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बुधवार, 21 नवंबर 2018

समुंद समाना बूंद में-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-(तीन असत्य

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक अंधेरी रात में, एक निर्जन रेगिस्तान में, एक काफिला एक सराय में आकर ठहरा। रात थी, अंधेरा था और काफिला रास्ता भटक गया था। आधी रात गए खोजते-खोजते वे उस सराय के पास पहुंचे। यात्री थके थे, उनके ऊंट भी थके थे। उन्होंने जल्दी से खूंटियां गाड़ीं, रस्सियां निकालीं और ऊंटों को बांधा। सौ ऊंट थे उस काफिले के पास। लेकिन शायद जल्दी में रात के अंधेरे में एक ऊंट की खूंटी और रस्सी खो गई। एक ऊंट अनबंधा रह गया। अंधेरी रात थी और ऊंट को अनबंधा छोड़ना ठीक न था, उसके भटक जाने की संभावना थी। उस काफिले के मालिकों ने सराय के बूढ़े मालिक को जाकर कहा कि अगर एक खूंटी मिल जाए और एक रस्सी, तो बड़ी कृपा होगी। एक ऊंट हमारा खुला रह गया, रस्सी-खूंटी कहीं खो गई है।

उस बूढ़े ने कहा, रस्सी और खूंटी की कोई भी जरूरत नहीं है। तुम तो जाओ, खूंटी गाड़ दो और रस्सी बांध दो। यह बात इतनी नासमझी की थी, इतनी व्यर्थ थी। खूंटी और रस्सी होती तो--उन मालिकों ने कहा--हम खुद ही बांध देते। खूंटी और रस्सी नहीं है, यही तो हम पूछने आए हैं। पर उस बूढ़े ने कहा, तुम झूठी खूंटी ही गाड़ दो। अंधेरे में ऊंट को क्या पता चलेगा कि सच्ची खूंटी गाड़ी गई है या झूठी। तुम झूठी रस्सी ही बांध दो।


उन्हें बात समझ में नहीं पड़ी, लेकिन और कोई रास्ता भी न था। सोचा एक प्रयोग करके देख लेना उचित है। वे गए और उन्होंने अंधेरे में खूंटी ठोंकी, जो खूंटी थी ही नहीं। सिर्फ ठोंकने की आवाज, ऊंट खड़ा था, वह बैठ गया, उसने सोचा कि शायद खूंटी बांध दी गई। और फिर उन्होंने रस्सी बांधने का उपक्रम किया। रस्सी तो थी नहीं, लेकिन जैसे रस्सी होती तो बांधते, उसी तरह का उपक्रम किया। और फिर जाकर सो गए।
सुबह उन्होंने देखा--ऊंट अपनी जगह बैठा है; बंधे हुए ऊंट भी बैठे हैं, अनबंधा ऊंट भी बैठा है। उन्होंने बंधे हुए ऊंटों को खोल दिया, उन्हें नई यात्रा पर निकलना था। अनबंधे ऊंट को तो खोलने का कोई सवाल न था, वे उसे बिना खोले ही उठाने की कोशिश करने लगे। लेकिन उस ऊंट ने उठने से इनकार कर दिया। वह बंधा था। वे उस सराय के मालिक के पास गए और कहा, कैसा आश्चर्य! वह ऊंट उठता नहीं है। क्या जादू किया आपने? शक तो हमें रात भी हुआ था कि न मालूम क्या जादू किया जा रहा है। झूठी खूंटी से कहीं ऊंट बंधे हैं! असत्य रस्सी से कभी कोई बांधा गया है! और अब तो और मुश्किल हो गई कि उस ऊंट ने उठने से इनकार कर दिया। उस बूढ़े ने कहा, पहले खूंटी उखाड़ो और रस्सी खोलो। पर वे कहने लगे, खूंटी हो तब हम उखाड़ें! उस बूढ़े ने कहा, जब बांधते समय खूंटी थी, तो खूंटी अब भी है।
मजबूरी थी। बिल्कुल पागलपन का काम था। लेकिन जाकर उन्होंने खूंटी उखाड़ी, रस्सी खोली, और ऊंट उठ कर खड़ा हो गया। उन्होंने उस बूढ़े को धन्यवाद दिया और कहा, बहुत-बहुत धन्यवाद। मालूम होता है, आप ऊंटों के संबंध में बहुत बड़े जानकार हैं। उस बूढ़े ने कहा, क्षमा करना! ऊंटों से मेरी कोई पहचान नहीं है। आदमियों के संबंध में जरूर मैं बहुत कुछ जानता हूं। फिर मैंने सोचा कि जब आदमी तक झूठी खूंटियों और रस्सियों से बंध जाता है, तो बेचारा ऊंट, वह तो बंध ही सकता है।
इस कहानी से आज की मैं दूसरी चर्चा शुरू करना चाहता हूं। क्यों इस कहानी से शुरू करना चाहता हूं? क्योंकि आदमी का सारा जीवन, झूठी रस्सियों और झूठी खूंटियों से बंधा हुआ जीवन है। आदमी का सारा दुख, असत्य और कल्पना से बंधा हुआ दुख है। आदमी की सारी चिंता आदमी की अपनी ही कल्पना से निर्मित है। और आदमी ने इतनी झूठी खूंटियां और इतनी रस्सियां बांध रखी हैं कि आज वह झूठी रस्सियों और खूंटियों के अतिरिक्त उसका जीवन कुछ भी नहीं रह गया।
कल मैंने आपसे कहा था कि मनुष्य अपने को व्यर्थ की चीजों से भर लेता है। मैं किस चीज को व्यर्थ कहता हूं? मैं किस चीज को कूड़ा-कर्कट कहता हूं? असत्य को मैं कूड़ा-कर्कट कहता हूं, व्यर्थ कहता हूं। और हम सबने असत्य से अपने को भर लिया है।
हम भर सके हैं अपने को असत्य से--एक तरकीब के द्वारा, एक सीक्रेट, एक राज! वह ऊंट बंध सका झूठी खूंटी से, क्यों? उसने अपने तरफ से उस खूंटी को सत्य ही मान लिया, इसलिए। ऊंट तो सत्य खूंटी से ही बंधा अपनी तरफ से, उसने असत्य को भी सत्य स्वीकार कर लिया, जो नहीं था उसे भी मान लिया कि है, इसलिए बंध सका। अगर ऊंट आंख खोल कर देखता कि खूंटी नहीं है, तो बंधना असंभव था।
हम भी जिन असत्यों से बंध जाते हैं और जिस कूड़े-कर्कट को अपने सिर पर ढोते हैं, उसे हम कूड़ा-कर्कट नहीं समझते हैं और असत्य भी नहीं समझते हैं। अगर हमें दिखाई पड़ जाए कि वह असत्य है, मिथ्या है, झूठ है, तो शायद हम तत्क्षण उसे छोड़ दें और उसके बाहर हो जाएं। असत्य दिखाई पड़ते ही व्यर्थ हो जाता है और आदमी उससे मुक्त हो जाता है। असत्य को छोड़ने के लिए और कुछ भी नहीं करना पड़ता सिवाय इसके कि हम जान लें कि वह असत्य है। असत्य को असत्य की तरह जान लेना ही असत्य से मुक्त हो जाना है। काश! उस ऊंट को पता चल जाता कि खूंटी नहीं है, तो रात भर वह मुक्त था। लेकिन नहीं; उसे ख्याल था कि खूंटी है।
आदमी भी ऐसी ही व्यर्थता, असार, असत्य से बंधा है, जिसे वह समझता है सार है, सत्य है, संपदा है। कोई कचरे को नहीं ढोता, जब तक उसे संपदा का ख्याल न हो।
हमने किन-किन असत्यों से अपने जीवन को भर लिया है?
तीन असत्यों के संबंध में मैं आपसे बात करना चाहता हूं। और जो मनुष्य उन तीन असत्यों के आस-पास घूमता है, उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है। असत्य के पास सार्थकता कैसे उपलब्ध होगी? जो नहीं है, उससे जीवन का अनुभव कैसे आएगा? जो स्वप्न है, उससे सत्य की उपलब्धि कैसे होगी?
कौन से तीन असत्य हैं, जिनके आस-पास आदमी घूमता है, भटकता है और नष्ट हो जाता है?
पहला असत्यः मनुष्य का अहंकार पहला असत्य है। हम सब एक अजीब सी खूंटी के पास बंधे हुए हैंः ‘मैं’ की खूंटी, ईगो, अहंकार। और इस मैं की खूंटी के आस-पास ही जीते हैं पूरे जीवन, इसी के आस-पास समाप्त कर देते हैं। और हमें ख्याल भी नहीं आता कि जिसके आस-पास हम सारे जीवन को समर्पित कर रहे हैं, वह है भी?
एक सुबह, एक सम्राट रात जंगल में शिकार खेलने निकला था। राह भटक गई, मार्ग खो गया, सुबह-सुबह वह एक गांव में पहुंचा। एक छोटे से झोपड़े के सामने उसने अपने घोड़े को रोका। वह थका था, भूखा-प्यासा था। और उसने उस झोपड़े के मालिक से पूछा कि क्या मुझे थोड़ा सा दूध या थोड़े से अंडे मिल सकते हैं? मैं बहुत भूखा और थका हूं। वह बूढ़ा मालिक तीन अंडे लेकर बाहर आया, थोड़ा दूध। उस सम्राट ने सुबह का नाश्ता किया। और फिर उस बूढ़े को पूछा कि कितने दाम हुए? उस बूढ़े ने कहा, ज्यादा नहीं, सिर्फ सौ रुपये। सम्राट ने बहुत महंगी चीजें खरीदी थीं जीवन में, लेकिन तीन अंडों के दाम सौ रुपये हो सकते हैं। हैरान हो गया! उसने कहा, मजाक करते हैं! आर एग्स सो रेयर हियर? क्या अंडे मिलना इतने मुश्किल हैं यहां? उस बूढ़े ने कहा कि नहीं, एग्स आर नाट रेयर सर, बट किंग्स आर! अंडे मिलना तो मुश्किल नहीं; लेकिन राजा बहुत मुश्किल से मिलते हैं। सम्राट ने सौ रुपये निकाल कर उसे दे दिए।
उस बूढ़े की पत्नी बहुत हैरान हो गई यह देख कर कि तीन अंडों के दाम सौ रुपये प्राप्त किए जा सकते हैं! उसने अपने पति को कहा कि तुमने क्या जादू किया? सौ रुपये तीन अंडों के! तीन पैसे कोई मुश्किल से देता है। कौन सी तरकीब से तुमने सौ रुपये निकाल लिए? उस बूढ़े ने कहा, मैं आदमी की कमजोरी जानता हूं। कमजोरी को छू दो और कुछ भी निकाल लो।
उस बुढ़िया ने कहा, मैं समझी नहीं कि आदमी की कमजोरी क्या है?
उस बूढ़े ने कहा, तुझे मैं अपने जीवन की एक और घटना बताता हूं। उससे तुझे शायद ख्याल आ सके कि आदमी की कमजोरी क्या है, ह्यूमन वीकनेस क्या है। उसी कमजोरी के आस-पास आदमी जीता और मरता है।
उस बूढ़े ने कहा, जब मैं जवान था और धन की खोज में निकला, लेकिन मेरे पास सिर्फ पांच रुपये थे। और पांच रुपयों से कहां धन कमाया जा सकता था! सिवाय इसके कि आदमी की कमजोरी का शोषण किया जाए। मैंने एक पांच रुपये की पगड़ी खरीदी, और एक बहुत बड़े सम्राट के दरबार में गया। पगड़ी बहुत रंगीन थी। जैसी कि सभी चीजें बहुत रंगीन और चमकदार होती हैं। असल में सस्तेपन को छिपाने के लिए चमक और रंग देना जरूरी हो जाता है। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह अत्यंत सीधा-सादा होता है। जीवन में जो व्यर्थ है, बहुत चमकदार, बहुत रंगीन होता है।
उसने चमकदार रंगीन पगड़ी खरीदी और सम्राट के दरबार में मौजूद हो गया। सम्राट ने जैसे ही देखा, वह पगड़ी इतनी रौनक से भरी थी कि स्वभावतः उसने पूछा कि इस पगड़ी के दाम क्या हैं? उस बूढ़े ने कहा, इस पगड़ी के दाम मत पूछिए, शायद आप विश्वास न कर सकें। सम्राट ने कहा, फिर भी, क्या दाम हैं इस पगड़ी के? तुम घबड़ाओ मत, तुम जिसके सामने खड़े हो, तुएहें पता नहीं वह कौन है। उसकी तिजोरियों में अकूत खजाने भरे हैं। तुम बोलो कि कितने हैं दाम? उस बूढ़े ने कहा, दाम? दस हजार रुपये! सम्राट हंसने लगा, बूढ़ा पागल मालूम होता है।
लेकिन तभी वजीर झुका सम्राट के कान में कुछ कहने को। उस बूढ़े ने अपनी पत्नी को बताया कि मैं फौरन समझ गया कि वजीर क्या कह रहा है। क्योंकि जो लोग किसी को लूटते रहते हैं, वे दूसरे लूटने वाले को बीच में आना पसंद नहीं करते। वजीर क्या कह रहा है, मैं समझ गया। और मैंने तभी जोर से कहा, तो मैं जाऊं? मैंने जिस आदमी से यह पगड़ी खरीदी है, उसने कहा है कि तू घबड़ा मत! इस पृथ्वी पर अब भी एक ऐसा सम्राट है जो इसके दस हजार रुपये दे सकता है। मैं उसी सम्राट की खोज में निकला हूं। क्षमा करें, मैं गलत जगह आ गया मालूम होता है। यह वह दरबार नहीं, यह वह सम्राट नहीं।
उस सम्राट ने कहा कि पगड़ी खरीद ली जाए, और दस हजार में नहीं, पंद्रह हजार में। और पगड़ी खरीद ली गई।
उस बूढ़े ने अपनी पत्नी को कहा, तू समझी, आदमी की कमजोरी क्या है?
आदमी की कमजोरी अहंकार है। और सबसे बड़ी कमजोरी है, क्योंकि सबसे असत्य भी वही है। जीवन भर हम इस कोशिश में जीते हैं कि मैं सिद्ध कर दूं कि मैं कुछ हूं। बिना इस बात को जाने कि मैं कौन हूं, मैं इस कोशिश में लगा रहता हूं कि मैं सिद्ध कर दूं कि मैं कोई हूं, कुछ हूं। किसी आदमी को धक्का लग जाए तो वह कहता है, जानते नहीं! अंधे हैं? जानते नहीं मैं कौन हूं! और आश्चर्य यह है कि शायद उसे खुद भी पता न हो कि वह कौन है। किसको पता है कि कौन कौन है?
लेकिन जीवन भर एक ही चेष्टा है मनुष्य की यह सिद्ध करने की कि मैं कुछ हूं--बिना इस बात को जाने कि मैं क्या हूं, बिना पहचाने कि कौन है मेरे भीतर। जीवन भर हम इस असत्य के आस-पास जीते हैं कि मैं हूं--कुछ विशिष्ट, समबडी, कोई खास। और जीवन भर एक ही चेष्टा होती है कि मैं पत्थरों पर हस्ताक्षर कर दूं, ताकि जीवन कभी मुझे भूल न सके। छोटे बच्चे जाकर समुद्र के किनारे रेत पर हस्ताक्षर करते हैं, तो बूढ़े उन्हें समझाते हैं कि पागलो, रेत पर हस्ताक्षर करने से क्या फायदा? हवाएं आएंगी और रेत उड़ जाएगी और हस्ताक्षर मिट जाएंगे। लेकिन बूढ़े भी चट्टानों पर हस्ताक्षर करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करते। और बड़ा आश्चर्य यह है कि शायद उन्हें पता नहीं कि जिसे वे रेत कह रहे हैं, वह कभी चट्टान थी। और जिसे वे चट्टान कह रहे हैं, वह कभी रेत हो जाएगी। मजबूत से मजबूत चट्टान पर खोदे गए नाम भी रेत पर लिखे गए नामों से ज्यादा नहीं हैं; क्योंकि चट्टान रेत के जोड़ से ज्यादा नहीं है, और रेत चट्टान की टूटी हुई हालत है।
लेकिन आदमी इसी कोशिश में जीता है कि मैं हस्ताक्षर कर दूं। किसके लिए? किसको दिखलाना चाहते हैं? सारे जीवन को मिटा कर यह बात सिद्ध कर देना चाहते हैं कि मैं कुछ हूं। लेकिन किसके सामने और किसलिए और किस प्रयोजन से? और कभी पीछे घूम कर कोई नहीं सोचता कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं से ज्यादा असत्य, झूठ, फाल्स एनटाइटी और कोई हो ही नहीं!
लेकिन हमने झूठों को ऐसा सत्य मान रखा है... एक बच्चा पैदा होता है, और हम उसका एक नाम रख देते हैं--राम, कृष्ण या कुछ और। कोई आदमी नाम लेकर पैदा नहीं होता, सब आदमी बिना नाम के पैदा होते हैं। नाम बिल्कुल असत्य है। लेकिन हमने एक दफा नाम दे दिया किसी को--राम! वह जीवन भर यही मान कर जीता है कि मैं राम हूं।
नाम बिल्कुल झूठा है, चिपकाया हुआ है। आदमी अनाम है। लेकिन अगर उसके नाम को आप गाली दे दें, तो वह मरने-मारने को तैयार हो जाएगा; जो बिल्कुल झूठ है, उसके लिए जान लेने को और देने को तैयार हो जाएगा। अगर उसके नाम की प्रशंसा करें, वह फूल कर आकाश में खिल जाएगा। वह नाम जिससे कोई संबंध नहीं है।
दुनिया हमें बुला सके इसलिए हम नाम को जोड़ देते हैं। और हम खुद अपने को बुला सकें इसलिए हम अपने को मैं कहना शुरू कर देते हैं। मैं भी स्वयं को पुकारने के लिए दिया गया नाम, संज्ञा से ज्यादा नहीं है। मैं की कोई असलियत नहीं, कोई सत्य नहीं। मैं का कोई आधार, कोई भूमि, मैं की कोई बुनियाद, मैं का कोई सत्य, कुछ भी नहीं है। दूसरे बुला सकें इसलिए नाम है, और मैं खुद को बुला सकूं, इसलिए मैं! मैं एक संज्ञा मात्र है। लेकिन हमारे जीवन में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण वही है।
एक छोटी सी घटना से मैं समझाने की कोशिश करूं। एक राजमहल के पास पत्थरों का एक ढेर लगा हुआ था। कुछ बच्चे वहां से खेलते निकले और एक बच्चे ने एक पत्थर उठा कर महल की तरफ फेंक दिया। पत्थरों का ढेर नीचे था, एक पत्थर आकाश की तरफ उठने लगा। पत्थरों के मन में भी इच्छा होती है कि हम आकाश की यात्रा करें। जहां भी अहंकार है, वहीं आकाश की यात्रा का मन पैदा होता है। जब पत्थर ऊपर उठने लगा, तो वह खुशी से भर गया। और अहंकार से और उसने नीचे पड़े पत्थरों से कहा, दोस्तो, मैं आकाश की यात्रा को जा रहा हूं।
उसके शब्दों को थोड़ा ध्यान दे लेना! उसने कहा कि मैं आकाश की यात्रा को जा रहा हूं। उसे फेंका गया था। लेकिन वह कहने लगा, मैं जा रहा हूं। असलियत यह न थी, वह पत्थर जा नहीं रहा था, फेंका गया था--किसी अनजान बच्चे के हाथ ने उसे फेंका था। लेकिन उसने कहा, मैं जा रहा हूं।
इन दोनों बातों में थोड़ा ही फर्क मालूम पड़ता है। मैं फेंका गया हूं, मैं जा रहा हूं, ये दोनों बातें एक सी मालूम पड़ती हैं। अंतर थोड़ा है, लेकिन अंतर बहुत बड़ा है--उतना ही अंतर जितना निर-अहंकार में और अहंकार में है। अहंकार पैदा हो गया। जब मैं जा रहा हूं, जब जाना मैं कर रहा हूं, तो फिर मैं कुछ विशिष्ट हो गया। जो पत्थर नहीं जा पा रहे हैं आकाश की तरफ, वे व्यर्थ हो गए, ना-कुछ हो गए। मैं कुछ हो गया, समबडी पैदा हो गया। बाकी जो नीचे पड़े हैं वे नो-बडी हैं, वे आकाश में नहीं उड़ सकते, उनके पास पंख नहीं; मैं उड़ रहा हूं, मैं साधारण नहीं, असामान्य हो गया, विशिष्ट हो गया।
वह पत्थर ऊपर उठा। नीचे के पत्थर ईर्ष्या से जल गए। लेकिन इनकार करना भी असंभव था, वह पत्थर जा ही रहा था। यह भी कहना मुश्किल था कि तुम झूठ बोलते हो, तथ्य गवाही था कि वह जा रहा है। फिर वह पत्थर ऊपर उठा और महल की कांच की खिड़की से टकराया। टकराते ही कांच चकनाचूर हो गया। जब पत्थर कांच से टकराता है तो कांच चकनाचूर हो जाता है, इट जस्ट हैपेन्स। पत्थर कांच को चकनाचूर करता नहीं; यह कांच का स्वभाव है, यह पत्थर का स्वभाव है। दोनों टकराते हैं, कांच चकनाचूर हो जाता है। लेकिन जब कांच चकनाचूर हो गया तो उस पत्थर ने हंस कर कहा, मूर्ख! जानता नहीं, मेरे रास्ते में जो आता है मैं चकनाचूर कर देता हूं!
कांच चकनाचूर हो गया था, पत्थर ने किया नहीं था। उसे कुछ भी नहीं करना पड़ा था कांच को चकनाचूर करने में, उसे जरा भी हाथ-पैर नहीं हिलाने पड़े थे। कांच बस चकनाचूर हो गया था। वह कांच का जैसा होना है, उसका जैसा स्वभाव है, वह टकरा कर टूट गया था। उसे पत्थर ने तोड़ा नहीं था। लेकिन पत्थर ने कहा, मैं चकनाचूर कर देता हूं!
अहंकार इसी भाषा में बोलता है। मेरे बीच में कोई न आए, अन्यथा चकनाचूर कर दूंगा! कांच के टुकड़े रोते रह गए होंगे। वे कुछ कहना भी चाहते थे, लेकिन कहने की कोई गुंजाइश न थी। झूठ भी न थी यह बात, कांच टूट ही गया था। किस मुंह से कहता कि तुम गलत कहते हो।
पत्थर जाकर महल के ईरानी कालीन पर गिरा, बहुमूल्य कालीन बिछा था महल में। पत्थर ने राहत की सांस ली और कहा, मालूम होता है इस घर के लोग बड़े समझदार हैं। मेरे आने की खबर दिखता है पहले से ही पता चल गई, कालीन वगैरह सब बिछा रखे हैं।
घर के लोगों को पता भी नहीं होगा कि एक पत्थर मेहमान बनने वाला है। वे ईरानी कालीन किसी पत्थर की प्रतीक्षा में नहीं बिछाए गए थे। लेकिन पत्थर ने कहा--और पत्थर को कौन इनकार करता, वहां कोई था ही नहीं--पत्थर ने अपने मन में कहा, निश्चित ही घर के लोगों को पता चल गया है कि मैं आता हूं। फिर क्यों न हो, मैं कोई साधारण पत्थर नहीं, आकाश में उड़ने वाला पत्थर हूं। स्वाभाविक है कि वे मेरे स्वागत की व्यवस्था करें।
और तभी महल के पहरेदार ने सुना होगा कि कांच टूटा है, पत्थर आया है, आवाज हुई है, वह भागा हुआ भीतर आया, उसने पत्थर को हाथ में उठाया। पत्थर ने अपनी भाषा में कहा, धन्यवाद, बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। प्रतीत होता है महल का मालिक अपने हाथ में लेकर सएमान प्रकट कर रहा है। वह पहरेदार फेंकने को था पत्थर को, लेकिन पत्थर ने कहा कि मालूम होता है मालिक सएमान प्रकट कर रहा है।
अहंकार अपने भीतर ही सोचता है और जीता है, अपने भीतर ही पुष्ट करता है अपने को और बलिष्ठ होता चला जाता है। वह भीतर ही चलने वाली प्रक्रिया है जो धीरे-धीरे अपने आप को मजबूत करती चली जाती है। वह पत्थर अपने अहंकार को मजबूत करता चला जा रहा है। सब तथ्य उसके पोषण बनते जा रहे हैं--जिन तथ्यों का उसके अहंकार से कोई भी संबंध नहीं, कोई दूर का भी नाता नहीं।
पहरेदार ने पत्थर को उठा कर वापस फेंक दिया। लेकिन पत्थर ने यह नहीं कहा कि मुझे महल से वापस फेंका जा रहा है। जब भी कोई महल से वापस फेंका जाता है, कोई कभी कहता है कि मैं महल से वापस फेंका गया? वह कहता है, मैंने महल का त्याग कर दिया। दिल्ली से किसी को फेंक देते हैं भावनगर की तरफ, वह यह कहता है कि मैं दिल्ली से फेंक दिया गया? वह कहता है कि मुझे घर की बहुत याद आती थी, भावनगर बहुत अच्छा लगता है।
उस पत्थर ने भी अपने मन में कहा कि बहुत रह चुका महल में, सएहालो अपने महल! मुझे होम सिकनेस मालूम होती है, मैं घर जाना चाहता हूं। मुझे पत्थरों की याद आती है, मुझे घर की याद आती है, मुझे मित्रों की याद आती है। रखो अपने महल! होंगे तुएहारे महल अच्छे! लेकिन वह बात ही और है। खुले आकाश के नीचे, चांद-तारों के नीचे जीना, वह मजा ही और है। मैं वापस जाता हूं।
पत्थर फेंका जा रहा था, लेकिन उसने कहा, मैं वापस जा रहा हूं। वह जब अपनी ढेरी पर वापस गिरने लगा तो नीचे के पत्थर टकटकी लगाए देख रहे थे। उस पत्थर ने आते ही और गिरते ही कहा, दोस्तो, तुएहारी बहुत याद आती थी। बड़े-बड़े महलों में समारंभ-स्वागत हुए, बड़े-बड़े सम्राटों ने हाथ से उठा कर सएमान और आदर दिया। लेकिन नहीं, घर की याद इतनी सताती थी कि मेरा मन हुआ कि वापस लौट चलूं। मैं वापस आ गया हूं, तुम सब का बहुत स्मरण आता था। पत्थरों ने फूलमालाएं पहनाई होंगी, सएमान किया होगा और कहा होगा उस पत्थर को कि तुम हमारे बीच अवतारी पत्थर हो, महापुरुष हो, महात्मा हो, हम धन्यभाग हुए कि तुम हमारे बीच पैदा हुए। हमारी पीढ़ियां कृतकृत्य हो गईं। तुम अपनी आत्मकथा, आटोबायोग्राफी जरूर लिखो, ताकि बच्चों के काम आ सके, वे पढ़ें और तुएहारे जीवन से सीखें।
मैंने सुना है, वह पत्थर अपनी आत्मकथा लिख रहा है।
अहंकार सारे जीवन को अपनी यात्रा बना लेता है। हम अपने से पूछें कि क्या हमारे मैं की जन्म की शुरुआत उस पत्थर की यात्रा से बहुत भिन्न है? कहते हैं हम--मेरा जन्म! आपसे किसी ने पूछा था कि आप जन्म लेना चाहते हैं? आपसे किसी ने पूछा था कि कहां जन्म लेना चाहते हैं? आपकी कोई च्वाइस, आपका कोई चुनाव है? आपसे जन्म के पहले कोई निर्णय लिया गया है, जो आप कहते हैं मेरा जन्म! कोई अज्ञात हाथ फेंक देता है और हम कहते हैं--मेरा जन्म! कोई अज्ञात शक्ति फेंक देती है, और हम कहते हैं--मेरा जन्म!
हवाओं की अज्ञात लहरें समुद्र में लहरें उठा देती हैं। शायद लहरें भी कहती होंगी--मेरा जन्म! जीवन की अज्ञात शक्तियां मिट्टी को खड्ड बना देती हैं, पहाड़ उठा देती हैं। पहाड़ भी कहते होंगे--मेरा जन्म! अज्ञात शक्तियां बीज को तोड़ कर अंकुर बना देती हैं। वृक्ष भी कहते होंगे--मेरा जन्म! आदमी भी अज्ञात शक्तियों के हाथ से पैदा होता है। मेरे जन्म की कोई जरूरत नहीं है, मेरे जन्म का कोई सवाल नहीं है। सागर में जैसे लहरें हैं, वैसे मैं हूं, वैसे आप हैं। लहर उठती है और गिर जाती है। हम उठते हैं और मिट जाते हैं। एक अनंत शक्ति के सागर पर लहरों से ज्यादा नहीं हैं। लेकिन घोषणा हमारी यह है कि मैं हूं! मैं की घोषणा का अर्थ क्या होता है? मैं की घोषणा का अर्थ होता हैः पृथकता की घोषणा, भेद की घोषणा, सबसे अलग होने की घोषणा।
आप अलग हैं? क्षण भर को अलग हो सकते हैं? एक क्षण को जीवन से टूट कर जी सकते हैं? एक क्षण भी नहीं जी सकते। एक पत्ता जैसे वृक्ष से बंधा है, वृक्ष जैसे जड़ों से बंधा है, जड़ें जैसे बड़ी पृथ्वी से बंधी हैं, बड़ी पृथ्वी जैसे बड़े सूरज से बंधी है, और बड़ा सूरज जैसे और महासूर्यों से बंधा है, वैसे ही एक-एक आदमी भी बंधा है एक-एक पत्ते की तरह। एक क्षण को भी अलग होने की न संभावना है, न जीने की कोई संभावना है। फिर मैं की घोषणा की कहां संभावना है?
लेकिन हम कहते हैं, मेरा जन्म! हम कहते हैं, मेरा बचपन! हम कहते हैं, मेरी जवानी! जैसे हमने कोशिश करके बचपन को जवानी बना लिया हो। जैसे हमारा कोई प्रयास हो, हमारा कोई प्रयत्न हो, जैसे हमारा कोई संकल्प हो कि मैं जवान बनना चाहता हूं इसलिए जवान बन गया हूं। बचपन वैसे ही जवानी बन जाता है जैसे कली फूल बन जाती है। आपका क्या है, मेरा क्या है? जवानी वैसे ही बुढ़ापा बन जाती है, जैसे बीज अंकुर बन जाता है। मेरा क्या है, आपका क्या है? मेरे मैं की घोषणा के लिए कौन सी जगह है, कौन सा अर्थ है, कौन सा प्रयोजन है?
लेकिन हम तो ऐसे हैं कि हम तो श्वास तक को कहते हैं कि मैं श्वास ले रहा हूं। शायद ही कभी आपने सोचा होगा कि आज तक दुनिया में कभी किसी ने श्वास नहीं ली है। श्वास आती है, जाती है, इट जस्ट हैपेन्स, आप श्वास लेते नहीं। अगर आप श्वास लेते हों तब तो मरना मुश्किल हो जाएगा। मौत दरवाजे पर खड़ी है और आप श्वास लेते ही चले गए तो मौत को वापस लौट जाना पड़ेगा। लेकिन हम भलीभांति जानते हैं कि जो श्वास बाहर रह गई और अगर भीतर न आई, तो हमारी कोई सामर्थ्य नहीं कि हम उसे भीतर बुला लें। सच तो यह है कि श्वास के बाहर होते ही हम भी बाहर हो जाएंगे, उसे बुलाने के लिए हम भीतर शेष भी नहीं होंगे। श्वास हम नहीं ले रहे हैं; लेकिन अहंकार कहता है, मैं श्वास ले रहा हूं, मैं जी रहा हूं। और इस भांति एक झूठी इकाई को हम मजबूत किए चले जाते हैं, मजबूत किए चले जाते हैं।
इस अहंकार के असत्य से जो अपने जीवन के भवन को भर लेता है, वह प्रभु के सत्य से वंचित रह जाता है। यह पहली खूंटी है और सबसे मजबूत खूंटी है। इस खूंटी के न होने को समझ लेना जरूरी है, इस खूंटी के असत्य को समझ लेना जरूरी है। इस खूंटी की जो फाल्सिटी है, वह जो मिथ्यात्व है, वह समझ लेना जरूरी है। और यह समझ में आ जाए कि मैं एक झूठी इकाई है, तो तत्क्षण जीवन अनंत की ओर उन्मुख हो जाता है। व्यर्थ से हट कर सार्थक की खोज में संलग्न हो जाता है। यह पहली खूंटी है, यह पहली व्यर्थता है, यह पहला कूड़ा-कर्कट का ढेर है, जो आदमी इकट्ठा करता है, मेहनत करता है इसी ढेर को इकट्ठा करने को। फिर इसी की दुर्गंध से पीड़ित और परेशान होता है, फिर दुखी और चिंतित होता है। फिर पूछता फिरता है कि मैं दुख से कैसे बचूं? मैं चिंता से कैसे बचूं? मैं परेशान हूं, मैं अशांत हूं! और कभी नहीं पूछता कि यह परेशानी, यह अशांति और यह चिंता मेरे अहंकार के अतिरिक्त और कहां से पैदा होती है!
क्या आप कह सकते हैं कि जिस आदमी के पास अहंकार नहीं है, वह भी अशांत हो सकता है? क्या आप जानते हैं कि जिस आदमी के पास अहंकार नहीं है वह भी चिंतित हो सकता है? क्या आप जानते हैं, जिसके पास अहंकार नहीं है वह भी मृत्यु से भयभीत हो सकता है? चिंता, भय, संताप, सब अहंकार की बाइ-प्रोडक्ट्स, अहंकार की उत्पत्तियां हैं, उसकी छायाएं हैं। अहंकार से जो मुक्त नहीं, वह जीवन के दुख और अंधकार से मुक्त नहीं हो सकता है।
दूसरी खूंटी क्या है? दूसरी खूंटी भी बहुत अदभुत है। वह अहंकार से ठीक उलटी खूंटी है। वह अहंकार से ठीक उलटी खूंटी है, उसे पहचानना और भी कठिन है। अहंकार बहुत ग्रॉस, बहुत स्थूल है। अहंकार से एक उलटी खूंटी भी हैः निर-अहंकार। वह खूंटी अहंकार से भी ज्यादा बारीक और सूक्ष्म है। अगर कोई आदमी अहंकार से बचने की कोशिश करता है तो वह एक निर-अहंकार की धारणा को पकड़ लेता है। वह इस बात की घोषणा करने लगता है कि मैं तो कुछ भी नहीं हूं, मैं तो विनम्र हूं, मैं तो ना-कुछ हूं, मैं तो आपके पैरों की धूल हूं, मैं तो कुछ भी नहीं हूं। उसे ख्याल नहीं आता कि जब हम इस बात की घोषणा करते हैं कि मैं कुछ भी नहीं हूं, तब भी मैं की ही घोषणा प्रतिध्वनित होती है; तब भी हम सूक्ष्मतम तलों पर यह कह रहे हैं कि मैं हूं; तब भी हम कह रहे हैं कि मैं विनम्र हूं, मैं पैरों की धूल हूं, मैं ना-कुछ हूं। अहंकार से जो लोग भागते हैं वे निर-अहंकार का एक अदभुत केंद्र खड़ा करना शुरू कर देते हैं।
एक संन्यासी के पास मैं कुछ दिनों तक था। वहां मुझे कहा कि मेहमान हो जाऊं उनके आश्रम में, तो मैं मेहमान हो गया। कभी वे बहुत बड़े समृद्ध और धनी व्यक्ति थे। वे मुझसे कभी भी बात करते, थोड़ी-बहुत बात के बाद यह बात जरूर निकल आती किसी भी बहाने से, किसी भी खूंटी पर वे यह बात जरूर टांग देते कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी है। एक बार, दो बार, दस बार मैंने उनको सुना होगा यह कहते कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी है। फिर जिस दिन मैं बिदा होने लगा तब भी वे यही कह रहे थे कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी है। मैंने उनसे पूछा, अगर आप नाराज न हों...
और संन्यासियों से पूछ लेना बहुत जरूरी है कि कहीं आप नाराज तो नहीं हो जाएंगे, क्योंकि संन्यासी जितने क्रोध से भरे होते हैं उतने सामान्य लोग क्रोध से भरे हुए नहीं होते। मैंने उनसे पूछा, आप कहीं नाराज तो नहीं हो जाएंगे, एक बात मुझे पूछनी है।
नाराज तो वे तभी हो गए। उन्होंने कहा, पूछिए क्या पूछना है! मैंने उनसे कहा, मैं यह पूछना चाहता हूं, यह लात जो आप कहते हैं लाखों रुपयों पर मारी, यह आपने कब मारी थी? उन्होंने कहा, कोई तीस साल हो गए। मैंने कहा, मैं यह कहने में परेशान हो रहा हूं और इसी से डर रहा हूं कि आप नाराज न हो जाएं। मैं यह कहना चाहता हूं, यह लात ठीक से लग नहीं पाई, अन्यथा तीस साल तक उसे याद रखने की कोई भी जरूरत न थी। तीस साल से इस बात को क्यों ढोए चले जा रहे हैं कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी है। लाखों रुपये आपके पास रहे होंगे तो यह अहंकार रहा होगा कि मेरे पास लाखों रुपये हैं। फिर जब उनको छोड़ा तो एक नया और सूक्ष्म और विपरीत अहंकार पैदा हो गया कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मारी। मैंने! वे लाखों रुपये मेरे पास थे--यह स्थूल अहंकार था; यह सब को दिखाई पड़ सकता था। लेकिन मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी है, यह बहुत सूक्ष्म अहंकार है; यह विनम्रता की शक्ल लेकर खड़ा हो गया है, यह त्याग के वस्त्रों को पहन कर खड़ा हो गया है। इसे देखना बहुत मुश्किल है। दूसरे तो देख ही नहीं पाएंगे, खुद भी देखना मुश्किल है।
त्यागी को उतनी ही धन की पकड़ होती है जितनी धनी को; धनी इकट्ठा करता है, त्यागी छोड़ता है, लेकिन दोनों की आंख धन पर ही अटकी रहती है, धन पर ही अटकी रहती है।
मैं जयपुर में था। कुछ मित्र मेरे पास आए और उन्होंने कहा, एक बहुत बड़े मुनि हैं, आप उनसे नहीं मिले? मैंने उनसे कहा कि जरूर मिलूंगा, लेकिन एक बात पूछना चाहता हूं कि वे बहुत बड़े मुनि हैं, यह तुएहें कैसे पता चला? किस तराजू से तुमने तौला? तुएहें पता कैसे चल गया कि बहुत बड़े मुनि हैं? उन्होंने कहा, इसमें क्या पता चलने की बात है, खुद जयपुर महाराज उनके चरण छूते हैं! तो मैंने उनसे कहा, इज्जत तुएहारे मन में जयपुर महाराज की है या मुनि की? तौलने का मापदंड क्या है? क्राइटेरियन क्या है?
क्राइटेरियन है कि जयपुर के महाराज उनके चरण छूते हैं। क्राइटेरियन धन है। त्याग को भी तौलने का रास्ता धन है। यही तो वजह है कि हिंदुस्तान में अगर आप देखें, हिंदुओं के भगवान राजाओं के पुत्र, जैनियों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के पुत्र, बुद्ध के चौबीस अवतार राजाओं के अवतार। आज तक हिंदुस्तान में एक गरीब आदमी परम संन्यास के लिए उपलब्ध होने की हैसियत नहीं कमा पाया है। क्यों?
इसलिए नहीं कि गरीब आदमी संन्यासी नहीं हो सकता है। लेकिन गरीब आदमी संन्यासी हो जाए तो उसे तौलने के लिए हमारे पास कोई मापदंड नहीं होता। उसको बड़ा संन्यासी कैसे कहा जाए, उसने कुछ छोड़ा ही नहीं! छोड़ता तो बड़ा हो सकता था। जितना बड़ा छोड़ता उतना बड़ा हो सकता था। संन्यास भी आखिर में तुलता है धन से! तो फिर वह संन्यास न रहा, वह धन की ही घूम कर प्रतिष्ठा हो गई।
विनम्रता भी घोषणा बनती है अहंकार की। अगर कोई आदमी किसी गांव में हो और कहता हो कि मैं तो बिल्कुल विनीत आदमी हूं, मेरे भीतर तो अहंकार है ही नहीं; और आप उससे कह दें कि एक आदमी को मैं जानता हूं, वह आपसे भी ज्यादा विनीत है; तो वह तत्काल दुखी हो जाता है। अपने से ज्यादा किसी को भी देख कर अहंकार दुखी होता है। एक संन्यासी को कह दें कि आप तो ठीक हैं, लेकिन फलां संन्यासी और भी बड़ा संन्यासी है। फिर संन्यासी दुखी हो जाता है। क्यों?
अगर अहंकार नहीं है तो दुख का कोई भी कारण शेष नहीं रहा। जहां अहंकार नहीं है, वहां तुलना और कंपेरिजन का ही कोई सवाल नहीं रहा। क्योंकि अहंकार है तभी तक तुलना हो सकती है--कि मैं किसी से छोटा हूं, मैं किसी से बड़ा हूं। जहां अहंकार नहीं है वहां आदमी अतुलनीय हो गया, इनकंपेरेबल हो गया। अब उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। जहां अहंकार है वहां हम यह भी कहते हैं कि मैं बड़ा हूं, वहां हम यह भी कह सकते हैं कि मैं छोटा हूं, लेकिन अहंकार की सीढ़ियां वही की वही हैं--चाहे नीचे से ऊपर की तरफ जाओ, चाहे ऊपर से नीचे की तरफ आओ। अहंकार तो उसी दिन छूटता है जिस दिन हमें यह ख्याल ही नहीं रह जाता कि मैं हूं भी--छोटा और बड़ा नहीं; महान और तुच्छ नहीं; अभिमानी और विनम्र नहीं--जहां मुझे यह ख्याल ही मिट जाता है कि मैं हूं भी। मेरे होने का बोध ही जहां विसर्जित हो जाता है वहां व्यक्ति कचरे से बच पाता है। अन्यथा हम उलटा कचरा पैदा कर लेते हैं।
हम उलटे ढंग से जीवन को बांधने में बड़े कुशल हो गए हैं। खाई से बचते हैं तो कुआं पकड़ लेते हैं, कुएं से बचते हैं तो खाई पकड़ लेते हैं। एक आदमी भोग से बचता है तो त्याग पकड़ लेता है--उतने ही जोर से जितने जोर से भोग को पकड़ा था। एक आदमी धन छोड़ता है तो निर्धनता को पकड़ लेता है--उतने ही जोर से जितने जोर से धन को पकड़ा था। लेकिन क्लिंगिंग, पकड़ उतनी ही कायम रहती है, पकड़ में कोई फर्क नहीं पड़ता है।
मैंने सुना है, एक बहुत बड़ा संन्यासी था। वह नग्न ही रहता। उसकी दूर-दूर देशों में ख्याति फैल गई। पृथ्वी के कोने-कोने तक उसके यश का गान होने लगा, उसके त्याग की चर्चा होने लगी। वह अत्यंत निस्पृह, अपरिग्रही, नग्न ही, एक वस्तु भी उसके पास नहीं, एक वस्त्र भी उसके पास नहीं। फिर वह अपने देश वापस लौटा, अपनी राजधानी वापस लौटा। जिस राजधानी का वह निवासी था, उस राजधानी का सम्राट उसका बचपन का मित्र था, वे दोनों एक ही साथ पाठशाला में पढ़े थे। सम्राट ने सोचा कि मेरा मित्र वापस लौटता है--यश, कीर्ति अर्जित करके; परम संन्यास को उपलब्ध करके; सब कुछ त्याग कर; तो मैं उसके स्वागत का इंतजाम करूं। उसने सारी राजधानी को सजाया, उसने सारी राजधानी को रौनक, रोशनी और खुशबू से भर दिया। जिस दिन संन्यासी आने को था उस दिन रास्तों पर फूल बिछाए गए; सारे गांव में दीये जलाए गए।
रास्ते में ही संन्यासी को कुछ यात्रियों ने कहा कि आपको पता है? आप राजधानी जा रहे हैं, लेकिन आपका जो बचपन का मित्र है, जो अब सम्राट है, वह अपनी धन-दौलत का दिखावा दिखाना चाहता है। उसने राजधानी को चमकाया है। राजधानी में रोशनी है, रास्तों पर फूल डाले हैं। वह आपको हतप्रभ करना चाहता है यह दिखा कर कि तुम क्या एक नंगे फकीर! देखो, मैंने क्या कर लिया है जीवन में! इतना धन, इतना वैभव, ऐसी स्वर्ण की राजधानी बसा दी है! तो वह तुएहें अपना स्वर्ण, अपना वैभव दिखा कर हतप्रभ करना चाहता है, हीन करना चाहता है। संन्यासी की आंखें क्रोध से भर गईं और उसने कहा, कोई फिकर नहीं, देख लेंगे कि वह क्या दिखाना चाहता है।
फिर दिन भी आ गया, सांझ आ गई और संन्यासी का आगमन हुआ। सम्राट नगर के द्वार पर उसके स्वागत को खड़ा है। सारा नगर करबद्ध प्रणाम करने को रास्तों के किनारे खड़ा है। लेकिन सम्राट हैरान हो गया! संन्यासी आया, सूखे दिन थे, वर्षा की कहीं कोई खबर न थी, कहीं पानी न पड़ा था, नंगे संन्यासी के पैर लेकिन घुटने तक कीचड़ से भरे थे। सम्राट हैरान हुआ! रास्ते सूखे हैं, धूल से भरे हैं, कीचड़ तो कहीं भी नहीं, घुटने तक कीचड़! लेकिन सबके सामने कुछ पूछना उचित न था। फिर राजमहल की सीढ़ियों पर बहुमूल्य कालीनों पर वह कीचड़ से भरे हुए पैरों से वह नंगा संन्यासी चला।
फिर जब वे दोनों कक्ष के भीतर अकेले रह गए तो सम्राट ने कहा--कुशलक्षेम पूछी और कहा--मैं बहुत दुखी हूं, मैं बहुत चिंतित हूं, मालूम होता है रास्ते में तकलीफ हुई है। लेकिन वर्षा के तो कोई आसार नहीं, आकाश में बदलियों का कोई पता नहीं, सड़कें सूखी पड़ी हैं, आपके पैर कीचड़ से कैसे भर गए? घुटने तक कीचड़ से?
उस संन्यासी ने कहा, तुम क्या समझते हो? अगर तुम अपनी दौलत को दिखाने के लिए बहुमूल्य कालीन सड़क पर बिछा सकते हो, तो हम भी संन्यासी हैं, हम नंगे पैर, कीचड़ से भरे पैर तुएहारी लाखों की चीजों पर चल सकते हैं!
वह सम्राट तो एकदम चौंक कर रह गया। उसने दौड़ कर संन्यासी को गले लगा लिया और कहा, मैं भूल में था, मैं सोचता था तुम बदल गए होओगे। लेकिन तुम वही के वही हो--जब मैंने तुएहें छोड़ा था बचपन में। वही अहंकार! वही कि हम संन्यासी हैं, हम नंगे पैर कीचड़ भरे पैर चल कर दिखा देंगे तुएहारे महल में। हम लात मारते हैं तुएहारी दौलत को। हम दो कौड़ी का समझते हैं तुएहारी दौलत को। क्या फर्क हुआ? कौन सा भेद हुआ? कौन सा अंतर हुआ? अहंकार ने नई गांठ पकड़ ली, नया रूप ले लिया--विनम्रता का, त्याग का, संन्यास का। लेकिन वह अपनी जगह मौजूद है। उसने जगह नहीं छोड़ी। उसने त्याग से ही अपने पोषण को पाना शुरू कर दिया।
तो मैं आपको कहना चाहता हूं, दो खतरनाक खूंटियों के बीच बचना है। अभिमान की खूंटी, विनम्रता की खूंटी, दोनों अहंकार की ही खूंटियां हैं। लेकिन पहले अहंकार की खूंटी से हम सारे लोग परिचित हैं, दूसरी खूंटी से हम बहुत अपरिचित हैं। इसीलिए जगत में ठीक-ठीक संन्यासी पैदा नहीं हो सके।
संन्यासी भी कहता है, मैं हिंदू हूं। संन्यासी भी कहता है, मैं मुसलमान हूं। संन्यासी भी कहता है, मैं जैन हूं। आश्चर्य की बात है! जिसका मैं ही खो गया अब उसके पास हिंदू, मुसलमान और जैन होने की कहां गुंजाइश है? अब वह किसके दावे कर रहा है कि मैं कौन हूं? संन्यासी भी दावा करता है कि मैं जगतगुरु हूं, मेरे इतने शिष्य हैं, मेरे इतने अनुयायी हैं। कौन दावा कर रहा है इन सारी बातों का?
ये सब दावे अहंकार के ही दावे हैं। विनम्रता की शक्ल में ये खड़े हो गए हैं। अक्सर भेड़िए भेड़ की खाल ओढ़ कर खड़े हो जाते हैं, लेकिन इससे उनके स्वभाव में कोई फर्क नहीं पड़ता है। अक्सर अहंकारी हाथ जोड़ कर विनम्र बन कर जनसेवक बन जाता है, लेकिन इससे कोई भेद नहीं पड़ता है।
दूसरी यह जो विनम्रता की झूठी खूंटी है, इससे मुक्त होना उतना ही जरूरी है जितना जरूरी अभिमान की खूंटी से मुक्त होना है। और इन दोनों खूंटियों से मुक्त होते ही आपके पास कोई मैं नहीं बच रहता। आप बच रहते हैं, लेकिन मैं नहीं बच रहता। और वह जो आप हैं--मैं से मुक्त--उसका नाम ही आत्मा है। जिस दिन मैं नहीं है, अहंकार नहीं है, उसी दिन आत्मा के द्वार खुल जाते हैं।
तीसरी खूंटी और आपको स्मरण दिलाना चाहता हूं। तीसरी खूंटी ज्ञान की खूंटी है, तीसरी खूंटी ज्ञान की खूंटी है। हम सारे लोग इस भांति चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, जीवन में ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे हम जानते हैं, आई नो, ऐसा कुछ ख्याल हम सबको है। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो कहे--मैं नहीं जानता हूं। हम सब जानते हुए मालूम पड़ते हैं। अगर मैं आपसे पूछूं, ईश्वर है? तो आप कहेंगे, हां, हम जानते हैं। कोई कहेगा कि ईश्वर नहीं है, मैं जानता हूं। कोई कहेगा, ईश्वर है, मैं जानता हूं। लेकिन शायद ही कोई कहे कि मुझे पता नहीं है, मैं नहीं जानता हूं, मैं अज्ञानी हूं। ज्ञान का कचरा हम इकट्ठा कर लेते हैं उधार--शास्त्रों से, किताबों से, सिद्धांतों से। उस कचरे को पकड़ कर बैठ जाते हैं और समझ लेते हैं कि यह संपदा हो गई ज्ञान की।
एक अनाथालय में मैं गया। वहां के संयोजकों ने कहा कि हम अपने बच्चों को धर्म की शिक्षा देते हैं। मैं बहुत हैरान हो गया! क्योंकि मेरी दृष्टि में, धर्म की साधना हो सकती है, शिक्षा नहीं। विज्ञान की शिक्षा हो सकती है, साइंस की शिक्षा हो सकती है, धर्म की कोई शिक्षा नहीं हो सकती। क्योंकि शिक्षा बाहर से दी जाती है, और जो भी बाहर से दिया जाता है वह भीतर जो छिपा है उसके प्रकट होने में बाधा हो जाता है। धर्म भीतर छिपा है, वह स्वभाव है, वह प्रत्येक के प्राणों का अंतर-निगूढ़ तत्व है, उसे बाहर से नहीं लाना है। बाहर से इसलिए कोई शिक्षा धर्म की नहीं हो सकती। फिर भी मैंने कहा, आप देते हैं तो आश्चर्य, मैं जरूर देखना चाहूंगा। वे अपने बच्चों के पास मुझे ले गए। सौ बच्चे थे। और उन्होंने बच्चों से पूछा कि ईश्वर है? उन बच्चों ने हाथ ऊपर उठा दिए कि हां, ईश्वर है।
वे हाथ बिल्कुल झूठे हाथ थे या कि सच? बूढ़ों को पता नहीं कि ईश्वर है, बच्चों को कैसे पता चल गया कि ईश्वर है!
वे बच्चों ने हाथ उठा दिए, सौ हाथ ऊपर उठ गए कि ईश्वर है। ये हाथ सच्चे नहीं हैं, ये हाथ बिल्कुल झूठे हैं। ये हाथ सिखाए हुए हाथ हैं, कल्टीवेटेड हैं। इन बच्चों को बताया गया है कि जब हम कहें--ईश्वर है? तब तुम हाथ ऊपर उठाना कि हां, ईश्वर है। बच्चे बेचारे भय के कारण हाथ ऊपर उठा रहे हैं कि ईश्वर है।
उनसे पूछा, आत्मा है? और उन्होंने हाथ उठा दिए कि आत्मा है। उनसे पूछा, आत्मा कहां है? उन्होंने अपने हृदय पर हाथ रख दिए कि यहां।
मैंने एक छोटे से बच्चे से पूछा कि क्या तुम बताओगे कि हृदय कहां है? उसने कहा, यह तो हमें बताया ही नहीं गया, जो बताया गया था वह हमने बता दिया है।
मैंने उन संयोजकों को कहा कि तुम इन बच्चों की हत्या कर रहे हो; इन बच्चों के जीवन में झूठ की पहली शिक्षा दे रहे हो; जो उन्हें ज्ञात नहीं है, तुम भ्रम पैदा कर रहे हो उन्हें कि उन्हें ज्ञात है; जिस संबंध में वे बिल्कुल अज्ञान में हैं, तुम उन्हें यह धोखा पैदा कर रहे हो कि वे जानते हैं। इससे बड़ा झूठ और कुछ भी नहीं हो सकता कि जिसे हम न जानते हों, उसे जानने का ख्याल पैदा हो जाए। सत्य की यात्रा में यह सबसे बड़ी बाधा हो जाती है। क्योंकि जब हमें यह ख्याल हो जाता है कि हम जानते ही हैं तो खोज बंद हो जाती है, इंक्वायरी बंद हो जाती है, जिज्ञासा समाप्त हो जाती है, यात्रा समाप्त हो जाती है।
अज्ञान का बोध हो तो यात्रा हो सकती है, ज्ञानी होने का ख्याल पैदा हो जाए तो फिर यात्रा की कोई जरूरत नहीं रह जाती। इसीलिए पंडित शायद ही कभी परमात्मा को उपलब्ध होते हों। पंडित बहुत कठिन है कि परमात्मा को उपलब्ध हो जाएं। मैं आपसे कहता हूं कि पापी भी परमात्मा को पा सकते हैं, लेकिन पंडित परमात्मा को नहीं पा सकते, क्योंकि पंडित को यह ख्याल है कि मैं जानता हूं।
मैंने उन संयोजकों को कहा कि ये बच्चे कल बड़े हो जाएंगे, बचपन के सिखाए हुए हाथ ये भूल जाएंगे कि सच है या झूठ; सिखाई गई बात इनके अनकांशस तक, इनके अचेतन तक बैठ जाएगी। ये कल बूढ़े हो जाएंगे। और जब भी जिंदगी में सवाल उठेगाः ईश्वर है? तो इनके हाथ मेकेनिकली, मशीनों की तरह ऊपर उठ जाएंगे और ये कहेंगे कि हां, ईश्वर है। ये ईश्वर के लिए मर सकेंगे, मार सकेंगे, मंदिर जला सकेंगे, मस्जिद में आग लगा सकेंगे। लेकिन ये ईश्वर को जानेंगे नहीं। वह झूठा हाथ हमेशा इनको भ्रम पैदा करेगा कि हम जानते हैं।
मैं आपसे पूछता हूं, आप जो भी जीवन-सत्य के संबंध में जानते हैं, वह जानते हैं या आपके भी हाथ बचपन में सिखाए गए हाथ हैं? एक-एक आदमी को अपने से पूछ लेना जरूरी है कि मेरा ज्ञान जाना हुआ है या सीखा हुआ? सीखा हुआ ज्ञान झूठा होता है। सीखे हुए ज्ञान का दो कौड़ी भी मूल्य नहीं है। सीखा हुआ ज्ञान मुक्ति के मार्ग पर साधक नहीं, बाधक है। पूछें अपने से कि क्या मैं जो जानता हूं वह जानता हूं? या कि मुझे कुछ लोगों ने कुछ बातें सिखा दी हैं?
हिंदुस्तान में आप पैदा हुए हैं, तो आपको सिखा दिया गया कि ईश्वर है। अगर आप रूस में पैदा होते, और वहां भी बीस करोड़ लोग हैं, वे वहां पैदा हुए हैं, उनको बचपन से सिखाया जा रहा है कि ईश्वर नहीं है। बीस करोड़ का मुल्क कहता है कि ईश्वर नहीं है, क्योंकि उसको सिखाया गया है कि ईश्वर नहीं है। आप कहते हैं कि ईश्वर है, आपको सिखाया गया है कि ईश्वर है। और आप समझते हों कि आप उनसे बेहतर हालत में हैं, तो आप गलती में हैं। हमारी और उनकी हालत बिल्कुल एक सी है। क्या सिखाया गया है, यह सवाल नहीं है; जो भी सिखाया गया है वह झूठा है, वह सिखाया हुआ सत्य कभी भी नहीं हो सकता। जाना हुआ नहीं है वह। न तो रूस का बच्चा जानता है कि ईश्वर नहीं है, न भारत का बच्चा जानता है कि ईश्वर है। लेकिन दोनों को प्रपोगेट किया जा रहा है, दोनों को सिखाई जा रही हैं बातें, पिलाई जा रही हैं बातें, कि सीखो कि यह है, यह है। जैन घर में बच्चा पैदा होता है तो एक तरह के विचार उसको सिखाएं जाते हैं, हिंदू घर में तो दूसरे तरह के, मुसलमान घर में तो तीसरे तरह के; आस्तिक के घर में तो एक तरह के, नास्तिक के घर में तो दूसरे तरह के; लेकिन सभी सिखाई गई बातें बाहर से आती हैं। और जीवन का जो वास्तविक अनुभव है वह भीतर से आता है, वह बाहर से नहीं आता। सारा तथाकथित ज्ञान, सो-काल्ड नालेज बाहर से आती है, इसलिए दो कौड़ी की है, कचरा है। भीतर से कुछ आता है, उसे हम आने ही नहीं देते। इस बाहर से आए हुए कचरे को हम इतना भर लेते हैं कि भीतर के झरने फूट नहीं पाते, सब तरफ से अवरुद्ध हो जाते हैं।
एक छोटी सी बात से समझाने की कोशिश करूं, इस तीसरी खूंटी को। एक आदमी कुआं खोदता है, एक दूसरा आदमी हौज बनाता है। हौज में भी पानी दिखाई पड़ता है, कुएं में भी पानी दिखाई पड़ता है। लेकिन दोनों में बुनियादी भेद है, पृथ्वी और आकाश जितना अंतर है। क्या अंतर है दोनों में? कुआं जब हम खोदते हैं तो कुआं खोदना पड़ता है नीचे की तरफ, गहराई में। हौज जब हम बनाते हैं, हौज उठानी पड़ती है ऊपर की तरफ, उथले की तरफ। हौज ऊपर की तरफ उठानी पड़ती है; कुआं नीचे की तरफ खोदना पड़ता है। उनकी दिशाएं भिन्न हैं।
कुएं में जो कंकड़-पत्थर, मिट्टी-चट्टानें हैं, उनको निकाल-निकाल कर बाहर फेंक देना पड़ता है। फिर पानी अपने आप प्रकट होता है, पानी को लाना नहीं पड़ता; सिर्फ बाधाएं हटानी पड़ती हैं, पानी आ जाता है। पानी हमेशा मौजूद है; बीच की मिट्टी की पर्तें तोड़ दें, और पानी प्रकट हो जाता है। कुएं में पानी लाकर भरना नहीं पड़ता, पानी आता है भीतर से, सिर्फ बीच की बाधाएं हटा देनी पड़ती हैं। मिट्टी, पत्थर, चट्टानें अलग कर देनी पड़ती हैं। हौज में? हौज में मिट्टी-पत्थर लाकर दीवाल जोड़नी पड़ती है; मिट्टी-पत्थर हटाना नहीं पड़ता, लाकर बनाना पड़ता है। फिर भी हौज बन कर तैयार हो जाती है, लेकिन खाली होती है, उसमें कोई पानी अपने आप नहीं आ जाता। फिर पानी भी उधार मांगना पड़ता है किसी कुएं से। उस उधार पानी को लाकर भरना पड़ता है। हौज के पास उधार पानी होता है, अपना नहीं।
पंडित हौज की तरह होता है, ज्ञानी कुएं की तरह। पंडित के पास सब उधार है, सब बासा, सब बारोड। ज्ञानी के पास कुछ अपना है, स्वयं से आया हुआ, खोदा हुआ, पाया हुआ। सिर्फ बाधाएं हटा दी हैं उसने और भीतर के प्राणों के केंद्र से ज्ञान की धाराएं बहनी शुरू हो गई हैं।
फिर कुएं और हौज में और भी भेद होते हैं। कुएं के पास जल के स्रोत होते हैं जो दूर सागर से जुड़े होते हैं। कुआं अपने में क्लोज्ड और बंद नहीं होता, कुआं खुला होता है सागर की तरफ, दूर अज्ञात झरने उसे अज्ञात सरोवरों से जोड़े रहते हैं। हौज? हौज क्लोज्ड और बंद होती है, उसका किसी से कोई संबंध नहीं होता। इसलिए हौज एक अहंकार बन जाती है। कुएं का अपना कोई अहंकार नहीं होता।
फिर कुआं हमेशा चिल्लाता रहता है कि मुझे उलीचो, खाली करो, मेरे पानी को ले जाओ, बांट लो। हौज दान के लिए कभी उत्सुक नहीं होती। हौज कहती है, लाओ, और लाओ, और मुझे भरते रहो। हौज संग्रह के लिए उत्सुक होती है, कुआं दान के लिए उत्सुक होता है। हौज अगर कहेगी कि मुझे बांट लो, तो हौज तो खत्म हो जाएगी, आत्महत्या होगी उसका दान, क्योंकि उसके पास अपना कुछ भी नहीं है। यह बड़े मजे की बात है, अपना कुछ हो, तो कितना ही बांटो, समाप्त नहीं होता। यही अपने होने का सबूत है। अपना कुछ न हो, तो बांटो तो खत्म हो जाता है। हौज अगर बांट दे तो खाली और रिक्त हो जाएगी। इसलिए हौज डरती है कि कोई पानी ले न जाए। पानी आ जाए, आ जाए, आ जाए। कुआं चिल्लाता है, मुझे उलीचो! क्योंकि कुआं जितना खाली होता है, उतने ही नये जल के स्रोत उसे ताजा और जवान कर देते हैं, वह उतना ही नये जल से भर जाता है।
पंडित संग्रह करता है ज्ञान का। ज्ञानी? ज्ञानी संग्रह नहीं करता। संग्रह से जो मिलता है वह पराया ही होगा। ज्ञानी अपने भीतर खोदता है और जो बंद है उसे मुक्त करता है, जो छिपा है उसे प्रकट करता है, जो गुप्त है उसे मुक्त आकाश की दिशा देता है। ज्ञानी के भीतर से कुछ बाहर की तरफ आता है, पंडित के बाहर से कुछ भीतर की तरफ जाता है।
और अंतिम रूप से मैं आपसे कहना चाहता हूं, कल मैंने कहा था, कुछ लोग अपने को कचरे से भर लेते हैं। कचरे की एक ही परिभाषा हैः जो बाहर से भीतर की तरफ आता है वह कचरा है; जो भीतर से बाहर की तरफ जाता है वह संपदा है। क्योंकि जो भीतर से बाहर की तरफ जाता है वह स्वरूप है, वह हमारा वास्तविक होना है, वह हमारी आथेंटिक बीइंग है, वह हमारी आत्मा है। और जो बाहर से भीतर की तरफ आता है वह उधार है, बासा है, मृत है।
इसलिए बाहर से अपने भीतर ज्ञान को मत भर लेना, वह झूठा ज्ञान है, वह तीसरी मिथ्या खूंटी है, उससे मुक्त होना। और उसकी प्रतीक्षा करना जो भीतर छिपा है और प्रकट हो। और जब तक वह भीतर का प्रकट न हो तब तक जानना कि आपने कुछ न कुछ बाहर का पकड़ रखा है, जिसके कारण वह प्रकट नहीं हो रहा है। जब तक वह प्रकट न हो तब तक जानना कि झरनों के द्वार पर कोई पत्थर की चट्टानें अटकी हुई हैं। और उन चट्टानों को अलग कर देना जरूरी है तब झरने प्रकट होंगे।
ये तीन बातें स्मरणीय हैं। यह दूसरा सूत्र पूरा हुआ। मनुष्य अपने को कचरे से भर ले, तो सत्य की संपदा को पाने का अधिकारी नहीं हो सकता है। कल हम तीसरे सूत्र की रात्रि में बात करेंगे।
हमने दो सूत्रों की बात की। कल पहले सूत्र की बात की कि कुछ लोग जीवन को छूते ही नहीं और व्यर्थ मर जाते हैं। आज दूसरे सूत्र की बात की कि कुछ लोग जीवन को छूते हैं तो कचरे से भर लेते हैं और दीन और दरिद्र रह जाते हैं। कल हम उन तीसरी दिशा की बात करेंगे कि व्यक्ति जीवन को छुए भी और कचरे से नहीं, प्रकाश से; व्यर्थ से नहीं, सार्थक से अपने को कैसे भर ले। जीवन कैसे आलोकित हो सकता है, वह जीवन की बुझी ज्योति कैसे जल सकती है, जीवन कैसे एक आनंद, एक संगीत और एक नृत्य बन सकता है, उस तीसरे सूत्र की बात कल रात्रि हम करेंगे। और कल सुबह, आज जो मैंने कहा है इस संबंध में कोई प्रश्न आपके होंगे, तो सुबह उनकी बात करेंगे।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।  

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