कुल पेज दृश्य

शनिवार, 24 नवंबर 2018

व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन

व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(विविध) 

मेरे प्रिय आत्मन्!
जीवन जितना दिखाई पड़ता है, उतना ही नहीं है; बहुत कुछ है जो दिखाई नहीं पड़ता। सच तो यह है कि जो दिखाई पड़ता है, वह उसके समक्ष कुछ भी नहीं है जो दिखाई नहीं पड़ता है। एक वृक्ष को हम देखें। आकाश में फैली हुई शाखाएं दिखाई पड़ती हैं, हवाओं में नाचते हुए पत्ते दिखाई पड़ते हैं, सूरज की किरणों में मुस्कुराते हुए फूल दिखाई पड़ते हैं। लेकिन वे जड़ें नहीं दिखाई पड़ती हैं जिनके बिना यह वृक्ष बिलकुल नहीं हो सकेगा। वे जड़ें पृथ्वी के नीचे छिपी हुई हैं। और अगर कोई उन जड़ों को भूल जाए, तो वृक्ष के प्राण उसी क्षण क्षीण होने शुरू हो जाएंगे। जो दिखाई पड़ता है वृक्ष, वह उस वृक्ष के ऊपर निर्भर है जो जमीन के नीचे छिपा है और दिखाई नहीं पड़ता है।
मनुष्य का जीवन भी जो दिखाई पड़ता है वह आकाश में फैले हुए पत्तों की तरह है, लेकिन जो नहीं दिखाई पड़ता परमात्मा, वह जड़ की तरह भीतर छिपा हुआ है। लेकिन उस परमात्मा से अगर हमारे संबंध छूटने शुरू हो जाएं, तो हमारे जीवन के पत्ते, फूल, शाखाएं सब कुम्हलानी शुरू हो जाती हैं।

जड़ दिखाई नहीं पड़ती है। परमात्मा भी दिखाई नहीं पड़ता है। जहां से जीवन फूटता है और विकसित होता है वही दिखाई नहीं पड़ता है। शायद उसका छिपा होना भी जरूरी है। जितना महत्वपूर्ण काम है, वह छिप कर ही संभव हो पाता है। वह अंधेरे में, मौन में, शांति में, एकांत में संभव हो पाता है। जड़ों को हम सूरज की रोशनी में निकाल लें, फिर वे काम करना बंद कर देंगी। वे छिप कर काम करती हैं। ऐसे ही परमात्मा भी जीवन के सारे प्रकट के भीतर अप्रकट होकर काम करता है। लेकिन जो है वह हमें दिखाई पड़ता है आंखों से और जो नहीं दिखाई पड़ता है, हम सोचते हैं वह नहीं है।
हम बहुत ज्यादा पार्थिव ढंग से सोचते हैं। अगर एक फूल के पास एक कवि को ले जाएं, एक प्रेमी को ले जाएं, एक चित्रकार को ले जाएं, तो उसे फूल में बहुत कुछ दिखाई पड़ता है, जो हमें दिखाई नहीं पड़ता। और अगर वह फूल के सौंदर्य की बातें करे, तो हम कहेंगे: कहां है सौंदर्य? रंग है, आकार है, फूल में कुछ खनिज हैं, कुछ केमिकल्स हैं, कुछ पदार्थ है--सौंदर्य कहां है?
शायद फूल को प्रेम करने वाला सौंदर्य को निकाल कर अलग दिखा भी नहीं सकता। शायद वह कुछ भी नहीं कह सकता, हार जाएगा।
ऐसे ही, कुछ जीवन में जो महत्वपूर्ण है, वह भी उनको ही दिखाई पड़ता है जो देखने के लिए एक रिसेप्टिविटी, एक ग्राहकता अपने भीतर पैदा कर लेते हैं, अन्यथा दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन हमें तो अपने ही भीतर जो है वही दिखाई नहीं पड़ता। हम बाहर भटकते हुए लोग हैं, हमारी आंखें बाहर-बाहर घूमती हैं और जीवन समाप्त हो जाता है। और जो भीतर था उससे हमारी कोई पहचान भी नहीं हो पाती है।
यह जो भीतर है हमारे, इसका ही नाम परमात्मा है। लेकिन कैसे उसे खोजें?
थोड़ी सी बातें इस संबंध में समझ लेनी जरूरी हैं।
आदमी के व्यक्तित्व के तीन तल हैं। एक शरीर, दूसरा मन, तीसरी आत्मा। शरीर से हम सबकी पहचान है। शरीर सबसे ऊपर का तल है, इसलिए सीधा दिखाई पड़ जाता है। उसे देखने के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। जैसे किसी भवन के बाहर की दीवाल रास्ते से चलते हुए दिखाई पड़ जाती है, भवन के भीतरी कक्ष दिखाई नहीं पड़ते हैं। दीवाल तो चलते ही दिखाई पड़ जाती है, क्योंकि वह बाहर है। जो बाहर है वह बिना प्रयास के दिखाई पड़ जाता है। असल में, वही दिखाई पड़ता है बिना प्रयास के जो बाहर होता है, जो भीतर है उसके लिए कुछ प्रयास करना होगा, भीतर जाना पड़ेगा। अगर कोई किसी मंदिर के देवता को खोजना चाहे, तो मंदिर के भीतर जाना पड़ेगा। अगर कोई मंदिर की दीवालों को ही देखना चाहे, तो बाहर घूम कर ही लौट आ सकता है।
शरीर हमारे जीवन के मंदिर के बाहर का परकोटा है। उसके भीतर मन है। मन की भी थोड़ी-बहुत झलक हमें मिलती है, मन का भी थोड़ा-बहुत खयाल हमें होता है। क्योंकि दुख होता है, सुख होता है, क्रोध होता है, प्रेम होता है; शरीर को भूख लगती है, प्यास लगती है; ये सारी खबरें जिसे होती हैं...शरीर को तो ये खबरें नहीं हो सकतीं। शरीर के भीतर कोई है जिसे यह पता चलता है कि भूख लगी, जिसे पता चलता है कि पैर में तकलीफ है। पैर को यह कभी पता नहीं चलता कि पैर में तकलीफ है, सिर को कभी पता नहीं चलता कि सिर में दर्द है। दर्द किसी और को पता चलता है। यह जो पता चलता है, उससे थोड़ी सी झलक हमें भी मिलती है कि शरीर के भीतर मन जैसी भी कोई बात है। उसका भी थोड़ा अनुमान होता है। लेकिन उसके पीछे भी कोई और है, उसका हमें अनुमान भी नहीं हो पाता। उसका हमें खयाल भी नहीं आ पाता। मंदिर की दीवाल से हम परिचित होते हैं, कुछ भीतर की दहलानों से परिचित होते हैं, लेकिन गर्भगृह से, जहां देवता का निवास है, उससे हम बिलकुल ही अपरिचित रह जाते हैं।
कुछ कारण हैं, उनको समझ लें तो कुछ वृत्ति उस तरफ उठनी शुरू हो सकती है। शरीर के तल पर कुछ भूख है, कुछ प्यास है। मन के तल पर भी कुछ भूख है, कुछ प्यास है। और आत्मा के तल पर भी कुछ भूख और प्यास है। शरीर के तल पर जो भूख है उसे हम पूरा करते रहते हैं। शरीर मांग करता है--अगर शरीर को उसकी जरूरतें पूरी न हों, तो शरीर कष्ट में पड़ जाता है। अगर भूख लगी है और रोटी न मिले, तो शरीर कष्ट में पड़ जाएगा। कष्ट का मतलब है, वह जोर से मांग करने लगेगा कि रोटी दो। कष्ट का मतलब है, वह यह कहने लगेगा, अगर रोटी नहीं मिली तो मैं काम करने से इनकार करता हूं। कष्ट का मतलब यह है कि वह कहेगा कि रोटी अगर नहीं मिलती है तो मैं मरता हूं। कष्ट का मतलब है इस बात की खबर कि शरीर सहयोग छोड़ रहा है, इनकार कर रहा है, कोआपरेट करने से इनकार कर रहा है।
आपको रोटी देनी पड़ेगी, पानी देना पड़ेगा, हवा देनी पड़ेगी, कपड़े देने पड़ेंगे, गर्मी-सर्दी की हिफाजत करनी पड़ेगी। शरीर पूरे वक्त अपनी मांग कर रहा है। शरीर की ये मांगें अगर पूरी न की जाएं तो कष्ट मालूम पड़ेगा। कष्ट का अर्थ है, शरीर की मांग का पूरा न होना। और अगर मांगें पूरी कर दी जाएं तो कोई सुख मालूम नहीं पड़ेगा। यह समझ लेना जरूरी है। शरीर का स्वभाव है कि उसकी मांग पूरी न हो तो वह कष्ट अनुभव करेगा, मांग पूरी हो जाए तो बात खत्म हो गई, कोई सुख अनुभव नहीं होगा।
लेकिन हम कहते हैं कि जब ठीक खाना मिल जाता है तो बड़ा सुखद लगता है। हम कहते हैं, जब रात ठीक नींद आ जाती है तो बड़ा सुखद लगता है। उस सुखद का अर्थ है कष्ट का अभाव। वह सुख निगेटिव है। उस सुख की कोई पाजिटिव, कोई विधायक स्थिति नहीं है। पेट में भूख लगी है तो कष्ट मालूम होता है, रोटी पेट में डाल दी गई--तो अब कष्ट मालूम नहीं होता है, इसी को हम सुख समझ लेते हैं।
इसलिए जिनको निरंतर रोटी मिलती रहती है, जिन्हें निरंतर कपड़े मिलते हैं, जिन्हें निरंतर शरीर को कष्ट का कोई अवसर नहीं आता, वे बड़े परेशान हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें सुख का जो अनुभव होता था--रोटी खा लेने से, कपड़े मिल जाने से, वह भी बंद हो जाता है। गरीब आदमी की तकलीफ होती है कि उसका शरीर कष्ट में है, अमीर आदमी की तकलीफ होती है कि उसे सुख बिलकुल नहीं मिलता।
शरीर कोई सुख दे ही नहीं सकता; शरीर दो तरह के दुख देता है--या तो भूख का दुख देता है, या ज्यादा खाना खा लेने का दुख देता है। कम खाओ तो भी दुख देगा, ज्यादा खाओ तो भी दुख देगा। अगर बीच में खाओ तो दुख नहीं देगा, कष्ट नहीं देगा, बस। सुख शरीर कभी भी नहीं देता है। शरीर ने कभी किसी को कोई सुख नहीं दिया।
इसलिए जो लोग शरीर के तल पर ही जीते हैं उन्हें सुख कभी भी नहीं मिलता है। हां, उन्हें दो तरह के दुख मिल सकते हैं। गरीब का दुख; गरीब के दुख का मतलब है, शरीर की जरूरतें पूरी न होना। या उन्हें दुख मिल सकता है, अमीर का दुख; अमीर के दुख का मतलब है, जरूरत से ज्यादा चीजों का पूरा हो जाना। कम खा लो तो एक तकलीफ है, ज्यादा खा लो तो एक तकलीफ है। मकान न हो तो एक तकलीफ है और बहुत बड़ा मकान हो तो भी एक तकलीफ है। पैसा न हो तो भी एक तकलीफ है, बहुत पैसा हो जाए तो भी एक तकलीफ है। लेकिन शरीर के तल पर सुख कोई भी नहीं है। शरीर के तल पर सुख का अर्थ है कष्ट का न होना। बस इतना ही अर्थ है।
फिर दूसरा तल है मन का। मन की भी जरूरतें हैं, मन की भी मांगें हैं, मन की भी भूख है। संगीत के लिए, साहित्य के लिए, प्रेम के लिए, मित्रता के लिए, कला के लिए मन की भूख है। मन की भी मांग है। शरीर बहुत स्थूल है, इसलिए उसकी जरूरतें स्थूल हैं--पानी, रोटी, मकान। मन सूक्ष्म है, उसकी मांग भी सूक्ष्म है--संगीत, साहित्य, प्रेम, कला। मन के तल पर स्थिति उलटी है। अगर संगीत न मिले तो कोई दुख न होगा।
आदिवासियों ने कभी भी नहीं सुना कोई शास्त्रीय संगीत, इस कारण वे दुखी नहीं हैं जंगल में कि मुझे शास्त्रीय संगीत सुनाई नहीं पड़ा तो मैं बहुत दुखी हूं। जो आदमी संस्कृत नहीं जानता उसने कालिदास के अदभुत ग्रंथ नहीं पढ़े, इस वजह से दुखी नहीं है कि मुझे बड़ा दुख हो रहा है कि मैंने कालिदास के ग्रंथ नहीं पढ़े। जिस आदमी ने रवींद्रनाथ का नाम नहीं सुना और गीतांजलि में कोई डुबकी नहीं लगाई, वह कोई दुख नहीं झेल रहा है। उसे कभी भी खयाल नहीं आता सोते-जागते कि गीतांजलि नहीं पढ़ी तो मैं बड़ा दुखी हूं।
मन की बात उलटी है। मन की जरूरतें पूरी करो तो सुख मिलता है, जरूरतें पूरी न करो तो दुख नहीं मिलता, कष्ट नहीं मिलता। मन की जरूरतें पूरी न हों तो कोई कष्ट नहीं मिलता, जरूरतें पूरी हों तो सुख मिलता है; मन के तल पर कष्ट नहीं होता, सिर्फ सुख होता है। हां, मन के तल पर भी कष्ट मालूम पड़ सकता है, अगर सुख का अभाव रहे तो कष्ट मालूम पड़ सकता है। जिस आदमी ने शास्त्रीय संगीत सुन लिया, उसे अब सुनने को न मिले, तो सुख का अभाव उसे कष्ट जैसा मालूम पड़ेगा।
मन के तल पर कष्ट निगेटिव है, सुख का अभाव है। शरीर के तल पर सुख निगेटिव है, कष्ट का अभाव है। मन के तल पर सुख मिल सकता है, मन के तल पर कष्ट नहीं मिलता, कष्ट सिर्फ अभाव होता है।
लेकिन मन के तल के सुख बड़े भागने वाले सुख हैं, क्षणिक सुख हैं। कोई आदमी कितनी देर तक संगीत सुन सकता है? कोई आदमी कितनी देर तक काव्य में डूब सकता है? कोई आदमी कितनी देर तक प्रेम कर सकता है? कोई आदमी कितनी देर तक अपने प्रेमी का हाथ अपने हाथ में रख सकता है?
और एक मजा है मन के तल पर, मन हमेशा नये सुख की मांग करता है। अगर एक ही गीत आपने एक बार सुना तो सुखद लगेगा, दूसरी बार सुना तो उतना सुखद नहीं लगेगा, तीसरी बार सुना तो घबड़ाहट होने लगेगी, और दस बार सुनना पड़े तो आप भागने लगेंगे, और अगर पचास बार जबरदस्ती सुनाया जाए तो आप पागल हो जाएंगे। वही एक गीत! कोई प्रेमी मिलता है, उसे हमने गले से लगा लिया। एक क्षण तक सुख रहेगा; दोत्तीन क्षण के बाद घबड़ाहट शुरू हो जाएगी; अगर आधा घंटे तक गले से लगाए रखना पड़े तो ऐसा लगेगा कि कोई जहर मिल जाए तो खा लें और मर जाएं। इससे कैसे छुटकारा हो?
मन की बड़ी क्षणिक अनुभूति है, थोड़ी ही देर में वह अनुभूति से इनकार करने लगता है। वह कहता है: नया! और नया! और नया!
शरीर हमेशा पुराने को मांगता है, मन हमेशा नये को मांगता है। शरीर कहता है, कल जो हुआ था वही आज। अगर कल दस बजे भोजन मिला था, तो आज भी दस बजे भोजन मिलना चाहिए। अगर साढ़े दस बज गए तो शरीर में तकलीफ शुरू हो जाएगी। शरीर कहता है, कल जो खाट मिली थी सोने को, वही आज मिलनी चाहिए। शरीर आदत से जीता है, आदत सदा पुरानी होती है, आदत पुनरुक्ति होती है। इसलिए जो आदमी अपने शरीर को एक यंत्रवत ढाल लेता है, उस आदमी का शरीर सबसे कम कष्ट देता है--ठीक वक्त पर उठ आता है रोज, ठीक समय पर सो जाता है, ठीक समय पर खाना खाता है, जो खाना रोज खाता है वही खाता है, कोई गड़बड़ नहीं करता। शरीर यंत्र की तरह है, वह रोज पुराने की पुनरुक्ति मांगता है।
अगर शरीर को रोज-रोज नया दो, शरीर तकलीफ में पड़ जाता है, शरीर कष्ट में पड़ जाता है। शरीर एडजस्ट नहीं हो पाता नये के लिए। शरीर पुराने की मांग है। इसलिए जो पुरानी दुनिया थी, उसमें शरीर बहुत आराम में था। सब बंधा हुआ काम था। नई दुनिया में बड़ी मुश्किल हो गई, सब चीजें रोज बदल जाती हैं। शरीर को बड़ी तकलीफ हो रही है। इसलिए शरीर बहुत सी बीमारियां अनुभव कर रहा है, जो पुरानी दुनिया में उसने कभी अनुभव नहीं की थीं। नई बीमारियां, नई तकलीफें शरीर के लिए खड़ी हो गई हैं, क्योंकि शरीर की सारी की सारी व्यवस्था टूट गई है। एक आदमी हवाई जहाज से चलता है। आज सुबह हिंदुस्तान में है, थोड़ी देर बाद पाकिस्तान में है, थोड़ी देर बाद अरब में है, थोड़ी देर बाद यूरोप में है। सब बदल जाता है। दिन भर में दस मुल्क बदल जाते हैं, दस तरह का खाना बदल जाता है, दस तरह की हवा बदल जाती है, दस तरह के मकानों में सोना पड़ता है, दस तरह की भाषाएं बदल जाती हैं, दस तरह के लोग बदल जाते हैं। शरीर बड़ी मुश्किल में पड़ता है कि यह क्या हो रहा है? शरीर बहुत बेचैन हो जाता है।
शरीर बंधा हुआ क्रम चाहता है, शरीर की आकांक्षा पुराने के लिए है। इसलिए जितने शरीरवादी लोग होंगे, वे हमेशा पुराने के प्रति उत्सुक और आतुर होंगे। नये के प्रति उनकी कोई आकांक्षा नहीं होगी।
लेकिन मन रोज नये की मांग करता है। वह कहता है, रोज नया चाहिए, रोज नया चाहिए। कल जो किताब पढ़ी, आज नहीं पढ़नी है। कल जो फिल्म देखी, आज नहीं देखनी है। कल जो गीत सुना, अब नहीं सुनना है। यह मांग मन की बढ़ती चली जाती है--रोज नया, रोज नया--बड़ी मुश्किल हो गई है!
मैंने सुना है हवाना में, हवाई द्वीप में उन्होंने हवाना को इस तरह बनाया है कि रात-दिन हवाना को बदलने की कोशिश चलती रहती है, उस नगर को। क्योंकि कल जो यात्री आए थे, ताकि वे कल फिर आ सकें और वे यह अनुभव न करें कि पुरानी बस्ती में आ गए। अगर एक होटल में आप ठहरते हैं आज जाकर और कल आप फिर उस होटल में ठहरने जाएं, तो आप पाएंगे कि चीजें बहुत कुछ बदल गई हैं, बोर्ड का रंग बदल गया, कमरों के रंग बदल गए, लाइट बदल गए, खिड़कियां तक दूसरी लगा दी गई हैं। क्यों? ताकि आप यह न कह सकें कि वही होटल फिर।
अमेरिका जैसे मुल्कों में, जो मन की दुनिया में जी रहे हैं, तीव्र परेशानी है रोज नये को लाने की। इसलिए अमेरिका में इतने जोर का तलाक है--पति भी पुराना पसंद नहीं पड़ता, पत्नी भी पुरानी पसंद नहीं पड़ती।
हिंदुस्तान में तलाक जैसी बात हमारी कल्पना में नहीं आती। हमने विवाह को शरीर के तल पर बांध रखा है; जिस दिन विवाह को मन के तल पर उठाया, उसी दिन तकलीफ शुरू हो जाती है। क्योंकि मन कहता है, रोज नया! वही पत्नी रोज-रोज उबाने वाली, घबड़ाने वाली मालूम पड़ने लगती है। वही पति रोज सुबह दिखाई पड़ता है, वह बहुत घबड़ाने वाला हो जाता है।
मैंने सुना है, एक अमरीकी अभिनेत्री ने जीवन में बत्तीस विवाह किए। और जब उसने इकतीसवां विवाह किया, तो पंद्रह दिन बात पता चला कि यह आदमी एक दफा और उसका पति रह चुका है। इतनी जल्दी-जल्दी बदलाहट की थी कि फुर्सत कहां रही याद रखने की कि कौन आदमी कितनी बार बदल गया है, क्या हुआ है।
अगर मन के तल पर विवाह को लाया गया तो विवाह टिकने वाला नहीं है, वह क्षण-क्षण में बदलने की मांग वहां भी शुरू हो जाएगी। और अभी तलाक है, कल तलाक भी ऐसा लगेगा कि तलाक में भी तो साल दो साल लगते हैं, शादी-विवाह करो। इसलिए नये-नये प्रयोग वहां चल रहे हैं--ट्रायल मैरिज है; कि शादी मत करो, पहले ट्रायल करो; अगर ट्रायल में ही ऊब जाओ तो झंझट खत्म कर दो।
और एक बहुत बड़े आदमी ने, जज लिंडसे ने ट्रायल मैरिज की तारीफ की अमेरिका में, और एक बड़ी किताब लिखी कि विवाह मत करो, सिर्फ प्रायोगिक विवाह करो, एक्सपेरिमेंटल करो। फिर जब तुम बिलकुल पक्का कर लो, तब करना। और मैं जानता हूं कि अगर प्रायोगिक विवाह किया जाए, तो कोई आदमी कभी पक्का निर्णय लेने की हिम्मत नहीं कर सकेगा। जिंदगी के मरते दम तक वह सोचेगा कि क्या पता झंझट हो जाए, फिर कल बदलना पड़े, प्रयोग चलने दो।
मन रोज नये की मांग करेगा। मन के तल पर पुराना घबड़ाने वाला है, नया स्वीकृत; चाहे पुराने से बुरा भी हो, नया होना काफी है। शरीर के तल पर नया चाहे पुराने से अच्छा भी हो, तो भी शरीर स्वीकार नहीं करना चाहता, वह इनकार करता है, वह अपनी आदत में जीना चाहता है। मन, मन नये की मांग करता है, चाहे बुरा ही क्यों न हो।
मन नये की मांग क्यों करता है? क्योंकि मन एक क्षण में तृप्त हो जाता है, एक क्षण से ज्यादा नहीं मांगता; मन कहता है, बस बहुत है। एक क्षण में झलक मिल जाती है, बात खत्म हो जाती है। इसलिए मन के सारे सुख क्षणिक होंगे; मन का कोई सुख शाश्वत नहीं हो सकता, सनातन नहीं हो सकता, सदा रहने वाला नहीं हो सकता। आएगा और जाएगा। आ भी नहीं पाएगा और आप पाएंगे कि वह गया।
एक आदमी एक कार खरीदना चाहता है। कितनी रात, कितनी चिंता, कितनी योजनाएं बनाता है! फिर कार खरीद कर घर ले आता है। एक क्षण मन पुलक से भरता है, दूसरे क्षण बात खत्म हो गई। कार घर आ गई और सब खत्म हो गया। अब क्या करोगे? फिर दूसरे दिन से दूसरी कार पर नजर है, दूसरे मकान पर नजर है। वह भी मिल जाएगा, और मिलते ही सब समाप्त हो जाएगा, मिला कि गया। क्योंकि मन एक क्षण से ज्यादा कोई सुख लेने को तैयार नहीं। वह फिर नये की मांग करने लगता है।
और मन के तल पर नये की मांग ही, अगर नया पूरा न हो, उपलब्ध न हो, तो कष्ट जैसा मालूम पड़ने लगता है। मन के तल पर सुख क्षणिक है और कष्ट स्थायी मालूम पड़ेगा। बीच-बीच में क्षण भर को सुख मिलेगा, फिर कष्ट थिर हो जाएगा। फिर सुख की झलक मिलेगी, फिर कष्ट थिर हो जाएगा। जैसे अंधेरी रात में कभी कोई बिजली चमकती हो। बिजली चमकती है, रोशनी हो जाती है, फिर घुप्प अंधेरा हो जाता है। मन के तल पर ऐसा ही है। नई चीज मिलती है--एक चमक, बिजली; फिर घुप्प अंधेरा। कितनी नई चीजें मिलेंगी? चौबीस घंटे कितनी नई चीजें पाई जा सकती हैं? मन के तल पर सुख की झलक मिलती है; सुख क्षण भर को मिलता है; फिर खो जाता है।
जो आदमी शरीर के तल पर ही जीएगा, उसे कोई सुख नहीं मिलेगा। जो आदमी मन के तल पर जीएगा, उसे क्षणिक झलक मिलेगी, लेकिन स्थायी सुख नहीं मिलेगा।
तीसरा तल आत्मा का है। आत्मा की भी भूख है। जैसे शरीर की भूख है, मन की भूख है, आत्मा की भी भूख है। जैसे शरीर की प्यास है, मन की प्यास है, ऐसे ही आत्मा की भी प्यास है। आत्मा की भूख या आत्मा के भोजन का नाम ही परमात्मा है या धर्म है। वह जो आत्मा चाहती है--उसकी भी प्यास और भूख है।
और आत्मा के तल पर एक मजा है, एक और स्वभाव है वहां--जब तक परमात्मा न मिले, तब तक आदमी की जिंदगी एक बेचैनी होगी, एक अशांति होगी। उसे चाहे पता हो या न पता हो इस भीतरी भूख का, उसकी जिंदगी में एक बेचैनी, भीतर एक रेस्टलेसनेस भीतर सरकती रहेगी। उसे हमेशा ऐसा लगेगा: कुछ खोया हुआ है, कुछ खोया हुआ है, कुछ है जो नहीं मिला है। उसे पता भी नहीं है कि क्या खोया हुआ है। क्योंकि जो मिला ही नहीं है उसके खोने का पता भी कैसे हो सकता है? लेकिन एक अनजान बेचैनी, एक अनजान परेशानी, एक अशांति--चौबीस घंटे! खाना मिल जाएगा, फिर भी उसे लगेगा: कुछ है जो खोया हुआ है। मकान बन जाएगा, फिर भी लगेगा: बन गया सब, लेकिन कुछ है जो नहीं बना। संगीत सुनने का कहने को सुख मिला, लेकिन फिर भी कुछ है जो छूट गया। मन का सब मिल जाए, शरीर का सब मिल जाए, फिर भी पीछे एक खालीपन, एक एंप्टीनेस भीतर सरकती रहेगी। वह पीछे से चोट करती रहेगी।
वह चोट आत्मा की भूख है। वह कहती है आत्मा कि जब तक परमात्मा न मिल जाए, तब तक सब मिला हुआ धोखा है।
इस आत्मा की भूख को भी समझ लेना चाहिए। नहीं मिलता है परमात्मा, तो एक अनजाना दुख पूरे जीवन में छाया रहेगा। शरीर की तृप्तियां मिलेंगी, मन के सुख मिलेंगे, सब झलकेंगे, खो जाएंगे। लेकिन एक स्थायी स्वर दुख का, एक उदासी, एक बेचैनी, एक विषाद, एक एंग्विश, एक चिंता, एक एंग्जाइटी पीछे खड़ी रहेगी पूरे वक्त। जब तक नहीं मिलती है वह अनुभूति, जिसको हम परमात्मा कहें, तब तक यह बेचैनी खड़ी रहेगी। और जैसे ही उस अनुभूति की एक झलक मिल जाए, यह बेचैनी बिलकुल समाप्त हो जाएगी; जैसे कभी थी ही नहीं। और एक बार वह झलक मिल जाए, तो वह झलक फिर कभी खोती नहीं।
शरीर को रोज भोजन देना पड़ता है, फिर चौबीस घंटे में भोजन चुक जाता है--फिर भोजन दो, फिर पानी दो--फिर पानी चुक जाता है। शरीर को चौबीस घंटे दो, तब शरीर शांत रहता है। मन को कितना ही दो, वह एक क्षण में चुक जाता है। वह कहता है, फिर! उसकी भूख एक क्षण में बदल जाती है। आत्मा को एक बार दे दो, फिर दुबारा उसकी मांग नहीं होती। जो मिल गया वह मिल गया और वह सदा के लिए मिल जाता है।
शरीर के तल पर सुख नहीं होता, सिर्फ कष्ट होते हैं या कष्ट का अभाव होता है। मन के तल पर सुख होता है, कष्ट नहीं होता, या सुख का अभाव होता है, जिसे हम कष्ट समझते हैं। आत्मा के तल पर होता है दुख और या होता है आनंद। दुख गया कि फिर जो शेष रह जाता है वह आनंद है। उस आनंद की तलाश ही धर्म है। उस परमात्मा नाम के भोजन की खोज, उस खोज का विज्ञान ही धर्म है। और आज मेरे मित्रों ने चाहा है कि मैं कहूं कि व्यस्त जीवन में उस परमात्मा नाम के भोजन को कैसे पाया जा सकता है?
निश्चित ही जीवन व्यस्त है, और सदा से व्यस्त रहा है। व्यस्त रहने के दो कारण हैं। एक तो कारण है: शरीर और मन की जरूरतें पूरी करनी हैं। पूरी करनी हैं तो व्यस्त रहना पड़ेगा। जिसको शरीर की ही जरूरतें पूरी करनी हैं, उसे बहुत व्यस्त नहीं रहना पड़ेगा, क्योंकि शरीर की जरूरतें बड़ी सीमित हैं।
जानवर है, एक शेर है, वह दिन में एक दफा उठता है, जाकर एक शिकार कर लेता है, खा-पीकर सो जाता है। उसकी जरूरत खत्म हो गई। फिर दिन भर वह व्यस्त नहीं रहता। भोजन मिल गया, बात खत्म हो गई। जानवर सिर्फ शरीर के तल पर जीता है। उसकी जरूरतें बहुत सीमित हैं। शरीर की मांग पूरी हो जाती है, बात खत्म हो जाती है।
फिर वह यह भी नहीं कहता शरीर कि यही जानवर कल खाया था, यही आज खाने लगे, बोर हो गए अब तो! कोई जानवर बोर होता ही नहीं, पता है आपको? कोई जानवर कभी ऊबता नहीं, बोर्डम जैसी चीज जानवर की दुनिया में नहीं होती, सिर्फ आदमी की दुनिया में होती है। क्योंकि जानवर के पास मन नहीं है। मन बोर होता है, ऊब जाता है।
शरीर तो कभी बोर नहीं होता, जो उसे कल मिला है वही दे दो, मजे से प्रसन्न होकर तृप्त हो जाता है, बात खत्म हो जाती है। शरीर तो एक यंत्र है। जैसे हम मोटर में पेट्रोल डाल देते हैं। वह मोटर यह नहीं कहती कि यही पेट्रोल कल डाला था और आज फिर वही डालने लगे, वही स्टो की दुकान पर फिर खड़े हो गए आकर! आज हमें दूसरा बर्मा तेल चाहिए। या तीसरा हमें इंजन आयल चाहिए। अब यही-यही तेल हम नहीं लेंगे।
नहीं, मोटर को कोई मतलब नहीं है, मोटर को पेट्रोल चाहिए। शरीर को भी कोई मतलब नहीं है कि आप क्या देते हो। उसकी जरूरत पूरी हो जानी चाहिए, बस। जरूरत पूरी हो गई, बात खत्म हो गई।
इसलिए जानवर ज्यादा व्यस्त नहीं है। जानवर बिलकुल ही व्यस्त नहीं है। एक कुत्ते को देखो, एक बिल्ली को देखो। बिल्ली व्यस्त दिखाई पड़ेगी जब तक चूहा न मिल जाए, फिर उसके बाद बात खत्म हो गई। चूहा मिल गया, फिर बिल्ली शांति से बैठ कर पता नहीं ध्यान करती है, सपना देखती है, क्या करती है!
लेकिन मेरा खयाल है कि बिल्ली ध्यान भी तभी करती होगी जब चूहा न मिलता होगा। चूहे का ध्यान करती होगी, बाकी ध्यान भी नहीं करती होगी।
मैंने सुना है, एक बिल्ली एक झाड़ के नीचे बैठ कर सपना देखती थी। एक कुत्ता पास से निकला और कुत्ते ने पूछा कि देवी, क्या देख रही हो? क्या सपना देख रही हो? तो उस बिल्ली ने कहा, बड़ा आश्चर्य! मैंने सपने में देखा कि वर्षा हो रही है और वर्षा में पानी की जगह चूहे गिर रहे हैं। उस कुत्ते ने कहा, मूर्ख बिल्ली! हमने पुरखों से कभी नहीं सुना, न हमारे शास्त्रों में लिखा हुआ है कि कभी चूहे गिरते हैं। जब भी वर्षा होती है और भगवान खुश होता है तो हड्डियां गिरती हैं! चूहे कभी सुने हैं? हमने भी सपने देखे हैं, लेकिन हड्डियां गिरती हैं, चूहे कभी गिरते ही नहीं, यह बात ही गलत है।
ठीक कहता है कुत्ता, क्योंकि कुत्ते के सपनों में चूहे क्यों गिरेंगे! कुत्ते के सपने में, जब भूख पेट में होती होगी, तो हड्डियां ही गिरती होंगी। बिल्ली के सपने में हड्डियां गिरने का क्या कारण है! जब भूख होती होगी तो चूहे गिरते होंगे। लेकिन सपने यहीं खत्म हो जाते हैं। शरीर से ज्यादा जानवर का व्यक्तित्व नहीं है।
और इसीलिए हम यह कह सकते हैं कि जिस आदमी का व्यक्तित्व शरीर पर खत्म हो जाता है, वह आदमी जानवर से ज्यादा नहीं है। उसके और जानवर के बीच बुनियादी फर्क नहीं है। जो आदमी सोचता है कि खाना-पीना, कपड़े पहन लेना, बस आ गई समाप्ति, दि एंड आ गया, वह आदमी जानवर के तल पर जी रहा है। उस आदमी की जिंदगी में भी एक तरह का संतोष होगा। क्योंकि जानवर बिलकुल संतुष्ट मालूम पड़ते हैं। उस आदमी की जिंदगी में एक तरह की निश्चिंतता होगी। जानवर बिलकुल निश्चिंत मालूम पड़ते हैं। उस तरह के आदमी के जीवन में बहुत चिंता नहीं होगी। जानवरों के जीवन में कोई चिंता नहीं है। लेकिन वह आदमी न तो उन सुखों को जान पाएगा जो मन के हैं और न उन आनंदों को जान पाएगा जो आत्मा के हैं।
इसलिए सुकरात से किसी ने पूछा कि एक असंतुष्ट सुकरात बनने की बजाय एक संतुष्ट सूअर बन जाने में हर्ज क्या है?
सुकरात ने कहा कि मैं एक संतुष्ट सूअर बनने की बजाय एक असंतुष्ट सुकरात ही बनना चाहूंगा। क्योंकि संतुष्ट सूअर उन लोकों की यात्रा नहीं कर पाता, जिन लोकों की यात्रा असंतुष्ट सुकरात कर सकता है।
इसलिए देखा होगा कि न तो जानवर बोर होते हैं, ऊबते हैं और न जानवर कभी हंसते हैं। किसी जानवर को कभी हंसते हुए देखा? अगर रास्ते पर कोई भैंस हंसती हुई मिल जाए, तो फिर जिंदगी भर सो नहीं सकोगे। शहर से भागोगे और सब काम छोड़ दोगे--कि मर गए! यह क्या हो गया कि भैंस और हंस रही है?
नहीं, कोई जानवर नहीं हंसता, सिवाय आदमी नाम के जानवर को छोड़ कर। क्योंकि हंसना और ऊबना मन की बातें हैं, शरीर की बातें नहीं। जानवर कभी नहीं हंसता। इसलिए अगर आदमी की परिभाषा करनी हो, तो हम कह सकते हैं: जो जानवर हंसता है उसका नाम आदमी है। हंसना आदमी का बुनियादी लक्षण है।
आदमी ऊबता भी है, हंसता भी है, क्योंकि उसके पास मन है। और मन की खुशियां भी हैं और मन की गैर-खुशियां भी हैं। लेकिन शरीर के तल पर ही अगर आदमी रह जाए, तो वह मशीन की तरह जीता है और समाप्त हो जाता है। उसे पता ही नहीं चलता कि उसके भीतर क्या-क्या छिपा था। कौन से रहस्य, कौन से अनजाने लोक, कौन सी यात्राएं बाकी थीं, जिन्हें वह करता तो जीवन धन्य हो जाता। वह उसे पता नहीं चलता। कुछ लोग शरीर पर रुक जाते हैं।
कुछ लोग शरीर से ऊपर उठते हैं और मन के सुखों की खोज करते हैं। मन के सुख बड़े अदभुत हैं, लेकिन बड़े सपनीले हैं, बड़े भ्रमीले हैं, आ भी नहीं पाते और चले जाते हैं। कैसा अदभुत है काव्य का सुख, कैसा अदभुत है वीणा का सुख, कैसा अदभुत है प्रेम का सुख, कैसी अदभुत हैं मन की गहराइयां, लेकिन बस एक क्षण छुओ और खो देना। बहुत इल्यूजरी हैं, बहुत भ्रामक हैं, बहुत काल्पनिक हैं। छुओ कि...
अप्रियजन के मिलने से दुख होता है। लेकिन प्रियजन के मिलते समय भी डर बना रहता है कि कहीं प्रियजन खो न जाए, और वह डर उस सुख को भी क्षीण कर जाता है। फूल खिलता है, सुख देता है। लेकिन डर साथ में बना है कि कुम्हला जाएगा, कुम्हला जाएगा, अब कुम्हलाया, अब कुम्हलाया। मन के तल पर कभी भी प्राण पूरी तरह तृप्त नहीं हो पाते, फूल खिला भी नहीं कि कुम्हलाना शुरू हो जाता है। वहां कोई थिरता नहीं है, वहां कोई स्थायित्व नहीं है। इसलिए जो लोग मन में जीते हैं, वे बड़ी एंग्जाइटी में, बड़ी चिंता में जीते हैं। वहां चौबीस घंटे एक ट्रेंबलिंग, एक कंपन चलता रहता है--अब गया, अब गया, अब गया; सब खो जाएगा। और जो मिलता है, वह मिलते ही हाथ से छूट जाता है। जैसे कोई पानी पर मुट्ठी बांधे; हाथ डालता है तो लगता है पानी हाथ में है, मुट्ठी बांधी कि खाली मुट्ठी रह जाती है, पानी बाहर हो जाता है। मन के सुख में हाथ डालो तो लगता है बहुत सुख मिल रहा है, मुट्ठी बांधो तो पता चलता है मुट्ठी खाली रह गई, सुख कहीं खो गया।
मन की दुनिया में जीना एक चिंता में जीना है। मन की दुनिया में जीना एक बेचैनी में जीना है। लेकिन कुछ लोग मन की दुनिया में जीते हैं और समाप्त हो जाते हैं। जो मन की दुनिया में जीते हैं, उनके विक्षिप्त होने का बहुत डर है। शरीर की दुनिया में जीने वाला आदमी कभी पागल नहीं होता; क्योंकि वह आदमी ही नहीं होता, वह आदमी से नीचे होता है। पागल होने के लिए भी आदमी होना जरूरी है। लेकिन जो मन की ही दुनिया में जीते हैं, वे करीब-करीब पागलपन में जीते हैं। इसलिए जितना ज्यादा मन की दुनिया में जीना शुरू होगा, उतनी विक्षिप्तता, मैडनेस बढ़नी शुरू हो जाएगी।
आज अमेरिका में सबसे ज्यादा पागलों की संख्या है सारी दुनिया में। आज अमेरिका में सबसे ज्यादा डाक्टर हैं दिमाग के। क्यों? अमेरिका बहुत तेजी से मन में जी रहा है। एक आदिवासी गांव में जाओ, बस्तर के किसी पहाड़ी में छिपे हुए गांव में, वहां पागल आदमी नहीं है। क्योंकि वह आदमी अभी आदमी के तल पर भी खड़े होकर नहीं जी रहा है। अभी वह संक्रमण से, ट्रांजीशन से नहीं गुजर रहा है, जहां से गुजरने में तकलीफ होगी। अगर रुक जाएगा तो तकलीफ बहुत होगी, अगर आगे बढ़ जाएगा तो बड़े सुख का लोक है।
आदमी एक ट्रांजीशन है--पशु से परमात्मा की तरफ। या तो पशु रहो तो एक तरह की शांति रहेगी, या परमात्मा हो जाओ तो एक तरह की शांति होगी। लेकिन पशु होने की शांति अज्ञान की शांति है, मरे हुए आदमी की शांति है। परमात्मा होने की शांति जीवन की शांति है। मरघट भी शांत होता है, लेकिन मरघट की शांति का मतलब है कि वहां कोई है ही नहीं। एक मंदिर भी शांत हो सकता है, लेकिन मंदिर की शांति का अर्थ है कि वहां जो लोग हैं वे शांत हैं। एक स्थिति है पशु की, एक स्थिति है परमात्मा की, और बीच में एक ट्रांजीशन, एक बीच में संक्रमण का काल है मन का, वह स्थिति अधिकतम मनुष्यों की है--मन के बीच की।
जो लोग मन में ही कोशिश करते हैं जीने की, वे अधर में लटक जाते हैं। न वे पशु हैं, न वे परमात्मा हैं। दोनों तरफ का खिंचाव पड़ता है। शरीर कहता है: पशु हो जाओ तो सब ठीक हो जाएगा। आत्मा कहती है: और आगे बढ़ आओ तो सब ठीक हो जाएगा। लेकिन वहां मत रुको, जहां रुके हो। शरीर भी कहता है वहां मत रुको। आत्मा भी कहती है वहां मत रुको। और मन कहता है यहीं रुके रहो। और वहां रुकने जैसा कुछ नहीं मालूम पड़ता। एक क्षण सुख मिलता है, फिर घुप्प अंधेरा हो जाता है।
यह टेंशन है आदमी का, यह तनाव है। नीत्शे ने कहा है, आदमी एक रस्सी है, दो अनंतताओं के बीच फैली हुई। नीत्शे ने कहा कि आदमी एक ब्रिज है, दो अनंत के बीच।
ठीक कहता है वह, आदमी एक सेतु है, एक पुल। पीछे एक रास्ता है जो छूट गया, आगे एक रास्ता है जो अभी शुरू नहीं हुआ, और हम बीच के पुल पर खड़े हैं। और यह पुल ऐसा नहीं है कि लोहे का हो, यह पुल है मन का, जो पानी से भी ज्यादा चंचल है। इस पुल पर हम खड़े हैं जो कंप रहा है पूरे वक्त, कब ढह जाएगा पता नहीं। तो हमारे प्राण भी कंपते हैं। मन कहता है, लौट चलो पीछे। एक मन कहता है, बढ़ चलो आगे। और वह जो मन है हमारा, वह कहता है, यह सुख छोड़ो मत--यह प्रेम, यह पत्नी, यह संगीत, यह काव्य, ये सारे सुख छोड़ो मत, इन्हें भोग लो। मन कहता है, यहीं रुक जाओ! शरीर कहता है, पीछे लौट आओ! आगे कोई अनजान पुकार बुलाती है परमात्मा की कि बढ़े आओ! इस सब में आदमी एक चिंता में, परेशानी में पड़ जाता है।
जो लोग मन पर रुक जाते हैं, वे बड़ी गलत मंजिल पर रुक जाते हैं। वे आगे बढ़े शरीर से यह अच्छा किया, लेकिन अभी और आगे बढ़ना था, रुक नहीं जाना था। वह जो तीसरी पुकार है, वह परमात्मा की पुकार है--और आगे! और आगे!
फिर वहां एक जगह है जिसके आगे भी कुछ नहीं, जिसके पीछे भी कुछ नहीं। जहां पहुंचने के बाद फिर पाने को कुछ शेष नहीं रह जाता। क्योंकि पाने की तभी तक इच्छा रहती है जब तक भीतर दुख है। दुख धक्के देता है कि पाओ कुछ, ताकि मैं मिट जाऊं। जब दुख मिट गया, पाने की दौड़ बंद हो जाती है। और जब वह मिल गया, जो सब कुछ है, तो पाने को कुछ शेष नहीं रह जाता है।
लेकिन कैसे पाएं उसे? हम तो बहुत व्यस्त हैं, हम तो सुबह से लेकर सांझ तक व्यस्त हैं। या तो शरीर के काम में व्यस्त हैं या मन के काम में व्यस्त हैं। या तो शरीर की मांगें पूरी कर रहे हैं या मन की मांगें पूरी कर रहे हैं। हम परमात्मा के लिए समय कहां से निकालें? यह तीसरी मांग कौन पूरी करे, कैसे पूरी करे? कहां है समय? कहां है अवसर? कहां है सुविधा?
गांव-गांव मैं भटकता हूं, लोग मुझसे पूछते हैं: समय कहां है? सुविधा कहां है? कब पुकारें उस प्रभु को? कब खोजें उस आत्मा को? फुर्सत नहीं मिलती। सुबह से उठते हैं, और फैक्ट्री है। सांझ थके-मांदे लौटते हैं, और बच्चे हैं। दूसरी फैक्ट्री घर पर है--बच्चे की, पत्नी की। दिन भर एक फैक्ट्री चलाते हैं, सांझ आकर दूसरी फैक्ट्री में उलझ जाते हैं। इससे बचते हैं तो फिर सुबह वही फैक्ट्री है, फिर सांझ वही फैक्ट्री है। फैक्ट्री में चले जा रहे हैं, कहां है समय? कहां है सुविधा? कब खोजें उसको जिसकी आनंद की बातें करते हैं आप? किस मार्ग से जाएं? कौन जाए? कैसे जाएं? समय तो बिलकुल नहीं है।
यह लोग बिलकुल ठीक कहते हैं, गलत नहीं कहते हैं। लेकिन मेरा कहना यह है कि परमात्मा को खोजने के लिए समय की कोई जरूरत ही नहीं। मेरा कहना यह है कि परमात्मा को खोजने के लिए अलग समय की कोई जरूरत ही नहीं। परमात्मा की खोज काम्पिटीटिव नहीं है शरीर और मन से। शरीर और मन से परमात्मा की खोज की कोई प्रतियोगिता नहीं है। शरीर और मन में जरूर प्रतियोगिता है। अगर आपको शरीर की खोज करनी है, तो उतनी देर तक मन की खोज बंद कर देनी पड़ेगी। क्योंकि जो आदमी रोटी कमाने गया है, वह उसी वक्त वीणा सीखने नहीं जा सकता। या जो आदमी वीणा सीखने गया है, उसी वक्त रोटी नहीं कमा सकता। इसीलिए तो यह गड़बड़ हो जाती है कि जो लोग रोटी कमाते हैं, वे कभी कविता नहीं करते; जो कविता कमाने लगते हैं, हमेशा भूखे मरते हैं। यह हमेशा हो जाता है, क्योंकि काम्पिटीटिव है। अगर मन की खोज करने जाते हैं, तो शरीर की खोज में थोड़ी-बहुत बाधा पड़ेगी।
इसीलिए हजारों साल तक मन की खोज सिर्फ राजा-महाराजा, धनपति लोग करते थे। गरीब आदमी मन की कोई खोज नहीं करता था। कहां सुविधा थी कि एक मेहतर, एक चमार बैठ कर वीणा सुने! राजा-महाराजा अपने महलों में वीणा सुनते थे, नृत्य देखते थे अप्सराओं के। एक भंगी-मेहतर को कहां फुर्सत थी, कहां सुविधा थी! दिन भर झाडू लगाएगा सड़क पर, नृत्य कब देखेगा? और झाडू लगाने वाला धीरे-धीरे इतना जड़ हो जाएगा कि उसको नृत्य देखने की समझ भी खो जाएगी। दिन-रात हथौड़ी पीटेगा, सितार कब सुनेगा? और हथौड़ी ठोकते-ठोकते कान ऐसे जड़ हो जाएंगे कि जब कोई सितार बजाएगा तो उसकी समझ के बाहर होगा कि यह क्या हो रहा है।
मैंने सुना है कि दो युवक चित्रकार होना चाहते थे। उनमें से एक तो फिर बहुत बड़ा चित्रकार हुआ, डोरिक। वे दोनों अपने गुरु के पास शिक्षा लेने गए। लेकिन दोनों गरीब थे। उनके पास फीस के पैसे भी नहीं थे। रंग खरीदने के पैसे भी नहीं थे। गुरु ने कहा कि मैं तुम्हें मुफ्त शिक्षा दे दूंगा, लेकिन रंग मैं कहां से लाऊंगा? मैं खुद ही गरीब हूं। कागज कहां से लाऊंगा? इतना इंतजाम तुम्हें करना पड़ेगा। वे कहने लगे, हमारे पास तो सिवाय चित्र सीखने की आकांक्षा के और कुछ भी नहीं है।
उनके गुरु ने कहा, तब बहुत मुश्किल है। तुम खाना कहां से खाओगे? अगर कागज-रंग भी कहीं से आ जाएं। तुम वस्त्र कहां से पहनोगे?
फिर उन दोनों ने यह तय किया कि एक मजदूरी करे, दूसरा सीख ले चित्रकला। उन्होंने पैसा फेंक कर निर्णय कर लिया, डोरिक का नाम आ गया, वह चित्र सीखने लगा। पांच साल वह सीखेगा, फिर पांच साल बाद उसका मित्र सीखेगा, फिर पांच साल वह मेहनत करेगा।
मित्र गया, वह सड़कों पर जाकर गिट्टियां तोड़ने लगा। पांच साल उसने गिट्टियां तोड़ीं और अपने साथी को चित्रकला सिखाई। पांच साल बाद उसके मित्र ने उसके पैर पकड़ लिए, आंसुओं से उसके पैर धो डाले और कहा कि तू अदभुत है, तूने एक बार भी यह न कहा कि मैं गिट्टी तोड़ रहा हूं। अब तू जा!
उस मित्र ने कहा कि अब मेरा जाना बहुत मुश्किल है, ये हाथ और ये अंगुलियां पत्थर जैसी हो गई हैं। अब ये, अब ये, अब ये पकड़ कर ब्रॅश को, तूलिका को, शायद ही चित्र बना सकें। लेकिन कोई हर्ज नहीं, तू चित्र बनाने लगा, चित्र बनने चाहिए। मेरा भी हाथ तो है उन चित्रों में, हालांकि मैंने चित्र नहीं बनाए, गिट्टी ही तोड़ी।
लेकिन मित्र बहुत रोने लगा कि यह तो बहुत दुर्भाग्य हो गया। तू गुरु के पास चल! गुरु ने भी उसके हाथ देख कर कहा कि ये हाथ तो इतने कड़े हो गए कि अब इन हाथों से तूलिका के सूक्ष्म अंक नहीं निर्मित किए जा सकते हैं। सूक्ष्म इनके कंपन खतम हो गए।
या तो गिट्टी तोड़ लो, या तूलिका पकड़ लो; वहां प्रतियोगिता है। इसलिए दुनिया में मन की आकांक्षा थोड़े से लोगों की पूरी हुई--कोई अशोक, कोई अकबर, कोई पीटर महान, कोई एलिजाबेथ, इस तरह के लोगों के कुछ सुख पूरे हुए मन के। आम आदमी शरीर के लिए ही गिट्टियां तोड़ता रहा है। और यह ठीक भी है, आदमी को लगता है कि या तो यह कर लो, या वह कर लो। भूख हो घर में, वीणा कैसे बजेगी? प्यास हो घर में, बीमारी हो घर में, चित्र कैसे बनेगा?
नहीं, यह नहीं हो सकता। इन दोनों में प्रतियोगिता है। इसी प्रतियोगिता के कारण आदमी पूछने लगता है कि परमात्मा को कहां खोजेंगे, कब खोजेंगे? समय कहां है! मन के सुख ही नहीं खोज पाते, आत्मा का आनंद कहां खोजेंगे?
यहीं मुझे कुछ कहना है। और वह मुझे यह कहना है, आत्मा की कोई प्रतियोगिता शरीर और मन से नहीं है। आत्मा की खोज के लिए अलग से समय निकालने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन समझें कि इस कमरे में हम हजार कुर्सियां लाकर रख दें; सारी जगह भर जाए। और फिर हम से कोई कहे कि एक कुर्सी और रखनी है। तो हम कहेंगे, लेकिन जगह नहीं है; यह कुर्सी हम कहां रखें? जगह नहीं है, सब भर गई जगह, अब जगह नहीं है यहां और कुर्सी रखने की। लेकिन समझो कि हजार दीये इस कमरे में जलते हों और कोई आदमी हमसे कहे कि एक दीया और जलाना है। तो क्या हम यह कहेंगे कि अब रोशनी भर गई यहां; अब और रोशनी इस कमरे में नहीं भरी जा सकती? क्योंकि रोशनी काम्पिटीटिव नहीं है। एक दीये की रोशनी जगह घेर ले, तो ऐसा नहीं है कि अब दूसरी रोशनी को जगह घेरने के लिए न बचे; उसी जगह में वह रोशनी भी समा जाएगी। तीसरे दीये की रोशनी भी समा जाएगी, चौथे दीये की भी समा जाएगी। ऐसा नहीं है कि रोशनी जगह घेरती हो; कितने ही दीयों की रोशनी...हां, यह हो सकता है कि दीये जगह घेर लें, लेकिन रोशनी जगह नहीं घेरती। कितनी ही रोशनी इस कमरे में भरी जा सकती है। एक छोटा सा दीया भी इस कमरे को रोशन कर सकता है, हजारों दीयों की रोशनी भी इस कमरे को रोशन कर सकती है। लेकिन रोशनी एक-दूसरी रोशनी से टकराती नहीं।
हमने केवल शरीर और मन की ही आकांक्षाएं जानी हैं, जो कि टकराती हैं। हमें आत्मा की आकांक्षा का कोई पता नहीं, जो टकराती ही नहीं। तो यह तो पहले समझ लेना जरूरी है कि व्यस्त जीवन से परमात्मा की खोज का कोई विरोध नहीं है। असल में, व्यस्त जीवन से अलग परमात्मा के लिए समय खोजने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारे व्यस्त जीवन में ही, तुम्हारे सब कुछ करने में ही--चाहे गिट्टी फोड़ो, चाहे मकान बनाओ, चाहे फैक्ट्री में कारखाना चलाओ, चाहे घर में रोटी बनाओ, चाहे कपड़े सीओ, चाहे वीणा बजाओ, चाहे चित्र बनाओ, कुछ भी करो--करने से परमात्मा की खोज का कोई विरोध नहीं है। क्योंकि परमात्मा की खोज एक नये प्रकार का करना नहीं है। वह एक नया एक्शन नहीं है। परमात्मा की खोज एक कांशसनेस है, एक चेतना है; एक्ट नहीं, डूइंग नहीं।
इस फर्क को थोड़ा समझ लेना जरूरी है।
एक आदमी गिट्टी तोड़ रहा है, एक आदमी वीणा बजा रहा है--उन दो में से कोई एक ही काम एक समय में किया जा सकता है। लेकिन मेरा कहना यह है, आदमी गिट्टी तोड़े, और गिट्टी तोड़ते समय में ऐसी चेतना निर्मित कर सकता है कि परमात्मा की खोज जारी रहे, गिट्टी भी टूटे और परमात्मा की खोज जारी रहे। वीणा बजाए, वीणा भी बजे और परमात्मा की खोज जारी रहे।
और बड़े मजे की बात है कि जिस दिन गिट्टी तोड़ने के साथ परमात्मा की खोज जारी होती है, उस दिन गिट्टी पहले से ज्यादा कुशलता से टूटती है। क्योंकि परमात्मा की खोज के साथ ही सारे प्राण शांति, सारे प्राण आनंद से भरने शुरू हो जाते हैं, सारे प्राण एक नये संगीत से आंदोलित होने लगते हैं।
एक मंदिर बन रहा था। एक कवि उस मंदिर के पास से गुजर रहा था। एक पत्थर तोड़ते मजदूर से उसने पूछा कि मेरे दोस्त, तुम क्या कर रहे हो?
उस आदमी ने क्रोध से भरी आंखें ऊपर उठाईं और कहा, अंधे हो? दिखाई नहीं पड़ता कि मैं क्या कर रहा हूं? पत्थर तोड़ रहा हूं!
वह पूछने वाला कवि तो घबड़ा गया, वह तो डर गया। उसके पूछने में कुछ ऐसी बात तो न थी कि इतना क्रोध जाहिर किया जाए। लेकिन जिनके भीतर क्रोध भरा हो, वे कोई भी मौके-बेमौके क्रोध को निकालते रहते हैं। इससे कोई संबंध नहीं कि क्रोध का मौका है या नहीं। वह कवि आगे बढ़ा और उसे खयाल आया कि मैं दूसरे आदमी से भी पूछूं, क्या पत्थर तोड़ने वाले सभी लोग इतने ही क्रोध से भरे हुए हैं! उसने एक दूसरे आदमी से पूछा कि दोस्त, क्या कर रहे हो?
उस आदमी ने थोड़ी देर तक तो सिर ही ऊपर नहीं उठाया, फिर बड़ी मुश्किल से सिर ऊपर उठाया--जैसे सिर पर कोई पहाड़ का बोझ हो, और उस आदमी ने कहा, क्या कर रहा हूं, कुछ भी नहीं कर रहा हूं--बच्चों के लिए, बेटों के लिए, मां-बाप के लिए रोटी-रोजी कमा रहा हूं। फिर धीरे से हथौड़ी उठा कर उसने पत्थर तोड़ने शुरू कर दिए। यह आदमी दूसरे ही तरह का था--उदास, बोझ से भरा हुआ।
वह आदमी फिर खोज किया, और कई पत्थर तोड़ने वाले थे, सीढ़ियों के पास एक जवान आदमी पत्थर तोड़ रहा था और गीत भी गा रहा था। वह उसके पास गया, उससे पूछा कि दोस्त, क्या कर रहे हो?
वह आदमी खड़ा हो गया और कहा, क्या कर रहा हूं! पूछते हो क्या कर रहा हूं! जैसे नाचता हो वह आदमी, जैसे उसकी वाणी में एक गीत हो और कहने लगा, भगवान का मंदिर बना रहा हूं।
ये तीनों आदमी पत्थर तोड़ रहे हैं--तीनों आदमी! एक आदमी पत्थर तोड़ रहा है क्रोध से। अब क्रोध से भी पत्थर तोड़ा जा सकता है। एक आदमी उदासी से पत्थर तोड़ रहा है। उदासी से भी पत्थर तोड़ा जा सकता है। एक आदमी आनंद से पत्थर तोड़ रहा है। आनंद से भी पत्थर तोड़ा जा सकता है। और न क्रोध बाधा बनता है, न उदासी, न आनंद। इनका कोई काम्पिटीशन पत्थर तोड़ने से नहीं है। इनकी कोई प्रतियोगिता पत्थर तोड़ने से नहीं है। वह आदमी यह नहीं कह सकता कि मैं पत्थर तोड़ रहा हूं तो मैं क्रोध कैसे करूं! वह आदमी यह नहीं कह सकता, दूसरा आदमी, मैं इस वक्त पत्थर तोड़ रहा हूं, उदास कैसे हो जाऊं! वह तीसरा आदमी यह नहीं कह सकता कि इस वक्त मैं पत्थर तोड़ रहा हूं, गीत कैसे गुनगुनाऊं! इस वक्त आनंदित कैसे हो जाऊं! नहीं; पत्थर तोड़ने से आनंद का कोई विरोध नहीं है।
इससे मैं क्या समझाना चाहता हूं?
इससे मैं यह समझाना चाहता हूं कि ध्यान का हमारे काम से कोई विरोध नहीं है। हम जिस काम को भी ध्यानपूर्वक करें, वही काम परमात्मा की तरफ ले जाने का मार्ग बन जाता है। जिस काम को भी व्यक्ति माइंडफुली, मेडिटेटिवली, ध्यानपूर्वक कर सके, वही काम परमात्मा का द्वार बन जाता है।
इसलिए व्यस्त जीवन से परमात्मा का कोई विरोध नहीं है। व्यस्त जीवन से आत्मा की खोज का कोई विरोध नहीं है।
मेडिटेटिवली, ध्यानपूर्वक हम काम कैसे करें?
अभी हम जो काम करते हैं, वह ध्यानपूर्वक बिलकुल नहीं है। और लोगों से हम पूछते फिरते हैं कि हम ध्यान कैसे करें? कब करें? हमारे घर में तो जगह नहीं है जहां हम ध्यान करें।
जगह किसी घर में नहीं है। बच्चों की वजह से जगह घर में हो ही कैसे सकती है! बच्चे इतने पैदा होते चले जाते हैं कि सब घर छोटे होते चले जाते हैं। जगह कहां है? जगह कहीं भी नहीं है। शोरगुल इतना है, मुश्किल इतनी है, कहां बैठ जाएं? कहां ध्यान करें?
वे गलत प्रश्न पूछते हैं। यह सवाल नहीं है पूछने का कि कहां हम ध्यान करें, सवाल यह है--कैसे हम ध्यान करें? यह सवाल जगह का नहीं है, यह सवाल समय का नहीं है। लोग पूछते हैं, कब हम ध्यान करें, सुबह कि रात? यह भी सवाल गलत है। व्हेयर, कहां? व्हेन, कब? ये दोनों प्रश्न गलत हैं। सवाल सिर्फ एक है--हाऊ, कैसे? कैसे हम ध्यान करें? क्योंकि ध्यान का संबंध न समय से है और न स्थान से है; न टाइम से है, न स्पेस से है। ध्यान का संबंध एटिटयूड से है, वृत्ति से है, भाव से है। इसलिए ध्यान में और व्यस्तता में कोई विरोध नहीं है। बल्कि यह मजे की बात है कि जितना ध्यानपूर्वक आप काम करें, उतने ही आप कम व्यस्त मालूम पड़ेंगे, उतने ही कम आक्युपाइड मालूम पड़ेंगे।
गांधी जैसे आदमी जो ध्यानपूर्वक जीते हैं, हम सारे लोगों से बहुत ज्यादा काम करते हैं और कभी यह चीख-पुकार नहीं मचाते कि मेरे पास समय नहीं है। गांधी ने इतना काम किया कि शायद पृथ्वी पर किसी दूसरे आदमी ने कभी नहीं किया होगा। इन पचास वर्षों में तो दुनिया में किसी आदमी ने इतना काम नहीं किया।
लेकिन इस आदमी को परमात्मा की खोज में कोई बाधा नहीं पड़ती। यह ऐसे-ऐसे छोटे काम भी करने को तैयार है जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।...


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें