सवाल ही नहीं। जिसके हारने का सवाल ही नहीं उसके दुखी होने का कोई सवाल नहीं है, लड़े न, ध्यान लड़ाई नहीं। आमतौर से लड़ाई है, मंदिरों में लोग बैठे हैं मालाएं लिए लड़ रहे हैं। पहाड़ों पर लोग बैठे हैं आंख बंद किए हुए आसन लगाए हुए लड़ रहे हैं। ध्यान तो लड़ाई से बिल्कुल उलटी बात है, लड़े न, बिना लड़े कोई उससे लड़िए मत कि अब उसको रोकेंगे बैठेंगे हम तो ध्यान कर रहे हैं। पैर को बदलेंगे तो बगल वाला क्या कहेगा, नहीं वह ध्यान ही नहीं है आप पैर ही से अटके हुए हैं। पैर में दर्द हो रहा है, आप बिल्कुल बदल लीजिए, आपकी जिंदगी है, जान है अभी इसलिए पता चल रहा है। मर जाएंगे, इंजेक्शन दे दिया तो पता नहीं चलेगा या अफीम खाकर बैठ गया तो पता नहीं चलेगा। या किसी चीज पर इतना कंसन्टरेशन किया कि चित्त और सब तरफ से हट गया और उसी एक चीज में अटक गया तो पता नहीं चलेगा या यह हो सकता है कि निरंतर अभ्यास करिए तो निरंतर पैर की आदत हो जाएगी तो फिर पता नहीं चलेगा, लेकिन उससे कोई मतलब नहीं है। पैर में दर्द हो रहा है चुपचाप बदल लीजिए, एक ही बात का ख्याल रखिए, विशेष मत करिए, दिल में दुखी मत होइए कि पैर को बदलना पड़ रहा है। पैर आपका अभी जिंदा है इसलिए खबर देता है, मर जाएगा तो खबर नहीं देगा।
मार्क्सटविन का नाम आपने सुना होगा, बहुत हंसमुख और बढ़िया आदमी है अमरीका में। वह एक दिन बैठे-बैठे बहुत गपशप कर रहा था, बहुत प्रसन्न था, खूब ऊंची बातें कर रहा था, हंसा रहा था मित्रों को एकदम गंभीर हो गया और उदास हो गया, एकदम से। तो उसके एक मित्र ने पूछा, आपको क्या हो गया? उसने कहा, मालूम होता है मेरे पैर को लकवा लग गया है। डाक्टरों ने मुझे दस साल पहले कहा था, कभी न कभी खतरा है आपके पैर को लकवा लग जाएगा। मैंने कहा, आपको पता कैसे चला? उसने कहा, मैंने चयुंटी ले रहा हूं बड़ी देर से लेकिन कुछ पता ही नहीं चल रहा, बगल की महिला ने कहा, क्षमा करिए मैं संकोच की वजह से कह नहीं रही, चयुंटियां आप मुझे लिए जा रहे हैं। वह बेचारा जांच कर रहा था और बगल की महिला की चयुंटियां लेता रहा, लेता रहा, उसने सोचा कि मेरा पैर तो गया, पता ही नहीं चल रहा कुछ। यह जो पैर का पता न चलना है, या शरीर का पता न चलना है। यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है आपको पता चलना चाहिए, भीतर होश है कांशसनेस जितनी ज्यादा होगी पता चलेगा, उसकी कोई फिक्र न करें, चुपचाप पैर को बदल लीजिए, नान रैसनेस, कोई विरोध नहीं, चुपचाप पैर बदल लीजिए, गर्दन थक गई हो आगे-पीछे जाती हो जाने दीजिए। ऐसे जाने दीजिए, जैसे आपका कोई विरोध नहीं है, जो हो रहा है शरीर को करने दीजिए। आप इतना ही भर ख्याल रखिए कि मैं किसी चीज का विरोध नहीं करूंगा, चुपचाप बैठा रहूंगा। होने दूंगा जो हो रहा है, मैं किसी चीज पर पकड़ नहीं रखूंगा कि ऐसा हो, जैसा हो रहा है होने दूंगा। हवाएं आएंगी तो ठीक, नहीं आएंगी तो ठीक। कोई चिल्लाएगा तो ठीक, नहीं चिल्लाएगा तो ठीक। मैं सब कुछ स्वीकार करता हूं, टोटल एक्सैपटिबिलिटी। और मैं किसी चीज का विरोध नहीं करता हूं, बस इस भाव में एक दस मिनट हम यहां बैठेंगे। थोड़े-थोड़े फासले पर हो जाएंगे तो अच्छा होगा। क्योंकि हो सकता है कि आप इस भाव में, लेकिन बगल वाला इस भाव में न हो। थोड़े-थोड़े फासले पर ताकि कोई किसी को छूता न हो। थोड़े ऐसे फासले पर बैठे जाएंगे, बहुत आराम से। हां बाहर भी बैठ सकते हैं।
हूं आप लोग भी थोड़ा एक-दूसरे से दूर हो जाएं तो अच्छा है एक-दूसरे को छूता हुआ कोई न बैठे और बिल्कुल आराम से बैठ जाएं, जैसा आपके लिए बैठना निरंतर सुखद रहा हो, वैसे बैठ जाए। तब यहां जगह कम है इसलिए बैठने को कह रहे आपको, घर पर करेंगे सो कर सकते हैं कोई भी, सोने-बैठने का सवाल नहीं है। सवाल है भीतर की टेट ऑफ माइंड, भीतर जो मन की स्थिति उसका, कोई चीज का कोई सवाल नहीं है। सोए रहें, खड़े रहें, बैठे रहें आराम कुर्सी पर हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। बड़ी बात है कि बिल्कुल सहजता से, सरलता से, आनंद से बैठ जाए। तो मैं मान लूं कि आप एक-दूसरे को नहीं छू रहे हैं और कुछ लोग तो छू रहे हों वे सोच रहे हों क्या हर्जा है बैठे रहें। सिर्फ धीरे से आंख की पलकों को छोड़ दें, आंख को बंद हो जाने दें, बंद न करें, बंद हो जाने दें, धीरे से पलक छोड़ दे और आंख बंद हो जाए। धीरे से पलक को छोड़ दे ऐसा भाव करेंगे कि पलक छूट गई, छूट जाएगी और धीरे से बंद हो जाएगी, दबाव भी नहीं होगा आंख धीरे से बंद हो जाएगी। अगर आंख बिल्कुल ढीले से छोड़ दी तो आंख के छोड़ते से लगेगा भीतर एक हलकापन आ जाएगा। आधे से ज्यादा तनाव तो जीवन में आंख के तने होने का है, बिल्कुल छोड़ दे आंख को। आंख बंद हो जाने दो, बिल्कुल शांत बैठ जाए किसी चीज से कोई विरोध नहीं, कोई विरोध नहीं है। हम कोई बड़ी साधना भी नहीं कर रहे है उसी ख्याल से, कोई साधना नहीं कर रहे, विश्राम कर रहे हैं।
जैसे ही शांत होने लगेंगे भीतर की श्वासों का पता चलने लगेगा। श्वास का आना-जाना भी मालूम होने लगेगा, श्वास भीतर बाहर होगी तो पता चलेगा। हवाएं हिलाएंगी, तो पता चलेगा, दूर कुछ गायन चल रहे हैं, उनकी घंटियां बज रही हैं, तो पता चलेगा। जो कुछ भी ध्वनियां चारों तरफ हो रही है शांति से उन्हें गूंजने दें और चुपचाप उनका निरीक्षण कर दे। किसी का कोई विरोध नहीं, बस शांति से सुनें, जो भी आवाजें हो रही है उन्हें सुनें। मौन सुनते रहे, सुनते-सुनते ही मन शांत हो गया, एकदम शांत।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें