कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

और फूलों की बरसात हुई-(प्रवचन-09

और फूलों की बरसात हुई-नौवां

बहरे, गूंगे और अंधे होना


एक दिन गेंशा ने असंतोष प्रकट करते हुए
अपने अनुयाइयों से कहा-
‘‘दूसरे सद्गुरु हमेशा प्रत्येक व्यक्ति को मुक्त करने की
अनिवार्यता के बारे में पथ-प्रदर्शन करना जारी रखते हैं-
लेकिन तनिक सोचो कि यदि तुम किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हो
जो बहरा, गूंगा और अंधा है :
वह तुम्हारे हाव-भाव और चेष्टाओं को देख नहीं सकता, तुम्हारे उपदेश को सुन नहीं सकता, अथवा उस महत्वपूर्ण विषय पर वह प्रश्न नहीं पूछ सकता तो उसे मुक्त करने में असमर्थ होकर तुमने स्वयं को एक अयोग्य बौद्ध सिद्ध कर दिया।’’ इन शब्दों से व्याकुल होकर गेंशा के शिष्यों में से एक परामर्श लेने सद्गुरु उम्मोन के पास गया,

जो गेंशा के समान ही सद्गुरु सेप्पो का एक शिष्य थ।
उम्मोन ने कहा-‘‘वृफप्या सिर नीचे झुकाकर प्रणाम करो।’’
यद्यपि भिक्षु को आश्चर्य हुआ, पर उसने सद्गुरु के आदेश का पालन किया, और तब पूछे गए प्रश्न का उत्तर पाने की आशा में वह सीधा खड़ा हो गया।
लेकिन उत्तर देने के स्थान पर उसने अपना डंडा उठाया


और उसने जोर से उस पर प्रहार किया। वह उछलकर पीछे जा गिरा।
उम्मोन ने कहा-‘‘ठीक है, तो तुम अंधे नहीं हो। अब निकट आओ।’’
भिक्षु ने वैसा ही किया, जैसी कि उसे आज्ञा दी गई थी।

उम्मोन ने कहा-‘‘तुमने ठीक वैसा ही व्यवहार किया।
इसलिए तुम बहरे भी नहीं हो। ठीक से समझ गए?’’
भिक्षु ने कहा-‘‘श्रीमान समझना कैसा?’’
उम्मोन ने कहा-‘‘ओह! तो तुम गूंगे भी नहीं हो।’’

इन शब्दों को सुनकर वह भिक्षु
जैसे एक गहरी नींद से जाग गया।

जीसस अपने शिष्यों से न केवल एक बार बल्कि बार-बार यह कहा करते थे-‘‘यदि तुम्हारे पास आंखें हैं तो देखो! यदि तुम्हारे पास कान हैं तो मुझे सुनो।’’ उनके पास तुम्हारे समान ही आंखें थीं और उनके पास तुम्हारे समान ही कान थे। जब जीसस का अनिवार्य रूप से इन कानों से नहीं, इन आंखों से नहीं बल्कि किसी अन्य चीज़ से तात्पर्य होना चाहिए।
संसार को देखने और सुनने का एक भिन्न ढंग है और होने का भी एक जुदा तरीका है। जब तुम्हारे पास देखने का वह भिन्न गुण होता है तो परमात्मा के दर्शन होते हैं, जब तुम्हारे पास सुनने का एक भिन्न ढंग होता है तोपरमात्मा सुनने देता है और जब तुम्हारे पास होने का एक भिन्न ढंग होता है तो तुम स्वयं ही परमात्मा हो जाते हो। जैसे तुम हो, तुम एक बहरे, गूंगे और अंधे हो- लगभग मृत। तुम परमात्मा के प्रति बहरे हो, तुम परमात्मा के सामने गूंगे हो और परमात्मा के आगे अंधे तथा मृत हो।
नीत्शे ने घोषणा की कि परमात्मा मर गया है। वास्तव में जब तुम मृत हो तो परमात्मा तुम्हारे लिए कैसे जीवंत हो सकता है? परमात्मा मर गया है क्योंकि तुम मर गए हो। तुम परमात्मा को केवल तभी जान सकते हो, जब तुम प्रचुरता से जीते हो, जब तुम्हारा जीवन अतिरेक से प्रवाहमान बन जाता है, जब वह एक बाढ़ हो जाता है। उस अतिरेक से प्रवाहित आनंद के क्षण में, जीवन और स्फूर्ति के क्षण में तुम पहली बार जानते हो कि परमात्मा क्या होता है क्योंकि परमात्मा सबसे अधिक आनंद के एक बाढ़ जैसी अलौकिक घटना है।
इस संसार में परमात्मा एक अनिवार्यता नहीं है। वैज्ञानिक नियमों की अधिक आवश्यकता है और बिना उनके संसार नहीं हो सकता है। उस तरह से परमात्मा की आवश्यकता नहीं हैं बिना उसके संसार हो सकता है लेकिन वह मूल्यहीन होगा। बिना उसके तुम अस्तित्व में बने रह सकते हो लेकिन तुम्हारा अस्तित्व केवल एक वनस्पति के अस्तित्व जैसा होगा। बिना उसके तुम एक वनस्पति की भांति हो सकते हो पर वास्तव में तुम जीवंत नहीं हो सकते।
परमात्मा एक अनिवार्यता नहीं है- तुम वहां बने रह सकते हो लेकिन तुम्हारे बने रहने का वहां कोई भी अर्थ नहीं होगा, वह किसी भी प्रकार का कोई अर्थ लेकर अपने साथ नहीं चलेगा। उसके पास कोई काव्य न होगा, उसके पास कोई गीत नहीं होगा और न उसके पास कोई भी नृत्य होगा। वह एक रहस्य नहीं बनेगा। वह एक अंकगणित हो सकता है, वह एक व्यापार हो सकता है, लेकिन वह एक प्रेम का संबंध नहीं हो सकता है।
बिना परमात्मा के वह जो सब कुछ सुंदर है, विलुप्त हो जाता है क्योंकि सुंदरता केवल एक बाढ़ की भांति आती है- वह एक सुरुचि संपन्नता है। एक वृक्ष का निरीक्षण करो यदि तुमने उसे भलीभांति पानी से सींचा नहीं है, यदि वृक्ष को मिट्टी से पोषण नहीं मिला है तो वृक्ष अस्तित्व में तो हो सकता है लेकिन उसमें फूल नहीं खिलेंगे। अस्तित्व तो वहां होगा लेकिन व्यर्थ होगा। उसका न होना ही अच्छा होता क्योंकि वह एक निरंतर होने वाली निराशा होगी। वृक्ष पर फूल केवल तभी आते हैं जब वृक्ष के पास इतना अधिक होता है कि वह उसे बांट सके और जब वृक्ष का इतना अधिक पोषण होता है कि वह फल-फूल सके, खिलावट होना एक सुरुचि संपन्नता है। वृक्ष के पास इतना अधिक है कि वह इतनी सामर्थ्य रखता है।
और मैं तुमसे कहता हूं कि परमात्मा संसार में सबसे अधिक ऐश्वर्ययुक्त एक सुरुचि संपन्न सत्ता है। परमात्मा एक अनिवार्यता नहीं है- तुम उसके बिना जी सकते हो। तुम भलीभांति जीवित रह सकते हो, लेकिन तुम किसी चीज़ से चूकोगे और अपने हृदय में एक रिक्तता का अनुभव करोगे। तुम एक जीवंत शक्ति के समान होने की अपेक्षा एक घाव के समान अधिक बने रहोगे। तुम दुखी रहोगे और तुम्हारे जीवन में वहां कोई भी परमानंद न होगा।
लेकिन इस परमानंद के अर्थ को कैसे खोजा जाए? तुम्हें देखने के एक भिन्न तरीके की आवश्यकता होगी। ठीक अभी तो तुम अंधे हो। वास्तव में तुम पदार्थ देख सकते हो क्योंकि पदार्थ एक अनिवार्यता है। तुम भलीभांति वृक्ष को देख सकते हो, लेकिन तुम फूलों से चूक जाओगे और यदि तुम फूलों को भी देख सकते हो तो तुम उसकी सुवास से चूक जाओगे। तुम्हारी आंखें केवल बाहर परिधि देख सकती है, पर तुम वास्तविक बीज कोष अथवा केंद्र से चूक जाते हो। इसीलिए जीसस कहते चले जाते हैं कि तुम अंधे हो, तुम बहरे हो- और तुम्हें गूंगा भी होना होगा क्योंकि यदि उसको नहीं देखा है तो वहां कहने को है क्या? यदि तुमने उसको नहीं सुना है तो वहां संदेश भिजवाने और पहुंचाने को है क्या? यदि उस कविता का जन्म नहीं हुआ तो वहां गाने को है क्या? तुम अपने मुंह से मुद्राएं बना सकते हो लेकिन उनसे कुछ भी नहीं निकलेगा क्योंकि पहले से ही वहां कुछ भी नहीं है।
जब जीसस जैसा एक व्यक्ति बोलता है तोकुछ चीज़ उसके अधिकार में होती है, जोकुछ उसके द्वारा कहा जाता है उसकी अपेक्षा कुछ चीज़ उसके पास उससे भी महान होती है। जब एक बुद्ध जैसा व्यक्ति बोलता है तो वह गौतम-सिद्धार्थ ही नहीं होता, जिसका जन्म एक राजा के पुत्र के रूप में हुआ था, नहीं, वह अब और अधिक वह रहा ही नहीं। वह अब और अधिक शरीर नहीं रहा, जिसे तुम देख और छू सकते हो, वह अब एक मन भी नहीं रहा जिसे तुम समावेश करते हुए समझ सकते हो। उस पार की कुछ चीज़ उसमें प्रविष्ट हो गई है, कुछ चीज़ जो समय और स्थान की नहीं है, अब समय और स्थान में आ गई है। एक चमत्कार घटित हुआ है। वह तुमसे नहीं बोल रहे हैं, वह तो केवल एक वाहन हैं, कुछ और ही बात उनके द्वारा प्रवाहित हो रही है और वह केवल एक माध्यम हैं। वह अज्ञात किनारे से तुम्हारे लिए कोई चीज़ वहन कर रहे हैं। केवल तभी तुम गीत गा सकते हो, जब परमानंद घटित हो गया है। अन्यथा तुम गीत गाये चले जा सकते हो लेकिन वह उथला होगा। तुम बहुत अधिक शोर उत्पन्न कर सकते हो, लेकिन शोर बात नहीं कर रहा है। तुम अनेक शब्दों का प्रयोग कर सकते हो लेकिन वे रिक्त होंगे। तुम बहुत अधिक बात कर सकते हो, लेकिन वास्तव में तुम कैसे बात कर सकते हो?
जब ऐसा मुहम्मद को घटित हुआ, जब पहले दिन वह परमात्मा के संपर्क में आए, वह नीचे भूमि पर गिर पड़े और उन्होंने जोर से कांपना शुरू कर दिया और पसीने-पसीने हो गए और वह सुबह इस सुबह जैसी ही शीतल थी। वह अकेले थे और उनके पैरों के तलुवों के पोर-पोर से पसीना बहने लगा। वह भयभीत हो गए। किसी अज्ञात चीज़ ने उनका स्पर्श किया था और वह डरा देने वाली मृत्यु जैसी थी। वह भागते हुए घर आए और बिस्तर में लेट गए। उनकी पत्नी बहुत अधिक डर गई। उन्हें अनेक कंबल ओढ़ा दिए लेकिन तब भी उनका कांपना जारी रहा और उनकी पत्नी ने उनसे पूछा-‘‘आखिर हुआ क्या? आपकी आंखें चौंधियाई हुई लगती हैं और आप बोलते क्यों नहीं? आप गूंगे क्यों बन गए हैं?’’
मुहम्मद के बारे यह कहा जाता है कि उन्होंने कहा-‘‘अब वहां पहली बार कुछ बात कहने को है। अभी तक मैं गूंगा बनकर रहा और वहां कहने कोकुछ भी नहीं था। मैं मुंह से मुद्राएं बना रहा था। मैं बात कर रहा था लेकिन केवल मेरे होंठ हिल रहे थे। वहां कहने कोकुछ भी नहीं था। अब वहां मेरे पास कहने कोकुछ बात है और इसी कारण मैं इतना अधिक कांप रहा हूं। मैं उस अज्ञात परमात्मा के साथ परिपूर्ण हो गया हूं। कोई चीज़ जन्म लेने जा रही है।’’
जैसा कि प्रत्येक मां जानती है कि गर्भ का पूर्ण समय हो जाने पर वह पीड़ा लाता है। यदि तुम्हें एक बच्चे को जन्म देना है तो तुम्हें कई दिनों तक पीड़ा से होकर गुजरना होगा और जब जन्म घटित होता है तो वहां बहुत अधिक पीड़ा और दर्द होता है। जब जीवन संसार में प्रविष्ट होता है वह एक संघर्ष होता है।
यह कहा जाता है कि मुहम्मद तीन दिनों तक पूर्ण रूप से गूंगे बने अपने बिस्तर पर ही पड़े रहे। तब धीमे-धीमे ठीक जैसे कि एक छोटा बच्चा बात करना शुरू करता है, उन्होंने बात करनी शुरू कर दी और तब इस तरह कुरान का जन्म हुआ।
तुम गूंगे हो, हो सकता है कहने को बहुत अधिक बातें हों लेकिन याद रहे तुम केवल अपने गूंगेपन को छिपाने के लिए बहुत अधिक बातें करते हो। तुम सूचना देने के लिए बात नहीं करते हो, तुम केवल यह छिपाने के लिए कि वास्तव में तुम गूंगे हो, बात करते हो। अगली बार जब तुम किसी व्यक्ति के साथ बात करना शुरू करो तो निरीक्षण करना : कि तुम बातें क्यों कर रहे हो? तुम इतने अधिक मुखर क्यों हो? उसकी आवश्यकता क्या है? अचानक तुम सचेत हो जाओगे कि भय यह है कि यदि मैं खामोश बना रहा तो दूसरा सोचेगा कि मैं गूंगा हूं। इसलिए केवल इस तथ्य को छिपाने के लिए ही तुम बात करते हो- और तुम जानते हो कि वहां कहने कोकुछ भी नहीं है, तो भी तुम बातें किए चले जाते हो।
मैं एक बार एक परिवार के साथ ठहरा हुआ था, और मैं घर के स्वामी अपने मेजबान के साथ बैठा हुआ था तभी उनका छोटा पुत्र अंदर आया और उसने अपने पिता से पूछा कि क्या वह उसके थोड़े से प्रश्नों का उत्तर दे सकते हैं? पिता ने कहा-‘‘मैं व्यस्त हूं, तुम जाओ और अपनी मां से पूछो।’’
बच्चे ने कहा-‘‘लेकिन मैं उतना अधिक नहीं जानना चाहता, क्योंकि यदि वह बातचीत करना शुरू करती हैं तो उसका कहीं अंत नहीं होता और मुझे अपना होमवर्क करना है तथा मैं बहुत अधिक नहीं जानना चाहता।’’
लोग बिना यह जाने हुए कि वे क्यों और किसलिए बातें कर रहे हैं, बातें और बातें और बातें किए चले जाते हैं। वहां बताने को है ही क्या? यह केवल अपने गूंगेपन को छिपाने का प्रयास है। लोग यहां से वहां चक्कर लगाए चले जाते हैं, वे इस शहर से उस शहर में यात्राएं किए चले जाते हैं और अवकाश मनाने वे हिमालय और स्विट्जरलैंड जाते हैं- यह सभी यात्राएं और घूमना, आखिर क्यों? वे यह अनुभव करना चाहते हैं कि वे जीवित हैं।
लेकिन जीवन मात्र गतिविधि करते रहना नहीं है। निश्चित रूप से जीवन के पास एक गहन संवेग अर्थात गतिविधियां हैं लेकिन गतिविधियों का होते रहना ही जीवन नहीं है। तुम एक नगर से दूसरे में घूमने जा सकते हो और तुम पूरी पृथ्वी पर छा सकते हो, लेकिन यह संवेग जीवन नहीं है। वास्तव में जीवन एक बहुत सूक्ष्म गतिविधि है, वह चेतना की एक स्थिति से दूसरी पर जाना है।
जब लोग दुविधा में पड़ जाते हैं, वे बाहर घूमना शुरू कर देते हैं। अब अमेरिकन असली यात्री बन गए हैं। वे इस कोने से उस कोने तक पूरे विश्व-भर में यात्राएं करते हैं क्योंकि अमेरिकन चेतना कहीं इतनी बुरी तरह दुविधा में पड़ गई है कि यदि तुम एक स्थान पर बने रहते हो तो तुम अनुभव करोगे कि जैसे तुम मर गए हो। इसलिए गतिशील रहा जाए। एक पत्नी से दूसरी के पास जाओ, एक व्यापार अथवा कार्य को बदलकर दूसरे की ओर गतिशील हो जाओ, एक पड़ोस से दूसरे पड़ोस में चले जाओ, एक शहर से दूसरे में प्रस्थान कर जाओ। मनुष्य के इतिहास में ऐसा कभी भी घटित नहीं हुआ। अमेरिका में एक व्यक्ति का एक नगर में रुकने का औसत समय तीन वर्ष है। लोग तीन वर्षों के अंदर दूसरा नगर बदल लेते हैं- और यह तो केवल औसत समय है। वहां ऐसे भी लोग हैं जो प्रत्येक माह गतिशील हो रहे हैं। वे बदलते चले जाते हैं- अपने वस्त्रों को, कारों को, मकानों को और पतियों और पत्नियों को- और प्रत्येक वस्तु को।
मैंने सुना है कि एक बार हॉलीवुड की एक अभिनेत्री अपने बच्चे का अपने नए पति से परिचय करा रही थी। उसने बच्चे से कहा-‘‘अब अपने नए पिता से मिलो।’’
बच्चे ने उससे कहा-‘‘मैं आपसे मिलकर बहुत प्रसन्न हूं। क्या आप मेरी अभ्यागतों की डायरी में अपने हस्ताक्षर देना पसंद करेंगे?’’ क्योंकि वह अनेक नए पिताओं से मिल चुका था।
प्रत्येक वस्तु को बदल देना है, केवल यह महसूस करने के लिए कि तुम जीवित हो। जीवन के लिए एक उत्तेजना से भरी हुई तलाश। वास्तव में जीवन एक गतिविधि है लेकिन एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना नहीं, यह गतिविधि है एक स्थिति से दूसरी में जाने की। यह अंतरस्थ में होने वाली एक गहन गतिविधि है- एक चेतना से दूसरी चेतन में और आत्मा के उच्चतम क्षेत्रों की ओर। अन्यथा तुम मृत हो। जैसे तुम हो, तुम मृत ही हो। इसीलिए जीसस कहे चले जाते हैं-‘‘ध्यान से सुनो!- यदि तुम्हारे पास कान हैं और यदि तुम्हारे पास आंखें हैं तो देखो।’’ पहले इसे समझ लेना है तब यह कहानी सरल बन जाएगी।
तब दूसरी बात : तुम इतने अधिक मृत क्यों हो? तुम इतने अधिक गूंगे, अंधे और बहरे क्यों हो? वहां उसमें कुछ चीज़ होनी चाहिए, वहां उसमें कुछ पूंजी लगी होनी चाहिए- अन्यथा इतने अधिक लोग, उनमें से करोड़ों लोग ऐसी स्थिति में नहीं हो सकते थे। वह अनिवार्य रूप से तुम्हें कुछ चीज़ दे रही है, तुम अवश्य ही उससे कुछ चीज़ प्राप्त कर रहे हो, अन्यथा यह कैसे संभव है कि बुद्ध और वृफष्ण तथा जीसस कहे चले जाते हैं-‘‘अंधे मत बनो, बहरे मत बनो, गूंगे मत बनो, मृत मत बनो। जीवंत बनो। सजग बनो। जागो!’’ और कोई भी व्यक्ति उनकी बात नहीं सुनता है। यद्यपि बुद्धिगत रूप से वे आकर्षित करती हैं, लेकिन तुम उन्हें कभी नहीं सुनते। यदि तुम जीवन के विशिष्ट सर्वोत्तम क्षणों में यह अनुभव करते हो कि वे ठीक हैं तब भी तुम उनका अनुसरण नहीं करते। यदि किसी समय तुम अनुसरण करने का निर्णय लेते हो तो तुम हमेशा कल के लिए स्थगित कर देते हो और तब कल कभी नहीं आता है। उसमें ऐसी कौन-सी गहन पूंजी लगी हुई है?
ठीक कल रात ही मैं एक मित्र से बात कर रहा था। वह बहुत शिक्षित और सुसंस्वृफत व्यक्ति हैं जो पूरे संसार-भर में घूमे हैं। वह सोवियत रूस, ब्रिटेन और अमेरिका में रहे हैं, वह चीन भी गए हैं और इस और उस जगह घूमते ही रहे हैं। उनकी बात सुनते हुए मैंने अनुभव किया कि वह पूरी तरह से मृत हैं। तब उन्होंने मुझसे पूछा-‘‘क्योंकि जीवन में इतने अधिक दुःख और पीड़ाएं हैं, इतना अधिक अन्याय है और ऐसी अनेक चीज़ें हैं जो मुझ पर चोट करती हैं, इनके लिए क्या आप किसी समाधान का सुझाव देंगे? जीवन कैसे जिया जाए जिससे आपको चोट लगने जैसा अनुभव न हो, जिससे जीवन तुम्हारे अस्तित्व में इतने अधिक घाव उत्पन्न न कर सके!’’
इसलिए मैंने उनसे कहा-‘‘इस बारे में दो रास्ते हैं : पहला जो आसान है लेकिन उसकी एक बहुत बड़ी कीमत चुकानी होती है- उस एक को मृत हो जाना है और जितना अधिक संभव हो सके असंवेदनशील बनना होगा...  क्योंकि यदि तुम संवेदनशील नहीं हो, यदि तुम अपने चारों ओर एक मोटी खाल, एक कवच की भांति विकसित कर लेते हो, तब तुमको अधिक परेशान नहीं होना है और कोई भी व्यक्ति तुमको चोट नहीं पहुंचा सकता। कोई व्यक्ति तुम्हारा अपमान करता है तो तुम्हारे पास एक ऐसी मोटी खाल है कि वह कभी भी अंदर प्रविष्ट नहीं होता। वहां अन्याय है लेकिन आप सामान्य रूप से उसके प्रति कभी भी सचेत नहीं होते।
तुम्हारे मृतप्रायः होने का यही यांत्रिकत्व है। यदि तुम अधिक संवेदनशील हो तो तुम्हें चोट कहीं अधिक लगेगी। तब प्रत्येक छोटी-सी चीज़ एक दुःख और पीड़ा बन जाएगी तथा जीवित रहना असंभव बन जाएगा और प्रत्येक को जीना ही है। वहां लाखों लोग हैं, वहां समस्याएं हैं, वहां चारों ओर हिंसा है और वहां चारों ओर दुःख-ही-दुःख हैं। तुम सड़क से होकर गुजरते हो और वहां भिखारी हैं। तुम्हें असंवेदनशील होना ही होगा अन्यथा वह एक दुःख बन जाएगा, वह तुम्हारे ऊपर एक भारी बोझ होगा। ये भिखारी क्यों हैं? ऐसा उन्होंने क्या किया है जिससे वे दुखी हैं। और किसी तरह नीचे गहरे में तुम अनुभव करोगे : मैं भी इसके लिए जिम्मेदार हूं। तुम भिखारी के पास से सामान्य रूप से यों गुजर जाते हो, जैसे मानो तुम बहरे, गूंगे और अंधे हो- जैसे तुमने कुछ देखा ही नहीं।
क्या तुमने कभी एक भिखारी को देखा है? हो सकता है तुमने एक भिखारी देखा हो लेकिन तुमने कभी उसकी ओर नहीं देखा है। तुमने कभी उसका आमना-सामना नहीं किया है, तुम कभी उसके साथ नहीं बैठे हो, तुमने कभी भी उसका हाथ अपने हाथ में नहीं लिया है क्योंकि यह बहुत अधिक हो जाता। वहां इतना अधिक खुला हुआ खतरा है और तुम्हें इस भिखारी के बारे में नहीं अपनी पत्नी के बारे में सोचना है, तुम्हें अपने बच्चों के बारे में सोचना है- और तुम्हारी उसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। इसीलिए जब कभी भी वहां एक भिखारी होता है, निरीक्षण करना : तुम्हारी गति बढ़ जाती है, तुम तेजी से चलने लगते हो और उस रास्ते की ओर नहीं देखते।
यदि तुम वास्तव में एक भिखारी की ओर देखते हो, तुम जीवन के पूरे अन्याय का अनुभव करोगे और तुम पूरी पीड़ा तथा दुःख का अनुभव करोगे- और वह बहुत अधिक हो जाएगा। तुम्हें सहन करना असंभव हो जाएगा, तुम्हें कुछ कार्य करना ही होगा, पर तुम क्या कर सकते हो? तुम बहुत असहाय होने का अनुभव करते हो क्योंकि तुम्हारे पास तुम्हारी अपनी समस्याएं भी हैं और तुम्हें उन्हें सुलझाना है।
तुम एक मरते हुए व्यक्ति को देखते हो, तुम क्या कर सकते हो? तुम एक अपंग बच्चे को देखते हो, तुम क्या कर सकते हो? कल ही एक संन्यासी मेरे पास आया और उसने कहा कि बहुत अधिक अव्यवस्थित हो गया है क्योंकि जब मैं सड़क से होकर गुजर रहा था, एक ट्रक ने एक कुत्ते को लगभग मार ही डाला। कुत्ता पहले ही से ठीक हालत में नहीं था निश्चित रूप से उसके दो पैर पहले ही कुचले जा चुके थे। केवल दो पैरों के सहारे ही वह कुत्ता जीने का प्रयास कर रहा था और तब इस ट्रक ने उसे फिर से कुचल दिया। संन्यासी ने बहुत दया और करुणा का अनुभव किया और उसने कुत्ते को अपने हाथों में लिया- और तब उसने देखा कि उसकी पीठ में वहां एक सुराख था जिसमें लाखों कीड़े बिलबिला रहे थे। वह सहायता करना चाहता था लेकिन सहायता कैसे की जाए? और वह इतना अधिक अव्यवस्थित हो गया कि रात-भर सो न सका, उसे दुःस्वप्न आते रहे और उस कुत्ते का ख्याल निरंतर उसके अंदर आता-जाता रहा कि मैंने उसके लिए कुछ भी नहीं किया और मुझे कुछ कार्य करना चाहिए था। लेकिन क्या किया जाए? उसके मन में एक विचार कुत्ते को मार देने का भी आया क्योंकि अब जोकुछ किया जा सकता था वह केवल यही कार्य था। इतने अधिक कीड़ों और उनके अंडों के साथ वह कुत्ता जीवित नहीं रह सकता था और उसका जीवन एक यातना ही होता, इसलिए उसे मार देना ही अच्छा था। लेकिन उसे मारना क्या वह एक हिंसा न होगी। क्या वह एक हत्या नहीं होगी? क्या वह एक कर्म नहीं बनेगा? इसलिए क्या किया जाए? तुम सहायता नहीं कर सकते। तब श्रेष्ठ मार्ग है- असंवेदनशील बने रहना।
वहां कुत्ते हैं और वहां ट्रक भी हैं और चीज़ें घटित होती चली जाती हैं, तुम अपने चारों ओर नहीं देखते और तुम अपने रास्ते पर चल देते हो। देखना खतरनाक है इसलिए तुम सौ प्रतिशत कभी अपनी आंखों का प्रयोग नहीं करते- वैज्ञानिक कहते हैं कि तुम केवल दो प्रतिशत उनका प्रयोग करते हो। अट्ठानवे प्रतिशत तुम अपनी आंखें बंद रखते हो। अट्ठानवे प्रतिशत तुम अपने कान बंद रखते हो, जोकुछ शोर तुम्हारे चारों ओर हो रहा है तुम प्रत्येक ध्वनि को नहीं सुनते। अट्ठानवे प्रतिशत तुम जीते ही नहीं।
क्या कभी तुमने इसका निरीक्षण किया है कि जब तुम प्रेम संबंध में होते हो अथवा जब कभी प्रेम ठहर जाता है, तुम कैसे हमेशा एक भय का अनुभव करते हो? अचानक एक भय तुम्हें नियंत्रण में ले लेता है क्योंकि जब कभी तुम एक व्यक्ति से प्रेम करते हो तुम उस व्यक्ति को समर्पण करते हो। और एक व्यक्ति को समर्पण करना खतरनाक है क्योंकि दूसरा तुम्हें हानि पहुंचा सकता है। तुम्हारी सुरक्षा धराशायी हो जाती है। तुम्हारे पास कोई भी कवच नहीं है। जब कभी तुम प्रेम करते हो तुम खुले हुए और आघात सहन करने योग्य हो और कौन जानता है कि दूसरे में कैसे विश्वास किया जाए? ...  क्योंकि दूसरा एक अजनबी है। हो सकता है कि तुम दूसरे को अनेक वर्षों से जानते हो लेकिन उससे कोई भी अंतर नहीं पड़ता है। तुम स्वयं अपने को ही नहीं जानते हो, तुम दूसरे को कैसे जान सकते हो? दूसरा एक अजनबी है। दूसरे को अपने अंतरंग जीवन में प्रवेश करने की अनुमति देने का अर्थ है उसे तुम्हें हानि अथवा आघात पहुंचाने की अनुमति देना।
लोग प्रेम करने से भयभीत हो गए हैं। एक प्रेमिका होने की अपेक्षा एक वेश्या के पास जाना कहीं अधिक अच्छा है क्योंकि पत्नी एक व्यवस्था है। तुम्हारी पत्नी तुम्हें अधिक हानि नहीं पहुंचा सकती क्योंकि तुमने उससे कभी प्रेम नहीं किया है। वह तुम्हारे माता-पिता और ज्योतिषी के द्वारा की गई व्यवस्था थी...  सिवाय तुम्हारे उससे प्रत्येक व्यक्ति संबद्ध था। वह एक प्रबंध था, एक सामाजिक व्यवस्था थी। उसमें अधिक उलझन नहीं थी। तुम उसकी देखभाल करते थे। तुम उसके भोजन और शरणस्थल की व्यवस्था करते थे। वह तुम्हारी देखभाल करती थी, वह घर को संभालती थी, भोजन बनाती थी और बच्चों की देखभाल करती थी- वह एक व्यवस्था थी, वह एक व्यापार जैसी कुछ चीज़ थी। प्रेम खतरनाक है, वह एक व्यापार नहीं है, वह एक मोल-तोल है। तुम प्रेम में दूसरे व्यक्ति को शक्ति देते हो, अपने ऊपर पूरी सत्ता देते हो। यही भय है : दूसरा एक अजनबी है और कौन जानता है... ? जब कभी तुम किसी व्यक्ति पर विश्वास करते हो भय जकड़ लेता है।
लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं-‘‘हम आपको समर्पण करते हैं, लेकिन मैं जानता हूं कि वे कर नहीं सकते। यह लगभग असंभव है। उन्होंने कभी प्रेम नहीं किया है, फिर वे कैसे समर्पण कर सकते हैं? वे यह बिना जाने हुए बोल रहे हैं कि वे क्या कह रहे हैं। वे लगभग सोये हुए हैं। वे अपनी नींद में ही बात कर रहे हैं, उसका यह अर्थ नहीं है क्योंकि समर्पण करने का अर्थ है कि यदि मैं कहता हूं-‘‘पहाड़ी के शिखर पर जाओ ओर वहां से कूद जाओ, और तुम ‘न’ नहीं कह सकते। समर्पण करने का अर्थ है कि पूरी शक्ति और सत्ता दूसरे को दे दी गई है : तुम उसे कैसे दे सकते हो?’’
समर्पण ठीक प्रेम के समान है। इसी कारण मैं कहता हूं कि केवल प्रेमी ही संन्यासी बन सकते हैं, क्योंकि वे थोड़ा-बहुत जानते हैं कि कैसे समर्पण किया जाता है। प्रेम परमात्मा की ओर उठाया गया पहला कदम है और समर्पण सबसे अंतिम। इन दो कदमों में ही यात्री पूरी हो जाती है।
लेकिन तुम भयभीत हो। तुम अपने जीवन पर अपना ही नियंत्रण चाहते हो- और इतना ही नहीं- तुम दूसरों के जीवन को भी नियंत्रित करना चाहते हो। इसीलिए पतियों, पत्नियों और प्रेमियों के मध्य निरंतर झगड़े और संघर्ष होना जारी रहता है। और संघर्ष क्या है? संघर्ष है : कौन किस पर प्रभुत्व करेगा? कौन किसे अपने अधिकार में रखेगा? यह पहले तय हो जाना है। यह एक समर्पण नहीं है बल्कि ठीक उसका विरोधी प्रभुत्व जमाना अथवा हावी होना है। जब कभी तुम एक व्यक्ति पर प्रभुत्व जमाते हो, वहां कोई भी भय नहीं होता है। जब भी तुम एक व्यक्ति से प्रेम करते हो तो वहां भय होता है क्योंकि प्रेम में तुम समर्पण करते हो और पूरी सत्ता और शक्ति दूसरे को दे देते हो। अब दूसरा आघात पहुंचा सकता है, दूसरा अस्वीकार कर सकता है और दूसरा नहीं कह सकता है। इसी कारण तुम सौ प्रतिशत नहीं केवल दो प्रतिशत जीवन जीते हो। अट्ठानवे प्रतिशत तुम मृत हो, असंवेदनशील हो। यह असंवेदनशीलता और मृतक के समान जीने को समाज द्वारा बहुत अधिक सम्मान दिया जाता है। तुम जितने असंवेदनशील होते हो, समाज तुम्हारा उतना ही अधिक सम्मान करेगा।
भारत के महान नेताओं में से एक लोकमान्य तिलक के बारे में ऐसा कहा जाता है, यह घटना घटित हुई। वह इसी नगर पूना में रहते थे और गांधी से पूर्व वह भारत में सबसे ऊपर शिखर पर थे और भारतीय परिदृश्य पर उनका पूरा प्रभुत्व था। उनके बारे में यह कहा जाता है कि वह बहुत अधिक अनुशासनप्रिय थे और अनुशासित व्यक्ति हमेशा मृत होते हैं क्योंकि अनुशासन और कुछ भी न होकर वह प्रक्रिया है कि तुम स्वयं अपने को मृतप्रायः कैसे बनाओ। उनकी पत्नी की मृत्यु हुई और उस समय वह अपने कार्यालय में बैठे हुए थे, जहां से वह ‘केसरी’ समाचारपत्र प्रकाशित करते थे- जो कि अब भी प्रकाशित हो रहा है। जब किसी व्यक्ति ने उन्हें सूचना दी-‘‘आपकी पत्नी का निधन हो गया है, आप तुरंत घर आ जाइये।’’ इसे सुनकर उन्होंने पीछे टंगी घड़ी में समय देखा और कहा-‘‘लेकिन अभी समय पूरा नहीं हुआ है। मैं अपना कार्यालय केवल पांच बजे ही छोड़ता हूं।’’
इस पूरे विषय की ओर देखो। यह किस तरह की घनिष्टता है, यह किस तरह का प्रेम है? यह किस तरह कि देख्र्र्रभाल और सहभागिता थी? यह व्यक्ति अपने काम के बारे में ही चिंता करता है, यह व्यक्ति प्रेम के बारे में नहीं बल्कि समय के बारे में चिंता करता है। जब कोई व्यक्ति उन्हें बताता है कि आपकी पत्नी की मृत्यु हो गई है तो घड़ी को देखते हुए यह कहना लगभग असंभव प्रतीत होता है- ‘‘अभी तक समय पूरा नहीं हुआ है और मैं अपना कार्यालय केवल पांच बजे ही छोड़ता हूं।’’
और आश्चर्यों में से एक आश्चर्य यह है कि उनकी जीवनी लिखने वाले सभी लोग इस घटना की बहुत अधिक प्रशंसा करते हैं। वे कहते हैं-‘‘यह देश के प्रति उनका प्रेम है। यह बताता है कि एक अनुशासित व्यक्ति कैसा होना चाहिए।’’ वे सोचते हैं कि यह अनासक्ति है। यह अनासक्ति नहीं है, यह किसी भी व्यक्ति के प्रति प्रेम नहीं है। यह पूरी तरह से मृतप्रायः होना है, यह एक असंवेदनशीलता है। और एक व्यक्ति जो अपनी पत्नी के प्रति असंवेदनशील है, वह पूरे देश के लिए कैसे संवेदनशील हो सकता है? यह असंभव है।
स्मरण रहे, यदि तुम एक व्यक्ति से प्रेम नहीं कर सकते, तो तुम मनुष्यता से भी प्रेम नहीं कर सकते। यह एक तरकीब हो सकती है। जो लोग, लोगों से प्रेम नहीं कर सकते- क्योंकि एक व्यक्ति से प्रेम करना बहुत खतरनाक है- वे लोग हमेशा यह सोचते हैं कि वे मनुष्यता से प्रेम करते हैं। मनुष्यता कहां है? क्या तुम उसे कहीं खोज सकते हो? यह केवल एक शब्द है। मनुष्यता कहीं भी नहीं हैं तुम जहां कहीं भी जाते हो, तुम एक व्यक्ति को ही मौजूद पाओगे। मनुष्यता नहीं, व्यक्ति ही जीवन है। जीवन हमेशा जड़ में चेतन धर्म का आरोपण कर उसे एक जीवधारी मानना है और वह एक वैयक्तिकता की भांति विद्यमान है। समाज, देश, मनुष्यता, ये केवल शब्द हैं। समाज कहां है? कहां है देश और मातृभूमि? तुम एक मां से प्रेम नहीं कर सकते और तुम मातृभूमि से प्रेम करते हो? तुम अनिवार्य रूप से कहीं स्वयं को धोखा दे रहे हो। लेकिन शब्द सुंदर है, भारतीय शब्द में एक आकर्षण है। तुम्हें मातृभूमि के बारे में फिक्र करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि मातृभूमि एक व्यक्ति नहीं है, यह तुम्हारे मन की एक कल्पना है। यह तुम्हारा अपना अहंकार है।
तुम मनुष्यता से प्रेम कर सकते हो, तुम मातृभूमि से प्रेम कर सकते हो, तुम समाज से प्रेम कर सकते हो और एक व्यक्ति से प्रेम करने में समर्थ नहीं हो- क्योंकि एक व्यक्ति कठिनाइयां उत्पन्न करता है। समाज कभी भी एक कठिनाई उत्पन्न नहीं करेगा क्योंकि वह केवल एक शब्द है। तुम्हें उसके प्रति समर्पण करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। तुम एक शब्द पर और एक कल्पना पर प्रभुत्व कर सकते हो, लेकिन तुम एक व्यक्ति पर प्रभुत्व नहीं कर सकते। एक छोटे से बच्चे पर भी यह करना असंभव है, तुम उस पर प्रभुत्व नहीं कर सकते, क्योंकि उसके पास उसका अपना अहंकार है, उसके पास उसका अपना मन है और उसके पास उसके अपने तरीके हैं। जीवन पर प्रभुत्व करना लगभग असंभव है, लेकिन शब्दों पर आसानी से प्रभुत्व किया जा सकता है- क्योंकि वहां तुम अकेले हो।
वे लोग जो एक व्यक्ति से प्रेम नहीं कर सकते, परमात्मा से प्रेम करना शुरू कर देते हैं। वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं। एक व्यक्ति से बातचीत करना और एक व्यक्ति से संवाद जोड़ना एक कठिन मामला है। इसके लिए कुशलता की आवश्यकता है, इसके लिए बहुत प्रेमपूर्ण हृदय की आवश्यकता है, इसके लिए एक बहुत जानने वाले समझदार हृदय की आवश्यकता है। केवल तभी तुम एक व्यक्ति का स्पर्श कर सकते हो क्योंकि एक व्यक्ति का स्पर्श करना एक खतरनाक अखाड़े की ओर गतिशील होना है क्योंकि वहां जीवन धड़क रहा है। प्रत्येक व्यक्ति इतना अधिक अनूठा है कि तुम उसके बारे में एक मशीनवत नहीं हो सकते। तुम्हें बहुत सजग और सावधान होना है। यदि तुम एक व्यक्ति से प्रेम करते हो तो तुम्हें बहुत अधिक संवेदनशील बनना है, केवल तभी समझ उत्पन्न होती है।
लेकिन एक परमात्मा से प्रेम करना जो कहीं आसमान में बैठा हुआ है, वह अपने आप से बात करने जैसा है। गिरजाघरों में जाओ, लोग कोई नहीं, कुछ नहीं से बातें कर रहे हैं। वे वैसे ही पागल हैं जैसे लोग तुम एक पागलखाने में पाओगे, लेकिन वह पागलपन समाज के द्वारा स्वीवृफत है और यह पागलपन स्वीकार नहीं किया जाता है, केवल यही एक अंतर है। एक पागलखाने में जाओ, तुम पाओगे कि लोग अकेले में बातें कर रहे हैं और वहां कोई भी व्यक्ति नहीं है। वे लोग बातें करते हैं ओर वे केवल इतना ही नहीं करते, वे कुछ कहते भी हैं, वे उत्तर भी देते हैं। वे अपने एकालाय को ऐसा बना देते हैं कि वह एक संवाद के समान प्रतीत होता है। तब गिरजाघरों और मंदिरों में जाओ, वहां वे लोग परमात्मा से बातें कर रहे हैं। वह भी एक एकालय है, यदि वे वास्तव में पागल हो जाते हैं तो वे दोनों कार्य करना शुरू कर देते हैं, वे कुछ बात कहते हैं और वे कुछ उसका उत्तर भी देते हैं तथा वे अनुभव करते हैं कि परमात्मा ने ही उत्तर दिया है।
तुम उसे तब तक नहीं कर सकते, जब तक तुमने यह न सीखा हो कि कैसे एक व्यक्ति से प्रेम किया जाता हैं यदि तुम एक व्यक्ति से प्रेम करते हो तो धीमे-धीमे वह व्यक्ति ही उस अखंड अस्तित्व का द्वार बन जाता है लेकिन किसी भी व्यक्ति को एक व्यक्ति के साथ, एक बहुत ही लघु अणु के साथ शुरुआत करनी होगी। तुम एक साथ छलांग नहीं लगा सकते। गंगा पूरी तरह से सीधे ही सागर में छलांग नहीं लगा सकती, उसे एक छोटे से सोते गंगोत्री से प्रारंभ करना होता है। और तब वह बड़ी-से-बड़ी और विस्तीर्ण तथा विशाल होती चली जाती है और तब अंतिम रूप से वह सागर में विलीन हो जाती है।
गंगा, प्रेम की गंगा को भी केवल एक छोटे से स्रोत से, व्यक्तियों के साथ से प्रारंभ करना होता है तथा तब वह बड़े-से-बड़ा होता चला जाता है। एक बार तुम इसका सौंदर्य, समर्पण का सौंदर्य, असुरक्षा का सौंदर्य तथा उस सभी के प्रति खुले होने का सौंदर्य जो जीवन तुम्हें देता है, आनंद भी और पीड़ा दोनों को ही जान लेते हो- तब तुम बड़े-से-बड़े और विस्तीर्ण होते चले जाते हो तथा चेतना अंतिम रूप से एक सागर बन जाती है। तब तुम उस अलौकिक परमात्मा में मिल जाते हो। लेकिन भय के कारण तुम असंवेदनशीलता सृजित करते हो, जिसे समाज सम्मान देता हैं समाज यह नहीं चाहता कि तुम बहुत अधिक जीवंत बनो क्योंकि जीवंत लोग विद्रोही होते हैं।
एक छोटे से बच्चे की ओर देखो, यदि वह वास्तव में जीवंत है तो वह विद्रोही बनेगा, वह अपना मार्ग स्वयं पाने का प्रयास करेगा। लेकिन यदि वह गूंगा, अल्पमति और एक मूर्ख है, वह किसी तरह कहीं दुविधा अथवा कठिनाई में पड़ गया है और विकसित नहीं हो रहा है तो वह पूर्ण रूप से आज्ञाकारी बनकर एक कोने में बैठा रहेगा। तुम उससे जाने को कहो वह चला जाता है, तुम उससे आने को कहो वह आ जाता है। तुम उसे नीचे बैठ जाने को कहो वह बैठ जाता है, तुम उससे खड़े होने को कहो वह खड़ा हो जाता है। वह पूर्ण रूप से आज्ञाकारी है क्योंकि उसके पास अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है। समाज, परिवार और माता-पिता इस बच्चे को पसंद करेंगे। वे कहेंगे-‘‘देखो वह कितना अधिक आज्ञाकारी है।’’
एक बार मैंने सुना : मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे से बात कर रहा था, जो स्कूल से अपने रिपोर्ट कार्ड के साथ आया था। मुल्ला यह आशा कर रहा था कि वह ‘ए’ ग्रेड प्राप्त करेगा और उसे ‘डी’ ग्रेड मिला था। वास्तव में वह अपने दर्जे में आखिरी था। इसलिए नसरुद्दीन ने कहा-‘‘देखो! तुम कभी भी मेरी आज्ञा का पालन नहीं करते और मैं तुमसे जो कुछ भी कहता हूं तुम उसकी अवज्ञा कर देते हो, अब यह उसी का परिणाम है। पड़ोसी के बच्चे को देखो- वह हमेशा ‘ए’ ग्रेड पाता है और हमेशा दर्जे में प्रथम आता है।’’
बच्चे ने नसरुद्दीन की ओर देखा और कहा-‘‘लेकिन वह एक भिन्न मामला है- उसके पास प्रतिभाशाली और बुद्धिमान माता-पिता हैं।’’
वह बच्चा बहुत जीवंत है लेकिन उसके पास अपने तौर-तरीके हैं।
आज्ञाकारिता के बारे में उसके पास एक विशिष्ट गूंगापन होता है और अवज्ञा के बारे में उसके पास एक तीक्ष्ण बुद्धि होती है। लेकिन आज्ञाकारिता सम्मानित की जाती है क्योंकि आज्ञाकारिता कम तकलीफ देती है। तुम एक मृत बच्चे के समान होना पसंद करोगे क्योंकि वह कोई असुविधा उत्पन्न नहीं करेगा। तुम एक जीवंत बच्चे होना पसंद नहीं करते क्योंकि और अधिक जीवंत होने से वहां और अधिक खतरा होता है। माता-पिता, समाज, स्कूल- वे सभी आज्ञाकारी होने को बाध्य करते हैं, वे तुम्हें मंदबुद्धि बना देते हैं और तब वे उन लोगों का सम्मान करते हैं। इसी कारण तुम जीवन में ऐसे लोग कभी नहीं देखते जो स्कूलों और विश्वविद्यालयों में प्रथम श्रेणी में आते हैं और जीवन में वे पूरी तरह से खो जाते हैं। तुम जहां कहीं भी जाओ, तुम जीवन में उन्हें कहीं भी नहीं पाते हो...  वे स्कूल में स्वयं अपने को बहुत प्रतिभाशाली सिद्ध करते हैं लेकिन जीवन में वे किसी तरह खो जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जीवन के रास्तों से स्कूल के रास्ते भिन्न हैं। किसी तरह से जीवन जीवंत लोगों से प्रेम करता है, वे लोग अपनी चेतना, अपने अस्तित्व और अपने व्यक्तित्व के साथ जितने अधिक जीवंत होते हैं, वे उतने ही अधिक विद्रोही होते हैं और ऐसे लोग मृत नहीं होते तथा उनके पास कार्य संपन्न करने के अपने रास्ते होते हैं। स्कूल ठीक इसके विपरीत वरीयता देते हैं। पूरा समाज तुम्हें गूंगा, अंधा, बहरा और मृत बनने में तुम्हारी सहायता करता है।
तुम ईसाई मठों में मृत लोगों को पाओगे, जो संतों की भांति पूजे जाते हैं। वाराणसी जाओ, तुम लोगों को कांटों और कीलों की शैय्या पर लेटे हुए पाओगे- और वे देवताओं के समान पूजे जाते हैं। उन्होंने प्राप्त क्या किया है? यदि तुम उनके चेहरों को देखो, तुम उनसे अधिक मूर्ख चेहरों को कहीं भी नहीं खोज पाओगे। एक व्यक्ति जो कीलों अथवा कांटों की शैय्या पर लेटा है, उसे मूर्ख होना ही है। जीवन के इस रास्ते को जो पहले स्थान पर चुनता है, वह एक को मूर्ख होना ही है। तब वह करेगा क्या? कीलों पर लेटे हुए वह क्या कर सकता है? उसे अपने पूरे शरीर को असंवेदनशील बनाना होगा? केवल वही एक उपाय है कि उसे पीड़ा का अनुभव नहीं होना चाहिए। धीमे-धीमे उसकी त्वचा मोटी हो जाती है और तब कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। तब वह पूर्ण रूप से मृत एक चट्टान की तरह बन जाता है। पूरा समाज उसकी पूजा करता है, वह एक संत है और उसे कुछ चीज़ उपलब्ध हुई है। उसने तुम्हारी अपेक्षा कहीं अधिक निर्जीवता प्राप्त की है। अब कीलों से कुछ भी फर्क नहीं पड़ता क्योंकि शरीर संज्ञाशून्य हो गया है।
हो सकता है कि तुम न जानते हो लेकिन यदि तुम शरीर विज्ञानियों से पूछो तो वे कहते हैं कि वहां शरीर में पहले से ही अनेक बिंदु ऐसे होते हैं जो जीवंत नहीं हैं, वे उन्हें मृत बिंदु कहते हैं। तुम्हारी पीठ पर वहां अनेक मृत बिंदु हैं। अपने मित्रों में से किसी एक को अथवा अपनी पत्नी अथवा पति को केवल एक सुई दे दो और उससे अपनी पीठ में कई बिंदुओं पर सुई चुभोनो को कहो। तुम कुछ बिंदुओं पर चुभन का अनुभव करोगे और कुछ पर अनुभव नहीं करोगे। कुछ बिंदु पहले ही से मृत हैं, इसलिए जब उनमें सुई चुभोई जाती है तो तुम उसकी चुभन का अनुभव नहीं करते। उन लोगों ने एक कार्य किया है। उन्होंने अपने पूरे शरीर को एक मृत स्थान बना लिया है। लेकिन यह विकास नहीं है, यह पीछे की ओर लौट जाना है। वस्तुतः कहीं अधिक दिव्य बनने की अपेक्षा, वे कहीं अधिक जड़ और स्थूल बन रहे हैं क्योंकि दिव्य अथवा अलौकिक बनने का अर्थ है पूर्ण रूप से संवेदनशील बनना, पूर्ण रूप से जीवंत बनना।
इसलिए मैंने उस व्यक्ति से कहा कि वहां केवल एक उपाय है और वह है मृतप्रायः अथवा निर्जीव हो जाने का; जो आसान है और जिसे प्रत्येक व्यक्ति कर रहा हैं लोगों में डिग्रीज का अंतर है लेकिन अपने रास्तों में वे भी वही कर रहे हैं।
तुम अपनी पत्नी से डरे हुए घर वापस लौटते हो, तुम बहरे बन जाते हो, वह जोकुछ कहती है तुम उसे नहीं सुनते हो। तुम समाचारपत्र पढ़ना शुरू कर देते हो, तुम अपने समाचारपत्र को इस तरह से रखते हो कि तुम उसे नहीं देख सकते। वह जोकुछ कहती है तुम पूरी तरह से बहरे बन जाते हो अन्यथा तुम्हें अनुभव होगा कि यदि मैं उसकी बात सुनता हूं तो मैं कैसे जीवित रह सकता हूं? तुम नहीं देखते कि वह चिल्ला रही है अथवा रो रही है। केवल जब वह तुम्हारे लिए स्थिति असंभव बना देती है, तब तुम देखते हो और वह दृष्टि बहुत क्रोध से भरी होती है।
तुम ऑफिस जाते हो, तुम यातायात से होकर गुजरते हो, प्रत्येक स्थान पर तुम्हें अपने चारों ओर एक विशिष्ट संज्ञाशून्यता सृजित करनी होती है। तुम सोचते हो कि वह तुम्हारी सुरक्षा करती है- वह सुरक्षा नहीं करती, वह केवल मारती है। निश्चित रूप से तुम्हें कष्ट कम होगा लेकिन उतने ही कम आशीर्वाद और उपहार तथा उतना ही कम आनंद तुम तक आएगा। जब तुम मृतप्रायः और निर्जीव बन जाते हो तो पीड़ा तथा कष्ट कम होते हैं क्योंकि तुम उनका अनुभव नहीं कर सकते, उतना ही आनंद भी कम मिलता है क्योंकि तुम उसे महसूस ही नहीं कर सकते। एक व्यक्ति जो उच्चतम परमानंद की खोज में हो, उसे दुःख और कष्ट सहने के लिए भी तैयार होना होगा।
हो सकता है कि तुम्हें यह विरोधाभासी प्रतीत हो कि एक बुद्ध के तल का व्यक्ति, एक व्यक्ति जो जाग गया है और पूर्ण रूप से परमानंद में लीन है और वह पूर्ण रूप से दुःख तथा पीड़ा भी सहन करता है। निश्चित रूप से वह अपने अंतरस्थ में परम आनंदित है, वहां पुष्प खिलते चले जा रहे हैं लेकिन वह चारों ओर के सभी लोगों में प्रत्येक व्यक्ति के लिए दुःख और पीड़ा सहन करता है। उसे करना ही होता है क्योंकि यदि तुम्हारे पास तुम्हें आशीर्वाद देने और तुम्हारे लिए उपलब्ध बने रहने की संवेदनशीलता है तो दुःख तथा पीड़ा भी तुम्हें उपलब्ध बनी रहेगी। एक व्यक्ति को चुनाव करना होता है। यदि तुम दुःख और कष्ट न उठाने का चुनाव करते हो, तुम कष्ट नहीं भुगतना चाहते, तब तुम्हें परमानंद भी उपलब्ध न हो सकेगा- क्योंकि समस्या यह है कि वे दोनों समान द्वार के द्वारा आते हैं। तुम शत्रु के भय से अपना द्वार बंद कर सकते हो लेकिन मित्र भी समान द्वार से ही आता है। इसलिए यदि तुम शत्रु के भय से उस पर ताला डालकर पूर्ण रूप से बंद कर लेते हो और पूरी तरह से अवरोध खड़े कर देते हो तो मित्र भी नहीं आ सकता। तुम्हारे द्वार बंद हैं इसलिए परमात्मा भी तुम तक नहीं आ पा रहा है। तुमने हो सकता है कि उन्हें शैतान के लिए बंद किया हो, लेकिन जब द्वार बंद है तो वे बंद हैं। और एक व्यक्ति जिसे आवश्यकता है, जिसे परमात्मा से मिलने की प्यास है जो उसकी भूख का अनुभव करता है तो उसे शैतान से भी मिलना होगा। तुम एक चुनाव नहीं कर सकते, तुम्हें दोनों से मिलना होगा।
तुमने अनेक कहानियां सुनी होंगी लेकिन मैं अनुभव नहीं करता कि तुमने उन्हें समझना भी है : जब कभी परमात्मा प्रकट होता है, ठीक उसके सामने ही शैतान भी आ जाता है क्योंकि जब कभी भी द्वार खुलता है तो शैतान पहले उसमें तेजी से प्रवेश करता है। वह हमेशा शीघ्रता में होता है। परमात्मा को कोई भी जल्दी नहीं होती है।
ऐसा ही जीसस के साथ हुआ- जब वह अंतिम रूप से बुद्धत्व को उपलब्ध हुए तो शैतान चालीस दिनों तक उन्हें प्रलोभन देता रहा। जब वह ध्यान कर रहे थे, अपने अकेलेपन में उपवास कर रहे थे, जब जीसस, क्राइस्ट के आने के लिए एक स्थान सृजित करते हुए लुप्त हो रहे थे तो शैतान ने उन्हें प्रलोभन दिया। उन चालीस दिनों तक शैतान निरंतर उनके निकट ही बना रहा। उसने बहुत राजनीतिक ढंग से और बहुत आकर्षक तरह से उन्हें लालच दिया। वह एक सबसे बड़ा राजनीतिज्ञ है और अन्य सभी दूसरे राजनीतिज्ञ उसके शिष्य हैं। बहुत ही कूटनीतिक ढंग से उसने कहा-‘‘ठीक है, अब आप एक पैगम्बर अथवा एक संदेशवाहक बन गए हैं और आप जानते हैं कि शास्त्रों में यह कहा गया है कि जब कभी भी परमात्मा एक व्यक्ति को चुनता है और एक व्यक्ति मसीहा अथवा एक पैगम्बर बनता है तो वह अपार शक्तिशाली हो जाता है। अब आप बहुत शक्तिशाली हैं। यदि आप चाहें तो इस पहाड़ से नीचे छलांग लगा सकते हैं और घाटी में फरिश्ते आपको गोद में लेने के लिए तैयार खड़े होंगे। और यदि आप वास्तव में एक मसीहा हैं तो जोकुछ शास्त्रों में कहा गया है, छलांग लगाकर उस कार्य को संपन्न कीजिए।’’
प्रलोभन बहुत बड़ा था और वह शास्त्रों को उद्धृत कर रहा था। शैतान हमेशा धर्मग्रंथों को उद्धृत करता है क्योंकि धर्मशास्त्र से कायल करना अपने पक्ष के अंदर ले आना है। शैतान सभी धर्मग्रंथों को हृदय से जानते हैं।
जीसस हंसे और कहा-‘‘तुम ठीक कहते हो लेकिन उसी धर्मग्रंथ में यह भी कहा गया है कि तुम्हें परमात्मा की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए।’’
तब एक दिन तीस दिनों के उपवास के बाद जब उन्हें बहुत भूख लग रही थी तब भी शैतान उनकी बगल में बैठा हुआ था- जब परमात्मा आता है, उससे पूर्व शैतान आता है, जिस क्षण तुम द्वार खोलते हो, वह ठीक वहीं खड़ा मिलता है और वह हमेशा पंक्ति में प्रथम स्थान पर रहता है। परमात्मा हमेशा धीमे-धीमे चलता हुआ उसके पीछे आता है और स्मरण रहे कि वह शीघ्रता में नहीं होता है। परमात्मा के पास कार्य करने को अनंत समय है। शैतान के पास अनंत समय नहीं है और केवल कुछ क्षण हैं। यदि वह हार जाता है तो वह हार जाता है और एक बार एक व्यक्ति अलौकिक हो जाता है तो वह फिर और कोई हानि नहीं पहुंचा सकता। इसलिए उसे निर्बल क्षण खोजने होते हैं। जब जीसस विलुप्त हो रहे हैं और क्राइस्ट चेतना प्रविष्ट नहीं हुई है, उसके मध्य का अंतराल ही वह क्षण है जहां वह प्रवेश कर सकता है। तब शैतान ने कहा-‘‘लेकिन धर्मग्रंथों में यह कहा गया है, जब परमात्मा द्वारा एक व्यक्ति चुन लिया जाता है, वह पत्थरों को डबल रोटियों में बदल सकता है। इसलिए आप भूख से क्यों कष्ट पा रहे हैं? इसे सिद्ध कर दीजिए क्योंकि इससे संसार को लाभ पहुंचेगा।’’ यही कूटनीति थी कि इसके द्वारा संसार को लाभ मिलेगा।
इससे प्रतीत होता है कि शैतान ने कैसे तुम्हारे सत्य साईं बाबा को कायल किया। इसके द्वारा संसार को लाभ मिलेगा क्योंकि जब आप पत्थरों को डबलरोटियों में बदल देंगे तो लोग जानेंगे कि आप परमात्मा द्वारा चुने गए व्यक्ति हैं। वे दौड़ते हुए आएंगे और तब आप उनकी सहायता कर सकते हैं अन्यथा कौन आपके पास आएगा और कौन आपकी बात सुनेगा?’’
जीसस ने कहा-‘‘तुम ठीक कहते हो। मैं उन्हें बदल सकता हूं- लेकिन मैं नहीं, परमात्मा ही पत्थरों को डबलरोटियों में बदल सकता है। लेकिन जब कभी भी उसे आवश्यकता होती है वह मुझसे कहेगा, तुम्हें फिक्र करने की आवश्यकता नहीं है। तुम इतनी अधिक परेशानी क्यों ले रहे हो?’’
जब कभी तुम ध्यान में प्रवेश करते हो और जिस क्षण तुम द्वार खोलते हो तो द्वार पर जो पहला व्यक्ति तुम पाओगे, वह शैतान होगा और चूंकि उसका ही भय है कि तुमने द्वार बंद कर लिया है। स्मरण रहे, लेकिन पहले मैं तुम्हें एक प्रसंग बताउंफगा तभी तुम उसे समझोगे।
एक दुकान में क्रिसमस के लिए उन्होंने एक विशेष छूट देने की घोषणा की; और विशेष रूप से महिलाओं के लिए। एक पुरुष भी उसमें आया क्योंकि उसकी पत्नी बीमार थी और उसने उसे जाने के लिए बाध्य किया क्योंकि यह अवसर खोने जैसा नहीं था। इसलिए एक भद्र व्यक्ति की भांति वह एक घंटे तक पंक्ति में खड़ा रहा लेकिन वह काउंटर तक नहीं पहुंच सका। तुम स्त्रियों को और उनके ढंग को जानते ही हो- एक-दूसरे पर चीखते-चिल्लाते और सीटी बजाते हुए वे बिना पंक्तियों के भी कहीं से भी आगे बढ़ सकती हैं तथा पुरुष पंक्ति के बारे में सोच रहा था, इसलिए वह खड़ा रहा। जब एक घंटा गुजर गया और वह काउंटर के निकट कहीं भी नहीं था, तब उसने भी चीखना-चिल्लाना और धक्के देना शुरू किया और भीड़ में बलपूर्वक घुसना शुरू किया तथा काउंटर पर पहुंच गया।
एक वृद्ध महिला ने चिल्लाते हुए कहा-‘‘क्या? यह क्या कर रहे हैं आप! एक भद्र पुरुष बनिए।’’
पुरुष ने कहा-‘‘एक घंटे तक मैं भद्र पुरुष ही बना रहा। पर्याप्त हो चुका। अब मुझे एक महिला की भांति ही व्यवहार करना चाहिए।’’
स्मरण रहे, शैतान कभी भी एक भद्रपुरुष के समान व्यवहार नहीं करता है, वह एक स्त्री के समान व्यवहार करता है। वह पंक्ति में हमेशा पहले स्थान पर होता है और परमात्मा एक भद्रपुरुष की भांति है, पंक्ति में प्रथम स्थान पर होना उसके लिए कठिन है और जिस क्षण तुम द्वार खोलते हो, शैतान प्रवेश करता है क्योंकि उसके भय के कारण ही तुम द्वार बंद रखते हो। यदि शैतान प्रवेश नहीं कर सकता तो परमात्मा भी नहीं कर सकता। जब तुम सहन करने योग्य बन जाते हो तो तुम परमात्मा और शैतान दोनों के लिए सहन करने योग्य बन जाते हो। तुम प्रकाश और अंधकार, जीवन और मृत्यु, प्रेम और घृणा, दोनों विरोधों के लिए उपलब्ध बने रहते हो।
तुमने कष्ट अथवा हानि न सहने का चुनाव किया है, इसीलिए तुम बंद हो। तुम हो सकता है कष्टों को न सहो लेकिन तुम्हारा जीवन एक बहुत बड़ी ऊबाहट है, यद्यपि तुम उतना अधिक कष्ट नहीं सहते हो जितना तुम तब सहोगे, जब तुम खुले हुए हो और कहां कोई आशीर्वाद भी नहीं है। द्वार बंद हैं- न सुबह, न सूरज, न चांद और न आकाश ही उसमें प्रवेश कर पाता है, उसमें ताजी हवा भी प्रवेश नहीं कर पाती तथा प्रत्येक चीज़ बासी और पुरानी पड़ गई है। भय में तुम वहां छिप रहे हो। यह एक घर नहीं है जहां तुम रह रहे हो, तुमने पहले ही उसे एक कब्र में बदल दिया है। तुम्हारे सभी नगर कब्रिस्तान हैं और तुम्हारे घर कब्रें हैं। तुम्हारे जीवन का पूरा ढंग एक मुर्दे की भांति है।
द्वार खोलने के लिए साहस की आवश्यकता है, कष्ट सहने के लिए साहस की आवश्यकता है क्योंकि आशीर्वाद और वरदान केवल तभी मिलना संभव है।
अब हमें इस बहरे, गूंगे और अंधे के सुंदर प्रसंग को समझने का प्रयास करना चाहिए।
एक दिन गेंशा ने असंतोष प्रकट करते हुए, अपने अनुयाइयों से कहा :
दूसरे सद्गुरु हमेशा प्रत्येक व्यक्ति को मुक्त करने की अनिवार्यता के बारे में-
पथ प्रदर्शन करना जारी रखते हैं लेकिन तनिक सोचो कि यदि तुम किसी ऐसे व्यक्ति से मिलते हो जो बहरा, गूंगा और अंधा है : वह तुम्हारे हाव-भाव और चेष्टाओं को- देख नहीं सकता, तुम्हारे उपदेश को सुन नहीं सकता अथवा उस महत्वपूर्ण विषय पर वह प्रश्न नहीं पूछ सकता तो उसे मुक्त करने में असमर्थ होकर
तुमने स्वयं को एक अयोग्य बौद्ध सिद्ध कर दिया।
सद्गुरु सामान्य रूप से न तो शिकायत करते हैं और न कोई असंतोष ही प्रकट करते हैं, लेकिन जब वे असंतोष प्रकट करते हैं तो इसका अर्थ है कि वह कुछ महत्वपूर्ण बात है। यह केवल गेंशा ही असंतोष प्रकट नहीं कर रहा है, सभी सद्गुरु ऐसा ही असंतोष प्रकट करते हैं। लेकिन यह उनका अपना अनुभव है कि तुम जहां कहीं भी जाते हो तुम बहरे, गूंगे और अंधे लोग ही पाते हो क्योंकि पूरा समाज इसी तरह का है। और तुम कैसे उन्हें मुक्त करोगे? वे देख नहीं सकते, वे सुन नहीं सकते, वे अनुभव नहीं कर सकते, और न वे किसी हाव-भाव तथा चेष्टाओं को समझ सकते हैं। यदि तुम उन्हें मुक्त करने का बहुत अधिक प्रयास करते हो तो वे बचकर भाग जाएंगे। वे सोचेंगे : यह व्यक्ति किसी बात के पीछे पड़ा हुआ है, वह मेरा शोषण करना चाहता है अथवा उसके पास कुछ योजना होनी चाहिए। यदि तुम उनके लिए बहुत अधिक नहीं करते हो तो वे अनुभव करेंगे : यह व्यक्ति मेरे लिए नहीं है क्योंकि वह मेरी पर्याप्त फिक्र नहीं कर रहा है। और जोकुछ भी किया जाता है, वे उसे नहीं समझ सकते।
यह गेंशा का ही असंतोष अर्थात शिकायत नहीं है क्योंकि बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति स्वयं अपने लिए न कभी शिकायत करते हैं और न असंतोष प्रकट करते हैं। यह शिकायत सामान्य है, वह कैसे होती है। एक जीसस भी इसी तरह से अनुभव करते हैं, एक बुद्ध भी इसी तरह का अनुभव करते हैं। तुम जहां कहीं भी जाओ, तुम्हें ऐसे ही लोगों से मिलना होगा जो बहरे, गूंगे और अंधे हैं। तुम हाव-भाव से संकेत देते हो, चेष्टाएं करते हो- वे उन्हें देख नहीं सकते, और इससे भी बुरा यह है कि वे कुछ अन्य चीज़ देखते हैं। तुम उन लोगों से बात करो- वे उसे समझ नहीं सकते और इससे भी अधिक बुरा यह है कि वे गलत समझते हैं। तुम कुछ अन्य बात कहते हो, वे कुछ अन्य बात समझते हैं, क्योंकि शब्दों के द्वारा अर्थ नहीं दिए जा सकते। केवल शब्दों को ही प्रतिसंवेदित किया जा सकता है, अर्थ की आपूर्ति सुनने वाले के द्वारा ही की जाती है।
मैं एक शब्द कहता हूं, मेरा अर्थ एक बात से होता है। लेकिन यदि उसे दस हजार लोग सुन रहे हैं तो वहां उसके दस हजार अर्थ होंगे क्योंकि प्रत्येक उसे अपने मन से, अपने पूर्वाग्रहों, अपनी धारणा, तत्वज्ञान और अपने धर्म के अनुसार सुनेगा। वह उसे दिए गए अनुशासन, नियमों और आदतों के अनुसार अर्थात अपनी ‘कंडीशनिंग’ से सुनेगा और उसकी कंडीशनिंग ही अर्थ की आपूर्ति करेगी। यह बहुत कठिन है और लगभग असंभव है। यह ठीक ऐसा है जैसे मानो तुम एक पागलखाने में जाते हो और लोगों से बात करते हो। तुम कैसा अनुभव करोगे? यही है वह जो गेंशा अनुभव करता है और यही उसकी शिकायत है।
यही मेरी भी शिकायत है। तुम्हारे साथ कार्य करते हुए मैं हमेशा एक अवरोध होने का अनुभव करता हूं। या तो तुम्हारी आंखें बंद हैं अथवा तुम्हारे कान बंद हैं अथवा तुम्हारी नाक बंद है अथवा तुम्हारे हृदय में अवरोध है, कहीं-न-कहीं अथवा दूसरी जगह किसी चीज़ की रुकावट है और एक पत्थर जैसी चीज़ आ जाती है। उसे बेधकर प्रवेश करना कठिन है क्योंकि यदि में उसे बहुत अधिक छेदता हूं तो तुम डर जाते हो कि मैं इतनी अधिक दिलचस्पी तुममें क्यों ले रहा हूं? यदि मैं बहुत अधिक प्रयास नहीं करता हूं तो तुम उपेक्षित होने का अनुभव करते हो। यही है वह कि एक अज्ञानी मन किस तरह कार्य करता है। ‘यह’ करो तो वह गलत समझेगा और ‘वह’ करो तब भी वह गलत समझेगा। एक बात निश्चित है कि वह गलत ही समझेगा।
एक दिन गेंशा ने असंतोष प्रकट करते हुए अपने अनुयाइयों से कहा :
दूसरे सद्गुरु हमेशा प्रत्येक व्यक्ति को मुक्त करने की अनिवार्यता के बारे
में पथ-प्रदर्शन करना जारी रखते हैं।
बुद्ध ने कहा है कि जब तुम मुक्त हो जाते हो तो केवल दूसरों को मुक्त करने का ही कार्य करना है। जब तुमने ‘उसे’ प्राप्त कर लिया है तो केवल उसको दूसरों तक प्रसारित करने का ही कार्य करना है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति संघर्ष कर रहा है। प्रत्येक व्यक्ति मार्ग पर ठोकरें खा रहा है, प्रत्येक व्यक्ति जानबूझकर और बिना जाने-बूझे ही गतिशील हो रहा है और तुम उपलब्ध हो गए हो। दूसरों की सहायता करो।
और यह एक आवश्यकता है, ऊर्जाओं की आंतरिक अनिवार्यता भी है क्योंकि एक व्यक्ति जो बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया है, उसे थोड़े से वर्षों तक ही जीवित रहना होगा क्योंकि बुद्धत्व एक भवितव्यता नहीं है, वह एक जड़ता नहीं है, वह कारण और उद्देश्य नहीं है। जब वह घटित हो तो यह अनिवार्य नहीं है कि वह उसी क्षण हो जब शरीर मरता है। इन दो घटनाओं की एक साथ होने की वहां कोई अनिवार्यता नहीं है। वास्तव में यह लगभग असंभव है क्योंकि बुद्धत्व एक अचानक और अकारण होने वाली घटना है। तुम इसके लिए कार्य करते हो लेकिन यह तुम्हारे कार्य के द्वारा कभी घटित नहीं होता है। तुम्हारा कार्य, स्थिति को सृजित करने में सहायता करता है लेकिन यह किसी अन्य चीज़ के द्वारा घटित होता है- उस कुछ अन्य चीज़ को अनुग्रह कहकर पुकारा जाता है। वह तुम्हारे प्रयासों का एक ‘बाईप्रोडक्ट’ अथवा उपाजात न होकर परमात्मा से मिला एक उपहार होता है। तुम्हारे प्रयास उसके कारण नहीं होते। निश्चित रूप से वे एक स्थिति सृजित करते हैं : मैं द्वार खोलता हूं और प्रकाश प्रवेश करता हैं लेकिन प्रकाश सूरज से मिला एक उपहार है। मैं द्वार खोलने के द्वारा प्रकाश सृजित नहीं कर सकता। द्वार का खुलना उसका एक कारण नहीं है। द्वार का न खुलना एक बाधा थी लेकिन द्वार का ख्ुलना एक कारण नहीं है- मैं कारण नहीं हो सकता। यदि मैं द्वार खोलता हूं और वहां रात है तो प्रकाश प्रवेश नहीं करेगा। द्वार के खुलने से प्रकाश सृजित नहीं हो रहा है लेकिन द्वार के बंद होने से तुम अटक जाते हो।
इसलिए वे सभी प्रयास जो तुम आशाओं की पूर्ति और अनुभव को पाने के ओर करते हो, वे केवल द्वार खोलने के लिए हैं। प्रकाश आता है, जब उसे आना होता हैं तुम्हें एक खुले द्वार के साथ बने रहना है, जिससे वह जब कभी भी आता है, जब भी वह तुम्हारा द्वार खटखटाता है, वह वहां तुम्हें पाता है और द्वार खुला है जिससे वह प्रवेश कर सके। वह हमेशा ही एक उपहार है ओर उसे ऐसा होना ही है क्योंकि यदि तुम उस सर्वोच्च उपलब्धि को अपने प्रयासों के द्वारा प्राप्त कर सकते हो, तो वह एक असंगति होगी। एक सीमित मन प्रयास करने से कैसे उस असीम को पा सकता है। एक सीमित मन प्रयास करता है- सभी प्रयास सीमित ही होंगे। सीमित प्रयासों के द्वारा असीम कैसे घटित हो सकता है? अज्ञानी मन प्रयास कर रहा है- वे प्रयास अज्ञान में किए गए हैं, वे कैसे बदल सकते हैं, वे बुद्धत्व में कैसे रूपांतरित हो सकते हैं? नहीं यह संभव नहीं है।
तुम प्रयास करते हो; वे आवश्यक हैं, वे तुम्हें तैयार करते हैं, वे द्वार खोलते हैं- लेकिन घटना तभी घटती है जब उसे घटित होना होता है। तुम उपलब्ध बने रहो। परमात्मा अनेक बार तुम्हारा द्वार खटखटाता है, सूरज प्रतिदिन उदित होता है। स्मरण रहे कि जोकुछ मैं तुमसे कहना चाहता हूं, वह कहीं भी अन्य स्थान पर नहीं कहा गया है, यद्यपि वह एक सहायता होगी। वह नहीं कहा गया है क्योंकि यदि तुम उसे गलत समझते, तो वह एक बाधा बन सकता था। वहां परमात्मा के लिए एक दिन होता है और वहां एक रात भी होती है। यदि तुम रात में द्वार खोलते हो तो द्वार खुला ही रहेगा, लेकिन परमात्मा नहीं आएगा। वहां एक दिन भी है- यदि तुम ठीक क्षण में द्वार खोलते हो, परमात्मा तुरंत आता है।
ऐसा होना ही है, क्योंकि पूरे अस्तित्व के पास विपरीतताएं हैं। परमात्मा का भी आराम में जाने का समय होता है, जब वह सोता है। यदि तुम द्वार खोलते हो, तब वह नहीं आएगा। वहां एक क्षण ऐसा होता है, जब वह जागता है, जब वह गतिशील होता है- ऐसा होना ही है क्योंकि प्रत्येक ऊर्जा दो विरोधों विश्राम और गतिशीलता के द्वारा गतिशील होती है तथा परमात्मा एक अनंत ऊर्जा है। उसके पास गतिशीलता है और उसके पास एक विश्राम भी है। इसी कारण एक सद्गुरु की आवश्यकता होती है।
यदि तुम अपनी ओर से करते हो तो हो सकता है कि तुम कठोर श्रम कर रहे हो और कुछ भी घटित नहीं हो रहा हो क्योंकि तुम ठीक क्षण पर कार्य नहीं कर रहे हो। तुम रात में कार्य कर रहे हो, तुम रात में द्वार खोलते हो और केवल अंधकार प्रवेश करता है। भयभीत होकर तुम उसे फिर बंद कर लेते हो। तुम द्वार खोलते हो और वहां कुछ भी नहीं है बल्कि चारों ओर एक विराट शून्यता है। तुम भयभीत हो जाते हो, तुम फिर उसे बंद कर लेते हो और एक बार तुम वह शून्यता देख लेते हो तो तुम उसे कभी नहीं भूलोगे- तुम इतने अधिक भयभीत हो जाओगे कि तुम्हें उसे खोलने का साहस जुटाने में अनेक वर्ष लगेंगे। ... क्योंकि एक बार जब परमात्मा सोया हुआ है, जब परमात्मा विश्राम में है, तुम वह अनंत अथाह खाई देख लेते हो, यदि तुम अनंत नकारात्मक वह क्षण और अंधकारमय गहन खाई देख लेते हो तो तुम इतने अधिक डर जाओगे कि अनेक वर्षों तक तुम दूसरा प्रयास नहीं करोगे।
मैं अनुभव करता हूं कि लोग भयभीत हैं, वे ध्यान में जाने से भयभीत हैं, मैं जानता हूं कि अपने पिछले जन्म में उन्होंने कहीं कुछ प्रयास किए थे और उन्हें गलत क्षण में उस अनंत खाई की एक झलक मिली थी। वे हो सकता है इसे न जानते हों लेकिन उनके अचेतन में वह वहां है, इसलिए वे जब कभी भी द्वार के निकट आते हैं और वे जब भी अपना हाथ कुंडी पर रखते हैं और द्वार का खुलना संभव हो जाता है, तो वे डर जाते हैं। वे ठीक उसी क्षण में पीछे दौड़ते हुए वापस लौट आते हैं और वे उसे नहीं खोलते। एक अचेतन भय उन्हें जकड़ लेता है। ऐसा होना ही है क्योंकि अनेक जन्मों से तुम संघर्ष करने का प्रयास करते रहे हो।
इसीलिए एक सद्गुरु की आवश्यकता है जिसने उसे प्राप्त किया है और जो ठीक क्षण को जानता है। वह तुम्हें उन सभी प्रयासों को करने के लिए बताएगा, जब परमात्मा की रात होती है और वह तुमसे द्वार खोलने के लिए नहीं कहेगा। वह रात में तुमसे तैयार होने के लिए कहेगा, तुम जितनी अधिक तैयारी कर सकते हो- वह तुम्हें पहले ही से तैयार होने के लिए बताएगा और जब सुबह आती है तथा पहली किरणें अंधकार को भेदकर संसार में प्रविष्ट हो जाती हैं वह तुमसे द्वार खोलने के लिए कहेगा। अचानक सभी कुछ प्रकाशित हो उठता है, तब पूर्ण रूप से सभी कुछ भिन्न हो जाता है क्योंकि जब प्रकाश होता है तो वहां पूर्ण रूप से भिन्नता होती है।
जब परमात्मा जाग जाता है तब वहां शून्यता और खालीपन नहीं होता है। वह एक परिपूर्णता होती है, तब पूर्ण कुशलता से कार्य पूरा हो जाता है। प्रत्येक चीज़ परिपूर्ण होती है, पूर्ण से भी अधिक होती है, वह सदा प्रवाहमान एक पराकाष्ठा होती है। वह खाई नहीं, वह एक शिखर होता है। यदि तुम गलत क्षण में द्वार खोलते हो तो वहां अथाह गहरी खाई होती है। तुम भ्रमित होकर पागल हो उठोगे, वह इतना अधिक पागल कर देने वाली अतल गहराई होती है कि एक साथ अनेक जन्मों तक तुम कभी उसका प्रयास ही नहीं करोगे। लेकिन केवल एक, जो जानता है, वह केवल एक जो परमात्मा के साथ एक हो गया है, केवल वह एक ही यह जानता है कि कब रात है और कब दिन है, वही सहायता कर सकता है क्योंकि अब वे उसके अंदर भी घटित होते हैं- उसके पास एक रात होती है और उसके पास भी एक दिन होता है।
हिंदुओं को इसकी झलक मिली थी और उनके पास एक परिकल्पना है : वे उसे ब्रह्म का दिन अर्थात परमात्मा का दिन कहते हैं। जब वहां सृष्टि हुई थी वे उस क्षण को परमात्मा का दिन कहते हैं लेकिन सृष्टि के पास भी एक समय-सीमा होती है और सृष्टि का संहार हो जाता है तथा वह ब्रह्म की रात होती है। ब्रह्म की भी रात शुरू होती है और ब्रह्म के बारह घंटे के दिन में पूरी सृष्टि होती है। तब थककर, पूर्ण-अस्तित्व, अनस्तित्व में लुप्त हो जाता है। तब बारह घंटे के लिए ब्रह्म की रात होती है। परमात्मा के लिए दिन के जो बारह घंटे हैं वह हमारे लिए लाखों और करोड़ों वर्ष हैं।
ईसाइयों के पास भी एक सिद्धांत अथवा एक कल्पना थी- क्योंकि मैं सभी धार्मिक सिद्धांतों को एक कल्पना कहता हूं क्योंकि उनसे कुछ भी सिद्ध नहीं होता है और चूंकि वस्तु का वास्तविक स्वभाव ही ऐसा है इसलिए कुछ भी सिद्ध नहीं किया जा सकता है। वे लोग कहते हैं कि परमात्मा ने संसार की सृष्टि छह दिनों में की, तब सातवें दिन उसने विश्राम किया। इसीलिए रविवार का दिन विश्राम का दिन एक अवकाश का दिन है। छहः दिनों तक वह सृष्टि करता रहा और सातवें दिन उसने विश्राम किया। उनके पास भी एक झलक थी कि परमात्मा को भी विश्राम करना चाहिए।
यह दोनों कल्पनाएं हैं, दोनों ही सुंदर हैं लेकिन तुम्हें उसके सारभूत तत्व खोजने हैं। सारभूत बात यह है कि प्रतिदिन परमात्मा के पास भी एक रात और एक दिन होता है। प्रत्येक दिन वहां प्रवेश करने का एक ठीक क्षण और एक गलत क्षण होता है। गलत क्षण में तुम दीवार के विरुद्ध खड़े होते हो और ठीक क्षण में तुम सामान्य रूप से प्रवेश कर जाते हो। इसी के कारण वे लोग जिन्होंने गलत क्षण पर द्वार खटखटाया था, कहते हैं कि बुद्धत्व को उपलब्ध होना एक क्रमिक और धीमी चीज़ है, तुम उसे तापमान के बढ़ने के द्वारा प्राप्त करते हो; वे लोग जो द्वार पर ठीक क्षण में आए हैं वे कहते हैं कि बुद्धत्व अचानक एक क्षण में घटित होता है। यह तय करने के लिए एक सद्गुरु की आवश्यकता है कि वह ठीक क्षण कब होता है।
ऐसा कहा जाता है कि जब विवेकानंद के शिष्यत्व का प्रारंभ हुआ तो एक दिन उन्हें पहली झलक मिली। तुम उसे सटोरी कह सकते हो, यह समाधि के लिए ज़ेन का शब्द है क्योंकि यह स्थाई स्थिति न होकर एक झलक होती है। यह ठीक ऐसी होती है जैसे मानो वहां आकाश में बादल न हों, आकाश बहुत साफ और स्पष्ट हो और तब एक हजार मील की दूरी से भी तुम अपने सभी गौरव और शान में खड़े गौरीशंकर शिखर की एक झलक पा सकते हो, लेकिन तभी आकाश बादलों से भर जाए तोझलक फिर खो जाती है। यह उपलब्धि नहीं है, तुम गौरीशंकर पर्वत पर पहुंचे नहीं हो, तुम शिखर पर नहीं पहुंचे हो और हजारों मील दूर से तुम्हें उसकी एक झलक मिली थी- वही सटोरी है। सटोरी, समाधि की एक झलक है।
रामवृफष्ण के आश्रम में वहां अनेक लोग थे, कई लोग वहां कार्य कर रहे थे। एक व्यक्ति, जिसका नाम कालू था, एक बहुत सरल, सामान्य और भोला व्यक्ति था। वह भी वहां अपने ढंग से कार्य कर रहा था और रामवृफष्ण ने प्रत्येक मार्ग को स्वीकार किया था। वह एक अनूठे व्यक्ति थे। उन्होंने प्रत्येक विधि और प्रत्येक तकनीक को स्वीकार किया तथा कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना मार्ग स्वयं खोजना है और वहां कोई भी मार्ग श्रेष्ठतम नहीं है। यह अच्छा है अन्यथा वहां पूरी तरह से यातायात रुक गया होता। इसलिए यह अच्छा है कि तुम स्वयं के मार्ग पर चल सकते हो। वहां अन्य कोई भी व्यक्ति नहीं है जो भीड़ उत्पन्न करे अथवा कोई मुसीबत खड़ी करे।
वह कालू बहुत सीधा सरल व्यक्ति था। उसके पास कम-से-कम सौ देवताओं की मूर्तियां थीं- जैसे कि हिंदू अनेक देवताओं के भक्त होते हैं क्योंकि उनके लिए एक देवता पर्याप्त नहीं है। इसलिए वे अपने पूजा स्थल में इस और उस देवता को अथवा वे जिसकी भी मूर्ति पा सकते हैं, रख लेंगे और यहां तक कि वे देवताओं के चित्र वाले कैलेंडर को भी वहां टांग देंगे। इसमें वहां कुछ भी गलत नहीं है यदि तुम उसे प्रेम करते हो तो वह ठीक है। पर विवेकानंद एक बहुत तीक्ष्ण बुद्धि के तर्कशास्त्री थे। वह हमेशा इस भोले और अज्ञानी व्यक्ति के साथ तर्क करते थे और वह कोई उत्तर नहीं दे सकता था। विवेकानंद कहते-‘‘यह मूर्खता आखिर क्यों? एक ही पर्याप्त है और धर्मग्रंथ भी कहते हैं कि वह एक ही है इसलिए यह एक सौ एक परमात्मा क्यों?’’ और वे सभी तरह की आवृफतियों की मूर्ति थीं; और कालू को कम-से-कम तीन घंटे सुबह और तीन घंटे शाम इन देवताओं के साथ पूजा करने का कार्य करना होता था तथा पूरा दिन बीत जाता था क्योंकि प्रत्येक देवता की मूर्ति के साथ उसे कार्य करना होता था और वह चाहे कितनी भी तेजी से कार्य करे, उसमें तीन घंटे सुबह और तीन घंटे शाम लग जाते थे। लेकिन वह एक बहुत-बहुत शांत और मौन रहने वाला व्यक्ति था तथा रामवृफष्ण उससे प्रेम करते थे।
विवेकानंद हमेशा तर्क करते हुए उससे कहते-‘‘इन सभी देवताओं को पेंफक दो’’। जब उन्हें सटोरी की एक झलक मिली तो उन्होंने बहुत शक्तिशाली होने का अनुभव किया। अचानक उनके अंदर यह विचार आया कि यदि इस शक्ति में वह कालू को जो उस समय अपने कमरे में पूजा कर रहा था, क्योंकि यह उसकी पूजा करने का समय था, यदि सामान्य रूप से यह टेलीपैथिक संदेश भेज देते हैं कि अपने देवताओं की सभी मूर्तियों को ले जाकर गंगा में पेंफक दो, तो वैसा ही घटित होगा। उन्होंने सामान्य रूप से संदेश भेज दिया। कालू वास्तव में एक सीधा-सरल व्यक्ति था। उसने सभी मूर्तियों को एक चादर में इकट्ठा किया और उन्हें गंगा की ओर ले जाने लगा।
रामवृफष्ण गंगा से आ रहे थे और उन्होंने उससे कहा-‘‘रुको यह तू नहीं है जो इन्हें पेंफकने जा रहा है। अपने कमरे में वापस लौटकर जा और इन्हें उनके स्थान पर रख दे।’’ लेकिन कालू ने कहा-‘‘पर्याप्त हो चुका, अब बात ही समाप्त हो गई।’’
रामवृफष्ण ने कहा-‘‘ठहर और मेरे साथ आ।’’
उन्होंने विवेकानंद का द्वार खटखटाया। विवेकानंद ने दरवाजा खोला और रामवृफष्ण ने उनसे कहा-‘‘यह तुमने क्या किया? यह ठीक नहीं है और यह तुम्हारे लिए सही समय नहीं है, इसलिए तुम्हारे ध्यान की वुंफजी मैं ले लूंगा और इसे अपने पास रखूंगा। जब ठीक क्षण आएगा मैं उसे तुम्हें वापस दे दूंगा।’’
और अपने पूरे जीवन-भर विवेकानंद लाखों तरह से उसे प्राप्त करने का प्रयास करते रहे लेकिन वैसी ही झलक वह फिर से न पा सके।
ठीक अपनी मृत्यु से तीन दिन पूर्व रामवृफष्ण उनके स्वप्न में प्रकट हुए और उन्हें वुंफजी देते हुए कहा-‘‘अब तुम इस कंफजी को ले सकते हो और यहां ठीक क्षण आ गया है और तुम द्वार खोल सकते हो।’’
अगले ही दिन सुबह उन्हें दूसरी झलक मिली।
एक सद्गुरु जानता है कि वह ठीक समय कौन-सा है। वह तुम्हारी सहायता करता है, उस ठीक क्षण के लिए तुम्हें तैयार करता है और जब वहां ठीक क्षण आता है, वह तुम्हें कंफजी सौंप देगा। तुम सामान्य रूप से द्वार खोलते हो और परमात्मा प्रवेश करता है- क्योंकि यदि तुम द्वार खोलते हो और अंधकार प्रविष्ट होता है तो वह तुम्हें जीवन के समान नहीं, मृत्यु के समान प्रतीत होगा। इसमें गलत कुछ भी नहीं है लेकिन तुम भयभीत हो जाओगे और तुम इतने अधिक भयभीत हो सकते हो कि हो सकता है तुम उसे हमेशा-हमेशा के लिए साथ लेकर चलो।
बुद्ध कहते हैं कि तुम जब कभी भी उपलब्ध होते हो तो दूसरों की सहायता करना शुरू कर दो, क्योंकि तुम्हारी सारी ऊर्जाएं जो कामना में गतिशील हो रही थी- अब वह द्वार व्यर्थ हो गया, अब और अधिक यात्रा ही न रही, लड़खड़ा कर चलने वाली वह यात्रा अब और नहीं रही, अब उन सभी ऊर्जाओं को जो वासना या कामना करने में गतिशील हो रही थीं, अब उन्हें करुणा बनने दो और वहां केवल एक ही करुणा है, उसे सर्वोच्च को पाने में दूसरों की कैसे सहायता की जाए क्योंकि वहां कुछ भी अन्य प्राप्त करने जैसा नहीं है। अन्य सभी कुछ कूड़ा-करकट है। केवल परमात्मा ही प्राप्त करने योग्य है। यदि तुमने उसे पा लिया तो तुमने सभी कुछ पा लिया और यदि तुम उससे चूक गए तो तुमने सभी कुछ खो दिया।
जब कोई एक बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तो उसका शरीर अपना चक्र पूरा करे वह उससे पूर्व थोड़े से वर्षों के लिए जीता है। बुद्ध अपने बुद्धत्व के बाद चालीस वर्षों तक जीवित रहे क्योंकि शरीर को अपने पिछले जन्मों के कार्यों से एक जीवन-चक्र मिला था, शरीर को माता-पिता से कोशिकाओं और तंतुओं का एक समूह अर्थात ‘क्रोमोसोम’ मिला था। बुद्धत्व अथवा बिना बुद्धत्व के उन्हें अस्सी वर्ष तक जीना ही था। यदि बुद्धत्व संभव हुआ अथवा यदि वह घटित हुआ, तब भी उन्हें अस्सी वर्ष तक जीना था। जब वह लगभग चालीस वर्ष के थे, वह तब घटित हुआ और वह चालीस वर्षों तक और जीवित रहे। अब उन ऊर्जाओं के साथ क्या किया जाए? अब वहां न कोई कामना है और न कोई आकांक्षा। तुम्हारे पास अनंत ऊर्जाएं प्रवाहित हो रही हैं। इन ऊर्जाओं के साथ क्या किया जाए? वे करुणा की ओर गतिशील हो सकती हैं। अब वहां ध्यान करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है, तुमने उसे प्राप्त कर लिया है, तुम अतिरेक से बाढ़ की तरह प्रवाहित हो रहे हो। अब तुम उसे दे सकते हो, अब तुम उसमें लाखों को सहभागी बना सकते हो।
इसीलिए बुद्ध ने उसे अपनी मूल सिखावन का एक भाग बना लिया हैं वह पहले भाग को ध्यान कहते हैं और दूसरे भाग को ‘प्रज्ञा’, ज्ञान अथवा उपलब्धि कहते हैं। ध्यान के द्वारा तुम प्रज्ञा तक पहुंचते हो। यह तुम्हारी अंतरस्थ की घटना है, जिसके दो भाग हैं : तुमने ध्यान किया और अब तुमने वह प्राप्त कर लिया है। अब बाहर के साथ उसे संतुलित करना है- क्योंकि एक बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति हमेशा संतुलित होता है। बाहर, जब वहां कोई भी ध्यान नहीं था और अंदर वहां कामना थी। अब अंदर वहां प्रज्ञा है, वहां करुणा होना ही चाहिए। बाहर की ऊर्जाओं को करुणा बन जाना चाहिए क्योंकि अंतरस्थ की ऊर्जा प्रज्ञा और बोध बन गई है। अंदर बुद्धत्व और बाहर करुणा। एक पूर्ण मनुष्य सदा संतुलित रहता है। इसीलिए बुद्ध कहे चले जाते हैं कि दूसरे लोगों को मुक्त करने में उनकी सहायता करो।
गेंशा ने असंतोष व्यक्त करते हुए कहा-‘‘यदि तुम किसी ऐसे व्यक्ति के पास आते हो जो बहरा, गूंगा और अंधा है तो तुम क्या करोगे? और तुम सदा लगभग ऐसे ही लोगों के मध्य से गुजरते हो क्योंकि वहां केवल वैसे ही लोग हैं। तुम एक बुद्ध के मध्य से होकर गुजरते हो और एक बुद्ध को तुम्हारी आवश्यकता भी नहीं है। तुम ऐसे अज्ञानी व्यक्ति के मध्य से होकर गुजरते हो जो नहीं जानता कि उसे क्या करना है जो नहीं जानता है कि उसे कहां जाना है। उसकी कैसे सहायता करोगे?’’
इन शब्दों से व्याकुल होकर, गेंशा के शिष्यों में से एक शिष्य
परामर्श लेने सद्गुरु उम्मोन के पास गया।
उम्मोन भी गेंशा का एक बंधु था- वे दोनों एक ही सद्गुरु सेप्पो के शिष्य थे। इसलिए क्या किया जाए? गेंशा ने इस व्यक्ति से एक ऐसी कठिनाई से भरी बात कह दी थी कि लोगों की फिर कैसे सहायता की जाए? वह उम्मोन के पास गया।
उम्मोन एक बहुत प्रसिद्ध सद्गुरु था। गेंशा बहुत अधिक मौन बना रहता था। लेकिन उम्मोन के पास हजारों शिष्य थे और उसके पास उन लोगों के साथ कार्य करने की अनेक विधियां और युक्तियां थीं। वह गुरु जिएफ के समान एक व्यक्ति था- जो उनके लिए स्थितियां सृजित करता क्योंकि केवल विशिष्ट स्थितियां ही सहायता कर सकती हैं। यद्यपि शब्द सहायता नहीं कर सकते, क्योंकि तुम गूंगे हो तुम बहरे हो- फिर शब्द सहायता नहीं कर सकते। यदि तुम अंधे हो तो हाव-भाव, संकेत और चेष्टाएं भी व्यर्थ हैं। तब क्या किया जाए? केवल सृजित की गईं स्थितियां ही सहायता कर सकती हैं।
यदि तुम अंधे हो तो केवल हाव-भाव और संकेतों के द्वारा तुम्हें दरवाजा नहीं दिखलाया जा सकता क्योंकि तुम उसे नहीं देख सकते। मैं तुम्हें द्वार के बारे में बतला भी नहीं सकता क्योंकि तुम बहरे हो और तुम सुन नहीं सकते। वास्तव में तुम प्रश्न भी नहीं पूछ सकते कि द्वार कहां है? क्योंकि तुम गूंगे हो। क्या किया जाए। मुझे एक स्थिति सृजित करनी होगी।
मैं तुम्हारा हाथ पकड़ सकता हूं, मैं अपने हाथ के द्वारा तुम्हें द्वार की ओर ले जा सकता हूं। न कोई संकेत, न कोई हाव-भाव और न कोई भी शब्द। मुझे कुछ कार्य करना होगा। मुझे एक स्थिति सृजित करनी होगी जिसमें गूंगे, बहरे और अंधे भी गतिशील हो सकते हैं।
इन शब्दों से व्याकुल होकर, गेंशा के शिष्यों में से एक शिष्य
परामर्श लेने सद्गुरु उम्मोन के पास गया।
... क्योंकि वह भली भांति जानता था कि सद्गुरु गेंशा कुछ और अधिक नहीं कहेंगे, वह एक ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो अनेक शब्दों का प्रयोग करें और उन्होंने कभी भी कोई स्थिति भी सृजित नहीं की है। वह केवल कुछ बात कह देते और फिर मौन में चले जाते। उनके कहने का क्या अर्थ था, इसे पूछने लोगों को दूसरे सद्गुरुओं के पास जाना ही होता। यह एक अलग तरह के अधिकतर मौन में रहने वाले महर्षि रमण जैसे व्यक्ति थे, जो अधिक नहीं बोलते थे। उम्मोन, गुरु जिएफ के समान था। वह भी बहुत अधिक बोलने वाला व्यक्ति न था लेकिन वह स्थितियां सृजित करता और स्थितियां सृजित करने के लिए ही शब्दों को प्रयोग करता।
वह परामर्श लेने सद्गुरु उम्मोन के पास गया
जो गेंशा के समान ही सेप्पो का शिष्य था।
और सेप्पो दोनों से पूर्ण रूप से भिन्न था। यह कहा जाता है कि वह कभी बोला ही नहीं। वह पूर्ण रूप से मौन ही बना रहा। इसलिए उसके लिए वहां कोई भी समस्या नहीं थी- वह कभी भी एक गूंगे, बहरे और अंधे व्यक्ति के मध्य से होकर नहीं गुजरा, क्योंकि वह कभी कहीं गया ही नहीं। केवल वे ही लोग जो खोज में थे, केवल वे ही लोग जिनकी आंखें थोड़ी-सी खुली हुई थीं, केवल वे ही लोग जो बहरे थे लेकिन यदि तुम जोर से बोलो वे कुछ बात सुन सकते थे...  इसी कारण अनेक लोग सेप्पो के निकट बुद्धत्व को उपलब्ध हुए क्योंकि केवल वे ही लोग उसके पास पहुंचे, जो उस पार की सीमा रेखा के निकट अथवा केवल कगार पर खड़े हुए थे।
ये उम्मोन और गेंशा दो शिष्य, सेप्पो के साथ जो एक पूर्ण रूप से मौन रहने वाला सद्गुरु था, बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। सेप्पो पूरी तरह से बस बैठा ही रहता और कुछ भी न करता। यदि तुम सीखना चाहते थे तो उसके साथ बने रह सकते थे और यदि तुम नहीं चाहते थे तो तुम जा सकते थे। वह कुछ भी न कहता। सीखना तुम्हें था, वह कुछ भी न सिखाता। वह एक शिक्षक नहीं था लेकिन अनेक लोगों ने सीखा।
वह शिष्य उम्मोन के पास गया।
उम्मोन ने कहा-‘‘वृफप्या सिर नीचे झुकाकर प्रणाम करो।’’
उसने तुरंत कार्य करना प्रारंभ कर दिया क्योंकि जो लोग बुद्धत्व को उपलब्ध होते हैं, वे व्यर्थ ही समय नष्ट नहीं करते, वे तुरंत पूरी तरह से उस स्थिति पर छलांग लगाते हैं। ... चूंकि यह कोई तरीका नहीं है। तुम किसी व्यक्ति को नीचे झुककर प्रणाम करने का आदेश नहीं दे सकते। इस बारे में इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है- यदि कोई व्यक्ति नीचे झुकना चाहता है तो वह झुककर प्रणाम करेगा। यदि वह तुम्हें सम्मान देना चाहता है तो वह सम्मान देगा। यदि नहीं तो सम्मान नहीं देगा। यह उम्मोन किस तरह का व्यक्ति है? वह कहता है-‘‘वृफप्या नीचे झुककर प्रणाम करो।’’ उसने केवल उसके कक्ष में प्रवेश ही किया था और इससे पूर्व कि वह भिक्षु कोई भी बात पूछता और उम्मोन कहता है-‘‘वृफप्या नीचे झुककर प्रणाम करो।’’
यद्यपि भिक्षु को आश्चर्य हुआ, पर उसने सद्गुरु के आदेश का पालन किया- तब पूछे गए प्रश्न का उत्तर पाने की आशा में, वह सीधा खड़ा हो गया। लेकिन उत्तर देने के स्थान पर उसने अपना डंडा उठाया और उसने जोर से उस पर प्रहार किया। वह उछलकर पीछे जा गिरा। उम्मोन ने कहा-‘‘ठीक है, तो तुम अंधे नहीं हो। अब मेरे निकट आओ।’’
उसने कहा-‘‘तुम मेरे डंडे को देख सकते हो, इसलिए एक बात तो निश्चित है कि तुम अंधे नहीं हो। अब मेरे निकट आओ।
भिक्षु ने वैसा ही किया, जैसी कि उसे आज्ञा दी गई थी।
उम्मोन ने कहा-‘‘तुमने ठीक वैसा ही व्यवहार किया।
इसलिए तुम बहरे भी नहीं हो। ठीक, समझ गए?
भिक्षु ने कहा-‘‘श्रीमान! समझना कैसा?
उम्मोन ने कहा-‘‘ओह! तो तुम गूंगे भी नहीं हो।’’
उन शब्दों को सुनकर वह भिक्षु
जैसे एक गहरी नींद से जाग गया।
हुआ क्या? उम्मोन किस ओर संकेत कर रहा है? पहली बात, वह यह कह रहा है कि यदि वह तुम्हारे लिए एक समस्या नहीं है तो फिक्र क्यों करते हो?
इस बारे में ऐसे लोग हैं, जो मेरे पास आते हैं...
भारत के समृद्धत्म लोगों में से एक बहुत धनी व्यक्ति मेरे पास आए और उन्होंने कहा-‘‘गरीब लोगों के बारे में क्या किया जाए, आप ऐसे गरीब लोगों की सहायता किस प्रकार करेंगे?’’ मैंने उनसे कहा-‘‘यदि आप एक गरीब हैं तभी पूछिए अन्यथा किसी गरीब व्यक्ति को ही इसे पूछने दें। आपके लिए यह समस्या किस तरह से है? आप तो गरीब नहीं हैं इसलिए इससे क्यों एक समस्या उत्पन्न करते हो?’’
एक बार मुल्ला नसरुद्दीन के लड़के ने उससे पूछा, मैं उस समय वहां मौजूद था और वह बच्चा अपने होमवर्क के कार्य को बहुत हठपूर्वक तथा वास्तव में खीजते हुए कर रहा था और तभी अचानक उसने नसरुद्दीन की ओर देखा और कहा-‘‘पापा! यह शिक्षा सामग्री भी कैसी है। किसी भी तरह से इस शिक्षा प्रणाली के कूड़े-करकट का उपयोग क्या है?’’
नसरुद्दीन ने कहा-‘‘ठीक है, वहां शिक्षा जैसा कुछ भी नहीं है, वह तुम्हें सिवाय तुम्हारे संसार में अन्य प्रत्येक व्यक्ति के बारे में चिंता करने में समर्थ बनाती है।
वहां शिक्षा जैसी कोई भी चीज़ नहीं है। तुम्हारी पूरी शिक्षा तुम्हें सामान्य रूप से प्रत्येक स्थान की स्थितियों के बारे में सिवाय तुम्हारे प्रत्येक व्यक्ति के बारे में और संसार में होने वाली सभी कठिनाइयों के बारे में फिक्र करने में समर्थ बनाती है। वे वहां हमेशा बनी रहीं हैं और वे वहां हमेशा बनी रहेंगी। इसलिए नहीं, क्योंकि तुम यहां हो और वे कठिनाइयां वहां हैं। तुम नहीं थे, वे तब भी वहां थी, शीघ्र ही तुम नहीं रहोगे और वे वहां बनी ही रहेंगी। वे अपनी आवृफति बदल लेती हैं लेकिन वे बनी रहती हैं। इस विश्व की वास्तविक योजना ही ऐसी है कि ऐसा प्रतीत होता है कि दुखों और कठिनाइयों के द्वारा ही कुछ चीज़ विकसित हो रही है। वह एक तरह से प्रशिक्षित और अनुशासित होने के लिए उठाया गया एक आवश्यक कदम प्रतीत होता है।
उम्मोन जिस पहली बात की ओर संकेत कर रहा है, वह है कि तुम न तो अंधे हो, न गूंगे हो और न बहरे हो, इसलिए तुम्हारा उससे क्या संबंध है और तुम क्यों कठिनाई में हो? तुम्हारे पास आंखें हैं- फिर अंधे व्यक्तियों के बारे में सोचकर क्यों व्यर्थ समय नष्ट करते हो? अपने सद्गुरु की ओर क्यों नहीं देखते?-क्योंकि अंधे व्यक्ति वहां हमेशा बने रहेंगे और तुम्हारा सद्गुरु वहां हमेशा नहीं रहेगा और तुम अंधे तथा बहरे लोगों के बारे में सोचकर परेशान हो सकते हो कि कैसे उन्हें मुक्त किया जाए लेकिन वह व्यक्ति जो तुम्हें मुक्त कर सकता है, हमेशा के लिए नहीं बना रहेगा। इसलिए तुम स्वयं अपने बारे में रुचि लो।
मेरा अनुभव भी है कि लोग दूसरे लोगों के बारे में अधिक रुचि रखते हैं। एक बार एक व्यक्ति मेरे पास ठीक एक ऐसा ही प्रश्न लेकर आया। उसने कहा-‘‘हम लोग तो आपको सुन सकते हैं लेकिन उन लोगों के बारे में क्या किया जाए जो आपको सुनने नहीं आ सकते? हम लोग आपको पढ़ सकते हैं लेकिन उन लोगों के बारे में क्या किया जाए जो आपको नहीं पढ़ सकते।’’
वे लोग तर्कसंगत प्रतीत होते हैं लेकिन वे लोग पूर्ण रूप से अप्र्रासंगिक हैं। इस कारण से तुम क्यों परेशान और चिंतित हो। और यदि तुम इस ढंग से परेशान हो तो तुम कभी भी बुद्धत्व को उपलब्ध न हो सकोगे, क्योंकि एक व्यक्ति जो दूसरों पर अपनी ऊर्जा का अपव्यय कर उसे व्यर्थ ही नष्ट किए चले जाता है, वह कभी भी स्वयं अपनी ओर नहीं देखता है। यह स्वयं से बचने अथवा पलायन करने का उसके मन का एक छल और कपट है- तुम दूसरों के बारे में सोचे चले जाते हो और तुम्हें बहुत अच्छा-अच्छा महसूस होता है क्योंकि तुम दूसरों के बारे में फिक्र कर रहे हो। तुम एक महान समाज सुधारक अथवा एक क्रांतिकारी अथवा एक आदर्श व्यवस्था को सोचने वाले एक विचारक अथवा समाज के एक महान सेवक हो- लेकिन तुम कर क्या रहे हो? तुम पूरी तरह से मूल प्रश्न को टालकर उससे बच रहे हो, वह कुछ ऐसी चीज़ है जो तुम्हारे साथ ही की जानी है।
पूरे समाज के बारे में भूल जाओ और केवल तभी तुम्हारे लिए कुछ किया जा सकता है और जब तुम मुक्त हो जाते हो, तुम दूसरों को मुक्त करना प्रारंभ कर सकते हो। लेकिन उससे पूर्व वृफप्या कुछ सोचो ही मत- वह असंभव है। जब तक तुम रोगमुक्त न हो जाओ, उससे पूर्व तुम किसी भी व्यक्ति का उपचार नहीं कर सकते। जब तक तुम स्वयं प्रकाश से न भर जाओ, तुम किसी भी व्यक्ति के उसके अपने हृदय में ज्योति नहीं जला सकते- यह असंभव है- केवल एक जलती हुई ज्योति ही किसी व्यक्ति की सहायता कर सकती हैं पहले एक जलती हुई ज्योति बनो- यह है पहला संकेत।
और दूसरा संकेत है कि उम्मोन ने एक स्थिति सृजित की। वह इस बात को कह भी सकता था लेकिन वह उसे नहीं कह रहा है, वह एक स्थिति सृजित कर रहा है क्योंकि उस स्थिति में ही तुम पूर्ण रूप से संयुक्त हो। यदि मैं कोई बात कहता हूं तो केवल उसमें बुद्धि ही संयुक्त होती है। तुम मस्तिष्क से सुनते हो, लेकिन तुम्हारे पैर, तुम्हारा हृदय, तुम्हारे गुर्दे, तुम्हारा जिगर और तुम्हारी समग्रता उसमें संयुक्त नहीं होती है। लेकिन जब भिक्षु पर डंडे से प्रहार किया गया, वह समग्रता से उछला। तब वह एक पूर्ण कार्य था, तब न केवल सिर और पैर, उसके गुर्दे, जिगर बल्कि उसका पूरा अस्तित्व उछला।
यही पूरा अभिप्राय मेरी ध्यान की विधियों का भी है, तुम्हारे संपूर्ण अस्तित्व को हिलना, उछलना और कूदना है, तुम्हारे पूर्ण अस्तित्व को ही नृत्य करते हुए गतिशील होना है। यदि तुम आंखें बंद कर सामान्य रूप से बैठ जाते हो, तो केवल तुम्हारा सिर ही उसमें संयुक्त होता है और तुम सिर के अंदर कुछ-न-कुछ किए चले जाते हो। इस बारे में अनेक लोग हैं जो केवल आंखें बंद कर वर्षों से बैठे हुए एक मंत्र को दोहराए चले जाते हैं। लेकिन एक मंत्र मस्तिष्क में ही घूमता रहता है और तुम्हारी समग्रता उसमें संयुक्त नहीं होती- और तुम्हारी समग्रता अस्तित्व में संयुक्त होती है। तुम्हारा मस्तिष्क उतना ही अधिक परमात्मा में होता है, जितना कि गुर्दे, जिगर और पैर। तुम समग्र रूप से उसमें ही होते हो और केवल मस्तिष्क इसे अनुभव नहीं कर सकता।
तीव्रता से सक्रिय कोई भी चीज़ सहायक होगी। निष्क्रिय होकर, मन के अंदर तुम केवल असंबद्ध बातें किए चले जाते हो; और उनका कोई भी अंत नहीं होता, सपनों और विचारों का कोई अंत ही नहीं है। वे अनंत समय तक चलते चले जाते है।
कबीर ने कहा है-‘‘संसार में वहां दो असीमताएं हैं- एक है अज्ञान और दूसरा है परमात्मा। ये दो चीज़ें अंतहीन हैं- परमात्मा अंतहीन है और अज्ञान भी। तुम एक मंत्र दोहराए चले जा सकते हो लेकिन वह तब तक सहायता न करेगा, जब तक तुम्हारा पूरा जीवन ही एक मंत्र न बन जाए, जब तक तुम उसमें पूर्ण रूप से संयुक्त न हो जाओ, कहीं कोई रुकना न हो और न विभाजन हो। यही था वह जो उम्मोन ने किया। भिक्षु पर डंडे का एक जोरदार प्रहार हुआ।
वह उछलकर पीछे जा गिरा
उम्मोन ने कहा-‘‘ठीक है, तो तुम अंधे नहीं हो।
अब मेरे निकट आओ।’’
भिक्षु ने वैसा ही किया, जैसी कि उसे आज्ञा दी गई थी।
उम्मोन ने कहा-‘‘ठीक है, तो तुम बहरे भी नहीं हो।’’
वह किस ओर संकेत कर रहा है? वह इस ओर संकेत कर रहा है-‘‘तुम समझ सकते हो, इसलिए क्यों व्यर्थ ही समय नष्ट कर रहे हो।’’ तब वह पूछता है-‘‘ठीक है, तो समझ गए?’’ उम्मोन ने बात समाप्त कर दी। स्थिति पूरी हो गई। लेकिन शिष्य अभी तैयार न था, वह अभी भी उसका अभिप्राय समझ नहीं पाया। उसने कहा-‘‘श्रीमान! समझना कैसा?’’ अब वहां पूरी चीज़ थी। उम्मोन को जोकुछ भी कहना था, उसने कह दिया था। उसने एक ऐसी स्थिति सृजित की थी, जहां विचार नहीं थे : जब कोई व्यक्ति डंडे से तुम पर आघात करता है, तुम बिना किसी विचार के उछल पड़ते हो अथवा कूद पड़ते हो। यदि तुम सोचते हो तोकूद नहीं सकते, क्योंकि जब तुम यह निर्णय लेते हो कि तुम्हें कूदना अथवा उछलना है, डंडा तुम पर प्रहार कर देगा। वहां कोई भी समय है ही नहीं।
मन को समय की आवश्यकता होती है। सोचने के लिए भी समय की आवश्यकता होती है। जब कोई व्यक्ति डंडे से तुम पर आघात करता है अथवा अचानक तुम रास्ते पर एक सांप पाते हो, तुम उछलकर दूर हट जाते हो। तुम उस बारे में सोचते नहीं, तुम तर्क-वितर्क करते हुए कोई निर्णय नहीं लेते, तुम यह नहीं कहते-‘‘यहां एक सांप है, एक सांप खतरनाक होता है और उससे मृत्यु भी संभव है, मुझे कूदकर दूर हट जाना चाहिए। तुम वहां अरस्तू के तर्क का अनुसरण नहीं करते। तुम पूरी तरह अरस्तू आदि सभी को एक किनारे अलग रख देते हो- और तुम कूद जाते हो। यह फिक्र नहीं करते कि अरस्तू क्या कहता है, तुम अतर्कपूर्ण हो जाते हो लेकिन जब कभी तुम अतर्कपूर्ण होते हो, तुम पूर्ण होते हो।
यही वह बात है जो उम्मोन ने कही है। तुम पूर्ण रूप से कूद जाते हो। यदि तुम पूर्ण रूप से कूद सकते हो, तो पूर्ण रूप से अथवा समग्रता से ध्यान क्यों नहीं कर सकते? जब एक डंडा तुम पर प्रहार करता है, तुम संसार के बारे में फिक्र किए बिना कूद पड़ते हो। तुम यह नहीं पूछते-‘‘यह तो ठीक है, लेकिन एक अंधे के बारे में क्या होगा? जब एक डंडा तुम पर प्रहार करता है तो वह एक अंधे व्यक्ति की कैसे सहायता करेगा? तुम तब प्रश्न नहीं पूछते- तुम पूरी तरह से कूदकर अपने को बचा लेते हो। उस क्षण में पूरा संसार लुप्त हो जाता है, समस्या केवल तुम ही हो और समस्या वहां है- तुम्हीं को उसे हल करना है और उससे निकलकर बाहर आना है।
‘‘समझे?’’
यह वही है जो उम्मोन ने पूछा था। संकेत पूरा और स्पष्ट था।
भिक्षु ने कहा-‘‘श्रीमान! समझना कैसा?’’
उसने उस संकेत को अभी तक ग्रहण नहीं किया।
‘‘ओह! तुम तो गूंगे भी नहीं हो- तुम बोल भी सकते हो।
इन शब्दों को सुनकर वह भिक्षु, जैसे एक गहरी नींद से जाग गया।
एक पूरी स्थिति- अमौखिक, अतर्कपूर्ण और अपने आप में पूर्ण। जैसे मानो किसी व्यक्ति ने उसे हिला दिया हो और उसकी नींद से उसे बाहर ले आया हो। एक क्षण के लिए वह जागा और प्रत्येक चीज़ स्पष्ट हो गईं एक क्षण के लिए वहां विद्युत जैसी कौंध हुई और वहां कोई भी अंधकार न था। सटोरी घटित हो गई। अब वहां उसका स्वाद है। अब शिष्य उस स्वाद का अनुसरण कर सकता है। अब वह जान गया है। वह उसे कभी भी भूल नहीं सकता।
अब खोज पूर्ण रूप से भिन्न होगी। इससे पूर्व वह खोज किसी अज्ञात चीज़ के लिए थी- और तुम एक अज्ञात के लिए खोज कैसे कर सकते हो? उसके लिए तुम अपने पूरे जीवन की प्रतिष्ठा कैसे गिरा सकते हो? लेकिन अब वह पूर्ण होगा, अब वह कुछ चीज़ अनजानी जैसी नहीं है, उसको उसकी एक झलक दी जा चुकी है। उसने सागर का स्वाद ले लिया है, हो सकता है एक प्याले भर जल से लिया हो, पर स्वाद समान है। अब वह जानता है। वह वास्तव में एक बहुत छोटा-सा अनुभव था- एक खिड़की खुली थी लेकिन वहां पूरा आकाश मौजूद था। अब वह घर से बाहर आकर गतिशील हो सकता है। वह बाहर खुले आकाश के नीचे आ सकता है और उसमें जी सकता है। अब वह जानता है कि प्रश्न वैयक्तिक है।
उसे सामाजिक मत बनाओ। तुम ही प्रश्न हो और जब मैं तुमसे यह कहता हूं तो मेरा अर्थ ‘तुम’ हो, प्रत्येक व्यक्ति है, वह तुम जो एक समूह की भांति नहीं है, वह तुम जो एक समाज की भांति नहीं है। जब मेरा अर्थ तुमसे है तो पूरी तरह से मेरा अर्थ तुम हो, वैयक्तिक रूप से तुम ही- और मन की चालबाजी है जो उसे सामाजिक बना देता है। मन दूसरों के बारे में फिक्र करना चाहता है- तब वहां कोई भी समस्या नहीं है। तुम अपनी निजी समस्या को स्थगित कर सकते हो और कैसे जन्म-जन्मों से तुम उसे व्यर्थ नष्ट करते रहे हो। अब उसे और अधिक नष्ट मत करो।
मैं इन वार्ताओं द्वारा तुम पर चोट करता रहता हूं, जो उम्मोन की अपेक्षा उसके बराबर अथवा कहीं अधिक सूक्ष्म थीं, लेकिन यदि तुम मुझे नहीं सुनते हो तो हो सकता है मुझे स्थूल चीज़ें खोजनी हों।
दूसरों के बारे में मत सोचो। पहले अपनी समस्या का समाधान करो, तब तुम्हारे पास स्पष्टता होगी, जिससे तुम दूसरों की भी सहायता कर सको।
और तब तक कोई भी व्यक्ति सहायता नहीं कर सकता, जब तक वह स्वयं बुद्धत्व को उपलब्ध न हो जाए

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें