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सोमवार, 26 नवंबर 2018

सहज समाधि भली-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन

दुख-बोध से दुख-निरोध की ओर

दिनांक 27 जुलाई, 1974; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

ओशो, क्रांति-बीज में आपने कहा हैः
‘‘गौतम बुद्ध ने चार आर्य-सत्य कहे हैं--दुख, दुख का कारण, दुख-निरोध और दुख-निरोध का मार्ग। जीवन में दुख है। दुख का कारण है। इस दुख का निरोध भी हो सकता है। और दुख-निरोध का मार्ग है।’’
‘‘मैं पांचवां आर्य-सत्य भी देखता हूं। और यह पांचवां इन चारों के पूर्व है। वह न हो, तो ये चारों भी नहीं रह सकते हैं।
‘‘यह पांचवां या प्रथम आर्य-सत्य क्या है--वह है दुख के प्रति मूर्च्छा।’’
ओशो, इस पांचवें या प्रथम आर्य-सत्य की विशद व्याख्या करने की करुणा करें।


जो जानते हैं, उनके लिए यह जीवन दुख से ज्यादा नहीं है। जो नहीं जानते हैं, उनके लिए यह जीवन सुख की एक आशा है। जो नहीं जानते हैं, वे भी दुख भोगते हैं; लेकिन दुख को बिना देखे भोगते हैं। दुख भोगते हैं सुख की आशा में। और वही आशा उनकी आंखों पर धुंध बन जाती है।

आज दुख भोगते हैं, क्योंकि लगता हैः कल सुख मिलेगा। कल का सपना आज के सच को छिपा लेता है। नरक में भी गुजार देते हैं जीवन, क्योंकि लगता है कभी न कभी स्वर्ग उपलब्ध होगा। आशा से बड़ा अंधकार नहीं है। और आशा से बड़ी कोई मूर्च्छा नहीं है।

जो व्यक्ति आशा को छोड़ कर जीवन को देखेगा, उसे दुख ही दिखाई पड़ेगा। दुख है। लेकिन अज्ञानी दुख को समझता है सीढ़ी--सुख तक पहुंचने की। दूर कहीं भविष्य में सुख है। यात्रा में होगा दुख, लेकिन मंजिल सुख की है। उस मंजिल के लिए अज्ञानी कुछ भी झेलने को तैयार हो जाता है। लेकिन संसार सिर्फ सीढ़ियां ही सीढ़ियां है, यहां मंजिल है ही नहीं। यहां रास्ता ही रास्ता है, यहां मुकाम है ही नहीं। और जो मुकाम नहीं है, उसके लिए हम उस रास्ते की व्यर्थ तकलीफें झेल लेते हैं। जो सीढ़ियां कहीं पहुंचती ही नहीं हैं, हम उन पर व्यर्थ ही चढ़ते हैं, थकते हैं, परेशान होते हैं। लेकिन सीढ़ियां अंतहीन हैं, इसलिए तुम उनके अंत पर भी कभी नहीं आ पाते हो।
ध्यान रहेः मंजिल होती तो सीढ़ियों का अंत भी आ जाता। चूंकि मंजिल नहीं है, इसलिए सीढ़ियां अंतहीन हैं। तुम चलते ही जाते हो; कितना ही तुम चलो, तुम पाते हो कि आगे सीढ़ियां बाकी हैं। लगता हैः बस, अब मंजिल आई ही।
बुद्ध एक गांव के पास से गुजरते थे। जल्दी में थे। पहुंचना था दूसरे गांव--सांझ होने के पहले। पूछा एक किसान से, ‘कितना दूर होगा गांव?’ उसने कहाः ‘बस, दो ही मील; चले नहीं कि पहुंचे!’ बुद्ध दो मील चल चुके। सूरज ढलने के करीब आ गया। एक दूसरा ग्रामीण गुजरता था, उससे पूछाः ‘गांव कितनी दूर होगा?’ उसने कहाः ‘बस, कोई दो मील है, चले नहीं कि पहुंचे!’
बुद्ध मुस्कुराए; उन्होंने अपने शिष्यों को कहाः ‘ठीक से सुन लेना इनकी बात। पहला ग्रामीण हमें दो मील चला गया!’ शिष्य फिर भी न समझे।
दो मील चल चुके, रात पड़ने लगी। एक तीसरे ग्रामीण से पूछा, ‘कितनी दूर होगा गांव?’ उसने कहाः ‘घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है। बस, दो मील है।’ बुद्ध ने कहाः ‘सुनते हो? ऐसे ही मन की आशा चलाए जाती है--कि मंजिल, बस पास है। ये ग्रामीण बुद्धिमान हैं। ये झूठ नहीं बोल रहे हैं। ये मन के सूत्र को समझते हैं।’
दो मील चलना आसान है--दो मील की आशा में आदमी दो हजार मील भी चल लेता है। पहले से ही पता हो कि दो हजार मील चलना है, तो थक कर गिर जाए, टूट जाए, वहीं मिट जाए।
तुम कितने जीवन तक चलते आए हो, तुमने सिवाय सीढ़ियों के कुछ भी पाया नहीं है। हर सीढ़ी नई सीढ़ी को शुरू करती है। कोई सीढ़ी मंजिल पर नहीं आती है। सब रास्ते नया मोड़ ले लेते हैं, फिर रास्ता बन जाता है। कोई रास्ता पूरा नहीं होता, समाप्त नहीं होता।
संसार मार्ग है। मोक्ष में कोई मार्ग नहीं है, वहां मंजिल ही मंजिल है। संसार में मार्ग ही मार्ग है, वहां कोई मंजिल नहीं है।
सम्राट अकबर ने अपनी विजय की बड़ी यात्राओं के बाद एक छोटा सा नगर बसाया-फतेहपुर। फतेहपुर का मतलब; ‘विजय का नगर’। सारे जीवन की विजय यात्रा के बाद उसने एक विजय की नगरी बनानी चाही, तो सीकरी नाम के छोटे से गांव को फतेहपुर में बदल दिया। करोड़ों रुपये खर्च किए। बड़ी खूबसूरत नगरी बनाई। और जब वह बूढ़ा हो रहा था, तो उसने एक फकीर को पूछा कि इस नगरी के द्वार पर मुझे कोई वचन लिखना है; कोई बहुमूल्य वचन लिखना है--कि यात्री जब इस फतेहपुर सीकरी में पहुंचे, तो वह वचन सब कुछ कह दे। उस सूफी फकीर ने जीसस का एक वचन अकबर को खुदवाने के लिए कहा। वह अभी भी फतेहपुर सीकरी के द्वार पर खुदा है। वह वचन बाइबिल में कहीं मिलता नहीं। लेकिन सूफियों की परंपरा में उस वचन का उल्लेख है। वह वचन बड़ा कीमती है। वह वचन हैः ‘यह संसार एक सेतु है; चलना जरूर, गुजरना जरूर, पर इस पर कहीं भूल कर भी मकान मत बनाना।’ दिस वर्ल्ड इ.ज ए ब्रिज, पास थ्रू इट बट डोंट मेक ए डवेलिंग ऑन इट।
अकबर ने वचन तो खुदवा दिया, लेकिन चिंतित हुआ। और उसने फकीर को कहा, ‘मुसीबत में डाल दिया। क्योंकि मैं सोचता था--विजय की नगरी बनवा रहा हूं। तुम कहते हो, संसार एक सेतु है। इस संसार में फिर विजय की नगरी बन ही नहीं सकती। यहां कोई विजय होती ही नहीं।’
और अकबर का रस फतेहपुर सीकरी में समाप्त हो गया। नगर बना भी और बिना बसे रह गया। फतेहपुर सीकरी कभी आबाद नहीं हुआ। वह जिस दिन से बना है, उसी दिन से खंडहर पड़ा है। उसमें कभी कोई बसने नहीं गया। वह बात ही खत्म हो गई। अकबर को भी दिखाई पड़ गया कि इस संसार में कोई विजय संभव नहीं है। यहां कोई मंजिल ही उपलब्ध नहीं होती।
मनुष्य जितना दुख झेल लेता है--असह्य दुख झेल लेता है। तरकीब क्या है? दुख झेलने की आदमी की तरकीब क्या है? जागता क्यों नहीं, इतनी पीड़ा भी उसे उठाती क्यों नहीं है? इतनी पीड़ा भी उसे चौंकाती क्यों नहीं है? कोई गहरी तंद्रा है। और वह तंद्रा है--आशा। आशा से लगता है कि सुख मिलेगा, लेकिन सच्चाई यह है कि आशा से केवल तुम दुख झेलने में समर्थ हो जाते हो।
कोलंबस भारत की खोज में निकला था। तीन बड़ी नावें लेकर--कोई सौ नाविक लेकर। कोई तीन महीने के भोजन का इंतजाम था। ज्यादा से ज्यादा जितना भोजन ले जा सकता था, साथ ले लिया था। लेकिन भोजन चुकने के करीब आ गया। केवल तीन दिन का भोजन बचा। नाविक क्रोध से भर गए। मंजिल कहीं पहुंचती मालूम नहीं होती। यात्रा भटक गई लगती है। सिर्फ सागर, सिर्फ सागर--कोई कूल-किनारा दिखाई नहीं पड़ता है।
तो उन नाविकों ने, जब रात कोलंबस सोया था, तो एक बैठक की। और उस बैठक में तय किया कि ‘हम कोलंबस को उठा कर समुद्र में फेंक दें और वापस लौट जाएं। क्योंकि यह आदमी तो मुसीबत में डाले हुए है! मरेंगे; भोजन चुक गया है। कहीं पहुंचते हुए लगते नहीं। इस आदमी ने अटका दी जिंदगी।’
कोलंबस ने सुना; वह सिर्फ बना हुआ सो रहा था। उसे भी डर था कि अब खतरा है। और जब तक कोलंबस जिंदा है, तब तक नावें वापस नहीं होंगी, यह भी नाविकों को पता है। क्योंकि कोलंबस वापस होना जानता ही नहीं; जिद्दी है, अहंकारी है। मर जाएगा, लौटेगा नहीं। क्योंकि क्या कहेगा लौटकर-अपने देश में? पहले ही लोगों ने कहा था कि तुम मूढ़ हो। किन बातों में पड़े हो? सिद्धांतों के चक्कर में आ गए हो! लोग कहते हैंः पृथ्वी गोल है। और तुमने मान लिया? और जीसस की बाइबिल तो कहती है कि पृथ्वी चपटी है। लौटने पर लोग कहेंगे, आ गए वापस! नहीं पहुंच पाए! पृथ्वी अगर गोल है, तो तुम पहुंच ही जाते! कहीं न पहुंचते, तो यहीं लौट आते।
कोलंबस जाग रहा था। जैसे ही उसने सुना कि उन्होंने तय कर लिया है--एक मत से--उसे फेंक देने का, तो वह उठा और उसने कहा, ‘एक बात मुझे भी पूछनी है! वह यह कि तीन महीने का सामान था, वह समाप्त हो गया है। तीन दिन का बचा है। अगर तुम लौटे भी तो पहुंच पाओगे? क्योंकि लौटने में कम से कम तीन महीने तो लगेंगे ही। अगर तुम ठीक उसी रास्ते से लौट सको, जिससे हम आए हैं। और समुद्र में कहीं कोई रास्ता नहीं बना है। अगर तुम लौटे तो तीन दिन ही लौट पाओगे न? बाकी दिनों का क्या होगा? और जब लौट कर ही मरना है, तो आगे बढ़ने की हिम्मत रखो। जब मरना ही है, तो पीछे क्या जाना! मैं तुमसे कहता हूं कि पीछे लौटने में तो तीन महीने लगेंगे, आगे हो सकता है कि तीन दिन में ही हम पहुंच जाएं। इसकी संभावना है।’
आशा बंधी; बात तो सीधी थी; गणित साफ था। आगे शायद तीन दिन में ही पहुंच जाएं, क्योंकि पता नहीं, किनारा कितनी दूर हो। पीछे तो तीन महीने से कम में पहुंचने वाले नहीं हैं। इसलिए मौत निश्चित है। आशा बंधी; नाविक फिर श्रम में लग गए।
जैसे ही आशा बंधती है, वैसे ही तुम श्रम लग जाते हो। जैसे ही आशा छूटती है, वैसे ही तुम्हारे हाथ-पैर शिथिल हो जाते हैं। जैसे आशा छूटती है, दुख दिखाई देने लगता है। जैसे ही आशा बंधती है, सुख का स्वाद आने लगता है।
संसार आदमी को नहीं बांधे हुए है। संसार से ज्यादा जगाने वाली जगह खोजनी कठिन है। चौबीस घंटे दुख है। सब तरफ से दुख है। हर घड़ी कांटा चुभता है। लेकिन तुम यहां हो ही नहीं, जिसको कांटा चुभे। तुम आशाओं के किसी लोक में भटके हुए हो।
सुना है मैंनेः एक सूफी फकीर मरा और स्वर्ग में पहुंचा। देख कर हैरान हुआ कि स्वर्ग में द्वार पर ही चार लोग जंजीरों से बंधे हैं। थोड़ा चौंका कि भीतर प्रवेश करूं या न करूं! क्योंकि मैंने तो सुना थाः संसार में बंधन होते हैं! स्वर्ग में लोग जंजीरों से बंधे हैं! उसने पूछा द्वारपाल को कि ‘यह क्या राज है? इन लोगों को क्यों बांधा गया है?’ उसने कहा कि ‘पहले तुम भीतर तो जाओ, फिर सारी बात समझ लेना। इनकी आशा टूट गई है; ये स्वर्ग में भी रुकने को राजी नहीं हैं। तुम संसार में भी रुके थे--आशा थी। इनको रोकने के लिए जंजीरें बांधनी पड़ी।
स्वर्ग भी आशा है--आखिरी आशा है। अगर वह भी टूट जाए, तो तुम्हारे मुक्त होने के लिए कोई भी बाधा नहीं रह गई। फिर तुम्हें रोकना हो तो जंजीरों से बांधकर रोकना पड़ेगा।
इस एक बात को बहुत ठीक से समझ लेना कि तुम्हारी आंखों पर जो धुंध है, वह तुम्हारी अपनी आशाओं की है। इसलिए बुद्ध के चार आर्य-सत्यों में मैं एक और आर्य-सत्य जोड़ता हूं--जो ज्यादा प्राथमिक है।
बुद्ध कहते हैंः ‘सारा जगत दुख है, सारा जीवन दुख है।’ तुम सुनते हो, लेकिन ऐसा अनुभव नहीं होता। तुम्हें लगता है, दुख जरूर हैं, लेकिन सीढ़ियों की भांति हैं। और जो श्रम न लेगा यात्रा का, वह सुख तक पहुंचेगा कैसे! कष्ट झेलना होगा। कीमत चुकानी होगी। यह कीमत है दुख, फल सुख का है।
लेकिन ध्यान रहेः जब बीच में ही दुख हो, तो फल में सुख नहीं हो सकता। और जब यात्रा कष्ट की हो, तो अंतिम परिणाम सुख का नहीं हो सकता। क्योंकि अंतिम परिणाम तो सारी यात्रा का जोड़ होगा। तुम मरते समय सुखी कैसे हो सकते हो, अगर तुम जीवन भर दुखी रहे हो? क्योंकि तुम्हारे जीवन भर की दुख की रात ही मरते क्षण में पूरी होगी।
मृत्यु से इतना दुख क्यों लगता है? मृत्यु उसका कारण नहीं है। मृत्यु से इतना दुख इसलिए लगता है कि जीवन भर के दुख इकट्ठे हो जाएंगे। और मृत्यु का अर्थ हैः अब कोई भविष्य नहीं है। इसलिए आशा बचेगी नहीं छिपाने को। नशा टूटेगा और जीवन भर के दुखों का जोड़ इकट्ठा होगा। सीढ़ियां, सीढ़ियां, सीढ़ियां... यात्रा के पथ पर न मालूम कितने कष्ट--आगे जाने को कोई जगह नहीं, आशा का कोई उपाय नहीं। क्योंकि मृत्यु का अर्थ हैः अब आशा नहीं; समय समाप्त हुआ। अब कल बचा नहीं कि तुम कह सको कि कल सुख मिलेगा।
मौत वर्तमान में खड़ा कर देगी। और सदा से तुम जिए थे--भविष्य में। मौत तुम्हें झटके से ले आएगी वर्तमान में। देखोगे तुम दुख और दुख को छिपाने का कोई नशा तुम्हारे पास न होगा।
मौत में जो इतना दुख मालूम पड़ता है, वह मौत का नहीं है; वह जीवन के सत्य के प्रकट हो जाने का है।
मौत बड़ी उदबोधक है। वह तुम्हें चौंकाती है-जगाती है। तुम्हारी अनस्थेसिया से-तुम्हारी गहरी बेहोशी से, तुम्हें बाहर ले आती है। इसलिए ज्ञानियों ने मौत को सदगुरु कहा है।
अगर मृत्यु न होती, तो तुम कभी शायद जागते ही नहीं। इसलिए ज्ञानियों ने कहा है कि ‘अगर मृत्यु न होगी, तो दुनिया में कोई आदमी धार्मिक न होगा।’ ठीक कहा है। क्योंकि जिंदगी में तो तुम सोए ही रहते हो। और सोने की तरकीब सीधी है--कल की आशा। फिर तुम कुछ भी झेल लेते हो। फिर कोई भी कष्ट बड़ा नहीं है।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन पहली दफा समुद्र की यात्रा पर गया। उसे फिट, उल्टियां, वमन, नॉसिया पैदा हुई। वह इतना घबड़ा गया, इतना परेशान हो गया कि कप्तान जहाज का उसे समझाने आया और उसने कहा, ‘सुनो नसरुद्दीन, तुम्हें मैं एक अनुभव की बात कहता हूं। तकलीफ कितनी ही हो--तकलीफ है--लेकिन पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में कोई भी सी-सिकनेस से मरा नहीं। यह जो तकलीफ तुम्हें हो रही है--वमन आदि की, यह सब ठीक है; लेकिन कभी कोई मरता नहीं है इससे। इसलिए घबड़ाओ मत।’
नसरुद्दीन ने छाती पीट ली। उसने कहा ‘इसी एक आशा से तो हम जी रहे थे कि मरे कि झंझट मिटी। तुमने वह भी छीन ली!’
आदमी अदभुत है। जीवन में तो आशा रखता ही है; मौत में भी आशा रखता है। इसलिए तो लोग आत्महत्या करते हैं। आत्महत्या मौत से भी आशा बांधनी है। आत्महत्या का अर्थ हैः मौत से भी हम कुछ आशा रखते हैं। दुख से छुटकारा हो जाएगा; इस जिंदगी का अंत होगा। शायद इससे कुछ बेहतर शुरू हो। इससे बुरा तो कुछ हो नहीं सकता।
आत्महत्या मृत्यु से भी आशा बांधने का नाम है। और ज्ञानी कहते हैंः तुम जीवन से भी आशा छोड़ देना। और अज्ञानी कहते हैंः मृत्यु से भी तुम आशा बांधे रखना।
इसलिए कोई ज्ञानी आत्महत्या नहीं कर सकता। ज्ञानी जीने तक को तैयार नहीं है, मरने को क्यों तैयार होगा! ज्ञानी की कोई आशा नहीं है। उसे जीवन का सत्य जैसा है, वैसा दिखाई पड़ गया है। इससे लगता है कि ज्ञानी दुखवादी है, जो कि भ्रांति है।
पश्चिम में बुद्ध को लोग पेसिमिस्ट समझते हैं--निराशावादी समझते हैं, जो गलत है। बुद्ध निराशावादी नहीं हैं। ज्ञानी दुखवादी नहीं है; केवल तथ्यवादी है। ऐसा है।
बुद्ध जीवन में दुख को ‘देख’ नहीं रहे हैं; दुख जीवन में है। कुशल तो तुम हो कि जहां दुख है, वहां तुम सुख देख रहे हो! तुमने कोई इंतजाम किया हुआ है; तुमने कोई मानसिक ढांचा बनाया है कि दुख बाहर ही रुक जाता है। दुख भीतर तक नहीं आ पाता।
मैंने सुना हैः एक फकीर यात्रा कर रहा है-एक जहाज से। तूफान आया बड़ा; नाव डूबने को होने लगी। अब डूबी, तब डूबी। सारे नाविक घुटने टेक कर परमात्मा से प्रार्थना करने लगे। सिर्फ वह फकीर चुपचाप खड़ा रहा। आखिर कप्तान को क्रोध आ गया। उसने कहा, ‘तुम क्यों खड़े हो? धार्मिक आदमी होकर तुमसे इतना भी नहीं बनता कि तुम प्रार्थना में सम्मिलित हो जाओ?’ उसे फकीर ने कहा, ‘यह नाव क्या मेरे बाप की है? जिसकी हैः वह फिकर करे।’
अजीब लगता है उसका वक्तव्य। लेकिन बड़ा सोचने जैसा है।
कप्तान ने सीधा कहाः ‘न हो नाव तुम्हारी, लेकिन डूबोगे तो तुम भी?’ उस फकीर ने कहाः ‘जिसको समझ में आ गया है कि नाव मेरी नहीं है, वह कभी डूबता नहीं। ‘मेरापन’ ही डूबता है। न नाव मेरी है, न शरीर मेरा है, न जीवन मेरा है। जिसकी हो वह रोए, चिल्लाए, प्रार्थना करे। हम कुछ बचाने को उत्सुक नहीं हैं। क्योंकि बचाने योग्य कुछ है भी नहीं। हम राजी हैं; जो हो जाए।’
आशा के दो रुख हैं। जो है--आशा उससे तुम्हें कभी राजी नहीं होने देती। और जो नहीं है और जो कभी नहीं होगा, उसका भ्रम बनाए रखती है।
आशा टूटते से ही धार्मिक व्यक्ति का जन्म होता है। आशा खोई आंख से कि आंखें निर्मल हो जाती है। और दिखाई पड़ने लगता है, वह--जो है।
बुद्ध ने कहे हैं--चार आर्य-सत्यः दुख, दुख का कारण, दुख-निरोध और दुख-निरोध का मार्ग। पहला, कि जीवन में दुख है। दूसरा, कि दुख अकारण नहीं है। क्योंकि जो अकारण हो, उसको मिटाया नहीं जा सकता है।
अगर कोई दीया बिना बाती, बिना तेल के जल रहा हो, तो तुम उसे बुझा नहीं सकते हो! हां, अगर तेल बाती से जल रहा हो, बुझा सकते हो। तेल हटा लो, बुझ जाएगा। लेकिन अगर कोई दीया ‘बिन बाती बिन तेल’ जल रहा हो, फिर तुम उसे कैसे बुझाओगे? जिस आग के जलने का कारण न हो, उस आग को बुझाने का उपाय भी न होगा। ‘अकारण’ को मिटाया नहीं जा सकता है।
बुद्ध कहते हैंः ‘लेकिन दुख का कारण है, इसलिए भयभीत मत हो जाओ। दुख का कारण है और दुख मिटाया जा सकता है।
दुख-निरोध की स्थिति, ऐसी चेतना की स्थिति है, जहां दुख नहीं होता। क्योंकि यह भी हो सकता है कि तुम एक दुख मिटाओ, लेकिन दुख-निरोध की स्थिति बनती ही न हो। तो दूसरा दुख पैदा होगा--तीसरा दुख पैदा होगा। तुम एक दीया बुझाओ, दूसरा पैदा होगा। तुम तीसरा बुझाओ, चौथा पैदा होगा। तो बुद्ध कहते हैं कि ऐसी भी चेतना की अवस्था है, जहां दुख नहीं होता। इसलिए दुख मिटाया जा सकता है और निर्दुख की अवस्था में रहा जा सकता है। और दुख-निरोध का मार्ग है। और वह रास्ता भी है, जिससे कारण समाप्त किए जाते हैं, उसकी जड़ें काटी जाती हैं।
बुद्ध ने अपने पूरे धर्म को चार हिस्सों में विभाजित किया है। वे ये चार हिस्से हैं। पहला धर्म है-दुख को जानना। दूसरा धर्म है--दुख के कारण को पहचानना। तीसरा धर्म है--दुख के निरोध की संभावना को जानना। और चौथा धर्म है--दुख-निरोध के जितने उपाय हैं, उनकी साधना। इन चार चरणों में, बुद्ध कहते हैं, पूरा धर्म समाहित हो जाता है। इसलिए इनको उन्होंने चार आर्य-सत्य कहा है। आर्य का अर्थ हैः श्रेष्ठ। इनसे ऊपर कोई सत्य नहीं है।
लेकिन मैं कहता हूं कि एक और भी सत्य है, जो इन चारों के पूर्व है। मैं पांचवां सत्य भी देखता हूं और यह पांचवां इन चारों के पूर्व है। वह न हो तो ये चारों भी नहीं रह सकते। पांचवां या प्रथम आर्य-सत्य है--दुख के प्रति मूर्च्छा।
वही भेद है--बुद्ध में और तुम में।
तुम में और बुद्ध में क्या फासला है! जरा सा फासला है। जो बुद्ध देख रहे हैं, वह तुम नहीं देख रहे हो। जो बुद्ध को दिखाई पड़ता है, वह तुम्हें सुनाई भी पड़ जाए तो भी दिखाई नहीं पड़ता। तुम सुन भी लो, समझ भी लो, फिर भी पकड़ में नहीं आता; फिर भी तुम्हारा अपनी प्रत्यभिज्ञा नहीं बनती, तुम्हारी पहचान उससे निर्मित नहीं होती।
 क्या कारण है कि बुद्ध चिल्लाए चले जाते हैं और तुम नहीं सुन पाते? शायद तुम्हारी आंख पर कोई परदा है, जिसके कारण जो भी तुम देखते हो, वह विकृत हो जाता है। जैसे पीलिया का मरीज होता है, उसे सब पीला दिखाई पड़ने लगता है।
मेरे दादा निरंतर कहा करते थे कि ‘सावन के अंधे को हरा-हरा सूझता है।’ सावन में अगर कोई अंधा हो जाए, तो फिर उसे जिंदगी भर हरा-हरा ही सूझता है। क्योंकि सावन का वह हरापन आंखों में रह जाता है; और आंख बंद हो गई।
जिंदगी में हमें जो हरा-हरा सूझता है, उसके सूत्र को अगर समझ लें, तो बुद्ध में और तुम में क्या अंतर है, वह साफ हो जाएगा। अंतर जरा सा है। जैसे कोई सोता हो और कोई जगता हो; बस उतना ही अंतर है।
तुम्हें दुख दिखाई नहीं पड़ रहा है। बुद्ध को सिवाय दुख के कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है। तुम्हारी संख्या बड़ी है। बुद्धों की कोई संख्या नहीं है। तुम्हारी भीड़ महान है, अनगिनत है। तुम एक दूसरे की भ्रांति को मजबूत करते हो। बुद्ध की आवाज जैसे शून्य में खो जाती है।
किसी ने जॉन बैप्टिस्ट को पूछा कि ‘तुम कौन हो?’ बप्तिस्मा वाले जॉन ने ही जीसस को दीक्षा दी थी। वह जीसस का गुरु था। उसने जीसस को बप्तिस्मा दिया, इसलिए वह जॉन बप्तिस्मा वाला कहलाता था। वह अनूठा फकीर था। उससे किसी ने पूछा कि ‘तुम कौन हो? क्या तुम वही मसीहा हो, जिसके आने का शास्त्रों में उल्लेख है?’ उसने कहा कि ‘नहीं, मैं तो सिर्फ सूने रेगिस्तान में गूंजती हुई एक आवाज हूं। जस्ट ए वायस इन वाइल्डरनेस। बस, एक आवाज--जंगल में गूंजती हुई।’ बड़ा ठीक उत्तर दिया। बुद्धों की आवाज जंगल में गूंजती हुई आवाज है। कोई सुननेवाला नहीं है। लोग सुन भी लेते हैं, तो फिर, अपने रास्ते पर चले जाते हैं। उनके चलने से पता चलता है कि वे चूक गए; उन्होंने सुना नहीं।
आंख पर कोई ऐसा परदा है कि हर चीज को विकृत कर जाता है! बुद्ध की बात को सुनकर उसको भी हम विकृत कर लेते हैं। जब हम सुनते हैंः ‘जीवन में दुख है’, तो तत्क्षण हमारे मन में यह आशा बंधती है कि शायद बुद्ध के पास हमें कोई उपाय मिल जाए, जिससे जीवन का दुख मिट जाए। तत्क्षण हम बुद्ध के चरण पकड़ लेते हैं कि ‘बताओ मार्ग, जीवन का दुख मिट जाए।’
दुख को मिटाने का कोई मार्ग नहीं है। वस्तुतः दुख मिटाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारी आशा टूट जाए, तो आशा के साथ ही सुख-दुख सब विलीन हो जाते हैं।
आशा के दो पहलू हैं--भविष्य में सुख और अभी दुख। जैसे ही आशा टूटी कि भविष्य का सुख खो जाता है और अभी का दुख खो जाता है। क्योंकि जो तुम्हें दुख दिखाई पड़ता है, वह इसीलिए तो दुख दिखाई पड़ता है, क्योंकि तुमने सुख के कोई सपने संजो रखे हैं; उनकी तुलना में ही, उनकी अपेक्षा में ही दुख है।
तुम्हारे सभी दुख तुम्हारे सुख की अपेक्षा से निर्मित होते हैं। इसलिए जितनी बड़ी अपेक्षा, उतना दुखी आदमी। जिसकी कोई अपेक्षा नहीं, उसका कोई दुख नहीं। लेकिन तुम बुद्ध को सुन कर फिर सुख के सपने बनाते हो। तुम बुद्ध से भी सपना निकाल लेते हो। तुम बुद्ध को भी अपने नींद की दवा बना लेते हो। तुम बुद्ध से भी पूछते हो, ‘बताओ रास्ता--सुख को पाने का।’
और ध्यान रहेः बुद्ध केवल तुम्हें दुख को देखने का रास्ता बता सकते हैं। सुख को पाने का कोई सवाल ही नहीं है। जिस दिन तुम दुख देखें लेते हो, जिस दिन कोई सुख तुम्हें लुभाता नहीं है; जिस दिन तुम लोभ की वृत्ति से मुक्त हो जाते हो और जान लेते हो कि सब भ्रांति है, जिस दिन तुम दुख के लिए राजी हो जाते हो, उसी दिन दुख विसर्जित हो जाते हैं।
दुख इतना घना होता है कि तुम्हें जगा देता है। एक आदमी की सर्जरी करनी हो अस्पताल में, तो हमें उसे बेहोश करना पड़ता है। बेहोश करके फिर हड्डी-पसलियां काटो, हाथ-पैर तोड़ो, हृदय खोलो, उसे कुछ पता नहीं चलता। वह इतना बेहोश है कि दुख पता नहीं चलता।
बेहोशी दुख को झेलने में समर्थ बनाती है। और जितना बड़ा दुख झेलना हो, उतनी बड़ी बेहोशी चाहिए। अन्यथा बीच में टूट जाए बेहोशी, तो कठिन हो जाए। बड़े दुख के लिए बड़ी बेहोशी चाहिए और छोटे दुख के लिए छोटी बेहोशी। और अगर बिल्कुल दुख न झेलना हो, तो पूर्ण होश चाहिए।
होश आते ही जैसे सारे जीवन का रूपांतरण हो जाता है। जहां कल दुख दिखाई पड़ता था, जहां कल सुख दिखाई पड़ता था, वे दोनों एक साथ खो जाते हैं। धूप-छांव दोनों एक साथ खो जाते हैं; रह जाते हो तुम--अकेले। और तुम्हारा वह अकेलापन ही मुक्ति है। तुम्हारे उस अकेलेपन में ही आनंद की वर्षा होती है। तुम्हारे उस अकेलेपन में ही अमृत का पहली बार अनुभव होता है।
जिस दिन कोई आशा नहीं--भविष्य की, उसी दिन वर्तमान की कोई पीड़ा नहीं; भविष्य और वर्तमान एक साथ समाप्त हो जाते हैं।
मैं निरंतर कहता हूंः ‘वर्तमान में जीओ।’ लेकिन यह बात थोड़ी गलत है। लेकिन तुम गलत हो और तुमसे गलत भाषा में बोलना पड़ता है। तुमसे मैं कहता हूंः ‘वर्तमान में जीओ।’ लेकिन कभी तुमने पूछा नहीं, सोचा भी नहीं कि अगर भविष्य नहीं है और अतीत भी जा चुका है और भविष्य अभी आया नहीं, तो वर्तमान कैसे हो सकता है! नदी का ‘वह’ किनारा भी नहीं है, नदी का ‘यह’ किनारा भी नहीं है, तो बीच का सेतु कैसे खड़ा हो सकता है! यह जो वर्तमान का क्षण है, यह हो ही तब सकता है, जब अतीत का क्षण इसे पीछे से सम्हालता हो। और भविष्य का क्षण इसे आगे से सम्हालता हो। दो किनारे हों--अतीत और भविष्य के, तो वर्तमान का सेतु होगा।
तुमसे मैं निरंतर कहता हूंः वर्तमान में जीओ, लेकिन जिस दिन तुम जीओगे, उस दिन अतीत और भविष्य तो खो ही जाएंगे, वर्तमान भी खो जाएगा। क्योंकि जब किनारे ही न रहे, तो बीच का सेतु कैसे रहेगा; उस दिन अचानक तुम पाओगे, कि समय खो गया। इसलिए ज्ञानियों ने कहा है कि समाधि कालातीत है। वह वर्तमान में भी नहीं है, क्योंकि वर्तमान तो अतीत और भविष्य के ही बीच की लकीर है।
अगर अतीत और भविष्य दोनों झूठ हैं, तो वर्तमान भी झूठ है। और मध्य कैसे बच सकता है, जब दोनों छोर खो जाएं! मध्य कहां बचेगा? दोनों छोर के खोते ही मध्य भी खो जाता है।
जिस दिन तुम भविष्य की आशा नहीं रखते, जिस दिन तुम अतीत की स्मृति नहीं सम्हालते, उस दिन तुम वर्तमान में रहोगे, यह कहना गलत है। क्योंकि वर्तमान भी नहीं बचेगा। उस दिन तत्क्षण समय खो जाएगा; तुम समयातीत हो जाओगे। तुम अपने को अचानक पाओगे--वहां, जहां कोई समय नहीं है; जहां न कुछ कभी हुआ, न जहां कभी कुछ होने वाला है; न जहां कुछ हो रहा है।
यह जो अवस्था है, यह अवस्था बुद्ध की अवस्था है। इस अवस्था में कोई दुख नहीं है, क्योंकि इस अवस्था में सुख की कोई वासना नहीं है। इस अवस्था में कोई विषाद नहीं है, क्योंकि इस अवस्था में कोई आशा नहीं है। इस अवस्था में तुम कुछ पाना नहीं चाहते, इसलिए तुम पीड़ित भी नहीं हो सकते। इस अवस्था में तुम ही बचते हो--निपट तुम--तुम्हारा ‘होना’ बचता है।
इस अवस्था को बुद्ध मोक्ष कहते हैं, महावीर कैवल्य कहते हैं, क्योंकि केवल तुम ही बच रहते हो। इसे हिंदू ब्रह्म कहते हैं, क्योंकि तुम तो खो जाते हो, केवल समग्र की सत्ता शेष रह जाती है।
ये चार आर्य-सत्य तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहे हैं, क्योंकि इन चारों के पहले एक परदा तुम्हारी आंख पर है-दुख के प्रति मूर्च्छा का।
तुम दुख को देखती ही नहीं। तुम कभी दुख को आंख भरकर नहीं देखते। तुम सदा दुख से आंखें छिपाते हो। तुमने कभी दुख का आमना-सामना किया है? घर में कोई मर गया हो, तब तुमने उसके पास बैठ कर उसकी मृत्यु का आमना-सामना किया है? तुम छाती पीटोगे, रोओगे, चिल्लाओगे--सब करोगे। लेकिन यह सब ‘बचने’ की तरकीबें हैं।
एक घटना घटी है--मृत्यु की, उसको तुम भुलाने के उपाय कर रहे हो। तुम जाओगे सुनोगे ज्ञानियों को, कि ‘आत्मा अमर है, कोई मरता नहीं; शरीर ही मरता है। पंचतत्व पंच-तत्वों में मिल गए और भी भीतर छिपा था, वह तो शाश्वत अजन्मा--अभी भी है।’ तुम ये सब बातें सुनोगे। तुम रोओगे, दुखी होओगे, पीड़ित होओगे, सांत्वना इकट्ठी करोगे। लेकिन एक बात तुम कभी न करोगे कि मौत सामने खड़ी है, अभी घट रही है, तुम इसे देख लो। क्योंकि उससे तो तुम्हें घबड़ाहट लगेगी।
अगर तुम मौत को एक बार भी देख लो--समय बिना खोए, बिना दूसरी बातों को बीच में लाए-तो तुम्हें दिखाई पड़ जाएंगे बुद्ध के चार आर्यसत्य। क्योंकि मौत तुम्हारी तंद्रा को तोड़ देगी।
यूनान में हुआ--एक बहुत बड़ा विचारशील सम्राट। उसने अपने संस्मरणों में लिखा है कि ‘नासमझ दूसरे के अनुभवों से सीख नहीं सकता। नासमझ अपने अनुभवों से भी मुश्किल से सीख पाता है। समझदार अपने अनुभव के लिए नहीं रुकता है; दूसरे के अनुभव से भी वह सीख लेता है।’
इस सम्राट का नाम था--मारकस आरेलियस। दुनिया में जो विचारशील सम्राट हुए हैं, उनमें इसका कोई मुकाबला नहीं है। न अशोक, न अकबर--कोई उसके मुकाबले नहीं पहुंच सकते। उसकी छोटी सी किताब ‘मेडिटेशंस’ बहुत गहन रूप से पढ़ने जैसी है। वह कह रहा है कि ‘नासमझ अपने अनुभव से भी नहीं सीख पाता। नासमझ मरेगा तब भी छाती पीटते हुए, शोरगुल मचाते हुए मर जाएगा, ताकि मौत को देख न पाए। समझदार दूसरे के अनुभव से भी सीख लेता है; दूसरा भी मरेगा तो भी समझदार उसी पीड़ा को अनुभव कर लेगा, जो मृत्यु की पीड़ा है।’
बुद्ध के साथ यही हुआ। दूसरे की लाश देखना बुद्ध को पर्याप्त हो गया। उन्होंने कहाः बस, अब जीवन व्यर्थ है। जब वह आदमी मर गया है और मुझे भी मरना है, तो इन बीच के थोड़े से दिनों को व्यर्थ खोना उचित नहीं है। मैं इन्हें ‘खोज’ में लगाऊंगा। जब मौत आने ही वाली है, दिन दो-दिन की बात है, दिन चार-दिन की बात है--मौत आने ही वाली है, तो इस बचे हुए जीवन को मैं जीवन की खोज में लगाऊंगा। इसके पहले कि मौत आए, कम से कम मैं जान तो लूं कि जीवन क्या है! इसके पहले कि मेरे हाथ से अवसर छीन लिया जाए, मैं झांक तो लूं कि मुझे किस जगत में भेजा गया था और वहां क्या था!
दूसरे की मृत्यु से बुद्ध को ज्ञान हुआ। तुम्हें ‘तुम्हारी मृत्यु’ से भी ‘ज्ञान’ न होगा। और यह दूसरा अजनबी था, परिचित भी न था। तुम्हारे प्रियजन भी मरते हैं, तो भी तुम्हें ज्ञान नहीं होता; क्योंकि तुम बचने की तरकीब जानते हो। तुम आंखें चुराना जानते हो। जहां भी दुख हुआ, तुम तत्क्षण आंख चुराते हो।
तुम कभी अस्पताल गए हो? तो तुम इस भांति निकलते हो, जैसे कि मरीज दिखाई न पड़े। किसी की टांग बंधी है, किसी का सिर लटका है, किसी का हाथ टूटा है; तुम अस्पताल से तेजी से गुजरते हो। अस्पताल कोई जाना नहीं चाहता!
और मरघट? मरघट से तुम गुजरना पसंद नहीं करते हो; कभी मजबूरी में जाना पड़ता है। तुमने कभी ख्याल किया है कि मरघट पर बैठ कर लोग बड़ी बातचीत में संलग्न हो जाते हैं; जमाने भर की बातचीत वहां चलाते हैं, ताकि वह जो तथ्य मरघट का है, वह ख्याल में न आए।
मरघट पर लोग जैसी गप्पबाजी करते हैं, वैसी और कहीं भी नहीं करते! सारे गांव के जीवन की चर्चा उठाते हैं। घंटे, डेढ़-घंटे उनको वहां बैठना पड़ता है, उतनी देर बड़ी बेचैनी की है। काश, उतनी देर ध्यानस्थ होकर बैठ जाएं; बोलें न, चुपचाप रहें, तो बड़ी कठिनाई होगी। घर वही आदमी वापस न लौटेगा--जो गया था। क्योंकि दूसरे की मौत तुम्हारी मौत की खबर है। हर मौत तुम्हारी मौत है। और तुम्हें अगर अपनी मौत दिखाई पड़े, तो तुम जीवन से आशा बांधनी बंद कर दोगे।
बुद्ध ने कहा हैः ‘मृत्यु को जिसने देख लिया है, उसे फिर संसार में कोई भी बांध नहीं सकता है।’ इसलिए हम मृत्यु को जीवन की परिधि के बाहर रखते हैं, मरघट को गांव के बाहर बनाते हैं। कोई मर जाए तो मां बच्चे को घर में वापस बुला लेती है कि ‘भीतर आ जाओ।’ ताकि बच्चा मरे हुए को न देख ले!
पर तुम्हारे छिपाने से मौत रुकती नहीं है। तुम कितना ही अपने को समझाओ, मौत आएगी। जितनी जल्दी तुम पहचान लो, उतना ही बेहतर है। क्योंकि मौत को अगर आमने-सामने देख लो, तो तुम्हें ‘जीवन दुख है’, यह दिखाई पड़ जाए, मूर्च्छा टूट जाए।
मौत तो दूर है, तुम छोटे दुखों को भी आमने-सामने करके नहीं देखते। दुख को देखने की प्रक्रिया का नाम तपश्चर्या है। भूख लगी है और तुम उस भूख को देखते हो। भूख को देखने का नाम उपवास है; भूखे मरने का नाम उपवास नहीं है। क्योंकि जब भूख लगी है, तब तुम राम-राम, राम-राम करके अपने को उलझाए रखो, यह उपवास नहीं है।
भूख लगी है, उसे तुम देखते हो, तुम उसी पर ध्यान करते हो। भूख फैलती जाती है--रोएं-रोएं में; शरीर के कोने-कोने में चोट करती है। पूरी काया मांग करती है और उसे तुम देखते हो, तुम साक्षात्कार करते हो। तुम कुछ करते नहीं हो; उसे मिटाने का, उसको बुझाने का, उससे मुक्त होने का, उसे भुलाने का--तुम कोई उपाय नहीं करते हो। तुम सीधा देखते हो--आंख में आंख डाल कर देखते हो कि ‘भूख क्या है’ और जिसने भूख को देख लिया, वह उपवास को उपलब्ध हो गया। फिर उसे कभी भूख न लगेगी। यह नहीं कि वह भोजन नहीं करेगा। भोजन करेगा, पानी पीएगा; लेकिन उसे भूख अब कभी न लगेगी। अब यह कृत्य शरीर का होगा, वह अलग होगा।
मुल्ला नसरुद्दीन के घर में आग लगी। रात उसकी पत्नी ने जोर से उसकी रजाई हिलाई और कहा, ‘उठो, नसरुद्दीन, घर में आग लगी है।’ उसने कहा, ‘तू क्यों फिकर करती है! कोई हमारा मकान है? किराए से रहते हैं!’ वापस रजाई ओढ़ कर वह सो गया। किराएदार को इतनी क्या चिंता है!
अगर तुम भूख को ठीक से देख लो तो तुम पाओगे कि तुम जिस मकान में रह रहे हो, उस मकान की जरूरतें हैं ये। ये तुम्हारी जरूरतें नहीं हैं। ठीक है, तुम रहते हो, इंतजाम कर लेते हो, लेकिन चिंता का कोई कारण नहीं है। जब तक हो, सम्हाल लेते हो। लेकिन बोझ ढोने की कोई जरूरत नहीं है। शरीर कल के बदले आज गिरता हो, तो तुम यह न कहोगे कि कल तक रुक जाओ! तुम्हारे मन में इससे कोई बेचैनी पैदा न होगी।
दुख को देखो तो तुम तपश्चर्या में लीन हो गए।
सिर में दर्द हो, तो उसे देखो। तुम अचानक पाओगे कि तुम अलग हो गए हो, दर्द अलग हो गया है। जिसे भी तुम देखोगे, उससे तुम अलग होने लगोगे। दृष्टि अलग करती है क्योंकि जिसे तुम देखते हो, वह दृश्य हो जाता है और तुम देखने वाले हो जाते हो। तादात्म्य टूटता है।
सिर में दर्द है; देखो। इस कीमती अवसर को खोओ मत। जितनी भी सिरदर्द की दवाएं हैं, वे केवल बेहोशी की दवाएं हैं। एस्पिरिन हो, एस्प्रो हो--कुछ और हो; उनसे सिर दर्द मिटता नहीं है, सिर्फ भूलता है। अच्छा हो कि तुम देखो। दर्द को जिसने देखा, वह दर्द के बाहर हो गया। जो दर्द के बाहर हो गया, वह हंसने लगेगा। तब जिंदगी एक जाल मालूम पड़ेगी, जिसे तुमने अपने हाथ से रचा हुआ है और भाग-भाग कर रचा हुआ है।
जिस-जिस चीज से तुम आंख चुरा रहे हो, वही तुम्हारा पीछा कर रही है।
दिवालिया हो गए हो तुम। भागो मत, गौर से देखो, तो तुम पाओगे कि दिवालिया तुम सदा से थे। यह बैंकरप्सी कोई आज नहीं हो गई, तुम सदा से थे। यही भ्रांति थी कि तुम्हारे पास कुछ है। यह भ्रांति टूट गई। एक तथ्य का उदघाटन हुआ। तुम्हारे पास कभी भी न कुछ न था।
तुम कुछ लेकर आए नहीं, तुम कुछ लेकर जाओगे भी नहीं। तो बीच में तुम मालिक कैसे हो सकते हो? तुम्हारी मालकियत धोखे की है।
जब भी जीवन में दुख आए, पीड़ा आए, मृत्यु आए--तुम्हारे पास आए, तुम्हारे मित्रों के पास आए, प्रियजनों के पास आए, अजनबी पर घटे--तुम उसे देखना। तुम यहां-वहां आंख को मत डांवाडोल करना। आंख बंद मत करना। तुमने आंख बंद की कि तुम एक बहुमूल्य अवसर से चूक गए। और जो आंख खोल कर देखेगा--उसे बुद्ध के चार आर्य-सत्य दिखाई पड़ने शुरू हो जाएंगे।
बुद्ध ने कोई सिद्धांत नहीं दिया है--जगत को कोई शास्त्र नहीं दिया है। यह तो जीवन का सीधा अनुभव है। यह सत्य वैसे ही है, जैसे हाइड्रोजन और आक्सीजन के मिलने से पानी बनता है। यह कोई सिद्धांत नहीं है। ये सत्य जीवन के आधार हैं। दुख है। हर दुख का कारण है।
बुद्ध की दृष्टि बड़ी वैज्ञानिक है। वे एक वैज्ञानिक की तरह जीवन का विश्लेषण करते हैं। इसलिए बुद्ध के धर्म को लोगों ने विश्लेषण का धर्म कहा है--तर्क का, बुद्धि का धर्म कहा है। साफ-साफ हिसाब बांटा है बुद्ध ने।
बुद्ध कोई रहस्यवादी नहीं हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि उन्हें रहस्य का अनुभव नहीं है। उन्हें रहस्य का अनुभव है, लेकिन उस रहस्य की वे बात नहीं करते। वे तुम्हारे जगत का विश्लेषण करते हैं। जिस दिन तुम्हारा जगत विश्लिष्ट हो जाएगा, तुम रहस्य का जन्म होगा। उस रहस्य को कहा नहीं जा सकता। इसलिए बुद्ध रहस्य के संबंध में चुप हैं। सिर्फ प्रक्रिया के संबंध में बताते हैं। मंजिल के संबंध में मौन हैं। रास्ते का पूरा का पूरा नक्शा दे देते हैं।
बुद्ध ने जाग कर देखा कि जीवन दुख है। इसका तुम्हें अब तक पता क्यों न चला? तुम किसी भांति आंख चुराते रहे। जब भी दुख आया, तब तुमने कुछ कह कर अपने को समझा लिया। तुमने कभी स्वीकार न किया कि दुख है। तुम इतने डरे हुए हो, भयभीत हो।
लेकिन ध्यान रहे, अगर तुम भयभीत हो, और अगर एक दुख से बचोगे, तो तुम उससे भी बड़े दुख में गिरोगे। क्योंकि बचाव यहां हो नहीं सकता। एक तरफ कुआं है, दूसरी तरफ खाई है। यह हो सकता है कि एक दुख से बचने को तुम दूसरे दुख में उतर जाओ। थोड़ी देर को भूले रहो, फिर तीसरे दुख में उतर जाओ; फिर थोड़ी देर को भूले रहो, फिर तीसरे दुख में उतर जाओ; फिर थोड़ी देर को भूले रहो। जिंदगी भर तुम दुख बदलते रहो!
लोग मरघट ले जाते हैं-किसी की लाश को, तो कंधा बदलते रहते हैं। थक जाता है एक कंधा, तो दूसरे कंधे पर रख लेते हैं। बोझ उतना ही बना रहता है। दूसरा कंधा थोड़ी देर खींचता है, थक जाता है। फिर कंधा बदल लेते हैं। जिंदगी भर तुम दुखों से ‘कंधा बदलते’ रहे हो।
एक पत्नी से थक जाते हो, दूसरे विवाह का विचार मन में उठना शुरू हो जाता है। एक कंधे से ऊब जाते हो, मन दूसरे धंधे की योजनाएं बनाने लगता है। एक वासना मुंह को तिक्त कर जाती है, तत्क्षण तुम दूसरी वासना से मुंह के स्वाद को वापस ले लेना चाहते हो। बाकी तुम बदलते दुख हो--एक दुख से दूसरा, दूसरे से तीसरा।
जीवन भर तुम कंधे बदलते हो। और जब मौत सामने आती है, तब तुम पाते हो कि तुम्हारा जीवन दुख की एक राशि है। उससे घबड़ाहट होती है। इसलिए आदमी मौत से डरता है। मृत्यु का डर नहीं है वह, जीवन भर के दुखों की राशि का दर्शन होता है--उसका डर है। यह कमाई है। इतनी मेहनत, इतने श्रम, इतनी संलग्नता, इतने संकल्प से यह पाया है।
मृत्यु सभी को दिवालिया छोड़ जाती है। सिर्फ उन थोड़े लोगों को छोड़कर, जिन्होंने मृत्यु के पहले ही जीवन के दुख का साक्षात्कार कर लिया है।
बुद्ध घर छोड़ कर जा रहे हैं। जिस एक सारथी को साथ ले आए हैं, वह सारथी बूढ़ा था-जब उन्होंने विदा किया--तो उस सारथी ने कहा, ‘मत करो ऐसा। तुम अभी युवा हो। तुम्हें जीवन का कोई अनुभव नहीं है। भागो मत, छोड़ो मत। जीवन में बड़े सुख हैं। और तुम्हें कमी क्या है? अगर हम गरीब छोड़ें, तो छोड़ने जैसा भी है। तुम सम्राट हो, पीछे लौटकर देखोः राजमहल में क्या कमी है?’
बुद्ध ने पीछे लौट कर देखा और सारथी से कहा, ‘वहां सिवाय लपटों के मुझे और कुछ दिखाई नहीं पड़ता है। और तुम जहां सोचते हो सुख है, वहां मैंने बहुत गहरे में देखा और दुख पाया। वहां सिर्फ दुख छिपा है।’
गरीब के जीवन में भी दुख है, छिपाने का साधन गरीब है। अमीर के जीवन में भी दुख है, पर छिपाने का साधन कीमती है। कोई झोपड़े में छिपा रहा है, कोई महल में। पर दुख सब जगह है। और तुम भलीभांति जानते हो। तुमने भी दुख को अनेक बार पाया है और भाग खड़े हुए हो। लेकिन धर्म की शुरुआत उसी दिन होगी, जिस दिन दुख मिले तो वहीं खड़े हो जाओ और दुख की आंख में आंख डाल कर देख लो।
अगर तुम दुख का साक्षात्कार कर सको, तो पहला अनुभव होगा कि जीवन दुख है--पूरा जीवन दुख है; बेशर्त दुख है।
बुद्ध कहते हैंः ‘जन्म दुख है, जीवन दुख है, जरा दुख है, मरण दुख है। सारा जीवन एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक दुख से भरा है।’
और जैसे ही तुम देख पाओगे कि ‘जीवन दुख है’, तुम्हें दूसरी पर्त दिखाई पड़ेगी कि ‘दुख का कारण है।’
दुख का कारण क्या है? कारण है कि तुमने सुख मांगा। दुख का कारण है कि तुमने कुछ चाहा; जो नहीं हो सकता, उसकी तुमने मांग की। दुख का कारण है कि तुमने असंभव की वासना की। यहां सभी क्षणभंगुर है, यहां तुमने शाश्वत की मांग की। यहां नदी का बहना स्वभाव है, तुमने चाहा कि नदी ठहर जाए।
यहां प्रेम भी क्षणभंगुर है और तुमने चाहा कि प्रेम शाश्वत हो जाए। इसलिए प्रेम से जितना दुख पैदा होता है, उतना किसी और चीज से पैदा नहीं होता।
वे लोग तो अभागे हैं, ही, जिनके जीवन में प्रेम नहीं है, क्योंकि वे अभाव का दुख झेल रहे हैं। वे लोग भी अभागे हैं, जिन्होंने जीवन प्रेम को जाना। क्योंकि वे प्रेम के कारण दुख भोग रहे हैं। यहां ब्रह्मचारी का दुख है, यहां शादीशुदा के दुख हैं।
एक युवती डूबती थी नदी में और एक आदमी ने दौड़कर उसे बचाया। सुंदर युवती, गांव के सबसे बड़े धनपति की बेटी--इकलौती बेटी। बाप ने इस जवान को धन्यवाद दिया--पुरस्कृत करना चाहा और कहा कि ‘तू हिम्मती है, साहसी है, बहादुर है। तूने इतनी जोखिम उठाई।’ उसने कहा कि ‘माफ करें। यह कोई जोखिम नहीं है। मैं पहले से ही शादीशुदा हूं।’
शादीशुदा भी जोखिम उठा रहा है। और ब्रह्मचारी स्त्री से परिचित होने में भी भयभीत है; वह भी जोखिम उठा रहा है।
जिनके पास है--वे दुखी हैं। जिनके पास नहीं है--वे भी दुखी हैं। गरीब दुखी हैं कि धन नहीं है। अमीर दुखी हैं कि धन है--अब धन का क्या करें!
जीसस एक गांव से निकले और उन्होंने एक आदमी को दौड़ते देखा--एक वेश्या के पीछे। पकड़ा और कहा, ‘यह तू क्या कर रहा है! क्या परमात्मा ने आंखें इसलिए दी हैं?’ उस आदमी ने कहा, ‘तुम भूल गए! परमात्मा ने तो मुझे अंधा पैदा किया था। तुमने ही छूकर मेरी आंखें ठीक कर दी थीं। जीसस, क्या तुम मुझे भूल गए! मैं अंधा था; तुमने ही मेरी आंखें ठीक कीं। लेकिन अब आंखों का मैं क्या करूं? इससे तो अंधा ही बेहतर था। आंख से रूप दिखाई पड़ता है। रूप पकड़ में नहीं आता। तुमने कृपा क्या मेरे ऊपर? तुमने मुझे कष्ट में डाल दिया।’ जीसस बहुत उदास हो गए।
जीसस वापस लौटने लगे गांव से, तो उन्होंने छत पर देखा कि एक आदमी आधा छत से बाहर लटक रहा है। उसके मुंह से फसू कर गिर रहा है। उन्होंने उसे आवाज दी कि हद हो गई! क्या इतना नशा करते हो? उस आदमी ने आंख खोली; उसने कहा, ‘क्या तुम जीसस हो? मैं तो मर गया था, तुमने मुझे जिलाया। अब मैं जीवन का क्या करूं? तुम मेरे मित्र नहीं, दुश्मन हो। मैं मर गया था, तुमने मुझे जीवन दिया। अब मैं जीवन का क्या करूं? इसे भुलाने की कोशिश कर रहा हूं।’
जिनके पास है--वे दुखी हैं। जिनके पास नहीं है-वे दुखी हैं। तुमने सुखी आदमी देखा है? सुखी आदमी तुम्हें कहीं मिलेगा नहीं। और कभी मिल जाएगा, तो तुम भरोसा न करोगे कि यह आदमी हो सकता है। इसलिए कोई भरोसा नहीं करता है कि जीसस कभी हुए! कोई भरोसा नहीं करता है कि बुद्ध कभी हुए। कोई भरोसा नहीं करता कि कृष्ण कभी हुए। हमारा मन यही होता है कि सब कपोल-कल्पनाएं हैं। हम भलीभांति जानते हैं कि सुख हो कैसे सकता है! दुख ही दुख है। पर एक बार अगर तुम दुख में आंख गड़ा कर देखोगे, तो तुम्हें दुख का कारण दिखाई पड़ जाएगा।
तुम्हारी निराशा का कारण--तुम्हारी आशा है। सोचो, कोई आशा न हो, तो क्या तुम्हें कोई निराश कर सकेगा? तुम्हारी गरीबी का कारण--धन की वासना है। अगर धन की वासना न हो, तो क्या तुम्हें कोई गरीब कर सकेगा? तुम्हारा अपमान तुम्हारे सम्मान की आकांक्षा है। सम्मान की आकांक्षा न हो, तो कौन तुम्हें अपमानित कर सकता है?
हर दुख के पीछे--तुम्हीं कारण हो। तुमने कुछ मांगा है, उससे तुम दुखी हो। तुम मांग छोड़ दो, दुख खो जाएगा।
तो बुद्ध ने कहा है, ‘तृष्णा दुष्पूर है।’ वह कभी भरती नहीं। और न भरे होने से सदा दुख बना रहता है। तुम तृष्णा छोड़ दो। तृष्णा दुख का मूल है। और अगर तुम तृष्णा को एक क्षण को भी छोड़ दो, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि दुख निरोध का मार्ग तुम्हारे हाथ में आ गया है। तृष्णा दुख का मार्ग है; तृष्णा-मुक्त, तृष्णा-रिक्त, तृष्णा-शून्य चेतना दुख-निरोध का मार्ग है।
तुमने अब तक वासना के रास्ते पर ही यात्रा की है। और तुम जब भी चले--लोभ से चले। जब भी उठे-लोभ से उठे। तुमने प्रार्थना भी की, तो कुछ मांगा! तुम्हारी प्रार्थना भी वासना थी। तुमने ध्यान भी किया, तो आकांक्षा थी; तुमने ध्यान से भी कुछ फल पाना चाहा। तुम्हारे सभी कृत्य तृष्णा के रास्ते पर सीढ़ियां बनते हैं।
तुम्हारा एक भी कृत्य ऐसा नहीं है, जिसे तुमने तृष्णा के रास्ते को छोड़ कर किया हो। और जिस दिन तुम ऐसा एक भी कृत्य कर सकोगे--छोटे से छोटा कृत्य--सांस लेने का भी--तृष्णा से शून्य, उस दिन तुम्हें चौथी दशा का पता चल जाएगा कि दुख-निरोध है। उसे बुद्ध निर्वाण कहते हैं, महावीर कैवल्य कहते हैं।
पहला तो काम है कि मूर्च्छा टूटे; तुम दुख को देख पाओ। दूसरा काम हैः दुख का साक्षात्कार-तप। तीसरा काम है; दुख के कारणों की तलाश। और बहुत कारण नहीं हैं। एक ही कारण है। सभी दुखों के मूल में एक ही कारण है, वह है-तुम्हारी तृष्णा। और तब तृष्णा का विसर्जन-मार्ग है।
और जिस दिन तृष्णा, शून्य हो जाती है-एक क्षण को भी ऐसी घड़ी आ जाती है कि आकाश में कोई बादल न हो, तुम्हारे मन में कोई तृष्णा न हो, अचानक तुम पाते हो कि तुम मुक्त हो। उस दिन तुम भरोसा करोगे कि बुद्ध हुए हैं। उस दिन तुम्हें हैरानी होगी कि इतने लोग हैं, इतने थोड़े बुद्ध क्यों हुए! इतना बड़ा है संसार, इतने थोड़े लोग निर्वाण को क्यों उपलब्ध हुए? उस दिन तुम्हें चिंता यही होगी।
जीसस का एक बहुत अनूठा वचन है। ईसाइयों ने इसका भी उल्लेख नहीं किया है। सूफियों ने उसको इकट्ठा किया है। सूफियों के पास जीसस के कई बहुमूल्य वचन हैं। एक वचन है कि ‘जिस दिन तुम पाओगे, बहुत बेचैन हो जाओगे। बेचैनी के बाद फिर चित्त शांत होगा।’... जिस दिन तुम पाओगे, बहुत बेचैन हो जाओगे। शब्द बड़े कठिन हैं। क्योंकि तुम तो सोचते हो, जब तक नहीं पाया, तब तक बेचैनी है।
जिस दिन पाओगे, बहुत बेचैन हो जाओगे; फिर बेचैन आएगा। बेचैनी यह होगी कि जिस दिन तुम पा लोगे-तृष्णा-शून्य क्षण, उस दिन तुम बेचैन हो जाओगे-सारे जगत के लिए कि यह क्या हो रहा है! यह क्या पागलपन हो रहा है? ये लोग क्या कर रहे हैं? जो बुद्ध हो सकते हैं, जो महा-बुद्धत्व को पा सकते हैं, जिनकी संपदा जिनके भीतर है, वे भिखारी बने रास्तों पर खड़े हैं; वे रो रहे हैं, उनकी आंखें .जार-.जार आंसू गिरा रही हैं। उनका हृदय सिवाय पीड़ा के और किसी चीज से भरा नहीं है, जो कि आनंद के सागर हो सकते हैं!
जिस दिन तुम पाओगे-जीसस ठीक कहते हैं-बड़ी बेचैनी होगी। तुम हैरान होओगे चारों तरफ देखकर कि यह क्या हो रहा है! यह संसार क्या है?-एक महान विक्षिप्तता। फिर धीरे-धीरे तुम चैन को उपलब्ध होओगे। पहला आघात तो बड़ा बेचैन करने वाला होगा।
अभी तुम विश्वास नहीं कर पाते कि बुद्ध हुए हैं। लगता है कि पुराण-पुरुष हैं। कहानी है; हुए नहीं होंगे, गढ़े। वैज्ञानिक यही कहते हैं। पदार्थवादी यही कहते हैं-कि ये सिर्फ मनुष्य की आकांक्षाएं हैं। ऐसा, मनुष्य चाहता है। बुद्ध कभी हुए नहीं हैं। यह गौतम सिद्धार्थ नाम का व्यक्ति हुआ भी हो। लेकिन यह जो महानिर्वाण की बात है, यह कल्पना है। आदमी ऐसा चाहता है, इसलिए उसने यह आरोपित कर लिया है!
मनोवैज्ञानिक कहते हैंः यह घटना घटी नहीं। फ्रायड कहता है कि सुख हो ही नहीं सकता।
और जहां तक तुम्हारा संबंध है, फ्रायड सही है। और जहां तक तुम्हारा संबंध है, बुद्ध कल्पित हैं, पुराण-पुरुष हैं, मिथ-ऐतिहासिक नहीं हैं, भरोसे योग्य नहीं हैं। कैसे भरोसा करोगे? तुम जानते हो अपने को, पड़ोसियों को, मित्रों को, प्रियजनों को। यहां कहीं भी सुख की एक किरण नहीं फूटती। और बुद्ध कहते हैं, ‘सुख का महासूर्य, आनंद का महासूर्य उदित हुआ है।’ भरोसा नहीं आता है। क्योंकि भरोसा हमें उसी पर आता है, जिसका हमें थोड़ा-सा स्वाद है।
जिस दिन तुम तृष्णा से शून्य एक क्षण को भी हो जाओगे-वही ध्यान का क्षण है, उसी क्षण तुम पाओगे कि बुद्ध हुए। उस दिन शेष सब इतिहास फीका और पागलों का हो जाता है; सिर्फ बुद्ध का होना ही शाश्वत, सिर्फ बुद्ध का होना ही सत्य रह जाता है।
लेकिन बुद्ध के चार आर्य-सत्यों में मैं पांचवां जोड़ता हूं। वह इसलिए जोड़ता हूं क्योंकि वे चार अगर तुमने पांचवें के बिना समझे, तो तुम समझ ही न पाओगे।
अगर ये चार सिद्धांत होते-दर्शन-शास्त्र के, तब कोई कठिनाई न थी। समझ लेते-गणित की तरह। लेकिन ये चार अनुभव हैं-सिद्धांत नहीं। इनकी प्रयोगशाला तुम्हें बनना पड़े। यह कोई शास्त्र और तर्क तुम्हें नहीं समझा सकते। यह तुम ही जानोगे तो पहचानोगे। और उसके लिए पांचवां आर्य-सत्य मैं जोड़ता हूं कि तुम जागो; तुम जागने का उपाय करो।
तुम्हारी मूर्च्छा इतनी गहरी है कि तुम दुख में भी सोए रहते हो, सुख में भी सोए रहते हो। तुम सोए-सोए ही चलते हो। तुम्हारा जीवन एक लंबी निद्रा है। तुमने कभी ख्याल किया! तुमने सोए-सोए किए गए कुछ कृत्यों का ख्याल किया है? ... कभी तुम कोई एक किताब पढ़ते हो, पूरा पेज पढ़ जाते हो। पढ़ा तुमने जरूर। अचानक तुम्हें ख्याल आता है कि बिल्कुल नहीं पढ़ा, जैसे तुम नींद में गुजर गए! ‘पढ़ा नहीं’ यह भी नहीं कह सकते, क्योंकि तुम एक-एक शब्द पढ़े। ‘पढ़ा’, यह भी नहीं सकते, क्योंकि एक भी शब्द याद नहीं आता। पूरा पृष्ठ जैसे कोरा छूट गया। आंखें तो गुजरीं, लेकिन तुम कहीं सोए रहे।
कई बार लगता है कि तुम किसी से बात कर रहे हो। सुनते मालूम पड़ते हो। घड़ी भर बाद में ख्याल आता है कि तुमने कुछ भी नहीं सुना। क्या हो रहा था, क्या कहा जा रहा था, चूक गया। तुम नींद में थे।
तुम भोजन करते हो-नींद में; चलते हो, उठते हो, बैठते हो-तुम सब कुछ नींद में कर सकते हो। ऐसा कोई कृत्य नहीं है-सामान्य जीवन का, जो नींद में न किया जा सके। सिर्फ एक घटना है-ध्यान की, जो नींद में नहीं की जा सकती। बाकी सब किया जा सकता है। इसलिए ‘ध्यान’ सूत्र है। नींद की दुनिया से जागरण की दुनिया में जाने की वही एकमात्र किरण है।
जैसे अंधेरे घर में छपरैल के किसी छेद से सूरज की एक किरण भीतर आती हो, सब अंधकार है-ऐसा ही तुम्हारा पूरा जीवन निद्रा है। बस, एक छोटी-सी किरण ध्यान की अगर तुम पकड़ लो, तो तुम उस अंधकार के बाहर हो सकोगे।
ध्यान यानी अमूर्च्छा।
ध्यान भी तुम मूर्च्छित कर सकते हो। बहुत लोग कर रहे हैं। बैठे माला फेरते रहते हैं। अंगुलियां चलती रहती हैं; मन कहीं और भटकता रहता है। अचानक घड़ी भर बाद ख्याल आता है कि क्या कर रहे थे, उसका कुछ पता नहीं। कितनी माला, कितने गुरिए, उसका कुछ पता नहीं।
लोग गीता पढ़ रहे हैं, मंदिर-मस्जिदों में प्रार्थना, नमाज कर रहे हैं-सब नींद में चल रहा है।
मुल्ला नसरुद्दीन नमाज पढ़ने गया। लोग नमाज के लिए झुके, तो उसने सामने वाले आदमी का कुरता झटका। उस आदमी ने कहा, ‘क्या करते हो?’ उसने कहा, ‘मैं क्या करूं। मेरे पीछे वाला मेरा कुरता झटक रहा है, तो मैंने समझा कि शायद, इस मस्जिद में ऐसा नियम हो!’ नसरुद्दीन का कुरता जरा ऊपर था, तो पीछे वाले ने उसे ठीक कर दिया था, तो उसने सामने वाले का झटका। उसने कहा, ‘पूछना हो कारण, तो पीछे वाले से पूछो।’
बस, लोग अंधे की तरह अनुकरण कर रहे हैं। तुम मंदिर भी चले जाते हो-किसी के पीछे। तुम किसी के पीछे मंदिर के दुश्मन भी हो जाते हो। कोई तुम्हें आस्तिक बना देता है; कोई तुम्हें नास्तिक बना देता है। तुम नींद में कितनी यात्रा करते हो! कोई कुछ कह देता है, वह तुम्हें पकड़ लेता है। कोई उसके विपरीत कह देता है, वह तुम्हें पकड़ लेता है।
तुम एक गुरु के द्वार के दूसरे, दूसरे से तीसरे-भटकते रहते हो। ऐसा जन्मों से चल रहा है। यह यात्रा कोई नई नहीं है। तुमने बहुत द्वार खटखटाए। सिर्फ एक द्वार तुमने कभी नहीं खटखटाया-वह तुम्हारा अपना द्वार है। तुमने बहुतों की सुनी, सिर्फ एक की तुमने कभी नहीं सुनी-वह तुम्हारे भीतर छिपी हुई जागृति की संभावना है। तुमने सब किया, सिर्फ एक काम तुमने कभी नहीं किया-होश से तुमने कभी कुछ नहीं किया। और उसके बिना सब किया व्यर्थ है; किया न किया बराबर है।
जागो। और जागने के लिए सबसे सुगम स्थिति दुख की है। क्योंकि सुख में ज्यादा बेहोशी है। सुख में तो जागना बड़ा मुश्किल है। इसलिए लोग कहते हैंः ‘दुख में तो ईश्वर याद भी आ जाए, सुख में कभी याद नहीं आता।’
जब तुम सुखी होते हो, तो ईश्वर को बिल्कुल भूल जाते हो। दुख में, शायद पीड़ा में, आदमी थोड़ा चौंकता है; नींद थोड़ी टूटती है; करवट थोड़ी बदलती है। इसलिए दुख का उपयोग करो।
सभी ज्ञानियों ने दुख का उपयोग किया है-जागने के लिए। दुख का ऐसे ही उपयोग करो, जैसे पैर में कांटा लग जाए, तो तुम दूसरे कांटे से उस कांटे को निकाल लेते हो। फिर तुम दोनों कांटे फेंक देते हो। दुख कांटा है, उसका उपयोग करो-कांटे को निकालने के लिए।
दुख में जागो। दुख में तुम न जागोगे, तो फिर कोई उपाय जागने का नहीं है। जब शरीर दीन-हीन है, पीड़ा से भरा हो, अस्वस्थ हो, बीमार हो, बिस्तर पर पड़े हो, तब तुम न जागे, तो तुम जब स्वस्थ होओगे, शरीर वासना से भरेगा, आकांक्षाएं बल लेंगी, शक्ति भीतर होगी-तृष्णा में दौड़ने की, तब बहुत मुश्किल होगी।
छोटे बच्चे से लेकर बूढ़े तक-तृष्णा का खेल चल रहा है।
एक दुकान में ऐसा हुआ। एक स्त्री ने बहुत सामान खरीदा। छोटा बच्चा उसके साथ था। दुकानदार बड़ा प्रसन्न था; उसने छोटे बच्चे को कहा, ‘पप्पू ये चिलगोजे रखे हैं, मुट्ठी भर कर ले लो।’ वह लड़का खड़ा राह, उसने चिलगोजे लिए नहीं। उस दुकानदार ने कहा, ‘अरे, तुम्हारी मां कुछ भी न कहेगी। तुम ले लो। और जब मैं कह रहा हूं, तो तुम क्या रुके हो?’ फिर भी वह रुका रहा। दुकानदार ने कहा, ‘ऐसा बच्चा मैंने नहीं देखा! बच्चे तो बिना कहे मुट्ठियां भर लेते हैं!’ तो उसने खुद मुट्ठी भर कर चिलगोजे बच्चे के खीसे में भर दिए। बाहर आकर बच्चे की मां ने पूछा, ‘पप्पू, चिलगोजे तुझे बहुत प्रिय हैं। हद कर दी तूने-संयम की। तू कैसे संयम साधे रहा!’ उसने कहा, ‘उसकी मुट्ठी बड़ी थी। वह कह रहा था, मुट्ठी भर लो। मेरी मुट्ठी में कम आते।’
छोटे बच्चे हैं, लेकिन गणित तो वासना का ही है। छोटे से छोटे बच्चे की भी तृष्णा शुरू हो गई। फिर मरते दम तक ‘मुट्ठी बड़ी’ का गणित चलता जाता है। कितनी बड़ी मुट्ठी हो जाए-तुम मर जाते हो-मुट्ठी खाली ही रहती है।
जागो-दुख में। इसलिए जनक जैसे लोग पृथ्वी पर बहुत कम हुए। महावीर जैसे लोग काफी हुए। इस बात से तुम्हें समझ में आ जाएगा। क्योंकि दुख में जागना आसान हैः महावीर की प्रक्रिया आसान है। जनक की प्रक्रिया बहुत कठिन है; सुख में जागना बहुत कठिन है। इसलिए जनक जैसे आदमी अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। एक कोई जनक, कोई कृष्ण-ऐसे एक-दो नाम हैं पृथ्वी पर, जिन्होंने महल नहीं छोड़ा, जिन्होंने साम्राज्य नहीं छोड़ा, जो स्वर्ण की दुनिया में खड़े-खड़े जागे। बुद्ध और महावीर ने छोड़ा घर-द्वार। जैनों के सभी तीर्थंकर घर छोड़ कर गए।
प्रक्रिया क्या है? छोड़ कर जाने का अर्थ हैः सुख से हटे, दुख में प्रविष्ट हुए। ताकि दुख सब तरफ से जगाने में सहयोगी हो जाए। तब जाग पाए। जनक जैसा व्यक्ति अद्वितीय है। महावीर और बुद्ध अद्वितीय हैं, लेकिन महावीर और बुद्धों में जनक जैसा व्यक्ति अद्वितीय है; सुख में जागा।
तुम थोड़ा सोचना, जब तुम सुख में हो, तब तो जागना... । कोई जागना भी चाहे, तो तुम कहोगेः ‘अभी ठहरो। बड़ा सुख का सपना देख रहा हूं, थोड़ी देर बाद जगाना। इतनी जल्दी भी क्या है?’
जब दुख-स्वप्न होता है, तब तुम नहीं जाग रहे हो। नाइटमेयर चल रहा है-भयंकर राक्षस छाती पर चढ़े हैं, तब तुम नहीं जाग रहे हो, तो जब किसी सुंदरी के साथ तुम सपने में सो रहे हो, तब तुम कैसे जागोगे? तब मुश्किल होगा। इसलिए जनक जैसे उल्लेख कम हैं। पर ध्यान रहेः जनक की साधना ज्यादा कठिन है। महावीर की साधना कितनी ही कठिन मालूम पड़े, जनक की साधना के मुकाबले में कठिन नहीं हो सकती।
क्योंकि सुख तो महातंद्रा है। सुख में तो जागने का मन नहीं होता; ख्याल भी नहीं उठता। दुख तपश्चर्या बन जाता है। लेकिन कोई चाहे तो सुख को भी तपश्चर्या बना सकता है। इसलिए मैं निरंतर कहता रहा हूं कि दुख का भी उपयोग करो, सुख का भी उपयोग करो। कौन जाने, क्या तुम्हारी नियति हो-महावीर की या जनक की। इसलिए मैं कहता हूं कि संभोग के क्षण भी जागने की कोशिश करो। क्योंकि वह सुख का गहरे से गहरा क्षण है। और अगर तुम उसमें जाग गए, तो दुनिया में फिर तुम्हें कोई भी सुला न सकेगा। फिर सोने का कोई उपाय न रहा।
दुख का भी उपयोग करो, सुख का भी उपयोग करो। कौन जाने, कैसी तुम्हारी नियति हो, कैसा तुम्हारा स्वभाव हो। चुनने की भी कोई जरूरत नहीं हैं। जीवन में दोनों हैं-दोनों काफी है। बीमारी भी है, स्वास्थ्य भी है, रोग भी है; सुंदर भी है, कुरूप भी है-दोनों में जागो। सुख-दुख दोनों को किनारा बना लो-तुम्हारी नदी जागरण की, दोनों के बीच बहे।
इसलिए कहीं भी जाने की जरूरत नहीं है। न जंगल जाने की... । दुख की तलाश क्या करनी है? काफी है-वैसे ही काफी है। सुख की झलकें हैं, दुख की झलकें हैं, दोनों घट रही हैं। तुम दोनों का एक ही उपयोग करो-कि तुम दोनों से अपने होश को संभालो। जो भी आए, तुम से आंख बचाकर न निकल पाए। लेकिन आंख बंद कर लेने का मन होता है।
एक अदालत में एक स्त्री भागी हुई पहुंची और उसने कहा, ‘पकड़ो उस आदमी को; वह अभी बाहर ही है। उसने मुझे रास्ते पर पकड़ लिया; मेरा आलिंगन किया और चुंबन किया। और ठीक अदालत के सामने?’ मजिस्ट्रेट ने पूछा, ‘उसका हुलिया? वह आदमी कैसा लगता है? कितना ऊंचा है? कैसी आंख, कैसा हाथ-पैर?’ उस स्त्री ने कहा, ‘यह बहुत मुश्किल है बताना।’ उस मजिस्ट्रेट ने कहा, ‘उसने तुम्हें आलिंगन किया और चूमा और तू उसकी खबर भी नहीं दे सकती?’ उसने कहा, ‘जब उसने चुंबन किया, तब पुरानी आदत के हिसाब से-मैंने आंखें बंद कर लीं। क्योंकि जब भी मुझे कोई चुंबन करता है, तो मैं आंख बंद कर लेती हूं।’
आम तौर से स्त्रियां आंख बंद कर लेती हैं। सुख इतना मधुर है कि आंख बंद करके ही उसका स्वाद ठीक से लिया जा सकता है।
सुख में सभी आंख बंद कर लेते हैं। पर तुम सुख में भी आंख खुली रखो; दुख में तो रखो ही।
आंख खुली रखना तुम्हारी साधना बन जाए। जल्दी ही बुद्ध के चार सत्य तुम्हें दिखाई पड़ेंगे। क्योंकि पहला सत्य-जागने का-तुमने पूरा कर दिया।
क्रांति असंभव नहीं है। कठिन बहुत है। क्योंकि नींद में तुम्हारा बहुत इनवेस्टमेंट है; बहुत तुमने न्यस्त किया है।
नसरुद्दीन को उसकी पत्नी उठा रही है। वह कहता है, ‘अभी नहीं। ठहर, अभी नहीं।’ फिर घड़ी भर बाद उसने उठाया। मुल्ला ने कहा, ‘सब नष्ट कर दिया। एक आदमी सपने में मुझे निन्यानबे रुपये दे रहा था। और मैं जिद पर अड़ा था कि सौ। और बेवक्त तूने जगा दिया। फिर कितनी ही आंख बंद की, वह दिखाई नहीं पड़ता। वे निन्यानबे भी गए। मैंने उससे बाद में यह भी कहा, कि अच्छा चलो, निन्यानबे ही सही, अट्ठानबे ही सही! आखिर एक तक आ गया। पर वह दिखाई नहीं पड़ता। बेवक्त तूने जगा दिया। जरा रुक जाती-लेकिन तेरी पुरानी आदत है-बेवक्त... ।’
जब तुम सपना मधुर देखते हो, तब तुम बुद्ध की बात सुनना भी न चाहोगे। क्योंकि अभी निन्यानबे... सौ के करीब पहुंच रहे हो! सपना पूर्णाहुति पर आ रहा था। लेकिन सपना सपना है-चाहे सुखद हो, चाहे दुखद। सपना झूठ है। झूठ के सुखद होने का कोई अर्थ नहीं है। झूठ अंततः दुखद है। झूठ का कोई मूल्य नहीं है। वह सिर्फ जीवन को व्यर्थ करने का उपाय है।
ऐसा पांचवां सत्य-जागरण का-स्मरण रहे; वह तुम्हारी जीवनचर्या का मूलसूत्र बन जाए। जैसे माला के मनके में धागा पिरोया होता है, ऐसे तुम्हारे सब कृत्यों में जागरण की चेष्टा पिरो जाए। उठो, तो चेष्टा रहे कि होश से चलूं; पढ़ो तो चेष्टा रहे कि होश से पढूं; सुनो तो चेष्टा रहे कि होश से सुनूं। जो भी तुम करो... क्षुद्र काम हैं जीवन में-क्षुद्र के अतिरिक्त और कोई काम है भी नहीं-इन्हीं सभी क्षुद्रताओं का जोड़ जीवन है। तुम जो भी करो, होश से करो। एक दिन... किसी भी दिन यह घट सकता है कि तुम्हारी आंखें होश से भरी हों, तो प्रकाशित हो जाएंगी।
उस प्रकाश के क्षण में तुम्हें बुद्ध के चार आर्य सत्य दिखाई पड़ जाएंगे। फिर वे सत्य बुद्ध के नहीं होंगे, तुम्हारे अपने होंगे। और जब तक कोई सत्य तुम्हारा अपना न हो जाए, तब तक शब्द है, तब तक सत्य नहीं है।
जैसे ही कोई सत्य तुम्हारे अपने अनुभव का सत्य हुआ, वैसे ही तुम दूसरे हो गए।
जीसस ने कहा हैः ‘सत्य तुम्हें मुक्त कर देगा।’ सिद्धांत तुम्हें बांध लेते हैं, सत्य तुम्हें मुक्त कर देगा। लेकिन सत्य को अपने अनुभव से पाया जाता है; सिद्धांत दूसरों से मिल सकते हैं।

आज इतना ही।  

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