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मंगलवार, 27 नवंबर 2018

सहज समाधि भली-(प्रवचन-13)

तेरहवां प्रवचन

आत्मघाती संदेह और आस्था का अमृत

दिनांक २ अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा: 

नूरी बे अलबानिया का निवासी था--विचारवान और प्रतिष्ठित। अपने से बहुत छोटी उम्र की युवती से उसने विवाह किया।
एक संध्या वह समय से पहले घर लौटा, तो उसके वफादार नौकर ने आकर उसे कहाः ‘आपकी पत्नी, मेरी मालकिन, बहुत संदेहजनक ढंग से पेश आ रही हैं। उनके कमरे में एक बड़ा संदूक है--इतना बड़ा है कि एक आदमी उसमें समा जाए। पहले वह आपकी दादी के पास था और उसमें थोड़े से जड़ी के सामान थे। लेकिन अब उसमें शायद बहुत कुछ है। मैं आपका सबसे पुराना नौकर हूं, लेकिन मालकिन मुझे भी उस संदूक के भीतर झांकने नहीं देती हैं।’
नूरी बे अपनी पत्नी के कमरे में जा पहुंचा और देखा कि वह एक लकड़ी के संदूक के पास उदास बैठी है। ‘क्या मैं देख सकता हूं कि इस संदूक में क्या है?’ उसने पूछा।
पत्नी ने उत्तर दियाः ‘क्या एक नौकर के संदेह के कारण पूछते हो या इस कारण पूछते हो कि तुमको ही मुझ पर भरोसा नहीं रहा?’
नूरी बे ने कहाः ‘इन बातों में गए बगैर संदूक को खोलना क्या मुमकिन नहीं होगा?’
नहीं।’--पत्नी ने कहा।
‘क्या इसमें ताले लगे हैं?’

‘हां।’
‘चाबी कहां है?’
चाबी दिखाते हुए पत्नी ने कहाः ‘नौकर को बरखास्त कर दो और मैं तुम्हें यह दे दूंगी।’
नौकर बरखास्त कर दिया गया और पत्नी ने चाबी सौंप दी। और फिर दुखी मन से वह वहां से विदा हुई।
और नूरी बे बहुत दिनों तक सोचता रहा, सोचता रहा। आखिर उसने चार नौकर बुलवाए। वे संदूक को बिना खोले बहुत दूर ले गए और जमीन के अंदर उसे गाड़ आए।
उसके बाद यह बात फिर कभी नहीं उठाई गई।
ओशो, कृपा कर इस सूफी बोध-कथा का अर्थ समझाएं।

इस बोध-कथा में प्रवेश के पहले कुछ बातें समझ लेनी चाहिए। पहली बातः संदेह, जहां हो, वहां प्रेम की
कोई संभावना नहीं रह जाती। संदेह की मौजूदगी के साथ ही प्रेम तिरोहित हो जाता है।
संदेह के साथ भय होता है--प्रेम नहीं। संदेह और भय संगी-साथी हैं। प्रेम के साथ भय कभी नहीं होता; प्रेम के साथ अभय होता है। अभय के साथ संदेह की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि जब तुम भयभीत नहीं हो तो कैसा संदेह?
भय का अच्छा नाम है--संदेह। और अभय का नाम होगा--आस्था। इसलिए नास्तिक कभी भी अभय नहीं हो सकता। और अगर आस्तिक भयभीत हो, तो समझना कि वह आस्तिक नहीं है। क्योंकि भय का आस्था से क्या संबंध? और जहां प्रेम है, वहां न संदेह होगा, न भय होगा। और अगर भय और संदेह हों, तो समझ लेना प्रेम नहीं हो सकता।
मैंने सुना है कि एक युवक विवाह करके लौटता था। वह जहाज से अपने घर वापस आ रहा था--परदेश से। जोर का तूफान उठा; अब डूबा जहाज, अब डूबा--ऐसी घड़ी आ गई। लोग भयभीत होकर कंपने लगे। घुटने टेक कर प्रार्थना करने लगे। जिन्होंने कभी ईश्वर का नाम न लिया था, वे भी जोर-जोर से ईश्वर का नाम पुकारने लगे। जिस लड़की को विवाह कर लाया था युवक, वह रोने लगी, चीखने-पुकारने लगी, लेकिन यह युवक शांत बैठा रहा। उस युवती ने कहा, ‘तुम भयभीत नहीं हो रहे हो! जहाज डूबने के करीब है और किसी भी क्षण हमारा अंत हो सकता है!’ उस युवक ने अपनी म्यान से तलवार निकाली। चमकती धारवाली तलवार, जिससे एक क्षण में गरदन अलग हो जाए। और उस युवती के कंधे पर रखी। गरदन को तलवार छूने लगी। युवती मुस्कुराती रही। उस युवक ने कहा, ‘तुम मुस्कुरा रही हो? भयभीत नहीं होती?’ उसने कहा, ‘तलवार तुम्हारे हाथ में हो तो भय कैसा?’ युवक ने तलवार म्यान में वापस रख ली। और कहा, ‘तलवार परमात्मा के हाथ में हो तो भय कैसा? तूफान उसके हाथ में है। तूफान का भय नहीं है; भय तो अनास्था का है। अगर तेरे हृदय में भी प्रेम न हो--मेरे लिए, तो भय पैदा होगा। लेकिन अगर प्रेम हो तो तलवार गरदन पर भी हो तो फूल जैसी ही मालूम पड़ेगी। संदेह हो तो फूल भी गरदन पर हो तो तलवार जैसा मालूम पड़ेगा।’
तलवारें बाहर नहीं हैं, फूल भी बाहर नहीं हैं। तुम्हारी आस्था में, तुम्हारे संदेह में उनका अस्तित्व है।
तो पहली बात यह समझ लें कि प्रेम और संदेह का कभी मिलन नहीं होता। जिस पर तुम प्रेम करते हो, उस पर तुम संदेह कर ही नहीं सकते। और जिस पर तुम संदेह करते हो, उस पर कभी प्रेम न कर सकोगे।
दूसरी बातः संदेह बड़े काम का सेवक है, बड़ा वफादार नौकर है। बड़ा उपयोगी है--निरुपयोगी नहीं है। उसने जिंदगी में बड़ा साथ दिया है। सारा विज्ञान संदेह से निर्मित हुआ है। तुम विज्ञान का जो भी लाभ उठा रहे हो, वह संदेह का वरदान है। विज्ञान खड़ा ही संदेह पर है। और विज्ञान से बेहतर वफादार नौकर तुम खोज सकोगे? चाहे चिकित्सा-शास्त्र हो, चाहे रसायन-शास्त्र हो, चाहे भौतिक-शास्त्र हो, चाहे दवाओं की ईजाद हो और चाहे अणुबमों की, सब संदेह से हुई है। संदेह ने तुम्हारे घरों को रोशन किया है--बिजली से। संदेह ने रेगिस्तान में पानी के झरने निकाल दिए हैं। संदेह ने मरुभूमियों को हरे बगीचे में बदल दिया है। आज आदमी के पास जो भी है, वह निन्यानबे प्रतिशत संदेह के कारण है। तो ‘नौकर’ तो कीमती है--वफादार है, पुराना है। काम उसने बहुत दिया है। इसलिए उसका साथ छोड़ना भी आसान नहीं है।
और विज्ञान पर जिसका एक बार भरोसा आ गया, उसका धर्म में प्रवेश इसीलिए मुश्किल हो जाता है। क्योंकि धर्म के जगत में चाहिए--आस्था, श्रद्धा, भरोसा, ट्रस्ट; और विज्ञान के जगत में चाहिए--संदेह, शंका, प्रश्न। वह मार्ग अलग है।
तो विज्ञान में जितनी गति हो जाए, उतनी ही धर्म में गति मुश्किल हो जाती है। जितनी धर्म में गति हो जाए, उतनी विज्ञान में गति मुश्किल हो जाती है। इसलिए पूरब के मुल्कों में धर्म पैदा हुआ, तो विज्ञान पैदा न हो सका। पश्चिम में विज्ञान पैदा हुआ, तो धर्म के प्राण निकल गए। वहां ईश्वर मरी हुई घटना है। वहां मंदिर, मस्जिद और चर्च आभूषण से ज्यादा नहीं हैं; वे सजावटें हैं, डेकोरेशंस हैं; उनकी प्राणप्रतिष्ठा खो गई है। वहां भी लोग प्रार्थना करते हैं, लेकिन उस प्रार्थना में भी पीछे संदेह है।
तो दूसरी बात यह ख्याल में ले लें कि संदेह अगर व्यर्थ ही होता तो लोग करते ही क्यों? उसकी सार्थकता है, पर सार्थकता की एक सीमा है और अस्तित्व उस सीमा पर समाप्त नहीं होता। अस्तित्व उस सीमा से बहुत बड़ा है। और अगर तुम संदेह की मान कर चले, तो तुम सीमा में ही बंद हो जाओगे।
नौकर की कीमत है; लेकिन प्रेयसी की कीमत के आगे नौकर की क्या कीमत है! --चाहे वह कितना ही वफादार हो। इसलिए नूरी बे की पत्नी ने ठीक ही पूछा कि ‘एक नौकर की बात मान कर संदेह कर रहे हो या तुम्हारा खुद का ही भरोसा उठ गया है? और नौकर की बात तुम मान कैसे सके! क्योंकि नौकर की बात को मानने का अर्थ ही यह है कि पत्नी पर भरोसा उठ गया है। नहीं तो तुम हंसते और नौकर को टाल देते। तुम उसकी सुनते ही न।’
नौकर की एक सीमा है; प्रेम की तो कोई सीमा नहीं है। विज्ञान की एक सीमा है; धर्म की कोई सीमा नहीं है।
तो विज्ञान का तुम उपयोग कर लेना--पदार्थ के लिए, लेकिन उसकी मान कर तुम अपने प्रेम को नष्ट मत कर लेना। विज्ञान की बात सुन कर तुम यह बात कह देना कि ‘ईश्वर नहीं है।’ यह तो ऐसा हुआ कि नौकर की बात मान कर किसी ने प्रेम के द्वार बंद कर दिए।
अब हम इस कहानी को पढ़ें। अब तुम्हारे हाथ में यह कुंजी है, यह कहानी खोली जा सकेगी।
‘नूरी बे अलबानिया का निवासी था--विचारवान और प्रतिष्ठित।’ ध्यान रहे, जो भी विचारवान हैं, वे एक दुधारी तलवार अपने हाथ में लिए हुए हैं। विचारवान के हाथ में तलवार है, जिसके दोनों तरफ धार है। वह तलवार दूसरे से रक्षा भी कर सकती है; वह तलवार आत्महत्या भी बन सकती है। विचारवान बुद्ध बन सकता है और विचारवान नीत्शे भी बन सकता है। वे दोनों धारें उसमें हैं।
बुद्ध और नीत्शे--दोनों ही विचारवान हैं। लेकिन बुद्ध ने विचार का उपयोग आत्महत्या के लिए नहीं किया। बुद्ध ने विचार को नौकर से कभी ऊंची जगह पर न रखा। विचार कभी भी मंदिर में प्रतिष्ठित होकर परमात्मा न बना। परमात्मा होने की क्षमता तो निर्विचार की ही है।
तो बुद्ध ने अपने विचार का उपयोग किया--निर्विचार तक पहुंचने में। उन्होंने विचार को भी ध्यान तक ले जाने का साधन बनाया, सीढ़ी बनाई। और जब मंजिल आ जाती है, तो सीढ़ी भूल जाते हैं। और जब मछलियां पकड़ ली जाती हैं, तो जाल फेंक दिया जाता है। जब हम नदी पार हो जाते हैं, तो नाव को कौन लौट कर देखता है? तो विचार की नाव से वे निर्विचार के तट तक पहुंचे। यह एक उपयोग है। लेकिन विचार कभी मालिक न हुआ; मालिक वे खुद रहे।
विचार का एक उपयोग नीत्शे कर रहा है। विचार मालिक हो गया है; अब यह तलवार खतरनाक है और आत्मघाती है। नीत्शे उसी क्षमता का व्यक्ति था, जैसे गौतम बुद्ध। उससे रत्ती भर भी कम नहीं। वह भी किसी वृक्ष के नीचे बोधि को उपलब्ध हो सकता था। लेकिन तलवार का गलत उपयोग हो गया। और तलवार खतरनाक चीज है। विचार से वह और विचार, विचार से वह और विचार की तरफ गया। नाव ‘किनारे’ पर न ले गई। नाव मझधार में भंवर खाने लगी। नाव गोल-गोल वर्तुल में घूमने लगी--एक दुष्चक्र निर्मित हो गया। लगता रहा कि जा भी रहे हैं, और कहीं जाना भी न हुआ।
कभी तुमने देखा हैः अगर तुमने कभी नाव खेई हो, तो दोनों पतवार चलाने पड़ते हैं। अगर तुम एक ही पतवार चलाओ, तो नाव गोल-गोल घूमने लगती है। फिर तुम कितनी ही यात्रा करो, पहुंचोगे कहीं भी नहीं। थक कर डूबोगे और मरोगे।
जो लोग भी विचार को मालिक बना लेते हैं, उनके भीतर एक ही पतवार घूमने लगी--विचार की। जो लोग विचार को मालिक नहीं बनाते, वे निर्विचार की भी दूसरी पतवार को हाथ में रखते हैं। वे सोचते हैं, लेकिन सोचने को अपना अस्तित्व नहीं बनाते। वे विचार की पतवार के साथ इतने आत्मसात नहीं हो जाते कि निर्विचार की पतवार न चला सकें। वे विचार के साथ इतने विक्षिप्त नहीं हो जाते कि शांत होकर ध्यान में न जा सकें। और विचार और निर्विचार की दोनों पतवारें जब साथ-साथ चलती हैं, तो एक दूसरे को संतुलित करती हैं और किनारा नजदीक आता है। किनारे पर उतर कर तुम नाव भी भूल जाते हो, पतवार भी भूल जाते हो।
ध्यान रखना, जिस दिन विचार छूटता है, उस दिन निर्विचार भी छूट जाता है। निर्विचार का अर्थ ही क्या है--जब विचार न बचा! और जिस दिन विचार छूटता है, उस दिन ध्यान भी छूट जाता है। क्योंकि ध्यान का प्रयोजन ही क्या है--जब विचार न बचा? जब बीमारी ही न रही, तो औषधि की बोतल तुम कितनी देर ढोते रहोगे? और किसलिए?
जिस दिन संसार छूटता है, उसी दिन धर्म भी छूट जाता है। और जिस दिन पदार्थ भूल जाता है, उसी दिन परमात्मा को भी याद करने की जरूरत नहीं रह जाती। तुम स्वयं वही हो गए; मंजिल आ गई।
लेकिन नीत्शे विचार की एक पतवार चलाता रहा। नाव गोल-गोल घूमने लगी। श्रम उसने बहुत किया, किनारा पास न आया। और जब भी तुम बहुत श्रम करो और किनारा पास आता न लगे, तो क्या होगा? तुम विक्षिप्त हो जाओगे, तुम पागल हो जाओगे। नीत्शे पागल होकर मरा। बुद्ध भी मरे--मुक्त होकर, विमुक्त होकर। नीत्शे भी मरा--विक्षिप्त होकर।
विचार की तलवार की दो धारें हैंः एक तुम्हें विमुक्त कर सकती है, एक तुम्हें विक्षिप्त कर सकती है।
यह नूरी बे विचारवान था--‘विचारवान’ से कुछ पता नहीं चलता कि तुम किस तरफ जाओगे, दोनों तरफ जा सकते हो--और प्रतिष्ठित भी।
प्रतिष्ठा भी बड़ी खतरनाक चीज है। और प्रतिष्ठा भी दो तरह की होती है। एक तो प्रतिष्ठा होती है, जिसका आधार तुम्हारी भीतरी गरिमा में होता है, जिसका आधार तुम्हारी भीतर की ज्योति में होता है। और एक प्रतिष्ठा होती है, जिसका आधार लोगों के मत--पब्लिक ओपिनियन में होता है, ‘लोग क्या कहते हैं’--इसमें होता है।
जो प्रतिष्ठा सोचती है कि ‘लोग क्या कहते हैं’, वह प्रतिष्ठा भीतरी नहीं है। इसका कोई मूल्य नहीं है। ऐसी प्रतिष्ठा सदा भयभीत रहती है। क्योंकि अनेक हैं लोग, उनका भरोसा क्या? और जितने जल्दी लोगों का मन बदलता है, उतनी जल्दी कोई भी चीज नहीं बदलती! वह तो हवा के जैसा है। सुबह कुछ, सांझ कुछ। कभी हवा दक्षिण को बहती तो कभी पश्चिम को बहती है। कल जो प्रतिष्ठित थे, आज धूल-धूसरित हो जाते हैं। आज जो कुछ भी नहीं हैं, कल प्रतिष्ठित हो जाते हैं।
बाहर से आने वाली प्रतिष्ठा का कोई मूल्य नहीं है। और जिसकी प्रतिष्ठा बाहर से आती है, वह हमेशा भय-कंपित रहेगा। तुम्हारे बड़े से बड़े नेता छोटे से छोटे अनुयायी से डरे रहते हैं। क्योंकि वही उनकी ईंट है। वह खिसक जाए तो पूरा भवन गिरता है। तुम्हारे तथाकथित गुरु छोटे से छोटे अनुयायी से भयभीत रहते हैं, क्योंकि उसके मंतव्य में ही उनकी प्रतिष्ठा है। वह मंतव्य बदल ले, तो उनकी प्रतिष्ठा खो जाए। जो प्रतिष्ठा दूसरे के हाथ में है, वह तुम्हें अभय नहीं कर सकती; क्योंकि लगाम किसी और के हाथ में है।
यह आदमी बड़े खतरे में था--नूरी बे। यह विचारवान था। यह विमुक्त भी हो सकता है, विक्षिप्त भी। और यह प्रतिष्ठित था। और कहानी अभी कुछ भी नहीं कहती है कि इसकी प्रतिष्ठा कैसी थी। सौ में से निन्यानबे मौके पर तो वह बाहर होती है, तो नौकर भी मालिक हो जाते हैं।
नौकर इसे डरा सका, क्योंकि उसने कहा कि ‘सुनो मालिक, यह जो हो रहा है घर में--यह जो संदूक है, यह आदमी को छिपा सकती है, इतनी बड़ी है। और जवान पत्नी तुम ले आए हो। तुम्हारी उम्र ज्यादा है और पत्नी की बहुत कम है। खतरा है। प्रतिष्ठा दांव पर लग जाएगी, अगर जरा भी खबर लोगों को मिल गई।’
नौकर भी डरा सकता है, अगर प्रतिष्ठा बाहरी है। और जिस व्यक्ति की बाहरी प्रतिष्ठा है, वह कभी प्रेम नहीं कर सकता। क्योंकि प्रेम के लिए भीतरी आधार चाहिए। प्रेम के लिए तुम्हारे भीतर जड़ें चाहिए। और प्रेम के लिए दूसरे तुम्हारे मालिक नहीं होने चाहिए।
अब यह बड़े मजे की बात है कि जब तुम अपने विचार के मालिक नहीं होते, तो दूसरे तुम्हारे मालिक होते हैं। और जिस दिन तुम अपने विचार के मालिक होते हो, उस दिन तुम्हारा कोई मालिक नहीं रह जाता।
महाराष्ट्र में बिठोबा का मंदिर है। यह मंदिर एक बड़ी मीठी कहानी पर खड़ा है। और ऐसा मंदिर पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। क्योंकि ऐसी कहानी किसी मंदिर के साथ नहीं है। कहानी है कि एक भक्त अपनी बूढ़ी मां के पैर दबा रहा है। वह बीमार है। यह कोई कर्तव्य नहीं निभा रहा है। यह कोई ‘प्रतिष्ठित काम करना चाहिए’--ऐसा करके नहीं कर रहा है। यह मां की सेवा इसलिए नहीं कर रहा है कि लोग कहते हैं कि मां की सेवा न करोगे, तो अप्रतिष्ठा मिलेगी। इसकी सेवा भीतरी प्रेम पर खड़ी है, इसकी जड़ें भीतर हैं। यह मां के पैर दबा रहा है।
इसकी सेवा से कृष्ण प्रसन्न हो गए। और कृष्ण इसे दर्शन देने आए। तो इसने लौट कर देखा नहीं। इसने कृष्ण से कहा, ‘अभी रुको। जब तक मैं मां की सेवा पूरी न कर लूं, तब तक अभी मिलना नहीं हो सकता।’ कृष्ण दरबार से भक्त लौटे होंगे, लेकिन किसी भक्त के दरबार से कृष्ण को लौटना पड़ा। यह कहानी बड़ी अनूठी है।
उस भक्त ने कहाः ‘अभी वक्त नहीं है, अभी समय नहीं है, अभी सुविधा नहीं है। अगर जल्दी हो, तो लौट जाओ। अगर रुक सकते हो।’ उसके पास एक ईंट पड़ी थी, उसने उसे पीछे सरका दिया और कहा कि ‘इस ईंट पर बैठ जाओ; विश्राम करो।’ इसलिए बिठोबा के मंदिर की जो मूर्ति है, वह एक ईंट पर रखी हुई है। वह वही ईंट है। कृष्ण रात भर वहां बैठे रहे--उस ईंट पर--प्रतीक्षा करते हुए। कृष्ण रात भी जिसके प्रेम को न डिगा सके, उसका प्रेम धन्य है; क्योंकि उसका प्रेम अलौकिक हो गया। इस भक्त को भगवान की जरूरत ही नहीं है; इस प्रेम को प्रार्थना अनावश्यक है। इसका प्रेम ही प्रार्थना हो गया।
लेकिन तुम्हें तो नौकर डिगा देगा। कृष्ण की तो बात ही और है। अगर जगत का परमात्मा, जगत का मालिक तुम्हारे दरवाजे पर दस्तक दे, तो तुम हिम्मत न जुटा सकोगे--नौकर दस्तक दे दे, तो तुम कंप जाते हो--तो सारे जगत का मालिक दस्तक दे और तुम ईंट सरका दो और कहो कि ‘रुको, आराम कर लो, अगर आराम करना है। जाना हो, चले जाओ। लेकिन अभी मैं मां के पैर दाब रहा हूं। जब तक उसकी नींद न लग जाए, तब तक मिलने का कोई उपाय नहीं है!
यह नूरी बे प्रतिष्ठित था, विचारवान था। अपने से बहुत छोटी उम्र की युवती से उसने विवाह किया! एक संध्या नूरी समय से पहले घर लौटा तो उसके वफादार नौकर ने उससे कहाः ‘आपकी पत्नी मेरी मालकिन, बहुत संदेहजनक ढंग से पेश आ रही हैं। उनके कमरे में एक बड़ा संदूक है, इतना बड़ा कि एक आदमी उसमें समा जाए। पहले वह आपकी दादी के पास था और उसमें थोड़े से जड़ी के सामान थे, लेकिन अब उसके भीतर शायद बहुत कुछ है। मैं आपका सबसे पुराना नौकर हूं, लेकिन मालकिन मुझे भी उस संदूक के भीतर नहीं झांकने देती।’
नूरी बे अपनी पत्नी के कमरे में जा पहुंचा और देखा कि एक लकड़ी के संदूक के पास उदास बैठी है। सारी स्थिति संदेहजनक है। नौकर वफादार है। उससे झूठ बोले जाने की आशा नहीं है, कोई कारण भी नहीं है। पुराना नौकर है। अनेक घड़ियों में जांचा-परखा है। उस पर भरोसा रखा जा सकता है। वह सदा सही साबित हुआ है। वह कह रहा है कि स्थिति संदेहजनक है। फिर पत्नी संदूक में झांकने ही नहीं देती, तो स्थिति और भी संदेहजनक हो गई। अगर कुछ भी नहीं है संदूक में, तो झांकने न देने का आग्रह क्यों! फिर नूरी बे भीतर गया तो देखा, उसी संदूक के पास पत्नी उदास बैठी है। सारी स्थिति संदेह की है।
ध्यान रहे, स्थिति संदेह की न हो और आप आस्था करें, वह आस्था दो कौड़ी की है। उसका क्या मूल्य? जिस आस्था को टूटने का कोई कारण ही न हो, संदेह जिसमें कोई संध न खोज पाए, फिर आप आस्था करें, उस आस्था का कोई भी मूल्य नहीं। वह आस्था संदेह की ही निष्पत्ति है। इसे थोड़ा समझ लें।
अनेक लोगों की आस्था संदेह की ही निष्पत्ति है; वह संदेह का ही सोच-विचार है। तुमने सब तरफ से जांच-पड़ताल की और ठीक पाया, इसलिए तुम श्रद्धा करते हो। मगर यह श्रद्धा कहां है? यह तो संदेह ने ही तुम्हें समझाया है कि ‘हां, बिल्कुल ठीक है।’ संदेह तुमने सब तरह से किया, कसौटी तुमने सब कसी, परिस्थितियां तुमने सब जांची, एक-एक झरोखा तुमने झांक कर देखा, फिर संदेह में अपने को असफल पाया। कोई जगह न थी, जहां संदेह किया जा सके। सब तरफ से बात ठीक थी, तब तुमने स्वीकार किया।
इसलिए विज्ञान में आस्था जैसी चीज नहीं होती; हो ही नहीं सकती। क्योंकि विज्ञान तभी किसी चीज को मानता है, जब सभी संदेह की जांच पूरी हो जाती है। इसलिए विज्ञान में श्रद्धा जैसी कोई चीज नहीं होती।
ईसाई फकीर हुआ--तरतूलियन। तरतूलियन ने कहा हैः ‘परमात्मा, मैं तुझमें विश्वास करता हूं। विश्वास का कोई कारण नहीं है। सच तो यह है कि अविश्वास के सब कारण होते हैं और विश्वास का कोई कारण भी नहीं है। लेकिन मैं तुझमें आस्था रखता हूं।’ तभी आस्था आस्था है।
संदेह की सुन कर, मान कर, खोज कर--संदेह के ही निष्कर्ष से अगर आस्था आती हो, तो वह दो कौड़ी की है। वह तुम्हें कहीं भी न ले जाएगी। लेकिन संदेह सब सुझाता हो, और संदेह सब तरफ ठीक मालूम पड़ता हो, फिर भी तुम मानते हो, तो छलांग है। उसका अर्थ हुआ कि तुमने मन को छोड़ा, तुमने संदेह को छोड़ा।
यह जो आस्था है, संदेह को छोड़ कर है; यह संदेह का सिलसिला नहीं है। तुम संदेह से छलांग लगा गए। तुमने कहा, ‘तू चुप रह! तुझसे पूछ कर आस्था हमें करनी नहीं है।’ तब तुम्हारे जीवन में एकशृंखला टूटती है। संदेह एक तरफ रह जाता है, तुम छलांग लगा कर बाहर निकल जाते हो। यह ऐसे है, जैसे सांप केंचुली के बाहर निकलता है। केंचुली पीछे पड़ी रह जाती है, सांप यात्रा पर चला जाता है। संदेह केंचुली की तरह पीछे पड़ा रह जाए, वह तुम्हारे गणित का आधार न हो, तुम्हारी आस्था की बुनियाद न हो।
यह तो सीधी सी बात है कि जिस आस्था की बुनियाद संदेह पर खड़ी हो, वह आस्था नहीं हो सकती। इसलिए विज्ञान अपनी निष्पत्तियों को अंतिम निष्पत्तियां कभी भी नहीं कह सकता। वे अस्थायी निष्कर्ष हैं। आज तक संदेह ने कहा है कि कोई गड़बड़ नहीं है, लेकिन कल का क्या पता? न्यूटन कभी सही था, अब गलत हो गया। आइंस्टीन कभी सही था, अब गलत हुआ जाता है।
विज्ञान में कोई चीज सदा के लिए सही नहीं हो सकती, क्योंकि तर्क, संदेह कुछ नये रास्ते खोज लेगा। अब तक सफल नहीं हो पाया, लेकिन तर्क की असफलता से, संदेह की असफलता से आस्था तो निर्मित नहीं होती; अस्थायी आस्था निर्मित हो सकती है। इसलिए विज्ञान कहता हैः कोई सिद्धांत स्थायी नहीं है; सब परिकल्पना है, हाईपोथेसिस है। जब तक संदेह कुछ नहीं कर पा रहा है, तब तक ठीक। जब संदेह एक दरवाजा खोज लेगा, तभी गलत हो जाएगा।
संदेह पर जिसने महल बनाया--आस्था का, उसने रेत पर भवन खड़ा किया है, जो कभी भी गिर सकता है। जैसे छोटे बच्चे ताश का भवन बनाते हैं। हवा का कोई भी झोंका कभी उसे गिरा देगा। जब तक नहीं गिरा, नहीं गिरा, तब तक भवन है। लेकिन तुम्हारी ही सांस का झोंका गिरा दे सकता है, तुम्हारे हाथ की जरा सी टकराहट गिरा दे सकती है।
स्थिति पूरी थी नूरी बे के सामने। संदेह साफ था। आस्था का कोई कारण नहीं दीखता। वफादार नौकर है, झूठ बोलेगा नहीं, कभी बोला नहीं। बापदादों के जमाने से घर में काम कर रहा है; पुराना। और हमारी पुराने पर सदा आस्था होती है--बजाय नये के। पत्नी नई है, अपरिचित है, अनजान परिवार और घर से आई है। क्या है उसका अतीत--हमें ज्ञात नहीं है। चाल-चलन कैसा है, कुछ कहा नहीं जा सकता। आचरण कैसा है, कुछ पक्का नहीं। उसका हमारे पास कोई प्रमाण, सबूत नहीं है। नौकर का आचरण पक्का है; सबूत है। हम उससे परिचित हैं, जानते हैं; और जो उसने कभी नहीं किया, आज कोई कारण नहीं कि वह करेगा।
तर्क कार्य-कारण में मानता है। जो कभी नहीं हुआ, वह आज कैसे हो जाएगा। जो सदा हुआ है, वही आज भी होगा। जिंदगी बड़ी अनूठी है। जो कि कभी न हुआ हो, वह हो सकता है। जो सदा हुआ हो, वह भी न हो।
जिंदगी छलांग लेती है। तर्क छलांग कभी नहीं लेता। तर्क की दुनिया में छलांग होती नहीं। वहां सब चीजें जुड़ी होती हैं।
नूरी बे ने पूछा पत्नी को, ‘क्या मैं देख सकता हूं कि संदूक में क्या है?’ पत्नी ने कहा, ‘क्या एक नौकर के संदेह के कारण पूछते हो?’ तो तुमने मालकियत खो दी। नौकर मालिक बन बैठा। ‘या इस कारण पूछते हो कि तुमको ही मुझ पर भरोसा न रहा?’ यह संदेह तुम्हारे भीतर से आता है या तुम्हारे बाहर से?
यह थोड़ा सोचने जैसा है। ‘संदेह भी तुम्हारा अपना नहीं है’--कितनी दरिद्रता है! संदेह भी उधार है! आस्था तो तुम्हारी अपनी क्या होगी, संदेह भी दूसरे तुम्हें दे जाते हैं। रास्ते पर तुम जा रहे हो, कोई कुछ कह देता है और संदेह जन्म जाता है। कोई किताब तुम पढ़ लेते हो, और संदेह पैदा हो जाता है। अनजान आदमियों की बातचीत सुन लेते हो और संदेह पैदा हो जाता है। संदेह तक प्रामाणिक नहीं है; वह भी तुम्हारा अपना नहीं है। और जिनका संदेह अपना न हो, क्या कभी ऐसा क्षण आ सकता है कि उनकी अपनी आस्था हो? सब उधार है।
पत्नी ने बड़ी ठीक बात पूछी। उसने ठीक जगह चोट की। उसने कहा, ‘क्या एक नौकर के संदेह के कारण पूछते हो या कि इस कारण कि तुमको ही मुझ पर भरोसा न रहा?’ दोनों में फर्क है। अगर नौकर के संदेह के कारण पूछते हो, तो तुम्हारा संदेह भी दो कौड़ी का है। उसका मूल्य उतना ही है, जितना नौकर का मूल्य हो सकता है। या तुम अपने ही कारण पूछते हो, तब तुम्हारे संदेह का मूल्य है। फिर वैसा मैं उत्तर दूं। पत्नी यही पूछ रही है कि किस तरह तुम्हारे संदेह का पता चल जाए कि कितना गहरा है।
ध्यान रहेः सभी संदेह समान गहराई के नहीं होते। और संदेह की गहराई पर निर्भर करता है कि तुम्हारी खोज कितनी गहरी है, तुम कितना गहरा प्रत्युत्तर चाहते हो।
किसी ने तुम्हें कुछ कह दिया है, इसलिए संदेह पैदा हुआ है, तो उत्तर के लायक भी नहीं है; क्योंकि कोई कल फिर कुछ कह देगा; फिर संदेह पैदा हो जाएगा। यह बात ही व्यर्थ है। इसमें पड़ने की कोई जरूरत ही नहीं है। अगर संदेह तुम्हारा अपना है, तो उत्तर देने योग्य है। और उतने ही गहरे उत्तर की मांग करता है, जितना तुम्हारा गहरा संदेह है।
बुद्ध से एक बार सारिपुत्र ने पूछा कि ‘अलग-अलग लोग आते हैं, अक्सर उनके प्रश्न समान होते हैं। लेकिन आपके उत्तर अलग-अलग?’ बुद्ध ने कहाः ‘उनके संदेह की गहराई पर निर्भर करता है।’ क्योंकि जिसको प्यास ही चुल्लू की लगी हो, उसको सागर में डुबाने का क्या प्रयोजन! जिसकी प्यास ही झूठी हो, उसको असली जल दिखाने का क्या प्रयोजन! जो यों ही चला आया हो--कुतूहल के वश, उसको उतना ही उत्तर चाहिए। जो जिज्ञासा लेकर आया हो, उसे गहरा उत्तर चाहिए। जो मुमुक्षा से आया हो, उसे अंतिम उत्तर चाहिए।
नासमझ है वह आदमी, जो कुतूहल वाले को मुमुक्षा का उत्तर दे दे; उसमें कोई संबंध ही न बनेगा। जहां सुई की जरूरत हो, वहां तलवार का क्या प्रयोजन? जहां सुई से काम हो जाता हो, वहां तलवार घुमाना पागलपन है।
वह पत्नी ठीक बात पूछ रही है। वह यह पूछ रही है कि ‘मैं जान तो लूं, तुम्हारा संदेह कहां से आया है--अपना है, तो फिर वैसा उत्तर दूं। और अगर नौकर का है, उधार है--राह चलते लोग, घर के नौकर तुम्हें संदेह से भर देते हैं--तो फिर वैसा उत्तर दूं।’ वह प्रेम की कितनी गहराई है।
नूरी बे विचारशील आदमी है। उसने जो उत्तर दिया, वह साधारणतया विचारशील आदमी का उत्तर है। उसने कहाः ‘इन बातों में गए बगैर संदूक को खोलना क्या मुमकिन नहीं होगा?’ यह बड़ी चालाकी का उत्तर है। वह बच रहा है। उसने उत्तर दिया नहीं। बात सीधी सी पूछी गई थी कि ‘नौकर ने संदेह उठाया है या संदेह तुम्हारा अपना है?’ इसमें ऐसी चाल करने की क्या जरूरत है! वह वकील का उत्तर दे रहा है, जिसमें वह पकड़ा नहीं जा सकता। वह कुछ भी नहीं कह रहा है। वह कह रहा हैः ‘इन बातों में गए बगैर संदूक को खोलना क्या मुमकिन नहीं होगा?’ उसकी पत्नी ने कहाः ‘नहीं।’ क्योंकि इन बातों में गए बगैर इंच भर भी सत्य को जानने का कोई उपाय नहीं है। सत्य को जिन्हें जानना हो, उन्हें इन सभी बातों में जाना पड़ेगा।
सत्य कोई वकील की खोज नहीं है। तुम बच कर नहीं जा सकते। तुम किन्हीं प्रश्नों को टाल नहीं सकते। तुम किन्हीं तथ्यों से आंख नहीं बंद कर सकते। वे चाहे कितने ही कष्टदायी हों और चाहे कितना ही दुख और पीड़ा उनसे पैदा हो, तथ्यों को जानना ही होगा, तो ही सत्य तक पहुंचने का कोई उपाय है। तथ्य से गुजरे बिना कोई सत्य तक नहीं पहुंचता। संदूक में झांकोगे कैसे? संदूक जीवन ही है।
वकील जीवन से अपरिचित रह जाते हैं, क्योंकि वे हमेशा चालाकी से सोच रहे हैं। मैंने सुना हैः एक आदमी कब्रिस्तान से निकल रहा था। उसने एक कब्र पर लिखा हुआ देखाः ‘यह कब्र एक बहुत बड़े वकील और ईमानदार आदमी की कब्र है।’ उस आदमी ने कहा, ‘कब्र इतनी छोटी है, दो आदमी इसमें हो कैसे सकते हैं? क्योंकि वकील और ईमानदार! एक आदमी में तो हो ही नहीं सकती हैं--ये दो घटनाएं। और दो आदमी के लायक यह कब्र बहुत छोटी है!’
वकील का अर्थ हैः विचार की बेईमानी। और विचार तुम्हें बेईमान बनाता है। इसलिए अक्सर यह देखा जाता है कि जितने लोग शिक्षित होते हैं, विचारवान होते हैं, उतने ही बेईमान हो जाते हैं। गांवों के ग्रामीण में तो ईमानदार मिल जाएं, लेकिन शहर के सुशिक्षित में ईमानदार आदमी मिलना मुश्किल है। क्योंकि तुम विचार का दुरुपयोग कर रहे हो; अन्यथा ईमानदार तुम होते; तुम्हारी ईमानदारी और भी गहरी हो जाती; वह सिर्फ भोलापन नहीं होता, बुद्धूपन नहीं होता; उसमें गहराई आ जाती। लेकिन विचार के दो उपयोग हैं और एक उपयोग हमेशा खतरनाक है, आत्मघाती है।
नूरी बे विचारशील आदमी था। प्रतिष्ठित था। क्योंकि जो उत्तर दिया उसे समझ में तो आ गया होगा। पत्नी की आंखों ने जिस ढंग से देखा होगा, पत्नी की आंखों ने जिस ढंग से उसके भीतर प्रवेश किया होगा और उसने पूछा होगा कि ‘मैं जानना चाहती हूं, यह नौकर संदेह पैदा कर रहा है या संदेह तुम्हारा खुद है।’ क्योंकि उसके पहले कोई उत्तर देने का अर्थ नहीं है। पहले प्रश्न का ठीक पता चल जाए, कहां से आता है, तभी ठीक उत्तर दिया जा सकता है।
जितना गहरा प्रश्न हो, उतने ही गहरे उत्तर की अपेक्षा होती है। नूरी बे ने कहा, ‘इन बातों में गए बगैर संदूक को खोलना क्या मुमकिन नहीं होगा?’ पत्नी बोली, ‘नहीं।’ ‘क्या इसमें ताले लगे हैं?’ नूरी बे यह पूछ रहा है कि अगर तू न भी खोलने दे तो मैं जबरदस्ती खोल सकता हूं। विचार की हमेशा यही चेष्टा होती है कि जो सहजता से न खुले, उसे जबरदस्ती खोल ले।
पहले उसने पूछा कि ‘संदूक को खोलना मुमकिन नहीं होगा?’ पत्नी ने कहा, ‘नहीं।’ तो तत्क्षण उसने दूसरी बात पूछी, ‘क्या इसमें ताले लगे हैं?’ नहीं तो वह खोल ही लेगा। वह पत्नी से बिना पूछे खोल लेगा।
विचार हमेशा इस तलाश में है कि जीवन के रहस्यों को तोड़ दे--खोल ले--जबरदस्ती, हिंसात्मक ढंग से। विज्ञान एक हिंसा है। धर्म भी जीवन के रहस्यों को खोलता है, लेकिन जीवन से ही पूछ कर। वह एक संवाद है। वह जीवन को ही राजी करके रहस्यों को खोलता है। विज्ञान तोड़ता है; अगर ताले लगे हैं और चाबी हाथ में न हो तो हथौड़े चलाता है। विज्ञान से बड़ी हिंसा खोजनी कठिन है। और इसलिए विज्ञान से जो भी पैदा होता है, उससे हिंसा बढ़ती है। धर्म से जो भी पैदा होता है, उससे अहिंसा बढ़ती है। क्योंकि धर्म का मौलिक सूत्र अहिंसा है। तोड़ना नहीं है, राजी करना है--प्रकृति को, ताकि वह अपने द्वार खुद खोल दे।
विज्ञान एक तरह का बलात्कार है--रेप। और धर्म है--प्रेम। और बलात्कार और प्रेम में जो अंतर है, वही अंतर विज्ञान और धर्म में है। एक सुंदर स्त्री रास्ते से गुजर रही है; इसके साथ बलात्कार किया जा सकता है। तब इसकी स्वीकृति की कोई जरूरत नहीं है; इसके प्रेमपूर्ण प्रत्युत्तर की कोई जरूरत नहीं है। तुम इस पर हमला कर सकते हो। तुम इसके वस्त्र चीर-फाड़ कर इसे नग्न कर सकते हो। तुम बलात्कार कर सकते हो। यह स्त्री वहां नहीं होगी। एक लाश के साथ तुम्हारा आलिंगन होगा। लेकिन तुम इस भ्रांति में हो सकते हो कि तुमने प्रेम किया। विज्ञान बलात्कार की तरह है।
धर्म का व्यवहार प्रेम का है। लेकिन ‘स्त्री’ पर हमला नहीं करता; वह ‘स्त्री’ को निमंत्रण देता है; वह स्त्री को राजी करता है। लंबी कोर्टशिप है धर्म की। जिसमें वह फुसलाता है, राजी करता है। और एक दिन यह स्त्री अपने जीवन के रहस्य को उसके सामने खोल देती है। यह खुद ही नग्न हो जाती है। लेकिन इस नग्नता में और बलात्कार में--जब कि एक स्त्री नग्न की जाती है--क्या तुम सोचते हो, दोनों नग्नताएं एक सी हैं? इनमें जमीन-आसमान का अंतर है। इससे बड़ा अंतर और किन दो चीजों में होगा--जब एक स्त्री स्वयं नग्न होती है--किसी प्रेम के क्षण में अपना सब रहस्य खोल देती है और जब तुम जबरदस्ती वस्त्र फाड़ डालते हो तब।
विज्ञान का व्यवहार बलात्कार का है, धर्म का व्यवहार प्रेम का है। धर्म भी रहस्य को खोज लेता है--प्रकृति के। लाओत्सु ने भी जाना है, बुद्ध ने भी, कृष्ण ने भी। न्यूटन भी जानता है, आइंस्टीन भी जानता है। लेकिन उनके जानने में बलात्कार और प्रेम का अंतर है। गुणधर्म बदल जाते हैं।
विचार ने तत्क्षण पूछा--नूरी बे ने कहा ‘क्या इसमें ताले लगे हैं?’ वह जबरदस्ती करेगा। अगर ताले ना लगे हों, तो वह अभी इसे खोल कर देख लेना चाहता है। वह पूछने को भी राजी नहीं है। अब वह आज्ञा भी नहीं लेना चाहता। उसके पूछने में झूठ था। उसका पूछना वास्तविक नहीं था। वह पूछना ऊपरी था। वह बिना पूछे खोलने को राजी है।
पत्नी ने कहा, ‘हां।’ नूरी बे ने पूछा, ‘फिर चाबी कहां है?’ पत्नी ने एक बहुत अनूठी बात कही; यह जीवन की गहरी से गहरी बात है और इतने सरल ढंग से इस कहानी में है कि शायद तुम चूक ही जाओ। ‘नौकर को बरखास्त कर दो और यह मैं तुम्हें दे दूंगी,’ चाबी दिखाते हुए पत्नी ने कहा।
सारा जगत, अस्तित्व यही कह रहा हैः संदेह को बरखास्त कर दो और यह रही चाबी। नौकर को हटाओ और द्वार खुले हैं। चाबी छिपाई नहीं गई है, संदेह के कारण तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रही है। चाबी पूरे समय ‘पत्नी’ के हाथ में है--सामने है। प्रकृति के दरवाजे बंद कहां हैं? लेकिन संदेह के कारण तुम्हारी आंखें धुंधली हैं; तुम देख नहीं पा रहे हो। सारे धर्म यही कहते हैंः ‘नौकर को बरखास्त कर दो और यह चाबी रही। यह चाबी तुम ले लो और सब ताले खोल डालो।’ लेकिन संदेह के रहते तुम भीतर प्रवेश न पा सकोगे। यह मंदिर संदेह के लिए नहीं है।
प्रेम का द्वार, आस्था का द्वार कैसे खुल सकता है, अगर संदेह हो? जहां भरोसा न हो, वहां हृदय खुलेगा कैसे? संदूक तो तुम तोड़ लोगे, लेकिन हृदयों को कैसे तोड़ोगे? अगर हृदय को तोड़ कर तुम देखोगे, तो क्या पाओगे? कुछ भी न पाओगे। जो था, वह जा चुका--तोड़ने में ही जा चुका।
कुछ चीजें हैं, जो तोड़ने में खो जाती हैं। और जो भी चीजें तोड़ने में खो जाती हैं; विज्ञान उनको इनकार करता है, इसलिए कि वह उनको पाता नहीं है। और उसकी तरकीब एक ही है कि तोड़े। तुम्हारे भीतर अगर तोड़ेंगे तो हड्डियां मिलेंगी, मांस-मज्जा सब मिल जाएगी, हृदय नहीं मिलेगा। फेफड़ा मिलेगा। फेफड़ा बात ही और है, हृदय बात ही और है। हृदय कुछ भीतरी बात है। फेफड़ा जैसे मंदिर की बाहर की दीवार है। हृदय जैसे भीतर प्रतिष्ठित मूर्ति है। और जब भी तुम तोड़ते हो, बस, मंदिर की दीवाल मिलती है, मूर्ति खो जाती है।
कुछ चीजें हैं, जो तोड़ने से खो जाती हैं। क्योंकि उनका होना, उनकी समग्रता है। आस्था--तुमने सोचा कि खो जाएगी; क्योंकि सोचने का अर्थ सदा तोड़ना होता है--एनालिसिस। सोचने का अर्थ है--विश्लेषण, काटो, तोड़ो, देखो।
विज्ञान का अर्थ हैः डिसेक्शन। सर्जन की टेबल पर जो होता है, वही विज्ञान पूरी प्रकृति के साथ कर रहा है, ‘काटो और देखो--भीतर क्या है।’ इसलिए विज्ञान जीवन को पा ही नहीं सकता। जीवन--जैसे ही तुम तोड़ते हो--खो जाता है। यह वृक्ष सामने अभी जीवित है, लहलहा रहा है, हरा है। तुम तोड़ डालो इसको। एक-एक खंड-खंड करके खोजो कि कहां है वह वृक्ष--जो हरा था, लहलहा रहा था, जो जीवित था। तुम कुछ भी न पाओगे। वहां मौत मिलेगी।
एक आदमी अभी जीवित है, तोड़ डालो, खोल डालो--इसके सब अस्थिपंजर को; तब तुम अस्थिपंजर को पाओगे, आत्मा खो जाएगी। यह फूल अभी सुंदर है। इसका विभाजन कर डालो, तो तुम्हें रासायनिक पदार्थ मिल जाएंगे, खनिज मिल जाएंगे, पानी-मिट्टी सब मिल जाएगा--फूल भर नहीं मिलेगा। और फूल का सौंदर्य तो कहीं भी नहीं मिलेगा।
विश्लेषण से सिर्फ मृत्यु को--मरे हुए को जाना जा सकता है। संश्लेषण से जीवन को जाना जाता है। इसलिए विज्ञान का ढंग है--एनालिसिस, विश्लेषण। धर्म का ढंग है, संश्लेषण, सिंथेसिस। धर्म परम संश्लेषण है। वह आखिरी सिंथेसिस है, अल्टिमेट सिंथेसिस है। उसके पार फिर कुछ नहीं। उस परम संश्लेषण को हम परमात्मा कहते हैं। जहां सब खंड इकट्ठे हमने कर लिए, सब जोड़ लिए--जो भी था; कुछ छोड़ा नहीं, सब इकट्ठा कर लिया। ‘वह’ आखिरी जोड़ है; उससे पार कुछ भी नहीं है। क्योंकि उसके बाहर कुछ भी नहीं है; और जोड़ने को कुछ न बचा।
इसलिए धर्म तो परमात्मा पर पहुंच जाता है और विज्ञान परमाणु पर पहुंच जाता है--अपने आप। उनकी प्रक्रिया का ढंग ऐसा है कि क्षुद्रतम पर पहुंचेगा विज्ञान। और पाए गा क्षुद्र को--और क्षुद्र को। उसकी सारी तलाश यह है कि क्षुद्रतम को कैसे पहुंच जाए; क्योंकि खंडन करने से तुम क्षुद्र को ही पा सकते हो। जोड़ने से विराट पाया जा सकता है। तोड़ने से तो विराट नहीं पाया जा सकता!
उसकी पत्नी ने ठीक ही कहा। वही तो प्रकृति सदा से कह रही है। ‘नौकर बरखास्त कर दो और यह रही चाबी। यह मैं तुम्हें दिए देती हूं।’ चाबी को देने में जरा भी अड़चन नहीं है। पर संदेह अगर साथ है, तो चाबी देने योग्य नहीं है। समझा होगा नूरी बे ने--वह विचारशील व्यक्ति था। पत्नी की आंखों से, पत्नी के ढंग से, पत्नी के भरोसे में, उसमें भी भरोसे की लहर दौड़ आई होगी।
और पत्नी छिपा नहीं रही है; चाबी सामने है। पत्नी मना भी नहीं कर रही है। और उसकी शर्त भी गलत नहीं है। क्योंकि जहां संदेह का कोई कारण नहीं है, वहां जिसने संदेह पैदा किया हो, उसे बरखास्त कर दो। उसके रहते चाबी न दी जाएगी।
नौकर बरखास्त कर दिया गया। नूरी बे ने समझा। बात सीधी-साफ है। नौकर बरखास्त कर दिया गया और पत्नी ने चाबी सौंप दी। और फिर बहुत दुखी मन से विदा हो गई।
दो बातें हैंः विचार समझ सकता है--अगर तुम चेष्टा करो। तो विचार समझ सकता है कि निर्विचार की जरूरत है। विचार समझ सकता है कि विचार के पार जाना है। यह विचार की भीतरी क्षमता है कि तुम यह समझ सकते हो कि संदेह से क्या मिलेगा--श्रद्धा चाहिए।
नूरी बे समझ सका कि संदेह से द्वार नहीं खुलेगा, चाबी न मिलेगी। नौकर को बरखास्त कर दिया। लेकिन पत्नी उदास होकर हट गई--वहां से। यह उदासी इसलिए है कि नौकर तुमने बरखास्त तो किया, लेकिन संदेह के बाद। काश, इस नौकर को माना ही न गया होता, तब यह पत्नी प्रफुल्लित होती। अब यह उदास है।
ध्यान रहे, वही घटना दो ढंग से घट सकती है। अगर किसी दिन विज्ञान विचार करते-करते, संदेह करते-करते उस जगह भी पहुंच जाएगा, जहां उसे लगेगा कि संदेह व्यर्थ है और संदेह को बरखास्त कर दो प्रयोगशाला से; तो भी प्रकृति रहस्य खोलेगी, लेकिन वह उदास होकर। कृष्ण की बांसुरी उसमें न सुनी जा सकेगी। बुद्ध की आनंदमग्न प्रतिमा उसमें न मिलेगी। सत्य आएगा, लेकिन उस सत्य में हर्षोंमाद न होगा। वह नाचता हुआ न आएगा। सत्य उपलब्ध होगा, लेकिन एक कोरे तथ्य की भांति। उससे समाधिस्थ स्थिति फलित न होगी। क्योंकि तुमने सब तरफ से कोशिश की, सब तरह से कोशिश की।
क्या थी स्थिति? स्थिति यह थी कि नौकर अगर बरखास्त कर दिया होता नूरी बे ने, और चाबी हाथ में लेने से इनकार कर दी होती तो पत्नी आनंदित होती। क्योंकि भरोसा आया। नौकर तो बरखास्त किया, लेकिन चाबी ले ली। चाबी का लेना बता रहा है कि बाहर से संदेह गया--भीतर से नहीं गया। अन्यथा चाबी लेने की जरूरत क्या? वह जो नौकर दिखाई पड़ता था, उसको हटाने की थोड़ी बात थी। वह जो ‘नौकर’ दिखाई नहीं पड़ता और भीतर छिपा है, उसको हटाने की बात थी।
बाहर से तुम संदेह को हटा भी दो तो भी पक्का नहीं है कि भीतर से संदेह जाए। भीतर संदेह था, इसलिए तो चाबी हाथ में ली। अन्यथा नूरी बे चाबी को फेंक देता या कहताः ‘सम्हाल; तेरी चाबी--तेरे पास। क्या करना है! बात खतम हो गई।’ लेकिन भीतर संदेह था।
नौकर को हटाया है सशर्त। उसमें एक कंडीशन हैः चाबी लेने के लिए ही हटाया है। उसमें एक भीतरी शर्त है। भीतर संदेह है, उसकी खोज के लिए ही नौकर को हटाया है।
जिस दिन तुम संदेह को हटाते भी हो, उस दिन भी भीतर तुम्हारे अगर संदेह बना रहा, तो परमात्मा प्रसन्न नहीं है; प्रेम प्रसन्न नहीं है। समाधि न फलेगी। सत्य भी तुम जान लोगे, तो भी उदासी न मिटेगी।
और उस सत्य को जान कर भी क्या करोगे, जिससे नृत्य फलित न होता हो! जो सत्य आनंद न बनता हो, उस सत्य को जान कर क्या करोगे! इसलिए हिंदुओं ने उसे कहा हैः ‘सच्चिदानंद’। उसमें आनंद को जोड़ ही दिया है। क्योंकि अकेला सत्य--कोरा सत्य है--रूखा। उसका तुम क्या करोगे? और वैसा सत्य तुम बेहोश पड़े हो, तब भी मिल सकता है। तो हिंदू लोग कहते हैंः उसको पाकर क्या करेंगे, जब हम उदास हैं, बेहोश हैं। और वैसा सत्य मिल सकता है, बिना आनंद दिए, तो हिंदू कहते हैंः उसे हम पाकर क्या करेंगे?
तो हिंदुओं ने सत्य के दो अनिवार्य लक्षण बताए हैं। वे लक्षण हैं कि तुम चैतन्यपूर्ण हो, तुम जागे हुए हो और तुम आनंद से नाच रहे हो, तो ही सत्य पाने योग्य है। सच्चिदानंद बनता हो सत्य, तो ही पाने योग्य है। उससे कम में हल नहीं होगा।
चाबी तो हाथ में मिल गई, लेकिन पत्नी उदास होकर हट गई। आनंद हट गया। अब वह खोल ले पेटी को और देख ले। लेकिन नूरी बे विचारशील आदमी है। उसको भी समझने में देर न लगी होगी कि अब पेटी को खोलने में कुछ रस न रहा।
पत्नी उदास होकर हट गई। और नूरी बे बहुत समय तक सोचता रहा, सोचता रहा। उसने पेटी खोली नहीं। आखिर उसने चार नौकर बुलवाए। नौकर बिना खोले, संदूक को बहुत दूर तक ले गए और जमीन के अंदर उसे गाड़ आए। और फिर उसके बाद कभी यह बात नहीं उठाई गई।
अब इसके कई पहलू हैं--इस अंत के। पहला पहलू तो यह है कि विचार कर-कर के भी उसने पाया कि खोलने में कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि अगर प्रेम खो गया है, तो खो गया है। संदूक खोलने से प्रेम वापस नहीं लौटेगा। अगर प्रेम नहीं है, तो नहीं है। अगर पत्नी किसी और के प्रेम में है, तो है। संदूक खोलने से कुछ भी हल न होगा। हम जीवन में सोच कर भी इसको नहीं सोच पाते।
जो नहीं है, वह नहीं है। जो है, वह है। जो नहीं है, उसको लाने का कोई उपाय नहीं है।
अगर पत्नी पर संदेह आ गया है तुम्हें, तो क्या करोगे? अगर प्रेम नहीं है, तो कैसे लाओगे? प्रेम कोई वस्तु तो नहीं है कि तुम बाजार से खरीद लाओ! कोई जबरदस्ती तो प्रेम पैदा नहीं किया जाता। और जहां-जहां जबरदस्ती की जाती है, वहां-वहां प्रेम के पैदा होने की सब संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं।
और जब तुम जबरदस्ती में किसी को प्रेम करते हो, तो वहां प्रेम कैसे होगा? सिर्फ अभिनय हो सकता है। इसलिए सौ में निन्यानबे पति-पत्नी अभिनय कर रहे हैं। वे एक दूसरे को जतला रहे हैं कि प्रेम है। लेकिन प्रेम नहीं है। प्रेम हो भी नहीं सकता; क्योंकि जबरदस्ती की जा रही है।
प्रेम स्वेच्छा से दिया गया दान है; जबरदस्ती मांगा कि खो जाता है। तुम उसकी भिक्षा नहीं ले सकते। तुम उसे लूट नहीं सकते। तुम उसका शोषण नहीं कर सकते। वह स्वेच्छा से दिया गया दान है। वह दूसरा देना चाहे, तो मिलता है। वह न देना चाहे, तो तुम ले नहीं सकते।
नूरी बे ने सोचा होगा; सोचा-बहुत सोचा; फिर उसने चाबी का उपयोग नहीं किया। वह व्यर्थ था। तो उसने चार आदमी बुलवाए और संदूक को दूर गड़वा दिया।
यह विचार की दशा है। उसे कुछ झलक भी मिली, फिर भी झलक न मिली। फिर भी उसने चालाकी की। वह चालाकी यह थी कि अगर आदमी इसके भीतर है भी, तो जमीन में गड़ा दो। बात ही खतम करो।
उसने खोला तो नहीं। इतनी तो उसको झलक मिली कि खोलने से अब कुछ स्थिति सुखद नहीं हो सकती। पत्नी उदास हो गई है। खोलने से बातें और बिगड़ जाएंगी। अगर खोला, और वहां आदमी न पाया, तो भी चीजें अब सुधर नहीं सकतीं। क्योंकि जहां संदेह की गंध आ गई, वहां से प्रेम तिरोहित हो जाता है। अब यह बात सदा के लिए दीवाल बनी रहेगी कि ‘तुमने चाबी ली और संदूक खोली। तुमने संदेह किया।’ इसलिए पत्नी अब उदास ही रहेगी; अब प्रफुल्लित नहीं हो सकती। अगर मैंने संदूक खोली।
लेकिन संदूक बिना खोले भी यह आदमी रह नहीं सकता; यह रात-रात भर सोचता रहा होगा। इसने हजार तरकीबें सोची होंगी कि इस तरह से खोलूं कि पत्नी को पता भी न चले कि संदूक खोली गई है; इस तरह से खोलूं कि किसी को पता भी न चले। लेकिन यह कोई तरकीब न खोज पाया होगा। तब विचार ने एक रास्ता खोज लिया और उसने सोचा कि निपटारा इसमें सीधा है। पत्नी की तरफ यह भी साफ रहेगा कि तूने चाबी दी, लेकिन हमने खोला नहीं है। हमारा भरोसा तुम पर है।
लेकिन यह भरोसा पूरा नहीं है अन्यथा चाबी वापस लौटा देनी थी। संदूक की चर्चा समाप्त हो जानी थी। संदूक वहीं छोड़ देना था। यह भरोसा अधूरा है। इंतजाम भी इसने कर लिया। और वह यह कि ‘इस संदूक को गहरे जमीन में गाड़ दो। अगर आदमी होगा, तो खतम हो जाएगा। नहीं होगा, तो झंझट समाप्त हुई। चाबी से संदूक को खोलने का आरोपण भी हम पर न रहा। और अगर कोई दुश्मन वहां छिपा था--पत्नी का कोई प्रेमी, तो उसको हमने सस्ते में समाप्त भी कर दिया।’
कहानी यहां पूरी हो जाती है। कहानी इसके बाद कुछ कहती नहीं है। नूरी बे विचारशील है। जहां-जहां विचारशीलता है--जिसको हम विचारशीलता कहते हैं--वहां-वहां सदा डांवाडोलपन रहता है। कभी इधर झुकता है, कभी उधर झुकता है। एक झलक मिलती भी है, तो खो जाती है। रास्ते पर एक कदम पड़ता है, तो दूसरा गैर रास्ते पर पड़ जाता है। नाव पश्चिम जाती है आधा, फिर पूरब की तरफ मोड़ लेती है।
उसे दो-तीन बार झलकों के मौके आए; जब पत्नी ने कहा कि ‘यह संदेह तुम्हारा है कि नौकर ने जगाया है?’ तब उसे झलक तो मिल गई थी कि बात तो सीधी पूछी गई है। सीधा उत्तर चाहिए--प्रामाणिक। वह चूक गया। उसने कहा, ‘क्या यह नहीं हो सकता कि इन बातों में गए बगैर संदूक खोला जा सके?’
पत्नी ने दुबारा मौका दिया कि ‘नौकर को बरखास्त कर दो, यह चाबी तुम्हारे हाथ में रही।’ लेकिन तब भी उसने बाहर के नौकर को बरखास्त किया--भीतर के संदेह को नहीं। तब भी वह चूक गया। आधी झलक तो उसे मिली, इसलिए बाहर के नौकर को बरखास्त किया। अगर आधी न मिलती, तो वह उसको भी बरखास्त नहीं करता। वह कहताः ‘यह वफादार आदमी है, इसको मैं बरखास्त करूं? तुझे तलाक दे सकता हूं; इस वफादार नौकर को बरखास्त नहीं कर सकता।’
आधी झलक तो मिली, लेकिन आधी। तो बाहर का रूप तो पूरा हुआ, भीतर संदेह जारी रहा। उसने नौकर को बरखास्त ही इसलिए किया, ताकि चाबी मिल सके। बाहर के संदेह को इसलिए छोड़ा ताकि भीतर का संदेह अपनी खोज पूरी कर सके। वहां भी वह चूक गया।
पत्नी ने चाबी भी दे दी--लेकिन उदासी से। वह उदासी साफ कह रही थी कि अब तुम जान भी लोगे, तो जानने का कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि जो जानना संदेह पर खड़ा हो, वह उदासी ला सकता है--आनंद नहीं। जो जानना आस्था पर खड़ा हो, वही परम प्रफुल्लता लाता है।
इसलिए तुम वैज्ञानिकों को देखो। कितना जान लेते हैं, फिर भी कहीं नृत्य नहीं है। कोई एक वैज्ञानिक भी तो सूफी फकीर जैसा नहीं नाचता है। कितने वैज्ञानिक हैं आज! आज जमीन पर सबसे बड़ी जमात उनकी है; लाखों की संख्या में वैज्ञानिक हैं। आज सबसे बड़ा प्रतिष्ठित वर्ग उनका है। सबसे ज्यादा तनख्वाहें उनको मिलती हैं। सबसे ज्यादा समादृत वे हैं; क्योंकि सबसे ज्यादा खतरनाक वे हैं। और उनके हाथ में ताकत है। और ताकत इतनी होती जा रही है कि वैज्ञानिक सोचते हैं कि आज नहीं कल इस बात की संभावना है कि राजनीतिज्ञों को वे अपदस्थ कर दें। और उनकी जगह पर बैठ जाएं।
तो वैज्ञानिक के पास इस वक्त भारी ताकत है, प्रतिष्ठा है, सम्मान है, शक्ति है, धन है। लेकिन तुम एक वैज्ञानिक तो बता दो जो बाउल फकीर की तरह एकतारा लेकर नाच रहा हो--आनंदित हो! तुम एक वैज्ञानिक तो बता दो, जो सूफियों की तरह आनंदमग्न हो--जिनके पास कुछ भी नहीं है, और जो इस तरह चल रहे हैं, जैसे सारे जगत के सम्राट हों। तुम एक वैज्ञानिक तो बता दो, जो मीरा जैसा गा सके, नाच सके, जिसके पैरों में घुंघरू बंधे हों; वह तुम्हें नहीं मिलेगा।
तुम वैज्ञानिकों को सदा उदास पाओगे; उनके चेहरे लटके हुए पाओगे, जैसे जीवन उनका सूख गया है। तथ्य तो उन्हें मिल रहे हैं, लेकिन उनके पाने का ढंग कुछ गलत है। उस ढंग में तथ्य भी मिल जाता है और जान भी निकल जाती है। उन्हें भी ईर्ष्या पैदा होती है।
बर्ट्रेंड रसल बड़ा विचारक है, वैज्ञानिक बुद्धि का व्यक्ति है। इस सदी ने जो दस-बीस बड़े लोग पैदा किए हैं, उनमें से एक है। उसने लिखा है कि पहली दफे मैंने जब एक जंगली द्वीप पर आदिवासियों को नाचते देखा तो मैं ईर्ष्या से भर गया कि मेरी सारी उपलब्धि दो कौड़ी की है। नोबल प्राइज मिले, कि सैकड़ों सम्मान मिलें, लेकिन वृक्षों के तले, चांद की पूरी रात में नाचते हुए ये लोग--अर्धनग्न, जिनके पास कुछ भी नहीं है और बर्ट्रेंड रसल ईर्ष्या से भर गया है।’
आइंस्टीन मरते समय इसी ईर्ष्या से भरा हुआ है। क्योंकि उसे दिखाई पड़ रहा है कि जीवन ऐसे ही गया। आइंस्टीन से किसी ने पूछा कि ‘तुम्हारा दुबारा जन्म हो, तो तुम क्या होना चाहोगे?’ उसने कहा, ‘आइंस्टीन तो नहीं होना चाहूंगा। इससे तो बेहतर है कि मैं एक प्लंबर हो जाऊं।’
इतना बड़ा वैज्ञानिक--जिससे बड़ा वैज्ञानिक कभी नहीं हुआ--प्लंबर होना चाहता है! लेकिन अब वैज्ञानिक नहीं होना चाहता है। प्लंबर होना भी बेहतर है! शायद इसने प्लंबर को अपने बाथरूम में गीत गुनगुनाते सुना होगा, जो यह नहीं गुनगुना सकता है। शायद सुबह जब प्लंबर इसके घर काम करने आता होगा, तो उसकी चाल इसने देखी होगी। सांझ जब अपने झोले को लटका कर वापस जाता होगा, तो उसकी मौज--घर जाने की खुशी देखी होगी।
आइंस्टीन प्लंबर से ईर्ष्या करे! तो जरूर कहीं कुछ गड़बड़ है--आइंस्टीन--जिसको कहा जाता है इस जगत के सर्वाधिक सत्यों का बोध हुआ है, जिसने सर्वाधिक तथ्यों में जांच-पड़ताल की है। लेकिन ‘पत्नी’ चाबी देकर हट गई मालूम होता है। जिसके प्रेम को पाने के लिए सारी कोशिश थी, वह उदास होकर हट गया है।
वैज्ञानिक के सामने से परमात्मा हट जाता है। वही दिक्कत है। चाबी हाथ में आ जाती है, लेकिन जिस खजाने के लिए चाबी थी, वह हट जाता है।
सत्य का क्या मूल्य है, अगर उससे आनंद का झरना न फूटता हो? इसलिए जो जानते हैं, वे कहते हैंः आनंद को खोजो, सत्य की बात क्यों करते हो। आनंद के मिलते ही सत्य मिल जाएगा। इससे उलटा जरूरी नहीं हैः सत्य शायद मिल भी जाए, आनंद न मिले। तो सारी खोज व्यर्थ हो जाएगी।
वह मौका था कि नूरी बे चाबी फेंक देता और पत्नी को गले लगा लेता। और संदूक को वहीं रहने देता और उसकी चर्चा कभी न उठाता। लेकिन विचारशील आदमी, प्रतिष्ठित आदमी, कैसे यह कर सकता है! वह अवसर चूक गया।
फिर नूरी बे ने बहुत सोचा, सोचता रहा, सोच कर भी उसको इतनी बात तो समझ में आ गई कि चाबी का उपयोग करना और संदूक को खोलना इससे मेरे और पत्नी के बीच अनंत फासला हो जाएगा; फिर उसे पूरा नहीं किया जा सकता। फिर संदेह परिपक्व हो गया। और हो सकता है संदूक खाली हो! और वहां कुछ भी न हो। और खाली संदूक के पीछे मैं पत्नी को गंवा दूं, प्रेम को गंवा दूं। इसलिए संदूक तो नहीं खोली उसने। लेकिन विचार फिर चूक गया। तब उसने एक तरकीब, एक चालाकी की।
उसने संदूक को दूर ले जाकर जमीन में गहरे गड़वा दिया। संदेह तो रहेगा मन में, कि पता नहीं क्या था! लेकिन झंझट मिटा दी; जो भी हो।
यहां कहानी पूरी हो जाती है, क्योंकि सूफी इससे ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहते। लेकिन क्या तुम सोचते हो, प्रेम वापस लौटा होगा! असंभव है। संदेह इतना गहरा है कि प्रेम वापस नहीं लौट सकता। और सच तो यह है कि संदेह संदेह ही न रहा। संदेह, संदेह पर भी आस्था बन जाता है।
अगर तुम बहुत दिन तक संदेह में रहो, तो एक दुर्घटना घटती है। संदेह ही तुम्हारी आस्था बन जाता है। तुम निस्संदिग्ध रूप से संदेह पर भरोसा कर लेते हो।
इस आदमी का संदेह संदेह ही न रहा। सोच-सोच कर इसने पाया कि आदमी तो भीतर है; इसलिए तो गड़वाया। कोई संदूकों को गड़वाता है? आदमी गड़ाए जाते हैं। इस संदूक का इसने ताबूत की तरह उपयोग किया!
सोच-सोच कर संदेह मजबूत होता गया होगा भीतर और इतना पक्का ही हो गया इसे। शायद इसीलिए इसने संदूक खोलना भी ठीक नहीं समझा। क्योंकि अब खोलने को कुछ था भी नहीं। अब तो गड़ा देना उचित है। आदमी इसके भीतर है। पत्नी की उदासी से इसको लगा होगा कि संदेह पक्का है। भीतर कोई है अन्यथा उदास होने का क्या कारण है!
यही हमारे विचार की दिक्कत है कि विचार की एक तर्कसरणी है। पत्नी को उदास देख कर इसे यह तो ख्याल भी नहीं आ सकता कि पत्नी इसलिए दुखी हो रही है कि तुमने संदेह किया है। आस्था खंडित हो गई है। प्रेम दुर्गंध से भर गया है। अब वह बात न रही, वह ताजगी न रही। अब वे दिन फिर कभी वापस न लौटेंगे--जो असंदिग्ध प्रेम के थे। वह निर्दोषता अब न आ सकेगी। मन दोषी हो गया।
यह सब तो न देख सका नूरी बे। उसने उदासी में यही देखा होगा कि जरूर यह उदासी चाबी देने के कारण है--कि अब भंडाफोड़ होगा। खोलेंगे संदूक और आदमी निकलेगा। इसका प्रेमी वहां छिपा है। शायद बहुत सोच-सोच कर संदेह पर आस्था आ गई होगी।
आस्था मनुष्य का स्वभाव है। अगर तुम संदेह के साथ ज्यादा दिन रह जाओ, तो तुम उसी पर आस्था कर लोगे।
नास्तिक संदेह पर आस्था कर लिए लोग हैं। ‘ईश्वर नहीं है’--यह उनकी आस्था का विषय हो गया है। वे लड़ने को तैयार हो जाएंगे। अगर ईश्वर नहीं है, तो उसके न होने पर लड़ने की क्या जरूरत है! तलवारें खींच लेंगे। जो नहीं है, उसके लिए तलवार खींचने का क्या प्रयोजन है! जो नहीं है, उसके संबंध में इतने शास्त्र निर्मित करने का क्या प्रयोजन है? जो नहीं है, उसके विरोध में समझाने की क्या जरूरत है? नहीं, उन्हें नास्तिकता पर आस्था आ गई है। वे उतने ही आस्थावान हैं, जितने धार्मिक लोग। सिर्फ धार्मिक लोग ईश्वर के होने पर आस्था कर रहे हैं; नास्तिक ईश्वर के न होने की आस्था कर रहे हैं। ईश्वर का न होना उनका पीछा कर रहा है। उनकी रात भी बेचैन है। उनके भी मन में चिंता है। और विचार की तरंगें कि ‘ईश्वर नहीं है’।
मैंने सुना है कि फकीर जुन्नैद से ईश्वर ने कहा एक स्वप्न में कि ‘तू क्या बनना चाहता है? तू आस्तिक बनना चाहता है कि नास्तिक?’ तो जुन्नैद ने कहा कि ‘तू मुझे नास्तिक बना दे, क्योंकि आस्तिक तो तुझे कभी-कभी भूल भी जाते हैं। नास्तिकों को मैंने तुझे कभी भूलते न देखा।’ होशियार आदमी है जुन्नैद। बात उसने ठीक कहीः आस्तिक कभी-कभी भूल भी जाए, नास्तिक कभी नहीं भूलता। वह चौबीस घंटे लगा रहता है कि ‘ईश्वर नहीं है, नहीं है, नहीं है।’ ‘अगर तेरे स्मरण से ही तेरा द्वार खुलता है, तो मुझे नास्तिक बना दे। क्योंकि उस भांति मैं तेरा ज्यादा स्मरण कर सकूंगा।’
यह आदमी--नूरी बे--सोच-सोच कर अपने ही विचार से दब गया होगा और संदेह इसकी आस्था बन गया होगा। इसे पक्का हो गया कि आदमी तो भीतर है, अब खोलना उचित भी नहीं है। दफना देना उचित है।
संदेह के साथ ज्यादा देर मत रहना, ज्यादा मत सोचना। अन्यथा तुम भूल ही जाओगे कि वह संदेह है, वही तुम्हारी आस्था हो जाएगा।
और इस कहानी को कहानी मत समझना।
सूफियों का एक नियम हैः वे कहते हैं कि दो प्रकार का प्रेम है। एक को वे कहते हैं--लौकिक प्रेम। दूसरे को वे कहते हैं--अलौकिक प्रेम; इश्क इस दुनिया का और इश्क उस दुनिया का। और वे कहते हैंः इस दुनिया की इश्क की जो कहानियां हैं--उन्हें अगर तुम समझ लो, तो वे दूसरी दुनिया के इश्क की कुंजियां बन जाती हैं। बस, यही इस कहानी का राज है।
यह कहानी तो इस दुनिया के प्रेम की है, लेकिन अगर इसे तुम समझ लो, तो इस दुनिया के प्रेम की कहानी की समझ--दूसरी दुनिया के प्रेम की कुंजी बन जाती है।

आज इतना ही।  

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