दूसरा प्रवचन
असंग-भाव की साधना
प्रश्नः
असंग रहने के लिए आपने कहा--इसे जरा विस्तार से समझाएं। जो काम पर काम करते हुए काम का नुकसान होता हो, गलत होता हो या कोई काम न करता हो, कोई काम ठीक समय पर न देता हो और उससे नुकसान या वायदाखिलाफी होती हो, ऐसे लोगों पर शंका जाती है। उस समय कैसे रहना चाहिए? असंग का अर्थ तो मैं यही समझा हूं कि उस काम से या तो खामोशी, मौन कर लिया जाए या कुछ कहा ही न जाए।दूसरा हैः ध्यान में बैठने में मन में यह भाव आता रहता है कि सजग, मौन होना है। क्या यह भाव आना चाहिए या नहीं? न आने के दूसरे विचार कभी-कभी आ जाते हैं।
तीसराः कुछ विचार ऐसे आते हैं जो दूसरों के नहीं--जैसे अपने काम के संबंध में ही होते हैं कि ऐसा होना चाहिए तो ठीक रहेगा, अथवा फलां का काम कैसे ठीक हो सकता है।
चौथाः क्या जितनी देर ध्यान में बैठना है उसमें हर समय लंबी श्वास छोड़नी चाहिए अथवा नेचरल जैसे चलती है चलने देना चाहिए।
मैं हर रोज सुबह लगभग तीन घंटे बैठता हूं। एक घंटा बैठ कर, एक घंटा लेट कर, एक घंटा सिद्धासन से। इसमें काफी टाइम बिना विचार के जाता है, पर विचार सर्वथा नहीं जाता है। जरा सजगता से चूकता हूं तो विचार आ जाता है। प्रयत्न यही रहता है कि सजग, मौन रहूं। आप तो पारदर्शी हैं, दूसरे की आत्मा को जानते हैं, बातें भी कर लेते हैं--जैसे गांधी जी की आत्मा से। क्या मेरी आत्मा से ध्यान पर, उसे कोई डायरेक्शन पहले से दे सकते हैं।
एक जगह आपने कहा है कि मौन में भी बात हो सकती है, वह कैसे?
असंग का यह अर्थ नहीं है। असंग का यह अर्थ नहीं है कि या तो चुप हो जाएं और जो होता है उसे होने दें। असंग का अर्थ यह है कि करते हुए अलग रहें। असंग का यह अर्थ है। जैसे कि उसको कहा भी जाए, जो उचित है वह कहा भी जाए, जो उचित है वह किया भी जाए और भीतर से पूरे समय यह जानें कि मैं अलग हूं। यह सब नाटक हो रहा है, यह अभिनय हो रहा है।
असंग का मतलब है, अभिनय की अवस्था। बाहर जो हो रहा है, उसका अभिनय से ज्यादा मूल्य नहीं है। उसके लिए मुझे भीतर पीड़ित होने, चिंतित होने, दुखी होने, या तनाव से भरने का कोई कारण नहीं है। बाहर एक अभिनय हो रहा है।
जैसे राम का पार्ट कर रहा है एक आदमी रामलीला में, सीता चोरी चली गई है, वह रो रहा है, छाती पीट रहा है...
प्रश्नः यह इतनी जल्दी तो आएगा नहीं।
न, जल्दी तो नहीं आएगा, लेकिन अभी तक...
प्रश्नः यह अपने दिमाग में आ जाए कि यह सब अभिनय हो रहा है--यदि आ जाए--तो आते-आते शायद...
हां, आते-आते आएगा। तो उसको तो ध्यान रखेंगे तो ही आएगा। पर असंग का मतलब यह नहीं है कि आप कुछ न करें। कुछ न करें तो आप टूट गए। असंग का मतलब है, करते हुए पृथकता का भाव। तो उसका एक रूप यह हुआ कि अभिनय का भाव, जो हम कर रहे हैं वह अभिनय से ज्यादा मूल्य का नहीं। और जब यह भाव गहरा होता चला जाएगा कि अभिनय है सिर्फ, तो हो गया, इसके बाद खतम हो गया, हमें कुछ उससे कुछ कारण भी नहीं रहा। एक ने कुछ गलती की, हमने उससे कह भी दिया कि यह गलती है, उसे समझा भी दिया। और हम बाहर हो गए उसके। क्योंकि हम बाहर थे ही पूरे वक्त, कहते समय भी बाहर थे।
तो इसका मतलब यह हुआ कि अपने भीतर एक ऐसा बिंदु खोजना है जो सदा बाहर रहे, असंग का मतलब यह हुआ। अपने भीतर एक ऐसी भावदशा खोजनी है जो हर स्थिति में बाहर है। आप चल रहे हैं, वह नहीं चल रही। आप बोल रहे हैं, वह नहीं बोल रही। आप काम कर रहे हैं, वह नहीं काम कर रही। तो इसको तो धीरे-धीरे... और ध्यान का ही विकास है वह। जैसे आप चल रहे हैं, तो चलते वक्त यह जानिए कि चल तो शरीर रहा है, मैं तो कहां चल रहा हूं! मैं चल ही कैसे सकता हूं? न आत्मा के पैर हैं, न आत्मा की गति है, चलूंगा कैसे? तो मैं तो हूं और शरीर चल रहा है।
अब हम बोल रहे हैं, तो बोल तो ओंठ से रहे हैं, गले से बोल रहे हैं। आत्मा के पास न गला है, न ओंठ हैं। तो बोल तो हम ओंठ से ही रहे हैं, आत्मा तो चुप बैठी है।
सुन रहे हैं आप, तो सुन तो यह कान और शरीर रहा है, आत्मा तो दूर खड़ी है।
इसको हर क्रिया में ध्यान रखें, साधारण क्रिया में। खाना खा रहे हैं, शरीर खाना खा रहा है, आत्मा तो निरंतर मौन है, निरंतर उपवास चल रहा है। वहां तो निरंतर उपवास चल रहा है, वहां तो कभी खाना खाया ही नहीं गया। तो हर छोटी-छोटी क्रिया में इसका ध्यान रखें कि मैं पृथक हूं।
यह जो पृथक-भाव है, भिन्न-भाव है, कि मैं दूर और अलग खड़ा हूं। तो एक नया बिंदु भीतर विकसित हो जाता है चेतना का। और तब आप दोहरे काम देखेंगे।
जैसे एक आदमी ने कुछ गलती की और आप उसे समझा रहे हैं। तो अभी क्या होता है कि आप समझाने वाले ही हो जाते हैं। दो रह जाते हैंः जिसको समझा रहे हैं वह और आप। तब तीन हो जाएंगेः जिसको समझा रहे हैं वह, आपका शरीर, आपका मन जो समझा रहा है और आप जो इन दोनों घटनाओं को देख रहे हैं, देख रहे हैं कि...
तो उसी की दिशा में मेहनत करने का नाम असंग भाव है। सब करते हुए--करने से कुछ भी नहीं छूटना है--सब करते हुए यह भाव रखना कि यह सब लीला है, अभिनय है, एक्टिंग से ज्यादा नहीं है। दुकान पर बैठे हैं, यह एक एक्टिंग का हिस्सा है। किसी से बात कर रहे हैं, यह एक एक्टिंग का हिस्सा है। इसलिए करना पूरी कुशलता से है, क्योंकि एक्टिंग में एफिशिएंसी और कुशलता पूरी चाहिए। करना पूरी कुशलता से, उसमें रत्ती भर चूकना नहीं है। लेकिन कुशलता के बाद भी यह ध्यान रखना है कि मैं तो पृथक हूं; जो हुआ, हुआ; नहीं हुआ, नहीं हुआ।
प्रश्नः हर समय यही ख्याल रखना है।
हर समय। वह चौबीस घंटे सोते-जागते, यानी सोते वक्त तक में, सोने गए हैं बिस्तर पर तो भी यह भाव लेकर ही सोना है कि शरीर सो रहा है, मैं तो सजग हूं, जागा ही हुआ हूं, मेरा सोना कैसा? यह भाव चौबीस घंटे हर क्रिया में...
प्रश्नः इसमें नींद ही नहीं आएगी। कि आएगी?
बराबर आएगी। इससे ज्यादा कुशल आएगी जितनी आती है। और जैसी भी आएगी उससे काम हो जाएगा। उससे कोई बाधा नहीं पड़ती।
तो असंग का मतलब यह है कि भीतर हमारे एक बिंदु है जो हर चीज में बाहर है। वह कहीं भी जुड़ नहीं गया, असंग यानी संग के बाहर है। भीड़ में खड़े हैं और हम अकेले हैं। काम कर रहे हैं और नहीं कर रहे हैं। खाना खा रहे हैं और नहीं खा रहे हैं।
प्रश्नः बोध होना चाहिए। वह बोध जो है, वह बोध तो बड़ा, मगर बोध रहना चाहिए हर बात का।
हर क्षण, हर मोमेंट उस बोध को बढ़ाते जाना है।
प्रश्नः तब वह असंग है।
हां, तब असंग होगा। और तब किसी काम से भागने की कोई जरूरत नहीं। इसलिए असंग संन्यास से ऊंची दशा है।
प्रश्नः बहुत ऊंची है, बहुत ऊंची है।
वह जो संन्यासी छोड़ कर भागता है, वह असंग नहीं है।
प्रश्नः वह उसके साथ में तो है। वह डरा हुआ है।
वह डरा हुआ है इसलिए भाग गया। आप दुकान पर बैठे हैं, आप उसमें उलझे हैं। वह डरा है कि दुकान पर बैठूंगा उलझ जाऊंगा, इसलिए दुकान छोड़ कर भाग गया। असंग वह नहीं है। असंग की दशा तो बहुत ऊंची है, असंग की दशा बहुत ऊंची है। तो उस पर ही मेहनत करनी है, वही असली बात है। धीरे-धीरे आएगी।
प्रश्नः हां, कोई बात नहीं। टाइम लगेगा, लगने दो।
वह साफ ख्याल में आ जाए कि यह भाव है...
प्रश्नः फिर तो मेरा ख्याल है कि बहुत सारी चीजें अपने आप साफ हो जाएंगी।
हां, अपने आप साफ हो जाएंगी, उसमें कोई बहुत मामला नहीं है। अब जैसे यही है कि ध्यान में मौन रहना चाहिए। यह भाव की कोई जरूरत नहीं है। हम तो मौन हैं ही और जो भी चल रहा है वह हमारे बाहर चल रहा है। विचार भी चल रहा है वह हमारे बाहर चल रहा है। हमको मौन होना नहीं है, हम तो मौन हैं ही, जो चल रहा है वह हमारे बाहर चल रहा है। हमने भूल से उसको अपने को एक कर लिया, वहां भूल हो गई।
जैसे जब आप बैठे हैं ध्यान में, तो विचार चल रहा है। हमने यह गलती कर ली, आइडेंटिटी कर ली हमने, तादात्म्य कर लिया कि यह विचार मैं हूं, मेरा है, यह भूल हो गई। यह विचार है और मैं मैं हूं। और यह विचार मेरे चारों तरफ घूम रहा है, जैसे पंखा घूम रहा है, जैसे मक्खी घूम रही है... यह विचार घूम रहा है, यह यह है, मैं मैं हूं, और मेरा इससे क्या लेना-देना है! जैसे ही यह भाव बढ़ता चला जाएगा, यह विचार क्षीण हो जाएगा। क्योंकि इस विचार में जो शक्ति आई है वह हमारे कारण ही आई है, वह हमारी ही दी हुई है। क्योंकि हमने इसको मेरा कहा है इसलिए यह बेचारा आ गया है। वह मेरा जैसे ही टूटा कि एक ब्रिज टूट गया। इसका आना अपने आप क्षीण हो जाएगा। और यह तब फिर तभी आएगा जब मैं बुलाऊंगा, उसके बिना नहीं आएगा। जब मैं कहूंगा कि आओ या मैं कहूंगा कि यह काम करो, तो ही आएगा। नहीं तो नहीं आएगा।
तो यह बात ही गलत है कि ध्यान में हमें मौन होना है। असल में, ध्यान का मतलब यह है कि हमें यह सतत जानना है कि हम मौन हैं। हम सदा से मौन हैं ही। यानी वहां जहां हम हैं वहां कभी कोई विचार प्रवेश किया ही नहीं है कभी, और कर भी नहीं सकता। वहां गति नहीं है प्रवेश की जहां हमारी चेतना है।
तो तादात्म्य को ही तोड़ना ध्यान है।
वह तो ये सारी बातें लोगों को समझाई नहीं जा सकती हैं, इसलिए मुसीबत है। इसलिए एक-एक कदम से उनसे बात करनी पड़ती है। एक-एक कदम से उनसे बात करनी पड़ती है कि मौन हो जाओ, फलां हो जाओ। ये सब बेकार बातें हैं।
प्रश्नः हां, बात समझ ली, यह तो चीज ही दूसरी है।
हां, मौन हम हैं ही, इसी भाव को जानना है। और आप हैरान होंगे कि जब आप बात कर रहे हैं, सोच रहे हैं, तब भी भीतर मौन हैं। वह जो बिल्कुल अंतर्तम दशा है वहां तो कभी कुछ विचार प्रवेश करता ही नहीं। जैसे समुद्र के ऊपर लहरें चलती रहती हैं और नीचे सब शांति है, वहां कोई लहर-वहर नहीं है। मीलों तक वहां कोई लहर नहीं है।
प्रश्नः तो यह मन फिर क्या चीज है?
असल में, हमारी चेतना की जो बाहर की पर्त है, उस बाहर की पर्त पर जो बाहर से चोटें पड़ती हैं, उसकी प्रतिक्रिया मन है, रिएक्शन मन है। जैसे आप बैठे हैं और मैंने धक्का मारा, तो मन कहेगा कि धक्का लगा, बचाव करो। तो यह हमारी चेतना का जो बिल्कुल बाहर का घेरा है। जैसे पानी का घेरा है समुद्र के ऊपर, हवा चली तो उस पर लहरें उठेंगी हवा के धक्के से।
प्रश्नः तो ऊपर लहर उठती है, नीचे शांति है।
बिल्कुल स्वाभाविक है। उठना चाहिए। जब हवा का धक्का लगेगा तो ऊपर लहर उठेगी। जब आप दुकान पर काम करने बैठेंगे और एक आदमी आकर गड़बड़ करेगा तो विचार उठेगा। यह विचार जो है मन की ऊपर की सतह पर लहर है।
लेकिन इसको बंद कर देंगे तो आप मर गए। क्योंकि फिर तो आप कुछ कर ही नहीं सकते। और संन्यासी इसीलिए मरा हुआ आदमी हो जाता है, क्योंकि वह वहां-वहां से भागता है जहां-जहां हवा है। क्योंकि जहां हवा आई, कंपन शुरू हुए। वह कहता हैः धन से दूर रहो, स्त्री से दूर रहो, मकान से दूर रहो, बेटे से दूर रहो, समाज से दूर रहो, भाग जाओ कहीं। वह इसीलिए कहता है कि हम इनके पास रहेंगे तो कंपन पैदा होंगे। और उसने अपने को कंपन से एक तरफ ही रखा है, इसलिए दिक्कत में पड़ा हुआ है।
और मेरा कहना यह है कि कंपन पैदा होने दो। वह जीवन का मतलब ही वह है कि कंपन पैदा होंगे। और जीवित चित्त का मतलब ही यह है कि वह तीव्र कंपन पैदा करेगा, सेंसिटिव होगा, ज्यादा सेंसिटिव होगा।
हम यहां इतने लोग बैठे हैं। यहां एक पत्थर रख दो और एक फूल रख दो। पंखा चलेगा तो फूल ज्यादा कंपेगा और पत्थर तो पड़ा रहेगा। क्योंकि पत्थर उतना संवेदनशील नहीं है। वह तो जितना संवेदनशील मन है उतना ही सूक्ष्म कंपन भी पकड़ेगा। इसलिए कंपन से भागना नहीं है। यह जानना है कि सब कंपनों को पकड़ते हुए भी केंद्र पर मैं निष्कंप हूं। वहां कोई कंपन नहीं है। इसलिए डर क्या है?
और मैं कंपन नहीं हूं, इस भाव को ही गहरे करते जाना है। असंग तो ध्यान की केंद्रीय प्रक्रिया है। और जो आदमी असंग भाव को साधता है, न ध्यान की जरूरत है, न किसी बात की। धीरे-धीरे वह सब कट जाएगा।
प्रश्नः फिर तो वह हर वक्त, हर टाइम रह सकता है उसी तरीके से!
बिल्कुल।
प्रश्नः फिर तो वह चीज ही दूसरी हो गई!
इधर मैं सोच रहा हूं कि एक थोड़े से लोगों का जो कैंप हो वह ध्यान का कैंप न होकर असंग साधना के लिए हो। उसमें पांच दिन, सात दिन असंग भाव में ही जीने का; हर क्रिया करते हुए असंग भाव में ही जीने का।
प्रश्नः असंग का क्या अर्थ है कि किसी को...
किसी चीज के संग नहीं हैं हम। साथ तो हैं--जैसे हम यहां बैठे हैं, आप सब मेरे साथ बैठे हैं, लेकिन फिर भी मैं अकेला हूं और आप भी अकेले हैं। दिख रहे हैं साथ, लेकिन साथ कौन है किसके? पत्नी है, बच्चा है, मां है, बाप है, सब हैं, सब साथ हैं, लेकिन फिर भी अंततः आप अकेले हैं। इसी भाव को गहरा करने की बात है। हर स्थिति में, हर स्थिति में। धन भी है पास में तो वह हमारे बाहर है।
प्रश्नः वह आपने जो सूत्र कहे हैं कि जो आदमी भागता है वह जैसे संन्यासी लोग भागते हैं या इत्यादि; भागना नहीं है। असमर्थता। परंतु इसमें एक बात है जरा निर्णय करने की है कि मनुष्य अगर यही ये घर के झंझट, जंजाल और...
नहीं, कोई भागने की जरूरत नहीं है। इसको झंझट और जंजाल कहने में ही भूल है।
प्रश्नः मैं कहता हूं झंझट नहीं कहते, यह एक काम है, आवश्यक काम है। हम अगर यह काम करते हैं तो उसमें हमारा मन जो है, कोई ऐसी छोटी सी बात से डिस्टर्ब होता है और ऊपर और नीचे, स्ट्रगल में रहता है...
हां, होने दें। वह जो परेशानी हमारी है वह परेशानी डिस्टर्बेंस नहीं है। उस डिस्टर्बेंस को ही हम मैं हूं ऐसा मान लेते हैं तो हम परेशान होते हैं। डिस्टर्बेंस तो होगा। और आप सोचते हैं संन्यासी को नहीं होगा? भाग जाए कहीं भी, सब जगह होगा। अभी-अभी मैं बता रहा था न निर्मल जी का! मुझे अमृतसर में पता चला कि किसी के पास रुपये जमा किए होंगे आश्रम के, उसने इनकार कर दिया, हार्ट-अटैक हो गया।
आप जाओगे कहां? मुश्किल यह है कि जाओगे कहां? भाग कर आप कहीं भी जाओगे, डिस्टर्बेंस तो ऐसी चीजें हैं--समझ लो कि जैन मुनि हो गए--अब वह नियम लेकर निकला है कि फलां घर में ऐसा होगा तो मैं भोजन करूंगा। अब वह उस घर के सामने आया, वैसा नहीं हुआ, डिस्टर्बेंस हो गई। फिर दूसरे घर के सामने गया, उधर भी नहीं मिला, फिर डिस्टर्बेंस हो गई। आपके घर खाना खाने बैठा है और किसी बच्चे ने पेशाब कर दिया, और वह खाना छोड़ देगा, क्योंकि डिस्टर्बेंस हो गई।
डिस्टर्बेंस तो मेरा कहना यह है कि जिंदगी का लक्षण है, जिंदगी का लक्षण है।
प्रश्नः यानी आपकी यह बात का मतलब समझ में आया है कि आपकी नई आत्मा यही है, मैं नहीं कर रहा, यह हो रहा। बस असली बात।
हमारे चारों तरफ डिस्टर्बेंस होते ही रहेंगे, क्योंकि हम कहीं भी जाएं वहीं संसार है।
प्रश्नः वह नाटक है।
वह नाटक है। इस नाटक को नाटक भाव से ही जीने का मजा है। तब आप इसको पूरी तरह जीते हैं--न कोई भय है, न कोई चिंता है। और भीतर आप जानते हैं कि एक अभिनय हो रहा है। यह पत्नी है, तो इससे अभिनय कर रहे हैं; यह बेटा है, तो इससे अभिनय कर रहे हैं; यह दुकान है, तो इससे अभिनय कर रहे हैं। और ये भी सब अभिनय कर रहे हैं। दोनों बातें ध्यान में रखना है।
प्रश्नः अभिनय का क्या अर्थ है?
एक्टिंग, नाटक। ये भी एक्टिंग ही कर रहे हैं।
प्रश्नः वे भी एक्टिंग कर रहे हैं!
तो फिर उनकी बात से भी हमको दुख नहीं होता। एक आदमी गाली दे रहा है, तो हम जानते हैं कि वह एक्टिंग का हिस्सा है। जब हम अपने भीतर जानते हैं कि हम असंग हैं, तो हमको जानना चाहिए कि सब असंग हैं। तो उस स्थिति में चित्त तो शांत रहेगा। हर अशांति में भी शांत रहेगा।
और जब तक यह कला न सीखी तब तक कहां भाग कर जाओगे? उससे कुछ होने वाला नहीं है। यानी यहां बच्चे शोरगुल कर रहे हैं, जंगल में बैठ जाओगे तो पक्षी शोरगुल करेंगे और डिस्टर्बेंस करेंगे। जिंदगी तो सब तरफ मौजूद है और सब तरह से मौजूद है। अभी आपके पास बड़ा मकान है, आपको इसकी इतनी चिंता है; एक संन्यासी को अपनी लंगोटी की इतनी ही चिंता रहती है कि यह कहीं चोरी न चली जाए।
अभी मैं, एक दिन ऐसा हुआ, जबलपुर से मैं बैठा तो किसी संन्यासी को कुछ लोगों ने जबलपुर से छोड़ा। बड़े भक्त मालूम होते थे उनके, कहीं के बाहर के संन्यासी होंगे। एक फट्टा बांधे हुए थे। फट्टा होता है न! यह आप क्या कहते हैं, बारदाना कहते हैं न--बोरा, टाट। एक टाट ऐसा बांधे हुए हैं, एक टाट ओढ़े हुए हैं, दो टाट और साथ में एक टोकरी में रखे हुए हैं। कुछ फल वगैरह रखे हुए हैं। फर्स्ट क्लास में मेरे साथ में थे। बीना मैं आ रहा था। हम दोनों ही हैं। उन्होंने मुझसे पूछा कि बीना कब आएगा? मैंने कहा, बीना सुबह साढ़े छह, सात बजे आएगा। और यह गाड़ी बीना पर ही खतम हो जाती है, इसलिए आप निश्चिंत सोएं, बीना सुबह आने वाला है।
मैं सो गया। तो मैंने उनको देखा कि कुछ भक्तगण उनको दस-पचास रुपये भेंट कर गए हैं, वे उस टोकरी में रखे थे, उन्होंने देखा कि मैं सो गया, जल्दी से वे रुपये निकाल कर गिने। जल्दी से वे रुपये गिने, मेरी तरफ देखते ही रहे कि कहीं मैं देख तो नहीं रहा हूं। रुपये गिन कर फिर उन्होंने टोकरी में रखे, फिर उनको निकाले और फिर एक फट्टे में लपेट कर सिर के नीचे रख लिए। एक फट्टी सिर के नीचे रख ली, एक ओढ़ ली, एक बिछा कर सो गए।
दो घंटे बाद मैंने देखा कि वे दरवाजा खोल कर किसी से पूछ रहे हैं कि बीना कब आएगा? तो मैंने उनसे कहा कि मैंने आपको कहा है कि बीना सात बजे आएगा और यह गाड़ी वहीं खतम हो जाएगी। इसलिए आप बिल्कुल निश्चिंत सो जाएं। रात भर जग-जग कर पूछिएगा तो मुझे भी नहीं सोने देंगे, आप भी नहीं सो पाएंगे।
मैंने देखा कि फिर घंटे के बाद वह आदमी फिर पूछ रहा है किसी से कि बीना कब आएगा? अब उसके पास कुछ भी नहीं है, लेकिन माइंड की डिस्टर्बेंस है।
फिर मजा हुआ, बीना पर मैंने देखा, वह है फट्टी रखे हुए--तो साढ़े छह बजे के करीब वह उठा, हाथ में लेकर आईने के सामने खड़े होकर फट्टा बांध रहा है। एक दफा खोलता है, दूसरी दफा बांधता है। वह उसी शौक से बांध रहा है जैसे कोई टाई बांध रहा हो। उसमें कोई फर्क नहीं है। जैसे कोई टाई बांध कर तैयारी कर रहा हो। और वह एक दफा बांधता है, फिर वह ठीक नहीं जंचता उसको, फिर उसको दूसरी दफे बांधता है। फिर सब ओढ़-आढ़ कर फिर आईने में देखता है।
अब मेरा कहना यह है कि टाई मत बांधो, फुल पैंट मत पहनो; तुम जो भी पहनोगे, तुम्हारा माइंड तो वही है, तुम उसके साथ वही करोगे। देखने वाले को लगेगा कि कितना बड़ा त्यागी है! लेकिन भीतर का दिमाग तो वही का वही है। तो फिर मेरा कहना है कि जब यही मामला है तो टाई और फट्टे की बदलाहट की चिंता मत करो। टाई बांधो, उसको भी अभिनय समझो; फट्टा बांधो, उसको भी अभिनय समझो। फिर कुछ भी करो, उसको अत्यंत ज्यादा मूल्य मत दो।
इसलिए सिर्फ चीजें बाहर से बदलने का उतना सवाल नहीं है, भीतर आपकी बदलाहट का है। और भीतरी बदलाहट का एक ही मतलब है कि जो हम कर रहे हैं या तो हम उसको समझ लें कि हम ही कर रहे हैं, तो फिर दुख होगा। और या फिर यह समझ लें कि चीजें हो रही हैं, इतना बड़ा जगत है, इसमें हो रही हैं। हम भी एक खेलने वाले हैं, जैसे लाखों-करोड़ों खेलने वाले हैं। यह खेल चल रहा है इसको... । यह भाव गहरा होता चला जाए तो सब स्थितियों में रहते हुए मुक्ति संभव है। और मेरा कहना है, इसी तरह मुक्ति संभव है, नहीं तो मुक्ति संभव नहीं है।
प्रश्नः मुक्ति का आशय ही यह हुआ कि पूर्ण सजगता, पूर्ण असंग का भाव।
पूर्ण सजगता और पूर्ण असंग का भाव!
प्रश्नः पूर्ण सजग हो गया और असंग का भाव हो गया पूर्ण, यही तो सारी चीज है। जो सारे जगत के बीच में... इसको जीवन-मुक्त कह रहा है, वह वही हिसाब है। ... जैसे कमल कीचड़ में है।
और नहीं तो उलटी परेशानियां होती हैं। बस उसी भाव में। और नहीं तो आप काम भी कर रहे हैं और दुखी हो रहे हैं कि यह काम मुझे दुख दे रहा है। काम दुख नहीं दे रहा आपको, आपका मन दुख दे रहा है। तो इधर काम को छोड़ो, यह करो। और काम को छोड़ कर मन तो वही रहेगा। तो कुछ तो करोगे आप जीओगे जब तक। वह वहां दुख देगा। वह पीछे जारी रहेगा और असली बात आप करोगे नहीं। असली बात यह है कि काम और आपके बीच में फासला हो जाए।
प्रश्नः बिल्कुल ठीक। अब तो बिल्कुल क्लियर सब दिखाई दे रहा है।
तो उस दशा में ही, बस ये विचार आएं, कुछ भी आएं, सब उसी भाव से। विचार सर्वथा जाएं या न जाएं, हमें चिंता नहीं लेनी है। वे जाएंगे। अंदर तो यही रखना है कि ठीक है, आते हैं तो आते हैं, नहीं आते तो नहीं आते। जब नहीं आते हैं तब भी हमें प्रसन्न नहीं होना है। जब आते हैं तब भी हमें दुखी नहीं होना है। जब नहीं आते तब हमें जानना है कि अभी नहीं आ रहे हैं और जब आते हैं तब जानना है कि आ रहे हैं। और दोनों हालत में हमें असंग भाव रखना है। आओ तो ठीक है, न आओ तो ठीक है।
प्रश्नः अभी देखो सारी चीज ही... सारी चीज ही उसी पर टिकी हुई है, वह सारी चीज ही बदल गई है।
असंग के आधार पर रुकी हुई समझो। सारी बात को ही वहां अकेले रहना है, यानी ध्यान की थोड़ी सी साधना के बाद में असंग की ही साधना करनी चाहिए। जो मुझे समझने लगा उससे फिर असंग की ही बात कहनी है। जो नहीं समझता है उसको एकदम से कहने का कुछ मतलब नहीं, उसकी समझ के बाहर है। तो असंग की ही दृष्टि को जारी रखें। और यह तो मेरे ख्याल में है, जब भी जो भी जरूरत होगी वह मैं करूंगा। उसकी आप चिंता न करें, उसकी चिंता ही न करें, वह बिल्कुल मेरे ख्याल में है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )
हां, मैं दो बातें, एक तो मेरे ख्याल में एक महावीर की डायरी लिखने का ख्याल है। महावीर की ही तरफ से, जैसे महावीर अपनी डायरी लिख रहे हों।
प्रश्नः मतलब यह है कि उनके ऊपर प्रेशर से उनके एक सेंटेंसेस बना लिए।
नहीं-नहीं, ऐसा नहीं, ऐसा नहीं। जैसे महावीर आज इस गांव में आए, और वे अपनी डायरी भरते हैं--आज के दिन क्या हुआ, कौन मिला, किससे क्या बातें कीं, क्या मैंने कहा, क्या मेरे भाव की दशा रही। वे अपनी डायरी भर रहे हैं। उनकी तरफ से उनकी डायरी भरनी है। तो वह बड़ी काम की बात है और वह बहुत गहरी बात हो जाएगी। और वह उपद्रव भी काफी कर देगी, और काफी चर्चा का कारण भी बनेगी।
प्रश्नः वह तो एक नावेल तरीका है।
नावेल की तरह होगा, लेकिन उसके बहुत परिणाम हो सकते हैं। एक तो वह कर देना है। और एक महावीर के विचारों पर, उनके जीवन पर मेरी जो भी दृष्टि है सब चीजों पर...
प्रश्नः बिल्कुल, उनके जन्म पर, बाल्य अवस्था से, उनकी सारी चीज...
तो उसमें असल में वह तब ठीक बन पाए... यह अपना दयानंद है, यह जैन-दर्शन पर कुछ अध्ययन किया है, तो इसको ऐसा कहें कि यह कुछ क्वेश्चन तैयार कर ले, एक क्वेश्चनेअर तैयार कर ले।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )
क्योंकि मैं इधर आऊं या उधर, दोनों हालत में क्वेश्चनेअर तैयार हो तो सुविधा पड़ेगी। क्वेश्चनेअर ऐसा तैयार करें कि वह महावीर की पूरी जीवन की हर चीज पर क्वेश्चंस हो जाएं। चाहे दो सौ क्वेश्चन, चाहे ढाई सौ, इसकी फिक्र नहीं। एक-एक प्वाइंट पर क्वेश्चन कर लें वे। और डिवीजन कर लें।
जैसे जन्म के संबंध में वे दो-तीन क्वेश्चन बना कर तैयार करें। बाल्यावस्था के संबंध में क्वेश्चन बना कर तैयार करें। उनके घर की आर्थिक अवस्था के संबंध में, फिर बाद के जीवन के संबंध में, फिर तपश्चर्या के संबंध में। उन सब पर क्वेश्चन तैयार कर लें। तो फिर मैं एक-एक क्वेश्चन पर डिटेल में रिकार्ड करवाता जाऊं। तो वह बहुत आसान हो जाएगा, व्यवस्थित हो जाएगा।
प्रश्नः सारा जीवन आ जाएगा!
हां, सारा जीवन आ जाएगा, सारी बात आ जाएगी। और बात करते वक्त भी जो क्वेश्चन बीच में उठते चले जाएं वे भी पूछते चले जाएंगे। तो वे कोई तीन-चार सौ, पांच सौ प्रश्न उठाएं अपने किस्म के।
प्रश्नः उसमें सारी चीज आ जाएगी।
उसमें सारी चीज आ जाएगी। तो उसको दयानंद को कहें--या किसी को, दयानंद को भी जानकारी हो उसकी तो बहुत अच्छा होगा--कि वह पूरे क्वेश्चन तैयार कर ले, पूरा जीवन देख डाले, महावीर पर सारा साहित्य देख डाले और उनके सारे सिद्धांत देख डाले और क्वेश्चन बना डाले। सब क्वेश्चंस बना डाले। और मैं जब क्वेश्चन का जवाब दूं तब भी आप बैठ कर सब क्वेश्चंस बनाते जाइए। जैसे ही वह जवाब पूरा हो, आप उसके संबंध में और क्वेश्चन पूछ डालिए। तो क्वेश्चन भी रिकार्ड हो जाएं और उनके जवाब भी रिकार्ड हो जाएं। तो उस किताब को क्वेश्चन-आंसर की शक्ल में तैयार करना है। क्वेश्चन... तो वे पूरे हों।
प्रश्नः और फिर वह डायरी भी छाप लें।
हां, वह डायरी तो अलग से मुझे लिखवानी पड़े, बनवानी पड़े। पर इसके बाद डायरी लिखवाने से ज्यादा आसान पड़े। क्योंकि मेरी नजर में भी सब साफ आ जाए न! यानी मेरी नजर में तो है, लेकिन फुरसत से बैठ कर मैं उसे व्यवस्थित करवाऊं--सिस्टेमेटिकली।
प्रश्नः जब ये तैयार हो जाएं क्वेश्चंस तो फिर मैं वे क्वेश्चंस आपको भेज दूं?
वे मुझे भेज दो। तो मैं एक नजर डाल लूं। कहीं कुछ थोड़ा-बहुत हेर-फेर या जो.ड़-तोड़ करना हो तो जोड़-तोड़ कर तैयार कर लूं।
प्रश्नः अच्छा वह टाइम निश्चित कब होगा?
हां, वह मैं देखता हूं। टाइम तो बरसात में ठीक रहेगा, बरसात में ठीक रहेगा। बरसात में आना भी चाहें... तब तक वे भी तो क्वेश्चन उनको तैयार कर लेने दें, तो जुलाई में या अगस्त में।
प्रश्नः पंद्रह-बीस दिन के लिए यदि कोई ऐसे स्थान पर। ...
वह और भी अच्छा होगा। कहीं पर मकान में कहीं अच्छी जगह हो, वहां बैठें, और ज्यादा आनंददायक...
प्रश्नः एक आपके लिए भी, रेस्ट के लिए भी आपको ठीक रहे और... वह कोई ऐसी चिंता की बात नहीं।
वह अच्छा होगा, पंद्रह दिन, बीस दिन का निकाल लें समय।
प्रश्नः वहां भी मजा उतना ही हो जाएगा, इनके संपर्क में ज्ञान-वान बढ़ने... और जहां बहुत ज्यादा ऊंचाई पर न हो। ...
तब तक क्वेश्चंस तैयार करवा दें।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )
ऐसा जो आदमी है वह सरल चित्त नहीं है। इसकी बजाय तो वह आदमी सरल चित्त है जो कहता हैः वह मिठाई अच्छी लगती है, मैं खा लेता हूं।
सरलचित्तता बड़ी और बात है। यह आदमी बहुत जटिल चित्त है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )
यह हमको लगता भर है। यह हमको, आप आदमियों के मन के इतने सूक्ष्म रहस्य के बाबत। आप अच्छा तेल डाल कर, अच्छा कपड़ा पहन कर क्यों निकलते हैं, कभी आपने सोचा?
प्रश्नः अपनी खुशी के लिए।
नहीं। आप अच्छा कपड़ा पहन कर निकलते हैं, तेल डालते हैं, शानदार ढंग से निकलते हैं, दूसरे आपसे प्रभावित होते हैं।
प्रश्नः वही बात हुई न!
न-न, वही बात नहीं हुई। दूसरे आपसे प्रभावित होते हैं, आपको अच्छा लगता है। दूसरे आपसे प्रभावित होते हैं। अगर आपसे दूसरे बिना तेल डाल कर निकलने से प्रभावित होने लगें, नंगे निकलने से प्रभावित होने लगें--तो आपका काम नंगे निकलने से, बिना तेल डालने से भी हो जाएगा। जो मन का काम है भीतरी, वह मन चाहता है--आदर, सम्मान, पद-प्रतिष्ठा। अगर तेल डालने से मिलती है तो तेल डाल लेता है, अगर नहीं तेल डालने से मिलने लगे तो नहीं तेल डालता है। अगर नंगे रहने से मिले तो नंगा भी खड़ा हो जाता है, अगर कपड़े पहनने से मिले तो कपड़े भी पहनता है।
हमारे बीच जो बहुत चालाक लोग हैं... आप उतने चालाक नहीं हैं जितने साधु-संन्यासी चालाक हैं। आप तेल डाल कर कितना आदर पाओगे? तेल डाल कर आप कितना आदर पाओगे? तेल डाल कर आप कितना आदर पाओगे। लेकिन बिना तेल डाल कर आप और भी ज्यादा पा सकते हो। तो अगर आप चालाक हो तो आप बड़ा मकान नहीं बनाओगे। आप कहोगे, मकान का मुझे क्या करना? मैं तो साधु हूं! बड़े मकान से मिलता क्या है आदमी को? आदर ही मिलता है, सम्मान ही मिलता है।
प्रश्नः और मन का सुकून।
मन का संतोष तो वह आदर पा रहा है, वहां भी मिल जाने वाला है। इससे ज्यादा मिल जाएगा। मन का संतोष तो जो है वह कोई गांधी जी को कम नहीं मिलता आपसे। ज्यादा मिलता है आपसे। और मजा यह है कि बड़े मकान बनाने वाला भी उसके पैर छूने आएगा जो झाड़ के नीचे पड़ा है।
प्रश्नः त्यागी!
हां। तो ऐसा जो त्याग है, यह त्याग कभी भी बदलता नहीं मन को; मन की बुनियादी आकांक्षाएं जारी रहती हैं। और उन्हीं को पूरा करने के लिए उसने यह रास्ता पकड़ा हुआ है, आपने यह रास्ता पकड़ा हुआ है। ये रास्ते फर्क हैं, मन की आकांक्षा वही की वही है। इसलिए मैं कहता हूं कि त्याग प्राथमिक नहीं हो सकता। होगा तो यह गड़बड़ होने वाली है।
प्रश्नः त्याग सेकेंडरी चीज है।
सेकेंडरी चीज है।
प्रश्नः अपने आप होगा।
और वह जब अपने आप होता है तब आपको पता ही नहीं होता। आपको अगर पता है कि मैं तेल नहीं डालता हूं, नहीं डाल सकता हूं, तो आप जटिल दिमाग के आदमी हैं, सरल आदमी नहीं हैं। सरल आदमी वह है कि तेल मिल गया तो डाल लिया और नहीं मिला तो उसने कहा ठीक है। या आपने कहा कि डाल लो, तो उसने कहा डाल ही लेते हैं। और आपने कहा कि मत डालो, तो उसने कहा कि अच्छा जाने दो।
सरल आदमी का मतलब यह है कि जिसका कोई आग्रह नहीं, जिद्द नहीं। अगर आपने उससे कहा कि मिठाई खा लो, तो मिठाई खा ली। और आपने कहा कि आज सब्जी है, तो सब्जी खा ली। वह भी आदमी जटिल है जो कहता है, पच्चीस तरह के भोजन होंगे तो मैं खाऊंगा। यह भी जटिल है। और जो कहता है, मैं तो एक ही तरह की सब्जी खाऊंगा, दूसरी सब्जी हटाओ यहां से, यह भी जटिल है।
सरल आदमी बहुत दूसरी तरह का आदमी है। सरलता जो है, सरलता का मतलब यह है कि कोई जिद्द नहीं, कोई आग्रह नहीं; जिंदगी जैसी है वह स्वीकार कर लेता है।
अब जैसे कि गांधी जी को अगर आप एक मखमल का कमीज पहना दो तो...
प्रश्नः भगवान महावीर स्वामी जी, जहां की कहते हैं जिसमें एक वाद-विवाद खड़ा होता है। वह यह कि भगवान के पात्र में मांस भी आया और उन्होंने सब मांस का भोजन किया। आ गया, इसलिए उन्होंने ऐसा किया। और उसको हम अगर दूसरी दृष्टि से समझें, तो वे इतने सरल थे कि उनको इन सारी चीजों का कुछ ध्यान ही नहीं था।
मांस के मामले में सरलता का सवाल नहीं हो सकता। मांस के मामले में सरलता का सवाल नहीं हो सकता।
प्रश्नः वह आपका और...
न, न, न। और बहुत दृष्टियां हैं न! और बहुत दृष्टियां हैं। ऐसी सरलता जो दूसरे को दुख दे पाती हो, सरलता नहीं है।
प्रश्नः किसी को मार कर...
हां, किसी को मार कर, ऐसी कैसी सरलता!
प्रश्नः किसी को आत्मा को दुख देकर...
नहीं-नहीं, यह सरलता नहीं हो सकती है। यह सरलता नहीं हो सकती है। सरलता का मतलब यह है कि जिससे किसी को दुख नहीं पहुंच रहा है। ऐसा कोई भी काम करने में उस आदमी को कोई इनकार नहीं होगा।
अब जैसे आप यहां आए, और एक संन्यासी यहां आया, और सरल आदमी है, आपने उसको बढ़िया गद्दी लगा दी, तो वह लेट गया। अब गद्दी पर लेटने से किसी को बिल्कुल कोई दुख नहीं पहुंचा जा रहा है, न कोई पीड़ा हुई जा रही है। नहीं थी गद्दी तो जमीन पर लेट गया, क्योंकि उसका कोई गद्दी का आग्रह भी नहीं है।
प्रश्नः गद्दी के साथ उसका कोई संबंध नहीं।
कोई संबंध नहीं। सरलता का मतलब यह कि ऐसा आदमी सीधा-सरल होगा--जब तक कि किसी को कोई दुख ही पहुंचाने का कारण न बने। वह ऐसे काम में नहीं पड़ेगा।
लेकिन ये जिनको आप कहते हैं त्यागी और सरल, ये एक भी सरल नहीं हैं। ये अति जटिल लोग हैं, अति जटिल। और इनका दिमाग बहुत कांप्लेक्स है और बहुत कनिंग है। और यह पूरी कनिंगनेस का कैलकुलेशन है इनका जो कर रहे हैं पूरा का पूरा--यह खाना किसने बनाया, और यह कैसे बना, और इसको इसने छू दिया और फलाने ने छू दिया। यानी सब कनिंग है बात पूरी की पूरी।
प्रश्नः और जो हम लोग कहते हैं कि बढ़िया बनना चाहिए, यह भी होना चाहिए, यह भी होना चाहिए।
उससे ज्यादा सरल है आपका दिमाग। उनसे ज्यादा सरल हैं आप। क्योंकि आप बिल्कुल स्वाभाविक जो मन की इच्छा है वह कह रहे हैं।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )
आपके प्रति अगर प्रेम दिखाया तो महंगा पड़ेगा, क्योंकि मुझे कुछ खोना पड़ेगा। मुझे कुछ खोना पड़े आपके लिए। और पत्थर के प्रति दिखाऊं तो कुछ खोना-वोना नहीं है। उधर एक मुर्दा पत्थर बैठा हुआ है और मैं अपने घूम करके अपने घर वापस लौट आता हूं। जीवन के प्रति भाव जगना चाहिए, पत्थरों के प्रति नहीं। और जीवन के प्रति भाव जगेगा तो आपकी भावना ऊंची उठने वाली है। लेकिन हमने एक तरकीब निकाल ली है, जीवन से बचने के लिए मंदिर खड़ा किया हुआ है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )
मैं बात करूंगा। मंदिर होना चाहिए। बिल्कुल, बिल्कुल...
प्रश्नः किसी को गाने में मजा आता है, कोई मंत्र, उसकी धुन...
हां, तो मजा ले, कौन मना करता है!
प्रश्नः वही है। और है नहीं कुछ भी।
न-न, पर वह गाने में ही मजा लें, धोखाधड़ी काहे के लिए करना! किसी को नाचने में मजा आता है तो खूब नाचे। महावीर को काहे को फंसाता है बीच में! उनकी मूर्ति रख कर काहे के लिए, उनको काहे के लिए ढोंग में डालना! तुम नाचो मजे से, कौन मना करता है? खूब आनंद उठाओ। तुम्हें केसर फेंकने में मजा आता है, केसर फेंको। तुम महावीर को काहे को फंसा रहे हो!
प्रश्नः तुम भगवान महावीर की आड़, भगवान की आड़ क्यों ले रहे हो।
मेरा कहना यह है कि चीजें साफ तो हों। मुझे खाने में मजा आता है तो खूब खाऊं, लेकिन भगवान का भोग लगा कर बहाना क्यों करूं?
रामकृष्ण के पास एक आदमी आता था। वह हमेशा काली का जब दिन आता, दशहरा आता, तो बड़ा भोज देता था और बड़ा जलसा मनाता था। और बड़े बकरे कटते थे और यह सब होता था। फिर वह आदमी बूढ़ा हो गया। तो रामकृष्ण ने उससे पूछा कि आजकल दशहरा नहीं मनाया जाता? आजकल क्या हुआ है, सब बंद हो गया! उसने कहा, अब दांत ही न रहे। तो रामकृष्ण ने कहा, मूरख, जब दांतों के लिए बकरे कटवाता था तो काली को काहे के लिए फंसाता था! तो सीधा ईमानदार तो हो कम से कम। तुझे बकरा खाना है, बकरा खा। लेकिन काली के सामने बकरा काट कर खाने में तू होशियारी कर रहा है। तू धोखा दे रहा है--अपने को भी, दूसरों को भी। मतलब तो सिर्फ बकरा खाने से है और यह काली को निमित्त बना कर, तू बकरा खाने की जो पीड़ा थी, उससे भी बच रहा है। क्योंकि हम तो यह भगवान के लिए चढ़ा रहे हैं, हम थोड़े ही खा रहे हैं!
तो मेरा कहना यह है कि हम जिंदगी को जैसा भी जीना चाहें जीएं। मैं तो जिंदगी के जीने के विरोध में नहीं हूं। जो आपको अच्छा लगता है आप करें। लेकिन सीधा-साफ करें। और यह धोखाधड़ी की तरकीबें न निकालें। अगर मुझे रेशमी कपड़े पहनने हैं तो मैं रेशमी कपड़े पहनूं, लेकिन मैं कहता हूं कि मैं भगवान का भक्त हूं इसलिए रेशमी कपड़े पहने हुए हूं।
अब कल एक सज्जन मिलने आए मुझसे, वहां तो अमृतसर में तो कई तमगे, कोट पहने हुए हैं और--एक कोई मठ के मठाधीश थे सरदार। वह आया। इधर एक वह क्या कहते हैं इसको बिल्कुल चांदी से भरा हुआ कोट, पगड़ी-वगड़ी, चांदी-सितारे उस पर गुंथी हुई और दस-पांच उनके भक्तगण, वे मिलने आए। तो मैंने पूछा, ये काहे के लिए पहने हुए हैं? यह सब क्या है? उन्होंने कहा, यह तो, भगवान के दरबार में साधारण कपड़ों में थोड़े ही जा सकते हैं।
अब तुम्हें जो पहनना है पहनो, कौन मना करता है! लेकिन यह तरकीब, यह कनिंगनेस क्यों? यह चालाकी क्यों? तुम जाओ भगवान के पास।
इधर अरविंद के आश्रम में माता जी हैं। वह तो मखमल और रेशम से नीचे कुछ पहनती नहीं हैं। कोई मनाही नहीं है; जिसको जो मौज आए पहने। मैं तो कहता नहीं कि बुरा है पहनना, जो मरजी पहनो। लेकिन अरविंद ने क्या कहा, अरविंद से पूछा गया कि माता जी इतने कीमती कपड़े क्यों पहनती हैं? तो उन्होंने कहा कि ईश्वर के दरबार में साधारण कपड़े नहीं चलते। ईश्वर के दरबार में साधारण... ईश्वर का मतलबः ऐश्वर्य। वहां तो वैभव का। तो माता जी तो वहां पहुंच चुकी हैं जहां ईश्वर हैं। वहां तो सब वैभव ही वैभव है। वे साधारण कपड़े वहां नहीं चलते।
अब इसको मैं कहता हूं कि यह धोखाधड़ी मत चलाओ। मैं नहीं कहता। मैं अगर यह कहूं कि यह रेशमी कपड़ा पहनना बुरा है, तो गलती बात है। मैं नहीं कहता। मेरी मौज है जो मैं चाहूं--खादी पहनूं, चाहे रेशमी कपड़े पहनूं, दुनिया में कोई कुछ कहने का सवाल नहीं रखता। लेकिन मैं कहूं कि मैं ये कपड़े इसलिए पहना हूं कि ये भगवान...
प्रश्नः हिपोक्रेसी आ गई।
माता जी कोई साधारण महिला थोड़े ही हैं, अरविंद ने कहा। इसलिए साधारण कपड़े नहीं पहन सकतीं।
अब बड़ा मजा है। साधारण कपड़ों से कोई साधारण आदमी हो जाता है? या असाधारण कपड़ों से कोई असाधारण आदमी हो जाता है?
तो अरविंद जैसे समझदार आदमी इस तरह की बेईमानी की बातें करता है, सब खराब काम है। तो इसलिए मेरी सबसे झंझट हो गई है। और झंझट का मामला यह हो गया है कि अब वह बड़ा मुश्किल होता जाता है मामला, उसको कैसे...
प्रश्नः पब्लिक को एजुकेट करना होगा। और उसके लिए इंतजाम करना होगा। बिना उसके इंतजाम के कुछ भी नहीं हो सकता। अभी तक इंतजाम कुछ नहीं है...
कुछ भी है ही नहीं इंतजाम, लाला जी, अभी तो बस बिना इंतजाम के बात चल रही है। वह आप सबको करना पड़ेगा, आपके मन में उठ रहा है तो हो ही जाएगा।
प्रश्नः जब तक पब्लिक एजुकेट नहीं होगी, तब तक सारी अंधेरे में है।
शंकराचार्य अभी पटना आए। पहले वह चला आ रहा है सिंहासन सोने का। चार आदमी पहले... सारी मीटिंग डिस्टर्ब हो रही है... सोने का सिंहासन आकर लगेगा पहले।
अब मैं नहीं कहता, मजे से तोले सोने के सिंहासन से, कौन किसको रोक सकता है। सोने का सिंहासन लगेगा, उस पर फिर वे अपने खड़ाऊं सहित चढ़ गए उस पर सिंहासन पर फटफटाते हुए। पूछो तो वे कहेंगे कि वे शंकराचार्य हैं, इसलिए सोने का सिंहासन है। वे साधारण जगह पर कैसे बैठ सकते हैं। अब जिसको जहां बैठना हो बैठे, कोई मामला नहीं है। लेकिन यह आड़! और फिर होता क्या है, आड़ की वजह से आप फिर कुछ कह भी नहीं सकते। और नहीं तो आप इस आदमी को बिल्कुल बुद्धू कहोगे कि यह आदमी दस हजार आदमी बैठे हैं वहां अपना सिंहासन लिए साथ में चला आ रहा है। चार आदमी आगे सिंहासन ला रहे हैं, पीछे वे चले आ रहे हैं।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )
फौरन! वे तो पहले नपवा लेते हैं कुर्सियां।
प्रश्नः क्योंकि उनका सिंहासन सारे में ऊंचा होना चाहिए।
चार इंच ऊंचा, इससे कम नहीं चाहिए। खड़े हो जाएंगे, बैठेंगे नहीं। और मजा यह है कि तुम यह कहो मेरे चार इंच नीचा बैठना है तो कोई हर्जा नहीं है। वे कहते हैं कि मेरा सवाल नहीं है, शंकराचार्य की इज्जत का सवाल है। और शंकराचार्य की आड़ में अपने अहंकार को तृप्त करने की फिकर करोगे।
कलकत्ते में पिछली बार कोई चार साल पहले दूगड़ जी जिंदा थे। तो मैं गया था तो एक उसी वक्त उनके यहां ठहरा था राजीव सिंह जी के वहां, उनके यहां ठहरा था। तो उस समय शायद वहां तुलसी जी भी थे। मैं गया उसके पहले यह घटना हो गई थी। सुशील जी भी वहां थे, और भी लोग थे।
तो दूगड़ जी ने मुझे बताया कि एक जलसा किया था जिसमें सबको एक मंच पर लाया जाए। तो सबके आदमी पूछने आए कि हमारे आचार्य को, हमारे गुरु को बिठाइएगा कहां, पहले यह पक्का हो जाए। क्योंकि वे किसी से नीचे नहीं बैठ सकते। और सभी किसी से नीचे नहीं बैठ सकते, तो मुश्किल हो गया मंच बनाओ कैसे! कोई दूसरा किसी से नीचे नहीं बैठ सकता। आखिर यह हुआ कि वह नहीं हुआ, वे इकट्ठे नहीं बैठ सके।
इधर मैं इलाहाबाद पिछले एक... इलाहाबाद में एक बाबा हैं--सच्चा बाबा। उन्होंने एक जलसा किया हुआ था। तो मुझे भी बुला लिया। तो उन्होंने साठ लोगों के बैठने के लिए बड़ा मंच बनाया। साठ लोगों को बुलाया था। लेकिन एक-एक को बैठ कर भाषण देना पड़ा, साठ बैठ नहीं सके साथ। क्योंकि कौन ऊंचा, कौन नीचे! और साथ कोई बैठने को राजी नहीं था--हम उसके साथ कैसे बैठ सकते हैं? हमारा चार इंच ऊंचा चाहिए फलां आदमी से!
अभी इस पुरी के सम्मेलन में बाकी जगतगुरु नहीं आए, बाकी शंकराचार्य नहीं आए। वह सिर्फ इसलिए कि वह भी झंझट का मामला है कि कुछ शंकराचार्य कहते हैं आसन दूसरे से ऊंचा दो। और बराबर के लिए तो कोई राजी है नहीं किसी से। इसलिए एक जगह एक ही शंकराचार्य आ सकता है, दूसरा आ नहीं सकता। क्योंकि वह अपना बड़ा सिंहासन लगाए तो झगड़ा खड़ा हो जाए फौरन।
इतनी गंवारी है, इतने स्टुपिड माइंड इकट्ठे हो गए! और हम सबको बरदाश्त किए चले जा रहे हैं। सबको बरदाश्त किए चले जा रहे हैं।
प्रश्नः कारण है, हम ही लोग तो कराने वाले हैं। असल बात तो यही है कि हम ही लोग तो कराने वाले हैं। सारी चीज तो इसीलिए हो ही रही है।
बस अहंकार के सिवाय कुछ भी नहीं है। और अहंकार को धार्मिक आड़ में छिपा रहे हैं, यह और खतरनाक है। और बच्चों जैसी बुद्धि है। जैसे छोटा बच्चा कुर्सी पर खड़ा हो जाए और कहे कि हम आपसे बड़े हैं। छोटे बच्चे करते हैं न--कुर्सी पर खड़े हो गए कि पिताजी हम तुमसे बड़े हैं, देखो हम आपसे ऊंचे हैं।
तो इसको हम मानते हैं कि यह बच्चा है, दिमाग नहीं है इसके पास। लेकिन ये भी बच्चे हैं। ये चार इंच ऊंचे बैठ गए तो ये बड़े हो गए। चाइल्डिश जिसको कहना चाहिए। वह दिमाग है बचपने का। लेकिन ये हमारे गुरु हैं, नेता हैं, संत हैं। यह सब मजा है सबका। ये सब बहुत मजे की बातें हैं।
प्रश्नः यही तो चीज है। और इसी चीज ने तो यह सारी चीज इस तरह चला दी है कि अपने आप सोचने वाली बात खत्म हो चुकी है।
मैंने बताया था न आपको, मोरार जी वाला मामला तो बताया था न तुलसी जी के साथ जो हुआ, बहुत मजेदार।
प्रश्नः वह क्या बात हुई थी?
कोई हो गए आठ साल होते होंगे। कोई आठ साल पहले राजसमंद में तुलसी जी का जलसा था। तो मुझे भी बुलाया था, मोरार जी भी थे, सुखाड़िया थे, और दस-पच्चीस लोग बुलाए थे उन्होंने। तो सुबह एक अंतरंग गोष्ठी रखी, जो खास लोग आए थे उनके लिए। तो तुलसी जी तो बड़े तख्त पर चढ़ कर बैठ गए और हम सबको तो नीचे बैठा दिया। तो और किसी को तो उतना ख्याल नहीं हुआ, मोरार जी को कष्ट हो गया। वे तब मिनिस्टरी में थे मोरार जी उस समय। उनको कष्ट हो गया एकदम भारी कि उनको नीचे बिठा दिया। तो उन्होंने बैठते ही से यह कहा कि अंतरंग गोष्ठी शुरू होती है, उसके पहले मैं एक प्रश्न खड़ा करता हूं, उसी प्रश्न से चर्चा शुरू होनी चाहिए। तो तुलसी जी ने बड़ी प्रसन्नता से कहा कि हां-हां, पूछिए। उनको क्या पता कि वे क्या पूछेंगे।
उन्होंने यह पूछा कि महाराज आप ऊपर चढ़े हुए क्यों बैठे हुए हैं? क्योंकि यह तो अंतरंग गोष्ठी है। हम सब बातचीत करने इकट्ठे हुए हैं। अगर आप भाषण देने वाले होते तो ठीक था कि आप ऊपर बैठ कर बोलते, हम नीचे बैठ कर सुनते। लेकिन यहां तो बातचीत के लिए आए हुए हैं, अंतरंग गोष्ठी है यह, यहां कोई सौ-पचास आदमी भी नहीं हैं कि आप ऊपर बैठें। दस-पच्चीस आदमी हैं, नीचे बैठ कर शांति से बात होती, साथ में बात होती, आप ऊपर क्यों चढ़ कर बैठे हैं? इसका उत्तर चाहिए। और मैंने आपको हाथ जोड़ कर नमस्कार किया तो आपने हाथ नहीं जोड़े। तो मैं पूछना चाहता हूं कि क्या आप हाथ नहीं जोड़ सकते हैं? इसी से चर्चा शुरू होनी चाहिए।
तुलसी जी घबड़ा गए।
प्रश्नः छोड़ दी होगी उसी घड़ी।
नहीं, छोड़ने की हिम्मत भी नहीं। अरे यही तो! छोड़ भी दें तो भी समझो कि इस आदमी में हिम्मत है। वह भी हिम्मत हो तो नीचे उतर आएं, उतनी भी हिम्मत नहीं। और वे समझा भी नहीं सकें। और कोई दूसरा आदमी हो तो टाल भी दें, मोरार जी को टालना भी मुश्किल। और मोरार जी नाराज हो जाएं, यह भी न चाहें। क्योंकि खुशामद के लिए तो बुलाया हुआ है। तो दूसरे साधु ने, उनके आचार्य तुलसी के बड़े भाई हैं, वे भी साधु हैं, वे नीचे थे। तो उन्होंने कहा कि मैं आपको कहता हूं कि यह हमारी परंपरा की बात है कि आचार्य को हम ऊपर बिठालते हैं। वे हमारे गुरु हैं, गुरु को हम ऊपर बिठालते हैं।
तो मोरार जी ने कहा, आपके गुरु होंगे, लेकिन हमारे तो गुरु नहीं हैं। और इधर तो हमसे मिलने को बुलाया हुआ है। और परंपरा की बात है, तो मैंने तो सुना है कि आप अपने को क्रांतिकारी संत बताते हैं, तो फिर परंपरा की क्या बात है? अगर गलत है परंपरा, तोड़िए। और ठीक है तो मुझे समझाइए कि इसमें कौन सी ठीक बात है।
फिर और झंझट हो गई। फिर मैंने कहा कि अगर मोरार जी मुझसे उत्तर लेना चाहें तो मैं उनको उत्तर देना चाहूंगा, और तुलसी जी, वे दोनों राजी हों तो मैं बोलूं, नहीं तो मुझे कोई मतलब नहीं है, क्योंकि मुझसे कोई बात नहीं हुई है।
तो तुलसी जी ने कहा कि हां-हां, आप कहिए। और मोरार जी ने कहा, मैं उत्तर चाहता हूं। तो मैंने कहा कि पहली तो बात यह है कि आपको सबसे पहले यह बात क्यों दिखाई पड़ी कि वे ऊपर तख्त पर बैठे हुए हैं? आपको चोट लगी है नीचे बैठने में। और जब तक आपको नीचे बैठने में चोट लगती रहेगी तब तक किसी को ऊपर बैठने में आनंद आता रहेगा, इसमें कोई भेद नहीं है। ये तो दोनों जुड़ी बातें हैं। तो मैंने कहा, आप पूछ रहे हैं कि आप क्यों ऊपर बैठे हैं, आप भलीभांति जानते हैं। आपको नीचे बैठने में क्यों चोट लग रही है, वही उनके ऊपर बैठने का मजा है। इसमें किसी से पूछने की जरूरत नहीं है।
और मैंने कहा, अगर आपको भी तख्त पर बिठाया गया होता तो मैं निश्चित कह सकता हूं कि आपने यह प्रश्न नहीं उठाया होता। और ऐसे मौके और भी आए होंगे, जब आप तख्त पर बैठे रहे होंगे तब आपने नहीं सोचा होगा कि मैं तख्त पर क्यों बैठा हूं, दूसरे लोग नीचे क्यों बैठे हैं। तो मैंने कहा कि इस बात को ठीक से समझ लीजिए कि जो बात आपका दुख बन रही है वही उनका सुख बन रही है। इसमें कोई ज्यादा झंझट का मामला नहीं है। दोनों की आपकी बीमारी एक ही है।
प्रश्नः चुप कर गए?
एकदम चुप कर गए। पर मोरार जी वैसे ज्यादा ईमानदार लगे मुझे तुलसी जी की बजाय। क्योंकि मोरार जी ने कहा कि जो आप कहते हैं वह ठीक है। मैं इस पर सोचूंगा।
मगर सबके दिमाग बचकाने हैं। सबके दिमाग बचकाने हैं। मैंने कहा कि यह फिजूल की बात है। बैठे हो तो बैठे रहो। छिपकली ऊपर चढ़ गई... अपना बैठे रहो। आपको इससे क्या मतलब है? और अगर हम जो पच्चीस आदमी नीचे बैठे हैं, अगर किसी के मन को पीड़ा न पहुंचती हो नीचे बैठने से, तो बैठो जहां तुम्हें बैठना है। और तब इनको भी ऊपर बैठने में बुद्धूपन मालूम पड़ेगा कि मैं कैसा बुद्धू आदमी हूं कि ऊपर बैठा हुआ हूं! लेकिन आपको पीड़ा पहुंचती है, इनको सुख पहुंचता है उससे।
प्रश्नः वह अहंकार आ गया।
अहंकार का मजा आ जाता है और यह सब चलता है। इसलिए मोरार जी उसी दिन से नाराज हैं, तुलसी जी भी नाराज हैं। यानी मुसीबत तो यह है कि सच कहना मतलब लोगों को नाराज करना है। झूठ कहो तो सब खुश हैं। झूठ कहो तो सब खुश हैं।
प्रश्नः सही आदमी तो सच कहने पर खुश हो जाते हैं।
कुछ हिम्मतवर लोग। हिम्मतवर लोग।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )
तो पुरोहित, पुरोहित का मतलब यह है कि वैसा आदमी जो इन सब बातों के उत्तर कुछ देता है। जानता कुछ भी नहीं है।
प्रश्नः जानता वह भी नहीं है?
जानने-वानने का सवाल नहीं है। जानने-वानने का सवाल नहीं है। किसने दुनिया बनाई? तो वह आदमी पुरोहित बन गया जिसने कहा कि भगवान ने बनाई। और यह मालिक बन कर बैठ गया, क्योंकि यह सबसे बड़ा ज्ञानी हो गया। ज्ञान ताकत है।
अब इसका जो ज्ञान था वह ऐसा ज्ञान था कि अगर वह फैल जाए तो इसकी पोल खुल जाए। ज्ञान फैल जाए तो इसकी पोल खुल जाए। क्योंकि वह असली ज्ञान तो था नहीं, सूडो नालेज थी।
साइंस का जो ज्ञान है वह ऐसा ज्ञान है कि जितना फैले साइंस उतनी बढ़ती है। क्योंकि वह कोई ज्ञान झूठा नहीं है, आप प्रयोग करके देख सकते हैं, परीक्षा कर सकते हैं। तो विज्ञान का ऐसा ज्ञान है कि उसको कोई भय नहीं है। लेकिन पुरोहित के पास जो ज्ञान था वह ऐसा था कि अगर वह सबको पता चल जाए तो सारी पोल खुल जाए उसकी। उसमें कोई दम तो थी नहीं। तो उसको सीक्रेट बना कर, गार्ड बना दिए गए कि वह सबको न मिल सके। सबको न मिल सके इसलिए सबको उसकी शिक्षा न दी जा सकी।
स्त्रियों को वर्जित कर दिया तो आधा समाज खंडित हो गया। उसको तो कोई शिक्षा का कारण नहीं रहा। और बड़े मजे की बात यह है कि यह बात पहले ही समझ में आ गई कि स्त्री पुरुष से ज्यादा अज्ञान की हालत में रही है, क्योंकि उसको ज्ञान मिलने का मौका नहीं। और इसलिए स्त्री जो है पुरुष का माध्यम रही है शोषण का। और आज भी वही है। आज भी वह है तो साधु स्त्री की वजह से जिंदा है, पुरुष की वजह से तो मर चुका है। आज भी साधु और पुरोहित को जो जिंदा रखे हुए हैं वे आपकी स्त्रियां हैं। वे ही उनका कारण हैं जिलाए रखने का। और आप जो जाते हैं सो अपनी स्त्री के पीछे चले जाते हैं, और कुछ मामला नहीं है ज्यादा।
तो स्त्री को अज्ञान में रखना बहुत जरूरी था, वह अज्ञान में रहेगी तो ही वह पुरोहित के साथ रह सकती है। इसलिए स्त्रियों को शिक्षा वर्जित कर दी गई। उनको कोई शिक्षा न दी जाए। शूद्रों को वर्जित कर दिया शिक्षा से। क्योंकि शिक्षा जहां भी मिलती है वहीं क्रांति शुरू हो जाती है। तो गरीब को अगर शिक्षा मिलेगी तो... गरीब को शिक्षित करना खतरनाक है। गरीब अब चूंकि शिक्षित हो रहा है इसलिए गरीब रहेगा नहीं दुनिया में, अमीर को मिटा कर रहेगा। तो गरीब चूंकि जबरदस्ती गरीब बनाया गया है, वह भी अमीर हो सकता है, लेकिन वह हो नहीं सकेगा जब तक उसको शिक्षा नहीं मिले, इसलिए नीचे का जो वर्ग है गरीब का, शूद्र का, उसकी शिक्षा एकदम वर्जित कर दी गई।
तो समाज का आधा हिस्सा स्त्रियों का--शिक्षा से वर्जित कर दिया, वे शोषण का अड्डा बन गईं। वे हर तरह की बेवकूफियों की सहयोगी बन गईं। और जहां से दंगा हो सकता था समाज का--वह नीचे का, शूद्र का, जो मजदूर का, श्रमिक वर्ग था--उसको वर्जित कर दिया। उसको कोई शिक्षा नहीं मिली। शिक्षा नहीं मिलती तो ख्याल ही नहीं आता उसको कि हम हालत बदल सकते हैं। वह जैसा है वैसा स्वीकार कर लेता है।
फिर बच गए समाज के पास तीन वर्ग--एक व्यवसायी का वर्ग, एक बुद्धिमानों का वर्ग और एक क्षत्रियों का, वीरों का वर्ग। इन तीनों ने अपनी डिवीजन बांट ली, ताकि कोई झगड़ा-झंझट न हो। व्यापारी व्यापार करे, धन कमाए, वह धन से प्रतिष्ठा पाए। क्षत्रिय लड़े, जीते और शक्ति से प्रतिष्ठा पाए। और ब्राह्मण बुद्धिमत्ता का कार्य करे और बुद्धि से प्रतिष्ठा पाए।
अब यह भी जानने की बात है कि ब्राह्मण को सबसे ज्यादा आदर देने में भी कारण था। क्योंकि एक तो नियमतः ब्राह्मण था। लेकिन ये वैश्य और क्षत्रियों ने भी अनुभव किया कि ब्राह्मण को सबसे ज्यादा आदर क्यों मिले। क्योंकि यह बड़े मजे की बात है, जिस समाज में बुद्धिमान को सबसे ज्यादा आदर मिले उस समाज में कभी क्रांति नहीं होती। बुद्धिमान को सबसे ज्यादा आदर मिले उसमें कभी क्रांति नहीं होती। क्योंकि क्रांति की जो शुरुआत करने वाले लोग होते हैं वे बुद्धिमान होते हैं। इसलिए हिंदुस्तान में कोई क्रांति नहीं हो सकी, क्योंकि इंटलेक्चुअल को हमने सबसे ज्यादा आदर दिया।
प्रश्नः उनको ऊपर चढ़ा दिया।
उनको ऊपर चढ़ा दिया। हालांकि उनके पास पैसा-वैसा कुछ नहीं था, ब्राह्मण गरीब रहे। ब्राह्मणों के पास कुछ रहा नहीं, लेकिन आदर-सम्मान उनको सबसे ज्यादा रहा, राजा भी उनका पैर छुएगा। तो जब राजा उनका पैर छुएगा तो वे राजा की प्रशस्ति में गीत गाते रहेंगे, वे कभी राजा के खिलाफ बात नहीं करेंगे।
अभी रूस में भी वे यह कर रहे हैं। रूस में क्रांति नहीं हो सकती, क्योंकि रूस आपके सीक्रेट को समझ गया। रूस में इस वक्त लेखक, पत्रकार, बोलने वाला, विद्वान, विचारक, वैज्ञानिक, इनका सर्वाधिक आदर है। इसलिए रूस में क्रांति हो ही नहीं सकती।
प्रश्नः इस समय?
जिधर हो, वह सफल नहीं हो सकती क्रांति। क्योंकि क्रांति के जो बीज बोते हैं वे बुद्धिमान लोग होते हैं। और जब बुद्धिमान को आदर मिलता है, वे काहे के लिए क्रांति के बीज बोएं! सीक्रेट जो है, सीक्रेट जो है... वह क्रांति करेगा कौन? कोई बुद्धिहीन करता है? कोई व्यवसायी करता है? ये तो जो डिसकंटेंटेड इंटलेक्चुअल्स होते हैं, जिनके पास बुद्धि तो बहुत है और असंतुष्ट हो गए, वे आग लगा देते हैं। एक बुद्धिमान आदमी को क्रोध में कर देना बहुत खतरनाक है। क्योंकि वह आग फैला देगा। वह शब्दों का मालिक है।
तो वे रूस में उन्नीस सौ सत्रह के बाद सबसे ज्यादा आदर इनको देते हैं। और किसी की चिंता नहीं है उनको। इस वक्त लेखक को इतना पैसा मिलता है रूस में, दुनिया में कहीं नहीं मिलता। ऐसी बढ़िया कोठियां और कारें, जिनका कोई हिसाब नहीं। बोलने वाला, लिखने वाला, ज्ञानी, इसको खूब आदर है। इसलिए वहां जरा सी भी क्रांति की बात नहीं उठ सकती।
ब्राह्मणों को सबसे ज्यादा आदर दे दिया, इसलिए हिंदुस्तान में क्रांति हुई नहीं पांच हजार साल से कोई। यह ब्राह्मण अगर गुस्से में भर जाए तो क्रांति करवा दे। और अंग्रेजों से यही भूल हो गई हिंदुस्तान में। हिंदुस्तान के इंटलेक्चुअल्स को अंग्रेजों ने अगर राजी कर लिया होता, हिंदुस्तान में कभी क्रांति नहीं होती। वही तो भूल हो गई। चूक गए बिल्कुल ही। हिंदुस्तान में जो बगावत हुई है, जो क्रांति हुई है, वह हुई किससे? कोई आपने क्रांति कर ली? वह हिंदुस्तान का जो इंटलेक्चुअल था वह राजी नहीं हुआ, उसको क्रोध आ गया, उसके अहंकार को तृप्ति नहीं मिली, नाराज हो गया वह, उसने गड़बड़ शुरू कर दी और उसने गड़बड़ फैला दी। अगर अंग्रेज हिंदुस्तान के थोड़े से बुद्धिमान लोगों को खूब सम्मान देते रहते, तो हिंदुस्तान में क्रांति-व्रांति नहीं होती। कभी क्रांति नहीं होती।
तो सोसायटी को क्रांति से बचाने के लिए बुद्धिमान को सबसे ज्यादा आदर देते रहे और तीनों ने डिवीजन कर लिया। क्षत्रिय को खूब सम्मान मिलेगा, क्योंकि राजा वही हो सकेगा। धनी को बहुत सम्मान मिलेगा, क्योंकि धनपति वही हो सकेगा। ब्राह्मणों को बहुत आदर मिलेगा, क्योंकि बुद्धिमान वही हो सकेगा। और इन तीनों में कोई कांफ्लिक्ट नहीं रखेगा। न क्षत्रिय को ब्राह्मण होने की जरूरत है और न ब्राह्मण को वैश्य होने की जरूरत है। और वह जो झगड़ा आप कहते हैं वशिष्ठ और विश्वामित्र का, कुल इतना ही झगड़ा है कि एक क्षत्रिय ब्राह्मण होने की कोशिश कर रहा है। जिसका निषेध है, यह नहीं होना चाहिए। क्योंकि यह डिवीजन जो किया है उसमें गड़बड़ पैदा हो रही है।
यह जो महावीर और बुद्ध का जो झगड़ा है वह यही है। ये क्षत्रिय हैं और ब्राह्मण होने की कोशिश कर रहे हैं। महावीर और बुद्ध का जो झगड़ा है हिंदू समाज से वह यही है कि ये क्षत्रिय हैं और ब्राह्मण होने की कोशिश कर रहे हैं। यानी ये दावेदार बन रहे हैं कि हम भी ज्ञानी हैं। यह गलती बात है, ब्राह्मण के आप क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। इसलिए ब्राह्मण दुश्मन हो गया कि यह बात नहीं हो सकती।
समझ रहे हैं न! यह जो डिवीजन ऑफ लेबर था, उसमें ये गड़बड़ करने वाले लोग हैं। क्योंकि ये हैं तो क्षत्रिय, लेकिन कहते हैं कि हम सर्वज्ञ हैं। तो आप ब्राह्मण होने का, ब्रह्मज्ञानी होने का दावा कर रहे हैं। क्योंकि ब्राह्मण का अपना मोनोपाली है, उसको आप एनक्रोच करते हैं। जब कि ब्राह्मण नहीं घुसता क्षत्रिय के उसमें। वह परशुराम ने की थी वह गड़बड़, वह झंझट खड़ी हो गई। कहीं गड़बड़ होती नहीं। कभी-कभी इक्के-दुक्के आदमी होते हैं, और-और दूसरे क्षेत्र में घुसने की कोशिश करते रहते हैं। कभी कोई ब्राह्मण क्षत्रिय होना चाहा, कभी कोई क्षत्रिय ब्राह्मण, तो झगड़े खड़े हुए। लेकिन आम रिवाज यह रहा कि अपनी सीमा में रहो और झगड़े मत करो।
लेकिन ज्यादा झगड़े क्षत्रिय और ब्राह्मण के बीच हुए, क्योंकि क्षत्रिय के पास शक्ति थी तलवार की और ब्राह्मण के पास शक्ति थी बुद्धि की। वैश्य ने कोई झगड़ा नहीं किया, क्योंकि उसके पास सिर्फ धन की शक्ति थी। और जिसके पास धन की शक्ति होती है वह बहुत भयभीत होता है। क्योंकि धन छीना जा सकता है। उसकी रक्षा में वह बहुत भयभीत है। इसलिए वह कभी कोई कार्य-क्षेत्र में ज्यादा नहीं उतरता है।
महावीर और बुद्ध ने जो बगावत की, वे क्षत्रिय थे और टक्कर ले ली उन्होंने, तो वे क्षत्रिय फोल्ड के बाहर हो गए। उनके फोल्ड के बाहर निकल गए वे। ब्राह्मण वे बन नहीं सके, क्योंकि ब्राह्मणों ने प्रवेश नहीं दिया। क्षत्रिय वे रहे नहीं। उनके पास बनिया होने के सिवाय कोई रास्ता नहीं रह गया, इसलिए सारे जैन बनिए हो गए।
वही एक फोल्ड बचा जिसमें वे घुस जाएं। शूद्र हो नहीं सकते वे। तो बनिया होने के सिवाय कोई रास्ता ही नहीं बचा। ब्राह्मणों ने घुसने नहीं दिया उनको, माना नहीं महावीर-बुद्ध को कि ये कोई ज्ञानी हो सकते हैं। और ये ज्ञान की बातें करके वे क्षत्रिय के फोल्ड से बाहर हो गए। तलवार छोड़ दी उन्होंने ज्ञान की बातों में। उनको बनिया होने के सिवाय कोई रास्ता नहीं रह गया। और वैश्य उनको रोक नहीं सके, क्योंकि वैश्य के पास कोई ताकत नहीं है। वह बेचारा अपनी फिकर में, बचाव में रहता है। वह कोई झंझट में पड़ता नहीं। कोई भी आ जाए।
इसलिए वैश्य से किसी की कांफ्लिक्ट नहीं है। चाहे ब्राह्मण दुकानदारी कर ले और चाहे क्षत्रिय दुकान कर ले। कहता है कि ठीक है भाई, जिससे बने करो। उसमें यह सब झंझट का मौका नहीं है। लेकिन ब्राह्मण नहीं घुसने देगा। न क्षत्रिय घुसने देगा भीतर। वह कहेगा, तुम बनिए हो, तुम क्या तलवार पकड़ोगे?
और शूद्र को सम्मान के बाहर कर दिया। उसको सम्मान की कोई जरूरत नहीं, वह अपनी सीमा में रहे, उससे कोई प्रयोजन नहीं था, वह बाहर है। उसको आने की जरूरत ही नहीं थी, बीच में पड़ने की जरूरत ही नहीं थी।
यह जो समाज की व्यवस्था थी, जो वर्ण व्यवस्था थी, यह बहुत ही कारीगरी की और बहुत होशियारी की व्यवस्था थी। जब तक वह पूरी व्यवस्था नहीं बदलती हिंदुस्तान में कुछ बदल ही नहीं सकता है। वह बहुत खतरनाक व्यवस्था है, वह जान लेने वाली व्यवस्था है। होनी चाहिए एक लिक्विड स्थिति, वह ठोस कर दी हमने। ब्राह्मण के घर में पैदा होने से ही कोई बुद्धिमान नहीं हो जाता। उसमें एक लिक्विड स्थिति होनी चाहिए समाज में।
पश्चिम का जो विकास हुआ वह लिक्विडिटी की वजह से हुआ। वहां न कोई शूद्र है, न कोई वैश्य है, न कोई ब्राह्मण है, न कोई क्षत्रिय है। क्षत्रिय भी हैं, ब्राह्मण भी हैं, शूद्र भी हैं, वैश्य भी हैं, लेकिन ऐसा कोई फिक्स्ड डिमार्केशन नहीं है। एक शूद्र का लड़का ब्राह्मण हो सकता है। एक ब्राह्मण का लड़का नहीं कुछ कर पाए तो शूद्र हो जाएगा। लिक्विड है हालत, ठोस नहीं है कि तुम ब्राह्मण हो तो ब्राह्मण ही तुम्हारे बच्चे पैदा होंगे।
इसका परिणाम यह हुआ कि जितने बुद्धिमान लोग थे सब वर्गों के, वे ज्ञान के विकास में लग गए। इस मुल्क में वे ज्ञान के विकास में नहीं लग सके। इसमें सिर्फ ब्राह्मणों के बच्चे लग सकते हैं, बाकी कोई बच्चे नहीं लग सकते। इसलिए हम दुनिया से काम्पिटीशन में पीछे रहते हैं। इसलिए आज पश्चिम में ज्ञान का जन्म हो गया, क्योंकि सारा, सारा समाज, जो जिसके घर में बच्चा पैदा हो जाए, वह भंगी का बच्चा हो, किसी का हो, वह ज्ञानी हो सकता है, उसके लिए रास्ता खुला है। और जो नहीं है ज्ञानी, तो आइंस्टीन का लड़का भी अगर ज्ञानी नहीं है तो अपने आप जाकर किसी फैक्ट्री में काम करेगा। इसमें कोई झगड़ा नहीं है, इसमें कोई झंझट नहीं है। खुला काम्पिटीशन है।
तो खुले, ओपन काम्पिटीशन ने पश्चिम में बड़ी ताकत दे दी। तो पश्चिम का ब्राह्मण वैज्ञानिक हो गया और हिंदुस्तान का ब्राह्मण सो रहा। और इसका नुकसान यह हुआ कि हम हार गए और वे जीत गए। और अभी भी हम हारेंगे। क्योंकि अभी भी हमारा ज्ञानी जो है वह सिर्फ पुरोहित का काम करता है। और पुरोहित और वैज्ञानिक में फर्क है। वैज्ञानिक अपने ज्ञान को फैलाता है और पुरोहित अपने ज्ञान को छिपाता है कि आपको पता न चल जाए सीक्रेट, नहीं तो फिर वह राज खत्म हो गया।
वह कहेगा, ये गुप्त चीजें हैं। नमोकार में बड़ा गुप्त रहस्य है, इसका हिसाब नहीं जानते हैं, कोई इसको जानता नहीं। तो पुरोहित ज्ञान का दुश्मन हो गया, क्योंकि वह छिपाता है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )
तो वो पूरे वक्त सेक्स के संबंध में ही रूपांतरण करते रहते हैं आप। और मां का मतलब मेरे पिता की पत्नी, और क्या फर्क पड़ने वाला है इससे ज्यादा। लेकिन वह संबंध मेरा रहेगा सेक्स का ही।
स्त्री के साथ मित्र... इसके सिवाय सब भाव... और नैतिक व्यक्ति मित्रता वहां से करता है आगे सब संबंध बढ़ाने को।
एक बहुत मजा हुआ। पिछली बार, पहली दफा जब मैं गोविंददास जी के यहां ठहरा था, तो सोहन मैया साथ में आई पूना से। यशा एक लड़की थी, जब आएगी तो आपको मिलाऊंगा। रेअर लड़की है। तो वह मेरे साथ आई। तो उसने रास्ते में पूछा कि कहां ठहरिएगा? तो गोविंददास जी के यहां। फिर तो वे जरूर पूछेंगे कि मैं आपकी कौन हूं? जरूर पूछेंगे। ऐसा भला आदमी तो खोजना बहुत मुश्किल है, जो किसी स्त्री को साथ देखे और पूछे न कि संबंध क्या है?
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )
प्रेम को जानने का मौका ही नहीं आता। इसके पहले कि वे प्रेम को जानें, पत्नी उपलब्ध हो जाती है।
प्रश्नः पर ओशो, जब हम जानेंगे ही नहीं प्रेम को... अब क्या करना होगा? आपने कहा कि बिना प्रेम के लोग मरते हैं।
न, न, न, यह नहीं कह रहा हूं। मतलब लोग बिना प्रेम के ही मरते रहेंगे, मतलब जीवन पूरा बीत जाएगा, प्रेम को नहीं समझ पाएंगे। हमने ऐसा इंतजाम कर दिया है कि वह सेक्स तक ही ले जाता है और ज्यादा से ज्यादा संग-साथ तक ले जाता है। फिर साथ रहने से एक तरह का संबंध बनता है, लेकिन वह प्रेम नहीं है।
प्रश्नः प्रेम स्वाभाविक होता है या कि... किसी के ऊपर भी स्वाभाविक ही होता है अगर होता है या...
स्वाभाविक ही हो सकता है। कोशिश करके तो आप ला ही नहीं सकते।
प्रश्नः मृत्यु के बारे में जो मैंने आपसे कहा वह रह गया है, थोड़ी उसकी बात कर लें तो बहुत अच्छ हो। क्योंकि वह समस्या अभी ताजा है।
हां, उसकी बात कर लेंगे, बात कर लेंगे।
इधर मैं इस पर बहुत सोचता था। और मेरा मानना है, जगत सुखी नहीं हो सकता, जब तक हम प्रेम को प्राथमिकता न दें। हम सेक्स को प्राथमिकता दिए हुए हैं। और मजे की बात यह है कि जो सेक्स को प्राथमिकता दिए हैं वे प्रेम को सेक्सुअल बताते हैं और चुकता सारा इंतजाम सेक्स का किए हुए हैं। और अगर जिंदगी में कोई एकाध चीज ऐसी है जो सेक्स के ऊपर उठ सकती है तो वह सिर्फ प्रेम है। धन ऊपर नहीं उठ सकता सेक्स के, यश ऊपर नहीं उठ सकता सेक्स के। सिर्फ एक चीज ऊपर उठ सकती है, वह प्रेम है। और एक ऐसा संबंध दे सकती है जहां शरीर से ऊपर का संबंध है।
लेकिन इसमें कुछ बाधा नहीं है कि वह प्रेम शरीर पर भी मिलना चाहे, उसमें कोई हर्जा नहीं है। लेकिन शरीर पर मिलने की जिनकी शुरुआत होती है उनकी आगे यात्रा हो यह बहुत मुश्किल है। आगे बढ़ने का कोई कारण ही नहीं आता। वह शरीर पर शुरू होती है, शरीर पर खत्म हो जाती है। सेक्स बहुत लोग जान पाते हैं, प्रेम बहुत कम लोग जान पाते हैं। और जो प्रेम को नहीं जान पाता उसमें सेक्स की जो मिस्ट्री थी वह उससे भी अपरिचित रह जाता है। वह सिर्फ मैकेनिकल एक्ट ही जान पाता है, वह उसकी मिस्ट्री को नहीं जान पाता। क्योंकि जिससे हमारा प्रेम का संबंध है और अगर उससे सेक्स का संबंध हो, तो वह सेक्स तब एक अदभुत रहस्य-लोक में ले जाता है। लेकिन पहले प्रेम हो, फिर पीछे सेक्स आए।
प्रश्नः वह तो अदभुत प्रेम होता है।
अदभुत लोक में ले जाता है, जिसका हमें कोई पता ही नहीं है। लेकिन अगर सिर्फ सेक्स रह जाए तो वह इतना मैकेनिकल और इतना ट्रिकी मामला है कि जिसका कोई मतलब ही नहीं है, कोई मतलब नहीं है।
हां, क्या पूछते हैं, बोलो!
प्रश्नः मेरे मन में दो प्रश्न हैं। पहला तो यह कि ध्यान, जागरूकता, सभी भाव ऐसा लगता है कि शरीर और मन के स्वस्थ रहते हैं। शरीर और मन में शिथिलता आई तो यह सब उठ जाता है। और मृत्यु के पहले यह शिथिलता अधिकतर लोगों में आ जाती है--शरीर की भी और मन की भी। तो मृत्यु के पहले तो अपने पर आदमी इतना कंट्रोल खो देता है कि ये कुछ भी विधियां काम देने वाली नहीं हैं। जिसका अर्थ यह हुआ कि एक ध्यान करने वाला या जागरूक रहने वाला व्यक्ति भी अंत में तो वही हो जाने वाला है जो इन सबको नहीं करने वाला है।
नहीं, दो-तीन बातें ध्यान में लेनी जरूरी हैं। पहली बात तो यह कि शुरू-शुरू में जब तुम चलते हो ध्यान की तरफ, तब तो शरीर और मन की स्थितियां उसे प्रभावित करती हैं। क्योंकि जहां से तुम चलते हो वहां तुम शरीर और मन से ज्यादा हो ही नहीं। जैसे मैंने इस कमरे में से निकलना शुरू किया, मैंने एक कदम उठाया, लेकिन अभी भी मैं कमरे में हूं। मैंने दो कदम उठाए, अभी भी मैं कमरे में हूं। तो कमरे की गंध, कमरे की सुगंध या दुर्गंध या कमरे की हवा प्रभावित करती है। लेकिन उठा रहा हूं मैं कदम द्वार तक के लिए जहां से कमरा समाप्त होगा और मैं आगे निकल जाऊंगा। जब मैं कमरे के बाहर निकल जाऊंगा तब फिर कमरे की सुगंध और दुर्गंध का कोई अर्थ नहीं रह जाता, फिर वह प्रभावित नहीं करती।
प्राथमिक यात्रा में, ध्यान में जाते हो। तो अभी तुम मन और शरीर के ही कमरे से गुजर रहे हो। अभी तो असर होगा। अभी तो बहुत असर होगा। अभी तो ऐसा होगा कि जरा ही मन शिथिल होगा, शरीर अस्वस्थ होगा--सब ध्यान-व्यान गड़बड़ हो जाएगा। क्योंकि अभी तुम घेरे में तो वहीं हो। लेकिन जैसे-जैसे तुमने गति की, तुम एक दिन पाओगे कि तुम शरीर और मन के द्वार के बाहर निकल गए।
जिस दिन तुम बाहर चले गए उस दिन हालतें उलटी हो जाएंगी। उलटी ऐसी हो जाएंगी कि वह जो चित्त की दशा होगी वह तुम्हारे शरीर और मन को प्रभावित करने लगेगी, बजाय शरीर और मन के उसको प्रभावित करने के। जैसे ही तुम बाहर हुए वैसे तुम उलटे प्रभावक हो जाओगे, प्रभावित होने के लिए। और तुम्हारा शरीर जितना बीमार है उतना बीमार तुम्हें मालूम नहीं पड़ेगा और तुम्हारा मन जितना शिथिल है उतना शिथिल नहीं मालूम पड़ेगा। तुम एक ताजगी का स्रोत पा जाओगे जो निरंतर तुम्हें उपलब्ध है, जो तुम अपने मन और शरीर को भी बांटने लगते हो।
यह स्थिति जैसे-जैसे बढ़ती चली जाती है--शरीर और मन के बाहर मौत का कोई अनुभव नहीं है। तो जो लोग शरीर और मन के भीतर ही जीते हैं, मरते वक्त एकदम निढाल हो जाते हैं--एकदम। और ठीक मरने के कुछ देर पहले मूर्च्छित हो जाते हैं, मृत्यु मूर्च्छा में ही घटित होती है। लेकिन जो लोग सजग हैं और ध्यान की दुनिया में कहीं गए हैं, वे जब मरने लगते हैं तब वे मृत्यु पर ध्यान करते हैं। यानी तब--वह तो शरीर से दूर होने का अनुभव उन्हें हो चुका है--अब शरीर मर रहा है, इसे वे देख पाते हैं। अब शरीर शिथिल हो रहा है, इसे देख पाते हैं।
अभी मैं पिछले दिन कह रहा था, आस्पेंस्की मरा तो वह चलता हुआ मरा। उन्नीस सौ साठ में मरा। और उसके कोई पचास शिष्यों को उसने निमंत्रित किया हुआ था कि मेरी मौत देख जाओ आकर। तो वे पचास शिष्य इकट्ठे हैं और आस्पेंस्की टहल रहा है। और वह कहता है कि इतना समय और लगेगा, क्योंकि शरीर इतने दूर तक डूब गया है, इतने तंतु टूट गए हैं। और वह टहल रहा है। और वह कह रहा है, टहल मैं इसलिए रहा हूं ताकि मैं परिपूर्ण होश में अंतिम खबर देते हुए मरूं। यानी ऐसा न हो कि मैं लेट जाऊं और झपकी लग जाए। ...
वह टहल रहा है, टहल रहा है, टहल रहा है... मित्र सब इकट्ठे हैं। उसमें एक आदमी जो मौजूद था, निकोल, उसने संस्मरण लिखा है पूरा। और उसने लिखा है कि हम तो उसी दिन मृत्यु से मुक्त हो गए। क्योंकि उस आदमी को जब हमने मरते देखा है तो हम हैरान हो गए, क्योंकि पूरे वक्त हमें दिखाई पड़ने लगा सब पूरा का पूरा उस आदमी में कि वह मर भी रहा है और है भी। यानी इधर मरता भी जा रहा है और यह उसकी मौजूदगी में हम सबको एहसास होने लगा कि इधर वह मर रहा है और उधर वह होता भी जा रहा है, यानी वह है भी। कोई चीज खत्म भी नहीं हो रही है और कोई चीज डूब भी रही है। जैसे कोई चीज डूब रही हो, जैसे कि आपने वीणा छेड़ दी है और आखिरी स्वर गूंजता हुआ, गूंजता हुआ, गूंजता हुआ जा रहा है, ऐसे कोई चीज मिट भी रही है, लेकिन कोई चीज उसकी आंख से, उसके व्यक्तित्व से पूरी की पूरी मालूम पड़ रही है कि है।
और वह आखिरी क्षण तक टहलता ही रहा। और उसने कहा, बस यह आखिरी है मेरा जाना वहां तक। वहां तक मैं पहुंच पाऊं, इससे ज्यादा नहीं पहुंच पाऊंगा, क्योंकि आखिरी ताकत छोड़े दे रही है शरीर को। ये पंद्रह कदम और उठ सकते हैं, इतना मुझे लगता है। और एग्जेक्ट तेरहवें कदम पर वह गिर गया।
उन सब मित्रों ने लिखा है कि हमें मृत्यु पहली दफा... ऐसी सजग एक आदमी की मौत हुई। ऐसा फकीरों ने बहुत बार किया है, बहुत बार किया है। तो जो ध्यान में गया है वह उस जगह पहुंच जाता है जहां शरीर के और पीछे होने की संभावना खुलती है। जैसे मैं इस कमरे के भीतर जा चुका हूं। फिर यह मकान गिर रहा है, तो मैं हटता जा रहा हूं इस कमरे में, मैं कहता हूं कि यह मकान गिर जाएगा, अब यह दीवाल गिरने के करीब हो गई; अब मैं हट रहा हूं। और आप देख रहे हैं मुझे इस दरवाजे पर कि वह आदमी पीछे हट गया है कहता हुआ कि अब यह मकान गिरने को है। वह हट गया है मकान से। लेकिन वह न चिंतित है, न दुखी है, क्योंकि और मकान भी है और अस्तित्व भी है।
तो जो व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध हो जाता है, मरते वक्त परिपूर्ण होश में मरता है। और इसलिए अक्सर मृत्यु की सूचना दी जा सकती है।
अभी अमृतसर में हुआ न! मेरी अफवाह उड़ा दी, भारी अफवाह उड़ा दी कि मैं मर गया। वहां फोन हो गया कि मैं खतम हो गया। विधान सम्मेलन होने वाला है, उसमें मैं न आऊं ऐसा साधु-संन्यासियों ने कहा मेरे को। उन्होंने यह अफवाह उड़ा दी कि वे तो खतम ही हो गए अब। मैं अभी गया तो दो साधु मुझे मिलने आए। तो मैंने उनसे कहा कि तुम अपने सब साधुओं को कहना कि मैं इतनी जल्दी न मरूंगा। उनमें से कई को विदा कर दूंगा, फिर विदा होऊंगा। और दूसरा, मरूंगा तो पहले खबर कर दूंगा। इसलिए आइंदा से अखबार का ख्याल ही मत करना।
कोई अफवाह उड़ाता है... पहले राजकोट में ऐसा किया। वहां एक अफवाह उड़ा दी आज से दो साल पहले। मेरी मीटिंग थी, उसके पहले अफवाह उड़ा दी कि वे तो खतम ही हो गए, अब वे आएंगे कैसे। लोग न पहुंचें इसके लिए अफवाह उड़ा दी। तो उसका परिणाम बहुत अच्छा हुआ कि दस हजार लोग मुझे सुनते थे वहां, उस बार पच्चीस हजार लोगों ने सुना। लोग पता लगाने आए कि भई यह अफवाह है, दोनों खबरें हैं कि मर गए और एक खबर यह भी है कि भाषण होगा, तो जरा जाकर देख आएं कि यह मामला क्या है।
बिल्कुल बताया जा सकता है मौत को, बिल्कुल बताया जा सकता है। न केवल बताया जा सकता है बल्कि उसको नियमित भी किया जा सकता है। यानी ठीक ऐन वक्त पर मरा भी जा सकता है। वह भी कोई सवाल नहीं है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )
जो हो रहा है, हो रहा है। हमें कुछ कहने की भी जरूरत नहीं कि यह ठीक हो रहा है, वह गलत हो रहा है। सच में नहीं है जरूरत। सच में ही कोई जरूरत नहीं है, कोई जरूरत नहीं है। किसी को अच्छा, गलत, सही कहने की कोई जरूरत नहीं है। बल्कि उससे उसे तो फायदा शायद ही होता हो, हमें नुकसान होता है। क्योंकि हमारा चित्त तो उतने द्वंद्व में पड़ जाता है, अकारण पड़ जाता है। अकारण पड़ जाता है। यानी जिसमें हमारा कोई कारण ही नहीं है, जिससे हमें कोई लेना-देना नहीं है। एक तो यह ध्यान में लें।
और दूसरा यह कि जो भी काम कर रहे हैं उस काम को करते वक्त उसी काम को करें, इसकी थोड़ी फिकर लें। जैसे खाना ही खा रहे हैं, तो खाना खाते वक्त इसकी फिकर करें कि खाना ही खा रहे हैं। हमारा मन दुकान में इत्यादि में नहीं जा रहा है, खाने में ही लगा हुआ है, तो खाना ही खा रहे हैं। स्नान कर रहे हैं तो स्नान ही कर रहे हैं। उस वक्त कहीं कुछ और नहीं जा रहे हैं। दूसरी बात यह ध्यान में रखें--जो काम कर रहे हैं उसमें जितना ज्यादा, जितना ज्यादा उसमें रुक सकें उतना अच्छा है।
और तीसरा साक्षी का भाव रखें। जैसे साक्षी का भाव यह है कि जो भी हो रहा है--सफलता हो रही है, असफलता हो रही है, लाभ हो रहा है, हानि हो रही है--उसमें हम सिर्फ देखने वाले हैं, इससे ज्यादा हमारा कोई मतलब नहीं है।
प्रश्नः इसमें मैं जो कर रहा हूं, वह इस प्रकार का जागृति का भाव रख रहा हूं--कोशिश कर रहा हूं, प्रयत्न है, होगा कि नहीं होगा, पता नहीं। फिर भी हो रहा है--जैसे मैं हाथ से कोई काम कर रहा हूं तो यही याद रहे कि हाथ कर रहा है, टांगें कर रही हैं, चल रहा हूं तो टांगें चल रही हैं। यह भाव आ रहा है। इसमें मैं अपने आपको तो अलग करता हूं, तो इससे वह असंग...
हां, यह साक्षी-भाव हुआ। यह तीसरा जो मैं कह रहा हूं, बिल्कुल साक्षी-भाव हुआ यह। यह साक्षी-भाव, प्रत्येक कार्य को पूरा जीना और तथाता का भाव रखना कि चीजें ऐसी हैं। किसी चीज में कोई कारण ही नहीं कि हम उपद्रव में चले जाएं, कोई कारण ही नहीं है। ये तीनों अगर सम्हलती चली जाएं तो धीरे-धीरे-धीरे-धीरे वर्तमान अपने आप... और कुछ रह ही नहीं जाएगा, वह आ ही जाएगा वर्तमान। कुछ और रहने का कारण ही नहीं है, कोई उपाय ही नहीं है। और तथाता पर जो आज मैंने कहा उस पर बहुत ध्यान देने की जरूरत है। बहुत बेसिक है वह।
प्रश्नः तो यह है कि सब चीज देखते रहो। हो रहा है।
हां-हां। और उस वक्त जब भी... बार-बार मन पकड़ाएगा कि अरे यह फलाना हो रहा है, उस वक्त थोड़ा ध्यान रखो कि यह फिर वही हुआ जा रहा है। और जैसे ही ख्याल आ जाए, वापस लौटा लें मन को।
प्रश्नः यह, आचार्य श्री, फैक्चुअल बात है कि हमारे करने से कुछ होने वाला नहीं है? सचमुच जैसा हो रहा है वैसा ही होने दें?
फैक्चुअल हो या न हो। समझे न! तुम्हारी समाधि में उतरने के लिए सहयोगी है। यानी यह सवाल बहुत बड़ा नहीं है कि यह फैक्चुअल है या नहीं। यह सवाल बड़ा नहीं है।
मेरी तो जो अपनी दृष्टि है वह यह है कि कई दफा बहुत अदभुत चीजें खोजी गई हैं, लेकिन हमने उनको ऐसी जगह पकड़ कर फंसा दिया चीजों को, विचारों को--जैसे भाग्य है। भाग्य फैक्चुअल नहीं है, लेकिन समाधि के लिए बड़ा अर्थपूर्ण है। अगर एक आदमी पूर्ण भाग्यवादी है तो समाधि के लिए उसको बाधा ही नहीं है। बात खतम हो गई। फैक्चुअल का सवाल नहीं है यह कि भाग्य होता है कि नहीं होता है। वह एक बेवकूफी में डाल दिया सवाल को कि भाग्य होता है कि नहीं होता है। जिन्होंने खोजा था उन्होंने तो डिवाइसेस फॉर मेडिटेशन है। ये सब उपाय हैं जिनके बीच में ध्यान घटित हो जाएगा। भाग्य का मतलब यह है कि अब कोई सवाल ही नहीं है।
प्रश्नः सब कुछ खराब कर दिया इन्होंने।
यह इतना अजीब मामला हो जाता है न, अजीब मामला... और छोटी-छोटी बेवकूफी की बातों में उसको लागू करते रहेंगे। फिर वह फैक्चुअल का पूछने लगता है आदमी कि यह फैक्चुअल कैसे है? वह है डिवाइस बिल्कुल। यानी वह है सिर्फ एक उपाय। और उपाय जो है वह सब काल्पनिक है। क्योंकि कल्पना को ही काटना है। सत्य हो कैसे सकता है उपाय!
यानी अगर कांटा झूठा लगा है तो निकालने वाले सच्चे कांटे से तुम कैसे निकाल सकोगे? और सच्चे कांटे से निकालोगे तो और झंझट में पड़ जाओगे। झूठा निकल जाएगा, सच्चा फंस जाएगा। तो वह झूठा जितना दुख दे रहा था उससे ज्यादा दुख यह देगा। झूठे कांटे को तो झूठे कांटे से ही निकालना होगा।
तो अगर बहुत गहरे में समझो तो सब विधियां झूठी हैं। क्योंकि हम झूठ में फंसे हैं, वे झूठ को निकालने के लिए सिर्फ हैं। निकल गया तो बात खतम हो गई। दोनों झूठ कट गए और हम अपनी जगह पर खड़े हो गए।
अब भाग्य इतना अदभुत है कि अगर किसी को ख्याल में आ जाए कि यह सब भाग्य है, तो बात ही खत्म हो गई। यानी अब प्रश्न क्या रहा सोचने का? उपाय क्या रहा सोचने का? गरीबी आई है, अमीरी आई है, दुख आया, सुख आया, बीमारी आई, कोई जीया, कोई मरा, वह आदमी कहता हैः सब भाग्य है। अगर यह पूरा भाव...
प्रश्नः पूरा होना चाहिए!
हां, पूरा। नहीं तो बेकार हो जाए, उसमें कोई मतलब नहीं होगा। तो जो भाग्य है--जैसे मैंने तथाता का कहा, तथाता बौद्ध विचार है, भाग्य हिंदू धारणा है, लेकिन मूल्य वही है उसमें। मूल्य उसका वही है, कि तुम अगर मुझे चांटा भी मार दो...
अब जैसे कि यह कल मैंने कहा। कल कोई आया था। अब मेरी बड़ी तकलीफ है। मेरी तकलीफ यह है कि मुझे वह चीज दिखाई पड़ती है कि वह मामला ऐसा है। लेकिन उसके आस-पास इतना जाल बुना हुआ है कि जब मैं उसकी बात भी करता हूं तो वह जाल तुम्हारे दिमाग से निकालना मुश्किल हो जाता है।
कल एक आदमी आया और उसने कहा, क्या आप कहते हैं कि कोई आदमी हमको चांटा मार दे, गाली दे दे, तो हम ऐसा समझें कि पिछले कर्म का फल है?
अब यह फैक्ट नहीं है। लेकिन यह भी डिवाइस है। किसी कर्म-वर्म का फल नहीं है। तुम्हारे कर्म-वर्म के फल सब निपट गए। लेकिन यह भी डिवाइस है। अगर कोई मुझे चांटा मारे और मेरे मन में यह पूर्ण भाव हो कि यह मेरे किसी किए का फल लौट रहा है, तो न मैं चिंता करूंगा, न मैं क्रोध करूंगा। क्योंकि यह सिर्फ लौटती हुई धारा है, जो मैंने किया था वह लौट आया, बात खतम हो गई। तो यह ध्यान में सहयोगी हो जाएगा।
मगर ये सब हैं ध्यान की सहयोगी व्यवस्थाएं, और सब झूठी हैं। और जब ये दोनों बातें मैं कहता हूं तो मुश्किल हो जाती है खड़ी। क्योंकि ये सच्ची तो नहीं हैं, सच्ची मैं इनको कह नहीं सकता।
प्रश्नः और वह भाग्य भी जैसा वह समझे वैसा ही वह झूठा ही है, काल्पनिक, सारी चीज काल्पनिक है।
बिल्कुल झूठा ही है, काल्पनिक। मगर सहयोगी है। क्योंकि दूसरी कल्पना को तोड़ सकती है, बस इतना काम काफी है उसके लिए। यानी मामला ऐसा है जैसे एक घर में भूत है और तुम परेशान हो। और मैंने कहा कि लाओ मैं एक ताबीज बांधे देता हूं, मंत्र फूंके देता हूं, भूत खतम। ताबीज बांध कर मंत्र फूंक दिया, ताबीज हाथ में आ गया, भूत का डर चला गया। मगर अब यह ताबीज फंस गया। अब यह ताबीज तोड़ने की हिम्मत भी नहीं जुटा सकते, कि ताबीज तोड़ा कि भूत आ जाएगा। वह भी एक झूठ था और यह भी एक झूठ है। मजा यह है कि उस झूठ को इस झूठ से निकाला था, अब तुम इस झूठ से फंस गए।
समझ में अगर आ जाए तो पूरब ने बड़ी अदभुत बातें खोजी थीं, जो व्यक्ति को समाधि में ले जाने का मार्ग बन जाती हैं।
प्रश्नः लेकिन सब गलत दूसरे तरीके से...
सब गलत, उन्होंने सबने नुकसान पहुंचा दिया। क्योंकि भाग्यवाद से समाधि तो न आई, भाग्यवाद से दरिद्रता आई, कायरता आई। यानी यह अजीब मामला है।
अब यह तथाता जो है इससे समाधि तो न आए, बुद्धू आदमी इससे चोरी-चपाटी करने लगे कि तथाता का मामला है, इसमें झंझट क्या है! यानी जैसा होना है, होना है। अपने को क्या करना है। चोरी होना है तो हो रही है, इसमें कोई क्या करेगा। यह सारा मामला है। सब ऊंचे से ऊंचा सिद्धांत भी नीचे से नीचा अर्थ दे सकता है और नुकसान पहुंचा सकता है।
प्रश्नः और यह रॉ-ईटिंग का भी कुछ थोड़ा फर्क है?
रॉ-ईटिंग का ऐसा है, आपको तो कोई नुकसान होने वाला नहीं, इसलिए मैंने आपसे कुछ कहा नहीं, आपको कोई नुकसान होने वाला नहीं। लेकिन अगर किसी व्यक्ति को जन्म से ही खिलाया जाए, तो थोड़े नुकसान हो सकते हैं। और दो-तीन पीढ़ियों तक खिलाया जाए, तो बहुत नुकसान हो सकते हैं। इतना अजीब सब है, असल में आदमी के शरीर पर से बाल गिर गए हैं, कम हो गए हैं, उसका भी हाथ रॉ-ईटिंग बंद होने की वजह से। नहीं तो आदमी के पूरे शरीर पर भालू जैसे बाल होंगे, अगर रॉ-ईटिंग जारी रहे तो। अगर रॉ-ईटिंग जारी रहे तो। क्योंकि रॉ-ईटिंग में वे तत्व चले जाते हैं जो बालों को बहुत बड़ा कर देते हैं। तो आदमियों के शरीर से बाल गिर गए हैं, बाकी जानवरों के नहीं गिरे, उसका कुल कारण है कि उनका सब ईटिंग रॉ है और आदमी का पक्के। तो पकने में वे तत्व मर जाते हैं जो बालों को अति ग्रोथ देते हैं।
तो हजार चीजें जुड़ी हुई हैं पीछे। अच्छा, और अगर रॉ-ईटिंग... तो है क्या कि आदमी का जो पेट है... जानवर इतना चलता है, दौड़ता है, यह सब करता है, इतनी गर्मी पैदा कर लेता है उसका पेट कि वह कच्चे को पचा जाता है। अब आदमी जो है वह न इतना जानवर की तरह दौड़ता है, न चलता है, न पत्थर फोड़ता है, तो उसको गर्मी तो पेट में पैदा होती नहीं, और रॉ-ईटिंग कर ले। तो इस कच्चे को पचाने के लिए जठराग्नि उसकी काम की नहीं है। तो वह अग्नि जो है वह सिर्फ सब्स्टीट्यूट है। जो आग हम पैदा पेट में नहीं कर पा रहे हैं, वह हम चूल्हे में कर रहे हैं। वह जो चूल्हे में आग जल रही है वह हमारा आधा काम निबटाए दे रही है वहां, जो हमको करना पड़ेगा। और वह जानवर को करने की जरूरत नहीं, उसके पेट में इतनी आग जल रही है। और आग के मामले ऐसे हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं।
अब तुम हैरान होओगे जान कर, कश्मीरी लोग हैं न, तो वह क्या कहते हो तुम उसको, कांगड़ी, तो वे कांगड़ी रखे रहते हैं। उनकी पूरी छाती जल जाती है। और उनके पेट में इतनी गर्मी पैदा हो जाती है कि यह मानना है कि कश्मीरी स्त्री से संभोग करना बहुत कठिन मामला है, गैर-कश्मीरी को। करे तो पूरे शरीर में आग मालूम पड़े। उसके पेट में इतनी आग हो जाती है कि उसकी पूरी की पूरी बॉडी जैसे बिल्कुल अंगार हो जाती है।
वह अंग्रेजों ने अनुभव लिखे हैं अपने कि कश्मीरी स्त्री से कभी संभोग में मत पड़ जाना। नये आफिसर्स को सूचना देते थे कि कश्मीरी स्त्री से बचना। क्योंकि उससे संभोग करना बीमारी में पड़ना है बिल्कुल पक्का। और आफिसर्स तो कर लेते थे पकड़ कर, किसी को बुला लेते थे। उन्हें क्या दिक्कत थी! और जहां ठहरे वहीं बुलाना ही है उनको। तो इसकी हिदायत है कि कश्मीरी औरत से बच जाना।
तो अब यह एक-एक चीज...
प्रश्नः और ये जुड़ी हुई हैं।
हां, जुड़ी हुई हैं। तो मेरा अपना मानना यह है कि मिक्स ईटिंग अच्छी है। रॉ-ईटिंग के कुछ फायदे हैं, तो कुछ चीजें कच्ची खाएं, कुछ चीजें पकी खाएं। वैसे आपको कोई अब नुकसान होने का कारण इसलिए नहीं है...
प्रश्नः नहीं, आधी तो मेरी खुराक पक्की है।
बस, तब ठीक है। मिक्स्ड ईटिंग। मैं टोटल रॉ-ईटिंग के पक्ष में नहीं हूं।
प्रश्नः दो रोटी खाता ही हूं। उसके साथ ही फल वगैरह...
बस ठीक है। कुछ पक्का खाएं, कुछ कच्चा खाएं, वह ठीक है। कच्चे का कुछ फायदा है वह मिलता रहेगा, पक्के का कुछ फायदा है वह मिलता रहेगा। और अब आपको नुकसान का सवाल नहीं है, इसलिए कि अब बॉडी आपकी बन तो रही नहीं है, अब बनने का सवाल नहीं है। यह तो बच्चे के लिए प्रॉब्लम है, जिसकी बॉडी बन रही है। अब एक उम्र के बाद तो बॉडी फिर बनती नहीं, वह तो फिर सिर्फ समाप्त होती है। सच बात तो यह है कि पैंतीस साल के बाद उतरना शुरू हो जाता है। बॉडी नहीं बन रही, अब सेल्स टूट रहे हैं। तो अब आप क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, इसमें इतना ही ध्यान रखना जरूरी है कि वह हलका हो, बस। इससे ज्यादा कोई मतलब नहीं है।
इसलिए मैंने आपको नहीं कहा। उसमें कोई चिंता लेने की बात नहीं है। आप तो अपना जारी रखें, उसमें कोई हर्जा नहीं है।
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