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शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-02)

प्रवचन-दूसरा

मन के पार का रहस्य

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

प्यारे ओशो, आकाश में मँडराते हुये ये सुंदर, शुभ्र बादल और हमारा यह अद्भुत सौभाग्य कि आप हमारे बीच उपस्थित हो और हम आपके संग यहां हैं। किंतु ऐसा ‘क्यों’ है?

ऐसे ‘क्यों’ हमेशा ही उत्तररहित होते हैं। जब कभी आप ऐसा ‘क्यों’ पूछते हो, मन हमेशा सोचता है कि उसका कोई उत्तर होगा। लेकिन यह एक बहुत ही भ्रामक कल्पना है। ऐसे किसी ‘क्यों’ का कहीं कोई जबाब नहीं दिया गया है और न ही कभी दिये जाने की संभावना है। यह अस्तित्व बस ‘है’ और इसके बारे में कोई ‘क्यों’ संभव नहीं है। फिर भी यदि तुम पूछते हों और पूछने पर तुले ही हो तो शायद एक उत्तर निर्मित कर सकते हो लेकिन याद रहे कि वह एक निर्मित किया हुआ उत्तर होगा, वह कभी भी असली उत्तर नहीं होगा। ऐसा सवाल पूछना अपने आप में ही असंगत है।

यह इतने सारे वृक्ष हैं, आप नहीं पूछ सकते, ‘क्यों’?
यह आकाश बस ‘है’, आप नहीं पूछ सकते कि ‘क्यों’?
अस्तित्व विद्यमान है, नदियां बहती चली जाती हैं, बादल आकाश में मँडराते हैं, आप नहीं पूछ सकते कि ‘क्यों’?
मैं यह भलीभांति जानता हूँ कि मन पूछता चला जाता हैं कि ‘क्यों’? मन हमेशा उत्सुक रहता है। वह हर चीज के ‘क्यों’ के बारे में जानना चाहता है।
यह मन की एक बीमारी है और वह कुछ इस तरह की है कि इसका कहीं कोई समाधान नहीं है, क्योंकि जैसे ही आप एक क्यों का उत्तर देते हो, तुरंत ही दूसरा क्यों पैदा हो जाता है। प्रत्येक उत्तर सिर्फ और अधिक नयें सवालों को पैदा करता है। और मन तब तक संतुष्ट नहीं होगा जब तक कि आपको आत्यंतिक उत्तर न मिल जाए। और ऐसे आत्यंतिक उत्तर की कोई संभावना नहीं है।
आत्यंतिक से मेरा मतलब है, ऐसा उत्तर कि फिर आप आगे कभी कोई ‘क्यों’ नहीं पूछ पाएंगे। लेकिन ऐसे परिस्थिति की कहीं कोई संभावना ही नहीं है। जो कुछ भी कहा जाता है, उससे यह ‘क्यों’ फिर तर्कसंगत बन जाता है।
 दर्शनशास्त्र का समस्त प्रयास इस ‘क्यों’ को लेकर इसी मूढ़तापूर्ण दिशा में रहा है कि यह जगत क्यों है? इसपर उन्होंने खूब सोचा और फिर एक सिद्धान्त गढ़ा कि ईश्वर ने इसे बनाया, लेकिन फिर ईश्वर ने इसे क्यों बनाया? फिर इसके लिए कोई और सिद्धान्त बना और अंततः प्रश्न उठा कि ईश्वर ही क्यों है?
तो पहली बात तो मन के इस लक्षण को जानना होगा और निरंतर ‘क्यों’ पूछने वाले मन के इस स्वभाव को समझना होगा। पेड़ों में जैसे पत्ते उग आते हैं वैसे ही मन में ये ‘क्यों’ निकल आते हैं। एक को काटो, तो दूसरा निकल आएगा। तुम अनेक उत्तर एकत्रित कर सकते हो लेकिन फिर भी वहाँ कोई उत्तर नहीं होगा। और जब तक उत्तर प्राप्त नहीं होता है, मन बेचैन रहता है, मन खोजता ही चला जाता है। इसलिए पहली बात मैं तुमसे यही कहना चाहता हूँ कि इस ‘क्यों’ पर इतना अधिक जोर मत दो।
हम इस ‘क्यों’ पर इतना अधिक जोर क्यों देते हैं? हम क्यों चाहते हैं कि कारण को जान लें? हम क्यों चीजों की गहराई में जाकर उसके आत्यंतिक आधार को पकड़ना चाहते हैं? वह इसलिए कि अगर आपको प्रत्येक ‘क्यों’ का जवाब मिल गया, अगर आपने हर चीज का उत्तर पा लिया तो आप उसके मालिक बन जाते हो। फिर आप उसे नियंत्रित कर सकते हो। फिर वह वस्तु या तथ्य एक रहस्य नहीं है, वहाँ विस्मय नहीं है, अब कहीं कोई आश्चर्यबोध शेष नहीं रहा। अब तुम उसके बारे में सब जान गए हो। तुमने उसकी रहस्यमयता को मार डाला।
मन हत्यारा है, खूनी है। जो भी रहस्यमयी है, मन उसे समाप्त करने के लिए उत्सुक रहता है। जो कुछ भी मृत है उसके साथ मन हमेशा एकदम विश्रामपूर्ण होता है। किसी भी जीवंत चीज के साथ मन अपने आपको स्वस्थ अनुभव नहीं करता क्योंकि तब वह उसपर पूरी मालकियत नहीं कर पाता। जीवंत चीज हर पल ही नई है और उसके बाबत हम कोई भी भविष्यवाणी नहीं कर सकते, जीवतंता के साथ भविष्य स्थिर नहीं हो सकता। किसी भी जीवंत चीज के संदर्भ में आप अनुमान नहीं लगा सकते कि अगले पल वह कहाँ जाएगी, आपको किस दिशा में ले जाएगी। एक मुर्दा चीज के साथ सब कुछ तय है, पूर्व निर्धारित है। इसलिए आप एकदम विश्रामपूर्ण होते हो। आप उसके बाबत जरा भी चिन्तित नहीं होते। आप एकदम बेफिक्र होते हो।
मन की यह गहन प्रवृत्ति होती है कि वह सब कुछ पहले से ही निर्धारित कर ले, सबकुछ निश्चित कर ले क्योंकि मन जीवन को लेकर बहुत भयभीत है। मन विज्ञान को इसलिए ही निर्मित करता करता है कि जीवन की हर संभावना को नष्ट किया जा सके। मन व्याख्याएं खोजने के प्रयास में लग जाता है और एक बार यदि उसने विश्लेषण कर लिया तो समस्त रहस्य खो जाता है। आप पूछते हो क्यों? जैसे ही उत्तर मिल गया कि बस, मन निश्चिंत हो गया। परंतु तुमने इस ज्ञान के द्वारा क्या पाया? पाया तो कुछ भी नहीं, बल्कि इसके विपरीत तुमने कुछ खोया है, रहस्य-बोध खो दिया है।
यह रहस्यमयता आपको बेचैन करती है क्योंकि यह आपसे कुछ बड़ी, कुछ श्रेष्ठ बात है, कुछ ऐसी जिस पर आपका कोई नियंत्रण नहीं है, जिसे एक विषयवस्तु की तरह आप उपयोग नहीं कर सकते। यह रहस्यमयता आपको वश में कर लेती है, यह आपसे अधिक शक्तिशाली है, इसके समक्ष आप एकदम नग्न और निर्बल हो जाते हो, यह कुछ ऐसी चीज है जिसके सामने आप पूर्णतः मिट जाते हैं।
यह रहस्यमयता आपको मृत्यु जैसा अनुभव देती है इसीलिए हम ‘क्यों’ के बारे में इतनी जांच-पड़ताल करते हैं, यह क्यों और वह क्यों?
लेकिन यह मत सोचो कि मैं तुम्हारे सवाल को नजरअंदाज कर रहा हूँ। मैं इसे टाल नहीं रहा हूँ बल्कि मैं मन के स्वभाव के बारे में तुम्हें कुछ बता रहा हूँ कि मन प्रश्न क्यों पूछता चला जाता है। यदि तुम रहस्य के अनुभव को संभाल कर, उसके साथ बने रहते हो, तो मैं उत्तर देने जा रहा हूँ। यदि इस रहस्यमयता में तुम बने रह सको तो उत्तर देना खतरनाक नहीं होगा बल्कि उपयोगी होगा। फिर तो हर उत्तर तुम्हें एक गहन रहस्यमयता की ओर अग्रसर करेगा। फिर पूरी बात एक अलग ही गुणवत्ता में बदल जाती है। तब तुम इसलिए नहीं पूछते हो कि कोई स्पष्टीकरण मिले बल्कि इसलिए पूछते हो कि तुम उस रहस्यमयता में और गहरे उतर सको। तब यह उत्सुकता, यह खोज केवल मन तक ही सीमित नहीं रह जाती, वह बुद्धिगत नहीं होती। बल्कि वह एक मुमुक्षा बन जाती है, अपने ही अस्तित्व की आत्यंतिक गहराई की तलाश बन जाती है।
देखो, इस अंतर को देखो। यदि तुम केवल व्याख्या के पीछे ही पड़े हो तो यह पूरी तरह से गलत है और मैं आखिरी व्यक्ति होऊंगा जो आपकी इस मंशा को पूरी करूं। फिर तो मैं तुम्हारा दुश्मन बन गया और मैंने तुम्हारे आसपास एक नरक को निर्मित कर दिया। तथाकथित धर्मगुरुओं ने तो परमात्मा तक को मृत बना दिया है। उन्होंने परमात्मा की इतनी व्याख्या की, परमात्मा संबंधी इतने उत्तर उन्होंने दिये हैं कि इसकी वजह से परमात्मा मर गया है। मनुष्यता ने उसे नहीं मारा है, तथाकथित धर्मगुरुओं ने उसकी हत्या की है। उन्होंने उसे इतना परिभाषित कर दिया की कोई रहस्य बचा ही नहीं। उस परमात्मा का क्या मतलब जहां कोई रहस्य ही नहीं है। यदि वह केवल एक सिद्धान्त है तब उसकी चर्चा की जा सकती है, यदि वह कोई उपदेश है तब उसका विश्लेषण किया जा सकता है। यदि वह केवल एक विश्वास मात्र है तब आप उसे स्वीकार या अस्वीकार कर सकते हैं, इन सब में स्पष्टतः आप ही निर्णायक सिद्ध हो रहे हैं, आप उससे बड़े दिखाई पड़ रहे हैं और परमात्मा... वह केवल आपके मन के एक छोटे से हिस्से की भांति हो जाता है, वह एक मृत वस्तु हो गया। जब भी मैं तुम से कोई बात कहता हूँ, तो इस बात का सदैव स्मरण रखना कि मैं तुम्हारी उत्सुकता को दबा नहीं रहा हूं और न ही कोई विश्लेषण या स्पष्टीकरण दे रहा हूँ। तुम्हें कोई बंधा बंधाया उत्तर देने में मुझे जरा भी रस नहीं है। वस्तुतः इसके विपरीत, तुम में अधिक उत्सुकता जगाने के लिए और रहस्यों में अधिक गहरे उतारने के लिए यह मेरा प्रयास है।
मेरा उत्तर तुम्हारे भीतर और अधिक गहरे प्रश्न उठाएगा और एक क्षण ऐसा आयेगा कि जब तुम्हारे सारे प्रश्न गिर जाएंगे। ऐसा नहीं है कि तब तुम्हें सारे उत्तर मिल चुके होंगे, बल्कि तब तुम हर सवाल की व्यर्थता को जान चुके होओगे। ऐसे में केवल रहस्य परिपूर्ण होगा, फिर वह सब तरफ होगा, बाहर भी, भीतर भी। अब तुम उसके एक हिस्से बन गए हो, अब तुम उसमें ही बह रहे हो और अब तुम खुद भी वही रहस्यमयी अस्तित्व हो गए हो, और तभी द्वार खुल जाते हैं।
ठीक, अब मैं उत्तर दे सकता हूँ कि क्यों मैं यहाँ तुम्हारे साथ हूँ और क्यों इस क्षण तुम मेरे साथ हो?

पहली बात यह है कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि तुम यहाँ मेरे साथ हो, तुम पहले भी मेरे साथ रह चुके हो। जीवन के सभी आयाम परस्पर संबंधित हैं और जीवन एक बहती नदी की तरह है। हम इस जीवन को अतीत, वर्तमान और भविष्य में विभाजित कर देते हैं, लेकिन यह विभाजन केवल उपयोगितावादी है। वास्तव में जीवन कहीं भी विभाजित नहीं है। जीवन का यह प्रवाह अखंड है, शाश्वत है। गंगा नदी अपने उद्गम स्थल पर, उसके बाद हिमालय की चोटियों से उतरते हुए, फिर समतल मैदानों से बहते हुए और अंत में सागर में जाकर गिरती हुई गंगा एक ही है। वह समसामायिक है। वह उद्गम और अंत में, वह प्रारंभ और अंत में कहीं भी पृथक नहीं है, वह एक ही सतत् प्रवाह है। वस्तुतः वहां कहीं भी अतीत और भविष्य नहीं है, वहां शाश्वत वर्तमान है। इसे खूब गहराई से समझ लें।
तुम मेरे साथ पहले भी रह चुके हो और तुम अभी भी मेरे साथ हो, यह कोई अतीत का सवाल नहीं है। यदि तुम मौन हो सको, अपने मन को थोड़ा अलग हटा सको, यदि तुम निर्विचार होकर स्वयं में स्थित हो सको, यदि तुम अपनी मौज में मँडराता हुआ एक सफेद बादल बन सको तो तुम जरूर इसे महसूस कर सकते हो कि तुम हमेशा मेरे साथ थे, मेरे साथ हो और मेरे साथ रहोगे। मेरे साथ बने रहने में समय का कोई सवाल ही नहीं है।
किसी ने जीसस से पूछा कि आप अब्राहम के बारे में बात करते हो, आपको उनके बारे में कैसे पता? क्योंकि अब्राहम और जीसस के बीच समय का लंबा फासला है, हजारों साल का फासला है। तब जीसस ने पूर्ण दृढ़ता से, अत्यंत रहस्यमयी जवाब दिया। इसके पहले शायद ही उन्होंने इतनी दृढ़तापूर्वक कोई बात कही हो। उन्होंने कहा, ‘अब्राहम से भी पहले-मैं था।’ अब्राहम के पूर्व मैं मौजूद था। बस, समय समाप्त हो गया।
यह जीवन शाश्वत वर्तमान है। हम सदा से यहीं थे, यहीं हैं, और हमेशा रहेंगे। स्वभावतः भिन्न-भिन्न आकार लिए हुये, भिन्न-भिन्न रूपों में, भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में, पर हम सदा-सदा से यहीं हैं।
एक व्यक्ति-विशेष होना भ्रम के सिवा कुछ नहीं है। यह जीवन विभाजित नहीं है। हम द्वीपों की तरह अलग थलग नहीं हैं, हम एक हैं। और एक बार इस एकता को तुम अनुभव कर सको, तो समय विलीन हो जाता है और स्थान अर्थहीन हो जाता है। अचानक तुम समय और स्थान से परे चले जाते हो। तब तुम्हारा अस्तित्व मात्र होता है, केवल और केवल शुद्धतम रूप में तुम ही बचते हो।
किसी ने भगवान बुद्ध से पूछा, ‘आप कौन हो’
बुद्ध ने कहा, ‘मैं किसी कोटि का नहीं हूँ, मैं बस हूँ। मैं हूँ... लेकिन किसी कोटि का नहीं।’
ठीक अभी तुम्हारे पास भी वह झलक हो सकती है। अगर आप सोच-विचार नहीं कर रहे हो तब आप कौन हो? अब समय कहां है? क्या वहाँ कोई अतीत है? तब क्या कहीं कोई भविष्य है? तब ‘यही’ क्षण शाश्वत हो जाता है। समय की यह प्रक्रिया केवल इसी ‘क्षण’ का- ‘अभी’ का फैलाव है। यह पूरा आकाश इसी ‘स्थान’ का- ‘यहीं’ का फैलाव है।
तो जब तुम पूछते हो कि मैं यहाँ पर क्यों हूँ या तुम यहाँ पर क्यों हो तो कारण इतना ही है कि होने का केवल यही एक ढंग है। मैं बस यहीं पर हो सकता हूँ, अन्य कहीं और हो ही नहीं सकता। आप भी और कहीं न होकर बस यहीं पर हो सकते हो। और इसी प्रकार हम यहाँ पर इकट्ठे हैं।
ठीक अभी तुम इसे देख पाने में सक्षम नहीं हो। यह जोड़ अभी तुम्हारे लिए इतना स्पष्ट नहीं है क्योंकि तुम्हारा अचेतन तुम्हें स्पष्ट नहीं है। अभी तुम स्वयं को समग्रता में नहीं जान पा रहे हो। अपने अस्तित्व का केवल ‘एक बटा दस’ भाग ही तुम्हारे लिए ज्ञात है और ‘नौ बटा दस’ भाग अभी भी अंधकार में है।
तुम उस जंगल की तरह हो जिसका थोड़ा सा भाग साफ कर दिया गया है। जैसे थोड़े से वृक्ष काटकर, रहने के लिए छोटी-सी जगह बना दी गई हो। लेकिन उस छोटी-सी साफ-सुथरी जगह के पार अभी भी एक घना जंगल मौजूद है। तुम्हें उसकी सीमाओं का कोई अंदाज़ा नहीं है। और तुम अंधकार एवं जंगली जानवरों से इतने डरे हुये हो कि तुम अपनी उस छोटी-सी जगह से, उस स्पष्टता से कभी बाहर ही नहीं निकले हो। लेकिन तुम्हारी यह छोटी-सी स्पष्टता उस बड़े घने जंगल का एक हिस्सा मात्र है। तुम्हें पूरी तरह से अपने होने का कुछ पता नहीं है।
मैं तुम्हारे इस पूरे घने जंगल को और पूरे अंधेरे को देख पाता हूँ। और अगर एक व्यक्ति को भी मैं उसकी समग्रता में देख पाता हूँ तो उसमें सब व्यक्ति समाहित हैं क्योंकि यह जंगल अलग थलग नहीं है। उस अंधेरे में सीमाएं कहीं खो जाती हैं, एक दूसरे में विलीन हो जाती हैं और एक हो जाती हैं।
अभी आप यहाँ पर हो, अगर मैं एक ही व्यक्ति के प्रति पूरी तरह केन्द्रित हो जाता हूँ, तो मैं अपने ही प्रति एकाग्र हो रहा हूँ। लेकिन फिर भी इस एकाग्रता के बावजूद, मैं आप सब की सीमाओं को एक दूसरे में लय होते हुये निरंतर महसूस करता हूँ। तो एक विशिष्ट अभिप्राय लेकर मैं भले ही आपको एक अलग व्यक्ति की तरह देखूं, लेकिन ऐसा हरगिज नहीं है। जब मैं कहीं पर भी केंद्रित नहीं हूँ, तो मैं तुम पर केन्द्रित हुये बिना, बस केवल तुम्हें देख रहा हूँ, केवल देखना मात्र... तो आप कहीं पर भी होते ही नहीं हो। आपकी सब सीमाएं दूसरों में घुलमिल जाती हैं, केवल मनुष्य जाति में ही नहीं बल्कि पेड़ और पहाड़ और आकाश और हर चीज के साथ। सभी सीमाएं केवल एक भ्रम हैं इसलिए एक व्यक्ति भी भ्रम के सिवा कुछ भी नहीं है।
मैं यहाँ हूँ क्योंकि मैं कहीं और हो ही नहीं सकता। जीवन के होने का यही ढंग है। आप यहाँ हो, क्योंकि आप भी यहीं हो सकते हो, और कहीं नहीं। सबके साथ इसी ढंग से जीवन घटित हुआ है। लेकिन इसे स्वीकार करना कठिन है, क्यों कठिन है स्वीकार करना? क्योंकि फिर नियंत्रण आपके हाथ में नहीं रहता है। जीवन आप से ऊपर हो गया, बड़ा हो गया।
अगर मैं कहूँ कि तुम यहाँ इसलिए हो क्योंकि तुम सत्य के एक महान खोजी हो तो तुम एकदम सुकून महसूस करोगे। अगर तुम यहाँ हो क्योंकि तुम महान खोजी हो तो तुम्हारे अहंकार की पुष्टि हो गयी। यदि चुनाव तुम्हारे हाथ में है तो फिर तुम जो चाहो वह हो सकते हो। फिर चुनाव करनेवाले तुम ही हो। फिर तुम जीवन से नियंत्रित नहीं, अपितु जीवन के नियंत्रणकर्ता हो।
लेकिन मैं ऐसा नहीं कहता हूँ। मैं कहता हूँ कि आप यहाँ हो क्योंकि जीवन इसी ढंग से घटित हुआ है। आप इसे नहीं चुन सकते, यह आपका चुनाव नहीं है। फिर अगर आप इसे छोड़ते भी हो तो भी यह आपका चुनाव नहीं है। पुनः यह जीवन के ऐसे ही घटित होने का कोई ढंग होगा। आप अगर यहाँ पर बने ही रहने का निर्णय लेते हो तब भी यह आपका चुनाव नहीं है। चुनाव संभव ही नहीं है। चुनाव केवल अहंकार के साथ ही संभव है। जब हमारे अहंकार को पोषण नहीं मिलता है तब हम चिन्तित और परेशान हो जाते है। तब सहज होने के दो मार्ग हैं : एक तो यह कि अहंकार को पुष्ट करते जाओ और दूसरा यह कि उसे छोड़ दो। और ख्याल रहे कि पहला तात्कालिक है, कामचलाऊ है, अस्थाई है। जितना आप आप अहंकार को भरते हो, वह और-और मांगता चला जाता है और उसका कहीं कोई अंत नहीं है।
इसीलिए मैं कहता हूँ कि जीवन बस इस ढंग से घटित हुआ है कि आप यहाँ हो और मैं यहाँ हूँ। और ऐसा पहले भी कई बार घट चुका है और ऐसा ही निरंतर घटित होता रहेगा। अगर आप इसे ठीक से समझ सकते हो तो बहुत कुछ तत्काल ही संभव है। यदि आप इस बात को समझते हो तो आप और अधिक खुले, कम संकुचित, अधिक सहनशील और अधिक ग्रहणशील हो जाते हो। फिर आप भयभीत नहीं हो और जीवन आप के माध्यम से और अधिक प्रवाहित होगा। तब बस ठंडी हवा का एक झोंका हो आप। आप एक खाली स्थान हो गए हो जिससे कि जीवन आ रहा है, जा रहा है और आप उसे सहजता से गुजर जाने देते हो। यह गुजर जाने देना ही असली कुंजी है, रहस्यों का रहस्य है।
इसीलिए मेरा इस बात पर जोर है, आग्रह है कि आपका यहाँ पर होना, आपकी ओर से कोई चुनाव की बात नहीं है। मैं यहां पर हूँ इसमें मेरे चुनाव की कोई बात ही नहीं है। जहां तक मेरा संबंध है तो चुनाव का कोई सवाल ही नहीं उठता क्योंकि मैं तो हूँ ही नहीं। जहां तक आपका संबंध है आप इस भ्रम में हो सकते हो कि आप यहाँ अपने निर्णय से हो। पर ऐसा हरगिज नहीं है।
मैं तुम्हारे अहंकार को भरनेवाला नहीं हूँ क्योंकि उसे तो नष्ट करना है। यही तो सारा प्रयास है कि कैसे तुम्हारी सीमाएं नष्ट की जाएं क्योंकि जैसे ही यह सीमाएं खो जाएंगी तुम असीम हो जाओगे, तब तुम अनंत हो और यह ठीक इसी क्षण संभव है। उसमें कहीं कोई बाधा नहीं है, केवल तुम ही बाधा बने हुए हो, अपनी सीमाओं से चिपके हुए हो।
मेरे पास अनेक लोग आकर पूछते हैं कि क्या हम पहले भी आपके साथ रह चुके है? अगर मैं हाँ कहता हूँ तो उनको बहुत अच्छा लगता है। अगर मैं ना कह दूँ तो वे बहुत निराश, बहुत दुखी हो जाते है। क्यों? हम भ्रम में जीते हैं। तुम यहाँ पर, अभी मेरे साथ हो यह इतना महत्त्व पूर्ण नहीं है। तुम अतीत में मेरे साथ थे यह तुम्हें ज्यादा महत्त्वपूर्ण लगता है। और यह क्षण तुम गँवा रहे हो जबकि तुम सही अर्थों में, अभी इसी पल मेरे साथ जी सकते हो। क्योंकि मेरे साथ होना केवल एक शारीरिक घटना नहीं है। हो सकता है कि तुम मेरे बगल में मेरे साथ बैठे हो परंतु संभव है कि तुम उस समय मेरे साथ हो ही नहीं। आप सालों मेरे साथ होते हुए भी, हो सकता है कि एक क्षण के लिए भी मेरे साथ ना रहे हों क्योंकि मेरे साथ होने का मतलब है कि ‘आप हो ही नहीं’।
मैं नहीं हूँ और यदि एक क्षण के लिए तुम भी नहीं होते हो तो मिलन संभव है, वहां एक गहरा मिलन होगा- दो शून्यताएं मिलती हैं। याद रहे कि केवल दो शून्यताएं ही मिल सकती हैं। अन्य कोई मिलन संभव ही नहीं है। जब कभी मिलन होता है तब दो शून्यताएं ही एक दूसरे में घुल-मिल जाती हैं।
अहंकार बहुत ठोस है, सघन है और उसका विलय हो पाना सर्वाधिक कठिन है। इसलिए आप बहुत लड़ते हो, संघर्ष करते हो, पर फिर भी मिलन संभव नहीं हो पाता। आप ऐसा सोच सकते हो कि यह संघर्ष दो अहंकारों का ही मिलन है। यह भी एक तरह का मिलना है। आप एक दूसरे के करीब आ सकते हो लेकिन कभी करीब हो नहीं पाते। आप मिलते हो फिर भी मिलन नहीं होता। आप एक दूसरे का स्पर्श भी करते हो फिर भी अस्पर्शित ही रह जाते हो। आपका अंतःस्तल, आंतरिक शून्यता कोरी की कोरी रह जाती है, उसके भीतर कुछ भी प्रवेश नहीं कर पाता है।
लेकिन जब अहंकार नहीं होता, आप अपने ‘मैं’ को सघनता से अनुभव नहीं करते हो, जब आप अपने बारे में बिल्कुल ही नहीं सोचते हो, जब वहाँ आपकी अपनी कोई सत्ता ही नहीं होती, उसे ही भगवान बुद्ध ‘अनत्ता’ कहते हैं : कोई सत्ता नहीं। लेकिन इस बात को बहुत गलत समझा गया। भारत में लोग ‘आत्मा’ कि बात कर रहे थे, ‘स्व’ की, परम तत्व की बात कर रहे थे। प्रत्येक व्यक्ति उस परम तत्व की खोज में लगा था कि कैसे उस परम को पाया जा सके और फिर बुद्ध आते हैं और कहते हैं कि वहाँ पाने के लिए कोई ‘स्व’ ही नहीं है, उल्टे आप बिना किसी ‘स्व’ के हो रहो। उनके उपदेश को स्वीकार करना संभव ही नहीं था। भगवान बुद्ध को इस देश से बाहर कर दिया गया। उन्हें कहीं भी स्वीकार नहीं किया गया। एक बुद्ध पुरूष को हमेशा ही बाहर धकेल दिया जाता है। जहां कहीं भी वे जाएंगे, उनको बाहर धकेल दिया जाएगा क्योंकि वे आप पर इतनी गहरी चोट करते हैं कि उसे सह पाना आपके लिए संभव नहीं हो पाता। वे कहते हैं कि आप हो ही नहीं।
आप जब खाली हो, जब भीतर केवल एक रिक्तता विद्यमान हो, तब मिलन होता है। जो भी खाली होने की क्षमता रखता है केवल वही लीन हो सकता है। अस्तित्व के साथ एक होने का केवल यही एक मार्ग है। तुम इसे प्रेम कह सकते हो, तुम इसे प्रार्थना कह सकते है, ध्यान कह सकते हो या जो भी नामकरण तुम्हें अच्छा लगे, वह कर सकते हो।
तुम यहाँ हो क्योंकि जीवन ऐसा ही घटित हुआ है। मैं यहाँ पर हूँ क्योंकि मेरे साथ जीवन इसी ढंग से घटित हुआ है। तुम्हारा मेरे साथ होना उपयोगी हो सकता है या इसका दुरुपयोग भी संभव है या यह बिल्कुल ही निरर्थक हो सकता है और इससे पूर्णतया चूकना भी हो सकता है। यदि आप चूक रहे हो तो यह भी पहली बार नहीं घट रहा है। आप पहले भी मेरे साथ कई बार रह चुके हो। ऐसा नहीं है कि मेरे ही साथ, कई बार आप किसी अन्य बुद्ध पुरूषों के साथ रह चुके होंगे लेकिन वह भी मेरे साथ रहना ही है। कई बार आप किसी जिन अथवा महावीर के साथ रह चुके होंगे, वह भी मेरे साथ होना ही है। कई बार आप जीसस या मोजे़स या लाओत्से के आसपास रहे होंगे, वह भी मेरे साथ होना ही है। लाओत्से या कोई भी बुद्ध पुरूष, इनको किसी भी तरह से परिभाषित नहीं किया जा सकता क्योंकि शून्यता का कोई भिन्न लक्षण नहीं होता, दो शून्यताओं में कोई अंतर, कोई अलग विशेषता नहीं होती।
यह हो सकता है कि तुम लाओत्से के साथ थे और मैं कहूँ कि तुम मेरे साथ थे क्योंकि वहां कुछ भी तो अलग नहीं है। लाओत्सु केवल एक रिक्तता है। दो शून्यताएं बिल्कुल एक जैसी होती हैं। तुम उनमें लेशमात्र भी भेद नहीं कर सकते। लेकिन तुम चूक गए, तुम कई बार चूकते रहे हो, तुम इस बार फिर से चूक सकते हो।
और याद रहे, तुम होशियार हो, चालाक हो, हिसाब-किताब खूब बेहतर जानते हो। यदि तुम चूक भी जाते हो तो अपनी चालाकी से, अपनी बुद्धिमानी से ही चूकोगे। तुम अपने चूकने को भी तर्कसंगत बनाने की चेष्टा करोगे, प्रमाण सहित उसे सिद्ध करोगे, कहोगे कि वहाँ पाने को कुछ था ही नहीं या फिर कोई ऐसा तर्क खोज लोगे जो वास्तविकता को ढांक लेगा। अगर तुम इस चूक जाने की संभावना के प्रति जाग जाते हो तो मिलन तत्क्षण संभव है। और मैं कहता हूँः तुरंत... तत्क्षण... तत्काल! अतः इसे भविष्य पर टालने की या स्थगित करने की कोई जरूरत ही नहीं है। और यह सूचक है कि जीवन इस तरह घटित हुआ है कि आप यहाँ पर हो। करोड़ो लोग हैं यहां, पर उनका जीवन इस ढंग से नहीं घटा है। आप भाग्यशाली हो पर इसे अपने अहंकार का भोजन मत बनाना क्योंकि अगर आपके अहंकार ने स्वयं को पुष्ट किया और वह मजबूत हो गया तो आप इस सौभाग्य से चूक जाओगे। आप सौभाग्यशाली हो, पर यह एक खुली संभावना है। इसमें आप आगे बढ़ सकते हो या इसे आप छोड़ भी सकते हो पर यह दुर्लभ है और कई कारणों से यह दुर्लभ है।
पहली बात कि किसी ऐसे व्यक्ति की ओर आकर्षित होना बहुत ही कठिन मामला है जो शून्य हो, क्योंकि शून्यता में कोई चुम्बकीय शक्ति नहीं होती है। तुम ऐसे व्यक्तियों से प्रभावित होते हो जिनके पास कुछ है, जिनसे कुछ लिया जा सकता है। हम ऐसे व्यक्ति से क्यों आकर्षित होते हैं जिनसे कुछ मिल सके? क्योंकि हमारी भी अपनी कामनाएँ हैं। हम भी चाहते हैं कि हमें कुछ मिल जाए।
तुम राजनीतिज्ञों से प्रभावित होते हो क्योंकि उनके पास सत्ता है, शक्ति है। तुम भी बहुत गहरे में वह सत्ता, वह शक्ति चाहते हो, तुम भी उसी दिशा की ओर उन्मुख हो। इसी कारण, जिसके पास ऐसी ताकत होती है वह तुम्हारा आदर्श बन जाता है, नायक बन जाता है। तुम किसी बहुत ही समृद्ध और संपन्न व्यक्ति की ओर आकर्षित होते हो क्योंकि बहुत गहरे में तुम भी धन और समृद्धि की लालसा रखते हो। इसी कारण, समृद्धिशाली एवं संपन्न लोग तुम्हारा आदर्श बन जाते हैं। लेकिन किसी ऐसे व्यक्ति की ओर कोई कैसे और क्यों आकर्षित होगा जिसके पास कुछ भी नहीं है?
ऐसे शून्य व्यक्तित्व की तरफ आकर्षित होना एक दुर्लभ संभावना है, संयोग है, और वास्तव में यही है असली सौभाग्यशाली होना। कभी-कभी जीवन इस ढंग से भी घटता है कि आप एक ऐसे व्यक्ति की और आकर्षित होते हो जिसके पास कुछ भी नहीं है, जो शून्य है। उससे आपको कुछ भी मिलने वाला नहीं है इसके विपरीत आपके पास जो है वह सब भी छिन जाने की संभावना है। यह एक जुआ है और तुम सब जुआरी हो और इसीलिए यहाँ पर हो। और जब तक पूरे कुशल जुआरी नहीं हो जाते, चूक जाओगे क्योंकि यह दांव टुकड़ों में नहीं खेला जा सकता, इस विराट खेल में आधा-अधूरा और पक्षपात से भरा दांव स्वीकार नहीं किया जा सकता। अस्तित्व के खेल का ऐसा ही नियम है। इसलिए कुछ भी पकड़ के मत बैठो, जो कुछ भी है तुम्हारे पास, सब दे डालो, प्रत्येक वस्तु दांव पर लगा दो। यह खेल खतरनाक और जोखिम भरा है। इसीलिए मैंने कहा है कि किसी भी बुद्ध या जीसस से प्रभावित होना दुर्लभ घटना है। बहुत ही कम लोग इनसे आकर्षित होते हैं।
आपको जीसस के बारे में पता है। बहुत थोड़े से... केवल बारह शिष्य और वह भी बहुत ही सामान्य लोग- मछुआरे, लकड़हारे, कुछ किसान, किसी भी अर्थों में कोई प्रसिद्ध व्यक्ति नहीं थे, बहुत ही सामान्य लोग थे। क्यों ऐसे सीधे-सादे लोग, सामान्य लोग बुद्ध या जीसस की ओर आकर्षित हुये? सामान्य होना एक असामान्य गुणवत्ता है। क्योंकि जो लोग सामान्य नहीं हैं वे संपत्ति, शक्ति या प्रतिष्ठा के लिए किसी अहंकार की यात्रा पर गतिमान होते हैं।
एक किसान, एक मछुआरा, एक लकड़हारा- ये लोग बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति नहीं हैं, बिल्कुल ही सामान्य लोग, जो कुछ भी पाना नहीं चाहते थे, ऐसे लोग जीसस की ओर आकर्षित हो गए। सामान्य होना बहुत ही दुर्लभ है। बिल्कुल सामान्य हो जाना वास्तव में असामान्य घटना है।
लोगों ने झेन सदगुरुओं को हमेशा ही ऐसा कहते हुए सुना है : ‘सामान्य बने रहो, साधारण बने रहो और तब तुम असाधारण हो जाते हो’। हर सामान्य व्यक्ति असामान्य होने की कोशिश में लगा हुआ है। यह बहुत सामान्य सी बात है। सरल-साधारण बने रहना ही असामान्य घटना है। इसका मतलब है कि किसी भी चीज की कोई खोज नहीं, कुछ पाने की कोई इच्छा नहीं। जीवन किसी लक्ष्य से प्रेरित नहीं है... बस क्षण-क्षण जीते हुये, बस बहे जा रहे हो। वही जो मैं आपसे कह रहा हूं, सफेद बादलों की तरह बस मंडरा रहे हो।
आपका यहाँ पर होना एक दूसरे अर्थ में भी दुर्लभ है क्योंकि मनुष्य का मन हमेशा मृत्यु से भयभीत रहता है। वह जीवन से चिपका रहना चाहता है, जीवन के लिए लालायित रहता है। कितना भी दुख हो वह जीवन से जकड़ा हुआ रहता है, मृत्यु के प्रति एक गहरा भय होता है। परंतु जब कोई व्यक्ति मेरे पास आता है तो वास्तव में वह मिट जाने के लिए आता है, खोने के लिए ही आता है। मैं उसके लिए एक गहरी खाई, एक अतल घाटी हूँ जिसमें वह गिर जाएगा... गिरता जाएगा... और फिर भी कहीं पहुंचेगा नहीं।
यदि तुम मेरे अंदर झाँकते हो तो तुम संभ्रमित हो जाओगे, एक भंवर से आक्रांत हो जाओगे, तुम्हें चक्कर आने लगेंगे। अगर तुम मेरी आँखों में लगातार देखोगे तो वह अतल खाई दिखेगी और एक डर आपको पकड़ लेगा और वह गिरना... बस गिरते ही जाना... ! जरा सोचो कि एक पत्ता गहरी खाई में गिरता ही जा रहा है, और वह खाई अनंत है और अतल है और वह पत्ता कहीं नहीं पहुँच रहा है, वह केवल लुप्त हो रहा है। गिरना... गिरते ही जाना... और फिर अंततः वह पत्ता बस खो जाएगा।
आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत तो होती है लेकिन उसका अंत कभी नहीं होता। तुम मेरे पास आओ, मेरे भीतर गिर जाओ, मुझमें समा जाओ, बस मुझमें खो जाओ। ऐसे में तुम मिट जाते हो, पर कहीं पहुँचते नहीं हो। लेकिन यह मिट जाना ही आनंदपूर्ण है। ऐसा आनंद जो इससे पहले कभी अनुभव नहीं किया गया। और वास्तव में कुछ भी इतना आनंदपूर्ण नहीं है जितना कि यह पूर्ण रूप से खो जाने का आनंद! जैसे सुबह की ओस की बूंद सूरज निकलते ही विलुप्त हो जाती है या फिर जैसे रात्रि में दीपक की ज्योति जल रही है और हवा का झोंका आता है, वह ज्योति बुझकर अंधेरे में ही खो जाती है और आप उसे ढूंढ नहीं पाते कि वह कहां लुप्त हो गयी। बस, इसी तरह तुम भी खो जाते हो।
ऐसा आत्मघात मुश्किल से ही कहीं खोज पाओगे। यह आत्मघात है, सही मायने में आत्मघात ही है। तुम अपने शरीर को कहीं भी, कैसे भी समाप्त कर सकते हो पर अपने ‘स्व’ को, अपने ‘होने’ को, ऐसे ही नहीं मिटा सकते। यहाँ तुम अंतिम आत्मघात के लिए, अपनी निजता को मारने के लिए तैयार हो जाते हो, अपने ‘स्व’ को ही समाप्त कर देते हो।
लेकिन इसकी व्याख्या करने का कोई प्रयास मत करना। यह सब विश्लेषण करने या व्याख्या करने की कोटि में समाता ही नहीं है। मैं हमेशा ही व्याख्या करने के विरोध में रहा हूँ। यह रहस्य यदि तुम्हें और अधिक रहस्यमयी बना देता है, ज्यादा अनिश्चित और ज्यादा अस्थिर बना देता है तो यही बेहतर होगा। यदि तुम्हारा मन धुंए में खो जाता है और तुम समझ ही नहीं पाते कि कौन क्या है? सीमाएं खत्म हो जाती हैं तो यही सर्वश्रेष्ठ स्थिति है।

दूसरा प्रश्नः
ओशो! जैसा कि सभी बादलों के साथ होता है, श्वेत बादल भी हवा के द्वारा निर्देशित होते हैं। आज की वर्तमान परिस्थितियों में हवा की दिशा क्या है? क्या इस जीवन-अवधि में कोई विशिष्ट संभावनाएं हैं?

श्वेत बादल हवा के द्वारा निर्देशित नहीं होते हैं। दिशा निर्देश देने की घटना केवल तभी घटती है जब कहीं कोई अवरोध उत्पन्न होता है। यदि श्वेत बादल पूरब की ओर जाना चाहते हैं और हवा पश्चिम की ओर बहती है, तब वहां निर्देशन होता है : क्योंकि वहां अवरोध है। लेकिन यदि बादल कहीं भी नहीं जा रहा है, उसके लिए पूरब और पश्चिम समान है, उसके लिए कोई भी अवरोध नहीं है। यदि बादल की ओर से अपनी कोई चाह नहीं है तो हवा उसे निर्देशित कर ही नहीं सकती।
तुम केवल तभी निर्देश दे सकते हो, जब कोई व्यक्ति बहने को तैयार न हो, विश्राम करने और तथाता में जाने को तैयार न हो। परंतु बादल की प्रवृत्ति तो पूर्णतः स्वयं को मुक्त कर देने की होती है। यदि हवा पूरब की ओर बहती है तो बादल तैयार है, वह पूरब की ओर गतिशील होने को ही तैयार है। वहां ‘न’ करने जैसा विचार ही नहीं है, वहां अस्वीकार का ख्याल ही नहीं है। यदि बादल पश्चिम की ओर जा रहा था और हवा पूरब की ओर बहना शुरू हो गई हो तो बादल अत्यंत सहजता से और प्रसन्नता से पूरब की ओर बहने लगता है। हवा उसे बिल्कुल भी निर्देशित नहीं कर रही है। निर्देशन केवल तभी आवश्यक होता है जब कोई व्यक्ति किसी तरह के विरोध में हो।
लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं : ‘हमें कोई निर्देश दीजिए।’ मैं जानता हूं कि वे क्या कह रहे हैं, उनका आशय होता है : ‘हमें मार्गदर्शन दीजिए।’ मैं यह भलीभांति जानता हूं कि वे क्या कह रहे हैं। दरअसल वे तैयार नहीं हैं अन्यथा निर्देशित किए जाने और मार्गदर्शन देने की आवश्यकता ही क्या है?
यह पर्याप्त है कि तुम यहां मेरे साथ हो और प्रत्येक चीज़ स्वभाविक रूप से घटेगी।
हवा पूरब की ओर चल रही है और तुम भी पूरब की ओर बहना शुरू कर देते हो, लेकिन फिर भी तुम कहते हो- ‘मार्गदर्शन दीजिए’, फिर भी तुम कहते हो- ‘निर्देश दीजिए’। जब तुम जानते हो कि मुझे बस बहना ही है... बावजूद इसके यदि तुम पूछते हो तो इसका अर्थ है कि तुम स्वयं ही यह कह रहे हो कि तुम विरोध में हो, तुम्हारे पास इंकार है, तुम्हारे पास अस्वीकृति है और तुम संघर्ष करोगे। यदि बादल की ओर से अपनी कोई भी चाह नहीं है तो तुम यह अंतर करोगे कैसे कि कौन बादल है और कौन हवा है? जब चाह ही नहीं होती है तो सीमा का वजूद भी नहीं होता है।
इसे स्मरण रखो, इसे तुम्हारी बुनियादी समझ बन जाना चाहिए कि तुम्हारे और मेरे बीच जो भी फासला है, जो भी सीमा है, वह तुम्हारी कामना के कारण है। तुम अपनी किसी चाहत के द्वारा चारों ओर से घिरे हुए हो और जब मैं आता हूं तब एक संघर्ष आरंभ होता है। एक बादल के पास कोई भी कामना नहीं होती, इसलिए सीमा का सवाल ही कहां है? बादल का अंत कहां है और कहां से हवा शुरू हो रही है? बादल और हवा एक ही हैं। बादल, हवा का एक भाग है और हवा, बादल का एक भाग है। मूलभूत सत्ता अविभाजित है, एक ही है।
हवा सभी दिशाओं में बहती रहती है, इसलिए दिशा को चुनने की कोई समस्या ही नहीं है। समस्या यह है कि बादल कैसे बना जाए? हवा सभी ओर बहती चली जाती है, वह सर्वत्र गतिशील होते हुए दिशाएं बदलती है। वह हमेशा एक छोर से दूसरे छोर की ओर दौड़ती ही रहती है। वास्तव में हवा की कोई दिशा नहीं है, वहां कोई भी नक्शा नहीं है और सबकुछ दिशाहीन है। कोई भी हवा को निर्देश देने वाला नहीं है, हवा से कोई यह नहीं कहता कि पूरब की ओर बहो या पश्चिम की ओर बहो। हवा को संपूर्ण अस्तित्व तरंगित करता है। हवा एक स्पंदित, एक तरंगायित अस्तित्व है और सभी दिशाएं, समस्त निर्देश उसमें समाहित हैं। और जब मैं कहता हूं कि सभी दिशाएं तो मेरा मतलब ठीक और गलत दोनों दिशाओं से है, मेरा मतलब नैतिक और अनैतिक दोनों ही दिशाओं से है। जब मैं कहता हूं कि सभी दिशाएं तो मतलब- सभी; यहां मेरा आशय सभी दिशाओं से है। हवा सभी दिशाओं में उन्मुक्त होकर बहती है। हमेशा से ही ऐसा हो रहा है।
इसलिए स्मरण रहे, कभी भी विशेष रूप से कोई धार्मिक युग या कोई अधार्मिक युग नहीं रहा है और वह हो भी नहीं सकता। लोग ऐसा सोचते हैं, क्योंकि वह भी उन्हें अहंकार की यात्रा पर ले जाता है। भारत में लोग सोचते हैं कि प्राचीन दिनों में, प्रारंभ के दिनों में, पृथ्वी पर एक बड़ा ही धार्मिक युग था और अब इस युग में प्रत्येक वस्तु विकृत हो गई है और यह सर्वाधिक अंधकारमय युग है। यह सभी मूर्खतापूर्ण और व्यर्थ की बातें हैं। कोई युग, कोई समय धार्मिक या अधार्मिक नहीं होता है। धार्मिकता का समय के चक्र के साथ कोई संबंध नहीं होता, धार्मिकता का संबंध तो मन की गुणवत्ता के साथ होता है।
इसलिए प्रश्न यह नहीं है कि यदि बादल पूरब की ओर जा रहा है, तब वह धार्मिक होगा और यदि वह पश्चिम की ओर जा रहा है तो वह अधार्मिक होगा। नहीं, यदि बादल के पास कोई चाह शेष नहीं है तो बादल धार्मिक ही है, चाहे वह कहीं भी, किसी भी ओर जाता है और यदि बादल के पास कोई चाह है, कोई कामना है, तब वह जहां कहीं भी जाता है वह अधार्मिक होगा।
वैसे दोनों तरह के बादल मौजूद हैं : ऐसे बादल बहुत कम संख्या में हैं जो कामनारहित हैं, अन्यथा लाखों की संख्या में तो वे ही बादल हैं जिनके पास इच्छाएं, कामनाएं, धारणाएं और विचार प्रचुरता में हैं। वे हवा के साथ संघर्ष करते हैं। वे जितना अधिक संघर्ष करते हैं, उतना ही अधिक दुख उत्पन्न हो जाता है। यह संघर्ष उन्हें कहीं भी नहीं ले जाता, कोई मंज़िल नहीं मिलती, क्योंकि इस बारे में कुछ किया ही नहीं जा सकता। तुम संघर्ष करो अथवा न करो, किसी भी स्थिति में यदि हवा तुम्हें पूरब की ओर ले जाती है तो तुम्हें पूरब की ओर ही जाना ही होगा। तुम केवल एक धारणा बनाकर अपने को आश्वासन मात्र दे सकते हो कि अब तक तुम ही संघर्ष करते रहे हो और तुम एक महान योद्धा हो। बस सारा मामला यही है।
 जो भी यह सारा मामला समझ जाता है, वह लड़ना बंद कर देता है। वह अपने को बचाने के लिए तैरने का प्रयास भी नहीं करता, बस वह सहजता और सरलता से धारा के साथ बहता चला जाता है। इस बहती धारा का प्रयोग वह एक वाहन की भांति करता है, वह उसके साथ तालमेल बिठाना जान जाता है और बहाव के साथ एक हो कर, उसके साथ ही गतिशील हो जाता है। इसे ही मैं समर्पण कहता हूं और इसे ही प्राचीन धर्मग्रंथों ने एक भक्त की भावदशा कहा है। जब तुम समर्पण कर देते हो तो तुम बचते ही नहीं हो, तुम होते ही नहीं हो। तब हवा तुम्हें जहां कहीं भी ले जाए, तुम वहीं जाओगे। तुम्हारी अपनी कोई भी इच्छा बाकी नहीं रहती है। सदा से ऐसा ही होता रहा है।
अतीत में जो बुद्ध हुए, वे विलुप्त होते और बहते हुए श्वेत बादलों की भांति थे। वर्तमान में भी जो बुद्ध मौजूद हैं वे इन बहते हुए श्वेत बादलों जैसे हैं। अतीत में कुछ विक्षिप्त काले बादल थे जो इच्छा, कामना और वासना से भरे थे, वे भविष्योन्मुखी थे। वे आज भी हैं। इच्छा और कामना के साथ तुम भी एक काले बादल ही हो- दारूण और बोझिल। परंतु बिना इच्छा और बिना किसी कामना के तुम एक श्वेत बादल हो- भारहीन श्वेत बादल। इन दोनों ही तरह के बादल होने के लिए संभावना हमेशा खुली रहती है। यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम सहज-स्वभाविक स्थिति में स्वयं को लुप्त होने की अनुमति देते हो या नहीं।
समय और युग के बारे में मत सोचो। समय और युग अपने आप में उदासीन होते हैं, वे निष्पक्ष होते हैं। वे किसी को भी एक बुद्ध बनने के लिए विवश नहीं करते और न ही वे किसी को बुद्ध बनने से रोकते हैं। समय और युग वस्तुतः तटस्थ होते हैं। यदि तुम स्वयं को खाली होने देते हो तो वह स्वर्ण-युग है। यदि तुम स्वयं को अत्याधिक कामनाओं से भर लेते हो तो वह संभवतः अंधकार भरा युग अर्थात कलियुग है। तुम अपने चारों ओर अपना एक समय और अपना एक युग सृजित कर लेते हो। तुम अपने ही बनाए हुए इस युग और समय में रहते हो।
स्मरण रहे, इस तरह से हम सब समकालीन नहीं हैं। जीसस जैसा व्यक्ति प्राचीन है, वह ठीक यहां भी हो सकता है लेकिन वह अति प्राचीन है। वह इतनी समग्रता से उस शाश्वतता के साथ जिया है कि तुम उन्हें आधुनिक नहीं कह सकते। वह इतनी समग्रता से उपस्थित हैं कि तुम उन्हें किसी कालखण्ड का हिस्सा नहीं कह सकते। वह इस लौकिक संसार की सज-धज और निरंतर बदलने वाले प्रचलनों का हिस्सा कदापि नहीं हैं। असीम, अखण्ड और परम तत्व के साथ रहते हुए तुम भी असीम, अखण्ड और पूर्ण हो जाते हो। शाश्वत के साथ रहते हुए तुम भी शाश्वत हो जाते हो। समयातीत के साथ रहते हुए तुम भी समयातीत हो जाते हो।
लेकिन एक दूसरे अर्थ में यह प्रश्न प्रासंगिक है। पूरे संसार-भर के लोग यही सोचते हैं कि एक विशिष्ट युग, एक विशिष्ट समय, एक विशिष्ट चरम अवस्था और एक प्रगतिशाली युग, एक उत्तरोत्तर युग निकट आ रहा है, जैसे किसी चीज का विस्फोट होने जा रहा है, जैसे मानो मनुष्य के विकास के क्रम में मानव-जाति एक विशिष्ट बिंदु पर पहुंचने वाली है। लेकिन मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि इस युग के लिए यह पुनः अहंकार की ही एक यात्रा है। प्रत्येक युग इसी ढंग से सोचता है कि हमारे साथ कुछ विशिष्ट घटने वाला है, एक चरम अवस्था प्राप्त होने वाली है और पृथ्वी पर कुछ विशेष और महत्त्वपूर्ण होने वाला है। हमेशा से ऐसा ही होता आ रहा है।
ऐसा कहा जाता है कि जब आदम और ईव, ईडन-उद्यान के बाहर निकाले गए तो उद्यान के मुख्य द्वार से बाहर जाते समय आदम ने ईव से कहा : ‘हम लोग एक महानतम रूपांतरण से होकर गुज़र रहे हैं, जो इतिहास में हमेशा जाना जाएगा।’ दुनिया का पहला मनुष्य, पहला आदमी यह सोच रहा है और कह रहा है : एक महानतम रूपांतरण...
प्रत्येक युग यही सोचता है कि हम अपनी चरम अवस्था की ओर, सर्वोच्च बिंदु की तरफ और अंतिम स्थिति पर पहुंचने की प्रक्रिया में हैं, जहां सब कुछ खण्डित हो जाएगा और एक नूतन अस्तित्व का जन्म होगा। लेकिन ये उम्मीदें मात्र हैं, अहंकार की यात्राएं हैं जो बहुत अधिक अर्थपूर्ण नहीं हैं। तुम यहां कुछ और वर्षों तक जीवित रहोगे, तब तुम्हारे बाद दूसरे लोग यहां आएंगे और वे भी इसी तरह सोचेंगे। बिल्कुल, वह चरम अवस्था आ पंहुची है, परंतु युग अथवा समय के संदर्भ में नहीं, बल्कि वैयक्तिक संदर्भ में। चरम सीमा तक पहुंचा जाता है, लेकिन हमेशा एक चेतना ही उस उत्कर्ष तक पहुंचती है और सामूहिक अचेतन के साथ ऐसा संभव नहीं हो पाता है। तुम और केवल तुम एक धार्मिक व्यक्ति हो सकते हो। इसलिए आज का यह समय, आज का यह युग बहुत अच्छा है, समय तो सदैव ही अच्छा रहा है।
दूसरों के बारे में बहुत अधिक मत सोचो, क्योंकि यह स्वयं से पलायन की एक तरकीब भी हो सकती है। युग और मनुष्यता के बारे में भी मत सोचो क्योंकि मन बहुत चालाक और बेईमान है। मनुष्य का मन चालाकियों में बहुत माहिर है, वह अत्यंत कुशल है।
मैं अपने एक पुराने मित्र का पत्र पढ़ रहा था और वह लिखता है कि वह अपने सभी प्रेम-संबंधों से अत्याधिक निराश हो गया है। जब कभी भी उसने किसी के साथ प्रेम किया है तो उसने दुख ही पाया है और इतनी यातना पाई कि उसने किसी अन्य मनुष्य से प्रेम करना ही बंद कर दिया है और अब उसने संपूर्ण मनुष्यता को प्रेम करना प्रारंभ कर दिया है। मनुष्यता से प्रेम करना आसान है और जो लोग किसी व्यक्ति से प्रेम नहीं कर पाते, वे हमेशा ही पूरी मनुष्यता से प्रेम करेंगे, क्योंकि इस बारे में कोई समस्या ही नहीं है। एक व्यक्ति से प्रेम करना बहुत कठिन है, वह कभी कभी लगभग नरक जैसा हो जाता है। हालांकि यदि वह नरक बन सकता है तो निश्चित ही वहां स्वर्ग बनने की भी संभावना है, वह स्वर्ग भी बन सकता है।
परंतु हम इस संभावना को टालते चले जाते हैं। लोग ज्यादातर दूसरों के बारे में सोचते रहते हैं, वे दूसरों का विश्लेषण करते रहते हैं, वे दूसरों के प्रति एक आलोचना पूर्ण दृष्टि रखते हैं ताकि कहीं बहुत गहरे में वे खुद की बुराईयों को टाल सकें, खुद की गलतियों से बच सकें। बस इसी भय से, स्वयं का सामना न कर पाने के भय से ही वे दूसरों के बारे में सोचना शुरू कर देते हैं। अपने ही जीवन की, अपने ही मन की मौलिक समस्याओं का हल न ढूंढ पाने के कारण, उससे बचने के लिए ही लोग युग, समय, ग्रह-नक्षत्र, मानव-चेतना और उसके भविष्य आदि के बारे में सोचना शुरू कर देते हैं। वे यह कभी भी नहीं सोचते कि उनकी स्वयं की चेतना के साथ क्या हो रहा है या क्या होगा?
तुम्हारा मुख्य लक्ष्य तो तुम्हारी अपनी चेतना ही होना चाहिए।
और प्रत्येक समय अच्छा होता है... चेतना के विकास के लिए सभी युग और सभी समय ठीक हैं, बेहतर हैं और अच्छे हैं।
आज इतना ही।

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