चौथा प्रवचन-परम जीवन का सूत्र
मेरे प्रिय आत्मन्!
योग का आठवां सूत्र। सातवें सूत्र मैं मैंने आपसे कहा, चेतन जीवन के दो रूप हैं--स्व चेतन, सेल्फ कांशस और स्व अचेतन, सेल्फ अनकांशस।आठवां सूत्र हैः स्व चेतना से योग का प्रारंभ होता है और स्व के विसर्जन से अंत। स्व चेतन होना मार्ग है, स्वयं से मुक्त हो जाना मंजिल है। स्वयं के प्रति होश से भरना साधना है और अंततः होश ही रह जाए, स्वयं खो जाए, यह सिद्धि है।
स्वयं को जो नहीं जानते, वे तो पिछड़े ही हुए हैं; जो स्वयं पर ही अटक जाते हैं, वे भी पिछड़ जाते हैं। जैसे सीढ़ी पर चढ़ कर कोई अगर सीढ़ी पर ही रुक जाए, तो चढ़ना व्यर्थ हो जाता है। सीढ़ी चढ़नी भी पड़ती है और छोड़नी भी पड़ती है। मार्ग पर चल कर कोई मार्ग पर ही रुक जाए, तो भी मंजिल पर नहीं पहुंच पाता। मार्ग पर चलना भी पड़ता है और मार्ग छोड़ना भी पड़ता है, तब मंजिल पर पहुंचता है। मार्ग मंजिल तक ले जा सकता है, अगर मार्ग को छोड़ने की तैयारी हो। और मार्ग ही मंजिल में बाधा बन जाएगा, अगर पकड़ लेने का आग्रह हो।
स्वयं के प्रति होश से भरना सहयोगी है स्वयं के विसर्जन के लिए। लेकिन अगर स्वयं को ही पकड़ लिया जाए, तो जो सहयोगी है वही अवरोध हो जाता है।
इस सूत्र को समझना बहुत--शायद सर्वाधिक--महत्वपूर्ण है। स्वयं को पाने की तो हमारी उत्कट आकांक्षा होती है, लेकिन स्वयं को खोना कठिन बात है। इसलिए बहुत से साधक योग के सातवें सूत्र तक आते हैं,
आठवें सूत्र पर नहीं आ पाते। सातवें सूत्र तक हमारे अहंकार को कोई भी बाधा नहीं है। सातवें सूत्र तक की यात्रा ईगो-सेंट्रिक है, अहंकार-केंद्रित है। इसलिए सातवें सूत्र तक साधक से अगर कहें कि धन छोड़ दो, तो साधक धन छोड़ देगा। कहें कि परिवार छोड़ दो, तो परिवार छोड़ देगा।
कहें कि यश छोड़ दो, महत्वाकांक्षा छोड़ दो, सिंहासन छोड़ दो, सब छोड़ देगा। लेकिन सब छोड़ने के पीछे मैं मजबूत होता चला जाता है। साधना में भी उत्सुक होगा इसीलिए कि वह मैं और निखर जाए। साधना में भी इसीलिए लगेगा कि मैं कुछ हो जाऊं। परमात्मा को भी इसीलिए खोजेगा कि कहीं मैं परमात्मा के बिना न रह जाऊं।
सातवें तक आने में अड़चन, कठिनाई नहीं है। असली कठिनाई सातवें के बाद आठवें सूत्र को समझने में है, क्योंकि आठवां सूत्र स्वयं को खोने का सूत्र है, स्वयं के विसर्जन का सूत्र है। सातवें सूत्र तक सिद्धियां मिल सकती हैं, शक्तियां मिल सकती हैं। सातवें सूत्र तक अपार ऊर्जा, अपार शक्ति का जन्म हो जाएगा। लेकिन परमात्मा से मिलन नहीं हो सकता है। सातवें सूत्र तक स्वयं से ही मिलन होगा।
स्वयं से मिलन भी छोटी बात नहीं है, बहुत बड़ी बात है। लेकिन पिछले छह सूत्रों की दृष्टि से बड़ी बात है, आठवें सूत्र की दृष्टि से बड़ी बात नहीं है। स्वयं को पा लेना भी बहुत कठिन है। स्वयं को भी पूरा जान लेना बहुत कठिन है। लेकिन उससे भी ज्यादा कठिन स्वयं को खोना और विसर्जित करना है।
अगर एक व्यक्ति कारागृह में कैद हो, तो कारागृह से मुक्त होने के लिए पहली शर्त तो यही होगी कि वह जाने कि कारागृह में कैद है। अगर उसे यह पता ही न हो कि वह कारागृह में कैद है, तब तो कारागृह से मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है। पहली शर्त होगी कारागृह से मुक्त होने कीः यह जानना कि मैं कारागृह में हूं। दूसरी शर्त होगी कि कारागृह को ठीक से पहचानना कि कारागृह क्या है? कहां है दीवाल? कहां है द्वार? कहां है मार्ग? कहां हैं खिड़कियां? कहां हैं सींखचे? कहां है कमजोर रास्ता? कहां से निकला जा सकता है? कहां पहरेदार है? दूसरा सूत्र होगाः कारागृह से पूर्णतया परिचित होना, कारागृह के प्रति पूरी तरह सचेतन होना। तब कहीं कारागृह से छुटकारा हो सकता है।
मनुष्य के गहरे व्यक्तित्व में स्व ही कारागृह है; सेल्फ, मैं, अहंकार ही कारागृह है। छोटा कारागृह नहीं है, बड़ा है। बड़ी शक्तियों से भरा है, बड़े खजाने डूबे हैं, पर है कारागृह। उसके बाहर और विराट का विस्तार है, जहां स्वतंत्रता है, जहां मुक्ति है।
पहले तो हमें इस अपने स्व का ही कोई पता नहीं है कि कितना बड़ा है? क्या है? इसका पता लगाना सातवें सूत्र तक पूरा होता है। और जब इसका पूरा पता लगता है तो खतरा है बड़ा, वह खतरा आपसे कहूं। वही खतरा जो पार कर ले वह आठवें सूत्र को समझ पाएगा। जैसे ही पता चलता है कि इतनी संपत्तियां, इतने हीरे-माणिक, इतने खजानों का मैं मालिक हूं, वैसे ही कारागृह कारागृह नहीं, सम्राट का महल मालूम पड़ने लगता है।
अगर एक कैदी को भी यह पता चल जाए कि कारागृह में इतने खजाने गड़े हैं, इतना सोना है, इतनी संपदा है, अगर उसको भी कारागृह के खजानों को पता चल जाए, तो शायद वह भी यह बात इनकार कर दे कि यह कारागृह है। यह महल है सम्राट का! और शायद ये खजाने ही उसे अब कारागृह से बाहर जाने के लिए बाधा बन जाएं। हो सकता है पहरेदार इतना न रोक सके होते और जंजीरें इतना न रोक सकतीं, हो सकता है सारा इंतजाम कारागृह का न रोक सका होता उसे बाहर जाने से, लेकिन कारागृह में मिले खजाने रोक सकते हैं।
जिस दिन हमें अपनी स्वयं की पूरी संपदा का, अपने स्वयं के पूरे सुख का, अपनी स्वयं की पूरी शक्ति का पता चलता है, उस दिन यह खतरा है कि हम भूल जाएं कि यह स्व बड़ी छोटी भूमि है, यह बड़ी अनंत भूमि का एक छोटा सा टुकड़ा है। यह ऐसे ही है, जैसे किसी ने मिट्टी के घड़े में पानी भर कर सागर में छोड़ दिया हो। वह मिट्टी के घड़े के भीतर पानी है सागर का ही। लेकिन बाहर के सागर, उस मिट्टी के घड़े के बाहर जो सागर है, उससे क्या तुलना है!
हम भी मिट्टी के घड़े हैं। बहुत है भीतर। वही है जो परमात्मा का है, सागर का ही है। लेकिन बाहर जो है उसका क्या? उसकी क्या तुलना है? यह मिट्टी के घड़े को भी एक दिन तोड़ना ही पड़ता है। यह जो सेल्फ है, यह जो मैं हूं, यह जो आत्म का भाव है, यह जो ईगो है, अहंकार है, यह घेरे हुए है। लेकिन जिस दिन स्वयं की पूरी गरिमा का पता चलता है, उस दिन मिट्टी का घड़ा सोने का घड़ा हो जाता है। तोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है।
इसलिए बहुत बार साधक को अदभुत तरह के अहंकारों का जन्म होता है। बहुत बार साधना के पथ पर चलने वाले को जो अंतिम चीज आखिर में रोक लेती है, वह वह जगह है जहां उसका मैं सोने का हो जाता है, जहां उसे लगता है कि मैं अनंत वीर्य, अनंत ज्ञान, अनंत शक्ति का मालिक हूं। यह घोषणा उसके भीतरी मैं की बड़ी गहरी घोषणा बन जाती है। जो इस पर रुक जाते हैं वे सातवें सूत्र पर रुक जाते हैं। और यह रुक जाना वैसा ही है जैसे कोई आदमी अपनी मंजिल के करीब आकर और द्वार पर रुक जाए। सारा रास्ता तय करे और मंदिर के बाहर ठहर जाए।
ऐसा होता भी है। हजारों मील आदमी चल लेता है, और मंजिल के पास आकर एक-एक कदम उठाना मुश्किल हो जाता है। हजारों मील चल लेता है, जब तक दूर होती है मंजिल तब तक दौड़ लेता है, जैसे-जैसे पास आने लगती है वैसे-वैसे थकान पकड़ने लगती है। अक्सर ऐसा हुआ है कि लोग मंदिरों के बाहर आकर विश्राम को चले गए हैं।
अनेक साधक सातवें सूत्र पर आकर अटक जाते हैं। आठवां सूत्र छलांग है, बड़ी छलांग है। स्वयं को पाने की बात बहुत बड़ी नहीं है, स्वयं को खोने की बात बहुत बड़ी है।
फिर मन में सवाल उठता है कि स्वयं को खोना किसलिए? स्वयं ही न होंगे तो जो भी होगा उसका क्या प्रयोजन है, क्या अर्थ है? स्वयं ही न होगा तो फिर क्या होगा मोक्ष? क्या होगा परमात्मा? क्या होगा योग? क्या होगा धर्म? स्वयं के लिए मुक्ति छोड़ी जा सकती है; स्वयं से मुक्ति बड़ी कठिन बात है। फ्रीडम फॉर दि सेल्फ, स्वयं के लिए मुक्ति तो आसान है; मन करता है कि मैं स्वतंत्र हो जाऊं, मुक्त हो जाऊं। लेकिन फ्रीडम फ्रॉम दि सेल्फ, वह स्वयं से मुक्ति, वहां जाकर एकदम अटकाव आ जाता है। मन वहां आखिरी छलांग की तैयारी है।
लेकिन योग के पास मार्ग हैं, जिनसे उस आखिरी छलांग को भी पूरा किया जा सकता है।
सातवें सूत्र के बाद आठवें सूत्र में प्रवेश के लिए जो सबसे बड़ी खोज शुरू होती है वह होती है, मैं कौन हूं? इसकी खोज शुरू होती है। मैं क्या हूं? यह सातवें सूत्र तक पता चल जाता है। क्या हूं? मैं कहां तक हूं? यह सातवें सूत्र तक पता चल जाता है। लेकिन मैं कौन हूं? यह सातवें सूत्र तक पता नहीं चलता। इसकी खोज ही आठवां सूत्र बनती है--कि मैं कौन हूं? और जितना गहरे हम खोजते हैं, उतना ही हम पाते हैं कि यहां भी मेरा अंत नहीं है, यहां भी मैं नहीं हूं और आगे भी हूं, बियांड एंड बियांड। खोज चलती जाती है, खोज चलती जाती है और सब सीमाएं टूट जाती हैं और आखिर में पता चलता है कि जो भी है वह सभी कुछ मैं हूं। जिस दिन यह पता चलता है कि जो भी है वह सभी कुछ मैं हूं, उस दिन मैं नहीं बचता, क्योंकि तू नहीं बचता, कोई तू नहीं रह जाता बाहर फिर। सभी कुछ मैं हूं, फिर कोई तू नहीं रह जाता।
गदर, अठारह सौ सत्तावन की क्रांति के समय एक संन्यासी को अंग्रेज सिपाहियों ने मार डाला था। वह तीस वर्ष से मौन था, चुप था। लोगों ने उससे पूछा था कि चुप्पी क्यों ले रहे हो? मौन क्यों हो रहे हो? तो उसने कहा था, जो मैं कहना चाहता हूं वह कह नहीं सकता हूं, क्योंकि शब्द असमर्थ हैं; और जो मैं कह सकता हूं उसे कहना नहीं चाहता हूं, क्योंकि वह व्यर्थ है। इसलिए चुप हो गया हूं।
फिर वह तीस साल चुप था। नग्न, चुप, मौन भटकता रहता था। रात गुजर रहा था रास्ते से, अंग्रेज सिपाहियों की छावनी थी, उन्होंने उसे कोई डिटेक्टिव, कोई जासूस समझ कर पकड़ लिया। उससे बहुत पूछा कि तुम कौन हो? लेकिन जब वे उससे पूछते थे--तुम कौन हो? तो वह हंसता था।
वह मौन था, उत्तर भी नहीं दे सकता था। और कौन हूं मैं, इसका उत्तर अब तक किसने दिया है? उत्तर दिया भी नहीं जा सका है। जब उत्तर मिलता है तब तक मैं खो जाता है, और जब तक मैं होता है तब तक उत्तर नहीं मिलता। तो वह जो पहेली है, वह अब तक हल नहीं हो पाई, कभी हल होगी भी नहीं। वह खोजने वाला जब खत्म हो जाता है तब उत्तर मिलता है। तब उत्तर का कोई मतलब नहीं है। और जब तक वह खोजने वाला मौजूद रहता है तब तक उत्तर मिलता नहीं। तब तक उत्तर दिया नहीं जा सकता, क्योंकि मिलता ही नहीं।
वह हंसता था खिलखिला कर। जितना वह हंसता था, उतने सिपाही नाराज होते गए। अंततः उन्होंने संगीन उसकी छाती में भोंक दी। वे समझे कि वह धोखा दे रहा है। मरते वक्त उसने दो शब्द जरूर कहे थे, तीस साल का मौन उसने मरते वक्त तोड़ा था। बड़ा अजीब था उसके तीस साल के मौन का टूटना। और जो उसने उत्तर दिया था वह और भी अजीब था। क्योंकि पूछ रहे थे वे सिपाही कि कौन हो तुम? इसका उसने कोई उत्तर नहीं दिया। मरते वक्त आंख खोल कर वह फिर हंसा था और उसने उपनिषद के एक महावाक्य का प्रयोग किया था और मारने वाले, संगीन भोंकने वाले अंग्रेज सिपाहियों से कहा थाः तत्वमसि श्वेतकेतु! तुम भी वही हो श्वेतकेतु, तुम भी वही हो!
पूछा था, कौन हो तुम? मरते वक्त उत्तर दिया था, तुम भी वही हो! यह नहीं कहा था कि मैं कौन हूं, कहा कि तुम भी वही हो। बाकी छोड़ दिया, वह अंडरस्टुड है। वही हूं मैं, उसे छोड़ दिया। क्योंकि कौन कहे वही हूं मैं, अब वह बचा ही नहीं। इसलिए उत्तर बड़े चक्कर से दिया था, बहुत राउंड अबाउट था। कहा कि तुम भी वही हो, दैट आर्ट दाऊ।
पता नहीं वे सिपाही समझे, नहीं समझे। मुश्किल ही है कि समझे हों।
मैं कौन हूं? इसकी खोज अंततः मैं का विसर्जन बन जाती है। इसकी खोज सातवें सूत्र के बाद ही हो सकती है, इसके पहले बहुत कठिन है। सातवें सूत्र के बाद सरल है। पूछ सकते हैं हम, क्योंकि अब जाग गए हैं, प्रकाश से भर गए हैं, पूछ सकते हैं--मैं कौन हूं? और यही प्रश्न एकमात्र धार्मिक प्रश्न है। इसका उत्तर कभी नहीं मिलता। ऐसा नहीं है कि आपको उत्तर मिल जाता है कि आप परमात्मा हो। जब तक ऐसा उत्तर आए, समझना आपकी स्मृति ही उत्तर दे रही है। शास्त्र पढ़े हैं, वे ही बोल रहे हैं। शब्द सुने हैं, वे ही बोल रहे हैं। सिद्धांत सीखे हैं, वे ही बोल रहे हैं।
यह आठवां सूत्र शास्त्रों से हल नहीं होगा, सिद्धांतों से हल नहीं होगा। इसलिए इस आठवें का उत्तर अगर आपका मन दे दे कि ब्रह्म हो। या मैंने अभी कहा, तत्वमसि श्वेतकेतु, आपने भी पढ़ा है। पूछें अपने से कि मैं कौन हूं? और मन कह दे, वही हो! इससे हल नहीं होगा। जब तक आप उत्तर दे सकते हो तब तक उत्तर नहीं मिलेगा, क्योंकि आपके पास उत्तर नहीं है, सिर्फ शब्द हैं। मैं कौन हूं? यह प्रश्न इतना गहरा बन जाए कि आपके भीतर उत्तर उठे ही न, बस प्रश्न ही रह जाए--मूक प्रश्न ही रह जाए, साइलेंट क्वेश्चनिंग ही रह जाए। श्वास-श्वास पूछने लगे--मैं कौन हूं? रोआं-रोआं पूछने लगे--मैं कौन हूं? धड़कन-धड़कन पूछने लगे--मैं कौन हूं? उठते, बैठते, चलते, पूछते, न पूछते प्रश्न मन में गूंजने लगे कि मैं कौन हूं? और उत्तर कोई भी न हो। उत्तर है ही नहीं। क्योंकि अगर उत्तर ही आपके पास हो तब तो पूछने की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन हम सबके पास उत्तर हैं। इसलिए आठवें सूत्र में समस्त शास्त्र बाधा बन जाते हैं, समस्त ज्ञान बाधा बन जाता है। वह जिसको हम नालेज कहते हैं, ज्ञान कहते हैं, जो हमने सीखा है, समझा है, याद किया है, वह सब बाधा बन जाता है। श्रेष्ठतम भी वचन बाधा बन जाते हैं। गीता, कुरान, बाइबिल, सब बाधा बन जाते हैं। जो भी हमने पढ़ा है, जो भी हमने सीखा है, वह उस आठवें सूत्र में बाधा देने लगता है। क्योंकि हमारी स्मृति उत्तर देती है कि यह हूं मैं, यह हूं मैं, यह हूं मैं। इन सब उत्तरों को तोड़ डालना पड़ेगा। ये कोई उत्तर हमारे नहीं हैं। ये जिन्होंने दिए होंगे, उन्होंने जान कर दिए हैं। जिन्होंने दिए होंगे, उन्होंने समझ कर दिए हैं। लेकिन ये उत्तर हमारे नहीं हैं। यह उत्तर मेरा नहीं है। यह जानना मेरा नहीं है। यह बारोड है, उधार है, बासा है।
इस आठवें सूत्र के पहले सब ज्ञान छोड़ कर मनुष्य को पुनः अज्ञानी हो जाना पड़ेगा। और जो अज्ञानी होने को समर्थ हैं... यह अज्ञान बहुत और तरह का है। सुकरात ने एक छोटा सा अच्छा विभाजन किया है। और वे लोग जो आठवें सूत्र के करीब पहुंचे, उनमें से सुकरात एक है।
सुकरात को गांव के कुछ लोगों ने आकर कहा कि डेल्फी की देवी ने घोषणा की है कि सुकरात से बड़ा ज्ञानी और कोई भी नहीं है। तो उन लोगों ने आकर कहा कि डेल्फी की देवी का वचन है कि सुकरात से बड़ा ज्ञानी और कोई भी नहीं है--आप क्या कहते हैं? सुकरात ने कहा, जरूर कहीं कोई भूल हो गई है। क्योंकि मैं तुमसे कहता हूं, सुकरात से बड़ा अज्ञानी और कोई भी नहीं है। पर उन्होंने कहा, यह तो बड़ी मुश्किल हो गई। अब हम अगर डेल्फी की देवी की बात मानें कि सुकरात ज्ञानी है तो सुकरात की बात माननी पड़ेगी। और सुकरात कहता है, सुकरात से बड़ा अज्ञानी और कोई भी नहीं। और अगर हम सुकरात की बात मानें कि सुकरात से बड़ा अज्ञानी कोई नहीं, तो डेल्फी के वचन का क्या होगा? उन्होंने कहा, हमें मुश्किल में डाल दिया सुकरात। सुकरात ने कहा, हमारा काम ही मुश्किल में डालना है। हम भी बहुत मुश्किल में पड़े तब यहां तक आ पाए। पर उन्होंने कहा, अब हम क्या समझें? तो सुकरात ने कहा, जाकर वापस डेल्फी की देवी से पूछो।
वे वापस गए और उन्होंने डेल्फी की देवी से पूछा कि सुकरात तो कहता है कि उससे बड़ा अज्ञानी और कोई भी नहीं है और आप कहती हैं कि उससे बड़ा ज्ञानी कोई नहीं है! डेल्फी की देवी ने कहा, इसीलिए, इसीलिए! इसीलिए कहती हूं कि उससे बड़ा ज्ञानी कोई भी नहीं है, क्योंकि जिसको अपने अज्ञान का पता चल गया वह ज्ञान के द्वार पर खड़ा हो गया है। वे लौट कर आए, उन्होंने सुकरात से कहा कि देवी कहती है, इसीलिए! अब तो यह पहेली और भी उलझ गई। वह कहती है, इसीलिए कि सुकरात अपने को अज्ञानी कह सकता है तो वह मंदिर के द्वार पर खड़ा है। सुकरात ने कहा, तुमने ख्याल किया! तुम जब मुझसे आकर कहे तो मैंने भी सोचा कि डेल्फी की देवी को यह भ्रम कैसे हो गया? लेकिन उसका वचन बहुत अर्थपूर्ण था। इस वचन में उसने यह नहीं कहा था कि सुकरात महाज्ञानी है। उसने कहा था, सुकरात से बड़ा ज्ञानी और कोई भी नहीं है। निगेटिव था। उसने यह नहीं कहा था... ।
तो सुकरात ने कहा, तुम देवी के पास वापस गए, मैं गांव में पता लगाने गया कि मुझसे कोई बड़ा ज्ञानी है या नहीं? तो मैंने एक-एक ज्ञानी से जाकर पूछा। सब सवालों के जवाब उनके पास थे, सिर्फ एक सवाल का जवाब उनके पास न था--कि तुम कौन हो? मैं कौन हूं, इसका भर उनके पास जवाब न था। तो मैंने उनसे कहा, कैसे ज्ञानी हो? जिन्हें अभी यह भी पता नहीं कि हम कौन हैं, उनके और पता होने का मतलब भी क्या है? जो अभी यह भी नहीं जान पाए कि वे कौन हैं, वे और क्या जान पाए होंगे?
तो वह गांव के एक-एक ज्ञानी के पास जाकर लौट आया और उसने कहा कि देवी बहुत होशियार है, उसने कहा कि सुकरात से बड़ा ज्ञानी और कोई नहीं है। इसका कुल मतलब इतना ही है कि इस गांव में अज्ञानी तो सभी हैं, सिर्फ सुकरात को इतना ज्ञान है कि उसे अज्ञान का पता है। और कोई बात नहीं है। इतना ज्ञान भी गांव में किसी को नहीं है।
सातवें सूत्र को पार वही कर पाएगा जो अपने अज्ञान को अनुभव करे; जाने कि मुझे कुछ भी पता नहीं है; यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं। और जब यह गहन रूप से जाना जाता है, सघन, तब इसकी पीड़ा बहुत अदभुत है। यह रोएं-रोएं और पोर-पोर में इसकी पीड़ा फैल जाती है--कि मैं कौन हूं? तब यह प्रश्न नहीं रह जाता, तब यह कोई इंटलेक्चुअल इंक्वायरी नहीं रहती, तब यह कोई बौद्धिक सवाल नहीं रहता जिसका कोई जवाब है कहीं। तब यह प्राणों की अकुलाहट, यह प्राणों की प्यास, तब यह प्राणों की सतत धुन बन जाती है--सतत प्राण कंपित होने लगते हैं उसी एक जिज्ञासा से--मैं कौन हूं? और जब कहीं कोई उत्तर नहीं मिलता--और कहीं कोई उत्तर है नहीं; जो कहीं से उत्तर पा लेगा वह अपने को धोखा दे रहा है; कहीं कोई उत्तर नहीं है--जब कहीं कोई उत्तर नहीं मिलता और प्रश्न पीड़ा बनाए चला जाता है और पागल कर देता है, विक्षिप्त कर देता है भीतर, जब प्रश्न ही प्रश्न रह जाता है, उत्तर की आशा भी मिट जाती है, उत्तर की संभावना भी मिट जाती है, उत्तर की अपेक्षा भी मिट जाती है, उत्तर मिलेगा, इसकी संभावना भी मिट जाती है, जब प्रश्न ही रह जाता है, बल्कि कहना चाहिए जब पूछने वाला और प्रश्न एक ही हो जाता है, उस क्षण प्रश्न भी खो जाता है। उत्तर नहीं मिलता, प्रश्न भी गिर जाता है। निष्प्रश्न, उस क्षण में आदमी सातवें सूत्र से आठवें सूत्र में प्रवेश कर जाता है। उस क्षण वह यह नहीं कहता कि मैं कौन हूं, उस क्षण वह यह कहता है, मुझे वह बताओ जो मैं नहीं हूं। उस क्षण वह कहता है, कहां मैं नहीं हूं?
नानक गए हैं और मक्का के मंदिर के बाहर सो गए हैं। उनके पैर मक्का के पवित्र पत्थर की तरफ हैं। पुजारियों ने आकर कहा, पैर हटाओ! नासमझ, इतना भी तुझे पता नहीं कि पवित्र पत्थर की तरफ पैर नहीं करने चाहिए! परमात्मा की तरफ पैर करता है!
तो नानक ने कहा कि मैं भी बड़ी मुश्किल में हूं। तुम मेरे पैर उस तरफ कर दो जहां परमात्मा न हो। पकड़ो मेरे पैर और उस तरफ कर दो जहां परमात्मा न हो।
वे मुल्ला, वे पंडित बहुत मुश्किल में पड़ गए। यह हिम्मत वे भी न कर पाए कि नानक के पैर कहीं और करें, क्योंकि परमात्मा सब जगह है।
जिस दिन यह ‘मैं कौन हूं?’ प्रश्न भी गिर जाता है, उस दिन यह सवाल नहीं रह जाता, मैं कौन हूं। उस दिन अगर कोई पूछे भी तो हम यही पूछेंगे कि मैं कौन नहीं हूं? सभी कुछ मैं हूं! उस दिन वह जो दीवाल है बीच की, सेल्फ की, वह विसर्जित हो जाती है, वह गिर जाती है। वह बिल्कुल ड्रीम, स्वप्न की दीवाल है। विचार की दीवाल है, स्मृतियों की दीवाल है, मान्यता की दीवाल है, माना है कि मैं हूं ऐसा, इसलिए वह दीवाल है। वह गिर जाती है। उसके गिरते ही व्यक्ति अनंत के साथ एक हो जाता है। तब सेल्फ सेंट्रिक, स्व केंद्र विसर्जित हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि आप मिट जाते हैं। ऐसा नहीं है कि आप समाप्त हो जाते हैं। नहीं, आप तो होते ही हैं, और भी पूर्णता से होते हैं। लेकिन आप ‘मैं’ नहीं रह जाते, आप ‘सब’ हो जाते हैं। आप तब लहर नहीं रह जाते, सागर हो जाते हैं। आप तब बूंद नहीं रह जाते, विराट हो जाते हैं। आप आपकी तरह मिट जाते हैं और परमात्मा की तरह हो जाते हैं।
इसलिए मैं को खोकर कोई कुछ भी नहीं खोता है। जैसे रात के स्वप्न से जाग कर कोई कुछ भी नहीं खोता है, ऐसे ही मैं के स्वप्न से जाग कर भी कोई कुछ नहीं खोता है। रात के स्वप्न से जाग कर पाता ही है कुछ--जागरण। मैं के स्वप्न से जाग कर भी पाता ही है कुछ--परमात्म जीवन, परमात्मा का जीवन। क्षुद्र दीवाल गिर जाती है। वह क्षुद्र घेरा टूट जाता है। वह लक्ष्मण रेखा मैं की मिट जाती है। उसकी कोई जरूरत भी अब नहीं है।
अब तक थी। सातवीं सीढ़ी तक, सातवें सूत्र तक उसकी जरूरत है। उस मैं के सहारे इतनी यात्रा हुई है। अगर वह मैं न हो तो इतनी यात्रा नहीं हो सकती। झूठ भी यात्रा में सहयोगी होते हैं। इल्यूजंस भी, भ्रम भी यात्रा में सहयोगी होते हैं। मंजिल पर नहीं ले जा सकते, मंजिल पर साथ नहीं जा सकते।
एक ईसाई फकीर रूस के जेलखानों में बीस साल तक बंद था। उसने एक बहुत अदभुत किताब लिखी हैः इन गॉड्स अंडरग्राउंड! प्यारा आदमी है। जेलखाने को, जो जमीन के नीचे अंधेरी कोठरी थी, उसको भी ‘इन गॉड्स अंडरग्राउंड’ नाम से उसने एक छोटी सी किताब लिखी है। वह भी परमात्मा का ही जमीन के नीचे छिपा घर। बीस साल तक बंद था अंधेरी कोठरी में, जहां बीस साल तक रोशनी नहीं दिखाई पड़ी। रोटियां फेंक दी जाती हैं एक बार। आदमी की आवाज सुनाई नहीं पड़ी।
लेकिन पांच-सात दिन के बाद अचानक बगल की दीवाल पर कोई खट-खट करके आवाज करने लगा। सुनने की कोशिश की, लेकिन खट-खट से क्या समझ में आ सकता है! लेकिन एक बात समझ में आ गई कि कोई पड़ोसी कैदी भी है। फिर बीस साल तक दोनों साथ रहे, बीच में दीवाल थी। उस पार कोई था। फिर उन्होंने खट-खट करके धीरे-धीरे भाषा ईजाद कर ली। ए के लिए एक चोट, बी के लिए दो, सी के लिए तीन, ऐसी उन्होंने भाषा धीरे-धीरे ईजाद कर ली। फिर उन्होंने एक-दूसरे का नाम जान लिया, फिर एक-दूसरे को मैसेज और संदेश भी देने लगे। फिर एक-दूसरे को सुबह उठ कर नमस्कार भी करने लगे। फिर एक-दूसरे को रात विदाई का नमस्कार भी करने लगे। फिर तो उनका कम्युनिकेशन धीरे-धीरे गति पकड़ गया, कोड विकसित हो गया।
ये दोनों आदमी अगर कैदखाने के बाहर आ जाएं तो क्या ये अब भी दीवालों को ठोंक कर बात करेंगे? नहीं करेंगे। वह तो एक संकेत लिपि विकसित करनी पड़ी, जिसके बिना दीवालों के पार काम नहीं चल सकता था।
आदमी का मैं भी एक कोड लैंग्वेज है, जो चारों तरफ की दुनिया, जहां हम सब अपनी-अपनी दीवालों में बंद हैं, वहां से खट-खट करके एक-दूसरे से बातचीत करनी पड़ती है। तो हम नाम रखते हैं दूसरे का, कहते हैं राम। किसी को कहते हैं कृष्ण, किसी को कुछ, किसी को कुछ। सब नाम झूठे हैं। कोई बच्चा नाम लेकर नहीं आता। लेकिन बिना नाम के तो दीवालों के आर-पार बात करनी बड़ी मुश्किल हो जाएगी। तो कृष्ण यानी खट-खट दो दफा। राम यानी तीन दफा। तो हम खट-खट करके एक-दूसरे से परिचय बना लेते हैं कि जब हम तीन बार खटखटाएं तो समझना कि तुमको बुला रहे हैं। तुम हुए राम, तुम हुए कृष्ण। हम आदमियों पर नाम चिपका देते हैं। यह कोड लैंग्वेज है, जिसमें दीवालों के पार बात करने का और कोई उपाय नहीं है। सबको हम नाम दे देते हैं। मुझे किसी को बुलाना हो तो मैं कहता हूं, राम, इधर आओ! मेरा भी नाम हो सकता है। मेरा भी नाम है। लेकिन अगर मैं भी अपना नाम बुलाऊं तो बड़ी दिक्कत होगी समझने में कि मैं किसी दूसरे को बुला रहा हूं कि अपने को बुला रहा हूं। इसलिए कोड लैंग्वेज दोतरफा है। जब अपने को बुलाना हो तो मैं कहता हूं--मैं। और जब किसी दूसरे को बुलाना होता है तो लेता हूं नाम। जब आपको भी अपने को बुलाना है तो आप कहते हैं--मैं। और जब दूसरे को बुलाना है तो आप बुलाते हैं नाम।
स्वामी राम अमेरिका गए। तो वे अपने को भी राम ही कह कर बुलाते थे। तो उन्होंने मैं कहना बंद कर दिया। स्वभावतः कोड लैंग्वेज तोड़िएगा तो गड़बड़ होगी। वे अपने को भी राम ही कहते थे। रास्ते में कोई हंस दिया, किसी ने गाली दे दी, तो वे लौट कर आकर कहते कि आज राम बड़ी मुश्किल में पड़ गए। कुछ लोग मिल गए और गालियां देने लगे।
तो जो लोग अपरिचित थे अमेरिका में, वे पूछते कि क्या मतलब? क्या कह रहे हैं आप? कौन राम?
तो वे कहते, ये राम। ये बड़ी मुश्किल में पड़ गए थे।
धीरे-धीरे कोड को समझे लोग कि यह अपने को भी राम ही कहता है आदमी।
लेकिन हम अपने को राम कहें या मैं कहें, नाम दें या सर्वनाम का उपयोग करें, मैं का उपयोग करें--न तो हम मैं को लेकर पैदा होते हैं और न हम नाम लेकर पैदा होते हैं। बच्चों को पहले तू का पता चलता है, बाद में मैं का पता चलता है। बच्चे पहले दाऊ कांशस होते हैं, तू के प्रति चेतन होते हैं, पहले उन्हें दूसरों का पता चलता है, मैं का पता बाद में चलता है। जब तू बहुत सुनिश्चित हो जाते हैं तब। इसलिए कई बच्चे ऐसा कहते हुए पाए जाते हैं कि इसको भूख लगी है। छोटे बच्चे कहेंगे कि इसको भूख लगी है। अभी मैं विकसित नहीं हुआ, अभी मैं विकसित होगा।
इस जिंदगी के व्यवहार में, कम्युनिकेशन में, जहां हम सब अपने-अपने घेरों में बंद, दीवालों में बंद हैं, कोड लैंग्वेज विकसित करनी पड़ती है। मैं सूचक शब्द है, इशारा है उसके बाबत जिसका मुझे भी पता नहीं है कि कौन है। कृष्ण, राम सूचक है, इशारा, उसके बाबत जिसका मुझे भी पता नहीं है कि कौन है। हम सब दीवालों के पार खड़े हैं, उन कैदियों की तरह जो अपनी-अपनी दीवाल के पार से खट-खट करते रहते हैं।
लेकिन ऐसी ही जिंदगी है, हमें पहचान में नहीं आती यह बात, क्योंकि हम अपनी-अपनी सेल को, अपनी-अपनी दीवालों को अपने साथ लिए चलते हैं। वे कैदी बंद हैं एक जगह, दीवालें थिर हैं। हम जन्म के साथ अपने कारागृह को लेकर साथ चलते हैं, इसलिए हमें कभी पता नहीं चलता कि मैं अपनी दीवालें अपने साथ लिए हूं।
एक पति और पत्नी भी जिंदगी भर दो दीवालों के पार कोड लैंग्वेज में बात करते हैं, जो बहुत मुश्किल से कभी समझी जाती है, कभी नहीं समझी जाती। अक्सर तो नहीं समझी जाती है। पिता और बेटे भी बात करते हैं, मित्र भी बात करते हैं, लेकिन दीवालों के पार। खटखटाते कुछ हैं, दूसरा कुछ समझता है। उधर से खटखटाता है, यहां कुछ समझते हैं। लेकिन एक बात भूल जाते हैं कि मैं भी और तू भी, दोनों ही शब्द कामचलाऊ, यूटिलिटेरियन हैं, ट्रुथ नहीं हैं, सत्य नहीं हैं। उपयोगिता है, सत्य नहीं हैं।
इसलिए जैसे ही हम मैं की खोज में निकलेंगे, हम पाएंगे--मैं कहीं भी नहीं है, नो व्हेयर टु बी फाउंड। है ही नहीं कहीं। जैसे जिस आदमी का नाम कृष्ण है, वह अगर अपने भीतर कृष्ण की खोज में जाए तो क्या कहीं कृष्ण मिलेगा? वह लेबल तो डिब्बे के बाहर चिपका हुआ है, कंटेनर के बाहर। उसे भीतर खोजने जाइएगा तो कहीं भी नहीं पाइएगा। मैं भी भीतर कहीं नहीं हूं। ये कामचलाऊ शब्द हैं, भाषा की ईजादें हैं। लेकिन जरूरी हैं। और सातवें सूत्र तक साधक को इनसे बाधा नहीं पड़ती, बल्कि सहयोग मिलता है। क्योंकि सातवें सूत्र तक वह मैं की ही खोज में आता है। मैं के लिए शक्ति, मैं के लिए शांति, मैं के लिए मुक्ति, मैं के लिए परमात्मा, वह इसकी खोज में आता है सातवें तक। सातवें तक मैं उपयोगी है, सत्य नहीं। सातवें के बाद मैं बाधा बनना शुरू हो जाता है, उसकी उपयोगिता व्यर्थ हो गई। आठवें पर वह कोड लैंग्वेज तोड़ देनी पड़ती है। आठवें पर तोड़ते वक्त पीड़ा होती है, क्योंकि इसी मैं के लिए सब कुछ किया, इसी मैं के लिए जीए, इसी मैं के लिए मरे, इस मैं के लिए न मालूम कितने जन्म लिए।
हिंदुस्तान से एक फकीर चीन गया। बोधिधर्म उसका नाम था। चीन का सम्राट उसका स्वागत करने आया था। रास्ते पर जब साम्राज्य प्रवेश के समय स्वागत किया बोधिधर्म का, तो उस सम्राट ने मौका देख कर कहा कि मैं बहुत अशांत हूं, कुछ रास्ता बताएं। बोधिधर्म ने कहा कि कल सुबह तीन बजे आ जाओ तो शांत कर देंगे।
उस सम्राट ने बहुत से फकीरों से सवाल पूछे थे, किसी ने कुछ रास्ता, किसी ने कुछ रास्ता बताया था। लेकिन यह आदमी अदभुत मालूम पड़ा। इसने कहा, कल तीन बजे आ जाओ, शांत कर देंगे। उसे थोड़ा तो शक हुआ कि मामला इतना आसान नहीं हो सकता। जिंदगी भर अशांत रहा, सब उपाय कर लिए और शांति नहीं हुई। उसने फिर कहा बोधिधर्म से कि शायद आपको मेरी जटिलता का पता नहीं। धन जितना चाहिए पा चुका हूं, लेकिन शांति नहीं मिलती। उपवास जितने कहे हैं करने को फकीरों ने, उतने किए हैं, शांति नहीं मिलती। मंदिर बनवाए हैं लाखों, शांति नहीं मिलती। पुण्य जितना बताया, किया है उससे दुगुना, शांति नहीं मिलती।
उस फकीर ने कहा, ज्यादा बातचीत नहीं, सुबह तीन बजे आ जाओ, शांत कर देंगे।
उसको और हैरानी हुई। ठीक, सोचा कि तीन बजे देखेंगे। वैसे शक हुआ कि इस आदमी के पास आना भी कि नहीं आना। सीढ़ियां उतरता था मंदिर की, जहां बोधिधर्म ठहरा था, आखिरी सीढ़ी पर पहुंचा था कि बोधिधर्म ने चिल्ला कर कहा कि सुन! मैं को साथ ले आना, नहीं तो मैं शांत किसको करूंगा।
उसने कहा, और पागलपन! उसने कहा, जब मैं आऊंगा तो मैं तो साथ रहेगा ही।
उसने कहा, ध्यान रख कर ले आना, घर मत छोड़ आना।
रात में उसने कई दफे सोचा कि जाना कि नहीं। लेकिन फिर सोचा, इतना हिम्मतवर आदमी भी कभी नहीं मिला जिसने कहा शांत कर देंगे।
सुबह तीन बजे हिम्मत जुटा कर आया। चढ़ा सीढ़ियां। चढ़ भी नहीं पाया था कि बोधिधर्म ने कहा कि मैं को साथ लाया या नहीं?
सम्राट वू ने कहा, आप कैसी मजाक की बातें करते हैं! मैं आ ही गया हूं तो मैं को साथ लाने की बात क्या है?
उस बोधिधर्म ने कहा कि नहीं, मैं पूछता हूं जान कर ही। मैं हूं, तुझे दिखाई पड़ रहा हूं और फिर भी मेरा मैं अब मेरे साथ नहीं है। इसलिए मैंने कहा कि साथ लाया कि नहीं, अन्यथा मैं शांत किसको करूंगा?
उस बोधिधर्म की बात उस सम्राट वू की समझ में कुछ आई नहीं। फिर भी उसने कहा, ठीक है, अब तू आ ही गया। और तू कहता है साथ ले आया है, तो बैठ। आंख बंद कर और पकड़ अपने मैं को कि कहां है? और पकड़ कर मुझे दे दे तो मैं उसे शांत कर दूं।
उस सम्राट ने कहा, मुझे रात ही शक होता था कि नहीं आना चाहिए। आप किस तरह की बातें कर रहे हैं? मैं क्या कोई ऐसी चीज है जो मैं पकड़ कर आपको दे दूं!
तो बोधिधर्म ने कहा, मुझे न दे सके छोड़, अपने भीतर खुद तो पकड़ ही सकता है?
उस सम्राट ने कहा, मैंने कभी कोशिश नहीं की।
बोधिधर्म ने कहा, कोशिश कर।
आंख बंद करके वह सम्राट बैठा है, बोधिधर्म एक बड़ा डंडा लेकर उसके सामने बैठा है। वह सम्राट घबड़ा भी रहा है। रात है, अंधेरी है, अकेला आ गया है इस भिक्षु का भरोसा करके। पता नहीं यह क्या करने पर उतारू है! बोधिधर्म बीच-बीच में उसका सिर डंडे से हिलाता है और कहता है, खोज! एक भी कोना छोड़ मत देना! जहां भी मिले, पकड़!
आधा घंटा बीत गया, पौन घंटा बीत गया, घंटा भर बीत गया, दो घंटे बीत गए, और वह सम्राट न मालूम कहां खो गया है! फिर सुबह का सूरज निकलने लगा। फिर बोधिधर्म ने कहा कि अब मैं स्नान वगैरह करूं? अभी तक नहीं पकड़ पाया?
सम्राट ने आंखें खोलीं और उस बोधिधर्म के चरणों पर गिर पड़ा। उसने कहा, यह तो मैंने कभी ख्याल ही नहीं किया था कि यह मैं जैसी कोई चीज भीतर है ही नहीं। जब मैं खोजने गया तो कहीं पाता ही नहीं हूं। सब कोने-कांतर देख डाले। सब तरफ, इस कोने से उस कोने तक खोज डाला, मैं तो कहीं भी नहीं है।
तो बोधिधर्म ने कहा, अब मैं किसको शांत करूं? मैं डंडा लिए तीन घंटे से बैठा हुआ हूं!
उस सम्राट ने कहा, अब शांत हो ही गया, क्योंकि जहां मैं नहीं है, वहां अशांति कैसी? ये तीन घंटे मेरे शांति के ही घंटे थे। जैसे-जैसे मैं खोजने लगा और जैसे-जैसे पाने लगा कि नहीं पा रहा हूं, वैसे-वैसे कुछ शांत होता चला गया। अब मैं कह सकता हूं कि मैं अशांत था, ऐसा कहना ही गलत था। मैं ही अशांति थी।
बोधिधर्म ने कहा, जा! और अब दुबारा जरा मैं से सावधान रहना, इसको फिर मत पकड़ लेना।
सम्राट वू अपनी कब्र पर लिखवा गया है कि लाखों संन्यासियों और साधुओं के वचन सुने, हजारों शास्त्र सुने, लेकिन कुछ राज पकड़ में न आया; और एक अजीब से फकीर की बात में आकर भीतर झांक कर देखा और सब राज खुल गए। वहां कोई मैं था ही नहीं, जिसे शांत करना था। वहां कोई मैं था ही नहीं, जिसे शुद्ध करना था। वहां कोई मैं था ही नहीं, जिससे लड़ना था और जिसे जीतना था। वहां कोई मैं था ही नहीं, जिसके लिए मोक्ष और परमात्मा खोजना था। वहां मैं था ही नहीं।
आठवां सूत्र मैं की खोज और मैं के खोने का सूत्र है। जैसे ही मैं खो जाता है, सब मिल जाता है। मैं का मतलब है, हमने कुछ पकड़ा है, सबके खिलाफ। मैं को अगर ठीक से कहें तो मैं का मतलब है प्रतिरोध का बिंदु, ए प्वाइंट ऑफ रेसिस्टेंस। यह मैं हमने पकड़ा है सबके खिलाफ, सबकी दुश्मनी में, सबको छोड़ कर इसे पकड़ा है।
यह मैं ऐसा ही है, जैसे राष्ट्रों की सीमाएं हैं--हिंदुस्तान, पाकिस्तान। कहीं भी खोजने जाएं, कहीं कोई सीमा नहीं जहां हिंदुस्तान खत्म होता है और पाकिस्तान शुरू होता है। कहीं कोई सीमा नहीं जहां हिंदुस्तान खत्म होता है और चीन शुरू होता है। सिर्फ राजनीतिज्ञों के मस्तिष्कों को छोड़ कर ये सीमाएं कहीं भी नहीं हैं। और राजनीतिज्ञों के पास अगर मस्तिष्क होते तो भी ठीक था। राजनीतिक नक्शों को छोड़ कर कहीं कोई सीमाएं नहीं हैं। जाएं ऊपर, जरा ऊपर आकाश से देखें, तो कोई हिंदुस्तान नहीं कोई पाकिस्तान नहीं, कोई चीन, कोई जापान नहीं। कोई सीमाएं नहीं हैं। अगर मंगल पर कोई होगा और जमीन की तरफ देखता होगा तो कोई सीमा दिखाई पड़ेगी?
जब पहली दफा यूरी गागरिन अंतरिक्ष में गया, तो आशा कर रहे थे उसके देशवासी कि वह वहां से, अंतरिक्ष से संदेश भेजेगा, चिल्लाएगा--सोवियत रूस की जय! कुछ कहेगा। लेकिन जो पहला शब्द यूरी गागरिन के मुख से निकला, वह समझने जैसा है। वह योग का बहुत पुराना अनुभव है किसी और आकाश में उठने का। यूरी गागरिन के मुख से नहीं निकला माई रशा। उसके मुंह से निकला--माई वर्ल्ड, माई अर्थ! उस ऊंचाई से देखने पर कोई देश नहीं रह गया। उस ऊंचाई से देखने पर पूरी जमीन एक हो गई, सारी दुनिया एक हो गई। उसके मुंह से निकला, मेरी पृथ्वी! मेरी दुनिया!
लौट कर उससे पूछा मास्को में कि तुमने क्यों न कहा, मेरा रूस?
तो उसने कहा, वहां कोई रूस न रह गया। वहां सब सीमाएं खो गईं।
ऐसे ही भीतर के आकाश में जब कोई जाता है, तो वहां मैं और तू की सीमाएं खो जाती हैं। वे भी मनुष्य की कामचलाऊ, एक नक्शे पर खींची गई सीमाएं हैं। मेरा मकान जितनी झूठी सीमा बनाता है, मेरा मैं भी उतनी ही झूठी सीमा बनाता है। मेरा देश जितनी झूठी सीमा बनाता है, मेरा मैं भी उतनी ही झूठी सीमा बनाता है। मेरा धर्म जितनी झूठी सीमा बनाता है, मेरा मैं भी उतनी ही झूठी सीमा बनाता है।
लेकिन ये झूठ सातवें तक चलेंगे, सातवें के बाद नहीं चल सकते। जमीन पर ही चलना हो, हॉरिजेंटल चलना हो, तो रूस और हिंदुस्तान और पाकिस्तान चलेंगे; लेकिन वर्टिकल उड़ान लेनी हो, आकाश में उठना हो, तो रूस-हिंदुस्तान खो जाएंगे। जिसको भीतर के आकाश में ऊपर उठना हो उसे मैं और तू सब खो जाएंगे। और जब मैं और तू खो जाते हैं तो जो शेष रह जाता है, दि रिमेनिंग, वह जो बच रहता है, वही परमात्मा है। यह आठवां सूत्र।
और नौवां सूत्र छोटा सा है, उसे कह कर अपनी बात मैं पूरी करूंगा।
पहला सूत्र मैंने कहा थाः जीवन ऊर्जा है।
नौवां सूत्र है योग काः मृत्यु भी ऊर्जा है। डेथ इ.ज टू एनर्जी।
जीवन ही ऊर्जा है, ऐसा नहीं; मृत्यु भी ऊर्जा है। जीवन ही जीवन है, ऐसा नहीं; मृत्यु भी जीवन है। और जीवन ही चाहने योग्य है, ऐसा नहीं; मृत्यु भी बहुत प्यारी है। और जीवन ही स्वागत योग्य है, ऐसा नहीं; मृत्यु के लिए भी खुला द्वार चाहिए। और जो मृत्यु के लिए राजी नहीं है, जीवन से वंचित रह जाएगा। और जो मृत्यु के लिए राजी है, वह परम जीवन का अधिकारी हो जाता है।
मृत्यु भी ऊर्जा है, मृत्यु भी परमात्मा है, मृत्यु भी प्रभु है। यह योग का परम सूत्र है। अंतिम सूत्र है। जो मृत्यु को भी जीवन की तरह देख पाएगा... है ही, सिर्फ देखने की बात है। और आठवें सूत्र के बाद देखना संभव हो जाएगा। जिस दिन पता चलेगा मैं नहीं हूं, उसी दिन पता चलेगा, मृत्यु किसकी? मृत्यु कैसी? कौन मरेगा? कौन मर सकता है?
लोग जब तक कहते हैं कि मैं नहीं मरूंगा, मैं अमर हूं, मेरी आत्मा अमर है, तब तक समझना कि सब बातचीत सुनी-सुनाई है। जब कोई कहे कि मैं नहीं हूं और जो है वह अमृत है, तब समझना कि कोई बात हुई। मैं तो अमर होना चाहता हूं, लेकिन मैं हूं ही नहीं। जो अमर होना चाहता है वह है नहीं और जो अमर है उसका हमें पता नहीं।
रामकृष्ण मरे। तो मरने के तीन दिन पहले पता चल गया था कि रामकृष्ण अब विदा होते हैं। तो उनकी पत्नी शारदा परेशान, चिंतित, रोती थी। तो रामकृष्ण ने कहा कि लेकिन तू क्यों रोती है? क्योंकि वह जो है, वह तो मरेगा नहीं। और तू मुझे प्रेम करती थी कि उसे जो है? शारदा ने कहा, मैं उसी को प्रेम करती हूं जो है। रामकृष्ण ने कहा, फिर फिकर छोड़ दे। फिर जब यह मर जाए जो नहीं है, तो चूड़ियां मत फोड़ना।
हिंदुस्तान में एक ही विधवा थी, शारदा, जिसने चूड़ियां नहीं फोड़ीं। फिर रामकृष्ण मर गए। सब रोए, लेकिन शारदा चूड़ी फोड़ने को राजी नहीं हुई। वह वैसी ही रही जैसी थी। सबने कहा, यह क्या करती हो? रामकृष्ण मर गए। तो उसने कहा कि जो मर गया, वह था ही नहीं; जो था, वह है। चूड़ियां ये उसके स्मरण में हैं। शारदा रामकृष्ण के मरने बाद सधवा रही। उसके मुंह से कभी नहीं निकला फिर कि रामकृष्ण मर गए। और जब भी कोई पूछता तो वह कहती, शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया था, उन्होंने वस्त्र बदल लिए हैं।
वस्त्र ही बदलते हैं, आवरण ही बदलते हैं। जिस दिन यह पता चलेगा--आठवें सूत्र पर पता चलेगा--कि मैं तो हूं ही नहीं, तब कौन मरेगा? तब कैसा मरना है? तब मरने का कोई उपाय न रहा। तब कोई तलवार से काटे तो किसे काटेगा? मैं को काट सकता है। और किसे काटेगा? जब मैं न रहा तो कोई कटने वाला न रहा।
कृष्ण ने जो अर्जुन को कहा है कि नहीं कोई मरता है, नहीं कोई मारता है, उसका अर्थ? उसका अर्थ इतना ही है कि नहीं कोई है। जो दिखाई पड़ रही हैं छायाएं, वे सूरज के बढ़ने और ढलने से छोटी-बड़ी हो जाती हैं। हैं नहीं, सूरज की छाया से छोटी-बड़ी होती रहती हैं। शैडो.ज हैं।
जिब्रान ने एक कहानी लिखी है कि एक लोमड़ी सुबह-सुबह निकली है भोजन की तलाश में। सूरज उग रहा है, लोमड़ी के पीछे है सूरज। बड़ी छाया पड़ती है उस लोमड़ी की, दूर दरख्तों जैसी। उस लोमड़ी ने सोचा, आज तो बहुत भोजन की जरूरत पड़ेगी। इतना बड़ा शरीर है उसके पास। अब लोमड़ी के पास कोई दर्पण तो नहीं है कि शरीर को देख ले, उसके पास छाया है। और दर्पण में भी छाया ही दिखेगी, और क्या दिखेगा? और दर्पण के इस पार जो खड़ा है वह भी, जो जानते हैं, कहते हैं, छाया है।
देखी है, छाया लंबी, वृक्षों जैसी। सोचा मन में, बड़ी मुश्किल है, आज तो बड़े भोजन की तलाश करनी पड़ेगी। कम से कम एक ऊंट मिले तो काम चले। फिर खोजती रही, दोपहर हो गई, सूरज ऊपर आ गया, छाया सिकुड़ कर छोटी हो गई। उस लोमड़ी ने नीचे देखा, कहा, भूख तो बहुत लगी है, अब तो कुछ छोटा भी मिल जाए तो चलेगा।
छाया सिकुड़ गई है, छोटी हो गई है। लेकिन वह लोमड़ी छाया को ही अपना होना समझती है।
जिसे हम शरीर कहते हैं, वह बहुत एक गहरे डायमेंशन में छाया से ज्यादा नहीं है, ए शैडो मैटीरियलाइज्ड; एक छाया, जो रूपाकृत हो गई है, रूपायित हो गई है; एक छाया, जो शक्ति के कणों के सघन परिभ्रमण से दिखाई पड़ने लगी है। उस छाया का आना और जाना है। लेकिन जब तक मैं है, तब तक उस छाया के साथ तादात्म्य है, आइडेंटिटी है।
नौवां सूत्र हैः मृत्यु भी जीवन है, मृत्यु भी ऊर्जा है, मृत्यु भी परमात्मा है।
और जो मृत्यु को भी परमात्मा जान लेता है, वह निर्वाण को उपलब्ध हो जाता है। निर्वाण का अर्थ हैः ऐसे व्यक्ति की मृत्यु जिसको अब मृत्यु नहीं रही। निर्वाण का अर्थ हैः ऐसा मरना, जहां मरना नहीं है।
ये नौ सूत्र मैंने योग के आपसे कहे। ये नौ सूत्र बारह डायमेंशन्स में कहे जा सकते हैं, बारह ढंग से कहे जा सकते हैं। यह मैंने सिर्फ एक ढंग से कहा। ये नौ सूत्र बारह ढंग से कहे जा सके हैं। और बारह और नौ का गुणा आप करते हैं तो एक सौ आठ हो जाता है। संन्यासियों के गले में जो मालाएं आपने देखी हैं, वह एक सौ आठ, योग के नौ सूत्रों के बारह ढंग से कहे जाने के सूचक के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। और उन एक सौ आठ मनकों के नीचे एक सौ नौवां फल भी रुद्राक्ष का लटका हुआ देखा होगा। इन एक सौ आठ ढंगों से कोई कहीं से भी चले, वह उस एक पर पहुंच जाता है।
यह मैंने सिर्फ एक डायमेंशन, एक आयाम में योग के नौ सूत्र आपसे कहे। ये बारह ढंग से कहे जा सकते हैं। और उस तरह एक सौ आठ ध्यान की विधियां बन जाती हैं। प्रत्येक सूत्र से एक ध्यान की विधि विकसित हो जाती है। लेकिन कोई कहीं से भी पहुंचे, वहीं पहुंच जाता है। और कोई न भी पहुंचे कहीं से, तो जहां खड़ा है, वहीं खड़ा है। सिर्फ पता नहीं चलता कि कहां खड़ा हूं।
एक फकीर के संबंध में मैंने सुना है कि वह एक तीर्थयात्रा के मार्ग पर पड़ा रहता था। तीर्थयात्री चढ़ कर पहाड़ जाते थे तो उस फकीर से कहते थे, यहीं पड़े हो! यहीं पड़े हो! ऊपर न चलोगे तीर्थयात्रा पर?
तो वह फकीर कहता, तुम जहां जा रहे हो, मैं वहीं हूं।
फिर वे लौटते। फिर लौटते में कोई उससे पूछता, तुम यहीं पड़े रहोगे, कभी ऊपर की यात्रा न करोगे?
तो वह फकीर कहता, तुम जहां से आ रहे हो, मैं वहीं हूं।
वे तीर्थयात्री समझे, न समझते, वहां से चले जाते होंगे।
जिस दिन पता चलता है यात्रा के बाद, तो बड़ी हंसी आती है। झेन फकीर कहते हैं कि जब पता चलता है तो बड़ी हंसी आती है। झेन फकीरों में एक कहावत है कि जब पता चलता है तो सिवाय चाय की प्याली में चुस्की लेकर और हंसने को कुछ भी नहीं बचता।
जब कोई फकीर रिंझाई से पूछ रहा था कि यह क्या बला है, यह कैसी बात है कि हमने सुना है कि जब निर्वाण की स्थिति उपलब्ध होती है तो सिवाय चाय पीने और हंसने के कुछ भी नहीं बचता। तो रिंझाई ने कहा, सच में कुछ नहीं बचता। क्योंकि जब पता चलता है, तब यह भी पता चलता है कि यह तो मैं सदा से था। जो मुझे मिला है, वह मिला ही हुआ था। और जो मैंने खोजा है, उसे कभी खोया ही नहीं था। लेकिन फिर भी इतनी यात्रा करनी पड़ती है।
एक छोटी सी कहानी, और अपनी बात मैं पूरी कर दूं।
मैंने सुना है, एक अरबपति आदमी को मृत्यु के पहले, मरने के पहले पता चला कि उसे सुख अभी तक नहीं मिला है। सौभाग्यशाली होगा। कुछ को तो मरने के बाद ही पता चलता है। उसे पहले पता चला कि मुझे सुख अभी तक नहीं मिला है। मौत करीब थी, ज्योतिषियों ने कहा, दिन ज्यादा नहीं हैं। जल्दी करो! उसने कहा, जल्दी तो मैं सदा से कर रहा हूं। लेकिन सुख है कहां? और अब मेरे पास खरीदने के साधन हैं। कोई भी कीमत हो, मैं खरीदने को राजी हूं। उन ज्योतिषियों ने कहा, हमें इसका पता नहीं। हम सिर्फ इतना कह सकते हैं, जल्दी करो, क्योंकि मौत करीब है। और अगर तुम्हें पता चल जाए तो हमें भी खबर कर देना, क्योंकि जल्दी हमें भी करनी है, मौत करीब है। लेकिन उसने कहा, मैं खोजूं कहां? उन्होंने कहा, यह हमें पता नहीं। तुम कहीं भी, एनी व्हेयर, तुम कहीं भी खोजो।
वह अपने तेज घोड़े पर सवार हुआ। उसने करोड़ों रुपये के हीरे-जवाहरात अपने घोड़े पर रख लिए और गांव-गांव जाकर चिल्लाने लगा कि कोई मुझे सुख की झलक भी दे दे, तो यह सब मैं देने को तैयार हूं! फिर वह उस गांव में पहुंचा, जिसमें एक बहुत अदभुत सूफी फकीर का निवास था। गांव के लोगों ने कहा, तुम ठीक जगह आ गए। इस तरह की उलटी-सीधी बातों को हल करने वाला एक आदमी इस गांव में है।
उसने कहा, उलटी-सीधी बातें! तो उन गांव के लोगों ने कहा कि हम भी उसके सत्संग में रहते हुए कुछ उलटी-सीधी बातें सीख गए हैं। एक तो हम यह सीख गए हैं कि यह उलटी ही बात है, क्योंकि धन से कभी कोई सुख की झलक भी नहीं खरीद सकता, सुख तो बहुत दूर है। लेकिन फिर भी तुम आ गए तो ठीक किया। तुम ठीक जगह आ गए। इस गांव में वह आदमी है।
उसे खोजा गया। गांव वाले उसके पास ले गए। वह सूफी फकीर, नसरुद्दीन, एक झाड़ के नीचे बैठा था। सांझ ढल रही थी। गांव के लोगों ने कहा, यह रहा वह आदमी। उस अरबपति ने अपने सोने की थैली, हीरे-जवाहरातों की, नीचे पटक दी और कहा, यह है, मैं देने को तैयार हूं, करोड़ों का इसमें सामान है। मुझे सुख की एक झलक चाहिए।
उस फकीर ने नीचे से ऊपर तक देखा। और उसने कहा, बिल्कुल पक्की झलक चाहिए?
पक्की झलक चाहिए।
वह इतना कह भी नहीं पाया था कि उस फकीर ने वह झोली उठाई और भाग खड़ा हुआ। एक क्षण तो अवाक रह गया वह अमीर, फिर चिल्लाया कि मैं लुट गया, मैं मर गया। लेकिन तब तक तो अंधेरे में वह फकीर काफी दूर निकल गया था। गांव के लोग तो जानते थे उस फकीर को कि वह कुछ उलटा करेगा। उन्होंने कहा, हमने पहले ही कहा था कि यही एक आदमी है जो उलटी-सीधी बातों का जवाब दे सकता है।
उस आदमी ने, अमीर ने कहा, यह कोई जवाब है! पकड़ो इसे!
भागे लोग। वह अमीर भागा। वह गांव तो परिचित था फकीर का। गली-कूचे में चक्कर देने लगा। पूरा गांव जग गया। पूरे गांव को जगाने के लिए उसने चक्कर भी दिया। फिर सारा गांव दौड़ रहा है। फिर भाग कर वह वापस उसी जगह आया जिस झाड़ के नीचे घोड़ा खड़ा था। थैली नीचे पटक दी जहां से उठाई थी, झाड़ के पीछे खड़ा हो गया।
अमीर हांफता, भागता, पसीने से लथपथ पहुंचा। झोली देखी, उठाई, छाती से लगाई और परमात्मा को कहा--तेरा बड़ा धन्यवाद!
उस फकीर ने कहा पीछे से झाड़ के, कुछ झलक मिली?
उस अमीर ने कहा, बिल्कुल मिली। बड़ा सुख मालूम पड़ रहा है।
उस फकीर ने कहा, बस अब तुम अपने घोड़े पर बैठो और जाओ।
जिस चीज के हम मालिक ही हैं, उसको भी जब तक हम खो न दें, तब तक पता नहीं चलता सुख का। यह पूरे संसार की यात्रा उसी को खोने की यात्रा है जिसे पाना है। जो मिला ही हुआ है, उसे एक दफे खोए बिना हमें पता नहीं चल सकता। हमने खोया है, अब खोजना पड़ेगा। जिस दिन खोज लेंगे, उस दिन चाय पीने और हंसने के सिवाय कुछ बचेगा नहीं।
चीन में तीन फकीर जब उपलब्ध हो गए ज्ञान को तो गांव-गांव में हंसते हुए घूमने लगे। और जब भी कोई उनसे कुछ पूछता तो वे हंसते। एक हंसता, दूसरा हंसता, तीनों हंसते, फिर हंसी पूरे गांव में फैल जाती, फिर चौरस्ते पर पूरे लोग इकट्ठे होकर हंसते। और लोग उनसे पूछते कि किसलिए हंस रहे हो? तो वे फिर एक-दूसरे को देख कर हंसते, फिर हंसी का फव्वारा छूट जाता। फिर वे तीनों प्रसिद्ध हो गए पूरे चीन में--थ्री लाफिंग सेंट्स, तीन हंसते हुए फकीर। मरने के पहले वे एक कागज पर लिख कर रख गए कि हम अपने पर हंसते थे, क्योंकि जिसे खोजते थे वह हमारे पास था; और हम तुम पर हंसते हैं, क्योंकि तुम जिसे खोज रहे हो वह तुम्हारे पास है।
ये नौ सूत्र इन चार दिनों में मैंने आपसे कहे। इसलिए नहीं कि आपकी थोड़ी सी बौद्धिक समझ बढ़ जाए। इसलिए भी नहीं कि आप थोड़े से और ज्ञानी हो जाएं। ज्ञानी वैसे ही आप काफी हैं, सभी हैं। इस ज्ञान में थोड़ा और एडीशन करने से कुछ भी नहीं होगा। यह वैसे ही काफी है, बहुत जन्मों का ज्ञान है सबके पास। ये सूत्र मैंने आपके ज्ञान बढ़ाने के लिए नहीं कहे। ये सूत्र मैंने आपसे आपका ज्ञान छीन लेने के लिए ही कहे। ये सूत्र आपको कुछ सिद्धांत मिल जाएं, जिनको आप पकड़ कर सहारा बना लें, इसलिए मैंने नहीं कहे। आपके पास बहुत सिद्धांत हैं और आपके पास बहुत सहारे के लिए शास्त्र हैं और अगर उनसे ही आप बच सकते होते तो बच गए होते। इन मेरे थोड़े से शब्दों को और सहारा बना कर आप नहीं बच सकेंगे।
सब सिद्धांत, सब शास्त्र, सब शब्द बोझ बन जाते हैं सिर पर और डुबा देते हैं।
मैंने इसलिए ये बातें नहीं कहीं कि आपका सहारा बन जाएं। मैंने तो इसीलिए आपको ये बातें कहीं कि आपको अपने बेसहारा होने का पता चल जाए। मैंने इसलिए ये बातें नहीं कहीं। ऐसा नहीं है कि मैं समझता हूं कि आपको समझाने से कुछ समझ आ जाएगी, बिल्कुल नहीं समझता। ऐसी नासमझी मैं करता ही नहीं। मेरे समझाने से आपको समझ आ जाएगी, ऐसा होता, तब तो बड़ी आसान बात थी। तब तो एक आदमी समझ लेता और सबको समझा देता और अब तक सारी दुनिया समझदार हो गई होती। लेकिन बुद्ध थक कर मर जाते हैं, कृष्ण थक कर मर जाते हैं, जीसस थक कर मर जाते हैं, महावीर थक कर मर जाते हैं, दुनिया की नासमझी इंच भर इधर-उधर नहीं टलती। इसलिए अब कोई समझदारी से कुछ हो जाएगा, ऐसा मेरा मानना नहीं है।
फिर मैंने आपसे ये बातें क्यों कहीं?
मैंने ये बातें आपसे इसलिए कहीं कि आपको अगर अपनी समझदारी पर थोड़ा शक आ जाए तो काफी है। अगर आप थोड़े संदिग्ध हो जाएं और आपको अपनी समझदारी पर थोड़ा शक आ जाए तो काफी है, पर्याप्त है। मैंने ये बातें इसलिए आपसे कहीं कि कब आप समझेंगे कि समझ पर्याप्त नहीं है। कुछ और करना पड़ेगा। समझते रहने भर से कुछ भी नहीं होगा। नासमझी ढंक जाएगी और मौजूद रहेगी, मिटेगी नहीं। समझना काफी नहीं है, टु नो इ.ज नाट इनफ। कुछ करना भी पड़ेगा। असल में, बिना किए असली समझ कभी नहीं आती। बिना किए जो समझ आती है वह सिर्फ समझ का धोखा होती है, डिसेप्शन होती है। और झूठे सिक्के असली सिक्कों का धोखा दे देते हैं।
मैंने ये बातें इसलिए कहीं कि आप करने की यात्रा पर निकल सकें। एक इंच भी चलें तो हजार इंच सोचने की बजाय बेहतर है। और एक रत्ती भर करें तो पहाड़ों ज्ञान की बजाय बेहतर है। क्योंकि पहाड़ भर ज्ञान भी बचा नहीं सकता, रत्ती भर ज्ञान बचाने के लिए काफी हो जाता है। वह किया हुआ, जो जाना हुआ है करके, वही नाव बनता है। और जो सुन कर, पढ़ कर, समझ कर जाना हुआ है, वह भी नाव बन जाता है, लेकिन कागज की नाव बन जाता है। कागज की नाव, अगर बैठें न, तो शायद नदी पार भी कर जाए। और अगर बैठें, तब तो पक्का ही नदी पार नहीं होती, डुबाती है।
लेकिन हम सब कागज की नाव में बैठे हैं। कागज की नाव के अलग-अलग नाम हैं। किसी की कागज का नाम कुरान है। किसी की कागज का नाम बाइबिल है। किसी की कागज का नाम वेद है। किसी की कागज का नाम कुछ और है। लेकिन सब कागज की नाव हैं। कागज पर लिखे गए काले अक्षरों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
परमात्मा को खोजना हो जो जीवन की ऊर्जा में उतर कर खोजना पड़ता है। वहीं मिलती है गीता जो सच में कागज की नहीं है। वहीं मिलती है कुरान जो कागज की नहीं है। वहीं मिलता है वेद जो कागज का नहीं है, जो परमात्मा का है।
ये सब बातें इस आशा में कहीं कि शायद आपको थोड़ा धक्का लग जाए और आप किसी यात्रा पर निकल जाएं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत मेंसबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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