और फूलों की बरसात हुई-दसवां
द्वैतता अर्थात दोनों ओर देखना
एक उत्सुक भिक्षु द्वारा
एक सद्गुरू से पूँछा गया-मार्ग क्या है?
सद्गुरू ने कहा : ‘वह ठीक तुम्हारी आँखों के सामने है।’
भिक्षु ने पूछा : तो मैं स्वयं उसे क्यों नहीं देख पाता?’
सद्गुरू ने कहा :‘क्योंकि तुम स्वयं अपने बारे में सोच रहे हो।’
भिक्षु ने पूँछा :‘ आपके बारे में क्या है?
क्या आप उसे देखते हैं?’
सद्गुरू ने कहा : जितनी दूर तक तुम देखते हो
तुम दोनों ओर द्वैतता देखते हो। ऐसा मैं नहीं करता।
और तुम करते हो और करते ही चले जाते हो।
तुम्हारी आँखों में धुंधलापन और दुविधा है।’’
भिक्षु ने कहा : ‘‘जब वहाँ न तो मैं हूँ
और न आप हैं, क्या कोई एक उसे देख सकता है?’’
सद्गुरू ने उत्तर दिया : ‘जब वहाँ न तो मै हूँ और न तुम हो,
तब वह एक कौन है, जो उसे देखना चाहता है?’’
हाँ, मार्ग ठीक तुम्हारी आँखों के सामने है, लेकिन तुम्हारी आँखें ठीक मार्ग के सामने नहीं हैं- वे बंद हैं, वे सूक्ष्म रूप से बंद हैं। उनमें दुविधा और धुंधलापन है। लाखों विचार उनको बंद कर रहे हैं, उनमें लाखों सपने तैर रहे हैं, जो कुछ भी तुमने देखा है, वह सभी कुछ वहाँ है, जो कुछ तुमने सोचा है, वह सभी कुछ वहाँ है। और तुम अनेक जन्मों से बहुत लम्बी अवधि से जी रहे हो, और तुमने बहुत अधिक सोच विचार किया है और वह सभी कुछ वहाँ तुम्हारी आँखों में संग्रहित हो गया है। लेकिन क्योंकि विचार देखे नहीं जा सकते, तुम समझते हो कि तुम्हारी आँखें वैसी ही सापफ हैं। पर वहाँ स्पष्टता नहीं है। वहाँ तुम्हारी आँखों में विचारों की लाखों पर्तें और सपने हैं। मार्ग ठीक तुम्हारे सामने है वह सभी कुछ ठीक तुम्हारे सामने है। लेकिन तुम यहाँ नहीं हो। तुम उस शांत क्षण में अभी भी नहीं हो, जहाँ आँखे पूर्ण रूप से खाली और बिना दुविधा के होती हैं, और जो कुछ है, तुम वही देखते हो।
इसलिए पहली बात तो यह समझ लेने जैसी है कि दुविधाविहिन दृष्टि कैसे प्राप्त की जाए, कैसे आँखों को खाली बनाया जाए जिससे वे सत्य को प्रतिबिम्बित कर सकें, कैसे अपने अंदर निरंतर एक पागल भीड़ का भाग न बना जाए, कैसे निरंतर सोचने, सोचने और सोचने में न रहा जाए और कैसे विचारों को विश्राममय होने दिया जाए। जब विचार नहीं होते हैं, तो देखना घटित होता है, जब विचार होते हैं तुम उनकी व्याख्या किए चले जाते हो और चूकते चले जाते हो।
वास्तविकता के व्याख्याकार मत बनो, कल्पनाशील बनो। उसके बारे में सोचो मत, उसे देखो और समझो।
करना क्या है? जब कभी भी तुम देखो, तो बस देखना ही बन जाओ प्रयास करो। यह कठिन बनने जा रहा है, केवल तुम्हारी पुरानी आदतों के कारण कठिन। लेकिन प्रयास करो। वह घटित होता है। वह अनेक लोगों को घटा है, तुम्हें क्यों नहीं? तुम कोई अपवाद नहीं हो। विश्वजनीन नियम वैसा ही तुम्हें भी उपलब्ध है जैसा कि बुद्व अथवा किसी अन्य व्यक्ति को है। केवल थोड़ा- सा प्रयास करना है।
तुम एक पफूल देखते हो, तब केवल उसे देखो। कोई भी बात कहो मत। नदी बह रही है, उसके तट पर बैठ जाओ और नदी को देखो, लेकिन कोई भी बात कहो मत। आकाश में बादल तैर रहे है। भूमि पर नीचे लेट जाओ, और देखो, कुछ भी कहो मत। बस उन्हें शब्द मत दो।
शब्द देते हुए मौखिक रूप से कहने की यह सबसे गहनतम आदत है, यही तुम्हारा प्रशिक्षण है कि वास्तविकता से तुरंत शब्दों पर कूद जाना और तुरंत शब्दों में अभिव्यक्त करना शुरू कर देना, जैसे-फूल सुंदर है, सूर्यास्त बहुत प्यारा है, यदि वह प्यारा है, तो उसे प्यारा ही रहने दो। उसे शब्दों में क्यों लाना? यदि वह सुंदर है, तो क्या तुम सोचते हो कि तुम्हारा सुंदर शब्द क्या उसे और अधिक सुंदर बना देगा? इसके विपरित तुम एक परमानंद के क्षण से चूक गए। शब्द उसके अंदर आ गए। इसके पहले कि तुम उसे देख सकते थे, तुम गतिशील हो गए, तुम अपने अंदर शब्दों के विचारों के भ्रमण की ओर गतिशील हो गए। यदि तुम इस भ्रमण में बहुत अधिक दूर तक चले जाते हो तो तुम पागल हो जाओगे।
एक पागल व्यक्ति कौन होता है? वह कभी वास्तविकता तक नहीं आता है, जो हमेशा अपनी निजी शब्दों के संसार में विचरण करता रहता है- और उसने इतनी अधिक दूर तक भ्रमण कर लिया है कि तुम उसे पीछे वापस नहीं ला सकते। वह सत्यता के साथ नहीं हैं, लेकिन क्या तुम सत्यता के साथ हो? तुम भी नहीं हो। अंतर केवल ‘डिग्रीज’ का है। एक पागल व्यक्ति विचरण करता हुआ बहुत दूर तक चला गया है, और तुमने उतनी दूर तक भ्रमण नहीं किया है- तुम केवल पास पड़ोस में ही हो- और तुम बार-बार आते हो, और सत्यता का स्पर्श करते हो और फिर चले जाते हो।
तुम्हारे पास एक छोटा-सा स्पर्श है, कहीं-न-कहीं तुम्हारा थोड़ा- सा सम्पर्क है, तुम भी जड़ों से उखड़ गए हो लेकिन तब भी लगता है कि एक जड़ अभी भी वास्तविकता में जमी हुई है। लेकिन वह जड़ बहुत नाजुक है, किसी भी क्षण, किसी भी दुर्घटना में वह टूट सकती है-पत्नी मर जाती है, पति पलायन कर भाग जाता है अथवा तुम बाजार में दीवालिया हो जाते हो-और वह नाजुक जड़ टूट जाती है। तब तुम विचरण और विचरण ही किए चले जाते हो-और तब वहाँ से वापस लौटना नहीं होता है। तब तुम कभी भी सत्यता का स्पर्श नहीं करते हो। एक पागल व्यक्ति की यही स्थिति है, और सामान्य मनुष्य केवल ‘डिग्रीज’ में भिन्न है।
और एक बुद्वत्व को, ताओं को अथवा समझ या चेतना को उपलब्ध व्यक्ति अर्थात एक बुद्व की स्थिति क्या होती है? उसकी जड़े सत्यता में गहरी जमी होती हैं, वह उससे दूर कभी विचरण नहीं करता और वह एक पागल के ठीक विपरीत होता है।
तुम मध्य में हो। तुम मध्य से या तो एक पागल व्यक्ति बनने की ओर गतिशील होते हो अथवा तुम एक बुद्व बनने की ओर गतिशील होते हो। यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है। विचारों को बहुत अधिक ऊर्जा मत दो, वह आत्मघाती होना है और तुम स्वयं अपने को विष दे रहे हो। जब भी सोचना शुरू होता है, यदि वह अनावश्यक है-और निन्यानवे के प्रतिशत वह अनावश्यक होता है, तुरंत ही स्वयं को सत्यता तक वापस ले आओ। कोई भी चीज सहायता करेगी, यहाँ तक कि उस कुर्सी का स्पर्श जिस पर तुम बैठे हो अथवा उस पलंग का स्पर्श जिस पर तुम लेटे हो। उस स्पर्श का अनुभव करो, वह परमात्मा के बारे में तुम्हारे विचारों की अपेक्षा कहीं अधिक सत्य है, वह तुम्हारे परमात्मा के बारे में किए गए विचारों की अपेक्षा कहीं अधिक धार्मिक है, क्योंकि वह एक वास्तविक चीज है।
उसका स्पर्श करो, स्पर्श का अनुभव करो, स्पर्श ही हो जाओ, यहीं और अभी में बने रहो। तुम भोजन कर रहे हो- भोजन का भली-भाँति स्वाद और सुवास लो। भली-भाँति उसकी गंध लो, उसे अच्छी तरह से चबाओ- तुम वास्तविकता को चबा रहे हो। विचारों में मत भटकते फिरो। तुम स्नान कर रहे हो- उसका आनंद लो। फौवारे की बौछार तुम्हारे ऊपर हो रही है,- उसका अनुभव करो। वस्तुतः विचारों का एक केंद्र बनने की अपेक्षा अधिक से अधिक अनुभव का एक केंद्र बनो।
और हाँ, मार्ग ठीक तुम्हारी आँखों के सामने ही है, लेकिन तुम्हें अनुभव और अनुभूति करने की अधिक अनुमति नहीं दी गई है। समाज तुम्हारा अनुभव करने वाले प्राणी की भाँति नहीं, एक सोचने वाले प्राणी की भाँति पालन-पोषण करता है- क्योंकि अनुभव के बारे में अनुमान नहीं लगाया जा सकता, कोई भी नहीं जानता कि वह कहाँ ले जाएगा, और समाज तुम्हें अपनी निजता में नहीं छोड़ सकता। वह तुम्हें विचार देता है। सभी स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय तुम्हें विचार करने के लिए प्रशिक्षिण करने वाले केंद्र हैं और तुम्हें अधिक क्रियात्मक बनाने के लिए मौजूद हैं। तुम्हारे पास जितने अधिक शब्द होगें, तुम्हें उतना ही अधिक प्रतिभाशाली होना सोचा जाता है। तुम्हारी शब्दों के साथ जितनी अधिक पहचान होती है, यह सोचा जाता है कि तुम उतने ही अधिक शिक्षित हो। यह कठिन होगा, क्योंकि तीस, चालीस, पचास और साठ वर्षां का प्रशिक्षिण ़ ़ ़ ़ ़ ़ ़ लेकिन जितनी शीघ्रता से तुम प्रारम्भ करते हो, उतना ही अच्छा है। स्वयं अपने को वास्तविकता में वापस ले आओ।
सभी संवेदनशील समूहों का यही अभिप्राय होता है। पश्चिम में वे एक केंद्र बिंदु बन गए हैं, और वे सभी लोग जिनकी दिलचस्पी चेतना और चेतना को बढ़ाने की होती है, उन्हें इन संवेदनशील बनाने वाले समूहों में और अधिक संवेदनशील होने के प्रशिक्षण के लिए रूचि लेनी ही होती है इसे सीखने के लिए तुम्हें कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पूरा जीवन ही एक संवेदनशीलता है। दिन में चौबीसों घंटें सत्यता ठीक तुम्हारे सामने और चारों ओर है- वह तुम्हें घेरे हुए है, तुम उसी में सांस लेते हो, तुम उसी में भोजन करते हो। तुम जो कुछ भी करते हो, तुम्हें इस वास्तविकता अर्थात इस प्रामाणिक अस्तित्व के साथ ही करना होता है।
लेकिन मन बहुत दूर तक गतिशील होता है। तुम्हारे होने और तुम्हारे मन के मध्य वहाँ एक अंतराल होता है- वे एक साथ नहीं होते, और मन अन्य कहीं ओर होता है। तुम्हें यहीं इस प्रामाणिक अस्तित्व में होना होता है, क्योंकि जब तुम खाते हो तो तुम्हें वास्तव में असली रोटी ही खानी होती है, और रोटी के बारे में सोचने से कोई भी सहायता नहीं मिलती है। जब तुम्हें स्नान करना होता है तो तुम्हें वास्तव में स्नान करना होता है, उसके बारे में सोचने का कोई भी उपयोग नहीं है। जब तुम सांस लेते हो तो तुम्हें वास्तविक वायु को सांस में लेना होता है, केवल उसके बारे में सोचने से कुछ भी नहीं होता। वास्तविकता तुम्हें हर कहीं से चारों ओर से घेरे हुए है, वह सभी ओर से तुमसे टकरा रही है- तुम जहाँ कहीं भी जाते हो, तुम उसका आमना-सामना करते हो।
यही इसका अभ्रिप्राय है। मार्ग ठीक तुम्हारी आँखों के सामने है। वह प्रत्येक स्थान पर है, क्योंकि अन्य उसके कुछ भी नहीं हो सकता- वह केवल असली यथार्थ अर्थात सत्य ही है।
तब समस्या क्या है? तब लोग क्यों खोजते और खोजते चले जाते हैं और कभी उसे पाते नहीं। समस्या विद्यमान कहाँ है? पूरी कठिनाई का मौलिक केन्द्र क्या है। कठिनाई यह है कि मन विचारों में ही बना रह सकता है। मन के बने रहने की संभावना वहाँ विचारों में ही है। शरीर वास्तविकता में हैं, लेकिन मन विचारों में ही बना रह सकता है और यही द्वैतता है। और तुम्हारे सभी धर्म शरीर के पक्ष में नहीं, वे मन के पक्ष में बने रहे हैं। इस संसार में यही सबसे बड़ा अवरोध हमेशा-हमेशा से ही अस्तित्व में बना रहा है। वे वास्तविकता और सत्यता के लिए नहीं हैं, वे मन के लिए हैं और उन्होंने मनुष्यता के पूरे मन को विषाक्त कर दिया है।
यदि मैं तुमसे कहता हूँः जब तुम भोजन कर रहे हो, तो स्वाद के साथ खाओ और इतनी पूर्णता से खाओ कि खाने वाले को भूल जाओ और पूरी तरह से भोजन की प्रक्रिया ही बन जाओ-तो तुम्हें आश्चर्य होगा, क्योंकि कोई भी धार्मिक व्यक्ति इस तरह की बात नहीं कहेगा धार्मिक लोग सिखाते रहे हैं कि बिना किसी स्वाद के भोजन करो-अस्वाद व्रत, उन लोगों ने इससे एक महान चीज बना दिया है, अस्वाद के लिए प्रशिक्षण लेना।
गांधी के आश्रम में वहाँ तेरह नियम थे। उनमें से एक अस्वाद का था- खाओ, लेकिन बिना स्वाद के, स्वाद को पूरी तरह मार दो। जल पीओ- लेकिन बिना किसी स्वाद के। अपने जीवन को जितना अधिक असंवेदनशील बनाना संभव है, बनाओ। अपने शरीर को पूरी तरह निर्जीव बनाओ जिससे तुम एक शुद्व मन के बन सको। तुम ऐसे ही बन जाओगे लेकिन यही है वह चीज कि कैसे लोग पागलपन की ओर बढ़ते हैं।
मैं तुम्हें ठीक इसके विरोध में, ठीक इसके विपरित सिखाता हूँ। मैं जीवन के विरूद्व नहीं हूँ और जीवन ही मार्ग है। मैं जीवन को उसकी समग्रता में स्वीकार करता हूँ। मैं एक निषेधक नहीं हूँ मैं परित्याग करने वाला नहीं हूँ, और मैं तुम्हारे मन को वापस वास्तविकता में लाना चाहता हूँ। तुम्हारे मन की अपेक्षा तुम्हारा शरीर कहीं अधिक सत्य और वास्तविक है। तुम मन के साथ मूर्ख बन सकते हो लेकिन तुम शरीर के साथ मूर्ख नहीं बन सकते। शरीर संसार में कहीं अधिक जड़े जमाये हुए है और तुम्हारे मन की अपेक्षा शरीर कहीं अधिक अस्तित्वगत है। तुम्हारा मन केवल मानसिक है। वह सोचता है, वह शब्दों को बुनता हैं और वह व्यवस्थाएँ सृजित करता है- और सभी व्यवस्थाएँ मूर्खतापूर्ण है।
एक बार ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरूद्ीन घुड़दौड़ में दाँव लगा रहा था। पहली दौड़ में वह हार गया, दूसरी और तीसरी दौड़ में भी उसका घोड़ा पराजित हो गया और वह दाँव हारता चला गया और ठीक उसकी बगल में बाक्स में बैठी दो महिलाएँ प्रत्येक दौड़ में निरंतर जीत रही थी
तब सातवीं बार वह अपनी उत्सुकता को न रोक सका। वे लोग किस पद्धति का अनुसरण कर रही थीं? प्रत्येक दौड़ में वे विजयी रही थीं और यह सातवी दौड़ थी, और वह अभी तक हारता रहा था और वह उस पर इतना कठोर श्रम करता रहा था। इसलिए साहस एकत्रित कर वह उनकी ओर झुका और महिलाओं से कहा : ‘‘आप लोग बहुत अच्छी प्रकार खेल रही है?’’
उन्होनें बहुत प्रसन्नता से कहा- ‘हाँ’, और वे प्रसन्नता से मुस्कराये जा रही थीं। इसलिए उसने उनसे फुसफुसाते हुए पूँछा : ‘‘क्या आप मुझे अपनी पद्वति के बारे में बता सकती हैं? केवल एक संकेत।’’
एक महिला ने हँसते हुए कहा : हमारे पास ढेर सारी रीतियाँ है, लेकिन आज हम लोगों ने लम्बी दुम वाले घोड़ों पर दाँव लगाया है।’’
लेकिन सारी पद्वतियाँ और सारे तत्वज्ञान ठीक उसी के समान हैं- लम्बी पूंछे। वास्तविकता में कोई भी पद्वति सत्य नहीं है। क्योंकि यथार्थ में कोई भी पद्वति सत्य नहीं हो सकती है। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि कोई ओैर पद्वति हो सकती है-नहीं। सत्यता के प्रति कोई भी पद्वति प्रामाणिक नहीं हो सकती, क्योंकि सभी पद्वतियाँ मन के द्वारा भावों और विचारों द्वारा अभिव्यक्त की गई हैं, वे तुम्हारे मन की कल्पनाओं और व्याख्याओं द्वारा गढ़ी गई हैं- मन वास्तविकता पर कार्य कर रहा हैं। इसी तरह से एक पद्वति अथवा एक व्यवस्था का जन्म होता है और सारी व्यवस्थाएँ मिथ्या हैं।
यथार्थ को किसी पद्वति की जरूरत नहीं है। वास्तविकता को एक स्पष्ट अंर्तदृष्टि की जरूरत है। उसकी ओर देखने के लिए किसी तत्वज्ञान की जरूरत नहीं है, वह ठीक अभी और यही हैं। इसके पूर्व कि तत्वज्ञान अर्थात दर्शनशास्त्र में जाना शुरू करो, वह वहाँ है, जब तक तुम वापस लौटते हो, वह वहाँ होगी और वह तुम्हारे साथ हमेशा बनी रहेगी- और तुम उस बारें में सोच विचार कर रहे थे। उसके बारे में सोचना, उससे चूक जाने का मार्ग हैं।
यदि तुम एक हिंदू हो, तो तुम विफल होगे, यदि तुम एक ईसाई हो, तो तुम विफल होगे, तुम एक मुसलमान हो, तो तुम विफल होगे- प्रत्येक सम्प्रदाय का होना ही विफल होने या चूकने का एक ढंग है। यदि तुम्हारे पास तुम्हारे मन में कुरान है, तुम चूकोगे, यदि तुम्हारे पास तुम्हारे मन में गीता है, तुम चूकोगे, तुम चाहे जो भी धर्मग्रंथ साथ लिए हुए चलो-चूकि धर्मग्रंथ मन है, इसलिए वास्तविकता तुम्हारे मन और तुम्हारे मन द्वारा गढ़ी गई झूठी बातों की जरा भी फिक्र नहीं करती और वास्तविकता मन के साथ एक रेखा में नीचे नहीं उतरती।
तुम आकर्षक सिद्वांत बुनते हो, तुम सुंदर तर्क देते हो, और तर्क द्वारा ही किसी भी विषय को सत्य सिद्व करने के प्रमाण खोज लेते हो। तुम कठोर श्रम करते हो। तुम अपने सिद्धांतों को सुधारते हुए उन पर रंग-रोगन किये चले जाते हो, लेकिन वे ठीक उन ईटों की तरह हैं जिन्हें तुम रगड़ते हुए उन पर पालिश किये चले जाते हो, लेकिन वे कभी भी एक दर्पण नहीं बन सकती। लेकिन मैं कहता हूँ कि हो सकता है कि ईंटे एक दर्पण बन सकती हैं, पर मन कभी भी यथार्थ सत्यता के लिए एक दर्पण नहीं बन सकता। मन एक धवस्त करने वाली एक चीज है और वह प्रत्येक चीज को धुंधला बना देती है।
वृफप्या एक दार्शनिक मत बनो, और किसी भी पद्वति के आदी मत बनो। एक शराबी को नशे से वापस लाना आसान है, एक नशीली दवाओं के भी आदी व्यक्ति को भी वापस लाना सरल है, पर किसी पद्वति अथवा व्यवस्था के प्रति आदी हो जाने वाले व्यक्ति को वापस लाना कठिन है। और वहाँ शराब के आदी तथा नशीली दवाओं के आदी व्यक्तियों को नशे से वापस लाने के लिए कई संस्थाएँ विद्यमान हैं, पर व्यवस्था अथवा किसी पद्वति के प्रति आदी हो जाने व्यक्तियों के लिए वहाँ कोई भी संस्था नहीं है, और वहाँ हो भी नहीं सकती, क्योंकि जब कभी भी वहाँ एक ऐसी संस्था होती है तो वह स्वयं एक व्यवस्था है।
मैं तुम्हें कोई व्यवस्था नहीं दे रहा हूँ। मेरा पूरा प्रयास तुम्हें तुम्हारे व्यवस्था करने वाले मन से बाहर निकाल कर लाने का है। यदि तुम फिर से एक बच्चा बन सको, यदि तुम वास्तविकता की ओर उस बारे में बिना किसी पूर्वधारणाओं के देख सको, तो तुम उसे प्राप्त करोगे। यह सरल है, सामान्य है और इस बारे में विशेष कुछ भी नहीं है। वास्तविकता कुछ भी विशिष्ट और असाधारण नहीं है- वह वहाँ है और हर कहीं है। केवल तुम्हारा मन ही एक नकली और अवास्तविक चीज है। मन भ्रांति और माया सृजित करता है, मन सपने सृजित करता है और तब तुम उनमें दुविधा में पड़ जाते हो। और तुम उस असंभव को करने का प्रयास करते हो, जो नहीं किया जा सकता है और मन के द्वारा सत्य को पाने का प्रयास करते हो। तुम मन के द्वारा सत्य को खो देते हो। तुम उसे मन के द्वारा नहीं पा सकते हो। तुम्हें मन को पूरी तरह से छोड़ना होगा।
हाँ, मार्ग ठीक तुम्हारी आँखों के सामने है- लेकिन तुम वहाँ नहीं हो।
पहिली बातः मन सहायता नहीं करेगा। इसे समझने का प्रयास करो, वह एक रूकावट है, एक अवरोध है। और दूसरी बातः तुम्हारी स्वयं अपने बारे में बहुत अधिक दिलचस्पी है और वह सबसे बड़ी बाधा है। यह मेरा निरंतर निरीक्षण रहा है कि वे लोग जो ध्यान करते हैं, वे चूक जाते हैं क्योंकि उनकी स्वयं में बहुत अधिक दिलचस्पी होती है। वे बहुत अहंकार केन्द्रित होते हैं। वे विनम्र होने का बहाना बना सकते हैं और हो सकता है कि वे यह भी जानना चाहते हैं कि अहंकार शून्य कैसे बना जाये, लेकिन वे लोग सबसे अधिक अहंकार केन्द्रित हैं, उनकी चिंता स्वयं अपने बारे में होती है और उनकी दिलचस्पी केवल स्वयं अपने ही साथ होती है।
दूसरों के बारे में फिक्र करना मूर्खता है और स्वयं के बारे में चिंताकरना और अधिक मूर्खता है- क्योंकि चिंतित बने रहना ही मूर्खता है। इस बारे में फर्क नहीं पड़ता कि तुम किसके बारे में चिंतित हो। और वे लोग जो दूसरों के बारे में चिंतित होते हैं, तुम पाओगे कि वे हमेशा अधिक स्वस्थ रहते हैं।
इसलिए पश्चिम में मनोविश्लेषक लोगों की दूसरों के बारे सोचने में सहायता करते हैं और स्वयं अपने बारे में सोचना छोड़ने को कहते हैं। इसलिए पश्चिम में मनोविश्लेषक लोगों को यह सिखाये चले जाते हैं कि कैसे अंतर्मुखी न बनकर बहिर्मुखी बना जाए, क्योंकि एक अंतर्मुखी व्यक्तिरूग्ण हो जाता है। एक अंतर्मुखी व्यक्ति वास्तविकता में दूषित और विकृत हो जाता है। वह निरंतर स्वयं अपने बारे में ही सोचता है, वह एक चहारदीवारी बनाकर अपने को बंद कर लेता है। वह अपनी निराशाओं, चिंताओं, व्यग्रताओं, दुःख, अवसाद, क्रोध, ईर्ष्या, घृणा अथवा इसके और उसके साथ बना रहता है और वह केवल चिंतित बना रहता है। जरा सोचो, वह निरंतर वस्तुओं और व्यक्तियों के बारे में चिंता करते हुए किस तरह के दुःख में जीता है? वह सोचता रहता है कि मैं क्रोधित क्यों हूँ, और मुझे कैसे अक्रोध में बने रहना चाहिए? मैं घृणा क्यों करता हूँ और मुझे कैसे इसके पार जाना चाहिए? मैं इतना अधिक निराश और अवसादग्रस्त क्यों रहता हूँ और मुझे कैसे आनंद को उपलब्ध होना चाहिए?- वह निरंतर चिंतित बना रहता है और इस चिंता के द्वारा वह ऐसी ही समान चीजें सृजित करता है और फिर उनके बारे में चिंतित हो जाता है। यह एक दुष्चक्र बन जाता है।
क्या तुमने कभी इस बात का निरीक्षण किया है, कि जब कभी तुम निराश और अवसाद के पार जाना चाहते हो, अवसाद और अधिक गहन हो जाता है? जब कभी तुम क्रोधित नहीं बने रहना चाहते हो, तुम और अधिक क्रोधित हो जाते हो। जब कभी तुम उदास होते हो, तथा तुम और अधिक उदास नहीं बना रहना चाहते हो, तुम पर और अधिक उदासी उतरने लगती है। क्या तुमने इसका निरीक्षण नहीं किया है? ऐसा विपरीत परिणाम (त्मअमतेम मिमिबज) नियम के कारण होता हैं। यदि तुम उदास हो और तुम उदास नहीं होना चाहते हो, तो तुम क्या करोगे? तुम उदासी की ओर देखोगे, तुम उसे दबाने का प्रयास करोगे, तुम उसके प्रति ध्यानपूर्ण बनोगे, और ध्यान देना ही उसका भोजन है।
मनोविश्लेषकों ने एक सूत्र पा लिया है। यह सूत्र अंत में बहुत अधिक अर्थपूर्ण नहीं रह जाता। यह तुम्हें वास्तविकता तक नहीं ले जाता। यह तुम्हें सामान्य रूप से अस्वस्थ बना सकता है। यह तुम्हें समायोजन करने वाला बना सकता है- यह एक तरह से चारों ओर के लोगों के साथ एक समझौता है। वे कहते है : दूसरों की परेशानियों और चिंताओं के साथ रूचि लो, दूसरे लोगों की सेवा और सहायता करो।
रोटरी और लाइन्स क्लब के सदस्य और अन्य दूसरे लोग हमेशा कहते हैं : ‘हम सेवा कहते हैं’। वे लोग बहिर्मुखी हैं। लेकिन तुम अनुभव करोगे कि जो लोग समाज सेवा में हैं और जिन लोगों की स्वयं अपने में कम और दूसरे लोगों में अधिक दिलचस्पी है, वे उन लोगों की अपेक्षा अधिक प्रसन्न रहते हैं जिनका स्वयं अपने साथ ही अधिक सम्बन्ध होता है।
स्वयं अपने ही साथ बहुत अधिक दिलचस्पी लेना एक तरह की रूग्णता है। और तब तुम अपने अंदर जितनी अधिक गहराई में जाते हो- तुम वह ‘पंडोरा बाक्स’ खोल रहे हो जिससे वह प्रक्रिया शुरू हो जाती है जो न सुलझने वाली अनेक समस्याओं का कारण बनती है, अनेक चीजें बुलबुलों के रूप में ऊपर सतह तक आती हैं और उनका कोई अंत होना प्रतीत नहीं होता। तुम अपनी व्यग्रताओं के द्वारा ही चारों ओर से घिरे हुए हो और तुम अपने ही घावों के साथ खेलते चले जाते हो, तुम यह देखने के लिए कि वे पूरे अथवा नहीं, बार-बार उन्हें छुए चले जाते हो। तुम एक दूषित व्यक्ति बन गए हो।
किया क्या जाए? इस बारे में केवल दो रास्ते प्रतीत होते हैं- या तो बहिर्मुखी बनो, लेकिन बहिर्मुखी बनने के द्वारा तुम कभी भी एक बुद्ध नहीं बन सकते, क्योंकि यदि तुम दूसरों के बारे में चिंतित हो तो यह दूसरों के बारे में चिंतित होना एक पलायन बन सकता है, और वह है। जब तुम दूसरों के बारे में चिंतित होते हो तो तुम अपनी परेशानियों की ओर नहीं देख सकते। तुम्हारे केन्द्र बिन्दु दूसरे लोग है, और तुम एक परछाई हो, लेकिन इस तरह से तुम्हारे अंदर का अस्तित्व कैसे विकसित होगा? तुम अधिक प्रसन्न दिखाई दोगे, तुम ऐसे दिखाई दे सकते हो जैसे मानो तुम जीवन का अधिक आनंद ले रहे हो, लेकिन तुम कैसे विकसित होते जा रहे हो। तुम्हारा आंतरिक अस्तित्व उस स्थिति तक कब आएगा, जब वह प्रकाश बन जाता है। यदि तुम्हारी उसके साथ जरा भी दिलचस्पी नहीं है, तो वह विकसित होने नहीं जा रहा है। बहिर्मुखी होना इस अर्थ में ठीक है कि तुम स्वस्थ बने रहते हो, तुम दूषित नहीं होते। अंर्तमुखी बनना खतरनाक है। यदि तुम गलत तरीके से गतिशील होते हो तो तुम दूषित अथवा विकृत हो जाओगे और गलत तरह से गतिशील होना तुम्हारा बहुत अधिक अभिरूचि लेना ही है। तब क्या किया जाए? स्वयं अपने साथ यों व्यवहार करो जैसे मानो तुम दूसरे व्यक्ति हो, उसमें बहुत अधिक अभिरूचि मत लो।
और तुम दूसरे व्यक्ति ही हो। तुम्हारा शरीर भी दूसरा है वह मेरा अपना निजी शरीर नहीं है? तुम्हारा मन भी दूसरा है, वह मेरा अपनी निजी मन क्यों नहीं है? प्रश्न केवल दूरी का है, तुम्हारा शरीर मेरे से पाँच फीट दूर है, मेरा शरीर थोडा- सा अधिक निकट है, बस सभी कुछ इतना ही है। वहाँ तुम्हारा मन है और यहाँ मेरा मन हैं- अंतर केवल दूरी का है। लेकिन मेरा मन वैसे ही दूसरा है जैसे तुम्हारा मन है, और मेरा शरीर मुझसे उतना ही दूर है जैसे कि तुम्हारा शरीर। और यदि इस पूरे संसार से मेरा कोई संबंध नहीं है तो मुझे स्वयं को एक संबंध क्यों बनाते हो? दोनों को ही क्यों नहीं छोड़ देते और न बहिर्मुखी बनो और न अंर्तमुखी- और यही मेरा संदेश है।
यदि तुम इसका अनुसरण नहीं कर सकते तब अच्छा है कि मनोविश्लेषकों का अनुसरण करो। एक बहिर्मुखी बनो, स्वयं में अभिरूचि मत लो, तुम विकसित तो न हीं हो सकोगे लेकिन कम से कम तुम उतने अधिक कष्ट नहीं उठाओगे जितने अधिक कष्ट एक अंर्तमुखी को भोगने होते हैं। लेकिन एक अंतर्मुखी मत बनो और अपने घावों के साथ मत खेलो। स्वयं में बहुत अधिक दिलचस्पी मत लो। बहुत अधिक स्वार्थी मत बनो और न बहुत अधिक आत्मकेन्द्रित बनो। तुम स्वयं को एक दूरी से देखो, दूरी वहाँ है और केवल एक बार तुम्हें उसका प्रयास करना है। और तुम उसे अनुभव करोगे। तुम दूसरे भी हो।
जब तुम्हारा शरीर रूग्ण होता हैं तो उसे यों लो, जैसे मानो किसी अन्य व्यक्ति का शरीर रूग्ण है। जो कुछ भी जरूरी हो वह करो, लेकिन बहुत अधिक संबंध मत जोड़ो, क्योंकि उसमें बहुत अधिक दिलचस्पी लेना शरीर की रूग्णता की अपेक्षा और अधिक बड़ी रूग्णता है। यदि तुम्हें बुखार है तो डाक्टर के पास जाओ और दवा लो, और शरीर की देखभाल करो, और सब कुछ इतना ही करना है। बहुत अधिक संबंध जोड़ने से क्या लाभ? क्यों एक दूसरी तरह का ज्वर सृजित करते हो, जिसका कोई भी डॉक्टर उपचार नहीं कर सकता है? शरीर के इस ज्वर का तो उपचार किया जा सकता हैं, लेकिन यदि तुम उसमें अत्यधिक दिलचस्पी लेने लगते हो तो दूसरी तरह का ज्वर उत्पन्न हो जाता है। यह ज्वर कहीं अधिक गहन है और कोई भी डॉक्टर इसमें सहायता नहीं कर सकता है।
और यही समस्या है, शरीर तो शीघ्र ही ठीक हो सकता है, लेकिन दूसरा ज्वर जारी बना रह सकता हैं, और तुम अनुभव कर सकते हो कि शरीर अभी भी रूग्ण है। ऐसा प्रत्येक दिन होता है। बीमारी शरीर से विलुप्त हो जाती है, लेकिन मन से नहीं और मन उसे साथ लिए हुए चलता है। ऐसा अनेक बार हुआ है।
एक बार कोई व्यक्ति मुझे अपने एक मित्र के बारे में बता रहा था, जो एक शराबी है- वह बैसाखियों के सहारे चलता है और उनके बिना वह चल भी नहीं सकता। कोई दुर्घटना बीस वर्ष पूर्व हुई थी और अनेक वर्षां से वह बैसाखियों के सहारे ही चलता रहा है। तब एक दिन उसने बहुत अधिक शराब पी ली, वह बैसाखियों को भूल गया और टहलने के लिए चल पड़ा। एक घंटें के बाद वह एक दहशत में दौड़ता हुआ वापस लौटा और उसने कहा : ‘मेरी बैसाखियाँ कहाँ है? मैं उनके बिना चल नहीं सकता। मैंने अनिवार्य रूप से बहुत अधिक शराब पी ली है।’ लेकिन यदि तुम नशे में गाफिल हो, तो तुम चल सकते हो, तो फिर जब तुम नशे में नहीं हो तो बिना बैसाखियों के क्यों नहीं चल सकते’।
पूरे विश्व भर में लकवे के बारे में अनेक मामले जानकारी में आए हैं। कोई व्यक्ति लकवाग्रस्त है और तब घर में आग लग जाती है, और प्रत्येक व्यक्ति दौड़कर घर से बाहर आ जाता है और वह व्यक्ति जो लकवाग्रस्त था और अपने बिस्तर से उठ भी नहीं सकता था और प्रत्येक कार्य बिस्तर पर ही करता था, वह भी दौड़कर बाहर आ जाता हैं, क्योंकि वह अपने लकवाग्रस्त होने की बात भूल जाता है। घर में आग लगी हुई है, वह पूरी तरह से भूल जाता है कि वह लकवाग्रस्त हैं। इस विस्मरण में वह लकवाग्रस्त नहीं है। और घर के बाहर जब परिवार उसे देखता है और उससे कहता है, तुम यह क्या कर रहे हो? तुम कैसे दौड़ सके? और उसकी याददाश्त वापस आ जाती है और ंवह नीचे गिर पड़ता हैं।
तुम हो सकता है अनेक बीमारियाँ सृजित कर रहे हो, इसलिए नहीं कि शरीर रूग्ण है, बल्कि इसलिए क्योंकि मन उसका बीज साथ लेकर चल रहा है और बार-बार कल्पनाएँ किए चले जाता है। अनेक बीमारियाँ, नब्बे प्रतिशत बीमारियों का स्त्रोत मन में है।
स्वयं अपने बारे में बहुत अधिक दिलचस्पी लेना संभव बीमारियों में सबसे अधिक बड़ी बीमारी है। तुम प्रसन्न नहीं रह सकते, तुम स्वयं में आनंद नहीं ले सकते। तुम कैसे आनंद ले सकते हो? तुम्हारे अंदर इतनी अधिक समस्याएं हैं। समस्याएँ ही समस्याएँ हैं और अन्य कुछ भी नहीं और इस बारे में प्रतीत होता है कि उनका कोई भी हल नहीं है। क्या किया जाए? तुम पागल हो जाते हो। अपने अंदर प्रत्येक व्यक्ति पागल है।
मैंने सुना है कि वाशिंगटन में एक बार ऐसा हुआ- कि एक व्यक्ति अचानक झंड़ा फहराने वाले पोल के ऊपर चढ़ गया। उसके चारों ओर एक भीड़ एकत्रित हो गई। पुलिस आ गई और वह जितनी अधिक जोर से चिल्ला सकता था चिल्लाया, उसने कलुषित और अधार्मिक शब्दों का उच्चारण किया और नीचे उतर आया।
वह तुरंत ही पुलिस के द्वारा पकड़ लिया गया और उन लोगों ने उस व्यक्ति से पूछा : ‘‘तुम यहाँ यह क्या कर रहे हो?’’
उस व्यक्ति ने कहा : ‘‘मुझे परेशान मत कीजिए। यदि मैं ऐसा पागलपन से भरा हुआ कार्य न करता तो मैं अभी अथवा बाद में पागल हो जाता। मैं कहता हूँ, मुझे रोकिए मत, वरना मैं पागल हो जाऊँगा। यदि मैं ऐसा कार्य अभी और बाद में भी करता हूँ तो प्रत्येक चीज सुचारू रूप से चलती रहेगी। और मैं नहीं सोचता कि कोई भी व्यक्ति इसे जान भी पायेगा कि जहाँ चारो ओर इतना अधिक पागलपन चल रहा है तो कौन इसकी फिक्र करेगा?’’
तुम्हें भी अभी अथवा बाद में पागल होने की जरूरत है। क्रोध कैसे घटित होता है, क्योंकि क्रोध करना एक अस्थाई पागलपन है। यदि तुम अभी और बाद में उसको रिस कर बाहर निकलने की अनुमति नहीं देते तो तुम बहुत अधिक क्रोध इकट्ठा कर लोगे और उसका विस्फोट होगा। तुम पागल हो जाओगे। लेकिन यदि तुम्हारा निरंतर उसके साथ संबंध बना हुआ है तो तुम पहले ही से सनकी हो।
यह मेरा अपना निरीक्षण रहा है कि जो लोग ध्यान और प्रार्थना करते हैं जो सत्य के खोज करने का प्रयास करते हैं उनकी प्रवृत्ति दूसरे लोगों की अपेक्षा मानसिक रूग्णता की ओर अधिक होती है। और कारण है कि उनकी स्वयं के साथ दिलचस्पी बहुत अधिक होती है, वे लोग बहुत अधिक अहंकार केन्द्रित होते हैं और निरंतर इस और उस अवरोध के बारे में सोचते रहते हैं, वे क्रोध अथवा उदासी, सिरदर्द, कमरदर्द पैरों और पेट को लेकर निरंतर अपने ही अंदर गतिशील बने रहते हैं। वे कभी भी ठीक नहीं होते, वे हो भी नहीं सकते हैं, क्योंकि शरीर एक बहुत विराट घटना है और उसमें अनेक चीजें चलती रहती हैं।
और यदि कुछ भी नहीं हो रहा है, तब भी वे चिंतित होते हैं कि कुछ भी क्यों नहीं हो रहा है, और उन्हें तुरंत कुछ चीज सृजित करनी होती हैं, क्योंकि वह उनका निरंतर का कार्यव्यापार बन गया है, अन्यथा वे असफल होने का अनुभव करते हैं। क्या किया जाए? कुछ भी तो नहीं हो रहा है। यह कैसे संभव है कि मुझे कुछ भी नहीं हो रहा है। जब कुछ चीज हो रही है वे केवल तभी अपने अंहकार का अनुभव करते हैं- हो सकता है वह निराशा या अवसाद हो, उदासी, क्रोध अथवा कोई बीमारी हो, लेकिन यदि कुछ चीज घटित हो रही है तो ठीक है, वे स्वयं अपने होने का अनुभव कर सकते हैं।
क्या तुमने बच्चों को देखा है? वे स्वयं अपने अंदर सुई चुभोकर अथवा चिकोटी भरकर यह अनुभव करते है कि वे हैं। वह बच्चा तुम्हारे अंदर ही है, तुम अपने अंदर सुई चुभोकर यह देखना पसंद करते हो कि तुम हो अथवा नहीं हो।
मार्क ट्वेन के बारे में कहा जाता है कि एक बार एक रात्रि भोज में अचानक दहशत से ग्रस्त होकर उन्होंने कहा ‘‘मुझे खेद है कि मुझे जाना होगा और आप लोगों को एक डॉक्टर बुलाना होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि मेरा दायाँ पैर लकवाग्रस्त हो गया है।’’
उसके बगल में बैठी हुई महिला ने हँसना शुरू कर दिया और कहा ‘‘आप फिक्र न करें। आप मेरे पैर में चिकोटी भरते रहे है।’’
तब मार्क टुएन ने कहा ‘‘ एक बार बीस वर्ष पूर्व एक डॉक्टर ने मुझसे कहा था-‘किसी न किसी दिन आपका दाहिना भाग लकवा ग्रस्त हो जाएगा, इसलिए तभी से मैं स्वयं अपने शरीर में दिन में बीस या तीस बार चिकोटी भर कर यह अनुभव करता हूँ कि वह भाग सुन्न तो नहीं हो गया है। ठीक अभी भी मैं चिकोटी भर रहा था ़ ़ ़ ़ ़ ़ ़ वह किसी अन्य व्यक्ति के पैर में चुटकी भर रहा था।
लेकिन तुम चिकोटी ही क्यों भरे जाते हो? लकवा के साथ तुम्हारी इतनी अधिक दिलचस्पी क्यों है? यदि तुम्हें दिन में बीस अथवा तीस बार अपने पैर में चिकोटी भरना होता है, तो यह एक बीमारी से भी कहीं अधिक है। इसकी गिनती करो। यह लकवा मार जाने की अपेक्षा कहीं अधिक बुरा है। लकवा तो केवल एक बार ही घटित होता है और यह एक दिन में बीस अथवा तीस बार घटित हो रहा है। वे कहते है कि बहादुर व्यक्ति एक बार मरता है और कायर लोग लाखों बार मरते है- क्योंकि वे चिकोटी भरकर यह अनुभव किए चले जाते हैं कि उनका अंग मृत है अथवा नहीं है।
तुम्हारी बीमारी तुम्हारे अहंकार को बने रहने में सहायता करती है। तुम अनुभव करते हो कि कुछ चीज घटित हो रही है, निश्चित रूप से वह आनंद अथवा परमानंद न होकर केवल उदासी ही क्यों न हो और तुम सोचते हो ‘‘कोई भी व्यक्ति ऐसा उदास नहीं है जैसा मैं हूँ, कोई भी व्यक्ति उतने अधिक अवसाद में नहीं है जैसा कि मैं हूँ और किसी को ऐसा माइग्रेन का दर्द नहीं है जैसा कि मुझे मिला है। इस बारे में तुम श्रेष्ठ होने का अनुभव करते हो और अन्य व्यक्ति तुमसे हीन है।
यदि तुम अपने साथ बहुत अधिक संबंध जोड़ लेते हो तो स्मरण रहे कि तुम उपलब्ध नहीं होगे। यह आवश्यकता से अधिक संबंध जोड़ने से तुम एक बाड़े में बंद हो जाओगे, और मार्ग ठीक तुम्हारी आँखों के सामने है। तुम्हें अपनी आँखें बंद न रखकर उनको खोलना होगा।
अब इस बोध कथा को समझने का प्रयास करो।
एक उत्सुक भिक्षु द्वारा एक सद्गुरू से पूछा गया :
मार्ग क्या है?
पहली बार तो यह समझने जैसी है कि भिक्षु एक खोजी नहीं है, वह केवल उत्सुक है। यदि तुम एक खोजी हो तो तुम एक भिन्न ढंग से जाँच पड़ताल करते हो। तुम अपनी आत्मा के साथ जाँच पड़ताल करते हो, तुम स्वयं अपने को दाँव पर लगा देते हो और तुम एक जुआरी बन जाते हो। यदि तुम सामान्य रूप से उत्सुक हो तो वह केवल एक खुजली के समान हैं, तुम अपने मन में एक सूक्ष्म खुजली का अनुभव करते हो, लेकिन वह कुछ भी नहीं है। तुम्हारा वास्तव में उसके साथ कोई संबंध नहीं हैं, तुम उसके बारे में ईमानदार नहीं हो- उत्तर चाहे कुछ भी हो तुम फिक्र नहीं करोगे। वह तुम्हें बदलेगा नहीं। और एक उत्सुक व्यक्ति एक उथला व्यक्ति होता है। तुम ऐसे प्रश्नों को मात्र कौतूहल के कारण नहीं पूछ सकते, तुम्हें उन्हें एक बहुत प्रामाणिक खोज के लिए पूँछना होगा। और जब तुम एक सद्गुरू के पास जाते हो, तुम अनुभव करते हो कि तुम्हें कोई बात पूँछनी है, अन्यथा कोई सोचेगा कि तुम मूर्ख हो।
मेरे पास अनेक लोग आते हैं और मैं जानता हूँ कि वे कहाँ से पूँछ रहे हैं। कभी-कभी उन लोगों में सामान्य-सी उत्सुकता होती है, क्योंकि अब वे आ गए हैं तो उन्हें कुछ पूँछना ही होगा अन्यथा वे लोग मूर्ख समझे जायेंगे। और पूँछने के द्वारा ही वे यह सिद्ध करते हैं कि वे मूर्ख हैं, क्योंकि यदि वास्तव में प्रश्न तुम्हारे अंदर उत्पन्न नहीं हुआ है, यदि वह प्रश्न एक गहन जिज्ञासा नहीं बन जाता है, यदि प्रश्न पर प्रत्येक चीज दाँव पर नहीं लगाई गई हैं, यदि वह समस्या जीवन और मृत्यु की समस्या नहीं है, यदि तुम उत्तर के द्वारा रूपांतरित होने के लिए तैयार नहीं हो, तो यदि तुम प्रश्न पूँछते हो तो तुम मूर्ख हो। और यदि तुम हृदय से प्रश्न नहीं कर रहे हो, तो कोई भी उत्तर देना कठिन है। और यदि उत्तर दिया भी जाता है तो उसे तुम गलत समझोगे।
वह भिक्षु एक उत्सुक भिक्षु था और इसी कारण इस बोधकथा के अंत तक वह नहीं जागता है, अन्यथा ़ ़ ़ ़ ़ ़ ़ ़ ़ ़ हमने अनेक बोधकथाओं का अध्ययन किया है, जब खोज सच्ची होती है तो अंत में एक विशिष्ट बुद्धत्व की झलक मिलती है और सटोरी घटित होती है। अचानक एक शिष्य सजग हो जाता है जैसे मानो किसी व्यक्ति ने उसे हिलाकर नींद के बाहर ला दिया हो। एक स्पष्टता आती है। हो सकता है कि वह केवल एक क्षणभर के लिए हो, लेकिन बादल छँट गए हैं और विशाल आकाश दिखाई दे रहा है। बादल फिर आयेंगे, पर इसमें कोई भी समस्या नहीं है, लेकिन अब तुम जानते हो कि वास्तविक आकाश कैसा होता है और तुम उसका बीज अपने अंदर साथ लिए हुए चलोगे। ठीक तरह से देखभाल करने पर यह बीज एक वृक्ष बन जाएगा और हजारों लोग तुम्हारे नीचे शरण पाने और विश्राम करने में समर्थ होंगे। लेकिन यदि तुम्हें केवल कौतुहल है तो कुछ भी घटित नहीं होगा। यदि तुम उत्सुक हो तो प्रश्न तुम्हारे हृदय से नहीं आया है। वह एक बुद्धिगत खुजली है- और मन में बीजों को नहीं बोया जा सकता।
जीसस के पास एक बोध- कथा है, जिसके बारे में वह निरंतर बात करते हैं। एक किसान बीज बोने के लिए गया और उसने केवल उन्हें यहाँ और वहाँ फेंक दिया। कुछ बीज सड़क पर जा गिरे, और वे कभी भी अंकुरित नहीं हुए क्योंकि सड़क का तल कठोर था और बीज मिट्टी तक नहीं पहुँच सके, वे गहराई तक जा ही नहीं सके और भूमि के अंधकारमय क्षेत्र में नहीं पहुँचे... क्योंकि केवल सघन अंधकार में ही वहाँ जन्म घटित होता है और केवल वहीं परमात्मा अपना कार्य करना प्रारम्भ करता है। वह कार्य एक गुप्त कार्य है और वह छिपा हुआ है।
कुछ बीज सड़क के किनारे गिरे। वे अंकुरित हुए, लेकिन जानवरों ने उन्हें कुचल दिया। केवल कुछ ही ठीक भूमि में गिरे, वे न केवल अंकुरित हुए, बल्कि विकसित होकर वे अपनी पूरी ऊँचाई तक पहुँचे, वे फूले-फले और उन्होंने पूरा कार्य सम्पन्न किया और एक बीज से लाखों बीज उत्पन्न हुए।
यदि तुम उत्सुकता से पूँछते हो, तो तुम सड़क से पूँछ रहे हो। यह सिर केवल एक सड़क है, और उसे वैसा ही होना भी है, उसमें विचारों का निरंतर यातायात चल रहा है। उसे कंक्रीट की भाँति बहुत अधिक कठोर होना ही है। जितना यातायात तुम्हारे सिर के अंदर होता है, उतना तो तुम्हारी सड़कों पर भी नहीं होता। बहुत तेज गति से अनेक विचार यहाँ से वहाँ जा रहे हैं। हम अभी तक विचारों की अपेक्षा तेज गति के किसी भी वाहन की ईजाद करने में समर्थ नहीं हुए हैं। हमारे विचारों की गति की अपेक्षा हमारे तीव्रतम गति से चलने वाले वाहन भी कुछ नहीं हैं। तुम्हारी अंतरिक्ष यात्री चन्द्रमा पर पहुँच सकते हैं लेकिन वे भी विचारों की गति तक नहीं पहुँच सकते है। वे समय लेंगे, तुम विचारों में सामान्य रूप से तुरंत चन्द्रमा पर पहुँच सकते हो। विचारों के लिए यह ऐसा है, जैसे मानो स्थान अस्तित्व में ही न हो : एक क्षण में तुम यहाँ हो सकते हो, अगले ही क्षण लंदन में और फिर न्यूयार्क में हो सकते हो और एक क्षण के अंदर ही तुम संसार में चारों ओर अनेक बार उछल कूद कर सकते हो। इतना अधिक यातायात ़ ़ ़ ़ ़ ़ ़ ़ सड़क लगभग कंक्रीट की है, वहाँ कोई भी बीज फेंको, वह कभी अंकुरित नहीं हो सकता।
उत्सुकता सिर अथवा मन से ही आती है। एक सद्गुरू से कोई भी बात पूँछना ठीक इस तरह है, जैसे मानो तुम्हारा बाजार में उससे आमना-सामना हो गया हो और तुम उससे कुछ पूँछ रहे हो। मैं ऐसे लोगों को जानता हूँ। मैं बहुत अधिक यात्राएँ करता था और ऐसे लोगों से बचना एक समस्या थी। प्लेटफार्म पर भी मैं तो एक ट्रेन पकड़ने जा रहा हूँ और वे लोग मेरे साथ-साथ चल रहे हैं और वे पूँछेगें : ‘परमात्मा के बारे में क्या है? परमात्मा अस्तित्व में है अथवा नही?’ ये लोग उत्सुक हैं और वे मूर्ख हैं। कभी भी उत्सुकता के कारण कोई प्रश्न मत पूँछो, क्योंकि वह व्यर्थ है और वह तुम्हारा समय और दूसरों का भी समय व्यर्थ नष्ट करना है।
यदि किसी व्यक्ति ने सद्गुरू से यह प्रश्न ठीक अपने हृदय से पूँछा होता तो कथा का अंत भिन्न हुआ होता। उस व्यक्ति की खिलावट सटोरी में हुई होती और वहाँ एक कार्य पूरा हो जाता। लेकिन वहाँ इस तरह का कोई अंत नहीं हैं क्योंकि वास्तविक शुरूआत ही गलत थी। एक सद्गुरू तुम्हें उत्तर करूणा के कारण देता है। वह भली-भाँति जानता है कि तुम उत्सुक हो- लेकिन कौन जाने यह हो सकता है, कभी संयोग भी घटित होते हैं और कभी-कभी उत्सुक लोग भी प्रामाणिक रूप से अभिरूचि लेने लगते हैं। यह कोई भी नहीं जानता है।
एक उत्सुक भिक्षु द्वारा एक सद्गुरू से पूँछा गया-‘मार्ग क्या है?’
सद्गुरू ने कहा : ‘वह ठीक तुम्हारी आँखों के सामने है।’
यह असंगत है, क्योंकि यदि वह ठीक तुम्हारी आँखों के सामने है, तब लोग उसे क्यों खोजते हैं, क्यों वे लोग अन्वेषण करते हैं? और वे स्वयं उसे क्यों नहीं देख सकते?
थोड़ी- सी बातें समझ लेने जैसी हैं। पहली बातः एक चीज जितनी निकट होती है, उसे देखना उतना ही अधिक कठिन होता हैं। यदि वह सबसे अधिक निकट हो उसे देखना लगभग असंभव है, क्योंकि आँखों को देखने के लिए एक विशिष्ट अंतराल और ग्रास्यपूर्ण चेतना की जरूरत होती है। मैं तुम्हें देख सकता हूँ लेकिन यदि तुम और निकट, निकट से निकटतम आते चले जाते हो तो प्रत्येक चीज धुँधली होती जाएगी, तुम्हारा चेहरा धुँधला हो जाऐगा और रूप रेखाएँ अपनी आकृति खो देती है। और यदि मैं निकट आता चला जाऊँ और अपनी आँखें तुम्हारे चेहरे पर रख दूं, तो कुछ भी दिखाई नहीं देगा और तुम्हारा चेहरा एक दीवार बन जाएगा। लेकिन तब भी थोड़ा- सा देख सकता हूँ क्योंकि थोड़ी-सी दूरी वहाँ बनी रहेगी।
इतना ही नहीं, तुम्हारे और वास्तविकता के मध्य में काफी दूरी मौजूद है। वह ठीक तुम्हारी आँखों को छू रही है, वह ठीक तुम्हारी त्वचा का स्पर्श कर रही हैं- केवल इतना ही नहीं यह तुम्हारी त्वचा में प्रविष्ट हो रही है। वह तुम्हारे रक्त में गतिशील हैं। वह तुम्हारे हृदय की धड़कनों में धड़क रही हैं। वह तुम ही हो। मार्ग केवल तुम्हारी आँखों के सामने ही नहीं हैं। तुम ही मार्ग हो। तुम उसके साथ एक हो। पथिक, पथ से पृथक नहीं है, वास्तविकता में नहीं, वे एक ही हैं।
इसलिए उसे कैसे देखा जाए? न कोई ग्राह्यशील चेतना और न
अंतराल... ? यदि तुम एक स्पष्ट बुद्धि और समझ की स्पष्टता को उपलब्ध नहीं हुए हो, तो तुम उसे देखने में समर्थ नहीं होगे। वहाँ दूरी नहीं है, इसलिए देखने के सामान्य ढ़ंग से काम नहीं चलेगा, तुम्हें एक असाधारण सचेतनता की जरूरत है, बहुत असामान्य रूप से सजग बने रहने के लिए तुम्हारे अंदर कुछ भी सोया हुआ न हो। अचानक द्वार खुलता है। मार्ग वहीं है- तुम ही मार्ग हो। लेकिन तुम इसलिए चूक जाते हो, क्योंकि वह पहले से ही वहाँ है। जब तुम जन्मे थे, वह उससे पूर्व ही हमेशा से ही बना हुआ है। तुम मार्ग पर, मार्ग में, मार्ग के लिए और मार्ग से ही जन्मे थे- क्योंकि मार्ग ही तुम्हारी वास्तविकता है।
स्मरण रहे, यह मार्ग किसी लक्ष्य तक नहीं जाता है, यह मार्ग ही लक्ष्य है। इसलिए वास्तव में वहाँ कोई भी यात्रा नहीं है, केवल सजग बने ठहरे रहना है, कोई भी कार्य न करते हुए स्थिर और शांत बने रहना है, केवल एक स्पष्टता, एक सचेतनता और एक शांत शीतल समझ बने रहना है।
सद्गुरू ने कहा : ‘वह ठीक तुम्हारी आँखों के सामने है।’
भिक्षु ने पूँछा : ‘तो मैं स्वयं उसे क्यों नहीं देख पाता?’
जब तुम कौतूहल से भरे हुए हो, तो प्रत्येक उत्तर दूसरे प्रश्न सृजित करेगा, क्योंकि उत्सुकता कभी भी संतुष्ट नहीं हो सकती। जाँच-पड़ताल संतुष्ट हो सकती है, जाँच पड़ताल का एक अंत आ सकता है, और किसी निष्कर्ष तक पहुँचा जा सकता है, लेकिन उत्सुकता कभी नहीं, क्योंकि तुम उसी उत्सुक मन को फिर उत्तर तक ले आते हो, और उससे एक नया प्रश्न फिर से बाहर आ जाता है। तुम उस एक व्यक्ति को संतुष्ट कर सकते हो जो वास्तव में जाँच अपना अन्वेषण कर रहा हो, पर उस व्यक्ति को संतुष्ट नहीं किया जा सकता जो सामान्य रूप से पूँछ रहा हो- ‘तो मैं स्वयं उसे क्यों नहीं देख पाता?’
एक दूसरी बातः एक उत्सुक व्यक्ति का नीचे गहराई में वास्तविकता के साथ कोई भी संबंध नहीं होता, उसकी दिलचस्पी केवल स्वयं अपने में होती है। वह कहता है : ‘तो मैं स्वयं उसे क्यों नहीं देख पाता। आप उसे क्यों देख सकते हैं और मैं उसे क्यों नहीं देख सकता? मैं आप पर विश्वास नहीं कर सकता, मैं आस्था नहीं कर सकता, और यदि वह ठीक मेरी आँखों के सामने है, तब मैं उसे क्यों नहीं देख सकता?’
सद्गुरू ने कहा : ‘क्योंकि तुम स्वयं अपने बारे में सोच रहे हो।’
मार्ग वहीं है, और तुम स्वयं अपने बारे में सोच रहे हो : ‘मैं उसे क्यों नहीं देख सकता?’ कोई भी व्यक्ति नहीं देख सकता, जो अहंकार से इतना अधिक भरा हुआ हो। क्योंकि अहंकार का अर्थ है- तुम्हारा पूरा अतीत, वह सभी कुछ जिसका तुमने अनुभव किया है, उन सभी नियमों, अनुशासनों और आदतों जिनमें ढलकर तुम्हारा पालन पोषण हुआ, वह सभी कुछ जो तुमने जाना, जिसका अध्ययन किया, जिसे संग्रहीत किया और इकट्ठी की गई वे सभी सूचनाएं, धर्मग्रंथ और ज्ञान, इन सभी को उठाकर पृथक रख दो, यह पूरा ढ़ेर और यह सभी कुछ ही तुम्हारा अहंकार है, और यदि तुम्हारा उसके साथ सम्बन्ध है, तो तुम उसे नहीं देख सकते।
एक सद्गुरू जो कुछ भी कहता है, प्रत्येक उत्तर एक सटोरी की ओर ले जा सकता है, यदि वह व्यक्ति ठीक है। ठीक पहिली बात, जब उसने कहा : वह ठीक तुम्हारी आँखों के सामने है,- यदि ठीक व्यक्ति वहाँ रहा होता, तो उसे सुनकर ही वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता। लेकिन वह चूक गया, अन्यथा अगला वक्तव्य एक समझ बन गया होता।
उसने कहा : ‘तो मैं स्वयं उसे क्यों नहीं देख पाता?’
लेकिन नहीं। उत्सुकता संतुष्ट नहीं हो सकती,, उसका अंत कभी नहीं आता है। अचानक जब कभी तुम किसी व्यक्ति के ‘मैं’ को छू देते हो, वह तुम पर कूद पड़ता है। उसने कहा :
‘और आपके बारे में क्या है ़ ़ ़ ़
क्या आप उसे देखते हैं?’
अहंकार हमेशा महसूस करता है। यदि मैं उसे नहीं देख सकता, तो कोई अन्य व्यक्ति उसे कैसे देख सकता है? अहंकार कभी भी अनुभव नहीं कर सकता कि कोई अन्य व्यक्ति निःअहंकार हो सकता है : असंभव है। और यदि तुम इसे अनुभव कर सकते हो, तो तुम्हारा अहंकार पहले ही मरना शुरू हो गया है। यदि तुम यह अनुभव कर सकते हो कि कोई व्यक्ति निर्हंकार हो सकता है तो तुम्हारी पकड़ पहिले ही ढीली हो जाती है। अहंकार तुम्हें यह अनुभव करने की अनुमति नहीं देता कि कोई भी व्यक्ति कभी भी बिना अहंकार के हुआ है। और अपने अहंकार के कारण ही तुम दूसरों पर अहंकारों का प्रक्षेपण किए चले जाते हो।
जीसस के बारे में अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं- किसी अन्य व्यक्ति के बारे में लिखी गई पुस्तकों की अपेक्षा कहीं अधिक पुस्तकें लिखी गई हैं, और अनेक पुस्तकें यह सिद्ध करने का प्रयास करती हैं कि जीसस को अनिवार्य रूप से एक बहुत बड़ा अहंकारी होना चाहिए, क्योंकि वह यह कहे चले जाते हैं- ‘मैं ही परमात्मा का पुत्र हूँ, मैं और मेरे पिता एक हैं।’ वह कह रहे हैं : मैं ही परमात्मा हूँ। कई मनोविश्लेषकों ने यह व्याख्या करने का प्रयास किया है कि वह एक मनोरोगी थे। तुम यह कैसे कह सकते हो कि तुम एक परमात्मा हो। तुम्हें एक अहंकारी होना ही चाहिए।
जब जीसस जीवित थे तो यहूदी इसी प्रकार का अनुभव करते थे। वे यह भी महसूस करते थे कि यह व्यक्ति अपने अहंकार के साथ केवल एक पागल व्यक्ति है। वह क्या कह रहा है- कि वह परमात्मा है अथवा परमात्मा का केवल मात्र वही पुत्र है? स्वयं के लिए इतना अधिक दावा करना। और उन्होनें उनका उपहास किया। वे लोग हँसे और उन्होनें उनका तिरस्कार किया।
और जब उन्होंने जीसस को सलीब पर लटकाया, उनके साथ उनका व्यवहार सामान्य रूप से नासमझी और अज्ञान से भरा हुआ है। उन्होनें उनके सिर पर काँटों का ताज रखा और कहा : ‘तो तुम यहूदियों के राजा हो, परमात्मा के पुत्र हो, तुम और तुम्हारे पिता एक हैं, जब हम भी तुम्हारे परमात्मा के राज्य में आएँ, हमें याद करना।’’ उन्होनें उन्हें अपना सलील ढोने के लिए बाध्य किया। वह कमजोर थे और क्रॉस बहुत अधिक भारी था- उन्होंने जानबूझकर उसे बहुत भारी बनाया था और उन्होंने ठीक एक सामान्य अपराधी की भाँति उन्हें अपने सलीब कोढोकर ले जाने के लिए बाध्य किया। और वह प्यास का अनुभव कर रहे थे क्योंकि जहाँ उन्हें सलीब पर लटकाया जाना था, वह एक पहाड़ी थी और वह गोलगोथा पहाड़ी के नाम से जानी जाती थी। वह अपने से बड़े और भारी क्रॉस कोढोते हुए पहाड़ी पर ऊपर चढ़ते हुए पसीने से नहा रहे थे और प्यास का अनुभव कर रहे थे और चारों ओर के लोग उनका तिरस्कार करते हुए उनकी हँसी उड़ा रहे थे और उनके बारे में मजाक करते हुए उन्होंने कहा : ‘देखो, इस यहूदियों के राजा को देखो। यह व्यक्ति जो यह दावा करता है कि वह परमात्मा का पुत्र है।’
केवल उसका मजा लेने को अनेक लोग वहाँ इकटठे हो गए- वह एक तरह से मनोरंजन था, एक खेल था। केवल इस व्यक्ति पर पत्थर फेंकने को वहां पूरा नगर इकट्ठा हो गया था। वे लोग ऐसा प्रतिशोध क्यों ले रहे थे? क्योंकि वे अनुभव करते थे कि इस व्यक्ति ने उनके अहंकार पर चोट की हैं। वह दावा करता था कि वह स्वयं परमात्मा था। वे समझ न सके कि इस व्यक्ति के पास जरा भी अहंकार न था और इसीलिए वह दावा था। वह दावा अहंकार से नहीं आ रहा था, वह दावा सामान्य रूप से एक वास्तविकता थी। जब तुम्हारा अहंकार गिर जाता हैं तो तुम भी एक परमात्मा होते हो।
लेकिन कोई भी व्यक्ति अहंकार से भी दावा कर सकता है। हमारे सभी दावे अहंकार से ही होते हैं, इसलिए हम यह नहीं देख सकते कि कैसे एक व्यक्ति बिना अहंकार के भी दावा कर सकता है। गीता में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं-‘‘सभी कुछ छोड़कर मेरे चरणों में आकर मुझे समर्पण कर।’’ हिंदु लोग इतने अधिक साहसी नहीं हैं और वे बहुत शिष्ट हैं, उन्होनें यह कहीं भी नहीं लिखा कि यह व्यक्ति एक अहंकारी हैं। लेकिन पश्चिम में अनेक लोगों ने वैसा ही समान अनुभव किया जैसा कि जीसस के साथ किया था। इस व्यक्ति का यह कैसा ढंग है जो कहता है-‘मेरे चरणों की शरण में आ।’ जब कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं-‘‘मेरी चरणों की शरण में आ’’- तो हमारे अहंकार वह अनुभव नहीं कर सकते, क्योंकि वहाँ उनके अंदर कोई भी व्यक्ति नहीं है। वह ‘कोई नहीं’ के चरणों में आ रहा है। लेकिन इसे अहंकारी नहीं देख सकते। जो कुछ तुम हो, तुम केवल वही देख सकते हो, जो तुम नहीं हो, तुम उसे नहीं देख सकते।
तुरंत ही उस भिक्षु ने कहा : ‘और आपके बारे में क्या है?’ वह चोट लगने का अनुभव करता है क्योंकि सद्गुरू ने कहा था-‘क्योंकि तुम स्वयं अपने बारे में सोच रहे हो, इसी कारण तुम मार्ग से चूके जा रहे हो- और वह ठीक तुम्हारे सामने हैं।’ अब यह व्यक्ति प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है। वह सद्गुरू पर भी चोट करना चाहता है। वह कहता हैं।
‘आपके बारे में क्या हैं? क्या आप उसे देखते हैं?’
अपने निजी अहंकार के कारण वह चाहता था, वह यह आशा करता था- कि यह व्यक्ति भी कहेगा ‘हाँ, मैं उसे देखता हूँ’ और तब प्रत्येक चीज सरल हो गई होती। यह कह सकता था-‘तब आपकी भी अपने मैं के साथ दिलचस्पी है, फिर आप उसे कैसे देख सकते है? आप भी अपने अहंकार से दावे के साथ कह रहे हैं-आप उसे कैसे देख सकते हैं? हम लोग ठीक समान स्थिति में हैं। और वह खुश-खुश चला गया होता, क्योंकि इस व्यक्ति के साथ उसका हिसाब बंद हो गया होता।
लेकिन एक सद्गुरू के साथ तुम अपना हिसाब बंद नहीं कर सकते। वह कभी भी तुम्हारी अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं करता है। वह सामान्य रूप से अनुमानों के पार होता है। तुम उसे अपने जाल में नहीं पकड़ सकते हो, क्योंकि वह हमेशा अपने ढ़ंगों को बदल देता है। तुम्हारा मन तुम्हें वह उत्तर नहीं दे सकता, जो वह देने जा रहा है।
सद्गुरू ने कहा : जितनी दूर तक तुम देखते हो, तुम दोनों ओर द्धैत ही देखते हो।
ऐसा मैं नहीं करता और तुम करते हो और करते ही चले जाते हो।
तुम्हारी आँखों में दुविधा और धुंधलापन है।
सद्गुरू ने स्वयं अपने बारे में कोई भी बात नहीं कही है। यदि वहाँ अर्जुन हुआ होता तो उसके सद्गुरू कृष्ण ने कहा होता : हाँ, मैं उसे देखता हूँ- और तू कृपा करके चारों ओर बाहर ही मत घूमता जा और मेरे चरणों की शरण में आ।’ लेकिन यह व्यक्ति अर्जुन नहीं था- केवल एक कौतूहल से भरा हुआ व्यक्ति था और वास्तव में उसकी उसमें दिलचस्पी नहीं थी। वह एक प्रश्न नहीं केवल एक समस्या थी। वह किसी भी तरह से अपने को बदलने नहीं जा रहा था। अधिक से अधिक उसके पास थोड़ी-सी अधिक जानकारी होगी और वह थोड़ा-सा अधिक ज्ञानी बन जायेगा।
इसी कारण सद्गुरू कहते हैं-‘जितनी दूर तक तुम देखते हो, तुम दोनों और द्वैतता देखते हो’ ऐसा मैं नहीं करता। और तुम करते हो और करते ही चले जाते हो। तुम्हारी आँखों में दुविधा और धुंधलापन है :- क्योंकि भिक्षु की आँखों में ‘मैं’ और ‘तू’ की दुविधा हैं। वे एक ही चीज हैं, इसे समझने का प्रयास करो। मैं और तू एक ही सिक्के के दो पहलू हैं : इस ओर ‘मैं’ और उस ओर ‘तू’। यदि मैं गिरता है, तुम भी गिर जाता है। यदि मैं वहाँ अधिक नहीं रह जाता तो वहाँ तुम भी और अधिक नहीं रहता, क्योंकि जब सिक्का छूटता हैं तो दोनों ही पहलू एकसाथ छूट जाते हैं। मैं- वह एक ध्रुव है। तू-वह दूसरा ध्रुव हैं, वे दोनों गिर जाते हैं अथवा वे दोनों बने रहते हैं। यदि तुम हो, तो तुम्हारे चारों ओर एक भीड़ हैं, ‘मैं हूँ’, ‘तुम हो’ की हजारों लोगों वाली एक भारी भीड़ है, यदि तुम नहीं हो तो पूरी भीड़ विलुप्त हो जाती है जैसे मानो वह केवल रात में देखा गया एक दुःस्वप्न था- वह था- और पूरी तरह से मौन विद्यमान है, जिसमें वहाँ कोई भी विभाजन नहीं हैं, इसका भी नहीं कि कौन व्यक्ति मैं का है और कौन तू का।
इसी कारण ज़ेन के लोग कभी भी परमात्मा के बारे में बात ही नहीं करते, क्योंकि वे कहते हैं; यदि हम परमात्मा के बारे में बात करते हैं, तो हमें ‘तू’ कहना पड़ेगा। बुद्ध ने कभी परमात्मा के बारे में बात नहीं की और उन्होंने कहा- प्रार्थना मत करो, क्योंकि तुम्हारे प्रार्थना करने से विभाजन जारी रहेगा, द्वैतता रहेगी, मैं और तू की द्वैत-दृष्टि बनी रहेगी।
वास्तविक शिखर पर भी सूक्ष्म रीतियों से तुम समान बीमारी ढोये चलोगे, तुम कहोगे मैं, तुम कहोगे तू। चाहे कितना भी प्यार हो, तुम कहते हो- वह, विभाजन बना रहता है, और विभाजन के साथ प्रेम संभव नहीं है। यहूदियों के सोचने और जीसस के सोचने के ढंग में यहीं अंतर है।
मार्टिन बूबर ने एक पुस्तक लिखी है-प् ंदक लवन अर्थात मैं और तू। सबसे अधिक गूढ़ यहूदी विचारकों में से वह एक है- लेकिन वह एक विचारक ही बना रहता है। वह रहस्यवाद के बारे में बात कर सकता हैं, लेकिन वह बात भी एक विचारक और दार्शनिक की है क्योंकि बिल्कुल अंत में वह पुराना मैं और तू का विभाजन बनाए रखता है। अब यहाँ इस संसार में तो ‘तू’ नहीं हैं, लेकिन परमात्मा ही ‘तू’ बन गया है, लेकिन पुराना विभाजन बना रहता हैं।
यहूदियों और मुसलमानों ने हमेशा इससे इंकार किया कि तुम परमात्मा के साथ एक हो सकते हो, केवल इस भय के कारण ही कि मैं दावा कर सकता है कि वह परमात्मा हो गया है। उन्होनें विभाजन को संभालकर बनाए रखा। वे कहते हैं कि तुम उसके निकट से निकट, निकटतम आ सकते हो, लेकिन तुम, ‘तुम’ बने रहोगे और वह, ‘वह’ बना रहेगा। तुम एक मैं बने रहोगे और उसको ‘तू’ की भाँति सम्बोधित करना होगा।
और यही वह मुसीबत थी जो जीसस ने सृजित कर दी थी, क्योंकि उन्होंने कहा था-‘स्वर्ग में मैं और मेरे पिता एक हैं।’ उन्होनें ‘मैं’ और ‘तू’ का विभाजन गिरा दिया। भारत में मुसलमानों के साथ भी यही मुसीबत बनी रही, वे लोग उपनिषदों को न समझ सके, वे लोग हिंदुओं की इस शिक्षा को नहीं समझ सके कि तुम उसके ही समान हो। मैं को छोड़ दो फिर वह ‘तू’ भी नहीं रह जाता। वास्तव में, अचानक ध्रुव विलुप्त हो जाते हैं और ऊर्जा एक ही रह जाती है। जहाँ मैं मिटता है, वहाँ तू मिटता है, और ऊर्जा एक है।
कभी-कभी गहन प्रेम में झलकें घटित होती हैं जब न तो तुम एक मैं होते हो, और न तुम्हारा प्रेमी अथवा प्रेमिका एक ‘तू’ रह जाता है- लेकिन ऐसा केवल कभी-कभी ही होता है, जो होना बहुत दुर्लभ है। जब दो ऊर्जाएँ पूरी तरह से मिल जाती हैं और तुम विभाजन नहीं खोज सकते कि वे कहाँ विभाजित हैं, वे मिलकर मिश्रित और एक-दूसरे में समाहित होकर एक हो जाती हैं। तुम अनुभव नहीं कर सकते कि सीमा कहाँ हैं और अचानक सीमा भी विलुप्त हो जाती है। इसी कारण प्रेम भय सृजित करता है।
गहन प्रेम, गहन भय सृजित करता है, क्योंकि जब मैं और तू मिटता है तो वह मृत्यु के समान दिखाई देता है- और वह एक तरह की मृत्यु है। और जब तुम मरते हो, केवल तभी तुम दिव्यता में प्रवेश करते हो, लेकिन तब वह दिव्यता भी फिर और अधिक एक परमात्मा भी नहीं रह जाती, तुम उसको सम्बोधित नहीं कर सकते, इसीलिए बौद्ध धर्म में प्रार्थना का अस्तित्व ही नहीं है।
बुद्ध ने कहा था-‘‘तुम प्रार्थना कैसे कर सकते हो, क्योंकि प्रार्थना केवल एक विभाजन के साथ ही करना ही संभव है-मैं प्रार्थना कर रहा हूँ और तू सुन रहा है-फिर तुम कैसे प्रार्थना कर सकते हो?’’
बौद्ध धर्म में केवल ध्यान ही अस्तित्व में है। इस अंतर को समझने का प्रयास करो : प्रार्थना, मैं और तू के पुराने विभाजन के साथ जारी रहती है और ध्यान उस विभाजन को गिरा देता है। प्रार्थना अंतिम रूप से ध्यान में ले जाती है। प्रार्थना अंतिम चीज़ नहीं हो सकती है। वह सुंदर है लेकिन वह अंतिम सत्य नहीं है। अंतिम सत्य केवल यही हो सकता है : जब दोनों ही मिट गए हों और केवल एक रह जाता है। अद्भुत ़ ़ ़ ़ ़ ़ ़विराट! तुम उससे भयभीत हो जाते हो। मैं और तू के सभी सुविधामय विभाजन विलुप्त हो जाते हैं। सभी रिश्ते और संबंध मिट जाते हैं, यह वही भय था, जिससे बूबर भयभीत है। वह भयभीत है कि यदि वहाँ न मैं है और न तू है, तो पूरी दृश्यसता कितनी अधिक भयानक विकराल और भय सृजित करने वाली होगी... क्योंकि कोई भी संबंध जोड़ना संभव ही नहीं है।
संबंध तुम्हें एक घर देते हैं, संबंध तुम्हें सुविधामय होने का अनुभव देते हैं, संबंध तुम्हें कुछ ऐसी चीज़ देते हैं, जो एक विप्लव के समान तो नहीं दिखाई देती है, और जो भय उत्पन्न करने वाली नहीं है। ध्यान को ही अंतिम सत्य होना है क्योंकि प्रार्थना कभी भी अद्वैत में नहीं ले जा सकती-और यह वही है जो सद्गुरू कह रहा है। वह कहता हैं :
जितनी दूर तक तुम देखते हो, तुम दोनों ओर द्वैतता देखते हो।
ऐसा मैं नहीं करता। और तुम करते हो, और करते ही चले जाते हो।
तुम्हारी आँखों में दुविधा और धुँधलापन हैं।
द्वैतता ही वह दुविधा है। विभाजन के द्वारा ही आँखों में धुंध-सी छा जाती है, विभाजन के द्वारा ही आँखों में धूल-धमास होती है और विभाजन के द्वारा ही तुम्हारी आँखों में अस्पष्टता है, उनमें दुविधा और वे गलत अर्थ निकालती हैं। इस विभाजन को गिरा दो और मार्ग वहीं है।
लेकिन एक कौतूहल से भरा हुआ मन आगे बढ़ता ही चला जाता है। उस क्षण वह भिक्षु बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकता था, क्योंकि बुद्धत्व और कुछ भी नहीं, बल्कि एक स्पष्टता है, और एक समझ है। ऐसा गहन गूढ़ सत्य-और उसके बीज अंकुरित होने से इसलिए चूकते चले जाते हैं, क्योंकि वह व्यक्ति एक पक्की सड़क की भाँति है, और उस व्यक्ति में ठीक भूमि और मिट्टी नहीं है। उसने फिर कहा :
जब वहाँ न तो मैं हूँ और न आप हैं
क्या कोई एक उसे देख सकता है?
वह पुनः यह आशा और अपेक्षा करेगा। जब कभी तुम किसी व्यक्ति से एक प्रश्न पूँछते हो, तुम्हारे पास पहले से ही एक अपेक्षित उत्तर होता है। यदि वह तुम्हारे अपेक्षित उत्तर के अनुरूप होता हैं, तब तो वह व्यक्ति ठीक है, और यदि वह तुम्हारी आशा के अनुरूप नहीं होता है तो वह व्यक्ति मूर्खतापूर्ण असंगत बात कह रहा है।
मेरे पास अपने अपेक्षित उत्तर के साथ कभी भी मत आओ, क्योंकि यदि तुम्हारे पास पहले ही से उत्तर है, तो इस बारे में पूँछने की कोई जरूरत ही नहीं है। और यही अंतर है- यदि तुम बिना किसी अपेक्षित उत्तर के एक प्रश्न पूँछते हो, तो तुम उत्तर को सुनने में समर्थ हो सकोगे। यदि तुम्हारे पास एक सूक्ष्म थोड़ी-सी भी आशा है कि यह उत्तर मिलने जा रहा है और यदि तुम्हारे मन ने पहले ही तुम्हें उत्तर दे दिया है, तो तुम सुनने में समर्थ न हो सकोगे। तुम सामान्य रूप से उसे इसलिए सुनोगे कि या तो वह तुम्हारे ठीक उत्तर की पुष्टि करे अथवा यह पुष्टि कर दे कि यह व्यक्ति गलत है- लेकिन किसी भी स्थिति में ठीक तुम ही हो।
इस अनुभूति के साथ कभी भी कोई प्रश्न मत पूछो कि तुम ठीक हो। यदि तुम ठीक हो तो इस बारे में पूँछने की कोई जरूरत ही नहीं है। हमेशा प्रश्न एक ऐसी स्थिति के व्यक्ति की भाँति पूछो, जो अज्ञानी हो, वह भली-भाँति जानता हो कि मैं उसका उत्तर नहीं जानता, इसलिए फिर तुम कैसे अपेक्षा कर सकते हो और कैसे तुम एक उत्तर सृजित कर सकते हो? पूर्ण रूप से यह जानते हुए कि मैं नहीं जानता, प्रश्न पूँछो-और तुम एक ठीक भूमि हो, उसमें बीज गिरेंगे और एक बड़ी फसल उगना संभव होगी। उस व्यक्ति ने फिर पूँछा :
जब वहाँ न तो मैं हूँ और न आप हैं
क्या कोई एक उसे देख सकता है?
एक भिक्षु ने नानसेन से पूँछा :
‘क्या वहाँ ऐसी कोई सिखावन है
जिस पर इससे पूर्व किसी भी सद्गुरू ने
कभी भी कोई धर्मोपदेश न दिया हो?’
नानसेन ने उत्तर दिया : ‘हाँ, वह है।’
भिक्षु ने पूँछा : ‘वह क्या है?’
नानसेन ने उत्तर दिया : ‘वह मन नहीं है,
वह बुद्ध नहीं है, वह विषय और वस्तु नहीं है।’
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें