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शनिवार, 24 नवंबर 2018

व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन

धर्म, सम्राट बनाने की कला है

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य के जीवन में इतना दुख है, इतनी पीड़ा, इतना तनाव कि ऐसा मालूम पड़ता है कि शायद पशु भी हमसे ज्यादा आनंद में होंगे, ज्यादा शांति में होंगे। समुद्र और पृथ्वी भी शायद हमसे ज्यादा प्रफुल्लित हैं। रद्दी से रद्दी जमीन में भी फूल खिलते हैं। गंदे से गंदे सागर में भी लहरें आती हैं--खुशी की, आनंद की। लेकिन मनुष्य के जीवन में न फूल खिलते हैं, न आनंद की कोई लहरें आती हैं।
मनुष्य के जीवन को क्या हो गया है? यह मनुष्य की इतनी अशांति और दुख की दशा क्यों है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मनुष्य जो होने को पैदा हुआ है वही नहीं हो पाता है, जो पाने को पैदा हुआ है वही नहीं उपलब्ध कर पाता है, इसीलिए मनुष्य इतना दुखी है?

अगर कोई बीज वृक्ष न बन पाए तो दुखी होगा। अगर कोई सरिता सागर से न मिल पाए तो दुखी होगी। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मनुष्य जो वृक्ष बनने को है वह नहीं बन पाता है और जिस सागर से मिलने के लिए मनुष्य की आत्मा बेचैन है, उस सागर से भी नहीं मिल पाती है, इसीलिए मनुष्य दुख में हो?
धर्म मनुष्य को उस वृक्ष बनाने की कला का नाम है।


धर्म मनुष्य को सागर से मिलाने की कला का नाम है--जिस सागर से मिल कर तृप्ति मिलती है, शांति मिलती है, आनंद मिलता है।
लेकिन धर्म के नाम पर जो जाल खड़ा हुआ है वह मनुष्य को कहीं ले जाता नहीं, और भटका देता है। धर्म के नाम पर कितने धर्म हैं दुनिया में? तीन सौ धर्म हैं दुनिया में! और धर्म तीन सौ कैसे हो सकते हैं? धर्म हो सकता है तो एक ही हो सकता है। सत्य अनेक कैसे हो सकते हैं? सत्य होगा तो एक ही होगा। लेकिन एक सत्य के नाम पर जब तीन सौ संप्रदाय खड़े हो जाते हैं, तो सत्य की खोज करनी भी मुश्किल हो जाती है। हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, जैन हैं--और धार्मिक आदमी कहीं भी नहीं है। धार्मिक आदमी नहीं है इसलिए इतनी बेचैनी है, इतनी अशांति है, इतना दुख है।
धार्मिक आदमी न होने के दो कारण हैं।
एक छोटी सी कहानी से समझाऊं।
पहला तो कारण यह है कि मनुष्य उन चीजों को बचाने में जीवन गंवा देता है, जिनके बचाने का अंततः कोई भी मूल्य नहीं। मनुष्य उस दौड़ में सारे जीवन को लगा देता है, जिस दौड़ में दौड़ने के बाद भी कहीं पहुंचने की कोई उम्मीद नहीं।
स्वामी राम जापान गए हुए थे। टोकियो के एक बड़े रास्ते पर हजारों लोगों की भीड़ थी। राम भी उस भीड़ में खड़े हो गए। एक मकान में आग लग गई थी। कोई बहुमूल्य मकान जल रहा था। बड़ा महल, चारों तरफ से लपटें पकड़ गई थीं। सैकड़ों लोग महल के भीतर से सामान बाहर ला रहे थे। महल का मालिक खड़ा था--खोया, बेहोश सा। लोग उसे सम्हाले थे। उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। जीवन भर उसने जो कमाया था उसमें आग लग गई थी।
फिर लोग बाहर आए तिजोरियां लेकर, बहुमूल्य सामान लेकर, किताबें लेकर, कीमती दस्तावेज लेकर और उन लोगों ने कहा कि अब एक बार और भवन के भीतर जाया जा सकता है, फिर तो लपटें पूरी तरह पकड़ लेंगी, फिर भीतर जाना असंभव होगा। हमें जो भी महत्वपूर्ण मालूम पड़ा, हमने बचा लिया है। अब भी कोई और चीज खास रह गई हो तो आप हमें बता दें, हम उसे बचा लाएं।
उस मालिक ने कहा, मुझे कुछ भी न दिखाई पड़ रहा है, न समझ आ रहा है। तुम एक बार और जाकर भीतर देख लो, जो भी बचाने जैसा लगे बचा लो।
वे लोग भीतर गए। हर बार सामान लेकर वे खुशी-खुशी बाहर लौटे थे कि इतनी चीजें बचा लीं। लेकिन अंतिम बार वे छाती पीटते हुए और रोते हुए लौटे। सारी भीड़ पूछने लगी कि क्यों रो रहे हो? क्या हो गया?
उन लोगों ने रोते हुए कहा कि बड़ी भूल हो गई, भवन के मालिक का एक ही बेटा था, वह भीतर सोया था, हम उसे बचाना ही भूल गए। हमने सारा सामान बचा लिया, लेकिन सामान का असली मालिक मर गया है, हम उसकी लाश लेकर आए हैं।
स्वामी राम ने अपनी डायरी में उस दिन लिखा कि आज जो मैंने देखा है वह अधिकतम मनुष्यों के जीवन में घटित होता है। लोग व्यर्थ की चीजें बचाने में जीवन गंवा देते हैं और जीवन का असली मालिक मर ही जाता है, उसे बचा ही नहीं पाते।
अधिक लोग इसलिए जीवन को व्यर्थ कर लेते हैं कि उन्हें पता ही नहीं कि जीवन में क्या बचाने योग्य है, क्या छोड़ देने योग्य है। हम सब वस्तुएं और सामान बचाने में लग जाते हैं और खुद का व्यक्तित्व, खुद की आत्मा खो देते हैं।
एक तो कारण यह है कि मनुष्य धार्मिक नहीं हो पाता। और जो मनुष्य धार्मिक नहीं हो पाता है वह मनुष्य कभी आनंदित भी नहीं हो सकता है। धार्मिक होना और आनंदित होना, एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। अधार्मिक होना और दुखी होना, एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। इसलिए कोई कभी कल्पना न करे कि अधार्मिक होते हुए भी कोई व्यक्ति कभी आनंदित हो सकता है। यह असंभव है।
जैसे शरीर की बीमारियां हैं, और शरीर से बीमार आदमी कैसे आनंदित हो सकता है? शरीर तो स्वस्थ चाहिए। वैसे ही आत्मा की बीमारियां भी हैं। अधर्म आत्मा की बीमारी का नाम है। जो आत्मा की बीमारी में पड़ा हुआ है वह कैसे आनंदित हो सकता है? शरीर दुखी हो तो भी एक आदमी भीतर आनंदित हो सकता है। लेकिन भीतर की आत्मा ही दुखी हो तब तो आनंदित होने की कोई उम्मीद नहीं है, कोई आशा नहीं है।
लेकिन जिस आत्मा को आनंदित करना है उस आत्मा के लिए हम कुछ भी नहीं करते, शरीर के लिए सब कुछ करते हैं। व्यर्थ की चीजों के लिए बहुत कुछ करते हैं। जैसे छोटे बच्चे समुद्र के किनारे पत्थर बीन कर इकट्ठा कर लेते हैं और सोचते हैं कि कोई बहुत बड़ा काम कर लिया। जैसे कि छोटे बच्चे समुद्र के किनारे बैठ कर रेत के मकान बना लेते हैं और लड़ते हैं, झगड़ते हैं--कि मेरा मकान तोड़ दिया! मेरे मकान पर लात मार दी! लेकिन उन्हें पता नहीं कि थोड़ी देर में मां की आवाज आएगी घर से और वह सब मकान वहीं किनारे पर, रेत के किनारे पर छोड़ कर चले जाना पड़ेगा; न कोई मकान किसी का है, न किसी के मिटने से कुछ मिटता है, न बनने से कुछ बनता है।
ऐसे ही हम जिंदगी में जो मकान बनाते हैं--मिट्टी के, बाहर के, वस्तुओं के, पदार्थ के--एक दिन पुकार आती है ऊपर से और रेत के किनारे पर सब छोड़ कर चले जाना पड़ता है। फिर उनका कोई हिसाब नहीं रखा जा सकता। फिर उन्हें साथ भी नहीं ले जाया जा सकता। जाते वक्त, जमीन से विदा होते वक्त हाथ खाली होते हैं। लेकिन जिन चीजों से भरने में हमने जीवन गंवा दिया, उनमें से एक भी हमारे साथ नहीं होती।
और ध्यान रहे, वही है संपत्ति जो मृत्यु के क्षण में भी साथ रहे। वह संपत्ति नहीं है जो मृत्यु के क्षण में छूट जाए।
सिकंदर मरा, तो जिस राजधानी में उसकी अरथी निकली, हजारों-लाखों लोग उस अरथी को देखने इकट्ठे हुए थे। लेकिन हर आदमी एक ही सवाल पूछने लगा। सिकंदर के दोनों हाथ अरथी के बाहर लटके हुए थे। ऐसा तो कभी भी नहीं हुआ था। किसी के हाथ अरथी के बाहर लटके नहीं देखे गए थे। लोग पूछने लगे, कोई भूल हो गई है? लेकिन किसी भिखमंगे की अरथी होती तो भूल भी हो सकती थी। सिकंदर की अरथी थी। बड़े-बड़े सम्राट कंधा दे रहे थे। ये हाथ क्यों लटके हुए हैं बाहर? फिर धीरे-धीरे लोगों को पता चला, सिकंदर ने खुद ही चाहा था कि मेरे हाथ बाहर लटके रहने देना। मित्रों ने पूछा था कि यह क्या पागलपन है? हाथ बाहर कभी किसी के लटके देखे नहीं गए। किसलिए चाहते हो कि हाथ बाहर लटके रहें? तो सिकंदर ने कहा था, मैं चाहता हूं कि लोग देख लें कि मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं, मेरे हाथ भी भरे हुए नहीं हैं।
जिंदगी भर दौड़ कर हाथ भरते हैं और फिर पाते हैं कि हाथ खाली रह गए हैं। जिंदगी भर ये हाथ खाली थे। सारी दौड़ व्यर्थ हो जाती है। कुछ मिलता नहीं, सिर्फ मिलता हुआ मालूम पड़ता है। करीब-करीब ऐसे ही जैसे दूर दिखाई पड़ता है कि पृथ्वी जमीन को छू रही है, हम थोड़े आगे बढ़ेंगे तो वह जगह आ जाएगी जहां जमीन आकाश को छूता है। लेकिन हम जितने आगे बढ़ते हैं उतना ही वह घेरा भी आगे बढ़ता चला जाता है। हम जिंदगी भर चलते रहें, पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा लें, वह जगह नहीं आएगी जहां जमीन आकाश को छूती है। वह सिर्फ छूती हुई दिखाई पड़ती है, वह कहीं छूती नहीं।
ठीक ऐसे ही आदमी जिंदगी भर सोचता हैः यह मिल जाए, यह मिल जाए, यह मिल जाए। और सब मिल जाएगा एक दिन, ऐसा लगता है आगे, आगे कहीं मिलने की जगह आ जाएगी। दौड़ता है, दौड़ता है, दौड़ता है। आखिर गिर जाता है, मिलने का वक्त नहीं आता, हाथ खाली ही रह जाते हैं।
एक तो इसलिए आदमी धार्मिक नहीं हो पाता कि वह बाहर की चीजों को इकट्ठा करने में सारी शक्ति, सारा समय, सारा जीवन गंवा देता है।
और इससे भी ज्यादा खतरनाक बात दूसरी है। यह बाहर की दौड़ का आदमी तो कभी न कभी जाग सकता है और इसे ख्याल आ सकता है कि मैं क्या कर रहा हूं? ये मैं कौन से सपने बसा रहा हूं? ये मैं कैसी व्यर्थ की आशाओं में जीवन गंवा रहा हूं? ये मैं कैसे रेत के मकान बना रहा हूं जो कल गिर जाएंगे? यह मैं कैसी कागज की नाव बहा रहा हूं जो अभी-अभी डूब जाएगी? एक न एक दिन बाहर की जिंदगी में दौड़ने वाला आदमी खड़ा हो जाता है, सोचता है, विचारता है। लेकिन एक और खतरा है। जो लोग बाहर की जिंदगी से ऊब जाते हैं और जिन्हें यह भी समझ में आ जाता है कि व्यर्थ है बाहर की दौड़, वे फिर भीतर की खोज में निकलते हैं। और भीतर की खोज में दो दिशाएं हैं।
बाहर की खोज अधर्म है। भीतर की खोज में दो दिशाएं हैंः एक धर्म की दिशा है, एक झूठे धर्म की दिशा है। और भीतर जो झूठे धर्म की दिशा पर चला जाता है वह फिर फिजूल हो जाता है, फिर वह भी कहीं नहीं पहुंचता।
बाहर से जाग जाना बहुत आसान है, लेकिन झूठी, भीतर की झूठी धार्मिक दिशा से जागना बहुत कठिन है। जब आदमी बाहर से थक जाता है और समझ लेता है कि कुछ भी पाने योग्य नहीं है... और कौन नहीं समझ लेता है! जिसके पास थोड़ी भी बुद्धि है उसे दिखाई पड़ने लगता है कि कोई प्रयोजन नहीं है बाहर। कुछ भी पा लिया तो अर्थ नहीं है, क्योंकि मृत्यु सब छीन लेती है। तब आदमी भीतर मुड़ता है। लेकिन भीतर एक झूठी दिशा है, एक झूठे धर्म की दिशा है। और उस झूठे धर्म की दिशा में फिर आदमी भटक जाता है और व्यर्थ हो जाता है। फिर आनंद को उपलब्ध नहीं हो पाता।
वह झूठे धर्म की दिशा क्या है?
धर्म के नाम पर कुछ ऐसी बातें धर्म बना दी गई हैं जो धर्म नहीं हैं। जैसे एक आदमी रोज सुबह उठता है और मंदिर हो आता है और सोचता है कि मंदिर हो आने से धर्म हो गया। ऐसा आदमी भ्रांति में है। मंदिर में हो आने से कभी भी धर्म नहीं हुआ है। और कोई भी आदमी का बनाया हुआ मंदिर भगवान का मंदिर नहीं है। आदमी कैसे भगवान का मंदिर बना सकता है? आदमी भगवान का मंदिर बना लेगा तो आदमी भगवान से भी बड़ा हो जाएगा। भगवान आदमी को बनाता होगा, आदमी भगवान को नहीं बना सकता।
लेकिन झूठे धर्म ने यह तरकीब समझाई है कि आदमी भगवान को बना सकता है। एक पत्थर की मूर्ति आदमी बना लेता है और कहता है, भगवान हो गया। और फिर उसकी पूजा शुरू कर देता है। पागलपन की हद्द है! अपने ही हाथ से बनाई गई मूर्तियां भगवान की कैसे हो सकती हैं?
भगवान की कोई मूर्ति नहीं है और भगवान का कोई मंदिर नहीं है। और या फिर सभी मूर्तियां भगवान की हैं और सब कुछ भगवान का मंदिर है। यह सारी पृथ्वी, यह सारा आकाश, ये सारे चांद-तारे भगवान की मूर्ति हैं। यह समुद्र, ये हवाएं, ये लोग, ये आंखें, ये धड़कते हुए दिल, यह रेत, ये सब भगवान की मूर्ति हैं। या तो यह सच है और या फिर यह सच है कि भगवान की कोई भी मूर्ति नहीं। अमूर्ति है, भगवान अरूप है।
लेकिन इन दोनों के बीच में एक तीसरी तरकीब निकाली गई--कि हमने मंदिर बना लिए हैं, मूर्तियां पत्थर की बना ली हैं, मंदिर हैं, मस्जिद हैं, गिरजे हैं। और न मालूम कितने प्रकार के रूप हैं आदमी के बनाए हुए मंदिरों के, आदमी के बनाए हुए भगवानों के। और इन भगवानों और मंदिरों में हम भटक जाते हैं और खो जाते हैं।
आदमी न मंदिर बना सकता है, न भगवान बना सकता है। आदमी मंदिर में प्रवेश कर सकता है, आदमी भगवान में प्रवेश कर सकता है, लेकिन बना नहीं सकता। आदमी का बनाया हुआ कुछ भी धर्म नहीं हो सकता। धर्म वह है जो हमसे पहले है और हमसे बाद रहेगा। धर्म वह है जिससे हम बनते हैं और जिसमें हम लीन होते हैं। हम धर्म को नहीं बना सकते।
लेकिन हमने धर्म खड़े कर लिए हैं--हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध। ये हमारे बनाए हुए धर्म हैं। जो हम बनाते हैं वह नकली होगा, वह कभी असली धर्म नहीं हो सकता। इसे थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है। जो भी आदमी बनाएगा धर्म, वह नकली होगा, वह झूठा होगा। वह असली नहीं हो सकता। असली धर्म वह है जो हमें धारण किए हुए है। असली धर्म वह नहीं है जो हम बनाते हैं। इसलिए धर्मशास्त्र जैसा कोई शास्त्र दुनिया में नहीं है। शास्त्र हैं, धर्मशास्त्र कोई भी नहीं है। धर्मशास्त्र कैसे हो सकता है! आदमी की बनाई हुई किताब धर्म की किताब कैसे हो सकती है!
हां, एक किताब है जो चारों तरफ खुली हुई है। सूरज उस किताब के पन्नों में है, आकाश उस किताब के पन्नों में है, हवाएं उस किताब के पन्नों में हैं, यह सारी की सारी प्रकृति और यह सारा जीवन उस किताब के अध्याय हैं।
लेकिन उस किताब को कोई खोलने नहीं जाता। लोग रामायण को खोल लेते हैं, कुरान को खोल लेते हैं, बाइबिल को खोल लेते हैं और सोचते हैंः धर्मशास्त्र पढ़ रहे हैं।
धर्मशास्त्र एक ही है--यह पूरा जीवन। परमात्मा का जो बनाया हुआ है वह धर्मशास्त्र है। आदमी की बनाई हुई किताबें धोखा हैं। आदमी की बनाई हुई किताब सुंदर हो सकती है, काव्य हो सकती है, अदभुत हो सकती है, लेकिन धर्मशास्त्र नहीं हो सकती।
रवींद्रनाथ ने अपने जीवन में एक घटना का उल्लेख किया है। रवींद्रनाथ ने लिखा हैः पूर्णिमा की रात थी और मैं झील पर नाव में विहार करता था। छोटा सा बजरा था नाव का, उस बजरे के भीतर एक छोटा सा दीया जला कर मैं किताब पढ़ता था, सौंदर्य शास्त्र पर कोई किताब पढ़ता था। पढ़ता था उस किताब में कि सौंदर्य क्या है?
बाहर पूर्णिमा का चांद था, उसकी चारों तरफ चांदनी बरसती थी, झील की लहर-लहर चांदी हो गई थी। लेकिन रवींद्रनाथ अपने झोपड़े में, झील के बजरे में बंद, नाव के अंदर, एक छोटा सा दीया जला कर, उसके गंदे धुएं में बैठ कर सौंदर्य शास्त्र की किताब पढ़ रहे थे। आधी रात गए थक गईं आंखें, किताब बंद की, फूंक मार कर दीया बुझाया, लेटने को हुए--तो हैरान हो गए, चकित हो गए, उठ कर नाचने लगे! जैसे ही दीया बुझाया, द्वार से, खिड़की से, रंध्र-रंध्र से बजरे की, चांदनी भीतर घुस आई, नाचने लगी चांदनी चारों तरफ।
रवींद्रनाथ ने कहा, अरे, मैं पागल! मैं एक टिमटिमे दीये को जला कर, गंदे दीये को जला कर, धुएं में बैठा हुआ सौंदर्य के शास्त्र को पढ़ता था! और सौंदर्य द्वार पर प्रतीक्षा करता था कि बुझाओ तुम दीया अपना और मैं भीतर आ जाऊं! और द्वार पर रुका था सौंदर्य, कि मैं सौंदर्य शास्त्र में उलझा था तो वह बाहर प्रतीक्षा करता था।
बंद कर दी किताब, निकल आए बजरे के बाहर। आकाश में चांद था, चारों तरफ मौन झील थी। उसकी बरसती चांदनी में वे नाचने लगे और कहने लगे, यह रहा सौंदर्य! यह रहा सौंदर्य! मैं कैसा पागल था कि किताब खोल कर सौंदर्य खोजता था! वहां अक्षर थे काले, वहां कागज थे, आदमी के बनाए हुए शब्द थे। सौंदर्य वहां कहां था?
लेकिन हम सब किताबों में खोजते हैं उसे जो चारों तरफ मौजूद है। हम किताबों में खोजते हैं उसे जो हर घड़ी सब तरफ मौजूद है। और जब किताबों में नहीं पाते तो फिर कहते हैं, नहीं होगा ईश्वर। क्योंकि मैंने पूरी किताबें पढ़ डालीं, मिला नहीं मुझे अब तक।
पागल हैं हम। जहां हम खोजते हैं वह आदमी की बनाई हुई किताबें, वहां ईश्वर कहां होगा? ईश्वर को देखना है तो वहां खोजो जहां आदमी का बनाया हुआ कुछ भी नहीं है। जहां आदमी के पहले जो था वह है। जिससे आदमी पैदा हुआ वह है। जिसमें आदमी खो जाएगा वह है। वहां खोजो।
ईश्वर का मतलब हैः वह जिससे सब निकलता, जिसमें सब होता, जिसमें सब लीन हो जाता, लेकिन जो सदा रहता है। ईश्वर का मतलब इतना है कि जिससे सब निकलता, जिसमें सब रहता, जिसके बिना कुछ भी नहीं रह सकता, जिसमें सब अंततः लीन हो जाता। लेकिन जो न मिटता है, न बनता है, न खोता है, न जाता है, न आता है--जो है। जो है सदा, उसका नाम ईश्वर है।
और हम? हम एक मंदिर बनाते हैं। वह मंदिर भी बनेगा और गिरेगा, क्योंकि जो भी बनता है वह मिटता है। हम एक मूर्ति बनाते हैं। जो भी बन गई है मूर्ति, वह कल गिरेगी और बिखर जाएगी। हम एक किताब रचते हैं। जो भी रचा जाता है वह नष्ट हो जाता है। जो भी बनता है, मिटता है, वह ईश्वर नहीं है।
लेकिन आदमी ने अपने थोथे और झूठे धर्म खड़े कर रखे हैं। क्यों कर रखे हैं खड़े?
इसलिए खड़े कर रखे हैं कि आज नहीं कल हर आदमी बाहर से ऊबता है और भीतर की तरफ जाता है। और जब भीतर की तरफ जाता है तो वहां दो रास्ते हैंः एक झूठे धर्म का रास्ता है, एक सच्चे धर्म का रास्ता है। सच्चे धर्म के रास्ते पर आदमी चला जाए तो उसका शोषण नहीं किया जा सकता। उसे झूठे धर्म के रास्ते पर ले जाओ, तो पंडे हैं, पुरोहित हैं, पुजारी हैं, मौलवी हैं, वे सब उसका शोषण कर सकते हैं।
आदमी को भटकाने वाले लोग नास्तिक नहीं हैं उतने, जितने कि पंडे हैं, पुजारी हैं, साधु हैं, संन्यासी हैं। जो शोषण करते हैं धर्म का। जो धर्म के नाम पर जीते हैं। जिन्होंने धर्म को आजीविका बना रखा है। जिन्होंने धर्म को धंधा बना रखा है। जो लोग भगवान को भी बेचते हैं और भगवान के बेचने पर जीते हैं। उन लोगों ने एक झूठा, एक सब्स्टीट्यूट रिलीजन, एक परिपूरक धर्म बना रखा है। इसके पहले कि कोई आदमी भीतर जाए, वे उस झूठे रास्ते पर उसे लगा देते हैं। उस रास्ते पर करोड़ों-करोड़ों लोग चल रहे हैं--हिंदुओं के नाम से, मुसलमानों के नाम से, ईसाइयों के नाम से। और वे करोड़ों-करोड़ों लोग कहीं भी नहीं पहुंचते। बाहर भी कहीं नहीं पहुंचता आदमी और भीतर भी गलत रास्ते को पकड़ कर कहीं भी नहीं पहुंचता।
कुछ थोड़े से लोग कभी भीड़ से चूक जाते हैं और उस रास्ते पर चले जाते हैं जो धर्म का रास्ता है। और ध्यान रहे, भीड़ कभी धर्म के रास्ते पर नहीं जाती। धर्म के रास्ते पर अकेले लोग जाते हैं। क्योंकि धर्म के रास्ते पर कोई राजपथ नहीं है, जिस पर करोड़ों लोग इकट्ठे चल सकें। धर्म का रास्ता पगडंडी की तरह है, जिस पर अकेला आदमी चलता है। दो आदमी भी साथ नहीं चल सकते।
और यह भी ध्यान रहे, धर्म का रास्ता कुछ रेडीमेड, बना-बनाया नहीं है, कि पहले से तैयार है, आप जाएंगे और चल पड़ेंगे। धर्म का रास्ता ऐसे ही है जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं। कोई रास्ता नहीं है बना हुआ, पक्षी उड़ता है और रास्ता बनता है, जितना उड़ता है उतना रास्ता बनता है। और ऐसा भी नहीं है कि एक पक्षी उड़े तो रास्ता बन जाए, तो दूसरा उसके पीछे उड़ जाए। फिर रास्ता मिट जाता है। उड़ा पक्षी, आगे बढ़ गया, आकाश में कोई निशान नहीं बनते।
ठीक धर्म के आकाश में भी एक-एक आदमी जाता है। बिना बंधे हुए रास्ते हैं। पाथलेस पाथ है। वहां कोई बंधा हुआ रास्ता नहीं है। पंथहीन पंथ है वहां। वहां कोई बंधी हुई पगडंडी नहीं है कि पहले से तैयार है, आप जाएंगे और चल पड़ेंगे। अगर ऐसा होता तो हम सारे लोगों को कभी का उस रास्ते पर ले गए होते। अज्ञात है, अनचार्टर्ड है, कोई नक्शा नहीं है पास में, कोई कुतुबनुमा नहीं है पास में जिससे पता चल जाए कि रास्ता कहां है। उस अनजान रास्ते पर अकेले उतरने की हिम्मत जिनकी है वे जरूर पहुंचते हैं परमात्मा तक।
लेकिन हिंदू घर में पैदा हो गया लड़का, तो हिंदुओं की भीड़ में सम्मिलित हो जाता है। वह कहे काशी जाओ, तो काशी जाता है। कहे द्वारिका जाओ, तो द्वारिका जाता है। कहे कि यह भगवान है, इसको पूजो, तो उनको पूजता है। मुसलमानों की भीड़ में पैदा हो गया, कहे मक्का जाओ, तो मक्का जाता है। ईसाइयों की भीड़ में पैदा हो गया, कहा कि जेरुसलम जाओ, तो जेरुसलम जाता है। भीड़ के पीछे चलता है आदमी। और जो आदमी भीड़ के पीछे चलता है वह आदमी झूठे धर्म के रास्ते पर चलेगा। जो आदमी अकेला चलने की हिम्मत जुटाता है वह आदमी धर्म के रास्ते पर जा सकता है।
इसलिए दो बातें ध्यान में रखनी जरूरी हैं। बाहर की जिंदगी बेमानी है। बाहर की जिंदगी का बहुत अंतिम अर्थ नहीं है। रेत पर खींची गई लकीरों की तरह वह जिंदगी है। हवाएं आएंगी और सब रेत पुंछ जाएगी। कितने लोग हमसे पहले रहे हैं इस पृथ्वी पर! जहां हम बैठे हैं उस जमीन में नामालूम कितने लोगों की कब्र बन गई होगी। जिस रेत पर हम बैठे हैं वह रेत नामालूम कितने लोगों की जिंदगी की राख का हिस्सा है। कितने लोग इस पृथ्वी पर रहे हैं और कितने लोग खो गए हैं! आज कौन सा उनका निशान है? कौन सा उनका ठिकाना है? उन्होंने क्या नहीं सोचा होगा, क्या नहीं किया होगा! कितने-कितने...
मैं सुनता हूं कि द्वारिका सात बार बनी और बिगड़ी। सात करोड़ बार बन-बिगड़ गई होगी। कुछ पता नहीं है। इतना अंतहीन है विस्तार यह सब, इसमें सब रोज बनता है और बिगड़ जाता है। लेकिन कितने सपने देखे होंगे उन लोगों ने! कितनी इच्छाएं की होंगी कि ये बनाएं, ये बनाएं। सब राख और रेत हो गया, सब खो गया। हम भी खो जाएंगे कल। हमारे भी बड़े सपने हैं। हम भी क्या-क्या नहीं कर लेना चाहते हैं! लेकिन समय की रेत पर सब पुंछ जाता है। हवाएं आती हैं और सब बह जाता है।
बाहर की जिंदगी का बहुत अंतिम अर्थ नहीं है। बाहर की जिंदगी खेल से ज्यादा नहीं है। हां, ठीक से खेल लें, इतना काफी है। क्योंकि ठीक से खेलना भीतर ले जाने में सहयोगी बनता है। लेकिन बाहर की जिंदगी का कोई बहुत मूल्य नहीं है। तो कुछ लोग बाहर की जिंदगी में खोकर भटक जाते हैं। फिर कुछ लोग भीतर की तरफ चलते हैं तो वहां एक गलत रास्ता बनाया हुआ है। वहां धर्म के नाम पर दुकानें लगी हैं। वहां धर्म के नाम पर हिंदू, मुसलमान, ईसाइयों के पुरोहित बैठे हैं। वहां धर्म के नाम पर आदमी के बनाए हुए ईश्वर, आदमी के बनाए हुए देवता, आदमी की बनाई हुई किताबें बैठी हैं। वे भटका देती हैं। बाहर से किसी तरह आदमी बचता है--कुएं से बचता है और खाई में गिर जाता है। उस भटकन में चल पड़ता है।
उस भटकन से कुछ लोगों को फायदा है। कुछ लोग शोषण कर रहे हैं। हजारों साल से कुछ लोग इसी का शोषण कर रहे हैं--आदमी की इस कमजोरी का, आदमी की इस नासमझी का, आदमी की इस असहाय अवस्था का--कि आदमी जब बाहर से भीतर की तरफ मुड़ता है तो वह अनजान होता है, उसे कुछ पता नहीं होता कि कहां जाऊं?
वहां गुरु खड़े हुए हैं। वे कहते हैं, आओ, हम तुम्हें रास्ता बताते हैं। हमारे पीछे चलो। हम जानते हैं।
और ध्यान रहे, जो आदमी कहता है, मैं जानता हूं, मेरे पीछे आओ, यह आदमी बेईमान है। क्योंकि धर्म की दुनिया में जो आदमी प्रविष्ट होता है उसका मैं ही मिट जाता है, वह यह भी कहने की हिम्मत नहीं कर सकता कि मैं जानता हूं। सच तो यह है कि वहां कोई जानने वाला नहीं बचता, वहां कुछ जाना जाने वाला नहीं होता। वहां जानने वाला भी मिट जाता है, जो जाना जाता है वह भी मिट जाता है। वहां न ज्ञाता होता है न ज्ञेय।
इसलिए जो जान लेता है वह यह नहीं कहता कि मैं जानता हूं, आओ मैं तुम्हें ले चलूंगा। और जो जान लेता है वह यह भी जान लेता है कि कोई कभी किसी दूसरे को नहीं ले गया है। प्रत्येक को स्वयं जाना पड़ता है। धर्म की दुनिया में कोई गुरु नहीं होते।
लेकिन वह जो पाखंड का धर्म है वहां गुरुओं के अड्डे हैं। इसलिए ध्यान रहे, जो गुरु के पीछे जाएगा वह कभी परमात्मा तक नहीं पहुंचता। क्योंकि वे गुरुओं की दुकानें अपने पीछे ले जाती हैं और आदमी के बनाए हुए जाल में उलझा देती हैं। करोड़ों-करोड़ों लोग चींटियों की तरह यात्रा करते रहते हैं पीछे एक-दूसरे के।
यह सारी की सारी यात्रा व्यर्थ है। न कोई धर्म का तीर्थ है, न कोई धर्म का मंदिर है, न कोई धर्म की किताब है, न कोई धर्मगुरु है। और जब तक हम इन बातों में भटके रहेंगे, तब तक हम कभी भी धर्म को नहीं जान सकते।
लेकिन आप कहेंगे, फिर हम क्या करें? अगर हम गुरु के पीछे न जाएं तो हम कहां जाएं?
किसी के पीछे मत जाओ! ठहर जाओ! किसी के पीछे मत जाओ! और तुम वहां पहुंच जाओगे जहां पहुंचना जरूरी है। कुछ चीजें हैं जहां चल कर पहुंचा जाता है और कुछ चीजें ऐसी हैं जहां रुक कर पहुंचा जाता है। धर्म ऐसी ही चीज है, वहां चल कर नहीं पहुंचना पड़ता।
यह कभी शायद सोचा नहीं होगा।
मैं द्वारिका तक आया तो मुझे यात्रा करके आना पड़ा, क्योंकि मेरे और आपके बीच में फासला था। फासले को पूरा करना पड़ा। अगर मैं अभी उठ कर आपके पास आऊं तो मुझे चलना पड़ेगा, क्योंकि आपके और मेरे बीच में दूरी है, दूरी को पार करना पड़ेगा। लेकिन आदमी और परमात्मा के बीच में दूरी ही नहीं है। इसलिए चलने का सवाल नहीं है वहां। वहां जो चलेगा वह भटक जाएगा। वहां जो ठहर जाता है वह पहुंच जाता है।
इसलिए पहली बात ठीक से समझ लेनाः वहां चल कर नहीं पहुंचना है। इसलिए किसी गुरु की जरूरत नहीं है, किसी वाहन की जरूरत नहीं है, किसी यात्रा की जरूरत नहीं है। वहां तो वे पहुंचते हैं जो सब तरह से रुक जाते हैं और ठहर जाते हैं।
बुद्ध एक गांव से गुजरते थे, एक पहाड़ से गुजरते थे। कुछ मित्रों ने कहा कि वहां मत जाएं! वहां एक आदमी पागल हो गया है और वह आदमियों की गरदनें काट कर उनकी अंगुलियां निकाल कर उनकी मालाएं बनाता है। उसने एक हजार आदमियों को मारने का व्रत लिया है। नामालूम कितने लोगों को मार चुका है। वह रास्ता बंद हो गया है, अब कोई वहां जाता नहीं। आप भी मत जाएं!
बुद्ध ने कहा, वह बेचारा प्रतीक्षा करता होगा। कोई भी नहीं जाएगा तो बहुत निराश होगा। मुझे जाने दो। फिर मुझे मृत्यु का कोई भय भी नहीं है, क्योंकि अब मैं वहां पहुंच गया जहां मृत्यु नहीं होती। तो मैं जाता हूं।
नहीं माने वे, वे चले गए उस रास्ते पर। वह आदमी, अंगुलीमाल नाम का आदमी, अपने फरसे पर धार रखता था एक पहाड़ के पास बैठ कर। उसने बुद्ध को आते देखा। वह हैरान हुआ! महीनों से कोई भी नहीं आता था उस रास्ते पर, शायद इस भिक्षु को कुछ पता नहीं है। नादान, निर्दोष, चुपचाप चला आता है! उसे दया आई, इस भोले से आदमी को देख कर उसे भी दया आई। उसने फरसा ऊपर उठा कर चिल्ला कर कहा कि रुक जाओ वहीं! आगे मत बढ़ना, नहीं तो मैं गरदन काट लूंगा। वापस लौट जाओ! अगर एक कदम आगे बढ़े तो जिंदगी खतरे में है।
लेकिन बुद्ध बढ़ते चले गए। वह आदमी फिर चिल्लाया कि सुनते नहीं हो? बहरे हो? बुद्धि नहीं है? लौट जाओ, आगे मत बढ़ो, अन्यथा गरदन कट जाएगी!
बुद्ध ने कहा, पागल, मैं तो बढ़ ही नहीं रहा, मैं तो जमाना हुआ तभी से ठहर गया हूं। मैं कहां बढ़ रहा हूं! तू बढ़ रहा है।
अब बड़ी अजीब बात हो गई। वह आदमी खड़ा था फरसा लिए, बढ़ नहीं रहा था। और बुद्ध चल रहे थे उसकी तरफ। और कहने लगे, मैं नहीं बढ़ रहा हूं, तू बढ़ रहा है। उस आदमी ने कहा, आदमी पागल मालूम होता है। तुम पागल हो! एक तो तुम आए इस तरफ, यही पागलपन है। और दूसरा अब तुम यह पागलपन कर रहे हो कि चलते हो खुद और कहते हो मैं ठहरा हुआ हूं और मुझ ठहरे हुए को बताते हो कि तू चल रहा है।
बुद्ध ने कहा, सच, मैं तुझसे यही कहता हूं। जब तक मन चलता था तब तक मैं चलता था। अब मन ठहर गया, अब मैं नहीं चलता हूं। और तेरा मन चल रहा है तो तू चल रहा है। और मैं तुझे एक अजीब बात बताता हूंः जब से मैं ठहर गया तब से मैंने वह सब पा लिया जो पाने जैसा था। और जब तक चलता था तब तक वह सब खो दिया था जो अपना था और उस सबको पकड़ लिया था जो अपना नहीं था। और जो अपना नहीं था, वह लाख उपाय करो तो भी अपना नहीं हो सकता। और जो अपना है, उसे हम भूल ही सकते हैं, वस्तुतः कभी खो नहीं सकते। बुद्ध ने कहा, मैं रुक गया और पा लिया।
वह आदमी कुछ भी नहीं समझा। उसने कहा, कहां की बातें कर रहे हो? कैसा रुकना? कैसा पाना? किसको पाने की बात कर रहे हो?
बुद्ध ने उस आदमी से कहा, जब तक तू बाहर देखता रहेगा, तुझे पता भी नहीं चलेगा कि भीतर भी कुछ पाने जैसा है। लेकिन वह पाने की तरकीब रुक जाना है, ठहर जाना है।
लेकिन हम? हम सोचते हैं कि धर्म के रास्ते पर भी कहीं जाना पड़ेगा। और इसलिए गुरु शोषण करता है। गुरु कहता है, हम ले जा सकते हैं, हम पहुंचा देंगे।
वहां जाने का नहीं है कहीं भी। वहां ठहर जाने का है। बाहर से भीतर में आओ। और भीतर कहीं मत जाओ, ठहर जाओ। और वहां पहुंच जाओगे जहां परमात्मा है।
यह सूत्र ठीक से समझ लें। बाहर से भीतर मुड़ आओ। और भीतर कहीं मत जाओ, ठहर जाओ, रुक जाओ, भीतर चलो ही मत। और वहां पहुंच जाओगे जिसका नाम परमात्मा है। वह भीतर मौजूद है। एक बार हम रुक कर उसे देख लें, तो वह हमारी पहचान में आ जाता है। क्योंकि हम वही हैं।
लेकिन गुरु कहता है, हम चलाएंगे। हमारे अनुयायी बनो, हम जो कहते हैं वह मानो, हम जिस दिशा में कहते हैं उस दिशा में चलो। और फिर बस गलत धर्म पर चलना शुरू हो गया, फिर हम भटकेंगे, भटकेंगे... । और बाहर से तो बचना आसान है, भीतर के इस गलत रास्ते से बचना बहुत मुश्किल है। क्योंकि बाहर जो जिंदगी है वह जिंदगी अपने आप उकसाती है, हमें जगाती है भीतर जाने को। लेकिन भीतर अगर हमने एक सपने का रास्ता पकड़ लिया तो वहां से कोई जागरण नहीं है, वहां निद्रा गहरी होती चली जाती है और आदमी खो जाता है।
यह दुनिया में जो इतना अधर्म है, इस अधर्म का कारण नास्तिक नहीं हैं, इस अधर्म का कारण अधार्मिक नहीं हैं, इस अधर्म का कारण ईश्वर-विरोधी नहीं हैं। इस अधर्म का कारण वे लोग हैं जो धर्म के नाम पर एक मिथ्या-धर्म की लकीर पीटते हैं और उस लकीर के रास्ते पर लोगों को भटकाते हैं।
करोड़ों-करोड़ों लोगों को करोड़ों-करोड़ों वर्षों से धर्मगुरुओं ने भटकाया है। और वे आज भी भटका रहे हैं। हिंदू को मुसलमान से लड़ा रहे हैं, जैन को हिंदू से लड़ा रहे हैं, ईसाई को बौद्ध से लड़ा रहे हैं। सारी दुनिया में धर्मगुरु झगड़ों के अड्डे हैं।
धर्म का झगड़े से क्या संबंध हो सकता है? मंदिर और मस्जिद का अगर धर्म से कोई संबंध हो, तो झगड़ा नहीं हो सकता। लेकिन नहीं, अब तक आदमी इन्हीं झगड़ों में नष्ट हुआ है। और व्यर्थ की चीजें एक-एक आदमी को पकड़ाई जा रही हैं। किसी को कहा जा रहा है कि माला फेरो। किसी को कहा जा रहा है कि उठो-बैठो, कवायद करो--इसका नाम नमाज है। किसी को कहा जा रहा है कि कान में, आंख में अंगुलियां डालो--इसका नाम सामायिक है। किसी को कुछ समझाया जा रहा है, किसी को कुछ समझाया जा रहा है। इन सारी झूठी और पाखंड की बातों में आदमी को भटकाया जा रहा है। किसी को कहा जा रहा है राम-राम जपो, किसी को कहा जा रहा है कृष्ण-कृष्ण जपो, किसी को कहा जा रहा है अल्लाह-अल्लाह करो।
लेकिन कुछ भी चिल्लाओ, कुछ भी चिल्लाओ, वहां नहीं पहुंचोगे। वहां वे पहुंचते हैं, जिनकी वाणी भी ठहर जाती है, शब्द भी ठहर जाते हैं, विचार भी ठहर जाते हैं। वहां न राम-राम चिल्लाने की जरूरत है, न कृष्ण-कृष्ण चिल्लाने की जरूरत है। क्योंकि चिल्लाने से वहां कोई पहुंचता नहीं। वहां चुप हो जाने की जरूरत है, वहां मौन हो जाने की जरूरत है। वहां केवल वे पहुंचते हैं जो सब भांति मौन हो जाते हैं, सब भांति साइलेंट हो जाते हैं, सब भांति चुप हो जाते हैं। चुप्पी ले जाती है वहां।
लेकिन चुप्पी के ऊपर शोषण नहीं किया जा सकता। शब्दों के नाम पर शोषण किया जा सकता है। शब्दों के नाम पर संप्रदाय बनाए जा सकते हैं। शब्दों के नाम पर लोगों को लड़ाया जा सकता है।
कैसा मजा है, राम को मानने वाला कृष्ण को मानने वाले से लड़ जाता है! हद्द हो गई पागलपन की। दोनों के दिमाग के इलाज की जरूरत है। आदमी को पागल करने की हद्द हो गई, राम और कृष्ण को मानने वाला भी लड़ जाता है! मोहम्मद और महावीर को मानने वाला लड़े, थोड़ी बात समझ में आ सकती है कि बड़े फासले पर ये लोग हुए। लेकिन राम और कृष्ण जैसे लोगों को मानने वाला भी लड़ जाता है। और यह भी मजा है, कृष्ण के भी मानने वाले दो ढंग से मान सकते हैं और लड़ सकते हैं। ये हमने लड़ाई की तरकीबें खोजी हैं या परमात्मा के पास जाने के रास्ते खोजे हैं?
मैं आपसे कहना चाहता हूंः उसका कोई नाम नहीं है। न राम उसका नाम है, न कृष्ण उसका नाम है, न महावीर, न बुद्ध। उसका कोई नाम नहीं है। इसलिए जब तक नाम की पकड़ रहेगी, क्लिंगिंग रहेगी, तब तक वह नहीं मिलेगा। सब नाम छूट जाएं--वह नेमलेस है, वह नामरहित है, वह अनाम है--जब चित्त सारे नाम छोड़ देता है, सारे शब्द छोड़ देता है, सारे शास्त्र छोड़ देता है, सारे विचार छोड़ देता है, सब छोड़ देता है, चुपचाप खड़ा रह जाता है, तब आदमी वहां पहुंच जाता है जहां पहुंचने की हमारी आकांक्षा है।
लेकिन हम सब जकड़े हैं और बंधे हैं। हमने सबने खूंटियां गाड़ रखी हैं और उन खूंटियों से हम बंधे हुए हैं।
एक छोटी सी कहानी से मैं समझाऊं।
एक रात एक गांव में कुछ मित्र एक मधुशाला में इकट्ठे हुए। उन्होंने देर तक खूब शराब पी डाली। फिर वे बाहर निकले। फिर उनमें से किसी एक ने कहा कि चांद निकला है पूरा, चलो हम नदी पर चलें, चलो हम नौका-विहार करें। वे नदी पर गए। उन्होंने एक नाव में बैठ कर पतवारें उठा लीं। मछुए अपने घर जा चुके थे नावों को बांध कर। पतवारें उठा कर उन्होंने नाव खेनी शुरू कर दी। वे रात भर नाव खेते रहे।
सुबह जब हवाएं चलीं, ठंडक बढ़ी, सूरज के निकलने का वक्त आया, उनको थोड़ा होश आया। और उनमें से किसी एक ने कहा, हम नामालूम कितने दूर निकल आए हों, अब वापस लौट चलना चाहिए। लेकिन उतर कर देख लो कि हम कहां आ गए हैं--पूरब कि पश्चिम? हम कितने दूर हैं? हम कहां हैं? एक आदमी नीचे उतरा, नीचे उतर कर हंसने लगा। मित्रों ने पूछा, क्यों हंसते हो? उसने कहा कि तुम भी उतर आओ। हम कहीं भी नहीं गए हैं, हम वहीं खड़े हैं जहां रात नौका खड़ी थी। वे पूछने लगे, लेकिन हो क्या गया? तो उस आदमी ने कहा, हुआ कुछ भी नहीं; हम नौका की जंजीर खोलना भूल गए। वह किनारे से ही बंधी है और हम रात भर पतवारें चलाते रहे।
रात भर पतवार चलाओ, इससे कोई कहीं नहीं पहुंच जाता; नौका की जंजीर खुली होनी जरूरी है। किनारे से खोलना जरूरी है। मनुष्य का मन जब तक किसी चीज से बंधा है तब तक परमात्मा के सागर में यात्रा नहीं हो सकती। मनुष्य का चित्त जब तक किसी चीज से बंधा है--चाहे वह धन हो, चाहे वह धर्म हो; चाहे वह पत्नी हो, चाहे अपना ही गढ़ा हुआ परमात्मा हो; चाहे वह मोक्ष हो, चाहे वह स्वर्ग हो; चाहे वह गृहस्थी हो और चाहे वह संन्यास हो--जब तक आदमी का चित्त कहीं भी बंधा है, कोई भी क्लिंगिंग, कोई भी पकड़ आदमी को धर्म के सागर में प्रवेश नहीं होने देती।
एक ऐसा चित्त चाहिए जो अनबंधा है, जो कहीं भी बंधा नहीं, जिसका कोई बंधन नहीं है। जो न हिंदू है, न मुसलमान है, न ईसाई है, न कृष्ण को मानने वाला है, न राम को मानने वाला है। जो मानने वाला ही नहीं है। जो आस्तिक भी नहीं है, जो नास्तिक भी नहीं है। जो न यह मानता है, न वह मानता है। जो न इस किताब को पूजता है, न उस किताब को पूजता है। जो एकदम खाली है, जिसकी कोई पकड़ नहीं है। वह तत्क्षण वहां पहुंच जाता है जहां प्रभु का सागर है।
जापान के एक छोटे से गांव में सुबह ही सुबह तीन मित्र घूमने निकले हैं। उन्होंने देखा कि पहाड़ी के पास एक भिक्षु खड़ा है सुबह की चमकती रोशनी में। सूरज की किरणें उसके ऊपर पड़ रही हैं। वह आंख बंद किए हुए खड़ा है। वे तीनों सोचने लगेः यह भिक्षु वहां पहाड़ी पर खड़े होकर क्या करता होगा?
एक ने कहा... जैसा कि लोगों की आदत होती है, जिस संबंध में हमें कुछ भी पता नहीं होता उस संबंध में हम मंतव्य देने से नहीं चूकते। अगर आदमी इतना भी तय कर ले कि जो उसे पता नहीं है उस संबंध में कुछ भी नहीं कहेगा, तो दुनिया से अज्ञान आधे से ज्यादा इसी वक्त खत्म हो जाए। लेकिन हर आदमी बिना जाने भी कहने की हिम्मत जुटाता है। बल्कि सच तो यह है कि जो जितना कम जानता है उतनी ज्यादा कहने की हिम्मत जुटाता है। जानने वाला थोड़ा डरे भी, नहीं जानने वाला बिल्कुल नहीं डरता। जहां बुद्धिमान भी जाने से डरते हैं वहां मूढ़ एकदम प्रविष्ट हो जाते हैं।
उस आदमी ने कहा, मैं जानता हूं। उस भिक्षु की कभी-कभी गाय खो जाती है। वह अपनी गाय खोजने के लिए पहाड़ी पर खड़े होकर यहां-वहां देख रहा है कि गाय कहां है।
बाकी दो लोगों ने कहा, धन्य हो महाशय! वह आदमी आंख बंद किए हुए खड़ा है। जिसको गाय खोजनी होती है वह आंख बंद करके खड़ा हुआ देखा गया है?
दूसरे मित्र ने कहा कि नहीं, गाय-वाय नहीं खोज रहा है। उसके साथ कभी-कभी कोई मित्र घूमने आते हैं, वे पीछे रह गए होंगे, वह खड़े होकर प्रतीक्षा कर रहा है।
तीसरे आदमी ने कहा, छोड़ो भी! जो आदमी किसी की प्रतीक्षा करता है वह कभी पीछे लौट कर भी देखता है। वह आदमी एक भी दफा पीछे लौट कर नहीं देखा। मैं समझता हूं, तीसरे ने कहा, कि वह आदमी भगवान का स्मरण कर रहा है।
विवाद बढ़ गया। फिजूल की बातों पर लोगों के विवाद बढ़ जाते हैं। अब उस बेचारे भिक्षु से तीनों को कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन तीनों का विवाद हो गया। और उन तीनों ने कहा कि फिर अब एक ही रास्ता है कि हम चल कर उस भिक्षु से पूछें कि तुम क्या कर रहे हो? वे तीनों पहाड़ पर चढ़ कर गए। फिजूल के कामों में लोग पहाड़ भी चढ़ जाते हैं। वे तीनों थके-मांदे पहाड़ के ऊपर पहुंचे। और उस भिक्षु के पास पहले आदमी ने जाकर कहा कि भिक्षु जी, मैं सोचता हूं कि आपकी गाय खो गई है। आप उसकी खोज-बीन कर रहे हैं?
भिक्षु ने आंख खोली और उसने कहा, कैसी गाय! मेरा कुछ है ही नहीं दुनिया में तो खोएगा कैसे? मेरा कुछ है ही नहीं तो खोएगा कैसे? मैं अकेला हूं, मेरा कुछ भी नहीं है। न मैं कुछ लेकर आया हूं, न मैं कुछ लेकर जा सकता हूं। इसलिए इस भ्रम में भी नहीं पड़ता हूं कि कुछ मेरा है। जो मैं लाया नहीं वह मेरा कैसे हो सकता है? और जिसे मैं ले जाऊंगा नहीं वह मेरा कैसे हो सकता है? इसलिए इस झंझट में मैं पड़ता नहीं, इस भ्रम में पड़ता नहीं कि कुछ मेरा है। चीजें मेरे आस-पास हैं, मेरा कुछ भी नहीं है।
वह आदमी हार कर पीछे हट गया। दूसरे मित्र ने कहा कि तब तो निश्चय ही आपका कोई मित्र पीछे छूट गया है, आप उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
उस भिक्षु ने कहा, न मेरा कोई शत्रु है, न मेरा कोई मित्र। जब मेरा कोई शत्रु ही नहीं है तो मेरा मित्र होने का सवाल नहीं उठता। और मैं किसी को पीछे छोड़ कर नहीं आया, क्योंकि कोई मेरे साथ ही नहीं है, मैं निपट अकेला हूं। सभी निपट अकेले हैं। लेकिन यह भ्रम पैदा कर लेते हैं कि कोई साथ है, तब लगता है कि कोई पीछे छूट गया, कोई आगे निकल गया। कोई मेरे साथ ही नहीं है, मैं बिल्कुल अकेला हूं। मैं किसी की प्रतीक्षा नहीं कर रहा हूं। मैं किसी की क्यों प्रतीक्षा करूं? कितनी ही प्रतीक्षा करो, कोई कभी मिलता है? कितनी ही राह देखो, कोई कभी आता है? आदमी अकेला है; अकेला जीता है, अकेला खो जाता है। उसने कहा, नहीं-नहीं, किसी की प्रतीक्षा मैं नहीं करता हूं। मेरा कोई मित्र नहीं, कोई शत्रु नहीं, मैं बिल्कुल अकेला हूं।
दूसरा आदमी भी हार कर पीछे हट गया। तीसरे आदमी ने कहा, तब तो निश्चित ही मैं सही हूं और मेरी जीत निश्चित है। और उसने आकर भिक्षु को कहा, निश्चित ही आप भगवान का स्मरण कर रहे हैं।
उसने कहा, कौन भगवान! कैसा भगवान! मैं किसी भगवान को जानता ही नहीं तो स्मरण कैसे करूंगा? स्मरण उसका किया जाता है जिसे हम जानते हैं। और अगर, वह भिक्षु कहने लगा, जिसे हमने जान ही लिया, फिर स्मरण की क्या जरूरत रह जाती है? नहीं जानते तो स्मरण कर नहीं सकते और जान लिया तो स्मरण की जरूरत क्या है? और भगवान अगर मुझसे अलग हो तो मैं स्मरण करूं, अगर मैं ही वही हूं तो अपना ही क्या स्मरण करूं! और फिर भगवान का कोई नाम हो तो हम याद भी करें, उसका कोई नाम नहीं तो याद कैसे करें? मैं किसी भगवान का स्मरण नहीं कर रहा।
तो वे तीनों घबड़ा गए और उन तीनों ने पूछा कि फिर आप कर क्या रहे हैं? व्हाट आर यू डूइंग हियर? करते क्या हो यहां खड़े-खड़े?
तो उस भिक्षु ने कहा, अगर तुम पूछते ही हो तो मैं कहना चाहता हूंः मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं, मैं सिर्फ हूं। मैं सिर्फ हूं, मैं कुछ कर नहीं रहा हूं।
समझते हैं इसका मतलब क्या हुआ?
जो आदमी किसी क्षण में कुछ भी नहीं करता--न सोचता, न करता, न याद करता, न कल्पना करता, न सपना देखता, न शास्त्र पढ़ता, न भजन, न कीर्तन, न नाम, न मूर्ति, न प्रार्थना, न आराधना--एक क्षण को भी अगर आदमी कुछ भी न कर रहा हो, सिर्फ हो जाए, उसी क्षण में वह भगवान से मिल जाता है। उसी क्षण धर्म के द्वार खुल जाते हैं। उसी क्षण जो बंद था वह प्रकट हो जाता है। उसी क्षण जो अंधेरे में था वह आलोकित हो जाता है। उसी क्षण, जो खोया हुआ लगता था, वह कभी नहीं खोया पता चल जाता है। उसी क्षण जीवन की तृष्णा, दौड़, सब समाप्त हो जाती है। उसी क्षण जीवन का सारा दुख विलीन हो जाता है। उसी क्षण वे फूल खिल जाते हैं जो शांति के हैं, आनंद के हैं, नृत्य के हैं। उसी क्षण वे सारी सुगंधें व्यक्तित्व से निकलने लगती हैं जिन्हें कोई प्रेम कहता है, कोई अहिंसा कहता है, कोई करुणा कहता है। उसी क्षण जीवन में वे सारे सौरभ प्रकट होने लगते हैं जिसको कोई ब्रह्मचर्य कहे, कोई तप कहे, कोई त्याग कहे।
लेकिन ये सारी चीजें अनायास होनी शुरू हो जाती हैं। लोग कहते हैं कि ब्रह्मचर्य से मिलता है ईश्वर। लोग कहते हैं, त्याग से मिलता है ईश्वर। लोग कहते हैं, अहिंसा से मिलता है ईश्वर। लोग कहते हैं, तपश्चर्या से मिलता है ईश्वर। और मैं कहना चाहता हूं, यह बात उलटी है। ईश्वर के मिलने से ये सारी चीजें मिल जाती हैं, इन सबके मिलने से ईश्वर नहीं मिलता। क्योंकि ईश्वर के बिना मिले इनमें से कुछ भी नहीं मिल सकता है। ईश्वर मिल जाए तो यह सब मिल जाता है।
ये ईश्वर के मिलने पर खिले हुए फूल हैं। यह ईश्वर से मिल जाने पर आई हुई जीवन में सुगंध है। यह ईश्वर की अनुभूति से आया हुआ अनुभव है। जैसे कोई कहे कि अंधेरा हट जाए तो प्रकाश जल जाता है, तो हम कहेंगे, गलत है। प्रकाश जल जाए तो अंधेरा जरूर हट जाता है। ईश्वर प्रकट हो जाए तो सब प्रकट हो जाता है।
जीसस ने कहा है एक बहुत अदभुत वचन। और कहा है यहः फर्स्ट यी सीक दि किंगडम ऑफ गॉड, देन आल एल्स शैल बी एडेड अनटु यू। पहले तू ईश्वर का राज्य खोज और फिर शेष सब तुझे मिल जाएगा। पहले तू ईश्वर को खोज और फिर शेष सब आ जाएगा। पहले तू उसके द्वार को खोल और फिर सब कुछ तुझे मिल जाएगा।
लेकिन हम? हम उसका द्वार खोलना नहीं जानते। और जो बताने वाले हैं वे हमें आदमियों के बनाए हुए मंदिरों और मस्जिदों के द्वार बताते हैं कि इनको खोलो और इनके भीतर आ जाओ। उनके भीतर कुछ भी नहीं है, वे आदमियों के बनाए हुए मकान हैं। लेकिन एक हमारे भीतर भी मंदिर है जो आदमी का बनाया हुआ नहीं है। जो हमारा बनाया हुआ नहीं है। जो हमारे भीतर है और हमने पाया है। वह भी खुल सकता है। लेकिन वह शांति के, मौन के उस क्षण में खुलता है, जब हम कुछ भी नहीं कर रहे होते हैं।
इसलिए धार्मिक क्रिया जैसी चीज ही नहीं होती। धार्मिक क्रिया जैसी चीज हो ही नहीं सकती है। धार्मिक होने का अर्थ है अक्रिया में होना। और धर्म के नाम पर जितनी क्रियाएं हैं सब पाखंड है, सब क्रियाकांड है, सब धोखा है। धार्मिक क्रिया होती ही नहीं। जो अक्रिया में होता है वह धर्म को उपलब्ध हो जाता है। इस दिशा में जो चलता है उसे जीवन का अर्थ मिलता है, उसे जीवन की धन्यता मिलती है। वह जान पाता है कि जीवन क्या है। वह जान पाता है कि जीवन में कितने रहस्य, कितने आनंद छिपे हैं। जीवन के खजाने कितने हैं। उसकी मृत्यु मिट जाती है, दुख मिट जाता है, अंधकार मिट जाता है।
एक छोटी सी कहानी, और अपनी बात मैं पूरी कर दूंगा।
एक बहुत बड़ी राजधानी में एक भिक्षु था, तीस वर्षों तक भीख मांगता रहा। फिर उसकी मौत आई, फिर वह मरा। एक ही जगह बैठ कर उसने तीस साल तक भीख मांगी। तीस साल तक हाथ फैलाए रहा, जो भी आदमी निकला उसके सामने। फिर मर गया। मरने पर पड़ोस के लोगों ने उसके चीथड़ों में आग लगा दी, उसके गंदे बर्तन फिंकवा दिए, उस भिक्षु की लाश जलवा दी। और फिर किसी समझदार को ख्याल आया कि एक ही जमीन के टुकड़े पर बैठे-बैठे तीस साल में उसने जमीन भी गंदी कर दी है, थोड़ी जमीन का टुकड़ा भी उखाड़ कर बदल दो।
मिट्टी खोदते थे तो चमत्कार हुआ। हैरान हो गए लोग, सारी राजधानी वहां इकट्ठी हो गई, खुद सम्राट भी देखने आया। वह भिक्षु जहां बैठा था, थोड़ी ही जमीन खोदने पर वहां इतना बड़ा खजाना था कि काश उस भिक्षु को मिल जाता तो वह पृथ्वी का सबसे बड़ा धनपति हो जाता! सारे गांव के लोग कहने लगे, बड़ा पागल था! भीख मांगता रहा फिजूल। अपनी जमीन न खोद ली। अन्यथा इतना बड़ा मालिक हो जाता, इतना खजाना मिल जाता। उस गांव का हर आदमी यही कहने लगा।
मैं भी उस गांव में गया था, उस भीड़ में मैं भी खड़ा था, मुझे भी हंसी आ गई। लोग मुझसे पूछने लगे, किस पर हंसते हो?
मैंने कहा, उस भिक्षु पर नहीं; तुम पर! क्योंकि मुझे लगता हैः तुम भी जिस जमीन पर खड़े हो वहां इससे भी बड़े खजाने गड़े हैं। लेकिन तुम कभी वहां झांक कर नहीं देखोगे। तुम दूसरे मंदिरों में खोजोगे उसे, जो तुम्हारे भीतर है। तुम संपत्ति के लिए दूसरों के सामने हाथ फैलाओगे, जो तुम्हारे भीतर है। तुम ज्ञान के लिए गुरुओं के चरण पकड़ोगे, जो ज्ञान तुम्हारे भीतर है। तुम शास्त्रों में, मरे हुए शास्त्रों में खोजोगे उसे, जो जिंदा शास्त्र की तरह तुम्हारे भीतर श्वास ले रहा है।
लेकिन हम सब बाहर खोजते हैं, क्योंकि हम सब भिखमंगे हैं। और अगर हम भीतर खोजें तो हम सब सम्राट हो सकते हैं। धर्म सम्राट बनाना चाहता है उन्हें, जो भिखमंगे हो गए हैं। धर्म सम्राट बनने की कला है।
मेरी ये बातें इतनी शांति और प्रेम से सुनीं, उससे मैं बहुत अनुगृहीत हूं। और सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।  

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