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शनिवार, 17 नवंबर 2018

अमृत वर्षा-(प्रवचन-02) 

दूसरा प्रवचन-शून्य का संगीत 

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी घटना से मैं अपनी आज की बात शुरू करना चाहूंगा।
एक रात एक पहाड़ी सराय में मुझे ठहरने का मौका मिला था। उस रात एक बड़ी अजीब घटना घट गई थी। वह घटना रोज ही याद आ जाती है, क्योंकि रोज ही उस घटना से मिलते-जुलते लोगों के दर्शन हो जाते हैं। उस रात उस पहाड़ी सराय में जाते ही पहाड़ी की पूरी घाटी में एक बड़ी मार्मिक आवाज सुनाई पड़ी थी। कोई बहुत ही दर्द भरे स्वरों में कुछ पुकार रहा था। लेकिन निकट जाकर मालूम पड़ा कि वह कोई आदमी न था, वह सराय के मालिक का तोता था। वह तोता अपने सींखचों में बंद था, अपने पिंजड़े में, और जोर से स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! चिल्ला रहा था। उसकी आवाज में बड़ा दर्द था, जैसे वह हृदय से आ रही हो। जैसे उसके प्राण स्वतंत्रता के लिए प्यासे हों, और उस पिंजरे में बंद उसकी आत्मा जैसे छटपटाती हो मुक्त हो जाने को। उस तोते की उस आवाज में मुझे दिखाई पड़ा जैसे हर आदमी के भीतर कोई बंद है, पिंजरे में, और मुक्ति के लिए प्यासा है और चिल्ला रहा है। उस तोते से बड़ी सहानुभूति मालूम हुई, लेकिन सुबह ही मुझे पता चला कि बड़ी गलती हो गई। वह तोता चिल्लाता रहा। मालिक सराय का सो गया, और सराय के दूसरे मेहमान भी सो गए, तो मैं उठा, उस तोते के पिंजरे को खोला और उस तोते को मुक्त करना चाहा। मैं उस तोते को बाहर खींचता था और तोता भीतर सींखचों को पकड़ता था और चिल्लाता था,
स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!

मैंने बामुश्किल उस तोते को खींच कर पिंजरे के बाहर किया, इस पिंजरे से खींचने में उसने मेरे हाथ पर भी काट लिया, हाथ पर चोट भी की। उसे पिंजरे से बाहर निकाल कर मैं निश्चिंत हो गया। और मुझे लगा कि चलो एक आत्मा मुक्त हुई। मैं निश्चिंत जाकर सो गया, लेकिन सुबह पांच बजे जब मेरी नींद खुली तो मैंने देखा, तोता अपने पिंजरे में वापस बैठा है और चिल्ला रहा है--स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!
तब मुझे बड़ी हैरानी हुई। तब मेरी समझ में आया कि यह स्वतंत्रता की प्यास तोते के हृदय से नहीं उठ रही है, यह सिखाई गई प्यास है। यह आवाज उसके मालिक ने सिखाई है, उसी मालिक ने जिसने उसे पिंजरे में बंद किया हुआ है। और यह तोता पिंजरे को भी पकड़े हुए है, छोड़ना भी नहीं चाहता, और स्वतंत्रता की आवाज भी दिए चला जाता है। फिर वह बात भूल जानी चाहिए थी, वह बात बहुत दिन हो गई बीते हुए। लेकिन रोज मुझे ऐसे आदमी मिल जाते हैं, जो चिल्लाते हैंः स्वतंत्रता चाहिए, मुक्ति चाहिए, परमात्मा चाहिए। और मैं उनको गौर से देखता हूं, तो पाता हूं, वे अपने पिजरों को पकड़े हुए हैं, और अगर उनको निकालने की कोशिश करो, तो तोते की भांति वे भी हमला करते हैं, वे नाराज होते हैं। और अगर उन्हें कोई जबरदस्ती निकाल कर बाहर भी कर दे, तो बाहर वे हो भी नहीं पाते, थोड़ी देर में फिर भीतर दिखाई पड़ते हैं।
वे लोग जो स्वतंत्र होना चाहते हैं, वे लोग ही अपने हाथ से अपने पिंजरे बनाए हुए हैं, अपने हाथ से अपनी जंजीरें निर्माण कर रहे हैं। वे लोग जो मुक्ति के आकाश में उड़ना चाहते हैं, उन्हें मैं आदमियों के द्वारा बनाए गए मंदिरों में बंद देखता हूं। वे लोग जो मोक्ष की कामना करते हैं, आदमी के द्वारा निर्मित किताबों में उन्हें बंद देखता हूं। वे लोग जो स्वत्रंतता की प्यास की गुहार मचाते हैं, उनको मैं देखता हूं कि हजार-हजार परतंत्रताओं में उन्होंने खुद अपने को बांध लिया है। तब बहुत हैरानी होती है, और उस तोते की मुझे याद आ जाती है। तोता तो दया करने योग्य था, लेकिन इन आदमियों के लिए क्या किया जाए? तोता तो फिर भी तोता था, और सिखाई हुई बातें दोहरा रहा था, लेकिन क्या आदमी भी सिखाई हुई बातें तो नहीं दोहरा रहा है? क्या यह ईश्वर की प्यास और सत्य की खोज और यह मुक्ति की कामना, ये भी कहीं सिखाए हुए पाठ तो नहीं हैं? क्योंकि अगर ये सिखाए हुए पाठ न होते तो यह अदभुत घटना कैसे घट सकती थी कि जो आदमी मुक्त होना चाहता है वही अपने हाथ से अपनी जंजीरें निर्मित करता हो? एक तरफ चिल्लाता हो कि मुझे मुक्ति का आकाश चाहिए, और दूसरी तरफ पिंजरे बनाता हो और कारागृह बनाता हो। ये एक ही आदमी के द्वारा कैसे संभव हो सकता था?
लेकिन यह आश्चर्यजनक घटना हम सबके जीवन में घट रही है। शायद कारण यह हो सकता है कि जिन बातों को हम स्वतंत्रता के लिए मार्ग समझ रहे हैं, वे ही बातें पिंजरा बन जाती हों और हमें इसका पता न हो। शायद जिन बातों को हम मुक्ति की सीढ़ी समझते हों, वही हमें अमुक्ति में ले जाने का द्वार बन जाता हो और हमें इसका बोध न हो। इस संबंध में ही थोड़ी सी आज मुझे बात करनी है। शायद उस तरफ कुछ इशारे करने से हमें अपनी परतंत्रताएं और कारागृह दिखाई पड़ जाएं। और बड़े रहस्य की बात यह है कि उनका दिखाई पड़ जाना ही उनसे मुक्त हो जाना हो जाता है। उनके लिए कुछ और नहीं करना पड़ता है। इसके पहले कि मैं इस चर्चा के भीतर चलूं, एक और छोटी कहानी कहूंगा।
एक और दूसरी सराय में ले चलना चाहता हूं। अभी एक पहाड़ की सराय में हम गए थे, अब एक मरुस्थल की सराय में ले चलने का मेरा इरादा है। वहां भी एक रात एक बड़ी अजीब घटना घट गई। मरुस्थल के अत्यंत निर्जन स्थान पर वह सराय थी। काफिले आकर ठहरते और आगे बढ़ जाते। उस रात भी एक बड़ा काफिला वहां आकर ठहरा। उस काफिले के मालिकों ने अपने ऊंटों पर से सामान निकाला है और अपने ऊंट बांधे, लेकिन अंत में उन्हें पता चला कि उनके पास सौ ऊंट थे, लेकिन एक खूंटी किसी ऊंट की रास्ते में गिर गई। निन्यानबे ऊंट बंध गए थे, लेकिन एक ऊंट अनबंधा रह गया था। अंधेरी रात में उस निर्जन रास्ते पर उसे बिना बंधा नहीं छोड़ा जा सकता था, उसे बांधना जरूरी था। मालिकों ने जाकर सराय के बूढ़े को पूछा कि क्या एक रस्सी और एक खूंटी मिल सकेगी? एक ऊंट हमारा अनबंधा रह गया है, और अंधेरी रात में अनबंधा ऊंट छोड़ना ठीक नहीं है। उस बूढ़े सराय के रखवाले ने कहाः रस्सी और खूंटी तो यहां नहीं हैं, लेकिन जाओ गड़ा दो खूंटी और बांध दो रस्सी और ऊंट को बांध दो। वे हंसे और उन्होंने कहा, अगर हमारे पास खूंटी और रस्सी होती तो हम तुमसे पूछने न आते। वही तो नहीं है, ऊंट को कैसे बांधे? तो उस बूढ़े ने कहाः झूठी खूंटी गड़ा दो और झूठी रस्सियां बांध दो। ऊंट को पता भर चल जाए अंधेरे में कि खूंटी गाड़ी गई और रस्सी बांधी गई, ऊंट सो जाएगा।
उनको विश्वास न पड़ा, उन्होंने कहा, हमें विश्वास नहीं पड़ता। वह बूढ़ा हंसने लगा, उसने कहा, तुम पागल हो, ऊंट तो ऊंट आदमी भी झूठी खूंटियों में बांध दिए जा सकते हैं। जाओ कोशिश करो। मजबूरी थी, खूंटी थी नहीं, और उस बूढ़े की बात को ही प्रयोग करके देख लेना लाजमी था। काफिले का मालिक गया और एक झूठी खूंटी उसने अपनी जिंदगी में पहली दफा गाड़ी। बड़ी हैरानी से गाड़ रहा था, खूंटी थी नहीं, लेकिन वैसे ही आवाज कर रहा था जैसे कि खूंटी होती और गाड़ी जाती। ऊंट खूंटी गाड़ने की आवाज सुन कर बैठ गया, मालिक हैरान हुआ, ऊंट राजी हो रहा है। उसने एक रस्सी बांधी जो नहीं थी, और ऊंट के गले पर हाथ फेरा, जैसे कि रस्सी बांधते वक्त हमेशा फेरता रहा था। ऊंट बंध गया, ऊंट सो गया। मालिक भी अपनी जगह जाकर सो गया, और हैरान हुआ कि बूढ़ा बड़ा अनुभवी है, ऊंटों के संबंध में उसका बड़ा ज्ञान है।
सुबह जल्दी ही काफिला चलने को तैयार होने लगा, निन्यानबे ऊंटों की खूंटियों उखाड़ ली गईं और रस्सियां निकाल दी हैं, लेकिन सौवें ऊंट पर तो कोई खूंटी थी, न कोई रस्सी थी। निकाला भी क्या जाता। उसे जबरदस्ती धक्के देकर उठाने की कोशिश की जाती रही, लेकिन ऊंट ने उठने से इनकार कर दिया। वह बंधा हुआ है। वह उठता भी कैसे? काफिले का मालिक घबड़ा गया कि क्या इस बूढ़े पहरेदार ने कोई जादू कर दिया है। शक तो रात में भी हुआ था, वह गया उस बूढ़े के पास, कि तुमने क्या कर दिया है ऊंट को? ऊंट उठता नहीं। उस बूढ़े ने कहाः पागलो, पहले उसकी खूंटी निकालो और रस्सी खोलो। तो उस बूढ़े ने कहाः लेकिन खूंटी हो, रस्सी हो, तब हम खोलें? वह बूढ़ा पहरेदार बोलाः जिस भांति रात खूंटी गाड़ी थी, उसी भांति निकालनी पड़ेगी। ऊंट के लिए खूंटी गड़ गई है और ऊंट के लिए रस्सी बंध गई है।
मजबूरी में उस खूंटी को निकालना पड़ा, जो नहीं थी, और उस रस्सी को खोलना पड़ा, जिसका कोई अस्तित्व न था। रस्सी खोलते ही, खूंटी उखाड़ते ही, ऊंट उठ कर खड़ा हो गया।
उस बूढ़े ने हंस कर कहाः खूंटियों की जरूरत बहुत ज्यादा नहीं है, झूठी खूंटियां भी काम दे देती हैं। और स्मरण रहे, सच्ची खूंटियां उतने जोर से कभी नहीं बांधती जितनी झूठी खूंटियां बांध देती हैं। क्यों? क्योंकि उनको निकालना भी मुश्किल हो जाता है, क्योंकि वे होती ही नहीं।
आदमी के ऊपर भी जो बंधन हैं वे सौवें ऊंट की भांति हैं। वे सच में अगर हों, तो भी कोई बात थी। उनका होना एकदम काल्पनिक है, एकदम मन का है। उन्हें देख लेना ही उनसे मुक्त हो जाने के लिए काफी है।
तो उस तरफ ही ये थोड़ी सी बातें आज मुझे आपसे कहनी हैं, ताकि वे बंधन दिखाई पड़ सकें जो कि वस्तुतः नहीं हैं, लेकिन फिर भी हमें बांधे हुए हैं। ताकि वे सींखचें दिखाई पड़ सकें और पिंजरे और कारागृह जिनमें हमने अपनी आत्मा को खुद ही कैद किया हुआ है, और हम चिल्ला रहे हैं कि स्वतंत्रता चाहिए। और गुरुओं को खोज रहे हैं, और सत्संग कर रहे हैं, और उपवास कर रहे हैं, और सिर के बल खड़े हो रहे हैं, और न मालूम क्या-क्या उपाय कर रहे हैं। उन बंधनों से छूटने का जो हमारे ही द्वारा निर्मित हैं और एकदम काल्पनिक हैं। कौन से वे बंधन हैं जो चित्त को एक गुलामी में परिवर्तित कर देते हैं और चित्त को एक दुख और चिंता में बदल देते हैं? और चित्त एक अंधेरी रात की भांति हो जाता है जहां सिवाय टकराने, चोट खाने और गड्ढों में गिर जाने के अतिरिक्त कोई यात्रा नहीं रह जाती। कौन से वे बंधन हैं और कैसे उनसे हम जाग सकते हैं? और कैसे जीवन की परिपूर्णता को, जीवन की प्रफुल्लता को, जीवन के आनंद को, और सत्य को अनुभव कर सकते हैं?
तीन सूत्रों की इस दिशा में मैं बात करना चाहता हूं।
पहला सूत्रः मनुष्य को, मनुष्य के चित्त को अंधकार में, अज्ञान में, भूले हुए रास्तों पर भटकने के लिए जिस चीज ने बहुत बड़ा आधार रखा है, वह है हमारा अंधविश्वास, हमारा अंधापन, हमारी श्रद्धा, यह शब्द बहुत आदृत हो गया है हजारों साल की पूजा के कारण। लेकिन इससे जहरीला, इससे ज्यादा विषाक्त और कोई शब्द नहीं है। श्रद्धा ने, विश्वास ने, बिलीफ ने आदमी के जीवन को एक अंधकारपूर्ण कारागृह बना दिया है। क्योंकि उस शब्द का बहुत बुनियादी अर्थ आदमी को अंधा होने के लिए राजी करता है। और जो आदमी अंधा हो जाता है फिर वह कैसी भी खूंटियों पर विश्वास कर सकता है। क्योंकि अगर वह आंख खोले तो दिखाई पड़ सकता था कि खूंटियां झूठी थीं, वह ऊंट उस रात धोखे में आ गया, शायद दिन होता तो धोखे में न आता। रात अंधेरी थी, झूठी खूंटी गाड़ी जा रही थी, ऊंट को दिखाई नहीं पड़ रहा था। आदमी की जिंदगी में रात पैदा करने की तरकीब ईजाद कर ली गई है। आदमी की आंख बंद कर दी जाए तो रात हो जाती है। फिर उस अंधेरी रात में उस बंद आखों में कोई भी बंधन खड़े किए जा सकते हैं।
विश्वासों ने मनुष्य की आंखों पर पट्टियां बांध दी हैं। विश्वास का अर्थ है कि हम उन बातों को स्वीकार कर लेते हैं जिन्हें जानते नहीं। जिन्हें हमारे प्राणों ने अनुभव नहीं किया। जिन्हें हमारे जीवन ने स्पर्श नहीं किया। हम उन शब्दों को और सिद्धांतों को पकड़ लेते हैं, इस भांति जैसे कि हम उन्हें जानते हों और फिर यही रुकावट बन जाती है, खोज का यही अंत हो जाता है।
एक गांव में एक बहुत बड़ा तार्किक, एक बहुत बड़ा विचारक था। वह एक दिन सुबह गांव के तेली के पास तेल खरीदने गया था। उसने देखा कि तेली अपनी दुकान पर बैठा हुआ है और दुकान के पीछे ही तेली का कोल्हू चल रहा है, बैल चल रहा है, चक्कर काट रहा है और तेल पेल रहा है। कोई उसे चला नहीं रहा था, तो उस विचारक ने उस तेली को पूछा, बैल को कोई चला नहीं रहा है लेकिन बैल चलता जा रहा है, बात क्या है? उस तेली ने कहाः देखते नहीं, बैल की आंखें बंद हैं। आंख हैं बंद बैल को यह पता भी नहीं है कि कोई नहीं चला रहा। उस विचारक ने पूछाः लेकिन अगर वह खड़ा हो जाए तब तो उसे पता चल जाएगा कि पीछे कोई नहीं है। उस तेली ने कहाः जरा गौर से देखें, बैल के गले में मैंने घंटी बांध रखी है, जब तक घंटी बजती रहती है, मैं समझता हूं कि बैल चल रहा है, और जब घंटी बंद हो जाती है मैं उठ कर बैल को फिर से पीछे से चला देता हूं, तो बैल को यह ख्याल बना रहता है कि मैं हमेशा उसके पीछे हूं। इसलिए वह खड़े होने की हिम्मत नहीं कर रहा।
उस विचारक ने थोड़ा सोचा और उसने कहाः यह भी तो हो सकता है कि बैल खड़ा हो जाए और सिर को हिलाता रहे ताकि घंटी बजे और आपको धोखा पैदा हो जाए? उस तेली ने कहाः माफ करो और जल्दी से दुकान से जाओ, कहीं बैल तुम्हारी बातें न सुन ले। यह तुम्हारी बात बड़ी खतरनाक हो सकती है, मेरा सारा धंधा ही चौपट हो सकता है।
आदमी की आंख पर भी कुछ धंधे करने वाले लोगों ने पट्टियां बांध दी हैं। और वे बड़े डरते हैं कि विचार की कोई बात इन आंखें बंद आदमियों के कानों में न पड़ जाएं, नहीं तो यह सारा धंधा चौपट हो सकता है। जो धर्म के नाम पर सारी जमीन को एक जहरीले नाग की तरह घेरे हुए हैं, आदमी के आंख पर पट्टियां बांध दी गई हैं, और विचार की कोई खबर न पहुंच पाए उसके पास, इसलिए हजारों सालों से यह समझाया जा रहा है कि विश्वास करना, विचार नहीं। विचार भटका देगा, विश्वास ही पार ले जाने वाली नाव है। जब कि अंधापन कब किसको पार ले जा सकता है? फिर यह अंधापन किसी भी प्रकार का हो सकता है। आस्तिक का हो सकता है, नास्तिक का हो सकता है। अगर आस्तिक घर में पैदा हुए है, तो यह आस्तिक का होगा अंधापन कि बचपन से यह विश्वास मन में डालना शुरू कर दिया जाएगाः ईश्वर है, मोक्ष है, नरक है, स्वर्ग है। और यह भी बात सिखाई जाएगीः कभी संदेह मत करना। संदेह करने वाला आदमी भटक जाता है। जब कि सच्चाई यह है कि जो संदेह करता है वही किसी दिन सत्य पर पहुंच पाता है। जो संदेह नहीं करता उसके सत्य तक पहुंचने का कोई मार्ग नहीं है। लेकिन विश्वास करने वाला सिखाता है, संदेह मत करना, डाउट मत करना, विश्वास करना; जरा भी संदेह मत लाना, बस विश्वास करना। यह कितनी नासमझी की बात है कोई आदमी कितना ही विश्वास करे, क्या विश्वास करने से उसके भीतर के संदेह का अंत हो सकता है?
जबरदस्ती लाया गया विश्वास क्या भीतर संदेह को समाप्त कर सकता है? संदेह भीतर मौजूद रहेगा। लाख विश्वास को हम ऊपर से ओढ़ते चले जाएं, लेकिन भीतर जब तक चेतना जागी हुई है वह कहेगी, मुझे यह पता नहीं, यह सही भी हो सकता है, यह गलत भी हो सकता है। इस संदेह को कुचलते जाओ। विश्वास की शिक्षा है संदेह को कुचलो, इसके प्राण ले लो, इसकी गर्दन दबा दो, इसकी आवाज बाहर मत आने दो और तुम विश्वास को ओढ़ते चले जाओ। ऐसा आदमी अगर अपने भीतर के संदेह की हत्या करने में समर्थ हो गया है, तो वह समझ ले कि उसने संदेह की नहीं अपनी ही आत्महत्या कर ली, क्योंकि तब उसका अंधापन स्थायी हो गया, जिसका इलाज नहीं हो सकेगा।
लेकिन कोई आदमी कभी भी अपने भीतर के संदेह की पूरी हत्या करने में कभी समर्थ नहीं हो पाता है। ऊपर से विश्वास थोप लेता है, भीतर संदेह बना रह जाता है। और इसी संदेह को दबाने के लिए और विश्वास को मजबूत करने की उसे हजार कोशिशें करनी पड़ती हैं। हजार उपाय करने पड़ते हैं ताकि भीतर का संदेह कहीं फिर से न जाग जाए? सारे धर्म यही करते रहे हैं, जब कि स्थिति सत्य के खोजी की बिल्कुल उलटी होगी। होगी यह कि वह अपने संदेहों को पूरी तरह विकसित करे, ठीक-ठीक विकसित करे, सम्यक संदेह, राइट डाउट ही यात्रा का प्राथमिक बिंदु है, वह ठीक से संदेह करे, संदेह के विज्ञान को समझे, संदेह की पूरी ताकत को समझे और पूरे प्राणों से पूरे प्राणपन से जिज्ञासा करे, पूछे, शक करे, और अगर वह ठीक से संदेह करता चला जाए और पूरी तरह से, और इस संदेह में कहीं भी समझौता न करे, तो एक दिन संदेह की यह खोज ही उसे उन रास्तों पर पहुंचा देगी, यह संदेह की निरंतर खोज ही उन्हें उन तथ्यों पर पहुंचा देगी, जिन पर संदेह नहीं किया जा सकता है।
संदेह की खोज ही असंदिग्ध तथ्यों पर ले जाने वाला मार्ग है, और तब, तब भीतर कोई संदेह नहीं रह जाता, और एक सत्य की ज्योति सारे प्राणों में व्याप्त हो जाती है। दो शब्दों में कहना चाहें, तो मैं ऐसा कहूंगा जो आदमी विश्वास से शुरू करता है उसकी मौत संदेह को लेकर होती है। और जो आदमी संदेह से शुरू करता है, वह अपने जीवन में उस जगह पहुंच जाता है जहां संदेह की कोई जगह नहीं रह जाती।
संदेह से यात्रा करने वाला ही ठीक-ठीक सत्य तक पहुंच पाता है; विश्वास से यात्रा करने वाला तो अंधेरे में भटक जाता है। क्योंकि उसने आंख तो पहले ही बंद कर ली, दर्शन की क्षमता तो उसने पहले ही खो दी, खोज का आग्रह तो उसने पहले ही समाप्त कर दिया; अब तो वह एक मृत लाश की भांति है, एक मुर्दा आदमी की भांति उससे क्या खोज हो सकेगी?
पहला बंधन देखने जैसा है मनुष्य के ऊपर और वह विश्वास का है। आस्तिक भी विश्वास करता है और नास्तिक भी। नास्तिक विश्वास कर लेता है, ईश्वर नहीं है, आत्मा नहीं है, मोक्ष नहीं है; उसका विश्वास नकारात्मक है। आस्तिक का विधायक है, लेकिन दोनों के विश्वास एक हैं और दोनों अंधे हैं। किसी को यह हक नहीं है कहने का कि ईश्वर नहीं है, जब तक कि वह जान न ले। किसी को यह हक नहीं है सोचने का और मान लेने का कि ईश्वर है, जब तक कि वह पहचान न ले। इसलिए ठीक-ठीक धार्मिक आदमी वह है, जो "हां" और "न" दोनों को अस्वीकार कर देता है और खोज को अंगीकार करता है। जो यह कहता है कि मुझे ज्ञात नहीं है लेकिन मैं जानना चाहता हूं। जो यह नहीं कहता कि मुझे मालूम है कि ईश्वर है, जो यह भी नहीं कहता कि मुझे मालूम है कि ईश्वर नहीं है। ऐसा जो आदमी इस तरह के आग्रहपूर्ण अंधता में पड़ जाता है, उसकी तो खोज वहीं बंद हो गई, समाप्त हो गई। खोज करने वाला चित्त, इंक्वायरी करने वाला चित्त तो खुला होगा, मुक्त होगा, वह कहेगा, मैं नहीं जानता हूं, लेकिन जानना चाहता हूं। मुझे ज्ञात नहीं है, लेकिन मेरे प्राण जानने को आतुर हैं, सत्य मुझे अज्ञात है, इसलिए मैं कैसे कहूं कि क्या है और क्या नहीं है। इतना ही कह सकता हूं निश्चय से अभी कि मैं अज्ञान में हूं।
धार्मिक व्यक्ति की पहली पहचान है कि वह न आस्तिक होगा, न नास्तिक होगा। न वह हिंदू होगा, न मुसलमान होगा। धार्मिक आदमी अज्ञात के प्रति आतुर होगा, जिज्ञासु होगा, पिपासु होगा, और अपने अज्ञान के प्रति सचेष्ट होगा। ये जो लोग विश्वास को पकड़ लेते हैं ये अपने अज्ञान को भूल जाते हैं और विश्वास के द्वारा झूठे ज्ञान को पैदा कर लेते हैं और इस भ्रम में पड़ जाते हैं कि मैं जानता हूं। आस्तिकता और नास्तिकता की बकवास ने सारी दुनिया में यह भ्रम पैदा कर दिया है कि हम जानते हैं, मैं जानता हूं; जब कि हम कुछ भी नहीं जानते। अज्ञान हमारा बहुत गहरा है। लेकिन विश्वास के द्वारा थोथे ज्ञान को हम अपना बना लेते हैं और जोर-जोर से चिल्लाने लगते हैं कि मैं जानता हूं, न केवल चिल्लाते हैं बल्कि अजीब पागल लोग हैं हम, इस थोथे ज्ञान के ऊपर एक दूसरे की हत्या भी कर सकते हैं। मंदिरों-मस्जिदों में आग भी लगा सकते हैं, मुल्क के मुल्क को तबाह भी कर सकते हैं। क्योंकि हमारा ज्ञान दूसरे के ज्ञान से सही है इसलिए, जब कि हमारा ज्ञान भी वैसा ही अंधकार पूर्ण है जैसा दूसरे का। और अंधेरे में हम जिन बातों पर विवाद कर रहे हैं वे दोनों ही बातें एक जैसी हैं। अंधेरे में किए गए अनुमान हैं, अंधेरे में किए गए अनुमान और विश्वास खेलने के लिए तो अच्छे हो सकते हैं जिन लोगों को बैठ कर बुद्धिमत्ता की शतरंज खेलनी हो, उनके लिए तो ठीक हो सकते हैं, जिनको अनुमान करके कल्पनाओं के आकाश में उड़ना हो, उनके लिए तो ठीक हो सकते हैं, लेकिन जो लोग सचमुच जीवन की खोज में निकले हैं, उनके लिए नहीं।
मैंने सुना है, एक स्कूल में एक इंस्पेक्टर का आगमन हुआ था। उसके आने के पहले ही खबर पहुंच गई थी उसके आने की। वह आदमी विशिष्ट था, खबर पहुंच जानी जरूरी थी। जिन-जिन स्कूलों में वह निरीक्षण को गया था, उन सबके रिकॉर्ड खराब कर आया था। क्योंकि उसने जो प्रश्न पूछे थे उनका उत्तर बच्चे तो क्या साधु-संत और महात्मा और पहुंचे हुए सर्वज्ञ भी नहीं दे सकते थे। प्रश्न बेहूदे थे और पागलपन से भरे हुए थे। उस स्कूल में आया तो घबड़ाहट फैल गई थी। स्कूल का रिकॉर्ड खराब होना निश्चित था। वह इंस्पेक्टर पागल हो चुका था, उसके पागलपन की खबर सबसे पहले इसी से चल गई थी कि वह तीस ही दिन इंस्पेक्शन करने लगा था। कोई समझदार इंस्पेक्टर कभी इंस्पेक्शन करने जाता है? उसके पागलपन की इसी से खबर फैल गई थी कि यह पागल हो गया है, तीस ही दिन वह जाकर इंस्पेक्शन करता था स्कूलों का। तो पहले तो उसके साथी इंस्पेक्टरों को शक हुआ था कि इसका दिमाग खराब हो गया है, क्योंकि जो समझदार थे वे घर ही बैठ कर रिपोर्ट भर देते थे डायरी में। कोई समझदार कहीं जाता है इंस्पेक्शन करने को कभी। यह आदमी जाने लगा था, तो शक पैदा हुआ था। फिर इसने जो रिपोर्ट दी थी, उनसे बहुत घबड़ाहट पैदा हो गई थी।
स्कूल में वह आया, तो पूरे स्कूल में तैयारी थी--शिक्षक तैयार थे, बच्चे तैयार थे--स्कूल की सबसे बड़ी कक्षा में वह गया और उसने कहाः मैं एक प्रश्न पूछूं, इस प्रश्न का आज तक कोई उत्तर नहीं दे सका है, अगर तुममें से किसी ने इसका उत्तर दे दिया, तो फिर आगे मैं कोई प्रश्न नहीं पूछूंगा, क्योंकि हंडिया का एक चावल ही देख लेना काफी होता है। और अगर तुम इसका उत्तर नहीं दे पाए तो फिर मैं बहुत प्रश्न पूछूंगा, फिर मैं हूं और तुम हो। उसके पहले प्रश्न को थर्राती हुई जिज्ञासा से बच्चों ने सुना। प्रश्न ऐसा था कि बच्चों के तो प्राण वहीं के वहीं सहम गए होंगे, श्वास वहीं की वहीं बंद हो गई होगी। प्रधान अध्यापक खड़ा था, वह भी थर-थर कांपने लगा क्योंकि उस प्रश्न का कोई उत्तर हो ही नहीं सकता था, वह प्रश्न ही नहीं था। उस आदमी ने पूछा कि दिल्ली से एक हवाई जहाज कलकत्ता की तरफ उड़ा दो सौ मील प्रति घंटे की रफ्तार से, तो क्या तुम बता सकते हो, मेरी उम्र कितनी है? इसमें न कोई तुक था, न कोई संगति थी, यह बड़ा अध्यात्मिक, बड़ा फिलोसफिकल प्रश्न था। बच्चे तो घबड़ा कर रह गए, अध्यापक भी खड़े रह गए। और भी घबड़ाहट तो तब हुई जब एक बच्चे ने ऊपर हाथ उठाया, उत्तर देने को, तब तो अध्यापकों के और प्राण निकल गए। यह बेहतर था कि बच्चे चुप रह जाते, क्योंकि अज्ञानपूर्ण व्यर्थ के प्रश्नों के समक्ष समझदार का चुप रह जाना ही उचित है।
लेकिन एक बच्चे ने हाथ हिलाया, इंस्पेक्टर प्रसन्न हुआ और उसने कहाः तुम पहले बच्चे हो जिसने उत्तर देने की हिम्मत की है, खड़े हो जाओ। वह बच्चा खड़ा हुआ। उस इंस्पेक्टर ने पूछाः कितनी है मेरी उम्र? उस बच्चे ने कहाः आपकी उम्र चवालीस वर्ष है। उसकी उम्र चवालीस वर्ष थी। वह इंस्पेक्टर तो भौचक्का, उसके हैरान होने की बारी आ गई। वह एकदम हैरान रह गया, उसने कहा, किस हिसाब से तुमने मेरी उम्र निकाली? उसने कहाः हिसाब बहुत आसान है, और मेरे अतिरिक्त... लेकिन इस हिसाब को कोई भी नहीं कर सकता। मेरा बड़ा भाई है, वह आधा पागल है। उसकी उम्र बाईस वर्ष है। आप सारे मुल्क में पूछ लेते तो भी इसका उत्तर मिलने वाला नहीं था, यह उत्तर मैं ही दे सकता हूं।
हमें हंसी आती है इस बात पर। लेकिन जिनको हम बहुत ज्ञानी कहें, और जिनके ज्ञान की हम निरंतर स्तुति किया करते हैं, वे इससे भी फिजूल बातों पर विचार करते रहे हैं और प्रश्न पूछते रहे हैं।
मध्य-युग में यूरोप के साधु-संत इस बात पर विचार करते रहे कि एक सुई की नोंक पर कितने फरिश्ते खड़े हो सकते हैं? ये इस इंस्पेक्टर से ठीक हालत में थे ये लोग? लूथर जैसे समझदार आदमी ने यह लिखा है कि मक्खियां शैतान के द्वारा बनाई गई हैं। क्यों? क्योंकि जब लूथर धर्मग्रंथ पढ़ता था तो मक्खियां उसकी नाक पर आकर बैठ जाती थीं। साफ है कि मक्खियां धर्म के कार्य में बाधा देने के लिए बनाई गईं; तो भगवान तो नहीं बना सकता, इसको शैतान ने बनाया। इस पर विवाद चलता रहा कि मक्खियां किसने बनाईं? ईश्वर ने बनाई है कि शैतान ने? ये उस इंस्पेक्टर से कुछ ठीक प्रश्न थे? स्वर्ग और नरक के नक्शे बनाए जाते रहे और उन पर विवाद होता रहा कि कौन सा नक्शा ठीक है? जैनियों का नक्शा ठीक है कि हिंदुओं का नक्शा ठीक है? स्वर्ग कितनी दूर है जमीन से, कितने योजन, कितने मील? किसका हिसाब ठीक है? देवताओं की लंबाई कितनी होती है, उम्र कितनी होती है? इस पर विवाद होते रहे हैं। और यह विवाद करने वाले लोग इतनी गंभीरता से, इतनी सीरियसनेस से ये बातें करते रहे हैं कि सामान्य-जन को ऐसा मालूम पड़ा है कि बहुत जरूरी बातें जिंदगी के बाबत सोची जा रही हैं। और फिर इन बातों से, इन विचारों से जो नतीजे निकाले हैं, जैसे उस लड़के ने चवालीस वर्ष की उम्र का नतीजा निकाला। इनसे जो नतीजे निकाले हैं उन पर आम आदमी को कहा गया है कि तुम विश्वास करो। हमने खोज लिया है, तुम विश्वास करो; हमने पता लगा लिया है, तुम विश्वास करो; तुम्हारा काम है विश्वास करने का।
जरूर ये सारे लोग किसी बहुत गहरी अहमन्यता से, किसी बहुत गहरी ईगोइज्म से पीड़ित रहे होंगे जिन्होंने यह कहा है हमने खोज लिया है और तुम विश्वास करो। हम हैं खोजने वाले, हम हैं बताने वाले, तुम हो मानने वाले। दुनिया में कोई मानने वाला नहीं है। हर आदमी जिसे परमात्मा को जानना हो, सत्य को जानना हो, उसे मानने वाला नहीं उसे खुद ही खोजने वाला होना पड़ेगा। कोई दूसरा आदमी बताने वाला नहीं हो सकता। क्योंकि हर बताने वाला आदमी जो दूसरा उसको मान लेता है, दूसरे आदमी को अंधा बनाने में सहयोगी हो जाता है। जब कि खोज के लिए खुली हुई आंखें चाहिए। इसलिए पहली बात मैं आपसे कहना चाहता हूं अपने विश्वासों की तरफ बहुत खुली आंख से देखें तो आपको पता चलेगा विश्वास झूठे हैं और सीखे हुए हैं, संदेह सच्चा है और अनसीखा हुआ है। वह आपके भीतर है, वह आपके प्राणों में है, वह आपकी आत्मा की ताकत है। संदेह आपकी शक्ति है और विश्वास, विश्वास बिल्कुल उधार जबरदस्ती आरोपित बातें हैं, इन उधार विश्वासों के साथ आपकी यात्रा नहीं हो सकती।
आपकी आत्मा की जो अपनी शक्ति है संदेह, संदेह किसी को कोई कभी सिखाता नहीं। संदेह जन्म के साथ जन्म लेता है। विश्वास सिखाए जाते हैं। विश्वास दूसरों से मिलते हैं, संदेह मेरा है। तो मैं संदेह को लेकर अगर चलूं कि यह मेरी ताकत है। यह मेरी इंक्वायरी है, यह मेरी खोज है, यह मेरा अन्वेषण है, यह मेरी जिज्ञासा है, यह मेरी प्यास है। अगर इसको लेकर मैं चलूं तो, तो शायद मैं जीवन की गहराइयों में उतर सकता हूं, अन्यथा नहीं। दूसरों की बातें लेकर चलूंगा, तो कैसे उतर सकूंगा?
लेकिन हम सब उधार ज्ञान से पीड़ित लोग हैं, और यह सारा उधार ज्ञान एक ही, एक ही बिंदु पर टिक गया है और वह यह है कि विश्वास करना चाहिए। मैं आपसे कहना चाहता हूं जो आदमी विश्वास करता है, वह आदमी कभी भी धार्मिक नहीं है। इसीलिए तो विश्वास करने वाले लोग जमीन पर इतने हैं, लेकिन धर्म कहां हैं? कभी सोची यह बात, हर आदमी विश्वासी है, कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई कोई है; कोई किसी बात में विश्वास कर रहा है, कोई किसी बात में, लेकिन धर्म कहां है दुनिया में? जब इतने लोग धार्मिक हैं तो धर्म भी तो होना चाहिए था, लेकिन वह नहीं है। निश्चित ही धर्म के संबंध में कोई बुनियादी भूल हो रही है। और पहली भूल है, और वह है विश्वास के द्वारा आंखों के बंद हो जाने के लिए राजी हो जाना। मत राजी हों, इनकार करें, जो आदमी इनकार नहीं करता वह आदमी जिंदा नहीं है, इनकार करें चारों तरफ से आते हुए प्रभाव को, जो कहता है कि विश्वास करो और भीतर की जिज्ञासा को दबा देना चाहता है, भीतर की आत्मा को बंद कर देना चाहता है। भीतर के प्राणों को परतंत्र कर देना चाहता है, चारों तरफ के प्रभाव से सजग होना जरूरी है और उसके प्रति एक गहरा इनकार, एक पूर्ण इनकार मन के भीतर स्पष्ट होना चाहिए कि मैं किसी भी प्रभाव के कारण स्वीकार नहीं करूंगा। उस दिन तक जब तक कि मैं न जान लूं। ऐसी जिसके भीतर जिज्ञासा होती है, ऐसी अदम्य जिसके भीतर प्यास होती है, वह जरूर जानने में समर्थ हो जाता है। यह पहली बात है।
दूसरी बात, विश्वास को हटा दें और विचार को भीतर जन्म दें। लेकिन विचार का जो दूसरा सूत्र है, विचार को जन्म देने की जो बात है, वह भी बहुत सोच लेने की है। विचार के आधार पर या विचार के नाम पर हम एक बड़ी अजीब बात कर लेते हैं, हम विचार को जन्म देने के नाम पर विचारों को संग्रह कर लेते हैं और सोचते हैं हमारे भीतर विचार का जन्म हो गया। थिंकिंग के नाम पर हम थॉट्स को इकट्ठा कर लेते हैं। विचार करने की क्षमता के नाम पर हम विचारों का जमघट इकट्ठा कर लेते हैं और सोचते हैं कि हम विचारपूर्ण हो गए। विचारशीलता में और विचार के संग्रह में बुनियादी भेद है। बल्कि सच्चाई यह है जो आदमी जितने विचारों को इकट्ठा करने के लिए उत्सुक हो जाता है समझ लेना उसके भीतर विचार की क्षमता उतनी ही कम है। वह उसी क्षमता की कमी की पूर्ति इस भांति विचारों को इकट्ठा करके कर लेने की कोशिश कर रहा है। विचारना, विचार की शक्ति हमारे भीतर होनी चाहिए, विचारों का संग्रह नहीं।
लेकिन सारी दुनिया में विचारों का संग्रह चलता है। कॉलेज में, स्कूल में, समाज में, सभ्यता में, सब तरफ हम विचारों को इकट्ठा कर रहे हैं। और जब हमारे पास विचारों का बहुत सा कचरा इकट्ठा हो जाता है तो हम सोचते हैं कि हम विचारक हो गए। और जब एक आदमी वेद और उपनिषद के उद्धरण देने लगता है तो हम उसके पैर छूने लगते हैं कि यह आदमी ज्ञानी हो गया।
ये सारे उद्धरण, यह वेद, उपनिषद, गीता और बाइबिल और सारे शास्त्र और उन सबका स्मरण एक बिल्कुल यांत्रिक प्रक्रिया है, इससे ज्ञान का और विचार का कोई संबंध नहीं है। शायद आपको पता न हो, अब तो यांत्रिक मस्तिष्क बन गए हैं, और आदमी के मन की स्मृति पर निर्भर रहने की अब कोई जरूरत नहीं है, अब तो मशीन उत्तर दे सकती है। मशीन से पूछें कि फलानी ऋचा का क्या अर्थ है? तो मशीन उत्तर दे सकती है। या गीता के फलाने-फलाने हिस्से में क्या लिखा हुआ है, तो मशीन उत्तर दे सकती है।
पिछली बार शायद मनुष्य-जाति के इतिहास में पहली दफा यह घटना घटी। कोरिया की लड़ाई के वक्त चीन से अमरीका युद्ध में आगे बढ़े या न ब.ढ़े, इसका निर्णय सेनापतियों ने नहीं किया, मशीन ने किया। मशीन से पूछा गया, जिस मशीन को कोरिया की स्थिति के बाबत सब पता है, जिस मशीन को चीन की स्थिति के बाबत सब पता है, जिस मशीन को अमरीका की ताकत के बाबत सब पता है, उस मशीन से पूछा गया है कि इस समय चीन से युद्ध में उतरना ठीक है या नहीं? मशीन ने उत्तर दिया, बिल्कुल ठीक नहीं। और युद्ध में चीन के आगे फिर अमरीका नहीं बढ़ा, हाथ उसने खींच लिए। मशीन को सब जानकारी दे दी जाती है, वह उत्तर दे देती है।
आपका दिमाग क्या करता है? जानकारी दिमाग में भर दी जाती है, दिमाग उत्तर देने लगता है। मैंने आपसे पूछा, आपका नाम, आप फौरन बोले, राम। आप सोचते हैं आपने यह बहुत विचारपूर्ण काम किया? आपको बचपन से भर दिया गया कि आपका नाम राम, आपका नाम राम, यह आपकी स्मृति में जाकर टंकित हो गया। यह टेप रिकॉर्ड हो गया। बाहर से प्रश्न आया, आपका नाम, भीतर से स्मृति बोली, राम। आप समझे कि आप विचारक हो गए। यह काम तो मशीन कर देती है। इसमें कोई विचारशील हो जाने का सवाल नहीं है। विचारशीलता विचारों का संग्रह नहीं है। फिर विचारशीलता क्या है? अगर विचारशीलता विचारों का संग्रह नहीं है, तो विचारशीलता क्या है? विचारशीलता है जीवन के प्रति एक सचेतना, जीवन के प्रति एक जागरूकता, जीवन के प्रति निरंतर प्रतिक्षण जागा हुआ होना। जो आदमी प्रतिक्षण, जीवन में तो प्रतिक्षण चारों ओर से हमारे ऊपर घटनाएं घट रही हैं, आघात हो रहे हैं, उनके उत्तर हमारे भीतर से आने हैं।
सुभाष बाबू के बड़े भाई थे, शरद चंद्र। वह ट्रेन में सफर करते थे। बाथरूम में स्नान करने को गए, सांझ का वक्त, अंधेरा हो गया। वह स्नान करते थे, उनकी कीमती घड़ी हाथ से छूट गई और संडास के रास्ते नीचे ट्रेन के गिर गई। बाहर आए, उन्होंने चेन खींची, गाड़ी रुकी, लेकिन रुकते-रुकते तो कोई एक मील का फासला तय हो गया। अंधेरी रात, ड्राइवर और कंडक्टर ने और गार्ड ने कहाः बहुत मुश्किल है घड़ी को खोजना, एक मील पीछे न मालूम घड़ी कहां पड़ी हो, इस अंधेरी रात में उसे कैसे खोजा जा सकता है? शरद चंद्र ने कहाः नहीं, कठिनाई नहीं होगी, मैंने जलती हुई सिगरेट उसके पीछे ही डाल दी। तो मेरी सिगरेट जहां पड़ी होगी उसके ठीक एक फीट के घेरे में घड़ी होनी चाहिए। और जलती हुई सिगरेट है वह अंधेरे में भी दिखाई पड़ जाएगी, आप आदमी भेजें। वह घड़ी मिल गई, वह जलती सिगरेट के एक फीट पास पड़ी हुई थी।
इस आदमी की घड़ी गिरी, आपकी घड़ी गिरती आप क्या करते? शायद चिल्लाते कि अरे मेरी घड़ी गई, बाहर आकर बताते कि मेरी घड़ी गिर गई, चेन खींचते। लेकिन तब तक गाड़ी बहुत आगे निकल चुकी होती। इस आदमी ने बड़ी विचारशीलता का प्रमाण दिया। इसने बड़ी जागरूकता का प्रमाण दिया। घड़ी गिरी एक घटना खड़ी हो गई, एक समस्या खड़ी हो गई, इस आदमी ने होश से देखा और एक क्षण में उसे यह बात दिखाई पड़ गई कि घड़ी नहीं खोजी जा सकेगी, इसने जलती हुई सिगरेट उसके पीछे डाल दी। यह एक क्षण में हो गया, और यह बात स्मृति से नहीं हुई, क्योंकि जिंदगी में यह पहला ही मौका था, इसकी कोई मेमोरी नहीं थी, इसकी कोई स्मृति नहीं थी। यह कोई रोज-रोज घड़ी गिराने का काम नहीं हुआ था, यह किसी किताब में पढ़ा नहीं था कि घड़ी गिर जाए तो जलती हुई सिगरेट पीछे डाल देना।
अब आप डाल सकते हैं लेकिन वह विवेकशीलता नहीं होगी। यह तो आदमी को तत्क्षण उसके जागे हुए होने का सबूत था। एक घटना घटी है चित्त पूरा जागा हुआ है। और मार्ग खोज लेता है। विचारशीलता का अर्थ हैः प्रतिक्षण जागे हुए होना। विचारों का संग्रह नहीं है। इसलिए पंडित और विचारशील दो अलग बातें हैं। पंडित तो अक्सर जड़बुद्धि होता है, बहुत कुछ उसे याद होता है। लेकिन जिंदगी जहां समस्या खड़ी करती है, वहां वह अपनी स्मृति में खोजने लगता है। वहां उसके सामने सीधा विवेक कोई उत्तर नहीं देता।
एक बहुत बड़ा गणितज्ञ था, जिसे गणित में सब कुछ, उस समय गणित में जो कुछ भी खोज हुई थी, सभी कुछ पता था। गणित का ऐसा कोई सवाल न था जो वह हल न कर लेता। सारी जिंदगी उसकी गणित थी। वह अपने बच्चों को लेकर, अपनी पत्नी को लेकर पिकनिक पर गया हुआ था। बीच में एक छोटा नाला पड़ा, उसकी पत्नी ने कहा, पांच-छह बच्चे थे, उसने कहा कि बच्चों को ठीक से पार करा दो। उसने कहाः ठहरो, मैं एवरेज गहराई नाप लेता हूं, औसत गहराई का पता लगा लेता हूं। वह अपना फुट पास में ही रखता था। उसने से जल्दी से जाकर, छोटा सा नाला था, उसको चार-छह जगह फीट को डाल कर नापा, जल्दी से रेत पर आकर हिसाब लगाया, उसने कहा, बेफिकर रहो, हमारे एवरेज बच्चा ऊंचा है गहराई से। एवरेज गहराई कम है, एवरेज बच्चा ऊंचा, आने दो। वह आगे चला गया। कोई बच्चा बड़ा था, कोई बच्चा छोटा था, कोई बहुत छोटा था। बच्चे डुबकी खाने लगे, उसकी पत्नी चिल्लाई कि बच्चे डूबते हैं, वह भागा उस पार जहां उसने हिसाब किया था रेत पर कि कहीं कोई भूल तो नहीं हो गई? वह बच्चा डूबता रहा, वह गणितज्ञ भागा रेत के किनारे, ऐसा कैसे हो सकता है? उसने कहाः मैंने हिसाब बिल्कुल ठीक लगाया हुआ था। वह वापस गया अपना हिसाब देखने, और बच्चा वहां डुबकी खा रहा था और मर रहा है।
यह आदमी... यह आदमी कैसा है? इसमें बुद्धिमत्ता तो जरा भी नहीं है, विचारशीलता तो जरा भी नहीं है। हां, कुछ जिसको कहें, पांडित्य गणित का बहुत है, शायद गणित में उससे कोई नहीं जीत सकता था, परीक्षा होती तो गोल्डमेडल उसे मिलता। इसीलिए तो यह होता है कि विश्वविद्यालय जिनको गोल्डमेडल देते हैं, जिंदगी उनका कोई भी सम्मान नहीं कर पाती, जिंदगी में उनका कहीं कोई पता नहीं चलता। पंडित तो वे होते हैं, विचार का संग्रह खूब होता है, हिसाब खूब होता है। लेकिन जिंदगी पांडित्य नहीं पूछती, जिंदगी तत्क्षण विचारशीलता की मांग करती है। क्योंकि एक क्षण आप चूके आप हिसाब लगाने में रह गए और जिंदगी बह गई। जिंदगी ठहरी थोड़े ही रहती है, आपके लिए कि कल आना और उत्तर दे देना।
मैंने सुना है, एक बहुत बड़ा रूसी डाक्टर था। वह बच्चों की अंतिम चिकित्सा के विज्ञान की परीक्षा ले रहा था। उसने एक युवक को पूछा, जिसकी सारी परीक्षाएं हो गई थीं, और अंतिम उसकी मुखाग्र परीक्षा हो रही थी। और अंतिम डिग्री थी रूस में जो चिकित्सा विज्ञान में मिलती है। उसने उससे पूछा कि इस-इस तरह का मरीज है और यह-यह दवा है, कितनी दोगे? उसने कुछ उत्तर दिया, उत्तर देकर वह बाहर चला गया। दरवाजा खोल कर वह बाहर हो रहा था तब उसे ख्याल आया कि इतनी मात्रा में देने से तो वह, पाय.जन है, वह मरीज मर जाएगा, मात्रा ज्यादा हो गई, वह वापस लौटा और उसने कहा, माफ करिए, मैंने थोड़ा ज्यादा बता दिया, आधी देंगे। उस डाक्टर ने कहाः बाहर हो जाओ, मरीज मर चुका है। सवाल थोड़ी है यह कोई, तुम दे चुके दवा, मरीज मर चुका, जिंदगी रुकी थोड़ी रहेगी तुम्हारे लिए कि तुम फिर लौट कर आ गए और कहने लगे कि वह, जरा ज्यादा मात्रा हो गई, थोड़ा कम देंगे। वह विद्यार्थी असफल हो गया। उसके उस परीक्षक ने कहा कि मरीज मर चुका है, आप लौट जाइए, बात खत्म हो गई। जिंदगी रुकती नहीं है।
जिंदगी रुकती नहीं है तो इसका मतलब क्या हुआ, इसका मतलब हुआ कि प्रतिक्षण हमें जागा हुआ होना चाहिए। जब जिंदगी सामने हो तब भीतर होश होना चाहिए। विचार का अर्थ हैः अत्यंत होशपूर्वक जीना। विचार का संग्रह नहीं, निरंतर सावधानी से जीना। निरंतर जागे हुए जीना वह विचार का अर्थ है।
तो दूसरा सूत्र हैः चित्त निरंतर विचारपूर्ण होना चाहिए। विचारों से भरा हुआ नहीं, बल्कि विचारशीलता से भरा हुआ। कैसे यह चित्त विचारशीलता से भरेगा? उसके लिए तीसरा सूत्र, अंतिम सूत्र आपसे कहना चाहता हूं। और यह बड़े आश्चर्य की बात है, शायद यह देखने में बात विरोधी मालूम पड़ेगी, वही व्यक्ति सर्वाधिक विचारशील होता है, जिसके चित्त में सबसे कम विचार होते हैं। जिसके चित्त में जितने कम विचार होते हैं उतनी ही ज्यादा विचारशीलता हो सकती है। और जब विचार बिल्कुल नहीं होते हैं तो चित्त परिपूर्ण विचार में उपस्थित हो जाता है, मौजूद हो जाता है। जब बिल्कुल थॉटलेस होता है मस्तिष्क, जब चित्त बिल्कुल विचार से शून्य होता है, तभी विचारशीलता अपनी परिपूर्णता पर होती है। यह बात देखने में उलटी मालूम पड़ेगी, लेकिन इस बात से बड़ा और कोई सत्य नहीं है। जब विचार की कोई तरंग चित्त पर नहीं होती, तो चित्त सर्वाधिक रूप से जागरूक होने में समर्थ होता है। और तब जीवन से सीधा रिस्पांस होता है, तब जीवन से सीधा संबंध होता है। तब जीवन उधर एक बात खड़ी करता है, और इधर मन उसके उत्तर से शब्दों में नहीं बल्कि समस्त, समग्ररूप से उसकी चुनौती को स्वीकार करने में, और उसके निदान हल करने में समर्थ हो जाता है।
जैसे एक दर्पण हो, और दर्पण के ऊपर अगर धूल पड़ी हो, तो फिर दर्पण बाहर जो है उसके प्रतिफलन में समर्थ नहीं रह जाता। धूल न हो तो दर्पण के सामने कुछ भी आ जाए दर्पण पूरा प्रतिफलन करता है। ऐसा ही चित्त जब विचार की धूल से बिल्कुल मुक्त होता है तो एक दर्पण बन जाता है और जीवन को पूरे अर्थों में पूरी सर्वांगीणता में प्रतिफलित करता है, रिफ्लेक्ट करता है। और तब हमारे भीतर से जो बाहर का जगत है उससे एक अंतर्संबंध, भीतर और बाहर के बीच एक सेतु बन जाता है, एक ब्रिज बन जाता है, और तभी हम जान पाते हैं कि समग्रता क्या है? समग्रता में ही सत्य है। तब हम व्यक्ति नहीं रह जाते, विचारों का घेरा हमें व्यक्ति बनाता है और निर्विचार की स्थिति हमें अव्यक्ति से जोड़ देती है, वह जो सबके भीतर छिपा है उससे एक कर देती है। और वहीं सत्य का, अमृत का, परमात्मा का या कोई और नाम हम उसे दें, या परममुक्ति का या मोक्ष का पहला अनुभव शुरू होता है।
तो यह तीसरा सूत्र हैः निर्विचारना। और निर्विचारना से विचार की क्षमता, वैचारिकता, विचार की शक्ति, होश और जागरूकता का जन्म होता है। इस तीसरे सूत्र पर थोड़ी बात कर लेनी जरूरी है। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण भी है। विचार से मुक्ति, निर्विचारना, मन से विचारों की सारी लहरों का शांत हो जाना कैसे हो सकता है? किस भांति, क्या रास्ता हो सकता है? क्या दिशा हो सकती है? कौन सा आयाम हो सकता है जहां सारे विचार खो जाएं? और एक साइलेंस, और एक मौन भीतर उपस्थित हो जाए। इस तीसरे सूत्र को हल करने के लिए दो छोटे सूत्र समझ लेने होंगे।
एक--मनुष्य मन के प्रति बिल्कुल सोया हुआ है। जिस मात्रा में सोया हुआ होगा उसी मात्रा में विचारों की भीड़ उसके मन पर दौड़ती रहेगी। क्या आपको ख्याल है जब आप रात सोते हैं तो सारी रात सपनों से भर जाती है? और क्या आपको यह भी पता है वे सपने ऐसे मालूम पड़ते हैं जैसे बिल्कुल सच हों? कभी आपको सपने में ऐसा पता चला क्या कि जो मैं देख रहा हूं वह झूठा है? सपनें में जो भी आप देख रहे हैं सभी सच है। ऐसी एब्सर्ड बातें भी सच हैं जिनको आप जाग कर कहेंगे कि क्या मैं पागल था जो इसको मैं सच मानता रहा। यह बात तो हो ही नहीं सकती। लेकिन सपने में उस पर शक पैदा नहीं होता। क्यों? क्योंकि सपने में आप बिल्कुल सोए हुए हैं। सोया हुआ व्यक्ति जागरूक नहीं है कि क्या सत्य है और क्या असत्य है, क्या वास्तविक है, क्या काल्पनिक है। जिस मात्रा में सोया हुआ है उसी मात्रा में फिर सभी सच हैं जो भी चल रहा है। सभी सच हैं। और मन पर जो भी आ रहा है वह सभी ठीक प्रतीत होता है। लेकिन सुबह आप जागते हैं, और जागते से हंसने लगते हैं कि यह सब क्या चला, यह सब सपने में क्या हुआ? मैं कहां-कहां की यात्रा किया, कहां-कहां गया, और पड़ा हूं अपने घर। यह सब झूठा था। यह सब कल्पना थी। यह आपको कैसे पता चला? यह बात आप सपने में भी तो मौजूद थे तब पता क्यों न चली? आप सोए हुए थे, अब आप जाग गए हैं। इतना फर्क पड़ गया है। और इस फर्क ने बुनियादी फर्क ला दिया। जो सपने सच मालूम होते थे वे झूठ मालूम होने लगे। लेकिन जिसे हमें जागरण कहते हैं वह भी पूरा जागरण नहीं है। एक और जागरण है, इसके भी ऊपर एक जागरण है, और जिस दिन वह जागरण किसी को उपलब्ध होता है उस दिन जिस जिंदगी को हम इस जागने में सच समझे हुए थे, जिन विचारों को, जिन सपनों को, वे भी एकदम झूठे मालूम पड़ते हैं। तब ज्ञात होता है कि वह भी एक सपना था। वह भी एक सपने से ज्यादा नहीं था। और चूंकि हम सोए हुए थे इसलिए वह हमें सच मालूम पड़ रहा था, उसमें कोई सच्चाई न थी।
चीन में एक बादशाह, एक ही लड़का था उसका, वह मरणशय्या पर पड़ा था। बूढ़ा बादशाह, एक ही लड़का, वह मरने के करीब है। चिकित्सक इनकार कर चुके कि बच नहीं सकेगा। वह रात भर उसके पास बैठा रहा। दो रात बीत गईं, तीसरी रात आ गई है, शायद आज सुबह नहीं हो सकेगी। लड़के की जिंदगी की ज्योति बुझी-बुझी मालूम होती है। तीन दिन का जागा हुआ राजा, बूढ़ा आदमी, वह उसकी खाट के ऊपर ही सिर रख कर सो गया। सोते ही उसने एक सपना देखा, उसने सपना देखा वह सारे जगत का सम्राट हो गया है। एक छोटे से राज्य का सम्राट था, सपने में देखा सारी पृथ्वी का राजा हो गया। सारी पृथ्वी उसके अंतर्गत है। चक्रवर्ती सम्राट हो गया है। बारह उसके लड़के हैं, बहुत सुंदर, बहुत युवा। बहुत सुंदर उसकी पत्नियां हैं। सब सुंदर है, सब सुखद है, और तभी वह जो सामने लड़का उसका सोया था, मरणासन्न, वह मर गया। महल में रोना-पीटना होने लगा। उसकी पत्नी आई छाती पीट कर चिल्लाई कि उसकी नींद टूट गई। नींद टूट गई तो वह सारा राज्य, वह सपना, सारी पृथ्वी का राज्य, वे बारह सुंदर युवक पुत्र, वे सुंदर रानियां, वे सब समाप्त हो गए। आंख खुली तो देखा कि वह लड़का समाप्त हो गया है।
वह हंसने लगा। उसकी पत्नी हैरान हो गई। उसने कहाः आप हंसते हैं? और लड़का चल बसा। वह बोला मैं किन लड़कों के लिए रोऊं? बारह लड़के और थे, वे भी चल बसे, एक बड़ा राज्य था, वह भी छिन गया। तुमसे बहुत सुंदर पत्नियां थीं, वे अब नहीं हैं। मैं उनके लिए रोऊं या इस एक लड़के के लिए जो चल बसा है? और मजा यह है कि जब मैं सो गया था, तो न यह लड़का मेरे लिए था, न तुम थी, न यह राज्य था। और एक और राज्य था, और लड़के थे, और रानियां थीं। अब जब मैं जाग आया हूं, तो वह राज्य नहीं है, वे लड़के नहीं हैं, वे रानियां नहीं हैं। अब यह लड़का है और तुम हो, और रात मैं फिर सो जाऊंगा। और फिर कोई दूसरे सपने में जाग जाऊंगा। उसने राजा ने कहाः मैं किसके लिए रोऊं यह नहीं समझ पा रहा हूं? इसलिए मुझे हंसी आ गई, क्योंकि जिंदगी में यह पहला मौका है कि मेरे सामने विकल्प खड़ा हुआ है कि मैं किसके लिए रोऊं? उन लड़कों के लिए जो बहुत सुंदर थे और बारह थे, उस राज्य के लिए जो बहुत बड़ा था। या इस लड़के के लिए जो एक था, अकेला था, और इस छोटे से राज्य के लिए, और तुम्हारे लिए, किसके लिए रोऊं?
एक और जागरण है, जहां हम जिंदगी के विचारों के घिरे हुए जाल से और ऊपर उठते हैं। वह जागरण पैदा किया जा सकता है। जागने की निरंतर सतत प्रक्रिया से ही वह जागरण पैदा हो जाता है। हमने जागने की कभी कोई कोशिश नहीं की। कभी आकस्मिक जागने के कोई क्षण आते हैं, आप रास्ते में जाते हो, कोई छुरा लेकर आपके सामने खड़ा हो जाए, एक क्षण को आपके भीतर एक अवेकनिंग पैदा होगी, एक क्षण को आप पूरी तरह जाग जाएंगे, जैसे सारी नींद टूट गई, सारे विचार खत्म हो जाएंगे, सारे सपने छिन जाएंगे, सिर्फ एक तथ्य सामने खड़ा रह जाएगा और आपकी चेतना एक दर्पण बन जाएगी--एक क्षण को। फिर बात खत्म हो जाएगी। कोई घर में मर जाएगा, कोई बहुत प्रियजन, उसकी मृत्यु एक चोट कर देगी, और भीतर एक जागरण फलित होगा, एक क्षण को आप ठिठके रह जाएंगे और फिर सब विलीन हो जाएगा। जिंदगी में कभी-कभी किन्हीं क्षणों में जागरण पैदा होता है, लेकिन इस जागरण को सतत सावधानी से भीतर जगाया जा सकता है। चलते, उठते, बैठते यह पैदा किया जा सकता है।
एक छोटी सी घटना कहूं, उससे मेरी यह बात समझ में आ जाएगी।
जापान में एक राजकुमार को उसके गुरु के घर भेजा गया। भेजा गया था जागरण सीखने के लिए। और जिसके पास भेजा गया था, वह अजीब गुरु था। उसने अपने घर के सामने तख्ती लगा रखी थी कि यहां तलवार चलानी सिखाई जाती है। राजाकुमार बहुत हैरान हुआ। अपने पिता पर उसको हंसी आई, किस गुरु के पास भेजा है जो तलवार चलाना सिखाता है, जागरण से इसका क्या संबंध? उस गुरु के पास गया। उस गुरु ने कहाः आए हो ठीक, लेकिन जल्दी मत करना। जो हम सिखाते हैं वह जल्दी नहीं सीखा जा सकता। और अब तुम मुझसे यह भी मत कहना कभी कि कब सिखाना शुरू करेंगे, कब पाठ शुरू होगा। वह जब मुझे मर्जी आएगी तब पाठ शुरू हो जाएगा। राजकुमार रहा, कुछ दिन बीते, एक दिन अचानक पीछे से गुरु ने आकर लकड़ी की तलवार से उसके ऊपर हमला कर दिया। वह तो घबड़ा ही गया कि यह क्या हो रहा है? यह कैसा पाठ हो रहा है? वह चौंक कर खड़ा हो गया, और उसके सिर में चोट आ गई। उसने कहाः आप यह क्या करते हैं, आपका दिमाग तो ठीक है? उस गुरु ने कहाः पाठ शुरू कर दिया गया है। अब कभी भी, किसी भी वक्त मैं हमला कर दूंगा। तुम्हें तैयार रहना पड़ेगा। तुम होश से रहना। कोई भी वक्त तुम खाना खा रहे हो और हमला हो सकता है; तुम किताब पढ़ रहे हो, हमला हो सकता हैः तुम स्नान कर रहे हो, हमला हो सकता है। कोई भी क्षण, अब तुम्हारी शिक्षा शुरू हो रही है।
यह बड़ी अजीब बात थी, और बड़ी अजीब शिक्षा थी। रोज दिन में दस-पांच दफा हमला होने लगा। हड्डी-पसली उसे लड़के की चोट खाने लगीं। राजकुमार था, कभी ऐसी चोटें खाई भी नहीं थी। न मालूम कब कुछ भी काम करता हो और पीछे हमला हो जाता। लेकिन एक सप्ताह में ही उसे एक नई बात का अनुभव हुआ, भीतर एक तरह की सावधानी तैयार होने लगी। चौबीस घंटे जैसे भीतर कोई सचेत रहने लगा, सतर्क रहने लगा। होता है हमला, अभी हो सकता है, कभी भी हो सकता है, कोई भी क्षण हमला बन सकता है। एक महीना बीतते-बीतते तो वह हैरान हो गया। उसके भीतर कोई बलशाली चेतना खड़ी हो गई। हमला होता था, और हमले के साथ ही उसका हाथ अनजाने उठ जाता, हमले को रोक लेता। अब चोट खानी मुश्किल हो गई थी। जैसे अपने आप सारा शरीर, सारी चेतना हमले से बचाव करने लगी थी। वह काम कर रहा है और पीछे से हमला होता है और हाथ उठ जाएगा और हमला रोक लिया जाएगा। एक महीने तक सतत सावधानी का यह परिणाम हो जाना स्वाभाविक था।
तीन महीने बीत गए अब गुरु को चोट पहुंचानी कठिन हो गई थी। कैसे भी असावधानी के क्षण में हमला किया जाए, सारा शरीर, सारा प्राण रक्षा कर लेता था। तीन महीने बाद गुरु ने कहाः अब सोते में भी सावधान रहना। नींद में भी हमला किया जा सकता है। यह और कठिनाई थी। जागते तो जागते ठीक था, नींद में हमला होगा! और नींद में हमले होने शुरू हो गए। और राजकुमार सो रहा है और कभी भी रात में दो-चार बार गुरु हमला कर देगा। पहले तो उसे बड़ी मुश्किल हुई, चोट फिर पड़ने लगी शरीर पर। लेकिन चेतना एक ही महीने में और गहरी हो गई। नींद में भी कोई जैसे बोध भीतर मौजूद रहने लगा कि हमला हो सकता है। एक मां सोती है, बच्चा रोता है, घर भर के लोगों को पता नहीं चलता, उसका हाथ चला जाता है और बच्चे को समझा लेता है और सुला देता है। शायद उसे भी पता नहीं। लेकिन कोई भीतर एक सावधानी चल रही है। हम इतने लोग सब सो जाएं आज रात और एक आदमी आए और कहे, राम! राम! सारे लोग सोए रहेंगे, जिसका नाम राम है वह आंख खोल कर कहेगा, क्या बात है, कौन बुलाता है? सबके कानों में आवाज पड़ जाएगी राम की, लेकिन बाकी की राम के प्रति कोई सावधानी नहीं है, उस आदमी की है। राम के प्रति उसकी सावधानी है। तो नींद में भी एक चेतना काम करेगी।
एक महीना बीतते-बीतते नींद में भी हमले से रक्षा होने लगी। नींद में भी वह हाथ उठ जाता, नींद में भी वह बचाव कर लेता, सोता हुआ। तीन महीने बीत गए, पूरे छह महीने बीत गए थे। अब तो बड़ी अजीब बात हो गई थी, हमले की तो बात दूर गुरु की पगध्वनि भी सुनाई पड़ जाती। वह आ रहा है इसका भी पता चल जाता, हमला करना तो बहुत दूर। साल बीत गया। उस युवक को अब चोट पहुंचाना कठिन था।
एक दिन झाड़ के नीचे बैठे उसे ख्याल आया कि यह बूढ़ा मुझे काफी चोटें पहुंचा चुका। मैंने कभी ख्याल ही नहीं किया। आज मैं भी तो इस पर हमला करके देखूं। यह भी सावधान है या मुझको ही सावधान बनाए चला जा रहा है। दूर उसका गुरु बैठा था, दूर दरख्त के नीचे, वहीं से गुरु बोलाः ठहर! ठहर! मैं बूढ़ा आदमी हूं, हमला मत कर देना! अभी तो यह बैठा सोच ही रहा था, उसने कहाः ठहर! ठहर!
वह बहुत हैरान हो गया! उसने कहाः मैंने तो सिर्फ सोचा भर है, अभी हमला कहां किया?
गुरु ने कहाः और थोड़े दिन ठहर, जब और तेरी सावधानी बढ़ेगी, तो पगध्वनि नहीं, विचार की भी ध्वनियां भी सुनाई पड़नी शुरू हो जाएंगी। वे भी सूक्ष्म तरंगें हैं। जो उतना सावधान होगा, वह उनके प्रति भी जाग जाता है।
वह सावधानी में दीक्षित होकर वापस लौटा। उसके गुरु ने उसे तलवार चलानी कभी नहीं सिखाई। वापस लौटा, उसके पिता ने कहाः तुम क्या सीख कर आए हो? उसने कहाः एक बड़ी अजीब बात, मैं सावधानी सीख कर आया, लेकिन अब मैं किसी भी तरह के तलवार बाज से जूझ सकता हूं, क्योंकि तलवार चलाने वाला सोचे इसके पहले कि कहां हमला करूं, मेरी सुरक्षा हो जाएगी। अब मैं सावधान हूं। मैंने तलवार चलानी नहीं सीखी, मेरा गुरु अजीब था, उसने मुझे तलवार चलाना कभी मुझे तलवार पकड़नी भी नहीं बताई, उसने कहा, तलवार पकड़ कर क्या करेगा, उससे क्या फायदा है? सवाल तो असल है कि तू जागरूक है तो तेरे ऊपर हमला नहीं हो सकता, हमले के पहले तेरी चेतना बचाव कर लेगी। तू तैयार है।
जीवन में हम सब भी अगर सावधानी से चलना, उठना, बैठना, सोना करने लगें, तो कोई तलवार चलानी सीखने की किसी गुरु के पास जाने की जरूरत नहीं है। अगर हम उठते-बैठते सावधानी का प्रयोग करने लगें, जैसे हमेशा सचेत रहने लगें, जैसे हमेशा इस बात का हमेशा स्मरण बना रहने लगे मैं क्या कर रहा हूं? कैसे उठ रहा हूं? कैसे बैठ रहा हूं? कैसे चल रहा हूं? एक-एक कदम, एक-एक श्वास हमारी होश से चलने लगे, हम उसके प्रति जागे रहने लगें, तो भीतर एक जागरूकता का जन्म निश्चित हो जाता है। और यह जागरूकता एक अदभुत परिणाम लाती है। इस जागरूकता के पैदा होते ही विचारों की भीड़ विदा हो जाती है, सपनों की भीड़ विदा हो जाती है। एक नया जागरण खड़ा हमने जिस चेतना के सामने कोई विचार नहीं टिकता, मन एकदम मौन और शांत हो जाता है, एक साइलेंस, एक मौन, एक शांति उत्पन्न होगी। इसी शांति में, इसी मौन में जाना जा सकता है वह जो है, पहचाना जा सकता है वह जो सत्य है, पहचाना जा सकता है वह जो प्राणों का प्राण है। इसी शांति में, इसी मौन में, इसी जागरूकता में जीवन का अर्थ और कृतार्थता उपलब्ध होगी। मृत्यु के बाहर पहुंच जाता है मनुष्य, दुख और पीड़ा के ऊपर उठ जाता है। और पहली बार परिचित होता है आनंद से, उस आनंद का नाम ही प्रभु है। उस आनंद तक प्रत्येक के लिए जाने का मार्ग है। लेकिन कोई दूसरे का बनाया हुआ मार्ग किसी दूसरे के काम नहीं आ सकता। खुद का मार्ग ही, खुद की जागरूकता का मार्ग ही प्रत्येक को निर्मित करना होता है।
मैंने ये छोटे से तीन सूत्र कहे, इन तीन सूत्रों पर थोड़ा विचार करेंगे, देखेंगे और थोड़ा प्रयोग करेंगे, तो वह जागरूकता का मार्ग आपका बनना शुरू हो जाएगा। और छोटी सी भी जागरूकता पैदा हो जाए, एक आदमी के हाथ में छोटा सा मिट्टी का दीया भी मिल जाए, और घनी अमावस की रात हो, अंधेरी और काली उस छोटे से दीये की जोत में वह हजारों मील की यात्रा कर सकता है। चार कदम तक प्रकाश हो जाता है, वह चार कदम चल लेता है, फिर और चार कदम तक प्रकाश हो जाता है और वह हजारों मील की यात्रा कर लेता है। सारी पृथ्वी की यात्रा एक मिट्टी के दीये से की जा सकती है। अगर आपके भीतर छोटी सी ज्योति भी जागरूकता की जलनी शुरू हो जाए, तो सारे परमात्मा की परिक्रमा की जा सकती है। और प्रत्येक मनुष्य करने में समर्थ है, करना चाहे तो। प्रत्येक मनुष्य मुक्त होने में समर्थ है, होना चाहे तो। प्रत्येक मनुष्य अपने पिंजरे के बाहर आ सकता है। लेकिन समझ ले ठीक से कि कहीं वह खुद ही तो अपने पिंजरे के सींखचों को पकड़े हुए नहीं है।

ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं, इन बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे मैं बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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