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मंगलवार, 27 नवंबर 2018

सहज समाधि भली-(प्रवचन-12)

बारहवां प्रवचन

विचार की बोतल और निर्विचार की मछली

दिनांक १ अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

रीको ने एक बार अपने गुरु नानसेन से कहा कि बोतल वाली मछली की समस्या क्या है, कृपा कर मुझे समझा दें!
उसने कहाः ‘अगर कोई आदमी बोतल के भीतर मछली का एक बच्चा रख दे और बोतल के मुंह के द्वारा उसे भोजन देता रहे, तो मछली बढ़ते-बढ़ते इतनी बड़ी हो जाएगी कि बोतल के भीतर उसके बढ़ने की और जगह न रहेगी।
उस हालत में वह आदमी उस मछली को किस तरह बाहर निकाले कि मछली भी न मरे और बोतल भी न टूटे।
‘रीको!’ नानसेन चिल्लाया और जोर से उसने हाथों की ताली बजाई।
‘हां गुरुदेव!’ रीको चौंक कर बोला।
‘देखो,’ नानसेन ने कहाः ‘मछली बाहर निकल आई।’
ओशो, इस झेन पहेली को हमें भी समझाने की कृपा करें।


जीवन की बड़ी से बड़ी पहेली यही है, कि जो कभी हुआ ही नहीं है, वह हो गया लगता है। तुम कभी सोए नहीं, और तुम रोज सो गए लगते हो। तुम कभी मरे नहीं, हर जीवन में तुम मरे हुए लगते हो। तुम कभी जन्मे नहीं, फिर भी कितनी बार तुमने जन्म लिया है! तुम क्षण भर को भी भटके नहीं, और अनंत जन्मों से तुम भटके हुए हो!
जीवन की बड़ी से बड़ी पहेली यही है कि जो कभी नहीं हुआ है, वह हो गया लगता है।
हिंदुओं ने इस राज को बड़ी गहराई से पकड़ा और उन्होंने कहा कि यह पूरा ‘खेल’ एक बड़ी गहरी मजाक है। अगर परमात्मा कहीं है, तो उसकी हंसी रुकती ही न होगी। वह हंसता ही चला जा रहा होगा। क्योंकि कितनी गहरी मजाक हो गई। बुद्ध पुरुष जो भी पा लेते हैं वह उन्होंने सदा से पाया ही हुआ है।
बुद्ध को ज्ञान हुआ तो पूछा किसी ने ‘क्या मिला?’ तो बुद्ध ने कहा, ‘मिला कुछ भी नहीं; जो मिला हुआ था, उसकी स्मृति आ गई। जिसे कभी खोया ही नहीं, उसे पहचान लिया।’ जैसे एक खजाना तुम लेकर चलते हो और रास्ते पर भीख मांग रहे हो। और जैसे कोई तुम्हें चौंका दे और याद दिला दे कि ‘तुम और भीख मांग रहे हो! पागल हो गए हो! तुम सम्राट हो।’ और तुम्हें याद आ जाए। परमात्मा सिर्फ याद आ जाने की बात है।
परमात्मा कहीं और नहीं है; तुम्हारा ‘होना’ ही परमात्मा है। तुम परमात्मा हो।
और इससे ज्यादा पहेली की बात क्या होगी कि परमात्मा, परमात्मा को ही खोजने निकल गया हो! फिर अगर परमात्मा न मिलता हो, तो आश्चर्य क्या है? तुम्हें कभी भी परमात्मा न मिलेगा, क्योंकि तुम वही हो।
यह ऐसे ही है, कि मैंने सुना हैः एक आदमी आग खोज रहा था--घर में। अंधेरा था, इसलिए निश्चित ही दीया लेकर खोज रहा था! आग की बड़ी जरूरत थी। दीया लेकर आग खोज रहा था। पड़ोसी हंसने लगा और उसने कहा, ‘तू पागल है! क्योंकि आग तू हाथ में लिए है, अब खोजने की जरूरत क्या है? इस दीये से तो जितनी आग पैदा करनी हो, हो जाएगी।’ तब उसे याद आया।
कई बार तुम्हारे जीवन में ऐसी घटनाएं घट जाती हैं कि तुम चश्मा लगाए--चश्मा खोज रहे हो, चश्मे से ही। नहीं तो तुम खोजोगे ही कैसे? बहुत बार ऐसा हो जाता है कि लिखने-पढ़ने वाले लोग--क्लर्क, मास्टर, लेखक--कलम को कान पर खोंस लेते हैं, फिर खोजने लगते हैं। अब जो कान पर ही खुसी हो, वह खोजने से न मिलेगी।
कथा है--मुल्ला नसरुद्दीन के संबंध में कि भागा जा रहा था बाजार से अपने गधे पर। बड़ी तेजी में था। बाजार में लोगों ने भी पूछाः ‘नसरुद्दीन इतनी जल्दी कर कहां चले जा रहे हो?’ उसने कहाः ‘अभी मत रोको, लौट कर बताऊंगा।’ लौट कर जब आया तो लोगों ने पूछाः ‘इतनी जल्दी क्या थी?’ उसने कहाः ‘मुझे दूसरे गांव जाना है और मैं अपने गधे को खोजने जा रहा था। फिर मुझे गांव से बाहर जाकर याद आई कि मैं गधे पर बैठा हुआ हूं!’ नसरुद्दीन ने कहाः ‘खैर, मैं तो नासमझ हूं। लेकिन मूर्खों, तुम्हें तो बताना था! मैं तो गधे पर बैठा था, इसलिए मुझे दिखाई भी नहीं पड़ रहा था! और मेरी नजरें तो आगे लगी थीं। लेकिन तुम्हें तो गधा दिखाई दे रहा था!’ बाजार के लोगों ने कहाः ‘हमें तुमने मौका ही कहां दिया! हमने पूछा भी था कि नसरुद्दीन, कहां जा रहे हो?’ नसरुद्दीन ने कहाः ‘उस वक्त मैं जल्दी में था।’
यह अनुभव तुम्हारे जीवन में भी कभी न कभी घटा होगा; घटा हो तो इसे समझना आसान हो जाएगा।
जब तुम कोई चीज खोजते हो, जो तुम्हारे पास है, इसका अर्थ हुआ कि चेतना में संभावना है--विस्मरण की। विस्मरण संसार है, स्मरण मोक्ष है।
तुम जिसे खोज रहे हो, उसे अगर तुमने सच में ही खो दिया, तो वह तुम्हारा स्वभाव नहीं हो सकता। स्वभाव को खोया नहीं जा सकता, ज्यादा से ज्यादा भूला जा सकता है।
यह संपदा कुछ ऐसी नहीं है कि तुम इसे छोड़ दो और भूल जाओ और यह चोरी चली जाए। यह संपदा तुम ही हो।
जैसे आग अपनी गरमी नहीं खो सकती, ऐसे ही तुम अपने चैतन्य को नहीं खो सकते हो। जैसे पानी अपनी शीतलता नहीं खोता, ऐसे ही तुम अपने सच्चिदानंद को नहीं खो सकते हो।
पर यह हो गया है। यह अनहोनी घटी है--कि तुम भूल गए हो। और इतने दिनों से भूले हो, इतनी परतें हो गई हैं भूल की बीच में--कि जब तक तुम उनको न तोड़ डालो, स्मृति का झरना वापस नहीं मिल सकता।
मुल्ला नसरुद्दीन से उसका मकान मालिक कह रहा है, ‘नसरुद्दीन, रुपये तुमने उधार लिए थे, क्या बिल्कुल भूल गए? आज छह महीने होने आ गए हैं, वापसी का कोई नाम नहीं है!’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘बड़े मियां, थोड़ा समय तो दो, निश्चित ही भूल जाऊंगा। तुम हर महीने याद दिलाए चले जाते हो; भूलने ही नहीं देते। थोड़ा समय दो।’
थोड़ा समय चाहिए--भुलाने के लिए; कुछ नहीं--सिर्फ थोड़ा समय चाहिए। राख जम जाती है; रास्ते की धूल तुम्हारे चित्त पर बैठ जाती है। समय धूल इकट्ठी कर देता है। फिर भूल जाना कुछ कठिन नहीं है। सिर्फ समय के अंतराल के साथ ही स्मृतियां इकट्ठी हो जाती हैं
और बड़ी हैरानी की बात यह है कि तुम्हारी स्मृतियां जगत के संबंध में जितनी गहन हो जाती हैं, उतनी ही तुम्हारी ‘अपनी’ विस्मृति गहरी हो जाती है। तुम्हें जानने में--तुमने जो-जो जान लिया है, वही बाधा है। तुम्हारे आत्मज्ञान में तुमने जो-जो जान लिया है, वही बाधा है।
और तुम इतना जानते हो कि उस जानने की पर्त बन गई है और उससे आत्मज्ञान तक पहुंचना मुश्किल होता है। इसलिए ज्ञानियों ने कहा हैः ‘अज्ञान तो छोड़ो ही, ज्ञान को भी छोड़ोगे--तभी आत्मज्ञान होगा।’
जब तक तुम्हारी ‘जानकारी’ न मिट जाए, जब तक तुम सब न भूल जाओ--जो तुमने सीख लिया है, जब तक अनलघनग न हो जाए--व्यर्थ की, सांसारिक की, बाहर की--तब तक आत्म-स्मृति न आएगी, तब तक सुरति न जगेगी।
तुम्हें खाली होना पड़े। खाली होने का इतना ही अर्थ है कि बीच में तुमने जो-जो सीख लिया है--समय के अंतराल में, उसे तुम हटा दो। और तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर कल-कल निनाद करता हुआ झरना बह रहा है। वह झरना ही परमात्मा है।
तुम ‘उसे’ कहीं और खोज रहे हो। और कहीं भी तुम उसे न पा सकोगे; क्योंकि वह तुम्हारे भीतर छिपा बैठा है। तुम उसे घर के बाहर खोज रहे हो, वह घर के भीतर विश्राम कर रहा है। यही जीवन की पहेली है।
इस पहेली को ख्याल में रखें, तो फिर यह छोटी सी झेन कथा समझ में आ जाएगी।
झेन कथा के कई पहलू हैं, कई तल हैं। सभी धार्मिक कथाओं के कई पहलू और कई तल होते हैं। कथाएं एक कीमती तकनीक हैं। जो बड़े-बड़े शास्त्रों में नहीं कहा जा सकता, वह एक छोटी सी कथा में कहा जा सकता है। क्योंकि कथा में चित्र उभर आते हैं; शब्द ही नहीं रह जाते, चित्र बन जाते हैं।
जब मैं इस कहानी को पढूं, तो तुम चित्र बनाने की कोशिश करना; ताकि तुम इसे ‘देख’ भी सको--मात्र सुनो ही मत। क्योंकि अगर देख सकोगे तो ही इसका राज पकड़ में आएगा। और कहानी की खूबी यही है कि वह देखी जा सकती है; सोचना जरूरी नहीं है; उसका दर्शन किया जा सकता है।
सत्य और कहानी में यही जोड़ है। सत्य भी सोचा नहीं जा सकता है, देखा जा सकता है। कहानी को भी सोचने की जरूरत नहीं है, उसे तुम देख सकते हो। वह पिक्चोरियल है, उससे चित्र उभर आता है। और जब चित्र उभरता है, तब तुम जो देख पाते हो, जो तुम समझ पाते हो, वह अकेले शब्द से समझ न पाओगे।
मैं कहूं कि ‘सुबह बहुत सुंदर है’, और तुमने कभी सुबह न देखी हो, तो तुम शब्द तो सुनोगे, लेकिन कोई चित्र न उभरेगा। और ये शब्द क्या कहेंगे--सुबह के संबंध में? ‘सुबह बहुत सुंदर है’, ये शब्द बड़े फीके हैं। जिसने सुबह ‘देखी’ है, उसके लिए अनंत आयामी है--सुबह का होना। वह ताजगी, वह हवा, वृक्ष, फूलों की गंध, पक्षियों के गीत, सूरज का उगना, अंधेरे का टूट जाना, आकाश का नये जीवन से भर जाना, सब तरफ पुलक जीवन की, सब तरफ अहोभाव, आनंद--इस सब को कैसे कहें?
‘सुबह सुंदर है’, इतना कहने से क्या पता चलता है? लेकिन जिसने सुबह देखी है और जो चित्र पैदा करने की कला नहीं भूल गया है ‘सुबह सुंदर है’, यह सुनते से ही, शब्द तो खो जाएंगे, सुबह उभर आएगी। सब तरफ वृक्ष, हरियाली, सुबह की ताजी हवा, सोंधी गंध जमीन की, पक्षियों के गीत, सुबह का उठता हुआ नाद, सूरज का उगना, उसका फेंक देना प्रकाश के जाल को--सारी पृथ्वी पर, यह सब उसे दिखाई पड़ जाएगा।
चित्र बहुआयामी है। शब्द एक आयामी है, शब्द वन-डायमेंशनल है। जीवन मल्टी-डायमेंशनल है। इसीलिए जब तक तुम किसी चीज को देख न लो, तब तक उसकी ठीक झलक तुम्हारे भीतर नहीं आती। यही कारण है कि बुद्ध ने, जीसस ने, झेन और सूफी गुरुओं ने बड़ी से बड़ी बातें छोटी-छोटी कहानियों में कही हैं। क्योंकि कहानी चित्र बन जाती है। और अगर तुम जानते हो--चित्र को देखने की कला, तो तुम कहानी को जी सकते हो--समझना जरूरी नहीं है। और जीकर समझ आएगी--जो स्वाद आएगा, वह बात ही अलग है।
इस कहानी को जीने की कोशिश करो। भूल जाओ क्षण भर को यह जगह, भूल जाओ क्षण भर के लिए तुम्हारा होना; ले चलो अपने को वहां, जहां रीको अपने गुरु नानसेन के पास बैठा है।
नानसेन एक सदगुरु है, एक बुद्ध पुरुष है। पृथ्वी पर थोड़े से ही ऐसे लोग हुए हैं, जिनमें नानसेन की गिनती की जा सकती है। बहुत अनूठा आदमी है।
रीको अपने गुरु के पास बैठा है। और रीको ने अपने गुरु से कहा, ‘बोतलवाली मछली की समस्या क्या है? कृपा करके मुझे समझा दें।’
यह एक पुरानी पहेली है--झेन गुरुओं की। ध्यान के लिए झेन गुरु पहेली देते हैं, मंत्र नहीं देते। यह फर्क है।
झेन गुरु ध्यान करने के लिए पहेली देते हैं और पहेली ऐसी है, जो हल न हो सके। क्योंकि झेन गुरु कहते हैंः ‘जो पहेली हल हो जाए, वह ध्यान नहीं बन सकती।’ उसे तो तुम्हारी बुद्धि ही निपटा देगी। उसको तुम हल कर लोगे, बात खत्म हो जाएगी।
ऐसी पहेली जो हल न हो पाए, जिसको हल करने में तुम्हारी बुद्धि थक जाए, जिसको हल करने में तुम्हारा अहंकार गिर जाए, जिसको तुम हल करो, और करो, और करो, और फिर भी न कर पाओ, और हर बार दीवाल से टकरा जाओ। कहीं से दरवाजा न मिले और तुम इतने पीड़ित हो जाओ कि तुम चीखो और कहो कि ‘यह हल न होगा। यह मेरी बुद्धि की क्षमता के बाहर है।’ जहां तुम्हारी बुद्धि थक जाए और गिर जाए और चिल्लाने लगे कि ‘यह मेरी सीमा के बाहर है’--वहीं द्वार खुलता है।
क्योंकि बुद्धि जिसको हल कर लेती है, उसमें और गहरे जाने की जगह समाप्त हो जाती है। जिसको बुद्धि हल नहीं कर पाती, वहीं हृदय पुकारा जाता है। जिसको बुद्धि हल नहीं करती, वहीं तुम्हारे पूरे प्राण संलग्न होते हैं। जब बुद्धि हल नहीं कर पाती, तब तुम पूरे के पूरे जुट जाते हो--अकेली बुद्धि से नहीं जुटते। जिसको बुद्धि हल कर लेती है, उसे ‘तुम’ निपटा देते हो। बौद्धिक समस्या तो हल हो गई, लेकिन पूरे प्राणों को चुनौती नहीं मिलती।
झेन पहेली साधारण पहेली नहीं है। साधारण पहेली हल हो जाती है। थोड़ा सोचो, थोड़ा विचारो, थोड़ा इस कोने, उस कोने से मेहनत करो, साधारण पहेली हल हो जाती है। झेन पहेली ऐसी है कि जो हल हो नहीं सकती। यह पहेली एब्सर्ड है; यह बेबूझ है। अगर यह हल हो जाए, तो ध्यान करोगे? ध्यान का मतलब ही है--जहां बुद्धि न रह जाए।
मंत्र तो ध्यान नहीं बन सकता, क्योंकि मंत्र को बुद्धि ही दोहराती है। पुनरुक्ति तो बुद्धि से होती है। इसलिए सभी मंत्रों से बुद्धि की शक्ति बढ़ती है--ध्यान की नहीं। बुद्धि मजबूत होती है, नष्ट नहीं होती। मंत्र से तुम्हारा सोच-विचार प्रगाढ़ हो जाएगा--तीखा हो जाएगा, तर्कयुक्त हो जाएगा। मंत्र तुम्हारी बुद्धि को धार दे देंगे; लेकिन तुम्हारी बुद्धि को मिटाएंगे नहीं।
और जब तक तुम्हारी बुद्धि न मिटे, जब तक तुम अबोध न हो जाओ--बच्चे की भांति, तब तक इस जगत का रहस्य नहीं खुलेगा। यह जगत अपना रहस्य उनके सामने खोलता है, जो निर्दोष हैं। और बुद्धि कभी निर्दोष नहीं है। बुद्धि चालाक है। वह निर्दोष हो ही नहीं सकती। वह सदा सोच-विचार में लगी है।
सब सोच-विचार चालाकी है। सब सोच-विचार के पीछे संदेह है--आस्था नहीं है। और सब सोच-विचार के पीछे तुम अपने अस्तित्व से ज्यादा बुद्धिमान सिद्ध करने में लगे हो। एक संघर्ष है--सोच-विचार में, जैसे कि तुम जबरदस्ती ताला तोड़ देना चाहते हो--प्रकृति के रहस्य का।
बुद्धि एक हथौड़े की तरह है। लेकिन जितना तुम यह हथौड़ा पीटोगे, उतना ही ताला खुलना मुश्किल हो जाएगा। फिर शायद चाबी भी लगनी मुश्किल हो जाए। चाबी भी मिल जाए, तो भी न लगे। क्योंकि तुमने हथौड़े से इतना पीट दिया है ताले को!
इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि बहुत विचार करने वाले लोग, जब ध्यान करने के लिए उत्सुक भी होते हैं, तो ध्यान नहीं लगता--चाबी भी हाथ में हो, तो ताला नहीं खुलता। क्योंकि ताले को इस बुरी तरह पीटा है। इसलिए बहुत विचारक लोगों को ध्यान बड़ा मुश्किल हो जाता है।
ध्यान का अर्थ साफ समझ लेना। ध्यान का अर्थ हैः जहां तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारी अस्मिता--तुम्हारा सब थक गया; जहां तुम्हारी चालाकी काम न आई और जहां तुम्हें हाथ जोड़ कर कहना पड़ा कि ‘यह मेरे वश के बाहर है।’ तुम विवश, हेल्पलेस, असहाय हो गए। और जहां तुम असहाय हुए, वहीं सब द्वार खुल जाते हैं। जब तक तुम समझते हो कि मैं खुद ही काफी हूं, तब तक परमात्मा नहीं दौड़ता।
तुमने एक छोटी सी बच्चों की कहानी पढ़ी होगी। वह कहानी धर्म की दृष्टि से बिल्कुल उलटी है। लगती धार्मिक है। सभी छोटे बच्चों की किताबों में वह कहानी हैः एक गाड़ीवान पार कर रहा है एक रास्ते को और एक नाले में उसकी गाड़ी उलझ गई, चाक फंस गए। तो वह बैठ कर प्रार्थना करने लगा। लेकिन भगवान की कोई सहायता न आई।
पास से निकलते एक फकीर ने कहा, ‘यह प्रार्थना काम न करेगी। आओ, चाक में जुटो; मैं भी जुटता हूं।’ दोनों चाक में जुटे, गाड़ी नाले के बाहर आ गई। फकीर ने कहा, ‘अब हमारी प्रार्थना ने काम किया है।’ लेकिन उस गाड़ीवान ने कहा, ‘यह क्या प्रार्थना हुई! हमने खुद ही गाड़ी निकाली है!’ फकीर ने कहा, ‘जब तुम पूरी ताकत लगाते हो--गाड़ी निकालने में, तभी परमात्मा तुम्हारी प्रार्थना सुनता है।’
यह साधारण दिखने वाली कहानी धार्मिक मालूम पड़ती है, लेकिन है नहीं। क्योंकि परमात्मा की शक्ति तुम्हें उपलब्ध होती है, जब तुम सब भांति असहाय होकर गिर पड़ते हो; नहीं कि तुम आलस्य में पड़े होते हो। तुम अपनी पूरी ताकत लगाते हो। लेकिन पूरी ताकत लगाने से परमात्मा की सहायता नहीं मिलती, पूरी ताकत के चुक जाने से मिलती है।
तुम अपनी पूरी ताकत लगाते हो, फिर भी नहीं हल होता, तुम थक जाते हो, तुम कहते होः ‘अब मुझसे न होगा।’ तुम्हारा अपने पर विश्वास उठ जाता है। इसे थोड़ा समझ लेना।
जब तक तुम्हें अपने अहंकार पर विश्वास है, तब तक तुम्हारी प्रार्थना सच हो ही नहीं सकती; तब तक तुम कह रहे हो कि मैं कर लूंगा। प्रार्थना भी ‘तुम’ ही कर रहे हो। और प्रार्थना सच कैसे होगी--जहां ‘तुम’ हो?
प्रार्थना वहीं शुरू होती है, जहां तुम नहीं हो, जहां तुम असहाय बच्चे की भांति चिल्लाते हो। और जहां तुम रोते हो, जहां तुम गिड़गिड़ाते हो और तुम कहते होः ‘अब मेरे किए कुछ न होगा। तुझे कुछ करना हो तो कर।’
इतनी गहरी असहाय अवस्था में ही तुम्हारा अहंकार बिखरता है, टूटता है, विसर्जित होता है। तुम पहली दफा खुलते हो। और जैसे ही तुम खुलते हो, परमात्मा की ऊर्जा उपलब्ध हो जाती है।
यह एक पुरानी झेन पहेली है। पहेली सदियों से चलती रही है। जितना पुराना झेन है, उतनी पुरानी यह कहानी है। कहानी यह है--और झेन गुरु अपने शिष्यों को यह पहेली देते रहे हैं--कि एक बोतल में मछली बंद कर दी गई; भोजन दिया गया। बोतल तो उतनी ही रही, मछली बड़ी होती गई। आखिर समय आ गया कि मछली इतनी बड़ी हो गई कि बोतल में एक रत्ती जगह न रही। अब मछली मरेगी, अगर बाहर न निकाली जाए तो। क्योंकि अब जगह नहीं बची।
ध्यान रहे, जहां बढ़ती बंद हो जाती है, वहीं मौत हो जाती है। जब तक बढ़ने को जगह होती है, तब तक जीवन होता है। जब तक तुम बढ़ते हो, तभी तक जीवन होता है। जीवन ‘बढ़ने’ का ही नाम है। और जिस दिन तुम्हारे पास बढ़ने को कोई जगह--आयाम नहीं बचता, सब जगह भर जाती है, उसी दिन तुम मर जाते हो।
तो तुम ध्यान रखनाः ‘जिस दिन से तुमने बढ़ना बंद कर दिया है, उसी दिन तुम मर चुके हो। तुम्हारी बोतल चुक गई है। भला तुम अभी कब्र में न दफनाए गए हो, यह दूसरी बात है।
लोग मरते हैं और काफी समय लगता है--कब्र तक दफनाने में। मरने में और कब्र तक दफनाने में अक्सर तीस-चालीस साल का फर्क होता है। लेकिन मरने की भीतरी घटना उसी दिन घट जाती है, जिस दिन तुम बढ़ते नहीं। बढ़ने का अर्थ हैः जिस दिन तुम्हारा नया जन्म होना बंद हो जाता है; उसी दिन तुम मर गए, मौत पूरी हो गई। अब तुम व्यर्थ हो। अब तुम हो या नहीं हो, क्या फर्क है?
कल और आज में कुछ बढ़ती हुई? अगर बढ़ती हुई, तो तुम जीवित थे। और अगर बढ़ती नहीं हुई, तो तुम कल ही मर गए। आज तक आने का उपाय कहां है?
तुम अगर कल ही मर जाते, तो क्या हर्ज होता? अगर तुम आज तक बढ़े नहीं, इन चौबीस घंटों ने तुम्हें बढ़ाया नहीं, तो कल ही मर जाने में हर्ज क्या था? फर्क क्या था?
तुम सोचोः किस दिन तुम्हारी बढ़ती रुक गई? उस दिन के बाद तुम जीए? उस दिन बोतल की जगह समाप्त हो गई। तुम उसमें मरे हुए सड़ रहे हो।
जो व्यक्ति रोज जन्मता है, वही जीता है। जीने की कला तो उसे ही आती है, जो प्रतिपल नया जन्म ले लेता है। उसकी बोतल आकाश जैसी बड़ी है, वह कभी नहीं चुकती। उसका खाली आकाश सदा शेष रहता है, वह बढ़ता ही जाता है--वह बढ़ता ही जाता है।
सभी बोतलें चुक जाती हैं, सिर्फ आकाश नहीं चुकता। इसलिए आकाश से छोटा जिसने आयाम चुना है, वह किसी न किसी दिन मर जाएगा। इसलिए हम कहते हैं कि परमात्मा से कम लक्ष्य मत चुनना। उससे कम चुना तो तुमने कोई न कोई छोटी बोतल चुन ली। वह कितनी ही बड़ी हो, आज नहीं कल बंद हो जाएगी।
परमात्मा को ही चुनना, क्योंकि वही अनंत है, असीम है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं, असीमता का नाम है, निराकारता का नाम है, महा-आकाश का नाम है। ‘उसको’ ही चुनना, ताकि तुम सदा ही बढ़ते रहो, जन्मते ही रहो। और अनंत रहे यह जन्म की प्रक्रिया। तुम्हारी नदी बहती ही रहे, बहती ही रहे। परमात्मा में ही नदी सदा बह सकती है।
यह बोतल की कथा है। रीको पूछता है--अपने गुरु सेः यह पुरानी कहानी मैंने सुनी है। इसका राज मुझे समझा दें। यह समस्या क्या हैः कि बोतल में मछली बंद है, फिर इतनी बड़ी हो गई कि अब निकल नहीं सकती, न भीतर बढ़ सकती है। और कठिनाई इससे खड़ी हो गई कि बोतल को भी तोड़ने नहीं देते। कहते हैंः बोतल भी कीमती है। बोतल को तोड़ना नहीं है, मछली को निकालना है! कहीं से रास्ता दिखता नहीं है।
रास्ता तो साफ है।
अगर बुद्धि से पूछो तो क्या रास्ता है? बुद्धि के पास दो विकल्प हैं। पहला रास्ता तो यह है कि बोतल तोड़ दो--मछली को बचाना हो तो। दूसरा रास्ता यह है कि बोतल बचाना हो तो मछली को मर जाने दो।
बुद्धि के विकल्प साफ हैं, बड़े ऊपरी हैं। और झेन कहता हैः यह भी कोई रास्ता हुआ! बोतल टूट गई, यह कोई रास्ता हुआ? कि मछली मर गई, यह कोई रास्ता हुआ? कुछ ऐसी तरकीब खोजो कि न बोतल टूटे, न मछली मरे! बस, बुद्धि मुश्किल में पड़ जाती है।
बुद्धि को दो विपरीत में से एक को चुनना सदा आसान है। लेकिन अगर दोनों विपरीत एक साथ बचाना हो, तो बुद्धि मुश्किल में पड़ जाती है। यही इस कथा का गहरा राज है।
ध्यान कहता हैः कोई कारण नहीं है; बोतल भी बच सकती है, मछली भी बच सकती है और दोनों हाथ लड्डूखाए जा सकते हैं।’ ध्यान का यही रहस्य है कि ‘लड्डू’ तुम भी खा सकते हो, बचा भी सकते हो।
बुद्धि कहती हैः लड्डू खाओगे, तो बचेगा नहीं। बचाना हो तो खा नहीं सकते। इसलिए बुद्धि को ध्यान बिल्कुल समझ में नहीं आता। ध्यान बेबूझ है। क्योंकि ध्यान कहता हैः विपरीत एक साथ हो सकते हैं। लड्डू खा भी सकते हो, बचा भी सकते हो।
और ध्यान कहता हैः अंधे हो तुम, इसलिए तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है। विपरीत एक साथ घट ही रहे हैं। जिस क्षण तुम मरते हो, उस क्षण तुम जी भी रहे हो। जिस क्षण तुम जीते हो, उसी क्षण तुम मर भी रहे हो। जीवन-मृत्यु दो घटनाएं नहीं हैं, एक ही गाड़ी के दो चाक हैं, और एक साथ घट रहे हैं।
तुम जवान हुए; तुमने कभी ख्याल किया कि तुम्हारे भीतर का बच्चा मरता गया! अन्यथा तुम जवान कैसे होते। तुम एकतरफा देख रहे हो कि जवानी हो रही है। तुम यह नहीं देख रहे कि बचपन मर रहा है। हर पल बचपन मर रहा है और हर पल जवानी पैदा हो रही है। इसलिए तो तुम जवान हुए। फिर तुम बूढ़े हो गए, तो बुढ़ापा पैदा हो रहा है और जवानी मर रही है।
अतीत मर रहा है, भविष्य जन्म रहा है। और दोनों के मध्य में तुम हो। दोनों तुम्हें सम्हाले हैं; दोनों के बीच तुम सेतु की भांति हो। दोनों किनारे तुम्हारे हैं।
लेकिन बुद्धि ने समझा रखा है कि जन्म हुआ सत्तर साल पहले, अब मौत हो रही है, दोनों अलग हैं। लेकिन कभी तुमने सोचा कि अगर दोनों अलग हों, तो हो कैसे सकते हैं? अगर दोनों इतने अलग हैं, तो तुम दोनों के बीच में यात्रा कैसे कर सकते हो?
तुम जन्म से लेकर मृत्यु तक पहुंच जाते हो तो जन्म और मृत्यु भीतर जुड़े होने चाहिए, सेतु होना चाहिए, अन्यथा तुम पहुंचोगे कैसे? जीवन मृत्यु तक पहुंचेगा कैसे? तुम जाओगे कैसे वहां?
तुम नीचे से ऊपर तक आ गए हो--चढ़ कर, क्योंकि सीढ़ियां बीच में जुड़ी हैं। तुम अपने घर से यहां तक आ गए हो, क्योंकि रास्ता बीच में जुड़ा है। तुम जन्म से मौत तक पहुंच जाते हो, तो जन्म और मृत्यु कहीं भीतर जुड़े होने चाहिए। वे भिन्न-भिन्न नहीं हो सकते, अभिन्न होने चाहिए। जन्म और मृत्यु एक ही चीज के दो छोर होने चाहिए।
घट ही रहा है; अस्तित्व में विपरीत साथ-साथ घट रहे हैं। जीवन और मृत्यु साथ-साथ घट रहे हैं। प्रेम और घृणा साथ-साथ घट रहे हैं। विवाह और तलाक साथ-साथ घट रहे हैं। लेकिन बुद्धि तोड़ कर देखती है। बुद्धि एक हिस्से को देखती है, दूसरे की तरफ आंख बंद कर लेती है।
बुद्धि के देखने का ढंग अधूरा है; वह आधे को देखती है। आधे को ही देख सकती है, पूरे को चूक जाती है। इसको जिसे भी पूरा देखना हो, उसे बुद्धि के पार जाना पड़े।
पूछा रीको नेः ‘यह समस्या क्या है?’ समस्या यही है कि क्या विपरीत साथ-साथ हो सकते हैं या हमें चुनाव करना ही पड़ेगा? यही समस्या है--इस मछली और बोतल की।
शिष्य अक्सर गुरु के पास आ जाते हैं--वापस लौट कर वे कहते हैंः ‘यह तो बात ही फिजूल है, मूढ़तापूर्ण है। बोतल तोड़नी पड़ेगी। और अगर बोतल बहुत कीमती है, तो मछली को मरना होगा। और कोई रास्ता नहीं है।’
बुद्धि के पास विपरीत के बीच से जाने वाला रास्ता है ही नहीं। क्योंकि बुद्धि गणित को मान कर चलती है। गणित विपरीत को स्वीकार नहीं करता।
गणित का नियम ही यही है कि यदि रात है, तो दिन नहीं हो सकता। दिन है, तो रात नहीं हो सकती। अगर तुम अमीर हो, तो साथ ही गरीब कैसे हो सकते हो। लेकिन हम जानते हैं, तुम भी जानते हो कि अमीर गरीब हो सकता है। और तुम उससे उलटा भी जानते हो कि गरीब भी अमीर हो सकता है। हमने बुद्ध जैसे भिखारी को भी देखा है। और उनसे बड़े अमीर को तुम कहां खोजोगे? उनको देख कर सम्राट फीके पड़ जाएं। उनको देख कर सम्राट झेंप जाएं।
बुद्ध बैठे थे, काशी के बाहर, एक वृक्ष के नीचे; विश्राम कर रहे थे। काशी का सम्राट आत्महत्या करने, अपने रथ पर, गांव के बाहर निकला। घबड़ा गया था--महल, धन, समस्याएं, उलझनें; कोई रास्ता नहीं सूझता था; आत्महत्या का सोच लिया।
सम्राट फांसी पर लटके ही रहते हैं। तुम्हें उनकी फांसी नहीं दीखती! तुम उसे सिंहासन समझते हो। क्योंकि तुम इतने दूर हो कि तुम्हें वहां से कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन सम्राटों से पूछो--सिंहासन फांसी बन जाता है।
वह जा रहा था जंगल की तरफ, पहाड़ की तरफ, जहां से गिर कर आत्महत्या कर ले।
सांझ का वक्त, सूरज डूबता है, और आखिरी किरणें बुद्ध के ऊपर पड़ रही हैं। और अचानक इस दुख-संताप से ग्रसित सम्राट की आंखें वृक्ष के नीचे बैठे हुए बुद्ध पर पड़ीं। एक क्षण को मोहित हो गया, एक क्षण को भूल ही गया कि वह आत्महत्या करने निकला था। सारथी से कहाः ‘रुक। यह कौन आदमी है? आदमी नहीं मालूम पड़ता! जैसे वृक्ष का देवता हो! ऐसी सुंदर काया मैंने देखी नहीं। और भिखारी मालूम पड़ता है! भिक्षापात्र पास में रखा है। वस्त्र जीर्ण-शीर्ण हैं, फटे-पुराने हैं। लेकिन भीतर से जो झांक रहा है, वह बड़ा महिमापूर्ण है। रुक, इस आदमी को शायद जिंदगी का राज मिल गया हो। जिस जिंदगी को मैं गंवाने जा रहा हूं, लगता है, इस आदमी ने उस जिंदगी में कुछ पा लिया है। यह इतना तृप्त है; यह इतना आनंद-विभोर है, जैसे कहीं जाने को नहीं है; कुछ पाने को नहीं है। जैसे उसकी कोई चाह नहीं, कोई वासना नहीं है। जैसे यह पहुंच गया है--मंजिल पर। यह कौन है!’
सम्राट रथ से उतर कर नीचे आया और उसने बुद्ध से कहाः ‘मैं आत्महत्या करने जा रहा हूं। मैं काशी का सम्राट हूं, लेकिन मुझसे दीन, भिखारी तुम दूसरा न पाओगे। और तुमने मुसीबत कर दी। तुम बिल्कुल विपरीत मालूम पड़ते हो! तुम बिल्कुल भिखारी हो, भिक्षापात्र रखा है, वस्त्र तुम्हारे जीर्ण-शीर्ण हैं, थेगड़े लगे हैं। और तुममें देखता हूं, तुम्हारे चेहरे पर यह डूबता हुआ सूरज जो किरणें डाल रहा है, तुम ऐसी महिमा से मंडित मालूम पड़ते हो! क्या है राज जिंदगी का?’
बुद्ध ने आंखें खोली और कहाः ‘तू जैसा है, ऐसा कभी मैं भी था। और जैसा मैं हूं, ऐसा तू भी कभी हो सकता है।’
बुद्ध भी कभी सम्राट थे और इतने ही दीन थे। और बुद्ध उससे कह रहे हैं कि तू कितना ही दीन हो, जैसा सम्राट मैं आज हो गया हूं, वैसा तू भी हो सकता है।
‘मैं अनुभव से कह रहा हूं’, बुद्ध ने कहाः ‘क्योंकि जहां से तू गुजर रहा है, मैं भी वहां से गुजरा हूं। ये अंधेरी रातें मैंने भी देखी हैं--जब आत्महत्या का भाव पकड़ता है, खुद को मिटा लेना चाहते हैं; जब सब अंधकारपूर्ण दिखता है; सिवाय चिंता के जीवन में कुछ नहीं दिखाई पड़ता। कोई फूल नहीं खिलते; सब कांटे ही कांटे चुभते हैं। मैंने भी चिंता जानी है, गहन पीड़ा जानी है।’
जिंदगी में अगर देखो, तो यहां भिखारी मिल जाते हैं, जो सम्राट हैं! लेकिन गणित से पूछो, तो गणित कहेगाः ‘जब रात है, तब रात है; जब दिन है, तब दिन है। गरीब गरीब है; अमीर अमीर है। गणित साफ है।’ और गणित चीजों को दो हिस्से में बांट देता है।
जिंदगी बड़ी पहेली जैसी है। जिंदगी में सब इकट्ठा है; सब यहां जुड़ा है। इसलिए यहां जिन्होंने खोया, उन्होंने पा लिया। और यहां जिन्होंने बचाया, उन्होंने खो दिया।
जीसस कहते हैं निकोडेमस से, ‘निकोडेमस, जो बचाएगा जिंदगी को, वह उसे खो देगा। और जो खो देगा, वह बचा लेगा।’ वह जीसस यही कह रहे हैं--मछली और बोतल का राज निकोडेमस से कह रहे हैं।
राज क्या है? राज इतना है कि बुद्धि कहती है ‘एक को बचाया जा सकता है। एक को छोड़ना ही होगा।’
विपरीत एक साथ नहीं बच सकतेः यह बुद्धि की निष्पत्ति है। और जिंदगी विपरीत से बनी है। इसलिए जो बुद्धि की मान कर चलेगा, वह जिंदगी को गंवा देगा। और अगर तुम्हें दिखाई पड़ जाए कि जिंदगी विपरीत, पोलर अपोजिट्स से बनी है, तो तुम बुद्धि को छोड़ने को राजी हो जाओगे। क्योंकि जिंदगी महामूल्य है। बुद्धि का मूल्य ही क्या है? एक छोटा सा शोरगुल है--तुम्हारे भीतर।
पूछा रीको ने गुरु नानसेन सेः ‘बोतलवाली मछली की समस्या क्या है? कृपा कर मुझे समझा दें।’ सदियों से सुनते रहे हैं, इस कहानी को, इसमें भीतरी राज क्या है?
रीको ने कहाः ‘अगर कोई आदमी बोतल के भीतर मछली का एक बच्चा रख दे और बोतल के मुंह द्वारा उसे बराबर भोजन देता रहे, तो मछली बढ़ते-बढ़ते इतनी बड़ी हो जाएगी कि बोतल के भीतर उसके बढ़ने की और जगह न रहेगी। उस हालत में वह आदमी उस मछली को किस तरह बाहर निकाले कि मछली भी न मरे और बोतल भी न टूटे।’
यह तो कहानी है।
यह कहानी सुनते ही नानसेन ने जोर से आवाज दीः ‘रीको?’ नानसेन चिल्लाया। रीको के मस्तिष्क से कहानी तो छिटक गई होगी--उस आवाज को सुन कर। क्योंकि यह इतनी आकस्मिक थी।
ध्यान रहे, आकस्मिक घटना ही तुम्हें थोड़ी देर के लिए बुद्धि से बाहर ले जाती है--अचानक। क्योंकि बुद्धि कोई तारतम्य नहीं बना पाती।
अगर कभी तुम कार से चल रहे हो, और अचानक देखते हो कि दुर्घटना होने के करीब है--बस एक्सिडेंट हुआ; उस क्षण बुद्धि तारतम्य छोड़ देती है। उस क्षण तुम देखते रह जाते हो, सोचने का कोई उपाय नहीं होता।
जहां तुम पाते हो कि कुछ आकस्मिक है, वहां सोचने का उपाय नहीं होता। और जहां तुम पाते होः कुछ व्यवस्थित है--आकस्मिक नहीं, कार्य-कारण में बंधा है, वहां सोचने का उपाय होता है। क्योंकि सोचने के लिए समय चाहिए।
सोचना बिना समय के नहीं हो सकता। सोचने के लिए जगह चाहिए। बिना जगह के सोचना नहीं हो सकता। और सोचने के लिए अतीत से तारतम्य चाहिए, परंपरा चाहिए, सिलसिला चाहिए। अगर सिलसिला न हो, तो सोचना नहीं हो सकता।
इस गुरु ने क्या किया? इसने कहानी नहीं समझाई। वह कहानी के संबंध में कुछ बोला ही नहीं। अचानक कहानी सुन कर उसने जो किया, वह बड़ी बेबूझ बात मालूम पड़ती है। कहानी सुन कर कहानी के संबंध में कुछ कहता। रीको उसे समझता, सोचता।
नानसेन जोर से चिल्लायाः ‘रीको!’ जैसे घर में अचानक आग लग गई हो! कहानी अभी व्यर्थ है। अभी कहानी का वक्त नहीं है। मानो जैसे गुरु अचानक मर रहा हो; उसकी सांस रुंध गई हो, कि हृदय का दौरा पड़ा हो। कि जैसे कुछ ऐसा घट रहा है कि अभी कहानी की बात बंद कर।
उसने जोर से चिल्लायाः ‘रीको!’ नानसेन चिल्लाया, और जोर से उसने हाथों की ताली बजाई--न केवल चिल्लाया, बल्कि दोनों हाथों से जोर से ताली बजाई।
चौंका दिया होगा। ताली बजा दो अचानक, तो वृक्ष पर झपकी मारता पक्षी जैसे चौंक जाता है, ऐसे ही कहानी में डूबी रीको की बुद्धि चौंकी होगी।
आवाज दीः ‘रीको!’ और उसने कभी सोचा न था कि कहानी के बाद आवाज दी जाएगी। सोचा होता तो कोई अड़चन न होती।
तुमने कहानी सुन ली और अगर तुम नानसेन के पास जाओ और तुम पूछोः ‘इस बोतल वाली मछली का राज क्या है?’ और तुम कहानी बताओ। और नानसेन कहे, ‘रीको!’ तो कुछ परिणाम न होगा।
कहानी तुम जानते हो। रीको को कहानी पता नहीं थी। इसलिए सदगुरुओं को रोज--रोज नई-नई विधियां ईजाद करनी पड़ती हैं। क्योंकि जो भी कहानी तुम्हें पता हो, वह बेकार हो गई। क्योंकि जो भी तुम्हें पता है, बुद्धि उसके साथ इंतजाम जमा लेगी।
अगर तुम पूछो ‘कहानी का राज क्या है?’ और नानसेन कहे, ‘रीको!’ तो तुम जानते ही हो कहानी को। तुम कहोगे, ‘जी।’ पर वह ‘जी’ बुद्धि से आएगा, वह झूठा होगा, वह कहानी का हिस्सा होगा। वह वास्तविक नहीं होगा। तुम कहानी की पुनरुक्ति कर रहे हो। तुम नाटक के हिस्से हो, प्रामाणिक नहीं हो।
लेकिन रीको के साथ वह पहली दफा घटा था। उसे पता ही नहीं था कि नानसेन क्या करेगा। और जो भी वह सोच सकता था, वह, यह नहीं था। सोच सकता था कि नानसेन कुछ कहेगा, समझाएगा।
नानसेन ने सिर्फ आवाज दी। न केवल आवाज दी, जोर से हाथ की ताली बजाई। टूट गई होगी नींद--एक क्षण को, चौंक गया होगा। कहानी छिटक गई होगी। भीतर कहानी का जो सिलसिला था, वह एकदम टूट गया होगा। एक क्षण को अंतराल पैदा हुआ होगा। सुना होगा--‘रीको!’--और हाथ की ताली। उत्तर जो आया होगा, वह बुद्धि से नहीं आ सकता। वह बीच के अंतराल से, खाली जगह से आया होगा। उसने कहा, ‘गुरुदेव!’ रीको चौंक कर बोला।
यह तो कोई कहानी का हिस्सा ही न था। कहानी से इसका कोई जोड़ न था। यह कहानी से बिल्कुल टूटी हुई बात थी, अलग ही थी, गैर-सिलसिले में थी।
ध्यान रहे, सदगुरु तुम्हें गैर-सिलसिले में ले जाने के लिए निरंतर नई विधि खोजेगा। क्योंकि सब पुरानी विधियां बेकार हो जाती हैं। मन इतना होशियार है कि पुरानी विधियों को सीख लेता है वह कहता हैः मैं पारंगत हो गया। करवाओ--मैं करने को तैयार हूं। जपवाओ--राम-राम, मैं जपूंगा। आसन करवाओ, शीर्षासन लगवाओ मैं लगाऊंगा। यह सब मुझे पता है। पतंजलि के सभी योगसूत्र मैंने पढ़ लिए हैं।
लोग आकर मुझे पूछते हैं कि ‘आप नई-नई विधियां क्यों ईजाद करते हैं? क्या पुरानी काम नहीं देंगी?’ पुरानी काम न देंगी, क्योंकि मन जिसको भी जान लेता है, उसी को व्यर्थ कर देता है। इसलिए जब भी पतंजलि पैदा होंगे, उन्हें नई व्यवस्था करनी पड़े; उन्हें फिर से योगसूत्र लिखना पड़े। पुराना योगसूत्र काम न आएगा। तुम जानकार हो गए हो। तुम भलीभांति जानते होः यम, नियम--अष्टांगिक मार्ग--तुम्हें पता है। पतंजलि बोलें, उसके पहले तुम बता दोगे कि यह हमें मालूम है।
जिस चीज को भी तुम कह सकते होः ‘यह हमें मालूम है’, वह व्यर्थ हो गया। तुम्हारा ‘मालूम होना’ ही तो उपद्रव है। तुम्हारे अज्ञान को उठाना पड़े; तुम्हारे ‘ज्ञान’ से उत्तर नहीं आना चाहिए। तुम्हें इतना चौंका देना पड़े कि तुम्हारी बुद्धि छितर-बितर हो जाए और भीतर से--तुम्हारे प्राण का उत्तर आए।
रीको ने सुनाः जोर से आवाज, हाथ की ताली। उसने कहाः ‘हां गुरुदेव!’ वह चौंक कर यह बोला। जैसे कोई दुर्घटना घटने को है। ‘देखो!’ नानसेन ने कहा, ‘मछली बाहर निकल गई!’
जब भी तुम चौंक कर प्रत्युत्तर दे सकते हो--जब भी तुम बुद्धि के बाहर से उत्तर दे सकते हो, मछली बाहर निकल गई।
बुद्धि की बोतल है। बोतल टूटती नहीं, सिर्फ खुलती है। बोतल को तोड़ने की जरूरत भी नहीं है।
लेकिन जब भी तुम्हारे भीतर से कोई आकस्मिक उत्तर आता है, वह बुद्धि से नहीं आता। बुद्धि से नया तो आ ही नहीं सकता। बुद्धि सदा पुरानी है; उससे हमेशा पुराना आता है। बुद्धि पुनरुक्ति है; वह यांत्रिक है। उससे नया तो पैदा हो ही नहीं सकता। उसमें तुमने जो डाला है, वही निकलता है। जो नहीं डाला है, वह नहीं निकलता।
तुमसे कोई पूछेः ‘ईश्वर है?’ बुद्धि फौरन उत्तर देती हैः ‘हां या न।’ वह तुम्हारा डाला हुआ उत्तर है; उसका कोई मूल्य नहीं है। तुम हां कहो कि न कहो--सब कचरा है। तुम कहो कि मैं आस्तिक हूं, तो दो कौड़ी का है। तुम कहो कि मैं नास्तिक हूं, तो दो कौड़ी का है। बुद्धि से उत्तर आया, तो उसका कोई संबंध तुम्हारे पूरे प्राणों से नहीं है। लेकिन जहां बुद्धि ठिठक जाए, जहां बुद्धि से उत्तर न आए, जहां तुम्हारा अतीत न बोले, जहां तुम्हारा मृत अनुभव न बोले, जहां ‘तुम’ बोलो--अभी और यहीं, जहां उत्तर जीवंत हो, सहज हो, स्पांटेनियस हो, स्व-स्फूर्त हो, बस-बोतल खुल गई। उसे तोड़ने की जरूरत न रही। थोड़ी देर को बादल छंट गए और सूरज बाहर निकल आया।
बादल, सूरज को घेरे हैं। बादलों को तोड़ने की जरूरत थोड़ी है, उन्हें सिर्फ छिटका देने की जरूरत है। और एक बार तुम्हें अनुभव हो जाए, तब तुम बादलों के भीतर भी मुक्त हो।
सूरज यह भलीभांति जानता है कि बादल उसे नहीं घेर सकते हैं। बादलों की सामर्थ्य क्या? इसलिए ज्ञानी विचार का भी उपयोग करने लगता है। ज्ञानी बोतल का भी उपयोग करने लगता है। बोतल उसे बांधती नहीं; बोतल भी उसके लिए उपकरण हो जाती है।
‘देखो,’ नानसेन ने कहा, ‘मछली बाहर निकल गई!’
यह और मुसीबत खड़ी कर दी। यह और भी चौंकाने वाला है। उसने दूसरी दफे ‘तारी’ (नींद) तोड़ दी होगी। क्योंकि पहली दफा तो रीको ने समझा होगा कि कुछ ऐसी दुर्घटना घट रही है कि नानसेन कहानी भूल गया है। घर में आग लग गई, कि मरने जा रहा है, कि कुछ हो रहा है, कि वह चिल्लायाः ‘रीको।’ जैसे कोई डूबता हो! कहानी उसे भूल ही गई। उसकी बुद्धि से उत्तर न आया। उसके प्राण बोलेः ‘हां, गुरुदेव!’ और नानसेन ने फिर कहानी वापस जोड़ दी। नानसेन ने कहाः ‘देखो, मछली बाहर निकल गई।’ यह फिर आकस्मिक है।
इस कहानी के दो तल हैं। एक तल पर सब सीधा जा रहा था। एक गड्ढा आ गया, एक दचका लगा। जब नानसेन ने कहाः ‘रीको!’ और ताली बजाई, तब सब तारतम्य अतीत से टूट गया। और जब रीको ने उत्तर दिया और नानसेन ने कहाः ‘देखो, मछली बाहर निकल गई!’ तो उसने फिर सारा तारतम्य जोड़ दिया।
रीको के लिए यह फिर आकस्मिक है। क्योंकि सिर्फ कहानी समझाने के लिए इतने जोर से चिल्लाने की कोई जरूरत न थी और न ताली बजाने का कोई प्रयोजन था। नाहक चौंकाया। यह तो नींद में ही चल जाता। लेकिन नानसेन ने रीको के अनुभव में कहानी को डाल दिया। अब रीको भीतर से जानता है कि मछली क्षण भर को बाहर निकली थी इसमें कोई शक नहीं है। इसका स्वाद उसे आ गया।
गुरु समझाते नहीं, दिखाते हैं। जैसे कि मैं तुम्हें द्वार पर ले जाऊं और दिखाऊं कि देखो बाहर। कि खिड़की खोलूं और बताऊं कि देखो, बाहर सूरज निकला है।
समझाया क्या जा सकता है? सब समझाना तुम्हें केवल खिड़की तक ले आने के लिए फुसलाना है--बस।
सब समझाना ऐसे है, जैसे छोटे बच्चों को मिठाई देकर हम कहीं ले जाएं। मिठाई के मोह में वे चले जाते हैं। खिड़की भी खुल जाती है। वे मिठाई पर ही नजर रखते हैं। लेकिन जब खिड़की खुल जाती है, तब बाहर भी देखना पड़ता है।
अब तक जो भी गुरु ने समझाया है, वह सिर्फ खिड़की पर लाने के लिए। फिर अचानक वे आवाज देंगेः ‘रीको!’ ताकि तुम चौंक जाओ, तुम्हारी नींद टूटे तुम्हारी बुद्धि का सिलसिला टूटे। तुम गैर-सिलसिले में बाहर झांक पाओ--एक क्षण को भी, तो मछली बाहर निकल जाती हैः बोतल टूटती नहीं, सिर्फ खुलती है।
रीको तो और मुश्किल में पड़ा होगा। कहानी हल कर दी गई और कहानी के संबंध में एक शब्द भी न कहा गया। और जिंदगी की कहानी भी ऐसे ही हल होती है।
मुझसे लोग पूछते हैं, ‘ये ध्यान की प्रक्रियाएंः लोग चीखते हैं, चिल्लाते हैं, हुंकार मचाते हैं, नाचते हैं, रोते हैं, गाते हैं--यह क्या है?’ यह तुम्हारी भीतर की बुद्धि के सिलसिले को तोड़ना है। यह मैं क्या कर रहा हूं। तुम नहीं सोचते; तुम्हारी बुद्धि कहती हैः यह तुम क्या कर रहे हो! लोग क्या कहेंगे! यह तुमने कभी नहीं किया; इज्जत है, प्रतिष्ठा है--सब नष्ट किए दे रहे हो? कोई क्या कहेगा? तुम--और रो रहे हो? कोई क्या कहेगा कि नाच-कूद--चिल्ला रहे हो--पागलों की भांति!
बुद्धि जीवन को पागलपन समझती है। क्यों? क्योंकि विपरीत जीवन में जुड़े हैं, इसलिए बुद्धि को जीवन पागलपन जैसा मालूम पड़ता है।
अगर बुद्धि की चले, तो वह तुम्हें मरने के लिए तत्काल राजी कर ले। वह कहे कि यह जिंदगी तो गणित के हिसाब से चल नहीं रही है, बेहतर है कि तुम मर जाओ। मरा हुआ आदमी बिल्कुल गणित से चलता है। लेकिन जिंदगी बड़ी बेबूझ जा रही है, रहस्यपूर्ण है।
और अक्सर जिसको हम बुद्धिमान कहते हैं, धीरे-धीरे वह अपने को मार लेता है। वह बोतल में बंद हो जाता है।
किसी भांति तुम्हें चौंकाना जरूरी है।
झेन गुरु, जब उसके शिष्य ध्यान करते हैं, तो डंडा लेकर घूमता रहता है। वह डंडा मारता भी है। कभी भी किसी के सिर पर उसका डंडा पड़ जाता है। लेकिन वह डंडा उन्हीं क्षणों में मारता है, जब वह देखता है कि भीतर बोतल बहुत मजबूत है, विचार बहुत घने हैं या कोई विचारों में बिल्कुल सो गया है, तब वह डंडा मारेगा। उस डंडे में एक क्षण को बोतल खुलती है।
जिन लोगों ने झेन के संबंध में सिर्फ पढ़ा है और जिन्हें उसका कोई अनुभव नहीं है, बड़े हैरान होते हैं कि ‘कैसे दुष्ट गुरु हैं!’ ये दुष्ट नहीं हैं। ये महा करुणावान हैं।
तुम्हें एक झलक भी मिल जाए, स्वाद एक दफा मिल जाए--बोतल के बाहर मछली के होने का--फिर तुम खोज कर लोगे। क्योंकि तुम जानते हो, खजाना भीतर है--अपने ही भीतर है। तुम्हें कहीं खोजना नहीं है।
बोतल भी अपनी है, मछली भी मैं हूं। और बोतल विचारों की है। विचारों को हटाना है। अब कोई मामला कठिन नहीं है। अब कहीं किसी हिमालय पर जाने की जरूरत नहीं है। बस, अब आंख बंद करके इस बोतल को ही चौड़ाने की जरूरत है। इन बदलियों को ही छांटना है।
कभी झेन गुरु शिष्य को उठा कर खिड़की के बाहर भी फेंक देते हैं, जो कि बिल्कुल अनहोना लगता है।
नानसेन के गुरु ने उसे खिड़की के बाहर फेंक दिया था। वह गया था गुरु से पूछने कि ‘बुद्धत्व क्या है? कैसे उपलब्ध होगा?’ गुरु एकदम पगला गया। उसने उसकी एकदम से गरदन पकड़ ली।
वह एकदम घबड़ाया, उसने कहा कि ‘मैं सिर्फ सवाल ही पूछ रहा हूं।’ मगर उसने एक न सुनी। और गुरु मजबूत था। उसने उसे उठा कर खिड़की से बाहर फेंक दिया। और जब वह नीचे गिरा--जमीन पर धड़ाम से, तब उसके गुरु ने कहा, ‘समझ में आया? अब फिर से भीतर आकर पूछ।’
तुम होते तो भाग गए होते; दुबारा उस दरवाजे पर न गए होते। नानसेन फिर भीतर आया। उसने झुक कर गुरु को प्रणाम किया। और उसने कहा, ‘थोड़ी सी झलक तो मिली।’
कैसे मिली होगी झलक--खिड़की से गिरने में? जब तुम्हें कोई अचानक खिड़की से बाहर फेंक दे, तो यह तो बड़ा असंगत काम हो गया। तुम सीधा सवाल पूछ रहे थे कि बुद्धत्व क्या है? इसमें कोई लड़ाई-झगड़े की बात नहीं थी। इसमें कोई कुश्ती का सवाल नहीं था और इस आदमी ने अचानक तुम्हें फेंक दिया! सिलसिला टूट गया होगा; बुद्धि एकदम चकरा गई होगी; सोच-विचार को कुछ बचा न होगा।
बुद्धि के पास कोई उत्तर नहीं है--इस घटना का। अगर नानसेन बुद्धि की सुनता गिरने के बाद, तो लौट जाता। समझताः यह आदमी पागल है। मैंने इसके पास जाकर गलती की। और दूसरों को बताता कि कभी भूल कर इसके पास मत जाना; उसने मेरे साथ दुर्व्यवहार किया है। या पुलिस में रिपोर्ट करता, अदालत में मुकदमा चलाता।
लेकिन नानसेन जब नीचे गिरा, तब गुरु ने खिड़की से झांक कर पूछा, ‘नानसेन, पता चला? कुछ समझ में आया?’ उस समय विचार लौटे नहीं थे, अंतराल था। उस अंतराल में गुरु का खिड़की पर से झांकता हुआ चेहरा बुद्ध का चेहरा था। उस अंतराल में नानसेन को दिखाई पड़ी वह आंख जो बुद्ध की आंख थी। दिखाई पड़ी वह करुणा, जिसने उठा कर फेंका और भीतर क्षण भर को, विचार नहीं थे; मछली बाहर थी; बोतल खुली थी।
नानसेन लौट कर दरवाजे से आया, गुरु के चरण उसने छुए। और उसने कहा, ‘समझ में आया। अब सदा मुझ पर कृपा करना। अब जब भी मैं पूछूं, उत्तर मत देना, खिड़की के बाहर उठा कर फेंक देना। उत्तर तो बहुतों ने दिए थे और उत्तर मुझे न मिला था।’
अगर तुम सच में ही खोज में हो, तो उत्तर शब्दों से नहीं दिए जा सकते। आकस्मिक घटना तुम्हें खोलेगी।
और कठिनाई यही है कि हजारों साल में हजारों तरह की घटनाएं घट चुकी हैं, हजारों कहानियां निर्मित हो चुकी हैं और तुम उन सब कहानियों से परिचित हो। इसलिए रोज नये को ईजाद करना जरूरी है, जिसका तुम्हारे पास कोई हिसाब-किताब न हो, जो तुम्हें चौंका दे और अंतराल में गिरा दे।
कहते हैं, नानसेन ने बहुत लोगों को जगाया। लेकिन कृपा उस गुरु की थी, जिसने खिड़की के बाहर नानसेन को फेंका था।
कई बार झेन गुरु बहुत दुष्ट मालूम पड़ सकते हैं।
एक शिष्य नानसेन से कुछ पूछने आया। जैसे ही वह दरवाजे में प्रवेश कर रहा है कि नानसेन ने जोर से दरवाजा बंद कर दिया। उसका हाथ दरवाजे में दब गया और पिचक गया और लहूलुहान हो गया।
हाथ भीतर दबा है और नानसेन दरवाजे को दबाए हुए है। बाहर शिष्य चिल्ला रहा है और नानसेन कह रहा है, ‘चिल्लाना बंद कर, हाथ को छोड़, भीतर देख। यह क्षण चूका जा रहा है। तू हाथ को देख रहा है, दरवाजे को देख रहा है, खून को देख रहा है। क्षण चूका जा रहा है। यह सब पीछे सोच लेंगे। इतनी जल्दी क्या है। समय बहुत पड़ा है। तू इस समय भीतर देख।’ क्योंकि जब भी कोई ऐसी घटना घटती है, तभी थोड़ी देर के लिए बोतल खुलती है। तुम चूक जा सकते हो।
और अगर तुम्हें ख्याल हो तो जरूरत नहीं है कि नानसेन दरवाजा बंद करे। नानसेन का गुरु बाहर फेंके। जिंदगी बहुत मौके दे रही है। साइकिल का एक्सीडेंट हो गया है, कार का एक्सीडेंट हो गया है; तुम सड़क के किनारे पड़े हो। इस मौके को मत चूकना। खुद परमात्मा ने तुम्हें फेंका है, एक अवसर दिया है कि मछली बोतल के बाहर हो जाए।
इसलिए ज्ञानियों ने कहा है कि दुर्घटनाएं भी सौभाग्य हैंः अगर तुम्हें अक्ल हो! तुम्हें अक्ल न हो, तो सौभाग्य को भी दुर्भाग्य बना लेने में तुम कुशल हो।
दुर्घटनाओं में भी झलक मिल सकती है। लेकिन रोना, चीखना, चिल्लाना मत शुरू कर देना। अंतराल मिला है--तुम सड़क के किनारे पड़े हो। एक क्षण को सब बुद्धि अस्त-व्यस्त हो गई है; अराजकता आ गई है। सब टूट गए बादल, तुम खाली हो, कुछ सोचने को नहीं बचा है। बस, उसी समय भीतर देख लेना।
जिंदगी भी बहुत मौके देती है, लेकिन तुम चूकने में कुशल हो। तुम ध्यान ही नहीं देते--अंतराल पर। जब भी कभी मन के दो विचार दूर होते हों और बीच में खाली जगह होती हो, तभी तुम कुछ और काम में लग जाते हो। शायद तुम भयभीत हो, खुद से मिलने से डरे हुए हो। यह भय छोड़ो।
ध्यान में भी जैसे ही अंतराल आता है, लोग भयभीत होते हैं। मेरे पास आते हैं और कहते हैंः ‘बहुत डर लगता है।’ जब भी तुम्हें डर लगे, तब समझना कि ठीक जगह के करीब हो। क्योंकि बुद्धि आश्वस्त तब तक रहती है, जब तक उसका सिलसिला चलता है। जैसे ही उसका सिलसिला टूटता है, बुद्धि भयभीत होती है। वह कहती हैः ‘अब अज्ञात में, अनजान में प्रवेश हो रहा है। अब मुझ पर भरोसा मत करो; लौट आओ वापस। यह जाना-माना रास्ता ठीक है। उसी कोल्हू के बैल के रास्ते पर चलो, जिस पर हम सदा चले हैं। वहां सब पहचाना हुआ है। वहां कोई खतरा नहीं घटता। वहां कोई दुर्घटना नहीं है।’
बुद्धि वहीं भयभीत होती है, जहां वह पाती है कि दुर्घटना घट सकती है; अज्ञात करीब आ रहा है। अनजान और अपरिचित को देख कर भीतर बुद्धि बेचैन होने लगती है।
जब भी तुम्हारे ध्यान में बेचैनी आने लगे, भय आए, परमात्मा को धन्यवाद देना। ठीक घड़ी करीब आ रही है। जल्दी ही परमात्मा तुम्हें खिड़की के बाहर फेंकेगा। सिर पर डंडा उतरेगा। या तुम्हारा गुरु आवाज देगा, ‘रीको!’ ताली बजाएगा और एक क्षण मछली बोतल के बाहर हो सकती है।
मछली सदा से बोतल के बाहर है। तुम बड़े कलाकार हो; कैसे तुमने उसे बोतल में कर लिया! वस्तुतः मछली सदा से बाहर है और तुमने उसके चारों तरफ बोतल बनाई है। लेकिन बोतल मजबूत बन गई है और अब तुम छटपटा रहे हो। और अब तुम चिल्लाते हो कि मैं स्वतंत्रता, मोक्ष चाहता हूं। कैसे इस परतंत्रता के बाहर निकलूं? और निकल नहीं पा रहे हो। और बोतल तुम्हारी अपनी बनाई हुई है!
इस कहानी का शब्द में क्या सार हुआ? जब चिल्लाया नानसेन, ‘रीको!’ और उसने ताली बजाई तो क्या हुआ? एक क्षण को होश आया रीको को। बस, होश के क्षण में बोतल के बाहर हो जाती है मछली।
जिस क्षण तुम होश में हो, उस क्षण तुम परमात्मा हो। उस क्षण कुछ पाने को नहीं है, उस क्षण कुछ खोने को नहीं है। उस क्षण कहीं जाने को नहीं है। उस क्षण तुम सिद्ध हो। उस क्षण तुम सिद्ध-शिला पर हो। पर फिर खो जाएगा वह क्षण; उसे तुम्हें बार-बार खोजना पड़ेगा। और जितना तुम खोजते रहोगे, उतना ही आश्वस्त होते जाओगे। जितना बार-बार उसका स्वाद लोगे, उतना स्वाद गहरा होता जाएगा। जितना बार-बार उसे पहचानोगे, उतनी प्रत्यभिज्ञा गहरी होगी, सुरति मजबूत होगी। और एक दिन ऐसा आएगा कि तुम पाओगे कि बोतल तो कभी थी ही नहीं, मछली सदा से मुक्त है।
मछली बाहर है--इस क्षण भी। देखो, मछली बाहर है। थोड़ा सा अंतराल है।
कहां समस्या है? समस्या बनाई हुई है। और इसलिए हल नहीं हो सकती। समस्या झूठी है। समस्या है ही नहीं, सिर्फ बनाई गई है। मछली बाहर ही है। जागो और मछली बाहर है।
ये जो पहेलियां हैं, सोचने के लिए नहीं--जागने के लिए हैं। विचार करने के लिए नहीं--होश से भरने के लिए हैं। ये कहानियां तुम्हें चौंकाने के लिए हैं। तुम्हारे भीतर जो बुद्धि का प्रवाह है, उसे रोक देने के लिए हैं।
यह तुम्हारे भीतर भी घट सकता है। कोई भी बाधा नहीं है। तुम चाहो तो इसी क्षण घट सकता है। कोई तुम्हें रोक नहीं रहा है। तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी नहीं है। चाहो तो रोक लो, चाहो तो घट जाने दो।
एक ताली बजने से घटना घट सकती है। और यह भी हो सकता है कि तुम जन्मों-जन्मों तक शीर्षासन और हठयोग करो और घटना न घटे। ताली बजने से रीको चौंक गया और घटना घट गई।
जागने से घटना घटती है। आसन लगा कर भी तुम सोए रह सकते हो। आसन भी तुम्हारे नींद के ही हिस्से हो सकते हैं, तब आसन भी बोतल बन जाएंगे। तुम रोज आसन कर लोगे और बोतल मजबूत होती चली जाएगी।
गुरजिएफ एक अनूठा प्रयोग करता था, जैसा प्रयोग किसी दूसरे गुरु ने कभी नहीं किया। और इसलिए नये गुरु को समझना मुश्किल हो जाता है। और ध्यान रखो कि नया गुरु ही जगाता है, पुराने गुरु तो तुम्हारी बुद्धि के हिस्से हो जाते हैं।
मैं तुमसे कहता हूं कि मेरे पास तुम जाग सकते हो, कभी तुम्हारी बोतल के बाहर आ सकती है मछली, क्योंकि तुम्हारी बुद्धि अब मेरा हिसाब लगाने में असमर्थ है।
भारत में सैकड़ों गुरु हैं, तुम उनके पास जाओगे--मैं कहता हूंः तुम्हारी बोतल से मछली बाहर नहीं आएगी। नहीं आएगी इसलिए, कि तुम्हारी बुद्धि में और उन गुरुओं की बुद्धि में कोई भी भेद नहीं है। तुम एक ही सिलसिले के हिस्से हो। वे तुम्हें चौंका न सकेंगे। वे जो कहेंगे, उस पर तुम्हारा सिर भी हिलेगा; तुम कहोगेः ‘बिल्कुल ठीक है। यही तो हम मानते हैं।’ वे तुम्हें शास्त्र समझाएंगे। तुम कहोगेः ‘यह बिल्कुल ठीक है। यही तो हमारी भी व्याख्या है।’ वे तुम्हें चौंका नहीं सकते, तो जगा भी नहीं सकते। तुम्हारी और उनकी बुद्धि में तालमेल है, क्योंकि वे परंपरागत हैं।
गुरजिएफ ने बड़े अनूठे प्रयोग किए। एक प्रयोग उसका यह था कि जो भी व्यक्ति उसके पास आता, वह पहला काम यह करता कि उसका भोजन बदल देता। अगर वह शाकाहारी था, तो उसे मांसाहारी कर देता। अगर वह मांसाहारी था, तो शाकाहारी कर देता। तो पूरे शरीर की केमिस्ट्री, पूरे शरीर का रसायन झंझट में पड़ जाता। शरीर का रसायन एक दिन का काम नहीं है। शरीर बनता है पूरे जीवन में।
एक जैन को, जिसने कभी मांस-मछली नहीं खाई, मांस-मछली खाना पड़े! खोपड़ी पर लट्ठ पड़ गया। किसी ने खिड़की से फेंका, उससे भी ज्यादा खतरनाक हो गया यह मामला। क्योंकि खिड़की से फेंकने में शरीर की केमिस्ट्री को थोड़ा बहुत धक्का लगता है--ज्यादा नहीं। क्या होगा, थोड़े हाथ-पैर छिल जाएंगे, तुम उसे ठीक कर लोगे--मलहम लगा कर। कोई ऐसी जान नहीं निकली जा रही है।
लेकिन गुरजिएफ शाकाहारी को कहता कि मांसाहार करो। तुमने अगर कभी मांस नहीं खाया, तो खाने की सोच के भी बेचैनी खड़ी होती है। सारा रोआं-रोआं कंपता है। और तुम्हारी बुद्धि कहेगीः ‘भागो इस आदमी के पास से। कहां के नासमझ के पास पड़े हो। गुरुओं ने कभी मांसाहार करने को कहा है? सदगुरु सदा समझाते रहे हैं कि शाकाहार करो। और यह आदमी समझा रहा है--मांसाहार।
जिसने कभी शराब नहीं पी, गुरजिएफ इतनी शराब पिला देता उसको, जितना कि पीने वाला भी पी ले तो पागल हो जाए। पीने वाला तो बिल्कुल ही विक्षिप्त हो जाता। दो-चार दिन के लिए बिल्कुल डांवाडोल हो जाता। इस तरह गुरजिएफ धक्का दे दिया करता उसे।
वह ब्रह्मचारी को कहता--संभोग! वेश्यागामी को कहता--ब्रह्मचर्य। शराब जो पीता था, उससे शराब छीन लेता। अस्त-व्यस्त करता।
नियम साफ था कि तुम जैसे चलते रहे हो, अगर वैसे ही चलते जाओ--उसी ही सिलसिले में--तो तुम कभी भी न पहुंचोगे।
तुम्हें डांवाडोल कर देना पड़ेगा। तुम्हें इस बुरी तरह फेंकना है--खिड़की के बाहर, कि तुम्हारे भीतर की सब हड्डी--पसलियां अस्त-व्यस्त हो जाएं।
गुरजिएफ के पास से लोग अक्सर भाग जाते थे, क्योंकि समझ ही न पाते थे। गुरजिएफ को न तो शराब में रस था, न मांसाहार में रस था। कुछ कह ही नहीं रहा था। उसकी बात तो सीधी-साफ थी कि तुम्हें चौंकाना है। तुम जैसे हो, अगर उसी सिलसिले में तुम बढ़ते हो, तो तुम्हारी भ्रांति बढ़ती जाएगी, तुम चौंकोगे नहीं। तुम्हारी बोतल मजबूत होती जाएगी, मछली बाहर न आएगी।
जो सुस्त और काहिल होते, उनको वह घंटों श्रम में लगा देता--सुबह छह बजे से शाम छह बजे तक। जो मेहनती होते, उनको वह बिस्तर पर सुला देता, कि बिल्कुल आराम करो। नियम व्यक्तियों को देख कर तय होते।
एक सुस्त और काहिल आदमी आया, जिसको उसने सुबह से काम पर लगा दिया। जिद्दी आदमी था। उसने कहा, ‘आप कहते हो तो करेंगे।’ वह सुबह से शाम तक काम करता रहा। शाम को वह लौट कर आ रहा था; गुरजिएफ फिर बाहर आया और उसको कहा कि चल, थोड़ा काम और करना है। वह बिल्कुल टूटा जा रहा था। कभी उसने किया नहीं था। कभी बारह घंटे उसने काम नहीं किया था। बारह मिनट भी नहीं किया था! पैर लहूलुहान थे; हाथ में छाले पड़ गए थे, क्योंकि लकड़ी काट रहा था दिनभर से।
गुरजिएफ उसको फिर वापस काम पर ले चला। एक हॉल बनाया जा रहा था--ध्यान-प्रार्थना के लिए, उसमें कुछ बीम कसने थे। गुरजिएफ ने उसको ऊपर चढ़ा दिया। वहां से अगर वह गिरे, तो जान का खतरा है। और वह इतना थका-मांदा था कि अब वह जग भी नहीं सकता। वह बिल्कुल सोई हालत में है। और वह बीम को लगाते--लगाते वहीं बैठा-बैठा सो गया--इतना थक गया था कि वह बिल्कुल सो गया। और जब वह सोया, तब गुरजिएफ चिल्लाया।
रीको ने भी क्या वैसी आवाज सुनी होगी, क्योंकि तब कहानी चल रही थी। और यह आदमी बारह घंटे का थका-मांदा और यह नींद कोई साधारण नींद नहीं है। यह नींद गहरी से गहरी नींद है, क्योंकि वह इतना थक गया है और जान खतरे में है, तो भी नींद आ गई।
और जब गुरजिएफ चिल्लाया और उस व्यक्ति ने आंख खोल कर देखा होगा, तो उसे समझ में न आया होगा कि वह कहां है? कौन है? क्या है? सब रूप, सब पहचान खो गई होगी, सब आइडेंटिटी खो गई होगी। उसने देखा भी होगा। उसे यह समझ में न आया होगा कि यह आदमी जो चिल्ला रहा है, यह कौन है; यह जगह क्या है!
कभी तुम्हें ख्याल है कि गहरी नींद से तुम्हें कोई जगा दे, तो तुम्हें एकदम से समझ में नहीं आता कि तुम कौन हो, कहां हो, क्या मामला है? मिनट, दो मिनट लग जाते हैं, तब तुम्हारी बुद्धि फिर से सिलसिला पकड़ती है, पटरी पर आती है।
और यह आदमी तो भयंकर थका हुआ था। कहते हैंः वह उसी क्षण सतोरी (समाधि की झलक) को उपलब्ध हो गया। वहीं बीम पर बैठे-बैठे वह हंसने लगा और उसने गुरजिएफ से कहा, ‘कमाल! जिसकी मैं जिंदगी भर से तलाश में था, वह हो गया।’
चौंकने में कुंजी है। इसलिए उस आदमी की तलाश करना जो तुम्हें चौंका दे।
बहुत बार मैं तुमसे ऐसी बातें कहना चाहता हूं, जो मैं कभी कहना नहीं चाहता था। उनकी सचाई और झूठ का सवाल नहीं है। उनके ठीक और गलत होने की बात ही फिजूल है। वे सिर्फ तुम्हें चौंकाने के लिए कही गई हैं। अगर तुम चौंक गए, तो वे सार्थक हैं। अगर तुम नहीं चौंके और सोच-विचार में पड़ गए तो वे व्यर्थ हो गईं।
गुरजिएफ जैसे व्यक्तियों की बातों से तुम हिसाब मत लगाना कि उनका प्रयोजन क्या है। उनके प्रयोजन बहुत भिन्न हैं। अगर वे तुमसे कहते हैंः ‘मांसाहार करो’, तो इसका मतलब यह नहीं है कि वे महावीर के दुश्मन हैं, और मांसाहार करवाना चाहते हैं। अगर वे तुमसे कहें कि ‘शाकाहार करो’, तो तुम यह मत समझना कि वे महावीर के अनुयायी हैं, और तुमसे शाकाहार करवाना चाहते हैं। उनका प्रयोजन ही भिन्न है।
और महावीर ने जब लोगों को कहा कि शाकाहार करो, तब उनका भी प्रयोजन यही था। महावीर क्षत्रिय घर में पैदा हुए, जहां मांसाहार जीवन की व्यवस्था थी। और महावीर जिनके बीच थे, वे सभी मांसाहरी थे। अचानक उनके बीच इस आदमी ने शाकाहार की बात कही; इसने उन सबके जीवन की केमिस्ट्री बदल दी। उन सबके भीतर के रसायन को तोड़ दिया। और जब पुराना रसायन टूटता है, तब पुराना मन भी टूटता है। क्योंकि सब जुड़े हैं।
तो भीतर की रासायनिक प्रक्रिया को बदलने से मन की प्रक्रिया टूट जाती है।
तो फायदा हुआ। लेकिन अब जैनियों को शाकाहार से कोई फायदा नहीं हो रहा है। क्योंकि अब उनकी रासायनिक प्रक्रिया शाकाहार से नहीं टूटती, अब तो कोई मछली डाल दे उनके मुंह में तो शायद टूटे। क्योंकि अब तो वह झपकी गहरी लग गई, अब तो रोज शाकाहार कर रहे हैं! और ठीक उसी हालत में हैं, जिस हालत में महावीर ने मांसाहारियों को पाया था। अब वे शाकाहारी हैं, अब शाकाहार बुद्धि का हिस्सा हो गया है।
जो चीज बुद्धि का हिस्सा हो जाए, वह व्यर्थ हो जाती है। क्योंकि उससे बुद्धि चलती जाती है।
किसी साधु को कहो कि जाओ और चोरी करो। जिसने कभी चोरी नहीं की--थोड़ा सोचो, कैसी साधना होगी, जब वह चोरी करने जाएगा! बुद्धि चलेगी वहां? बुद्धि बिल्कुल नहीं चलेगी। बुद्धि तो कहेगीः ‘वापस।’ कहां जा रहे हो? यह तुम क्या कर रहे हो? अनीति हो रही है!’ अगर वह चलता ही चला जाए, तो बुद्धि पीछे छूट जाएगी; वह उसके साथ नहीं जाएगी। वह कहेगीः ‘तुम पागल हो गए। जाओ, जहां तुम्हें जाना है, अब मैं तुम्हारे साथ नहीं आती। पछताओगे पीछे, कहे देती हूं।’ लेकिन अगर वह हिम्मत रखे और चोरी करने चला जाए, तो बुद्धि के सारे तारतम्य टूट जाएंगे। हो सकता है, चोरी में ही समाधि फलित हो।
जिंदगी बड़ी रहस्यपूर्ण है। वहां तुम्हारा सिलसिला टूटना जरूरी है। कैसे टूटेगा? --कहना मुश्किल है। लेकिन एक बात यह है कि जब वह टूटेगा, तब ही तुम जागोगे। वह नहीं टूटेगा, तो तुम जाग नहीं सकते।
सदगुरुओं ने अनेक उपाय किए हैं, वे उन लोगों को देख कर किए गए हैं, जिनके बीच वे थे। कोई उपाय शाश्वत नहीं है। सब उपाय उपयोगी हैं कभी, और कभी निरुपयोगी हो जाते हैं। व्यक्तियों पर निर्भर है।
अगर कोई गुरु रोज ही तुम्हें खिड़की के बाहर फेंकता रहे, तो तुम अभ्यासी हो जाओगे। तुम समझोगे कि गुरु व्यायाम करवा रहा है। तुम रोज जाकर खड़े हो जाओगे कि ‘अब फिर से फेंकिए!’ तुमने व्यर्थ कर दी बात। क्योंकि यह कोई अभ्यास का मामला नहीं था। अभ्यास में कभी कोई चौंक ही नहीं सकता। जिस चीज का अभ्यास हो, वह बुद्धि का हिस्सा हो जाती है।
इसलिए कबीर कहते हैंः ‘साधो सहज समाधि भली।’ अभ्यास किया कि भटके। सहज का अर्थ हैः जो अभ्यास से नहीं होता--जो सहज होता है, तो अभ्यास के बाहर होता है। तो कबीर कहते हैंः न तो मैं सिर मुडाता, न मैं उलटे-सीधे आसन करता, मैं कुछ भी साधन-यत्न नहीं करता हूं, क्योंकि यत्न तो अभ्यास हो जाएगा। अभ्यास मन का हिस्सा हो जाता है। इस प्रक्रिया को ठीक से समझ लें।
जो भी तुमने साधा, वही मन का हिस्सा हो गया। क्योंकि वह फिर तुम्हें चौंकाएगा नहीं। जो भी अनसधा है, जो चौंका देता है, जो प्रयत्न के बाहर है, जो तुम्हारी समझ, तुम्हारे यत्न, तुम्हारी प्रक्रिया और अभ्यास के बाहर है, वही तुम्हें चौंकाएगा, वही तुम्हारी नींद को तोड़ेगा। वही तुम्हारे कारागृह के बाहर से आई आवाज है।
कबीर ठीक कहते हैं। समाधि तो सहज ही हो सकती है, साधी हुई समाधि-समाधि नहीं होगी।
पतंजलि भी जानते हैं, इसलिए पतंजलि ने समाधि के दो हिस्से किए हैं। पतंजलि एक समाधि को कहते हैंः सविकल्प समाधि और दूसरी समाधि को कहते हैंः निर्विकल्प समाधि।
जो भी तुम साध रहे हो, उससे सविकल्प समाधि आएगी। वह वास्तविक समाधि नहीं है। वह समाधि का धोखा ही है। वह तुमने ही चुनी है, तुमने ही साधी है। वह समाधि की छाया है, वास्तविक समाधि नहीं है। वास्तविक समाधि तो निर्विकल्प होगी; वह तुम्हारे साधने से न आएगी। वह कभी आएगी, जब ‘तुम’ मौजूद न होओगे। जब कभी तुम किसी क्षण में खो गए होओगे, तब वह आएगी। जब भी पाएगी कि तुम घर में नहीं हो, वह आ जाएगी।
पहली समाधि घर में तब आती है, जब तुम होते हो; तुम जितने होते हो, उतनी ही ज्यादा आती है। पहली समाधि साधने से आती है, प्रयत्न करने से आती है, अभ्यास करने से आती है।
दूसरी समाधि घटती है; वह तुम्हारे हाथ में नहीं है। तुम उसे ला नहीं सकते, तुम सिर्फ प्रतीक्षा कर सकते हो। और तुम्हारी प्रतीक्षा इतनी गहरी हो जाए कि धीरे-धीरे तुम प्रतीक्षा करने वाले को ही भूल जाओ--कि कौन प्रतीक्षा कर रहा है। तब अचानक तुम पाओगे, वह उतर आई। वह तुम्हारा उपाय नहीं है, वह अस्तित्व का प्रसाद है। वह तुम्हारी मुट्ठी में नहीं है।
तुम्हारी मुट्ठी में जो भी होगा, वह तुमसे बड़ा नहीं हो सकता, वह तुमसे छोटा होगा। जिसे तुम ला सकते हो, वह तुमसे छोटा होगा, क्षुद्र होगा। वह तुम्हारा ही फैलाव होगा। जो तुम्हारे बिना लाए आता है, वही विराट होगा।
इसलिए साध-साध कर जो तुम ले आओगे, वह सिर्फ छाया है। जिस दिन तुम साधना भी छोड़ दोगे, उसी दिन सिद्ध होने की घटना घटती है। जिस दिन तुम ध्यान भी छोड़ देते हो... करते हो, करते हो, करते हो--कर-कर के छाया निर्मित होती है, कुछ और निर्मित नहीं होता--अंत में तुम छोड़ देते हो। पहले साधते हो, साधते हो, साधते-साधते थक जाते हो, उसे भी छोड़ देते हो। एक ऐसी घड़ी आती है, जब तुम कुछ भी नहीं करते हो। बस, होते हो। उसी घड़ी निर्विकल्प समाधि उतरती है। उसी को कबीर कह रहे हैंः ‘साधो सहज समाधि भली।’
और ऐसी ही सहज समाधि रीको को घटी होगी, जब गुरु सिर्फ चिल्लाया, ताली बजाई, और रीको चौंका। उस चौंकने में घट गई।
मछली बोतल के बाहर हो गई। इसे रीको ने जान लिया, उसे रीको ने अनुभव किया।
और अनुभव ही बताएगा अर्थ। अनुभव के बिना सब व्याख्याएं हैं। व्याख्याएं व्यर्थ हैं; उनमें कुछ सार नहीं है, क्योंकि वे जीवंत नहीं हैं।

आज इतना ही।  

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