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मंगलवार, 27 नवंबर 2018

सहज समाधि भली-(प्रवचन-11)

विचार नहीं--अनुभव ही नाव है

ग्यारहवां प्रवचन

दिनांक ३१ जुलाई, १९७४, प्रातः काल, श्री रजनीश आश्रम पूना,

कथा:

एक परंपरावादी दरवेश नैतिक प्रश्नों पर विचार करता हुआ नदी किनारे से जा रहा था। अचानक दूर से आती हुई "ऊ हू' की आवाज उसके कानों में पड़ी और उसकी विचार-धारा टूट गई। कहीं दूर कोई आदमी दरवेश-मंत्र का पाठ कर रहा था; लेकिन उच्चारण बहुत गलत था।
दरवेश ने सोचा कि एक जानकार के नाते मेरा कर्तव्य है कि मैं जाऊं और मंत्रपाठ की सही विधि उसे बता दूं। और वह नाव खेकर उस छोटे-से द्वीप पर पहुंचा, जहां एक दूसरा दरवेश अपने झोपड़े में सूत्र-पाठ कर रहा था। पास जाकर पहले दरवेश ने उसे सही पाठ बताया और दिल में नेक काम करने की खुशी भरकर अपनी नाव में लौट आया।
इस मंत्र की बड़ी महिमा थी और समझा जाता था कि इसके पाठ से आदमी पानी की लहरों पर भी चल सकता है। पहले दरवेश को, लेकिन इसका विश्वास भर था, अनुभव नहीं था।

दरवेश थोड़ी ही दूर गया होगा कि उसे मंत्र का गलत पाठ फिर सुनाई पड़ने लगा। और उस आदमी की भूल करने की जिद्द पर उसे क्रोध आया। तभी एक चकित करने वाला दृश्य सामने था। दूसरा दरवेश उसकी ओर भागा आ रहा था--पानी पर चलता हुआ। और पास आकर उसने कहा: "माफ करना भाई, शुद्ध मंत्रोच्चार की विधि एक बार फिर बताने की कृपा करो।'
ओशो, कृपापूर्वक इस बोध-कथा का मर्म हमें बताएं।


सत्य यदि शब्द से पाया जा सके, तो भाषाशास्त्री धर्मशास्त्री हो जाए। सत्य तक अगर शब्द की सीढ़ी पहुंचती हो, तो व्याकरण काफी है, योग और ध्यान की कोई भी जरूरत नहीं है; क्योंकि तब शुद्ध भाषा ही मार्ग होगी। लेकिन सत्य का शब्द से कोई संबंध नहीं है, न भाषा से कोई नाता है। व्याकरण से तो कोई दूर का...दूर का संबंध भी नहीं हो सकता। लेकिन अक्सर यह हुआ है कि धर्म, भाषा में कैद हो गया। सत्य, सिद्धांत की कारागृह में बंद हो गया। और लोगों ने समझा कि शास्त्र को पढ़ लिया तो जो जानने योग्य था, वह जान लिया। लोगों ने सिद्धांतों की समझ को सिद्धावस्था समझ लिया।
इस भ्रांति के पीछे कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि सत्य को पाना अति कठिन है; शब्दों को समझ लेना बहुत सरल है। कोई भी समझ ले सकता है। सत्य की व्याकरण तो बड़ी कठिन है, शब्द की व्याकरण बड़ी सुगम है। सत्य तक जाना हो, तो जीवन का व्याकरण बदलना पड़े। शब्दों को समझ लेने के लिए भाषा-विज्ञान पर्याप्त है। भाषा की शिक्षा दी जा सकती है, धर्म की कोई शिक्षा नहीं होती। भाषा दूसरा भी समझा सकता है, धर्म को दूसरे के द्वारा समझाए जाने का कोई उपाय नहीं है।
धर्म तो गूंगे का गुड़ है; जिसने स्वाद लिया, वह गूंगा हो गया। उसे बोलना मुश्किल है, बताना मुश्किल है। उस संबंध में कुछ भी कहने की सुगमता नहीं है। जो कहे, समझ लेना उसने जाना नहीं है।
बुद्ध भी बोलते हैं, लाओत्से भी बोलते हैं, कृष्ण भी बोलते हैं। लेकिन जो भी वे बोलते हैं, वह धर्म नहीं है। वह धर्म तक पहुंचने का सिर्फ इशारा मात्र है, इंगित मात्र है। वे मील के पत्थर हैं, जिन पर तीर बना होता है। लेकिन मील के पत्थर को कोई मंदिर समझकर बैठ जाए, तो पागल हो जाएगा। पर बहुत लोग बैठते हैं। गीता के पास जो बैठे हैं, वे मील के पत्थर के पास बैठे हैं। कुरान पर जो सिर टेके बैठे हैं, मील के पत्थर के पास बैठे हैं। उन्होंने मील के पत्थर पर लगे तीर को मंदिर समझ लिया है, फिर वे वहीं रुक गए हैं।
सब शास्त्र इंगित करते हैं: शून्य की तरफ। लेकिन, शून्य का तो कोई भी शास्त्र नहीं हो सकता है। सभी शास्त्र कहते हैं: "मौन हो जाओ', लेकिन मौन को प्रकट करनेवाला तो कोई शब्द नहीं हो सकता। इस बात को ठीक से समझ लें, तो यह दरवेश-कथा समझ में आ जाए।
दूसरी बात खयाल में ले लेनी जरूरी है: क्या तुम कहते हो, वह सवाल नहीं है; क्या तुम्हारा भाव है, यह सवाल है।
ऐसा हुआ। एक यहूदी था। बालसेम एक फकीर, यहूदियों के पवित्र दिन पर बोल रहा था। फिर बोलने के बाद नियमानुसार दो मिनट के लिए सभी लोग प्रार्थना के लिए खड़े हुए। काफी समय बीतने लगा; बालसेम आंख बंद किए ही खड़ा है। लोग घबड़ा गए, कुछ ही क्षण में। जैसा हम भी कभी कोई मर जाता है, तो दिवंगत को श्रद्धांजलि देने के लिए दो मिनट के लिए मौन खड़े हो जाते हैं।
दो मिनट भी लंबे मालूम पड़े। क्योंकि मौन होने की आदत नहीं है। दो क्षण मौन होने की भी आदत नहीं है। और वह समय तो सच में ही लंबा होता गया! कोई एक घंटा बीत चुका। लोग बिलकुल बेचैन हो चुके थे। लोग जा भी नहीं सकते थे। क्योंकि जब तक बालसेम न कहे कि प्रार्थना पूरी हो गई, तब तक नियमानुसार जा भी नहीं सकते। और बालसेम आंख बंद किए है। ऐसा कभी उसने पहले किया भी नहीं था। फिर वह आदमी भी कीमती था। लोग उसे आदर भी करते थे। वह एक सिद्ध पुरुष था।
जब बालसेम ने आंख खोली, तो एक आदमी से न रहा गया। उस बूढ़े आदमी से, जो सामने ही खड़ा था और रुक गया था। उसने कहा, "दो मिनट की प्रार्थना, एक घंटा लगा दिया! क्या कह रहे थे?' बालसेम ने कहा, "मैं क्या करूं? बड़ी उलझन खड़ी हो गई। मैं खुद उलझन में था। आज हमारी इस सभा में एक गैर पढ़ा-लिखा आदमी आ गया है। उसने परमात्मा से बड़ी उलटी प्रार्थना कर दी। वह गैर-पढ़ा-लिखा है, उसे प्रार्थना नहीं आती, उसे प्रार्थना के शब्द नहीं आते। तो उसने यहां दो मिनट के बीच खड़े होकर यह परमात्मा से कहा कि "मुझे प्रार्थना तो नहीं आती। मुझे तो वर्णमाला आती है--ए, बी, सी, डी, ई, एफ, जी...। तो मैं वर्णमाला दोहरा देता हूं, बाकी प्रार्थना तू जमा ले। तुझे तो सब पता है और भाव मेरा तू समझता है!
"तो भगवान को घंटा भर लग गया; वे जमा रहे थे प्रार्थना। और जब तक वे न जमा लेते, मैं भी कैसे आंख खोलूं?और ऐसा काम कभी उन पर छोड़ा नहीं गया। कौन है यह आदमी, जिसने यह प्रार्थना की है?'
सच में ही एक आदमी ने हाथ उठाया। उसने कहा, "बड़ी मुश्किल है। वह आदमी मैं ही हूं। मुझे प्रार्थना नहीं आती। मैं अजनबी हूं--इस गांव में। और जिस गांव से आता हूं, वहां कोई सिनेगाग भी नहीं है, कोई मंदिर भी नहीं है, कोई पुजारी भी नहीं है। वहां मैं अकेला ही यहूदी हूं। किसी ने मुझे कभी प्रार्थना सिखाई ही नहीं है। जब सब आंख बंद करके प्रार्थना करने लगे, तो मैंने सोचा, मैं क्या कहूं? तो मैंने कहा कि, तू तो सब जानती ही है; तो वर्णमाला पूरी बोले देता हूं, प्रार्थना के शब्द इसमें सब आ ही जाते हैं। तू जमा लेना।'
भाव मूल्यवान है, तो वर्णमाला भी मंत्र बन जाती है। और भाव भीतर न हो तो महामंत्र भी राख हैं, उनमें कोई जीवन नहीं है। और धर्म का संबंध "क्या तुम सोचते हो'--इससे नहीं; "क्या तुम हो, क्या तुम्हारी भावना है, क्या तुम्हारा हृदय है'--इससे है।
तुम्हारे मस्तिष्क में कितने विचार हैं, कितना तर्क है, कितनी समझ है, इसका कोई मूल्य धर्म के बाजार में नहीं है। तुम्हारे हृदय में कितनी प्यास है, कितनी प्रार्थना है, कितना प्रेम है...?
परमात्मा को खरीदने जो चला हो, वह हृदय की पूंजी पर भरोसा रखे। बुद्धि की पूंजी वहां नहीं चलती। वे सिक्के वहां काम नहीं आते। वहां पंडित पिछड़ जाते हैं। वहां कभी-कभी हृदयपूर्वक अज्ञानी भी प्रवेश कर जाता है।
अब हम इस कहानी को समझने की कोशिश करें।
"एक परंपरावादी दरवेश नैतिक प्रश्नों पर विचार करता हुआ नदी तट से जा रहा था।'
पहली बात "परंपरावादी' है।
परंपरावादी और धार्मिक भिन्न बातें हैं। अक्सर जो परंपरावादी है, वह धार्मिक समझा जाता है। अक्सर हम ऐसा समझते हैं कि जो पुराने को मानता है, वह धार्मिक है। लेकिन धार्मिक पुराने को जानता ही नहीं। धार्मिक का पुराने से कुछ लेना-देना नहीं है, न धार्मिक का नए से कुछ लेना-देना है। धार्मिक की खोज का आयाम सनातन है--न पुराना, न नया। धर्म तो उसकी खोज करता है: जो सदा रहेगा, जो सदा है--जो कभी पुराना नहीं पड़ता और जो कभी नया नहीं होता।
जो पुराना पड़ जाता है, वह कभी नया रहा होगा। जिसको आज तुम परंपरा कहते हो, वह कभी फैशन रही होगी। जिसको तुम आज फैशन कहते हो, वह कल परंपरा बन जाएगी। जिसको तुम आज पूछते हो कि "बहुत पुराना है', वह भी कभी नया था। और लोग उस पर हंसे थे कि क्या नए की बात कर रहे हो?
बुद्ध ने जब पहली दफा बातें कहीं, तो लोग हंसे। उन्होंने कहा, "यह परंपरा नहीं है। यह तो नई बात कह रहा है। नई बातों को कौन मानेगा?' लेकिन आज बुद्ध की बातें परंपरा हैं।
जब जीसस ने पहली दफा कुछ कहा, तो यहूदियों ने उन्हें सूली लगा दी। क्योंकि यह आदमी नई बातें कह रहा था। आज जीसस की बातें परंपरा हैं।
समय सभी नई बातों को पुराना कर देता है। तो क्या समय का गुजर ही सत्य की पहचान है? क्या बूढ़ा हो जाना ही सिद्धावस्था है? समय की जितनी धूल जम जाए, क्या उससे कोई फैशन मंदिर की महिमा पा लेगा? लेकिन सभी धार्मिक--तथाकथित धार्मिक लोग ऐसा ही सोचते हैं।
सभी धर्म दावा करते हैं कि हमारी किताब से ज्यादा पुरानी कोई किताब नहीं है। हिंदुओं से पूछो, वे कहते हैं; "वेद से पुरानी कोई किताब नहीं है।' जैनों से पूछा, जैन कहते हैं: "वेद कितने ही पुराने हों, लेकिन हमारे पहले तीर्थंकर का नाम वेद में सम्मान से उल्लिखित हुआ है। तो एक बात तो पक्की है, कि जिस तीर्थंकर का नाम वेद में सम्मान से उल्लिखित हो, वह वेद से पुराना है।' क्योंकि सम्मान पाने में समय लगता है। समसामयिक व्यक्ति को कोई सम्मान नहीं देता! पैगंबर को भी पूजा पाने में समय लगता है, जब तक वह परंपरा न बन जाए।
अगर जैनों के पहले तीर्थंकर का नाम बहुत सम्मान से वेद में लिया गया है, तो उसका अर्थ है कि वेद जब लिखा जा रहा होगा, उस समय तक यह आदमी काफी पुराना हो चुका था। यह कोई जवान, क्रांतिकारी नहीं रहा होगा। तब तक इसकी परंपरा गन गई थी। तो जैन कहते हैं: "जैन धर्म से पुराना कोई धर्म नहीं है।'
यही सभी धर्मों के दावे हैं।
पुराने का दावा किसलिए किया जाता है? क्योंकि हम सबकी मान्यता है कि "जितना पुराना, उतना बेहतर।' धर्म कोई शराब थोड़ी है कि जितनी पुरानी उतनी बेहतर! धर्म तो शराब से बिलकुल उलटी चीज है। वह जगाती है, सुलाती नहीं है; होश में लाती है, बेहोश नहीं करती है। लेकिन सभी धार्मिकों ने उसे शराब की दुकान समझ रखा है। वे दावा करते हैं--पुराने का। जितना पुराना है, लगता है, बहुत महत्वपूर्ण है। परंपरावादी धार्मिक नहीं होता, पुराणपंथी होता है।
पुराने को मानना आसान है। क्योंकि उसे खोजना नहीं पड़ता। उसे दूसरे खोज चुके हैं, तुम्हें खुद कोई चिंता करने की, साधना करने की, किसी अग्नि से गुजरने की जरूरत नहीं है। दूसरे जान चुके हैं; वह उधार है।
तुम उधार को स्वीकार कर लेते हो। फिर इतने लोगों ने स्वीकार किया है...! जितना पुराना है, उतने ज्यादा लोग स्वीकार कर चुके हैं। हजारों लोग उसको मान चुके हैं। इससे महिमा मिलती है और लगता है: जिसको हजारों ने माना, वह सच होगा ही। इस भ्रांति में मत पड़ना।
सत्य कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं है कि अधिक मत सत्य के पक्ष में पड़ने हैं। बहुमत से सत्य का कोई संबंध नहीं है।
अकसर ऐसा होता है कि सत्य को भीड़ कभी भी नहीं मानती। सत्य को अकसर खोजनेवाले व्यक्ति होते हैं--भीड़ नहीं। सत्य अकसर ही भीड़ को चौंकाता है, तिलमिलाता है। लेकिन परंपरावादी मानता है कि जितने ज्यादा लोगों ने माना है--सदा-सदा से माना है, इसी को पाकर लोग ऋषि-मुनि हुए, तो यह सत्य होना चाहिए।
"लंबा समय' सम्मोहित करता है; क्योंकि इतनी बार दोहराया गया है--तुम्हारे मस्तिष्क पर इतनी बार सुझाव दिया गया है कि दोहरते, दोहरते, दोहरते निशान पड़ गए हैं।
कबीर ने कहा है कि जैसे कुएं के पाट पर रस्सी बार-बार आती और जाती है, पानी खींचा जाता है, तो पत्थर पर भी निशान पड़ जाते हैं। ऐसा ही अगर कोई शब्द, कोई शास्त्र बार-बार तुम्हारी खोपड़ी पर से गुजरता रहे, गुजरता रहे, तो निशान छोड़ जाता है।
सत्य का कोई "निशान' नहीं होता। सत्य तो तभी उपलब्ध होता है, जब तुम्हारी चेतना से सभी निशान पुछ जाते हैं; तुम कोरे हो जाते हो।
पुराने का सत्य से कोई संबंध नहीं है। लेकिन यह दरवेश परंपरावादी है--दरवेश नहीं है। दरवेश का मतलब होता है: सूफी; दरवेश का मतलब होता है--इस्लाम में--योगी। लेकिन जो परंपरावादी है, वह योगी तो हो ही नहीं सकता। परंपरावादी कभी योगी नहीं होता। योगी सदा क्रांतिकारी है। धर्म से बड़ा कोई विद्रोही नहीं है, उससे बड़ी कोई क्रांति नहीं है, उससे बड़ा कोई रूपांतरण नहीं है।
"वह नैतिक प्रश्नों पर विचार करता हुआ, नदी तट से जा रहा था।' परंपरावादी विचार ही करते रहते हैं। "करते' नहीं--सिर्फ विचार करते हैं। बदलते नहीं--बदलाहट का सिर्फ हिसाब लगाते हैं।
परंपरावादी अकसर "मकान' बनाने के नक्शे बनाते हैं, मकान कभी नहीं बनाते। मकानों के संबंध में सब जानते हैं: कैसे बनाया जाए, यह भी जानते हैं। सब ब्लू-प्रिंट तैयार रखते हैं, मकान कभी नहीं बनाते। लेकिन कोई ब्लू प्रिंटो में रह तो नहीं सकता। वर्षा होती हो तो ब्लू-प्रिंट पानी को नहीं रोकेंगे। और धूप पड़ती हो, तो ब्लू-प्रिंट छाया नहीं देंगे। मकान चाहिए--झोपड़ा भी काफी है। कोई बहुत बड़े आर्किटेक्चर की जरूरत नहीं है। लेकिन झोपड़ा भी छाया देगा। परंपरावादी झोपड़ा भी नहीं बनाते, बड़े महलों के नक्शे उनके पास होते हैं! वे बड़े-बड़े प्रश्नों पर विचार करते हैं और जीवन में छोटा-सा प्रश्न भी हल नहीं हो पाता।
वे सोचते हैं: नीति-अनीति, शुद्ध-अशुद्ध, सत्य-असत्य, शिव-अशिव; लेकिन यह सब विचार का ताना-बाना होता है। ये सब मन में चलती हुई बातें होती हैं। उनके जीवन में अगर खोजने जाओ तो तुम वहां इनकी कोई भी झलक न पाओगे। "झोपड़ा' भी उनके पास तुम्हें न मिलेगा।
असल में झोपड़ा पास में नहीं है, इस बात को भुलाने का सबसे आसान रास्ता यह है कि तुम महल बनाने का "विचार' करो। इसे ठीक से समझ लेना।
अगर झोपड़ा भी पास में न हो और वृक्ष के नीचे सोना पड़ता हो, तो सबसे बेहतर यह है कि सपना तुम महलों का देखो, तो फिर झाड़ के नीचे रहना आसान हो जाएगा। उससे, "झोपड़ा' मेरे पास नहीं है, यह बात भूलना सुगम हो जाएगी। क्योंकि महल का सपना जगह को घेर लेगा। अकसर क्षुद्र जीनेवाले लोग बड़े विराट प्रश्नों का चिंतन करते हैं।
यह दरवेश न तो दरवेश है, न तो धार्मिक है। लेकिन नैतिक प्रश्नों पर विचार करता हुआ नदी तट से गुजर रहा है।
एक बात और खयाल में ले लेनी चाहिए: धार्मिक व्यक्ति के लिए नीति कोई विचारणा नहीं है, साधना है। वह यह नहीं चिंता करता है कि क्या ठीक है, क्या गलत है।
मैंने सुना है: एक सूफी फकीर जुन्नैद के पास एक आदमी आया और उस आदमी ने कहा कि "मैं बड़ा पापी हूं। और तुम्हारी बात मैंने सुनी है। तुमने कहा है, "पश्चात्ताप करो, सब पाप क्षमा हो जाएंगे। परमात्मा दयालु है, रहीम है, रहमान है; उसकी दया का कोई पारावार नहीं है।' तो मैं यही सुनकर चला आया हूं। मैं बड़ा पापी हूं। लेकिन पश्चात्ताप कैसे करूं, यह मुझे मालूम नहीं है! तो तुम मुझे बता दो, पश्चात्ताप क्या है।'
जुन्नैद ने बड़ा अजीब सवाल किया। जुन्नैद ने कहा, "और पाप करने के पहले तुम्हें पता था कि पाप क्या है?' वह आदमी थोड़ा चौंका। उसने कहा, "पाप करने के पहले मुझे यह भी पता नहीं था कि पाप क्या है। करके ही पता चला।' तो जुन्नैद ने कहा, "पश्चात्ताप कर। पाप करते वक्त किसी से तूने न पूछा कि पाप क्या है; कर गया! सोचा भी न; करके पता चला! पश्चात्ताप--पहले तू सोचेगा--क्या है। तू पहले पश्चात्ताप कर ले, फिर बाद में तू जान लेगा।' जुन्नैद ने कहा "यह आदमी की बड़ी गहरी तरकीब है। जो उसे करना है, उसे बिना सोचे करता है। और जो नहीं करना है, उसके संबंध में सोच-विचार करता है।'
इसे तुम ठीक से समझ लेना, क्योंकि तुम भी यही कर रहे हो।
जो तुम्हें नहीं करना है, उसके संबंध में तुम काफी सोच-विचार करते हो। क्योंकि इससे ज्यादा, एस्केप करने का और कोई अच्छा उपाय नहीं है--कि सोचो और कहो कि जब तक सोच न लेंगे, करेंगे, कैसे?
और ध्यान रहे कि सोचना कभी भी निष्कर्ष नहीं बनता--कभी भी नहीं। सोचने का कोई अंत ही नहीं है। वह अंधी दौड़ है; वह कहीं पहुंचती नहीं है। न तुम कहीं पहुंचोगे, न करने की झंझट आएगी।
पश्चात्ताप क्या है? मुश्किल है मामला। और फिर "पश्चात्ताप क्या है'--इसके जवाब से हजार सवाल उठेंगे और प्रश्नों का जाल खड़ा होगा, जिनको कभी कोई हल नहीं कर पाया है।
सारे दुनिया के शास्त्र तुम्हारे उन प्रश्नों को हल करने में चुक गए हैं और हल नहीं कर पाए हैं, जो प्रश्न तुमने इसलिए उठाए हैं कि तुम "करने' से बचना चाहते हो। मन की इस बेईमानी को पकड़ रखना, गांठ बांध लेना।
ध्यान रखना कि जो भी तुम करना चाहते हो। तुम कर ही लेते हो। क्रोध करना है--तुम करते हो। तुम कभी नहीं पूछते कि क्रोध क्या है--कि पहले उसका मनोवैज्ञानिक अर्थ समझें। क्रोध क्या है--इसकी जैविक प्रक्रिया समझें। क्रोध क्या है--उसका रासायनिक रूप समझें। क्रोध क्या है, उसका अस्तित्व में क्या प्रयोजन है?--पहले हम यह सब समझ लें, तब करेंगे। कोई भी इसकी फिक्र नहीं करता। छोटा बच्चा भी उसकी फिक्र नहीं करता, बड़े-बूढ़े भी इसकी फिक्र नहीं करते।
क्रोध तुम करते हो। लेकिन अगर कोई कहे: "करुणा', तो तुम पूछते हो, "करुणा यानी क्या?' और बुद्ध भी थक जाते हैं--समझा-समझाकर और करुणा समझ में नहीं आती।
जुन्नैद ने ठीक कहा। उसने कहा, "पहले तू कर। और जैसे पाप करके तूने जाना, ऐसे ही पश्चात्ताप करके तू जानेगा।' करने के अतिरिक्त जानने का कोई उपाय नहीं है।
नदी के किनारे टहल रहे हैं, सोच रहे हैं...! यह आदमी "करने' से बच रहा होगा। क्योंकि जिसे करना है, उसके पास खोने को समय कहां हैं? जिसे करना है, उसे नदी तट पर टहलकर नैतिक विचार करने की सुविधा कहां है! यहां फांसी लगी है, यहां गले पर तलवार लटकी है, प्रतिपल मौत दरवाजे पर दस्तक दे रही है--किसी भी क्षण तुम समाप्त हो जाओगे। सुविधा कहां है--दर्शन-शास्त्र में उतरने की? किसके पास समय है? लेकिन लोग सोचते हैं--जिंदगी भर।
एक सज्जन मेरे पास आते हैं। वे कम से तीन साल से कई बार आए गए हैं। सोच रहे हैं: संन्यास के संबंध में। जब वे इस बार आए तो मैंने उनको कहा, "तुम जिंदा रहते सोच पाओगे? कहीं ऐसा न हो कि तुम रहो ही न! और सोचते-सोचते तीन साल तुमने गंवा दिए। तुम तीन सौ साल भी गंवा सकते हो। और क्या सोच रहे हो? मुझे साफ कहो। कहीं धोखा तो नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि सोचने की आड़ में तुम संन्यास से बचना चाह रहे हो?'
"नहीं', उन्होंने कहा, "बात तो बिलकुल ठीक ही लगती है। लेकिन यह तो ज्ञानियों ने भी कहा कि बिना सोचे कदम नहीं उठाना।' मैंने कहा, "और बाकी कदम तुम रोज उठाते हो, और तब तुम ज्ञानियों को बिलकुल एक तरफ रख देते हो। सिर्फ संन्यास के संबंध में ज्ञानियों की बात समझ में आ रही है!'
पर आदमी अपने को धोखा दे सकता है। और विचारणा सबसे बड़ा धोखा है। विचार का जाल ऐसी एक धुएं की स्थिति चारों तरफ पैदा कर देता है कि करने का उपाय नहीं रह जाता है।
अकसर इसलिए मैं कहता हूं कि कभी-कभी अज्ञानी धार्मिक हो जाते हैं। क्योंकि अज्ञानियों का भरोसा "करने' पर होता है। तथाकथित पंडित चूक जाते हैं, क्योंकि पंडितों का भरोसा "करने' पर होता ही नहीं है।
यह आदमी सोच रहा है: नैतिक विचारों पर; नदी तट पर टहल रहा है। यह उन सभी की तस्वीर है, जो विचार कर-करके बच जाते हैं।
धर्म कृत्य है, वह एक्शन है; वह विचार नहीं है। और जो धर्म तुम्हारे विचार तक रह जाए, वह न तो तुम्हारे हृदय तक उतरेगा, न तुम्हारी हड्डी, मांस-मज्जा में प्रवेश करेगा। वह धुएं की तरह है। उसका कोई भी सार नहीं है। वह ज्योति नहीं है, जो तुम्हें बदल दे, जला दे, नया कर दे--नया जन्म दे दे। वह धुआं है, जो तुम्हें और अंधेरे में डालेगा, आंखें अंधी कर देगा।
"...अचानक दूर से "ऊ हू' की आवाज उसके कानों में पड़ी और उसकी विचार-धारा टूट गई। कहीं दूर कोई दरवेश मंत्र का पाठ कर रहा था।'
"अल्लाहू' मंत्र है। तुम ध्यान में जिस मंत्र का उपयोग कर रहे हो--"हू' का, वह "अल्लाहू' का आखिरी हिस्सा है। वह सूफी मंत्र है।
तो सूफी फकीर "अल्लाहू, अल्लाहू, अल्लाहू' का मंत्र बोलता है। फिर जब मंत्र में निश्चित गति आ जाती है और उसके प्राण मंत्र में डूब जाते हैं और त्वरा बढ़ जाती है--अल्लाहू, अल्लाहू, तेजी से घूमने लगता है, तो "लाहू, लाहू' बचता है; अल्लाह खो जाता है। जितनी तेजी आती है, मंत्र "लाहू लाहू' जैसा मालूम पड़ने लगता है। फिर और गति आती है, मंत्र करनेवाला भी खो जाता है; सारी प्राण-ऊर्जा उच्चारण करती है। तब "हू' बचता है। "लाहू' में से "ला' भी खो जाता है। तब "हू, हू, हू' ही गूंजने लगता है।
शुद्ध उच्चारण दूर नदी के पार से आती आवाज में नहीं था। वह "ऊ हू, ऊ हू' कह रहा था। न तो वह "अल्लाह' था, न "लाहू' था, न "हू' था। वह उलटा "ऊ हू' कह रहा था। "ऊ'  उसने न मालूम कहां से जोड़ दिया था।
विचारक रुक गया। उसे ठीक उच्चारण पता है। यद्यपि उसने कभी उस उच्चारण को खुद किया नहीं है।
ठीक पता होने से जरूरी थोड़े है कि तुम करोगे। ठीक किसको पता नहीं है? ठीक सभी को पता है!
अगस्तीन ने अपने संस्मरणों में--"कनफेशन्स' में--एक बात कही है; बात कीमती है। उसने कहा है, "हे परमात्मा, ठीक क्या है, वह मुझे पता  है। और गैर-ठीक क्या है, वह मैं करता हूं। अब तू ही मुझे बचा।' क्योंकि "ठीक क्या है', यह भी मैं नहीं कह सकता कि मुझे पता नहीं है। वह बचाव मेरे लिए नहीं है। ठीक क्या है, वह मुझे पता है। मैं यह भी कह सकता कि मैं जो गैर-ठीक कर रहा हूं, जानता नहीं हूं। गैर-ठीक क्या है, वह भी मुझे पता है। अब तू ही बचा। ठीक पता होकर भी मैं करता तो गैर-ठीक ही था।
इस आदमी को ठीक उच्चारण पता है, हालांकि उसने कभी किया नहीं है। क्योंकि उसने किया होता, तो यह आदमी ही और हो गया होता। फिर यह सोचता नहीं कि "नीति क्या है, अनीति क्या है?' इसके पास आंखें होतीं, यह खुद ही देख लेता कि शुभ क्या है, अशुभ क्या है।
अंधे सोचते हैं, द्रष्टा देखते हैं। विचारक सोचते हैं, ज्ञानी देखते हैं। इसलिए हम दर्शन-शास्त्र को "दर्शन' कहते हैं। दर्शन का अर्थ है: जिसने देख लिया, वह सोचना-विचारना नहीं है।
अगर इसने देख ही लिया था, तो सोचना, विचारना क्या था! अंधे बैठकर सोचते हैं: "प्रकाश क्या है, रंग क्या है, इंद्रधनुष क्या है!' लेकिन जिसके पास आंखें हैं, वह देखता है। सोचेगा क्या?
अक्सर तुमने देखा होगा, सोचनेवाला लोग आंख बंद कर लेते हैं। सोचते वक्त आंख बंद कर लेना जरूरी है! अंधा हो जाना जरूरी है सोचने के लिए!
"...इसके कानों में आवाज पड़ी। मंत्र का गलत उच्चारण हो रहा है।' उच्चारण अशुद्ध है। पंडितों को अशुद्धि से बड़ा विरोध है--शब्दों की अशुद्धि से--जीवन की अशुद्धि से नहीं। व्याकरण में भूल हो जाए, तो पंडित को ऐसा लगता है कि जैसे कोई महाभूल हो गई। और व्याकरण सिर्फ खेल है।
जमीन पर कोई तीन सौ भाषाएं हैं, तीन सौ व्याकरण हैं। हर भाषा की अपनी व्याकरण, हर भाषा का अपना ढंग है। और सब ढंग कल्पित हैं। क्योंकि आदमी का बच्चा भाषा लेकर तो पैदा होता नहीं, भाषा सिखाई जाती है।
सब भाषाएं बनाई हुई हैं। और सब भाषाएं हमारा आपसी समझौता हैं। हमने तय किया है कि कुर्सी को कुर्सी कहेंगे, कि चेअर कहेंगे। न तो कुर्सी चेअर है, न कुर्सी है। कुर्सी को पता ही नहीं है कि उसका नाम क्या है! तुम "कुर्सी' कहो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम "चेअर' कहो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। और "चेअर' में कोई भीतरी मूल्य नहीं है, जिससे खबर मिलती है; न "कुर्सी' में कोई भीतरी मूल्य है; सिर्फ स्वीकार है, सिर्फ कल्पना और एक समझौता है।
सारी भाषा समझौता है। और भाषा सामाजिक उत्पत्ति है; वह प्राकृतिक नहीं है। उसका प्रकृति से कोई संबंध ही नहीं है। अस्तित्व से संबंध होने का सवाल ही नहीं उठता। भाषा आदमी की ईजाद है। मगर आदमी अपनी ईजादों से बड़ा मोहित हो जाता है।
उसकी विचार-धारा टूट गई--दरवेश की, और इस लगा: यह तो मंत्र का अशुद्ध उच्चारण हो रहा है। दरवेश ने सोचा: "एक जानकार के नाते, यह मेरा कर्तव्य है कि मैं जाऊं और मंत्र-पाठ की सही विधि उसे बात दूं।'
"जानकार' और "ज्ञानी' में फर्क करना पड़े; इस जानकार की वजह से जानकार और ज्ञानी में फर्क करना पड़े। जानकार वह है, जिसे सूचना सही-सही है। और ज्ञानी वह है, जिसे अनुभव सही-सही है। जानकारी का अर्थ है: इन्फर्मेशन।
इसको पक्की खबर है, यह जानकार है; यह शुद्ध उच्चारण बता सकता है। हालांकि इसने कभी मंत्र उच्चारित नहीं किया है। यह कभी मंत्र में लीन नहीं हुआ, डूबा नहीं। "अल्लाहू' कभी इसके लिए अनुभव नहीं बना। मगर इसे शास्त्र से पता है। शुद्ध व्याकरण इसने विश्वविद्यालय से सीखी है। पंडितों के चरणों में बैठकर इसने भाषा का अनुभव लिया है।
इसको लगा: "एक जानकार के नाते, मेरा कर्तव्य है कि मैं जाकर उसे सही विधि बता दूं।' और जब भी तुम में जानकारी होती है, तो अक्सर तुम्हारा अहंकार तुमसे कहता है, जाओ और दूसरों को सही "विधि' बता दो। हालांकि विधि का तुम्हें खुद पता नहीं है। तुमने उसका स्वाद नहीं लिया है।
अहंकार अक्सर तुम्हें सलाहकार बना देता है। इसलिए दुनिया में तुम्हें जितने सलाह देनेवाले लोग मिलेंगे, तुम चकित हो जाओगे कि उनकी सलाहों पर वे खुद नहीं चल रहे हैं। मगर दूसरों को सलाहें दे रहे हैं!
हर आदमी सलाह देने को उत्सुक है, तुम मौका भर दो। राह चलता राहगीर तुमको सुझाव देने को उत्सुक है--मुफ्त,और इनकी सलाहें कोई लेता भी नहीं है।
कहते हैं: दुनिया में सबसे ज्यादा चीज जो दी जाती है, वह सलाह है। और सबसे कम जो ली जाती है, वह भी सलाह है। मुफ्त सलाह भी कोई लेने को राजी नहीं है।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने चिकित्सक के पास गया--एक दिन। बूढ़ा हो गया है। पुरानी आदतें पीछा नहीं छोड़तीं। बुढ़ापे में और भी नहीं छोड़तीं, क्योंकि आदतें छुड़ाने के लिए ताकत चाहिए। बुढ़ापे में वह ताकत भी नहीं रह जाती। और जब ताकत के समय में न छोड़ पाए, तो कमजोरी के समय में कैसे छोड़ोगे, इसे खयाल रखना।
डगमगाते पैर, मुंह से शराब की बास आ रही है। डॉक्टर ने कहा, "नसरुद्दीन, तुम इलाज के बाहर हो। तुम्हें ये आदतें छोड़नी पड़ेंगी। शराब पीना बंद करो। यह हुक्का गुड़गुड़ना बंद करो। यह गलत सही खाना-पीना बंद करो। समय से घर लौटो। अब यह स्त्रियों का पीछा बंद करो।'
नसरुद्दीन उठ खड़ा हुआ। उसने कहा, "धन्यवाद।' छड़ी उठाकर बाहर निकलने लगा। डॉक्टर ने कहा, "रुको। मेरी सलाह के पैसे?' नसरुद्दीन ने कहा, "सलाह लूं तो पैसे दूं। सलाह ले कौन रहा है? और ऐसी सलाहें तो मुफ्त हमको देने वाले सब तरफ हैं। इसको पैसा देकर लेने तुम्हारे पास आएं! यह तो जो देखो वही हमको देता है। मुफ्त नहीं ली, पैसा देकर क्या लेना?'
सलाह कोई भी नहीं ले रहा है। और एक लिहाज से यह ठीक ही है। क्योंकि अक्सर जानकार सलाह देते हैं--जिनको खुद कोई अनुभव नहीं है। शायद लोग इसलिए नहीं लेते कि खतरा है--उस आदमी से लेने में, जिसको खुद को अनुभव नहीं है। वह गङ्ढे में उतार दे सकता है।
अज्ञान कम से कम तुम्हारा अपना तो है! अपने पैर चलते तो हो। डगमगाते हो, कोई हर्ज नहीं। लेकिन जो सलाह दे रहा है, उसके पास ज्ञान के पैर नहीं हैं, न ज्ञान की आंख है। सिर्फ शब्दों का जाल है। उससे लेना खतरनाक भी है।
उस दरवेश ने सोचा: "जानकार के नाते मेरा कर्तव्य है कि जाऊं, मंत्र-पाठ की सही विधि बता दूं।' और वह एक नाव लेकर उसी छोटे-से द्वीप पर पहुंचा। उस द्वीप पर बैठा हुआ वह फकीर गलत सूत्र-पाठ कर रहा था। पास जाकर इस "जानकार' दरवेश ने उसे ठीक सूत्र-पाठ सिखा दिया। और दिल में एक नेक काम करने की खुशी भरकर नाव में वापस लौट आया। एक अच्छा काम किया।
लेकिन क्या कभी तुम सोचते हो, कि जो सलाह तुमने अपने जीवन में नहीं उतारी, उसे दूसरे को देकर अच्छा काम हो सकता है? असंभव है। अगर अच्छा था, तो तुम खुद ही उसे जीए होते। तब शायद तुम्हें सलाह देने की जरूरत ही न रहती। तुम्हारा जीवन एक जीती हुई, जिंदा सलाह बन जाती। तुम एक सबूत होते, तब प्रमाण होते, एक गवाह होते।
लेकिन जिसको तुमने किया नहीं, उस अमृत को तुम दूसरे को देने जा रहे हो! पक्का है कि तुमने उसमें अमृत कभी माना नहीं। अन्यथा तुम खुद ही पी गए होते। तुमने उसका खुद स्वाद नहीं लिया है।
जिस ज्ञान को तुमने नहीं जीया है, उसे कभी किसी को देने की कोशिश मत करना वह ज्ञान है ही नहीं, कचरा है। और यह मत समझाना अपने को कि तुम कर्तव्य पूरा कर रहे हो। तुम सिर्फ अपना कचरा दूसरे के सिर पर डाल रहे हो। अच्छे शब्दों के बहाने बड़े बुरे काम किए जाते हैं।
"इस मंत्र की बड़ी महिमा थी और समझा जाता था कि इसके पाठ से आदमी पानी की लहरों पर भी चल सकता है। लेकिन पहले दरवेश को इस बात का विश्वास भर था, कोई अनुभव नहीं था।'
ध्यान रखना: विश्वास का कोई भी मूल्य नहीं है; अनुभव का मूल्य है। और सच तो यह है कि अनुभव के बिना विश्वास भी कैसे हो सकता है? कहीं न कहीं अविश्वास छिपा ही रहेगा। अगर कोई इस दरवेश को कहता कि "चल जाओ पानी पर', तो यह कहता: "यह नहीं होनेवाला है? ऐसा लोग कहते हैं, यह मैंने सुना है, पढ़ा है। इस मंत्र की बड़ी महिमा है, ऐसा मैं विश्वास भी करता हूं।'
लेकिन अगर विश्वास करते हो, तो चल क्यों नहीं जाते! फिर कमी और क्या है? लेकिन यह चलने को राजी नहीं होता। नाव लेकर गया था। नाव से वापस लौट रहा है। मंत्र नाव नहीं बन सका है अभी। अभी पानी पर चलने की कला नहीं आयी। लेकिन दूसरे का अशुद्ध पाठ शुद्ध करने की चेष्टा आ गई है।
बड़ा मजा आता है--दूसरे को अज्ञानी सिद्ध करने में। तुम जब सलाह देते हो तो असली कारण यह नहीं होता कि तुम दूसरे पर दया कर रहे हो। असली कारण यह होता है कि तुम जानकार हो और वह जानकार नहीं है। और बड़ा मजा आता है कि तुम जानते हो और दूसरा नहीं जानता।
यह सूक्ष्म तरकीब है--दूसरे को अज्ञानी सिद्ध करने की। लेकिन जो दूसरे को अज्ञानी सिद्ध करने करने चला है, उससे बड़ा अज्ञानी कौन होगा! क्योंकि ज्ञानियों ने तो सिद्ध किया है कि तुम्हारे भीतर महा-ज्ञान छिपा है। बुद्धों ने तो तुम्हें सचेत किया है कि तुम बुद्ध हो।
पंडित तुम्हें चेताते हैं कि तुम अज्ञानी हो। भटकोगे, नरक जाओगे, सड़ोगे। ठीक मंत्र पाठ करो, ठीक वेद का उच्चारण करो। जरा उच्चारण की भूल हुई कि गिरे नरक में।
पंडित तुम्हें डराते हैं, ज्ञानी तुम्हें जगाते हैं। वे कहते हैं: डरने को कुछ भी नहीं है। नरक कहां है? सिवाय तुम्हारे भयों के और कोई नरक नहीं है।
इसे विश्वास था; लेकिन मैं कहूंगा कि--विश्वास भी हो नहीं सकता--ऊपर-ऊपर था। विश्वास था इसे कि "मुझे विश्वास है', बस! अगर उसमें भी हम थोड़ी चीर-फाड़ करें, थोड़ी सर्जरी करें, तो विश्वास के नीचे अविश्वास छिपा हुआ पाया जाएगा।
पंडित संदेह से मुक्त ही नहीं हो पाता। पंडित के मन में संदेह बना ही रहता है। वह जो भी मानता है, उसके भीतर भी संदेह होता है। नहीं तो, यह पहला दरवेश पानी पर चल जाता।
मैंने सुना है: एक गांव में वर्षा न हुई। एक वर्ष बीत गया, दूसरी वर्षा का समय भी आ गया और फिर भी वर्षा के कोई लक्षण नहीं। जमीन सूख गई, दरारें पड़ गईं। लोग मुरझा गए। पानी नहीं, जानवर मर गए। लोग गांव छोड़कर भागने लगे।
गांव के पंडित ने कहा, "प्रार्थना करनी पड़ेगी। और तब तक दैवी शक्ति अवतरित न हो, जब तक भगवान साथ न दे...। अब हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। हम जो कर सकते थे, कर चुके। अब उसका सहारा मांगना होगा। सारा गांव इकट्ठा हो गया गांव के बाहर। सूखी पड़ी नदी के किनारे खड़े होकर हम प्रार्थना करें। काश, हमारी प्रार्थना सुन ली जाए, शायद।'
सारा गांव चला, पंडित चला। लेकिन सब हैरान हुए: एक छोटा बच्चा एक छाता दबाए हुए चला। जिसने भी उस बच्चे को देखा, उसने कहा, "अरे मूर्ख! छाता कहां ले जा रहा है? छाता किसलिए?' पंडित ने भी जब उसको छाता लिए हुए देखा तो उसने कहा "यह छाता कहां लिए जा रहे हो? छाते की क्या जरूरत है? तुझे पता नहीं कि दो साल से पानी नहीं गिरा है? उसी की प्रार्थना के लिए तो हम जा रहे है।' उस बच्चे ने कहा, "इसी खयाल से मैं ले आया कि जब प्रार्थना होगी और पानी गिरेगा तो लौटते समय छाते की जरूरत पड़ेगी।'
बस, सिर्फ एक बच्चा छाता ले गया। पंडित भी--जो प्रार्थना करने गया था--वह भी छात्रा लेकर नहीं गया था!
इस बच्चे में विश्वास है। इसकी आस्था निस्संदिग्ध है। और अगर यह बच्चा प्रार्थना करे, तो पानी गिर सकता है। बाकी इन पंडितों की प्रार्थना से कुछ भी न होगा। ये जो प्रार्थना करने जा रहे हैं, उस पर भी उन्हें भरोसा नहीं है। कर रहे हैं, जैसे एक मजबूरी है। एक विवशता है, इसलिए कर रहे हैं।
विश्वास अनुभव के बिना हो ही नहीं सकता। अनुभव ही आस्था है। जब तुम अनुभव करते हो, तो ही तुम्हारी आस्था प्रगाढ़ होती है। जैसे-जैसे अनुभव का रस बढ़ता है, वैसे-वैसे आस्था की जड़ें तुम्हारे हृदय में फैलती हैं। जिस दिन अनुभव पूरा होता है, उस दिन तुम पूरे आस्थावान हो जाते हो। श्रद्धा कोई प्रारंभ नहीं है, निष्पत्ति है, अंत है।
दरवेश थोड़ी ही दूर गया वापस, अपनी नाव में, कि उसे फिर सुनाई पड़ा कि मंत्र का गलत पाठ शुरू हो गया है। वह फकीर फिर "ऊ हू' की आवाज कर रहा था। वह फिर भूल गया "अल्लाहू'। वह फकीर कीमती रहा होगा!
एक "ज्ञानी' और एक "जानकार' की मुलाकात है--यह कहानी। जानकार इतने दूर गया बताने और ज्ञानी ने चुपचाप सुन लिया और उसने यह भी न कहा कि "छोड़ो भी, किसको समझाने आए हो?' न, इतना भी कहता, तो वह अज्ञानी सिद्ध होता। वह सीखने को राजी हो गया।
ज्ञानी से ज्यादा सीखने को और कोई राजी नहीं होता है। ज्ञानी जितनी सरलता से सीखने को राजी होता है, उतना इस जगत में कोई भी राजी नहीं होता है।
उसने कहा, "ठीक कहते हो। उच्चार गलत है; सिखा दो।' उसने इतना भी न कहा कि "कोई जरूरत नहीं है। जैसा है, ठीक है। नाहक परेशान हुए।' वह एकदम राजी हो गया। ज्ञानी सीखने को सदा तैयार है।
इस बात को गहरे में समझ लेने की जरूरत है। और अगर तुम्हारे पास ऐसा ज्ञान हो, जो सीखने को तैयार न होता हो, तो समझना कि वह ज्ञान नहीं है, जानकारी है। ज्ञान कोई संग्रह नहीं है; ज्ञान जानने की, सीखने की उत्सुकता है। ज्ञानी नालेज नहीं है, ज्ञान लघनग है।
ज्ञान यह नहीं है कि तुमने जान लिया। वह तो मर चुका। जो जान लिया, वह कचरा हो चुका। वह जा चुका।
ज्ञानी--वह मनोदशा है। इस क्षण खुली, मुक्ताकाश की भांति--सब कुछ लेने को तत्पर और राजी। जिसके द्वार बंद हों वह पंडित होगा, जानकार होगा। ज्ञानी के द्वार खुले हैं। सब तरफ, सब दिशाओं में--वह जो भी सीख सके, वह जिससे भी सीख सके। वह वृक्षों से सीख लेगा; पक्षियों से सीख लेगा; वह पंडितों तक से सीख लेगा। दूसरे को सीखने को कुछ भी नहीं है। इस पंडित से भी वह फकीर राजी हो गया। और उस फकीर ने न कहा--"छोड़ो भी। मेरा मंत्र सिद्ध हो चुका।' इतना वह कहता तो अज्ञानी सिद्ध होता। उसने कोई बात ही न की। उसने कहा कि, "ठीक कहते हो। अच्छा किया। बड़ी कृपा की। अनुग्रह कि गलत उच्चार कर रहा था, तुमने ठीक बता दिया। अब मैं ठीक ही करूंगा।'
लेकिन नाव थोड़ी दूर ही जा पाई होगी कि गलत उच्चार फिर सुनाई पड़ा।
जानकार को, पंडित को उस आदमी की भूल करने की जिद्द पर क्रोध आया। पंडित की करुणा सिर्फ धोखा है, क्रोध ही सच है। अभी वह करुणा से भरा हुआ गया था--नाव लेकर, और एक क्षण में करुणा, क्रोध हो गई! करुणा कभी भी क्रोध नहीं होती।
जीसस से उनके एक शिष्य ने पूछा है: "आप कहते हैं कि कोई हमारे एक गाल पर चांटा मारे तो दूसरा गाल हम सामने कर दें। ऐसा कितनी बार करें? तीन बार में चल जाएगा?' जीसस ने कहा, "नहीं।' तो उस आदमी ने कहा, "सात बार में चल जाएगा।' जीसस ने कहा, "सात सौ सात बार में भी नहीं चलेगा। तेरा पूछना ही गलत है। उसका कोई अंत है? तू करते ही जाना। जब वह नहीं थक रहा है, तो तू क्यों थकेगा? उसे थकाकर ही छोड़ना।'
सीखने का कोई अंत है? कहां चुक जाएगा सीखना? कहीं भी नहीं चुकेगा। करुणा का कोई अंत है? कहां चुक जाएगी करुणा? कहीं भी नहीं चुकेगी। जो चुक जाए, वह करुणा न थी। उसके नीचे क्रोध छिपा ही था। वह करुणा सिर्फ ऊपर का पलस्तर थी, रंग-रोगन था, वह ऐसा ही सौंदर्य था, जैसे कोई स्त्री रंग-रोगन किए जा रही हो। पूना की वर्षा में भी रंग-रोगन धुल जाएगा, और बहुत ज्यादा वर्षा की जरूरत नहीं है। वर्षा भी न हो, थोड़ा पसीना आ जाएगा तो दागें पड़ जाएगी। बस, करुणा ऐसी ही है। भीतर क्रोध भरा है।
तुम जब करुणा भी करते हो, तो क्रोध का ही एक ढंग है। और अगर दूसरा तुम्हारी करुणा को इनकार कर दे, तो वहीं क्रोध आ जाएगा। अब करुणा कोई इनकार करे, उसमें क्रोध का क्या सवाल है?
अगर उस फकीर ने कह दिया होता: "छोड?ो, मुझे सब पता है', यह आदमी वहीं क्रोध से भर गया होता। वह करुणा झूठी थी। वह क्रोध का ही एक रूप थी। वह क्रोध का ही शिष्ट, सुसंस्कृत ढंग था। क्योंकि जो प्रगट हो जाए--जल्दी से, वही तुम्हारी पहचान है। करुणा अगर जल्दी से क्रोध में बदल जाए तो...।
गजब किया उस फकीर ने, पहले राजी भी हो गया--सीखने को, फिर उलटा पाठ शुरू कर दिया। वह इस जानकार को जगाने के लिए जैसे पीछे ही पड़ गया हो।
जानकार क्रोधित हो गया। पंडित बड़े जल्दी क्रुद्ध हो जाते हैं। पंडित का जो "बरतन' है, वह इतना पतला है, जिसका कोई हिसाब नहीं। तुम जरा-सी उसकी न मानो, वह नाराज हो जाता है। तुम जरा लकीर से इधर-उधर चलो, वह नाराज हो जाता है।
अब कोई बड़ी गलती न हो गई थी; मंत्र उसका था। सिद्धि उसकी थी, तुम्हें क्रोधित होने की क्या जरूरत? तुमने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया था। इसलिए सूफियों की एक कहावत है: "नेकी कर और कुएं में डाल।' इस आदमी ने नेकी तो की, लेकिन कंधे पर रख ली, कुएं में नहीं डाली। यह बड़ा खुश लौट रहा था। वह खुशी भी अहंकार की खुशी थी--कि "अपना कर्तव्य निभा दिया। एक अज्ञानी को चिता दिया, एक भटके को राह पर ला दिया।' वह अहंकार ही था। और नेकी की है, कुछ भला किया है, मंगल कृत्य किया है, सेवा की है, तो कुछ अर्जित किया है, कुछ कमाकर लौट रहा था।
उस फकीर ने फिर वही पाठ दोहराना शुरू कर दिया। क्रोध आ गया। नेकी कभी क्रोध बन सकती है? लेकिन अगर तुमने कंधे पर रखी, तो बनेगी। इसलिए नेकी करो और कुएं में डाल दो। कुआं न मिले, कहीं और डाल दो। इसलिए यह मत सोचना कि कुआं दूर है, तब तक तो कंधे पर रखना है! सड़क के किनारे डाल दो। कंधे पर भर मत रखो। जब भी तुम भला करो, करते ही भूल जाओ। क्योंकि तुमने याद रखा कि बुराई शुरू हो गई। तुम्हारी "याददाश्त' में बुराई है।
तुमने अगर किसी का भला किया एक क्षण भी याद रखा, तो तुमने भले को पोंछ डाला, मिटा डाला। जो किया था, अनकिया हो गया। भले को करते ही भूल जाओ।
जीसस का वचन है: तुम्हारा दायां हाथ करे तो बाएं को पता न चले; तभी नेकी नेकी है। मगर यह अकड़ से लौट रहा होगा। गजब का काम किया था: एक भटके को मार्ग पर लगा दिया था।
उस आदमी की भूल करने की जिद्द पर उसे क्रोध आया। लेकिन तभी एक चकित करनेवाला दृश्य सामने था। वह चौंक गया! कोई भागा हुआ पानी पर चला आ रहा है। नाव की जरूरत न थी। जब पास आ गया यह पानी पर दौड़ता हुआ तूफान, तो उसने देखा: यह तो वही फकीर है!
मंत्र की यही सिद्धि थी कि जो उस महा मंत्र को सिद्ध कर ले वह पानी पर चल सकता है। उसको नाव की जरूरत नहीं है। पानी उसे डुबा नहीं सकता है। वह मंत्र नाव बन जाता है।
बड़ी मुश्किल में पड़ गया होगा--जानकार। और उसकी मुश्किल और बढ़ गई होगी, क्योंकि उस दूसरे फकीर ने उसके पास आते ही कहा, "माफ करना भाई, शुद्ध मंत्रोच्चार की विधि एक बार और बताने की कृपा करो। मैं तो भूल ही गया। तुम बता कर आए, इतना कष्ट किया। पुरानी आदतवश मैं फिर वही "ऊ हू, हू' करने लगा। एक बार और सही मंत्रोच्चार बता दो; बड़ी कृपा होगी।'
बड़ी अनूठी कहानी है। यह दूसरा आदमी अदभुत है! कई बातें समझने जैसी हैं।
पहला: उच्चारण और व्याकरण का नाता नहीं है--परमात्मा से। तुम क्या बोलते हो, कैसे बोलते हो, यह परमात्मा नहीं सुनता। तुम किस हृदय से बोलते हो, वही सुना जाता है। एक बच्चे का हृदय चाहिए, जिसने अभी भाषा भी नहीं सीखी, जिसको अभी उच्चारण का भी पता नहीं है।
मैंने सुना है: एक छोटा बच्चा रात अपनी प्रार्थना कर रहा है। उसकी मां ने सुना तो बहुत हैरान हुई। वह अंदर गई और उसने कहा, "क्यों रे नासमझ, यह कोई प्रार्थना का ढंग है?' नियम था घर का कि बच्चा रोज सोने के पहले प्रार्थना करके सोये। तो बच्चा कह रहा था, "आज डिट्टो--वही जो पहले भी कहा था।' और जल्दी से अपने कंबल के भीतर हो गया। क्योंकि स्कूल में उसने सीखा था कि डिट्टो कह देने से काफी हो जाता है। अब बार-बार वही प्रार्थना रोज-रोज कहने से क्या सार है! पहले भी कह चुके हैं। "वही फिर से'--समझ लेना!
मां नाराज हो गई। लेकिन मैं जानता हूं, इस बच्चे की प्रार्थना सुनी जा सकती है। क्योंकि हृदय सुने जाते हैं, बुद्धि नहीं सुनी जाती है। वह आवाज जो वहां तक पहुंचती है, वह बच्चे की आवाज है, आस्था की आवाज है।
ये चालाकियां--व्याकरण की और गणित के हिसाब, ये होशियारियां, ये परिष्कार--इन सबका कोई संबंध नहीं है। नहीं तो कबीर और मुहम्मद कभी वहां पहुंच ही न पाएं।
सभी उच्चारण गलत हैं उनके; सारी व्याकरण उलटी-सीधी है। व्याकरण कभी पढ़ी ही नहीं है। कबीर ने कहा है कि कागज तो कभी हाथ से छुआ नहीं। मगर कबीर पहुंच गए।
कबीर जब मरने लगे तो काशी छोड़ दी, और मगहर चले गए। कहावत है कि मगहर में जो मरता है, वह गदहा होता है--मरने के बाद। और काशी में जो मरता है, सीधा मोक्ष जाता है। तो लोग मरने काशी जाते हैं--"काशी करवट'!
जब मरने के करीब होते हैं, तो लोग काशी में बस जाते हैं। इसलिए काशी में तुम्हें मुरदा ही मिलेंगे--या तो वे जो मर चुके हैं या वे जो मरने के करीब हैं--करवट की तैयारी है। तो बस, किसी तरह काशी में मर जाएं। वेश्याएं, विधवाएं, बूढ़े संन्यासी--इस तरह के लोगों का जाल है काशी में। पापी, सह सब तरह के, काशी में इकट्ठे हो जाते हैं, क्योंकि मरकर सीधे मोक्ष पहुंच जाएंगे।
कबीर मरने लगे तो उन्होंने कहा, "जल्दी मुझे मगहर ले चलो।' लोगों ने कहा, "पागल हो गए हैं--मरते वक्त? लोग मरने काशी आते हैं, तुम मगहर जा रहे हो! सुना नहीं है कि मगहर जो मरता है, वह गदहा होता है?' कबीर ने कहा, "अगर उसने आवाज सुनी होगी तो कहीं भी मरूं। और अगर उसने आवाज न सुनी होगी, तो भी क्या फर्क पड़ता है। कहीं भी मरूं। और अगर काशी में मरकर स्वर्ग पहुंचे, तो कबीर न पहुंचना चाहेगा। क्योंकि वह महिमा काशी की हुई, उसमें अपना क्या है? मगहर में मरकर पहुंचे, तो कुछ अपना है। आवाज सुनी गई--इसका पता चलेगा--प्रार्थना पूरी हुई, जो किया था, वह सार्थक हुआ। मगहर ही मरूंगा। गदहा होना ठीक है, लेकिन अपने ही कारण होऊंगा। पक्का पता तो चले कि मेरी आवाज पहुंची वहां तक कि नहीं पहुंची।'
कबीर को पक्का भरोसा है, इसलिए मगहर जाकर मरे। जिनको भरोसा नहीं है, वे काशी जाकर मरते हैं।
यह आदमी, यह फकीर, जो पानी पर चलकर आया है, इसकी विनम्रता का क्या हिसाब है! मंत्र सिद्ध हो गया है, फिर भी सीखने को तैयार है। अब और कुछ इस मंत्र में है नहीं। मंत्र नाव बन गया है। यह आदमी पहुंच ही गया है। यह पानी पर चल लेता है।
पानी पर चलना तो प्रतीक है। सिद्ध का लक्षण है कि इस जगत में उसे कोई चीज डुबा नहीं सकती। जगत भव-सागर है--एक प्रतीक है कि समुद्र की तरह है जगत। इसमें तुम नाव पर भी चलो, तो भी डूबते हो।
तुम्हारी नाव भी डूब जाती है। क्योंकि कागज की नावें हैं। कितनी देर चलाओगे? और अक्सर तो यह होता है कि नाव में तुम इतना सामान भर लेते हो कि उसी के कारण वह डूब जाती है।
कागज की भी चल जाती है, लेकिन इतना परिग्रह (इकट्ठा) कर लेते हो, इतना धन, इतनी तिजोरियां रखते जाते हो--नाव में--कि आखिर में वही डुबाने का कारण हो जाती हैं, तुम क्या इकट्ठा करते हो, वही डुबा देता है। तुम्हारा साज-सामान, तुम्हारा साम्राज्य डुबा देता है।
यह तो प्रतीक है कि मंत्र सिद्ध हो जाए, तो सिद्ध पानी पर चल जाता है। फिर इस संसार में उसे कोई चीज डुबा नहीं पाती। फिर उबर ही गया वह। वह जहां भी चले--पानी भी उसके पैरों को नहीं छूता।
लेकिन सिद्ध होकर भी सीखने को राजी है--यह विनम्रता धार्मिक आदमी का लक्षण है। यह निरहंकार भाव है कि जब सीखने को भी कुछ नहीं बचा है, तब भी वह सीखने को राजी है।
और तुम्हारी हालत? जब सीखने को सब बाकी है, तब भी सीखने को राजी नहीं हो। सब बाकी है, अभी कुछ नहीं सीखा है; अभी क, ख, ग, भी शुरू नहीं हुआ है। अभी पहली सीढ़ी पर भी पैर नहीं पड़ा है; लेकिन तुम सीखने को राजी नहीं हो, सिखाने को उत्सुक हो!
झेन फकीर बोकोजू के आश्रम में एक आदमी आया। और उसने कहा, "मैं भी आश्रम में ही रहना चाहता हूं।' फकीर बोकोजू ने कहा, "आश्रम में रहने के दो ढंग हैं। या तो गुरु होकर रह सकते हो या तो शिष्य होकर। तुम क्या चुनोगे?' उस आदमी ने थोड़ा सोचा। सोचने का तो सिर्फ दिखावा किया। उसने कहा, "अगर यह मेरे हाथ में ही है चुनना, तो फिर गुरु होकर ही हरना ठीक रहेगा! जब मुझे ही पूछ रहे हैं कि क्या होकर रहना है, तो फिर गुरु ही होकर रहना ठीक रहेगा।'
अब यह आदमी आया है आश्रम में, मगर गुरु होकर रहना चाहता है! इस मूढ़ को यह खयाल भी न आया कि बोकोजू मजाक कर रहा है।
तो बोकोजू ने कहा, "फिर यह आश्रम तेरे लिए नहीं है। तू कोई और आश्रम खोज। क्योंकि तू सिखाने आया है। अभी तूने सीखा भी नहीं है और सिखाने का वहम तेरे ऊपर सवार हो गया है!'
जो सीख लेते हैं, जो जान गए हैं, वे हमेशा विनम्र हैं। और जानने को तैयार हैं। यह सिद्ध पुरुष खड़ा हो गया, पानी में आकर, पास नाव के, और उसने कहा, "मेरे भाई, शुद्ध उच्चारण बता दो। मैं भूल गया। मेरी बुद्धि जरा कमजोर है, स्मृति जरा दीन है।'
कहानी यहां पूरी हो जाती है। सूफियों ने बड़ी दया की उस "जानकार' पर, इसलिए कहानी यहीं पूरी कर दी। जहां तक मुझे पता है, उसने फिर से शुद्ध उच्चारण बताया होगा! वह तो क्षमा कर दिया उसे, इसलिए कहानी पूरी कर दी। लेकिन पंडित चूक नहीं सकता--ऐसा मौका कि कोई पूछ रहा हो, और वह सलाह न दे।
और पंडितों से अंधे आदमी खोजना कठिन है। यह चमत्कार उसे शायद ही ठीक से दिखाई पड़ा हो--कि "यह आदमी पानी पर चलकर आ रहा है। और उचित हो कि अब मैं इसके सामने झुकूं और इससे सीख लूं। क्योंकि मंत्र सही है या गलत--यह सवाल नहीं है। यह आदमी सही है। और यह गलत से सही तक पहुंच गया और मैं सही हाथ में लिए चल रहा हूं और अभी तक नहीं पहुंच पाया। अभी मुझे नाव करनी पड़ती किराए की--उस तरफ जाने के लिए। मैंने भूल की जो इसे सिखाने का दंभ किया!'
गिर पड़ना था उसे, चरणों में इस फकीर के, और कहना था, "मुझे क्षमा कर दो। मैं ठीक को जानकर भी नहीं पहुंच पाया। तुम ठीक को न जानते हुए पहुंच गए।'
रास्ते का सवाल नहीं है; चलनेवाले का सवाल है। मंत्र का कोई सवाल नहीं है; मंत्रोच्चार करनेवाले का सवाल है। गलत मंत्रों से लोग पहुंच गए हैं, ठीक मंत्रों से भी लोग नहीं पहुंच पाए हैं। बिना मंत्र के लोग पहुंच गए हैं, महामंत्रों को कंठस्थ करके भी लोग नहीं पहुंच पाए हैं।
हृदय आंका जाता है; प्रेम कूता जाता है। तुम्हारे भाव सब कुछ हैं। मंत्रों की चिंता छोड़ो। शास्त्रों की फिक्र मत करो। शब्द दो कौड़ी के हैं। तुम भावना को जगाओ; तुम भाव से जियो। जरूरी नहीं है कि तुम राम-राम-राम दोहराओ। जरूरी यह है कि तुम उठो, बैठो, चलो, फिरो--राम न भूले।
दोहराने का सवाल नहीं है। तुम दोहराते रहो शब्द को, इसका कोई मूल्य नहीं है। यह तो ग्रामोफोन को रिकार्ड भी बिगड़ जाता है, सुई खराब हो जाती है, दरार पड़ जाती है, तो वह भी एक ही लकीर को दोहराता है। तो ग्रामोफोन के टूटे हुए रेकार्ड होने से कुछ तुम पहुंच न जाओगे। कि सुई अटक गई है एक ही जगह और एक ही लकीर दोहराने लगे: राम, राम, राम, राम। उससे कुछ न होगा।
भाव रहे: चलते-फिरते, उठते-बैठते राम ही दिखाई पड़े। वृक्ष में, पक्षी में, पौधे में, पत्थर में, मित्र में, शत्रु में उसकी ही झलक आए। जो भी तुम करो, उसकी सुगंध तुम्हें मालूम पड़ती रहे--उठो, बैठो, सोओ, उसकी ही सुरति बनी रहे।
भाव द्वार है, बुद्धि नहीं। उस कहानी का यही सार है।
तुम्हारी जानकारी नाव न बनेगी। तुम्हारे विश्वास भी तुम्हें पत्थरों की तरह डुबा देंगे। अनुभव ही नाव बनेगी। और अनुभव की नाव ही आस्था लाती है।
तुम कितना जानते हो, इस कचरे पर बहुत भरोसा मत करना। यही तुम्हें डुबायेगा, इस कचरे को हटाओ।
पांडित्य से ज्यादा व्यर्थ और कुछ भी नहीं है। इसे हटा दो, खाली हो जाओ। निर्मल हो जाओ, और विनम्र हो जाओ।
उस निर्मलता और विनम्रता में सब कुछ घट जाता है--वह सिद्धि है, जो तुम्हें ताकत देगी कि तुम "नदी' पर बिना "नाव' के चल जाओ। यह पूरा भव-सागर--संसार का, तुम्हें डुबा न सकेगा। तुम्हारा हृदय, तुम्हारा होना ही नाव बन जाता है।
आज इतना ही।



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