छटवां प्रवचन-(नई दृष्टि का जन्म)
मेरे प्रिय आत्मन्!बीती चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न उपस्थित हुए हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि मैंने कल कहा कि अतीत में ऐसे शिक्षक हुए हैं जिन्होंने जीवन को असार बताया। उन मित्र ने कहा है कि जीवन को असार किसी ने भी नहीं बताया, संसार को असार बताया है।
संसार को भी असार बताया हो तो गलत बताया है, संसार असार नहीं है। संसार को देखने की दृष्टि गलत हो तो संसार असार दिखाई पड़ेगा। संसार को देखने की दृष्टि सएयक हो तो संसार ही प्रभु के रूप में परिवर्तित हो जाता है। दृष्टि ही गलत हो सकती है, और कुछ भी गलत नहीं है।
लेकिन आदमी की पुरानी कमजोरी है, और वह यह कि दोष कभी वह अपने ऊपर नहीं लेना चाहता है, दोष सदा किसी और पर डाल देना चाहता है। संसार असार है, यह कहना सुविधापूर्ण मालूम होता है, बजाय इसके कि मेरी दृष्टि अंधी है, मेरी दृष्टि गलत है। संसार को असार कहने से मुझे स्वयं को नहीं बदलना पड़ता; लेकिन मेरे देखने को ढंग गलत है, तो मुझे स्वयं को बदलने की जरूरत आ जाती है।
एक छोटी सी कहानी से मैं समझाने की कोशिश करूं। एक गांव में सुबह सूरज निकलता था, और एक घुड़सवार आकर रुका गांव के बाहर, गांव के द्वार पर। द्वार पर बैठे हुए एक बूढ़े आदमी से उसने पूछा कि मैं एक बात जानना चाहता हूंः इस गांव के लोग कैसे हैं? मैंने अपना पुराना गांव छोड़ दिया और मैं नये गांव की तलाश में हूं जहां निवास कर सकूं। मैं जानना चाहता हूंः इस गांव के लोग कैसे हैं? यह गांव कैसा है? अगर अच्छा हो तो मैं यहां बस जाऊं।
उस बूढ़े ने उस घुड़सवार को नीचे से ऊपर तक गौर से देखा, और फिर कहा कि इस प्रश्न का उत्तर मैं तभी दे सकता हूं जब मेरे एक प्रश्न का उत्तर आप पहले दे दें। मैं जानना चाहता हूं कि उस गांव के लोग कैसे थे जिसे आप ने छोड़ दिया है?
यह बात सुनते ही उस आदमी की आंखें क्रोध के अंगारों से भर गईं। और उसने कहा कि उस दुष्ट गांव का स्मरण भी न दिलाना। उस गांव से बदतर लोग जमीन पर कहीं भी नहीं हो सकते। उन्हीं दुष्टों के कारण मुझे वह गांव छोड़ना पड़ा है। और यह आशा और प्रार्थना लेकर गांव छोड़ा है कि जिस दिन मेरे हाथ में शक्ति होगी, उन्हें बताऊंगा। मेरे साथ जो दुर्व्यवहार किया गया है उसका फल उन्हें निश्चित चखाना है।
उस बूढ़े आदमी ने कहा कि फिर क्षमा करें! मैं आपसे कहता हूं कि मैं सत्तर वर्षों से इस गांव में रह रहा हूं, इस गांव के लोग उस गांव से भी बुरे हैं। आप कोई और गांव खोज लें, इस गांव के लोग अच्छे नहीं हैं।
वह घुड़सवार जा भी नहीं पाया था कि पीछे से एक बैलगाड़ी आकर रुकी और उसमें सवार आदमी ने पूछा कि बाबा, क्या मैं पूछ सकता हूं, इस गांव के लोग कैसे हैं? मैंने अपना गांव छोड़ दिया है।
उस बूढ़े ने कहा, बड़े आश्चर्य की बात, बड़े संयोग की बात, अभी मैं इसका उत्तर दिया ही हूं! लेकिन फिर मुझे पूछना पड़ेगा, तुएहारे गांव के लोग कैसे थे जिसे तुमने छोड़ दिया?
उस बैलगाड़ी के सवार की आंखें खुशी के आंसुओं से भर गईं। और उसने कहा, उनकी स्मृति भी मुझे आनंद से भर देती है। उतने प्यारे लोग शायद पृथ्वी के किसी गांव में खोजने से न मिलें। दुर्भाग्य मेरा कि किसी मुसीबत में मुझे वह गांव छोड़ना पड़ा। और यह ही आशा लेकर गांव छोड़ा हूं कि जब भी सौभाग्य होगा तब वापस उसी गांव में जाकर बस जाऊंगा। कैसे हैं इस गांव के लोग?
उस बूढ़े ने कहा, बैलगाड़ी गांव के भीतर मोड़ लो। मैं तुएहारा स्वागत करता हूं और विश्वास दिलाता हूं, मैं सत्तर वर्षों से इस गांव में हूं, इस गांव से प्यारे और अच्छे लोग पृथ्वी पर कहीं भी नहीं खोजे जा सकते हैं।
मैं भी उस गांव के दरवाजे पर था और मैंने उस बूढ़े की ये दोनों बातें सुनीं। मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। अगर मैंने एक ही बात सुनी होती तो ठीक था। पहले आदमी से उसने कहा था कि इससे बुरे आदमी कहीं भी खोजने कठिन हैं और दूसरे आदमी से उसी ने कहा कि इस गांव से अच्छे आदमी खोजने कठिन हैं। जब वह बैलगाड़ी गांव के भीतर चली गई, तो मैंने उस बूढ़े से पूछा कि मैं बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं, इस गांव के लोग आखिर कैसे हैं?
उस बूढ़े ने कहा, हर गांव के लोग वैसे ही होते हैं जैसे आप होते हैं। गांव के लोग आपके ऊपर निर्भर करते हैं कि आप कैसे हैं। गांव स्वर्ग हो जाता है अगर आपके भीतर प्रेम है; गांव नरक हो जाता है अगर आपके भीतर घृणा है।
संसार तो बड़ा गांव है। थोड़ी देर के लिए हम उसमें मेहमान होते हैं। और उन लोगों को मैं अधार्मिक कहता हूं जो संसार को असार कहते हैं। धार्मिक आदमी मैं उसको कहता हूं जो असार को खोजता हो तो अपनी दृष्टि में, अपने मन में, अपने में। अगर संसार बुरा दिखाई पड़ता हो, असार दिखाई पड़ता हो, शत्रु दिखाई पड़ता हो, तो जान लेना ठीक से कि वह उसी बात का प्रक्षेपण है जो आपके भीतर छिपी है, वह उसी का प्रोजेक्शन है। हम दूसरे में उसी को खोज लेते हैं जो हम हैं। आप होंगे असार, तो संसार असार हो जाता है। जिस दिन आप सार को उपलब्ध होंगे, उस दिन इस जगत में कुछ भी असार नहीं रह जाता।
मूलतः व्यक्ति है महत्वपूर्ण, मूलतः हम भीतर जो हैं वह है महत्वपूर्ण। और सारा जगत हमारे भीतर जो है उसी रूप में दिखाई पड़ता है। असार चित्त को, गलत देखने की दृष्टि को सारा जगत कांटों से भरा हुआ मालूम पड़ता है। ठीक दृष्टि को, सएयक दृष्टि को सारा जगत फूल से भरा हुआ दिखाई पड़ता है। न जगत फूल है, न जगत कांटा है; आप क्या हैं, जगत वही हो जाता है।
इसलिए मैं न तो जीवन को असार कहने के पक्ष में हूं, न संसार को। सारी जिएमेवारी मेरे ऊपर है; मैं कैसे देखता हूं, इस पर सब कुछ निर्भर है। और इस बात पर इसलिए जोर देना चाहता हूं कि संसार को आप नहीं बदल सकते हैं, लेकिन अपने को बदल सकते हैं। संसार से आप भाग भी नहीं सकते हैं। जो संसार से भागने के ख्याल में होते हैं वे गलती में होंगे। जितना गृहस्थ संसार में रहता है उतना ही संन्यासी भी संसार में रहता है। कोई संसार के बाहर जा नहीं सकता। जीते जी संसार के बाहर जाने का कोई उपाय नहीं। गृहस्थ एक ढंग से रहता है संसार में, संन्यासी दूसरे ढंग से रहता है संसार में। लेकिन संसार के बाहर कोई भी नहीं जा सकता है। रहने का ढंग बदल सकता है, देखने की दृष्टि बदल सकती है, लेकिन संसार से भाग कर जाइएगा कहां? जहां भी आप पहुंचेंगे वहीं जो है वह संसार है।
घर में भी संसार उतना ही है जितना आश्रम में है। और सफेद वस्त्रों में भी संसार उतना ही है जितना गैरिक वस्त्रों में है। गेरुआ वस्त्र पहन लेने से संसार कुछ कम नहीं हो जाता। संसार तो वह परिस्थिति है जिसके भीतर हम जीते हैं। श्वास-श्वास संसार है; उठना, बैठना संसार है; आंख खोलना, बंद करना संसार है। जीवन ही संसार है। भाग कर जाइएगा कहां? भागने का कोई उपाय नहीं।
लेकिन जो लोग इस भ्रम में पड़ जाते हैं कि संसार से भागना है, वे अपने को बदलने का ख्याल ही भूल जाते हैं; और संसार से भागते रहते हैं, भागते रहते हैं, और पाते हैं कि वे वही के वही हैं, कोई अंतर नहीं पड़ा।
एक संन्यासी हिमालय पर तीस वर्ष तक रहा। बहुत क्रोधी व्यक्ति था। बहुत अहंकारी व्यक्ति था। अहंकार और क्रोध से पीड़ित होकर ही वह हिमालय चला गया। सोचा उसनेः छोड़ दें संसार को, तो क्रोध भी छूट जाएगा, अहंकार भी छूट जाएगा। संसार बुरा है। हिमालय पर चला गया। वहां कोई समाज न था। वहां कोई मनुष्य न थे। धीरे-धीरे उसे लगा कि अब क्रोध नष्ट हो गया, अहंकार नष्ट हो गया।
असल में, मनुष्य न हों तो हमारे भीतर जो है उसके प्रकट होने के द्वार बंद हो जाते हैं। वह जो भीतर है, नष्ट नहीं होगा। एक कुएं में पानी भरा होता है, पानी को बाहर निकालने के लिए बाल्टी और रस्सी चाहिए। अगर बाल्टी और रस्सी न हो तो इसका यह मतलब नहीं कि कुएं का पानी खतम हो गया। एक-एक आदमी के भीतर क्या भरा हुआ है, उसे निकालने के लिए दूसरे मनुष्यों की मौजूदगी चाहिए। अगर आपके भीतर क्रोध है तो दूसरे आदमी की मौजूदगी आपके क्रोध को बाहर निकाल लेती है। दूसरे आदमी की मौजूदगी रस्सी और बालटी का काम करती है। लेकिन अगर दूसरा आदमी मौजूद नहीं है तो आपके कुएं में जो भी भरा है--क्रोध, अहंकार या जो भी, वह निकलता नहीं, वह भीतर ही पड़ा रह जाता है। उससे यह भ्रम पैदा होता है कि मेरा क्रोध समाप्त हो गया।
तीस वर्ष हिमालय के एकांत में उस आदमी को पक्का विश्वास आ गया कि अब न क्रोध है, अब न अहंकार है। धीरे-धीरे उसकी कीर्ति नीचे पहाड़ों पर उतरने लगी। एक बहुत बड़ा कुंभ का मेला था। और कुछ लोग उसके पास गए और उन्होंने निवेदन किया कि आप नीचे चलें और लोगों को दर्शन दें। उसने भी सोचा कि अब तो मैं क्रोध को जीत लिया, अहंकार को जीत लिया, अब चलूं, अब कोई हर्ज नहीं है।
वह उन लोगों के साथ पहाड़ से नीचे उतरा। मेले में तो लाखों लोग थे। जब वह मेले की भीड़ में अंदर चलने लगा, भीड़-भड़क्का था, भारी भीड़ थी, पागल की तरह लोग भागे चले जा रहे थे। और उसे कोई पहचानता भी नहीं था। एक आदमी का जूता उसके पैर पर पड़ गया। और एक सेकेंड में बीच के तीस साल मिट गए और वह वही आदमी हो गया जो तीस साल पहले था। उसने कहा, अंधे, दिखाई नहीं पड़ता? क्रोध वापस खड़ा हो गया वहीं के वहीं! वह तो हैरान रह गया! उसे तो ख्याल था क्रोध मिट गया है।
वह वहीं से वापस लौट पड़ा। और जो उसे ले गए थे, उनसे उसने कहा कि अब मैं हिमालय नहीं जा रहा हूं, अब मैं वापस संसार में जा रहा हूं। क्योंकि हिमालय की शांति भी तीस वर्षों में जिस सत्य का मुझे दर्शन नहीं करा पाई, वह एक आदमी के जरा से संपर्क से मुझे दिखाई पड़ गया। मैं तो सोचता थाः क्रोध समाप्त हो गया। लेकिन शायद क्रोध के प्रकट होने की परिस्थितियां भर मौजूद नहीं थीं, क्रोध समाप्त नहीं हुआ था। अब मैं वापस जाता हूं लोगों के बीच में। और अगर लोगों के बीच रह कर ही मेरा क्रोध मिटे तो मैं समझूंगा कि वह मिटा। अन्यथा एकांत धोखा दे देता है, एकांत बहुत डिसेप्टिव है।
अकेले में तो हर आदमी महात्मा हो जाता है, सवाल तो भीड़ के बीच में होने का है। अकेले में महात्मा होने में कौन सी कठिनाई है। अकेले में महात्मा होने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है, कोई उपाय नहीं है, कोई आल्टरनेटिव नहीं है, महात्मा होना ही पड़ता है। दूसरे की मौजूदगी, वह जो दि अदर है, वह जो दूसरा है, वही मुझे कसौटी पर कसता है कि मैं कहां हूं। उसकी मौजूदगी मुझे खोलती है और प्रकट करती है।
कोई संसार से भाग कर सत्य को उपलब्ध नहीं होता, संसार के बीच जीवन की दृष्टि को बदलने से जरूर सत्य को उपलब्ध होता है। जिस सत्य को उपलब्ध होता है वह संसार का विरोधी सत्य नहीं होता, सच्चाई यह है कि जब उसकी आंख खुलती है तो सारा संसार ही परमात्मा के रूप में प्रकट हो जाता है।
मेरी दृष्टि में, जिसे हम संसार कहते हैं वह हमारे अंधेपन में देखा गया सत्य है; और जिसे हम परमात्मा कहते हैं वह खुली आंख से देखा गया संसार है। संसार और परमात्मा दो नहीं हैं, न उनके बीच कोई विरोध है, न कोई खाई है। वही संसार है, वही सत्य है; वही संसार है, वही मोक्ष है; फर्क जो पड़ता है वह मेरे देखने में, मेरी दृष्टि में। मैं कैसे देखता हूं, इस पर सब कुछ निर्भर करता है।
इसलिए अगर किसी ने कहा हो, संसार असार है, तो गलत कहा है। और संसार की असारता की बात करने वाले लोगों ने ही मनुष्य के आत्म-परिवर्तन की प्रक्रिया में बाधा डाली है। सारी एंफेसिस, सारा जोर इस बात पर दिया जाना जरूरी है कि गलत है, तो आदमी गलत है। सारा जोर इस बात पर दिया जाना जरूरी है कि गलत हैं, तो आप गलत हैं। और जीवन में कुछ भी गलत नहीं है। जिस दिन आप ठीक हैं उस दिन सारा जीवन ठीक हो जाता है।
पत्नियों को छोड़ कर भाग रहे हैं लोग, बच्चों को छोड़ कर भाग रहे हैं। सोच रहे हैं कि संसार असार है, उसे छोड़ रहे हैं। मस्तिष्क विक्षिप्त होगा ऐसे लोगों का, पागल होंगे। पत्नी किसे बांधती है? बच्चे किसे रोकते हैं? और अगर बच्चे और पत्नी बांध सकते हैं, इतना कमजोर जो आदमी है, वह किसी से भी बंध जाएगा, वह भाग कर कहीं भी पहुंच जाएगा। चेले-चाटी बांध लेंगे, शिष्य-शिष्याएं बांध लेंगे, आश्रम की भीड़ बांध लेगी, अनुयायी बांध लेंगे, कोई भी बांध लेगा। जो इतना कमजोर है कि पत्नी और बच्चे जिसे बांध लेते हैं, वह भाग कर कहीं भी जाए, उसे कोई भी बांध लेगा। पत्नी से भाग कर अगर परमात्मा मिलता हो तो परमात्मा पत्नी से बहुत भयभीत मालूम होता है। और दो कौड़ी का है ऐसा अनुभव जो कि पत्नी को छोड़ कर भागने से मिल जाता है। बड़ी सस्ती कीमत चुकानी पड़ती है।
आज तक जमीन पर जिन लोगों ने अधिकतम दुख पैदा किया है, वे लोग हत्यारे, डाकू, चोर और बेईमान लोग नहीं हैं; जिन लोगों ने सर्वाधिक दुख पैदा किया है, वे वे लोग हैं जो जीवन को छोड़ कर भागने की शिक्षा देते रहे। कितनी पीड़ा उन्होंने पैदा की है और कितने घर और कितने जीवन बर्बाद किए हैं, इसका जिस दिन भी हिसाब लगाया जाएगा, उस दिन बदमाश और गुंडे तराजू में नहीं बिठाए जा सकेंगे। लेकिन उसका हिसाब नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि वे परमात्मा के नाम पर किए गए पाप हैं।
गांधी श्रीलंका गए थे। कस्तूरबा भी उनके साथ थीं। गांधी भी कस्तूरबा को बा ही कहते थे। उम्र में भी एक वर्ष बड़ी थीं। देखने में भी ज्यादा उम्र की मालूम होती थीं। जिस सभा में बोलने गए थे, उसके संयोजकों ने समझा कि गांधी आए हैं और साथ में उनकी मां भी आई हैं। फिर गांधी को बा कहते सुना तो वह पक्का हो गया कि उनकी मां हैं। किसी से पूछा-ताछा नहीं। फिर जब परिचय दिया संयोजक ने सभा में, तो उसने यह कहा कि हम बड़े सौभाग्यशाली हैं, गांधी तो आए ही, और बड़ा सौभाग्य कि उनकी मां भी साथ आई हुई हैं, वे उनके बगल में बैठी हैं।
गांधी के सेक्रेटरी घबड़ा गए कि यह तो बड़ी मुश्किल हो गई--पत्नी को मां बताते हैं! गांधी बहुत नाराज होंगे। शायद कहेंगे कि यह तो सेक्रेटरियों की गलती है, उनको बताना चाहिए था कि साथ में कौन है। लेकिन अब तो बहुत देर हो गई थी, संयोजक परिचय भी दे चुके और गांधी बोलने के लिए भी बैठ गए।
लेकिन गांधी जी ने जो कहा वह सोचने जैसा है। गांधी ने कहा कि मेरे मित्रों ने मेरी पत्नी को भूल से मां बता दिया है। लेकिन उन्होंने भूल से एक सत्य बात की घोषणा कर दी है; बा इधर कई वर्षों से मेरी मां हो गई है, मेरी पत्नी नहीं। उन्होंने भूल से एक सत्य ही कह दिया है; कस्तूरबा कभी मेरी पत्नी थी, अब मेरी मां है।
पत्नी को छोड़ कर नहीं भागा यह आदमी, लेकिन पत्नी मां में परिवर्तित हो गई। इसे मैं दृष्टि का बदलना कहता हूं, यह संन्यासी का रुख है। पत्नी को छोड़ कर भागना बड़ी साधारण चीज है। लेकिन पत्नी मां बन जाए, सवाल यह है, असाधारण यह है। पत्नी को छोड़ कर भागने में कोई दृष्टि की क्रांति नहीं है, केवल परिस्थिति बदलती है, मनोस्थिति नहीं। पत्नी मां बन जाए तो दृष्टि बदलती है, मनोस्थिति बदलती है, मैं बदलता हूं। पत्नी को छोड़ कर भागने में सिर्फ एक स्थिति बदलती है। स्थिति बदलने से मन कब बदला है और कैसे बदल सकता है? वह जो पत्नी बनाने वाला मन है वह फिर किसी और स्त्री को पत्नी की तरह देखना शुरू कर देगा। वह मन मेरे साथ है! जो एक स्त्री को पत्नी बना लेता है, वह कोण मेरे साथ है, वह दृष्टि मेरे साथ है, वह मैं हूं। एक पत्नी को छोड़ कर भागूंगा, कल सड़क पर एक दूसरी स्त्री दिखाई पड़ेगी और मन मेरा उसे पत्नी बना लेगा, दुनिया जाने या न जाने।
स्त्रियों को छोड़ कर भागने वाले लोग दिन-रात स्त्रियों के ही सपने देखते हैं। चौबीस घंटे स्त्री उनका पीछा करती है। जागते, सोते, राम का स्मरण करते भी स्त्री की तस्वीर पीछे पड़ी रहती है। स्त्री से घबड़ा कर इन लोगों ने नहीं कहा है कि स्त्री नरक है; स्त्री की जो कल्पना और कामना पीछा करती है, उससे घबड़ा कर कहा है कि स्त्री नरक का द्वार है। न कोई स्त्री पुरुष को छोड़ कर पुरुष से बच सकती है, न कोई पुरुष स्त्री को छोड़ कर बच सकता है। लेकिन अगर दृष्टि बदल जाए, तो न कोई स्त्री रह जाती है, न कोई पुरुष रह जाता है।
संसार असार नहीं है, और न परिवार असार है, और न बच्चे और पत्नियां असार हैं। असार अगर है तो मेरी दृष्टि, मेरी दृष्टि का बिंदु, मेरे देखने का ढंग। लेकिन बहुत मजा आता है कि दूसरे पर दोष थोप दें और खुद को बचा लें।
यह मजा धार्मिक आदमी का मजा नहीं है। जिन लोगों ने स्त्रियों को गालियां दी हैं आज तक, इस कारण ही वे धार्मिक नहीं रह गए कि वे स्त्री को गाली दे रहे हैं। स्त्री को गाली देने का मतलब यह है कि अब तक उनके मन से सेक्स का छुटकारा नहीं हुआ है। स्त्री उन्हें खींच रही है। और जो खींच रहा है, गुस्से में उसे वे गाली दे रहे हैं, क्रोध में, प्रतिशोध में गाली दे रहे हैं। असल में, जिस चीज से भी हम बचना चाहते हैं और छूटना चाहते हैं उसी में ग्रसित हो जाते हैं।
एक मुसलमान फकीर था, एक बहुत अदभुत आदमी था--नसरुद्दीन। एक दिन सांझ की बात है, वह अपने घर से बाहर निकला, और देखा कि घोड़े पर सवार उसके बचपन का एक मित्र चला आ रहा है। मित्र द्वार पर रुका तो नसरुद्दीन ने उसका स्वागत किया और कहा, दोस्त, तुम घर में विश्राम करो, मैं बहुत जरूरी काम से दो-तीन मित्रों से मिलने जा रहा हूं। घंटे, आधा घंटे में वापस लौट आऊंगा। या तुएहारी मर्जी हो तो साथ चले चलो, रास्ते में कुछ बातचीत भी हो लेगी, बहुत दिन बाद मिले हो। और सूने घर में तुएहें छोड़ जाऊं, यह अच्छा भी नहीं लगता। और फिर मुझे जाना भी अत्यंत जरूरी है, मैं वचन दे दिया हूं। उस मित्र ने कहा कि मैं चल सकता हूं, लेकिन मेरे कपड़े सब धूल-धूसरित हो गए हैं, अगर तुएहारे पास कोई अच्छे कपड़े हों तो मुझे दे दो, तो मैं बदल लूं और तुएहारे साथ चल पडूं।
नसरुद्दीन ने एक बहुत कीमती कोट, एक पगड़ी बचा रखी थी, कभी जरूरत पड़ती थी तो पहनता था। उसने मित्र को लाकर दे दिए। जब दोनों चले तो उसे बड़ी मुश्किल मालूम हुई। अच्छे कपड़े तो मित्र ने पहन लिए थे, वह साधारण कपड़े पहने हुए था। मित्र बहुत शानदार मालूम होने लगा और उसके साथ वह बिल्कुल नौकर-चाकर दिखने लगा। और उसे कठिनाई यह होने लगी कि मेरे ही वस्त्र हैं और मैं ही नौकर-चाकर दिखता हूं। लेकिन उसने अपने मन को समझाया कि यह क्या बात है! मित्र है अपना, पहन लिए हैं वस्त्र तो हर्ज क्या है? यह बात भूल जानी चाहिए कि वस्त्र मेरे हैं।
फिर वे पहले मकान में गए मिलने के लिए। उसने जाकर अपने मित्र का परिचय दिया उस घर के लोगों को। कहा, ये मेरे मित्र हैं जमाल। बचपन के साथी हैं, बड़े प्यारे आदमी हैं, बहुत ही अच्छे आदमी हैं, अभी-अभी आए हैं। रह गए वस्त्र, सो वस्त्र मेरे हैं, कपड़े मेरे हैं।
वह मन में दबाता रहा, दबाता रहा... कि कपड़े मेरे हैं--क्या हर्जा है? मित्र पहने हुए है, पहने हुए है! लेकिन वह जब परिचय देने बैठा तो वह दबाई हुई बात उभर कर बाहर आ गई और उसके मुंह से निकल गया कि ये हैं मित्र जमाल, रह गए कपड़े, कपड़े मेरे हैं। फिर वह पछताया कि यह क्या गलती हो गई, यह तो बड़ा मुश्किल हो गया, यह कपड़ों की बात क्यों उठा दी! मित्र भी बहुत हैरान हुआ। बाहर आकर उसने कहा कि दिमाग तो तुएहारा दुरुस्त है? यह तुमने क्या कहा? कपड़े की क्या बात उठाने की जरूरत थी? उन लोगों ने क्या सोचा होगा कि कैसा आदमी है, उधार कपड़े पहने हुए है! नसरुद्दीन ने कहा, बड़ी गलती हो गई, बड़ी भूल हो गई। क्षमा करें! आगे ऐसा नहीं होगा।
वह पछताता हुआ दूसरे घर में मित्र को ले गया। वहां जाकर परिचय दिया कि ये रहे मेरे मित्र, बचपन के दोस्त हैं, जमाल इनका नाम है। रह गए कपड़े, सो कपड़े इन्हीं के हैं, मेरे नहीं हैं।
लेकिन इससे भी घर के लोग बड़े हैरान हुए कि कपड़े इन्हीं के हैं, मेरे नहीं हैं, इसको कहने की जरूरत क्या थी। यह अनावश्यक था। जरूर कपड़े में कोई गड़बड़ है। मित्र भी थोड़ा परेशान हुआ कि यह फिर वही की वही बात हो गई। बाहर आकर उसने कहा कि अब मैं तुएहारे साथ नहीं जाऊंगा, यह क्या कपड़ों की बात उठाते हो? कपड़े की बात ही उठाने की कोई जरूरत नहीं है। लोग क्या सोचते होंगे? उसने कहा कि माफ करो। असल में, वह पहली गलती जो हो गई उसकी प्रतिक्रिया में यह दूसरी गलती हो गई। दबाया मैंने मन को, उससे सब गड़बड़ हो गया। माफ करो, ऐसा आगे नहीं होगा।
तीसरे घर में गए। और जाकर उसने कहा कि ये रहे मेरे मित्र जमाल, बचपन के दोस्त हैं। रह गई कपड़े की बात, सो कपड़े की बात करनी ही नहीं है, चाहे किसी के भी हों।
यह जो मन सप्रेस करता है, जो मन दबाता है, जिस बात को दबाता है, वही बात घेर-घेर कर उसके मन का चक्कर काटने लगती है। स्त्री से बचिए, और स्त्री ही पीछा करेगी। पुरुष से बचिए, और पुरुष पीछा करेगा। जिस बात से भागिए, भागिए, वही पीछा करेगी। क्योंकि भागना कमजोरी का लक्षण है, भागना भय का लक्षण है। और जिससे भयभीत होकर हम भागते हैं वह मजबूत हो जाता है, ताकतवर हो जाता है; हम कमजोर हो जाते हैं। फिर कमजोर का पीछा किया जा सकता है।
ये संसार से भागने वाले लोगों ने आदमी को तो बदला ही नहीं, खुद भी संसार से घिर कर ही जीए। चौबीस घंटे मन वहीं घूम रहा है, वहीं चक्कर काट रहा है। नई-नई शक्लों में वहीं घूम रहा है।
आपको पता है, जिन लोगों ने स्वर्ग की कल्पना की उन्होंने स्वर्ग में क्या व्यवस्था की है? यहां तो वे लोग सिखाते हैं कि निष्काम हो जाओ, कामना छोड़ दो, इच्छा छोड़ दो, डिजायरलेस हो जाओ। लेकिन वे कहते हैं कि डिजायरलेस होने से, इच्छारहित होने से स्वर्ग मिलेगा; और स्वर्ग में कल्पवृक्ष हैं, उन कल्पवृक्षों के नीचे बैठ जाओ और जो भी कामना करो वह तत्काल पूरी हो जाती है। बड़ा मजा है! बड़ा आश्चर्यजनक है! इच्छा छोड़ कर जहां पहुंचेंगे वहां मिलेगा कल्पवृक्ष; और उसके नीचे बैठ कर इच्छा करनी मात्र--पूर्ति हो जाती है।
यह सप्रेस्ड माइंड है, इच्छाओं को दबा रहा है, तो स्वर्ग में इच्छाओं को पूरा करने की व्यवस्था कर रहा है। यहां कह रहा है, स्त्रियों को छोड़ो, शरीर तो असार है, सौंदर्य व्यर्थ है। और स्वर्ग में? स्वर्ग में ऐसी अप्सराओं की व्यवस्था कर रहा है जिनकी उम्र सोलह वर्ष से कभी ज्यादा होती ही नहीं; बस वह सोलह वर्ष पर रुक जाती है, उसके बाद उम्र आगे नहीं बढ़ती। वहां अप्सराओं की व्यवस्था कर रहा है--चिर-सुंदर! अजीब मन है यह। यहां कह रहा है, रूप असार है, व्यर्थ है, छोड़ो इसे। किसलिए छोड़ो? अगर अप्सराओं को भोगना हो तो इसे छोड़ना जरूरी है। यहां कह रहा है, शराब मत पीओ! स्वर्ग में व्यवस्था कर रहा है कि वहां शराब दुकानों में नहीं बिकती, वहां झरने बहते हैं शराब के, चश्मे बहते हैं शराब के। यहां एक-एक कुल्हड़ में शराब पीने को मना कर रहा है और वहां कह रहा है कि नदियां बह रही हैं शराब की--डूबो, नहाओ, पीओ, जो भी करना है।
आप तो हैरान होंगे, स्वर्ग दमित इच्छाओं का प्रोजेक्शन है। जिन-जिन इच्छाओं को यहां दबा लिया है, मन कह रहा है कि कहीं इंतजाम करो उनको पाने का, पूरा करने का। तो यहां तो नहीं किया जा सकता, यह तो माया, और संसार बुरा है, असार है। फिर स्वर्ग में इंतजाम कर लो।
यह जो जिन लोगों ने नरक की कल्पना की है, यहां तो वे कहते हैं कि किसी को शत्रु मत मानो, किसी का बुरा मत करो; लेकिन वे कहते हैं, जो हमारी बात नहीं मानेगा, नरक में कढ़ाहों में चुड़ाया जाएगा, आग में डाला जाएगा। बड़े मजे के लोग हैं! यहां तो कहते हैं, किसी का बुरा मत सोचो, किसी को चोट मत पहुंचाओ, दुश्मन को भी दोस्त समझो; जो तुएहारे एक गाल पर चांटा मारे, दूसरा उसके सामने कर दो। लेकिन वे कहते हैं कि जो हमारी बात नहीं मानेगा और हमारे शास्त्र को नहीं मानेगा, नरक में जलते हुए तेल के कढ़ाहों में उसे डाला जाएगा, आग में उसे झोंका जाएगा। और एक-दो दिन के लिए नहीं, अनंतकाल तक उसे नरक में सड़ाया जाएगा।
बड़े अजीब लोग हैं! इन भले लोगों को नरक की योजना करने की जरूरत क्या है? यहां भी उनका मन यही हो रहा है कि जो हमारी नहीं मानता उसको कढ़ाहों में जलाएं। लेकिन यहां जलाएंगे तो कौन महात्मा कहे, कौन संत कहे, कौन साधु कहे! तो नरक में इंतजाम कर रहे हैं--सड़ाए जाने का, जलाए जाने का। अपने लिए स्वर्ग का इंतजाम कर रहे हैं, अप्सराओं का, हूरों का, कल्पवृक्षों का; और शत्रुओं के लिए इंतजाम कर रहे हैं कढ़ाहों का, जलती हुई आग का, नरक के कुंडों का। सप्रेस्ड माइंड जो दबा रहा है, वह निकलना शुरू हो रहा है नये-नये रूपों में, वह नये-नये बदले ले रहा है।
मैं नहीं कहता हूं कि संसार से भागें, क्योंकि संसार से भागने का एक ही मतलब है--दमन। संसार से भागने का एक ही मतलब है--मन को दबाओ, जबरदस्ती करो। मन दबाने से कभी भी परिवर्तित नहीं होता, बल्कि मन का नियम यही है कि जिस बात के लिए आप मन को रोकना चाहते हैं, मन उसी बात के लिए आमंत्रण स्वीकार कर लेता है।
इस भवन के दरवाजे पर हम एक तख्ती लगा दें कि यहां झांकना मना है! फिर भावनगर में शायद ही एकाध ऐसा संयमी आदमी हो जो बिना झांके निकल जाए। या कि कोई आदमी है भावनगर में? हो सकता है कोई आदमी बिना झांके निकलने की कोशिश करे, लेकिन तब वह और मुसीबत में पड़ जाएगा। भवन के आगे से निकल जाएगा, दुकान पर अपने काम में लग जाएगा, लेकिन मन उसका इसी भवन के आस-पास मंडराएगा कि पता नहीं उस तख्ती के भीतर क्या था? क्या था उस भवन के भीतर जहां लिखा था कि झांकना मना है? मंदिर में चला जाएगा और गीता रटने लगेगा, और मन उसका इसी मकान के आस-पास घूमेगा कि पता नहीं उस तख्ती के भीतर क्या था जहां लिखा था कि झांकना मना है?
बहुत संभावना तो यह है कि दिन के किसी मौके में जब कि यहां भीड़-भाड़ नहीं होगी, इस मकान के आस-पास वह आएगा। पीछे के किसी दरवाजे से आकर वह मकान में झांकने की कोशिश करेगा। दुर्जन सीधे झांक लेते हैं, सज्जन पीछे की तरफ से आकर झांकते हैं। जो सीधे-सादे लोग हैं वे वहीं पर खड़े होकर तख्ती उठा कर देखने लगेंगे, जो कनिंग हैं, जो चालाक हैं, हिपोक्रेट हैं, पाखंडी हैं, वे वहां से नहीं झांकेंगे, वहां से वे अकड़ कर आंख बंद किए भगवान के ध्यान में निकल जाएंगे, वे यहां पीछे के दरवाजे से आएंगे और झांकने की कोशिश करेंगे। और अगर बहुत भयभीत हुए कि कोई देख न ले पीछे के दरवाजे से--क्योंकि देख लें तो लोग वोट नहीं देते, देख लें तो लोग गुरु नहीं बनाते, देख लें तो लोग महात्मा नहीं कहते--तो फिर और मुसीबत शुरू हो जाएगी। दिन भर इसी मकान के संबंध में सोचेगा और रात सपने में इस मकान के दरवाजे में आकर झांकेगा, बच नहीं सकता। भागने वाला कभी नहीं बच सकता। क्योंकि जिससे हम भागते हैं उसे हमने अपने से ताकतवर समझ लिया, मान लिया, स्वीकार कर लिया। और जो हमसे ताकतवर हो गया उससे हमें पराजित होना ही पड़ेगा, उससे हम जीत नहीं सकते हैं।
संसार से भागने का सूत्र हैः दमन। और दमन निमंत्रण है, मुक्ति नहीं। दमित आदमी से ज्यादा बंधन में ग्रस्त और कोई भी नहीं होता।
सिग्मंड फ्रायड का नाम आपने सुना होगा। इस अकेले आदमी ने मनुष्य की मुक्ति के लिए जितना काम किया, उतना हजारों ऋषि-मुनियों ने मिल कर भी नहीं किया। एक दिन सांझ सिग्मंड फ्रायड, विएना के एक बगीचे में, अपनी पत्नी और अपने बच्चे के साथ घूमने गया था। रात हो गई, घंटी बज गई, बगीचा बंद होने लगा। फ्रायड अपनी पत्नी के साथ दरवाजे से निकलने लगा, तब उसकी पत्नी को ख्याल आया कि बच्चा न मालूम कहां चला गया! वे दोनों तो बातचीत में लग गए और बच्चा कहीं बगीचे में न मालूम कहां चला गया! बड़ा बगीचा है, बंद होने का समय आ गया। उसे कहां खोजेंगे? छोटा बच्चा, पत्नी बहुत घबड़ा गई कि बच्चे को कहां खोजें?
फ्रायड ने कहा, घबड़ाओ मत, मेरे एक प्रश्न का उत्तर दे दो, सौ में निन्यानबे मौके ये हैं कि हम तत्काल उसे खोज लेंगे। तुमने उस बच्चे को कहीं जाने को मना तो नहीं किया था? किसी खास जगह पर जाने से रोका तो नहीं था? उसकी पत्नी ने कहा, मैंने रोका था कि बड़े फव्वारे पर मत जाना। फ्रायड ने कहा, अगर तुएहारे बच्चे में थोड़ी-बहुत भी बुद्धि है तो सौ में से निन्यानबे मौके इस बात के हैं कि वह फव्वारे पर बैठा होगा। और अगर बिल्कुल निर्बुद्धि हो तुएहारा बच्चा तो खोजने में जरा तकलीफ हो जाएगी।
वे गए फव्वारे पर, अंधेरे में पैर लटकाए हुए पानी में बच्चा बैठा हुआ है। पत्नी बहुत हैरान हुई कि तुमने किस जादू से पता लगा लिया, किस ज्योतिष से, कि बच्चा फव्वारे पर होगा? फ्रायड ने कहा, पागल, मनुष्य के मन का सीधा नियम है--जहां जाने से उसे रोका जाए, वह वहीं पहुंच जाता है।
मनुष्य को अनीति में ले जाने वाले लोग, मनुष्य को दुश्चरित्रता में ले जाने वाले लोग, मनुष्य को व्यभिचार सिखाने वाले लोग वे हैं जिन्होंने मनुष्य के चित्त को किन्हीं चीजों की तरफ जाने से जबरदस्ती रोकने की सलाह दी है। आदमी वहीं पहुंच कर खड़ा हो गया है जहां हम सोचते थे कि उसे नहीं पहुंचना है, नहीं पहुंचना चाहिए। यह जगत जो इतना विकृत और विक्षिप्त हो गया है, यह अच्छे शिक्षकों की बदौलत।
मनुष्य के मन के कीमती नियम को आज तक ठीक से समझा ही नहीं जा सका। दमन मुक्त नहीं करता, बांधता है। फिर मुक्त क्या करेगा?
मुक्त करती है समझ, अंडरस्टैंडिंग; दमन नहीं। जिस चीज से मुक्त होना है उसे पूरी तरह समझें। अगर पत्नी से मुक्त होना है तो पत्नी को समझें पूरी तरह, पत्नी के प्रति अपनी दृष्टि को समझें। और उस समझ को जितना आप गहरा करेंगे उतना ही आप पाएंगे कि आप मुक्त होते चले जा रहे हैं। सेक्स से मुक्त होना है, यौन से मुक्त होना है, तो यौन को समझें, उसके पर्त-पर्त रहस्य को समझें, उसको पूरा उघाड़ कर देखें, उसको पूरा डिस्कवर कर लें, उसका सारा आवरण तोड़ डालें--पहचानें; खोजें; समझें। जितनी समझ गहरी होगी उतना ही मनुष्य मुक्त होता है। जिस चीज से भी मुक्त होना है, उसकी समझ, उसका ज्ञान चाहिए, उसका परिपूर्ण परिचय चाहिए। संसार से मुक्त होना है तो संसार का परिपूर्ण परिचय चाहिए। और परिचय के लिए बड़ा शांत चित्त, समझपूर्वक भरी हुई प्रज्ञा, बोध, अवेयरनेस चाहिए, होश चाहिए कि हम जीवन को देखें और समझें। जिस चीज को आप समझ लेंगे, उसी से आप मुक्त हो जाते हैं। और जिस चीज से आप भागेंगे, आप उसी से बंध जाते हैं। संसार जिस दिन समझ लिया जाता है उसी दिन परमात्मा प्रकट हो जाता है। पत्नी जिस दिन समझ ली जाती है उसी दिन वह जो पत्नी का आकर्षण है, वह जो तीव्र लालसा है, वह विलीन हो जाती है।
लेकिन हमने अब तक उलटा किया है। दो छोटी बातों से मैं समझाने की कोशिश करूं। एक बहुत संयमी पिता ने यह सोचा कि मेरा जीवन तो ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं हो सका, लेकिन अपने बेटे को मैं ब्रह्मचारी बना कर ही रहूंगा।
पहली तो बात यह है कि कोई दूसरा किसी को बिल्कुल भी बना नहीं सकता है। इसलिए जो लोग भी किसी को बनाने की जिद्द में पड़ जाते हैं, वे उसे मिटाने और बिगाड़ने वाले सिद्ध होते हैं। लेकिन पिता अक्सर तय करता है कि बच्चे को बना कर छोडूंगा। इसीलिए अच्छे बाप के घर में अच्छा बेटा पैदा होना बहुत मुश्किल हो जाता है। बुरे बाप के घर में कभी अच्छा बेटा पैदा भी हो सकता है, लेकिन अच्छे बाप के घर में अच्छे बेटे का पैदा होना बड़ा असंभव हो जाता है। वह अच्छा बाप इतनी चेष्टा में संलग्न हो जाता है, इतनी जबरदस्ती... और सारी जबरदस्ती सप्रेशन बनती है, सारी जबरदस्ती दमन बनती है। और दमन जिस दिन फूटता है उस दिन बिल्कुल आदमी को बेहोशी में बहा ले जाता है।
उस बाप ने तय किया कि बेटे को तो कभी वासना की झलक भी नहीं मिलने देनी।
अब बड़ी मुश्किल बात है। परमात्मा मनुष्य के भीतर वासना रखता है। लेकिन ये संयमी और शिक्षक और नैतिक, ये मारेलिस्ट, ये परमात्मा से भी ज्यादा समझदार हैं। ये वासना को मनुष्य से बिल्कुल मिटा देना चाहते हैं। कोई आदमी थोड़े ही वासना पैदा कर लेता है अपने भीतर, प्रकृति के और परमात्मा के अनिवार्य नियमों से वासना पैदा होती है। इसलिए वासना को रूपांतरित करना तो अर्थपूर्ण है, लेकिन वासना से लड़ना और वासना को तोड़ने की सारी चेष्टा मूढ़तापूर्ण है। वह परमात्मा के विरोध में लड़ाई है जो कभी नहीं जीत सकती।
लेकिन उस बाप ने तय किया कि इस बच्चे में वासना का बीज भी पैदा नहीं होने देना। जब वह एक महीने का था तभी उसने कहा अपनी पत्नी से कि मैं इसको लेकर जंगल जाता हूं। और तुएहें भी मैं साथ नहीं ले जाऊंगा, क्योंकि स्त्री अगर मौजूद रही तो बच्चे के मन में ख्याल हो सकता है कि स्त्री भी है। मैं बीस वर्ष तक तो इसे पता भी नहीं चलने देना चाहता हूं कि स्त्री कहीं है। और फिर मैं देखना चाहता हूं कि बीस वर्ष तक जिस बच्चे ने फिल्म नहीं देखी, अश्लील किताबें नहीं पढ़ीं, औरतें नहीं देखीं, उस बच्चे के मन में सेक्स और वासना पैदा होती है कि नहीं? कभी नहीं होगी! क्योंकि यह सब गलत शिक्षा की वजह से पैदा होती है, गलत फिल्मों की वजह से पैदा होती है।
ये सारे शिक्षक यही समझाते हैंः गलत फिल्मों की वजह से लोग वासना से भरे जा रहे हैं। मामला बिल्कुल उलटा है। लोग वासना से भरे हैं इसलिए गलत फिल्म निर्मित होती है, गलत फिल्म की वजह से कोई वासना से नहीं भर सकता है।
लेकिन उस बाप का भी तर्क यही था। वह अपने लड़के को लेकर जंगल चला गया। दूर जंगल में जहां स्त्री की कोई खबर न मिले, जहां कि संसार बिल्कुल दूर था, वहां उसने खुद मेहनत करके बच्चे को बड़ा किया। वह ऐसी किताब वहां नहीं ले गया जहां स्त्री की बात चले, ऐसा शब्द नहीं जहां स्त्री का ख्याल उस बच्चे को आए। बीस वर्ष तक उसे बिल्कुल पवित्रता में, इनोसेंस में वह बांधना चाहता था।
लेकिन जैसे ही लड़का चौदह-पंद्रह वर्ष का हुआ, बेचैनी शुरू हुई। बाप ने देखा कि लड़के में कुछ फर्क होने शुरू हो गए हैं। उसका मन पढ़ने में नहीं लगता है। वह बाप से बचना चाहता है, वह यहां-वहां भागना चाहता है। लेकिन बाप अभी निश्चिंत था, क्योंकि कोई स्त्री वहां नहीं थी, कोई फिल्म वहां नहीं चल रही थी, कोई गंदी किताबें वहां नहीं थीं, कुछ भी नहीं था, लड़का बिगड़ कैसे सकता है!
लड़का बीस वर्ष का हो गया, और बाप निश्चिंत था मन में कि अब उसके ब्रह्मचर्य की पूरी शिक्षा हो गई है। परमात्मा, और परमात्मा, और परमात्मा के सिवाय कोई बात कभी नहीं की गई। उपनिषद और गीता के सूत्र रटाए, धर्मग्रंथों के वचन सिखाए, और पता भी नहीं चलने दिया कि जीवन में वासना जैसी भी कोई चीज है। जब बीस वर्ष पूरे हो गए तो बाप उस लड़के को लेकर राजधानी वापस लौटा, अपने गांव वापस लौटा। जब वे गांव के भीतर प्रवेश कर रहे थे तभी एक लड़कियों के स्कूल की छुट्टी हुई और लड़कियों की भीड़ बाहर निकली। वह जो लड़का साथ में था, वह एकदम ठिठक कर खड़ा रह गया और पिता से पूछने लगा कि ये किस प्रकार के जानवर हैं? ये कौन प्रकार के पशु हैं?
पिता ने कहा, अगर बताए कि ये स्त्रियां हैं तो झंझट शुरू न हो जाए। पिता ने कहा कि बेटे, ये खास तरह के पशु हैं। इनका नाम राजहंस है। फिर लड़के को वह ले जाने लगा, लेकिन लड़का जा तो आगे की तरफ रहा है, लेकिन आंखें उसकी पीछे की तरफ, बार-बार लौट कर देख रहा है। पिता उससे कहने लगा, पीछे क्या देखता है? अरे वे पशु हैं, राजहंस हैं, चल आगे की तरफ! लेकिन उसके पैर ठिठक-ठिठक जाते हैं, वह पीछे लौट-लौट कर देखना चाहता है, वहां जहां लड़कियां हैं। पिता कुछ चिंतित हुआ और घबड़ाया। उसने कहा, यह तो बड़ी गलती हुई जा रही है, कहीं इसके मन में ख्याल तो पैदा नहीं हो रहा! वह लड़के को फिर गांव के भीतर नहीं ले गया, बाहर से उसने कहा, अच्छा वापस चलें हम, फिर कभी लौटेंगे।
लेकिन लौटते में लड़का एकदम उदास हो गया। बाप पूछने लगा कि बहुत सी दुकानें तुझे दिखाई पड़ी थीं, बहुत सा सामान तुझे दिखाई पड़ा था, कोई चीज खरीदने का मन तो नहीं हो गया, इसलिए तू इतना उदास है? उसने कहा कि जरूर एक चीज खरीदने का मन है, एक राजहंस खरीद दें; बहुत प्यारा जानवर था, बहुत ही अच्छा लगता था। एक राजहंस ले आएं पिताजी, तो वहां आश्रम में, जंगल में बहुत अच्छा लगेगा।
कोई फिल्म नहीं देखी, कोई किताब नहीं पढ़ी, और लड़का बिगड़ गया। भगवान ही बिगाड़ने को उतारू है, आप क्या करिएगा! भगवान की मर्जी कुछ बिगाड़ने की है।
नहीं, इस भांति दबा कर कुछ भी नहीं रोका जा सकता। यह बच्चा और भी तीव्रता से पीड़ित हो जाएगा।
जीवन भागना और दमन नहीं है। जीवन जानना और जागना है, पहचानना और परिचित होना है। मैं इस सूत्र के संबंध में आज रात आपसे बात करने को हूं--कि जीवन कैसे जाना, कैसे पहचाना जा सकता है, ताकि जीवन धीरे-धीरे परमात्मा में परिवर्तित हो जाए! सेक्स कैसे पहचाना और जाना जा सकता है कि धीरे-धीरे काम की वासना भी ब्रह्मचर्य बन जाए। जीवन एक रूपांतरण है--ज्ञान के माध्यम से। और कोई रूपांतरण, कोई ट्रांसफॉर्मेशन नहीं है।
एक आदमी खाद ले आए और अपने घर के बाहर ढेर इकट्ठा कर ले, तो सारे मोहल्ले में बदबू फैल जाएगी। और वही आदमी खाद को बगिया में डाल दे और बीज बो दे, तो फूल आएंगे और खाद फूलों के द्वारा सुगंध बन कर सारे गांव को खुशबू से भर देगी। खाद दुर्गंध पैदा करती है, लेकिन वृक्ष में से, पौधे में से गुजर कर ट्रांसफार्म हो जाती है, सुगंध बन जाती है।
जीवन में जो आपको बुरा मालूम पड़ रहा है, वह सब शुभ बन सकता है। जो असुंदर मालूम पड़ रहा है, वह सुंदर बन सकता है। जो अशुभ मालूम पड़ता है, वह शुभ बन सकता है। जो असत्य मालूम पड़ता है, वह सत्य बन सकता है। जो आपको असार मालूम पड़ रहा है, वह सारभूत हो सकता है। सिर्फ आपकी दृष्टि की कीमिया से गुजरने का सवाल है। सिर्फ आपकी दृष्टि के रूपांतरित, ट्रांसफार्म होने का सवाल है। और तब सब बदल जाता है, सब एकदम बदल जाता है।
एक छोटी सी घटना और मैं अपनी बात को पूरा करूं। जापान में एक मुकदमा चला। और उस मुकदमे की सारे उनके देश में चर्चा हुई। मुकदमे के चलने के तीन साल पहले, एक रात अंधेरी रात में, एक फकीर के झोपड़े पर, एक संन्यासी के झोपड़े पर एक चोर घुस गया। दरवाजा अटका हुआ था, अंधेरी रात थी, चोर ने हाथ लगाया, दरवाजा खुल गया। चोर ने सोचा होगा कि संन्यासी सो रहा है, लेकिन वह जाग रहा था और कोई पत्र लिख रहा था। चोर ने घबड़ाहट में छुरा निकाल लिया। संन्यासी सामने था, भागने का भी उपाय नहीं था एकदम से। संन्यासी ने आंख उठा कर देखा और कहा कि दोस्त, थोड़ा बैठ जाओ, मैं थोड़ा पत्र पूरा कर लूं। उससे कहा कि बैठ जाओ, खड़े मत रहो।
वह चोर घबड़ाहट में उसकी कुर्सी पर बैठ गया। और संन्यासी पत्र लिख कर पूरा किया और उसने कहा कि अब बोलो, कैसे आए? क्या काम है? छुरा किसलिए निकाले हुए हो, मेरी जान चाहते हो? उस चोर ने कहा कि नहीं, जान नहीं चाहता हूं। तो छुरा अपने भीतर रख लो! छुरे को बाहर निकालने की क्या जरूरत है? बेकार थक गए होओगे! मैं चिट्ठी लिख रहा हूं, तुम छुरा ही पकड़े बैठे हुए हो? पागल हो, उस छुरे को भीतर करो! घबड़ाहट में छुरा भी उस चोर ने भीतर कर लिया। अब संन्यासी ने पूछा, आए कैसे? इतनी रात आए हो तो जरूर कोई प्रयोजन होगा। मैं क्या सेवा कर सकता हूं, बोलो?
उस चोर को लगा कि बड़ा सीधा आदमी है, बड़ा भोला आदमी है। कुछ नहीं समझ रहा है कि मैं छुरा लिए आया हूं, आधी रात में घुसा हूं, तो चोरी के लिए घुसा हूं। उसने कहा कि शायद आप समझे नहीं, लेकिन आप इतने भोले और सीधे आदमी मालूम पड़ते हैं कि मैं भी असत्य बोलने का साहस नहीं जुटा पा रहा हूं, मैं सत्य ही बोल देता हूं, मैं चोरी करने आया हूं। संन्यासी खूब हंसने लगा कि बड़े पागल हो। अरे पागल, चोरी करने आए थे तो किसी महल में जाना था, यहां क्या हो सकता है! और अगर चोरी करने ही आना था तो एकाध-दो दिन पहले मुझसे कह जाता तो मैं कोई व्यवस्था कर रखता, जिसे तू चुरा सकता। इधर कुछ है नहीं, सिर्फ दस रुपये पड़े हैं। वे भी आज सुबह एक आदमी भेंट कर गया, मैं उसे मना करता रहा कि कोई जरूरत नहीं है, लेकिन वह दे गया। लेकिन दस रुपये लेकर तुम जाओगे तो मुझे बड़ा दुख होगा, कि इतनी आधी रात में आदमी आया इतनी दूर, इतना परेशान हुआ, और सिर्फ दस रुपये लेकर जा सका! लेकिन फिर भी, और कुछ नहीं है, तुम दस रुपये ले जाओ। वह आले पर दस रुपये रखे हैं।
वह चोर उठा, उसने दस रुपये उठाए और जाने लगा, तो संन्यासी ने कहा, एक कृपा करो, सुबह से ही मुझे दूध या कुछ जरूरत पड़ेगी, एकाध रुपया छोड़ दोगे तो बड़ा धन्यवाद होगा। यह उधारी रही, एक रुपया मैं वापस लौटा दूंगा। यह मैं तुमसे उधार मांगता हूं। चोर ने एक रुपया वापस रख दिया और दरवाजे के बाहर निकलता था, तब संन्यासी ने कहा कि सुन, कैसा पागल आदमी है, धन्यवाद भी नहीं दिया! और याद रख, रुपये तो आज नहीं कल खत्म हो जाएंगे, लेकिन धन्यवाद पीछे भी काम पड़ सकता है। कम से कम धन्यवाद तो दे जा। इतना शिष्टाचार भी नहीं, इतना मैनर भी नहीं सीखा! उस चोर ने धन्यवाद दिया और भागा।
तीन साल बाद वह पकड़ा गया। और बहुत से चोरी के मामले थे उसके ऊपर, यह संन्यासी की चोरी का मामला भी था। संन्यासी अदालत में बुलाया गया। और मजिस्ट्रेट ने उससे पूछा कि आप इस आदमी को पहचानते हो? उसने कहा, भलीभांति पहचानता हूं, यह मेरा दोस्त है। एक रात जब इस पर मुसीबत पड़ी तो इसने मुझको याद किया। मुसीबत में आदमी दोस्त को याद करता है। सारे गांव को छोड़ कर यह मेरे झोपड़े पर आ गया, आधी रात में। आधी रात में सिवाय दोस्त के और कौन किसके घर आता है! यह मेरा पुराना दोस्त है, भलीभांति जानता हूं। और भी एक बात आप से कह दूं कि मैं इसका ऋणी भी हूं, मुझे एक रुपया इसका लौटाना है, मैंने इससे एक रुपया उधार लिया था।
मजिस्ट्रेट ने कहा, हम यह बात नहीं जानना चाहते हैं, हम यह पूछना चाहते हैं, क्या इस आदमी ने कभी तेरे घर में चोरी की? उस संन्यासी ने कहा, चोरी! यह इतना प्यारा आदमी है कि चोरी कर कैसे सकता है? यह इतना प्यारा आदमी है कि एक रुपया मुझे उधार दे गया और तीन साल हो गए मुझसे मांगने नहीं आया। यह चोरी कर ही नहीं सकता। और अगर यह चोरी ही करने में कुशल होता तो यह मजिस्ट्रेट हो सकता था, साहूकार हो सकता था, इसे कटघरे में खड़े होने की जरूरत नहीं थी। यह कहीं दानपति हो सकता था, मंदिर बनवाने वाला हो सकता था, तीर्थ निर्माण करवाने वाला हो सकता था, अगर चोर ही होता। यह आदमी बड़ा सीधा-सादा है, यह चोर बिल्कुल नहीं है।
आदमी की दृष्टि पर निर्भर है कि चीजें कैसी दिखाई पड़ती हैं। एक संन्यासी को चोर भी चोर नहीं दिखाई पड़ सकता है। एक चोर को चारों तरफ चोर ही चोर दिखाई पड़ते हैं। जेब काटने वाला हमेशा अपनी जेब सएहाले रहता है, हमेशा! अगर किसी आदमी को जेब सएहाले देखें तो पक्का समझ लेना कि यह जेब काटने वाला है। और कोई जेब सएहालता ही नहीं, सएहालेगा किसलिए! वह जो आदमी जैसा भीतर होता है वैसा उसे सब कुछ बाहर दिखाई पड़ता है। प्रेम करने वालों को सारा जगत प्रेमियों का संसार हो जाता है। घृणा करने वालों को सारा जगत शत्रु हो जाता है।
हिटलर अपने दोस्त से दोस्त को भी रात अपने कमरे में नहीं सोने देता था। निकटतम मित्र भी हिटलर के कमरे में नहीं सो सकता था। क्योंकि डर कि कहीं रात को गर्दन न दबा दे। हिटलर सारी जिंदगी अकेला सोया। एक स्त्री को भी उसने कभी इतना प्रेम नहीं किया कि वह उसके पास अकेले में सो सके। कोई स्त्री भी जहर पिला सकती है, गर्दन दबा सकती है, गोली मार सकती है। इतना हृदय घृणा से भरा था। हिटलर ने--अकेले एक आदमी ने--एक करोड़ आदमियों की हत्या की जर्मनी में। तो जिस आदमी ने एक करोड़ आदमी मारे, वह किसी आदमी पर विश्वास कर सकता है? कैसे करेगा? उसे तो हर आदमी में दिखाई पड़ेगा हत्यारा, कि कहीं यह मार न डाले। हिटलर ने बारह वर्षों में एक बार खाना नहीं खाया जो पहले कुत्तों को न खिलाया गया हो। एक बार पानी नहीं पीया जो पहले दूसरे आदमी को पिला कर न देखा गया हो। रात सारे ताले लगा कर चाबियां अपने बिस्तर के पास रख कर सोता रहा। रात भी डरा हुआ है, दिन भी डरा हुआ है। जिसके मन में घृणा और हिंसा है, सारा जगत उसके लिए शत्रु हो जाता है।
स्टैलिन ने रूस में अंदाजन तीस लाख से साठ लाख लोगों की हत्या की। फिर भय इतना पकड़ गया कि स्टैलिन को अपनी शक्ल-सूरत का एक आदमी खोजना पड़ा, एक डबल खोजना पड़ा। क्योंकि जब रास्तों पर निकले, सभाओं में जाए, मिलिट्री परेड में सलामी ले, तब कोई गोली न मार दे। तो बड़ी अदभुत बात, स्टैलिन तो अपने घर में ही बंद रहता था, उसकी शक्ल-सूरत का आदमी परेड में सलामी लेता था, मीटिंग में जाकर भाषण करता था। गोली लगे तो उसको लगे। भाषण स्टैलिन का तैयार किया हुआ होता था, भाषण देने वाला आदमी मंच पर दूसरा होता था। गोली लगे तो उसको लगे, मरे तो वह मरे। बड़ी हैरानी की बात है! आदमी... स्टैलिन जिंदगी भर यही कोशिश किया कि हजारों लोगों को ताली बजाते देखूं, लेकिन हिंसा और घृणा ने यह हालत कर दी कि तालियां बजाते हुए दूसरा आदमी देखता था। स्टैलिन खुद भीड़ में खड़ा नहीं हो सकता था जाकर।
जिस आदमी के भीतर घृणा है, उसके लिए सारा जगत शत्रु हो जाता है। जिस आदमी के भीतर प्रेम है, सारा जगत मित्र हो जाता है। जिस आदमी के भीतर प्रकाश है, उसके लिए सारा जगत परमात्मा हो जाता है। और जिस आदमी के भीतर अंधकार है, उसे सारा जगत असार हो जाता है। इसलिए मैं आपसे कहता हूं, संसार असार नहीं, असार हैं तो हम, असार हूं तो मैं, असार हैं तो आप। और तब जो हम हैं वही दिखाई पड़ने लगता है।
मैं कैसे परिवर्तित हो सकता हूं, मैं कैसे नई दृष्टि और नई स्मृति और नई चेतना को उपलब्ध हो सकता हूं, उस संबंध में आज संध्या आपसे बात करूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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