चौथा प्रवचन-आदर्शें को मत थोपें
मेरे प्रिय आत्मन्!
तीन मुक्ति-सूत्रों के संबंध में सुबह मैंने आपसे बात की। सत्य को जानने की दिशा में, या आनंद की उपलब्धि में, या स्वतंत्रता की खोज में मनुष्य का चित्त सीखे हुए ज्ञान से, अनुकरण से और वृत्तियों के प्रति मूर्च्छा से मुक्त होना चाहिए, यह मैंने कहा।
इस संबंध में बहुत से प्रश्न आए हैं। उन पर हम विचार करेंगे।
बहुत से मित्रों ने पूछा है कि यदि शास्त्रों पर श्रद्धा न हो, महापुरुषों पर विश्वास न हो, तब तो हम भटक जाएंगे, फिर तो कैसे ज्ञान उपलब्ध होगा?
ऐसा प्रश्न स्वाभाविक है। मन को यह खयाल आता है कि यदि महापुरुषों पर, शास्त्रों पर श्रद्धा न करेंगे तो भटक जाएंगे। मगर बड़े आश्चर्य की बात है, हम यह नहीं सोचते कि श्रद्धा करते हुए भी हम भटकने से कहां बच सके हैं। विश्वास करते हुए भी क्या हम भटक नहीं रहे हैं? भटक नहीं गए हैं? विश्वास हमें कहां ले जा सका है। विश्वास कहीं ले जा भी नहीं सकता। क्यों? क्योंकि जो विश्वास दिखाई पड़ता है ऊपर से, भीतर उसके संदेह छिपा होता है। विश्वास संदेह को छिपाने के वस्त्रों से ज्यादा नहीं है। जब आप कहते हैं, मैं विश्वास करता हूं। उसका ही मतलब हुआ कि आपके भीतर संदेह मौजूद है, नहीं तो विश्वास कैसे करिएगा। जब कोई आदमी कहता है, मैं ईश्वर पर विश्वास करता हूं, उसका मतलब? उसका मतलब अगर वह थोड़ा भीतर झांक कर देखेगा तो पाएगा कि संदेह मौजूद है। उसी संदेह को छिपाने के लिए विश्वास किया गया है। जो आदमी जानता है वह विश्वास नहीं करता।
श्री अरविंद को किसी ने पूछा थाः डू यू बिलीव इन गॉड? क्या आप विश्वास करते हैं ईश्वर में? तो श्री अरविंद ने कहाः नहीं; आई डू नॉट बिलीव, आई नो। मैं विश्वास नहीं करता हूं, मैं जानता हूं।
ज्ञान के अतिरिक्त संदेह कभी समाप्त नहीं होता। ज्ञान ही संदेह की मृत्यु बन सकता है। जैसे प्रकाश अंधकार की मृत्यु बनता है, वैसे ही ज्ञान संदेह की मृत्यु बनता है। विश्वास देकर हम अपने आपको धोखा दे लेते हैं। हम सोचते हैं कि हमने विश्वास कर लिया, बात समाप्त हो गई। विश्वास से बात समाप्त नहीं होती, भीतर संदेह मौजूद बना ही रहता है। भीतर संदेह होता है, ऊपर विश्वास होता है। जीवन भर संदेह नष्ट नहीं होता इस भांति। जिन्हें संदेह नष्ट करना हो, और संदेह नष्ट हो जाए तो ही जीवन में एक थिरता, तो ही जीवन में एक वास्तविक स्थिति उत्पन्न होती है। तो ही हम सत्य के साक्षात में समर्थ होते हैं। लेकिन संदेह जिसको मिटाना है उसे संदेह करना पड़ता है सम्यक रूप से। उसे राइट डाउट, उसे ठीक-ठीक संदेह की विधि सीखनी होती है। और अगर कोई मनुष्य ठीक से संदेह करना शुरू करे, तो एक दिन उस जगह पहुंच जाता है जहां संदेह नहीं किया जा सकता है। उस दिन जो उपलब्ध होता है वही ज्ञान जीवन को बदलता है।
क्या आप सोचते हैं ऐसा कोई सत्य नहीं होगा जीवन में जिस पर संदेह न किया जा सके? ऐसा सत्य है। लेकिन हम तो संदेह ही नहीं करते, इसलिए उसको खोज कैसे पाएंगे? सोने को आग में डालते हैं, स्वर्ण बच जाता है और जो व्यर्थ है वह जल जाता है। संदेह की आग में जो सत्य नहीं है वह जल जाएगा और जो सत्य है वह बच जाएगा। लेकिन संदेह की आग में जिसने सत्य के स्वर्ण को डाला ही नहीं, वह कभी जान भी नहीं पाएगा उसके पास स्वर्ण है या मिट्टी। संदेह की आग में डालना जरूरी है सारे विश्वासों को, ताकि जो कचरा है वह जल जाए। और जो न जल सके, अछूता निकल आए अग्नि के बाहर, वह आपके जीवन को बदल देगा, वह होगा सत्य। सत्य को संदेह से डरने की जरूरत नहीं है। जो डर रहा है, उसके पास सत्य नहीं होगा, उसके पास होगा, थोथा विश्वास। इसलिए भय मालूम पड़ता है कि मैं कहीं भटक न जाऊं। कहीं मैं जिस विश्वास को पकड़े हूं, वह जल कर राख न हो जाए। जो जल सकता है, वह जल ही जाना चाहिए, उस सोने के भ्रम में रहने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन ऐसा सत्य है जीवन में, जो कोई भी संदेह जिसे नहीं जला पाते हैं? जो संदेह की अग्नि से सुरक्षित बाहर निकल आता है?
एक व्यक्ति था, दैप्यान। उसने संदेह करना शुरू किया--ईश्वर पर, जगत पर, शास्त्रों पर, सब पर। उसने तय किया कि मैं उस समय तक संदेह किए चला जाऊंगा जब तक मुझे कोई ऐसी चीज उपलब्ध न हो जाए जिस पर मैं संदेह करना भी चाहूं तो न कर सकूं। जहां जाकर मेरी संदेह की नौका जिस चट्टान से जाकर टकरा कर चूर-चूर हो जाएगी, उसी चट्टान को मैं नमस्कार करूंगा और कहूंगा यह सत्य है।
संदेह किया उसने तो ईश्वर भी चला गया संदेह में। शास्त्र भी चले गए। महापुरुष भी चले गए। गुरु भी चले गए। सिद्धांत, संप्रदाय, धर्म भी चला गया। सब चला गया। लेकिन एक जगह आकर वह चट्टान उपलब्ध हो गई जिस पर संदेह नहीं किया जा सकता था। वह चट्टान थी, स्वयं की चट्टान। अंत में उसने चाहा कि मैं अपने पर भी संदेह करूं कि मैं हूं या नहीं? लेकिन उसे पता चला, अगर मैं यह भी कहूं कि मैं नहीं हूं, तो भी यह मेरे होने का ही प्रमाण बनता है। अगर मैं संदेह करूं अपने पर, तो मेरा संदेह भी मेरे होने को सिद्ध करता है। इस जगह आकर संदेह टूट गया। स्वयं पर संदेह नहीं किया जा सकता।
एक फकीर था, नसरुद्दीन। एक सांझ मित्रों के साथ बातचीत में संलग्न रहा और नसरुद्दीन की बातें इतनी मीठी और इतनी प्रीतिपूर्ण थीं कि रात के कब बारह बज गए मित्रों को भी पता न चला। रात के भोजन का समय चूक गया। फिर नसरुद्दीन बोला, अब मैं जाता हूं। तो उसके मित्रों ने कहा, तुमने हमारे रात्रि का भोजन भी चूका दिया है। और अब तो घर लोग सो चुके होंगे, हमें भूखे ही सोना पड़ेगा आज। नसरुद्दीन ने कहा, घबड़ाओ मत, मेरे साथ चलो, आज मेरे घर ही भोजन कर लेना।
बीस मित्रों को लेकर आधी रात नसरुद्दीन घर पहुंचा। जोश में निमंत्रण तो दे दिया। जैसे-जैसे घर के पास पहुंचा और पत्नी की याद आई, वैसे-वैसे डरा। रात आधी हो गई थी, बिना खबर दिए बीस लोगों को भोजन के लिए लाना। पत्नी क्या कहेगी? और फिर आज दिन भर से वह घर लौटा भी नहीं था। और वह तो फकीर था। सुबह आटा मांग लाता था, उसी से सांझ भोजन बनता था। आज आटा भी नहीं ला पाया था। मुश्किल होगी, द्वार पर जाकर उसे लगा, कठिनाई होगी खड़ी। उसने मित्रों से कहा, तुम रुको, जरा मैं भीतर जाऊं, अपनी पत्नी को समझा लूं। मित्र भी समझ गए, पत्नियों को बिना समझाए बड़ी कठिनाई है ऐसी स्थिति में।
मित्र बाहर रुक गए। नसरुद्दीन भीतर गया। पत्नी तो आगबबूला होकर बैठी थी। दिन भर से उसका कोई पता न था। घर में चूल्हा भी नहीं जला था। मांग कर आटा ही नहीं लाया गया था। और जब उसने जाकर कहा कि बीस मित्रों को भोजन के लिए निमंत्रण देकर ले आया हूं।
तो उसकी पत्नी ने कहा, तुम पागल हो गए हो, कहां थे दिन भर? भोजन का सवाल कहां है, हमारे लिए भी आटा नहीं भोजन का, मित्रों का तो कोई सवाल उठता नहीं। जाओ, उन्हें वापस लौटा दो।
नसरुद्दीन ने कहाः मैं कैसे वापस लौटाऊं? एक काम कर, तू जाकर उनसे कह दे कि नसरुद्दीन घर पर नहीं है।
उसकी पत्नी ने कहाः यह और अजीब बात आप मुझे समझा रहे हैं। आप उन्हें लेकर आए हैं और मैं उनसे जाकर कहूं कि नसरुद्दीन घर पर नहीं है!
नसरुद्दीन ने कहाः अब इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं। जाकर कह, समझाने की कोशिश कर।
वह स्त्री बाहर गई, उसने मित्रों से पूछाः आप कैसे आए हैं?
उन मित्रों ने कहाः आए नहीं, लाए गए हैं, निमंत्रित हैं। आपके पति भोजन का निमंत्रण देकर ले आए हैं।
उसने कहाः मेरे पति? वे तो दिन भर से आज घर में नहीं हैं, उनका कोई पता नहीं हैं।
मित्र हंसने लगे, उन्होंने कहाः खूब मजाक हो गई यह तो। वे ही हमें लिवा कर लाए हैं, ऐसा कैसा हो सकता है कि वे घर पर न हों। वे भीतर मौजूद हैं। मित्र विवाद करने लगे। और आखिर में उनकी पत्नी से बोले कि आप हट जाओ, हम भीतर जाकर देख लेते हैं अगर नहीं है तो।
नसरुद्दीन को भी क्रोध आ गया। वह बाहर निकल कर आ गया और उसने कहा, क्यों विवाद किए चले जा रहे हो। यह भी तो हो सकता कि नसरुद्दीन आपके साथ आए हों फिर पीछे के दरवाजे से निकल गए हों।
नसरुद्दीन खुद ही आकर यह कहने लगे कि यह भी तो हो सकता कि नसरुद्दीन आपके साथ आए हों फिर पीछे के दरवाजे से निकल गए हों।
मित्रों ने कहाः पागल हो गए हो! क्रोध में तुम्हें समझ नहीं आ रहा। तुम खुद ही यह कह रहे हो कि मैं नहीं हूं। यह कैसे हो सकता है। यह तो तुम्हारे होने का प्रमाण हो गया।
एक जगह है केवल जहां संदेह खंडित हो जाते हैं, गिर जाते हैं, वह है स्वयं का अस्तित्व, वह है स्वयं की आत्मा। लेकिन हम संदेह करते ही नहीं, तो इस बिंदु तक हम कभी पहुंच ही नहीं पाते। संदेह की यात्रा किए बिना कोई सत्य की मंजिल पर न कभी पहुंचा है न पहुंच सकता है। हम तो विश्वास कर लेते हैं। इसलिए निःसंदिग्ध सत्य का कभी कोई अनुभव नहीं हो पाता। और जब हमें कोई ऐसा सत्य ही न मिलता हो, जो निःसंदिग्ध है, जो इनडूबिटेबल, जिस पर शक नहीं किया जा सकता, तो हम सत्य की खोज भी कैसे करें। जब कोई स्वयं की चेतना के पास आकर यह अनुभव करता है कि नहीं, इस पर संदेह असंभव है, तब, तब इसकी खोज में और गहरे उतर सकता है।
इसलिए मैंने कहा, घबड़ाएं न विश्वास को छोड़ने से। विश्वास को पकड़ने के कारण ही आप सत्य को नहीं पकड़ पा रहे हैं। जिन हाथों में विश्वास की राख है उन हाथों में कभी सत्य का अंगार नहीं हो सकता है। सत्य को जो छोड़ता है, सत्य को जो छोड़े हुए है, वही सब्स्टीट्यूट की तरह, पूरक की तरह विश्वास को पकड़े हुए है। और जब तक इस विश्वास के पूरक को पकड़े रहेगा, तब तक सत्य की आकांक्षा और प्यास भी पैदा नहीं होती।
इसलिए जीवन की खोज में विश्वासों की राख को झड़ा देना स्वयं से, अदभुत, अदभुत अर्थ, बहुत महत्वपूर्ण अर्थ रखता है। लेकिन हमें यह समझाया जाता रहा है कि विश्वास के कारण ही हम जीवन में कहीं पहुंच सकते हैं।
झूठी है यह बात, सत-प्रतिशत झूठी है। आज तक जो भी व्यक्ति कहीं पहुंचे हैं, उनमें से कोई भी विश्वास के कारण नहीं पहुंचा है। जो भी पहुंचे हैं वे खोज के कारण पहुंचे हैं। और खोज कौन करता है? खोज वही करता है जो संदेह करता है। जो संदेह ही नहीं करता, वह खोज कैसे करेगा? न तो आस्तिक खोज करते हैं और न नास्तिक। आस्तिक मान लेते हैं बिना जाने कि ईश्वर है, नास्तिक मान लेते हैं बिना जाने कि ईश्वर नहीं है। ये दोनों विश्वास हैं। ये दोनों ही रुक जाते हैं।
धार्मिक आदमी तीसरे तरह का आदमी है। धार्मिक आदमी न तो आस्तिक होता, न नास्तिक होता। धार्मिक आदमी तो यह कहता है कि मुझे पता नहीं है मैं कैसे मान लूं? मैं अज्ञान में हूं, मैं नहीं जानता हूं। मैं खोजूंगा और अगर किसी दिन कोई सत्य मिला, तो फिर तो मान ही लूंगा। मिलने पर मानने का कोई सवाल ही नहीं रह जाता। लेकिन जब तक नहीं मिला है तब तक मैं कैसे मान लूं? अगर मैं मानता हूं तो क्या यह मान्यता असत्य की स्वीकृति नहीं है? और ऐसे असत्य पर खड़ा हुआ जीवन धार्मिक हो सकता है?
दुनिया में सभी लोग तो धार्मिक मालूम पड़ते हैं। निश्चित ही उनके जीवन का आधार कहीं कुछ असत्य होगा। अन्यथा दुनिया कभी की स्वर्ग बन गई होती। कोई मंदिर में मानता, कोई मस्जिद में, कोई बाइबिल में, कोई कुरान में, कोई गीता में, कोई महावीर में, कोई बुद्ध में, सभी तो मानते हैं। इतनी मान्यता के बावजूद भी पृथ्वी नरक बनी हुई है। इतनी मान्यता और विश्वासों के बाद भी जीवन में कौनसे आनंद की ध्वनि उत्पन्न हो हुई! कौनसे सुगंध के फूल लग गए! हजारों साल से विश्वास में दीक्षित मनुष्य को खूब भटकाया गया। इसलिए मत कहें यह कि विश्वास न होता तो हम भटक जाएंगे। विश्वास के कारण ही आप भटक गए हैं। विश्वास न होगा तो पहुंच सकते हैं, भटकाव समाप्त हो सकता है। क्योंकि जिसके चित्त पर विश्वास नहीं होता... विश्वास के न होने का मतलब नास्तिक हो जाना नहीं है, नास्तिक का भी अपना विश्वास होता है--ईश्वर नहीं है, आत्मा नहीं है, बिना जाने इन बातों को वह पकड़े हुए रहता है। आस्तिक का भी विश्वास होता है, नास्तिक का भी। धार्मिक व्यक्ति का, खोज करने वाले व्यक्ति का, जिसके जीवन में इंक्वायरी है सत्य की उसका कोई विश्वास नहीं होता, उसके अनुभव होते हैं। और जब अनुभव आ जाता है तो ज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञान विश्वास नहीं है। ज्ञान तो प्रत्यक्ष साक्षात है।
विवेकानंद खोज में थे सत्य की। रवींद्रनाथ के पिता थे, महर्षि देवेंद्रनाथ। विवेकानंद देवेंद्रनाथ के पास एक रात गए। देवेंद्रनाथ जब चांदनी रातें होती थीं तो एक नाव पर एक बजरे में ही नदी में निवास करते थे। विवेकानंद सर रात्रि को तैर कर आधी रात में बजरे पर पहुंचे, जाकर दरवाजा धकाया, अटका था द्वार खुल गया। देवेंद्रनाथ आंख बंद किए ध्यान करने को बैठे थे। विवेकानंद ने जाकर हिला दिया और कहा कि मैं एक प्रश्न पूछने आया हूं। ईश्वर को जानते हैं आप? अजीब आदमी मालूम पड़ा यह युवक, आधी रात में पानी से लथपथ नदी को पार करके चला आता है। धका कर किसी को जबरदस्ती उठा कर पूछता है, ईश्वर को जानते हैं आप? देवेंद्रनाथ झिझक गए एक क्षण को, और कहाः बैठो, फिर मैं बताऊं। विवेकानंद ने कहाः आपकी झिझक ने सब कुछ कह दिया। वे नदी वापस कूद गए और चले गए।
यही विवेकानंद कुछ दिनों के बाद रामकृष्ण के पास पहुंचे। रामकृष्ण से भी जाकर यही पूछा, ईश्वर को जानते हैं आप? रामकृष्ण ने नहीं कहा कि ठहरो समझाता हूं। रामकृष्ण ने कहा, तुझे जानना है तो बोल? तू जानना चाहता है तो बोल? मैं जानता हूं या नहीं जानता इसे पूछने से क्या फायदा? तुझे जानना है तो बोल?
विवेकानंद बाद में कहते, देवेंद्रनाथ की श्रद्धा थी कि ईश्वर है, रामकृष्ण का अनुभव था। श्रद्धा झिझक गई, क्योंकि पीछे संदेह था, कहूं, कैसे कहूं कि मैं जानता हूं? मानता हूं, सिद्ध कर सकता हूं, प्रमाण दे सकता हूं, शास्त्र के उल्लेख दे सकता हूं, उपनिषद, गीता से समर्थन दे सकता हूं, लेकिन जानता हूं? हजार प्रमाण भी, हजार अनुमान भी, हजार तर्क भी एक छोटे से अनुभव को भी पूरा कर सकते हैं? हजार शास्त्र भी एक छोटे से अनुभव के बराबर तोले जा सकते हैं? एक कण भर अनुभव हजारों शास्त्र से ज्यादा मूल्यवान है। धर्म है अनुभव, विश्वास नहीं। और पृथ्वी धार्मिक नहीं हो सकी, क्योंकि हमने भूल से धर्म का संबंध विश्वास से जोड़ दिया है। और जब तक यह संबंध जुड़ा हुआ है पृथ्वी धार्मिक नहीं हो सकेगी।
आप देखते हैं, रोज धर्म हारता जा रहा है, रोज। रोज विज्ञान बढ़ता जा रहा है धर्म हारता जा रहा है। क्या आपको पता है कि विज्ञान की ताकत क्या है? विज्ञान की ताकत है संदेह। और धर्म की कमजोरी क्या है? धर्म की कमजोरी है विश्वास। विज्ञान कर रहा है संदेह। संदेह के माध्यम से कर रहा है खोज। खोज से उपलब्ध हो रहा है किन्हीं निःसंदिग्ध तत्वों को। और धर्म? धर्म कर रहा है आंख बंद करके विश्वास। विश्वास से खोज हो जाती बंद, उपलब्धि नहीं होती कुछ भी, सिर्फ बैठे रह जाते हैं लोग। धर्म हार रहा है विज्ञान के समक्ष। इसे ऐसा भी कह सकते हैं विश्वास हार रहा है संदेह के समक्ष। और जब तक धर्म भी संदेह कि शक्ति को नहीं उपलब्ध होगा, तब तक विज्ञान के समक्ष धर्म के जीतने की कोई संभावना नहीं है। अगर चाहते हैं कि कभी धर्म जीत जाए इस बड़े संघर्ष में, अगर चाहते हैं कि कभी धर्म लोगों के जीवन में प्रतिष्ठित हो जाए, तो समझ लें ठीक से इस बात को कि संदेह के बिना, खोज के बिना, अनुभव के बिना धर्म कभी भी प्रतिष्ठित नहीं हो सकेगा। लेकिन हम धर्म को प्रतिष्ठित करने के खयाल से विश्वास की शिक्षाओं को और जोर से चिल्लाने लगते हैं कि विश्वास करो, विश्वास करो। और हमें पता नहीं कि यही शिक्षा धर्म को डूबा रही है। जिसको आप समझ रहे हैं धर्म का आधार, वही धर्म की बीमारी है, आधार नहीं।
सोचें, आने वाली पीढ़ियों को और बच्चों को आप विश्वास नहीं करवा पा रहे हैं। इसलिए आप बच्चों को गाली दे रहे हैं कि अविश्वासी पैदा हो गए हैं, और ये धर्म को डूबा देंगे। गलती है आपकी। आपकी पीढ़ियों ने पहली दफे ठीक से संदेह पैदा करना शुरू किया है। गलती नई पीढ़ी की नहीं है जो संदेह कर रही है, गलती आपकी है कि आप उनके संदेह को धार्मिक नहीं बना पा रहे हैं। आप तो संदेह के दुश्मन हैं। तो आप संदेह को धार्मिक बना ही नहीं सकेंगे कभी। और अगर आप संदेह को धार्मिक नहीं बना सकते, तो इसको भविष्यवाणी समझ ले सकते हैं कि धर्म के सूरज का अस्त हो चुका है, अब यह धर्म जिंदा नहीं रह सकेगा। अगर आने वाली पीढ़ियों की जिंदगी में धर्म को देखना है आपको, तो ठीक से समझ लें, विश्वास के द्वारा उन पीढ़ियों को नहीं समझाया जा सकता। विश्वास से केवल उनको समझाया जा सकता था जो अशिक्षित थे, बुद्धिहीन थे, जिनके जीवन में तर्क और विचार नहीं था। आने वाली पीढ़ियां विचार और तर्क में प्रतिष्ठित हो रही हैं, विज्ञान में दीक्षित हो रही हैं, विज्ञान से परिचित हो रही हैं। वे संदेह के बल को समझ रही हैं। वे विश्वास की कमजोरी के लिए राजी नहीं हो सकतीं। आप जिम्मेवार हैं अगर नये बच्चे अधार्मिक हो जाएंगे, तो यह पाप आप पर होगा, नये बच्चों पर नहीं। यह बहुत सीधी और साफ बात है।
संदेह पर खड़ा होना चाहिए धर्म। तब धर्म स्वस्थ होता है। तब धर्म एक जबरदस्ती नहीं होता। तब हम उसे किसी के ऊपर थोप नहीं देते हैं, बल्कि हम उस व्यक्ति को सहारा देते हैं--उसका संदेह, उसका विचार विकसित हो और एक दिन उस जगह पहुंच जाए जहां सब संदेह निर्सन हो जाते हैं, सब संदेह गिर जाते हैं। फिर जो अनुभव होता है वही धार्मिक है।
इसलिए मैंने सुबह आपसे कहा, विश्वास जहर है। और विश्वास के जहर में ही धर्म बेहोश है। उससे धर्म को मुक्त हो जाना चाहिए और मनुष्य को भी। यह मनुष्य की मुक्ति की दिशा में पहला प्रयत्न, पहला सूत्र, पहली सीढ़ी।
और बहुत से मित्रों ने पूछा हैः आदर्श, जो मैंने दूसरा सूत्र कहा, कि आदर्श हट जाने चाहिए व्यक्तित्व के सामने से।
तो उन्होंने कहा, आदर्श हट जाएंगे तो फिर व्यक्ति बनेगा क्या?
हमें खयाल ही नहीं है, व्यक्ति आदर्श से नहीं बनता, व्यक्ति बनता से बीज से, पोटेंशिएलिटी से। व्यक्ति भविष्य से नहीं बनता, जो उसके भीतर छिपा है उसके प्रगटन से, उसकी अभिव्यक्ति से बनता है।
एक बीज हम बो देते हैं फूल का; वृक्ष बड़ा होता है किसी आदर्श के कारण? वृक्ष मैं फूल आते हैं किसी आदर्श के कारण? नहीं, वृक्ष के बीज में जो छिपा है उसके एक्सप्रेशन, उसकी अभिव्यक्ति के कारण वृक्ष में पत्ते आते हैं, फूल आते हैं, फल आते हैं। जो छिपा है वह पूरी तरह प्रकट हो सके, तो वृक्ष में फूल आ जाते हैं। आदमी के साथ हम उलटा काम कर रहे हैं हजारों साल से। हम आगे उस पर कुछ थोपते हैं कि तुम यह बनो। हम यह फिकर नहीं करते कि तुम्हारे भीतर क्या छिपा है वह तुम प्रकट हो जाओ। जीवन का विकास प्रकटीकरण है, मेनिफेस्टेशन है। जीवन का विकास आरोपण नहीं है, कल्टीवेशन नहीं है। जीवन को ऊपर से नहीं थोपना पड़ता, भीतर से विकसित करना होता है।
हम एक आदमी को कहते हैं, महावीर जैसे बन जाओ। हम महावीर को इस आदमी के ऊपर थोपने की कोशिश करते हैं बिना यह जाने कि इस आदमी का बीज क्या है, इस आदमी की पोटेंशिएलिटी क्या है, इसके भीतर क्या छिपा है। यह गुलाब का फूल बनने को है, चमेली का, जुही का, क्या? इसको बिना जाने हम इसके ऊपर किसी को थोपने की कोशिश करते हैं। स्वभावतः परिणाम यह होता है कि जो इसके भीतर छिपा है वह कुंठित हो जाता है, वह वहीं ठहर जाता है, स्टेग्नेंट हो जाता है, जड़ हो जाता है। फिर इसके प्राण तड़फड़ाते हैं, क्योंकि जो भीतर छिपा है अगर प्रकट न हो सके, तो जीवन दुख, चिंता, एं.जायटी, फ्रस्टेशन से भर जाता है। जीवन की एक ही खुशी है, एक ही आनंद, एक ही मुक्ति कि जो मेरे भीतर छिपा है वह पूरी तरह प्रकट हो जाए, पूरी फ्लावरिंग हो जाए, उसका पूरा फूल विकसित हो जाए। लेकिन हमने अब तक जो किया है वह उलटा है।
भीतर जो छिपा है उसे प्रकट करने की कोशिश नहीं, बाहर जो दिखाई पड़ता है उसे थोपने की चेष्टा, ये दोनों उलटी बातें हैं।
अगर मैं किसी बगिया में चला जाऊं और वहां जाकर गुलाब के फूल को कहूं, तू कमल का फूल हो जा। चमेली को कहूं, तू चंपा हो जा। पहली तो बात, फूल मेरी बात सुनेंगे नहीं। फूल आदमियों जैसे नासमझ नहीं होते कि हर किसी की बात सुनने को इकट्ठे हो जाएं। सुनेंगे ही नहीं। मैं चिल्लाता रहूंगा, फूल अपनी मौज में, हवाओं में तैरते रहेंगे। फिकर भी नहीं करेंगे कि कोई समझाने आया हुआ है। लेकिन हो सकता है आदमी के साथ-साथ रहते-रहते कुछ फूल बिगड़ गए हों। सोहबत का बुरा असर पड़ता ही है। हो सकता है कुछ फूल उपदेश सुनने के प्रेमी हो गए हों और मेरी बात सुन लें, तो उस बगिया में बड़ा उत्पात मच जाएगा। फिर उस बगिया में एक बात तय है, फूल पैदा ही नहीं होंगे। क्योंकि गुलाब कोशिश करेगा कमल होने की। चमेली कोशिश करेगी चंपा होने की। गुलाब के भीतर कमल होने की कोई संभावना ही नहीं है। कमल होने की कोशिश में कमल तो हो ही नहीं सकेगा, यह असंभव है। लेकिन दूसरी दुर्घटना घट जाएगी, कमल होने की कोशिश में वह गुलाब भी नहीं हो पाएगा। क्योंकि सारी कोशिश कमल होने में लग जाएगी, तो गुलाब होने के लिए शक्ति कहां बचेगी, दृष्टि कहां बचेगी, समय कहां बचेगा, सुविधा कहां बचेगी, खयाल भी नहीं बेचेगा कि मुझे गुलाब होना है, मुझे तो कमल होना है। यह रोग उसके ऊपर चढ़ गया तो वह गुलाब नहीं हो सकता। उस बगिया में फूल पैदा होने बंद हो जाएंगे।
आदमी की बगिया में फूल पैदा होना हजारों साल से बंद है। कभी एकाध फूल पैदा हो जाता है। अगर कोई माली साढ़े तीन लाख पौधे लगाए, साढ़े तीन अरब पौधे लगाए और एक पौधे में फूल पैदा हो जाए, उस माली को हम धन्यवाद देंगे? शायद हम यही समझेंगे कि यह फूल माली से बच कर शायद विकसित हो गया। क्योंकि साढ़े तीन अरब पौधों में तो कोई फूल नहीं लगा। एकाध महावीर कभी पैदा हो जाता, एकाध बुद्ध, एकाध क्राइस्ट, इससे कोई आदमी का गौरव है? इससे आदमी का कोई गौरव नहीं। अरबों आदमी बिना फूलों के समाप्त हो जाते हैं। क्या शेष सारे लोग पूजा करने को पैदा हुए हैं कि एक फूल पैदा हो जाए शेष उसकी पूजा करें? मंदिर बनाएं? जयजयकार करें? नहीं साहब, नहीं, हर आदमी अपने भीतर फूलों को विकसित करने को पैदा हुआ है किसी की पूजा करने को नहीं।
लेकिन आदमी को कर दिया हमने हीन-हीन। दूसरे जैसे बनने की कोशिश से आदमी हो गया विकृत। उसकी सारी चेतना हो गई पथभ्रष्ट। हमने उसको समझा दिया दूसरे जैसे बनो। छोटे से बच्चे को ही हम यह बीमारी के रोगाणु भरना शुरू कर देते हैं--गांधी जैसे बनो, फलां जैसे बनो, ढिकां जैसे बनो। गांधी बहुत अच्छे हैं, बहुत प्यारे, लेकिन गांधी जैसे बनने की चेष्टा बहुत गलत, बहुत खतरनाक। महावीर बहुत खूबी के हैं, लेकिन कोई दूसरा आदमी महावीर बनने को नहीं है।
एक-एक आदमी अनूठा और अलग और पृथक है, कोई आदमी किसी दूसरे जैसा नहीं है। तो आदर्श मनुष्य को आत्मच्युत कर देते हैं, उसे भटका देते हैं। आदर्श भटका देते हैं, आदर्श ने भटकाया हुआ है। इसलिए जो आप पैदा हुए हैं जो क्षमता लेकर, वह क्षमता वैसी ही पड़ी रह जाती है, वह कभी विकसित नहीं होती।
मेरा कहना है, आदर्श नहीं; आत्मा।
बाहर कोई आदर्श नहीं है किसी के लिए। भीतर छिपा है बीज। और उस बीज की तलाश तभी हो सकती है जब बाहर का आदर्श हम छोड़ें, अन्यथा उस बीज की खोज भी नहीं हो पाती। उस बीज पर ध्यान ही नहीं जा पाता। कभी आपने सोचा कि आप क्या होने को पैदा हुए हैं? कभी आपने सोचा कि कौन सी क्षमता आपके भीतर छिपी है? खोजा आपने उस क्षमता को? क्या है मेरे भीतर? गुलाब का फूल, चमेली का, घास का फूल, क्या है मेरे भीतर?
और स्मरण रहे, एक घास का फूल भी जब पूरी तरह खिलता है तो किसी गुलाब, किसी कमल से पीछे नहीं होता। एक घास का फूल भी जब पूरी शान से खिलता है, और हवाओं में अपनी सुगंध बिखेर देता है, और हवाओं पर तैरता है, तब उसका आनंद किसी कमल और किसी गुलाब से कम नहीं होता।
और परमात्मा की दृष्टि में घास के फूल का कोई विरोध नहीं है। हवाएं फर्क नहीं करतीं कि गुलाब के फूल पर ज्यादा देर ठहर जाएं, घास के फूल पर कम। सूरज की रोशनी फर्क नहीं करती कि कमल के लिए ज्यादा रोशनी दे दे, घास के फूल से कह दे, शूद्र तू ठहर, तू सामान्य आदमी तू कहां बीच में आता है।
नहीं, प्रकृति कोई भेद नहीं करती है। सब भेद आदमी के बनाए हुए हैं। हर आदमी जो हो सकता है वही होना चाहिए उसे। किसी दूसरे के अनुसरण की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि महावीर को आप न समझें। महावीर को खूब समझें, बुद्ध को खूब समझें, राम को खूब समझें। और जितना आप समझेंगे उतना ही आप पाएंगे कि अनुकरण करना ठीक नहीं। क्योंकि समझने से आपको पता चलेगा, यह आदमी किसी का अनुकरण किया ही नहीं, तो मैं इसका अनुकरण कैसे करूं? आज तक दुनिया का कोई महापुरुष किसी का अनुगामी नहीं है। इसको उलटा भी कह सकते हैं, चूंकि वह किसी का अनुगामी नहीं है इसीलिए महापुरुष हो सका है। और आप अनुगामी हैं इसलिए आपके भीतर महानता का जन्म नहीं हो सकता है। आप अनुगामी होने से खुद हीन हो गए अपने हाथों, आपने स्वीकार कर ली अपनी इनफिरिआरिटी। अपनी हीनता आपने मान ली कि मैं तो अनुगामी हूं, अनुयायी हूं। किसी के पीछे जाना मनुष्य की आत्मा का सबसे बड़ा अपमान है।
इसलिए मैंने कहा कि आदर्श नहीं; चाहिए निजता, चाहिए खुद के व्यक्तित्व में छिपे हुए बीजों को विकास करने की क्षमता, उनका अनुसंधान। आदर्श से बंधा हुआ व्यक्ति यह कभी भी नहीं कर पाता। और आदर्श की चेष्टा से उसके जीवन में एक तरह का थोपा हुआ व्यक्तित्व, कल्टीवेटिड व्यक्तित्व पैदा हो जाता है, जो बिल्कुल झूठा होता है। हम सब अपने ऊपर जो-जो चेष्टाएं करते हैं आदर्श बनने की, उन सबसे हम अभिनेता हो जाते हैं और कुछ भी नहीं।
राम को हुए कितने दिन हुए, कोई राम पैदा नहीं होता। हां, रामलीला के राम बहुत पैदा हुए। रामलीला के राम बनना शोभापूर्ण है? रामलीला के राम बनना गरिमापूर्ण है? यह भी हो सकता है कि रामलीला का राम इतना कुशल हो जाए बार-बार रामलीला करते हुए कि असली राम से अगर प्रतिस्पर्धा करवाई जाए तो असली राम हार जाएं। यह भी हो सकता है। क्योंकि असली राम से भूलें भी होती हैं, चूक भी होती हैं; नकली राम से कोई भूल-चूक ही नहीं होती, नकली आदमी भूल-चूक करता ही नहीं। क्योंकि उसे तो सब पार्ट याद करके करना होता है। राम को तो बेचारे को पाठ याद करने की सुविधा नहीं थी, सीता खो गई तो उन्हें कोई बताने वाला नहीं था कि अब किस तरह छाती पीटो और क्या कहो। जो हुआ होगा वह सहज हुआ होगा। वह स्पांटेनियस था। कहीं कोई लिखी हुई किताब से याद किया हुआ नहीं था, इसलिए भूल-चूक भी हो सकती है। लेकिन रामलीला का राम बिल्कुल कुशल होता, उससे भूल-चूक होती नहीं। उसका सब तैयार है; सब डायलाग, सब भाषण, सब, सब पहले से निश्चित है। और फिर बार-बार उसको मिलता है, राम को तो एक ही दफे लीला करने का मौका मिलता है, रामलीला के राम को हर साल मौका मिलता है। तो यह निष्णात होता चला जाता है। यह इतना निष्णात हो सकता है कि अगर दोनों आपके सामने लाकर खड़े कर दिए जाएं तो असली राम की कोई फिकर ही न करे नकली राम के लोग पैर छुएं।
ऐसा एक दफे हो भी गया। चार्ली चैपलीन का नाम सुना होगा। वह एक हंसोड़ अभिनेता था। उसकी पचासवीं वर्षगांठ बड़े जोर-शोर से मनाई गई थी। और एक उस वर्षगांठ पर एक विशेष आयोजन किया गया सारे यूरोप और अमेरिका में। अभिनेताओं को निमंत्रित किया गया कि दूसरे अभिनेता चार्ली चैपलीन का अभिनय करें। ऐसे सौ अभिनेता सारी दुनिया से चुने जाएंगे। प्रतियोगिताएं होंगी नगरों-नगरों में। और फिर अंतिम प्रतियोगिता होगी। और उस अंतिम प्रतियोगिता में तीन व्यक्ति चुने जाएंगे जो चार्ली चैपलीन का पार्ट करने में सर्वाधिक कुशल सिद्ध होंगे। उन तीन को तीन पुरस्कार दिए जाएंगे।
प्रतियोगिता हुई, हजारों अभिनेताओं ने भाग लिया। एक से एक कुशल अभिनेता ने, चार्ली चैपलीन बना, बनने की कोशिश की। चार्ली चैपलीन के मन में हुआ कि मैं भी किसी दूसरे के नाम से फार्म भर कर सम्मिलित क्यों न हो जाऊं? मुझे तो प्रथम पुरस्कार मिल ही जाने वाला है। खुद ही चार्ली चैपलीन हूं मेरा धोखा और कौन दे सकेगा। और जब बात भी खुलेगी तो एक मजाक हो जाएगी, मैं तो हंसोड़ अभिनेता हूं ही। लोग कहेंगे खूब मजाक की इस आदमी ने।
वह एक छोटे से गांव में जाकर फार्म भर कर सम्मिलित हो गया। अंतिम प्रतियोगिता हुई उसमें वह सम्मिलित था। सौ लोगों में वह भी एक था, किसी को पता नहीं। वहां तो सौ चार्ली चैपलीन एक से मालूम होते थे, एक सी मूंछ, एक सी चाल, एक सी ढाल, वे सब चार्ली चैपलीन थे। प्रतियोगिता हुई, पुरस्कार बंटे, मजाक भी खूब हुई, लेकिन चार्ली चैपलीन ने जो सोची थी वह मजाक नहीं हुई, मजाक उलटी हो गई। चार्ली चैपलीन को द्वितीय पुरस्कार मिल गया। कोई अभिनेता उसके ही पार्ट करने में नंबर एक आ गया। और जब पता चला दुनिया को, तो दुनिया हैरान रह गई कि हद्द हो गई यह बात तो! कि चार्ली चैपलीन खुद मौजूद था प्रतियोगिता में और नंबर दो का पुरस्कार मिला!
तो हो सकता है महावीर के अनुयायी महावीर को हरा दें नकल करने में। बिल्कुल हरा सकते हैं। चूंकि अनुयायी एक नकल होता है, असल नहीं। लेकिन नकली आदमी हरा भी दे तो भी नकली आदमी नकली आदमी है, उसके भीतर कोई आनंद, कोई प्रफुल्लता, कोई विकास, कोई पूर्णता उपलब्ध नहीं हो सकती। और इन नकली आदमियों का एक ज्वार चलता है सारी दुनिया में।
अभी गांधी हमारे मुल्क में थे, गांधी के साथ हजारों नकली गांधी इस मुल्क में पैदा हो गए थे। उन्होंने मुल्क को डूबा दिया, उन नकली गांधीयों ने मुल्क को डूबा दिया। गांधी जैसी खादी पहनने लगे, गांधी जैसा चरखा चलाने लगे। उन्होंने डूबा दिया इस मुल्क को। जो नकली गांधी पैदा हो गए थे इस मुल्क हत्यारे साबित हुए हैं, मर्डरर्स साबित हुए। डूबा दिया इस मुल्क को। डुबाए जा रहे हैं रोज। डुबाएंगे ही, क्योंकि नकली आदमी भीतर कुछ और होता है, बाहर कुछ और। असली आदमी जो भीतर होता है वही बाहर होता है।
असली आदमी बनना है तो किसी आदर्श को थोपने की कोशिश भूल कर भी मत करना। अन्यथा आप एक नकली आदमी बन जाएंगे। और आपका जीवन तो गलत हो ही जाएगा, आपके जीवन की गलती दूसरों तक को नुकसान पहुंचाएगी। समाज तब एक धोखा, एक प्रवंचना हो जाता। पूरा समाज एक फ्राड हो जाता है। क्योंकि जब सभी नकली आदमी होते हैं तो फिर बड़ी मुश्किल हो जाती है।
इसलिए मैंने कहा, आदर्श नहीं। लेकिन आपको डर लगता है यह--यह पूछा है प्रश्नों में--यह डर लगता है कि अगर आदर्श छोड़ दिया तो फिर हम बनें क्या? यह आदर्श वालों ने यह सिखा दिया है आपको कि बनने के लिए कोई पैटर्न, कोई ढांचा, कोई तस्वीर, कोई लक्ष्य होना चाहिए। नहीं, बनने के लिए लक्ष्य नहीं होता, न ढांचा होता है, न पैटर्न होता है। बनने के लिए तो जो भीतर छिपा है उसे जगाने की चेष्टा होती है। आगे ढांचा नहीं होता, भीतर जो छिपा है...
एक आदमी को कुआं खोदना है, क्या करता है वह? मिट्टी खोदता है, पत्थर निकालता है। पानी तो भीतर छिपा है। बाधाएं अलग कर देता है। सारी मिट्टी-पत्थर को निकाल कर बाहर फेंक देता है, भीतर से पानी के झरने फूट आते हैं।
आपको क्या बनना है यह खयाल ही गलत है। आपके भीतर क्या छिपा है उसकी जितनी बाधाएं हैं उनको आप अलग कर दें, वह प्रकट हो जाए। आदमी की जीवन की साधना किसी लक्ष्य को उपलब्ध करने की साधना नहीं, किन्हीं बाधाओं को दूर करने की साधना है। आदमी के जीवन की साधना हिंडरेंसेस को, जो बीच में रुकावटें हैं उनको दूर करने की साधना है, किसी लक्ष्य को पाने की साधना नहीं। लक्ष्य को पाने की बात ही गलत है। आपके भीतर मौजूद है लक्ष्य, अगर आप सब तरह से खुद के निखार लें, साफ कर लें, तो आप पाएंगे कि आपके भीतर से रोशनी आनी शुरू हो गई, आपके भीतर व्यक्तित्व का जन्म होना शुरू हो गया।
तो कौनसी बाधाएं हैं जिनको हम अलग कर दें? तो ये बाधाएं हैं जो मैं गिना रहा हूं। विश्वास बाधा है। आदर्श बाधा है। अनुकरण बाधा है। ये बाधाएं हटा दें। इनके हटते ही आपके भीतर जीवन के झरने फूटने शुरू हो जाएंगे। लेकिन हम अपने जीवन के कुआं बनाते ही नहीं, हम तो हौज बना लेते हैं। दीवाल उठा कर एक हौज बना लेते हैं, उधार दूसरों के कुएं से पानी लाकर भर लेते हैं और निश्चिंत हो जाते हैं। हौज भी कोई कुआं है? ऊपर से धोखा पैदा हो जाता है। इसमें भी पानी भरा हुआ है और कुएं में भी पानी भरा हुआ है। हौज का पानी उधार है। हौज के पानी में कोई झरें नहीं हैं, कोई झरने नहीं हैं, हौज का पानी किसी समुद्र से जुड़ा हुआ नहीं है। कुआं? कुएं के पास अपने जल-स्रोत हैं, खुद का पानी है, उधार नहीं है। कुएं की अपनी आत्मा है। हौज की अपनी कोई आत्मा नहीं है, सब उधार है हौज। कुएं के पास अपना व्यक्तित्व है, अपनी आत्मा है, अपनी निजता है, अपनी इंडीविजुअलिटी है और उसके झरने सागर से जुड़े हैं, दूर सागरों से, कुएं के पानी को उलीचते चले जाएं तो कुआं चिल्लाएगा नहीं कि बस बंद करो मैं खाली हो जाऊंगा, कुएं का पानी जितना उलीचिए कुआं और नये ताजे पानी से भर जाता है, और जवान, युवा हो जाता है। इसलिए कुआं लुटाता है। हौज? हौज संग्रह करती है। क्योंकि हौज अगर लुटाएगी तो खाली हो जाएगी, रिक्त हो जाएगी।
बस हौज और कुएं के तरह के, दो तरह के आदमी होते हैं दुनिया में। जिनको आप कहते हैं, त्याग किया, उसका और कोई मतलब नहीं है, आप कहते हैं महावीर ने इतना त्याग किया, उसका मतलब महावीर एक कुआं हैं, जितना लुटाते हैं उतनी नई ताजगी भीतर भरती चली आती है। त्याग का और क्या मतलब होता है? त्याग का मतलब होता है, जितना यह आदमी छोड़ता है उतना ही भीतर उपलब्ध होता है। इसलिए तो छोड़ता है। छोड़ने से पाता है भीतर। और दूसरे तरह के वे आदमी जो हर चीज को संग्रह करते हैं, कुछ भी छोड़ते नहीं--मकान, धन, ज्ञान, सब संग्रह करते चले जाते हैं। लाओ, लाओ, लाओ, उनकी एक भाषा होती है, आओ, सब आ जाए, सब इकट्ठा हो जाए। क्यों? क्योंकि उनके पास अपना तो कुछ भी नहीं है, जितना इकट्ठा हो जाएगा उतने ही मालूम पड़ेंगे कि वे कुछ हैं। हौज बन गए हैं वे, कुआं नहीं बन पाए। हौज का पानी सड़ जाता है। संग्रह करने वाला व्यक्तित्व भी सड़ जाता है। हौज के पानी में थोड़े दिन में कीड़े दिखाई पड़ने लगेंगे, बदबू निकलने लगेगी। संग्रह करने वाले व्यक्ति में भी थोड़े दिन में दुर्गंध, थोड़े दिन में कुरूपता पैदा हो जाती है। लेकिन जो कुआं बनता है, जो उलीचता है स्वयं को, बांटता है स्वयं को, संग्रह नहीं करता लुटा देता है स्वयं को, उसको व्यक्तित्व में निरंतर-निरंतर सौंदर्य के नये-नये तल प्रकट होने लगते हैं। उसके व्यक्तित्व से नई-नई सुगंध रोज जन्म पाने लगती है। उसके भीतर से रोशनी के और नये-नये स्रोत उपलब्ध होने लगते हैं। क्योंकि उतनी ही फेंकने में बाधाएं दूर हो जाती हैं। और उतना ही जो भीतर छिपा है वह प्रकट होने लगता है।
जीवन की साधना स्वयं के ऊपर आए हुए आवरण, बाधाएं, पर्दे, धूल, इस सबको हटा देने की साधना है, स्वयं को पाने की साधना, लक्ष्य पाने की साधना नहीं है। जीवन खुद है अपना लक्ष्य। कहीं कोई इतर, अलग, कोई लक्ष्य नहीं है जीवन के सामने जिसको आपको पाना है।
अकबर के दरबार में तानसेन बहुत दिन रहा था। एक दिन अकबर ने तानसेन को रात में विदा करते वक्त कहा, तेरे गीत सुन कर, तेरे संगीत में डूब कर अनेक बार मुझे ऐसा लगता है, तू बेजोड़ है, शायद ही पृथ्वी पर कभी किसी ने ऐसा बजाया हो जैसा तू बजाता है। लेकिन आज तुझे सुनते वक्त मुझे एक खयाल आ गया, तूने भी शायद किसी से सीखा होगा? तेरा भी कोई गुरु होगा? हो सकता है तेरा गुरु तुझसे भी अदभुत बजाता हो? तेरा गुरु जीवित हो, तो मैं उसे सुनना चाहता हूं।
तानसेन ने कहाः गुरु मेरे जीवित हैं, लेकिन उन्हें सुनना तो, वे तो जब बजाते हैं तभी आपको पहुंच कर सुनना पड़ेगा। इसलिए बड़ा मुश्किल है मामला।
अकबर ने कहाः कितना ही मुश्किल हो, तुमने जो कहा उससे मेरी आकांक्षा और भी बढ़ गई। मैं उन्हें सुनना ही चाहूंगा। कोई व्यवस्था करो।
तानसेन ने पता लगाया तो पता चला--उसके गुरु थे, हरिदास, वे एक फकीर थे और यमुना के किनारे रहते थे--उसने पता चलाया, चौबीस घंटे आदमी वहां लगा कर रखे कि वे कब बजाते हैं, किन घड़ियों में, तो पता चला, रात चार बजे वे रोज सितार बजाते हैं।
अकबर और तानसेन चोरी से जाकर अंधेरी रात में झोपड़े के बाहर छिप गए। दुनिया के किसी सम्राट ने शायद किसी कलाकार को इतना आदर न दिया होगा कि चोरी से उसे सुनने गए। रात अंधेरे में झोपड़े के बाहर छुप रहे। चार बजे वीणा बजनी शुरू हुई। अकबर के आंसू, थामता है नहीं थमते, जब तक वीणा बजती रही वह रोता ही रहा। जैसे किसी और ही लोक में पहुंच गया। वापस लौटने लगा तो जैसे किसी तंद्रा में, जैसे किसी स्वप्न में। महल तक तानसेन से कुछ बोला नहीं। महल में विदा करते वक्त तानसेन से कहा, तानसेन, मैं सोचता था तुम्हारा कोई मुकाबला नहीं। लेकिन देखता हूं, तुम्हारे गुरु के सामने तो तुम कुछ भी नहीं हो। इतना फर्क कैसे? तुम ऐसी दिव्य दशा में, तुम ऐसे दिव्य संगीत को उपलब्ध नहीं हो पाते, क्या है कारण? कौनसी बाधा बन रही है?
तानसेन सिर झुका कर खड़ा हो गया और कहा, बाधा को मैं भलीभांति जानता हूं। सबसे बड़ी बाधा यही है कि मैं किसी लक्ष्य को लेकर बजाता हूं। बजाता हूं, ध्यान लगा रहता है क्या मिलेगा बजाने के बाद पुरस्कार? क्या होगा? पुरस्कार मेरा लक्ष्य है, उसको ध्यान में रख कर बजाता हूं। इसलिए कितनी ही मेहनत करता हूं मुक्त नहीं हो पाता मेरा बजाना, पुरस्कार से बंधा रहता है। मेरे गुरु किसी आकांक्षा से नहीं बजाते। बजाने के आगे कुछ भी नहीं, जो कुछ है बजाने के पीछे है। मैं बजाता हूं ताकि मुझे कुछ मिल सके। वे बजाते हैं क्योंकि उन्हें कुछ मिल गया है। कोई आनंद उपलब्ध हुआ है, वह आनंद के कारण बजता है। वह आनंद बजने में फैलता है और प्रकट होता है। वह आनंद अभिव्यक्त होता है बजने में। बजने के आगे कोई भी लक्ष्य नहीं है। बजने के पीछे जरूर प्राण हैं, लेकिन आगे कोई लक्ष्य नहीं है। मेरे बजने के पीछे कोई प्राण नहीं हैं, बजने के आगे लक्ष्य है।
ऐसे ही दो तरह के जीवन होते हैं। जो आदर्श को आगे बांध कर जीवित होने की कोशिश करता है उसका जीवन वैसे ही है जैसे कोई गाय के सामने घास रख ले और चलने लगे, तो गाय उस घास की लालच में पीछे-पीछे चलती चली जाती है। चलती तो जरूर है, लेकिन यह चलता बिल्कुल बंधन का चलना है। घास की आकांक्षा में बंधी-बंधी चलती है। इससे मुक्ति कभी नहीं आती। हम भी लक्ष्य बना कर जीवन को चलते हैं इसलिए बंध जाते हैं कभी मुक्त नहीं होते। अगर मुक्त होना है तो जीवन में आगे लक्ष्य रखने की जरूरत नहीं, पीछे जो छिपा है उसे प्रकट करने की जरूरत है। तब उसकी अभिव्यक्ति से जीवन निकलता है। तब उस आनंद से जो संगीत पैदा होता है वह संगीत ही मुक्ति और मोक्ष बन जाती है।
इसलिए मैंने कहा, अनुकरण नहीं, आदर्श नहीं।
अंतिम एक प्रश्न पूछा है, उसकी चर्चा करके मैं अपनी बात पूरी करूंगा।
एक प्रश्न पूछा है कि हम शांत कैसे हो जाएं? आप कहते हैं, शांति द्वार है; आप कहते हैं, शून्य द्वार है, तो हम शांत कैसे हो जाएं? शून्य कैसे हो जाएं? निर्विकल्प दशा को कैसे उपलब्ध हो जाएं? समाधि कैसे मिले? ऐसे दो-चार प्रश्न पूछे हैं।
बहुत सरल है निर्विकल्प दशा को उपलब्ध करना। अत्यंत सरल, उससे सरल कोई बात ही नहीं है। लेकिन ये जो तीन बातें मैंने पहली कहीं, ये बड़ी कठिन हैं। और इन तीन को जो नहीं कर पाता वह उस अत्यंत सरल बात को भी नहीं कर पाता। वह चौथी सीढ़ी है। इन तीन को पार करके ही उसे पार किया जा सकता है। वह तो बहुत सरल है। कठिनाई है इन तीन बातों की--विश्वास को, अनुकरण को, आदर्श को त्यागने में बड़ी कठिन, बड़ा आर्डुअस, बड़ा श्रम है। लेकिन चौथी बात बहुत सरल है। जो इन तीन बातों को कर ले, चौथी बात करनी ही नहीं पड़ती, बड़ी सरलता से हो जाती है। उस सूत्र के संबंध में अंत में थोड़ी सी बात आपको समझाऊं। लेकिन इन तीन को किए बिना वह नहीं हो सकेगा।
जैसे कोई हमसे पूछे कि हम फूल कैसे पैदा करें? मैं कहूंगा, फूल पैदा करना बड़ी सरल बात है। फूल पैदा करने में कुछ करना ही नहीं पड़ता। लेकिन बीज लगाने में बड़ी मदद करनी पड़ती है। पानी सींचने में, खाद डालने में बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। पौधे की सम्हाल करने में, बागुड़ लगाने में बहुत श्रम उठाना पड़ता है। फिर जब सब सम्हल जाती है बात, बीज अंकुर बन जाता, खाद मिल जाती, पानी मिल जाता, चारों तरफ सुरक्षा हो जाती है पौधे की, तो फूल तो अपने आप आ जाते हैं, फूल का आना कोई कठिन है? कुछ भी करना पड़ता है फूल को लाने में? फूल तो अपने आप आटोमेटिक, पौधा सम्हल जाए, फूल आ जाते हैं। लेकिन आप कहें कि पौधे की तो बाकी बातचीत छोड़िए, हमको तो सिर्फ फूल लाना है, तब मामला बहुत कठिन हो जाता है। आप कहें कि यह तो सब ठीक है, विश्वास हमें करने दो, आदर्श हमें मानने दो, अनुकरण हमें करने दो, जैन, हिंदू, मुसलमान हमें बना रहने दो, बाकी चित्त शांत करने का, शून्य करने का कोई रास्ता हो तो बता दें। तो आप ऐसी बात कर रहे हैं कि पौधा तो हम लगाएंगे नहीं, बीज हम डालेंगे नहीं, पानी हम सींचेंगे नहीं, यह तो छोड़ो, ये बातें छोड़ दो, हमें दो इतना बता दो कि फूल कैसे आते हैं? फिर फूल नहीं आते।
चित्त की निर्विकल्प दशा, शून्य दशा, ध्यान दशा बहुत सरल है। लेकिन सीढ़ियां जो उस तक पहुंचाती हैं वे बड़ी कठिन मालूम होती हैं। और वे भी कठिन इसलिए नहीं हैं कि वे कठिन हैं, आप में साहस नहीं है जरा सा भी, इसलिए वे कठिन हो गई हैं। साहस हो, एक क्षण की देर नहीं है।
मैं एक नगर में था। उस नगर के कलेक्टर ने मुझे फोन किया और कहा कि मैं अपनी मां को भी चाहता हूं कि आपके सुनने के लिए लाऊं, लेकिन मेरी मां की उम्र नब्बे के करीब पहुंच गई, और आपकी बातों से मैं परिचित हूं, तो मैं डरता हूं कि इस बुढ़िया को लाना कि नहीं लाना? क्योंकि वह तो चौबीस घंटे माला जपती रहती है, राम-राम जपती रहती है। सोती है तो भी हाथ में माला लिए ही सोती है। तीस वर्ष से यह क्रम चलता है, तो मैं डरता हूं इस बुढ़ापे में आपकी बातें सुन कर कहीं उसको आघात और चोट न लग जाए, कहीं वह विचलित न हो जाए व्यर्थ ही और अशांत न हो जाए, तो मैं लाऊं या न लाऊं? उसकी उम्र नब्बे वर्ष।
मैंने उनसे कहाः अगर उम्र कुछ कम होती तो मैं कहता, दुबारा आऊंगा तब ले आना। उम्र नब्बे वर्ष है इसलिए ले ही आना, क्योंकि दुबारा मिलना हो सके इसका कोई पक्का भरोसा नहीं।
वे अपनी मां को लेकर आए। मैंने देखा उनकी मां माला लिए ही आई हुई थी। हाथ में माला वह चलती ही रहती है। बात सुनने के बाद वे चले गए, दूसरे दिन आए और मुझसे कहने लगे, मैं बहुत हैरान हो गया हूं। आपने तो ऐसी बातें कहीं कि मुझे लगा कि जैसे मेरी मां को जान कर ही आप कह रहे हैं। मुझे लगा मुझसे गलती हो गई जो मैं आपको बता कर अपनी मां को लाया। आप तो जैसे मेरी मां को ही सारी बातें कह रहे हों, ऐसा मुझे लगने लगा। और मैं बहुत डरा हुआ रहा। लौटते में कार में मैंने अपनी मां को पूछा कि तुम्हें चोट तो नहीं लगी, कुछ बुरा तो नहीं लगा? मेरी मां कहने लगी, बुरा? चोट? उन्होंने कहा, माला से कुछ भी नहीं होगा, मुझे बात बिल्कुल ठीक लगी, तीस साल का मेरा अनुभव भी कहता है कि कुछ भी नहीं हुआ, मैं माला वहीं छोड़ आई।
इतना साहस। तो मैंने उनसे कहा, तुम्हारी मां तुमसे ज्यादा जवान है। साहस व्यक्ति को युवा बनाता है। छोड़ने का हममें जरा भी साहस नहीं है। इसलिए हम अटके खड़े रह जाते हैं। और व्यर्थ बातें भी छोड़ने का साहस नहीं है, तब तो बहुत कठिनाई हो जाती है।
शून्यता पा लेनी बहुत सरल है, साहस चाहिए।
क्या करें शून्यता पाने को?
इन तीन सीढ़ियों के पहले कुछ भी नहीं किया जा सकता, एक बात। इन तीन सीढ़ियों के बाद बहुत कुछ किया जा सकता है। और बहुत सरल सी बात है, अगर चित्त के प्रति चित्त में चलती हुई जो विचार की धारा है, दिन-रात चल रही है, विचार और विचार और विचार, चित्त में विचारों कीशृंखला चल रही है। जैसे रास्ते पर लोग चलते हैं, ऐसा ही चित्त में विचार चलते हैं। यह विचारों की भीड़ चल रही है चित्त में। इसके प्रति अगर कोई चुपचाप जागरूक हो जाए, साक्षी बन जाए, बस और कुछ भी न करे। लड़ने की जरूरत नहीं है, राम-राम जपने की जरूरत नहीं है। क्योंकि राम-राम जपना खुद ही अशांति का एक रूप है। एक आदमी राम-राम, राम-राम कर रहा है, यह आदमी बहुत अशांत है, और कुछ भी नहीं। क्योंकि शांत आदमी इस तरह की बकवास करता है, एक ही शब्द को लेकर दोहराता है बार-बार? यह आदमी अशांत ही नहीं है, पागल होने के करीब है। चूंकि हम निरंतर इस बात को मान बैठे हैं कि राम-राम जपना बड़ा अच्छा है। हम फिकर नहीं कर रहे। यही आदमी अगर एक कोने में बैठ कर कुर्सी, कुर्सी, कुर्सी, कुर्सी कहने लगे, तो हम चिंतित हो जाएंगे। यही आदमी अगर कुर्सी, कुर्सी, कुर्सी कहने लगे, तो हम चिंतित हो जाएंगे। भागेंगे, कहेंगे कि चिकित्सा करवानी है, हमारे घर में एक व्यक्ति कुर्सी, कुर्सी, कुर्सी घंटे भर तक बैठ कर कहता रहता है। लेकिन राम-राम कहने में कोई फर्क है? एक ही बात कोई शब्द को लेकर दोहराना विक्षिप्त होने की शुरुआत है, स्वस्थ होने की नहीं। चित्त रुग्ण हो रहा है। न तो राम-राम की जरूरत है, जिसको आप जप कहते हैं, न मंत्रों की जरूरत है। चित्त को शांत करना है। और आप व्यर्थ की बातें दोहरा कर उसको अशांत कर रहे हैं शांत नहीं।
कुछ मत दोहराइए, कोई भगवान का नाम नहीं है। कोई शब्द-मंत्र नहीं है। कुछ दोहराने की जरूरत नहीं है। फिर चुपचाप बैठ कर मन में जो अपने आप चल रहा है कृपा करके उसको ही देखिए, अपनी तरफ से और मत चलाइए। वैसे ही काफी चल रहा है अब आप और काहे को चलाने की कोशिश कर रहे हैं। जो मन में चल रहा है अपने आप, आप उसके किनारे बैठ कर चुपचाप देखते रहिए, बस साक्षी हो जाइए, जस्ट ए विटनेस, सिर्फ एक देखने वाले। बुरा चले तो भी निकालने की कोशिश मत करिए, क्योंकि निकालने की कोशिश में आप सक्रिय हो गए, फिर साक्षी न रहे। हटाने की कोशिश मत करिए किसी विचार को। किसी विचार को लाने की कोशिश भी मत करिए। क्योंकि दोनों हालत में आप कूद पड़े धारा में, बाहर खड़े न रहे। मन की धारा के किनारे तटस्थ तट पर बैठ जाइए और देखते रहिए, मन को चलने दीजिए, चुपचाप देखते रहिए। और कुछ भी मत करिए, सिर्फ देखना, सिर्फ दर्शन पर्याप्त है। आप थोड़े ही दिनों में पाएंगे कि देखते ही देखते मन की धारा क्षीण होने लगी, मन की नदी का पानी सूखने लगा। जैसा आपकी गांव की नदी का सूखा रह जाता है, वैसे ही मन का पानी धीरे-धीरे सूखने लगेगा। आप देखते रहिए, धीरे-धीरे अनुभव होने लगेगा आपको कि देखते ही देखते बिना कुछ किए मन की धारा क्षीण होने लगी है, और एक दिन आप चकित हो जाएंगे कि आप बैठे हैं और मन की धारा में कहीं कोई विचार नहीं है। जिस दिन भी यह अनुभव आपको हो जाएगा, उसी दिन आपको पता चल जाएगा कि दर्शन विचार की धारा को तोड़ने की विधि है। अ-दर्शन मूर्च्छित भाव से विचार में पड़े रहना विचार को बढ़ाने की विधि है। हम मूर्च्छित भाव से विचार में पड़े रहते हैं, विचार को देखते नहीं। बस इसके अतिरिक्त और कोई बंधन नहीं है विचार के।
जिस दिन भी आप द्रष्टा होने में समर्थ हो जाते हैं उसी दिन विचार विलीन हो जाते हैं। और तब जो शेष रह जाता है वह है शांति, वह है निर्विकल्प दशा, वह है समाधि, वह है ध्यान, और भी कोई नाम, जिसको जो मर्जी हो दे सकता है। वह है चित्त की निर्विकार स्थिति। उस दशा में ही जाना जाता है जीवन, उस दशा में ही पहचाना जाता है सत्य, उस दशा में ही मिलन हो जाता है उससे जिसे भक्त भगवान कहते हैं, ज्ञानी आत्मा कहते हैं, विचारशील लोग सत्य कहते हैं। सत्य की उपलब्धि ही मुक्ति है। उसको जानते ही व्यक्ति के जीवन में फिर कोई बंधन, कोई दुख, कोई मृत्यु नहीं रह जाती।
इस दिशा में थोड़ा प्रयोग करें और देखें। क्योंकि इस दिशा में तो प्रयोग करके देखा ही जा सकता है। यह दिशा तो सिर्फ अनुभव की दिशा है। इसमें कोई और आपके साथ कोई सहयोग नहीं कर सकता। कोई आपको पकड़ कर समाधि में नहीं ले जा सकता। आपको ही श्रम करना होगा।
और मैं कहता हूं, अत्यंत सरल है समाधि को उपलब्ध करना, अगर पहले की सीढ़ियां चढ़ने का साहस आपमें हो।
मेरी इन बातों को इतनी शांति, इतने प्रेम से सुना, उससे बहुत-बहुत आनंदित और अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे, छिपे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें